Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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कर स्थिर हो जाना, भयंकर जंगल में कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा होना, केशलुञ्चन करना आदि। जैसे मेहमान को निमंत्रण देकर बुलाया जाता है, वैसे ही साधक अपने धैर्य, साहस वृद्धि के हेतु कष्टों को निमन्त्रण देता है।
भगवतीसूत्र में जहाँ कायक्लेश तप का उल्लेख है, वहाँ पर २२ परीषहों का भी वर्णन है। कायक्लेश और परीषह में जरा अन्तर है। कायक्लेश का अर्थ है—अपनी ओर से कष्टों को स्वीकार करना। साधक विशेष कर्मनिर्जरा के हेतु अनेक प्रकार के ध्यान, प्रतिमा, केशलुञ्चन, शरीर-मोह का त्याग आदि को भाव से स्वीकार करता है। यह विशेष तप कायक्लेश कहलाता है। कायक्लेश में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है, जब कि परीषह में स्वेच्छा से कष्ट सहन नहीं किया जाता, अपितु श्रमण जीवन के नियमों का परिपालन करते हुए आकस्मिक रूप से यदि कोई कष्ट उपस्थित हो जाता है तो उसे सहन किया जाता है। आवश्यकचूर्णि' में लिखा है, जो सहन किये जाते हैं, वे परीषह हैं।
कायक्लेश हमारे जीवन को निखारता है। उसकी साधना के अनेक रूप आगमसाहित्य में प्राप्त हैं। स्थानांगरे में कायक्लेश तप के सात प्रकार बताये हैं—कायोत्सर्ग करना, उत्कुटुक आसन से ध्यान करना, प्रतिमा धारण करना, वीरासन करना, निषद्या-स्वाध्याय प्रभृति के लिए पालथी मारकर बैठना, दंडायत होकर खड़े रहकर ध्यान करना लगण्डशायित्व। औपपातिकसूत्र में कायक्लेश तप के चौदह प्रकार प्रतिपादित हैं
१. ठाणट्ठिइए-कायोत्सर्ग करे। ३. ठाणइए—एक स्थान पर स्थित रहे। ३. उक्कुडु आसणिए-उत्कुटुक आसन से रहे। ४. पडिमट्ठाई-प्रतिमा धारण करे। ५. वीरासणिए-वीरासन करे। ६. नेसिजे—पालथी लगाकर स्थिर बैठे। ७. दंडायए-दंडे की भाँति सीधा सोया या बैठा रहे। ८. लगंडसाई—(लगण्डशायी) लक्कड़ (वक्र काष्ठ) की तरह सोता रहे। ९. आयावए—आतापना लेवे। १०. अवाउडए-वस्त्र आदि का त्याग करे। ११. अकंडुयाए—शरीर पर खुजली न करे।
१२. अणिरठ्ठहए-थूक भी न थूके। १. भगवतीसूत्र शतक ८, उद्देशक ८ २. परिसहिज्जते इति परीसहा। -आवश्यचूर्णि २, पृ. १३९ ३. स्थानांग, ७। सूत्र ५५४ ४. औपपातिक, समवसरण अधिकार
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