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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
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क्रम मन्या
कालन
खण्ड
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Kushala Astrological Research Institute
SERIES NO I.
TRUILOKY. PRAKISHA
OF Shri Hemaprabha Suri The Disciple of Shri Devendra Suri
EDITED from manuscripts in Jain and Nagari
characters, with llindi commentary
BY
Ram Sarup Sharma Director, Kushala Astrological Research Institute
Model Town LAHORE.
And with English Foreword
BY
Dr. Banarsi Das Jain, M.A., Ph.D., (London). Reader in Hindi, University Oriental College,
Lahore.
F:yst Echrion
1946
500 copies
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श्रीदेवेन्द्रमूरिशिष्यश्रीहेमप्रभसूरिविरचितः त्रैलोक्यप्रकाशः
जैनदेवनागरीलिपिलिखितानि पत्रादर्शपुस्तकानि पर्यालोच्य पाश्चनदप्रान्तस्थलवपुरोपकण्ठ
वर्तिमाडलटाऊनवसत्यन्तर्गत- श्रीकुशमस्ट्रालोजोकल रिसर्चइन्स्टीच्यूटर इत्याख्यस्य अनुसन्धानकार्यालयस्य
अध्यक्षण ज्योतिर्विद्याविशारदेन आचार्यश्रीरामस्वरूपशमणा
परिष्कृत्य IR नानाविगाहिन्या भूमिकया हिन्दीव्याख्यया च
सह सम्पादितः 0 तस्येदं प्रथम संस्करणम् १६४४ ५०० प्रतयः ।
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प्रकाशक-बाबा जीवनदत्त अध्यक्ष इण्डियन इऊस, गणपत रोड, लाहौर। मुखरः-लाखा जीवनान इण्डियन नेशनल प्रेस, गणपत रोड, लाहौर। इस पुस्तक का कागज, गैसर्ज रामलाल कपूर ऐण्ड सन्म से कण्ट्रोल रेट
पर प्राप्त पिया।
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समर्पणम् जनताजनितानन्दो
गुग्गगणकन्दो वदान्यमर्धन्यः । विलमति बी. ए. विरुदी
गिरिधारीदाससन्महन्तोऽयम् ॥ १ ॥ भुम्मनशाहस्थाना
ध्यक्षो नियतेन्द्रियकविख्यातः। एम्. एल. ए. विग्चरितः
सद्गुगाभग्निश्चिरं जयतु ॥ २॥ तम्योन्माहशनानां
कृतज्ञतापाशसन्नद्धः । रामस्वरूपशर्मा
समपयत्येतमुपहारम् ॥ ३॥
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उज्ज्वल कोमलप्रकृतिः कृती मनस्त्री शरण्यमूर्धन्यः । विविधोपकारयृपो
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प्राच्यप्रतीच्यविद्या
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विलसति लक्ष्मणरूपोऽयम् ॥ १ ॥
नन्दननिष्टविहारिविबुधेन्द्रः ।
प्राप महाविद्यालय
सकलाध्यक्षः शतं समा जयतु ॥ २ ॥ 0460030300303030-30
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l'nmipal, ORIENTAL COLLEGE, LAHORE Who prrtormed the opening Ceremony of the Kushal Astrological Institute,
LAHORE.
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ॐ श्रीगणेशाय नमः
विषय-सूची
विषय
१-१०
१४-१६
मंगलाचरण लमप्रशंसा लग्नाश्रितषड्वर्गशुद्धिप्रशंमा लग्नप्रयोजन प्रन्थनामप्रयोजन सौम्य-कर ग्रह नाम बुध-इन्दु का पाप ग्रह के साथ पड़ने का फल तथा स्त्री पुरुष संज्ञा प्रहों की अवस्था स्त्रीपह निश्चय होने पर प्रहों का अवस्थाविशेष प्रह बल में मार नाम वर्णन प्रहों की जलचरादि संज्ञा प्रहों की प्रात: कालादि संज्ञा
दृष्टिसंज्ञा , प्रकृतिसंज्ञा , रससंज्ञा , न्यूनाधिकबलसंज्ञा
द्विपदादिसंज्ञा , विप्रादिवर्णसंज्ञा
राजा श्रादिसंज्ञा ., प्राकृतिसंज्ञा ,, रक्तादिवर्णमंज्ञा ., ह्रस्वादिसंज्ञा ., मर्त्यलोक दिसंज्ञा " सुवर्णादि धातु संज्ञा " जलादिस्थानसंज्ञा
३२-३३
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________________
माम स्वामी वस्तुएं शनि स्वामी बुध-शुक्र सूर्य-चन्द्र-बुध "
" , "
४१-४२
३५
पर.
जीवचिन्तानिश्चय होने पर जीवचिन्तासंज्ञा जीवादिचिन्तन में विशेष दृढता भाव दौर्बल्य विचार जीवादि विन्तन में राजादि विशेष विचार ग्रहों का दशाज्ञानविचार ग्रहों के स्वामी मांस आदि के स्वामी झान भादि के स्वामी प्रहों की नीरसादिसंज्ञा प्रहों का छ: बल विचार , स्थिति वश से बलविचार , दिन रात्रि बल विचार ,, तिथिसम्मन्ध से बलविचार , प्रत्येक चार घंटे के बाद बलविचार ., वर्षादिवाविचार , दृष्टिविचार ., वक्रो मागी श्रादि फल विचार , दशाओं का विशेष बल , नोचादि में स्थित होने से अशुभ , दीप्तादि अवस्था विचार , मंत्री-शत्रु विचार राहु का उच्चनीचादिकथन मेषादि-संज्ञा विचार षड्वर्गनाम राशिस्वामी होराविचार द्रेष्काण तथा नवांशविचार
६३-६४ ६५-६६
६७-६८
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त्रिशांशविचार
भावसंज्ञा
भावपर्याय
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२२
२३
केन्द्रादिसंज्ञा राशियों का दिनरात्रिबल
११ राजा से धनव्यययोग
ग्रहों का उच्चनीच राशि - अंशवर्णन
भाव राशिमहबलविचार
चन्द्रबुधयोग विशेषफल धनी होने का योग
सुख तथा धन योग
पुत्रोत्पत्ति होने पर धन योग रोगभय स्त्रीप्रभुत्वयोग
२२ वें वर्ष के तीसरे अंश में योग
धनयोग राज्यप्राप्तियोग
प्रश्न काल में शत्रु मित्र गृह में स्थितिफल अधिकधनलाभयोग
सुख
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99
धन नवांश में चन्द्रफल
चतुर्थ
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भार्याय में
लाभांश में
व्ययांश में
नवांश के अभिप्राय से कथन
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इति लग्नज्ञानम्
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भार्याश में चन्द्र फल
मृत्यु अंश में
पुण्यस्थानांथ में
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जन्मकुण्डली स्थित शुभ पाप ग्रह स्थितिफल
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१३७ १३८
१३२ १४०-१४१
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१४५-१४६ १५०-१५६
३५
जन्मलम से धन प्राप्ति वर्षविचार , , अशुभ फल प्राप्ति , ,, मिश्र , ,,
हदशाफलक्रम कार्यसिद्धियोग पादयोग-भर्द्धयोग न्यूनयोग पूर्णयोग कार्य साधन में योग चतुष्टय विविध योग प्रह फजसारतम्य कथन
राजयोग भावों को श्रेष्ठता राजयोग कोटि पतियोग द्वादश भावों से फल विचार शुभ फल प्रार्थना मंगलाचरण शुभनक्षत्र अशुभ नक्षत्र मध्यम नक्षत्र शुभकरवाकथन नन्दादितिथियांग राजयोग वर्षादि तथा दिवसादि जन्मफल मध्यरात्रिजन्मफल विजययोगफल वर्षान्त तथा दिनान्त अन्मफल मास में जन्मफत शनि बुधवार फल कन्या की रविवारोत्पत्ति में विशेषफल रविवारफल शुक्रवार , गुरुवार , एखम मध्यमभषम फल
१६१-१६२
१६३.१६६ १७० से १७७ १७८-१६१
१६२ १६३ १६४ १६५
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( ५ )
गौरवर्ण प्रश्नकर्ता के उत्तर में विचार
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कृष्णा घातयित गात्र
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छिन्नभिन्न पृष्टोदयादि लग्नफल
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भीत तथा रोगी गात्र श्रभीष्ट सिद्धि योग फल
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39
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19
अभ्युदय काल कथन सिंह लग्न में विशेष फल कथन
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19
भाव के शुभाशुभ फल कथन का प्रकार
केन्द्र नामगुणवर्णन
भाषों के दक्षिण-उत्तर संज्ञा वर्णन
फलकथन
२२७-२३२
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कौन वर्ष हमारे लिये शुभ है इस प्रश्न में फलकथन २३३-२४०
२४१
भावफलकथन
भावों की अवस्था का वर्णन तथा पुरुष की अवस्था
का फल
शास्त्र प्रशंसा तथा आत्मप्रशंसा
गृहमध्य में निधिस्थितियोग निधि किस दिशा में है १.
चतुर्थभाव में निधानप्रकरण
सम्पत्तिलाभयोग पूर्वजों की सम्पत्ति का योग
अन्य प्रकार से सम्पत्ति प्राप्ति गृहभागस्थितिवश से सम्पत्तिफज्ञ दृष्टिवश से ऊपर नीचे निवि कितने बार खोदने से निधि मिले निधि का विशेष स्थान निय
भूमि में कितनी दूरी पर निधि है
निधि की वस्तु का निर्याय
निवि मकान के अन्दर है कि बाहर
राशियों की बाह्य आभ्यन्तर संज्ञा
२१०
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२७६ - २८०
२८१-२८२
२८३- २८५
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२८६-२६१
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३००
३०१
१४ साल्यानिषियोग १५ पुण्यशील की निधि का योग
कितने पात्रों में निधि है ? पात्र किस धातु से बने हैं किस माग में निधि है।
निषिस्थान का निर्माण २० प्रकारान्तर से दशाज्ञान २१ मत्यप्रशंसा
चतुर्थभाव में भोजनप्रकरण मंगलाचरण २ पदरसों का सुन्दर भोजन योग
अवश्य भोजन प्राप्ति योग । भोजन की प्राप्ति न हो बल्कि शस्त्र से चोट लगे अधिक लवण होने का योग कटु तथा मांम भोजन सरस-गोरस-कलहयुक्त भोजन योग कषाय हया मधु भोजन योग शुभ या शोक स्थान में भोजन योग सुन्दर स्त्रियों द्वारा खट्टे रस भोजन का योग अनादर के साथ दासियों द्वारा भोजन का योग सैनमोजनयोग राजगृह अथवा नीच गृह में भोजन योग मोजन कितनी बार मिलेगा। सम्मानपूर्वक सुन्दर स्त्रियों द्वारा परोसा हुआ भोजन मिले दानरूप में वस्त्रों सहित मोजन प्राप्ति हो सुवर्ण वस्त्रमोजन योग विवाह रेडियो गीत वाचादि होते समय भोजन मिले बहिन या पिता के घर भोजन प्राप्ति का योग पुत्र-पौत्र शत्रु अथवा स्त्री स्नेह से युक्त होटहभादि भोजन का योग स्त्रीयवासजनों के पास भोजन योग
३०२ ३०३ ३०४ ३०५
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विजय प्राप्त करने पर स्नेहपूर्वक भोजन का योग कैसे मकान में भोजन मिलेगा। भोजनविषयविचार मोजनदिशाविचार रसविचार पत्यप्रशंसा
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३३०-३१
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३३७
ग्रामपृच्छाप्रकरण नगरी के चारों तरफ पर्वत का योग नगरी में विशाल रुप वप्रयोग बागों से युक्त नगरी का योग कितने गढ़े होंगे? समृद्ध नगरो का योग धर्म स्थानादि से युक्त होने का योग वृत्त, ईटों के पुख, छप्पड़ होने का योग सुन्दर भवन तथा सरकों से युक्त योग सुरक्षित नगरी का योग
सवर्ण कलयों से युक्त प्राम योग ११ किसने हाथ ऊँचा किला होगा ! १२ धन शालिनी नगरी का योग १३ अन्य प्रशंसा
पुत्रप्रकरण १ पुत्र-पुत्री योगविचार २ का प्रसव होगा
पुत्र अथवा पुत्री योग अपत्य जीवित रहेगा या नहीं दिन अथवा रात्रि में जन्मयोग इस वर्ष में सन्तति होगी या नही सन्तानोत्पत्ति का प्रवत योग अवश्य भावी पुत्र योग कितने मास शेष होंगे?
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३४८ ३४४-३५० ३५१-३५२ ३५३-३५४ ३५५-३५६
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१.
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२०
२१
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सन्तति हीन होने का योग
३५६ पुत्रजन्म का योग
३६०-३६२ पुत्र मृत्यु योग
३६३ कितना एक ममय में पैदा होगा
३६४-३६५ द्वयोत्पत्तियोग
३६६ कितनी सन्तान होंगी
३६७ स्त्रीमह से कन्या और पुरुष ग्रहों से पुत्रसंख्याविचार सन्तानायुःकथन रामतुल्य पुत्र योग एक-दो तीन-चार पुत्र पुत्री का विशेष योग छः सात पुत्र पुत्री योग
३७२ प्रथप्रशंसा
३७३ छठा रोगप्रकरण रोगी के समीप कितने स्त्री पुरुष हैं |
३७४-३७५ रोगी किस हालत में है ?
३७६ रोगी कितनी दूर है रोगनाम कयन-रक्त रोग अतिसार तथा न्यूनबल योग
३७६ सनिपात रोग योग सन्ताप अथवा चित्तरोग कुष्ठरोगयोग हस्तपादकम्पन-वायुरोग औषरिविवार
३८४ वेद्यौषधिविचार रोग-रोगी-वैद्य-भौषधि की मंत्री
३८६ रोगी जीवन योग
३८७ सन्निपात ज्वर से मृत्यु
३८ भूख-अजीर्ण से मृत्यु
३८६ रोगी जोवन योग
३६०-२६१ सांप द्वारा मृत्युयोग
२१२ मृत्युयोग
३६३ मृत्यु से बच जाने का योग
३८०
城城物城桃和机械 机械地
१६
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( 8 )
सप्तमप्रकरण
पति तथा पत्नी की आज्ञा पालन का योग
समान प्रीति योग
परस्पर प्रीति योग प्रधान स्त्री योग
पति से उत्तम होने का योग
रंक कुलोत्पन्न कन्या भी रानी होती है।
मृता भार्या होने का योग
योग
चतुर्भग्या प्रीतिः
भार्या मृत्यु
दोनों पत्नी सुन्दर होने का योग
कितनी स्त्रियाँ होंगी !
स्व-पर स्त्री सुख योग
सुन्दर स्त्री योग
अवस्था वर्णन
सुन्दर होने का योग
स्त्री स्वभाव योग
स्त्री का
निर्दोष कन्या योग दूषित कन्या योग
स्त्रीप्रसव ज्ञान
चार कैसा है ?
अन्य पुरुष से सन्तान
अपने पति से सन्तान
मिश्र सन्तान योग
गर्भपितृनिर्णय
स्त्री पुरुष में प्रेम तथा अप्रेम
स्त्री प्रकरण समाप्त
त्रिपकन्या विधवायोग
स्त्रीजातक
स्त्री का पति से दुर्व्यवहार पतिद्वेषिणी स्त्री
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४२४-४२७
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४४.
४४४
१८
४५०
(१०) दुर्भगा उषा सुभगा नया लक्षण
४३५ स्त्रीसम्पति योग अन्यपति की पछा पति के साथ स्वेच्छा पूर्वक रमण पतिपरित्यक्ता योग तथा यौवन में वार्द्धक योग ४३६ पतित्यका योग, पतिमृत्युयोग, सौभाग्यवतीयोग योनिदोषबतो स्त्रीयोग तथा पतिप्रिया स्त्रीयोग ४४१ ऋतुकाल में वर्ण्य नक्षत्र
४४२ घोरतिमुखयोग युवक को स्त्रीसुखयोग दुःख मुख योग तथा केवल मुखयोग मैथुनसुख
४४६-४४७ मुवासित मैथुन
४४८ मानन्दशून्य मैथुन
४४६ तीन बार मथुन उत्तम तथा जीर्ण देवालय में मैथुन रसोई घर में समय मैथुन, जलाश्रय स्थान में सानन्द मैथुन४५२ वापी मेथुन त्या कुञ्ज मैथुन
४५३ गर्त मैथुन, गोशाला मैथुन
४५४ परचक्रागमनप्रकरण रात्र के आक्रमण तथा अनाक्रमण का योग ४५५-४५७ शत्रु के लौटने का योग, तथा दो बार पाने का योग, पराजय का योग
४५८ शत्रु लौटने का योग
४५६ शत्रु के भाक्रमण तथा अनाक्रमण के योग ४१०-४१६ मार्ग में शत्रु को मृत्यु शत्रु का मार्ग में लौटना
४६८ गमनागमनप्रकरण माना जाना भासानी से तथा बिलम्ब से होना ४६६ यात्राज्ञान
४७०-४७५ गमनागमन की निष्फलता पुत्र परदेश से कबोटेगा?
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( ११ )
पुत्र का परदेश से शीघ्र लौटना
बिलम्ब के फारया
यात्री को घर में विश्राम
लग्नेश के अनुसार पचिक की स्थिति
मार्ग में पथिक को अनिष्ट
प्रवासी मनुष्य की मृत्यु
पथिक का रोगी होकर घर लौटना
उदय तथा शुभ शकुन
मार्ग में भय, चौर से उपद्रव
मार्ग में शास्त्र से घात
भय होने पर भी प्रहार तथा हानि न होना
मार्ग में सानन्दमैथुन
मार्ग में तालाब, कुआँ आदि
मार्ग में महाभय का योग, राजा से निधि लाभ के योग
राजगृह से लाभ, मार्ग में व्याधि
दो जगह तथा तीन जगह विश्राम
गमनागमन का होना तथा न होना
युद्ध प्रकरण
युद्ध प्रकरया का आरम्भ युद्धयोग
Hee-yep
४८२
राजा का नाश
युद्धयोग युद्ध न होने का योग
युद्धयोग
युद्धनिय
नागरभाव और यायिभाव
नागर राजा के जय तथा पराजय योग
*
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यायी द्वारा नगर का महया तथा अमहा
नगर वालों का जय तथा पराजय । स्थायी तथा यायी
राजाओं के जयपराजय विचार
राजाओं की परस्पर सन्धि युद्ध होने तथा न होने का विचार
५१७-५४०
५४१
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५४६ ५५० ५५१
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५५६-५६१
५६२
सेनापति नाश विचार राज्यनाश युद्धप्रवेशलग्न स्थायी और यायी राआ का जयपराजय मृत्युयोग आने पर बच जाना प्रश्नकताकशत्रका पराजय सेना का आघात भाई का मरणा, मामा को प्रातक, पुत्रनारा स्त्रीनाश, शरीरघात, मृत्यु द्विनाश এখান মা জালায় युद्ध प्रश्न में धन का लाभ प्रहरष्टिविचार कुला और अकुला तिथियां कुल और भकुल ग्रह कुल और अकुल नक्षत्र यायी और स्थायी का जय तथा परस्पर सन्धि का निर्णय मा गणना से जयनिर्णय प्रश्व, शस्त्र आदि का बल गनाकार चक्र गणचक्र से जय निर्णय गज पक से मृत्यु और भय गजत्याग सेनाभूषण हाथी प्रश्वाकार चक्र भश्वाकार चक्र से जयनिर्णय महायुद्ध में विभ्रम, भंग, हानि अश्वप्रशंसा
५६३
५६५ ५६६
५६८-५७०
३५
५७२ ५७३
५७४ ५७५-५७६
४१
५७६ ५८०-५८२
खापक से ज्यनिर्णय धनुर्वाणषक धनुर्वाणवक से शुभाशुभ
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५६
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धनुर्वागाचक्र से मृत्यु, जय, भंग और धनक्षय ५८६-५८ कुन्त चक्र और उममे शुभाशुभज्ञान ५६०-५६१ द्वादश पत्रों का चक्र
५६२ महामारी भूमि उसमे जयाज्य निर्याय
५६३ रुद्रभूमि उमसे जयाजय निर्णय
५६४ ५६५ क्षेत्रपाली भूमि उससे जयाजय निर्णय ५६६-५६८ शरीर छाया से आक्रमगा में श्रेष्ठ दिशा का ज्ञान ५६६ सूर्य, चन्द्र, योगिनी, आदि का दिग्विचार ६००-६०१ नरचक्र
६०२-६०४ नरचक्र से घात-अघात विचार
६०५ ६१२ ___ सन्धिविग्रहप्रकरण शत्र-विग्रह योग
६१३-६१५ सन्धि में लाभ
६१६ - ६१७ सन्धि में हानि
६१८ सन्धि-विग्रह योग
६१६ अष्टमप्रकरण वृतज्ञान वृत्तों का बल नथा अबल
६२३ स्त्री का पुष्पवनी न होना
६२४ स्त्री का पुष्पवनी होना
६२५ पुष्प के वर्ण
६२६-२७ योनिस्थान में ग्रहों के स्वभाव सं पुष्पज्ञान ६.८-३०
दोषप्रकरण सूर्य और चन्द्रमा से पीड़ा
६३१ मंगन से पीडा
६३२ बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु से क्लश
६३३-३२ पाप ग्रहों से क्लेश
६३५ ६३८ नच नीच विचार केन्द्र त्रिकोगा में दोष विचार अस्त्रग्रह तथा नीचप्रहविचार क्षेत्रपाल कृत, यतकृत तथा गोत्र कृत दोष शाकिनी आदि दोष
६४३-६४५
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६३६
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६४८-४६
६५० ६५१
६५३ ५४ ६५५-६६१
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पीड़ा, ताप, मादि के दोष क्षेत्रपाल आदि से दोष जलाश्रय मादि दोष स्त्री कृत आदि दोष स्वगोत्र कृत भादि दोष
जीवितमृत्युप्रकरण रोग होने पर भी जीना मनुष्य को मृत्यु मनुष्य का जीवन नोका--प्रश्न रोग से मृत्यु का न होना शस्त्राहत मनुष्य का भी जीना रोगी का जीना प्रेत योग से मनुष्य की मृत्यु
प्रवहणप्रकरण नौकागमन पर चार प्रश्न नौका का न डूबना नोका का भ्रमण करना पोत स्वामी की मृत्यु पोतका बना व्यवहार से लाभ न होना भ्यवहार से लाभ अन से लाभ परदेश की वस्तु के व्यवहार से लाभ बेड़ा प्रश्न में दूसरा प्रकार
नवम प्रकरण प्रबध्याकारक योग प्रतत्याग प्रव्रज्या कारक योगों की रक्षता तथा निर्मलता रोग के कारण दीक्षा भोजन के लिये व्रत शान्तपिच से प्रव्रज्या प्रया
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(१५) दीक्षा योग शाक योग
स्त्री परिहार १० पाप योग
जैन मार्ग योग तथा प्रयाहत्या योग
पुण्यशील राजा होने का योग १३ धार्मिक राजा तथा रामपूज्य गुरु होने का योग १४ दीक्षामिद्धि योग समाप्त
दशमप्रकरण राजयोग
पदप्राप्ति योग ३ राजयोग ४ पदच्युति और पदप्राप्ति
पद प्राप्ति और पदच्युति उच्च पद प्राप्ति अचानक पद प्राप्ति इच्छासिद्धि न होना पदप्राप्ति योग स्थिरपद. राज्यप्राप्ति, पदभ्रश
आकस्मिक राज्यप्राप्ति यशस्वी होना
वृष्टिप्रकरण वृष्टिप्रकरण वृष्टियोग पादोनवृष्टि योग तथा प्रवृष्टियोग अर्धवृष्टियोग विभागवृष्टियोग दुर्भिक्ष और विद्यद्योग वृष्टियोग दुर्मितयोग मुभिक्षयोग दुर्मिक्षयोग
१
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७११
७१२ ७१३-७१४
७१५
७१७
७१८ ७१६-७२६
७२७
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सस्योत्पत्तियोग महावृष्टि अनावृष्टि योग
मूषक आदि का अधिकता में होना धान्योत्पत्ति योग
लम से ईति का विश्वार
भूमिमण्डल
तेजमण्डल
(१६)
अलमण्डल, वातमण्डल
तरवफल
मीन संक्रान्ति से मेष संक्रन्ति
आषाढ़ी पूर्णिमा से वृष्टिज्ञान
वृष्टियोग
अग्नियोग, पृष्ठयोग आदि
ग्यारहवां प्रकरण
कन्याप्राप्ति
स्त्रीलाभ
स्त्रीप्राप्ति
-मयाग
अन्य प्रकार से समर्ध-मद्दर्घ योग
स्त्रीलाभप्रकरण
अर्घकाण्ड का प्रारम्भ
क्रेता और विक्रेता का विश्वार
लाभविचार
क्रय विचार
क्रेता और विक्रेता के सम्बन्ध से लाभालाभविवार ७८१-७८२
समर्धयोग
गुगावती स्त्री की प्राप्ति शीघ्र स्त्रीलाभ
स्त्रीलाभ
७४१-७४४
७४५
७४६-७४७
७४८-७५०
कन्यालाभ
कन्याप्राप्ति, पतिप्राप्ति
कन्याप्राप्ति तथा वरप्राप्ति
लक्ष्मीवान् वर, लक्ष्मीवती कन्या की प्राप्ति
७५१
७५२
७५३
७५४
७५५-७६०
७६१-७६३
७६४-७६६
७६७-७६६
७७०-७७६
७७०
७७८
७७६
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७८३
७८४ – ७८६
७६०-८२४
८२५
८२६-८२६
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८३२
८३३
८३४-८३६
८३७
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(१७) परस्पर धनप्राप्ति वधूवरसमृद्धि स्त्री-पुरुष का प्रेमपूर्वक तथा वैरभाव से रहना दुसरी स्त्री को धन देना, तथा जार को सम्पत्ति देना स्त्रीपुरुष का परस्पर प्रेम नत्रोढ़ा के साथ सुस्त कन्या को पति को प्राप्ति
८४७-८४६ कन्या-वर स्वस्थता
नएलाभप्रकरण नष्ट लाभ प्रकरण का प्रारम्भ
८५१ नष्ट वस्तु लाभ योग नष्ट वस्तु का लाभ तथा अलाम
८५३-५६ नष्ट वस्तु की चोर से प्राप्ति तथा अप्राप्ति
८५७ नष्ट वस्तु का लाभ, चोर की मृत्यु नष्ट वस्तु का अलाम वा लाम, नष्ट वस्तु का राजा के अधीन होना नष्टवस्तुनिर्णय प्रकार वस्तु का नष्ट न होना
८६१ नटवस्तुलाभ
८६२.८६३ नष्टवस्तुस्थाननिर्णय
८६४-८६६ नष्टवस्तुलाभ
लामप्रकरण मेष श्रादि राशियों का अन्धधिरादिविचार शीघ्र लाभ विचार योग शीघ्र लाभयोग, सथा दरिद्रता योग
८७० लाभयोग
८७१.८८१ लाम का प्रभाव नाम प्रकरण समाप्त दिनचर्या फल
शास्त्र चुराने पर पाप दिनफल तथा मासफल से सूर्य श्रादि का फल
पस विथोपक दृष्टि सुन्दर भोजन प्राप्ति
८-पद
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( १८ )
सुन्दर भोजन, पुत्र और धन की प्राप्ति
रोग, संताप, स्त्रीसुख चादि सुन्दर स्त्री सुख
मरगा तथा दृढ़ बन्धन
शस्त्रवघ
पुण्य कर्म तथा विभव का उदय
अकस्मात पद लाभ
निधि वस्त्रादि प्राप्ति शुभकार्यों में सद्य बन्धन के लिये अवरोध
मृत्यु योग होने पर भी रक्षा
दिनश्रेष्ठ योग
मृत्यु योग होने पर भी रक्षा
मासफल
महों का उच्च, स्वगृह, मित्रादि योग
प्रतापी और शत्रुओं से भधृष्य होने के योग
दुस्थिति, धननाश, पुत्रपीड़ा आदि योग
शत्रुनाश आदि योग
विशिष्ट पदादियोग
गुरुफल
बृहस्पति के द्वादश राशियों में फल
शुक
के
द्वादश
शुक्रकल
राशियों में फल
बुधफल
बुध के द्वादश राशियों में फल
भौमफल
ओम के द्वादश राशियों में फल
राहुफल
राहु के द्वादश राशियों में फत
१ fraineer
अंकुरडलिका
८६२
८६३
८६४-६६
८६७
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* *
२६
द्वादशांशकुक्षिका नवांशकुण्डलिका हेमप्रभसूरिविषयक श्लोक
शुभसमययोग सुमित और दुर्भिक्ष योग सुख सम्पतियोग बृहस्पतिसंचार से सुमित
सुभित और विग्रह का अभाव राजमारी आदि उपन
शुकास्त फल मर्धयोग
रक्षय आदि
सुमित, आरोग्य, सुवृद्धि
दुर्भिक्ष और भय
इंति का उपद्रव महर्षयोग
( १९ )
सुमित-दुभिक्ष
त्रिकयोग
पाकयोग
क्रयविक्रययोग
दुर्भिक्ष और राजत्रिमह
दु:स्थिति और राजविप्रह
सुभित
क्रययोग
विक्रययोग
क्रयविक्रययोग
अर्धकाण्ड
महयोग दोस्थ्ययोग सौय्ययोग
सुभिक्ष दुर्भिक्ष
नाका क्षय
माता वर्षार्षा:
६४६-६४८
६४६-६५०
६५१-६५२
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२०००-२००१
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२००८-१००६
१०१० १०११
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१०४६-१०६६
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(२०) दुस्थिति, दुर्भिक्ष
१०१२-२०१३ क्रय-विक्रय-योग
१०१४ दुर्भिक्ष
२०१५ रोहिगी का शुभाशुभ फल .
१०१६-१०२६ आषाढीयोग पापादोयोग से वृष्टि का हाना अथवा न होना १०२७.१०४८ नक्षत्र क्रम से समर्घ-महर्घ तथा तिथि, छत्रभंग श्रादि योग चन्द्रमा के परिवेष से वृष्टिज्ञान
१०७० इन्द्रधनुष से वृष्टि ज्ञान
१०७१ राशिक्रम में मह आदि
१०७२-७४ वारुण परिवेष से वृष्टि
१०७५ मर्प के वृक्ष पर चढ़ने से वृष्टि निर्णय
१८७६ गहरी के ऊर्वाभिमुख होने से वृष्टिज्ञान
१०७७ तक्रादि के पात से वष्टिहानि
१०७८ महर्ष-प्समर्पज्ञान
१०७४-१०८१ মঃ মা ন অম্বান
१०८२-१०८६ मण्डलप्रकार से अज्ञान
१०६०-११०६ हेम प्रभ सूरि के अनुसार अर्घ काण्ड १११०-१११४ चैत्रार्थ
१११५.१११७ अर्थशास्त्र की सत्यता
१११८ | গাছিন আঁৰ স্বাৰাঃ ম স্পষ্ট
१११६ नक्षत्र क्रम से अर्घ
११२०-११२६ राशि संख्या से अर्घ
११०७-११२८ प्रह संख्या से अर्घ
११२६-११३३ प्रह, नक्षत्र, राशि संख्या से अर्घ
११३४.११३६ अर्घ त्रिगुण
३१३७ अप द्विगुण
११३८ • लब्धार्ष स घटा कर अर्घ निश्चय
११३६ राशि, नक्षत्र, प्रह क्रम से अघ
११४०-११४८ संतिका, माणक, पल्लिका, आदि मानने का प्रकार ११४८-११५६ धान्य महर्ष जानने के प्रकार
११५७-११५८ पात्रापात्र को अर्घकाएड देने का फल धार भफल
११५६.११६०
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FOREWORD When a little over two years ago Prof. Ram Swarup Bhargava, Jotishacharya, founded the Kushal Astrological Research Institute at 52 C. Model Town, Lahore, he asked me to recommend an old work on astrology which he could publish from his institute. I happened to have in my possession at that time a manuscript of Hema prabha Suri's Trailokya. prakasa belonging to the Jain Bhandar Attached to the Svetan bar temple. Ambala city. I suggested this work to Prot Rim Swarup. He readily accepted it and the act of copying it was commenced at once. After two years' labour It is now published, and I am asked to write a forcword to it. Naturally I am glad to see my suggestion carried out 20 ably and promptly and it gives me much pleasure to add a foreword to the book.
Prof Ram Swarup has earned a wide reputation in the Punjab as an efficient astrologer. The staff working under him is well-trained and highly qualified. The editing of the Trailok yaprahasa has been carefully done. I should however point out or e instance where I differ from the learned editor. It is the reading of verse 7. He has selected gone I (?) AJTam whereas the readings found in other MSS are *017. YAA, auta, puna in place of zal I Mr Mul Raj Jain who published a brief notice of Trilokya. prakave in the Jain Satya Prakash of Ahmedabad for June 1944 committed the same mistake by accepting al in preference to Tara Evidently the instrument referred here is sularb a synonyin ut usturlah which means an Astrolabe, an important instrument of the Greeks and the Arabs. Both the forms surlab and usturlab are recorded by Steingass in his Pey 54.271English Dictionary, Oxford, 1930 The readings relegated to the footnote by Prof. Ram Swarup amply support my suggestion. Clearly gug 18 & copuist's error while the other words are Indian modifications of surab, as there are so many other examples of modified words.
Here I may add a few words on the place of astrology in Jainism So far as theories and dogmas go, the Jams believe that every soul is the maker of its own career-both past and future Every moment the souls moving in thc cycle of transmigration, are doing actions bs deed word re thought and
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their happiness or misery are the direct result of these actions. In short the course of destiny cannot be changed.
In practice, however, Astrology plays an important role in the life of Jains Even in their oldest scriptures we find refereces to lucky moments for doing auspicious acts. The Prakrit words सोहणंसि निरिकरणमुहत सि: e (the ceremony was performed at an auspicious moment, in an auspicious Karana and on an auspicious hour, clearly refer to favoural'le time determined by astrological calculations At the birth of a child, even if it be would-be Tirthankara astrologers were consulted. Kings always kept astrologers at their court and performed their acts according to the advice of the astrologers. The highest belief in astrology is shown by the statement of of the Kalpasutra, a Svetambara scripture, where it is said that Lord Mahavira died at a moment when the Kshudra or Bhasma-graha entered his nama-rail. The effect of this was that his followers did not receive due honour for 2,000 years after his demise
Having thus shown the importance and prevalence of Astrology among the Jam, shall now state what place it holds in a monk's life. As is universally known, the life of a Jain ronk is very hard He is indeed forbidden for selfish motives from practice of Astrology, medicine and other similar sciences. Their study, however, 1: not prohibited There are numerous works written by monks which amply reveal the authors' mastery over these sciences Several instances are tound in which the monks actually Ivok pracukal advantage of these sciences, but that was tor the benetit of the whole community, and not tor then personal gain?
The prohibition against practice of Astrology was confined to those monks whom for the sake of convenience we may term the 377!?"?! muaksie, those indifferent to worldly affairs. Such monks engaged themselves in the mortification of their self. They kept quite aloot trom worldly attachments. In short they had broken all tamily ues They had reached the stage of Samnya su described in the Smins. They took abude in deserted huts a way trom babitation. Their wants were very few, they having discarded everything commonly needed by man. They
1. H Jacobi. Translation of the Kalrasutra in the Sacred Books of the East Series, Vol. XXII p. 266. 2. cf. mrgarfa a: 9417_gagnaatafani स शुध्यति प्रतिक्रान्त: सुधी: कालकसूरिवत् ।।
विनयचन्द्र कृत कालककथा, रलो०२
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visited cities or villages on their begging tours only for meals. That, too, was not frequent. They would preach the law of morality to those perso.s who happened to meet them. Apparently such monks did not stard in need of Astrology or medicine
There was however another class of monks who thought that the samegna monk was no good to the world at large. The monk of this class were called cattvavasın 1 e living in a cauya or temple They argued that after having acquir. d perfect control over the senses, one should strive to do good to humanity Though a samigna and a caityavasın monk were on the same footing so far as self-control was concerned, yet a way the latter was super or to the former so far as the service to humanity was concerned It required a stronger mind to become a cattyuvasın than a samvigna monk. The latter was safe in his seclusion whereas the former had to move in society and to play with fire as it were. A little carelessness would drag him down and send him to a far degraded position. Consquently very to people came forward to assume the role of a caityavasın monk, because he had to exert tull self-control and yet serve hanary is if. 115 [ Wis to relieve and guide his tellow creatures that he treely took aid of medicine and astrology.
In the course of time, however the caityavasın life attracted easy-going people and the whole organisation deteriorated Only a few noble souls escaped this deterioration. At present the successors of cantvavasins are called Pujya, Yatı, Gor etc Rajputana is their stronghold. From there they spread to other parts of India Among the Digambaras the Caity ivasin have come to be called Bhattarakas. They are just like Hindu mahints, trustees of charitable institutions in name, but sole managers, approaching to owners, in practice
At one time the Pujyas were found in almost every town or city of the Punjab There was a network of their gaddis called upasrayas They were regarded as high class physicians and astrologers, and they extended their hand of service to all without distinction of caste or creed Many stories about their skill in these sciences can be heard even to day from the lips ot the few old people still alive. Thus it is proved beyond question that the Jains have always regarded Astrology as a very useful and important sciece They derived full benefit from it in ali the periods of history-from the days of the Tirthankaras down to the present day As a result of this numerous works on Astrology were written by the Jains in various inguages of India. So much importance was attached to Astrology that Jaina authors did not hesitate to borrow from foreign sources. The Trailokvaprakasa expressly states
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...
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म्लेच्छो विस्तृत लग्न कनिकाल प्रभावत:
प्रभुप्रसादमासाथ जैने धर्मेऽवतिष्ठते ।। ६ ॥ On account of the effects of the Kalı Age the science of Lagna (Horoscope) spread among the Mlecches, but with Lord's grace, the same is still found among the Jains. Instead of अवतिष्ठते, some MSS read अवतार्यते which clearly refers to a borrowing of the sciece from the Mlecchas Probably the original reading was dat which was subsequently changed to अवतिष्ठते by some zealous copyist.
Prof. Ram Swarup has done well by giving a brief account of Taina Cosmology and Astrology for the benefit of such readers as are not acquainted with them. But he is silent about the Jaina school of Astrology. He does not say in what respects it differs, if it does so, from the Hindu School. This is a subject worth studying. Perhaps the Jains did not develop a separate system of Astrology. They took it at a later date in the form it was then current.
I avail of this opportunity to invite the attention of scholars to the importance of the Punjab Jain Bhindars. A preliminary catalogue of five of these Bhandars was prepared by the writer of these lines and published hy the University of the Panjab in 1939. The manuscript of the Trailokyaprakasa was first found in one of these Bhandars. There are several other works on Astrology and kindred sciences registered in the above catalogue and some of them might be worth publishing. I am sure that many more works of great value will be discovered among thes? bhandars if a thorough search 18 made. Some of the Pujyas of the Punjab were great scholars and must have written on these subjects. Their manuscript collections are preserved in these bhandars.
For the benefit of those who are not familiar with Sanskrit Prof. Ram Swarup has added a Hindi translation to the text But an index of subjects is sorely missing. A full index of subject matter world have greatly enhanced the value of the work. JAIN VIDYA BHAVAN.) 6, Nehru Street,
BANARSI DAS JAIN. Krishan Nagar, Lahore.
January 12, 1946. Cf sfoarafe v.
ons are preserved in these subjects. There great scho
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INTRODUCTION A detailed description of manuscripts.
The manuscript material utilized in the edition on Hegaprabhasuri's Trailokyaprakasa may be described in the following way:
The text of the Trailokyaprakasa, edited' and translated here for the first time, is based on a manuscript existing in the Svetambara Jain Bhandar at Ambala, Punjab, (India).
This manuscript was obtained from the custo lians ofthe su Bhandar through the courtesy of Dr Panirsi Das 3.110, A PhD in lo), Reader 10 Hudi, Ouna College Lahore I then taformed about it to Prof. Dr. Lakshman Sarun MAD Phul (Oxon), Officer d' Acadenie (France), the Principal. University Oriental College. and Head of the department of Suzakrit at the University of the Punjab, Lahore. The learned doctor put this manuscript at the disposal of the director, the p it clitor, 2581sted by the expert staff, ot the Kushal Astrological Research Institute, Model Town, Lahore. He also advised in to secure some other manuscripts on behalf of the Institute for collation purposes.
This basic manuscript begins श्री गुरुपदपजेभ्यो नमः।
श्री मप्ताभिधं देवं केवलज्ञान भास्कर वाग्देवी खेचरांश्चापि नत्या लग्नमहं वे ॥१॥ लग्नं देवः प्रभुः स्वामी जग्नं ज्योतिः परं मनं ।
लग्नं दीपो महान बोके नग्न तत्वं दिशन गुरुः ।। It consists of 33 leaves. It has generally 15 lines to a page. Many pages have 16 lines also. Syllables per line range from 46 to 53, making 1300granth as in all.
CD 1 dll.
1 Dr H. D. Velankar states that the text was published by Bhimsi Manek of Bombay but we failed to procure a copy of it. Again Dr. Velankar notes that there are several other titles under which this work is known eigi Hasta, talpa min, na etc. Of these the first two are names of independent works by other authors whereas the third is a different treatise by our own author.
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It is written on Indian hand made paper and is in a foc condition The whole of the text is written in black ink. It is in old Jain script, bold, beautiful and even hand. It has clean margins without notes and corrections Left hand marginal top of each folio on its reverse bears a cipher representing the serial number of the folio.
The manuscript ends as follows :श्रीमदेवेन शिष्य श्री हेम प्रभसूरि विरचितं चैत्रार्घकाण्ड समाप्तं ।
धने चक्रं यदा खेटा कुर्वन्ति मिनिता धनाः । तदा धान्यं महर्घ स्यात्सर्व परयौघमध्यतः ।। रणे व यदा यान्ति सर्वेऽपि मिलिता प्रहाः । तदा धान्यं समर्घ म्यात् जायते भुवि वै मत॥ अपात्रदानताऽपुण्यं पुण्यं सत्पात्रदानतः । इन्यपात्रे न दातव्यमघकाण्डमहोदयं ।। प्रतिमाम्वल्पदेवानां यावन्त: परिमाणवः ।
तावद्युगसहस्राणि कतुर्भागभुजः फलं ।। · The scribe's lutori a'ly inportant couphun runsas follows:-- इति लोक्यप्रकाशो ग्रन्थः समाप्तः ॥छ।। श्रीः ॥छ||छ।
श्रीश्री ॥ सं० १५७० वर्षे प्राषाढशुदि = ( अष्टमी) शुक्रे प्रोह श्री अहिनदासाननयर निखितं विप्रविणायगेन शुभं भवतु ॥ छ ।। श्रीरस्तु ॥ श्रीः ।। छ । लेषकपाठकयोः शुभं भवतु ॥छ ।। श्री: ।। छ । श्री: ।। छ ।। श्रीः ।। ग्रंथा. १३०० श्लोकसंख्य या मितिः ॥ १।। छ । श्रीः ॥ छ । शुभं भव ॥ ओरस्तु ।।
The manuscript is generally correct hut unfortunately it is incomplete It break; off at leaf? band begins at leat 29a1e. tour leaves are missing After the verse 8 24 it reads इत्यायेऽर्घकाएडं । अथ नाभप्रकरण एवार्धे का एडं निरूप्य स्त्रीलाभ प्रकरणं ।
The rest of the matter on leaves 24.27 which cover verses 825.972 is wan:ing as the leaves are missing froin the manuscript. The manuscript leaf -87 begins with the marter भद्रपदाधिष्ण्ये ero , of verse 972. thus 'eaving (ut the opening word qit of this verse probably on the missing icat 27.
(2) Five manuscripts of the Trailokyaprakasa exist at the Central Library. Baroda. Of these five manuscripts, only two
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were made accessible to us for collation. They have been designated here as A, A'.
MS A.
Its No. is 3155 It is complete. Size 11" X 6". It has generally li lines a page, syllables per line ranging from 36 to 39. It is written on Indian hand made paper and is in a good condition The whole of the text is written in black ink. It is in old Devanagari script. bold, beautiful, even hand. It has generally clean margins with occasional corrections. Left hand marginal top of each folio on its reverse bears a serial number of the folio. It bears the following historically important colophon: इति त्रैलोक्यप्रकाशो नाम ग्रन्थः समाप्तः ॥ सुभं भवतु ॥ शार्दूलविक्रीडितं ॥
अस्ति श्री वटपत्तने दितिपतिः श्रीमान मनीषी वशी
___ कतु पुस्तकसंग्रहं धृतर तिम्रन्थालये वै निजे । भर्ता गुर्जरनीवृतोऽखिन मनाविद्यादिरक्तः सदा
ख्यातो यश्च शियाजिराव वसुधाधीशो गुणैरुज्ज्वनैः ॥ गीतीच्छन्द ॥ तछिटो गोसाईनारायणभारतीति विख्यातः।
विद्वद्गोष्ट्या नंदीप्रज्ञो यस्वन्तभारतीशिष्यः ॥ आर्याच्छन्द ॥ संवद्विक्रमकालात्दोरणीवेदाङ्कचन्द्रसंख्याते ।
वर्षे च हेमलंबेत्याख्ये संवत्सरे चारौ॥ गीतीच्छन्द ।। मार्गे मापे कृष्ण पक्षे गुरुवासरे द्वितीयायां ।
लेखयति स्म ग्रन्थं बलु पत्तेणहिल्लाख्ये ॥ श्लोक संख्या १२४६।
(3) The manuscript Al belongs to the Central Library, Baroda Its No 15 343; its size 11"x6", leaves 65 ; lmes per page 11, syllables per line 32. Its brief colophon runs as follows:
इति त्रैलोक्यप्रकाशो नाम प्रन्यः समाप्तः । ग्रंथा० संख्या १२४० ॥६॥ शुभं भवतु । कल्याणमस्तु ॥ ६॥६॥ मिलित्वा श्लोकसंख्या चत्वारिशताधिकचतुर्दशप्रमाणं।
(4) A manuscript 'Bh' belongs to the Bhandarkar Research Institute, Poona, It offers a few variants from our basic mos But such variants as are given in footnotes call for our special attention and scrutiny. It places it improves indeed upon our text. It has been of considerable help specially in reconstitutirg the portion of the Arghakanda which is missing in the Ambala manuscript. At the end of the Trailok yaprakasa we have Meghamala.
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It has leaves 68*+Meghamala=74°.
It has size 8" x 4"; Lines per page ranging from 10 to 12. Letters 26.
It begins ओं नमः सिद्ध वक्रादिसचित्रे । श्रीमत्पाश्र्वाभिधं etc. It ends इति श्रीमद्देवेन्द्रसूरिशिष्य श्रीहेमप्रभसूरिविरचिते चित्रार्धक एवं समाप्त। at the end of which we read
Then begins
इति ज्योतिषप्रन्थ जैनकृतः समाप्तः । संवत् १८५३ शके १७१६ पिंगनAurèskanyza ? shaqggð ánàt avaiîxegendmikadzauga प्राकृतसंज्ञाक्षेत्रे कीर्तनोपाख्य शिवात्मजवानभट्टेन निखितं लेखापयितं च स्वोपकारार्थ ६ ६ ६
Unfortunately this ms. is incomplete. Leaves 21-23 are
missing.
(5-6) Two other manuscripts deserve notice. They hail from Bikaner. One of them contains only the Arghakanda of Trailokyaprakas It contains leaves 7, its size is 10" x 4". Lines per page number ); letters per line ranging from 30 to 33. It is designated as B'.
Another manuscript from Bikaner is only a shorter recension of the present work. It has therefore been dismissed for the collation work except at places where the verses are tolerably in consonance with the text of adoption. Its size is 10" x 4": leaves 12, lines per page 16, letters per line 52. It is incomplete
Relation of manuscripts.
A, A'. Amb and Bh. with slight variations fall into one group whereas B. representing, a shorter recension falls into another. The relationship of different groups may be made clear in the following diagram:
N
A. A', Amb, Bh.
B.
It may be renirked that sometimes, though very rarely, B makes a group with A, A', and Bh. separate from Amb. which
The Arghakanda portion of the text has been compared also with the tex of a manuscript from the Pattan Bhandar. This manuscript was in the possession of Mukhtar Shri Jugal Kishore, at Sarsawa. Saharanpur District who obtained it from Shri Punyaviaya ji of Pattan. The Arghakanda portion of the text was copied from the manuscript by a Shastri on behalf of our Institute.
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then stands alone. For example, the verse 34 as it stands in the Amb. text is read differently by A. A, B and Bh. as noted in the footnotes.
The Tp is a Jain work on Astrology which science is closely associated with Astronomy because its predictions are based on positions of planets determined by astronomical calculations. Consequently it is advisable to say a few words on Jain astronomy. In order to understand the nature of the Jain system of Astronomy let us cast a glance over their coimography.
Jain Cosmography. The Jains believe that the Universe is eternal, without a beginning or an end. They have, therefore, no cosmology, but have a cosmography-peculiar to them. selves, especially with regard to the upper regions. The Universe proper or Loka extends as far as the dharmastikaaya and the adharmastikaya--the media of motion and rest respectively-exist. Beyond the Loka there is Aloka or absolute space. The Loka is conceived to be in the form of a standing woman with her arms akimbo. It is divided into three parts corresponding to the three parts of the woman's body. The upper' region( 1) represents the bust of the figure and comprises the aerial abodes (fata1a) of the Vaimanika gods. The middle region(faeit al*)represents the waist and consists of that portion of the earth Ratnaprabha upon which men live together with the part of the sky occupied by the heavenly luminaries.
(1) The conception of the regions being upper or lower has reference to the Rucaka point formed of four particles at the centre of the Meru. Perpendicularly above the Rucaka there is a similar point in the heavens. The middle region extends 900 yojanas below and 900 yojanas above the Rucaka point Thus it comprises the upper layer of the Ratna prabha earth to a thickness of 900 yojanas together with the atmosphere to the same height.
जगत्त्रयं त्वधस्तियंगूज़लोक विभेदतः। अधस्तियंगूर्ध्वभावो रुचकापेक्षया पुनः॥४१॥ मेवेन्तर्गोस्तनाकारचतुर्कोमप्रदेशकः । रुचकोऽ धस्ताहगूर्व मेव मष्ट प्रदेशकः ॥ ४८२ ॥ तिर्थग लोकस्तु रुचकस्योपरिष्टादधोपि च ।
योजनानां नव नव शतानि भवति स्फुटम् ॥ ४८३॥ Trishashtisalakapurushacaritra, Parvan II, Canto 3.
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The lower regions (alt) represents the lower limbs and includes the seven earths in the midst of each of which lies a bell named after its own earth. These earths which gradually increase in size as we go down, are named 699H! paved with sharp stones, or abounding in diamonds, rubies etc' plane 97 paved with pointed stones of sugar-loaf shape a/4T 591 sprinkled with sand, 45471 'full of mud', ETA THI "filled with smoke 4:9277 'filled with darkness', and HETTA:THT 'filled with thick darkness.'
The middle region is a flat round surface formed of concentric rings which represent alternately seas and islands, with the continent of Jambudvipa lying at the centre.
Jambudvipa is surrounded by the Salt sea ( nau an ), the latter by the island (or Continent) of Dhatakikhanda, this again by the Black Sea ( fraiera ); and around this lie guccessively the islands of Pashkara, Varuna, Kshira, Ghrita, Ilghvaku. Nandisvara, Aruna and many others each of which is encircled by a sea of the same name. The total number of islands and seas is countless, the last sea being the Svayambhuramana. Each succeeding ring of island and sea has a width double the perceding one ; thus the Jambudvipa has a diametre of 100,000 Yojanas; the width of the Salt sea ring is 200.000 Yojanas, that of the Dhataki Khanda ring 400,000, of the Black sea ring 800,000 Yojanas and so on.
The seas and islands are separated from one another by high walls called Jagati which like the rampart of a town, have four gates one in each direction. In the centre of the Jambudvipa stands the mountain Meru, 100.000 Yojanas bigb and 10,000 Yojanas wide at the base. There are six more ranges which run parallel to each other from east to west and divide the whole continent into seven countries. There are several river systems all of which fall into the salt sea. The names of the the countries and mountain ranges from South to North are Bharata, Himavat (mt.): Haimavanta, Mahahimavat (mt.): Hari, Nishadha (mt.); Mahavideha : Nila (mt); Ramyaka, Rukmin (mt.). Hairanyavata Sikharin (mr.); and Airavata. Bharata and Airavata are further divided into Northern and Southern halves by their Vaitadhya Mountains.
(1) Trushashtisalaka purushacaritra. Parvan I. Sarga I, vv. 22-36:ct. Markandeya Purana, chap. 56 (Bombay edition); chap. 59 (Calcuta edition).)
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The central country of Mahavideba (or simply Videm) is the largest of all, Its two halves. lying to the East and West of Mount Meru are called the Purva (Eastern) and Ape (Western) Videha respectively. Each of these halves ja subdivided into sixteen provinces named Vijayas.
Around the Mount Meru there are two small regions in the form of semi-circles, called the Uttarakuru (Northern) and the Devakuru (Southern). They are lands of twins whose wetits are satisfied by the desire-granting trees ( fr ). The condition of the first Ara is always present there.
A little above the surface of the earth commences the series of the heavenly bodies or the Jyotishka gods which are divided into five classes, viz., the suns, the Moons, the planets ( PE ) the constellations (aa) and other stars (arx) The nearest to the earth are the stars, being 790 from it. Ten Yojanas above them are the suns. Eighty Yojanas above the suns are the Moons. Four Yojanas above them are the constellafions. Four Yojanas further are the Budhas, three Yojanas above them are the Sukras three yojanas above them are the Brihaspatis : three Yojanas above them are the Mangalas; and three Yojanas above them are the Sanaiscaras. Thus the heavenly bodies exist upto 900 Yojanas above the earth.
Far above the heavenly bodies begins the upper region comprising a reries of celestial abodes of gods ( faut ) These abodes are divided into three classes according to their distance from the earth and the status of their denizens. The lowest class consists of twelve Kalpas which form the breast of the Loka-figure. Above the Kalpas stands the series of nine Graivevaka vimanas, respresenting the neck of the Loka-figure. Above them are the five Anuttara or the best abodes which correspond to the crown of the Loka-figure The denizens of Kalpas have different social ranks among them as men have on the earth, whereas the denizens of the Graiveyoka and Anuttara abodes are all equal among themselves. They are consequently called Ahamindras i. e., masters of their self.
Belper end
Above these abodes or vimanas the universe (loka) tapers into an end in the region called Ishat-Pragbhara, which is shaped like an umbrella It is called the Siddha-sila on account of its vicinity to the end of the Loka--the resting place of the Sıdd has or the redeemed souls.
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Now we come to our proper subject of Astronomy and Astrology. According to the Jains the heavenly bodies are separate worlds similar to ours inhabited by creatures called Jyotishka or luminary gods having human form but possessing supernatural powers. They are of five kinds, ie, the Suns, the Moons, the planets, the conslellations and miscellaneous stars. They in their vimanas revolve round the Meru mountain over the regions inhabited by man and make it possible to measure time. With other aspects of these gods, such as their birth, age, bodily stature, physical power, their stately magnificence, their nature, their religion, their relation with man etc. we are not concerned here.
The Jains in common with the Puranas regard the earth to be a flat and circular surface surrounded alternately by innumerable rings of seas and continents This view of the Jains has been characterised as fanciful by Bhaskaracarya in his Siddhanta-siromani who held that the earth was a sphere.
As regards the orbits of the planets the Jains conceive them to be cuncentric circles ( #lea) separated by equal spaces. The opinion that the mandalas were spiral is also recorded in the Jain sutras. The method of reckoning time also is peculiar to the Jains. In some respects it resembles that found in the Jyotirvedanga. The following points are worth noting :--
1. The Jaina calculation of time 18 based on a 5-yearly yuga containing 60 months or 1830 days. This makes a year to be of 306 days and a month of 30 days.
2. The begininng of the yuga is marked by
(a) the sun's commencement of its journey to the south (rerurta ),
(b) the moon's course being northward ( FETTU ), (c) the tithi being the first of the dark half of Sravana (d) the Karana being Balava, and (e) che nakshatra being Abhijit.
? A yuga contains 62 luner months, (candramasa) each of 2941 solar days.
4. A lunar year (candravarsha) contains 354}i solar days.
5. A tithi is a lunar day (candra dina) of 298i muhurta or 59:4 ghatikas.
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xiii
6. The moon changes its course () in the Abhijit and the Pushya nakshatras.
7. There are two intercalatory launar months in a yuga, 1.c. the first two years are ordinary, the third is abhivardhita (leap) having two Ashadha months, the fourth is ordinary and the fifth is leap having two Fausha months.
8. There are 28 nakshatras including the Abhijit. Their names and order are the same as in the Hindu system but their duration in muhurtas (2 ghatikas) is 30, 15, 30, 45, 30, 15, 45, 30, 15, 30, 30, 45, 30, 30, 15, 45, 30. 15, 30, 30, 45, 98% (Abhijit), 30, 30, 15, 30, 45, 30.
Jaina literature on Astronomy and Astrology.
(1) The Canon.
The sacred scriptures (sruta) of the Jains are called the Angas, twelve in number of which the twelfth is lost for ever. The eleven Angas, now available, are held authoritative by the Svetambaras only. Corresponding to the 12 angas there are 12 upangas The division into Angas and upangas is arbitrary without any regard to their contents. The upangas Nos. 5-7, Jambudvipaprajnapti, Suryaprajnapti and Candrapranapti are "Scientific" works and deal with geography, astronomy cosmology and chronometry, Of these the Jambuvipaprajnapti contains the mythical geography of the Jains In the description of Bharatavarsha (India), however, the legends of King Bharata occupy much space.
1.c..
The Suryaprajnapti contains a systematic presentation of the astronomical views of the Jains. It deals with the orbits which the sun describes during the year, with the rising and setting of the sun, with the speed of the course of the sun through each of its 184 circuits, the light of the sun and the moon, the measure of the shadow at various seasons of the year, the connection of the moon with the lunar mansions, the waxing and waning of the moon, the velocity of the five kinds of heavenly bodies, the qualities of the moonlight, the number of suns in Jambudvipa etc. As the work deals with the sun as well as with the moon, it almost looks as though the original Candraprajnapti had been worked in the Surya prajnapti. The Candraprajnapti as its title shows should deal with an astronomical theory of the heavens based upon the moon. But coriously enough the Candraprajnapti is almost wholly identical in all available manuscripts with the Suryaprajnapti. It is probable that the Candraprajnapti was originally a separate work from the Suryaprajnaptı.
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tiv
2. "Secondary" or "Substitute" Canon.
The Digmabaras hold that the original canon is lost and what the Svetambaras regard as canon is not authoritative. They have, however, produced a 'secondary canon' which might perhaps be more correctly termed a "substitute Canon." They sometimes describe it as the "four Vedas" This "Canon" cosists of a number of important texts of liter times classified into four groups (anuyogas) ·
(1) Prathamanuyoga-lege dary works describing the biographies of the 63 eminent persons (salakapurushas) 1 e. 24 Tirthankaras, 12 Cakravatins, 9 Baladevas, 9 Vasudevas and 9 Prativasudevas This group includes the Puranas (Padma-, HarivamsaTrishashtilakshana-, Maha-, and UttaraPurana)
works Suryaprajгnapati,
2 Karananuyoga-Cosmological Candraprajuati and Jayadhavala ;
3. Dravyanuyoga-philosophical works of Kunda-Kunda, Umisuami's Tattvarthadhigama-Sutra with commentaries and Samantabhadra's Aptamimansa with commentaries
4. Carananuyoga-ritual and disciplinary works such as Vattakera's Mulacara and Samantabhadra's Ratnakarandasravakacara and Trivarnacara We are concerned with the second class, vz the Karinuyoga.
3. Non-Canonical works
In the course of centuries several works were produced both by the Svetambaras as well as by the Digambaras, that deal, systemically with the subjects explained in the prajnaptis noted above. A tew such works can be picked up from any catologue of manuscripts Fragmentary treatises dealing with particular subjects are numerous.
Having given a short account of Jaina Cosmology (including Astronomy) and of the old literature on the subject for the sake of readers not acquainted with them, I now come to the Trailokyaprakasa itself; its contents, its author, time and language.
The Trailoky prakasa is essentially a lagna-work, 1.e,, it deals with the methods of prediction by examination of a horoscope. Works of this type were very popular in India and the production of new ones continued till as late as a century or two ago. Tp. is divided into a number of sections ().
Tp. too, was fairly popular as is shown by a pretty large number of its manuscripts still extant.
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I
CONTENTS
After saluting the Jina Parsva natha, the author praises the lagna (horoscope) as the best of everything in the world. He calls it by all auspicious names like God, Master, brightest Light, father, mother, brother, the planets etc.
In v. 6 it is admitted that the science of horoscope was widely prevalent among the mlecchas from whom it was borrow" ed by the Jains.
In the next vetse stress is laid on the use of instruments
( तुला तु मुख्य यन्त्राणि) which provide accurate data to proceed with the sixfold calculations. In the succeeding verses the author explains the title of the work, z.e,, it sheds light on the three worlds (the upper, middle and lower regions) through all the three ages (past, present and future) Hereafter the technical terms are defined in a few verses. All sorts of attributes connected with man and nature are applied to the planets and the rasts, e, g. caste, colour, smell, age, anger. kindness, wisdom. folly, male, female, neuter, enemy, friend, etc. etc.
Next come the predictions They relate to the different aspects of human life and needs such as birth of a son; recovery of health; acquision of wealth, land etc; marriage; knowledge; profit or loss in trade. going on a journey: victory or defeat in war or law suit; approach of death; forecast of weather esp fall of rain; rise and fall in prices, etc. Various methods are described to predict about the matters just enumerated.
The Author.
The author's name is mentioned as Hemaprabha Suri disciple of Devendra Suri at several places in the text, e.g., in Vv. 225, 299, 328, 373, 1113, etc. In verse 225 the name is skilfully woven and can be msde out by taking the first two letters of each pada as श्री हे । मन । भसू । रिभिः || The colophons at the end of the sections and the work repeat the name देवेन्द्र सूरि शिष्य हेम प्रभ सूरि This leaves no doubt about the authorship of the treatise. No information about the author, however, is available beyond this. About his personality absolutely nothing is known. Hemaprabha does not give his guruparampara (genealogy of teachers) beyond naming his immediate teacher, nor he mentions the name of the gaccha to which he belonged. Under these circumstances it is difficult to say anything more with certainty.
The names Devendra and Hemaprabha are very common in Jain history. About half a dozen authors bore the first
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Ivi
uame and three or four the second. No other reference has so far come to light where both these names are mentioned together having the relation of teacher and disciple In the Nagendra gaccha there was a Devendra and a Hemaprabha who flourished about the time when the Tp. was composed, viz.. Sam, 1305, the year given by Prof H. D. Velankar in his Jinaratnakosa as the date of composition of the Tp. perhaps on the authority of some manuscript.
Language.
writes
a
Usually the writers of works on technical sciences like astrology. medicine, etc, are careless in grammatical matters. But ont author No correct language. case of deviation from grammar has been found in his work. Of course the Arabic words like मुथशिल ( मुर्त्तासन ), मचकूल (), have not been spelt correctly. The author has ingeniously worked his name in verse 225 which reveals his poetic tendencies.
Other works of Hemaprabha.
Besipes the Tp. Hemaprabha is the author of a Meghamala contaraing about 10) verses noted in the Juna-Granthavalı, P. 356. P of. H. D. Velankat, however, thinks it to be another title of Tp but that is an independent work by our Author as is shown by the Poona manuscript which contains it along with Tp. The Jaina-Granth ivali p. 356 mentions another Meghamala of 400 verses without giving the author's name.
Hindi Explanation.
For the use of such readers as find it hard to follow Sanskrit, a Hindi explanation has been added to all the verses.
Thanks,
It is now my pleasant duty to offer thanks to those who co-operated in any way in the production of the present book First of all I should think Dr L. Sarup, Principal Oriental College for inaugurating the copying work of manuscript of the Trailokya Prakasa and for taking general interest in the Research work carried on by the Kushal Astrological Research Institute.
I must also thank Dr. Banarsi Das Jain, Reader in Hindi, Oriental College, Lahore for leading me the MS of the TP belonging the Jam Bhandar o Ambala city and for writing a [foreword to the present edition.
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Pt. Jagdish Lal Shastri Assistant Director, Publications Department, and Pt. Raghu Nath Sahai Shastri, Manager deserve thanks for the help they gave me in their own way. Pt. Satya Narayan Pathak Acharya Vishvabandhu, Pt. Bhagavad Datt, Tyagmurti Gosvami Ganesh Datta and Pt. Murali Dhar Jyotishacarya are to be thanked for occasional suggestions given by them.
I must thank Mr. S. S. Saith and Pt. Bala Sahai Shastri of the Panjab University Library for the facilities they afforded me in consulting MSS and books in their charge.
Dr. P.K. Gode of the Bhandarkar Research Institute Poona : the Director Gaek wad Institute Baroda ; Shriyut Agar Chand Nahta of Bikaner and Shriyut Jugal Kishor Mukhtar of the Vir Sewa Mandır Sarsawa (Saharanpur) deserve my thanks for the loin of MSS, and for furnishing copies of passages and references from other works.
M/s. Ram Lal Kapur and sons put me under obligation by supplying paper at control rate.
Last but not the least, I am indebted to Mahant Girdhan Das, Rai Bahadur Jankı Das Kapur, Proprietor Janki Das & Co. L. Bishan Das Kapur, 23 B Model Town, Lahore and Gos. Ishwar Das for financial help given ky them to meet the cost ot publication ot the TP.
BHRIGU ASHRAM. 52 C Model Town Lahore. Busant Panchmi Sam, 2002
R. S. SHARMA.
ADDITIONAL NOTES. p. 9 $ 1. See H. D. Velankar: Jinaratnakosa s. 1. (1) ANTTU 97.791 where two different works of the same name are inentioned.
9 $ 3. This account is based on "Jaina Cosmology" an aprendix in Dr. Banarsi Das's Jaina Jatakas, Lahore, 1924.
983. The heavenly bodies (planets and stars) are included in the middle region. The Vaimenika gods of the upper region are different from the Jyotishka gods.
10 $ . For Pauranic descriptions of the hells see:
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Markandaya Purana Chaps, 12 and 14 Vayu
Chap. 101. Brahmanda
IV.2. Vishnu
II. 6 VI. 5. Matsya
Chap. 39. Vamana
Chap. 11. Varaha
Chap. 198-206. Brahma
Chap. 214-18. Garuda
Smriti chapters of Uttarakhanda p. 1082. For the mythical geography of India, read W. Kirfel: Kosmographie der Inder, Bonn and Leipzig 1920.
p. 11 8 3. In the Jambudvipa alone there are two sets of 88 grahas and other stars-Trilokasara vv. 363-70. According to the Jainas there are 8 maha grahas, viz., (1) Chandra, (2) Surya, (3) Sukra (4) Budha, (5) Brihaspati, (6) Angara (mangala). (7) Sanaiscara and (8) Ketu. (Sthananga, Sutar 612). The theory of multiplicity of the heavenly bodies has been bitterly criticised by Hindu astronomers, "But what shall I say of thy folly, O Jain, who without object or use, supposest a double set of constellations, two suns and two moons? Dost thou not see that the visible circumpolar constellations take a whole day to complete their revolutions ?" W. Brennand's Hindu Astronomy p. 86. quotation from Suryasiddhanta. p. 129 1.( ) sulfasan: PaiT HAT 467garatuar 17 119311
मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १४ ॥ na: walaup119x11
Tartvarthadhigama sutra, Chapter IV. p. 13 $ +. G. Thibaut: On the Suryaprajnaptı In JASB 1880, 49, 107 ff., 181 ft.
p. 138 4. Cf. the Brahmanic term Sruti. The terms Anga, upanga and sutra are common to both the faiths, even to the Buddbist.
p13 $ 4. Taken from Winteruitz: History of Indian Literature, Vol. II, p. 457.
p. 14 S 1. Ib. p. 474. p. 15. See Jaina Granthavalı, Section on ha faratia
p 16 Mohanlal Dalichand Desai: ha enfor at sifera fagier (Index of authors).
P. 14 Ibid Sections 495 and 598.
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ॐ स्वस्ति श्रीगणेशाय नमः । श्रीहेमप्रभसूरिविरचितः
त्रैलोक्यप्रकाशः श्रीमत्पार्धामि देव केवलज्ञानभास्करम् । वाग्देवी खेचरांचापि नत्वा लंग्नमहं ब्रुवे ।।१।। लमं देवः प्रभुः स्वामी लग्नं ज्योतिः परं मतम् । लमं दीपो महान् लोके लमं तत्त्वं दिशन् गुरुः ॥२॥ लमं माता पिता लनं लग्नं बन्धुनिजः स्मृतम् । लमं वृद्धिर्महालक्ष्मीलग्नं देवी सरस्वती ॥३॥ लग्नं सूर्यो विधुलग्नं लग्नं भौमो बुधोऽपि च । लग्नं गुरुः कविर्मन्दो लग्नं राहुः सकेतुकः ॥४॥
वक्रतुण्ड ! महाकाय : सूर्यकोटिसमप्रम !
अविघ्नं कुरु में दव ! सर्वकार्येषु सर्वदा ।। मैं, ज्ञानसूर्य अपने इष्टदेव पार्श्वनाथ, सरस्वती और नक्षत्रों को नमस्कार कर, लग्न के विषय में कहता हूँ॥१॥
लग्न ही देवता है, लग्न ही स्वामी है, लग्न ही परम प्रकाश अर्थात् ज्ञान है । लग्न ही संसार में महान दीप है और लग्न ही तत्त्व को दिखलाने वाला गुरु है ।।२।।
लग्न ही माता है. लग्न ही पिता है और लग्न ही अपना बन्धु है । लग्न ही वृद्धि का कारण महालक्ष्मी है । लग्न ही देवी सरस्वती है ॥३॥
लग्न ही सूर्य है, लग्न ही चन्द्रमा है, लग्न ही मंगल और बुध है। लग्न ही बृहस्पति, शुक्र और शनि है। लग्न ही राहु और केतु है |क्षा
1. श्रीसर्वज्ञाभिधं for श्रीमत्पाश्वामिधं A, A1. 2. The opening verse is a salutation to Sriparsvadeva, Vagdevi, i.e, the goddess of speech and the grahas. It is clear, therefore, that the author of this work is Jain. 3. सताम for स्मृतम् A, A, B, Bh. 4. मलिक for दि० Bh.
