Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१३. सव्वगायपरिकम्मे सर्व शरीर की देखभाल (परिकर्म) से रहित रहे ।
१४. विभूसाविप्पमुक्के— विभूषा से रहित रहे ।
तत्त्वार्थसूत्र की श्रुतसागरीया वृत्ति मूलाराधना, भगवती आराधना, बृहत्कल्पभाष्य प्रभृति ग्रन्थों में कायक्लेश के गमन, स्थान, आसन, शयन और अपरिकर्म आदि भेदोपभेदों का वर्णन है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार कुछ कायक्लेश तप गृहस्थ श्रावकों को नहीं करना चाहिये ।
प्रतिसंलीनता-तप का छठा प्रकार है । प्रतिसंलीनता का अर्थ है— आत्मलीनता । पर भाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन बनाने की प्रक्रिया ही वस्तुत: संलीनता है । इन्द्रियों को, कषायों को, मन, वचन, काया के योगों को बाहर से हटाकर भीतर में गुप्त करना संलीनता है। प्रतिसंलीनता तप के चार प्रकार हैं— इन्द्रियप्रतिसंलीनता, कषायप्रतिसंलीनता, योगप्रतिसंलीनता, विविक्तशयनासनसेवना
तप के ये छह प्रकार बाह्य तप के अन्तर्गत हैं ।
आभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं, उनमें सर्वप्रथम प्रायश्चित्त है। आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है— जो पाप का छेदन करता है, वह प्रायश्चित्त है। पाप-विशुद्धि करने की क्रिया प्रायश्चित्त है । तत्त्वार्थराजवार्तिक' में लिखा है— अपराध का नाम प्राय: है और चित्त का अर्थ है शोधन। जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त हैं। मानव प्रमादवश कभी दोष का सेवन कर लेता है, पर जिसकी आत्मा जागरूक है, धर्म-अधर्म का विवेक रखती है, परलोक सुधार की भावना है, अनुचित आचरण के प्रति जिसके मन में पश्चात्ताप हैं, दोष के प्रति ग्लानि है, वह गुरुजनों के समक्ष दोष को प्रकट कर प्रायश्चित्त की प्रार्थना करता है। गुरु दोषविशुद्धि के लिए तपश्चरण का आदेश देते हैं । यहाँ यह समझना होगा कि प्रायश्चित्त की प्रार्थना और दण्ड में अन्तर है। दण्ड दिया जाता है। और प्रायश्चित्त लिया जाता है। दण्ड अपराधी के मानस को झकझोरता नहीं। दण्ड केवल बाहर अटक कर ही रह जाता है अन्तर्मानस को स्पर्श नहीं करता । दण्ड पाकर भी कदाचित् अपराधी अधिक उद्दण्ड होता है, जबकि प्रायश्चित्त में अपराधी के मानस में पश्चात्ताप होता है।
भूल करना आत्मा का स्वभाव नहीं अपितु विभाव है। जैसे शरीर में फोड़े-फुन्सी हो जाते हैं, वे फोड़ेफुन्सी शरीर के विकार हैं, वैसे ही अपराध मानव के अन्तर्मन के विकार हैं। जिन विकारों के कारण मानव
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तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीया वृत्ति ९ १९
मूलाराधना, ३।२२२-२२५
भगवती आराधना, २२१-२२५
वृहत्कल्पभाष्य वृत्ति, गाथा ५९५३
दिपडिम- वीरचरिया-तियाल जोगेसु णत्थि अहियारो ।
सिद्धंतरहसाणवि अज्झयणं देशविरदाणं ॥
भगवतीसूत्र २५/७
पांव छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं त्ति भण्णते तेणं ।
- वसुनन्दि श्रावकाचार, ३१२
—आवश्यकनियुक्ति २५०८
अपराधो वा प्रायः चित्तं शुद्धिः । प्रायसः चित्तं - प्रायश्चित्तं — अपराधविशुद्धिः ।
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— राजवार्तिक ९ २२/१