Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अपराध करता है, उन्हें शास्त्रीय भाषा में प्रतिसेवन कहा है। भगवती और स्थानांगरे आदि में प्रतिसेवन के दस प्रकार बताये हैं—दर्प, प्रमाद, अनाभोग, आतुर, आपत्ति, शंकित, सहसाकार, भय, प्रद्वेष और विमर्श । प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं।
आभ्यन्तर तप का दूसरा भेद विनय है। जिसका मानस सरल होता है वही गुरुजनों का विनय करता है। जहाँ अहंकार का प्राधान्य है वहाँ विनय नहीं है। सूत्रकृतांग-टीका में विनय की परिभाषा करते हुए लिखा है—जिसके द्वारा कर्मों का विनयन किया जाता है वह विनय है। उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका में लिखा है—जो विशिष्ट एवं विविध प्रकार का नय/नीति है, वह विनय है तथा जो विशिष्टता की ओर ले जाता है, वह विनय है । दशवैकालिक में विनय को धर्म का मूल कहा गया है। जैन आगम साहित्य में विनय शब्द का प्रयोग हजारों बार हुआ है। जब हम आगम साहित्य का परिशीलन करते हैं, तो विनय शब्द तीन अर्थों में व्यवहृत मिलता है• १.विनय-अनुशासन,
२. विनय—आत्मसंयम (शील, सदाचार), ३. विनय-नम्रता एवं सद्व्यवहार।
उत्तराध्ययन में विनय का स्वरूप प्रतिपादित हुआ है। वह मुख्य रूप से अनुशासनात्मक है । गुरुजनों की आज्ञा, इच्छा आदि का ध्यान रखकर आचरण करना अनुशासनविनय है।
विनीत व्यक्ति असदाचरण से सदा भयभीत रहता है। उसका मन आत्मसंयम में लीन रहता है। अविनीत व्यक्ति सड़े कानों वाली कुतिया की तरह दर-दर ठोकरें खाता है। लोग उसके व्यवहार से घृणा करते हैं । विनीत गुरुजनों के समक्ष सभ्यतापूर्वक बैठता है। वह कम बोलता है। बिना पूछे नहीं बोलता। इस प्रकार वह आत्मसंयम
और सदाचार का पालन करता है। विनय का तीसरा अर्थ नम्रता और सद्व्यवहार है। दशवैकालिक' में लिखा है—गुरुजनों के समक्ष शयन या आसन उनसे कुछ नीचा रखना चाहिये। नमस्कार करते समय उनके चरणों का स्पर्श कर वन्दना करे। उसके किसी भी व्यवहार में अहंकार न झलके। जब गुरुजन उसे बुलायें, उस समय आसन पर बैठा रहे । उस सयम अंजलिबद्ध होकर वन्दन की मुद्रा में पूछे—क्या आज्ञा है ? गुरुजनों की आशातना न करे।
भगवती में विनय के सात प्रकार बताये हैं—१. ज्ञानविनय, २. दर्शनविनय, ३. चारित्रविनय, ४. मनोविनय,५. वचनविनय,६. कायविनय,७. लोकोपचारविनय।
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भगवती २५/७ स्थानांग १० भगवती शतक २५, उद्देशक ७ सूत्रकृतांग टीका १, पत्र २४२ उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका, पत्र १९ दशवकालिक ९।२।१७ भगवती २५/७
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