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( २ )
लग्नं पृथ्वी जलं लग्नं लग्नं तेजस्तथानिलः ।
व्योम परानन्दो लनं विश्वमयात्मकम् ||५||
म्लेच्छेषु विस्तृतं लग्नं कलिकालप्रभावतः ।
प्रभुप्रसादमासाद्य जैने धर्मेऽवतिष्ठते ॥६॥ *
委
तुला तु (१) मुरूपयन्त्राणि तिष्ठन्ति किल ताजिके ।
षड्वर्ग शुद्धिमाख्यान्ति लमनिश्चय मिच्छताम् ॥७॥
7
दिव्यज्ञानप्रतिच्छन्दं करणी केवलस्य च ।
8
उपकाराय लोकानां लग्नशास्त्रं करोम्यहम् ||८||
लग्न ही पृथ्वी है, लग्न ही जल है, लग्न ही अग्नि और वायु है। लग्न ही आकाश है। ब्रह्माण्डस्वरूप लग्न ही परम आनन्द है ||५|| कलियुग के प्रभाव से लग्न म्लेच्छों में विस्तृत है । प्रभु की प्रसन्नता से जैन धर्म में भी विद्यमान है ||६||
ताजिक में भावों के जानने के लिये मुख्य साधन यन्त्र है । इन से लग्न का निश्चय करने वालों को छ: वर्गों का शुद्ध ज्ञान हो जाता है ॥७॥ दिव्यज्ञान तथा केवलज्ञान के कारणरूप इस लग्नशास्त्र को मैं उपकार के लिये बनाता हूँ ||८||
1. विश्रुतं for विस्तृतं Bh. 2. Sवतार्यते for ऽवतिष्ठते B., Bh. 3. The science of astrology and astronomy was to a greater extent prevalent amongst the Greeks in the days of Alexander the Great. This was due to the iron age, according to our author.
If the reading 'अवतार्यते' instead of 'अवतिष्ठते' is adopted it would suggest that this science is borrowed from foreigners, Greeks and the like who are called here Mlecchas.
The fact of the foreign influence in this branch of literature is disputed by some Indian scholars. 4. अभाव, for तुला तु A; गुलाव A ; वभाव B., शुभावेमुष्य for तुला तु मुख्य Bh. 6. ज्ञातृ for ज्ञान A1 6.0 च्छन्द: for • मन्दं Bh. 7. करणं for करणी A, A1, 8. धर्मशास्त्रं स्मराम्यहम for लग्नशास्त्रं करोम्यम् B.
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श्रीन कालान् त्रिषु लोकेषु यस्माद्बुद्धिः प्रकाशते । तत् त्रैलोक्यप्रकाशाख्यं ध्यात्वा शास्त्रं प्रकाश्यते ॥९॥ ब्रह्मणाऽचेष्टितं साक्षात् ज्ञानमानन्दमिश्रितम् । स्फुटीकर्तुमिवारब्धं चतुर्जेनतनूद्भवम् ॥१०॥ ब्रमो ग्रहरहः, सौम्याः सोमज्ञगुरुभार्गवाः । तमोऽर्कार्किकुजाः कराः राहोः केतुश्च सप्तमः ॥११॥ सक्ररो ज्ञः शश्यफलश्चतुर्दश्यावहस्रये । शनिराहुबुधाः क्लीवाः शुक्रन्द स्त्री परे नराः॥१२॥ बुधः शिशुयुवा भौमः शुक्रन्दू मध्यमौ परे । वृद्धा बुधे विधौ काले बालिका स्त्री प्रकीर्तिता ॥१३॥
तीनों कालों में, तीनों लोकों में, जिस से बुद्धि का प्रकाश होता है, इस प्रकार के त्रैलोक्यप्रकाश नामक शास्त्र का मैं ध्यानपूर्वक प्रकाश करता हूँ ॥६॥
आनन्दयुक्त जिस ज्ञान का ब्रह्मा ने साक्षात् अनुभव किया, जैन के चार आश्रमों से उत्पन्न उस ज्ञान को मैंने प्रकट करना प्रारम्म किया है ॥१०॥
प्रहों के रहस्य को हम कहते हैं । चन्द्र, बुध, बृहस्पति और शुक्र शुभ ग्रह है। राहु, सूर्य, शनि और मंगल पापग्रह है । राहु से सातवां केतु भी (पापग्रह ) है ।।११।।
बुध अथवा चन्द्रमा यदि ऋरग्रह के साथ पड़े हों तो चतुर्दशी आदि तीन दिनों में उनका शुभ फल नहीं होता। शनि, राहु और बुध -ये नपुंसकग्रह है। शुक्र और चन्द्रमा स्त्रीप्रह हैं। इनके अतिरिक्त अन्य ग्रह पुरुष है ॥१२॥
. बुध बालक है। मंगल युवा है । शुक्र और चन्द्रमा मध्यम अवस्था के हैं। इनके अतिरिक्त अन्य ग्रह वृद्ध हैं। प्रश्नकाल के लग्न में बुध वा चन्द्रमा हो तो स्त्री बालिका होती है ।।१३।।
1. This pada clearly expresses the antiquity and the Aryan origin of this science, although owing to the perversity of the age it spread amongst the Mlecchas (Cf. v. 6). 2. ग्रहहरं for प्रहरहः A1, 3. शस्यफल० for शश्यफल०. Bh. 4. श्वतुर्दिशाद्य for श्चतुदश्याध A,A6. बाले for काले A1, B.
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चन्द्रात्सप्तमगे विधवामसती कुजे बुधे चापि । ससुतां गुरौ च शुक्रे ससपली निःस्वतां च शनौ ॥१४॥ शनी कध्या गुरौ सूता भौमे दैत्यगुरौ रयो । मृतौ * वा सप्तमे स्थाने यद्यायान्ति ग्रहा अमी ॥१५॥ दन्तुरां श्यामिका जीर्णा शनौ राहो क्योतिगाम् । प्रश्ने नारी सदा अयात् पुमांसं चापि लग्नवित् ॥१६॥ आषाढो भास्करो ज्ञेयो ज्येष्ठमासः कुजे पुनः । श्रावणः सयले शुक्रे चन्द्रे भाद्रपदः पुनः ॥१७॥ पौषश्च मार्गशीर्षश्च गुरौ शेऽश्विनकार्तिको । चैत्रवैशाखको रादौ मन्देऽथ माधफाल्गुनी ॥१८॥
प्रश्नकाल में यदि सूर्य चन्द्रमा से सप्तम हो तो कन्या विधवा होगी, मंगल और बुध हो तो व्यभिचारिणी, बृहस्पति हो तो पुत्रयुक्ता, शुक्र हो तो सौतिनवाली, शनि हो तो दरिद्रा होगी ॥१४॥
यदि (चन्द्रमा अथवा लग्न से सप्तम ) शनि हो तो वन्ध्या, पृहस्पति, मंगल, शुक्र और सूर्य में से कोई ग्रह हो तो सन्तान प्राप्त करने वाली कन्या का जन्म होगा ॥१५॥
- यदि प्रश्नकाल में प्रश्नलग्न से सप्तम शनि वा राहु हो तो ऊंचे दांत वाली, श्यामवर्ण, दुर्बल और वृद्ध स्त्री वा पुरुष होंगे ॥१६॥
प्रभकाल में यदि सूर्य ( बली) हो तो आषाढ़ में, मंगल (बली) हो तो ज्येष्ठ में, शुक्र बली हो तो श्रावण में, चन्द्र बली हो तो भाद्रपद में (प्रसव होगा)॥१७॥
प्रअलग्न में यदि गुरु बली हो तो मार्गशीर्ष वा पौष, यदि बुध होतो आश्विन वा कार्तिक, यदि राहु हो तो चैत्र वा वैशाख और यदि शनि बली हो तो माघ वा फाल्गुन में प्रसवकाल समझना चाहिए ।।१८।।
1. This verse is missing in B. 2. वृद्धां for वन्च्या A., B. 3. सूतां for सूता A, B. For this line Bh. reads :- शनो वृद्धां गुरुसुतां भौमादित्ये गुरौ खौ। 4. I have adopted the reading of anf for (Amb.) 5 One of the peculiarities of this ms. is the use of R for . as in वैशाख ।
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(५) मार्गकेन्द जलचरौ ज्ञजीची ग्रामचारिणौ ।' राहुक्षितिजमन्दार्कान् ब्रुवतेरण्यचारिणः ॥१९॥ प्रातःकाले जीवबुधौ मध्याह्ने कुजभास्करौ । अपराहे चन्द्रसितौ सन्ध्याकाले तमाशनी ॥२०॥ ऊर्द्धदृष्टी कुजादित्यावधोदृष्टी तमाशनी । तिर्यग्दृष्टी भृगुबुधौ चन्द्रजीवौ समेक्षणौ ॥२१॥ भौमाकौं पित्तमाख्यातौ श्लेष्मिको चन्द्रभार्गवौ । समधातू गुरुबुधौ ग्रहाः शेषास्तु वातिकाः ॥२२॥ कटुको कुजमार्तण्डौ क्षाराम्लौ चन्द्रभार्गवौ ।
शुक्र और चन्द्रमा जलचर हैं । बुध और वृहस्पति प्रामचारी हैं। राष्ट्र, मंगल, शनि और सूर्य बनचर कहे गये हैं ॥१६॥
बुध और बृहस्पति प्रातःकाल में, मंगल और सूर्य दोपहर में, चन्द्र और शुक्र अपरालकाल में, राहु और शनि संध्याकाल में बली होते हैं ।२०॥
मंगल और सूर्य की दृष्टि ऊपर की ओर होती है। राहु और शनि की दृष्टि नीचे की ओर होती है। शुक्र और बुध की दृष्टि तिरछी होती है। चन्द्र और गुरु की दृष्टि चारों ओर होती है ॥२१॥
सूर्य और मंगल की प्रकृति पित्तवाली होती है । चन्द्र और शुक्र कफप्रकृतिक हैं। गुरु और बुध कफ-पित्तप्रकृतिक होते हैं। और अन्य ग्रह वातप्रकृतिक होते हैं ॥२२॥
सूर्य और मंगल कडुवे रस वाले, चन्द्र और शुक्र क्षार तथा खट्टे रस वाले, बुध और बृहस्पति कषाय रस वाले, शनि और राहु मधुर और तिक्त रस वाले होते है ।।२३।।
1. B. and Bh. often differ from the Amb. text. For this line they read :-जीवबुधौ प्रामचरौ जलजी चन्द्रभार्गवो। It may be remarked here, that the readings of the ms B. have not been recorded in all places as the ms. is only a shorter recension of the present work. It has therefore been dismissed for the collation work except at places where the verses are tolerably in consonance with the text of adoption. 2. मितौ for सितो A. 3. A, B. The text is 307 which is obviously incorrect.
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बुधः कापायिको जीवो मधुतिक्तौ तमाशनी ॥२३॥ जीवों गुरुबुधौ केतुनिराहुकुजेन्दवः । शुक्राौं मूलमाधिक्यं बलं यस्याधिकं तु तत् ॥२४॥ द्विपदी मार्गवगुरू भूपुत्राओं चतुष्पदौ । पक्षिणी बुधसौरी च चन्द्रराहू सरीसृपौ ॥२५॥ वित्रौ शुक्रगुरू क्षत्रं कुजाको शूद्र इन्दुजः । इन्दुवैश्यः स्मृतो म्लेच्छौ सैहिकेयशनिश्चरौ ॥२६॥ राजा मुनिः स्वर्णकारो द्विजो वणिग विशां पतिः । दासोऽन्त्यजः सूर्यमुख्याः क्रमादष्टौ ग्रहा अमी ॥२७॥
गुरु और बुध में गुरु का बल अधिक है। केतु, शनि, राहु, मंगल और चन्द्रमा से शुक्र और सूर्य का बल अधिक होता है ॥२४॥
शुक्र और गुरु दो चरण वाले ग्रह माने गये हैं। सूर्य और मंगल चतुष्पद अर्थात चार चरणों वाले ग्रह हैं । बुध और शनि पक्षिजातिक हा चन्द्रमा और राहु कीटजातिक हैं ॥२५॥
गुरु और शुक्र ब्राह्मण हैं। सूर्य और मंगल क्षत्रिय हैं । बुध शूद्र ' है । चन्द्रमा वैश्य है । शनि और राहु म्लेच्छ माने गये हैं ॥२६॥
सूर्य आदि पाठों ग्रह क्रम से राजा, मुनि, सुनार, ब्राह्मण, बनिया, वैश्य, दास और चाण्डाल कहे गये हैं ॥२७॥
1. B. adds,after thisv erse, the following: कटुकक्षारस्तितो मिश्री मधुराम्लकषायको । यद्वार्का धवलाधिक्ये रसाधिक्यस्य निर्णयः । 2. Bh. adds a verse here : कटुक्षारास्तिक्तमिश्रे मधुरान्तकायकाः । यद्वाी ह्यबलाधिक्ये रमाधिक्ये सनिर्णयः 3. The reading (A) for me is better, since the sun occurs in the third pada of this verse (शुक्राकौं )। 4 बने for बलं B., बाल Bh. h. भूमिजाकौं for भूपुत्राकौं A. 6. मौमा for कुमाौं A, A1. 7. For this verse B. and Bh. read :--ब्रामणो भृगुजीवो क्षत्रियौ रविमङ्गलो । वैश्यस्तु चन्द्रमाः शो बुधो म्लेच्छो तमाशनी। 8. If the reading of the text Cateyt: is adopted a syllable would run too short and the.metrical symmetry be ignored. The reading सूर्यमुख्या : as found in A, AS and B is there
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स्थूल इन्दुः सितः खण्डचतुरस्रौ कुजोष्णगू। वतिलौ सौम्यधिषणो दीघों शनिभुजंगमौ ॥२८॥ भौमो रक्तो गुरुः पीतो बुधो नीलः शशी सितः । कविः शुभ्रो रविगोरः कृष्णौ राहुशनी पुनः ॥२९॥ कुजो हस्वो बुधो मध्यः शशी दीर्घो लघुः सितः । सूक्ष्मः शनिस्तु शुपिरो दीर्घश्वोक्तो विशेषयोः ॥३०॥ मयों चन्द्रबुधौ स्वग्यौँ , गुरुसितौ विवरं परे । स्वस्थानस्थाः प्रयच्छन्ति नष्टद्रव्यादिकं ग्रहाः ॥३१॥ शुक्र चन्द्रे भवेद्रौप्यं बुधे स्वर्णमुदाहृतम् ।। गुरौ रत्नयुतं हेम सूर्य मौक्तिकमुच्यते ॥३२॥
चन्द्रमा की आकृति स्थूल है । शुक्र कृश है । मंगल और सूर्य मध्यम शरीर वाले हैं । बुध और गुरु गोलाकार हैं। शनि और राहु लम्बे श्राकार वाले हैं ॥२८॥
मंगल का वर्ण सुरख है। गुरु पीला है। बुध नीला है । चन्द्रमा और शुक्र सफेद हैं । सूर्य का गौर वर्ण है। शनि और राहु काले वर्ण के है ।।२।।
मंगल का स्वरूप छोटा है, बुध का मध्यम अर्थात न बड़ा न छोटा । चन्द्रमा का स्वरूप लम्बा है, शुक्र का छोटा है । शनि का स्वरूप सूक्ष्म और बृहस्पति का लम्बा कहा गया है ॥३०॥ ___चन्द्रमा और बुध मर्त्यलोक के ग्रह हैं । शुक्र और बृहस्पति स्वर्ग के ग्रह हैं। अन्य ग्रह पाताल के कहे जाते हैं । अपने अपने स्थान में बैठे हुए सभी ग्रह नष्ट वस्तु को देने वाले होते हैं ॥३१॥
चन्द्रमा अथवा शुक्र अपने स्थान में यदि हों तो रुपयों की प्राप्ति होती है । बुध के रहने पर सुवर्ण, बृहस्पति के रहने पर रन और सूर्य के रहने पर मोती की प्राप्ति होती है ॥३२॥
adopted. B and Bh. read for this verse:-चतुरस्रो रवि. कुजौ वृत्तो गुरुबुधौ स्मृतौ । राहुमन्दी तथा दीघौं सितोव स्थूलकः शशी। __ 1. For this verse A.. A1, B. and Bh. read :शुक्र चन्द्रे भवेद्रौप्यं हेमजीवे सरत्नकम् । रवी मुक्ता तमस्यस्थि कुजे त्रपु शनावयः॥
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( = )
श्रपु
मौ पु शनौ लौ राहावस्थीति कीर्तयेत् । धातोविनिभये जाते विशेषोऽस्मादुदाहृतः ||३३|| शुक्रे चन्द्रे अलावारो देवतावसतिर्गुरौ । खौ चतुष्पदस्थानमिष्टिकानिचयो बुधे ||३४|| दग्बं स्थानं जे प्रोक्तं शनौ राहौ च बाह्यभूः 13 तुयें स्थाने निधिर्वीक्ष्यो नष्टस्थापित एव च ||३५|| इष्टिका रक्तपाषाणताम्रशृङ्गिचतुष्पदाः । हलायुध मेदानां धान्यधातोः कुजोऽधिपः ॥ ३६ ॥ धर्मरोमोपलारोहमहिषीदन्तसूकराः ।
neer मूषका रोगाः कथ्यन्ते सबले शनौ ||३७||
मंगल यदि अपने स्थान में हो तो मूंगे की प्राप्ति, शनि के रहने पर लोहे की, राहु में हड्डी की प्राप्ति कहनी चाहिये । इस प्रकार धातु के निकाय होने पर इसी से विशेष बातें भी कहनी चाहिएं ||३३||
चन्द्रमा और शुक्र यदि अपने अपने स्थान में हों तो गोशाला में. गुरु यदि अपने स्थान में हो तो मन्दिर में, सूर्य यदि अपने स्थान में हो तो गोशाला में, बुध यदि अपने स्थान में हो तो ईटों के ढेर अर्थात भट्टे आदि स्थानों पर निधि कहनी चाहिये ||३४||
मंगल के चौथे स्थान में होने से किसी जले हुए स्थान पर निधि होगी। शनि और राहु चौथे स्थान के हों तो बाहर की भूमि में निधि होनी चाहिये ||३५||
ईटे, tra पत्थर, तांबा, सींघों वाले पशु, जंजीर, शस्त्रविशेष तथा धान्य आदि धातुओं का मंगल स्वामी है ||३६||
मड़ा, वाल, पत्थर के घर, भैंस, दांत, सूअर, शराबी लोग चूहे और रोग अधिक मात्रा में होते हैं यदि शनि बली हो ||३७||
1. A, AJ, B. and Bh. read for this verse :-- असा अयं शृगाविन्दाविष्टिकाश्रयकं बुधे । देवाश्रयं गुरौ तिर्यगाश्रयं बस्तुभास्वरे । 2. Cf. B. and Bh. दग्धं स्थानं कुजे बाह्यद्वार धराधरे ।
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(६)
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शिप्रिकास्थालकचोलरूप्यकाणां बुधोधिपः । भृगुः प्रतिमामरण गौल्यखाद्यशुमस्त्रजाम् ||३८|| मणिमुक्ताशृङ्गिरलादीनां नाथस्तु भानुमान् । नौक्षारयोः शशी सर्वस्थलधान्याधिपो बुधः ||३९|| श्रीखंडागुरुकर्पूरकस्तूर्यामोदिवस्तुनः ।
3
स्वामी बृहस्पतिर्ज्ञेयो लग्नतत्त्वविदा पुनः ||४०|| एतेभ्यो महेभ्यो मणिमुक्तारत्नादिनिर्यायः ।। आत्मचिन्ता भवेद्भानी" कुटुम्बस्य भृगौ पुनः । चन्द्रे च जननीचिन्ता भार्याचिन्ता बृहस्पतौ ॥ ४१ ॥ भ्रातृव्यस्य बुधे चिन्ता पितृपितृव्ययो खौ । शनौ राहौ च शत्रणामेवं चिन्ताः प्रकीर्तिताः ॥४२॥
शित्रिका, स्थाल. कञ्चोल, तथा रुपया आदि मुद्राओं का बुध स्वामी है। प्रतिमा अर्थात् देवमूर्ति, गहने, गोलाकार खाद्य पदार्थ तथा शुभ मालाओं का शुक्र स्वामी हे ||३८||
मणि, मोती, सींघों वाले पशु तथा रत्न आदि वस्तुओं का स्वामी सूर्य है । नाव तथा खारी वस्तुओं का स्वामी चन्द्रमा है । सभी थल के धान्यों का स्वामी बुध है || ३६ ||
नारिकेल, अगर, कपूर, कस्तूरी आदि सुगन्धित वस्तुओं के स्वामी बृहस्पति हैं | लग्नतत्त्व के ज्ञाता को इस प्रकार जानना चाहिये ||४०||
[ इन ग्रहों के आधार पर मणि, मोती, और रत्न आदि का निर्याय सममना चाहिये । ]
सूर्य यदि सबल हो तो अपनी चिन्ता होनी चाहिये । इसी तरह शुक्र से कुटुम्ब की, चन्द्रमा से माता की, गुरु से स्त्री की चिन्ता होनी चाहिये || ४१||
बुध यदि सबल हो तो भाई के पुत्र की, सूर्य यदि सबल हो तो पिता तथा चचा की, शनि और राहु यदि सबल हों तो शत्रओं की चिन्ता होनी चाहिये ||४२||
1. स्वाद्य for खाद्य Bh. 2. भौमे tor भानो A, Al 8. दुर्बलस्य for कुटुम्बस्य Amb
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रविः कर्मणि लाभे च बुधचन्द्रौ कुजः क्षितौ । पश्चमे सप्तमे शुक्रः सुते जीयः शनिवृषे ॥४३॥ जायास्थानस्य भावा न भृगुसुतमृते नो शनि धर्मभावा नो सूर्य कर्मभावा न भृगुहिमकरौ लाभभावा भवन्ति । विद्यास्थानस्य भावा न गुरुमवनिजं नावनिस्थानभावा नेन्दु मृत्युन सर्वे न तनयपदं भागवश्वेतरश्मी ॥४४॥ रखी राजा शशी राज्ञी मङ्गलो मण्डलाधिपः शः कुमारो गुरुमन्त्री सितो नेता परौ" भृती ॥४५॥ प्राच्यादीशा रविसितकुजराहुयमेन्दुसौम्यवाग्यतयः । काले स्वमनः सत्वं वाङ्मतिसुखकामदुःखानि ॥४६॥
सूर्य दसवें में, बुध और चन्द्रमा ग्यारहवें में, मंगल लग्न में, शुक्र पक्रम वा सप्तम स्थान में, वृहस्पति पांचवे में और शनि वृष में हो तो भी उपर्युक्त बात जाननी चाहिये ॥४३॥
सप्तम स्थान में शुक्र नहीं रहे नो सप्तम भाव का दौर्बल्य कहना चाहिये । इस प्रकार हवें में शनि, १०वें में सूर्य, ११वें में शुक्र वा चन्द्रमा, विद्यास्थान में बृहस्पति, धनस्थान में मंगल, वें में चन्द्रमा, पुत्रस्थान में शुक्र वा सूर्य न रहें तो उन उन भावों की दुर्बलता कहनी चाहिये ॥४४॥
प्रहों में सूर्य राजा है । चन्द्रमा रानी है । मंगल मंडलेश है। बुध रामकुमार है । बृहस्पति मन्त्री है। शुक्र नेता है। अन्य दो शनि और राहु नौकर हैं ॥४५॥
सूर्य, शुक्र, मंगल, राहु, शनि, सोम, बुध और बृहस्पति क्रम से पूर्वादि दिशाओं के स्वामी होते हैं । वे समय पाकर मनोबल, सुबुद्धि, कामपूर्ति तथा सुख और दुख के देने वाले होते हैं ॥४६॥
1. भावे for लामे Amb. 2. Amb. reads सूर्यो for सूर्य। 3. This verse is missing in Bh. 4. मण्डलेश्वरः for मण्डलाधिप: B. b. परो for परौ Bh. 6. For सौ...तयः B. and Bh. read :-- बुधगुरुवगाद्याः। 7. वाग्भीत for वाममति Amb.
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( ११ )
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पतिर्भुवो इस्तोयस्य शुक्रेन्द्र तेज से रविः । कुजश्व मरुतो राहुः शनिश्व नभसो गुरुः || ४७|| मांसत्वगुणां मज्जास्थां स्वामिनौ शनिभास्करौ । शोणिताधिपतिर्भीमः शुक्रस्याधिपतिर्भृगुः ४८ || बुधश्चैतन्यबुद्धीनां जीवो जीवाधिपो भवेत् । मनसश्चन्द्रमाः स्वामी भवेदेषां वपुः स्थितिः || ४९ ॥ सौरार्कक्षितिजाः शुष्काः सजलाविन्दु भार्गवौ । जीवज्ञावाश्रयवशाज्जल जाजलजौ स्मृतौ ||५०|| स्थानकालदृष्टिचेष्टादिग निसर्गबलानि षट् ।
3
'आय सुहृत्स्वत्रिकोणनवांशोचवलानि षट ॥ ५१ ॥
पृथ्वी का स्वामी बुध है, जल के स्वामी शुक्र और चन्द्रमा हैं; सूर्य और मंगल तेज के स्वामी हैं; शनि और राहु वायु के और आकाश का स्वामी बृहस्पति है ॥४७॥
मांस, त्वचा और रोमों का स्वामी शनि हैं । मज्जा और हड्डियों का सूर्य स्वामी है । मंगल मांस का स्वामी है । शुक्र वीर्य का स्वामी है ||८||
.
ज्ञान और बुद्धि का बुन स्वामी है । बृहस्पति जीव का स्वामी है । चन्द्रमा मन का स्वामी है । इस प्रकार ग्रहों की स्थिति शरीर में बतलाई गई हैं ||१६||
शनि, सूर्य और मंगल - ये तीन ग्रह नीरस होते हैं । चन्द्रमा और शुक्र सज्ल, गुरु और बुध अपने अपने आश्रय लेकर सजल और निर्जल होते हैं ॥५०॥
ग्रहों के स्थान, काल, दृष्टि, चेष्टा, दिग्, निसर्ग ये छ: बल 1 श्रायबल, सुहद्बल, स्वबल, त्रिकोणबल, नवांशवल और उच्चवल- ये छः बल भी होते हैं ||५१||
1. The text reads :- श्वास for मांस; सत्वयोम्लां for मांसत्वगुणां Bh. 2 एषा for एषां A, B. 3. For श्रयसुहृत्स्व. B. reads श्रद्येषु हृत्स्व० ; This line in missing in Bb.
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( १२ ) उबांशस्थे ग्रहे पूर्ण पादोन स्वत्रिकोणगे। अर्द स्वरूधिमित्रा चतुर्विशति लिप्तकम् ।।५२।। पादोनं मित्रमे शेयं समझे तु कलाष्टकम् । चतसः शत्रुभे लिप्ता द्वे लिप्ते अधिशत्रुमे ।।५३॥ स्वादिपु ग्रहैः प्रोक्तं यत्तद्वर्गेषु तद्वलम् । तदीशमादिर्भः खेटमूलपादोनराशिकः ॥५४॥ शुक्रेन्द समराश्यंशे शेषा न्यस्तबलाधिकाः । रूपादं पादवीर्याः स्युः केन्द्रादिस्थानमाश्वराः ॥५५॥
इति स्थानबलम् ।
प्रहों के अपने उच्च अंश में होने पर पूर्ण बल होता है। अपने त्रिकोण में (अर्थात अपने से नवम और पञ्चम में ) चतुर्थांश बल कम हो आता है। अपने राशि में प्राधा और अधिमित्र के गृह में चौवीस, कलात्मक बल रह जाता है ।।५२।।
मित्र के घर में रहने से ग्रहों का बल चतुर्थाश कम हो जाता है। बराबर के घर में रहने से आठ कला बल होता हे । शत्रु के घर में चार कला और अधिशत्रु के घर में दो कला समझना चाहिये ॥५३॥
अपनी अपनी राशि आदि में स्थित ग्रहों द्वारा उन उन वर्गों में उनका बल समझना चाहिये । ग्रहों का राशिस्थ बल ग्रहस्वामी के मूल बल से एक पाद कम होता है ॥५४॥
शुक और चन्द्रमा सम राशि के अंश में बलवान होते हैं। शेष ग्रहों में स्थान के अनुसार अधिक, आधा तथा पाद अर्थात् चौथाई बल होता है। केन्द्रादि स्थानों के ग्रह चर होते हैं अर्थात् उनका बल घटता बढ़ता रहता है ॥५॥
1. समय for समझें Amb. 2. For this verse B. . reads : स्वादिग्रहणे प्रोक्तं यत् षडवगेंषु तद् बलम् । तदंशावादिंगे: सेभलपादोनगदिक : ।। Bh differs from B. in the fourth nada as it reads :-मूलं पादोत्तरादिकः for मूलपादोन
रादिक।
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( १३ )
2
रात्रौ शशिकुजमन्दाः सर्वत्र ज्ञो दिने परे बलिनः । पक्षे बहुले रजनीग्रहाः परे शुक्लपक्षे स्युः ॥ ५६ ॥ बलं वलक्षपञ्चम्याश्चतुर्लिप्तं तिथौ तिथौ । शुभानामशुभानाञ्च कृष्णपञ्चमिकातिथेः ||५७|| अहोरात्रेस्त्रिभागेषु ज्ञार्कार्कीणां बलं क्रमात् । चन्द्रशुक्रकुजानां च गुरोः सर्वत्र रूपकम् ॥ ५८ ॥ अब्दे मासे दिने काले होरायां च क्षणे बलम् । पादवृद्ध्या परिज्ञेयं चैवं कालबले स्थितिः ||५९ || दशमतृतीये नवपञ्चमे च चतुर्थाष्टमे कलत्रञ्च । पश्यन्ति पादवृद्ध्या मतेन पूर्णं निजाश्रयोपान्ते ||६०॥ चन्द्रमा मंगल और शनि रात को बनी होते हैं । बध दिन और रात दोनों में बली होता है । अन्य ग्रह दिन में बली होते हैं। रात्रिप्रह अर्थात् चन्द्रमा, मंगल और शनि कृष्णापक्ष में बली होते हैं । अन्य मह शुक्लपक्ष में बली होते हैं ॥ ५६ ॥
1
शुभ ग्रहों का बल शुक्लपञ्चमी से लेकर प्रत्येक तिथि को एक • पाद घट जाता है और अशुभ ग्रहों का बल कृष्णपश्चमी से लेकर ||५७|| .. पूरे अहोरात्र को छः भागों में बाट कर एक एक भाग में क्रम से बुध, सूर्य, शनि, चन्द्र, शुक्र, मंगल बली होते हैं। पूरे २४ घण्टों में सूर्योदय से लेकर एक एक चार घंटों में पूर्वोक्त बुध आदि प्रह बली होते हैं। गुरु सर्वदा समान ही बल वाला होता है ॥ ५८ ॥
ग्रहों का कालबल - वर्ष, मास, पक्ष, दिन, होरा, क्षया में पादवृद्धि से समझना चाहिये ॥ ५६ ॥
सभी ग्रह अपने से दसवें और तीसरे को एक चरण से, नवम और पंचम को दो चरणों से, चौथे और आठवें को तीन चरणों से और सातवें को चारों चरणों से देखते हैं और फल भी उसी तरह देते हैं ||६०||
1. शुक्ल for कृष्ण Amb, A. A 1 2 तिथौ for विथेः Bh. 8. बलम् is missing in B. 4. For मतेन ... पान्ते B. readsफलानि चैवं प्रयच्छान्त । This verse is missing in Bh. After this verse A, At read :- एकादशमायभवनं सर्वे पश्यन्ति खेचराः सम्यक् । मूर्ति च सकलदृष्ट्या फलानि चैवं प्रयच्छन्ति ॥ पूर्ण पश्यति रवि जस्तृतीय दशमे त्रिकोणमपि जीवः । चतुरस्रं भूमिसुतो रविसितबुधहिमकराः कलत्रं च ॥
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( १४ ) वक्रगा अबला वक्रान्मार्गगाः शुभदा रविः । उत्तरायणगो युद्धे ग्रहाणामुत्तरो बली ॥६१॥ दिक्षु ज्ञो गुरुरविकुजशनिसितशशिनो निसर्गास्तु । कुजशनिबुधगुरुसितशशिरविबले क्रमाद्राहुरधिकवलः ॥६२॥ अस्तमिताः शत्रुजिता नीचस्था नीचगामिनो विरुचः । रिपुग्रहगरूक्षह्रस्वा अणवः कार्याक्षमा अचलाः ।।६३॥ करयुक्ता क्रान्ता दृष्टा विद्धा जिता न कार्यकराः । शुभफलदा विपरीताः स्वावस्थाविकलाः सर्वे ॥६४॥ दीप्तः स्वस्थो नीचो मुदितः पीडितः शान्तः खलः शत्तो विकलः"
ग्रह वक्री होने से निर्बल हो जाते हैं । फिर वक्री से मागीं होने पर शुभ फल को देने वाले होते हैं । सूर्य उत्तरायण होने पर अर्थात मकरादि ६ राशि में रहने से बली होता है। ग्रहयुद्ध में उत्तर दिशा में दिखने वाले ग्रह बली होते हैं ।।६।।
पूर्वादि दिशाओं में क्रम से बुध, गुरु, भौम, शुक्र, चन्द्र और शनि बली होते हैं । भौम, शनि, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र, सूर्य इन ग्रहों में क्रमिक एक से दूसरा बलवान होता है । राहु सब से अधिक बलवान होता है ॥२॥
यदि कोई ग्रह सूर्यबिम्ब से अस्त हो अथवा शत्र से जीता हुश्रा हो, वा नीच में हो, वा नीचगामी हो वा कान्तिहीन हो, वा शत्र के घर में होने से म्लान अथवा छोटा हो गया हो तो वह निर्बल होता है और कायसाधक नहीं होता ॥६३।।
यदि कभी कोई ग्रह पापग्रहों से युक्त वा आक्रान्त हो, वा उनसे देखा गया हो, वा उनसे विद्ध हो, वा पराजित हो तो कार्यसाधक नहीं होता। शुभ फल को देने वाले भी ग्रह यदि स्वस्थ न रहें अर्थात् पाप आदि ग्रहों से पराजित होवें तो वे भी अशुभ फल को ही देते हैं ।।६४||
दीप्तावस्था, स्वस्थावस्था, नीचावस्था, प्रसन्नावस्था, पीडितावस्था, शान्तावस्था, खलावस्था, शक्तावस्था और विकलावस्था-ये
1. निसर्गस्तु शनि: A., B. and Bh. 2 'शनि' is missing in A, B, & Bh. 3. निरुचयः for विरुव: Bh. 4. स्वावस्थोचिसकताः सर्वे for स्वावस्थाविकलाः सर्वे A, A1, B. and Bh. 5. सान्तः खलशरुविकला: for शान्तः खलः शक्तो विकल: A,B,& Bh.
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( १५ )
स्वोचे दीप्तः स्वगृहे स्वस्थो नीचो वीक्षितो ह्यबलः ||६५|| मित्रगृहे मुदितो गृहविजितः पीडितः स्ववर्गगः शान्तः । अरिंगः खलोऽतिकिरणः शक्तो रविहतरुचिर्विकलः ||६६ || शत्र मन्दसित समय शशिजो मित्राणि शेषा रखेस्तीक्ष्णांशहिमरश्मिजश्च सुहृदौ शेषाः समाः शीतगोः । जीवेन्द्रष्णकराः कुजस्य सुहृदो ज्ञोऽरिः सितार्थी समौ मित्रे सूर्यसितौ बुधस्य हिमगुः शत्रुः समाचापरे ||६७॥ सौरेः " सौम्यसितावरी रविसुतो मध्ये परे त्वन्यथा म्यादौ समौ कुजगुरू शुक्रस्य शेषावरी । शुक्रज्ञौ सुहृदौ" समः सुरगुरुः * सौरस्य चान्येऽरयः तत्काले च दशायबन्धुसहजस्वान्तेषु मित्रस्थिताः ||६८ ||
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अवस्थायें होती हैं जब मह अपने उच्च में रहें तो दीप्त, अपने घर में रहें तो स्वस्थ और नीच में रहें वा नीच से देखे जायं तो अबल होते हैं ।। ६५||
ग्रह अपने मित्र के घर में रहने से प्रसन्न और किसी अन्य ग्रह से पराजित होने पर पीडित और अपने वर्ग में रहने से शान्त रहते हैं। शत्रु के घर में रहने से खल, अति किरण वाले दिखाई देने पर शक्त, और सूर्य की किरणों से हतप्रभ हो जाने पर विकल होते हैं ||६६ ||
गुरु के शुक्र और बुध शत्रु हैं, शनि सम और अन्य चन्द्रमा, मंगल, गुरु मित्र हैं । चन्द्रमा के सूर्य और बुध मित्र और अन्य मह सम हैं। मंगल के गुरु, चन्द्र, रवि मित्र, बुध शत्रु और शुक्र शनि सम हैं। बुध के सूर्य शुक्र मित्र, चन्द्रमा शत्रु और अन्य ग्रह सम हैं ||६७ || सूर्य के शुक्र और शनि शत्रु हैं, बुध सम, चन्द्रमा और मंगल मित्र है। शुक्र के बुध और शनि मित्र, मंगल और गुरु सम, और अन्य शत्रु हैं। शनि के बुध, शुक्र मित्र, गुरु सम और अन्य शत्रु हैं । १०।११।४।३।२।१२ इन स्थानों में रहने वाले मह तात्कालिक मित्र है ||६८ |
1. नीचानी चस्थितिदीन: for नीचो वीक्षितो ह्यबलः । A, B, & Bh. 2. सौरे: for सूरे: A, A1 3. शुक्रोशेरसुहृदो for शुक्रौ A1. 4. The Visarga is missing in A
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कन्या राहुगृहं प्रोक्तं राहुचं मिथुनं स्मृतम् । राहुनीचं धनुर्वर्णादिकं शनिवदस्य च ॥६९॥ मेषाद्या राशयो न्यस्ताः खे चक्रे द्वादशारके । उदग्रहयोगाद्यैर्व्यञ्जयन्तीष्टमङ्गिनाम् १७०॥ क्रियतावुरिजितुमकुलीरलेयपाथेनयूपक्रयाख्याः । ताक्षिक आकौकेरो हृद्रोगधान्तिमं रिष्यम् ॥७१॥ शीर्षमुखबाहुरुरउदरकटिबस्तयः । गुह्योरू जानुअंधे च पादौ राशिरजादिकः ॥७२॥ कराकरनरखीकाश्चरान्यद्विविधाः क्रमात् ।
राहु का घर कन्या कहा गया है । मिथुन उसका उच्च है। उसका नीच धनु और अन्य वर्ण श्रादि भी शनि की तरह जानने चाहिये ॥६६॥
हादशात्मक चक्र में स्थित मेषादि राशि लग्न और ग्रहों के योगादि से मनुष्य के शुभ फल को प्रकाशित करते हैं ।।७०।।
मेवादिक राशियों की संज्ञायें क्रम से क्रिय, तावुरि, जितुम, कुलीर लेय, पाथोन, यूप, क्रय, तार्तिक, आकौफेर, हृद्रोग, रिष्य होती है ॥७॥
मेषादिक राशियों के क्रम से शिर, मुख, बाहु, छाती, पेट, कटि, बस्ति, (कटिपश्चाद्भाग ) गुदामार्ग, खुट्टियां, घुटने, जांघे और पांव अंग होते हैं ।।७२॥
मेष आदि राशि क्रम से क्रूर, अकर, नर-स्त्री-जातिक और चर बिर स्वभाव वाले होते हैं। जैसेमेष - कर
। वृष = अफर नर , चर
, स्थिर और मेषादि तीन तीन पूर्वादि दिशाओं में बली होते हैं ॥३॥
1. शनिवर्णा for धनुर्वर्णा Bh. 2 न्यस्तं for न्यस्ता: A, B. 3. For this verse A. Al read :-क्रियताबुरिजिनितानुमुपलीरलयपार्थेनयूपरूपाख्या । नौक्षिक आकोरान्द्रेरगश्चांतिम ऋक्षम् । cf. Bh. त्रिनितांबुरिजितुमुकलीरलेयपार्थेनयूपकूर्पाख्या तौक्षिका भागोषुकरे कुद्वापश्चाविमरिष्फ । 4. रजादयः for जादिकः Bh. 5. भगन्यवि for भरायद्वि० Bh.
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मेषाधास्ते च पूर्वाधाखिMपादिचतुष्टयाः ॥७सा स्वनामा सदृशाकाराः समाचारा' धनुस्त्विह । हयतुल्यपूर्वकायो मकरश्च मृगाननः ॥७४॥ वर्णा रक्तशुक्लपीतनीलपाटलधूसराः । चित्रोऽसितः सुवर्णाभः पिङ्गकर्ष वनवः ।।७५॥ चतुष्पादा वृषो मेषो मृगो धनुरघोऽग्नयः । सिंहो धनुरजोभूमिमरुत्वन्या वृषो मृगः ।।७६॥ खं मिथुनतुलाकुम्भा जलं मीनालिकर्कटाः । अपिस्तुलामृगाश्चापि यथास्थानफला अमी ॥७७|| दग्धस्थानमधः स्वोशः तुलायाः प्रथमोलिनः ।
शब्दौ मेषो वृषः सिंहमिथुनौ च धनुस्तुलौ ॥७८।। मेषादि क्रम से पूर्वादि दिशाओं में श्रावृत्ति कर के तीन तीन राशि बलो होते हैं जैसे--
मेषादि प्रत्येक राशि के आकार और आचार अपने अपने नाम बाले जीवों से मिलते हैं । धनु के पूर्व भाग का आकार घोड़े के शरीर के पूर्व. 'भाग के समान होता है, मकर का आकार मकर के समान होता है ।।७४।।
राशियों के वर्ण क्रम से लाल, सफेद. पीला, नीला, थोड़ा लाल, धूसर, रंगों की मिलावट से विचित्र, काला, सुवर्ण की तरह, पिङ्ग, कबुर ओर बभ्रु होते हैं ॥७॥
मेष, वृष, मकर, धनु, चतुष्पाद अर्थात् पशु हैं। इनका स्वभाव अग्नि के समान है । सिंह, धनु और मेष भूमि हैं । कन्या, वृष और मकर वायु हैं । मिथुन, तुल और कुम्भ आकाश है। मीन, वृश्चिक और कर्क जल है । तुल और मकर अमि भी हैं। स्थानानुसार इनका फल होता है ।।७६-७७॥
__तुल के अपने अंश का नीचे वाला स्थान दग्ध होता है। वृश्चिक का पहला अपना अंश दग्ध स्थान होता है। मेष, वृष, सिंह और मिथुन ____ 1. समवारा for समाचारा Bh. 2 चतुष्पदो for चतुष्पादा A, Al & Bh. 3. रुघाः कन्या for मरुत्कन्या A, & Bh 4. अस्तं for अग्नि A, A1, Bh. 4 प्रथमोनिलः for प्रथमोलिनः Bh.
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(१८) अर्द्धशब्दौ 'घटकन्यामकराः शब्दवर्जिताः। कर्कवृश्चिकमीनाश्च संप्रतिप्रसवा यथा ॥७९॥ कर्कवृश्चिकमीनाः स्युवहपत्या मिथुनो वृषः । । कुम्भो मध्या हरिमेषकन्यामृगतुलाल्पकाः ॥८॥ तुलालिमकराः कुंभः पाठीनः ककटो वृषः । सजलाश्चााः स्निग्धाश्च सप्ताजाद्याः परेऽन्यथा ॥१॥ सिंहमेषधनुज्ञेयाः स्वर्णादिवर्णतापिनः । राजानो ब्रुवते मीनमृगकर्कास्तनुस्थिताः ।।८२।। रूक्षाः सिंहधनुर्मेषाः पीतोष्णाः पित्तधातवः । दिने चैषां पतिः सूर्यो रात्रौ जीवः सदा शनिः ।।८३।। वृषकन्यामृगा रूक्षा उष्णा शीताश्च वातलाः ।
एषां स्वामी दिने शुक्रो रात्रौ चन्द्रः सदा कुजः ॥८४|| पूर्ण शब्द वाले हैं। धनुष और तुल अर्द्ध शब्द वाले हैं। कुम्भ, कन्या
और मकर शब्दहीन हैं । कर्क, वृश्चिक और मीन सद्यःप्रसव अर्थात शीघ्र फलदायक हैं ।।७८-७६॥
राशियों में कर्क, वृश्चिक, मीन अधिक सन्तान वाले होते हैं: वृष, मिथुन, कुम्भ मध्यम सन्तान वाले, सिंह, मेष, कन्या, मकर, तुल थोड़ी सन्सान वाले होते हैं ।
तुला, वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन, कर्क, वृष ये राशि सजल, आर्द्र और लिग्ध होते हैं । मेषादिक अन्य राशियों को इन से विपरीत समझना चाहिये ॥८॥
सिंह, मेष, धनु राशि सुवर्ण की तरह प्रकाश वाले होते हैं। मोन, मकर, कर्क यदि लम्र में स्थित हों तो इन्हें राजा कहना चाहिये ॥२॥
सिंह, धनु, मेष रूक्ष लम होते हैं। उनका वर्ण पीला और वे पित्त प्रकृति वाले होते हैं । दिन में इन के स्वामी सूर्य और रात में गुरु और शनि सर्वदा स्वामी होते हैं ॥३॥
वृष, कन्या और मकर रूक्ष लम होते हैं। क्रमशः गम, शीत और वायुप्रकृतिक होते हैं। इनके दिन में शुक्र और रात में चन्द्रमा और मंगल सर्वदा स्वामी होते हैं ।।४।।
1. पट for घट Amb. 2. मध्यो for मध्या Bh. 3. क्रमतो for an Amb 4. FEAT: for 1: A.
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(१६)
युग्मकुम्भतुला उष्णाः स्निग्धाङ्गा वावधातवः । रात्रौ चैषां बुधः स्वामी दिने मन्दः सदा गुरुः ॥८५।। कर्कमीनालिनः श्रीताः स्निग्धाश्च श्लेष्मधातवः । दिने चैषां सितः स्वामी रात्रौ भौमः सदा गुरु॥८६॥
अथ राशिवैचित्र्यप्रकरणम् चत्वारो राशयोऽजाद्या धनुमृगो निशा इमे । अन्ये दिवसमाख्याताः शेषाः षडपि राशयः ।।८७।। पृष्ठोदयाः कर्कमृगधनुषवृषा अमी। शेषाः शीर्षोदया ज्ञेया मीनस्तूभयजः स्मृतः ॥८८।। गृहे होरा च द्रेष्काणा नवांशो द्वादशांशकः । त्रिंशांशश्चेति षड्वर्गः शुद्धिः शुद्धांशतोच्यते ॥८९॥ कुजभृगुबुधविधुरविबुधसितकुजगुरुमन्दमन्दरीजीवपतिः ।
मिथुन कुम्भ और तुला लग्म गर्म कोमल तथा वायुप्रकृतिक होते हैं। इनके दिन में शनि, रात में बुध, और गुरु सर्वदा स्वामी हैं ॥८
कर्क, मीन. वृश्चिक लग्न शीत, कोमल तथा कफप्रकृतिक हैं। शुक्र इनके दिन में, मंगल रात में और बृहस्पति सर्वदा स्वामी हैं ।।६।।
राशिवैचित्र्यप्रकरण मेषादिक चार और धनु तथा मकर ये छः राशियां रात को बली होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य छः राशियां दिन को बली होते है ।।८७॥
__कर्क, मकर, धनु, मेष, और वृष पृष्ठोदया होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य लग्न शीर्ष से, केवल मीन मुख-पुच्छ दोनों से उदित . होता है॥८॥
राशि, होरा, द्रेष्काण ( अर्थात् राशि का तीसरा भाग), नवांश, द्वादशांश और त्रिशांश ये षड्वर्ग हैं ।।८६
1. The rea ding युग्म for मिथुन (Amb.) fits in with metre. 2. सदोडपः for सदा गुरु: A, Al. 3. निशामिमे for निशा इमे A. 4. शनिजीवपतिक: for मन्दरीजीवपति: A., शनिश्च जीवपतिः Bh.
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मेवादिराशिरजमृगतुलाकर्कादिविधा वृत्या ॥१०॥ द्वित्रिनवद्विरसत्रिंशदांगो लमेथ' होगद्याः । होराधार्की परा चान्द्री विषमे व्यत्ययः समे ॥९१|| लमं तत्पञ्चनवमाद् द्रेष्काणा आदितो नवांशेशाः । स्वगृहादकांशेशास्त्रिंशांशाधिपतयस्तु यथा ॥१२॥ कुजयमशीवासिताः पञ्वेन्द्रियवसुमुनीन्द्रियांशानाम् । विषमेषु समर्केषु क्रमेण त्रिंशांशकाः कल्प्याः ॥९॥ तनुर्धनानुजमित्र ४ सुत ५ रिपु ६ गृहिणी ७ मृतिः ८
मेषादि राशियों के क्रम से मंगल, शुक्र, बुध, चन्द्र, रवि, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, शनि, गुरु ग्रहस्वामी हैं ॥१०॥
राशि का प्राधा तृतीयांश, नवमांश द्वादशांश, त्रिंशांश स्वगृह ये क्रम से होग, द्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश, त्रिंशांश, गृह, षड्वर्ग होते है। उस में विषम राशि में पहले पन्द्रह अंश तक सूर्य की होरा, उस के बाद तीस अंश तक चन्द्रमा की होरा होती है। सम राशि में पहली चन्द्रमा की दूसरी सूर्य की होरा होती है ॥६॥
राशि के दश अंश तक वही राशि ट्रेष्कागा होता है। उसके बाद बीस अंश तक उस राशि का पाँचवाँ राशि ट्रेष्कागा होता है । उस के बाद तीस अंश तक उस राशि का नवम राशि रोकाया होता है। और पर (मेष, कर्क, तुल, मकर ) राशि में स्वराशि से ही नवमांश की गयाना होती है और स्थिर (वृष, सिंह, वृश्चिक कुम्भ) राशि में इसके नषम (मकर, मेष, कर्क, तुल ) से नवमांश की गणना होती है और द्विस्वभाव (मिथुन, कन्या, धनु, मीन ) राशि में इस के पश्चम । तुल. मकर, मेष, कर्क) से नवमांश की गणना होती है और द्वादशांश की गगाना स्वराशि से ही होती है ॥२॥
विषम राशियों में मंगल शनि, गुरु बुध शुक्र क्रम से ५वें, ५वें, य, ५वें त्रिशांशकों के स्वामी होते हैं। सम राशियों में विपरीत क्रम से त्रिशांशों के स्वामी होते हैं ॥३॥
सनु, धन, अनुज, मित्र, सुत, रिपु, गृहिणी, मृत्यु, धर्म, कम.
1. त्रिशतोगी च for त्रिंशद्वागो लग्नेऽथ Amb. 2. बसुमतीतिमाशान्ताः for वसुमुचीन्द्रियांशानाम् Amb. वसुमवीन्द्रियांशानाम् A. 3. समर्वेषु for समर्थेषु Amb.
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(२१) धर्म ९ कर्मा १० य ११ व्ययतो भावा द्वादश लागाः ॥९॥ तनुलप्रमूर्तिहोराकल्पोदया धनमय कुटुम्बञ्च । विक्रमदुश्चिक्यमथ सुहृद्धिबुकपातालम् ॥१५॥ वेश्माम्बुबान्धवसुखं चतुरस्रं त्वष्टमे चतुर्थं च । पुत्रो धीः प्रतिभारिक्षतं कलत्रं तथा धनम् ।।९६॥ जामित्रं चित्तोत्थं धनमस्तं मृत्युरन्ध्रछिद्राणि । ... धर्मो गुरुस्तपस्त्रिकोणमिदमत्र सुतसहितम् ॥९७।। कर्मास्पदमेघरणमानाज्ञायभवनलाभान्त्यरिक्थम् ।
कटककेन्द्रचतुष्टयमेकचतुर्थास्तदशमानाम् ॥९८॥ बाय, व्यय-ये लग्नादि द्वादश भावों की क्रमिक संज्ञाएं हैं ।।६४॥
सनुभाव की संज्ञा-तनु, लम, मूर्ति, होरा, कल्प, उदय है। धनभाव की संज्ञा - कुटुम्ब भी है। अनुजमाव की संज्ञा - विक्रम, दश्चिक्य भी हैं। मित्रभाव के लिये सुहृद, हिबुक और पाताल भी कहे जाते हैं ।।६५
मित्रभाव के लिये वेश्म, अम्बु बान्धव, सुख ये भी संज्ञाएं हैं। चतुरस्र से चौथा और आठवां दोनों का ग्रहणा होता है । सुतभाव के लिये धी, रिपुभाव के लिये प्रतिम अरि, क्षत तथा सप्तमभाव के लिये कलन तथा धन शब्दों का भी प्रयोग होता है ।॥६६॥
इसी भाव के लिये जामित्र, चित्तोत्थ, घन, अस्त भी पर्याय है। अष्टममाव के लिये मृत्यु, रन्ध्र, छिद्र, नवमभाव के लिये धर्म, गुरु, तप पर्याय है। त्रिकोण से नवम तथा पश्चम दोनों का ग्रहण होता है ।।१७||
दशम भाव के लिये कर्म, अास्पद, मेषूरण । ग्यारहवें भाव के लिये प्राय, लाम । बारहवें भाव के लिये अन्त्य, रिक्थ । कटक, केन्द्रचतुष्टय लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम स्थानों को कहते हैं । 1. ब्ययिता for व्ययतो A. 2. मघधनं for धनमथ A.
3. A reads मानान्यज्ञायभवनलाभान्त्यरिष्युः for माना etc. || मांसं नान्यायभुवनलाभांत्यरिष्फं Bh.
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(२२) लगभूस्वअखकेन्द्रमायं तुर्यास्तकर्मजम् । केन्द्रात्परं पणफरं तस्मादापोक्लिमं परम् ॥१९॥ पणफरांझावि कार्य ज्ञेयमापोलिमाद्गतम् । केन्द्र सर्वे ग्रहाः पुष्टास्त्रैलोक्यैकफलप्रदाः ॥१०॥ घटमीनौ च चत्वारः सिंहाद्वाच्या दिनेश्वराः । मेषाद्या मृगचापौ च चत्वारश्च निशाह्वयाः ॥१०१॥ रव्यादय उचा अजवृषमृगकन्याकुलीरझपतौलौ । परमोचा दश१० त्रि३ मोह२८ तिथि१५ शर५ भ२७ नखैः२०॥ उच्चस्थानास्तगा नीचाः परमोच्चास्तदंशगाः । त्रिकोणोऽर्कादिसिंहोऽक्षोऽजस्त्रीचापतुला घटाः ॥१०३॥
भू लग्न की संज्ञा है । श्वभ्र, ख दशम स्थान की संज्ञा और लम, चतुर्थ, सप्तम, दशम केन्द्र कहलाते हैं और केन्द्र के बाद द्वितीय, पञ्चम, भष्टम, एकादश स्थान पणफर कहलाते हैं । उसके बाद नीसरा, छठा, नवम, बारहवाँ स्थान प्रापोक्लिम कहलाते हैं ।
परफण से भविष्य का और आपोलिम से भूतकार्य का ज्ञान होता है । केन्द्रस्थित यदि सभी ग्रह पुष्ट हों तो भूत, भविष्य और पतमान कालों के फल को बतलाते हैं ।।१०।।
सिंह से चार, तथा कुम्भ और मीन दिन में बली होते हैं । मेष आदि बार, मकर और धतु ये रात्री में बली होते हैं ॥१०१५॥
मेष, वृष, मकर, कन्या, कर्क, मीन, तुल राशियों में सूर्यादि ग्रहों के उन होते हैं। यही ग्रह १०३।२८।१५।५।२७।२० अंशों से परमोश होते हैं ॥१०॥
स्थान से सप्तम में ग्रह नीच होते हैं। परमोश के अंश ही नीच राशि में परम नीच कहलाते हैं । सूर्यादि सात ग्रहों के क्रम से सिंह, प, मेष, कन्या, तुल, धनु, कुम्भ ये मूल त्रिकोण कहलाते हैं ॥१०३।।
1. श्व for स्व A. 2 पणपरं for पणफरं Bh. 3 क्तिम for किम Bh. 4. फरपणा for पाफरा A. 5 कि for कि A. 6. ० कालिक० for. बैलोक्ये. A. 7. परमारा for परमोन्पा A.
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(२)
चरादिचादिमध्यान्त्या वर्गोत्तमनवांशकाः । त्रिपदशैकादशमोपचयाः स्युः परेऽन्यथा ॥१०॥ कर्मणा येन येनेह प्रेरितोऽभ्येति पृच्छकः । जन्मपृच्छारम्भलमैस्तत्तस्य व्यज्यते त्रिभिः ॥१०५॥ यो भावः स्वामिना सौम्यो दृष्टो युक्तः समृद्धिमान् । पापैस्तु हानिमानेवं द्वयमिन्दोयुतौ दृशि' ॥१०॥ लग्नसौम्यान्तरा योगा लमेश्वरशुभान्तराः । चन्द्रसौम्यान्तरः पुण्यस्तरणिश्च शुभान्तरा ॥१०७॥ नुघशिलास्तु विज्ञया रवेस्तुल्याः शुभान्तराः । तावन्तो मचकूलाच ज्ञेयाः शुभनिरीक्षणे ॥१०८॥ लमे चन्द्रः शनिः कुंभो खौ बुधे "विरश्मितः॥ .
चर, स्थिर, द्विस्वभाव, राशियों के क्रम से आदि, मध्य, अन्न्य नवमांश वर्गोत्तम कहलाते हैं और ३, ६, १०, ११ वें उपचय कह. लाते हैं ।।१०४॥ .
प्रष्टा जिस जिस कर्म से प्रेरित होकर आता है वह कर्म, जन्म, तथा मुच्छाकाल अथवा कर्म के प्रारम्भकाल-इन तीनों से प्रकट हो जाता है ॥१०॥
जो भाव शुभ ग्रह वा स्वामी से युक्त हो वा देखा जाय वह समद्धिप्रद होता है । यदि पापग्रहों से युक्त हो वा देखा जाय तो हानिकारक होता है। यदि चन्द्रमा से युक्त हो वा देखा जाय तो वृद्धि हानि दोनों होते हैं। अर्थात् पूर्णचन्द्र से वृद्धि और क्षीणचन्द्र से हानि होती है ॥१०६।।
सौम्य लग्न के अन्तरयोग लग्नेश के शुभान्तर होते हैं । सौम्य चन्द्र का अन्तर भी शुभकारक है । तरणियोग भी शुभान्तर है। बारह मुन्थशिला भी शुभान्तर हैं । बारह मचकूल भी शुभान्तर हैं। शुभ दृष्टि में इन का भी विचार करना चाहिये ।।१०७-१०॥ ___1. चरादावादि for चरादिचादि A. 2. सौम्ये for सौम्यो A. 3. वृद्धः for युक्त: Amb. 4. सवृद्धि for समृद्धि A. 5. सद्वदिन्दोयुतो दशि for द्वयमिन्दो£तो दृशि Bh. 6. स्तरणश्च for स्तरनिश्च A. 7. मुन्थ for नुध A, A1 मथुशला Bh. 8. द्वादशव for रवेस्तुल्या: A, A1.9 मकबूलाश्च tor मचकूलाच Bh. 10. रविधी for रवौ बुधे Bh. 11. रस्मित: sor बराश्मट: Amb,1.
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(२४) कौटिल्येनागतः प्रष्टा' विज्ञायचं ततो वदेत् ।।१०९॥ उदयादागता नाड्यस्तासामर्दैन संख्यया । सूर्यधिद्भवेदृक्षं तेन लमस्य निर्णयः ॥११॥
इति लमज्ञानम् । धनस्थानं यदा चन्द्रः सौम्यो वा यदि गच्छति । धनेशो वापि लगेशो यदोदेति तदा धनी ॥१११॥ भ्रातृगेहे यदा चन्द्रः सौम्यो वाम्येति वा पुनः । भ्रात्रीशो वापि लग्नेशो यदोदेति तदा धनी* ॥११२।। निधिस्थानं यदा चन्द्रः सौम्यो वा यदि वा धनः । निधीशो वापि लशस्तदा सौख्यं निधिस्थितिः ॥११३॥ पुत्रभावे यदा चन्द्रः सौम्यो वा प्रथमोदितः । पुत्रशो वापि लमेशः सुतप्राप्तिस्तदा ध्रुवम् ॥११४||
लम में यदि चन्द्रमा, शनि हो, कुंभ राशि में सूर्य और बुध तेज होन हो लो प्रष्टा का मन कुटिल समझना चाहिये । यह जान कर उत्तर भी उसी प्रकार देना चाहिये ।।१०६॥
सूर्योदय से नाड़ियों की आधी संख्या द्वारा सूर्यनक्षत्र से जो नक्षत्र निकले उससे लग्न का निर्णय करना चाहिये ।।११०॥
चन्द्र वा बुध धनस्थान में हों अथवा वे धनेश वा लग्नेश हो तो मनुष्य-अवश्य धनी होगा ॥११॥
चन्द्र वा बुध भ्रातृस्थान में हों अथवा वे भ्रात्रीश वा लग्नेश होकर रह तो मनुष्य अवश्य धनी होगा ॥११२॥
चन्द्र वा पुष्ट बुध चतुर्थस्थान में हों अथवा वे निधीश वा लग्नेश होकर रहें तो वह अवश्य सुखी होगा ॥११३।। ।
चन्द्र वा बुध पुत्रभाव में हो अथवा वे पुत्रेश तथा लग्नेश होकर रहें तो पुत्रप्राप्ति अवश्य होनी चाहिये ॥११॥ ___1 पृष्टा for प्रष्टा A. .). सूर्यभाद् for सूर्याद A. 3. A, Aradd : गतवटिका: पड़गुणितगतसंक्रान्तेर्दिनानि सम्मील्य। विशम्या च हरेद् भागं शेपं तात्कालिकं लग्नम् ।। 4. This verse is . repeated in the text तदानुन: tor तदा धनी Bh. 5. वाथ मादित: for वा प्रथमदतः । वान्य प्रमोदितः Bh.
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( २५ ) पनौकसि यदा चन्द्रः शुभखेटविलोकितः । उपायाः सामदण्डाद्याश्वाष्टधापि धिया सह ॥ ११५ ॥ रिप्वोकसि यदा चन्द्रः सौम्यो वा सचनो बलः । रिपणा" वापि प्रेशो रिरोगौ घनौ कुधीः ॥ ११६ ॥ अस्तगेहे चन्द्रशुक्रौ शुभदैरुदितैस्सह । भार्येशो वापि लग्नेशः स्त्रीराज्यं च तदा ध्रुवम् ||११७|| "मृत्यूपेन्द्र यदा मृत्यौ सौम्यो वापि यदोदितः । द्वाविंशतितमे त्र्यंशे तदा मृत्युः स्वयं ध्रुवम् ॥ ११८ ॥ पदस्थाने यदा चन्द्रः शुभो वा सरविर्भवेत् । पादेशो वापि लग्नेशो मुद्राप्राप्तिस्तदेव हि ॥ ११९ ॥ पुण्यहे यदा चन्द्रः सौम्यो' वापि यदोदितः । धर्मेो वापि लग्नेश राज्यप्राप्तिस्तदा ध्रुवम् ॥१२०॥
3
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चन्द्र यदि पुत्रस्थान में हो और उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो संतानों के साथ साम-दण्ड आदि सभी उपाय सफल हो जाते हैं ॥११५॥ यदि चन्द्र वा बुध शत्रुस्थान में पुष्ट और बली हो अथवा लग्नेश होकर शत्रु के साथ रहे तो शत्रुभय और रोगभय तथा मनुष्य मूर्ख होता है ।। ११६ ।।
चन्द्र और शुक्र सप्तम स्थान में हों, उदित शुभ ग्रहों से देखे जाते हों और वे लग्नेश तथा जायेश होकर रहें तो निश्चय ही स्त्री का प्रभुत्व होता है ॥११७॥
चन्द्र और शुक्र यदि अष्टम स्थान में हों और उदित बुध से युक्त या देखे जायँ तो बाईसवें वर्ष के तीसरे अंश में निश्चय ही मृत्यु होती है ॥ ११८ ॥
चन्द्र अथवा अन्य शुभ ग्रह तृतीय स्थान में सूर्य के साथ हों अथवा तृतीयेश तथा लग्नेश होकर रहें तो रुपयों की प्राप्ति होती है ॥ ११६ ॥ चन्द्र वा बुध पुण्यस्थान में हों अथवा वे धर्मेश वा लग्नेश होकर रहें वो निश्चय ही राज्यप्राप्ति होती हैं ||१२०||
1. सबलाधनt for सनो बलः Bh. 2. Bh. 3. स्रुत्यु for मृत्यु A. 4. सौम्यो वापि A 5 शुभ वाथवा for पदेशो वापि 6. सोमो for सौम्यो A., साम 17.
रिपुयो for रिपुव्या भवेत for शुभ बा पदेशा नापि Bh. for दोटितः A.
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( २६ )
पच्छाकाले ग्रहाधीशो यत्र भावे भवेद्यदा । रिपुभावे घिया हीनो मित्रभावे फलाधिकः ॥ १२१ ॥ लाभस्थाने यदा चन्द्रः सौम्यो वा सोमजोदयः' । लाभेश वापि लग्नंशो लाभाधिक्यं तदा भवेत् ॥ १२२॥ व्ययस्थाने यदा चन्द्रः सौम्यो वा स्वगृहादिगः । व्ययेशो वापि लग्नेशो व्ययो भवति भूमिपात् ||१२३|| अंशकाभिप्रायेण कथयति ।
सौम्यदृष्टेक्षिते वापि सौम्यदृष्टे + स्वतुङ्गभं ।
यदा घनांशके चन्द्रस्तदावश्यं धनं धनम् ||१२४ ||
प्रश्नकाल में जिस घर का स्वामी जिस भाव में हो वैसा ही फल कहना चाहिये । यदि शत्रुभाव में हो तो बुद्धिहीन होता है, यदि मित्र भाव में हो तो अधिक फलदायक होता है || १२१||
यदि चन्द्र वा बुध लाभस्थान में हों और कुछ उदित हों, वे लाभेश वा लग्नेश होकर रहें तो उसको अधिक धन लाभ होता है || १२२||
चन्द्रमा वा बुध व्यय स्थान में स्थित होकर यदि स्वगृहादि में हों और वे यदि व्ययेश या लमेश हो जांय तो राजा से उसके धन का व्यय होता है || १२३ ||
अब चन्द्र अपने उच्च में रहते हुए बुध अथवा अन्य शुभ ग्रह से हो वा देखा जाय और जब न्वन्द्रमा धनस्थान के नवांशक में हो तो अवश्य ही बहुत धन होता है || १२४ ||
युक्त
1. सोमजादिक: for सोमजोदय: A 2 A AT add. लग्नेश बीते लग्नं धनेशो वीक्षते धनम् । धनवान् लग्नपे लग्ने धने च धनपो धनी ॥ लग्नेशधनपो लग्ने द्वौ धने च तदा धनी । चतुर्भङ्गयेऽपि सर्वेऽपि भावास्तरात्फलप्रदाः ।। लग्नस्य लग्नाधिपतेः सूर्यस्येन्दोरितस्ततः । प्रत्येकं तोरणे सौम्याः शुभान्तर चतुष्टयम् || for लाभाधिक्यं तदा भवेत् Bhreads व्ययो भवति भूमिपात | Bh. adds पृच्छाकाले गृहाधीशो यत्र भावो भवेद्यदि । रिपुभावे धिया हीनो मित्रभावे फलाधिकः ॥ 3. मुते - ofr हिते A. 4. विद्वे for दृष्टे A.
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(२७) सौम्यदृष्टेतेि' वापि सौम्यदृष्टे" स्वतुङ्गभे । निध्यंशके यदा चन्द्रो निधिभोगौ तदा खलु ॥१२५॥ सौम्ययुक्तेक्षिते वापि सौम्यदृष्टे' स्वतुङ्गमे । सुतांशके यदा चन्द्रः सुतो वापि तदा पुनः || १२६ ॥ सौम्ययुक्तेक्षिते विद्धं स्वीयगेहे स्वतुङ्गभं । यदा रोगांशके चन्द्रस्तदोद्वेगश्चतुष्पदे ॥ १२७॥ सौम्ययुक्तेक्षिते विद्धे स्वीयगेहे स्वभे । यदा भार्यांशके चन्द्रस्तदा भार्याशतं स्मृतम् ॥ १२८ ॥ सौम्ययुक्तेक्षिते विद्धे मृत्युभावे स्वतुङ्गभे । यदा मृत्यंशके चन्द्रस्तदा मृत्युरसंशयम् ॥१२९|| सौम्ययुक्तेक्षिते विद्धे स्वीयगेई स्वतङ्गभे ।
यदा पुण्यांश शुक्रस्तदा द्रव्यं स्त्रिया सह || १३० ॥
स्वोस्थ चन्द्र, बुध वा अन्य शुभ ग्रह से युक्त हो वा देखा जाय और जब वह चतुर्थस्थान के नवांशक में हो तो निधि और भोग दोनों की प्राप्ति समझनी चाहिये || १२५ ||
उच्च का चन्द्र यदि बुध वा अन्य देखा जाय और जब वह सुतस्थान के अवश्य कहना चाहिये ||१२६ ||
स्वगृह का वा उच्च का चन्द्र यदि बुध अथवा शुभ ग्रह से युक्त अथवा देखा जाय वा विद्ध हो और यदि वह रोगस्थान के नवांशक में हो तो उसे पशुचिन्ता कहनी चाहिये || १२७ ||
स्वगृह का वा उच्च का चन्द्र शुभ ग्रह से युक्त अथवा देखा वा विद्ध हो जाय और जब वह स्त्रीस्थान के नवांशक में हो तो उसके बहुत. विवाह कहने चाहिएं || १२८||
उच्च का चन्द्र, अष्टम भाव में बुध अथवा अन्य किसी शुभ ग्रह से युक्त, दृष्ट अथवा विद्ध हो, और जब वह अष्टम भाव के नवांशक में हो तो निश्चय ही उसकी मृत्यु कहनी चाहिये || १२६॥
किसी शुभ ग्रह से युक्त हो वा नवांशक में हो तो पुत्रजन्म
स्वगृह का वा उच्च का शुक्र बुध अथवा किसी अन्य शुभ ग्रह से युक्त, दृष्ट अथवा विद्ध हो और पुण्यस्थान के नवांश में हो तो स्त्री-प्राप्ति के साथ धनप्राप्ति कहनी चाहिये || १३०||
1. युते for क्षिते A. 2. विद्धे for दृष्टे A.
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(२८) सौम्ययुक्तक्षिते विद्ध स्वीयगेहादिसंस्थिते । यदा पुण्यांशके चन्द्रो राज्यप्राप्तिधनैः सह ॥१३१॥ सौम्ययुक्तक्षिते विद्धं स्वीयतुङ्गादिसंस्थिते । यदा भार्यांशके चन्द्रो मुद्राप्राप्तिस्तदा क्षणे ॥१३२॥ सौम्ययुक्तेक्षिते विद्धं स्वीयतुङ्गादिसंस्थिते । यदा लाभांशके चन्द्रः कोटिप्राप्तिः श्रियस्तदा ॥१३॥ सौम्ययुक्तक्षिते विद्ध स्वीयतुङ्गादिसंस्थिते । व्ययस्थाने यदा चन्द्रो व्ययो भवति सर्वदा ॥१३४॥
एवमंशकफलम् ।। अतः परं जन्मदशा फलञ्च जन्मलग्नतः । "मृतिभूयाद्व्ययाको भवति च चरमो यावता जन्मपत्र्यामाः सर्वेऽपि गण्याः प्रतिगृहमिलिता जन्मवर्षा भवन्ति ।
स्वगृह का, उस का वा मूल त्रिकोण का चन्द्र, बुध अथवा किसी अन्य शुभ ग्रह से युक्त, दृष्ट वा विद्ध हो और जब वह पुण्यस्थान के नवांशक में हो तो धन के साथ राज्यप्राप्ति होती है ॥१३१॥
यदि स्वगेह आदि स्थित चन्द्र, बुध अथवा किसी अन्य शुभ ग्रह से युक्त, इष्ट अथवा विद्ध हो और जब वह जायास्थान के नवांश में हो तो उसे तत्काल रुपयों की प्राप्ति होती है ॥१३२||
अपने उच्च गेहादि मे स्थित चन्द्र, यदि बुध वा अन्य किसी शुभ मह से युक्त, दृष्ट तथा विद्ध होकर लाभस्थान के नवांश में हो तो कोटि संख्या में धन की प्राप्ति होती है ॥१३३॥
अपने उच्च गेहादि मं स्थित चन्द्रमा यदि बुध अथवा अन्य किसी शुभ ग्रह से युक्त, दृष्ट अथवा विद्ध होकर व्यय स्थान के नवांश में आता है तो सदा खर्च होता रहता है ।।१३४॥
लग्न से बारहवां व्ययस्थान होता है । जन्मपत्री में सभी अंक इसी प्रकार गिनने चाहिएं । प्रत्येक गृह में जन्मपत्री में शुभ ग्रह हो सकते
1, The text sometimes reads स्वीयगेहादिसंस्थिते and sometimes स्वीयतुजादिसंस्थिते or स्वीयगेहे स्वतुङ्गभे. I have followed 'A' which is consistent throughout 2. poभूयाद् for मूर्ति यात A., मूर्तेट्यात A1.
