Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दोनों ही सद्गति को प्राप्त होते हैं। सर्वसम्पत्करी भिक्षा ही वस्तुत: कल्याणकारी भिक्षा है। भिक्षाचरी के अनेक भेद-प्रभेदों का उल्लेख उत्तराध्ययन' स्थानांग', औपपातिक आदि में हुआ है। उत्तराध्ययन, पिण्डनियुक्ति आदि में भिक्षुक को अनेक दोषों से बच कर भिक्षा लेने का विधान है।
रसपरित्याग-तप का चतुर्थ प्रकार है। इस का अर्थ है—प्रीति बढ़ाने वाला “रसम् प्रीति विवर्द्धकम्", जिसके कारण भोजन में प्रीति समुत्पन्न होती हो वह रस है। भोजन के छह रस माने गये हैं-कटु, मधुर, आम्ल, तिक्त, कषाय एवं लवण। इन रसों के कारण भोजन स्वादिष्ट बनता है। सरस भोजन को मानव भूख से भी अधिक खा जाता है। रसयुक्त भोजन स्वादिष्ट, गरिष्ठ और पौष्टिक होता है। रस से सुपच भोजन भी दुष्पच बन जाता है। उत्तराध्यायनसूत्र में कहा है—रस प्रायः दीप्ति अर्थात् उत्तेजना उत्पन्न करते हैं । इसलिये उन रसों को विकृत कहा है। आचार्य सिद्धसेन ने विकृति की परिभाषा करते हुए लिखा है—घी आदि पदार्थ खाने से मन में विकार पैदा होते हैं। विकार उत्पन्न होने से मानव संयम से भ्रष्ट होकर दुर्गति में जाता है। अत: इन पदार्थों का सेवन करने वाले की विकृति और विगति दोनों होती हैं। इस कारण इन्हें विगयी (विकृति और विगति) कहा
पाँच इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना बहुत ही कठिन है। भारत के तत्त्वदर्शी मनीषियों ने कहा-"सर्वं जितं जिते रसे"—जिसने रसनेन्द्रिय को जीत लिया उसने संसार के सभी रसों को जीत लिया। यही कारण है, भगवती में साधक के लिए स्पष्ट निर्देश दिया है कि चाहे सरस आहार हो या नीरस, लोलुपता रहित होकर ऐसे खाए जैसे बिल में साँप घुसा रहा हो। साधक को आहार का निषेध नहीं है, पर स्वाद का निषेध है। आचारांग में उल्लेख है कि श्रमण को स्वादवृत्ति से बचने के लिए ग्रास को बायी दाढ़ से दाहिनी दाढ़ की ओर भी नहीं ले जाना चाहिये। वह स्वादवृत्ति रहित होकर खाए। इससे कर्मों का हल्कापन होता है। ऐसा साधक आहार करता हुआ भी तपस्या करता है। इस प्रकार साधु आहार करता हुआ कर्मों के बन्धन को ढीले करता है। यहाँ तक कि केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। यदि आसक्त होकर आहार करता है तो कर्मबन्धन कर लेता है। अतः रसपरित्याग को तप माना है।
कायक्लेश-तप का पांचवाँ प्रकार है। कायक्लेश का अर्थ शरीर को कष्ट देना है । कष्ट, एक स्वकृत होता है और दूसरा परकृत होता है। कितने ही कष्ट न चाहने पर भी आते हैं। देव, मानव और तिर्यञ्च सम्बन्धी ऐसे कष्ट जो स्वतः आ जाते हैं और दूसरे कष्ट उदीरणा करके बुलाये जाते हैं। जैसे आसन करना, ध्यान लगा १. उत्तराध्ययन ३०/२५
स्थानांग ६ ३. औपपातिकसूत्र, पृष्ठ ३८, २ ४. (क) उत्तराध्ययन २४/११-१२ (ख) पिण्डनियुक्ति, ९२-९३ ५. पायं रसा दित्तिकरा नराणं ........" -उत्तराध्ययन ३२/१० ६. (क) तत्र मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विगति हेतुत्वाद् वा विकृतयो, विगतयो। —प्रवचनसारोद्धारवृत्ति (प्रत्या. द्वार)
(ख) मनसो विकृति हेतुस्वाद् विकृतयः। -योगशास्त्र, ३ प्रकाशवृत्ति ७. भगवतीसूत्र ७१ ८. प्रवचनसार ३२७
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