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मूल
१. संजोगा विप्यमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो । विनयं पाउकरिस्सामि आणुपुव्विं सुणेह मे ।। २. आणानिदेसकरे
गुरुणमुववायकारए । इंगियागार संपन्ने से विणीए त्ति वुच्चई ।। ३. आणा ऽनि सकरे
गुरुणमणुववायकारए । पडिणीए असंबुद्धे अविणीए त्ति वुच्चई || ४. जहा सुणी पूइकण्णी
निक्कसिज्ज सब्बसो एवं दुस्सील पडिणीए मुहरी निक्कसिज्जई || ५. कणकुण्डगं चइत्ताणं विट्ठ भुंजइ सूयरे । एवं सीलं चइत्ताणं दुस्सीले रमई मिए ।। ६. सुणियाऽभावं साणस्स सूयरस्स नरस्स य । विणए ठवेज्ज अप्पाण इच्छन्तो हियमप्पणी ।। ७. तम्हा विणयमेसेज्जा
सील पडिलमे जओ। बुखपुत नियागट्टी न निक्कसिज्जइ कण्हुई ।। ८. निसन्ते सियाऽमुहरी बुद्धाणं अन्तिए सया । अनुत्ताणि सिक्खेज्जा निरट्ठाणि उ वज्जए ।
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चढमं अज्झयणं : पहला अध्ययन विणयसुयं विनयश्रुत
संस्कृत छाया
संयोगाद् विप्रमुक्तस्य अनगारस्य भिक्षोः । विनयं प्रादुष्करिष्यामि आनुपूर्व्या शृणुत मम ।।
आज्ञानिर्देशकरः
गुरूणामुपपातकारकः । इंगिताकारसम्प्रज्ञः
स विनीत इत्युच्यते ।।
अनाज्ञानिर्देशकरः गुरूणामनुपपातकारकः । प्रत्यनीको सम्बुद्धः अविनीत इत्युच्यते ।
यथा शुनी पूतिकर्णी निष्काश्यते सर्वशः । एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः मुखरो निष्काश्यते ।।
कणकुण्डगं त्यक्त्वा विष्ठां भुंक्ते शूकरः। एवं शीलं त्यक्त्वा दुःशीले रमते मृगः ||
श्रुत्वा अभावं शुनः शूकरस्य नरस्य च। विनये स्थापयेदात्मानम् इच्छन् हितमात्मनः ।। तस्माद् विनयमेषयेत् शीलं प्रतिलभेत यतः । बुद्धपुत्रो नियागार्थी न निष्काश्यते क्वचित् ।।
निशान्तः स्यादमुखरः बुद्धानामन्तिके सदा । अर्थयुक्तानि शिक्षेत निरर्थानि तु वर्जयेत् ||
हिन्दी अनुवाद
जो संयोग से मुक्त है, अनगार है, भिक्षु है, ' उसके विनय को क्रमशः प्रकट करूंगा। मुझे सुनो।
जो
गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता है',
そ
गुरु की शुश्रूषा करता है, गुरु के इंगित और आकार
को जानता है, वह 'विनीत' कहलाता है ।
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जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन नहीं करता, गुरु की शुश्रूषा नहीं करता जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है और इंगित तथा आकार को नहीं समझता है वह 'अविनीत' कहलाता है ।
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जैसे सड़े हुए कानों वाली कृतिया सभी स्थानों से निकाली जाती है, वैसे ही दुःशील, गुरु के प्रतिकूल वर्तन करने वाला और वाचाल भिक्षु" गण से निकाल दिया जाता है।
जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर विष्ठा खाता है, वैसे ही अज्ञानी भिक्षु शील को ४ छोड़कर दुःशील में रमण करता है।
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अपनी आत्मा का हित और सूअर की तरह ( हीनभाव) को सुनकर स्थापित करे ।
चाहने वाला भिक्षु कुतिया दुःशील मनुष्य के अभाव अपने आप को विनय में
इसलिए विनय का आचरण करे कि जिससे शील की प्राप्ति हो । जो बुद्धपुत्र ( आचार्य का प्रिय शिष्य ) और मोक्ष का अर्थी" होता है, वह कहीं से भी नहीं निकाला जाता।
भिक्षु आचार्य के समीप सदा प्रशान्त रहे, वाचालता न करे। उनके पास अर्थयुक्त पदों को सीखे और निरर्थक पदों का वर्जन करे।"
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