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(२६) सौम्याः सौम्यैरवस्थास्त्रशुभगृहखगैर्दुःखदाः शेषवर्षा इत्येवं जातकाद्वाप्यशुभशुभ फलं दर्शितं जन्मलग्नात् ॥१३५॥ जन्मतो यत्तमे गेहे यत्र स्युः सौम्यखेचराः। जन्मतस्ततमेब्दाहे लक्ष्मीर्भवति जन्मिनः ॥१३६॥ जन्मतो यत्तमे भावे यत्रापि करखेचराः । जन्मतस्तत्तमेब्दाहे विपद्भवति दुःखदा ॥१३१७/ जन्मतो यत्तमे गेहे यत्रैवं मिश्रखेचराः । जन्मतस्तत्तमेऽब्दाहे मिश्रं भवति निश्चितम् ॥१३८||
प्रकारान्तरेण जन्मदशा जन्मकुण्डल्याम् । मध्यग्रहेर्दशा पूर्णा बाह्यगैरद्धिका ततः । मूर्त्यस्तगैस्त्रिभागोना चैवं जन्मग्रहाद्दशा ॥१३९।। मृत्तिविभुर्यदि मूर्ति कार्याधिपतिश्च" वीक्षते कार्यम् ।
लग्नाधीशः कार्य कार्येशः पश्यति विलग्नम् ॥१४०॥ हैं जिस घर में शुभ ग्रह का सम्बन्ध हो उसमें सुख, पापग्रह के सम्बन्ध से दुःख होता है । इस प्रकार जन्म लग्न से फल कहना चाहिये ॥१३५।।
जन्म लग्न से जितने घर में जहां पर शुभग्रह हों, जन्म से उतने ही वर्ष और दिन पर उसको मुख और धन होता है ।।१३६॥
जन्म लग्न से जितने भाव में पापग्रह हों, जन्म से उसने वर्ष में · उसको दुःख देने वाली विपत्ति होगी ॥१३७।।
___जन्मलग्न से जितने गृह में शुभग्रह आर पापग्रह दोनों हों, अन्म से उतने वर्ष में मिश्रफल अर्थात् सुख और दुःख दोनों निश्चित होते हैं ॥१३८॥ .
मध्यग्रहों से पूर्ण दशा होती है। बाह्यगत ग्रहों से आधी दशा; लग्न और सप्तमस्थ ग्रहों से तृतीयांशोन दशा होती है । इस प्रकार जन्मकालिक ग्रहों से दशा होती है ।।१३।। . लग्नश यदि लग्न को, कार्येश कार्य को, अथवा लगेश कार्य को और कार्येश लग्न को देखे ॥१४०॥
1. सौम्येरवस्थास्वाशुभगृहर वर्गोदुःख दाः for सौम्यवस्थारुचशुमगृहखगैर्दुखदा:A1 2 mi ssing in A 3. निश्चतम for जन्मिनः A, A1 4. जन्मिन: for निश्चितम A. 5. कुएडल्याः for कुण्डल्याम् A 6. कायौंघविभुश्च for कार्याधिपतिश्च A. 7. विलग्ने for विलमम A.
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( ३० ) लग्नेशः कार्येशं विलोकते लग्नपं च कार्येशः । शीतगुष्टौ सत्यां परिपूर्णा 'कार्यनिष्पत्तिः ॥ १४१ ॥ कथयन्ति पादयोगं पश्यति सौम्येन लग्नपे लग्नम् । लग्नाधिपे च पश्यति शुभग्रहेनार्द्ध योगं च ॥ १४२ ॥ लग्नपतिदर्शने सति शुभग्रहौ द्वौ त्रयोऽथवा लग्नम् । पश्यन्ति यदि तदानीं प्राहुर्योगं तु भागोनम् ॥१४३॥ क्ररावेक्षणवर्जाश्चत्वारः सौम्यखेचरा लग्नम् । लग्नेशदर्शने सति पश्यन्तः पूर्णयोगकराः ॥ १४४ ॥ आद्य लग्नपतिः कार्ये लग्ने कार्याधिपो यदि । द्वितीयो लग्नपो लग्ने कार्ये कार्याधिपो भवेत् ॥ १४५ ॥ लग्नपः कार्यपचाप लग्ने यदि तृतीयकः ।
चतुर्थः कार्यगौ स्यातां यदि लग्नपकार्यपौ ॥ १४६ ॥
लग्नेशकार्येश को, कार्येश लग्नेश को देखें और चन्द्रमा की दृष्टि रहे तो कार्यसिद्धि अच्छी तरह होती है || १४१||
लग्न को कोई शुभ ग्रह देखता हो और लग्नेश लग्न को न देखे तो पादयोग होता है । यदि लग्नेश लग्न को देखें और शुभग्रह की दृष्टि नहीं हो तो अर्द्धयोग कहते हैं ।। १४२ ।।
लन को लग्नेश और दो वा तीन शुभग्रह भी देखे तो उस को कुछ अंश से न्यून योग कहना चाहिये || १४३ ||
लग्न को लग्नेश और चार शुभग्रह पापग्रहों की दृष्टि से रहित यदि देखें तो पूर्ण योग होता है || १४४ ||
लग्नेशकार्यक्षेत्र में और कार्येश लग्न में यदि हों तो एक प्रकार का योग होता है ।
लग्नेश लग्न में और कार्येश कार्य में हो तो दूसरा योग होता है ।। १४५ लग्नेश और कार्येश लभ में हो तो तीसरा योग होता है ॥ यदि लग्नेश और कार्येश दोनों कार्यक्षेत्र में हों तो चौथा योग होता है ।। १४६ ।।
1. काय for कार्य A. 2 A and At add इति दशा 3. त्रिभागोनम् for तु भागोनम् Bh. 4. क्रूरा विश्वक्षणा for क्रूरावेक्षया A, A' करावेक्षणवर्या Bh. 5. लग्नपो for लग्नपौ A.
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(३१) चतुर्वप्युभयत्रापि चन्द्रग्दर्शनं मिथः । कार्यसिद्धिस्तदा ज्ञेया मित्रे चेदधिकं फलम् ॥१४॥ चन्द्रदृष्टिं विनान्यस्य शुभस्य यदि दृग् भवेत् । शुभं प्रयोजनं किश्चिदन्यदुत्पद्यते तदा ॥१४८॥ राजयोगा अमी ख्याताश्चत्वारोऽपि महाफलाः । अत्रैव दृष्टियोगेन सामान्येन फलं स्मृतम् ॥१४९॥ अर्द्धयोगा विनिर्दिष्टाः परस्परदृशं विना । चन्द्रदृष्टिं दिना ज्ञयं शुभं पाइफलं बुधैः ॥१५॥ परस्परं दृश्यमृते चन्द्रयोगो भवेद्यदि । तदाद्धफलमाख्यातं प्रपश्चोऽयं मतो मतेः ॥१५१।। लग्नेशो वीक्षते लग्नं कार्यशः कार्यमीक्षते । कार्यसिद्धिर्भवेदिन्दुः कार्यमेति परं यदा ॥१५२॥ कराक्रान्तः करयुतः करदृष्टश्च यो ग्रहः । विरश्मितां प्रपन्नश्च म विनष्टो बुधैः स्मृतः ॥१५३॥
इन चारों योगों में चन्द्रमा की दृष्टि परस्पर हो तो कार्यसिद्धि होती है। यदि यही मित्र के घर में पड़े हों तो अधिक फल होता है ॥१४॥
यदि उक्त योगों में चन्द्रमा की दृष्टि न हो और अन्य किसी शुभमह की दृष्टि हो सो किसी अन्य ही प्रकार का शुभफल उत्पन्न हो जाता है ॥१४॥
ये चार राजयोग कहे गये हैं जिनके उत्कृष्ट फल होते हैं । इन में सामान्य दृष्ठियोग से सामान्य फल होता है ॥१४६।।
पारस्परिक दृष्टि न होने से अर्धयोग होता है । चन्द्रदृष्टि के बिना चतुर्थाश शुभ जानना चाहिये ॥१५॥ । पारस्परिक दृष्टि के न होने पर यदि चन्द्रमा के साथ योग हो तो अर्धफल कहना चाहिये ।।१५१।।
लग्नेश लग्न को देखे और कार्येश कार्यक्षेत्र को देखे और चन्द्रमा कार्यक्षेत्र में जब हो तो कार्य सिद्धि अवश्य होती है ॥१५२॥ ।
जो ग्रह पापग्रहों से आक्रान्त, युक्त वा दृष्ट हो वा सूर्यराशि में प्रवेश कर गया हो तो वह विनष्ट-सा हो जाता है अर्थात उसकी सत्ता नहीं रहनी ॥१५॥
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( ३२ )
क्रूरे जीयमानो यो राहुपार्श्वे यथा रविः । क्रूराकान्तः स विज्ञेयः क्रूरयुक्तः समेंशके ॥१५४॥ पूर्णया दृश्यते दृष्ट्या क्रूरो दृष्टः स उच्यते । प्रविविक्षः प्रविष्टो वा सूर्यराशौ विरश्मिकः || १५५ ।। लग्नाधिपे विनष्टे स्याद्विनष्टावयवः पुमान् । विनष्टजातिवर्ण शुभाकारो विपर्यये ॥ १५६ ॥ राजयोगानाह
भावेभ्योऽप्युत्तमं भाग्यं तृतीयेन समन्वितम् । उभयत्राश्रिताः सौम्या भाग्यस्यैव हि पोषकाः || १५७॥ तृतीयेऽपि ग्रहे सौम्या भाग्यप्रकर्षपोषकाः । तत्रापि पूर्णदृष्ट्या च पुण्योपचयसाधकाः || १५८ ।।
जिस तरह राहु के पास सूर्य दिखाई देते हैं उसी तरह पापग्रहों से जो ग्रह पराजित किया गया हो वह क्रूराक्रान्त कहलाता है ।
यदि क्रूरह के समान अंश में कोई ग्रह हो तो वह क्रूरयुक्त कहलाता है ।। १५४||
जब कोई ग्रह पापग्रह से पूर्णदृष्टि से देखा जाय तो क्रूरदृष्ट कहलाता है। जो ग्रह सूर्य राशि में प्रवेश करना चाहता अथवा प्रविष्ट हो गया हो वह विरश्मिक समझा जाता है ।। १५५||
लग्नाधीश यदि विनष्ट हो तो उसे किसी अङ्ग से हीन कहना चाहिये। उसके जाति और वर्ण सभी न कहने चाहियें। इसकी विपfree में उसे शुभ आकार वाला कहना चाहिये || १५६ ॥
सभी भावों में भाग्यस्थान और तृतीय स्थान उत्तम कहा गया है । इन दोनों स्थानों में यदि शुभग्रह हों तो वे भाग्य के पूर्ण वर्द्धक होते हैं । १५७ तृतीय भाव में यदि शुभ ग्रह हों तो वे भाग्य के प्रकृष्ट पोषक होते है। फिर भी यदि वे पूर्ण दृष्टि से भाग्येश को देखते हों तो उसे पुण्यशीख कहना चाहिये || १५८||
1. क्रूरदृष्ट: for क्रूरो दृष्टः A. 2. महा: for महे A. 3. भाग्याप्रकर्ष A., भाग्याकर Bh.
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( ३३ )
ततो मूर्तिः पुनः श्रेष्ठा भाग्यानां तु समाश्रयः । भावानां परमो भावस्तनुर्द्वादशपोषकः ॥ १५९ ॥ तूर्ये सौम्याः शुभा एव मातृद्रव्यादिभोज्यदाः । राज्यप्रदाः शुभैः ष्टाः सर्वे सम्पत्तिदायकाः || १६०॥ ततस्तयं निधिः श्रेष्ठं राज्यभावसमन्वयम्' । ततः शुभं शुभे ष्टं लाभेन सहितं नभम् ॥ १६२॥ ततो धनं शुभाक्रान्तं जायास्थानं ततः शुभम् । शुभमप्यस्त केन्द्र त्वाच्छुभस्थानं बले गने ।।१६२ || उदयगते वृषराशौ भाग्यं पश्यति भाग्यवे । तत्कालं यः पुमान जातो यावज्जीवं समृद्धिमान् ॥ १६३॥ उदयतो वृषेशस्य स्वोच्चं तदैव गच्छतः ' । स्वयं पश्यति लग्नेशे जातविरं समृद्धिमान् ॥ १६४॥
भाग्यादिकों का आश्रय होने के कारण लग्न भी श्रेष्ठ माना गया है और सब भावों को पुष्ट करने वाला लग्न सब से श्रेष्ठ है ॥ १५६ ॥ चतुर्थ स्थान में शुभग्रह रहने से ही शुभ होता है और वे मातृधन-भोज्य आदि सुख को देने वाले होते हैं। यदि वे शुभग्रहों से देखे जायें तो राज्य वा सम्पत्ति देने वाले होते हैं ।। १६०||
उसके बाद राज्यस्थान को समन्वय करने वाला चतुर्थ स्थान श्रेष्ठ है। उसके बाद लाभस्थान से सम्बन्ध रखने वाला दशम भाव शुभ ग्रह से युक्त या देखा जाय तो शुभ फल देता है ।। १६१ ।।
शुभ ग्रह से सम्बन्ध रखने वाला धनस्थान और सप्तम स्थान हो तो शुभ होता है। सप्तम स्थान भी केन्द्र होने के कारण बलवान, शुभ ग्रह युक्त, दृष्ट होने से शुभ होता है ।। २६२ ।।
से
'वृष लग्न हो और भाग्येश भाग्य स्थान को देखता हो उस समय में जो लड़का पैदा हो उसे आजीवन ऐश्वर्ययुक्त कहना चाहिये ।। १६३ ।। वृष लग्न हो और लग्नेश स्वोश्चाभिमुख अर्थात उच्च स्थान में जाता हो और लग्नेश लग्न को देखे तो बालक चिरकाल तक ऐश्वर्ययुक्त होगा ।। १६४ ॥
1. भावसमं द्वयम् for भावसमन्वयम् A. 2. सतं for शुभं A. 3. The reading मतम् ( A. Bh. ) for नमम् is correct. 4. गतम् for गते A. 5 भाग्यं पश्यति भाग्यपे । तत्कालं यः पुमान जातो यावज्जीवं for स्वोच्चं तदैव गच्छतः । स्वयं पश्यति लमेशे Bh.
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(३४)
लग्नस्वनिधिभाग्येशेऽभ्युदयात् पञ्चतुर्यके । तत्कालं यः पुमान् जातः स च कोटीश्वरो भवेत् ॥१६५।। सर्वग्रह: परे दृष्टेऽभ्युदयत्येव लगपे । स्वोचमित्रस्थगेहे वा जातो भवति भूमिपः ॥१६५॥ केन्द्रगतैः सर्वग्रहरुदयत्येव लमपे । मूर्ति पश्यति लग्नेशे चक्रवर्ती नरस्तु सः ॥१६७॥ भाग्यपेऽभ्यन्तरे राशौ गते जन्म यदा भवेत् । लप्रपे च विशेषेण यावजीवं समृद्धिमान् ।।१६८।। त्रिमिश्छवं महाच्छत्रं पञ्चमिश्थातिच्छत्रकम् । सप्तभिस्तुर्यपत्यन्तं ग्रहैश्छत्रादिनिर्णयः ॥१६९॥ लप्राधारो भवेञ्जीवः शरीरं चन्द्रमाः पुनः । तेजस्तेजोनिधिः प्रोक्तः शाखाः स्युस्त्वितरे ग्रहाः ॥१७०॥ . लग्नेश, धनेश, चतुर्थेश और भाग्येश यदि लग्न से पश्चम वा चतुर्थ स्थान में हों तो उस लग्न में उत्पन्न बालक कोटीश्वर अर्थात् बड़ा धनवान होता है ॥ १६५॥
लग्नेश लग्न वा अपने उच्च अथवा मित्र स्थान में रहे और शुभ ग्रहों से देखा आय तो वह शिशु राजा होता है ।। १६६ ॥
सभी ग्रह केन्द्र में और लग्नेश लग्न में रहे वा लग्नेश लग्न को देखे तो वह मनुष्य चक्रवर्ती होता है ।। १६७ ।।
भाग्येश लग्न और भाग्य स्थान के बीच किसी राशि में हो वा लग्नेश लग्न और भाग्य के बीच हो तो वह शिशु जीवनपर्यन्त समृद्धिशाली होता है ।। १६८ ॥
तीन ग्रहों से छत्र, पांच ग्रहों से महाछत्र, सात से अतिछत्रक, चार से दस तक इस प्रकार प्रहों से छत्र आदि का निर्णय समझना चाहिये।। १.६६।।
गुरु शरीर का आधार, चन्द्रमा शरीर और सूर्य शरीर का तेज माने गये हैं। और मंगलादि अन्य ग्रह उसकी शाखा होती है ।। १७० ॥ 1. लमस्य for लभस्व A., लग्नेशो Bh. 2. ऽभ्युदयत्येव तर्यके for ऽभ्युदयात पनतर्यके A. 3. स्वगृहे for स्वगेहे A. 4. पञ्चभिरति for पाभिश्वाति A.
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( ३५) लग्ने गुरुनिधौ चन्द्रः छिद्रे शुक्रः पदे रविः। स्वमित्रे निजगेहादौ वाञ्छितेशो भवेन्नरः ॥१७॥ मूतों जीवः सितस्तुर्ये स्मरे सोमः पदे रविः । राहुणा सहितो लग्ने स प्रौढः पण्यभाजनम् ॥१७२॥ विद्या संजीवनी नाम शुक्रस्यैव न वाक्पतेः । अतोऽपि हेतुना जीवात्कविरेव बलाधिकः ॥१७३।। लग्नवित्ताधिपौ लग्ने दृष्टौ जीवहिमांशुना । नीचे वा शत्रलाभे वा कोटिशो वस्तु यच्छतः ॥१७४॥ यत्र यद्राशिपो राजा भवन्नुदेति तत्क्षणम् । तदाशिलमवाक्यानामुदयस्तत्र वत्सरे ॥१७॥ उच्चस्थो मुदितो राजा राशिपो लग्नतो' यदि । तत्र वर्षे शुभं कुर्यादुष्टो वापि गृहाधिपः ॥१७६॥ ___ यदि लग्न में गुरु, चतुर्थ स्थान में चन्द्रमा, अष्टम स्थान में शुक्र और पद स्थान में सूर्य हों और अपने मित्र या स्त्रगृह इत्यादि में स्थित हों तो स्वेच्छापूर्ति वाला होता है ॥ १७१ ।।
__ लग्न में गुरु, चतुर्थ स्थान में शक्र, सप्तम में चन्द्र और पदस्थान में सूर्य, राहु से युक्त लग्न हो तो वह मनुष्य प्रौढ़ पुण्यराशि वाला होता है ।। १७२ ॥
संजीवनी विद्या शुक्र के पास ही है, बृहस्पति के पास नहीं। इस लिये भी गुरु से शुक्र ही बल में अधिक है ।। १७३ ।।
लग्नेश और धनेश लग्न में रहें, गुरु तथा चन्द्रमा की दृष्टि उन पर रहे तो लग्नेश और धनेश नीच शत्र वा लाभ स्थान में भी रहें तो वे मनुष्य को करोडों वस्तुएँ देते हैं ।।१७४॥ ...
जिस किमी राशि का भी स्वामी वर्षेश होकर उस समय लग्न में हो तो उस वर्ष उम राशि वा लग्न वालों को लाभ होता है ।।१७।।
किसी राशि का स्वामी वर्षेश होकर यदि उच्च का हो उस - स्थ राशि का स्वामी दुष्ट हो, उस वर्ष में वह प्रसन्न होकर शुभ फल ही पाते हैं ।।१७६।। ___1. ०वाच्याना for वाक्याना० A. 2. राशिपौ for राशिपो A 3. लग्नपौ for लग्नतो A.
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पाष्टमान्त्ये सौम्यास्तत्फलाः रास्तदर्थहाः । नेन्दुर्लपान्त्यषष्ठाष्टः शेषस्थानौषपोषकाः ॥१७७॥
इतिग्रहस्वरूपम् । मों ज्ञेयं रूपवृत्तं लक्षणायुर्वयो त्रणम् । वर्णक्लेशदोषमानपूजारोग्यं शुभं सुखम् ॥१७८॥ धने मौक्तिकरत्नानि हेमाद्याः सप्तधातवः । पशुधान्याम्बरं क्रय्यं क्रयाणकगणो धनम् ॥१७९॥ सहजात्प्रशुभदासीभगिनीभ्रातपदादयः । सुहृत्सुखं दुःखमैत्री निविस्थानगमागमौ ॥१८०।। प्रामपिनुमा कृषिष्टीधृतिगेहिनीमहोषधयः । मुक्तिबिलप्रवेशादेशो लाभं च कुशलं च ॥१८॥ सुतान्मन्त्रसुतौ विद्याप्रतापशिष्यबुद्धयः । गर्भसन्धिः शुभद्रव्यं स्थानोपायनयादयः ॥१८२।।
६, ८, १२ वें गृहों में सौम्य ग्रह शुभ फल देते हैं और कर प्रह धन की हानि करते हैं अन्य स्थानों में ग्रह पुष्टिकारक होते हैं । १, १२, ६, वें स्थानों में चन्द्र शुभ नहीं होता है ॥१७७॥
लग्न स्थान से रूप, लक्षणा, आयु, अवस्था, वर्ण, क्लेश, दोष, मान, पूजा, आरोग्य, शभ, सुख इत्यादि विषयों का विचार किया जाता है ॥१७॥
धनभाव से मोती रत्न और सवर्ण आदि सात धातु पशु, धान्य, वस्त्र और अन्य भी क्रय वस्तुओं का विचार करना चाहिये ॥१७॥
'सहज स्थान से शुभ दासी, बहिन, भाई, पद आदि का विचार, सहभाव से मित्र, सुख, दुःख निधि का आना वा जाना, ग्राम-मात-पित ससा, कृषि, बाग, धैर्य, सी, महोषधि, भोग, बिलप्रवेश, आज्ञा, लाम और कुशल, का विचार करना चाहिये ॥१८०-८॥
*पनाम स्थान से पुत्र, मन्त्र, विद्या, प्रताप, शिष्य बुद्धि, गर्भ, सन्धि, शुभ द्रव्य की प्राप्ति, स्थानप्राप्ति, उपायसिद्धि, नीतिसफलता भादि का विचार करना चाहिये ।। १८२ ।
1. After this Al reads : इदानी द्वादशभावेभ्यो वपुषो (१नो ms) यस्य निर्णयः क्रियते तान् भावानाह। 2, पूज्या for पूजाA. 3. वृद्धि for निधि A A1 4 प्रवेशोदेशो for प्रवेशादेशो Bh, 5. सुतो for सुतो A. 6. गर्भः सन्धिः for गर्भसन्धिः A1
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( ३७ )
रिपौ चतुष्पदं नीचं मातुलः क्रूरकर्म च । दासी दासो रिपुर्व्याधिः परतोऽहङ्कृतिर्वणम् ॥१८३॥ अस्तात्साध्यव्यवहारः कलहश्च गमागमौ । चौरी विजयः स्वस्थत्वं हर्षो झगटकः स्मृतः ॥ १८४॥ मृत्योर्नद्युतारगणो यथाधिदुर्गमापदः ।
3
योनिविस्मृतिनिष्पत्तिः " संवादो भेदपत्तयः || १८५ ॥ शत्रुद्रव्यं परीवारो मृतार्थश्विरवस्तुनः " ।
निधनं पोतजार्थातिराकुलत्वं च चिन्तयेत् ॥ १८६॥ धर्माद्वापी कूपसरः प्रपामठ' सुरालयाः ।
दीक्षा यात्रानव्यविद्या पुण्यं भाग्यं गुरुस्तपः ॥ १८७॥
षष्ठ स्थान से नीच पशु, मामा, क्रूरकर्म, दासी, दास, शत्रु, व्याधि, दूसरे से अहंकार तथा क्षति आदि बातों का विश्वार करना चाहिये ॥ २८३ ॥
सप्तम स्थान से योग्य व्यापार, आना, जाना, व्यय, चोर, विजय, स्वस्थता, हर्ष, रोग, आदि का विचार करना चाहिये ।। १८४ ॥
अष्टम स्थान से नदी को पार करना, श्रधि, मार्ग के संकट, मार्गभ्रम, मार्गापत्ति, योनि, विस्मृति, संवाद, भेद, शत्रु, द्रव्य, परिवार, चिर नष्ट धन तथा वस्तु, मरण, सामुद्रिक व्यवसाय से अर्थलाभ तथा राजकुल के सम्बन्ध आदि का विचार करना चाहिये ।। १८५-८६ ।।
धर्मस्थान से बावड़ी, कूप, तालाब, प्याऊ मन्दिर तथा मठ, दीक्षा, यात्रा, नवीन प्रकार की विद्या, पुण्य, भाग्य गुरु और तपश्चर्या आदि के विषयों का विचार करना चाहिये || १८७॥
1 रुक्ठकः for झगटक: Amb. 2. for मृत्योर्नद्युत्तारगणोमूल्योंनितारो A. नद्यो मृत्युतारगण पथ्याधि० 3. नष्टाप्ति: for निष्पत्ति: A, Bh. 4. संवादौ for संवादो A. 5. मृतार्था भकटकः स्मृता Bh. 6. निधानं for निधनं A. 7. ०राजकुलत्वं for राकुलत्वं A. 8. पाठ for मठ A.
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(३८) कर्मतो राजवृद्धयादि पितृमुद्रापुरादिकम् । खेचरत्वं पुण्यमानौ निर्वाहश्चाधिकारिता ॥१८॥ राजवेश्म मित्रवेश्म पशुप्रारब्धकर्म च । आचार स्थानमायातुर्यानानि करिवाजिनः ॥१८९।। वस्त्रायुः स्वर्णसस्यत्रीविद्याराजपरिच्छदः । मित्राश्रमौ रूपवित्तं लाभो राजकुलादपि ॥१९०॥ व्ययाद्विवाहयज्ञादि महायुद्धानि कीत्तनम् । त्यागभोगो कृषिभ्रंशः विश्वासकुपथा व्ययः ॥१९१।।
इति द्वादशभावेभ्यस्तत्त्वचिन्ता । सर्वश्रियां परीणामो यत्स्वरूपं जगत्त्रयम् । · सिद्धचक्रं नमस्कृत्य वक्ष्ये किश्चित्तमोऽपहम् ।।१९२।।
कर्मस्थान से राजकुल में प्रतिष्ठा, सम्मान आदि, पैतृक सम्पत्ति की प्राप्ति, माम आदि की प्राप्ति, व्योमयानों मे उड़ना अथवा देवाह सम्मान की प्रापि, पुण्य प्राप्ति, श्रेयप्राप्ति, अच्छा निर्वाह तथा अधिकारप्राप्ति-इन बातों का विचार करना चाहिये ॥१८८||
राजभवन से सम्बन्ध, मित्र के घर से सम्बन्ध, पशु के साथ सम्बन्ध, प्रारब्ध कर्म की सफलता, आचार, स्थान, तथा हाथी, घोड़ा मादि यानों के विषय में विचार करना चाहिये ॥१८६।।
आय स्थान से वस्त्र, श्रायु, सुवर्ण, धान्य, स्त्री, विद्या, राजसम्बन्ध, मित्र, श्राश्रम, रूप, धन राजकुल से लाभ आदि बातों का विचार करना चाहिये ।।१६।।
__ व्यय स्थान से विवाह, यज्ञ, आदि, युद्ध, त्याग, भोग, कृषि की हानि, किसी पर विश्वास तथा कुमार्ग से धन व्यय आदि विचार करना चाहिये ॥१६॥
जो सब प्रकार की सम्पत्तियों के कारण हैं, जो तीनों लोकों के स्वरूप हैं ऐसे सिद्ध महापुरुषों को नमस्कार करके मैं कुछ अज्ञाननाशक बातें कहता हूँ ।।१६२॥
1. भाचारा: for प्राचार A. 2. मायान्त यानानि for oमायाहर्यानानि A. 3. भूपवित्तं for रूपवित्तं A. भूमिवित्त Bh. 4. The reading of the Amb. text (राजलाभो कुलादपि) is obviously in- correct, I have, therefore, adopted the reading of A, Al .
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(३६)
अश्विनी मृगशीषच हस्तः पुष्यः पुनर्वसुः । स्वातिश्च रेवती चैव जन्मकाले धनप्रदाः ॥१९३॥ भरणी च मघा चित्रा विशाखा शततारिका । धनिष्ठाऽश्लेषिका प्रोक्ता जन्मन्यशुभदायिनः ॥१९॥ कृत्तिका. रोहिणी चाा ज्येष्ठा मूलाख्यतारिका । श्रवणं चानुराधा च मघा पूर्वोत्तराधिकम् ॥१९५॥ सोमो बुधो गुरुः शुक्रो वाराश्चत्वार उत्तमाः। रविभौमः निर्वारो विपरीतः समासतः ॥१९६॥ नन्दा भद्रा जया पूर्णा शुभदास्तिथयो मताः । द्वादश्याद्याश्च रिक्ताश्च सवकमसु वर्जयेत् ॥१९७॥ तिथिनक्षत्रवारेषु शुभषु जन्म यस्य वै । त्रिकोणोचग्रहैलग्ने राजा भवति सात्त्विकः ॥१९८॥ ___ अश्विनी, मृगशिरा, हस्त, पुष्य, पुनर्वसु, स्वाती और रेवतीये नक्षत्र जन्मकाल में प्रशस्त तथा धन को देने वाले हैं ॥१६॥
भरणी, मघा, चित्रा, विशाखा, शतभिषा, धनिष्ठा, आश्लेषा-ये नक्षत्र यदि जन्मकाल में हो तो अशुभ फल देते हैं ॥१४॥
कृत्तिका, रोहिणी, आद्रो, ज्येष्ठा, मूला, श्रवया, अनुराधा, मघा और तीनों पूर्वा, तीनों उत्तरा-ये मध्यम नक्षत्र कहे गये हैं ॥१६॥
सोम, बुध, गुरु, शुक्र-ये चार ग्रह शुभ होते हैं। रवि, मंगल, शनि-ये अशुभ वार हैं अर्थात् शुभ वार में जन्म शुभफलद अन्यथा अशुभफलदायक होता है ।।१६६।।
नन्दा, भद्रा, जया, और पूर्णा ये तिथियां शुभ होती हैं । द्वादशी आदि तथा रिक्ता-इनको सभी शुभ कार्यों में न्याग देना चाहिये ॥१६॥
शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, और शुभ वार में जिस मनुष्य का जन्म हो पार लग्न का त्रिकोण वा उच्च ग्रहों से सम्बन्ध हो तो वह मनुष्य सात्विक राजा होता है ॥१६॥
1. ०दायिनी for दायिनः A , Al. 2. मध्यं सर्वोत्ररात्रिकम् A., AL. 3. र्वारा for eोरो A. 4. विपरीताः सतां मताः for विपरीतः समासतः। A, Bh,
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(४०) वर्षादौ दिवसादौ तु यस्य जन्म प्रवर्तते । स दीर्घायुर्बुधैर्वाच्यो ज्योति शास्त्रानुसारिभिः 1 ॥१९९॥ त्रिलोकीतिलकः प्राज्यप्रभावोऽतिशयाधिकः । तीर्थकृतपूज्यपुण्यात्मा मध्यरात्रोद्भवः पुमान् ॥२०॥ 'दौ प्रहरी घाटिकाहीनी द्वौ प्रहरी घटिकाधिको । विजया नाम योगोऽयं सर्वकायप्रसाधकः ॥२०१॥ वर्षान्त दिक्सान्ते च यस्य जन्म ध्रुवं भवेत् । अल्पायुः स च विज्ञयो दिव्यशास्त्रविचक्षणः ॥२०२॥ मासमध्येषु यत्संख्यदिवसे जायते पुमान् । तत्संख्यवर्षभुक्तौ तु लक्ष्मीभवति निश्चितम् ॥२०३॥
वर्षादि एवं दिनादि में जिस मनुष्य का जन्म हो, ज्योतिःशाखवेत्ताओं को उसे दीर्घायु कहना चाहिये ।।१६६।।
जिस मनुष्य का जन्म मध्य रात्रि में अर्थात् १२ बजे रात को हो वह त्रैलोक्यश्रेष्ठ, महाप्रतापी, महातेजस्वी, तथा तीर्थस्थानों में जाकर पुण्य करने वाला होता है ॥२०॥
१२ बजे के एक घटी पहले से लेकर १२ बजे के बाद १ घटी तक का समय विजय नाम वाले योग का होता है जो सभी कार्यों को सिद्ध करता है ॥२०॥
वर्षान्त अथवा दिनान्त में जिसका जन्म हो वह निश्चय ही अल्पायु होता है । ऐमा दिव्य शास्त्रज्ञों ने बतलाया है ।।२०२।।
जिस किसी भी मास के जितने दिन में शिशु उत्पन्न हों उसके अन्म से उतने वर्ष में निश्चय ही लक्ष्मी की वृद्धि होती है ।।२०३॥
1. शास्त्रविशारदैः for शास्त्रानुसारिभिः A1. 2. शयान्तः for ०शयाधिक: A. AL. 3. विजयो for विजया A, Bh. 4. सर्वकार्याणि साधयेत् for सर्वकार्यप्रसाधकः A, A1. कार्यार्थ० for
कार्य प्र. Bh. 5. तु for षु Bh. 6. यन्संख्ये दिवसे जन्म आवते for यत्संख्यदिवसे जायते पुमान् A.
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(४१) शनिश्चरे सदा दुःस्थो बुधे जातो 'महाजडः। मातृभिर्मुरुभिः साद हृदये कुटिलः कटुः ॥२०४॥ उत्तमतिथिसंयोगे रविवारोदये पुनः । खीलग्ने स्वीगृहे* चैव नारी पुण्यक्ती मता ॥२०५।। उत्तमतिथिसंयोगे रविवारोदये पुनः । कापि सुखी क्वचिदुःखी' जायते कटुभाषकः ।।२०६॥ महाभोगी महाचक्षः स्त्रीषु लोलाङ्गनाप्रियः । सुभगः पात्रभूतश्च शुक्रे शुक्राधिको मतः ॥२०७॥ महामोगी महात्यागी गुरुभक्तो गुरुप्रियः निजक्षेत्र गुरौ जातः पात्रभूतः पुमान् पुनः ॥२०८|| अश्विन्याधुत्तमे स्थाने जातो भवति पुण्यवान् । मध्येपु" कृत्तिकायेषु भरण्यादिषु दुर्गतः ॥२०९॥
शनिश्चर वार में उत्पन्न बालक सर्वदा दुःखावस्था में रहता है। बुध में महाजड़ और अपने माता, गुरुओं के साथ कौटिल्यपूर्वक व्यवहार करने वाला होता है ।।२०४||
उत्तम तिथि के साथ रविवार का संयोग हो और कन्या लग्न तथा कन्या राशि रहे तो पुण्यवती कन्या का जन्म कहना चाहिये ।।२०।।
रविवार में उत्तम तिथि के संयोग रहने पर भी उत्पन्न शिशु कभी सखी कभी दुखी कभी कटुभाषी होता है ।।२०६॥
शुक्रवार में उत्तम तिथि के संयोग रहने पर महाभोगी, दिव्यचा, सन्दर स्त्रियों का प्रेमी तथा स्वयं भी सुन्दर और पुष्ट वीर्य वाला योग्य होता है ॥२०७॥
बृहस्पति वार में शभतिथियों के संयोग रहने पर बालक महाभोगी, त्यागशील, गुरुभक्त, गुरुप्रिय तथा सुपात्र होता है ।।२०।
अश्विनी आदि उत्तम नक्षत्रों में उत्पन्न बालक पुण्यवान होता है। कृत्तिकादि उक्त मध्यम नक्षत्रों में मध्यम और भरणी आदि अधम नक्षत्रों में अधम होता है ॥२०६॥ ___ 1. जडः पुमान् for महाजड: A. AI. 2. मातृभिः पितृमिः for मातृमिगुरुभिः A, A1. 3. सनुः for पुन: A. 4. ग्रहै for गृहे A. 5. कचिदु :खी सुखी कापि A. A1. 6, मध्यश्च for मध्येषु Amb.
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(४२) पृच्छायां गौरगात्राणां यत्र मासे' गुरोर्भवेत् । उदयस्तत्र मासे स्यादुदयोऽस्तेऽस्तमादिशेत् ॥२१०॥ पृच्छायां श्यामगात्राणां यत्र मासे कवर्भवेत् । उदयस्तत्र मासे स्यादुदयोऽस्तेऽस्तमादिशेत् ॥२११॥ घातवणितगात्राणां यत्र मासे कुजोदयः । उदयस्तत्र मासे स्यात् पुंसामस्तेऽस्तमादिशेत् ॥२१२॥ पच्छायां भिन्नगात्राणां यत्र मासे बुधोदयः । उदयस्तत्र मासे स्यात् पुंसामस्तेऽस्तमादिशेत् ॥२१३॥ उदयात्पृष्ठलग्ने चेत् पृच्छायां पृच्छकस्य च । न स्यात् पृच्छार्थसम्पत्तिस्ततो लग्नान्तरे पुनः ॥२१४॥
प्रभ करते समय यदि प्रश्न करने वाला गौर वर्ण का रहे तो गुरु का उदय जब हो उस समय प्रश्न कर्ता का भाग्योदय और गुरु के अस्त समय पर अस्त कहना चाहिये ।।२१०॥
यदि प्रश्नकर्ता श्यामवर्ण का हो तो शुक्रोदय के महीने उसका उदय और शुक्रास्त के महीने उसका अस्त कहना चाहिये ।।२१।।
यदि प्रश्रकर्ता घात तथा व्रणों से युक्त शरीर वाला हो तो मङ्गलोदय के समय उसका उदय और मङ्गलास्त के समय उसका अस्त कहना चाहिये ॥२१२॥
यदि प्रश्नकर्ता छिन्न भिन्न शरीर वाला हो तो बुध के जयकाल में उसका उदय और अस्त काल मे अस्त कहना चाहिये ।।२१३।।
प्रभकर्ताओं के प्रश्न के समय यदि पृष्ठोदय लग्न हो तो अभीष्ट सिद्धि नहीं होती। अन्य लग्नों में होती हैं ॥२१४॥
1, मासेन for मासे; the addition of न is redundant 2. कवि for कवे Amb. 3. For मस्तेऽस्तमादिशेत् A. reads मस्ते च दुर्गति: 4. A, A1 add here : आतंक भग्नगात्राणां यत्र मासे शनेर्भवेत् । उदयस्तत्र मासे स्यात्पुसामस्ते च पूर्ववत । Bh. reads मातंकलगागात्राणां यत्र मासे शनिर्भवेत् । etc. 5. पृष्टलग्नं for पृष्ठलाने A. Amb, चतुतिः Bh. षष्ठे लग्ने for पृष्ठलाने Bh.
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(४३) आतङ्करुग्णगात्राणां यत्र मासे शनेर्भवेत् । उदयस्तत्र मासे स्यात्यु सामस्ते च दुर्गतिः ॥२१५॥ पृच्छाकाले यदा स्वामी विलग्नस्योदयं भजेत् । तदा सिद्धिबुधैर्याच्या प्रष्टुमनसि या स्थिता ॥२१६॥ पृच्छाकाले यदा खेटा उदयं यान्ति भावपाः । अभ्युदयस्तदा वाच्यः प्रष्टुमिपदादिभिः ॥२१७॥ पच्छाकाले चतुर्णां च कंटकानामिना यदि । एककालमुदीयन्ते तदा प्रष्टुमहोदयः ॥२१८॥ पच्छायां गोचरे शुद्धिर्यदा काले प्रजायते । प्रष्टुरभ्युदयो वाच्यः शुभभाववशात्पुनः ॥२१९॥ पच्छायां राशिनाथस्य यदा दशा शुभा भवेत् । प्रष्टुस्तदोदयो देश्यो राशेरपि प्रमाणतः ॥२२०॥
यदि प्रश्न करने वाला भीत वा रोगी हो तो शनि का जिस मास में उदय हो उस मास में उदय और अस्त के समय अस्त कहना चाहिये ॥२१॥
'प्रकाल में यदि लग्नेश लग्न में रहे तो प्रश्नकर्ता की मनोगत बातों की सिद्धि होती है ।।२१६।।
प्रश्नकाल में जिन २ भावों के स्वामी जिस जिस समय में उदय होंगे उसी २ समय में प्रश्नकर्ता का प्राम, पद, आदि विषयों का अभ्युदय कहना चाहिये ॥२१७॥
प्रश्नकाल में चारों केन्द्रस्थानों के स्वामी जब एक ही काल में उदित हों तब प्रश्नकर्ता का महान अभ्युदय कहना चाहिये ॥२१॥
प्रश्नकाल में गोचरशद्धि देखनी चाहिये । गोचरशद्धि जब हो उस समय शुभ भाव के सम्बन्ध से प्रश्न करने वाले का अभ्युदय कहना चाहिये ॥२१॥
प्रश्नकाल म राशीश की दशा जब शुभ हो, तब राशि के भी प्रमाण से प्रश्न करने वाले का अभ्युदय कहना चाहिये ।।२२०॥
1. चतुर्गतिः for च दुर्गति: Amb. 2. ब्रजेत् for भजेत् A, A1 लग्नस्योदयतां भजेत् for विलग्नस्योदयं Bh. 3. पास for प्राम A. 4. मुदियन्ते for मुदीर्यन्ते A1.
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(४४) नायोऽदये' दशा सौम्या गोचरे शुदिरुत्तमा । शकुनैः शोमनैर्जातमवेत्पुंसां महोदयः ।।२२१॥ लग्नेशेऽभ्युदिते वाच्यं मासाब्दं तिथिलग्नभम् । वयो वर्ण दिशां भाग्यं त्रैलोक्यं च सदोदितम् ।।२२२॥ भावा अभ्युदिता ज्ञेयाः दशा अपि धनादयः । विपरीते विपयस्तं सर्व ज्ञेयं धनादिकम् ।।२२३॥ सिंहलग्ने ममायाते लग्नं पश्यति सिंहपे । साम्राज्यं जायते पुंसां सिंहस्येव पराक्रमः ॥२२४॥ यो यो नाययुतो दृष्टो भावः सौम्ययुतोऽथवा । समृद्धिस्तस्य तस्यैव पापरेवं विपर्ययः ॥२२५।। आचं "भूदयकंटकं क्षितिगृहं पातालकेन्द्रं पुनः
प्रश्नकाल में जिस भाव का स्वामी उदित हो और गोचर शुद्धि उत्तम हो उसकी दशा शुभ होती है । इस स्थिति में यदि शुभ शकुन हो सो प्रश्नकर्ता का महान अभ्युदय कहना चाहिये ।।२२।।
प्रश्नकाल में लग्नेश यदि उदित हों तो वह मास, वर्ष, तिथि लान, बय. वर्ण, भाग्य और त्रैलोक्य उसके लिये उदित रहते हैं ।।२२२।।
धनादि भावेशों के उदित रहने पर उनकी उदित दशा में धनादि विषयों का अभ्युदय कहना चाहिये और विपरीत होने पर उन विषयों को अवनति कहना चाहिये ।।२२३।।
प्रश्नकाल मे सिंह लग्न हो, सिह का स्वामी ( सूर्य ) लग्न को देखता हो तो प्रश्नकर्ता को साम्राज्य की प्राप्ति तथा सिंह के समान पराकम होता है ॥२२४॥
जो जो भाव अपने स्वामी तथा शुभ ग्रह से युक्त तथा उससे देखा गया हो प्रश्नकर्ता की उस उस भाव मे ममृद्धि होती है । यदि वही पापग्रह से युक्त वा इष्ट हो तो अशुभ फल देता है ।। २५।।
1. माघोदये for नाथोदये A. Amb. 2. मासाब्दं तिथिलग्नभम for मासाब्दतिथिलग्नपात् Amb. 3, वर्गवर्णदशां भावाः for वयो बणे दिशां भाग्यं Amb. दिशां भावाः Bh. दिशां भाग्यं 4. अप्युदिता for अम्युदिता A, A1. 5. द्वादशापि for दशा अपि A. 6, लग्नपे tor सिंहपे Bh. 7. सौम्यैर for सौम्य A. 8. तू for भू Amb.
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(४५) स्त्रीकेन्द्रं च तृतीयकं बुधजनैहत्यिकेन्द्रं स्मृतम् । अमाख्यं दशमं मतं सुमनसां क्षोणीन्द्रकेन्द्रं पदं पुष्टास्ते किल कण्टका बलयुता यच्छन्ति पूर्ण फलम् ॥२२६॥ तन्वादिसप्तमं यावदुत्तरो भाव उत्तमः । सप्तमं प्रथमं यावदक्षिणस्त्वबलोऽधमः ॥२२७|| आद्याः' केन्द्रगताः खेटाः समस्ता उदिता मताः । अस्तकेन्द्रस्थिता सर्वेऽप्यस्तमिताः शुभाशुभाः ॥२२८|| पातालेऽप्युत्तमाः प्रोक्ता आकाशे मध्यमाः स्थिताः । उत्तरेऽभ्युदिता ज्ञेया विशेषेण बलाधिकाः ॥२२९।। दक्षिणेऽप्युत्तमे भागे बलहीना ग्रहा मताः । एवं लग्नबलं ज्ञात्वा विलग्ने फलमादिशेत् ॥२३०।।
केन्द्र पहला, चौथा, सातवां, दशवां कहलाते हैं । उसमें पहला भयकंटक और क्षितिगृह, दूसरा पातालकेन्द्र, तीसरा, स्त्रीकेन्द्र और हर्षफन्द्र चौथा अर्थात दशम स्थान को अभ्राख्यकेन्द्र वा क्षोणीन्द्रकेन्द्र कहते है । यदि ये स्थान सबल पुष्ट रहें तो पूर्ण फल को देते है ।।२२६॥
केन्द्रों में लग्न से सप्तम तक उत्तर भाव कहलाते हैं। वह उत्तम हैं और सप्तम से प्रथम तक दक्षिगा भाव कहलाते हैं वह अधम अबल होते हैं ।। २२७ ॥
पहले केन्द्रस्थित सब ग्रह उदित कहलाते हैं। और सप्तमकेन्द्र में स्थितग्रह शुभ अशुभ कहलाते हैं ॥२२॥
पातालकेन्द्र में स्थित ग्रह उत्तम कहलाते हैं और दशम में मध्यम कहलाते हैं। उत्तर में स्थित ग्रह अभ्युदित कहलाते हैं उनमें बल भी होता है ॥२२॥
दक्षिण में उत्तम भाग में रहने पर भी ग्रह बलहीन होते हैं। इस प्रकार लग्न जान कर फलादेश कहना चाहिये ।।२३०॥ ___ 1. तत्वादि for तन्वादि Amb. 2. दुत्तमो for दुत्तरो Amb. 3. सप्तमात् for सप्तमं Amb. 4. ऽधनः for ऽधमः Amb. 5. भाद्या: for अथ Amb. 6. गता० for स्थिता A. 7. वधमा for प्युत्तमे A., Bh.
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(४६) पृच्छालग्नेषु सर्वेषु जन्मपत्र्यां विचक्षणैः । केन्द्रस्थग्रहयोगेन फलं वाच्यं मनीषिणा ॥२३॥ आयकेन्द्रग्रहर्जातः पुण्यवान् पुरुषः स्मृतः । अस्तग्रहदेशस्थैर्वा हीनो भवति मूर्तितः ॥२३२॥ कोन वर्षः शुभोऽस्माकमिति प्रश्न समागते । तत्ताजिकानुसारेण कीर्त्यते वर्षलक्षणम् ॥२३॥ जन्मतः प्रथमे लने जन्मकालगतैग्रहैः । वर्ष यावरफलं ज्ञेयं" जन्मपत्र्यां विचक्षणः ॥२३४॥ द्वितीये वत्सरे वाच्यं द्वितीयलमतः फलम् । तृतीये वत्सरे' ज्ञेयं तृतीयादपि लग्नतः ॥२३५।। एवं द्वादश वर्षाणि जन्म द्वादश लग्नतः । जन्मकालगतैरेव ग्रहैर्वाच्यं शुभाशुभम् ॥२३६॥
इस प्रकार जन्मपत्री तथा प्रश्नकुण्डली में भी केन्द्र स्थित ग्रह यदि बली हो तो शुभ अन्यथा विपरीत फल कहना चाहिये ।।२३११।।
पाद्यकेन्द्र अर्थात् लग्न और चतुर्थ में स्थित ग्रह से बालक को पुण्यवान कहना चाहिये । सप्रम और दशमस्थ ग्रहों से उससे होन कहना चाहिये ।।२३२॥
कौन मा वष मेरे लिये शुभप्रद है इस प्रकार के प्रश्नों के लिये सानिक के अनुसार वर्षफल कहा जाता है ॥२३३॥
जन्म कालिक लग्न से जिस घर में जो ग्रह स्थित हो उसके अनुसार एक वर्ष तक फल कहना चाहिये ।।२३४॥
इसी प्रकार द्वितीय वर्ष में द्वितीय स्थान से, तृतीय वर्ष में तृतीय स्थान से फलादेश कहना चाहिये ।।२३।।
इस प्रकार जन्म लग्न से बारह स्थानों के द्वारा जन्म कालिक प्रहों से बारह वर्ष तक शुभ और अशुभ फल कहना चाहिये ।।२३६।। ___ 1. केन्द्रस्थ for केन्द्रस्था A. 2. केन्द्रगतैः खेटैः for केन्द्र आंत: A. 3. गत for नई A 4. कोऽस्ति for कोऽत्र A. b. वर्ष फलम् for वर्षलक्षणम A., Bh. 6. वाच्यं for शेयं A1.7. The portion beginning with वाच्यं and ending with वत्सरे is missing in A.
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(४७)
द्वादश नवका यावदष्टोत्तरशतं भवेत् । एवमायुषि सम्पूर्ण नवा वार्ता' भवन्ति हि ॥ २३७ ॥ मेषसंक्रान्तिकाले च वर्षे पूर्णेऽखिलेऽपि हि । धनानुजादयो भावाः पुनर्ल श्री भवन्त्यमी ॥ २३८ ॥ जन्मका लगताः खेटाः सन्तिष्ठन्ति तथैव हि । मुषहासंज्ञितं लग्नं वर्षलनं भवेदिदम् ॥ २३९ ॥ मेसंक्रान्तिकाले हि वर्ष लग्नं प्रवर्तते । जन्मकालग्रहैरेव पुनर्वर्षफलं वदेत् ॥ २४०॥ सर्वे तन्वादयो भावाः शुभयुक्ता बलावहाः " । क्रूरयुक्ताश्च ते दृष्टा विपरीत फलप्रदाः || २४१||
4
उदयात्पञ्चमं यावदवस्था प्रथमा समा । पञ्च मानवमं यावदवस्था हि द्वितीयका || २४२ ||
1
इस प्रकार बारह भावों को बार करके १०८ वर्ष होते हैं । सम्पूर्ण आयु में बारह भावों के नौ चक्र होते हैं ||२३७।।
मैत्र संक्रान्ति के समय वर्षपूर्ति हो जाने पर फिर धन, भ्रातृ आदि भाव और लग्न बन जाते हैं ||२३८ ||
जन्म काल में जैसे ग्रह स्थित होते हैं । वैसे ही पहले वर्ष में वर्षकुण्ड में भी होते हैं और वर्ष लग्न ही मुथहा कहलाते हैं ||२३६|| मेष संक्रान्ति काल में जिसका वर्ष बदलता है उसको उसी काल का लग्न तथा ग्रह से वर्षफल कहा जाता है || २४०||
सभी तनु आदि भाव शुभ ग्रहों से युत हों तो बलिष्ठ होकर शुभ फल देते हैं । वे ही यदि पाप ग्रहों से युक्त देखे जाते हों तो विपरीत फलदायक होते हैं || २४१ ॥
लग से पचम भाव तक प्रथम अवस्था कहलाती है । पञ्चम भाव से नवम भाव तक दूसरी अवस्था होती है ॥२४२॥
1. नत्रावर्ता for नवा वार्ता A, Bh. 2. भवन्ति ते for भवन्त्यमी A. 3. वर्षल मं is missing in the text. 4. च for हि A. 5. शुभा० for बला० A.
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(४८) नवमात्प्रथमं याक्दवस्था स्यात्तृतीयका । अर्दपञ्चमसन्धौ हि पूर्वे पूर्व पतन्त्यधः ॥२४३॥ पश्चमानवमं यावतन्वादिषु शुभैग्रह: । जन्ममध्ये च यस्यैवं सौख्यं भवति निश्चितम् ॥२४४॥ उदयात्पश्चमं यावजन्मपत्र्यां शुभग्रहः । वयसि प्रथमे सौख्यं प्रष्टुर्वाच्यं नवं नवम् ॥२४५॥ नवमात्प्रथमं यावत् सर्वभावे शुभप्रहैः । वृद्धत्वेऽपि हि जन्तूना * सर्वसौख्यं प्रवर्तते ॥२४६॥
अवस्थात्रये सौम्याचेद्वाच्यं वयस्त्रये सुखम् । __ यत्र वयसि तुङ्गाश्चेद्राज्यलक्ष्मीप्रदा मताः ॥२४७।।
नवम भाव से प्रथम भाव तक तीसरी अवस्था होती है और भाधे की सन्धि से पचम भाव की सन्धि तक पहली अवस्था में परिणत होती है। और उससे नवम भाव की सन्धि तक दूसरी अवस्था, उस से भागे तृतीय अवस्था में परिणाम होती है ।।२४३।।
जन्मकाल में पञ्चम से नवम तक तन्वादि भावों में यदि शुभ प्रह हों तो उसे निश्चित ही सुख प्राप्ति होती हैं ।।२४४॥
जन्म लम से पञ्चम तक यदि शुभ ग्रह पड़े हों तो बालक को प्रथम अवस्था में कुछ नए प्रकार का सुख होना चाहिये ॥२४॥
नवम भाव से प्रथम भाव तक यदि सभी भावों में शुभ ग्रह पड़े हो तो वृद्धावस्था में भी सुखप्राप्ति होती है ।।२४६।।।
तीनों अवस्थाओं में यदि शुभग्रह हों तो बाल्य, युवा और वृद्ध इन तीनों अवस्थाओं में सुख कहना चाहिये । किन्तु जिस अवस्था में शुभ ग्रह अपनी उस अवस्था में हों तो उस में राज्यलक्ष्मी होती है ॥२४॥ ___1. पूर्वे: पूषः for पूर्वे पूर्वे A. 2. शुभप्रहै: A. 3. जन्ममध्यमयस्पेव for जन्म मध्ये च यस्यैवं A, 4. सम्प्राप्ते for जन्तुनां 5. मषे 6. यस्मिन् for यत्र A.
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(४६)
आधावस्था गतास्तुङ्गा राज्यमाधवयोगतम् । मध्यावस्थागतास्तुङ्गा यौवने राज्यदाः स्मृताः ॥२४८|| अन्त्यावस्थागतास्तुङ्गा वाईके राज्यदा मताः । आद्यावस्थास्थिताःकरा बाल्ये दारिद्रयदाः स्मृताः ॥२४९॥ मध्यावस्था यदाक्ररा यौवने दौःल्यदायकाः । अन्त्यावस्थागताः करा अन्ते ' वयसि दुःखदाः॥२५०॥ एवं ग्रहानुमानेन सुखदुःखं सतां भवेत् । यस्मिन् वयसि तुङ्गाश्चेन्मुदिताः सौख्यसंयुताः ॥२५१।। तत्र राज्यं मुखं लक्ष्मीस्तेजो भवति निश्चितम् । यस्मिन् वयसि मन्दाः स्युः करदृष्टा विरश्मिकाः ॥२५२॥
यदि श्राद्य अवस्था में उच्च के ग्रह रहे तो बाल्य अवस्था में ही गज्यप्राप्ति होती है । यदि वे मध्यावस्था में उच्च के हों तो युवावस्था में राज्यप्रद होंगे॥२४॥
यदि अन्त्योवस्था में उच्च ग्रह हों तो वृद्धावस्था में राज्यप्राप्ति होती है। प्राद्यावस्था में यदि क्रूर ग्रह हों तो बाल्यकाल में उसे दरिद्र कहना चाहिये ।।२४६।।
मध्यावस्था में यदि पापग्रह हो तो उस पुरुष की यौवनावस्था में दुःख देने वाले होते हैं । अन्त्यावस्था में यदि पापमह हों तो बुढ़ापे में भी दुःख देने वाले होते हैं ॥२५॥
इस प्रकार ग्रह स्थिति के अनुसार सुग्व दुग्व सदा कहना चाहिये । मिस किसी भी अवस्था में उच्च के ग्रह हों उम अवस्था में प्रसन्न एवं सुखपूर्ण हों ॥२५||
उस समय मनुष्य को राज्य, सुख, लक्ष्मी, तेज आदि निश्चय से होते हैं। जिस अवस्था में स्वयं भी पापग्रह अन्य पापग्रहों से देखे आय तथा सूर्य में प्रवेश कर जांय ॥२५॥
1. वयोचितम् for वयोगतम् A. 2. स्मृता: for मसा: A. 3. गताः for यदा A 4. दौस्थ्य tor दोःख्य A.5. मन्दास्त्वन्ये A 6. सुखं for सुख A. 7. सदा for सतां A. 8. सौम्य for सौख्य A. 9. विरस्मिता: for विरश्मिकाः Amb.
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( ५० )
तत्र हानी रुजातंकः पदभ्रंशः खलागमः ।
लग्ने तुंगे महालक्ष्मीस्तूर्यगे च धनागमः || २५३ ||
राज्यसंपदः ।
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तुंगे' जायास्तगे खेटे खे तुंगे
खेटोदयानुमानेन फलवर्षे फलं ॥ इति वर्षफलम् ॥
मतम् || २५४ ||
श्रीहेमशालिनां योग्यमप्रभीकृतभास्करम् । सूक्ष्मेक्षिकया चक्रेोरिभिः शास्त्रमदूषितम् || २५५ || अथ निधानप्रकरणम् ।
एकाकिन्यपि तुयेंशे तुयं पश्यति वा स्थिते । अवश्यं विभवस्तत्र विद्यते कृतनिश्चयः ॥ २५६ ॥ एकाकिन्यपि शीतांशी तुयं पश्यति वा स्थिते । क्षीणे वास्तमिते चापि यं ज्ञेयो निधिगृहे || २५७||
तो मनुष्य को हानि, रोग, भय, स्थानभ्रंश, दुष्टरोग आदि होते है। उच्च का ग्रह यदि लभ में हो तो धनप्राप्ति होती है ।। २५३ ||
यदि ग्रह उच्च का होकर जायागृह हो अथवा स्वोश्वस्थ ग्रह दशम में रहे तो राज्यप्राप्ति होती है। इस प्रकार ग्रहों के उदयमान से वर्ष फल कहना चाहिये || २५४ ||
ऐश्वर्य चाहने वालों के योग्य, अपनी प्रभा से सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करने वाले, तथा शत्रुओं से प्रदूषित इस शास्त्र को श्रीहेमसूरि ने सूक्ष्म विचार से किया ।। २५५||
अकेला भी कोई ग्रह चौथे स्थान में वा उसके नवांश में रहे वा उस स्थान को देखे तो अवश्य ही सम्पत्ति का लाभ होता है ।। २५६ ।। अकेला क्षीण वा अस्त भी चन्द्रमा चतुर्थ स्थान को देखे वा उसमें रहे तो उसके घर में अवश्य निधि होती है || २५७||
1. तुयें तुंगे for तुर्यगे च A, 2 तुंगा for तुंगे A. 3. तुंगं for लुंगे A. 4. फलं वर्ष फले for फलवर्षे फलं A., Bh. 6. प्रतीकृत for प्रभीकृत A.
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(५१) स्थानत्रयेषु सौम्यानिधिः स्थानत्रये मतः । धनस्याने बलं' द्रव्यं तुर्यगेहे महानिधिः ॥२५८॥ छिद्रस्थाने च पूर्वेषामतीतानां महानिधिः ।
शुभखेटानुसारेण रूप्यस्वर्णादि निर्णयः ॥२५९।। करे तूर्यपतौ द्रव्यं विद्यते लभ्यते नहि । क्षीणचन्द्रेऽपि तूर्यस्य' लभ्यते तत्र वत्सरे ॥२६०॥ जायायां छिद्रगेहे वा मंगलो यदि खेचरः । तदा शत्रुहतानां चाप्यतीतानां निधिधु वम् २६१।। राहुशनी मृतौ भावपृच्छायां खेचरौ क्रमात् । व्यन्तरत्वं गतानां च द्रव्य भवति निश्चितम् ॥२६२॥
तीन स्थानों में यदि शुभ ग्रह हों तो घर के तीन स्थानों में निधि होती है । धनस्थान में रहें तो सेना और द्रव्य, चतुर्थ स्थान में रहें तो महासम्पत्ति कहनी चाहिये ।।२५८॥
अष्टम स्थान में यदि शुभ ग्रह हों तो अपने पूर्वजों की महा निधि कहनी चाहिये । इस प्रकार शुभ ग्रहों के अनुसार रुपये सोने श्रादि का पता लगाना चाहिये ।।०५६।।
पाप ग्रह यदि चतुर्थ स्थान के स्वामी हो तो द्रव्य अवश्य हो, पर मिले नहीं । यदि क्षीण चन्द्र भी चतुर्थ स्थान का स्वामी हो तो उस वर्ष में धनप्राप्ति होती है ॥२६॥
सप्तम वा अष्टम स्थान में यदि मंगल हो तो युद्ध में मृत पूर्वमों की निधि अवश्य होती है ।।२६१।।
प्रश्नकाल में राहु और शनि यदि अष्टम भाव में हो तो मृत पूर्वजों का द्रव्य होना निश्चित कहा गया है ।।२६२॥
1. च तद् for बलं A. 2. शुभे for शुभ A, 3. स्वर्गरूप्यादि for सप्यस्वर्णादि A. 4. तत्रस्थे for तूर्यस्य A, तूर्यस्मे Bh. b. The text reads जातायां A. 6. शास्त्र for शत्रु A. शस्त्र Bh. 7. विधिo for निधि A.
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( ५२ )
निधिप्रश्ने विलमे बेद्राहुर्भवति खेचरः । छिद्रे रविस्तर वाच्यं निधानं नैव लभ्यते ||९६३|| प्रश्नकाले यदा मूर्ती तु वा सप्तमेऽपि वा । दशमे वा भवेत् शुको निधिरस्तीति निश्चितम् || २६४ ॥ मूर्ती वा तुर्यगे वापि सप्तमे च' गृहे यदि । दशमे वा भवेज्जीवः सचन्द्रो निधिदायकः || २६५॥ सजीवे चन्द्रशुक्रे वा तुयें गेहे धनं भवेत् । सरत्नहाटकं रूप्यं घटिताघटितं भवेत् || २६६ || बुधचन्द्रो गुरुः शुक्रो धने वा हिghar" | प्रयच्छन्ति निधिं स्वीये चान्यं या बलशालिनः || २६७|| छिद्रस्थाने स्थितास्त्वेतेऽपत्ये वा खेचरा धनम् । निधिं यच्छन्ति पूर्वेषां विना " नैवेद्यपूजनात् || २६८ ||
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"
निधि प्रश्न में यदि राहु लग्न में हो और सूर्य अम स्थान में हो तो निधिलाभ नहीं कहना चाहिये ।।२६३||
प्रश्नकाल में यदि लग्न में, चौथे, सातवें तथा दसवें स्थान में शुक रहे तो निधि अवश्य ही कहनी चाहिये || २६४||
प्रश्नकाल में यदि केन्द्रस्थान में गुरु हो और वह चन्द्रमा से युक्त हो तो निधि अवश्य मिले || २६५ ||
चन्द्र और शुक्र, गुरु के साथ चौथे स्थान में रहें तो उसके घर में अवश्य धन रहे। उसके पास रत्न, सुवर्ण श्रादि मूल तथा अलंकार अवस्था में रहें ।। २६६ ।।
बली बुध, चन्द्रमा, गुरु वा शुक्र धनस्थान वा चतुर्थ स्थान में सहें वो उसे अपनी या अन्य की निधि प्राप्त हो ॥ २६७॥
अम वा पचम स्थान में ग्रह रहें तो उनकी बिना बेलि तथा नैवेद्य द्वारा पूजा से ही पूर्वजों की निधि प्राप्त होती है ॥२६८||
1. वा for व A. 2. च for वा A. 3. ऽपिवा for अथवा A. 4. स्वीयं for स्त्रीये A. D. प्यन्ये for ऽपत्ये A 6. बलि for विना A.
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यत्र शुक्रः क्षितौ तत्र चक्रमध्ये निधिः स्थितः । शुक्रदृष्टे पुरो वापि मेहे' खण्डं विलोकयेत् ।।२६९।। यत्र गुरुः क्षितौ तत्र चक्रकोणे निधिः पुरः। यत्र खेटा "धनामावे तत्रावश्यं निर्षिहुः ॥२७॥ तुर्यशः केन्द्रमध्यस्थोऽपथ 'एकनिधिस्तदा । तुर्येशो बाह्यराशौ वा गृहादहिनिधिः पुनः ॥२७१॥ यत्र लाभे भवेत् शुक्रः स्वकीयं स्वजनस्य वा । स्थापितं वा प्रनष्टं वा लभ्यते यहुलं धनम् ।।२७२॥ बुधे चन्द्र भवेल्लाभो जीवयुक्त विशेषतः । शुक्रयुक्त महालाभः प्रतिवेश्म निधरपि ।।२७३।। ऊर्ध्वदृष्टौ भवेचं मालादावुपरिसंस्थितम् । अधोदृष्टावधोवस्तु समदृष्टौ सदेशके ॥२७४।। ___ जिसकी कुण्डली में शुक्र लग्न में हो तो घर के बीच में निधि कहनी चाहिये । यदि शुक्र की दृष्टिमात्र हो तो घर के आगे वा घर के किसी भाग में देखनी चाहिये ॥२६६।।
जहां लग्न में गुरु रह वहां घर के किसी कोने में निधि होती है। यदि धनभाव मे ग्रह रहं तो वहां अवश्य प्रचुर थन होता है ॥२७॥
चतुर्थेश यदि केन्द्र में हो तो कोने में सम्पत्ति कहना, चतुर्थश यदि बाह्यराशि में हो तो घर से बाहर निधि कहनी चाहिये ॥२७१।।
जहां पर लाभस्थान में शुक्र हो वहां अपना और अपने सम्बन्धियों का रक्खा तया खोया हुआ पर्याप्त धन प्राप्त होता है ।।२७२। - लाभ स्थान में बुध वा चन्द्र गुरु से युक्त हों तो विशेष लाभ कहना चाहिये । यदि वही बुध वा चन्द्र शुक्र के साथ हों तो पूर्ण निधि की प्राप्ति होती है ॥२७॥
ऊर्ध्व दृष्टि रहने पर छत्त आदि ऊपर प्रदेश मे, अघोष्टि वाले ग्रहों के रहने पर नीच प्रदेश में, सम दृष्टि वाले ग्रहों की दृष्टि से सम प्रदेश मे निधि कहनी चाहिये ।।२७४।।
1. स्थितिनिधिः for निधिः स्थिति: A, 2. गेह for गेहे A. 3. घना for धना Bh. 4, स्थापवरके for स्थोऽपथ एक० Bh. b. स्थापितं for स्थागितं A. 6. उर्द्धदृष्टो for उर्ध्वदृष्टी A1 7. मालापरिसंस्थतम् Bh.
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( ५४) ऊदृष्टौ' भवेद मधोधिष्ण्ये च स्वभ्रगम् । समदृष्टौ समे गेहे युक्तं वस्तु दिशा क्रमात् ॥ २७५॥ ऊर्ध्वदृष्टौ पदे "मिन्नैर्वक्रिते मितिमध्यतः । ग्रहो यदि दिनैकेन राशिमन्यां यियासति ॥२७६।। छन्नं मध्ये तदा शेयं निधानं' स्थापितं. बुधैः । यावन्तः खेचरास्तूर्ये तावत्संख्यो निधिर्मतः॥२७७॥ यत्संख्ये वर्तते चन्द्रो नक्षत्रे निधिदायकः। गृहे निधिश्च तसंख्ये विज्ञेयः खातशोधने ॥२७८॥ शुक्र चन्द्र जलस्थाने देवस्थाने शुभे गुरौ । चतुष्पदगृहे सूर्ये वेष्टिकानिचये बुधे ।।२८९।। मौमे महानसस्थाने शनौ राही बहिर्भुवि । निधानं गेहमध्ये तु स्थानेश्वेतेषु लक्षयेत् ।।२८०॥
प्रहों की ऊर्ध्व दृष्टि रहने से घर के प्रदेश में, अधोदृष्टि रहने से कहीं गर्त में और सम दृष्टि से सम प्रदेश में निधि कहनी चाहिये ॥२७॥
ऊध्वदृष्टि में भित्ति स्थान पर, वक्री होने पर भित्ति के मध्य में। पर यदि एक ही दिन में प्रह दूसरी राशि में जाना चाहे तो ॥२७६।।
. मध्य स्थान में निधि को छिपा हुआ कहना चाहिये। चतुर्थ स्थान में जितने ग्रह हों उतने प्रकार की निधि कहनी चाहिये ॥२७७॥
निधि बतलाने वाला चन्द्र जितनी संख्या वाले नक्षत्र मे रहे उतनी बार गड्ढा खोदने पर निधि प्राप्त होती है ॥२७॥
शुक्र वा चन्द्र निधिदायक हों वा जलस्थान म, गुरु यदि हों तो मन्दिर भादि शुभ स्थान में, सूर्य यदि हों तो पशुशाला में बुध यदि हों तो ईट के भट्टों की जगह निधि प्राप्त हो ॥२७६।।
मंगल यदि हों तो पाकालय में, शनि और राह हों तो घर के बाहर वा घर के बीच निधि को बतलाना चाहिये ।।२८०॥
1. अधिष्ण्ये for ऊर्द्धदृष्टौ A. 2. स्वभ्रके for स्वभ्रगम A., Bh. 8. समधिष्ण्ये tor समदृष्टी A. 4. The text reads दशं for दिशाम 6. मि for भिन्ने A. 6. मन्यं for मन्यां A. मध्ये Bh. 7. The text reads धनगं for निधानं A. 8. निवपे. for निचये A.,नियो Bh.
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निधिस्थानपतिः स्थाने यावत्संख्येऽवतिष्ठति । तावद् हस्तेष्वधोवाच्यं निधानं भूमिखण्डके ॥२८॥ यावत्संख्येऽशके चन्द्रे लग्नेशो यत्तमो भवेत् । तत्संख्याकरमानेन द्रव्यं भूमिगतं वदेत् ॥२८॥ शुक्रे चन्द्रे भवेद्रौप्यं बुधे स्वर्ण निधिस्थितम् । गुरौ रत्नयुतं 'हेममादित्ये मौक्तिकं तथा ॥२८३॥ भौमे पु शनी लोहं राहावस्थि भुवि स्थितम् । धातोविनिश्चये ज्ञाते विशेषोऽयं ग्रहस्थितः ॥२८४॥ चतुर्थाधिपती मध्ये गृहमध्ये भवेद् ध्रुवम् । चतुर्थाधिपतौ बाह्य गृहाबहिर्गतं धनम् ॥२८५॥ विलमात्सप्तमं यावद्राशयोऽभ्यन्तराः खलु । सप्तमात्प्रथमं यावद् बाह्या हि राशयो मताः ॥२८६॥
निधि स्थान के स्वामी उस से यत्संख्यक स्थान में रहें उतने हाथ नीचे भूमिखएड में निधि कहनी चाहिये ॥२८१।
चन्द्रमा यत्संख्यक नवांशक म रहे और लग्नेश लग्न से जितने स्थान पर हो उतने हाथ पर भूमि के अन्दर द्रव्य कहना चाहिये ॥२२॥
इस प्रकार शुक्र और चन्द्र यदि हों तो रुपये, बुध हों तो सुवर्ण, शुक्र गुरु हों तो रत्न युक्त सुवर्ण और सूर्य के रहने से मोती मिलते हैं ॥२८॥
मंगल में मूंगा, शनि में लोहा और राहु में पृथ्वीगत हड्डी मिलती हैं। इस प्रकार धातु के निश्चय हो जाने पर ग्रहों से विशेष बातें जाननी ॥२८४॥
चतुथ स्थान का स्वामी यदि मध्यस्थान में हो तो घर के अन्दर निधि मिले । यदि चतुर्थेश बाह्यस्थान में रहे तो घर के बाहर निधि मिलती है ॥२८॥
1. निधानं भू० for द्रव्यं भूमि A1. 2. भवेत् for वदेत् A. A1 3. स्वर्णमुदाहृतम् for स्वर्ण निधिस्थितम् A. Bh. 4 सूर्य for हेम० A.I A 5. मौक्तिकमुच्यते for मौक्तिकं तथा A.A1 मौक्तिकं निधौ Bh. 6. वस्थीति कीतयेत् for वस्थि भुवि स्थितम् A. A1:7. ग्रहोत्थित: for प्रहस्थितः A1 8. गृहे मध्ये for गृहमध्ये A. 9. धनं for र्गतं A. 10. मत: for खलु A.
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(५६) निधीशलग्ननायौ द्वौ मध्यराशिस्थितौ यदि । तदा द्रव्यं गृहस्यान्तःकोणादिष्वेव संस्थितम् ॥२८॥ यदा लमेशतुर्ये शौ बाह्यराशिस्थितौ यदि । गृहाबहिर्षनं वाच्यं प्रांगणादिभुवि स्थितम् ।।२८८।। केन्द्रगतैहर्वाच्यं सर्वाः पूर्वादयो दिशः । केन्द्रगे चन्द्रजे ज्ञेयं गृहस्योचरदिस्थितम् ।।२८९॥ गुरावीशानभागे च रखौ पूर्वदिशि स्थितम् । शुक्रऽध्याग्नेयदिगकोणे कुजे दक्षिणदिकश्रयम् ॥२९०॥ राहो नैऋत्यकोणे च शनौ पश्चिमदिगस्थितम् । चन्द्रे वायौ शनी गर्ने निक्षारे राहुसंस्थिते ।।२९१।। उच्चकेन्द्रस्थखेटेषु घलयुक्तेषु सर्वतः । लक्षसंख्यो निधिः सत्यं चन्द्रदृष्टौ स्वहस्तगः ॥२९२॥
लग्न से सप्तम तक की राशियां अाभ्यन्तरिक कहलाती है। सप्तम से प्रथम तक बाह्य राशि कही जाती हैं ।।२८७॥
निधोश और लग्नेश यदि मध्यराशि में हो तो घर के बीच किसी कोने आदि में द्रव्य मिलना चाहिये ।।२८८॥
लग्रंश और चतुर्थेश यदि बाह्य राशियों में रहे तो घर से बाहर माँगन प्रादियों में धन कहना चाहिये ॥२८६।।
केन्द्रस्थ ग्रहों से पूर्वादि दिशाओं का निर्णय करना । यदि बुध केन्द्र में रहे तो धन घर की उत्तर दिशा में समझना ॥२६॥ ___ यदि गुरु केन्द्र मे हो तो ईशान कोणा में, रवि केन्द्र में हो तो पूर्वदिशा में, शुक्र केन्द्र में हो तो आग्नेय कोण में, मंगल केन्द्र में हो सो दक्षिण दिशा में निधि होती है ।।२६१।।
राहु केन्द्र में हो तो नैऋत्य कोण, शनि केन्द्र में हो तो पश्चिम दिशा तथा किसी गर्त में, चन्द्र केन्द्र, में हो तो वायव्य कोण में निधि होनी चाहिये ॥ २२ ॥
1. afout: for afai A. 2. odo for 06016 A. 3. The text reads eys, which does not fit in with the metre'
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उदयालंकृते खेटे शुभग्रहक्लिोकिते। अकस्माधिविरायाति पण्यायस्य महात्मनः ॥२९॥ यावन्त्योऽप्यंशका मुक्तास्तावन्त्याचारभाजने । छादित कलसादौ तु द्रव्यं वाच्यं गृहे गृहे ॥१९४॥ धातुभाण्डे चरे श्रेयं मूलभाण्डं स्थिरे पुनः । द्विस्वभावेष मृद्भाण्डं च भाण्डस्य "निर्णयः ॥२९५॥ लमस्थमेषमाश्रित्य वृषयुग्मादिदक्षिणे। गृहस्यांशस्थिते भावे विज्ञयो निधिदायकः ॥२९६॥ मीनकुम्भाधुत्तरोंशः सम्मुखस्थे च दक्षिणः । विन्यस्तचक्रमानेन देशो वाच्यो निधिश्यम् ॥२९७।। लगमूर्तेहस्यैव हिबुकं दक्षिण भवेत् । उत्तरे दशमस्थानं प्रविविक्षाविपर्ययः ॥२९८॥
सभी ग्रह यदि उच्च वा केन्द्र के हों और सबल रहे, साथ ही चन्द्र की दृष्टि रहे, तो लक्ष संख्या म निधि मिले ।। २६२ ॥
शुभप्रह यदि लग्न में हों और अन्य शुभ ग्रहों से देखे जाय तो पुण्य-शील पुरुष का एकाएक निधि प्राप्त हाती है ।। २६३ ॥
जतने अंश को व भोग कर गये हा उतने श्राधारपात्र वा कलश आदि में ढका हुश्रा द्रव्य घर में स्थित कहना चाहिये ॥ २६४॥
यदि चर राशि का लग्न हो ता धातु भाण्ड में, स्थिर राशि को हो सो मूल भाण्ड में, द्विस्वभाव का लग्न हो तो मट्टी के बर्तन में निधि का होना कहना कहिये । इस प्रकार भाण्डों का निर्णय समझना ।। २६५॥
' लन का मेष समझ कर वृषादि दक्षिण क्रम से गृही का जिस अंश में निधि भाव पड़े उसी भाग में निधि कहना चाहिये ।। २६६ ॥
मीन कुम्भादि क्रम से उत्तरााद दिशाओं म स्थापना कर और उत्तर का सम्मुख दक्षिणा समझना चाहिये । इस प्रकार चक्र को स्थापित कर के निषि का स्थान बतलाना चाहिये ।। २६७ ॥
-लमस्थान से घर में, चतुर्थ स्थान स दक्षिण दिशा मे, और दशम स्थान से उत्तर दिशा में और याद कोई ग्रह अन्य स्थान में जाने वाले हों तो विपरीत दिशा समझनी चाहिये ।। २६८ ॥
1. बलोत्कटे for विलोकिते A. 2. स्थापित for यादि A. 8. कतारसदो for कलसादी A.4. तु tor A.;. त्वेयं for चर्व A
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क्रियते केवलादर्शी निधिसिदिप्रकाशकृत् । श्रीमदेवेन्द्रशिष्येण श्रीहेमप्रभारिणा ॥२९९।।
इति चतुर्थभावे शेवधिप्रकरणं सम्पूर्णम् ।
ज्ञानचारित्रसद्धीजं सिद्धिद्वारेऽपि गच्छताम् । गणेशलब्धिविस्तीर्ण पक्वान्नभोजनं वे ॥३०॥ लग्न तुर्येऽथवा* लाभ सौम्यखेचरसम्भवे । भोज्यं भवति पृच्छायां पटरसास्वादसुन्दरम् ॥३०१।। गुरौ लमऽथवा शुक्र पृच्छालग्न गते सति । अवश्यं लभ्यते भोज्यमटव्यामटताऽपि हि ॥३०२।।
शनी राहौ च लग्नस्थं रविदृष्टऽथवा युते ।। ... न लभ्यते निजे गेहे शस्त्रघातो भवेत्स्फुटम् ॥३०॥
निधि को बतलाने वाला और केवल आदर्शमय ग्रन्थ देवेन्द्र के शिष्य श्रीहेमप्रभसूरि ने बनाया है ।। २६६ ।।
सिद्धिद्वार में जाने वाले पुरुष के ज्ञान और चारित्र का सद्वोज रूप पकानभोजन के विषय में श्रीगणेश के प्रासाद से विस्तीर्ण कहता हूँ ॥ ३०॥ ..बुध अथवा कोई अन्य शुभ ग्रह लग्न चतुर्थ अथवा लाभस्थान में हो तो प्रश्नकाल में भोजन छः रसों के आस्वाद से सुन्दर होता है ॥३०२।।
प्रश्नकाल के लग्न में गुरु वा शुक्र हों तो जंगल में भी घूमने वाले मनुष्य को अवश्य भोजन मिले ।। ३०२ ।।
शनि, राहु यदि लग्न मे हा श्रार सूर्य की दृष्टि पड़े अथवा एक स्थान में हों तो अपने घर में रहने पर भी भोजन नहीं मिलता और किमी शस्त्र आदि से चोट होतो है ।। ३०३ ।।
- 1. निधि for शेवधि A. A1 2. गच्छतः tor गच्छताम् A, A1 3. सझानं for पकान्न A. 4. तथा for ऽथवा A, B मते for गते
A. 6. मरण्यमध्यगैरपि for मटण्यामटतापि हि A, A1 7. अषम् for स्फुटम् A.
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(४) पृछायां तुर्यगे चन्द्रे भोजनं लवणाधिकम् । व्यञ्जनैर्वेषवाराचैलवणेन धनेन वा ॥३०॥ तूर्ये भौमे भवेद्भोज्यं मुहुः कटु रसाश्रयम् । दशमे मङ्गले मांसं रक्तस्रावेण संयुतम् ॥३०५।। रखी तूर्ये निष्प्रतापं सरसं तत्र शीतगौ । सकलहं ससंतापं भौमे तुर्येऽशनं स्मृतम् ॥३०६॥ बुधे भोज्यं कषायं तु गुरौ तु मधुरोज्ज्वलम् । सिताखण्डघृताव्यं तु भक्तं सूपहविर्युतम् ॥३०७॥ बुधे तत्र बुधानां च कथालापकपेशलम् । शनी राहौ च तुयस्थ सशोकं सभयं पुनः ॥३०८॥
प्रश्नकाल में यदि चतुर्थ स्थान में चन्द्र रहे तो भोजन में अधिक नमक होगा और साग आदि अन्य पदार्थ भा अधिक नमक से विकृत होंगे॥३०४॥
चतुर्थ स्थान में याद मंगल रहे तो भोजन कड़वे रस से युक्त हो। शम स्थान में यदि मंगल रहे तो रक्त से पूर्ण मांसभोजन को प्राति हो ।। ३०५ ॥
सर्य चतुर्थ स्थान में रहे तो भोजन नीरस, चन्द्र रहे तो सरस मिले । मंगल चतुर्थ स्थान में रहे तो कलह तथा सन्ताप आदि से भोजन को प्राप्ति हो ।। ३०६ ॥
बुध चतुर्थ स्थान में रहे तो भोजन कषायरसपूर्ण, गुरु चतुर्व स्थान में रहे तो मधुर तथा शकर घृत आदि से युक्त दाल भात मिलना चाहिये ॥ ३०७॥
बुध चतुर्थ स्थान में हो तो पण्डितों के सहचनामृतों के साथ भोजन मिलना चाहिये । शनि और राहु यदि चतुर्थ स्थान में रहें तो शोक और भय के साथ भोजन प्राप्त हो ॥ ३०८॥ ____ 1. वराल्यै for वाराहा A. 2. ज्यमुष्णं for ज्यं मुहुः A. 3. श्रावेण for खावेण A. 4 मितः खंडघुलाठ्यं for सिताखण्डपाय A.
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अम्लरसं.सिते स्निग्ध पेयः स्वाधरसाश्रयम् । आकर्णान्तसुविश्रान्तनेत्राभिः परिवेषितम् ॥३०९॥ नीचे शुक्र कदन्नं तु पक्वापक्वं जलाक्लिम् । अप्रतिपचिनिःस्नेहं दासीभिः परिवेषितम् ॥३१०॥ क्षिप्रादिविसं रूक्षं पल्लचणककोद्भवम् । सतलं चाप्यतेलं का शनी भोज्यं भवेदिदम् ॥३१॥ उच्चे रवौ मवेदुष्णं तिक्तं च राजवेश्मनि । नीचे नीचान्तरैर्वाच्यं भोजनं पृच्छवेश्मनि ॥३१२॥ सकृद्रोज्यं चरे लमे द्विरं च स्थिरात्मकम् । भोजनात्रतयं प्रोक्तं द्विस्वभावे विधौ निधौ ॥३१३॥ शुक्र चन्द्रे गुरौ तुयें पृच्छालने सगौरवम् ।
शालिभोज्यं हविःस्पृष्टं रम्यस्त्रीपरिवेषितम् ॥३१४।। . शुक चतुर्थ स्थान में हो तो खट्टा रस और कोमल सुस्वादु जल विशाल नेत्र वाली स्त्रियों से दिया हुआ मिले ।। ३०६ ।।
शुक्र यदि नीच स्थान में हो तो कच्चा पका अन्न, मलिन जल से बुक और वह भी अनादर के साथ दासियों से परोसा हुआ प्राप्त हो ।। ३१०॥
शनि चतुर्थ स्थान में यदि हो तो रूखा, विरस चना, तेल से युक्त अथवा अयुक्त भोज्यरूप में मिलना चाहिये ।। ३११ ॥
रवि यदि उसका हो भोजन गर्म और तिक्त राजाओं के घर में मिले । वही यदि नीच घर का हो तो नीच जनों के घर में कहना पाहिये ।। ३१२॥
घर लम रहे तो एक बार भोजन मिले, स्थिर लग्न रहने से दो वार, द्विस्वभाव लम हो और चतुर्थ चन्द्रमा रहे तो तीन बार भोजन मिले ।। ३१३॥
शुक्र, चन्द्र वा गुरु लम्र में हों व चतुर्थ स्थान में हों तो भोजन सम्मानपूर्वक, घृत से मिश्रित और सुन्दर स्त्री से परोसा था मिले ॥ ३१४॥
1. रूक्षवल्लवणककोद्रवम् for रूहं पल्ल चणककोद्भवम् A, AI. Bh. 2. दुस्थ. for पृच्छ० Bh. 3. तुष्ट for स्पृष्ट A., Bh:
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(er)
शुक्रे गुरौ निधिस्थाने बुधे चन्द्रे च लागे । शालिमोज्यं समं वस्त्रैलैभ्यते पुण्यवेश्मनि ॥३१५॥ उच्च गेहे निधिस्थाने बुधे गुरौ बलोत्कटे ।
स्युः
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स्वर्णवस्त्रभोज्यानि चन्द्रे शुक्रे च लाभगे || ३१६ ॥ गुरौ तुर्ये समंगल्यं धृतोत्साहं सितेऽपि च । वर्द्धापनविवाहादौ स्नेहभोज्यं सगीतकम् || ३१७ || लग्ने पष्टे स्वके गेहे धने पष्टे धनाद्भवेत् । तृतीये निजभगिनीभ्यः पितृभ्यस्तुर्यवेश्मनि ॥ ३१८ || पञ्चमे पत्रपौत्रेभ्यः षष्ठे च शत्रवेश्मनि । सप्तमे निजपत्नीभ्यः स्नेहातिशयभोजनम् || ३१९ ॥ नवमे च प्रपास दशमे भूपवेश्मनि । लाभेऽप्यश्वगजादीनां लाभेन सहितं बहु || ३२०॥
शुक, और गुरु निधिस्थान में हों, बुध और चन्द्र लाभस्थान में हों तो वस्त्रों के साथ चावलों का भोजन किसी पुण्यवान के घर में मिले ॥ ३१५ ।।
निस्थान में उच्च का सबल गुरु और बुध रहें. चन्द्र और Teresa स्थान में हों तो सुवर्ण, वस्त्र और भोजन सभी मिलें || ३१६ || चतुर्थ स्थान में गुरु वा शुक्र रहे तो बधाई, विवाह आदि कार्बो में मंगलाचार उत्साह और गीत के साथ घृतादियुक्त भोजन प्राप्त होता है ।। ३१७ ।।
लस्थान यदि पुष्ट रहें तो अपने घर में धनस्थान के पुष्ट रहने से धन से, तृतीय स्थान के पुष्ट रहने से अपनी बहिनों से, चतुर्थ स्थान पुष्ट रहने से पिता के घर मे भोजन मिले || ३१८ ॥
के
पञ्चम स्थान पुष्ट रहने से पुत्र पौत्रादि से, षष्ठ स्थान के रहने से शत्रु से, सप्तम के पुष्ट रहने पर स्त्री से स्नेहपूर्वक भोजन मिले || ३९६ ॥ नवम स्थान के पुष्ट रहने पर किसी सराय की दुकान पर, दशम स्थान की पुष्टि में किसी राजा के घर में और एकादश यदि पुष्ट रहे तो बोड़ा, हाथी के साथ सुन्दर भोजन मिले || ३२० ॥
1. भग्नीभ्यः for भगिनीभ्यः A 2 मंत्र for सत्रे A. 3. गजानां तु for oगजादीना A.
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तृतीयकादशे दृष्ट्वा' पलीनां स्नेहभोजनम् । चतुर्थाष्टमदृष्टया तु स्वजनानां गृहे लभेत् ॥३२॥ नवपञ्चमदृष्टयापि स्नेहेन भोजनं जनात् । सप्तमौमयदृष्टया तु वैरेण सहितं जयेत् ॥३२२॥ सौम्येषु तुर्यसंस्थेषु तुंगगेहे वने मतम् । करेषु तत्र संस्थेषु भनवेश्मनि भोजनम् ॥३२३॥ तुर्ये गेहाकमानेन भोज्यमानं हैः स्मृतम् । लमन्यांकमानेन कबोलकमितिमता ॥३२४॥ लमचक्रं महास्थानं हृदि' ध्यात्वातिवतुलम् । तत्र ग्रहेदिशो वाच्या व्यञ्जनानां यथाक्रमम् ॥३२५॥
लग्नेश. और चतुर्थेश को परम्पर तृतीय. एकादश'दृष्टि हो तो स्त्री का प्रेम पूर्वक दिया हुआ भोजन मिलता है । और दोनों को चतुर्य अष्टम, दृष्टि परस्पर रहे नो अपने लोगों के घर में भोजन मिलता है ॥३२१॥ . दोनों को नवम और पञ्चम की यदि दृष्टि रहे तो स्नेहपूर्वक भोजन मिले । और दोनों को परम्पर सप्तम की दृष्टि होने से शत्रुता होने पर भी विजय कहनी चाहिये ।। ३२२ ॥
शुभग्रह यदि चतुर्थ स्थान में हो तो उच्च गृह में बा बन में भोजन मिलता है । यदि पापग्रह उस में रहें तो टूटे फूटे घर में भोजन मिले॥३२३॥
चतुर्थ वा लग्न स्थान से ग्रहों के द्वारा भोजन का विचार किया गया है। लग्न और चतुर्थ ही स्थान से व्यञ्जनादि का भी विचार करना पाहिये ।। ३२४॥
गोलाकार, विशालस्वरूप लग्नचक्र को हृदय में.ध्यान करके ग्रहों के द्वारा व्यञ्जनों (शाकादियों ) की दिशाओं का निश्चय करना पाहिये ।। ३२५ ॥ ___1. दृष्टया for दृष्ट्वा A. 2. The text reads च: for तु A.. ३. तुंगगेहेशनं० A, A'० दनं for बने Bh 4. गृहै: for प्रहैः Bh. 6. काचोलक० for कवोलक Bh:: स्थालं tor स्थानं 7. The text reads दृदि A, A1. 8. वाच्यं for वाच्या A1 . . .
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(६३) तिक्तं रवौ विधौ क्षारं कटु भौमे मतं दिशि । बुधे कषायसंयुक्तं गुरौ तु मधुरोज्ज्वलम् || ३२६ || मितेऽम्लं' व्यञ्जनं वाच्यं शनौ राहौ च दग्धकः । शुक्रस्य बालवृद्धौ च घृताधिक्यं तदा मतम् || ३२७॥ क्रियते केवलादर्शो मुक्तिसिद्धिप्रकाशकृत् । श्रीमदेवेन्द्र शिष्येण श्रीहेमप्रभसूरिणा || ३२८ ॥ इति चतुर्थभावे भोजन प्रकरणम् ।
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अथ ग्रामपृच्छा"
ग्रामपृच्छासु सर्वेषु कंटकेषु शुभा ग्रहाः । तत्र पुर्यो महावप्रः चतुर्दिक्ष भवेद्दृढः || ३२९ || केन्द्रेषु यदि सर्वेष्वप्युच्चा दृष्टाः शुभा ग्रहाः ।
तत्र पुर्यां महावप्रः सर्वोच्चैर्निवितं मतः ॥ ३३० ॥
चतुर्थ स्थान में रहें तो भोजन तिक्त, चन्द्रम चतुर्थ स्थान में. हो तो नमकीन, मंगल रहे तो कडुवा बुध रहे तो कषाय रस वाला, गुरु रहे तो मधुर और उज्ज्वल रहता है ।। ३२६ ।।
शुक्र चतुर्थ स्थान में रहे तो अम्ल रस वाला शाक कहना चाहिये । शनि और राहु रहें तो जला हुआ, शुक्र की बाल्यावस्था तथा वृद्धावस्था रहने पर व्यञ्जन घृतपूर्ण होता है ।। ३२७ ॥
श्रीदेवेन्द्रसूरि के शिष्य श्रीहेमप्रभसूरि ने भोगसिद्धि के प्रकाशक एकमात्र आदर्शरूप इस प्रन्थ की रचना की ।। ३२८ ॥
ग्राम के संबंध में पूछने पर यदि प्रश्नकाल सभी में शुभ ग्रह केन्द्र स्थानों में रहें तो उस नगरी के चारों ओर पहाड़ी प्रदेश कहना चाहिये । ३२६ ||
यदि केन्द्रस्थान में उच के शुभ ग्रह रहें तो उस नगरी में एक विशाल उच्च वत्र कहना चाहिये || ३३० ॥
1. सं for o A1. 2. दुग्धकम for दग्धक: A 3. The portion अथ प्रामपृच्छा is found only in A1 4 तत्र धामे स्फुटं वप्रः for सत्र पुर्या महावप्रः A1 5. वो ति० for 0 चैनिंοA.
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तृतीयतुर्ययोलग्नात्पशमे च शुमा ग्रहाः । तत्र वो गुरुवाच्यः स्वोच्चस्थः पुनरुचकैः ॥३३१॥ शुक्लेन्दु' कंटके यत्र पानीयं तत्र निश्चितम् । शुक्रन्दु सकुजौ यत्र तत्रोधानं जलाश्रयम् ॥३३२॥ वृत है भवेत्वृत्तं त्र्यव्यस्रो गढो मतः। चतुरश्चतुष्कोणे पुरे वो भवेत्पुनः ॥३३३॥ लमं सौम्यग्रहैदृष्टं समृद्धं पुग्मुच्यते । अथ करग्रहेष्टं दुःस्थं भवति पत्तनम् ॥३३४॥ यत्र गुरुर्मवेचत्र रम्यं देवगृहेः पुरम् । शुक्रन्दु यत्र कोणे तु तत्र कूपादिके जलम् ।।३३५।। यत्र मौमो द्रमस्तत्र स्यादधे वेष्टकागणः । यत्र राहुशनी कोणे तत्र गर्ताः सपुञ्जकाः ॥३३६॥
लम से नीमरे, चथे, पानवें स्थान में यदि शुभ ग्रह हों तो एक पर इस गांव में अवश्य करें, यदि वे जन्म के हों तो विशाल वप्र कहें॥३३१।।
केन्द्रस्थान में यदि शक और चन्द्रमा रहें तो वहां जल अवश्य रहे और जहां पर शुक्र चन्द्र मंगल के माथ हों तो जलाश्रित एक बाग भी कहना चाहिये ॥ ३३२॥
फेन्द्रस्थान में यदि दो प्रह एक साथ पड़े हों तो नगरे में दो मर्त. तीन प्रहों से तीन गर्त और चार प्रहों से चारों कोनों में वप्र कहना चाहिये ।। ३३३ ।।
___ लम यदि शुभ प्रहों से देखा जाय तो वह नगर समृद्धिशाली कहना चाहिये । पापग्रहों की दृष्टि रहने पर दुरवस्था को प्राप्त कहना चाहिये ॥ ३३४॥
लन को देखने वाला यदि गुरु हो तो मन्दिरों से युक्त नगर कहना चाहिये । शुक्र और चन्द्र जिस कोगा में रहें उस कोण में कूप आदि अल कहना चाहिये ।। ३३५ ॥
मंगल चक्र में जिस दिशा में हो उस दिशा में वृक्ष कहना चाहिये । और बुध जिधर हो उस तरफ इटों का पुल कहना चाहिये और राष्ट्र शनि जहां पर हों उस कोने में गढढे होंगे ।। ३३६ ॥
1. गुन्दु Bh. 2. The text reads का प्र for वो which is incorrect. 3. The text reads निटका for वेटका : '
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( ५ )
मनष्टिकापाकः पटो यत्र रविभवेत् ।
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यत्र सौम्यग्रहश्रेणिट्टाली' तत्र कोणके ||३३७ || लग्नस्य तुके ग्रामो रक्ष्यते च शुभग्रहैः । तृतीये तुर्यसंस्थैरिति ग्रामोऽतिवकः ||३३८ || यत्र कोणे शुभाः खेटा एकराशिगताः " पुनः । पुरस्य तत्र कोणे स्यात्सौवर्णी कलशावलिः ||३३९ ॥ यावन्तोऽप्यंशका मुक्ता लग्नस्याभ्युदितस्य ते । तावद् हस्तप्रमाणोऽयं वप्रो भवति निश्चितम् ||३४०|| यत्र विचे च धीभागे शुक्रो भवेद्रलाधिकः । तत्र ग्रामे पुरे वापि निधिर्भवति निश्चितम् || ३४१ ॥
जहां पर पुष्ट रवि हो उस दिशा में पका हुआ ईटा कहना चाहिये । और जिस कोने में पुष्ट शुभ ग्रह होवें उस कोने में सुन्दर पक्के मकान होने चाहिये ॥ ३३७ ॥
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लग्न के चौथे स्थान में यदि शुभ ग्रह हों तो गांव सुरक्षित रहें तीसरे, चौथे, पांचवें में रहें तो गांव में अधिक वप्रस्थान कहने चाहिये || ३३८ ॥
जिस कोने में शुभ ग्रह एक राशिस्थ होकर रहें उस गांव के उस कोने में सुवर्ण के कलश होवें ॥ ३३६ ॥
प्रश्नलग्न के जितने अंश बीत चुके हों उतने हाथ का वप्र निश्चय ही कहना चाहिये || ३४० ॥
जिसमें धनस्थान और धर्मस्थान में बली होकर शुक्र रहे उस ग्राम अथवा नगर में निश्चय ही धन होता है ।। ३४१ ।।
1. श्रेणि for श्रेणी A. 2, हट्टी for इट्टाली A, A'. 3. शुभम है: for शुभ है: A, A1. 4. The text reads मामे A1. 6. the text reads तयाः for गता: । The portion beginning with मे and ending with करोत्यहो ( P. 72 ) is missing in Bh. 6. लग्नस्था for लग्नस्या A. 7. The text reads बागे for मामे
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( E) क्रियते केवलादर्शः' परसिलिं' काशकृत् । श्रीमदेवेन्द्र शिष्येण श्रीहेमप्रभसूरिणा ॥३४२॥
इति चतुर्थभावे तृतीयं प्रामप्रकरणम् ।
अथ पुत्रप्रकरणम् पत्रो वा पत्रिका वापि पत्नी गर्ने भविष्यति इति प्रश्नेषु विज्ञेयौ पञ्चमेशविलग्नपौ ॥३४३।। लमेशपंचमेशौ चेत् नरराशिव्यवस्थितौ ।। तदा पुत्रः समादेश्यः स्त्रीराशौ स्त्रीपदौ च तौ ॥३४४॥ अयुग्लनस्थिते मन्दे पुत्रजन्म मतं सताम् । समलने समांशे वा पुत्रीजन्म स्फुटं भवेत् ॥३४५।। एतस्याः प्रसकः कस्मिन् काले किल भविष्यति । लगाशकास्तु यावन्तः पृच्छाकाले तदोदिताः ॥३४६॥ गर्मोत्पनशिशोर्वाच्या मासस्तावन्त एव हि । अभुक्तास्तेऽत्र ये वांशास्तावन्त एव शेषकाः ॥३४७॥
श्रीदेवेन्द्र शिष्य श्रीहेमप्रभसूरि नं नगरसिद्धि पर प्रकाश डालने वाले एकमात्र प्रादर्शरूप इस प्रन्थ की रचना की ।। ३४२ ।।
गर्म में पुत्र होगा वा कन्या होगी इस प्रश्न में पत्रमेश और नमेश को जानना चाहिये ।। ३४३ ।।
लग्नेश वा पश्चमेश यदि नर राशि में रहें तो बालक, स्त्री राशि में रहे तो कन्या कहनी चाहिये ।। ३४४ ।।
विषमराशि लग्न हो और उस में शनि पड़ा हो तो पुत्र जन्म पौर ममराशि लम हो तथा समनवांशक हो तो कन्या जन्म काइना चाहिये ।। ३४५ ॥
इस स्त्री को प्रसव कब होगा ऐसे प्रश्न में प्रश्नकाल में लग्न के जितने अंश उदित हुए हों उसने गर्भ के गत मास कहने चाहियें ॥३४६।।
और जितने अंश भुक्त न हों अर्थात शेष बचे हों उसने हो मास प्रसवोत्पत्ति के कहने चाहिये ॥ ३४७॥
1. The text reads लोक: for दर्श: 2. प्रश्ने दुयो for प्रश्नेषु विज्ञया A, A .. प्रो tor पदो A. 4. सतां मतम् tor मरसताम A... The text reads गमेत्यत्र शिशो वाच्या for गोल्पन्नशियोर्वाच्या A.
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लमेशो लग्नसंयुक्तो नरराशी रविभवेत् । तदा बुधैः पुमान् वाच्यो व्यत्यये व्यत्ययः पनः ॥३४८॥ जीविष्यति ममापत्यमिति प्रश्ने समागते । शुभेक्षितस्तु रिष्फेशः केन्द्रगतोऽथवा पुनः ॥३४९।। जीवत्येवं तदापत्यं ताजिके शास्त्रसंमते । चन्द्रे तत्र शुभर्युक्ते विशेषण च जीवति ॥३५०॥ दिनराश्युदये लग्ने लग्नस्वामी दिनग्रहः । यदि जातस्तदा वाच्यं दिवा जन्म विचक्षणैः ।।३५१।। दिनलभेपु लमं चेल्लमशो दिनराशिपु । दिवाजन्म तदा वाच्यं व्यत्यये व्यत्ययः पुनः ॥३५२॥ अस्मिन् वर्षे विजातं मे भविष्यति न वा पनः । लप्रेशः पञ्चमे स्थाने सुतेशो वाथ लागः ॥३५३।।
लग्नेश लग्न में हो, सूर्य नर राशि में रहे तो पुरुष की उत्पत्ति कहनी चाहिये । इसके विपरीत कन्या की उत्पत्ति कहनी चाहिये ।। ३४८ ॥
यह मेरी सन्तान जीवित रहेगी वा नहीं, ऐसे प्रश्न में रिष्फेश यदि शुभ ग्रह से देखा जाय वा केन्द्रस्थ होवे तो सन्तान अवश्य ही चिरजीवित रहेगी ।। ३४६ ॥
केन्द्र में चन्द्रमा यदि शुभप्रहों से युक्त हो तो सन्तान चिरजीवित रहेगी यह ताजिक शास्त्र के अनुमार कहा है ।। ३५० ॥
दिनराशि यदि लग्न हो, लग्न के स्वामी यदि दिन ग्रह रहें तो दिन में सन्तान की उत्पत्ति कहनी चाहिये ॥ ३५१ ॥
लग्न यदि दिन लग्नों में से हो, लग्नेश यदि दिन राशि में रहे तो दिन में ही जन्म कहना चाहिये । इसके विपरीत में कन्या होती है ।।३५२।
इस वर्ष में मुझे पुत्र होगा वा नहीं, ऐसे प्रश्न में लग्नेश यदि पशम स्थान में वा पश्चमेश लग्न स्थान में रहें तो ।। ३५३ ॥ 1. पुमान् tor पुन: Amb 2. भवेत् for पुनः .. लग्न for लग्ने A. 4. भवेत for पुन: Ambb. कापि for cाथ A.
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इति योगे' दुवैर्वाच्य तत्र वर्षे सनद्रवः । अन्ये योगा बुधैर्वाच्यास्तद्वर्षे पुत्रदायकाः ॥३५४॥ चन्द्रशुक्रो यदा गर्भ लामे वाऽथ स्थितौ यदि । पुण्यवतां तदा वाच्यमपत्यजन्म निश्चितम् ॥३५५॥ लामपञ्चमसंस्थौ चेत्प्रपश्येतः परस्परम् । चन्द्रशुक्रौ तदापत्यं जायते नात्र संशयः ॥३५६।। यदेन्दुः भौमशुक्राम्यां गर्भो वा वीक्षितः शुभैः । तदासौ जायते पुत्रो नात्र कार्या विचारणा ॥३५७।। मूर्तेस्तु यत्तमे स्थाने बलायो" भृगुनन्दनः । गर्मिण्या जातगर्भस्य मासानाख्याति तावतः ॥३५८॥ चन्द्रदृष्टेग्धमयुक्ते करदृष्टे च पञ्चमे । नीचस्थेऽस्तमिते गर्ने नैवापत्यं प्रजायते ॥३५९।। __उस वर्ष में पुत्रोत्पत्ति कहनी चाहिये । इमो प्रकार अन्य योग भी पुत्रदायक होते हैं ॥ ३५४ ॥
चन्द्रमा और शुक्र गर्भस्थान वा लाभस्थान में रहें तो पुण्यवान व्यक्तियों को अवश्य सन्तान होवे ।। ३५५ ।।
वेही यदि ग्यारहवें तथा पांचवें स्थान में रहें तथा पारस्परिक दृष्टि हो तो अवश्य सन्तानोत्पत्ति कहनी चाहिये ।। ३५६ ।।
यदि चन्द्रमा गर्भस्थान में हो, मंगल और शुक्र से देखा जाय वा अन्य शुभ प्रहों से देखा जाय नो पुत्र अवश्य उत्पन्न होगा। इस मे मन्देह नहीं ॥ ३५७ ॥
लम से जितने स्थान में सबल शुक्र रहे उतने मासों में गर्भवती स्त्री का प्रसव कहना चाहिये ।। ३५८ ॥
चन्द्रमा यदि पञ्चम स्थान को देखे और वह पापग्रहों से युक्त समादृष्ट हो और वह नीच तथा अस्त गृह में पड़ा हो तो सन्तान नहीं होती ॥ ३५६ ॥ __1. योगो for योगे A. 2. वाच्यो for वाये A. 3. The text reads ag 4: for 239: 4. hat: for auto A. 7, The text reads लाल्या for बलाढ्यो A.
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पत्रमाधिपतिर्लने सुते लमेशचन्द्रमाः। तदा पुत्रः समादेश्यः पृच्छकस्य बुधैः किल ॥३६॥ पन्द्रयुक्तक्षिते गर्ने सौम्ययुक्तेक्षितेपि च । उच्चस्थेऽम्युदिते तत्र पुण्यापत्यं प्रजायते ॥३६१॥ लम शुभग्रहैर्जाते शुभस्थाने शुभ ग्रहे। आये सुतेऽथवा राज्ये पुष्टे गुरौ सुतं वदेत् ॥३६२॥ सौम्याश्चेत् पंचमे स्थाने बलवांस्तनयो भवेत् । करेविजीयमानोऽपि प्रियते नात्र संशयः ॥३६३॥ एकं वा द्वेऽथवाऽपत्ये भविष्यतोत्र संशये । द्विस्वभावं विलग्नं चेत्तत्र गर्ने शुभा ग्रहाः ॥३६४॥ तदापत्यद्वयं वाच्यं शुद्धलमे बुधैः स्फुटम् । चरे बहूनि जायन्ते स्थिरे त्वेकं वरं मतम् ॥३६५।।
पञ्चमेश लग्न में रहे, लग्नेश और चन्द्रमा पञ्चमस्थान में रहे तो प्रश्न कता को पुत्र अवश्य होवे ।। ३६० ।।.
गभस्थान चन्द्रमा से युक्त वा दृष्ट हो और शुभ ग्रह से युक्त, दृष्ट हो और वे उदित होकर उच्चस्थित होवें तो पुण्यवान सन्तान का जन्म कहना चाहिये ॥ ३६१ ।।
लग्नस्थान में शुभग्रह हों और शुभस्थानों शुभग्रह रहें ग्यारहवें, पांचवें वा नवम स्थान में पुष्ट गुरुं हों ता अवश्य पुत्र कहना चाहिये ।। ३६२ ॥
शुभप्रह यदि पंचम स्थान में रहें तो अवश्य बलिष्ठ पुत्र की उत्पत्ति हो । यदि वे ही पापग्रहों से जीते गये हों तो उसकी मृत्यु मी अवश्य होवे ॥ ३६३ ॥ __एक वा दो पुत्र होंगे ऐसे प्रश्न में यदि द्विस्वभाववाले लग्न हों तो और शुभ प्रह गर्भस्थान में हों ।। ३६४ ।।
तो पुत्र द्वय कहना । चर राशि लग्न रहे तो बहुत से पुत्र होवें। स्थिर लग्न में एक पुत्र कहना चाहिये ।। ३६५ । ___1. ध्रुवम् for किल A. 2. मन्दे for ग: A. B. सुंत for शुम A 4. शुभग्रही A. 6. The text reads भविष्यतो for भविष्यस्य A, A1.
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चत्वारि खेटयुग्मानि भवन्ति यदेकदा । तदापत्यद्वयोत्पत्तिः पृच्छालग्ने सतां मता ॥३६६॥ तावत्संख्यान्यपत्यानि प्रश्ने वाच्यानि पण्डितः। सम्पूर्णदृष्टयो वापि यावत्संख्याः शुमा ग्रहाः॥३६७॥ स्त्रीग्रहाणां तु संख्यातः पुत्रीसंख्याभिधीयते । पुरुषग्रहसंख्याने पुत्रसंख्या स्फुटा मता ॥३६८।। पश्चमावानुमानेन ग्रहदृष्टिवशेन वा । पुत्रसंख्या ग्रहाच्या मृत्युसंख्याधर्मग्रहः ॥३६९॥ सर्वग्रहेक्षिते मर्म तुंगकेन्द्रगतग्रहः । नृपतुल्यो भवेत्पुत्रो ग्रहदृष्टिप्रभावतः ॥३७०॥ एकः पुत्रो रवौ धीस्थे चन्द्रे तत्र सुताद्वयम् । भौमे पुत्रालयो वाच्या बुधे पुत्रीचतुष्टयम् ॥३७१।। गुरौ गर्भ सुताः पंच षट्पुत्राश्च सिते मताः । शनौ पुत्र्यो ध्रुवं सप्त तुंगे पुत्रा महद्धिकाः ॥३७२॥
प्रश्न लग्न में चार युग्म ग्रह यदि एकत्र रहें तो दो पुत्र कहने चाहियें ॥ ३६६ ॥
प्रश्नकुण्डली मे पूर्ण दृष्टि वाले जितने शुभ ग्रह रहें उतनी सन्तान कहनी चाहिये ।। ३६७ ।।
स्त्रीग्रहों की संख्या से कन्याओं की संख्या और पुरुषग्रहों की संख्या से पुरुषों की संख्या कहनी चाहिये ।। ३६८॥
पञ्चम स्थान की स्थिति, प्रह की दृष्टि, पुत्रसंख्या का ग्रह और पापग्रहों से मृत्युसंख्या के विचार से सन्तानों की संख्या और दीर्घायु, अल्पायु विचार कर फल कहना चाहिये ।। ३६६।।
पक्रम स्थान को यदि सभी उस ओर केन्द्र के ही ग्रह देखें तो उसग्रह दृष्टि के प्रभाव से गजतुल्य पुत्र की उत्पत्ति हो ।। ३७० ॥
पञ्चम स्थान में यदि एक रवि रहे तो एक लड़का, सोम रहे तो दो लड़की, मंगल रहे तो तीन लड़का, बुध रहे तो चार लड़की होनी चाहिये ।। ३७१॥
गुरु यदि पंचम स्थान में रहें तो पाच पुत्र होवें, शुक रहें सो. ६ पुत्र, और शनि रहे तो सात लड़की, इस प्रकार यदि वे उसके हों सो समृद्धिशाली पुत्र होवें ॥ ३७२ ॥
1.प्रात: for वशेन वा A.
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क्रिते यकेवलादर्शः शिशुजन्मप्रकाशकृत् । श्रीमदेवेन्द्रशिष्येण श्रीहेमप्रभमुरिणा ॥३७३॥
__ इति पञ्चमभावे पुत्रप्रकरणम् रोगप्रश्ने बुधैर्वाच्यं सप्तमं रोगसंज्ञकम् । यावन्तः खेचरा लमऽथवा लमंशपाश्चगाः ॥३७४।। तावन्तः पुरुषा वाच्या रोगिणोऽपि समीपगाः । पुग्रहः पुरुषस्तत्र स्वीगृहे प्रमदाः पुनः ॥३७॥ रोगस्थाने चर ऊवं संचरन् गृहमध्यतः । उपविष्टः स्थिरे रोगी सुप्तो वाच्यो द्विदेहके ॥३७६।। चरेऽष्टमे परे देशे स्थिरे तत्रैव संस्थितः । ग्रामद्वितयमध्यस्थो रोगी भवेद्' द्विदेह के ॥३७७।।
श्रीदेवेन्द्र के शिष्य श्रीहेमप्रभसूरि ने पुत्र जन्म पर प्रकाश डालने वाला इस एकमात्र श्रादर्श ग्रन्थ का निर्माण किया है ॥ ३७३ ॥
रोगप्रश्न में षष्ट स्थान रोगसंज्ञक समझना । फिर लग्न वा लग्न के आस पास मे जितने ग्रह होवें उतने पुरुष रोगी के पास होते है। वहां पुरुष प्रह जितने रहं उतने पुरुष और स्त्रीग्रह जितने रहें उतनी स्त्रियां लण रहती है ।। ३७४-७५ ॥
रोगस्थान चर राशि हो तो रोगी को घर के ऊपर में चलता हुआ समझना चाहिये । यदि स्थिर राशि हो तो घर के मध्य में बैठा हुआ कहना चाहिये, द्विस्वभाव राशि में हो तो रोगी को मोता हुमा समझना चाहिये ।। ३७६ ॥
लम से अष्टम स्थान यदि चर राशि का हो तो रोगी परदेश में रहे, यदि स्थिर राशि रहे तो वहीं रहे और यदि द्विस्वभाव वाले राशि रहें तो दो गांव के बीच में रोगी रहे ॥ ३७७ ।। ____ 1.झेयं for वाच्यं A. 2. भोग for रोग A, A1 3. द्विदेहिके
A. विदेहके A. 4. पर for परे A. 6. the text reads भवति for भवेत।
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रोगिणोऽस्य बुरामा न विनष्टे स्वमिलेचरे । रक्तग्रहे विनष्टे तु विनष्टं रुधिरं वदेव ॥३७८॥ छिद्रस्थौ चन्द्रशुको चेदतीसारं विनिदिशेत् । छिद्रस्थावुशनाभौसौ बलपाताय कीर्तितौ ॥३७९।। मौमाको रुधिरोद्रकं पित्तोद्रकं च संस्थितम् । सको धिषणस्तत्र सनिपातं करोति च ॥३८०॥ घने कुजेऽथवा सूर्ये संतापं रोगिणां वदेत् । शनिरन्यग्रहयुक्तश्चित्तरोगं करोत्यहो ।।३८१॥ छिद्रस्थौ राहुमार्तण्डौ कुष्ठरोगप्रदायको । प्रददाति महाकुष्ठं ताभ्यां युक्तस्तु मङ्गलः ३८२॥ तत्र शनौ च राहौ च वातरोगः स्फुटं भवेत् । कम्पेते हस्तपादौ च रोगस्यवं विनिश्चयः ॥३८३॥
यदि अग्निप्रह विनष्ट रहे तो रोगी को भूख की कमी होती है । रतमह यदि नष्ट हो तो रुधिर की कमी कहनी चाहिये ।। ३७८ ॥
यदि आठवें स्थान में चन्द्र और शुक्र रहे तो अतीसार कहना चाहिये। तो फिर शुक्र और शनि उस स्थान में रहे तोबल की कमी होती है।। ३७६ ॥
आठवें स्थान में यदि मंगल और रवि रहे तो रुधिर और पित्त का अतिशय कहना चाहिये । फिर शुक्र और शनि उस स्थान मे रहें तो समिपातरोग होता है ॥ ३८०॥
सप्तम स्थान में यदि मंगल वा रवि रहें तो रोगी को पूर्ण पीड़ा होती है । शनि किसी अन्य ग्रहों से युत होकर बैठा हो तो मानसिक रोग होता है॥३८॥
अष्टम स्थान में यदि सूर्य और गहु रहे तो कुष्ठ रोग होता है। यदि मंगल भी उनके साथ बैठा हो तो महाकुष्ठ कहना चाहिये ।। ३८२ ॥
अष्टम स्थान में शनि वा राहु रहें तो वातरोग होता है। हाथ पांच सभी कांपने लगते है। रोग का इस प्रकार निश्चय आनना ॥३८॥
4. The text reads अवेत् for वदेत् which is obviously incorrect. 2. दुरानो for वुशना A. B. चित्र for चिRA 1. The text reads i foran
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( ७३ )
अमुकमौषधं भव्यमिति प्रभे च लग्नतः ।
लग्नं वैद्यः सुखं रोगी व्याधिस्तत्र च सप्तमम् ||३८४|| औषधं दशमं प्रोक्तं तच ज्ञेयं शुभाशुभम् । वैद्योषधी' बलाधिक्ये बलत्वे रोगरोगिणोः || ३८५|| रोगी जीवति निर्विघ्नं विपरीते विपर्ययः । वैद्यस्य रोगिणोमैत्र्यं मैत्र्यमोषधरोगिणोः || ३८६ ॥ लग्नस्य सबलत्वे च केन्द्रे सौम्यग्रहेषु च । उच्चस्थेऽपि त्रिकोणे च रोगी जीवति मानवः ||३८७|| अष्टमे च रवौ लग्ने' चन्द्रे तत्र जलाद् भवेत् । सन्निपातात्कुजे वाच्या बुधैः स्याज्ज्वरतो मृतिः ||३८८|| अजीर्णाद्विषणात्प्रोक्ता तृषः शुक्रात्पुनर्मृतिः । बुभुक्षातः शनैर्वाच्या निश्चितं रोगिणः पुनः || ३८९ ||
यह औषध अच्छा होगा वा नहीं ऐसे प्रश्न में वैद्य को लम, रोगी को चतुर्थ और व्याधि को सप्तम और औषध को दशम स्थान समझ कर शुभाशुभ का निर्याय करना चाहिये । वैद्य, औषधस्थान यदि सबल होवें, रोग और रोगी के स्थान यदि निर्बल हों तो अवश्य रोगी जीवे अन्यथा उसकी मृत्यु हो । वैद्य और रोगी तथा औषध और रोगी की परस्पर मैत्री कही गयी है ।। ३८४-३८६ ।।
लन सबल रहे और शुभ ग्रह केन्द्रस्थान में रहें वा उच्च में रहें वा नवम, पञ्चम में रहें तो रोगी अवश्य जीवित रहता है ||३८७॥
अष्टम स्थान में रवि, लग्न में चन्द्र रहे वो जल से, मंगल लग्न में रहे तो सन्निपात से, बुध रहे तो ज्वर से मृत्यु होवे ॥३८८||
अष्टम स्थान में गुरु रहे तो अजीर्ण से, शुक्र रहे तो प्यास से, शनि रहे तो भूख से रोगी को निश्चय ही मृत्यु कहनी चाहिये || ३६६ ||
1, दशममौषधप्रोक्तं for ओषधं दशमं प्रोक्तम् A, A 2. ०षध्यो for oषधी 3. रोगिणाम् for रोगिणो: A. 4. ०मैत्र्यं Bh. 6. The text reads केन्द्र for केन्द्रे खौलने A, A1.
भैंत्र्यां for ara for
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(४) लमस्थाने बलाधिक्ये लामस्यापि ग्रहादिमिः। रोगी जीवति पूर्णापुर्वीतरोगो भवेदयम् ।।३९०॥ चन्द्रो लग्नपतिर्वापि पृष्टे मृत्यौ खलेक्षितः। दीर्घरोगी नरो वाच्यो वक्रिते लगनायके ॥३९१।। विनष्टे लग्नपे मृत्युः कंटके मृत्युनायके । गृध्रकोलोरगत्र्यंशरुदितैरपि पञ्चता ॥३९२॥ चतुरस्रे यदा चन्द्रः पापग्रहद्वयान्तरे । लमे षष्ठोदये बन्धौ करविद्धौ मृतौ मृतिः ॥३९॥ षष्ठ लो चरे केन्द्र शुभयुक्ते तदोदिते । कृतान्तव क्तूगो रोगी जीवत्येव सुवैद्यतः ॥३९४॥
इति षष्ठस्थाने रोगप्रकरणम् । अथ सर्वभावेभ्यो जायाप्रकरणं प्रधानं सप्तमभावे कथ्यते । ___ लमस्थान और लामस्थान में सबल प्रह यदि हों तो रोगी पूर्णायु और रोगरहित होकर जीता है ॥३६०॥
लमेश वा चन्द्र षष्ठ वा अष्टम स्थान में रहें और पाप ग्रहों से देखे जाय,और लम नायक यदि वक्री हो तो मनुष्य चिरकाल तक रोगी रहे ॥३६॥
लग्नेश यदि नष्ट हो, अष्टमेश यदि केन्द्र में हो तो त्र्यंशों के उदिव रहने पर भी, गीध सूअर अथवा सांप द्वारा मृत्यु समझनी चाहिये ॥३१२॥
चन्द्रमा यदि चौथे वा आठवें स्थान में हो तथा दो पापग्रहों के बीच में हो, लग्न, छठा, चौथा और आठवां पापग्रहों से विद्ध हो तो मृत्यु हो जाती है ।। ३६३ ॥
लग्न वा छठे गृहों में चर प्रह हों, केन्द्रस्थान शुभ तथा उदित ग्रहों से युक्त हों तो यमराज के मुख में पड़ा हुआ भी रोगी सद्य के द्वारा बचा ही रहेगा ।। ३६४॥ 1 षष्ठे for पृष्ठे Bh. 2. For this line A reads. गृध्रगोलोरगस्त्रयशोरुदितौरपि पंचता ॥ ०कोलोरगत्र्यांशे Bh. 3. A, AI read पृष्ठे for षष्ठे
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(७) यदि लगपतिर्लमे मादेशकरी प्रिया । लमेशः सप्तमे स्थाने जायादेशकरः पतिः ॥३९५॥ यदा लमपतिर्लमे जायेशः सप्तमे यदि । तदा प्रीतिईयोर्वाच्या समानैव परस्परम् ॥३९६॥ यदा भार्यापतिर्लमे लमेशः सप्तमे यदि । अन्योऽन्यप्रीतिपीयूषपूरपूरितसम्मदौ ॥३९७॥ यदा लमेशजायेशौ लमज्य भवतो यदि । तदा गाढतरी* प्रीतिस्तोलिता द्वितयेपि च ॥३९८।। यदा जायापतिर्लन जायास्थानस्थितो यदि । प्राधान्येनैव भार्यायाः समा प्रीतियोभवेत् ॥३९९।।
चतुर्भग्या प्रीतिः जायास्थानं यदा तुंगे' प्रश्ने भवति लग्नतः । रूपलावण्यजन्मारुतमा भर्तृतोऽङ्गना ॥४०॥
लग्नेश यदि लम्र में रहे तो स्त्री भर्वा की आज्ञाकारिणी होती, है। यदि लग्नेश सप्तम स्थान में रहे तो पति पत्नी का आज्ञाकारक होगा ।। ३६५॥ - लग्नेश यदि लग्न में, सप्तमेश सप्तम स्थान में रहे तो स्त्री और पुरुष दोनों में पारस्परिक प्रेम कहना चाहिये ।। ३६६ ।।
यदि सप्तमेश लग्न में और लग्नेश सप्तम स्थान म हो तो भी स्त्री पुरुष पारस्परिक प्रेमामृत से युक्त सम्पदा वाले होवें ।। ३६७ ॥
लग्नेश और सप्तमेश दोनों यदि लम में रहें तो दोनों में प्रगाढ प्रेम होता है ।। ३६८ ॥
जब लग्नेश और सप्तमेश दोनों सप्तम स्थान रहें तो स्त्री की प्रधानता से दोनों में पारस्परिक प्रेम होता है ।। ३६8 ।।
प्रश्नकाल में यदि सप्तम स्थान उच्च हो ता रूप, लावण्य, वंश श्रादि से स्त्री पति से उत्तम होती है ॥ ४०॥
1, प्रियः for पतिः A, A1 2. सप्तमो for सप्तमे A, AL. 3, सम्पदौ for सम्मदौ A, A1 4 ०तरा for तरी A. 5. लक्षमा येशो for जायापतिलग्ने A. 6. The text reads वदेत् for भवेत 7.तुगं for तुंगे A, A, Bh.
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(७६) भार्यास्थानं यदा तुंगमुदितं सौम्यसंयुतम् । तदा रकुलोत्थस्य भार्या भवति भूपजा ॥४०१॥ सप्तमे रिते' भावे चतुर्थे सौम्यसंयुते । धृता तस्य भवेद्भार्या परिणीता मृतैव हि ॥४०२॥ सप्तमे यदि राहुः स्यात् पृच्छायां जन्मलग्रतः। या यात्र परिणीता स्यात् सा सा पत्नी मृतव हि ॥४०३॥ सप्तमे तुर्यगे वापि क्ररे शुक्रबलोत्थिते । परिणीता धृता वापि जीवत्येव न वर्णिनी ॥४०४॥ सप्तमं तुर्यगं चापि तुंगं सौम्ययुतं भवेत् । परिणीता धृता वापि द्वे स्तो रुचिरकन्यके ॥४०५॥ जायागृहांकमानेन भार्यासंख्या विलोक्यते । जायागृहानुमानेन जायासंख्या सतां मता ॥४०६॥ मित्रक्षेत्रे ग्रहे सौम्ये स्वीया पत्नी सदैव हि । शत्रुक्षेत्रे ग्रहे सौम्ये परपत्नी सुखावहा ।।४०७॥
स्त्रीस्थान में उदित शुभग्रह यदि उच्च का हो तो दरिद्र कुल में विवाह होने पर भी वह स्त्री रानी के समान होती है ।। ४०१ ।।।
__ सप्तमस्थान यदि पापग्रहों से युक्त हो और चौथे में शुभग्रह हों तो स्त्री की मृत्यु हो॥४०२ ॥
प्रश्न में जन्मलम से यदि सप्तम में राहु हो, जिस जिस स्त्री से विवाह वा सम्बन्ध हो वही मर जाय ॥ ४०३ ॥
सप्तम वा चतुर्थ स्थान में पापग्रह रहें और शुक्र से संबन्ध रखते हों तो विवाहित वा संबद्ध भी स्त्री मर जाती है ।। ४०४॥
सप्तम वा चतुर्थ स्थान उच्च का अथवा किसी शुभग्रह से युक्त हो तो विवाहित वा सम्बन्ध वाली स्त्री अच्छी ही होगी ।। ४०५॥ ।
सप्तमस्थान के प्रहों की संख्या के अनुमान से ही स्त्रीसंख्या देखी जाती है ॥ ४०६ ।
शुभमह याद मित्र के घर में रहें तो स्त्री अपनी सदा रहती है। शत्रु के घरमें यदि शुभमह रहें तो दूसरे की पत्नी सुखावह होती है । ४०७॥
1. करितो for ऋरिते A1 2. यदि तुर्ये वा for तुर्यगे वापि A. 8. A read वापि for चापि ।
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सप्तमे धिषणे शुक्रे रूपलावण्यशालिनी। आये पितृकुले ' जाता कर्णविश्रान्तलोचना ॥४०८॥ बालः शशी बुधश्चापि कुमारी ब्रुवतः स्त्रियम् । रूपोपेतां प्रसूतां च गुरुर्वक्ति नितम्बिनीम् ॥४०९॥ शुभग्रहो गुरुः प्रश्ने सर्वांगधुतिशालिनीम् । सौम्येक्षितस्तु शुक्रोपि सलावण्यां सुलोचनाम् ।।४१०॥ तेजोयुक्तां कुजो व्रते रामां रूपेण वर्जिताम् । शनिराहू च सक्रूरौ दुर्गुणां वदतोऽवशाम् ॥४११॥ वृद्धा रविः शनिश्चापि जरती योषितं पुनः। शुक्रभौमौ च खेटौ द्वौ वदतो हन्त कर्कशाम् ॥४१२॥ यदि पृच्छति नार्येषा दृष्टदोषा कुमारिका । अदृष्टपुरुषा साध्वी निर्दोषा स्यात्कुमारिका ॥४१३॥
सप्तमस्थान में यदि गुरु और शुक्र रहें तो स्त्री, रूप-लावण्य-युक्त, कुलीना तथा विशाल नेत्रों वाली होती है ॥४०८॥
जिसकी जन्मकुण्डली में चन्द्र और बुध बाल्यावस्था को प्राप्त हों तो कुमारी स्त्री मिले । यदि गुरु रहें तो सन्दरी स्त्री मिले ॥४०६ ॥
प्रश्नकाल में गुरु शुभग्रह में हों तो सर्वांगसुन्दरी स्त्री की प्राप्ति हो। यदि शुक्र शुभग्रहों से देखे जाय तो लावण्यवती सुनेत्रा.स्त्री की प्राप्ति हो ॥ ४१०॥
मंगल रहे तो स्त्री तेजवाली किन्तु रूपरहित होगी शनि और राहु यदि किसी अन्य भी पापग्रहों से युक्त हों तो स्त्री दुर्गुण और पराधीन होवे ॥ ४११ ॥
___ रवि रहे तो वृद्धा, शनि रहे तो भी वृद्धा, शुक्र और मंगल हो तो कर्कशा स्त्री होती है ॥ ४१२॥ __यदि प्रश्न हो कि यह स्त्री दोषयुक्त कुमारिका अथवा दोषरहित पतिव्रता है ॥ ४१३ ॥ ____ 1. गृहे for कुले A. 2. In A, A1 this line follows the next line beginning with लग्नलग्नेश
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लमलमेशचन्द्राश्च स्थिरराशी भवन्ति चेत् । अदृष्टपुरुषा ज्ञेया कुमारी स्वगृहेऽपि हि ॥४१४|| स्थिरराश्यन्यराशी चेद् भौमेन' सह चन्द्रमाः । कुमार्यदृष्टदोषव तदा वाच्या विचक्षणः ।।४१५॥ लमलमेशचन्द्राश्च चरराशौ भवन्ति चेत् । सा परपुरुषाक्रान्ता कनी वाच्या बुधैस्तदा ॥४१६|| शनिचन्द्रौ यदा लमे वसतः कामिता सदा । द्विरूपे चरराशौ वा चन्द्रो भवति चेद्यदि ॥४१७१ मूललग्नं स्थिरं तत्र दोषः खलकृतो भवेत् । यदि पृच्छति येनैषा प्रसता वरवर्णिनी ॥४१८॥ शुक्र चन्द्रे' बुधे सिंहे त्वेवंयोगे प्रसूतिका । वृश्चिके बुधशुक्रौ चेद् वृषे वा तिष्ठतो यदि । एवं योगे समायाते प्रमूता युवती मता ॥४१९॥
तो यदि लम, लग्नेश और चन्द्रमा स्थिर राशि के हों तो वह कन्या अपने घर में निर्दोष होकर रहे ।। ४१४ ॥
चन्द्रमा यदि मंगल के साथ रहकर स्थिर अथवा अन्य राशि में रहे जो भी वह कन्या प्रदूषित होनी है ॥ ४१५ ।।
लग्न, लग्नेश और चन्द्रमा यदि चर राशि में हों तो वह कन्या अन्य पुरुष के साथ फंसी हुई कहनी चाहिये ।। ४१६ ॥
शनि और चन्द्रमा यदि लग्न में हो तो वह कन्या सदा कामुकी रहे। यदि चन्द्रमा चरराशि अथवा द्विस्वभाव राशि में रहे तो भी कन्या सदा कामुकी रहती है ॥ ४१७ ॥
यदि जन्मलग्न स्थिरराशि हो तो दुष्ट से दूषित अथवा प्रसूता कन्या कहनी चाहिये ।। ४१८ ।।
शुक्र चन्द्रमा, बुध सिंह में वा बुध और शुक्र वृश्चिक अथवा वृष में यदि हों तो वह स्त्री प्रसववती कहनी चाहिये ।। ४१६ ।।
1. सौम्येन for भौमेन A1 2. सदा for सदा A., 3. वस्तुतो कामिना सदा Bh. 4. कुंभे for चन्द्रे A. 6. संस्थितौ for तिष्ठत: A.
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द्विस्वभावे विलग्ने चेत्यापराशिविवर्जिते । भौमबुधेन्दुशुक्राः स्युरोऽपत्यं स्थितं तदा ॥४२०॥ पापग्रहाश्चरे राशौ सम्भवन्ति यदापि हि । तदावश्यं बुधै यमपत्यं परपौरुषात् ॥४२१॥ करग्रहाः स्थिरे राशौ प्रश्ने यदि भवन्ति चेत् । हृदयं सदयं ध्येयमपत्यं निजवल्लभात् ॥४२२॥ मिश्रग्रहाः स्थिरे गशौ पृच्छायां संभवन्ति चेत् । तदा ध्रुवं नरैर्वाच्यमपत्यं मिश्रपौरुषात् ॥४२३॥ स्वभर्तुरन्यमा योषा जातात्र गुर्विणी । इति प्रश्ने बुधैश्चिन्त्यं पञ्चमस्थानकं किल ॥४२४॥ दृश्यते शनिभौमाभ्यां सोमदृष्टिविवर्जितम् । पञ्चमं यदि गेहं स्यात्तदा गुर्वी परान्नरात् ॥४२५॥
मंगल, बुध, चन्द्रमा और शुक्र यदि पापग्रहों से होन द्विस्वभाव लग्न में हो तो सन्तान को आगे में कहना चाहिये ॥ ४२० ॥
यदि पापग्रह चर राशि में हो तो वह सन्तान अवश्य ही दूसरे पुरुष से उत्पन्न होवे ।। ४२१ ॥
पापग्रह यदि प्रश्नकुण्डली में स्थिर राशि में रहें तो वह संतान अवश्य ही अपने पति से हो ॥ ४२२ ॥
प्रश्नकाल में यदि स्थिर राशि में मिश्र ग्रह अर्थात शुभ और अशुभ दोनों प्रह हों तो वह सन्तान मिश्र पुरुष अर्थात् स्वपिता और परपिता से उत्पन्न कहनी चाहिये ॥ ४२३॥
वह स्त्री अपने वा पराये पति से गर्भवती हुई है-ऐसे प्रश्न में पञ्चम स्थान को देखना चाहिये ।। ४२४ ॥
पश्चम स्थान यदि शनि और मंगल से देखा जाय और चन्द्रमा की दृष्टि उस पर न हो तो वह गर्भ परपुरुष से समझना चाहिये ।।४२५।। ____ 1 राग्नो for रप्रे A. 2. स्थिरं for स्थितं A., A1 3. भवन्ति ययहो for यदि भवन्ति चेत् A. 4. स्थानकं पंचम for पंचमस्थानकम् A.
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(८०) न दृष्टं शनिभौमाभ्यां सोमदृष्टं च पञ्चमम् । तदा नूनं बुधैर्वाच्यं स्वकान्तादेव गुर्विणी ॥४२६॥ अथाशुभयुतोऽर्कः सेन्दुर्यदि जीवो न लग्नमिन्दुर्वा । जीवः सार्क नेन्दु पश्यति गर्भः परैर्जातः ॥४२७॥ यदि लग्नपजायापो खलु वीक्षेते परस्परं पूर्वम् । प्रीतिःपूर्णा खण्डा खण्डितदृष्टा" वधूवरयोः ॥४२८|| सौम्याहैः शुभारामा सुशीला भर्तृवत्सला । क्रूरग्रहैस्तु दुःशीला भर्तृविद्वेषिणी मता ॥४२९।। श्रीमद्देवेन्द्रसरीणां शिष्येण ज्ञानदर्पणः। विश्वप्रकाशकश्चक्रे श्रीहेमप्रभसारिणा ॥४३०॥
इति सप्तमस्थानप्रतिबद्धं जायाप्रकरणम् । यदि पञ्चमस्थान शनि और मंगल ग्रहों से न देखा जाय और चन्द्रमा की दृष्टि रहे तो वह स्त्री अपने पति से ही गर्भवती होती है ॥ ४२६ ॥
चन्द्रमा से युक्त सूर्य पापग्रह से युक्त हो वा बृहस्पति लम और चन्द्रमा को नहीं देखता हो अथवा सूर्य से युक्त चन्द्रमा को बृहस्पति नहीं देखता हो तो जार पुत्र कहें ।। ४२७ ॥
यदि लग्नेश और सप्तमेश परस्पर पूर्ण दृष्टि देखते हों तो स्त्री-पुरुष में पूर्ण प्रीति होती है और यदि खण्डित दृष्टि वाले हों तो प्रेम खण्डित रहता है ।। ४२८॥
लग्नेश और सप्तमेश यदि सौम्यग्रहों से देखा जाय तो स्त्री सुशीला और भर्तृप्रिया होती है। यदि वे पापग्रहों से देखा जाय तो वह पतिद्वेषिणी होती है ।। ४२६ ।। ___श्री देवेन्द्रसूरि के शिष्य श्रीहेमप्रभसूरि ने विश्वप्रकाशक और शानदर्पण इस प्रन्थ को रचा ॥ ४३०॥ ___ 1. पूर्णा for पूर्वम A. 2. पूर्णा प्रीति: for प्रीतिःपूर्णा A. 3. दृष्ट्वा for दृष्टा A.
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(८१)
प्रय स्त्रीजातकम् । क्रूरलमोद्भवा नारी स्वमपश्यति लमपे । पतिं न रञ्जयत्येषा ऋरत्वेनाप्यहंकृता ॥४३१॥ कर्मस्थे मङ्गले जाता स्वैरिणी कुलदृषिका । निःशुक्राथ पतेद्वेप्या चिरं भ्रमति वेश्मसु ॥४३२ द्वौ शुभौ दुर्जनक्षेत्रेऽप्यन्यः करो विलग्नगः । तत्र लग्ने ध्रुवं जाता स्त्री भवेद्विषकन्यका ॥४३३॥ द्वादशेऽप्यष्टमे भौमे करे तत्रैव संस्थिते । राही विलमे नूनं रण्डा भवति कन्यका ॥४३४॥
कर लग्न में उत्पन्न स्त्री, जब लग्नेश लग्न को न देख रहा हो, करता के व्यवहार से, अहंकार के कारण अपने पति को प्रसन्न नहीं करती ॥ ४३१॥
मंगल दशमस्थान में यदि रहे तो वह स्त्री अपनी इच्छा से घूमने वाली और अपने वंश को दूषित करने वाली, शुक्ररहित तथा पतिद्वेषियी बनकर चिरकाल तक लोगों के घरों में घूमती फिरती है ॥ ४३२ ॥
दो शुभ ग्रह यदि पापग्रह की राशि में हों और एक पापग्रह लन में रहे तो ऐसे लग्न में उत्पन्न कन्या विषकन्या ही समझी जाय ॥ ४३३ ।।
द्वादश वा अष्टम स्थान में मंगल रहे और अन्य भी पापप्रह उसमें रहें और लग्न में राहु रहें तो वह कन्या अवश्य विधवा होगी ॥४३४॥
1. स्थि for स्थे A. 2. स्वरं for चिरं Bh. पतेष्याश्चि (स्वरं AI) भ्रमति for पते₹ष्या चिरं भ्रमति A, A+ 3. The text reads fearaq: för faarao: 1 Samhitasaia quotes a verse of similer interest and ascribes it to Trailokyaprakasa. The verse is the following.
रिपुक्षेत्रस्थितौ द्वौ तु लग्ने यत्र शुभौ ग्रहो। करचव तदा जाता भवेत स्त्री विषकन्यका ।।
Compare also Ranavırajyotirnibandha Strijataka 1.P. 517 : ... . -
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(2) मौमादित्यशनौ लमे जाता भवति दुर्मगा। सौम्यस्वोच्चे स्वके जाता सुभगा भवति भामिनी।।४३५॥ स्त्रीजातके च लग्नेशे ग्रहान्तरसुहृद्युते । उपपत्तिः श्रियां' वाच्या निश्चितं यौवनोद्धतौ ॥४३६।। मूतौं राह्वभौमेषु रामा' भवति वणिनी । एषु शुक्रद्वितीयेषु पतिमन्यं चिकीर्षति ॥४३७॥ नीचे भौमे शनौ वास्ते' राहावपि च तत्रगे" । आजन्म रमणेनैव' स्वेच्छाचारी पुनर्घना ॥४३८॥ सर्येऽस्ते स्वपतित्यक्ता नवोढेव कुजेऽथवा । करदृष्टे' शनौ नार्या वाई यौवने भवेत् ।।४३९।।
लन में मंगल, सूर्य, शनि रहें तो उत्पन्न कन्या कुत्सितयोनि वाली होगी और यदि शुभग्रह अपने उच्च स्थान में रहें तो कन्या सुन्दर योनि वाली होती है ॥ ४३५॥
लग्नेश यदि दूसरे किसी मित्रग्रह से युक्त हों तो निश्चय ही युवावस्था में कन्या की उत्पत्ति कहनी चाहिये ॥ ४३६ ॥
लग्न में राहु, सूर्य और मंगल यदि हों तो स्त्री विधवा होती है। इन में से यदि कोई ग्रह शुक्र के साथ बैठा हो तो वह दूसरे पति की इच्छा करती है ।। ४३७ ॥
मंगल, शनि यदि नीच स्थान में वा अस्त रहें और वहीं राहु भी रहे तो वह स्त्री आजन्म अपने पति के साथ स्वेच्छापूर्वक रमण करती है।४३८॥
सूर्य वा मंगल सप्तम स्थान में रहें तो नवोढा रहने पर भी वह अपने पति से परित्यक्ता हो जाती है । यदि दूसरे पापग्रह की दृष्टि शनि पर रहे तो यौवन में ही बुढ़ापा आजाता है ।। ४३६ ।।
1 स्त्रियां for श्रियो A. 2. वाच्यो for वाच्या A. 3. त: for तो A. यौवणेद्वतं Bh. 4. रण्डा for रामा Bh. b. चास्ते for वास्ते Bh 6 The text reads वभंवगे for च तत्रगे 7. मरणेनैव for रखनेव A, A1 8. The text reads स्वे for स्ते 9. दृष्टिः for TE A, A?
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(६) करमात्रे पतित्यक्ता धनैः करैः पतिर्नहि । सुरूपा सा भवेन्नारी सप्तगेहगतैहैः ।।४४०॥ घने भौमनवांशे मंदगदृष्टे सरोगयोनिः स्त्री । तत्रैव शुभनवांशे चारुश्रोणी प्रिया पत्युः ॥४४१॥
इति स्त्रीजातकम् । मघा रेवती मूलं च ज्येष्ठाश्लेषा तथाश्विनी । वर्जयेहतुकाले च षडेतानि हि नान्यभम् ॥४४२॥ योनिस्थाने स्थिते चन्द्रे शके तत्रैव संस्थिते । रतेः सुखं स्त्रियो वाच्यं नखसीत्कारपेशलम् ॥४४३॥ गुरौ लग्ने सिते धने चन्द्रे च सुखवेश्मनि । रूपलावण्ययुक्तानां रतं यूनां सुखास्पदम् ॥४४४॥ अस्ते शुक्रे युते करः सुखं पीडा च जायते । चन्द्रशुक्रौ यदा तत्र सुखाधिक्यं तदा मतम् ॥४४५।।
सप्तमस्थान में यदि पापग्रह हों तो वह स्त्री पतित्यक्ता हो जाय । यदि उस स्थान में अधिक पापग्रह होवें तो पति मर जाय । यदि सात भावों में सब ग्रह स्थित हो जाय तो स्त्री सौभाग्यवती होती है ॥ ४४०॥
सप्तमस्थान में मंगल के नवांश में यदि शनि की दृष्टि रहे तो स्त्री योनिदोषवती होती है । उसी स्थान में यदि शुभग्रह का नवांशा हो जाय तो स्त्री सुन्दरी तथा पतिप्रिया होती है ॥ ४४१ ॥
ऋतुकाल में मघा रेवती, मूल, ज्येष्ठा, आश्लेषा और अश्विनी इन ६ नक्षत्रों को अवश्य छोड़ना चाहिये, अन्य नक्षत्रों को नहीं ॥ ४४२ ॥
चन्द्र और शुक्र यदि योनिस्थान में रहें तो उस स्त्री को मैथुनजन्य सुख कहना चाहिये ॥ ४४३ ॥ लग्न में गुरु, सप्तम में शुक्र और चतुर्थस्थान में यदि चन्द्रमा रहे तो रूप लावण्ययुक्त युवकों को स्त्रीसुख कहना चाहिये ॥ ४४४ ॥
शुक्र यदि सप्तम स्थान में रहे तथा कर ग्रहों से युक्त हो तो मुख और दुख दोनों होते हैं। यदि चन्द्रमा और शुक्र एक साथ रहें तो अधिक मुख कहना चाहिये ॥४४५ ।। 1. सौभाग्यात्या शुभयुक्त for चाह...पत्यु : A, A1 2. स्थान for स्थाने A, AP
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( ८४ )
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गुरुणा सहितौ तौ च सप्तमे वाथवाष्टमे । महासौख्यं रतेर्वाच्यं मुदितैर्मुदितस्त्रियाः ||४४६ || स्वगृहे' स्वर्क्षगैः सौम्यः परगेहेऽन्यगेहगः । मित्रtafa तु मित्रस्थैः रतं शुभस्त्रिया सह ||४४७॥ अस्ते शुक्रे च शीतांशौ ससौख्यं सुरतं मतम् । सगुरौ चन्द्रशुक्रे च कर्पूरादि मुखाश्रयम् ||४४८ || क्ररे सौम्ये च सायासं सोद्वगं कलहाश्रयम् । भोगवजं शनौ वाच्यं मैथुनं पूतघीधनैः ॥ ४४९ ॥ एकं रतं चरे वाच्यं स्थिरलग्ने रतद्वयम् । द्विस्वभावे तु लग्न तु तत्रयमुदाहृतम् ||४५० || तुर्ये गुरौ रतं वाच्यमुत्तमे देववेश्मनि । भग्नदेवगृहे भूमौ गुरौ नीचे रतं मतम् ||४५१||
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यदि चन्द्रमा और शुक्र गुरु के साथ सप्तम तथा अष्टम स्थान में रहें तो आनन्दयुक्त स्त्री के साथ आनन्दित पुरुषों को मैथुन-सुख होता है ।। ४४६ ।। शुभग्रह अपने घर में रहें तो अपने घर में, अन्य राशि में रहें तो दूसरों के घर में, मित्रस्थान में रहें तो मित्र के घर में, सुन्दर स्त्री के साथ भोगविलास कहना चाहिये || ४४७ ।।
सप्तमस्थान में यदि शुक्र और चन्द्रमा रहें तो सुखसहित मैथुन होता है । चन्द्रमा और शुक्र यदि गुरु के साथ रहें तो कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित मैथुन होता है ||४४८ ||
सप्तम स्थान में शुभ और पापग्रह दोनों रहें तो आयास, उद्वेग और कलह से युक्त मैथुन होता है। शनि यदि सप्तम स्थान में रहे तो नन्दशून्य मैथुन करना चाहिये ॥ ४४६ ॥
प्रवलन यदि चर हो तो एक बार, स्थिर लग्न हो तो दो वार, द्विस्वभाव लग्न रहे तो तीन वार मैथुन कहना चाहिये ॥ ४५० ॥
चतुर्थ स्थान में गुरु रहे तो उत्तम देवालय में मधुन कहना चाहिये । वही गुरु यदि नीच का हो तो जीर्या देवालय में मैथुन कहना चाहिये ।। ४५१ ॥
1. स्वगृहै : for स्वगृहे ms. 2. मित्रस्थे for मित्रस्थै: Ms. 3. ०सुखा० for oमुखा० AA1, Bh. 4. मिथुनं श्रुतधोधनैः for मेथुन पूतीधनैः A, A1 ६. 5. मुत्तगे for मुत्तमे A1
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(८) भौमे महानसे भूमौ सभयं सुरतं पुनः । शुक्रे च सजले स्थाने गीतनृत्यादिशालिनि ॥४५२॥ चन्द्र शुक्रे च वाप्यादौ स्तं प्रोक्तं सुखाश्रयम् । कुञ्जमध्ये बुधे तूर्ये रतं रम्यं कथादिभिः ॥४५३॥ शनौ राहौ च गर्तायां रवौ चतुष्पदाश्रयम् । एवं ग्रहानुमानेन रतस्वरूपमादिशेत् ।।४५४॥
इति सप्तमस्थाने द्वितीयं सुरतप्रकरणम् ॥
अथ परचकागममप्रकरणम् ॥ चरे लग्ने स्थिरे चन्द्रे समायाति रिपोर्बलम् । चरे चन्द्र स्थिरे लग्ने शत्रु याति भूपतिः॥४५५।। चन्द्रलग्नौ स्थिरस्थौ चेत् तदा याति रिपोर्बलम् । चन्द्रोदयादपि द्वयङ्गे शत्रुर्मार्गानिवर्तते ॥४५६।।
मंगल यदि सप्तम स्थान में रहें तो रसोई घर में समय मैथुन, शुक्र रहें तो जलाश्रयस्थान में जहां नृत्य, गीत आदि होते रहें मैथुन कहना चाहिये ॥ ४५२ ।।
___चन्द्र और शुक्र यदि सप्तमस्थान में रहें तो सुखदायक स्थानों में और यदि बुध चतुर्थ स्थान में रहे तो कथा आदि से युक्त तथा किसी कुछ में मथुन कहना चाहिये ॥ ४५३ ॥
शनि, राहु यदि उक्त स्थान में रहें तो गड्ढे में, रवि रहें तो गोशाला आदि में, इस तरह प्रहों की स्थिति के अनुसार मैथुन कहना चाहिये।। ४५४ ।।
चर राशि यदि लग्न में हो और चन्द्रमा स्थिर राशि में हो तो शत्रु की सेना आजाती है । चन्द्रमा यदि चर राशि में हो, लग्न स्थिर राशि का हो तो शत्र नहीं आता ।। ४५५ ।।
चन्द्र और लग्न दोनों स्थिर राशि के हों तो शत्रु की सेना भाजाय । चन्द्र और लग्न यदि द्विस्वभाव राशि में रहें तो शत्रु मार्ग से ही लौट जाय ।। ४५६ ॥
1. सुखावहम for सुखाश्रयम A. 2. पुख० for कुल A, A13. कथादिना for कथादिभिः A. 4. ग्रहानुभावेन for महानुमानेन A, A1 5. परलमस्थिते for परे लग्ने स्थिरे A.
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परचक्रागमं प्राहुश्चरे लमे स्थिरे विधौ । द्वयोश्चरस्थयोऽपि नत्वेतस्माद्विपर्यये ॥४५७॥ चरे शशी ततो द्वयङ्गे अदं गत्वा निवर्तते । विपर्यये द्विधा याति करदृष्टे पराजयः ॥४५८॥ मेषवृषधनुःसिंहा मूर्ती तुर्ये यदि स्थिताः । अग्रहाः सग्रहा वापि रिपुं व्यावर्तयन्ति ते ॥४५९॥ रिपुरायाति बन्धुस्थः शीघ्रं प्रश्ने शुभग्रहैः । चन्द्राको तु सुखस्थौ चेत्तदा नायान्ति शत्रवः ॥४६०॥ लग्नाभ्रचन्द्रधर्मशः स्थिरस्थे गमो रिपोः । स्थिरग्रहैः स्थिरे लग्ने दृष्ट नति' कदाचन ॥४६१।। __ लग्न यदि चर राशि में रहे और चन्द्रमा स्थिर राशि के हों तो शत्रुसेना का आगमन होता है। दोनों यदि चरराशि के हों तो शत्रु भावे । इस से विपरीत शत्रु नहीं सकता ।। ४५७ ॥
चर राशि में चन्द्रमा रहे, लम द्विस्वभावराशि के हों तो शत्रु भाधे रास्ते से खाकर लौट जाता है । इसस विपरीतावस्था में दो बार प्राता है। यदि पापग्रह की दृष्टि रह वा उसकी हार हा जाती है।॥ ४५८।।
मेष, वृष, धनु, सिह इन्हीं राशियों में से कोई यदि लग्न और चतुर्थ स्थान दोनों में रहे और वे याद ग्रहों के साथ वा विना ग्रह के रहें तो शत्रु को लौटा देते है ।। ४५६ ।।
प्रश्नकाल में यदि सभी शुभग्रह चतुर्थस्थान में रहें दो शत्रु शीघ्र ही प्रामआता है। यदि रवि, चन्द्र चतुर्थस्थान में रहें तो शत्रु नहीं भासकते ॥ ४६०॥
लमेश, दशमेश, धर्मेश और चन्द्र यदि स्थिर राशि में हो तो शत्रु का आगमन नहीं होता । लग्न स्थिर राशि रहे और स्थिर प्रहों से देखा आय तो भी शत्रु कमी नहीं पाते ।। ४६१ ॥
1 for नैति Bh.
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(२०)
लग्नपुण्यपती द्वौ तु पुरा परस्परम् । परागमनकर्ता वन्यथाप्यन्यथा फलम् ||४६२ ॥ पुण्यलग्नेश संबद्धौ चन्द्रलग्नेश्वरौ यदि । द्विपदागम कर्तारावन्यग्रहयुतौ नहि ||४६३ ॥ सौरिर्जीवोऽथवा लग्ने स्थिरे यदि च सयुतः । रिपुरेति तदा नैव रिपुरेति चरैः पुनः ||४६४ || अर्काधिशुक्राणामेकों स्याच्चरोदये ।
भवेतदागमः शत्रोः स्थिरलग्ने न चागमः ॥४६५॥
2
द्वितीये च तृतीये च गुरोः क्षेत्रेऽथवा भृगुः । बली यदा तदायाति शत्रुस्तत्र बलैर्युतः ॥४६६ ||
3
मेश और धर्मेश की पारस्परिक दृष्टि हो अथवा वे दोनों युक्त ग्रह हों तो शत्रु का आक्रमण अवश्य होता है, अन्यथा रहें तो शत्रु नहीं आते ।। ४६२ ॥
लमेश और चन्द्रमा यदि पुण्यस्थानेश से संबन्ध रखते हों तो शत्रु का आगमन होता है, अन्यग्रहों के साथ युक्त होवें तो शत्रु नहीं
आता ।। ४६३ ।
शनि अथवा गुरु यदि लग्न में रहें अथवा स्थिर राशि के हों तो शत्रु नहीं आता और यदि वे चर राशि के हों तो शत्रु श्राजाता है ||४||६४ रवि, शनि, बुध, शुक्र इनमें से कोई भी चर लग्न में रहे तो शत्रु का आगमन अवश्य रहे किन्तु स्थिर लग्न होने पर नहीं होता ।। ४६५ ।
'बली शुक्र यदि द्वितीय, तृतीय अथवा गुरु की राशि में रहें तो शत्रु सेना के साथ आता है ।। ४६६ ।।
1. च नागम: for नचागम: A. 2. गुरुक्षेत्रे for गुरोः क्षेत्रे A. 3. For this line the ms reads बली यदा तदायाति शुको वा धिषणोऽपि वा । तथा तथा समायाति शत्रुस्तत्र बलैर्युत.
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परागमनपृच्छायां लग्ने करः स्थितो यदा। तदा भत्रोभवेन्मृत्युर्दैवादागच्छतः पथि ॥४६७॥ सुतशत्रुगतैः करैः शत्रुर्मार्गानिवर्तते । चतुर्थगैरपि प्राप्तः शधुर्भग्नो निवर्तते ॥४६८॥
इति सप्तमस्थाने तृतीयं परचक्रागमनप्रकरणम् ॥
अथ सप्तम एव मार्गनिबद्धत्वाद् गमनागमनं निरूप्यते गमनागमनं प्रोक्तं चरे चन्द्रे चरोदये । द्विस्वभावे चराः च चरवर्गे विलम्बितम् ।।४६९॥ एतद्विपर्यये नेदं भवतीति विनिश्चितम् । चरेष्वपि प्रयाणं 'स्यायोगशक्त्या स्थिरोदये ॥४७०॥ अर्कार्किगुरुसौम्यानामेकेनापि चरोदये । शीघ्रयानं न तद्वक्रे नेन्दोः स्वाधव्ययैः शुभैः ॥४७१॥
शत्रु का आक्रमण होगा वा नहीं ऐसे प्रश्न में यदि कोई पापप्रह लम्र में हो तो अकस्मात मार्ग में प्राते हुए शत्र की मृत्यु हो जाय ॥ ४६७ ॥
पञ्चम, षष्ठ स्थानों में यदि पापग्रह हों तो शत्रु मार्ग में से लौट जाता है । वे पापग्रह यदि चतुर्थ स्थान में हों तो शत्रु अङ्गभङ्ग होकर लाट जाता है॥४६८॥
चन्द्र यदि चर राशि में हो और चरलम होवे तो आना-जाना (आसानी से ) होता है। यदि लग्न और चन्द्रमा द्विस्वभाव राशि के हो, चरखण्ड वा चरराशि के वर्ग में पड़े हों तो आना-जाना देरी से होता है ।। ४६६ ॥
इसकी विपरीतावस्था में यह नहीं होता, यह निश्चित है । चरलग्न में भी यात्रा होती है । स्थिरलम में भी योग शक्ति से यात्रा जाननी चाहिये ॥४७०।।
रवि, शनि, गुरु, बुध-इनमें से कोई भी घर लम्र में रहे तो शीघ्र ही यात्रा होगी, यदि वे वक्री हों तो नहीं और यदि चन्द्रमा से शुभ प्रह द्वितीय लाभ-व्यय स्थानों में हों तो भी नहीं ।। ४७१ ॥
1. यदि for यदा AL. 2. पापैः for करें: A, A1 3. स्थिरलग्ने for चरवर्गे Bh. 4. चरे पथि प्रयातं स्या for चरेष्वपि प्रया स्या० A., Bh. 5. तु तद्वके नन्दो for न तद्वके नेन्दोः A., नंदास्त्वर्थे ध्यये शुभः Bh.
HTHHTHHINI
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स्थिरे गमागमौ न स्तः शनिजीवनिरीक्षिते । अस्थिरे भवतस्त्वेतौ शुभखेटविलोकितौ ॥४७२।। चन्द्रलग्नौ द्विदेहस्थौ चिरं वाच्यो गमागमौ । चरादिवर्गगौ युक्त्या वक्तव्यौ कालमात्रया ॥४७३॥ शुक्राकिबुधजीवानामेकोपि चरलग्नगः। गमनाय निवृत्तौ तु चेत् स्थिरलगमाश्रितः ॥४७४॥ प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च स्थिता धर्मार्थभावयोः । तत्र वीक्ष्या बलाद्यैश्च गमागमनिबन्धनाः ॥४७५।। शीर्षोदये शुभा यात्रा सैव पृष्टोदयेऽन्यथा । मीनलग्नांशकैर्वापि यानं चक्रं च निष्फलम् ।।४७६।।
स्थिर लग्न रहे और शनि-गुरु की दृष्टि रहे तो आना-जाना नहीं होता। अस्थिर लग्न रहे और शुभ ग्रहों की दृष्टि रहे तो आना-जाना होता है ।। ४७२ ।।
__ चन्द्रमा ओर लग्न द्विस्वभाव राशि के हो तो आने जाने में विलम्ब कहना चाहिये । चर राशि के वर्ग में रहे तो युक्तिपूर्वक, काले के अनुमान से गमनागमन कहना चाहिये ।। ४७३ ।।
शक, शनि, बुध पार गुरु इनमे से कोई भी यदि चरलग्न में हा तो वह यात्रा के लिये प्रवृत्त होता है । वही यदि स्थिर लम में हो तो यात्रा नहीं कहनी चाहिये ॥ ४७४॥
गमन और आगमन दोनों धर्म और अर्थ भाव के ग्रहों का बला. बल देख कर कहने चाहिये ।। ४७५ ।।।
शार्पोदय वाले राशि लग्न रहें तो शुभ यात्रा, पृष्ठोदय वाले राशि लम रहें तो विपरीत अर्थात् अशुभ यात्रा, मीन लग्न का उदय रहे तो आना जाना निष्फल रहे ।।४७६।।
__ 1 कालमात्रय: for कलमात्रया Bh. 2 निबन्धनम् for निबन्धनाः ' Bn 3. यथा for ऽन्यथा A, A1 4. मीनलग्नोदये वापि tor मीन
लग्नांशकवापि A,A
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( ६० )
मदीयः पुत्रको देशे गत्वा तत्रैव संस्थितः । कदायातीति शङ्कायां पृच्छालग्नं निरीक्षयेत् ||४७७॥ चरे लग्ने चरांशे वा स्थिते चन्द्रे तदैव हि ।
3
परदेशात्समभ्येति स्वाङ्कसंख्यैश्च यामिकैः ॥ ४७८ ॥ चन्द्रो वा धिषणो वापि भार्गवो वा बलाधिकः ।
यदि तुर्ये समभ्येति तदा गेहागतं वदेत् ।। ४७९ ॥
5
प्रयाति सहजस्थानमसौ यस्याशुभग्रहः ।
आयाति पथिकस्तस्यामेव नाड्यां गृहान् प्रति ॥ ४८० ॥ चरोदये चरांशे वा सौम्या यान्ति बलोत्कटाः " । तदा जवात्समभ्येति दूरादप्यचिरादपि ॥ ४८१ ॥ मार्गे ह्यागच्छतः पुंसो विश्रामो ग्रहसंख्यया । सबलानि धनादीनि वाच्यं स्खलनकारणम् ।। ४८२ ॥
मेरा पुत्र परदेश में जाकर वहीं बैठ रहा है। वह कब आवेगा ऐसे प्रश्न में प्रश्न लग्न को देखना चाहिये ||४७७||
चर लग्न अथवा चर राशि के नवांशक में यदि चन्द्रमा रहे और शनि अपने स्थान में हो तो वह परदेश से शीघ्र ही लौट आता है ॥४७८ चन्द्रमा, गुरु वा शुक्र बली होकर यदि चतुर्थ स्थान में रहें तो वह घर में आ गया है इस प्रकार कहना चाहिये || ४७६ ॥
जिसकी प्रश्न कुण्डली में शुभग्रह तृतीय स्थान में रहें तो वह पत्रिक उसी समय घर को आ जाता है ||४८०
शुभ ग्रह चर लग्न वा श्वर राशि के नवांश में सबल हो कर रहें दूर से भी वह शीघ्र श्रा जाय ||४८१||
तो
मार्ग में आते हुए पुरुष के प्रहस्थितिद्वारा विश्राम, बल, धन और विलम्ब के कारण कहने चाहियें ||४८२ ॥
1. संख्यायां for शंकायां A. 2. संस्थेश्च for संख्येश्व A. 3. याम कैः Bh. 4. गृहं गत for गेहागदं A, A1. 6. यस्यां for यस्या A, A. यस् Bh. 6 बलाधिका: for बलोत्कटा: A, A1. 7. दूरादपि चिरादपि for दूरादप्यचिरादपि A. A1.
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( ६१ )
लग्नास्तयोर्द्वयोरङ्कास्तर्यस्यापि भवन्ति चेत्' ।
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दूराध्वानास्त्वविश्रामा ज्ञातव्याः स्वगृहान्तरे ॥ ४८३ ॥ स्वभावोऽविचारो वा मार्गे वक्रगविस्तथा । लग्ननाथस्य या दृग् स्यात् प्रचारः पथिकस्य सः ॥ ४८४ ॥ लग्नाद्वा लग्ननाथाद्वा यत्संख्ये क्रूर खेचराः । मार्गे हि गच्छतो गन्तुस्तत्रापि स्यादुपद्रवः || ४८५ ॥ द्यने नीचेऽथवा षष्ठे चन्द्रलग्नेश्वरो यदि । छिद्रनाथतौ मृत्युरिष्टापि प्रवासिनः ॥ ४८६ ॥ प्रश्ने पृष्टोदये लमे करें दृष्टे शुभे च्युतः । कोणकेन्द्रगतैर्वापि प्रवासी स्यादुपद्रुतः ॥ ४८७ ॥
5
करयुक्त क्षितौ मन्दः सौम्येक्षा योगवर्जितः । धर्मस्थस्तनुते व्याधिं प्रोषितस्यागमो भवेत् || ४८८ ||
लग्न और सप्तम स्थान के श्रङ्क यदि चतुर्थ स्थान के भी हों दूर मार्ग चल कर आए हुए पुरुष को घर में विश्राम कहना चाहिये ||४८३ ||
लग्नेश प्रकृतिस्थ रहें वा किसी अन्य राशि में जाने वाले अथवा मार्गी वा वक्री रहें वैसी ही स्थिति उस पथिक की होती ह ||४८४||
लग्न वा लग्नेश से यत्संख्यक स्थान में पापग्रह हों, मार्ग पर चलते हुए उस पथिक का अनिष्ट कहना चाहिये ||४८५||
चन्द्रमा और लमेश सप्तम अथवा अपने नीच वा षष्ठ स्थान में रहे और अष्टमेश से संयोग रहे तो उस प्रवासी मनुष्य की मृत्यु कहनी चाहिये ||४८६ ।।
प्रश्नकाल म पृष्ठोदय राशि लग्न में हो, पाप ग्रहों की दृष्टि रहे, कोई भी शुभग्रह न रहे अथवा केन्द्र तथा त्रिकोण स्थान में शुभग्रहों से रहित हो तो पथिक को मार्ग में अनिष्ट कहना चाहिये ||४८७||
शनि धर्म स्थान मे हो और क्रूर ग्रहों से युक्त वा देखा जाय, शुभ ग्रह की दृष्टि अथवा योग न रहे तो वह पथिक रोगी होकर घर को लौट आवे ||४८८||
1. ये for चेत् ms. 2. दूराध्वनोऽथ for दूराध्वानास्त्व A. 3 प्रवासिनाम् for प्रवासिन: A. 4. कोणे for कोण ms. 5. रे forms.
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( ६२ ) लमाद्वा लग्ननाथाद्वा यत्संख्ये सौम्यखेचराः । मार्गे तत्रोदयो वाच्यः शकुनाश्चापि शोभनाः ॥ ४८९ ॥ अष्टमे तरणौ मार्गे भयं वाच्यं कुजेऽपि वा । यावन्तोऽप्यष्टमे खेटाचौरास्तावन्त एव हि ॥ ४९० ॥ लग्ने धने तृतीये च सौम्ययुक्तेक्षितेपि च ।। तस्करोपद्रवौ नैव वक्तव्यो मार्गचारिणाम् ॥ ४९१ ॥ यत्र गुरुभवेद्दवो यत्र शुक्रो जलाश्रयः । प्रपातडागकूपादि वक्तव्यं गच्छतां पथि ॥ ४९२ ॥ चन्द्र शुक्र नदीमार्गे राहुशन्योर्महद्भयम् । नृपगेहे गुरौ तुंगे निधिलाभोऽपि भूपतेः ॥ ४९३ ।।
लन से वा लमेश से जितनी संख्या पर शुभ ग्रह पड़े हों प्रश्न काल से उतने ही दिनों में उसका उदय होता है और शुभ शकुन भी होते हैं ।।४८
अष्टम स्थान में यदि सूर्य तथा भौम हों तो मार्ग में मय कहना चाहिये, जिवने संख्यक ग्रह अष्टम मे स्थित होवें उतने संख्यक चौर से उपद्रव हो॥४६॥
__ यदि लन द्वितीय और तृतीय में शुभ प्रह का योग हो या शुभ प्रह देखते हों वो पथिक को रास्ते में चौर तथा उपद्रव का भय नहीं होगा ॥४६॥
जिसको प्रश्न काल में गुरु या शुक्र जलचर राशि में हो उसको रास्ते में जाते समय तालाब कूआं, इत्यादि जलाशय मिलें ॥४२॥
___ यदि चन्द्र और शुक्र, जलचर राशि में हों तो नदी के मार्ग से (अर्थात नोका या पोत पर यात्रा करे) जाय यदि राहु और शनि अक्षर राशि में हो तो महान् भय कहना चाहिये, और यदि बृहस्पति
का हो तो राजा के घर में हो तथा राजा से निधि का लाभ हो ||४६३||
1. शत्रुता० for शकुना० A. 2. पद्रवो for पद्रवो A. 3. वक्तव्यो for पयो A, 4. यदि for पथि A. Al.
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( ३ ) राजगेहे भृगौ तुंगे द्रव्यलामादि' गच्छतः। षष्ठे पुष्टे' गुरौ व्याधिरित्येवं मार्गवेष्टितम् ॥ ४९४ ॥ अष्टमे स्वगृहे सूर्ये शनिदृष्टेऽथवा युते । मंगले शीतगौ मार्गे शस्त्रैर्घातं तदादिशेत् ॥ ४९५ ॥ गुरो लग्नेऽथवा शुक्र शत्रुतस्करसंकटे । न प्रहारो न वा हानिवक्तव्या मार्गचारिणाम् ॥ ४९६ ॥ सप्तमे शीतगौ शुक्र मार्गेऽपि गच्छतां नृणाम् । स्त्रीसंभोगो भवेत् स्नेहान्मिथुनादिषु मूर्तितः ॥ ४९७ ॥ नो विश्रामश्चरे लग्ने द्वौ विश्रामौ स्थिरात्मके । विश्रामत्रितयं प्रोत्तं द्विस्वभावे विचक्षणः ॥ ४९८ ॥ वृषसिंहालिकुम्भेषु लग्नयातेषु गच्छतः । गमागमौ न वक्तव्यौ चरैरेवं द्वयं वदेत् ।। ४९९ ॥
इति सप्तमस्थाने गमागमप्रकरणम् । यदि शुक्र उच्च का हो तो जाते समय राजा के घर से बहुत द्रव्यादि का लाभ हो, और यदि षष्ठ भाव में पुष्ट बृहस्पति हो तो रास्ते में व्याधि हो ॥४४॥
यदि अष्टम भाव में सिंह का सूर्य हो और वह शनि से युत वा दृष्ट हो वा मंगल चन्द्रमा अष्टम में स्वगृही हों शनि से युत व दृष्ट हों तो रास्ते में उसका शस्त्र से घात हो ॥४६५।
यदि बृहस्पति वा शुक्र लग्न में हों तो शत्र और चौर से संकट होने पर भी उसको न तो प्रहार हो और हानि भी नहीं हो ॥४६६॥
..सप्तम में चन्द्रमा और शुक्र हो तो रास्ता जाते हुये भी प्रेम पूर्वक मथुनादि में स्त्री का सम्भोग हो ॥४६॥ " यदि प्रश्नकाल में चर लग्न हो तो रास्ते में विश्राम नहीं होता और स्थिर हो तो रास्ते में दो जगह, अगर द्विःस्वभाव हो तो तीन जगह विश्राम होता है ॥४६॥ .
यदि स्थिर लग्न में यात्रा करें तो आना आना नहीं होता और यदि चर लग्न में करें तो गमागम दोनों होते हैं ।।४६६।।
इति सप्तमस्थाने गमागमप्रकरणम् 1. लाभोऽपि for ०लाभादि A, A1. 2. पुत्रे for पुष्टे A. 8 मूर्तयः for मूर्वितः A, A1.
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( ६४ ) युद्धप्रकरणं वक्ष्ये गमनाय महीभुजाम् । गुरूपदेशतो ज्ञात्वा देवं नत्वा जिनेश्वरम् ॥ ५०० ॥ शत्रुलग्नेश्वरौ करो करौ वा लग्नसप्तपौ' । अन्योन्येक्षितयुक्तौ तु युद्धाय करवर्गगौ ॥५०१।। युद्धकृद् धनपः केन्द्र ग्रहो वक्री च केन्द्रगः । करयुक्तक्षिते लग्ने करवर्गाधिकेऽपि वा ॥५०२।। भूतौ करे बुधे त्रिस्थे रवौ तुर्ये रणोदये । पौरनृपविनाशः स्यादमीषां नवमांशके ॥५०३॥ कुजः स्वोच्चं गतः केन्द्र रविपि निजोच्चगः । विरोधी सप्तमः केन्द्रे युद्धयोगो महानयम् ॥५०४॥
अपने इष्ट जिनेश्वर देव को नमस्कार करके और गुरु का उपदेश जानकर राजाओं को जाने के लिये युद्ध प्रकरण कहता हूँ ॥५००॥
षष्ठेश और लग्नेश पाप हों अथवा लग्नेश, सप्तमेश पाप हों और पाप ग्रहों के वर्ग में हों और दोनों आपस में देखते हों तो युद्ध होता है ।।५०१॥
यदि सप्तमेश केन्द्र में हो या वक्री प्रह केन्द्र में हो और पापग्रह लन में स्थित हो वा देखता हो और पापग्रहों की वर्गों की अधिकता हो तो युद्ध होता है ।।५०२॥
लन में पाप ग्रह हो, बुध तृतीय में हो और रवि चतुर्थ स्थान में हो और इन्हीं राशियों के नवांश युद्धकाल में लग्न हो तो उस नगर के राजा का नाश होता है ।।५०३।।
___यदि मङ्गल उच्च का हो कर केन्द्र में हो और रवि उच्च का होकर शत्रु स्थान या सप्तम या और केन्द्रों में हो तो बहुत भारी युद्ध का योग होता है ।।५०४॥
1 सप्तमौ for °सप्तपो Bh. 2. केन्द्र for केन्द्रे A. 3. ०धिकोऽपि वा for ofधकेऽपि वा A. 4. महानसौ for महानयम A.
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सकरो वक्रितो वापि केन्द्रे युद्धाय मूर्तिपः । धनपोपि तथा चिन्त्यस्त्वेवं षष्ठगृहाधिपः ॥५०५।। अर्कादने चरे करे चन्द्रे वारिष्टगामिनि । युद्धं स्यात्सबलारब्धं महाक्रोधेन भूभुजाम् ॥५०६॥ रणाय प्रान्त्यगाः करा राहुकेत विशेषतः ।
अस्ते मूतौ ध्रुवं युद्धं वाच्यं बलद्वये ॥५०७॥ स्थिरे मूर्ती स्थिरांशे वा युद्धे नास्ति रणोदयः । सग्रहाग्रहयोगेन युद्धायुद्धं विचारयेत् ॥५०८॥ शुभैमूतों* शुभैरस्ते शुभैः केन्द्रे शुभेक्षिते । युदं न जायते क्षेमो भवेत्तत्र महीभृताम् ॥५०९॥
लग्नेश पापग्रह से युक्त हो और वक्री होकर केन्द्र में हो तो युद्ध होता है । इस प्रकार सममेश यदि पाप से सम्बन्ध करता हो और वक्री होकर केन्द्र में हो तो भी युद्ध होता है। इसी प्रकार षष्ठेश की स्थिति हो तो भी युद्ध होता है ॥५०॥
सूर्य से आगे घर राशि में पाप ग्रह हो और चन्द्रमा अनिष्ट स्थान में स्थित हो तो राजाओं का बड़े क्रोध के साथ, बहुत जोर से युद्ध होता है ।।५०६॥
याद द्वादश स्थान में पाप ग्रह हो तो युद्ध होता है और राहु, केतु हो तो विशेष युद्ध होता है और सप्रम में लग्न में पाप ग्रह हों तो निश्चय दोनों तरफ की सेनाओं में युद्ध होता है ।।५०७॥
यदि युद्ध काल में स्थिर राशि लग्न हो वा स्थिर राशि का नवमांश लग्न हो तो युद्ध नहीं होता । इस प्रकार प्रहों के संयोग तथा वियोग से युद्ध होगा या नहीं उसका विचार करें ।।५०८॥
यदि शुभ ग्रह लग्न में हो और शुभ ग्रह सप्तम स्थान में हो और शुभग्रह केन्द्र में हो और इन स्थानों पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो इस योग में युद्ध नहीं होता किन्तु राजाओं का कल्याण होता है ।।५०६॥
1. केत्वविशेषतः for ०केतू विशेषतः A. 2, करे चन्द्रे वारिष्ट गामिनी for Qरै युद्धं वाच्यं बलद्वये ms. 8. सग्रहो for सपहा ms, 4. मूतैः for मूर्ती A15. रस्तैः for स्ते A. 6. केन्द्रे for केन्द्रे ms. 7. तत्र क्षेमं भवति भूभृताम् for क्षेमो भवेत्तत्र महीभृताम्
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( ६ ) द्रेष्काणा दण्डपाशास्त्रधारिणः समराय च । क्रराक्रान्ता विशेषेण करवर्गगतास्तथा ॥५१०॥ अन्योन्यवर्गगाः क्ररास्त्वन्योऽन्यक्ररदर्शकाः । रौद्रं कुर्वन्ति संग्रामं शुमैः केन्द्रगतैर्नहि ॥५११॥ मृतिगे करवर्गस्थे क्षीणे चन्द्रे च संगरः । करयुक्त विशेषेण महायुद्धमुपप्लवः ॥५१२।। न्यूनाधिकत्वमालोक्य करत्वसबलत्वयोः । ग्रहाणामादितस्तज्ज्ञेस्ततो युद्धस्य निर्णयः ॥५१३॥ तृतीयगृहमारभ्य भावपटकं व्यवस्थितम् । नागगख्यं ततः षटकं परं स्याद्यायिसंज्ञितम् ॥५१४॥ नवमे गुरुशुक्रज्ञा जयदा नगरप्रभोः । भौमार्की भंगदौ सौम्याः बैंकर्षिस्था जयप्रदाः ॥५१५।।
यदि लग्न का द्रेष्काणा पापग्रहों से आक्रान्त हो या पापग्रह के वर्ग में हो तो दण्ड, पाशादि अस्त्रधारियों का युद्ध होता है ॥५१०॥
यदि पापग्रह परस्पर एक दूसरे के वर्ग में हों और पाप ग्रहों की परस्पर दृष्टि हो, शुभ ग्रह केन्द्र में नहीं हों तो बहुत कठिन युद्ध होता है॥५१शा
याद लग्न में पाप ग्रह के वर्ग में क्षीण चन्द्रमा हो तो युद्ध होता है और वह पापग्रह से युक्त हो तो महायुद्ध होता है ।।५१२।।
प्रहों के न्यूनत्व और अधिकत्व तथा करत्व और सबलत्व को पहले से देख कर तब उसको जानने वाले युद्ध का निर्णय करें ॥५१३।।
और तृतीय भाव से लेकर छः भाव तक नागराख्य अर्थात् नगर वालों का भाव कहलाता है उस के बल से नगर वालों का और दशम भाव से तृतीय पर्यन्त यायिसबक भाव कहलाता है उसके बलाबल से जय करने वालों का जय पराजय का विचार करें ॥५१४।।
यदि नवम भाव में बृहस्पति, शुक्र, और बुध हों तो उस नगर के राजा का जय होता है, और यदि नवम भाव में मंगल, शनि हो तो युद्ध में भंग होता है, और यदि शुभ ग्रह दशम, लग्न, और सप्तम में हो वो जय होता है ।।५१५।।
___1. केन्द्रगतेन हि for केन्द्रगतै ह A, A1. 2. परस्याव्या विसंक्षितम् for पर स्याद्यायिसंज्ञितम ms.
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( 8 ) रिफैकैकादशस्थाश्वेदेकः ऋग्रहो यदि । यायी तं नगरं हन्ति दुर्गाद्यमथ शोभनैः ॥५१६॥ लग्नतो यदि लाभस्थौ गुरुशुक्रौ रविबुधः । एक एव पुरेशस्य जयदो बरगो (१) न्यथा ॥५१७॥ मूर्तेस्त्रिपञ्चषष्ठस्थाः करा यायिजयावहाः । कर्मायव्ययलग्नस्था यायिनोऽपि जयावहाः ॥५१८॥ कुंभकर्कटमीनालिलग्नतर्ये रिभंगदाः । मूर्तियनगतैः सौम्यैर्जयः स्थातुरुदाहृतः ॥५१९॥ लग्नेशद्यनगे वश्यो गन्ता स्याद् व्यत्ययेऽपरः ।
यायो लग्नपतिश्चिन्त्यः स्थायी धनपतिस्तथा ॥५२०॥ ___यदि द्वादश एकादश, और लग्न में एक पापग्रह हो तो जय करने वाले उस नगर को नष्ट कर देते हैं और यदि इन स्थानों में शुभ ग्रह हों तो वह इस नगर को ग्रहण भी नहीं कर सकते ॥५१॥
यदि गुरु और शुक्र, लग्न मे लाभ स्थान में हों और रवि, बुध प्रथम स्थान में हों तो उम नगर वालों का जय होता है, और वे यदि दुष्ट स्थान में स्थित हों तो अन्यथा अर्थात् जय नहीं होता है ॥५१७।। ।
यदि पापग्रह लग्न से तृतीय. पञ्चम, षष्ठ स्थान में, स्थित हो तो जय करने वालों का जय होना है और यदि दशम, एकादश व्यय और और लम में, पाप ग्रह हो तो यायी को जय होता है ।।५१८॥
यदि लग्न और चतुर्थ स्थान में कुंभ, कर्क, मीन, वृश्चिक राशि हो तो शत्रु का नाश होता है, और यदि लग्न, सप्तम में शुभ ग्रह हो तो स्थायी राजा का जय होता है ॥५१॥
यदि लग्नेश सप्तम में हो तो यायी राजा स्थायी राजा के वशीभूत होते हैं, और यदि व्यत्यय अर्थात् सप्तमेश. लग्न में हो तो अन्यथा अर्थात् उम नगर के राजा यायी राजा के वशीभूत हो जाते हैं। यायी रामा के लिये लगेश का विचार करें और स्थायी के लिये सप्तमेश का विचार करें॥२०॥ __ 1. मूर्तिस्वपश्च० for मूर्तेस्त्रिपञ्च A. 2. स्थायि for यायि A,
Bh.
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( 8 ) सप्तराज्यपदायस्थाः सौम्यस्थायिजयप्रदाः' । शीर्षोदये शुभयुक्ते शुभदृष्टे रणे जयः ।।५२१॥ जयाय लग्नपो मूर्ती प्रष्टुः परस्य वाऽस्तपः। धने लग्नानुसारेण वक्री वक्रफलाश्रयः ॥५२२॥ लग्नलग्नपयोर्मध्ये राज्येशो विजयप्रदः । केन्द्राधिपस्तु युक्तो वा लग्नेशः केन्द्रगोपि वा ॥५२३॥ मन्दे भौमे च मूर्तिस्थे पुत्रे जीवे पदे रवौ । आये सौम्येऽथवा व्योग्नि प्रष्ट्रविजयमादिशेत् ॥५२४॥ द्रव्यस्य विषयी दाता करे सप्तमभावगे। आकाशसंस्थिते सौम्ये यायी दत्त्वा धनं ब्रजेत् ॥५२५।। तुर्यगे ज्ञेऽष्टमे चन्द्रे शुक्रे च सप्तमे जयः । लग्नारिरन्ध्रगैः किं वा शुक्रजीवदिवाकरः ॥५२६॥
यदि सप्तम, नवम, दशम, एकादश, स्थान में शुभ ग्रह हो तो स्थायी राजा का जय होता है । युद्ध काल में यदि शीर्षोदय लम हो और वह शुभ ग्रह से युक्त तथा देखा जाता हो तो जय होता है ।।५२१॥
और लग्नेश, लग्न में हो तो प्रश्र का का जय होता है और सप्तमेश यदि सप्तम में हो तो दूसरे का जय होता है, ऐसे लग्न के अनुमार इस का विचार करें और वक्री ग्रह हो तो विपरीत फल होता है ।।५२२॥
यदि राज्येश लग्न, और लग्रेश, दोनों के मध्य में हो तो प्रश्न कर्ता का विजय होता है. और लग्नेश, यदि केन्द्राधिप से युक्त हो वा केन्द्र में हो तो भी प्रश्न कर्ता का विजय होता है ।।५२३॥
और शनि, मंगल. लग्न में हो, बृहस्पति पञ्चम स्थान में हो, और रवि, पदस्थान में हो और शुभ ग्रह एकादश, या दशम में हो तो प्रश्न का का विजय होता है ।।५२४||
यदि पापप्रह, सप्तम भाव में हो तो द्रव्य को देने वाला होता है। और यदि शुभ ग्रह, दशम भाव में स्थित हो तो यायी धन देकर चला जाय ।।५२५।।
यदि बुध, चतुर्थ स्थान में और चन्द्रमा अष्टम स्थान में हो और शुक्र सप्तम में हों, वा शुक्र, बृहस्पति, रवि, क्रम से लग्न, षष्ठ, अष्टम, भाव में हो तो जय होता है ||५२६।। .
1. For this line A, Bh read : सप्तराज्योदये सौम्या: स्थायिनो विजयप्रदाः 2 बला० for लग्ना A, A.; Bh 3 लमशो Bh. 4. अयेषिणः Bh.
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(
8
)
जयावामिगुरौ लाभे व्यत्ययः सितवक्रयोः । अर्कार्किक्षितिजैस्त्रिस्थैः शुभैलग्नगतैर्जयः ॥५२७॥ कर्मण्यारे खावाये तृतीये रविपुत्रके ।। विधौ षष्ठे जयं प्रष्टुः शेषमतिगतैग्रहः ॥५२८॥ मूर्ती जीवे जयः क्ररे लाभे 'वियति वा स्थिते । कुजायोः षष्ठयोलग्नोन्मृतौ चन्द्रे व्यये जयः ॥५२९॥ लग्ने भंगः' कुजे मान्ये तथा मन्दविलोकिते । धने वा निधने" चन्द्र मृतौ सूर्ये पराजयः ॥५३०॥ कुजार्की भानुदृष्टौ चेद्राज्ञां भंगः मतस्तनौ । सुकृते पुत्रभावे च यमाकरिस्तथा'"भवेत् ।।५३१॥
यदि बृहस्पति. लाभ स्थान में हो तो जय की प्राप्ति होती है, और यदि शुक्र, मंगल, दोनों लाभ स्थान में हों तो पराजय होता है, और यदि रवि, शनि, मंगल, तृतीय में हों शुभग्रह लग्न में हो तो जय होता है ॥५२७||
मंगल, योद दशम भाव में हो, रवि एकादश में हो और शनि तृतीय में हो चन्द्रमा षष्ठ स्थान में हो, और शेष ग्रह लग्न में हो तो प्रश्न कर्ता का जय होता है ।।१२८१
यदि बृहस्पति लग्न में हा तो जय होता है और पापग्रह एकादश में वा दशम में स्थित हो और मंगल, शनि षष्ठ स्थान में हो लग्नेश, लग्न में और चन्द्रमा व्यय स्थान में हो तो जय होता है ।।५२६।।
यदि लग्न में मंगल वा शनि हो तथा उन पर शनि की दृष्टि हो सप्तम वा अष्टम भाव में चन्द्रमा हो तथा सूर्य लम में हो तो स्थायी का पराजय होता है ।।५३०॥
यदि मंगल, शनि, लग्न में हो और उन पर सूर्य की दृष्टि हो तो राजाओं का भंग होता है, और नवम, पञ्चम, भाव में शनि, सूर्य, मंगल, हो तो उसी प्रकार राजाओं का भंग होता है ।।५३१॥ _1 ०वाप्त for व्वाप्ति Bi.. 2. वियत्य for व्यत्ययः A. वियत्या सितचक्रयो: B, : रवावाव्ये Bh. 4 व्ययति for वियति Bh. 5. कुजाको for कुजार्योः Bh. 6. लग्नान्नूनों for लग्नोन्मूतों Bh. 7 मंदः for भंग: Bh. 8 सेन्दोः for मान्ये A, A1. कुजो मंदो for कुजे मान्य Bh. 9. वाप for वा नि० 1 10. यमाकारे fot यमारि ms.
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( १०० ) सभौमे निधने मन्दे भंगो मूर्तिगते रवौ । इन्दौ व्ययायमूर्तिस्थे मसूर्ये वा वदेद् वधम् ॥५३२|| लग्नेशेऽभ्युदिते यायी युद्धे जयति तत्क्षणम् । उदिते सप्तमेशे च स्थायी जयति संगरे || ५३३॥ द्वयोः संहितयोः सन्धिर्जयो वा द्वितये भवेत् । लग्नेशेऽस्तमिते मृत्युर्यायिनः समरे स्मृतः || ५३४|| अस्तपेऽस्तमिते स्थातुर्युद्धे मृत्युस्तु शत्रुतः । लग्ने पष्टे जयो यातः स्थातुरस्तपतौ जयः || ५३५|| यत्रोदिता ग्रहाः पक्षे जयस्तत्र ध्रुवो भवेत् । एवं बलाबलं ज्ञात्वा जयाजयविनिश्वयः ||५३६|| लाभगैरथवोत्कृष्टेर्लाfभदैव बलोत्कटैः । शुभसंयोगबाहुल्ये वदेद्यद्धं महोदयम् ||५३७ ||
3
यदि मंगल, शनि, दोनों अष्टम स्थान में हों और रवि तो राजाओं का भंग होता है और चन्द्रमा सूर्य के साथ एकादश या लग्न में हो तो वध होता है || ५३२||
और लग्नेश, यदि उदित हो तो यायी का उसी समय युद्ध में जय होता है और सप्तमेश, यदि उदित हो तो युद्ध में स्थायी का जय होता है ||५३३||
लग्न में हो यदि द्वादश,
यदि लग्नेश, सप्तमेश, दोनों साथ ही हों तो सन्धि होती है वा दोनों का जय होता है, और लग्नेश यदि अस्त हो तो युद्ध में यायी का मरण होता है || ५३४||
और सप्तमेश अस्त हो तो शत्रु से स्थायी को मृत्यु होती है, यदि लग्नेश पुष्ट हो तो यायी का जय होता है और सप्तमेश पुष्ट हो तो स्थायी का जय होता है ।।५३५।।
जिस पक्ष में ग्रह उदित हो उस पक्ष का अवश्य हो जय होता है. इस प्रकार बलाबल को देख कर जयाजय का निश्चय करें || ५३६ ||
..
उत्कृष्ट अर्थात् बलवान शुभग्रह यदि लाभ स्थान में हो और लाभेश बहुत बलवान हो और शुभग्रह का विशेष रूप से संयोग हो तो युद्ध में महान् उदय कहना चाहिये || ५३७ ||
1. रुदितयो: for संहितयो: A A Bh 2. संगरे for समरे A. 3 शस्त्रत: for शत्रुतः Bh.
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अथवा प्रकारान्तरमाह। सिंहादि मकरान्तं च मानुक्षेत्रमुदाहृतम् । कुम्भादि कर्कपर्यन्तं चन्द्रक्षेत्रसुदीरितम् ॥५३८॥ सूर्ये चन्द्रे च सूर्याङ्गसंश्रिते जयकांक्षिणाम् । यायिनां विजयो युद्ध स्थायिनों भङ्गमादिशेत् ॥५३९।। सूर्ये चन्द्रे व चन्द्रङ्क्ष संस्थिते युद्धवीरयोः । यातुर्मृत्युस्तदा प्रोक्तः स्थायी जयति संगरे ॥५४०॥ सूर्ये सूर्यांगसंयुक्त चन्द्र चन्द्राङ्गमाश्रिते । एवंयोगे भवेत्सन्धियुद्धं तस्य विपयये ॥५४१॥ कतर्यां यदि चन्द्राको संहारः सैन्ययोईयोः । निकटे निकटं युद्धं दूरे दूरञ्च पृच्छके ।।५४२॥
अब प्रकारान्तर से कहते हैं सिंह से, मकरपर्यन्त सूर्य का क्षेत्र है, और कुम्भ क पर्यन्त चन्द्रमा का क्षेत्र है, जैसे वृद्धों का वचन हैकएठीरवं विक्रमिणं विलोक्य स्वीयं पदं तत्र चकार सूर्यः । मंत्र्या तदासन्नतया कुलीरे निजं बबन्धालयमेणालक्ष्माः ॥१।। अन्ये प्रहा गृहयियासिषया क्रमेण शीतांशुतीग्ममहसोः सदन समीयुः । प्राप्तक्रमेण ददतुर्भवनानि तौ तु तारा ग्रहा द्विभवनास्तत एव जाताः ॥२॥५३८।।।
यदि सूर्य, और चन्द्रमा दोनों सूर्य के क्षेत्र में हो तो युद्ध मे यायी का जय होता है और स्थायी का भंग होता है ॥५३॥
और सूर्य, चन्द्रमा, दोनों चन्द्रमा के क्षेत्र में हों तो दोनों तरफ के वीरों में यायी का मरण होता है और स्थायी का युद्ध में जय होता है ।।५४०॥
यदि सूर्य सूर्य क्षेत्र में हो और चन्द्रमा चन्द्र क्षेत्र में हो तो दोनों राजाभों की परस्पर सन्धि हो जाती है ॥५४१।।
और चन्द्रमा, सूर्य, कर्सरी में हो तो दोनों सैन्य का नाश होता है यदि दोनों सन्निधि में हो तो प्रश्नकर्ता से समीप में ही युद्ध कहना चाहिये और दूर हों तो दूर में युद्ध कहना चाहिये ॥५४२॥
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( १०२ ) लमे मार्तण्डमन्दौ चेद् दृष्टौ हि क्षितिसूनुना । ससौम्ये शोतगौ दृष्टे प्रष्टुः सेनापतेर्वधः॥ ५४३॥ तुलायां पद्मिनीबन्धुत्रिंशांशे दशमे स्थितः । हन्ति राज्यं यथा लोमः समस्तगुणसञ्चितम् ।।५४४ ॥ राहुकालाननं चक्रं विज्ञाय स्थापितग्रहम् । जीवभावमृताभिख्ये बलं ज्ञात्वा रणं विशेत् ॥ ५४५ ॥ सिंहायेषु घटाद्यषु ज्ञात्वा ग्रहबलाधिकम् । स्थायियायिजयो वाच्यो युद्धप्रश्ने बलोत्कटात् ॥ ५४६॥ लग्ननाथे शुभैयुक्त शुक्र लाभ शुभैयुते ।। संग्रामे शस्त्रघातस्तु मृत्युयोगे च जीवति ॥ ५४७॥ अनाथे क्रूरगे लग्ने लाभ करयुते हते' । 'मटानां शस्त्रघातस्तु मार्यमाणोऽथ जीवति ॥ ५४८ ॥
_याद लग्न में सूर्य, और शनि, हों इन दोनों पर मंगल की दृष्टि हो, और शुभ ग्रहों के साथ चन्द्रमा पर, उप्तकी दृष्टि हो तो प्रभकर्ता के सेनापति का नाश होता है ।।५४३।।।
यदि सूर्य तुला राशि में, दशम त्रिंशांश में हो तो राज्य का नाश होता है, जैसे मनुष्य कितने भी गुणी हों उसमें एक लोभ जन्य दोष श्रा जाय तो सब गुणों को नष्ट कर देता है ॥५४४॥ .
और राहु कालानल चक्र को बनाकर उसमे ग्रहों को स्थापित करके उसमें जीवन, मरण इत्यादि भावों का बलाबल जान कर युद्ध में राजा को प्रवेश करना चाहिये ।।४।।
युद्ध के प्रश्न मे सिंह से छः राशि तथा कुम्भ से छः राशियों में प्रहों का बलाधिक्य देख कर स्थायी, यायी राजा को सेना की प्रबलता से जयाजय कहना चाहिये ।।५४६॥
यदि लग्नेश शुभ ग्रहों से युक्त हों और लाभ स्थान में शुभ प्रह से युक्त शुक्र हो तो युद्ध में शस्त्रादि प्रहारों से मृत्यु योग आने पर बच जात है ।।५४७॥
याद लमश के अतिरिक्त और पापग्रह लग्न में हो और लाभ स्थान पापग्रहों से युक्त तथा आहत हो तो भटों को शस्त्रादिक घात से मृत्युयोग पाने पर भी बच जाते हैं ॥५४८।। ____10सञ्चयः for सञ्चितम् Bh. 2. स्थापिते गृहे for स्थापितगृहम A, A1 B ऋरयुतैक्षिते Bh.
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( १०३ ) यदा मूर्ती मवेदाहुः पुरा प्रष्दुस्तदा वदेत् । शत्रुः शक्रोऽपि जेतव्यो बलपुष्टोऽपि पार्थिवः ॥ ५४९ ॥ कुम्मायेषु हि ये रास्ते शस्त्रनिहता धनैः। सिंहायेष्वपि ये रास्तेऽपि शस्त्रेण घातिताः ॥ ५५० ॥ कररनुजभावे तु भ्रातावश्यं प्रणश्यति । चतुर्थे मातुलातङ्कः सुते नश्यति पुत्रकः ॥ ५५१ ॥ षष्ठेश्वः सप्तमे भार्या छिद्रे घातो निजेऽङ्गाके । नवमे च गुरोर्षातो दशमे भूपतेर्वधः ।। ५५२ ।। यदि धुने भवेद्राहुस्तदा मृत्युद्धि जात्मनः । इति ग्रहबलं ज्ञात्वा युद्ध कार्य नरेश्वरैः ।। ५५३ ॥ यदा मूर्ती भवेत्ऋरो' युद्धप्रश्ने तदादिशेत् ।
अवश्यं मार्यते शत्रुः सबलोऽप्यबलात्मना ।। ५५४ ॥ ___ जब लग्न में राहु हो तो पहले प्रश्नकर्ता का इन्द्र के तुल्य बलवान राना भी शत्र हो तो उसको भी जीत लेते है॥५४६||
कुम्भादि छः राशियों में जितने पापग्रह होते हैं उतने ही यायी की सेना आदि शास्त्रादि से आघात होते हैं, और ऐसे सिंहादि छ: राशियों में जितने पापग्रह होवें उतने ही स्थायी की सेना शस्त्रादि से आघात हाते हैं॥५५॥
याद तृतीय भाव में कर ग्रह होवें तो भाई का अवश्य ही मरण होता है, और चतुर्थ में क्रूर ग्रह होवें तो मामा को आतङ्क होता है; यदि पञ्चम स्थान में पापग्रह हों तो पुत्र का नाश होता है ।।५५१।।
__ यदि षष्ठ स्थान में पापग्रह हों तो घोड़ों का और सप्तम में पाप ग्रह हों तो स्त्री का नाश होता है, और अष्टम स्थान में यदि पापग्रह हों तो अपने शरीर में ही घात होता है, और नवम में हों तो गुरु का तथा दशम में पापग्रह हों तो राजा का ही नाश होता है ॥५५२॥
यदि सप्तम में राहु हो तो द्विजों का नाश होता है । इस प्रकार प्रहों का विचार कर राजा लोग युद्ध करें ।।५५३।।
युद्ध के प्रश्न मे यदि लग्न में पापग्रह हो तो बहुत बलवान भी शत्रु अबल जैसे मारे जाते हैं ॥५४॥
1 राहुभवेन्मूतौ tor मूर्ती भवेद्राहुः 2. दिशेत for वदेत A. 3. ofástio for ofasit Bh. 4. t for i Bh.
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( १०४ ) सप्तमे खेचराः सौम्या लक्ष्मीक्षेमविधायिनः । लग्नचक्रं नरं कृत्वा सर्व घातादि चिन्तयेत् ॥ ५५५॥ मूर्ती करग्रहः श्रेयान् श्रेयसी क्रूरडग् नहि । शुभो न शोभनो भू! शुभदृष्टिस्तु शोभना ।। ५५६ ।। शनेोते त्वचं मांस रोमाणि च वपुष्मताम् । भौमवाते च रक्तौघं विधातेऽस्थिभंजनम् ॥ ५५७ ॥ राहुघातेऽपि ससापि नश्यन्ति धातवः समम् । सौम्यग्र हैन घातोऽस्ति जीव्यते प्रत्युत स्वयम् ॥ ५५८ ॥ पूर्णिमाचक्रतो ज्ञात्वा वर्ग चक्राच्च सद्धलम् । वर्णानां भेदतश्चापि ततो युद्धं समाचरेत् ॥ ५५९ ॥ घूने नाथनगे' चन्द्रे लग्नं याते दिवाकरे । विषययो भवेत्तस्य त्रासभंगवधानि च ॥ ५६० ॥
यदि युद्ध प्रश्न में सप्तम में सबल शुभग्रह हों तो धन के लिये कल्याण होता है, लन चक्र को नर मे स्थापित करके सब धातादि का विचार करें ॥५५५||
लग्न में यदि पाप ग्रह हों तो श्रेष्ठ है किन्तु पाप ग्रह की दृष्टि श्रेष्ठ नहीं होती है और लग्न में शुभ ग्रह श्रेष्ठ नहीं हैं किन्तु शुभ ग्रह की दृष्टि अच्छी होता हे ।।५५६।।
यदि शनि का पात हो अर्थात दृष्टि हो तो शरीरधारी की त्वचा, मांस, रोम का घात होता है। मंगल की दृष्टि हो तो रक्त समूह का घात होता है और रवि का हो तो हड़ी की नाश होता है ।।५५७।।
और राहु का घात होने से साथ ही सातों धातुओं का नाश होता है और शुभ ग्रहों से घात नहीं होता है प्रत्युत तत्तद्वस्तु स्वयं जीवित हो जाते हैं ।।५५८॥
पूर्णिमा चक्र से तथा वर्ग चक्र से ग्रहों का बलाबल जान कर, और क्यों के भेद से भी सब जानकर युद्ध का प्रारम्भ करें ॥५६॥
यदि सप्तम या अष्टम भाव में चन्द्रमा हो और लग्न में सूर्य हो तो विपरीत फल होता है तथा उतको त्रास, भंग, वध होता है ॥५६॥
1 निधनगे for नाथनगे A, A1, Bh, 2. नाश for त्रास A,
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( १०५ )
ये जानन्ति ग्रहान् सर्वान् होरामन्त्रबलानि च । तेषां जयो महायुद्धे वक्तव्यः पण्डितैः स्फुटम् ।। ५६१ ॥ द्वितीया दशमी षष्ठी द्वादशी च कुला भृणु' । अकुला विषमाः प्रोक्ताः शेषाश्च तिथयः कुलाः || ५६२ ॥ सूर्यचन्द्रो गुरुः सौरिश्वत्वारस्त्वकुला ग्रहाः । भौमशुक्र कुलो लोके बुधवारः कुलाकुलः ।। ५६३ ।। वारुणार्द्राभिजिन्मूलं कुलाकुलमुदाहृतम् । कुलानि मासनामानि शेषाण्यकुलभानि तु ।। ५६४ ॥ अकुले धिष्ण्यवारे च तिथौ च यायिनो जयः । कुलाख्ये स्थायिनो वाच्याः सन्धिरेव कुलाकुले || '५६५ ॥
जो सब ग्रहों को जानते हैं, और होरा तथा मन्त्र - बल को भी सम्यक् प्रकार से जानते हैं उन्हीं का महायुद्ध में जय होता है, ऐसे पण्डितों को स्पष्ट कहना चाहिये || ५६१||
द्वितीया, दशमी, षष्ठी, द्वादशी इत्यादि सम तिथि कुला कहलाती हैं और विषम तिथि प्रतिपद्, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी इत्यादि अकुला कहलाती हैं ।। ५६२||
सूर्य, चन्द्रमा, बृहस्पति, शनि ये चारों ग्रह अकुल कहलाते है, और मंगल, शुक्र ये दोनों कुल कहलाते है । और बुधवार कुलाकुल
।। ५६२ ।।
शतभिषा, आर्द्रा, अभिजित, मूल ये नक्षत्र कुलाकुल कहलाते हैं, और मासों के नाम के नक्षत्र अर्थात् चित्रा, विशाषा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा, श्रवणा, पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र, अश्विनी, कृतिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी ये नक्षत्र कुल संज्ञक तथा शेष नक्षत्र अर्था भरणी, रोहिणी, पुनर्वसु, अश्लेषा, हस्त, स्वाती, अनुराधा, धनिष्ठा, रेवती, नक्षत्र अकुल कहलाते हैं || ५६४ ||
कुल नक्षत्र तिथि, दिन में यात्रा करें तो यायी का जय होता है। और कुल संज्ञक तिथि, नक्षत्र, दिन यात्रा करें तो स्थायी का जय होता है, और कुलाकुल, वार, तिथि, नक्षत्र में यात्रा करें तो दोनों राजाओं की आपस में सन्धि होती है ।। ५६५||
1 कुला for शृणु AA, Bh. 2. सूर्यो विधुर for सूर्यश्चन्द्रौ A.
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क्सुवाणरसा वेदाः सप्त चन्द्राग्निपक्षकाः । एवमङ्का नगैर्भक्ताः शेषमात्राधिको जयः ॥ ५६६ ॥ गजाश्वीयस्य संवृद्धौ पार्थिवः स्यादलोत्कटः । अतो गजाश्वशस्त्राणां बलं वक्ष्यामि शास्त्रतः ।। ५६७ ॥ गजाकारं लिखेच्चक्रं शुण्डाधवयवान्वितम् । अष्टाविंशतिभान्यत्र दातव्यानि च सृष्टितः ।। ५६८ ॥ मुखे शुण्डाग्रनेत्रे च श्रवः शीर्षांघिपुच्छके । द्वयं द्वयं क्रमाद्धयं पृष्ठोदरे चतुश्चतुः ॥ ५६९ ॥ मातङ्गनामधिष्ण्यादि गण्यते वदनाद् बुधैः । यत्र धिष्ण्ये स्थितः सौरिर्वाच्यं तत्र शुभाशुभम् ।। ५७० ॥ वक्ते शुण्डाग्रनेत्रं च सौरिभं यस्य मस्तके । युद्ध काले गजो यत्र जयस्तत्र न संशयः ॥ ५७१ ॥
आठ, पांच, छ', चार, सात, एक, तीन, दो इन अंकों में से प्रश्नकर्ता जिसका उच्चारण करे वहाँ तक अङ्क को संकलित करके सात का माग दें शेष यदि उच्चारित अंक से ज्यादा हों तो जय होता है ।।५६६॥
हाथी, घोड़ा, इत्यादि की वृद्धि से राजा को बहुत बल होता है, इसलिये हाथी, घोड़ा, शस्त्र, इत्यादि का बल शास्त्र से कहता हूँ॥५६७॥
हाथी के आकार शुएडादि अवयवों के साथ एक चक्र लिखें उसमें अट्ठाईस नक्षत्रों को अश्विन्यादि के क्रम से स्थापित करें ॥५६८।।
उसका मुख, शुएड के अप्रभाग, और दो आंख, दो कान, मस्तक, दोनों चरण, पुच्छ, इन दस अंगों में दो दो नक्षत्र स्थापित करें, पृष्ठ और पेट इन दोनों स्थानों में चार चार नक्षत्र स्थापित करें इस प्रकार अाईस नक्षत्रों को स्थापित करके फल कहें ॥५६॥
माता के नाम नक्षत्र से उसके मुख आदि क्रम से पंडित गणना करें जिस नक्षत्र में उस समय शनि हो उस पर से शुभाशुभ फल कहें॥५७०।।
जिस राजा को युद्ध काल में शनि का नक्षत्र गज चक्र में मुख शुण्डाप, दोनों नेत्र और मस्तक, इन पांच स्थानों में हो तो उस युद्ध में उनकी जहां पर हाथी हो वहां अवश्य ही विजय होती है ॥५७१॥
1.के for को A. 2 भावान्य for भान्य ms. B.०० for ऐ० Bh. 4. धाम for नाम Bh.
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( १०४ ) पृष्ठपादे' च पुच्छे च कर्णे जाते शनैश्चरे । मृत्युमङ्गो रणे तस्य हस्तिमल्लसमो यदि ॥ ५७२ ॥ निषिद्धाङ्गे च कर्णादौ रणकाले शनिः स्थितः । तत्काले पबन्धेपि वर्जनीयो गजोत्तमः॥ ५७३ ॥ अगत्या मण्डनं मेरुः शर्वर्या भूषणं शशी । नराणां मण्डनं विद्या सैन्यानां मण्डनं द्विपः ॥ ५७४ ।। अश्वाकारं लिखेच्चक्रमश्विधिष्ण्यादितारकाः । वदनात्सृष्टिगाः स्थाप्या अष्टाविंशतिसंख्यकाः ।। ५७५ ॥ वक्त्राक्षिकर्णशीर्षेषु पुच्छांघो युग्मसंख्यकाः । पश्च पश्चोदरे पृष्ठे सौरियंत्र फलं ततः ।। ५७६ ।। वक्त्रायुदरशीर्षस्थो यदा सौरिहयोत्तमे। शक्रतुल्यस्तदा शत्रुर्भज्यते युधि शब्दतः ॥ ५७७ ।।
और पृष्ठ, दोनों चरण, पुच्छ, दोनों कान इन स्थानों में शनि का नक्षत्र हो तो युद्ध में मल्ल समान भी हाथी हो तो भी मृत्यु और भंग होता हे ।।५७२।।
यदि उस काल में निषिद्ध अंग या कर्णादि शनि में स्थित होतो उस काल में बड़े बड़े हाथियों को भी छोड़ देना चाहिये ॥५७३।। .
जैसे पृथ्वी का भूषण मेरु पर्वत हे और रात्रि का भूषण चन्द्रमा है, और मनुष्य का भूषण विद्या है । उसी प्रकार सेनाओं का भूषण हाथी होता है॥५७४॥
घाड़े के आकार एक चक्र लिखें जिसमें घोड़े के नाम नक्षत्र मुख आदि क्रम से स्थापित करें ।।५७।।
मुख, दोनों नेत्र. दोनों कान, मस्तक, पुच्छ, दोनों चरण, इन नौ स्थानों में आश्विन्यादिक दो दो नक्षत्र स्थापित करें, और पांच पांच नक्षत्र पृष्ठ, और उदर में स्थापित करें उस में जहां पर शनि हो वैसा फल कहें ॥५७६।।
हय चक्र में जब शनि मुख, दोनों नेत्र, उदर, शोषे इन पांच स्थानों में हो तो युद्ध में इन्द्र तुल्य भी शत्रु शब्द से ही हट जाते है।।५७७॥
1. पृष्ठे for पृष्ट A.
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( १०८ ) कांघ्रिपृष्ठपुच्छस्थो गन्धर्वाङ्गेऽर्कनन्दने । विभ्रम भंगहानी च करोत्यश्वो महाहवे ॥ ५७८ ॥ चतु:काष्टास्थिता तस्य रिपवस्सन्ति शङ्किताः । अश्वाः सन्ति धना राज्ये यस्य क्षोण्यां सुलक्षणाः ॥ ५७९ ॥ नवभेदलिखेचक्रं खड़गाकारं सधिष्ण्यकम् । वीरमादि समारभ्य त्रीणि त्रीणि च मान्यपि ।। ५८० ॥ यव वक्नं ततो मुष्टिः पाली बन्धश्च धारकम् । खङ्ग तीक्ष्णं क्रमाच्चेदं नवभेदास्त्वमी स्मृताः ॥ ५८१ ।। खङ्गचक्रे यवादौ तु बन्धतः रखेचराः। रणे यत्र च दृश्यन्ते मृत्युस्तत्र भिया सह ॥ ५८२ ॥ मिश्रमिश्रफलं प्रोक्तं नवभेदग्रहैस्त्वसौ । अनेनैव प्रकारेण क्षुरीजयति भूपतिः ॥५८३॥
जब शनि दोनों कान, दानों चरणा, पृष्ठ, पुच्छ इन स्थानों में हो तो महायुद्ध में विभ्रम, भंग, हानि इत्यादि होता है ॥५७८।।
जिन राजाओं के इस पृथ्वी पर बहुत से सुन्दर घोड़े हैं उनके शत्रु सर्वदा सशंकित होकर शिविका इत्यादिक पर रहते है ॥५७६॥
नो भेदों से युक्त नक्षत्रों के साथ खड़गाकार चक्र लिखें जिसमें वीरों के नक्षत्र के क्रम से तीन तीन नक्षत्र स्थापित करें ।।५८oll
यव, वक्त्र, पाश, मुष्टि, पाली, बन्ध, धार, खङ्ग, तीक्ष्ण इनके कम से नौ भेद होते है ।।२८॥
खग चक्र में यवादि मं बन्ध से लेकर जहां पर पापग्रह हो वहां अय के साथ मरण भी कहना चाहिये ॥५८२॥
मिश्र ग्रह से मिश्र फल अर्थात शुभ अशुभ दोनों होता है इन नौ भेद के दुरो चक्र में ग्रहों के सम्बन्ध से राजा जय प्राप्त करते ॥८॥
1. The ms reads गन्धव्यंगर्कनन्दने which too gives no sense.2 फलेऽय च क्रमादेवं for तीक्ष्ण खङ्ग क्रमाञ्चेदं A. 8. After this verse A & A1 add : यवादौ यत्र सौम्यास्तु सदा लामा महान् भवेत् । खड्ग धारोद्वयेऽप्रेच करैर्जयति भूपतिः । 4. चक्र स्पर पुषः for जयति भूपति: A. .
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इति खाधुरीचक्रे
अथ धनुर्वाणचक्रम् । लिखेदादौ धनुश्चक्रे गुणवाणसमन्विते । चन्द्रनक्षत्रतस्त्रीणि त्रीणि मानि क्रमेण च ।। ५८४ ॥ बाणचापगुणानां च मूलमध्येऽर्द्धगानि च । धिष्ण्येषु यत्र वीरक्षं वक्ष्ये तत्र फलाफलम् ॥५८५ ॥ शरमूल्ये भवेन्मृत्युमध्ये रोगः फले जयः । क्रमाद्गुणधनुर्मध्ये वाच्यौ भंगधनक्षयौ ५८६ ॥ गुणचापोर्द्धदेशेषु सल्लाभारिजयो ध्रुवौ । गुणचापयोरधोऽधःस्थे चाधोप॑त्युबलक्षयः ॥५८७॥ पापग्रहयुते वीरधिष्ण्ये पुंसः पलायनम् । जयलाभौ शुभे योगे चापचक्रे विचारितौ ॥५८८॥
पहले धनुष चक्र में गुण बाण से युक्त चन्द्र नक्षत्र अर्थात् दिन नक्षत्र से तीन तीन नक्षत्र स्थापित करें ॥५८४॥
बाणा, चाप, गुणों के मूल मध्य अन्त में दिन नक्षत्र से तीन तीन नक्षत्र लिखें उन में वीर का नक्षत्र जहां पर हो उससे शुभाशुभ फल समझे ॥५८५॥
बाण के मूल में वीर का नक्षत्र हो तो मृत्यु होती है, मध्य में हो तो रोग होता है ऊर्द्ध हो तो जय होता है, गुण के मध्य में हो तो भंग होता है और धनुष के मध्य में हो तो धन क्षय होता है ।।५।।
यदि गुण के ऊर्द्ध देश में वीर नक्षत्र हो तो लाम और चाप के ऊर्द्ध देश में हो तो निश्चय ही शत्रु का जय होता है, गुण और चाप के नीचे भाग में हो तो क्रम से मृत्यु और सेना का क्षय होता है ॥५८७॥
वीर नक्षत्र यदि पाप ग्रह से युक्त हो तो वह भाग जाता है शुभ मह का योग हो तो जय लाभ दोनों होते हैं ॥८॥ ___1. शुभाशुभम for फलाफलम् A. 2. सलामविजयो for समाभारिजयो A. 3. For this line the ms reads बन्धोपवित्रहो मृत्युगणधौ स्थापितो स्मृतौ ।
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( ११० )
शुभकरसमायोगे शुभाधिक्ये फलं वदेत् ।
विचार्य जयसंसिद्ध निश्चयः क्रियते स्फुटम् ||५८९ ॥ इति धनुश्चक्रम् ।
1
2
कुन्ताकारं लिखेचक्रं तीक्ष्णदण्डं सनाविकम् ' | युधि विष्ण्यादिमालोक्य क्रमान्नत्र नव त्रिधा ॥ ५९० ॥ नव यत्र राजर्क्ष वच्मि तत्र शुभाशुभम् । मृत्युस्तीक्ष्णे जयं दण्डे नाविके च समं रणम् ||५९१॥ इति कुन्तचक्रम् |
अथ भूवलानि युद्धे कथ्यन्ते । चक्रे भास्करपत्राख्ये मेषाद्याः सव्यमार्गगाः * । वर्त्तमानोदयस्थानाद् भुक्तिः सार्द्धघटीद्वयम् ॥ ५९२ ॥ पृष्ठदक्षिणसंस्थेयं जयदा कथिता बुधैः । महामारीति विख्याता कथिता भटसागरे || ५९३ ॥
जहाँ पर शुभग्रह अशुभपह दोनों का योग हो उसमें शुभाधिक्य हो तो जयसिद्धि होती है ऐसे फल का विश्वार करें ||५८६|| इति धनुश्चक्रम्
कुन्ताकार नाविक से युक्त तीक्ष्ण दण्ड चक्र लिखें उसमें युद्ध काल में जो नक्षत्र हो उस नक्षत्र से नौ नौ नक्षत्र तीन जगह लिखें उस में राजा का नक्षत्र जहां पर हो उस पर से शुभाशुभ का ज्ञान करें । यदि तीक्षा में राजा का नक्षत्र हो तो मृत्यु और दण्ड में हो तो जय और नाविक में हो तो युद्ध में समान होता है ||५६०||५६१ ॥
इति कुन्तचक्रम्
अथ भूबलानि युद्धे कथ्यन्ते ।
द्वादश पत्रों के चक्र में मेषादि सव्य क्रम से वर्त्तमान उदय स्थान से अढ़ाई अढ़ाई घटी की भुक्ति होती है ||५६२||
इसमें पृष्ठ और दक्षिण की संस्था जय देने वाली होती है इसको भट सागर में महामारी कहते हैं || ५६३||
1. सनायकम् for सनाविकम् Bh. 2 This line is missing in the ms. 3. सवमागता for सव्यमार्गगा: ms.
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___ महामारीभूमिः। ईश्वरसमीरकोणपव' हीन्द्रोत्तरापरयमेषु । वायोरक्षस्यनिलये चैत्राद्या उदिताः "क्रमात् ॥५९४॥ वटीचतुष्कसंभक्ते रुद्रभूमिरियं परा । पृष्ठस्था दक्षिणस्था च जयदा युधि भूभुजा ॥१९५।।
रुद्रभूमिः । विलोमे पूर्वतो मासाश्चैत्राद्या दिग् चतुष्टये । प्रहारवाममार्गेण मासगेहाच्च गण्यते ॥५९६॥ क्षेत्रपाली महाभूमि र्वलानां बलोत्तमा । चातुरङ्गे कवौ केन्द्र जयदा वृष्टिदक्षिणा ॥५९७॥ यदलाबलयुक्तानि भृबलान्यपराण्यपि । एतद्लवियुक्तानि वृथा स्युश्चतुरशीत्यपि ॥५९८॥
इति क्षेत्रपाली।
इति महामारी भूमिः ईशान, वायु, नैऋति, अग्नि, इन कोणों में तथा पूर्व. उत्तर पश्चिम, दक्षिगा इन दिशाओं में वायव्य कोण के क्रम से चैत्रादिक माम, चार चार घड़ी करके उदित रहते हैं इसको रुद्रभूमि कहते हैं। युद्ध में इस के पृष्ठ दक्षिणा कर के यात्रा करें तो राजा को जय होता है ।।५६४-६५॥
इति रुद्रभूमिः पूर्वादि चार दिशाओं में विलोम अर्थात पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिणा के क्रम से चैत्रादि मास गणना करें, इसको क्षेत्रपाली महाभूमि कहते है, यह भूबलों में उत्तम बल है यदि शुक केन्द्र में हो और क्षेत्र पाली में पृष्ठ दक्षिण क्रम से यात्रा करें, तो जय होता है ।।५६६-५६७॥
___ यदि भूबल के बल से युक्त भी हो परन्तु क्षेत्रपालीवल में यदि बलहीन हो तो चतुरशीति सेना से युक्त रहने पर भी वृथा परिश्रम होता है ॥५६॥
इति क्षेत्रपाली 1. ०होत्तरा for वह्वीन्द्रोत्तरा Bh. 2 रक्ष्यस्यनले for रक्षस्यनिलये Bh. 3. उदयः A. A1 4. दक्षिणामस्था for दक्षिणस्था A. 5. भूभुजाम for भूभुजा A.. Bh. 6. इत्युडभूमिः for रुद्रभूमिः A. 7. कोहे for केन्द्रे A. 8. श्वतुरत्यपि for ०श्चतुरशीत्यसि ms. स्युचतुरसी त्यपि Bh.
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( ११२ ) याति यत्र वपुश्छाया सूर्ये वहति दक्षिणे । उत्थातव्यं स खड्गेन तत्र मुख्यमरिं प्रति ।।॥५९९।। जयत्येव महोत्साहादिन्द्रतुल्यं क्षितीश्वरम् । संमुखो' गृह्यते चन्द्रः पृष्ठतस्तु दिवाकरः ॥६००॥ योगिनीवामतः कार्या दक्षिणेऽपि विधुन्तदः । ईदृशै बलीरः पृथ्वी जयति संगरे ॥६०१॥ "मर्त्यचक्र नरं न्यस्य सर्वावयवसंयुतम् ।
येन चिन्तितमात्रेण क्रियते घातनिश्चयः ॥६०२॥ मुखैकं मस्तके त्रीणि पाणौ पादे चतुश्चतुः । हृदि पञ्च त्रिकं कण्ठेऽप्यभिजित्तत्र विन्यसेत् ॥६०३॥ कृत्वा घोऽय (१) मादौ तु मुखे मस्तकवामके । हस्तपादोदरे कण्ठे दक्षहस्तांघ्रि गणवे (?)" ||६०४॥
दिन में सूर्य को दक्षिण करने पर जिधर शरीर की छाया माय उधर ही मुख्य शत्र के प्रति खड्ग लेकर उठना चाहिये ॥५६॥
जो राजा चन्द्रमा को सम्मुख दक्षिण करके और सूर्य को पृष्ठ करके योगिनी को वाम कर युद्ध करने को जाते हैं वह इन्द्र तुल्य बड़े बलवान् राजा को भी जय करते हैं इस तरह भूबल से वीर युद्ध में पृथ्वी को जीत लेते हैं ।।६००-६०१।।
मूर्ति चक्र में मनुष्य को सब अवयवों के साथ लिख कर विचार करें जिस का विचार मात्र करने से घात का निश्चय होता है ॥६०२॥
मुख में एक मस्तक में तीन और दोनों हाथों में चार चार मक्षत्र. दोनों चरणों में चार चार, हृदय में पांच, कण्ठ में तीन नक्षत्र अभिजित् भी इम चक्र में न्यास करें ॥६०३।।
इस प्रकार मर्त्य चक्र का न्यास करके मुख, मस्तक, वाम हाथ, पाद, तथा उदर, कण्ठ, दक्षिण हस्त, पाद इत्यादि का विचार करें ।।६०४॥
1.संमुखेfor संमुखो A. 2. पृष्टस्तस्य for पृष्ठतस्तु A. 3. कुर्याद for कार्या4. दक्षिणो for दक्षिणे Bh. 5. मूर्ति for मर्त्य Bh. 6. This verse is missing in Bh.
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यत्रांगे सूर्य 'भौमाकिंगहवो मगणे स्थिताः । घातस्तत्र ध्रुवं वाच्यचन्द्रयोगे विशेषतः ॥६०५॥ ग्रहमुक्त्यानुमानेन नवांशकक्रमेण च । प्रहारो जायते तत्र वक्त्रे तु द्विगुणो भवेत् ॥६०६॥ निजमेऽप्यर्दधातच पादोनो मित्रगे ग्रहे । उदासीनो भवेत्सन्धिदिगुणः शत्रुभावतः ॥६०७॥ एकोऽप्यनेकघातांश्च करोति त्यक्तभूबलः । भूबलस्थे भटे कराः स्थिता घातं न कुर्वते ॥६०८।। यत्र स्थिते ग्रहे घातो यत्र स्थिते अहे नहि । तत्फलं कथयिष्यामि ग्रहभूमिवशात्पुनः ॥६०९।। 'क्रूराघातं न कुर्वन्ति पृष्टदक्षिणगा युधि । संमुखा वामगास्ते तु* योधाङ्गे घातकारकाः ॥६१०॥
जिस अंग में सूर्य, मंगल, शनि, राह, भगण में स्थित हो उसमें निश्चय घात होता है और चन्द्रमा के योग से विशेष रूप से
ग्रह की मुक्ति के अनुमान से और नवांश के क्रम से प्रहार होता है और मुख में हो तो द्विगुण होता है ॥६०६।।।
यदि अपने घर में हो तो भी आधा घात होता है, मित्र के घर में हो तो पादोन घात होता है, और सम के घर में हो तो दोनों में सन्धि होती है और शत्र के भाव में हो तो द्विगुण घास करता है ॥६०७||
यदि एक भी ग्रह भूबल से रहित हो तो अनेक प्रकार का घात होता है और भूबल में यदि कर ग्रह हो तो घात नहीं होता है ॥६०८।।
जहां पर ग्रह रहने से घात होता है जहां पर रहने से नही होता है उस फल को ग्रह भूमि के वश से मैं कहता हूँ ॥६०६||
पृष्ठ और दक्षिण में पापग्रह हो तो युद्ध में घात नहीं होता है और योद्धा के अंग में सम्मुख और वाम में पाप पह हो तो घात करता है ॥१०॥
1. सौमा for भौमा ms 2. भावा for भुक्त्या A. 3. करे for करा Bh. 4. हस्ते for स्तेतु A.
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( ११४ ) दक्षिणाङ्गगताः कराः सौम्या वामाङ्गमाश्रिताः । शिरश्छेदे समुत्पन्ने रुण्डं धावति सम्मुखम् ॥६१॥ यस्य वामाङ्गगाः क्रगः सौम्या यस्य च दक्षिणे । भङ्गस्तस्य रणे सम्यग यदि शूरो महाभटः ॥६१२॥ घातपरिहानाय नरचक्रम् । इति सप्तमे युद्धप्रकरणं पञ्चमं सम्पूर्णम् ॥
. युद्धानन्तरं सन्धिविग्रहप्रकरणमारभ्यते । लग्नेशसुहृदः केन्द्रे सन्धिं कुर्वन्ति शोमनाः । शत्रवो विग्रहं क्रग धनेशसुहृदो यदि ॥६१३॥ शुभवर्गगताः सन्धिं सौम्ययोगेक्षितास्तथा । मूर्तिसप्तेश्वरारित्वे षष्ठारित्वे च विग्रहः ॥६१४॥ आपोक्लिमे (?) नृलग्नस्थः प्रीत्येव लग्नगः" शुभः । द्विदेहस्थैर्ग्रहः सौम्यैः सन्धिः पापैस्तु विग्रहः ॥६१५।।
यदि दक्षिण अंग में पाप ग्रह हो और शुभ ग्रह वाम अंग में हो तो उसका शिर कट जाने पर भी रुएड श्रागे को दौड़ता है ॥६११।।
जिस के वाम अंग में पाप ग्रह हो, और दक्षिण अङ्ग में शुभ ग्रह हो तो महा बलवान योद्धा होने पर भी युद्ध में उसका भंग होता है॥६१२॥
घातपरिज्ञानाय नरचक्रम् । इति सप्तमे युद्धप्रकरण पंचम सम्पूर्णम् ॥ अथ युद्धानन्तरं सन्धिविग्रहप्रकरणं प्रारभ्यते ।
लमेश यदि केन्द्र में हो और शुभ ग्रहों के साथ मित्रता हो तो शत्रु सन्धि करे यदि सप्तमेश केन्द्र में हो और उमकी पापग्रहों के साथ मैत्री हो तो शत्रु विग्रह करता है ॥६१३॥
. अदि लग्नेश, सप्तमेश दोनों शुभ ग्रह के वर्ग में हों और शुभप्रह से युक्त हों या देखे जाते हों तो दोनों में सन्धि होती है और लग्नेश, मसमेश को आपस में शत्रुता या षष्ठेश के साथ शत्रुता हो तो विग्रह होता है॥६१५||
आपोलिम में नर राशि हो, और शमाह लग्न में हो तो प्रीति होती है, शुभग्रह यदि द्विःस्वभाव राशि में हो तो सन्धि होती है और पापमह यदि द्विः स्वभाव राशि में हो तो विग्रह होता है ॥११॥
1. संस्थिताः for oमाश्रिताः A.2. दक्षिणा for दक्षिणे A. 3. महामदः for महाभट: A. 4. लगेशः for लग्नेश ms. 5. सद्धि for सान्धms. 6 शोऽमुहदो for शाहदो ms. 7. यथा for यदि A. 8. भापोत्क्ले म Bh. 9. लग्नटः for लग्नगः A.
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( ११५ ) लो बलाधिक सन्धावर्थी भवति लापः । अबले सममे सन्धौ दाता भवति सप्तपः ॥६१६॥ विलग्ने' दुर्बले सन्धौ दाता भवति लग्नपः । सप्तमे सबले तत्र वित्तार्थी सप्तमो भवेत् ॥६१७॥ द्वयोः समतया साम्यं न दाता नच याचकः । बलोत्कटे वपर्नाथे हन्यते सप्तमेश्वरः ॥६१८॥ पुत्रगेहे तदीशे वा सन्धानं मबले ध्र वम् । द्वयेपि सबले सन्धिविग्रहो विवले भवेत् ॥६१९॥
इति मन्धिविग्रहप्रकरणम् । वृक्षा ज्ञेया ग्रहः सर्वैः पवृक्षाः पग्रहमताः । स्त्रीवृक्षाः स्त्रीग्रहः प्रोक्ताः स्त्रीग्रहद्वितये लताः ॥६२०॥ रविशाकपलाशाद्या भौमाः कण्टकिनो मताः । क्षीरवृक्षा गुरावुक्ता बलाये बलिनः स्मृताः ॥२१॥
लग्न बलवान् हो तो लग्नेश मन्धि में अर्थी होता है. और सामम भाव बलवान हो तो सप्तमेश मन्धि में दाता होता है ।।६१६।।
लग्न यदि निर्बल हो तो सन्धि में लग्नेश दाता होता है, और सप्तम भाव बलवान हो तो मन्धि में सप्रमेश, धनार्थी होता है ।।६१७||
और लग्नेश मप्तमेश, में दोनों का बल समान हो तो समता होती है। यदि लग्नेश बल में अधिक हो तो मप्रमेश को मारते है ॥१८॥
यदि पश्चम भाव या उसके स्वामी बलवान हों तो दोनों की सेनाओं में बड़े जोर की तैयारी होती है। यदि दोनों के पञ्चमेश बलवान् हो तो सन्धि होती है और निर्बल हो तो विग्रह होता है ।।१।।
इस विग्रहप्रकरणम् ॥ मब ग्रहों से वृक्ष का ज्ञान करें। पुरुष प्रह से वृक्ष और स्त्री प्रह से स्त्रीवृक्ष, और दो स्त्रीमहों से लता का शान करें ॥२०॥
रवि से शाक, पलाश इत्यादि वृक्ष, मंगल से कांटे वाले वृक्ष और वृहस्पति से दूध वाले वृक्ष का ज्ञान होता है । इन पहों के बलवान होने से तत्तद्ग्रहों के वृक्ष भी बलवान होते हैं ॥२१॥
. 1. लग्नगो for विलने A. 2. आयेऽपि for द्वयेऽपि A., Bh.
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( ११६ )
बुधे च शमी' कर्कन्धू शुक्रे च कदली मता । चन्द्रे राजादनी वाच्या शनौ गुन्दीमुखाः पुनः ||६२२ ||
बलयुक्तैर्बलाढ्यास्तैर्वाबलैर्निष्फलाः पुनः । भग्नाः शुष्काश्च ते सर्वे क्रूरयुक्तेक्षिता ग्रहैः ।। ६२३|| अष्टमे च स्थिते स्थाने त्वष्टमेशे बलोत्कटे । ऋतुकाले स्त्रियां नास्ति पुष्पं मूलत एव हि || ६२४ ॥ पूर्णबलः शनिस्त्वेकः कालिमानं वदत्ययम् । ऋतौ सति च पुष्पस्य पृच्छालष्टमे स्थितः ||६२५|| राहुरेको जलाभं तु माञ्जिष्ठाजलसन्निभम् । बुधैर्विचित्रवणं तु कदाचित् कीदृशं पुनः ||६२६ ॥ श्वेतच्छायं स्थितः शुक्रो भौमे रक्तं तु पुष्पकम् । कपिलं मर्कटं सूर्ये प्रवाहो धवलो विधौ ||६२७||
बुध से शमी और बदरी फल के पेड़, शुक्र से केला, चन्द्रमा से राजादनी और शनि से गुन्दी इत्यादिक वृक्षों के ज्ञान करें ||६२२ ||
यदि ये ग्रह बलवान हों तो तत्तद्वृक्षों को बलवान कहना चाहिये और जो ग्रह निर्बल हों उनके वृक्ष निर्बल, और फलरहित होते हैं । और यदि प्रह क्रूर ग्रह से युक्त हों या देखे जाय तो उनके वृक्षों को शुष्क, टूटा हुआ समके ||६२३||
स्त्री के ऋतुकाल में बलवान् अष्टमेश यदि अष्टम भाव में स्थित हो तो वह पुष्पवती नहीं होती ||६२४ ||
ऋतु होने पर प्रश्न काल में लग्न से अष्टम भाव में एक बलवान शनि हो तो कुछ काला उसका पुष्प होता है ||६२५||
हो
और एक राहु वा एक गुरु हो तो जल के समान और बुध तो अनेक वर्ग का होता है ||६२६||
शुक्र हो तो श्वेत वर्ण के समान और मंगल हो तो रक्त वर्ण सा और सूर्य हो तो कपिल, और मर्कट जैसा वर्ण, और चन्द्रमा हो तो श्वेत वर्ण होता है ।। ६२७
1 शनौ for शमी Bh. 2 बलयुद्धो तैर्बलाद्यास्तै for बलयुक्तैर्बलाढ्यास्तै A., बलयुक्तौ बलाढ्यास्ते Bh.
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( ११७ )
ग्रहशून्येऽष्टमस्थाने स्वभावसहितं पुनः ।
मार्ग यान्त्याथले 'खेटे पुष्पमायाति निश्चितम् ||६२८ ||
2
'भौमरवी सदोष्णौ तु शीतमन्ये ग्रहाः पुनः ।
3
कटिवातं वदेद्राहुः पीडाकर महर्निशम् ||६२९|| योनिस्थाने स्थिता एतेऽप्येवं कुर्वन्ति योषिताम् । ग्रहभावानुसारेण ज्ञेयं पुष्पं महात्मभिः ||६३० || इदमष्टमस्थाने प्रथम पुष्पप्रकरणम् । अथ दोषप्रकरणं साम्नायं सानुभूतं चोच्यते ।
4
व्यये लग्नेऽष्टमे भानौ पीडकः क्षेत्रनायकः * ।
व्यये लग्ने रिपौ छिद्रे चन्द्रे ऽप्याकाशदेवता ॥ ६३१ ॥
यदि अष्टम स्थान में कोई ग्रह नहीं हो तो वह अपने वर्ग के समान ही होता है और अष्टम भाव में यदि चल ग्रह हो तो स्त्री को रास्ते में चलते चलते ही रजस्राव हो जाता है ||६२८ ||
मंगल, और रवि, सर्वदा उष्ण स्वभाव के ग्रह होते हैं और ग्रह शीत स्वभाव के होते हैं, राहु यदि अष्टम स्थान में हो तो कमर मे वात के उपद्रव से रात दिन पीड़ा करता है || ६२६||
योनिस्थान में स्थित होवें तो खियों को इसी प्रकार करते हैं, ग्रहों के भावों के अनुसार पंडित पुष्पों को समझें ||६३०||
इदमष्टमस्थाने पुष्पप्रकरणम् ॥ दोषप्रकरण को कहते हैं।
सूर्य यदि व्यय, लग्न, अष्टम भावों में हो तो क्षेत्र पाल ही पीड़ा करने वाले होते हैं । और व्यय, लग्न, षष्ठ, श्रष्टम, इन भावों में चन्द्रमा हो तो आकाश देवता पीड़ा करते हैं ।। ६३१ ||
1. खेटे for खोट A., खेटा: Bh. 2. भौमवीरं for भौमरवी A. 3. वदेबन्द्रे for वदेद्राहु: A. 4. ०पाल क: for oनायक: A.
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( ११८ ) न्यये कर्मणि मृत्यौ च भौमे 'शस्त्रहताश्च ये। एवं योगे ग्रहर्जाते शाकिनीगोत्रपीडिकाः ॥६३२॥ बुधो गुरुः सितः सौरी राहुश्च व्ययसप्तगः । अरण्योचमदेवौ च ततोऽपि जलमातरः ॥६३३॥ चण्डालाश्च क्रमाज्ञया दोषप्रश्ने हि पीडकाः । अष्टमे खेचरः करर्दोषश्च व्यभिचारकः ॥६३४॥ केन्द्रकोणगे दोषस्त्वष्टमे द्वादशेपि वा । चन्द्र देव्यो रवी देवा भौमे स्वकुलगोत्रजाः ॥६३५।। बुधे विचित्रजो दोषः किं वा कामणसम्भवः । गुरावामकृतो दोषः शुक्र शुक्रकृतस्तथा ॥६३६॥
मंगल जिसके जन्म समय में व्यय, कर्म, और अष्टम, भाव में हो तो इस योग में वे जो शस्त्र से मरे हैं उनसे और शाकिनी के समूह से पीड़ित होते हैं ॥६३२॥
बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, ये व्यय, और सप्तम भाव में हों तो क्रम से अर्थात बुध हो तो अरण्य देवता, गुरु हो तो उत्तम देवता, शुक्र हो तो जलमातृगण ॥६३३॥
शनि और राहु हो तो चाण्डालों से पीड़ित होते हैं ऐसे दोष का प्रश्न करने पर प्रश्न लग्न से इस स्थिति के अनुसार फल सममें और यदि अष्टम भाव में पापग्रह हो तो दोष का व्यभिचार होता है॥६३४॥
केन्द्र, त्रिकोण में पापग्रह हो तो दोष होता है. वा अष्टम, द्वादश से भी दोष होता है । चन्द्रमा से देवी का अपद्रव, रवि में देवता का, मंगल में अपने वंशजों से कृत पीड़ा होती है॥६३५॥
बुध से नाना प्रकार के दोष वा कम से उत्पन्न दोष होता है, गुरु से वामकृत दोष, शुक से वीर्यकृत दोष होता है ॥६३६॥
1. शत्रु० for शस्त्र A. 2. ०हता भयं for ०हताश्च ये Bh. 3. शोरी for सौरी A. 4. The ms reads सौरिराहू च व्ययसप्तमे for सौरी...सप्तगः 6. दोषाः स्युरभिचारकाः for दोषश्च व्यभिचारक: A., Bh.
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( ११६ ) तदा कार्मणजो दोष एक करो यदाष्टमे। ग्रहद्वयं त्रयं वाच्यं तदाकाशपतिर्भवेत् ॥६३७॥ यदा चतुर्दा केन्द्रंषु क्र रमहा भवन्ति चेत् । तदा दोषः सदा वाच्यो यावजीवं हि जन्मनाम् ॥६३८॥ उचगेहे भवेदुच्चो नीचे नीचस्तु पीडकः । निजक्षेत्रे बली वाच्यः शधुगेहेऽबलः पुनः ॥६३९।। पादो दोषो भवेत्केन्द्र त्रिकोणेशद्वयं मतम् । छिद्रेशत्रितयं दोषो विंशत्यंशा व्यये पुनः ॥६४०॥
अस्तंगतोऽथवा नीचो ग्रहो दोषकरो यदि । तदा दोषफलं नास्ति दोषपृच्छा सुनिश्चितम् ॥६४१॥
अथ प्रकारान्तरमाहअष्टमे द्वादशे सूर्य दोषः स्यात्क्षेत्रपालजः । "यक्षोद्भवस्तथा सोरे गोत्रजायाश्च निर्दिशेत् ।।६४२॥
एक भी पापग्रह यदि अष्टम में हो तो कर्मसम्बन्धी दोष कहना चाहिये, यदि दो या तीन मह हों तो आकाशजन्य उपद्रव होता है।।६३७।।
जिसको जन्मकाल में चारों केन्द्रों में पापग्रह हों तो उसको यावज्जीवन दोष कहना चाहिये ।।६३॥ ___उम्र में हों तो अच्छा ही होता है, और नीच मे हों तो पीड़ा करने वाले होते हैं, अपने घर में ग्रह बलवान होते है, और शत्रु के घर में निर्बल होते है ॥६३६॥ • केन्द्र में चतुर्थांश दोष होता है और त्रिकोण में दो माग दोष होता है, अष्टम में तीन अंश दोष होता है और व्यय भाव वीस अंश दोष होता है ।।६४०॥
दोष प्रश्न में अस्त मे गत ग्रह या नीच स्थित प्रह दोषकारक हो तो दोष का फल निश्चय नहीं होता ॥६४१॥ .
अब प्रकारान्तर से कहते है। अष्टम और द्वादश में सूर्य हो तो क्षेत्रपालकत दोष होता है, इन स्थानों में शनि हो तो यक्षकृत तथा गोत्रों से कृत दोष होता है ॥६४२॥
1. मव: for पुन: A. 2. मानो for सूयें 3. रक्तो for वक्षो ms,
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( १२० ) भौमे च शाकिनीदोषो दृष्टिदोषस्तथा। परैः । बुधे च भूतजो दोषो जीवे पितृसमुद्भवः ॥६४३॥ दोषस्तु चन्द्रशुक्राम्यामाकाशजलमात्रतः । उदयात्प्रहरौ द्वौ तु चन्द्रे यान्त्यास्तु गच्छति ॥६४४|| व्यावृत्तदेव्या दोषोऽयं चन्द्रे पराहगे मवेत् । नीचे चन्द्र भवेनीचो दुस्साध्यो बलिपूजितः ॥६४५॥ सौम्ये चन्द्रे शुभा देवी क्रूरा कृष्णार्दपक्षके । छिद्रे भौमस्थिते सूर्ये स्वोच्चमावेऽपि तिष्ठति ॥६४६॥ रक्तबन्धे ध्रुवं जाते नाम्याधस्तापमादिशेत् ।। उष्णवातादिपीडा स्यात् स्वोच्चभावेऽपि तिष्ठति ॥६४७।।
मंगल अष्टम में हो तो शाकिनीकृत दोष होता है तथा बहुत भाचार्यों के मत से दृष्टि दोष होता है, और बुध हो तो भूत कृत दोष, वृहस्पति हो तो पितृ-कृत दोष होता है ॥६४३।।
यदि चन्द्रमा, शुक्र अष्टम मे हों तो आकाश और जलकृत दोष होता है, उदय से दोपहर के अन्दर चन्द्रमा यदि अष्टम में हो तो वायु कृत दोष होता है ।।६४४॥
और दो प्रहर के बाद चन्द्रमा अष्टम में हो तो व्यावृत्त देवी के कोप से दोष होता है, यदि चन्द्रमा नोच में हो तो नीच होता है बलि पूजा से भी दुःसाध्य होता है ।।६४।।
शुक्रपक्ष के चन्द्रमा शुभ कारक होते हैं और कृष्णपक्ष के चन्द्रमा कर होते हैं। यदि मंगल अष्टम में हो सूर्य का होने पर भी रक्तबन्ध में नामी के नीचे ताप होता है और गर्मी तथा वात इत्यादिक पीड़ा होती है, य में रहने पर भी ये पीड़ा होती है ।।६४६-४४४॥
1. The portion beginning with OFTETT 7: and ending with परक्षेत्रे is missing in A AL. 2. परः for परैः Bh. 3 ०काशे जलमात्रतः Bh. 4 वान्या for यात्या Bh. b. तू for Bh.
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: (११२१ )
रक्तबन्धे भयं जाते क्षेत्रपालानुभावतः । दिनान्ताः सर्वलघु षट् त्रिकेऽष्टादशे स्थिताः || ६४८|| उदये मध्यसन्ध्यायां क्षेत्रपालाः पृथक् पृथक् ।
अतिचारे देवी गृह्णाति बालकं जवात् ।। ६४९ ।। स्थिरग्रहे स्थिरा ज्ञेया जलराशौ जलाश्रयाः ।
2
स्थिरे राशौ स्थलदेव्यश्वरराशौ नरो ध्रुवम् || ६५० ।। स्त्रीराशौ युवतीदोषः क्रूरक्रूर ग्रहे पुनः । गोत्रदेव्या भवेद्दोषः शुक्र वृषतुलाश्रिते ।। ६५१ ।।
3
स्वपक्षे गोत्रजो दोषः परक्षेत्र परो मतः । शत्रुक्षेत्रे भवेच्छत्रुर्मित्रे स्वजनसम्भवः ।
क्षेत्रपालों के अनुभाव से दिनान्त में सब भावों में रहते हैं और उदय, मध्य सन्ध्या मे क्षेत्रपाल पृथक्-पृथक् छठे, तीसरे, भाठवें, दसवें भावों में क्रम से रहते हैं, इन स्थानों में यदि अतिचारी ह हों तो देवी बालक को हठात महया कर लेती है ।।६४८- ६४६ ।।
स्थिर राशि में हो तो स्थिर जाने और जल राशि में जलाश्रय में और स्थिर राशि मे स्थल देवी का दोष, चर राशि में नर का दोष जाने ||६५० ।।
स्त्री राशि में स्त्रीकृत, दोष, जाने यदि शुक्र वृष, तुला, मे हो वो जानना चाहिये || ६५१ । ।
इस प्रकार अपने घर में हो तो स्वगोत्रकृत, और परक्षेत्र में हो तो परकृतदोष, शत्रु क्षेत्र मे होने से शत्रुकृत, तथा मित्रक्षेत्र में हो तो स्वकीयबन्धुवर्गकृत, और उदासीन घर में हो वो उदासीन आदमी कृत दोष होता है ऐसा ही इसका निर्याय करें ।।६५२||
और पाप गृही मे पाप कृत दोष अपने गोत्र क देवी का उपद्रव
1. Two syllables are wanting in ms. Bh. supplies गृहे । 2. नर for श्चिर Bh. 3. The mss A, A1 begin from here.
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( १२२ )
उदासीने प्युदासीनस्त्वेवं दोषस्य निर्णयः ।। ६५२ ॥ इत्यष्टमस्थाने दोषप्रकरणम् । अथ जीवितमृत्युप्रकरणम् । शोऽभ्युदितो मृत्युपोऽस्तंगतः पुमान् । मृत्युप्रश्ने नरैर्वाच्यं रोगग्रस्तोऽपि जीवति ।। ६५३ ॥
लग्नेशोऽभ्युदितः प्रश्ने लाभेशोऽपि शुभेक्षितः । अस्तंगतेऽष्टमाधीशे शस्त्राविद्धोऽपि जीवति ।। ६५४ ॥
2
लग्नेशोऽभ्युदितः प्रश्नेऽभ्युदितो मृत्युपो बली । षष्ठे वा छिद्रभावे वा चन्द्रे च म्रियते नरः ।। ६५५ ॥ षष्ठे चन्द्रं व्यये करे सद्योऽपि म्रियते नरः । चन्द्रेऽष्टमे धनं क्रूरः सद्यो मृत्युः सतां मतः ।। ६५६ ॥ लग्ने बौने चन्द्र सधी रोगः किलोदितः ।
अब जीवित मृत्यु प्रकरण कहते हैं ।
यदि मृत्यु प्रश्न में लग्नंश अभ्युदित होकर लग्न में और अष्टमेश, अस्त हो तो रोग प्रस्त भी मनुष्य जीता है || ६५३ ||
प्रश्न काल में लग्नेश, अभ्युदित हो, लाभेश शुभ ग्रहों से देखे जाते हों, और अष्टमेश श्रस्त हो तो मनुष्य शस्त्र से आघात होने पर भी जीता है ||६५४||
प्रश्न काल में लग्नेश अभ्युदित हो और बलवान् अष्टमेश अभ्युदित होकर षष्ठ वा अष्ठम में और चन्द्रमा भी इन दोनों भावों में हो तो मनुष्य मर जाता है ||६५५ ।।
षष्ठ भाव में चन्द्रमा और व्यय में पाप ग्रह हो तो तभी मर जाता है, और चन्द्रमा श्रष्टम में हो, धन भाव में पाप ग्रह हो तो भी सद्यः मर जाता है ।। ६५६।।
1. शुभोदित: tor शुभोक्षत: A 1 2. For this line A1. reads लग्नंशोऽभ्युदितः प्रश्नेऽभ्युदितो मृत्युपो बली ।
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( १२३ )
1
लग्ने चन्द्रे ने भानुः सद्यो मृत्युरसंशयम् ॥ ६५७ ॥ मेपलमोद प्राप्ते वृश्विकांशे त्वलीश्वरे ।
2
मेषेशचन्द्रसंयुक्ते तदा मृत्युः क्षणाद्भवेत् ।। ६५८ ॥ लग्नपो मृत्युपथापि मृत्यौ स्यातामुभौ यदि । स्थितौ द्रेष्काण एकस्मिन् तदा मृत्युर्भवेदिह ।। ६५९ ।। लपो मृत्युपश्चापि चन्द्रयुक्तौ बलोत्कटौ । द्वाविंशतितमे त्र्यंशे तदा मृत्युर्भवेत्पुनः || ६६० ॥
4
यथा स्वामिनि गेहं स्वं याति चौरेर्न मुच्यते । तथा लग्नं स्वके नाथे पश्यति म्रियते पुनः ।। ६६१ ॥ यथा गेहपतिः स्वामी यात्येव पुरतो ध्रुवम् ।
तथा लग्नस्थिते नाथे जीवत्येव न संशयः ।। ६६२ ॥
लग्न में रवि हो और सप्तम में चन्द्रमा हो तो बहुत शीघ्र रोग का उदय होता है, और लग्न मे चन्द्रमा, सप्तम मे रवि हो तो निश्चय सद्यः मर जाता है ||६५७॥
प्रश्न काल मे मेष लग्न हो और वृश्चिक का स्वामी (मंगल) वृश्चिक के नवमांश मे हो और मंगल, चन्द्रमा से युक्त हो तो उसी क्षया उसकी मृत्यु होती है ||६५८ ॥
लग्नेश और अष्टमेश दोनों मृत्यु भाव मे एक ही द्रेष्काणा में हों वो शीघ्र मृत्यु हो जाती है ।।६५६ ।।
लग्नेश और अष्टमेश दोनों बलवान होकर चन्द्रमा से युक्त हों, और वे दोनों जिस किसी राशि में बाईसवें त्रिशांश में गत दो वा मृत्यु होती है ।। ६६० ।।
जैसे अपने स्वामी के घर में गया हुआ चौर नहीं छूटता वैसे जिसको प्रश्न काल में लमेश लम को देखे वह मर जाता हे ||६६५ ।।
जैस घर के मालिक अपने ग्राम को अवश्य जाते हैं वैसे अप्रेश यदि लय में हो तो अवश्य ही जीते हैं इस में संशय नहीं ||६६२ ||
1. ०र्भवेदयम् for ०रसंशयम् A 2 प्रश्न for प्राप्ते Bh. 3. मेषांश for मेषेश Bh. 4. मुष्यते for मुच्यते Bh.
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( १२४)
पंधनं धरणं नौश्च फलेन सदृशं त्रयम् । म्रियते येन योगेन तेन योगेन मुच्यते ॥ ६६३॥ लातुर्यसुधीहर्षलाभेशाः सततोदिताः । दैवादपि न मृत्युः स्याद्रोगाद्वा शस्त्रसंकटात् ।। ६६४ ॥ जीवितमृत्युपृच्छायां लमं शुक्रो बली यदि जीवत्येवं तदावश्यं शस्त्रविद्धोऽपि मानवः ।। ६६५ ।। यदि पृच्छति मन्दोऽयं जीविष्यत्यथवा नहि । लमेशश्चेत्तदोदेति जीवत्येव तदा ध्रुवम् ॥ ६६६ ॥ नन्दा षट् कृत्तिका भौमे भद्राश्लेषा बुधे सिते । धनिष्ठादिषटकं रिक्ता मघामनुजया गुरौ ॥ ६६७ ॥ भरण्यां च शनी वारे पूर्णा स्याहवयोगतः । उत्पद्यते यदा रोगो म्रियते प्रतयोगतः ।। ६६८ ॥
इति छिद्रे जीवितमृत्यु प्रकरणम् ।। मृत्यु, बन्धन, नौका का आगमनादि ये तीनों फल में समान है, रोग प्रश्न में जिस योग से मरता है, बन्धन प्रश्न मे उस योग से छुटता है । नौका प्रश्न में नौका कुशल पूर्वक आती हे ।।६६३
लमेश, चतुर्थश, पञ्चमेश, हर्षेश, लाभेश यं सदोदित हों तो उस को देव से, या रोग से, या शस्त्रादि संकटों से भी मृत्यु नहीं होती ॥६६४||
ओवन, मरण के प्रश्न मे लम मे यदि बलवान् शुक्र हो तो शत्र से विद्ध भी मनुष्य अवश्य जीता हे ।। ६६५ ॥
यदि पूछे कि यह रोगी जावेगा या नहीं उस मे लग्नेश यदि उदित हो तो अवश्य जीवेगा ऐसा कहना चाहिये ।।६६६।।
यदि मंगल दिन नन्दा (१।६ । ११) तिथि और कृत्तिका से क नक्षत्र हों, बुध और शुक्र दिन भद्रा (२१७। १२) तिथि अश्लेषा नक्षत्र, वृहस्पति वार धनिष्ठादि छः नक्षत्र रिक्ता और मघा, (४।६।१४) तिथि हो।।६६७॥
और शानवार देवयोग से भरणी नक्षत्र, और पूर्णा (५।१०।१५) तिथि हो आय, तिथि नक्षत्र विशिष्ट इन दिनों में यदि रोग उत्पन्न हो तो प्रेस के योग से मनुष्य मर जाते हैं ।।६६८
1. प्रेतगोऽपि सः for प्रेतयोगत: Bh.
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( १२५ )
अथ छिद्रे प्रवहणप्रकरणम्
कुशलागमनं पूर्वं लाभोऽपि व्यवहारतः ।
3
बुडनं वपनं चाथो नावि प्रश्नचतुष्टयी ।। ६६९ ।। लग्नं पश्यति लग्नेशः छिद्रं छिद्रेश्वरो यदि ।
4
न बुडति तदा पोतो लाभो भवति चिन्तितः ।। ६७०॥ पापमप्तमे यदि तिष्ठतः ।
तदा प्रवणप्रश्ने ध्रुवं वापनिका भवेत् ।। ६७१ ।। अस्तं गतोऽपि लभेशो लग्ने तुर्ये तथाष्टमे ।
6
7
क्रशस्तिष्ठन्ति पृच्छायां म्रियते पोतपस्तदा ।। ६७२ ॥
विलग्नं नैव लग्नेशछिद्रं छिद्रपतिर्नच ॥
8
9
पश्यतो यदि पृच्छासु तदासौ बुडति ध्रुवम् ।। ६७३ ।।
नौका पर गमन करने वालों का चार प्रश्न होता है, पहला कुशलागमन, दूसरा व्यवहार में लाभ, तीसरा पोत का बुडना, चौथा वपन अर्थात वायु आदि से इधर उधर घूमते रहना ।। ६६६ ||
लमेश, यदि लग्न को देखें और अष्टमेश अष्टम भाव को देखें तो पोत नहीं बुडती है और व्यवहार से लाभ होता है ।। ६७०।।
लग्नेश, अष्टमेश, यदि सप्तम में हो तो प्रवहण के प्रश्न ही नौका भ्रमण कर रही है ऐसा कहना चाहिये ।। ६७१ ||
लग्नेश अस्त हो और पाप ग्रह लग्न, चतुर्थ, अष्टम, में हो तो पोत के मालिक अवश्य ही मर जाते है ||६७२ ।।
प्रश्न काल में लमेश यदि लग्न को नहीं देखे और अष्टमेश अष्टम स्थान को नहीं देखे तो पोत अवश्य ही बूड़ती है || ६७३ ||
में अवश्य
1. पृच्छा for प्रवहया A, A 1. 2. लामे च for लाभोपि Bh. 3. चतुष्टयम् for चतुष्टयी A 4. वित्तत: for चिन्तितः Bh. 5. वापनिकां वदेत for वापनिका भवेत् A. 6. मृत्यु: for म्रियते A. 7. पोतपते for पोतप० A. 8 पश्यति for पश्यतो Bh. 9. नौवसुनं for a gefa A.
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( १२६ ) यदा छिद्रेशलमेशौ नीचे वा शत्रुवेश्मनि । नीचगौ नवमस्थौ चेव लाभो न व्यवहारतः ॥ ६७४ ॥ लग्नं पश्यति लग्नेशः छिद्रे भवति वाग्पतिः । व्यवहाराद् धनो लाभस्तरी प्रश्ने सतां मतः॥ ६७५ ॥ बलयुक्तो हि लमेशः छिद्रयुक्ते च भार्गवे । अक्रराध्यासिते तत्राऽसंख्यो लामो जलोद्भवः ॥ ६७६ ॥ अष्टमे चन्द्रसंयुक्त पृच्छालग्ने बलोत्कटे । परदेशीयवस्तुभ्यो लाभो भवति निश्चितः ॥६७७ ॥ उच्चेष्टमे शुभैर्युक्ते मूललग्ने बलाश्रिते । परदेशीयवस्तूनां लाभः शतगुणो भवेत् ॥ ६७८ ॥
इति प्रवहणप्रकरणं चतुर्थं सम्पूर्णम् । 1 बेडाप्रश्ने तनुर्वकं पद्वानं तुर्यकं स्मृतम् । सप्तशत्रुसुते लमं सुकाणमस्तभागगम् ॥ ६७९ ॥
जब अष्टमेश और लमेश नीच में हों वा शत्र के घर में हों वा दोनों नीच स्थित होकर नवम स्थान में हों तो व्यवहार से लाभ नहीं होता है ॥६७४॥
लग्नेश यदि लग्न को देखें और गुरु अष्टम स्थान में हो सो नौका के प्रश्न में व्यवहार से बहुत धन लाभ होता है ॥६७५।।
यदि लग्नेश बलवान हो और शुक्र अष्टम स्थान में हो शुभप्रहों से सम्बन्ध हो तो जल से बहुत लाभ हो ॥६७६।।
प्रश्न लग्न में बलवान् चन्द्रमा अष्टम स्थान में हो तो परदेशीय वस्तु के व्यवहार से निश्चय लाभ होता है ॥६७७||
शुभमह उच्च का होकर अष्टम भाव में हो, और लम बलवान हो तो परदेशीय वस्तुओं का सौगुण लाभ होता है ।।६७८॥
इति प्रवहणप्रकरणं चतुर्थ सम्पूर्णम् बेड़ा प्रश्न में लग्न को वक्र, चौथा को पद्वान, सातवां, छठां, पांचवां, लम को सुकाण ॥६७६।।
1. The portion beginning with ast and ending with इति प्रवहणपद्धतिस्ताजिकाभिप्राये is missing in A,
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( १२७ ) दशमं कूपकं ख्यातं तदेव पञ्जरं मतम् । मध्ये मौलिक्यजवायां बध्यन्ते जिनकाष्टकम् ॥ ६८० ॥ तत्रैव बध्यते कूपः सङ्गः पोतस्ततो भवेत् । परवाणाग्रसंलग्नो हारिणीदोर उच्यते ॥ ६८१ ॥ कुवारं छिद्रसंज्ञं च नवमं पुष्पसंज्ञकम् । आयुरायुरिति ज्ञेयं द्वादशमन्त्यनामकम् ॥ ६८२ ॥ पुण्याये सबले लामाष्टमे दुष्टधनागमः । यत्र क्रूराः क्षयस्तत्र सौम्या यत्र शुभं ततः ॥ ६८३ ॥
इति प्रवहणपद्धतिस्ताजिकाभिप्राये । आदित्यायैवलिभिभवन्ति पुंसां यथाक्रमं दीक्षाः । तापसायकपालिसौगतभगवद्यतिचरकजैनानाम् ॥६८४ ।। यावन्तो वलिनः खेटाः प्रवज्या तावतामपि । एकमवेऽपि चैकस्य तावद्धेलावतं भवेत् ।। ६८५ ॥
दशवां को कूपक, तथा पञ्जर कल्पना करें, मध्य में मौलिक्य जंघा मे जिनकाष्ठ को बांधते हैं॥६८०॥
उस में पोत को बांधते हैं तब कृप से संग होता है पर बाणाप्र में लगा हुआ हारिणीदोर कहलाता है ॥६८१।।
आठवां कुवार तथा नवमां पुष्प संज्ञक, श्रायु स्थान को आयु, और द्वादश को अन्त्य कल्पना करके फल का विचार करें ॥२॥
यदि बलबान ग्रह नवम एकादश भाव में हो तो धन का लाभ होता है और अष्टम, एकादश में हो तो दृष्ट से धन का लाभ होता है जहां पर पाप ग्रह हो वहां क्षय होता है और शुभग्रह जहां पर हो वहां शुभ होता है ।।६८३॥
सूर्याद ग्रह बलवान हो तो कम से मनुष्य दीक्षा, तापस, कपाली, मोक्ष, भगवान् यति, चरक, जैन, इन पक्षों को अबलम्बन करने वाले होते हैं ।
जितने बलवान् ग्रह प्रव्रज्यायोग कारक होते हैं उन के बल से फल का विचार करें। यदि एक ग्रह भी प्रव्रज्यायोग कारक हो तो उसी एक पक्ष का व्रत धारण करने वाला होता है ॥६८|| ___ 1. तापस for तापसाय Bh. 2. एकमावे for एकमवे Bh.
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(१२८) . प्रवज्येशे विनष्टे त व्रतं त्यजति मानवः । दीक्षेशे राहुयुत्तो तु व्रतगन्धोऽपि नो भवेत् ॥ ६८६ ॥ सबले सौम्यदृष्टे तु गुरुभक्ति ढा मता। नीचेत्र रदृष्टे तु व्रतेन सह नश्यति ॥ ६८७ ॥ जन्मराशिपतिर्मन्दै दृष्टः शेषेर्न वीक्षितः । अबलो यस्य संजातो रोगादीक्षां दधाति सः ॥ ६८८ ।। सौरिहीनाङ्गजन्मेशः केन्द्रे पश्यति सदलम् । यस्य स पुण्यसत्यक्ता भोज्यार्थी कुरुते व्रतम् ॥ ६८९ ॥
चन्द्रं शुमांशकस्थं बलिनं स्वोचस्थितं तथा शेषान् । पश्यति बलिनि शनी स्याजगदीशो दीक्षितः शान्तः॥ ६९०॥ एकगेहगतैः सर्वैर्जन्मेशो यत्र वीक्षितः ।
यदि प्रव्रज्या योगकारक नष्ट बल का हो तो मनुष्य अपने व्रत को त्याग कर देते हैं और वही दीक्षेश यदि राहु से युक्त हो तो मनुष्य को व्रत का स्पर्श भी नहीं रहता है ।।६८६॥
___यदि प्रव्रज्या योग कारक सबल हो और शुभ ग्रहों से देखे जाते हो तो दृढ़ गुरु की भक्ति करने वाले होते हैं और वह यदि नीच में हो पाप ग्रहों से देखे जाते हों सो व्रत के साथ ही नष्ट हो जाते है ॥६८७
जिस का जन्म गशीश शनि से देखा जाय और शेष ग्रह उमको न देखें तो वह प्रबल हो जाता है इस लिये वह मनुष्य रोग के कारण दीक्षा को ग्रहण करते हैं ॥६॥
जिसको अन्म लग्नेस से रहित केन्द्र को बलवान् शनि देखे वह पुस्म से व्यक्त होकर केवल भोजन के लिये व्रत को धारण करता है ॥६६।।
जिस को जन्म काल में उन का बलवान् चन्द्रमा शुभ ग्रहों के अंश में स्थित हो उसको और शेष ग्रहों को भी बलवान शनि यदि देखे तो वह भगवान का मन्त्र ग्रहण करता है और शान्त भी होता है n६६०॥
1. जन्मानहीनेश: for हीनाङ्गजन्मेशः A. A1 2. त्यक्तो for स्यता A.A, Bh. 3. शेषात Bh.
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( १२४ )
तस्यावश्यं भवेदीक्षा स्वेवमुक्तं पुरातनैः ।। ६९१ ।। प्रकटितसुनियोगे राजयोगो यदि स्यादशुमफलविपाकं कर्म प्रोन्मूल्य पश्चात् । जनयति पृथिवीशं दीक्षितं साधुशीलं प्रणतनृपशिरोभिर्धृष्टपादारविन्दम् || ६९२ ॥ भाग्यग्रोथ मूर्ती स्यान्मूर्तिपो भाग्यवेश्मनि । दीक्षायोगो भवेदेको भाग्ये भाग्यग्रहों यदि ।। ६९३ ॥ लग्ने मृतिपतिर्जातो दीक्षायोगः पगे भवेत् । विलग्नं लग्नपः पश्येद् गुरुं च गुरुपो यदि ॥। ६९४ ॥
2
दीक्षायोगो भवेदन्यो लग्ननाथो रुस्तथा । गुरुनाथो विलग्नं चेद्दीक्षायोग चतुर्थकः ।। ६९५ ।।
जिस का जन्म लग्नेश, एक राशि में स्थित सब प्रहों से देखा जाय तो उस को अवश्य ही दीक्षा होगी ऐसा प्राचीनाचार्यों का मत है ||६६१||
इस प्रसिद्ध मुनि के योग में यदि राज योग भी हो जाय तो अशुभ फल के विपाक को हटा कर पीछे वे दीक्षित और साधुशील होकर राजा अर्थात् किमी बड़े स्थान के महन्त होते हैं और उनके चरणारविन्द नम्र राजाओं के शिर मुकुट से संवित होते हैं ।। ६६२ || जिस का जन्म में भाग्येश लग्न मे हो, और लग्नेश भाग्य में हो
तो एक दीक्षा योग हुआ ||६६३||
भाग्येश भाग्य में हों, और लग्न लग्न में हो तो द्वितीय दीक्षा योग हुआ, यदि लग्नेश लग्न को देखे और भाग्येश, भाग्य को देखे वो || ६६४||
तृतीय दीक्षा योग हुआ और यदि लग्नेश नवम भाव को देखे । नवमेरा लग्न को देखे तो चतुर्थ दीक्षा योग हुआ ||६६५।। .
1. महौ for ग्रहो A. 2. गुरुं शुभम् for गुरुस्तथा A, A1
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(१३०) चतुःप्रभृतिभिः खेटै रेकगृहसमाश्रितः । प्रव्रज्या जायते जन्तो रबलभक्तिरेव हि ॥ ६९६ ॥ धत्ते धर्म धर्मभावमादित्ये कुरुते नहि । बुधशुक्रद्वये तत्र शाक्तऽयं बुध्यते विधिः ॥ ६९७ ॥ भौमे धर्मस्थिते पीडां प्रजानां कुरुते धनाम् । राहौ तत्र स्थिते कान्तामस्पर्शी रूपशालिनीम् ॥ ६९८॥ धर्मश्रद्धा नवा धत्ते पापकर्म करोति च । शनियुक्त स्थिते राहावर्धधर्म करोति च ॥ ६९९ ।। शनौ तत्र स्थिते जैनं मार्गमाश्रयतखिलम् । रवौ राहौ च भौमे च ब्रह्महत्यां करिष्यति ॥ ७०० ॥ तुंगे शुभेक्षिते धर्मे स्वामियुक्त वलाधिके । राजा भवति पुण्याढ्यो वर्णाश्रमविधौ गुरुः ॥ ७०१ ॥
चार प्रभृति के अर्थात चार पांच इत्यादिक ग्रह यदि एक राशि में हों प्रव्रज्यायोग होता है, निर्बल ग्रह हों तो भक्तिमात्र होता है ॥६६६।।
धर्म स्थान में धर्म भाव का धारण करता है और सूर्य हो तो वह नहीं करता है और बुध शुक्र हो चन्द्रमा भी हो तो शाक्त होता है ॥६६॥
धर्म स्थान में यदि मंगल हो तो वह प्रजाओं को बहुन पीड़ा करता है, यदि उस स्थान में राहु हो तो वह बहुत सुन्दरी स्त्री का अंग स्पर्श भी नहीं करता ॥६१८॥
और वह धर्म पर श्रद्धा भी नहीं करता है और पाप कर्म करता है, और शनि से युक्त राहु उस स्थान में हो तो आधा धर्म करता है ।।६६६॥
यदि उस स्थान में शनि हो तो जैन का ही मार्ग अवलम्बन करता है, और उस स्थान में यदि रवि, राहु मंगल, हो तो वह ब्रह्म हत्या करेगा ||७००॥
यदि धर्मेश उच्च का बलवान् होकर धर्म स्थान में हो और शुभ ग्रहों से देखा जाता हो तो वे बड़े पुण्यवान् राजा होते हैं और वर्णाश्रम में श्रेष्ठ कहलाते हैं ।।७०१॥
1. भावे for धर्मे A. 2. शाके for शाक्त A, A1.
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( १३१ )
1
सितयुक्ते शनौ तुंगे गुरुयुक्ते विलोकिते ।
जायते धार्मिको राजा राजपूज्यो गुरुव वा ॥ ७०२ ॥ क्रियते केवलादर्शो दीक्षासिद्धिप्रकाशकः । श्रीमद्देवेन्द्र शिष्येण श्रीहेमप्रभरिणा ।। ७०३ ॥ इति भाग्यभवने प्रब्रज्याप्रकरणम् ॥ अथ दशमे पदप्रकरणम् ।
हर्षावस्थे नभोनाथे तुङ्गादिस्थे शुभेक्षिते । चित्ते केन्द्र त्रिकोणस्थे राज्यादिपदलब्धयः || ७०४ ॥ मूर्तिपत्युच्चनाथेन स्वच्चादिस्थेन वीक्षितः । ददात्येव पदावा लग्ने लग्नेश्वरो यदि || ७०५ ।।
यदि का शनि शुक्र से वा बृहस्पति से युक्त हो वा देखा आय तो वह धार्मिक राजा होता है, वा राजपूज्य गुरु होता है || ७०२ ||
श्रीमान् देवेन्द्र के शिष्य हेमप्रभसूरि ने इस त्रैलोक्य प्रकाश नाम के ग्रन्थ में दीक्षासिद्धि के प्रकाश करने वाले केवल आदर्श को किया ||७०३|| इति भाग्यभवने प्रव्रज्याप्रकरणम
अथ दशमे पदप्रकरणम्
दशमेश उच्चादि में स्थित होकर हर्षस्थान में हो और शुभ ग्रहों से देखा जाता हो और धनेश, केन्द्र, त्रिकोण में हो तो राज्यादि पद का लाभ होता है ||७०४ ॥
अष्टमेश, यदि अपने उच्च के स्वामी से और स्वोच स्थित ग्रह से देखा जाता हो इन योग में यदि लग्नेश, लम में हो तो पद की प्राप्ति होती है ||७०५||
1. युक्तt for युक्ते A. 2. शस्त्रैलोक्यस्य for ०शदीक्षासिद्धि A 3. हर्षावस्थानभोनाथे for हर्षावस्थे नभोनाथे ms. 4. वित्ते for चित्ते Bh.
4
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(१३२) स्थिरजग्ने पदावाप्तिः सौम्यस्वामियुतेक्षिते । तदोदिते च राज्येशे राज्यं भवति भूभुजाम् ।। ७०६ ॥ इत्यमेव पदावाप्तिः सा त्वल्पा किन्तु वृश्चिके । स्थिरं पदं स्थिरैः प्रोक्तं द्वयङ्गश्चापि शुभस्थितैः ।। ७०७ ।। क्ररयोगे च वेधे च भवत्येव पदच्युतिः । चतुःपञ्चभिरुचादिकेन्द्रकोणगतैग्रहैः । वाञ्छितैव पदावाप्तिर्देशवंशानुसारतः ॥ ७०८ ॥ सेनाधिपत्ययोगैश्च दुर्धराशुनफादिभिः । पदावाप्तिर्भवत्येव नच स्वल्पा विपर्यये ॥ ७०९ ।। स्वोचं तनुः शुभः स्त्रोच्चात्पश्यत्युञ्चपदार्पकः । द्वयाधुचादिकेन्द्रादिस्थितदृष्टोदितस्तथा ।। ७१० ॥
जन्म काल में स्थिर लग्न हो और वह अपने स्वामी तथा शुभ ग्रहों से युक्त तथा दृष्ट हो उस समय यदि राज्येश उदित हो तो राजाओं को राज्य होता है।॥७०६।।।
इस प्रकार पद की प्राप्ति होती है यदि वृश्चिक लग्न हो तो अल्प रूप से पद को प्राप्ति होती है स्थिर राशि लग्न हो तो स्थिर पद होता है, द्विस्वभाव राशि हो और शुभ ग्रहों मे दृष्ट हो तो भी स्थिर पद होता है ॥७०७॥
यदि कर ग्रहों का योग हो वा वेध हो तो पद की च्युति होती है।
चार पांच ग्रह उभादि अर्थात उन्न, स्वगृह, मित्रादि उत्तम स्थानों में तथा केन्द्र, त्रिकोगा, में हों तो अपनी इच्छानुकूल, कुल देश के अनुसार पद की प्राप्ति होती है ।। ७०८ ॥
दुर्घश. सुनफादि सेनाधिपत्य योग से पद को प्राप्ति होती है विपरीत होने पर नहीं होती ॥ ७०६ ॥
शुभ ग्रह लग्न में उच्च का हो और स्वोच्च स्थित शुभग्रहों से दृष्ट हो तो उस पद को देने वाला होता है एवं द्वयादि प्रह उच्चादि अर्थात उच्च, वर्गोत्तम, स्वगृही, मित्रगृही, इत्यादि होकर केन्द्र त्रिकोण में स्थित हो
और इसी तरह का बलवान् ग्रह से दृष्ट हो और उदित हो तो उस पद को देता है ।। ७१०॥
1. करबोधे च योगेशे for करयोगे च वेधे च A. AL,
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( १३३ )
तुंगस्थो मूर्तिगः खेटः शेषैराद्यत्रिकोणगैः । आकस्मिका पदावाप्तिरेवं स्तोका स्वगेहगैः ॥ ७११ ॥ प्रभुमेनं करोमीति प्रश्ने क्रूर ग्रहो यदि ।
छिद्रे घने धने च स्याद्विनाशो वाञ्छितः प्रभो ॥ ७१२ ॥ वर्गोत्तमैः शुभैर्युक्त शीर्षोदयस्वभाव के । उच्चांशे स्वगृहांशे वा पदप्राप्तिर्न दुर्लभा ।। ७१३ ।। अन्योन्यधामगोलोको लग्नाधिपपदेश्वरौ । खे च चन्द्रनभोनाथे मूर्तीशाः स्युः पदार्थकाः ।। ७१४ ॥ पदेश त्पदं पश्येत् पदं तदा स्थिरात्मकम् । मध्यपेशशुभं राज्यं पदभ्रंशी हि पापगे ।। ७१५ ॥ मुथसिले नभोनाथे तत्र च सूर्यमिश्रिते ।
ŏ
मकचूले महायोगे राज्यं भवति तत्क्षणात् ।। ७१६ ॥
लग्न स्थित ग्रह उच्च का हो और शेष ग्रह पचम में हो तो आकस्मिक पद की प्राप्ति होती है, यदि वे ग्रह अपने घर के हों तो छोटे पद की प्राप्ति होती है ।। ७११ ॥
इसको मालिक बनायेंगे ऐसा प्रश्न करने पर यदि पाप मह, अष्टम, सप्तम, द्वितीय, में हों तो उसकी इच्छा सिद्धि नहीं होती ।।७१२ ।। शुभग्रह अपने वर्गोत्तम मे हों, शीर्षोदय राशि लग्न हो और वे मह उपांश मे या स्वगृही के अंश में हों तो पद की प्राप्ति दुर्लभ नहीं हे ।। ७१३ ।।
लग्नेश पद स्थान में ही पदेश लग्न मे हो और चन्द्रमा, दशमेश लमेश ये दशम भाव में हों तो पद को देने वाले होते हैं ।। ७१४ ।।
पदेश यदि पद स्थान को देखे तो स्थिर पद कहना चाहिये । पदेश यदि शुभयुक्त हो तो राज्य होता है, पाप राशी में हो तो पद अंश होता है ।। ७५५ ।।
"यदि दशमेश मुथशिल करता हो उस में सूर्य भी हो इस प्रकार मकबूल महायोग मे उसी क्षण राज्य होता है ।। ७१६ ।।
1. यहौ for ग्रहो A. 2. पदे for पदं ms. मध्यपेश Bh. 4. भ्रंशः समापगै: for अंशी 6. भूभुजाम् for यत्क्षणात A.
P
३ मध्यमांश for हि पापगे Bh.
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( १३४ ) उच्चयुक्तेषु केन्द्रेषु किंवा दृष्टयुतेषु च । ' मकचूले महायोगे राज्यं भवति भूभुजाम् ॥ ७१७ ।। उदयादशमं स्थानं मुख्यस्वामिप्रकाशकम् । ततश्च दशमं गेहं प्रतिहस्तः प्रकाशकृत् ।। ७१८ ॥
इति मध्यताजिके पदप्रकरणं सम्पूर्णम् । दुष्कालकालज्ञानार्थ कौतुकार्थं च जन्मिनाम् । दृष्टिप्रकरणं वक्ष्ये नत्वा देवं जिनेश्वरम् ।। ७१९ ॥ केन्द्रे च जलराशिस्थे सौम्यपक्ष सिते ध्रुवम् । मूत च जलराशिस्थे चन्द्र वा स्यादहृदकम् ।। ७२० ॥ लग्नाद् द्विके त्रिके वापि जलराशियदा भवेत् । जलखेटस्तु तत्रैव जलपातस्तदा ध्रुवम् ॥ ७२१ ॥
सब ग्रह उच्च के होकर केन्द्र में हों अथवा उच्च स्थित ग्रहों की दृष्टि से युक्त हों तो मकचल महायोग में राजाओं को राज्य होता है ॥७१७।
लम से दशम स्थान मुख्य स्वामी का प्रकाश करने वाला होता है। और उस से दशम स्थान प्रतिहस्त को प्रकाश करने वाला होता है।। ७१८॥
इति मध्यताजिके पदप्रकरणम् अपने इष्ट जिनेश्वर देव को नमस्कार कर दुष्काल काल अर्थात जिस समय वर्षा नहीं होने से अकाल कहलाता है उस समय के ज्ञान के लिये और शरीर धारियों के प्रानन्द के लिए वृष्टि प्रकरण को कहते है ॥७१६ ॥
जलचर राशि केन्द्र में हो, उस में शुभ ग्रह स्थित हो, शुक्ल पक्ष में बहुत जल होता है वा ज 1 राशि लग्न हो उस में चन्द्रमा हो तो भी बहुत जल होता है।। ७२० ॥
लम से दूसरा, तीसरा, स्थान में जलचर राशि हो उस में चन्द्रमा आदि जल स्वभाव के ग्रह हों तो अवश्य हो वृष्टि होती है ।। ७२१ ॥
1. दृष्टे शुभेषु वा for दृष्टयुतेषु च ms. 2. वृष्टि for दृष्टि Bh. 3. तृतीयेवा for त्रिक वापि A.
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(३५) जललग्नं ग्रहयुक्तं सजलजलदायकम् सजलैलग्नखेटैश्चाप्यंशस्थैर्वा धनं जलम् ॥ ७२२ ॥ शुक्लपक्षे शशी दृष्टोऽथवा युक्तो यदाशुभैः। लग्नस्थो जलराशिस्थः केन्द्रस्थो वा जलार्पकः ॥ ७२३॥ चेत्कर्कमृगमीनाःस्यु केन्द्रस्थाः करवर्जिताः । पूर्णेन्दुशुक्रदेवेज्यबुधैर्युक्ता बलान्विताः ॥ ७२४॥ वृष्टिरेवविधे योगे वीतरागेण भाषिता । लग्नासुर्ये यदि स्थाने शुक्रन्दुगुरुचन्द्रजाः ॥ ७२५ ॥ एवंयोगे महावृष्टया शुभकालः सतां मतः । कण्टवेऽप्यन्यलग्नेषु शुभलग्नेषु सर्वतः ॥ ७२६ ॥ पादोनवृष्टिरादेश्या क्रूरयुक्तंष्ववर्षणम् । अन्ये च संशयः केन्द्र शुष्कसाम्बुग्रहे युताः ।।७२७ ।।
जलचर राशि लम हो उस में जल स्वभाव के ग्रह हों तो न होता है वा जल स्वभाव क ग्रह जल चर राशि के लम में हों वा उस के अंश में हो तो बहुत जल होता है ।। ७२२ ।।
प्रश्न काल में जलचर राशि लग्न में वा केन्द्र में हो, उस में शुभग्रहों से दृष्ट वा युक्त शुक्लपक्ष क चन्द्रमा स्थित हों तो जल होता है ।।७२।।
यदि कर्क, मकर, मीन, राशि केन्द्रों में हो और उन में पाप ग्रह नहीं हो तो और पूर्ण चन्द्रमा, शुक्र, बृहस्पति, बुध इन शुभ ग्रहों से युक्त हो तथा बल से युक्त हो । ७२४ ॥
इस प्रकार के योग में वर्षा होती है यह मुनियों की उक्ति है यदि लग्न से चतुर्थ स्थान में शुक्र चन्द्रमा, गुरु, बुध हा ता ।। ७२५ ।।
इस प्रकार के योग में बहुत वृष्टि होने के कारण शुभ काल होगा ऐसा सज्जनों का मत है । केन्द्र के और राशि अर्थात सप्तम दशम, में शुभ ग्रहों का योग तथा दृष्टि हो तथा बल युक्त हो तो ।। ७२६ ॥
पादोन वृष्टि कहनी चाहिये और कर ग्रह का योग तथा कोई प्रकार का सम्बन्ध हो तो वृष्टि नहीं होती, और केन्द्रों में यदि जलचर से अन्य राशि हो उस में सजल तथा शुष्क मह बैठा हो तो ॥ ७२७ ॥
1. लमं तुयें for लात्तुयें ms. 2. युक्तेषु for जनेषु A1, Bh.
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( १३६ )
तदार्द्धष्षृष्टि देश्या सौम्यासौम्यप्रमाणतः । सजलराशयो लमे शुभाशुभग्रहैर्युताः ।। ७२८ ।। त्रिभागवृष्टिरादेश्या दृष्टिज्ञान विशारदे : । शुष्कलनगतैः कर वृष्टिरोधः प्रकीर्तितः ॥ ७२९ ।। लग्नतस्तुर्यगे सौरे दुर्भिक्षं च सविग्रहम् । वृष्टिप्रश्ने कुजे मृत विद्यल्लपति चञ्चला || ७३० ॥ घनगर्जनसंयुक्ता भवेद्दृष्टिर्गरीयसी ।
2
लग्ने शुक्रः कुजश्चन्द्रः शनिश्र मिलिता यदि ।। ७३१ ॥ अतिवृष्टिस्तदादेश्या नानाचित्रकरी जने । सवातकरका दृष्टिर्विद्यचलति सर्वतः ।। ७३२ ।। शनिनेन्दोविनाशित्वात् कर कैर्वर्षणं धनम् ।
3
दृष्टियोगे चरे लग्ने वृष्टिर्द्वादश यामकः || ७३३ ॥
शुभ अशुभ के प्रमाण से आधी वृष्टि कहनी चाहिये । जलचर राशि लम में हो और शुभाशुभ ग्रह से युक्त हो तो ।। ७२८ ।।
त्रिभाग वृष्टि वर्षा के जानने वाले पंडितों को कहना चाहिये, और शुष्क राशि लभ हो उस में पाप ग्रह हो तो वर्षा नहीं होती है || ७२६ ॥ लग्न से चतुर्थ स्थान मे शनि हो तो विग्रह के साथ दुर्भिक्ष होता है, और वर्षा के प्रश्न में मंगल जम में हो तो विद्यत बहुत चपलता साथ चलती है || ७३० ॥
और मेघों के बहुत गर्जन शब्दों के साथ वृष्टि होती है, यदि लभ शुक्र, मंगल, चन्द्रमा, शनि ये सब मिल कर स्थित हों तो ||७३१|| उक्त योग में बहुत दृष्टि होती है और करकापात होता है वायु बहुत चलती है। चारों तरफ से विद्युत चलती है जिस से लोक विचित्र होते हैं ।। ७३२ ।।
यदि चन्द्रमा से अष्टम स्थान में शनि हो तो करकापात के साथ वृष्टि होती है। यदि दृष्टि योग में चर लग्न में हो तो बाहर प्रहर तक दृष्टि होती है ।। ७३३ ।
1. सजला for सजल Bl. 2. जनै: for जने Bh. 1. शेन्दो for नेन्दो A. A 1, ०जेन्दु० Bh.
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( १३७ )
चरे लग्ने धने सौम्ये मासतो दृष्टिरुचमा । जललग्ने शुभैर्युक्ते सद्यो वृष्टिर्जलग्रहैः ॥ ७३४ ॥ वृष्टिप्रश्ने स्थिरे मूर्ती द्विर्द्वादशभिर्दिनैर्भवेत् । द्विस्वभावो यदा प्रश्नः षटत्रिंशद्भिर्दिर्नर्जलम् ॥ ७३५ ॥ पृच्छाग्ने चतुर्थस्थौ शनिराहू युतौ पुनः । दुर्भिक्षं च महाघोरं तत्र वर्षे ध्रुवं भवेत् || ७३६ || अत्र वर्षे दिशो भंगः कस्या अपि भविष्यति । कस्यां वा सस्यनिष्पत्तिरिति प्रश्ने कृते सति ॥ ७३७ ॥ चतुर्णामपि केन्द्राणां मध्ये यत्र शुभग्रहः । तस्यां च सस्यनिप्पत्तिः सुभिक्षं च प्रजायते ॥ ७३८ ॥ यस्यां दिशि शनिः पुष्टः करे रेव निरीक्षितः । दिशि तस्यां बुधैर्वाच्यं दुर्भिक्षं त्वीतिसम्भवम् ७३९ ॥
यदि वर्षा प्रश्न में चर लभ हो, धनस्थान में शुभग्रह हो तो एक मा तवृष्टि होती है और जलचर राशि लन हो उसमें शुभ ग्रह से • युक्त जल स्वभाव के ग्रह हों तो सद्यः वृष्टि होती है ।।७३४ ||
वर्षा प्रश्न में पूर्वयोग में यदि स्थिर राशि लग्न हो तो चौबीस दिन में, और द्विःस्वभाव राशि लग्न में हो तो छत्तीस दिन में वृष्टि होती है ।।७३५||
प्रश्न लग्न में चतुर्थ स्थान में यदि शनि, राहु हों तो उस वर्ष में महाघोर दुर्मित होता है ।। ७३६ ।।
इस वर्ष में कब किस दिशा का मंगल होगा और किस दिशा में धान्यादि होगा ऐसा प्रश्न करने पर || ७३७ ॥
ari केन्द्रों में जहां पर शुभ ग्रह हों वहां उस दिशा में धान्य की निष्पत्ति होगी और सुभिक्ष होगा ॥ ७३८ ॥
जिस दिशा में क्रूर ग्रहों से दृष्ट हो कर पुष्ट शनि स्थित हो उस दिशा में ईति होने के कारण दुर्भिक्ष होगा ऐसा फल पंडित कहें। ईति का का लक्षण जैसे संहिता ग्रंथों में लिखा है " अतिवृष्टिरनावृष्टि मूषकाः शलमाः शुकाः ॥ प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडैता ईतयः स्मृताः ॥ ७३६ ॥
1. कस्यां दिशि for कस्या अपि Bh.
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( १३८ )
दिशि यस्यां रविस्तस्यां धान्यनाशोऽतितापतः । यत्रापि मङ्गलः क्रूरः सस्यनाशोपि तापतः ॥ ७४० ।। यस्यां दिशि शुभाः पुष्टाः समस्तबलगर्विताः । निष्पन्ना सा च विज्ञेया समस्ताः सस्यसम्पदः ।। ७४१ ।। अस्मदीये पुनः क्षेत्र वृष्टिः शस्या भविष्यति ।
1
2
एवं प्रश्ने बुधैश्चिन्त्यं लग्नं सव्योमतुर्यकम् ।। ७४२ ।। लग्नस्य सवलत्वे च सस्याधिक्यं वनं स्मृतम् । चतुर्थस्य बलाधिक्ये क्षेत्रं सर्व समृद्धिमत् ।। ७४३ ।। कर्मणः सवलत्वेन शुभग्रहबलात् पुनः ।
3
सफलानि कर्माणि सस्योत्पत्तौ भवन्ति हि ।। ७४४ ॥ चन्द्रादितस्तु महावृष्टिः प्रकीर्तिता ।
5
क्रूरैस्तत्राप्यनावृष्टिवक्तव्या हितमिच्छता ।। ७४५ ।।
जिस दिशा में रवि हो उस दिशा में अत्यन्त ताप होने के कारण धान्य का नाश होता है, और जिस दिशा में मंगल हो उसमें भी अत्यन्त ताप से सस्य का नाश होता है ।। ७४० ॥
जिस दिशा में शुभ ग्रह पुष्ट तथा समस्त बल से युक्त होकर स्थित हो उस दिशा में समस्त सस्य- सम्पत्ति की निष्पत्ति करनी चाहिये ||७४१|| हमारे यहां वर्षा तथा धान्यादि होगा या नहीं इस प्रश्न में पंडित लोग लग्न, चतुर्थ, दशम भावों का विचार करें ॥ ७४२ ॥
लग्न को बलवान् होने से धान्य बहुत कहना चाहिये । चतुर्थ भाव बलवान हो तो सब क्षेत्रों को सस्यादि से समृद्ध कहना चाहिये ||७४३ ||
कर्मस्थान के बल से तथा शुभ ग्रहों के बल से क्षेत्रों में सुन्दर फल तथा कर्मों से युक्त सस्योत्पत्ति होती है ।। ७४४ ॥
चन्द्रमा शुक्र यदि चतुर्थ स्थान में हों तो महावृष्टि होती है । वहीं पर यदि पाप ग्रह हो तो अनावृष्टि होती है । हित की इच्छा करने वाले ऐसा कहें । ७४५ ॥
1. भव्या for शस्या A., Bh. 2. व्योमचतुर्थकम् Bh. 3. बलात्मके for बलात्पुन: A, A 1, Bh. 4. चतुर्थचन्द्रशुक्राद्यैः for चन्द्रशुक्रादिसस्तुयें A1. D. ०मिच्छताम् for oमिच्छता A.
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( १३६ ) मूषकाः शलभा पृष्टौ तुलासिंहपृषोदये । मृगे मेषालिकुम्भेषु वायुवह्नी कादयः ।। ७४६॥ युग्मे मीनधनुःस्त्रीषु शलभाः कृमिकर्तराः । काख्या जलशीतेन रसौषः स्वामिदर्शनात् ।। ७४७ ॥ शालिजतैलगोधूमतिलाढकीमकुष्टकाः ।। मुद्गचणकमाषाश्च सकांगुः कोद्रवस्तथा ।। ७४८ ॥ चदुला इति चान्नानि द्वादशांशक्रमात्पुनः । लग्नादेकैकलग्नेषु समसंख्यांशकैयुतः ।। ७४९ ॥ स्वीयेशदृष्टयवस्थाभ्यां द्वादशान्नोद्भवः स्फुटः ।
धान्योत्पत्त्यनुमानेन बुधर्वाच्यं शुभाशुभम् ॥ ७५० ॥ ___ यदि तुल, सिंह, वृष. लग्न हो तो मूपक तथा शलभ की वृष्टि होती है, और मकर, मेप, वृश्चिक, कुम्भ, इन लग्नों में वायु, अग्नि, वृक, आदि को वर्षा होती है ॥ ७४६ ।
यदि मिथुन, मीन, धनु, कन्या, लग्न हो तो शलभ तथा कृमि इत्यादिक वृष्टि होती है । कर्क लग्न हो और वह अपने स्वामी से दृष्ट हो तो जल शीत से रस बहुत होते हैं ।। ७४७ ।।
चावल तेल गोधूम, सिल, आढ़की, मकुष्टक, मुद्र, चणक, माष कंगु. कोद्रव, नन्दुल, प्रथमाहि बारह द्वादशांशों को क्रम से लम गत होने से उसी क्रम से इन अन्नों की निष्पत्ति होती है और लग्न से एक एक राशि में लग्न संख्यक अंश-पर उसके स्वामी के योग तथा दृष्टि पर स्थित हों अयं की उत्पत्ति होती है. यह स्पष्ट है, और धान्योत्पत्ति के अनुमान से पंडित लोग शुभाशुभ फल कह ।। ७४८-७५० ।।
1. सरुकस्वाम्य० for रसौघः स्वामि० A. रसौषः स्वाभ्यः Bh. 2. शालिजोनल for शालिगतेल A. शालयो तिल Bh• 3. सकंगु Rh. 4. तंदुला : चटुला Bh. • वदेत for पुन: A, AL
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( १४० )
विलग्नादीतयश्विन्त्या मण्डलैर्वृ ष्टिनिश्चयः ।
1
येन विज्ञातमात्रेण ज्ञायतेऽर्थः परिस्फुटम् ॥ ७५१ ॥ धनिष्ठारोहिणी ज्येष्ठानुराधा श्रवणं तथा ।
2
अभीचिरुत्तराषाढा भूमिमण्डलमुत्तमम् ।। ७५२ ।। भरणी कृत्तिका पुप्यो मघा च पूर्वफाल्गुनी । पूर्व भद्रपदा चेति तेजोऽभिख्यं विशाखया ।। ७५३ ॥ उत्तराफाल्गुनीहस्तचित्रा स्वाती पनर्वसु ।
3
अश्विनी च मृगचेति वातयन्त्रं चतुष्टयम् ॥ ७५४ ॥ सप्तरात्रान्महीतत्त्वं फलत्येव शुभं फलम् । जलतत्त्वं च मासेन शुभसौख्यफलप्रदम् ।। ७५५ ॥ अग्न्याख्यमष्टभिर्मासंर्मासयुग्मेन मारुतः ।
अशुभं द्वौ फलं दत्ते वायुवी महीभुजाम् || ७५६ ||
लग्न से ईति का विचार करना चाहिये और मण्डल से वृष्टि का निश्चय करें जिसको जानते ही सब वस्तु का ज्ञान हो जाता है ॥ ७५१ ॥ धनिष्ठा, रोहिणी, ज्येष्ठा, अनुराधा, श्रवण, और अभिजित्, उत्तराषाढ़ा, ये भूमिमण्डल होते हैं ।। ७५२ ॥ भरणी, कृत्तिका, पुष्य, मघा पूर्वफल्गुनी, पूर्वभाद्र, विशाखा, ये
तेज मण्डल कहलातें हैं ।। ७५३ ।।
पूर्वाषाढ़ा, अश्लेषा, मूल, आर्द्रा, रेवती, उत्तराभाद्र ये जलसंज्ञक है। उत्तरा फल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, पुनर्वसु, अश्विनी, मृगशिरा, ये चौथा वातमण्डल है ।। ७५४ ॥
पृथ्वी तत्व सात राशि में शुभ फल देता है । जल तत्व एक मास में शुभ, सौख्य फल को देता है ।। ७५५ ।।
अमित, आठ मास में, और वायुतत्व दो मास में ये दोनों अशुभ फल देते हैं ।। ७५६ ॥
1. विज्ञान for विज्ञात A. 2. After this verse At adds पूर्वाषाढा तथाश्लेषा मूलमार्द्रा च रेवती । उत्तरभद्रपर्यायसंज्ञ शतभिषक् समम् ७५३ 3. चतुर्थकम् Bh.
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( १४१ )
उपभुङ्क्ते नृपः सौख्यं हृष्टा भूमिर्न चेतयः । निर्भया मुदिता लोका उत्पाते भूमिमण्डले ।। ७५७ ।। बहुदुग्धयुता गावो बहुपुष्पफला द्रुमाः । आरोग्यं जायते भूमावुत्पाते जलतत्वजे ।। ७५८ ।। धनक्षयो भयं वोरं पीडारोगोऽल्पनीरता ।
अग्न्याह मण्डलोत्पाते फलदुग्धादितुच्छता ।। ७५९ ।। आग्नेये पीड्यते याम्या वायव्ये पुनरुत्तरा । वारुणे पश्चिमा सौख्यं पूर्वा माहेन्द्रमण्डले || ७६० ॥ मीनसंक्रान्तिकाले च पौष्ण्यभोग्ये दिने यदि ।
यत्र विद्युत् शुभो वातस्तत्र गर्भो ध्रुवो मतः ॥ ७६१ || मेष संक्रान्तिकाला नवस्वपि दिनेष्वपि । यत्राभ्रं वातविद्यत्स्याद्देवेन्द्रस्तत्र वर्षति || ७६२ ।।
यदि भूमि महल में उत्पात हो तो राजा प्रसन्न भूमि को सौख्य पूर्वक उपभोग करते हैं और ईति का उपद्रव नहीं होता है और लोक सब प्रसन्न और निर्भय रहते हैं ।। ७५७ ||
जल तत्व में उत्पात होने से गौ बहुत दुग्धवती होती है और वृक्ष बहुत फल पुष्प से संयुक्त होते हैं। आरोग्य पूर्वक सत्र रहते हैं ।। ७५८ ॥ मण्डल में उत्पात हो तो धनक्षय, भय, बहुत पीड़ा, रोग, स्वल्प जल और फल, दुग्धादि में अल्पता होती है ।। ७५६ ॥
आग्नेय मण्डल में दक्षिण दिशा में पीड़ा होती है, वायव्य मण्डल में उत्तर दिशा में पीड़ा होती है और जल मण्डल मे पश्चिम दिशा में सौख्य होता है और माहेन्द्र मण्डल में पूर्व दिशा में सौख्य होता है ।। ६६० ।।
संक्रांति
में उस दिन में रेवती नक्षत्र हो, उस में जहां पर विद्यत और शुभ वायु बहे तो वहां निश्चय गर्भ समझना चाहिये ||७६१ || मेष संक्रांति काल से नौ दिनों में जहां पर, बादल, वायु, विद्यत् हो वहां पर इन्द्र वर्षा करते हैं ।। ७६२ ।।
1. फलं पुष्पादि A1.
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( १४२ )
किंवा नवसु यामेषु विद्युद्वाताभ्रदर्शनम् ।
यस्यां दिशि च सम्पूर्णं तद्दिने तत्र वर्षति ॥ ७६३ ।। चैत्रमासे मेष संक्रान्तिदिने यामविद्भिरपि कालनिष्पत्तिज्ञानम् । आषाढीतः कालनिष्पत्तज्ञानं कथ्यते ॥
आषाढ्या घटिकापष्ट्या मासद्वादश निर्णयः ||
द्वादश पञ्च का षष्टिरित्येवं क्रममादिशेत् ॥ ७६४ ॥
2
पञ्चनाडी भवेन्मासे मासि मासि फलं पृथक | यत्र नाड्यां शुभ बातो विद्युदआणि गर्जनम् || ७६५ ।।
तत्र मासे भवेद्दृष्टिरिद कालनिरीक्षणम् ॥ पूर्णमास्यां विनष्टायां विनष्टं वर्षमादिशेत् ।। ७६६ ।।
अथवा मेष संक्राति काल से नौ प्रहरों में जिस दिशा में विद्यत्, वायु, बादल, सम्पूर्ण दिखाई दें तो उस दिशा में उस दिन वर्षा होती है ।। ७६३ ।।
ऐसा चैत्र मास मे मेत्र संकांति दिन बाम को भी जानने वाले काल निष्पत्ति का ज्ञान करें ।
अब आषाढ़ी पूर्णिमा पर से कालनिष्पत्ति ज्ञान को कहते हैं। ! आषाढ़ पूर्णिमा के साठ घटी से द्वादश मासों का निर्णय करें । अब साठ घटी को द्वादश भाग करने पर पांच पांच घटी का एक भाग हुआ इसी के क्रम से फल का आदेश करें । ७६४ ॥
पांच, पांच, नाड़ी का एक एक मास हुआ इस से मास मास का फल पृथक होता है, जिस मास की नाड़ी में सुन्दर वायु, विद्युत्, बादल, तथा उसका गर्जन हो । ७६५ ।।
उस मास में वर्ण होगी यही काल का निरीक्षणा हैं । पूर्णिमा यदि नष्ट हो जाय अर्थात पूर्णिमा में बादल वायु इत्यादिक नहीं हो तो उस वर्ष को नष्ट ही समझना चाहिये || ७६६ ॥
1. वाताभ्रादि शुभं बहु for विद्यद्वाताभ्रदर्शनम् A. 2. भवेन्मासो for भवेन्मासे A.
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(१४३) चलत्यङ्गारके वृष्टिरुदये च बृहस्पती । शुक्रस्यास्तमने वृष्टिवक्रं याते शनैश्चरे ।। ७६७ ॥ उदयास्तमने चारे वक्र याते शनैश्चरे। . जलनाडिगताः खेटाः महावृष्टिकरा मताः ॥ ७६८ ।। भृगुतः सप्तमश्चन्द्रः शुभदृष्टय ष्टिदः । त्रिकोणस्मरगो वापि शनिः प्राकृषि कीर्तितः ॥ ७६९ ॥ त्रिपूर्व मूलपैयग्निरग्रयोगाः षडेव हि । अश्विनीयाम्यकर्णाश्च धनिष्ठा मैत्र रेवती ॥ ७७० ॥ पुप्यो मृगकरश्चित्रा पृष्टयोगा दश स्मृताः । एतानि दुरतिक्रम्य भुने वारे सदैव हि ॥ ७७१ ॥
मंगल के संचार में वर्षा होती है. और बृहस्पति के उदय होने पर तथा शुक्र के अस्त हाने से, तथा शनि को वक्री होने पर वर्षा होतो है ।। ७६७ ॥
__ इस प्रकार ग्रहों के उदय. अस्त, चार तथा शनि के वक्री होने पर जो वर्षा का योग कहा गया है उस में यदि आपाढी में नाडी के बल से जो वर्षा का योग कहा गया है उन दोनों का यदि एक काल में योग हो तो महावृष्टि होती है ।। ७६८ ।।
शुक्र से सप्तम में चन्द्रमा हो और शुभ ग्रहों से देखा जाय तो वर्षा होती है वा, नवम, पञ्चम, या, सप्तम, में शनि हो तो वर्षा होती है।। ७६६ ।।
पूर्वफल्गुनी, पूर्वाषाढ़, पूर्वभाद्र, मूल, मघा, कृत्तिका, ये अनि योग है, अश्विनी, भरणी, श्रवगा, धनिष्ठा, अनुराधा, रेवती, पुष्य, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, ये दश नक्षत्र पृष्ठ योग है, इन नक्षत्रों को चन्द्रमा दिन में सर्वदा क्रम से भोग करते हैं ।। ७७०, ७७१ ।।
__ 1 शनीश्वरे Bh. 2. वारे for चारे ms. चरे Bh. 3. शन: for शनिः A, Bh. 4. मैत्र्य for मंत्र A. 5. वा for वारे Bh.
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(१४४) आश्लेषाश्विनीज्येष्ठाभिजिषष्ठं च वारुणम् । एतानि समयोगानि त्वेककालानि चेन्दुना ।। ७७२ ॥ पूर्वाषाढात्समारम्य ज्येष्ठा राकातिथेः परम् । कृष्णपक्षाधकाले चेद् वर्षत्युभययोगिषु ।। ७७३॥ तदा त्रिकालधान्यानामुत्पत्तिस्तु धना भवेत् ।। मासचतुष्टयं वृष्टितिव्या वृष्टिवेदिभिः ।। ७७४ ।। अग्न्यायोगिषु धिष्ण्येषु परोधान्यं धनं स्मृतम् । पृष्टयोगिषु धृष्टौ तु स्वल्पधान्यं नवा पुनः ७७५ ॥ युज्यमानः शुभैश्चन्द्रः सुभिक्षं कुरुते धनम् । चन्द्रयोगानुमानेन धान्यवृष्टी धनाधने । ७७६ ।।
इति दशमभावे वृष्टिप्रकरणं द्वितीयम् ।
और शेष आर्द्रा, अश्लेपा, रोहिणी, पुनर्वस , तीनों उत्तर, स्वाती, विशाखा, अभिजित, शतभिषा, ज्येष्ठा, ये नक्षत्र समयोग के है ।। ७७२ ।।
___ ज्येष्ठ, पूर्णिमा के बाद पूर्वाषाढ़ा से लेकर कृष्ण पक्ष के प्रतिपद् में उभय योग में यदि वर्षा हो ।। ७७३ ।।
तो ग्रीष्म, वर्षा, शरद, तीनों ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले धान्यों की उत्पत्ति होती है और चार माम तक वर्षा भी होती है ।। ७७४ ।।
अग्र योग के नक्षत्र में वर्षा होने से आगे बहुत धान्य होते हैं. और पृष्ठ योग में स्वल्प धान्य होता है वा नहीं भी होता ।। ७७५ ।।
चन्द्रमा शुभ ग्रह से युक्त हो तो बहुत सुमित होता है, इस प्रकार चन्द्रमा के योग के अनुमान से धान्य, तथा वर्षा का भी फलादेश
इति दशमभावे वृष्टिप्रकरणं द्वितीयम् ॥ 1. अ for अग्न्या Bh. 2. पृष्ठि for पृष्ट Bh.
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(११)
अर्घकाण्डं प्रवक्ष्यामि लग्नान् गुरूपदेशतः । यथादृष्टं यथाभूतमुफ्काराय धीमताम् ॥ ७७७ ॥ क्रेता लमपतिज्ञेयो विक्रेतायपतिः स्मृतः । गृहाम्यहमिदं वस्तु सति प्रश्ने ह्यमूशि ॥ ७७८ ।। बलाढ्यं प्रश्नलग्नं चेद् गृखते तत् क्रयाणकम् । तस्मात्क्रयाणकाल्लामः सतां भवति संमतः ॥ ७७९ ॥ विक्रीणाम्यमुकं वस्तु प्रश्ने एवं विधे सति । आयस्थाने बलवति विक्रेतव्यं क्रयाणकम् ।। ७८० ।। विक्रेता लग्नपो ज्ञेयो ग्राहकस्त्वस्तभावपः । यो यस्य स्थानगः सोऽर्थी स दृगयोगे तयोः शुभम् ।। ७८१ लग्नेशः स्वोच्चगेहादौ विक्रेना द्रविणेश्वरः । एवंविध तु जायेशे ग्राहकोऽपि धनेश्वरः ॥ ७८२ ॥
अब लग्न सं गुरु के उपदेश के अनुसार बुद्धिमानों के उपकार के लिये जैसा मैं ने देखा, तथा अनुभव किया वैसे ही अर्घकाण्ड को मैं कहता हूँ॥ ७७७ ॥
ऐसे इस वस्तु को खरीदूंगा इस प्रश्न मे लग्नेश को केवा, तथा मायेश को विक्रेता समझ कर विचार करें ।। ७७८॥
यदि प्रश्न लग्न बलवान् हो उस समय में जो वस्तु खरीद करें तो उस से अवश्य ही लाभ होगा ऐसा सज्जनों का मत है ।। ७७६ ||
इस वस्तु को बेचूंगा इम प्रश्न में यदि लाभेश, बलवान हो तो उसको बेच लेवें ।। ७८०॥
लग्नेश को विक्रेता सप्तमेश को ग्रह का समझ कर ये जिसके भाव में हों वह याचक होता है और दृष्टि योग होने से दोनों को शुम होता हे ।। ७८१॥
लमेश यदि अपने उच्चादि स्थित हो तो विक्रता बहुत धनी होता है, इस प्रकार सप्तमेश यदि उच्चादि में हो तो ग्राहक धनेश्वर होता है |७८२||
$ लग्नाद् for लग्नान् Bh. 1. जायेशो for जायेशे A. AL
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समर्थ वा मह वा कदा धान्यं भविष्यति । इति प्रश्ने शुभेदृष्टे शुभयुक्त बलाधिके ।। ७८३ ।। समय सबले लग्ने महघमवले पुनः । क्रेता चेत्स्वगृहं पुष्टं पश्यति सबलं शुभः ।। ७८४॥ तदा धान्यं समर्घ स्याच्छुभकालः प्रवर्तते । धनस्थानेश्वरे दुष्टे महर्ष स्यात्क्रणादिकम् ।।७८५।। सरले लामनाथेऽपि महर्ष स्यात्कणादिकम् । अबले तत्र लाभश महर्घ तु वदेत्सुधीः ।।७८६।। येन ग्रहेण लग्नस्य शुभत्वं प्रतिपद्यते । क्रमाद् ग्रहः समंचार्यो धर्मादिसर्वगशिपु ॥६८७|| यावाशी शुभः स स्यात्तावन्मासान् समर्थना । यावत्कालं भवेटस्तावत्कालं महर्घता ॥७८८।।
कब धान्य, समर्थ, वा महर्घ होगा इस प्रश्न में लग्न में शुभ ग्रहों का योग तथा दृष्टि हो और बलवान् हो तो ममर्थ होता है ।। ७८३ ।।
मबल लग्न में समर्थ होता है और निर्बला लग्न में महर्घ होता है। यदि केना अपने समल तथा पुष्ट घर को देग्वे तो शुभ होता है ||४||
और धान्य समर्थ तथा शुभ काल होता है, यदि धनेश दुष्ट हो तो कगादिक महर्घ होता हे ॥ ७८५ ॥
- लाभेश के मबल रहने पर भी कणादिक महर्घ होता है और लाभेश निर्बल हो तो भी महर्घ होता है ।। ७८६ ॥
जिन ग्रहों के योग से लग्न को शुभ कहा गया है उन ग्रहों को क्रम से धर्मादि भावों में संचारित करके विचार करें ।। ७८७ ।।
वह ह जितने राशिपर्यन्त शुभ हो उतने मासों तक समर्घ होता है और जितने काल तक दुष्ट हों उतने कालों तक महर्षना होती है || ७८८॥
1. समर्थ for महर्घ A.
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( १४७ )
ज्ञातव्या दिवमर्मामा मास्तरस्य हि । समता वस्तुनो हि प्रतिपाद्या विचक्षणैः ॥ ७८९ ॥ प्रकारान्तरेणार्घ रहस्य माहशुक्लपक्षे द्वितीयायां भानोर्वामोदयः शशी । तस्मिन् मासे समस्यान्महघं दक्षिणोदये ॥७९० वृक्षेषु जायन्ते यदि द्वादश संक्रमाः .
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तत्र वर्षे समग्रेऽपि शुभः कालो भवेद् ध्रुवम् ।।७९१।। अमावास्यां यदा चन्द्रोऽप्युदयास्तं करोति चेत् । मह तदा मासे भवेन्द्रनं समा ॥७९२|| Treat geet राशिगामिनि सद्धले । मासास्त्रयोदश तदा समघं जायते भुवि ॥ ७९३||
दिन से मास जानें अर्थात् जितने दिनों तक वह ग्रह शुभ अशुभ रहे क्रम में उतने मान पर्यन्त वस्तुओं को समर्ध और मह कहना चाहिये ॥ ७८ ॥
प्रकारान्तर से सम और मह को कहते हैं।
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शुक्ल पक्ष की द्वितीया में सूर्य से चन्द्रमा का वामोदय हो तो उस मास में समर्थ होता है । दक्षिणोदय में महर्घ होता है ।। ७६० ।।
बृहत्संज्ञक अर्थात् रोहिणी, उत्तरफल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्र, विशाखा, पुनर्वसु नक्षत्रों में प्रारह राशियों की सूर्य की संक्रांति हो तो सम्पूर्ण वर्ष शुभ काल होता है || ७६१ ॥
अमावास्या में बृहन्नक्षत्र में यदि चन्द्रमा का उदय अस्त हो तो उस मास में समर्थ होना है ॥ ७६२ ॥
बृहत्संज्ञक नत्तत्र मे बृहस्पति किसी राशि का संचार करें तो पृथ्वी में तेरह मास पर्यन्त समर्थ होता है ॥ ७६३ ।।
1. A. adds ofter this verse the following: बृहत्सुधान्यं कुरुते स जघन्यं धिष्ण्याभ्युदिते महर्धम् । समेषु धिष्ण्येषु समं हिमाशोर्वदन्त्यसन्दिग्धमिदं महान्तः ॥ 2 The verse is missing in Bh•
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(१४८) ऊर्ध्वसंक्रमणे मित्रे शुमयुक्ते च पूर्व कात् । त्रिवारे तुर्यगे धिष्ण्ये बृहक्षेसंक्रमः ॥७९४॥ यदा भवेत्तदा वाच्यं सुभिक्षं सततं क्षितौ । रात्रौ सुप्त च सरे पापविद्धक्षितेऽपि वा ॥७९५॥ पूर्वात्तृतीयपञ्चक्षुलध्वः यदि संक्रमः । तदा भवेन्महल्लोके दुर्भिक्षं कष्टकारकम् ॥७९६।। मध्यक्षे मिश्रसंयुक्तेऽप्युपविष्ट च संक्रमः । अर्घसाम्यं तदा वाच्यं सर्यसंक्रान्तिलक्षणैः ॥७९७|| यदा धनुषि मार्तण्डः संक्रामति तदा विधुः । विलोक्यते हो किंमध्ये किंजघन्यके ॥७९८॥
अनुराधा, तथा तोनों पूर्वा से तृतीय, चतुर्थ, तथा बृहत संज्ञक नक्षत्र में शुभग्रह से युक्त रवि यदि ऊर्ध्व-संज्ञक संक्रान्ति करता हो ॥ ७६४॥
तो पृथ्वी पर सर्वदा सुभिक्ष होता है और मुप्त अर्थात तैतिल, नाग, चतुष्पद करणों में रवि के संक्रान्ति होने से सुप्त संक्रान्ति होती है जैसे नारद का वचन है
___ "निविष्टो वणिजे विष्टयां बालवे च बवे गरे । कौलवं शकुनो भानु: किस्तुन्ने चोर्ध्व संस्थित । चतुष्पातैतिले नागे सुप्तः क्रान्ति करोति सः । धान्यावृष्टिषु समं श्रेष्ठं हीनं भवेत्क्रमात् ॥"
रात्रि में पाप ग्रह से युक्त वा विद्ध वा दृष्ट पूर्वा से तृतीय, पत्र (हस्त. स्वाती, अभिजित. धनिष्ठा, रेवती, भरणी, ) और लध्वः (अश्लेषा, शतभिषा, आर्द्रा, स्वाती, ज्येष्ठा, भरणी.) इन नक्षत्रों में रवि की सुप्त संक्रान्ति हो तो महर्लोक में दुर्भिक्ष तथा कष्ट कारक होता है। प्रसङ्ग से वृहत सम जघन्य नक्षत्रों की संज्ञा संक्रांति वश से जैसे नारद का वचन है "तारा जघन्याः सान्द्रा वातान्तकतोयपाः । ध्रुवादिनि द्विदेवत्यं वृहत्तारा: पग: ममा: ।" इति ।। ७६५ ॥ ७६६ ॥
मध्यम अर्थात् सम संज्ञक तथा विशाखा, कृत्तिका इन नक्षत्रों में रवि की संक्रान्ति हो तो संक्रान्ति के लक्षण से अर्घ साम्य कहना पाहिये ॥ ७ ॥
धनुराशि की संक्रान्ति में चन्द्रमा यदि बृहन्नक्षत्र, या मध्य नक्षत्र, या जघन्य नक्षत्र में हो ॥ ६ ॥
1. हट्रिम्पये for वृहह A.
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(१४६) उत्तमः समर्ष स्यान्मध्यमे समता मता । जघन्येषु महर्घ स्यादेवं संक्रमधिष्ण्यतः ॥७९९॥ तिथिः षष्टिघटीमानात् त्रिभागेन विभाजिता । आधभागे ततो नाड्यः पञ्चदश प्रकीर्तिताः ॥८००॥ त्रिंशबाड्यो द्वितीयेऽपि पञ्चदश तृतीयके । एवं चन्द्रस्य धिष्ण्यं तु ततस्त्रेधा विभज्यते ॥८०१॥ बृहद्धिष्ण्यस्य चाद्योंशश्चन्द्रतिथ्योरथांशकः । आयो भवेत्रिधा तुल्यस्ततः सूर्यः शुभेक्षितः ।।८०२॥ धनुषि याति संपुष्टस्तूत्तमा तदा भवेत् । यदा च गुरुधिष्ण्यस्य कंटकः स्याद् द्वितीयकः ॥८०२॥
बृहन्नक्षत्र में हो तो समर्घ होता है । मध्यम में हो तो-समता, जघन्य में महर्घ होता है ऐसा संक्रान्ति के नक्षत्र-से फल का विचार करें ॥ ७६६ ॥
तिथि के साठ घटी मान को तीन विभाग करने पर पहले भाग में पन्द्रह घटी कही है ॥८००||
और द्वितीय भाग में तीस घटी, तृतीय भाग मे पन्द्रह पटी, इसी तरह चन्द्र नक्षत्र के साठ घटी मान के भी तीन भाग करें ।।८०१॥
बृहत संज्ञक नक्षत्र के तथा चन्द्र नक्षत्र के पहले घटी विभाग में सूर्य की संक्रान्ति हो और शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो अर्घ समान होता है ।।८०२
यदि बलवान सूर्य बृहत संज्ञक नक्षत्र के द्वितीय घटी विभाग में घनु राशि में जाय तो उत्तम अर्घ होता है ।।८०३।।
___ 1. सुभिक्षं for समर्घ A, A1 2. Bh adds before this verse the following: 3. कण्टकस्य for कण्टक:स्याद् A.
वृहद्रक्षाद्यमागश्च प्रातश्चन्द्रतिथिरपि। तदोत्तमजघन्यायपाकश्रीशास्त्रसम्मतः ॥ But this verse is repeated, see V. 806.
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( १५०) चन्द्रधिष्ण्ये तिथेश्चापि कण्टकोऽथ द्वितीयकः । तदाप्युत्तम एवार्थो विज्ञातव्यो महर्दिकः ॥८०४॥ यदा च गुरुधिष्ण्यस्य नृतीयः कण्टको भवेत् । चन्द्रधिष्ण्यतिथेचापि तृतीयश्चोत्तमोत्तमः ॥८०५॥ बृहदृक्षाद्यभागश्चेत् चन्द्रतियोद्वितीयकः । तदाऽपि चोत्तमार्थोऽस्ति नक्षत्रस्य स्वभावतः ।।८०६।। वृहदृक्षाद्यभागश्चेत् प्रान्तश्चन्द्र तिथेरपि । तदोत्तमजघन्यापाकः श्रीशास्त्रसंमतः ।।८०७।। गुर्वक्षमध्यमो भागश्चन्द्रतिथ्योरथान्त्यगः । तदा मध्यो भवेदों गुरुनक्षत्रवैभवात् ।।८०८॥ एवं चतिथिभ्यां च महदृक्षं विचाक्तिम् । त्रिशन्महत के ऽप्येवमाद्यमध्यान्तकल्पना ।।८०९|| - यदि चन्, नक्षत्र तथा निधि की भी द्वितीय घटी विभाग में संक्रान्ति हो तो भी उत्तम अर्थ होता है ।।८०४॥
यदि बृहत संज्ञक नक्षत्र तथा तिथि की भी तृतीय घटी विभाग में संक्रान्ति हो तो अर्घ उत्तमोनम होता है ।।८०५॥
बृहनक्षत्रों का प्रथम भाग चन्द्र, तिथि, का द्वितीय भाग हों तो भो नक्षत्र के स्वभाव से उत्तमार्घ होता हे ।।८०६।।
वृहनक्षत्र का श्राद्य भाग, और चन्द्र तिथि का अन्त भाग हो तो शास्त्र संमत से उत्तमाधम अर्घ पाक होता है।०७॥
वृदनक्षत्र का मध्य भाग, और चन्द्र, तिथि का अन्त्य भाग हो तो वृहन्नक्षत्र के प्रभाव से मध्यम अर्घ होता है।
इस प्रकार चन्द्रमा, तिथि पर से बृहन्नक्षत्र का विचार किया, इसी तरह तीस मुहूर्त पर से भी श्राद्य मध्य अन्त्य को कल्पना करें ।।०६।
1. महर्षिभिः for महर्टिक: A. 2. मोहूर्तिके for मुहूर्त के A.
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( १५१ ) मध्यक्षस्याधभागश्चेचन्द्रतिथ्योरथादिमः । तदा मध्योत्तमार्थोऽपि धान्यस्य विदुषां मतः ॥८१०॥ मध्यर्थी मध्यभागश्चेत् चन्दतिथ्योश्च मध्यमः । तदा मध्योत्तमाघः स्यादन्तिमेऽपि च मध्यमः ८११॥ मध्यक्षस्यापि मध्यश्चेत् चन्द्रतिथ्योरथादिमः । तदा मध्यम एवार्थो द्वयोमध्येऽपि मध्यमः ॥१२॥ एवं तिथिचन्द्रेण लवळविचारोऽपि वाच्यः । तथा च लवक्षस्याद्यभागश्चेत् चन्द्रतिथ्योरधादिमः । तदा जघन्योत्तमा? लघ्वक्षमध्यमो यदि ॥७१३॥ चन्द्रतिथ्योश्च मध्येऽस्ति तदा जघन्यमध्यमः। लघ्वक्षस्यान्तभागश्चेत् चन्द्र तिश्योरथान्त्यमः ॥८१४
यदि मध्यनक्षत्र का पहला भाग चन्द्र, तिथि का भी पहला भाग हो तो धान्य का मध्यम, उत्तम अर्घ होता है ।। ८१०॥
मध्य नक्षत्र का मध्यभाग चन्द्र, तिथि, का मध्यभाग होतो मध्यम, उत्तम अघे धान्य का होता है और अन्तिम भाग में भी मध्यम होता है ॥८११॥
मध्यम नक्षत्र का मध्यभाग चन्द्र तिथि का आदिमाग हो तो मध्यम अर्घ समझना चाहिये। दोनों के मध्य में होने पर भी मध्यम होता है ॥८१२॥
इस प्रकार लघुनक्षत्र चन्द्र तिथि पर से विचार कहते हैं। लघुनक्षत्र का आद्य भाग तथा चन्द्र तिथि का भी आद्य भाग हो तो अघमोत्तम अर्घ होता है यदि लध्व मध्यम में हो तो भी वही होता है ।। ८१३ ।।
लघु नक्षत्र का मध्यभाग तथा चन्द्र तिथि का भी मध्य भागहो तो इस तरह लघु नक्षत्र का अन्त्य भाग तथा चन्द्र तिथि का भी अन्त्य भाग होता है ॥८१४ । 1 मध्य for मध्यों Bh. 2. लब्धo for लध्वः Bh. 3. मध्यास्ति for मध्येऽस्ति Bh. 4. रथान्तिमः for रथान्त्यगः for A.
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( १५२ )
तदा दुर्भिक्षमादेश्यं नक्षत्रस्य प्रभावतः । विकल्पैः सकलैरेवं सुभिक्षं पृच्छतां वदेत् ||८१५|| शुक्रो बुधकुजौ सौरिर्बृहद्धिष्ण्ये च राशिगाः । तदा जने समघं स्यान्मध्यं मध्येऽधमेऽधमम् ||८१६ ॥ पनसो विशाखायां रोहिण्यामुचरात्रये । नवेन्द्रः कुरुते प्रोद्यत् दुर्भिक्षं दक्षिणोन्नतः ||८१७ || समो नवेन्दुरुद्गच्छन् समध कुरुतेऽशनम् । नवेन्दुः कुरुते प्रोद्यत्सुभिक्षमुत्तरोन्नतः ||८१८ ॥ स्वात्यश्लेषा भरण्यार्द्रा ज्येष्ठा शतभिषक्सुच । पंचदशसु शेषेषु नक्षत्रेषु च सर्वदा ||८१९ || पुनर्वसू विशाखा च रोहिणी चोत्तरात्रयम् । एतानि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि संक्रमे ||२०|| वेदार्कों याति मेपादौ विधौ सप्तमराशिगे । किराम्भोधिमासेष्वर्थः क्रमाद् भवेत् ||८२१ ॥
1
तो नक्षत्र के प्रभाव से दुर्भिक्ष कहना चाहिये इस के विकल्प में सुभिक्ष कहना चाहिये ॥ ८१५ ॥
शुक्र, बुध, मंगल, शनि यदि बृहन्नक्षत्र के राशि में हों तो समर्थ होता है । मध्यम में मध्यम तथा अधम में अधम होता है ॥ ८१६ ॥ पुनर्वसु, विशाखा, रोहिणी, उत्तर फल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तरभाद्र, इन नक्षत्रों में चन्द्रमा का दक्षिणोन्नत शृङ्ग उदित हो तो दुर्भिक्ष होता हे ॥ ८१७ ।।
पूर्व के नक्षत्रों में यदि चन्द्रमा का सब शृङ्ग उदित हो तो समर्थ होता है. उत्तरोन्नत शृङ्ग उदित हो तो सुभिक्ष होता है ।। ८१८ ॥
स्वाती, अश्लेषा, भरणी, आर्द्रा, ज्येष्ठा, शतभिषा, इन, नक्षत्रों में संक्रान्ति होने से पन्द्रह मुहूर्त होते हैं, पुनर्वसु, विशाखा, उत्तरात्रय, इन नक्षत्रों में संक्रान्ति होने से ४५ मुहूर्त होता है और शेष नक्षत्रों में तीस ३० मुहूत होता है ॥ ८१६ ॥ ८२० ॥
यदि सूर्य के मेष संक्रम काल में चन्द्रमा सप्तम राशि में हो तो क्रम से तीन, दो, एक, पांच, चार, मासों में जाकर अर्ध होता है ॥ ८२१||
1. वेद को for वेदार्थों A चेदर्को Bh. 2. त्रिंशद्येकपट्ारमो for त्रिशोकशराम्भोधि A. A
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( १५३ )
आर्द्रा च भरणी स्वातिरश्लेषा शततारका । ज्येष्ठा च रविसंक्रान्तौ पञ्चदश मुर्तिका ||८२२|| धनिष्ठा रेवती पुष्योऽनुराधा कृत्तिकाश्विनी । हस्तः पूर्वात्रयं चित्रा श्रुतिर्मूलं मृगो मघा || ८२३|| एतानि पञ्चदश च नक्षत्राणि मनीषिभिः । त्रिंशन्मुहूर्त कानीति प्रोक्तानि रविसंक्रमे ||८२४|| इत्यायेऽर्घकाण्डम् ।
अथ लाभप्रकरण एवार्धकाण्डं निरूप्य स्त्रीलाभप्रकरणम् । मूर्ती सुरे ज्येऽस्तगते शशाङ्क े बुधेऽथवा स्वर्क्षगते तु शुक्रे । संप्राप्यते व्योमगते च सूर्ये कन्या नरैः पार्थिववल्लभव ||८२५ ।। कर्कोदये सप्तमगे शशाङ्क चतुष्टये पापविवर्जिते च । अवाप्यते भूरिधनादियुक्ता नयप्रधाना विजितारिपक्षा ॥८२६ ॥ आयस्थिते तीव्रकरे स्वतुंगे मृता शशाङ्क परिपूर्ण देहे ।
आर्द्रा, भरणी, स्वाती, अश्लेषा, शतभिषा, ज्येष्ठा, इन नक्षत्रों में संक्रान्ति होने मे पन्द्रह मुहूर्त होता है ||२२||
धनिष्ठा, रेवती, पुष्य, अनुराधा, कृत्तिका, अश्विनी, हस्त, पूर्व फल्गुनी पूर्वाषाढ़, पूर्वभाद्र, चित्रा, श्रवण, मूल, मृगशिरा, मघा, ८२३॥ इन पन्द्रह नक्षत्रों में रवि संक्रान्ति हो तो पन्द्रह मुहूर्त होता है, ऐमा मुनियों का वचन हैं || ८२४||
लाभ प्रकरण में ही अर्धकाण्ड को कहकर अब स्त्रीलाभ प्रकरण कहते हैं ।।
जिसको जन्म में बृहस्पति लग्न में हो, सप्तम में चन्द्रमा वा बुध हो, शुक्र अपने राशि में हो और सूर्य दशम स्थान में हो तो वह मनुष्य रानी के समान कन्या का लाभ करता है ||८२५||
जन्म समय में जिसको कर्क लग्न हो, सप्तम में चन्द्रमा हो और केन्द्र में एक भी पापग्रह नहीं हो वह बहुत धनादि से युक्त और नीति को जाननेवाली, तथा शत्रु पक्ष को पराजित करने वाली स्त्री का लाभ करता ॥२६॥
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( १५४ ) सौम्येम्बरस्थे सुभगा सुरूपा संप्राप्यते स्त्री बहुपुत्रपौत्रा ॥८२७ छिद्रे स्थिते चन्द्रयुते च शुक्रे लग्ने गुरौ सौम्ययुते च सूर्ये । लामेऽथ दुश्चिक्यगतेशनौतु प्राप्नोतिकन्यां सुरसां सुरूपाम्।।८२८ शुक्र मूर्ती सुरूषा स्त्री साहंकारा च भूमिजे । बुधे वक्रा गुरौ सश्रीश्चतुरस्राखिलैः शुभैः ॥८२९॥ शुद्ध शनौ दरिद्रा तु दुर्भगा युवती मता। शुक्रे लग्ने गुगै घने सेवते न पतिं निजम् ।। ८३० ।। तुर्य तुंगाश्रिते चन्द्रे जीवदृष्टे महोदया । विद्याधरीसमा प्राप्या जितारिश्च बहुप्रजा ॥ ८३१ ॥ चन्द्रो लग्नेश्वरो वापि कन्यालाभाय सप्तगौ । सप्तपो मूर्तिगः शीघ्र स्त्रीलामो निश्चितो भवेत् ।। ८३२ ॥
सूर्य उनका होकर लाभ स्थान में हो, पूर्ण चन्द्रमा लग्न में हो, शुममा दशम स्थान में हो तो वह बहुत सुन्दरी सुभगा तथा बहुत पुत्र पौत्र को उत्पन्न करने वाली स्त्री का लाभ करता है ।।८२७॥
चन्द्रमा से युक्त, शुक्र, अष्टम स्थान में हो, लग्न में गुरु हो, बुधसे युत सूर्य लाभ में हो और शनि तृतीय में हो तो वह सुन्दर रस वालो मुन्दरी स्त्री को प्राप्त करता है ।। ८२८॥
लग्न में शुक हो तो सुन्दर स्त्री का लाभ होता है । यदि मंगल, माग्न में हो तो अहंकारयुक्ता स्त्री, और बुध हो तो वा स्त्री, गुरु हो तो लक्ष्मी रूपा, सब शुभप्रह हों तो सब गुणों से युक्ता स्त्री का नाम होता है ।। ८२६ ॥
शनि हो तो दरिद्रा. दुर्भगा, स्त्री होती है, यदि शुक्र लग्न में हो, भोर वृहस्पति सप्तम भाव में हो तो उसकी स्त्री अपने पति को सेवा नहीं करती ॥३०॥
चन्द्रमा उच्च का होकर चतुर्य में हो, उस पर बृहस्पति की दृष्टि हो तो वह महोदया, तथा विद्याधरी के समान शत्रु को जीतने और बहुत पुत्रादिक उत्पम कर वाली खो को प्राप्त करता है ।। ८३१॥
चन्द्रमा, लप्रेश, दोनों, सप्तम में हों तो कन्या का लाभ होता है, और सममेश लम्र में हो तो शीघ्र स्त्रीलाभ होता है ॥८३२॥
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( १५५ )
तुलावृषभकर्केषु शुक्रेन्दुयुतदृष्टिषु । वधूलाभो भवत्येव द्यूने वा सबले रखौ || ८३३ ।। शुभा केन्द्रत्रिकोणस्था बुधक्षं स्मरगेहगम् ।
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नीलाभाय पश्यन्तस्त्र्यंशस्त्रीगेहगास्तथा || ८३४ || कनीद्रेष्काणगोलग्ने कन्या लग्ने नवांशके । वीक्षिते सोमशुक्राभ्यां कन्यालाभो ध्रुवो मतः ।। ८३५ ।। शुक्रेन्द्र समराशिस्थौ स्त्रीद्वेष्काणनवांशकौ ।
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सवयी मूर्तिधीस्वस्था कन्यालाभाय निश्चितौ || ८३६
स्मरस्वोपचये चन्द्रे कन्याप्तिर्गुरुवीक्षिते । प्राप्या कन्या समे मानौ पतिलाभोऽन्यथा स्त्रियाम् ॥। ८३७||
तुल, वृष, कर्क, लग्नों में शुक्र, चन्द्रमा दोनों का योग तथा दृष्टि हो वा सबल रवि सप्तम में हो तो स्त्री का लाभ होता है || ८३३ ||
बुध की राशि ( मिथुन, कन्या, ) सप्तम भाव में हों और इस भाव के त्रिशांश पर, केन्द्र, और त्रिकोगास्थित शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो कन्या का ही लाभ होता है ।। ८३४ ॥
कन्या लग्न में कन्या का ही द्रेष्काण तथा नवमांश लग्न में हो और चन्द्रमा, शुक्र दोनों से देखे जाते हों तो ध्रुव कन्या का लाभ होता है । ८३५ ॥
शुक्र, चन्द्रमा, सम राशि का हो कर कन्या राशि का द्रेष्काया, नवमांश में हो तथा बल से युक्त होकर लग्न पंचम, धन, स्थान में हो तो कन्या का लाभ होता है ।। ८३६ ॥
चन्द्रमा, सप्तम तथा उपचय में हो उस पर गुरु की दृष्टि हो तो कन्या की प्राप्ति होती है, सम राशि में सूर्य हो तो कन्या की प्राप्ति होती है, और स्त्री की कुण्डली में विषम राशि में सूर्य हो तो पति प्राप्त होता है ॥ ८३७ ॥
1. So Bh· कन्या mss 2. पश्यन्तः स्त्रीशा Bh. 3.०श० for ० स्वo Bh.
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केन्द्रत्रिकोणगैः सौम्य ष्टिधुने गमागमः । स्त्रीराशिमूर्तिगैस्तैस्तु दृष्टे वा स्त्रीगृहांशके ॥ ८३८ ॥ स्त्रीप्राप्तिव्यस्तयोगैस्तु लाभस्तासां वरस्य च । लमेश्वरो वरश्चिन्त्यो नारी च धनपा मता ॥ ८३९ ॥ लने पुष्टे वरः श्रीमान् धने पुष्टे च कन्यका । वित्ते पुष्टे स्वयं भर्ता दत्ते पल्यै धनं बहु ॥ ८४० ॥ छिद्रे पुष्टे वधूर्दत्ते स्वभत्रै स्नेहतो धनम् । समृद्धौ छिद्रवित्तौ द्वावुभौ दत्तो वधूवरौ ॥ ८४१ ।। सकरे वित्तगेहे तु समृद्धौ वधूवरौ । ससौम्ये वित्तगेहे तु समृद्धौ तौ परस्परम् ॥ ८४२॥ मित्रक्षेत्रे च तो प्रीतो यावज्जीवं क्रियापरौ । शत्रुक्षेत्रगतौ द्वौ तु बद्धवैरौ निरात्मकौ ॥८४३॥
शुभ ग्रह केन्द्र त्रिकोणा स्थान में होकर सप्तम स्थान को देखते होतोत्री का आगमन होता है. यदि कन्या लग्न हो उस में शुभ ग्रह का योग अथवा दृष्टि हो वा कन्या राशि के नवमांश में हो ॥ ८३८॥
तो स्त्री की प्राप्ति होती है और स्त्री को कुण्डली में इसका विपरीत योग हो तो उसको वर का लाभ होता है। लग्नेश को वर और सम्मेश से स्त्री का विचार करें॥८३६॥
लग्न पुष्ट हो तो वर लक्ष्मीवान होता है, और सप्तम भाव पुष्ट हो तो कन्या लक्ष्मीरूपा होती है और धन भाव पुष्ट हो तो स्वामी अपनी स्त्री को बहुत धन देता है ।। ८४०॥
यदि अष्टम भाव पुष्ट हो तो स्त्री अपने स्वामी को प्रेम से बहुत धन देती है, और अष्टम, तथा धनभाव दोनों बलवान हों तो दोनों परस्पर धन देते हैं।॥४१॥.
धन स्थान में पाप ग्रह हो तो स्त्री पुरुष दोनों को धन की इच्छा रहती है, और धन स्थान में शुभ ग्रह हो तो वधूवर दोनों परस्पर समृद्ध होते है॥८४२॥
यदि लमश, सप्तमेश, दोनों मित्र के घर में हों तो स्त्री पुरुष अपनी क्रिया में यावजीवन प्रेम पूर्वक रहते हैं, और दोनों यदि शत्र के घर में हों तो दोनों का परस्पर वर भाव रहता है ॥८४३ ।।
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( १५७ )
तुर्ये पुष्टे पतिः स्वीयो दत्ते परस्त्रिया धनम् । पदे सौम्ये निजा भार्या दत्ते जाराय सम्पदम् ॥। ८४४ ॥ तृतीयैकादशे ख्यातः प्रीतिर्वाच्या परस्परम् । अन्योन्यक्षेत्रगामित्वे तयोः प्रीतेः समानता ।। ८४५ ।। लग्ने गुरौ स्मरे शुक्रे नोढेन सुरतं मतम् । सुरूपाः पतयो बाह्याः सम्भवन्ति स्त्रियस्तदा ||८४६ ||
पतिप्राप्तिस्तु कन्यानां पुलः पु' प्रहरपि ।
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द्रेष्काणैर्नर संज्ञस्तु स्यात् ग्रहनवांशकः ॥ ८४७॥
सप्तमे चन्द्रशुक्राभ्यां कन्याप्तिः स्याद्वरस्य च । सप्तमे सितचन्द्राभ्यां वरलाभोऽपि योषिताम् ॥। ८४८ ॥
यदि चतुर्थ स्थान पुष्ट हो तो स्वामी दूसरे की स्त्री को धन देता है और शुभ ग्रह पद स्थान में हो तो स्त्री जार को सम्पत्ति देती है || ८४४|| यदि लग्नेश, प्रमेश, दोनों तृतीय, एकादश में हों तो बहुत ख्यात होता है और प्रापस में परस्पर प्रेम रहता है, और दोनों परस्पर एक दूसरे के घर में हों तो खी पुरुष को परस्पर समान प्रेम होता है ।। ८४५ ।। यदि लग्न में गुरु हो और सप्तम में शुक्र हो तो नवोढ़ा के साथ सुरत कहना चाहिये । उस में स्त्री तथा पुरुष दोनों को बहुत सुन्दर कहना चाहिये ॥ ८४६ ॥
यदि पुरुष राशि लग्न हो तथा पुरुष ग्रह हो और पुरुष संज्ञक राशि का द्रेष्काण तथा नवमांश हो तो कन्या को पति की प्राप्ति होती है ॥ ८४७ ॥
वर की कुण्डली में सप्तम में चन्द्रमा, शुक्र हो तो वर को कन्या प्राप्ति होती हैं और स्त्री की कुण्डली शुक्र, चन्द्रमा, यदि सप्तम में हो तो वर लाभ होता है । ८४८ ॥
1. तुष्ट for पुष्ट A 2 पतिः स्त्रीयो Bh पतिस्त्रियो mss - 8. o for : A.
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( १५८ )
लाभे शुक्रेन्दुदेवेज्ययुक्ते कन्या स्वहस्तगा । कन्याया रमणो रम्यो लाभे सौम्ययुतेक्षिते ।। ८४९ ।। दौस्थ्यं' कन्यावरादीनां तत्क्षेत्रेशोदयादिभिः । उच्चकेन्द्रस्वमित्रस्थैः सौम्ययुक्तेक्षितः शुभम् ॥ ८५० ॥ इत्याये कन्यालाभप्रकरणम् ।
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अथ नष्टलाभप्रकरणं द्वितीयवारं कथ्यते । लाभ भ्रष्टलाभस्य सम्यग् ज्ञानं प्रकाशितम् । निजानु भावसंवादाद्विशेषः कोऽपि कथ्यते ।। ८५१ ।। पुष्टन्द्रः शुभो वापि दृष्टः शीर्षोदये शुभैः । गतप्राप्ति करोत्येवं लाभे वा सबलैः शुभैः ।। ८५२ ॥ वित्तं तुर्येऽनुजे पुत्रे षष्ठे वा शुभदः खगः । विधत्ते गतलाभं तु क्रूरेंस्तत्र विपर्ययः ।। ८५३ ।।
लाभ स्थान मे शुक्र, चन्द्रमा, बृहस्पति हो तो कन्या को अपने हाथ में समझना चाहिये, लाभ स्थान में शुभ ग्रह का योग तथा दृष्टि हो तो कन्या का सुन्दर रमण होता है || ८४६ ॥
प्रेश और सप्तमेश का उदय हो तो कन्या वर को स्वस्थ कहना चाहिये, और वे यदि उच्च, केन्द्र, या मित्रादि गृह में स्थित हों तथा शुभ ग्रहों से देखे जाते हों तो दोनों को शुभ कहना चाहिये ||८५०|| इत्याये कन्यालाभप्रकरणम् ॥
अथ नष्ट लाभप्रकरण द्वितीयवारं कथ्यते ।
लाम की तरह नष्ट लाभ का ज्ञान सम्यक् प्रकाश किया। अब अपने भावों के अनुसन्धान से कुछ विशेष कहते हैं । ८५१ ॥
पुष्ट चन्द्रमा या शुभ मह शीर्षोदय मे हो और शुभ ग्रहों से देखे औय वा लाभ स्थान में बलवान् शुभ ग्रह हो तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है ।। ८५२ ॥
धन, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम वा षष्ठ भाव में शुभ ग्रह हों तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है, यदि इन स्थानों में पाप ग्रह हो तो लाभ नहीं होता है ॥
८५३ ॥
1 सौस्थ्यं for दौस्थ्यं Bh. 2. शुभेः for शुभम् Bh.
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( १५६ )
लग्नद्यनांशयोः संगे नष्टं कष्टेन लभ्यते । लमेशे शुभसंयुक्ते लब्धिः क्ररयुतेन हि ॥ ८५४|| लग्ने लग्नशसंयुक्ते नपो नष्टलाभदः । स्मरं गते तु लभेशे नष्टलाभो न दृश्यते ।। ८५५ ।। शुभयुक्ते विधौ पूर्णे तुर्ये वित्ते च लभ्यते । सार्क चन्द्रे स्मरे लाभे वक्रिणि द्यनपे नहि ।। ८५६ ॥ द्यनपे लग्नमायाते नष्टं चौरः प्रयच्छति । चन्द्रे क्रूरयुते नष्टं चौरेभ्योऽपि प्रणश्यति ।। ८५७ ।। अस्तपे शुभसंयुक्त केन्द्रे नष्टस्य लब्धयः ।
स्वामिप्रणाशे तु चौर्येशोऽपि मरिष्यति ।। ८५८ ॥ क्रिणिद्यनपे प्राप्तिः स्वस्थं मार्गस्थिते नहि ।
लग्नास्तपयुते नष्टं भूपायत्तं पदेश्वरे ॥ ८५९ ॥
लम, तथा सप्तम भाव के नवमांश का योग हो तो नष्ट वस्तु का कष्ट से लाभ होता है, लग्नेश शुभ ग्रह से युक्त हो तो लाभ होता है। और क्रूर ग्रह से युक्त हो तो लाभ नहीं होता है ।। ८५४ ।।
सप्तमेश से युक्त लग्नेश लग्न में हो तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है, और लग्नेश, सप्तम में हो तो नष्ट वस्तु का लाभ नहीं होता है ।। ८५५ ॥ शुभ ग्रह से युक्त पूर्ण चन्द्रमा चतुर्थ, तथा धन भाव में हो तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है, और सूर्य से युक्त चन्द्रमा सप्तम भाव में हो तो लाभ होता है इस में यदि घनेश वक्री हो तो नहीं होता है ।। ८५६ ।। यदि द्यूनेश लग्न में हो तो नष्ट वस्तु चोर दे देता है, और चन्द्रमा पाप ग्रह से युक्त हो तो वह नष्ट वस्तु चार के पास से भी नष्ट हो जाती है ।। ८५७ ॥
सप्तमेश शुभ ग्रहों से युक्त होकर केन्द्र में हो तो नष्ट वस्तु. का लाभ होता है, और सप्तमेश नष्ट हो तो चोर भी मर जाता है || ८५८ || सप्तमेश वक्री हो तो न वस्तु का लाभ नहीं होता है और बहू स्वस्थ तथा भार्गी हो तो उस वस्तु का लाभ होता है यदि पद स्थान के स्वामी लग्नेश, अष्टमेश से युक्त हों तो वह नष्ट वस्तु राजा के अधीन होती है ॥ ८५६ ॥
1. धनशसंयोगे for oधनांशयो: संगे A.
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( १६० )
स्वामी नष्टस्य लौरो नपतिर्भवेत् । चन्द्रार्को नष्टवित्तस्य ततस्तेभ्यो विनिर्णयः || ८६० ॥ स्थिरषड्वर्गबाहुल्ये सौम्ययोगे विलोकिते । प्रपश्यति न तमष्टं नष्टं चेत्स्वामिना हृतम् || ८६१ || लग्ने मृगाल्यो मिथुनः स मेपः शुभाश्रयोऽसौ दशमोपगश्च । नष्टस्य लाभं कुरुते सदैव बलाद्वियुक्तो बलदृष्टिपुष्टः ||८६२|| 'शुभेक्षिता वृचिकमेपकन्या कर्का भवेयुर्यदि कर्मसंस्थाः । प्रनष्टलfor: प्रथम रो रो (?) शुभोदया वा भवनाय जन्तोः
छिद्रे चौरो धने वस्तु सप्तमे वस्तुसंस्थितिः ।
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2
एवंगतपरिज्ञाने गतस्थानविनिश्वयः || ८६४
लग्नेश, नष्ट का स्वामी, और यूनेश चोर के स्वामी और चन्द्रमा, सूर्य, नष्ट वस्तु का, इस लिये इन सब के बलाबल्ल के अनुसार नष्ट वस्तु का निर्णय करें || ८६० ॥
प्रश्नकाल में स्थिर राशि के षड्वर्ग की विशेषता हो और शुभ महों का योग तथा दृष्टि हो तो उस वस्तु को नष्ट नहीं कहना चाहिये यदि नष्ट भी हो तो उसके मालिक ने उस वस्तु को हरा कर लिया है। ऐसा कहना चाहिये || ८६१ ॥
यदि मकर, मिथुन, वा मेष लग्न हो और उसका शुभ ग्रहों से सम्बन्ध हो, तथा शुभ मह दशम स्थान में हों तो बलवान् तथा शुभ ग्रहों की दृष्टि से पुष्ट हो तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है || ८६२ ।।
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यदि दशम भाव मे वृश्चिक, मेष, कन्या, कर्क राशि हो और शुभ ग्रह से दृष्ट हो, चर राशि लग्न हो और शुभ ग्रह से सम्बन्ध हो तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है । ८६३ ॥
अष्टम भाव से चोर, धन भाव से वस्तु, सप्तम से वस्तु की संस्थिति, इन स्थानों के परिज्ञान से गत स्थान का निश्चय करें || ८६४ ॥
1. शुभाद् for बलाद् A. 2. गति for गति Bh. 3, वस्तु for Bh.
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( १६१) स्थिरलमे स्थिरे भागे वर्गोत्तमनवांशके । स्थितं तत्रैव तद् द्रव्यं स्वकीयेनैव चोरितम् ॥ ८६५॥ द्विशरीरे गृहबाह्ये गृहनिकटनिवासिना हृतं द्रव्यम् । स्थिरराशौ तत्रस्थं चरराशौ निर्गतं बहिर्भवनात् ।। ८६६॥ घिषणादष्टमे सौम्ये नष्टप्रश्नेऽथ विष्ण्यके । वेगेन लभ्यते नष्टं दीप्तत्वेन विशेषतः ॥ ८६७ ॥
इति लाभ नष्टलाभप्रकरणम् ।।
अथ लाभप्रकरणम् ॥ अयं त्रयं दिवारानावन्धं द्वयं द्वयं पुनः । बधिरं चैककं पंगुर्मपाधवं विचारयेत् ।। ८६८ ॥ चन्द्रलमेशवित्तेशा युतदृष्टाः परस्परम् । वित्तलमात्रिकोणस्थाः सद्यो लाभकरा मताः ॥ ८६९ ॥ एवं केन्द्र शुभाः सर्वे मयो लाभकरा मताः । कराः कुर्वन्ति दारिद्रयं त्रिकोणे कण्टके स्थिताः ॥ ८७० ॥
स्थिर लग्न हो स्थिर राशि का अंश हो और वर्गोत्तम नवमांश में हो तो वहीं पर उस वस्तु को स्थित कहना चाहिये वा स्वयं उसकी चोरी करवा दिया हो ऐसा फल कहना चाहिये ।। ८६५॥
द्विः स्वभाव राशि लग्न हो तो घर के बाहर उसके समीपवर्ती लोगों ने धन हरण किया ऐसा कहना चाहिये, स्थिर राशि में वहीं पर पर राशि में घर से बाहर द्रव्य कहना चाहिये ।। ८६६ ।।
नष्ट प्रश्न में सूर्य से अष्टम शुभ ग्रह हो तो शीघ्र नष्ट वस्तु का लाभ होता है । दीप्त अवस्था में विशेष करके लाभ होता है ।। ८६७ ।।
इति लाभे नष्टलाभप्रकरणाम।।। अहोरात्रि में मेषादि क्रम से तीन तीन राशि अन्ध, तथा दो दो राशि बधिर एक, एक राशि पंगु, होता है ऐसा विचार करें ॥८ ॥
चन्द्रमा, लग्नेश, और धनेश, ये परस्पर युत या दृष्ट होकर धन, लम, पञ्चम, नवम, में हों तो सद्यः लाभ होता है ।।८६६ ।।
इस प्रकार केन्द्र मे सब शुभ ग्रह हो तो सयः लाभ होता है और पाप ग्रह यदि केन्द्र, त्रिकोण, स्थित हों तो दरिद्र होता है ।।८७० ॥
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( १९२ ) शुभः स्वोच्चादिगो मृतौ धने राज्येऽथवा स्थितः । कुर्यालाभ क्षणादेवमेवं पुण्यं शुभेक्षितम् ।। ८७१ ॥ गुरौ लमे खौ राज्ये धुने सौम्येऽथवाऽम्बरे । लामो लामास्तर्गः सौम्यः पापंस्त्रिमध्यगैस्तथा ॥ ८७२ ॥ उचगेहे धनेऽप्युचे लग्ने तुंगे शुभेक्षिते । पष्ट त्वायगते चन्द्रे लाभो भवति तत्क्षणात् ॥ ८७३ ॥ लग्ने लमेशसंयुक्त लाभेशेऽभ्युदिते तदा। स्वोच्चे वा यातुकामे वा लामो भवति सम्पदाम् ॥ ८७४ ॥ लाभ लाभेशसंहृष्टे लाभे शुक्रे गुरौ विधौ । लामो भवति तत्कालं स्वस्यान्यस्य श्रिया समम् ।। ८७५ ।। लमे तुंगे सुखे तुंगे तुंगे पुत्रे शुभक्षिते । तुंगे च लाभगे शुक्रे ग्रामदेशादि लभ्यते ॥ ८७६ ॥
शुभ ग्रह स्वोच्चादि में स्थित होकर लग्न धन, वा राज्य, स्थान में स्थित हों तो उसी क्षगा लाभ कहना चाहिये यदि पुण्य स्थान शुभ ग्रह देखे तो भी लाभ होता है ।। ८७१ ॥
गुरु लग्न में हो रवि राज्य स्थान में हो और शुभ ग्रह सप्तम वा दशम में हो तो लाभ होता है, और शुभ ग्रह यदि लाभ, तथा सप्तम में हो तथा पाप ग्रह तृतीय, मध्य में हो तो लाभ होता है ।। ७७२ ॥
शुभ ग्रह उस का होकर, धन में तथा लम्र में हो, और शुभ ग्रहों की रष्टि हो तथा पुष्ट चन्द्रमा लाभ स्थान में हो तो उसी समय लाम होता है ।।८७३ ॥
लमेश लम में हो, तथा लाभेश अभ्युदित होकर उच्च में स्थित हो वा उस में आने वाला हो तो सम्पत्ति का लाभ होता है। ८७४।।
लाभ स्थान लाभेश से युक्त हो तथा लाभ स्थान में शुक्र, गुरु, चन्द्रमा, हो तो उसी समय अपना या दूसरे का धन से लाभ होता है ॥८ ॥
शुभ ग्रह उच का होकर लग्न, चतुर्थ, तथा पञ्चम भाव में मौर गुरु सका होकर लाभ स्थान में हो इन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो देश अथवा प्राम का नाम होता है ।।८७६ ॥
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मिथुने लाभगेहे तु चन्द्रे तत्रैव संस्थिते । बुधस्यात्यन्तवैरित्वाल्लाभो भवति वाल्पकः ॥ ८७७ ।। स्वगृहे मित्रगेहे च तुंगे गेहे तदोदिते । चन्द्रदृष्टे भवेल्लाभो लाभगेहे तु संपदाम् ॥ ८७८ ।। मकबूले महायोगे मुंथसिलामिश्रिते । ग्रहैः सर्वेषु योगेषु लाभो भवति पृच्छताम् ॥ ८७९ ॥ चरलग्ने शुभर्युक्त लाभे चन्द्रबलाधिके । । त्रिकोणकेन्द्रगः खेटेलामो भवति निश्चितः ॥ ८८० ॥ यत्रोन्यलाभयोगो न भवति नच संभवति शुभदृष्टम् । न तत्रान्वितलाभः प्रष्टुंगणकेन निर्देश्यः ।। ८८१ ॥ यो यो भावो भवेत्पुष्टो द्वादश क्षेत्रमध्यगः । तस्माद्धनादिपुत्रादिलामो भवति तद्विधः ॥ ८८२ ।।
मिथुन लाभ स्थान में उस मे चन्द्रमा स्थित हो तो बुध के अत्यन्त शत्रु के कारण लाभ वा अल्प लाभ होता है ।। ८७७ ॥
कोई भी शुभ ग्रह स्वगृह, वा मित्र के घर, डच, का होकर लाभ स्थान में हो और उदित हो, और उस पर चन्द्रमा की दृष्टि हो तो सम्पत्तियों का लाभ होता है ।। ८७८ ॥
__ मकबूल महायोग में, तथा सूर्य से युक्त मुथसिल हो, इसतरह सब ग्रहों के योग में प्रश्न कर्ता को लाभ होता है ।।८७६ ॥
__ चर तम हो उस में शुभ ग्रह स्थित हो और बलवान् चन्द्रमा लाम स्थान में हो और ग्रह केन्द्र त्रिकोण में स्थित हो तो निश्चय लाभ होता है ॥८ ॥
___ जहां पर और प्रकार का लाभ योग नहीं हो तथा शुभ ग्रहों की दृष्टि भी नहीं हो वहां लाभ नहीं कहे हैं।। ८८१ ॥
द्वादश भावों में जो जो भाव बलवान हो उसी भाव के द्वारा उस प्रकार धनादि पुत्रादि का लाभ होता है ॥२॥
1. चालक: for वाल्पकः Bh. 2. नवसंस for A. नवसं नवमंच-Bh.
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( १६४ ) क्रियते केवलादर्शस्त्रैलोक्यस्य प्रकाशकः । श्रीमदेवेन्द्रशिष्येण श्रीहेमप्रभमूरिणा ॥ ८८३ ॥
इति लामप्रकरणम् ।। दिनचर्याफलं वच्मि दुर्योधं विदुषां सदा । अंशकस्थेग्रहः सर्वैः क्षणे क्षणे सकौतुकम् ॥ ८८४ ॥ मदीयस्यास्य शास्त्रस्य यो नाम चोरयिष्यति । गोहत्यादिकृतं पापं तस्य सर्व भविष्यति ।। ८८५ ।। दिनफले ग्रहाः सर्वे सुसंचार्या नवांशकाः। मासफले नवांशस्था रविशुक्रबुधा अपि ॥ ८८६ ॥ दृग वाच्या दिनचर्यायां विंशतिश्च विंशोपकाः । दिने मासे फले चैवं नान्या दृष्टिविलोक्यते ।। ८८७ ॥ दिनेन्दौ तुर्यगे सौमे तहिने भव्यभोजनम् । चन्द्रे पुष्टे मुखं पुष्टं करयुक्त विपर्ययः ॥ ८८८ ।।
श्रीमान् देवेन्द्र के शिष्य हेमप्रभसूरि ने त्रैलोक्य प्रकाश का केवलादर्श किया ||८८३ ॥
अंशो मे स्थित प्रह पर से क्षण क्षण में आश्चर्ययुक्त दिनचर्या फल को कहते हैं । जो कि पंडितों के लिये भी सर्वदा दुर्बोध है ।। ८८४ ॥
जो मनुष्य हमारे इस शास्त्र को चुरायगा उसको गोहत्याकृत सब पाप होगा ॥८८५॥
दिन फल में सब ग्रहों को नवमांश में संचारण करके फल कहें एवं मासफल में नवांश में स्थित रवि, शुक्र, बुध का भी विचार
दिनचर्या फल में विशोपक दृष्टि कहनी चाहिये । दिन तथा मास के फल में अन्य दृष्टि का विचार नहीं करते हैं ।। ८८७ ॥
सोम दिन में चन्द्रमा चतुर्थ में हो तो सुन्दर भोजन कहना चाहिये । चन्द्रमा पुष्ट हो तो मुख पुष्ट कहें और पाप ग्रह के योग से विपरीत होता है|
1. नवफलम् for सकौतुकम् Bh. 2. विशापका: mss. 3. मुखें for मुखं Bh.
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( १६५ ) प्रातः प्रश्नेषु संचार्यो नवांशेऽभ्युदितः शशी । धनांशे शुभदे दृष्टे धनं दत्ते सुभोजनम् ।। ८८९ ।। सहजांशे वरं वक्ति भोज्यं दत्ते न किञ्चन । तुर्यांशके महाभोज्यं सुतांशे तनयान् धनान् ॥ ८९० || षष्ठांशे रोगसंतापं सप्तमे प्रमदासुखम् । अकस्माभिर्वृतेः कर्त्री वार्ता पतति कर्णयोः ।। ८९१ ।। दिनेन्दौ सप्तमे शुक्रे गुरुज्ञसहिते वदेत् । वरस्त्रीभिर्महासौख्यं पञ्चदशघटीलयम् ।। ८९२ ।। दिनेन्दाष्टमे करमागोद्धरणकं मृतिः ।
क्रूरद्वयस्य मध्यस्थे बन्धनं निबिडं वदेत् ।। ८९३ राहो वाथ कुजे करे परस्मिन्नपि खेचरे । अष्टमे स्वत्रैव दिनचन्द्रेऽसिना वधः ।। ८९४ ॥
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प्रातः काल के प्रश्न में अभ्युदित चन्द्रमा को नवांश में संचार करके फल कहें, यदि चन्द्रमा धन भाव के नवांश में और शुभ दृष्टि हो तो धन और सुन्दर भोजन देता है ॥ ८८ ॥
सहज भाव के अंश में सुन्दर बात कहें किन्तु भोजन कुछ नहीं मिले, और चतुर्थभाव के अंश मे खूब सुन्दर भोजन मिले, पुत्र भाव के अंश में पुत्र और धन की प्राप्ति हो ॥ ८० ॥
षष्ठ भाव के अंश मे रोग, संताप, होता है, सप्तम भाव के अंश में स्त्रीसुख होता है, और अकस्मात् निर्वृत्तिक करने वाली वाव कान में सुनाई दे || ८६१ ॥
दिन चर्या में चन्द्रमा शुक्र, गुरु, बुध, के साथ होकर सप्तम में हो तो सुन्दरी स्त्री से पन्द्रह घटी तक बहुत सुख होता है ॥ ८२ ॥
दिनचर्या में चन्द्रमा अष्टम में हो तो अकस्मात् रोग हो जिस सेमरगा हो जाय, यद दो पापग्रह के मध्य में हों तो दृढ़ बन्धन कहें ॥। ८६३ ॥
अष्टम में राहु, या मंगल, वा और कोई पाप ग्रह स्वगृही में हों इसी में चन्द्रमा हो तो शस्त्र से वध कहें ॥। ८६४ ॥
1. कन्या स्याo for कस्मा A, A',
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( १६६ ) सिंह सिहांशके सूर्ये चन्द्रे तत्रैव संस्थिते । मृगलयोदये जाते तदिने चासिना वधः ।। ८९५ ॥ मृगे मृशाशके सौरे चन्द्रे तत्रैव संस्थिते । प्रश्ने च मिथुने जाते दिनचन्द्रेऽसिना वधः ॥ ८९६ ।। दिनेन्दौ सिंहपूजादि तीर्थस्नानं च दक्षिणा । पुण्यांशे जायते पुंसामकस्माद्विभवोदयः ।। ८९७ ।। दिनेन्दौ दशमेऽकस्मात्पुसां भवेत् पदं महः । गुरौ शुक्र पदेशे च रवियुक्ते नृपात्पुनः ॥ ८९८ ॥ दिनेन्दौ लाभगे वाच्यं पञ्चदशघटीलयम् । सकलैः खेचरैयुक्ते निधिवस्त्रादिसम्पदम् ।।८९९।। व्ययगे च शुभैयुक्त विवाहादौ च सद् व्ययम् । दिनेन्दौ पृच्छता करधने व्यये च लग्नतः ॥९८०॥
सिह और सिंह के अंश में सूर्य, चन्द्रमा हो और मृगशिरा आम हो तो उसी दिन शस्त्र से वध कहना चाहिये ।। ८६५।।
प्रश्न काल में मिथुन लग्न हो उस में चन्द्रमा स्थित हो या मृगशिरा, या मृगशिरा के अंश में शनि हो उस में चन्द्रमा हो तो शस्त्र से वध कहना चाहिये ॥८६६ ॥
दिनचर्या प्रश्न में चन्द्रमा सिंह में हो तो उस दिन पूना, पाठ, तीर्थ स्नान, दक्षिगा, इत्यादि करते हैं। और यदि पुण्य भाव के अंश में हो तो अकस्मात विभव का उदय होता है ॥८६॥
चन्द्रमा यदि दशम में हो तो पुरुष को अकस्मात पद का लाम होता है। गुरु, शुक्र और पदेश, यदि रवि से युक्त हो तो राजा से पद का लाभ होता है॥८॥
चन्द्रमा लाम में हो सो पन्द्रह घटी लय होता है और सब शुभ प्रहों से युक्त हो तो निधि, तथा वस्त्रादि सम्पत्ति प्राप्त होती है ।। || ___1. दक्षिण for दक्षिणा Bh. 2. महत for महः Bh. 3. सम्पदः for सम्पदम Fh.
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तत्कालं जायते रोधो बन्धार्थ वरतोऽपि वा । अनाथे करगे लग्ने लाभे करयुतेक्षिते ॥९०११॥ दिनेन्दौ शस्त्रघातेन मृत्युयोगेन जीवति । यदीन्दुदिनचर्यायां शुभः स्यादुदयास्तयोः ॥९०२॥ श्रेयास्तदापि वक्तव्यः समस्तोऽपि हि वासरः । लग्ननाथे शुभैयुक्ते लाभस्थाने सिते गते ।।९०३॥ दिनेन्दौ शस्त्रघातेन मृत्युयोगेऽपि जीवति । यत्रांशेऽभ्युदितो भास्वान् स संचा- नवोदिते ।।९०४।।
अथ रविवशात्फलम् । विबुधैः सग्रहे लग्ने ततो मासफलं वदेत् । मासफले च सचार्यों रविवादशभावतः ।।९०५।।
व्यय स्थान में शुभ ग्रह हो तो विवाहादि शुभ कार्यो में सद् व्यय होता है, और प्रश्न काल में चन्द्रमा कर ग्रहों के साथ धन, व्यय, लम, में हो ॥१०॥
तो उस काल में शत्रु से बन्धन के लिये अवरोध होता है, अपने स्वामी को छोड़ कर और पाप ग्रह लग्न में हो, तथा लाभ स्थान में पाप प्रह का योग या दृष्टि हो । ६०१ ।।
पूर्वोक्त योग में चन्द्रमा भी लाभ भवन में हो तो शस्त्र के पाठ से मृत्यु योग होने पर बच जाता है, यदि दिनचर्या में चन्द्रमा, उदय अस्त में शुभ हो ।। ६०२ ॥
तो भी सम्पूर्ण दिन श्रेष्ठ कहना चाहिये, लग्नेश, शुभ ग्रहों से युक्त हो और शक, लाभस्थान में हो ॥६०३ ॥
उस पूर्वोक्त योग में चन्द्रमा भी लाभ स्थान में हो तो शस्त्र घात से मृत्यु योग होने पर भी जीता है। जिस अंश में सूर्य उदित हो उस उस नवोदित अंश से सूर्य का संचार करें ।। ६०४॥
यदि लम प्रह से युक्त हो तो उस से पंडित लोग मास फल को कहें, मास फल के लिये सूर्य को द्वादश भाव में संचार करें ।। ६०५॥
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( १९८) रवेरंशे च जायन्ते सत्रिभागा दिनास्त्रयः । यत्रांशेऽम्युदितो भास्यान् तदंशकपते रवेः ॥९०६॥ मित्रता चेद् घतिदृष्टिमवेत्तदा शुभं बहु । एवं सर्वग्रहर्योज्यमुच्चस्वमित्रसङ्गमः ॥९०७|| तदनुसारेण सर्वत्र फलं वाच्यं शुभाशुभम् । मृता रवौ प्रतापायोप्यधृप्यो द्विषतां पुनः ॥९०८।। धने च धननाशं च तृतीये करमाषकः । तुर्ये भोजनदौस्थ्यं तु सुते पुत्रस्य पीडनम् ॥९०९॥ षष्ठे शत्रुविनाशः स्यात्सप्तमे न धृतिर्भवेत् । आधिव्याधिधने छिद्रे नवमे पुण्यविप्लवः ॥९१०॥ महत्पदं भवेद्राज्ये स्वल्पो लामो हि लाभगे। भूपाद्दण्डो व्यये वाच्योंऽशकादिकविचारणा ॥९११॥ द्वादशरशिगो भास्वान् बने वर्षफलस्फुटम् ।।
रवि के अंश में त्रिभाग युक्त तीन दिन होते हैं, जिस अंश में सूर्य का उदय हो उस अंश के स्वामी से यदि सूर्य की मित्रता या द्युति दृष्टि हो तो अनेक प्रकार का शुभ होता है इस प्रकार सय ग्रहों का उच्च, स्वगृह, तथा मित्रादि योगों का विचार करें ।। ६०६-७.
आर उसके अनुसार मव जगह शुभाशुभ फल कहे, यदि लग्न म सूर्य हो तो वह प्रतापी भी हो तो धृष्ट तथा शत्रुता का भाव उसमें होता है॥६०८|
यदि धन स्थान में हो तो धन का नाश करने वाला होता है, और तृतीय में दुष्ट बात बोलने वाला होता है, और चतुर्थ में हो तो भोज में दुःस्थिति होती है, पुत्र स्थान में हो तो पुत्र को पीड़ा होती है ।। ६०६ ॥
और षष्ठ स्थान में शत्रु का नाश होता है, और सप्तम में हो तो अधर्म्य वाला होता है. अष्टम में हो तो मानसिक व्याधि तथा धन होता है, नवम में पुण्य को हानि होती है ।।६१०॥.
राज्य स्थान में विशिष्ट पद की प्राप्ति होती है और लाभ में हो तो स्वल्प लाभ होता है, व्ययस्थान में राजा से दण्ड होता है ऐसे अंशाविक विचार करें ।। ६१ ॥
1. a for न Bh.
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( १६६ )
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अथ गुरुफलम् । गुरुणा भावगे नैवं द्वादशाब्दफलं वदेत् । प्रतिवर्ष स संचार्यो बुधैर्द्वादशराशिषु ॥९९२॥ बृहस्पतिर्धनुमने कर्के सिंहेऽन्त्यजेऽलिनि । कुरुतेऽप्युत्तमं लाभं मासत्रयोदशावधि ||९१३|| गुरुमृता जयं दत्ते धनवृद्धिं धनस्थितः । तृतीये मधुरं व्रते तुयें भोज्यं धनं घनम् ।।९१४ ।। कान्तासुखं धनावाप्तिर्वाटिका भूमिकर्षणम् । कुटुम्बं मित्रसौख्यं च कुरुते हायनावधि || ९१५|| सुतेऽवश्यं सुतं दत्तं प्रतापं बुद्धिवभवम् । षष्ठे रोगं रिपोवृद्धिं कुरुते स्वफलावधि ||९१६ || सप्तमे ललनासौख्यं शुक्रज्ञन्दुयुते बहु | अष्टमे निश्चिता गंगाः
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पुप्ये सत्रादि कारयेत् ॥ ९१७ ॥
द्वादश राशियों में सूर्य के वश स्पष्ट वर्ष फल कहते हैं, इसी तरह द्वादश भावों मे गुरु के वश द्वादशाब्द का फल कहते हैं ॥ ६१२ ॥ • प्रतिवर्ष पंडित लोग द्वादश राशियों में गुरु का संचार करके फल कहें ॥
बृहस्पति यदि धनु, मीन, कर्क, सिंह, मेष, वृश्चिक, इन राशियों में हो वो त्रयोदश मास पर्यन्त उत्तम लाभ होता हे ॥ ६१३ ॥
बृहस्पति, लम मे हो तो जय, धन में हो तो धन की वृद्धि, तृतीय में हो तो मधुर वाक्य होता है । चतुर्थ में सुन्दर भोजन और बहुत धन होता है । ६१४ ॥
और स्त्री सुख, धन की प्राप्ति, वाटिका, भूमिकर्षण तथा कुटम्ब, मित्रों का सौख्य वर्षपर्यन्त होता है ।। ६१५ ॥
सुत स्थान में अवश्य ही पुत्र, प्रताप तथा बुद्धि वैभव होता है. और षष्ठ मे रोग, शत्रु की वृद्धि अपने फल पर्यन्त करते हैं ।। ६१६ ।।
सप्तम में स्त्री का मौख्य और वह शुक्र, बुध, चन्द्रमा से युक्त हो तो उस से विशेष सौख्य होता है, अष्टम में निश्चित रोग होता है और पुण्य भाव में हो तो सत्रादिक कराता है ।। ६१७ ।।
1. पुण्ये for पुष्ये A. 2. पुण्ययात्रादि for पुष्ये सत्रादि Bh.
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( १७० )
पदेऽवश्यं पदाधिक्यं सर्वलाभं तु लाभगः ।
1
धर्माद् व्ययं व्यये दत्ते नीचादौ स्वल्पकं फलम् ॥९९८ ॥ इति गुरुफलम् ।
सौभाग्यं स्यत्सिते वा सविभाग महस्त्रयम् । धने भवं धनाधिक्यं तृतीये भ्रातृपोषणम् ॥९९९ ॥ तुर्ये परस्त्रिया भोगो भोज्यं च मुरसं घृतात् । पञ्चमे बुद्धिसम्पत्तिः षष्ठे कुदुम्बविग्रहः ||९२०|| सप्तमे स्त्रीयाश्लेषोऽप्यष्टमे इलेपसंभवः । धनोत्पत्तिः स्वपत्नीभ्यः सविभाग महस्त्रयम् ||९२१ ।। पुष्ये सत्रप्रपादानमकस्माद् धनलब्धयः । पदे स्वोच्च शुभयुक्त राज्यं प्राज्यं भुवं मतम् ॥ ९२२ ॥ पद स्थान में यदि गुरु हो तो पद का आधिक्य होता है और लाभ में हो तो सब तरह का लाभ होता है, और व्यय स्थान में हो तो धर्म मार्ग में व्यय होता है, और वह गुरु यदि नीचादि में हो तो अल्प फल होता है ।। ६१८ ॥
याद शुक्र, लम में हो तो अपने विभागों के तीन दिन सौभाग्य होता है, और धन स्थान में हो तो धन का आधिक्य होता है तृतीय में हो तो भाई का पालन करता है, ।। ६१६ ।।
तुर्थ में शुक्र हो तो दुसरी स्त्री के साथ भोग करे और घृत आदि के सुन्दर रस युक्त भोजन मिले, यदि पश्र्चम में हो तो बुद्धि, सम्पत्ति, होती है, और षष्ठ में हो तो कुटुम्ब का विग्रह होता है ।। ६२० ।।
सप्तम में हो तो दो स्त्री से आप होता है और अष्टम भाव में भी श्लेष का सम्भव तथा अपनी स्त्री से धन की उत्पत्ति, विभाग से युक्त तीन दिन पर्यन्त ये फल होते हैं ।। ६२१ ॥
यदि शुक्र पुण्य भाव में हो तो यज्ञ तथा जलशाला दान इत्यादि से धन का लाभ होता है। यदि उच्च का शक्र शुभ ग्रहों से युक्त हो कर पद स्थान में हो तो विशिष्ट राज्य अवश्य मिले ||२२||
1. नीचे गुरौ for नीयादौ Bh. 2. पुण्ये for पुष्ये A., पुण्यो A.
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लामे शुक्रे महालामः प्रतिवेश्म निरपि । व्यये तत्र महारंगात्स्त्रीरंगाच महाव्ययः ॥९२३॥
इति शुक्रफलम् । बुधे मूर्ती सकौटिल्यो धने च कपटादनम् । तृतीये कुटिला वाणी तुर्ये शिल्पिषु कौशलम् ॥९२४॥ पञ्चमे कुटिला बुद्धिः षष्ठे कुलादिविग्रहः । घने कुटिलसंग्रामस्त्वष्टमे भोजनानुजा ॥९२५।। नवमे कपटाद् धर्मो दशमे शिल्पिनां पदम् । एकादशे भवेल्लाभः अन्ते पूर्वधनव्ययः ॥९२६॥
इति बुधफलम् । भौमः पञ्चदिनान्मूता स्वक्षेत्र चोच्चगः शुभः । स्वहानि तनुते वित्ते भौमः पञ्चदिनावधि ॥९२७।।
यदि लाभ स्थान में शुक्र हो तो निधि का भी महान लाभ होता है. प्रत्येक घर में विचार करें, यदि व्यय स्थान मे हो तो महान रंग से या स्त्री के रंग से धन का व्यय होता है ।।१२३।।
इति शुक्रफलम् यदि लग्न में बुध हो तो कुटिल होता है, और धनस्थान में हो तो कपट से धन प्राप्त करता है, तृतीय में हो तो उसकी कुटिल बात होती है, चतुर्थ में हो तो शिल्पकला में कुशल होता है ।।१२४॥
पश्चम में हो तो उसकी कुटिल बुद्धि होती है, षष्ठ में हो तो विग्रह हो, सप्तम में हो तो कुटिलता से संपाम होता है, अष्टम में हो तो भोजन से रोग होता है ।।१२।।
नवम में हो तो कपटता से धर्म हो, दशम में हो तो शिल्पियों का पद प्राप्त करे, और एकादश में हो तो लाभ होता है, द्वादश में हो तो पूर्व धन का व्यय होता है ॥२६॥
इति बुधफलम् । मंगल, यदि उन तथा स्वगृही का होकर मन में हो तो पांच दिनों में शुभ होता है, और वह यदि धन में हो तो पांच दिन पर्यन्त अपनी हो हानि करता है ।।६२७॥
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(१५२ ) तृतीये बन्धुमियुदं चतुर्थे भूमिकर्षणम् । पञ्चमे बुद्धिहानि च षष्ठे स्वातन्त्र्यमुत्कटम् ॥९२८।। सप्तमे ललनायुद्धमष्टमे तनुपातनम् । नवमे पुण्यपीडां च दशमे मन्त्रिविग्रहम् ।।९२९॥ एकादशे निहन्त्यायुादशे हठतो व्ययम् । स्वक्षेत्र मित्रगेहे च स्वोच्च च तनुते शुभम् ।।९३०||
इति भीमफलम् । शनर्मासत्रयं त्र्यंशे दारिद्रय कुरुते गृहे । धने हन्ति धनं गेहे तृतीये भ्रातृसम्पदम् ।।९३१।। तुर्ये भोज्यश्रियं हन्ति पञ्चमे सुतपीडनम् । षष्ठं दुष्टान् रिपून हन्ति सप्तमे हन्ति निर्वृतिम् ।।९३२।।
तृतीय में हो तो बन्धुओं के साथ युद्ध करता है, चतुर्थ मे भूमि कर्षण करता है. पश्चम में हो तो बुद्धि की हानि होती है, षष्ठ में हो तो स्वतन्त्र तथा उत्कट होता है ।।१२।।
सप्तम महा तो स्त्री का युद्ध, अष्टम मे हो तो शरीर का पतन, नवम में पुण्य और पीड़ा होती है, और दशम में मन्त्री सं विग्रह होता
एकादश में हो तो आयु का नाश करता है, द्वादश में हो तो हठ से व्यय करता है, अपने घर, तथा मित्र के घर, या उच्च का मंगल हो तो शुभ फल देता है ॥३०॥
इति भीमफलम् ॥ यदि शनि लग्न में हो तो तीन मास पर्यन्त दरिद्र करता है, और धन में हो तो धन का नाश होता है, तृतीय में हो तो भ्रातृ सम्पत्ति का लाभ होता है ।।३।।
चतुर्थ में हो तो भोज्य और लक्ष्मी दोनों का नाश करता है, पप्रम में हो तो पुत्र की पीड़ा, षष्ठ में हो तो दुष्ट शत्रुओं का नाश करता भोर सप्तम में हो तो वृत्ति का नाश करता है ॥६३२॥ 1. सापनम for पातनम Bh.
है ॥२६॥
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( १७३ )
अष्टमे तु सुखं हन्ति पुण्ये कुर्याज्जिनवतम् । पदेऽपि राजविध्वंसं लाभे हन्ति धनागमम् ॥९३३ || व्ययेऽनिष्टव्ययं दत्ते स्वक्षेत्रे शुभकारकः । स्वोच्चे च मित्रभावे च शुभोऽयं तनुते शनिः ॥ ९३४ ॥ इति शनिफलम्
दिनेन्दौ तनुते राहुर्मामद्रयं तनोघनाम् ।
पीडां करोति शस्त्राद्यैधने स्वं हन्ति तत्क्षणात् ॥ ९३५ ॥ तृतीये भ्रातरं हन्ति तुयें भोज्य कुटुम्बके ।
सुतेऽवश्यं घनान् पुत्रान् षष्ठे हन्ति रिपून् ध्रुवम् ॥९३६॥ धृतां च परिणीतां च प्रेयसीं हन्ति सप्तमे । अष्टमे च सुखं हन्ति
मालिन्यं याति भाग्यगे ||९३७||
अष्टम में हो तो सुख का नाश करता है, और नवम में हो तो जैन मत का अवलम्बन करने वाला होता है, पद स्थान में हो तो राज्य का विध्वंस करता है | लाभ स्थान में हो तो धनागम का नाश करता है ||६३३ व्यय स्थान में हो तो अनिष्ट मार्ग में व्यय कराता है, और वही स्वक्षेत्र तथा स्वकीय उज्ज में, मित्र भाव में हो तो शुभ फल को देता है ।।६३४ इति शनिफलम् ।
यदि राहु लग्न में हो तो दो मास पर्यन्त शस्त्रादि से बहुत कठिन पीड़ा होती है, और धन भाव में हो तो उसी क्षण धन को नाश करता है ||३५||
तृतीय में हो तो भ्राताओं का नाश करता है, और चतुर्थ में हो तो भोज्य तथा कुटुम्ब का नाश करता है, पुत्र भाव में हो तो बहुत पत्रों का, और षष्ठ में हो तो शत्रुओं का नाश करता है, ॥३६॥
राहु सप्तम में हो तो विवाहिता स्त्री, वृता, तथा प्रेम युक्ता का भी नाश होता है, अष्टम में हो तो सुख का नाश करता है, और भाग्य स्थान में हो तो उसको मालिन्य करता है ||३७||
1. ततोsर्थनाम् for तनोर्घनाम् Bh.
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( १७४)
दशमे राज्यपदं हन्ति लाभौघं लाभगः पुनः । व्यये महान्ययं हन्ति राहुः सर्वत्र बाधकः ॥९३८॥
इति राहुफलम् । वर्षफलं गुरोर्गच्यं रवेर्मासफलं पुनः । पञ्चदशघटीनां च चन्द्राद् वाच्यं दिने फलम् ॥९३९॥ त्र्यंशांशकात्फलं चन्द्राद् घटीसाईचतुष्टयम् । ग्रहाणामंशकं ज्ञात्वा फलं वाच्यं दिनोद्भवम् ॥९४०॥ दिनचर्याफले पुंसां क्षीणचन्द्रो न दृश्यते । दृष्टौ योगे ममं चैव फलमंशगतं भवेत् ॥ ९४१॥ जन्मलग्ने च तद्राशौ नामलग्नदिशांशके । तत्कालकेऽथवा लग्ने दिनचर्याफलं वदेत् ॥ ९४२ ॥ अथ ग्रहान्ते पड़वांशकुण्डलिकाः कथ्यन्ते । त्रिंशद्भागे दिनं चकं बुधस्य रविशुक्रयोः । माद चतुष्टयं नाड्यः शशिनश्च सतां मताः ॥ ९४३ ॥
राहु दशम में हो तो राज्य पद का नाश करता है, और लाभ स्थान में हो तो लाभ नहीं होता है, और, व्यय स्थान में हो तो बहुत व्यय कगता है, बाधक राहु सब जगह नाश ही करता है ॥६३८॥
इति राहुफलम् । गुरु से वर्ष फल, तथा रवि से मास फल और दिन में चन्द्रमा से पन्द्रह घटी का फल कहें ।। ६३६ ॥
चन्द्रमा से त्रिंशांश के वश साढ़े चार घटो का फल कहें, और ग्रहों का अंश जान कर दिन का कल कहें ॥ ६४० ॥
दिनचर्या फल में क्षीण चन्द्र का विचार नहीं करें, और पूर्ण चन्द्र का दृष्टि तथा योग से समान फल होता है, वह जिस अंश में गत हो उस से फल का विचार करें ।। ६४१ ।। ___जन्म लग्न से, और नाम राशि से या प्रश्नकालिक लग्न से दिन पर्या फल कहना चाहिये ॥ ४२ ॥
अब ग्रह के बाद षड्वर्गीश कुण्डली को कहते हैं
बुध, रवि, आर शुक्र, इन ग्रहों के त्रिंशांश पर से एक दिन का फल तथा चन्द्रमा से साढ़े चार घटी का फल कहें ।। ६४३ ॥
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( १७५ ) मङ्गलस्य दिनं साई मासमेकं शनैर्मतम् । अष्टादश दिनान्याहुः सिंहिकायाः सुतस्य च ॥ ९४४ ॥ गुरोस्त्रिंशांशभागाः स्युस्त्रयोदश दिनान्यहो । निश्चितं श्रीमताप्युक्तं श्रीहेमप्रभसरिणा ॥ ९४५ ।।
इति त्रिंशांशकुंडलिकाः। श्यामांगरविशुक्राणामुक्तं सार्द्धदिनत्रयम् । सपादैकादशेन्दोश्च घटिका द्वादशांशके ॥ ९४६ ।। मासमेकं विजानीहि साई दिनद्वयं गुरोः । साई मासद्वयं चैत्र मन्दस्य कथितं बुधैः ।। ९४७ ।। सपक्षं मासमेकं च गहोस्तु कथितं सदा । त्रिभागसहितं विद्धि मंगलस्य दिनत्रयम् ॥ ९४८ ॥
इति द्वादशांशकुण्डलिकाः । और मंगल से डेढ रिन, शनि से एक मास, और राह से अठारह दिन का फल कहें ||४||
गुरु से त्रिंशांश के वश तेरह दिन का फल कहें इस प्रकार श्रीमान् हेमप्रभसूरि भी निश्चित फल कहे हैं ।। ६४५ ।।
___ इति त्रिंशांशकुण्डलिकाः। बुध, रवि, शुक्र, इन ग्रहों से द्वादशांश के वश साढ़े तीन दिन का शुभाशुभ फल हैं, और चन्द्रमा से सवा ग्यारह घटी का फल कह ॥ १४६ ॥
___ गुरु से एक माम अढ़ाई दिन का फल जाने और शनि से अढ़ाई मास का फल कहें॥६४७ ॥
राहु से द्वादशांश के वश डेढ़ मास का फल, और, मंगल से सवा तीन दिन पर्यन्त शुभाशुभ फल का द्वादशांश पर से विचार करें ।।६४८॥
इति द्वादशांशकुएडलिकाः ॥ 1. दिनानि च for दिनान्यहो Bh. 2. द्वयम for त्रयम Bh.
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( १७५ ) नवांशेऽर्कसितज्ञानां सत्रिभागमहस्त्रयम् । नाड्यः पञ्चदशैवेन्दोमामे पञ्चदिनानि च ॥ ९४९ ॥ मासो जीवे दिनानि स्युस्त्रिभागोनचतुर्दश । शनेर्मासत्रयं व्यंशो राहोर्मासद्वयं पुनः ।। ९५० ॥
इति नवांशकुंडलिकाः । श्रीहेलाशालिनां योग्यमप्रभीकृतभास्करम् । सूक्ष्मेक्षिकया चक्रेऽनिभिः शास्त्रमदूषितम् ॥९५१ ।। क्रियते केवलादशस्त्रलोक्यस्य प्रकाशकः । श्रीमद्देवेन्द्रशिष्येण श्रीह मप्रभसारिणा । ९५२ ।।
___ अथाघकाण्डः । शुक्रास्ते भाद्रमामे शुभभगणगतं वाक्पती सौख्यहती ज्येष्ठायाह सुवारे शशिस्तधिषणे सूदिते निश्यगस्त्ये । को भूपादिवर्गे विघटति समय मङ्गले वक्रिते या
सूर्य, शक्र बुध. इन ग्रहों से नवांश के वश तृतीयांश तीन दिन का फल कह, और चन्द्रमा से नवांश वश पन्द्रह चंटी और मंगल से पांच दिन का फल को ॥ ६४६ ॥
गुरु से एक मास तृतीयांश उन चौदह दिन का फल विचार करें, और शनि से तृतीयांश युक्त तीन मास, तथा राहु से नवांश के वश दो मास का फल विचार करें ।। ६५० ।।
इति नवांशकुण्डलिकाः। श्रीमान हेलाशालि कायोग्य जो कि सूर्य को भी निस्तेज करते है,ऐसे वे श्रीमान् देवेन्द्र के शिष्य श्री हेमप्रभसूरि सूक्ष्म दृष्टि से शत्रु से अदृषिन त्रैलोक्यप्रकाश नामक शास्त्र में केवलादर्श करते है।।१५१-१५२ ॥
___ भाद्रमास में शुक्र अस्त हो, बृहस्पनि शुभ राशि में हो तो सौख्य काकारणा होता है, और ज्येष्ठ माम का पहला शुभ दिन बुध या गुरु का हो उस रात्रि में अगस्त्य का उदय हो और पाप ग्रह राजा आदि के
1. गा for oगो AI. 2. विघटित for विषटति Bh.
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( १७७ )
चाय पूर्वधिष्ण्ये प्रहग्यमुगते जायते दिव्यकालम् ९५३ भौमत्येनाथे कुशलकुतिरवेः संक्रमे वृद्धि के स्यात् आषाढ्यां सौम्यपूर्वे प्रसरति पवने दुर्दिने सर्वयामान् । रात्रावार्द्राप्रवेशे वृषभतनुगते सौम्ययुक्ते च सर्वे चिरेतैः कालो जगति शुभकरो वर्षणे कृत्तिकायाम् ||९५४ || रात्रौ संक्रान्ति यामप्यगस्त्योदयो भवेत् ।
3
तदा वर्षे सुभिक्षं स्याद् विपरीते विपर्ययः ।। ९५५ ॥ सौम्याद पञ्च स्यात्सुरगुरुरुदितो दुःखदौर्गत्यकर्ता पित्र्यादौ वा चतुष्के भवति समुदितः सौख्यनद्भिक्षदाता | चित्राद्यैर्वाष्टधिण्यैः तृणसिहिभयं संततं संविधत्तं कर्णादौ धिष्ण्यपंक्ती जगति वितनुते सौस्थ्यसम्पत्तिसौख्यम् वर्गों में हो वा मंगल वक्री हो, और आषाढी पूर्णिमा में पूर्वाषाढ़ नक्षत्र हो और आठों प्रहर सुन्दर काल हो ।। ६५३ ।।
राजा, मन्त्री, तथा अन्नाधिप ये रवि के संक्रान्ति काल में वृश्चिक में हो, आपाड़ी पूर्णिमा में उत्तरा, पूर्वा वायु चले और सत्र प्रहरों मेंदुर्दिन हो, और रात्रि में आर्द्रा का प्रवेश हो, सूर्य शुभ ग्रह से
युक्त हो
कर वृष लग्न में हो और कृत्तिका मे वर्षा हो तो इन चिन्हों से संसार में शुभ कर समय होता है ।। ६५४ ॥
रात्रि में नक्षत्र में सूर्य की संक्रान्ति हो और अगस्त्य का उदय भी हो तो उस वर्ष में सुभिक्ष समय होता है और विपरीत होने पर विपरीत ही फल कहें ।। ६५५ ।।
मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, इन नक्षत्रों में बृहस्पति उदित हो तो दुख और दुर्गति करता है, और मघा, पूर्व फल्गुनी, उत्तर फल्गुनी, हस्त, इन नक्षत्रों में उदिन हो तो सौख्य और सुभित होता है । चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा ज्येष्ठा, मूल. पूर्वापाढ़, उत्तराबाढ़, इन नक्षत्रों में गुरु उदित हो तो तृगा. शीतादि का भय सतत होता श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र, ग्वमी, इन नक्षत्रों में उदित हो तो स्वस्थता सौख्य, और सम्पत्ति का विस्तार करता है । ६५६
1. काल: for कालम Bh. 2. भूपे for भौमे Bh. 3. ध्येयकामहि for oष्यैः तृगामिद्दि Bh.
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( १७८) उदग्वीथीं चरन् जीवः सुभिक्षक्षेमकारकः । मध्यमे मध्यमं चार्वमेवमन्येऽपि खेचराः ॥९५७ ॥
इति गुरुवारः । उत्तरेण ग्रहाणां तु चन्द्रवारी भवेद् यदि । सुभिक्षं विग्रहाभावो जायते तत्र वत्सरे ॥ ९५८ ॥ पञ्च ताग ग्रहा यत्र सोमं कुर्वन्ति दक्षिणे । भौमे च राजमारी च जनमारी च भार्गवे ।। ९५९ ।। बुधे रसक्षयं कुर्याद् गुरौ कुर्यान्निरोदकम् । शनावर्थक्षयं कुर्यान्मासे मासे निरीक्षयेत् ॥ ९६० ।। चित्रानुराधा ज्येष्ठा च कृत्तिका रोहिणी तथा । मघा मृगशिग मूलं तथाषाढाविशाखयोः ॥ ९६१ ।। एतेषामुत्तरे मार्गे यदा चरति चन्द्रमाः क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं मुवृष्टिर्जायते तदा ॥ ९६२ ।।
यदि गुरु उत्तर वीथी से मंचार करें तो सुभिक्ष और क्षेम कारक होते हैं. और मध्य वीथी से मध्यम अघे करते हैं इस तरह और ग्रह का मी विचार करें ।।६५७||
इति गुरुवारः । जब चन्द्रमा प्रहों के उत्तर मार्ग से जाते हैं तो, सुभिक्ष, विग्रह का प्रभाव उस वर्ष में होता है ॥१५॥
पञ्चतारा ग्रह जहां पर चन्द्रमा को दक्षिण करते हैं, वहां यदि मंगल करे तो राजमारी अर्थात कोई ऐसा उपद्रव जिससे राजा के तरफ से लोग मारे जाय और शुक्र करे तो बहुत लोग मरें, ॥१५६।।
___ बुध करे तो रसों का तय, बृहस्पति करें तो पानी नहीं मिले, और शनि को तो धन का क्षय होता है, इस प्रकार मास मास का फल विचार करें ॥१६॥
चित्रा, अनुराधा, ज्येष्ठा, कृत्तिका रोहिणी, मघा, मृगशिरा, मूल. पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, इन नक्षत्रों के उत्तर मार्ग से यदि चन्द्रमा संचरण करे तो कल्याण मुभिक्ष आरोग्य. सुदृष्टि होते हैं ।।६६१-६६२।।
1. चार्थ० for चा Bh.
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( १७६ ) एतेषां दक्षिणे मार्गे यदा चरति चन्द्रमाः । क्षयं गच्छन्ति भूतानि दुर्भिक्षं च भयं भवेत् ॥९६३ ॥ शुक्रोस्तमयते मासे फाल्गुने यदि निश्चितः । तदा दुर्भिक्षमादेश्यं षण्मासावधि धीमता ॥ ९६४ ॥ चैत्रे तु स्याद्धले तुल्यो वैशाखेन चतुष्पदम् । ज्येष्ठे करोति वृष्टिं वा प्याषाढे जलशोषणम् ॥ ९६५ ॥ श्रावणे दधिदुग्धैस्तु भुवं सिञ्चति मेघतः । भाद्रपदे धनधान्य मेंघो हर्षात्प्रमोदते ।। ९६६ ॥ आश्विनेऽपि सुखैभव्यो वृष्टिं करोति कार्तिकः । मार्गे च विग्रहो घोगे निश्छत्रं पौषमाघयोः ॥९६७ ॥
इति शुक्रास्तफलम् । समर्पयोगा एते ।
इन पूर्वोक्त नक्षत्रों के दक्षिण मार्ग से चन्द्रमा यदि संचरगा करे तो प्राणियों का क्षय, दुर्भिक्ष और भय होता है ।।६६३।।
यदि शुक्र फाल्गुन मास में अस्त को प्राप्त करे तो छ: मास पर्यन्त दुर्भिक्ष होगा ऐसा बुद्धिमान आदेश करें ।।६६४॥
यदि चैत्र में शक्रास्त हो तो बल का आधिक्य होता है. वैशाख में हो तो चतुष्पद की वृद्धि, और ज्येष्ठ में शुक्रास्त हो तो वर्षा होती है, आषाढ़ में हो तो जल को सुखाता है ।।६६५।। __ श्रावण मास में यदि शुक्रास्त हो तो मेघ से दधि दुग्धों की वर्षा से पृथ्वी का सेचन होता है, और भाद्रपद माम में हो तो बहुत धन धान्य होता है । जिस से लोग हर्षित होकर अानन्द से रहते हैं ।।६६६।। ___आश्विन में हो तो बहुत सुख पूर्वक आनन्द से लोग रहते हैं, और कार्तिक में शुक्रास्त होने से वर्षा होती है अग्रहण में हो तो घोर विप्रह होता है, और पौष माघ में होने से निश्छत्र होता है ।।६६७॥
इति शुक्रास्तफलम् । 1 आयो for भयं Bh.
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( १८० )
तुलापटकविपर्याये ज्ञातिवारोऽपि संतते ।
ज्येष्ठ शुद्वितीयेन्दोत्रह्मयोगे महघकः ।। ९६८ ॥ aarat वारः समासाद्य वासरे। भवेत्तदा त्रिभिर्मासैर्मह्यं जायते ध्रुवम् ॥ ९६९ ॥ मासाद्यदिवसे वारो बुधो भवति चेद् यदा ।
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मात्र मह स्याद् भावे वर्ष विनश्यति ।। ९७० ॥ अमावास्यातियो धिष्ण्यं यदा भवति कृत्तिका । इतना क्षितौ नूनं वर्षे तत्र भविष्यति ॥ ९७९ ॥ पदाधिष्ण्ये यदा कम भवन्ति वा ।
तदा सर्व भवेद्वाच्यं मह भृतले तदा ।। ९७२ ।। सप्तम्यां सोमवारः स्यान्माध पक्षे मिते यदा । दुर्भिक्षं जायते रौद्रं विग्रहोऽपि च भूभुजाम् ॥ ९७३ ॥ वारे चतुर्थे यदि पञ्चमे वा धिष्ण्ये तृतीये यदि पञ्चमे वा । पूर्वक्रमात्संक्रमणं यदा स्पानदा च दौस्थ्यं नृपविश्वरंच ॥९७४
तुलाद पट राशियों में बुध का अतिचार हो, और ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया में चन्द्रमा से रोहिणी का योग हो तो महर्ष होता है ॥६८॥
सब मासों के प्रथम बुध का ही बार हो तो तीन मास तक निश्चय म होगा ||६६६ ॥ का ही दिन हो तो तीन मास में महर्ष होता है ओर वर्ष पर्यंत उसका भाव न ही रहता है ||६७०||
यदि अमावास्या तिथि में कृत्तिका नक्षत्र हो तो उस वर्ष में ईति का उपद्रव पृथ्वी पर बहुत होता है ||६७१ ||
यदि पूर्वभाद्र नक्षत्र में पापग्रह हो तो पृथ्वी में सब वस्तु को • हर्घ ही कहना चाहिये ।।६७२ ॥
माघशुक्ल ममी को सोमवार हो तो बहुत कठिन दुर्भिक्ष होता है, और राजाओं का विग्रह भी होता है ।। ६७३ |
बुध, या बृहस्पतिवार में और कृत्तिका या, मृगशिगनक्षत्र में पूर्व क्रम मे यदि संक्रान्ति हो तो दु:स्थिति होती है, और राजाओं का विपद भी होता है ||६७४ ||
चारे for वारो Bh.
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(१८१) सङ्क्रान्तिधिष्ण्याचदि षष्टसंख्ये जायेत धिष्ण्ये रविसंक्रमोऽपि तदापि दौस्थ्यं नृपविध्वरश्व त्रिभागतुच्छा भवति हि पृथ्वी९७५ तुर्ये धिष्ण्ये च पूर्वस्माद्यदि वारे तृतीयके ॥ संक्रमो यदि सूर्यस्य सुभिक्षं स्थात्तदोत्तमम् ॥ ९७६ ।। सूर्यस्यान्यग्रहाणां वा गुरुभऽभ्युदयास्तमौ । शशिदृष्टौ मुभिक्षं स्याइभिक्षं लघुभं पुनः ॥ ९७७ ।। तिथिदिनोडुलग्नानामाघकण्टे रविस्थतौ । सुभिक्षं जायतेऽवश्यं दुभिक्षं तु त्रिकण्टके ।। ९७८ ॥ मित्रस्वगृहतुंगस्थः शुभदृष्टियुतो रविः । पूर्णचन्द्र महाधिष्ण्ये पूर्वसङ्क्रान्ति तुर्यके ।। ९७९ ॥ तृतीयवारसम्बद्धः सुभिक्षः क्षेमदः स्मृतः । सुप्तोऽरिभिर्युतो दृष्टो विद्धः करस्तु नीचगः ।९८०॥
बुध के संक्रान्ति नक्षत्र से छट नक्षत्र में यदि रवि की भी संक्रान्ति हा ता भी लोगों की दुःस्थिति होती है. तथा राजाओं के विग्रह से त्रिभाग शून्य पृथ्वी हो जाती है । ६७५॥
उस संक्रान्ति में चतुर्थ नक्षत्र में मंगल दिन यदि सूर्य की संक्रान्ति हो तो उत्तम रूप से सुभिक्ष हाता: ॥६७६॥
सूर्य का या अन्य ग्रहों का गुरुनक्षत्र में उदय, वा अस्त हो उस पर चन्द्रमा की दृष्टि हो तो सुभिक्ष होता है, और लघुसंज्ञक नक्षत्र में उदयास्त हो तो दुर्भिक्ष होता है ।।६७७||
. तिथि, दिन, नक्षत्र राशि, इनके प्रथम कण्टक रवि स्थित हों तो अवश्य ही सुभिक्ष होता , और त्रिकण्टक में हो तो दुभिक्ष होता है ।
मित्र स्वगृह, उच्च, आदि में स्थित सूय शुभ ग्रहों की दृष्टि से युक्त हो और पूर्ण चन्द्रमा पूर्व के संक्रान्ति से चतुर्थ नक्षत्र बृहत संज्ञक में हो और मंगलवार भी होता, सुभिक्ष, और कल्याण करता है, और वही सूर्य शत्रु ग्रहों से युक्त हो, नथा पापग्रहों से विद्ध होकर
1. धिष्ण्यं for धिष्ण्याद् Bh. 2. निशि for यदि Bh. 3. गौ for oगौ Bh.
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( १८२) तुच्छमुहूर्तसङ्क्रान्तिः पूर्वस्माद् द्विकपञ्चके । सप्तविकल्पसङक्रान्तौ दुर्मिक्षं जायते ध्रुवम् ॥ ९८१ ॥ [पूर्णिमाचन्द्रयोगेनाप्यर्घवृद्धिहानी] तुल्याघ पूर्णिमायां तु मृगादिधिष्ण्यपश्चके । मघाचतुष्के दुर्भिक्षं चित्राद्यअष्टसु दुस्तटम् ।। ९८२ ॥ कर्णादौ दशके धिष्ण्ये सुभिक्षं सततं भवेत् । अमावास्यादिने योगे पुनर्वस्वादिपञ्चके ॥ ९८३ ॥ समर्षमघदुर्भिक्षमुत्तरादिचतुष्टये ।
विशाखाज्येष्ठ के रौद्रं दुर्भिक्षं तु विजायते ।। ९८४ ॥ नीच में हो और सुप्त संक्रान्ति करता हो, पूर्व के संक्रान्ति से द्वितीय या पन्चम, तुच्छ मुहूर्त में इन सातों को विकल्पक संक्रान्ति में ध्रव ही दुर्भिक्ष होता है ।। ६७६-६८१ ॥
पूर्णिमा में, मृगशिरा पार्दा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, इन नक्षत्रों का योग हो तो अर्थ की समता रहती है, और मघा, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त, इन नक्षत्रों के योग होने से दुर्भिक्ष होता है,
और चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, इन नक्षत्रों के योग में भी दुर्भिक्ष होता है ॥६८२॥
श्रवण आदि दश नक्षत्रों के योग होने से सर्वदा सुभिन्न होता है। अमावास्या के दिन, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वफल्गुनी, इन पांच नक्षत्रों का योग हो ॥१३॥
तो समर्ष होता है, और उत्तरफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती इन चार नक्षत्रों का योग हो तो दुर्भिक्ष होता है और विशाखा, आदि के पाठ नक्षत्रों में बहुत कठिन दुर्भिक्ष होता है ||४|| ____ 1. त्रिक for द्विक A1 2. ज्येष्ठःसु for ०द्येऽष्टम् Bh. 3. ०मथ for omdf Bh. 4 ogo for oseto A.
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( १८३)
भवेच्छतभिषक्दश नक्षत्रेषु सुभिक्षकम् । एवं पक्षद्वये प्रोक्तं योगे योगे फलं यदेत् ।। ९८५॥ तिथिनक्षत्रयोः सौम्यमृगादिधिष्ण्यपञ्चके । पूर्णिमायां विधेर्योगे तुल्याघशमनं भवेत् ।। ९८६ ॥ सौम्यैकवक्रोऽप्यशुभोऽतिचार : करोति सर्व विफलं समर्षम् । करकवकनः शुभदोऽतिचारो धान्यं विधत्ते भुवने महर्षम् ।।९८७ सुभिक्षं च तदैव स्याद्वक्रत्वं सितसौम्ययोः । वक्रत्वे तु गुरोर्नूनं राशिप्रान्ते समयकम् ।। ९८८ ।। कन्यायां बुधवक्रत्वे सुभिक्षं निश्चितं मतम् । वर्षाकालऽप्यतीचारे समघ भुवि जायते ॥ ९८९ ॥ भौमायोरप्यतीचारे सुभिक्षं भवति स्फुटम् । सौम्यानामप्यतीचार धिष्ण्यहानौ च निष्फलम् ॥ ९९० ॥
शतभिषा से दश नक्षत्रों में सुभिक्ष होता है, इस प्रकार दोनों पक्षों में कहा और योग योग में ऐसे फल कहे ८५॥
इस प्रकार शुभ तिथि नक्षत्रों के याग से सुभिक्ष होता है, पूर्णिमा में मृगशिरा आदि के पांच नक्षत्रों में चन्द्रमा का योग हो तो तुल्यार्घ तथा शान्ति होती है ॥१६॥
एक शुभग्रह वक्र हो, और अशुभग्रह अतिचार हो तो वह सब समर्घ को नष्ट करता है, और एक पापग्रह वक्र हो और शुभग्रह अतिचार हो तो वह धान्य को महर्ष करता है ।।१८७॥
बुध, शुक्र, वक्र हो तो मुभिक्ष होता है, और, गुरु यदि वक्र हो तो राशि के अन्त में समर्थ होता है । ६८८||
कन्याराशि बुध वक्री हो तो निश्चय सुभिक्ष होता है, और वर्षा काल में भी अतिचार हो तो भी पृथ्वी में समर्थ होता है ॥६८६||
भौम, शनि के भी अति चार में सुभिक्ष हाता है। शुभ ग्रहों के अतिचार में भी यदि नक्षत्र की हानि हो तो निष्फल होता है । ____ 1. भावदश for भवेच्छतं A'.. 2. ०र्थ्यमशनं for पशमनं A, Bh.
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( १८४ )
मेषादित्रित सूर्ये शुभयुक्ते तिथिक्षये ।
1
कर्णादौ पूर्णिमायोगे मह तु हठाद्भवेत् ।। ९९१ ॥ स्वातिमुख्याष्टमे जीवे अश्विन्यादित्रिकेऽपि वा । शनिराहुकुजेश्ववं प्रत्येकं सहितो भवेत् ।। ९९२ ।। सञ्चरन्ति यदा काले सुभिक्षं जायते क्षितौ । मृगादिदशके जीवे धनिष्टापञ्चवेऽपि वा ।। ९९३ ॥ भौमादिसहितो गच्छेद् दुर्भिक्षं तत्र जायते ।
2
एकराशिगत चैवमेकक्षं च महद् भवेत् ।। ७९४ ।। त्रिपञ्चकयोग विस्तरतो व्याख्यायेते ।
स्वात्याद्यष्टक संयुक्तमश्विन्यादित्रिकं पुनः । त्रिकसंज्ञं बुधर्वाच्य मघ काण्डं विशारदः ।। ९९५ ।
मेषादि, तीन राशि मे शुभ युक्त सूर्य हो और तिथि क्षय हो और पूर्णिमा मे श्रवणा आदि नक्षत्रों का योग हो तो हठत् महर्ष होता है ||१||
स्वाती आदि के आठ नक्षत्रों मे वा अश्विन्यादि तीन नक्षत्रों मे बृहस्पति हो और शनि, राहु, मंगल इन प्रत्येक ने युक्त हो ||२||
पूर्वोक्तयोग विशिष्ट गुरु जब सञ्चार करे उस काल में पृथ्वी मे सुभिक्ष होता है, मृगशिरा आदि के दश नक्षत्र मे वा धनिष्ठा, आदि के पांच नक्षत्रों में बृहस्पति ॥ ६६३ ||
मंगल, शनि, राहु से युक्त गुरु पूर्व नक्षत्र में संचार करें तो दुभ होता है, यदि ये एक राशि में हों तो एक वर्ष पर्यन्त महान् भय होता है ||६६४ ||
अथ त्रिकपञ्चकयोगौ विस्तरतो व्याख्यायेते
स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ श्रवणा, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, इन नक्षत्रों का त्रिक संज्ञक, अर्धकाण्ड निपुण पंडित कहते हैं ||६६५॥
1. A. adds: - धनुर्म कर कुंभेषु यत्क्रीतं धान्य जीवनम् । तत्कर्क मिथुने देयं पतिता सितपंचमी ॥
2. मेत्र tol मेक Bh.
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( १८५ )
मृगादिदशकं चापि धनिष्ठापञ्चसंयुतम् । पञ्चकनामकं ज्ञेयमर्घनिर्णयहेतुकम् ॥ ९९६ ॥ त्रियोगे त्रिको योगः पञ्च पञ्चकः पुनः । गृह्यते च त्रिके योगे दीयते पञ्चके धनम् ।। ९९७ । त्रिके च जीवराशेश्व क्रूरा यदि त्रिके गताः ।
1
अन्योन्यं वा त्रिके च स्युर्गृह्यते तत्क्रयाणकम् ॥ ९९८ ॥ पञ्चके जीवराशेस्तु गच्छन्ति यदि पञ्चके । अन्योऽन्यं पञ्चकं वा स्युदीयते तचदेव हि ।। ९९९ ॥ यथा धिष्ण्ये त्रिके चन्द्रः क्रेतव्यं तत्क्रयाणकम् ।
यदा च पञ्चके चन्द्रो विक्रेतव्यं तदाखिलम् ।। १००० ॥
मृगशिरा, श्रार्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्व फल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त, चित्र, और धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्र उत्तरभाद्र, रेवती, इन नक्षत्रों को अर्घ निर्णय के लिये पंडित पचक संज्ञक कहते है ॥६६६॥
त्रिकयोग में त्रिकयोग होता है और पज्ञक नक्षत्र के योग में पाक योग होता है, त्रिक योग में वस्तु मइया करना चाहिये, और पलक योग में वस्तु देना चाहिये ||६६७ ! |
यदि गुरु के राशि त्रिक में हों या पापग्रह त्रिक में वा दोनों परस्पर त्रिक में हों तो खरीद करने योग्य वस्तु को प्रहण करना चाहिये ||६६८|| यदि गुरु की राशि पञ्चक में हो या पापग्रह पञ्चक में हो वा दोनों परस्पर पचक में हों तो उस वस्तु को उसी समय देना चाहिये | ६६६॥
अब चन्द्रमा त्रिक में हो तो खरीदने योग्य वस्तु को खरीदना चाहिये, यदि चन्द्रमा पश्चक में हो तो उस सब वस्तु को उसी समय बेच लेना चाहिये ||१००० ||
1 पoes for बात्रिके A
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(१ ) जीवात्रिके तमः सौरियामा एम्यो गुरुस्त्रिके। अन्योऽन्यं पश्चके. जीवे देहि लाहि त्रिके कमात्॥१००१॥ मासार्घवर्षाः । .. त्रिके यदि ग्रहाः सर्वे जीवान्मन्दतमः कुजः । तदा मुकि महर्ष स्वात्तियो वृद्धौ विशेषतः ॥१००२ ॥ यदा स्याज्जीक्योमेन मटके विण्यपथके। तदा क्रिश्चिन्महर्ष स्यात् सौम्यवासरगं पुनः ॥ १००३ ॥ पञ्चके चेद्ग्रहाः सर्वे संमिलन्ति यदैव हि । तदा भुवि महघ स्याद् धिष्ण्यहानी विशेषतः ॥ १००४ ॥ गशिपञ्चकयोगे तु धिष्ण्यत्रिकं यदा भवेत् । तदा किश्चित्सम स्यात्सौम्यवक्रे शुभं बहु ॥ १००५ ॥
संसिरा तु यदा जीवो राशिनक्षत्रपश्चके । • पोरं दौस्थ्यं तदा ज्ञेयमृक्षे न्यूनेति गौरवम् ॥१००६॥ - गुरु से त्रिक में राहु, शनि, मंगल, हो और उन से त्रिक मे गुरु हो या परस्पर दोनों पञ्चक में हों तो भयाणक वस्तु देनी चाहिये, यदि दोनों परस्पर त्रिक में हों तो उस वस्तु को ग्रहण करें ।।१००१॥
अथ मस्सा वर्षा:
याद जीव से त्रिकम शनि, राहु, मंगल हों तो पृथ्वी में मार्क होता है, और तिथि वृद्धि हो सो विशेष महर्ष होता है ।।१००२॥
यदि त्रिक, या पक्षक नक्षत्र में जीव का योग हो तो कुछ महग होती है और शुभ ग्रहों का योग हो तो विशेष मेंहग होती है ।।१००३॥
पत्रक में सब ग्रह सम्मित हो जाय तो पृथ्वी में महर्ष होता है. और नक्षत्र का क्षय हो तो विशेष महर्ष होता है ॥१००४॥
पाक, तथा त्रिक, नक्षत्र राशि के योग से कुछ समर्थ होता है, भोर महों को या होने पर बहुत शुभ होता है ||१००५।।
संसिरा जीव यदि पक्षक राशि नक्षत्र में हो सो घोर, दौस्थ्य होता और नक्षत्र का सब होने से अत्यन्त गौरव होता है ॥१००६॥
केप्यते लाह for जीवे देहि लाहिं Bh. 2. धषिक for: पास A, योगेषिकं Bh. पके for Bh. 4. महरा for सासरा Bb.
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(१८७ )
राशिधिष्ण्ये त्रिके पूर्वे ग्रहाः सर्वे भवन्ति चेत् । महासौस्थ्यं सदा भूम्यां सौम्यवक्रे महोत्सवः || २००७ ॥ इत्यर्धकाण्डम् |
त्रिपञ्चकयोगो दर्शितः । साम्प्रतं द्वितीय राशि
पद्धत्या त्रिकपञ्चकयोगौ प्रतिघट्टयन् सांवत्सरिकमप्यर्ष प्रतिपादयति
1
भानुवक्रतमः कोडास्तृतीयस्था गुरोर्यदि ।
सुभिक्षं जायते सत्यमीदृशे योगसंकटे ॥१००८ || aalasafararacarरः क्ररखेचराः । तृतीयस्था: शनेरेते सौस्थ्यसद्भिक्षकारकाः || १००९ || भानुवक्रतमः क्रोडाः पञ्चमस्था गुरोर्यदि । दुर्भिक्षं जायते तत्र घोरं योगे समागते ॥ १०१०|| मानुवक्रतमः क्रोडा द्विपञ्चनवतगाः । द्वादशस्था गुरोरेते मञ्जन्ति सकलं जगत् ॥ १०११॥
त्रिक राशि नक्षत्र में सब ग्रह हों तो पृथ्वी पर महान स्मैस्थ्य होता है और शुभ ग्रह वक्री हो तो महान् उत्सव होता है ||१००७॥
मक्षत्र पद्धति से त्रिक पञ्चक योग दिखाया, अब द्वितीय राशि फद्धति से त्रिक पञ्चक योग को कहते हुए संवत्सर का अर्थ काड कहते हैं ।
यदि सूर्य, मंगल, राहु, ये गुरु से तृतीय में हों तो ऐसे बोग संकट में सुमित होता है ॥१००८ ||
राहु, मंगल सूर्य आदि के चार पापग्रह तृतीय में हों तो स्वस्थता तथा सुभिक्ष को करते हैं || १००६ ॥
यदि गुरु से सूर्य, मंगल, राहु, ये पंच में हों तो ऐसे योग में तु होता है ।।१०९० ॥
यदि गुरु से सूर्य, मंगल, राहु, ये पापग्रह द्वितीय, सप्तम, नवम द्वादश में हों सम्पूर्ण संसार को नष्ट करता है ||११|
1. antes for nigas A, A1. 2. पचमस्था for तृतीयस्था A, Á1.
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( १८८ ) तमोवक्रसवित्राद्याश्चत्वारः करखेचराः । पञ्चमस्थाः शनेरेते दौस्थ्यदुभिक्षकारकाः ॥१०१२॥ मन्दराहोरपि रास्तृतीये सौस्थ्यकारकाः । एतयोः पञ्चमाः ऋराः दुःखदुर्भिक्षहेतवः ॥१०१३॥ बृहस्पतितमःसौरिमङ्गलानां यदैककः । त्रिके च पञ्चके कार्या धान्यस्य क्रयविक्रयौ ॥१०१४॥ सत्यारतमसो युक्ता धनुमीने स्थिता यदा । पृथ्वीत्रिभागशेषा च दुर्भिक्षं च तदा भवेत् ॥१०१५॥ त्रिकपञ्चकयोगी द्वौ व्याख्यातौ गुरुदर्शितौ । योगं वदामि रोहिण्या ग्रहयोगाच्छुभाशुभम् ॥१०१६॥
रोहिण्या सौम्ययोगेन करदर्शनवर्जिते । _ उत्तरग हैः सर्वैः सुभिक्षं निश्चितं भवेत् ॥१०१७॥
__ यदि शनि से पञ्चम में राहु, मंगल, सूर्य, आदि के चार पापग्रह हों तो दुःस्थिति तथा दुर्भिक्ष करते हैं ॥१०१२।।
___और शनि, राहु से भी तृतीय में पापग्रह हों तो स्वास्थ्यकारक होते है. तथा इन दोनों से पञ्चम में पापग्रह हो तो दुःख, और दुर्मिक्ष का कारण होते है ।।१०१३॥ .
बृहस्पति, राहु, शनि, मंगल, ये एक एक करके यदि त्रिक सहक में हो तो धान्य खरीदना चाहिये, और यदि वे पश्चक संज्ञक में हों तो धान्य का विक्रय करना चाहिये ॥ १०१४ ॥
नि, मंगल, राहु, ये सब ग्रह यदि धनु, या मीन में स्थित हो तो पृथ्वी का तृतीयांश ही शेष बचता है और दुर्भिक्ष होता है ॥१०१५॥
गुरु से दिखाये हुए उन दोनों त्रिक, पत्रक योगों को मैंने कहा, ओर अब ग्रहों के योग से रोहिणी का शुभाशुभ फल कहता है ॥१०१६॥
गाहणी में शुभग्रहों का योग हो और उस पर पाप ग्रहों की दृष्टि नही हो और सब ग्रह उसके उत्तर मार्ग में हों तो निश्चय मुभिक्ष होता है॥ १०१७ ॥ ... 1. शन्यारतमः सौ for सत्यारतमसो A. 2. उत्तरमे० for च . A.
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( १ ) चन्द्रस्तोकमपि व्योनि रोहिणीशकटं स्पृशन् । उद्गच्छति यदा वाच्यं दुर्भिक्षं तत्र नित्यशः ॥१०१८॥ रोहिण्या यदि मध्येन चन्द्रो गच्छति पाटयन् । तदा दुस्थं विजानीयात् कम्युक्ते विशेषतः १०१९॥ . अथ चन्द्रो यदा ब्राह्मी दक्षिणेनैव गच्छति । दुर्भिक्षेण तदा भूमेयुगान्त इव जायते ॥१०२०॥ रोहिण्यामेकनक्षत्र स्यातां चन्द्रदिवाकरौ । द्वितीयायां प्रजाहानिदुर्भिक्षण भयेन वा ॥१०२१॥ कुजः शनि राहुर्वा भिनत्ति यदि रोहिणीम् । ध्रुवं तदा पदाम्भोधौ निमजति जगञ्जनः ॥१०२२ यदि तत्र च चन्द्रारराहुमन्दास्तु दक्षिणाः । तस्यास्तदा बुधैर्वाच्यो महांश्च प्रलयो भुवः ॥१०२३।
आकाश में चन्द्रमा थोड़ा भी रोहिणी शकट का भेदन करता हुमा उदय हो तो वहां नित्य दुर्भिक्ष होता है ।। १०१८॥
यदि चन्द्रमा रोहिगी शकट के मध्य को भेदन करता हुआ उज्य हो तो दुस्थिति होती है और यदि पापग्रह का योग हो तो विशेष दुःस्थिति होती है ॥ १०१६ ।।
यदि चन्द्रमा रोहिणी शकट के दक्षिण से जाय तो पृथ्वी में युगान्त के समान दुर्भिक्ष होता है ।। १०२० ।। .
यदि चन्द्रमा, सूर्य, दोनों एक साथ, द्वितीया को रोहिणी नक्षत्र में हों तो दुर्भिक्ष से तथा भय से प्रजा की हानि होती है ।। १०२१॥
मंगल, शनि, पा राहु, यदि रोहिणी शकट को भेदन करें तो निश्चय संसार के लोग पानी में डूबते हैं ।। १०२२ ॥
__ यदि चन्द्रमा, मगल, गहु, शनि, रोहिणीशकट के दक्षिण में हों तो पण्डित लोग पृथ्वी का महाप्रलय कहें ।। १०२३ ॥
1. स्पृशेत for स्पृशन A. 2. गच्छन् विपाटयन् fot गच्छति पाटयम् A. ४. तदा हि दुस्थं जानीयात for तदा दुस्थं विमानीयात A. 4. वेत्स्यातां चन्द्रास्किरों tor स्यातां चन्द्रदिवाकरौ A.
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( १६० ) चन्द्रमण्डलमध्येन बेधं कुर्वन्ति ग्रहाः । दुर्मिक्ष जायते ऽवश्यं विग्रहोऽप्यन्तरान्तरा ११०२४॥ यदा ग्रहेण सौम्येन करेगापि च सम्मुखः । विद्धा करः शुभो वापि दुर्मिक्षं तत्र निधितम् ।।१०२५॥ सर्वनक्षत्रमध्येन रोहिणी पतिता त्रिके । सौम्ययोगे शुभे च स्यादशुमा करयोगतः ॥१०२६।।
इति रोहिणीयोगाः।
अथाषाढीयोगं वच्मि - मीनसंक्रान्तिकाले च पौष्णभागे दिने भवेत् । यत्र विधुच्छुमो वातस्ततो गर्भो ध्रुवो भवेत् ॥१०२७ मेषसंक्रान्तिकालातु नवस्वपि दिनेष्वपि । 'यत्रानं बातविद्युत्स्यादाादौ तत्र वर्षति । ॥१०२८॥
यदि चन्द्रमण्डल के मध्य से मह वेध करें तो अवश्य दुर्मित होता है और मध्य मध्य में विग्रह भी होता है ॥ १०२४ ॥
यदि शुभग्रह या पाप ग्रह से पाप, या शुभ ग्रह का सम्मुखदेव होमोनिश्चय दुर्भिक्ष होता है ॥ १०२५ ॥
त्रिक नक्षत्र में सब नक्षत्र से रोहिणी यदि पतित हो तो शुभग्रह के योग से शुभ होता है और अशुभ ग्रह के योग से अशुभ शेता है।॥१०२६ ॥
इति रोहिणीयोगः मीन संक्रांति काल में रेवती नक्षत्र हो उस दिन यदि विद्यत् व्या शुभ वायु कहे तो वहां निमय गर्भ समझना चाहिये ॥ १०२७ ॥
मेष संक्रांति काल से नौ दिनों में जिस दिन जहां पर मेघ, वायु, तो तो माझे भादि कम से उस नक्षत्र में वर्ष वर्ग होली १॥ १०२८॥
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( १ ) किं वा नयतु यामेषु वातानादि शुभं भवेत् ।। तस्यां च दिशि संपूर्ण सहिनेऽप्यखिले जलम्॥१०२९॥ आषाढ्यां घटिकापछयां मासद्वादशानिर्णयः । द्वादश पञ्चका षष्ठिरित्त्येवं क्रममादिशेत् ।।१०३०॥ पञ्चनाडी भन्मासः षष्ठया वर्णस्य निर्णयः । सर्पसत्रं यदाभ्राणि वातौ पूर्वोत्तरौ यदि ॥१०३शा तत्र वर्षे कणाः पुष्टा भवन्ति जगतीप्सिताः ।. यदि नाभ्रस्य लेशोऽपि वातौ पूर्वोत्तरौ नहि ॥१०३२॥ न वर्षति तदा देवो दुष्टकालो भवेदिह । यद्यभ्रं स्वल्पकं जातं मध्ये वातेपु वर्षति ॥१०३३॥ आये मासे यदाभ्राणि वातौ पूर्वोत्तरौ यदि । आद्य मासे भवेत्वृष्टिर्याञ्छितादधिका क्षितौ ॥१०३४॥
वा. मेष संक्रांति काल से नौ प्रहरों में जिस दिशा में शुभ वाय, मेघ, विद्यत हो तो, उस दिशा में आर्द्रा आदि क्रम से उस नक्षत्र में वर्षा होती है ।। १०२६ ॥
आषाढ़ी पूर्णिमा में साठ घटी पर से द्वादश मासों का निर्णय करें, साठ पढ़ी को द्वादश भाग करने पर पांच पांच घटी के क्रमसे आदेश करें ॥ १०३०॥
पांच घटी से एक मास का तथा साठ पटी से वर्ष अ निर्णय करें, यदि सम्पूर्ण रात्रि मेघ, तथा पूर्वी उत्तरी वायु बहे तो॥ १०३१
___ उस वर्ष में अभीप्सित धान्य होता है, और यदि भाषाही में मेष कालेश भी नहीं हो तथा पूर्वी, उत्तरी वायु नहीं बहे ॥ १०३९ ।। ,
बोन्द्र वर्षा नहीं करते हैं और दुष्ट काल होता है, बदियोमी मेष, तथा वायु कहे तो वर्षा होती है ॥ १०३३ ।।
यदि पहले मास के घटी विभाग में मेव, बा पूर्वी मी वायु पहे से पहले मास में इच्छा से अधिक वर्षा होती है ।। १०३४ ।।
1. तस्यां च विशि for यस्यां दिशि च A. 2. षष्ठयां for पठया A, Bh. 3. वर्षय for पर्यस्य Bh. 4. मेघो for देखो.A,
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( १९२ ) आपाव्यां च विनष्टायां नूनं भवति निष्कणम् । अहमायरिक्षपातायः सत्यं नश्यति पूर्णिमा ॥१०३५।। दिनमागे निशामाणि यदा भवन्ति तत्क्षणम् । तत्र मासे भवेदृष्टिर्वातैपि शुभैः शुभा ॥१०३६ ॥ यथाषाढीदिने रात्रिस्तथाषाढश्च निश्चितः । प्रमाणपटिकाः पञ्च पञ्चैव श्रावणः स्मृतः ॥१०३७ ।। पञ्चमाद्रपदो मासस्ततः पञ्चाश्विनः स्मृतः । त्रयाभ्रकुलनाडीषु वातौ पूर्वोत्तरौ यदि ॥ १०३८ ॥ तत्र मासे भवेद् वृष्टिः पवनानादि मानतः । तत्र रात्रावपि ज्ञयाः पवनाभ्राः सर्वदिग्गताः ॥ १०३९ ।। वृष्टयादिरहितैरभैः पूर्णिमा सुखदायिनी । वृष्टिकणान् घनान् दत्ते पर्वाद्युत्पातवर्जिताः ॥ १०४० ।।
यदि आषाढ़ी पूर्णिमा नष्ट हो तो निश्चय धान्य नहीं होता, महा मादितथा नक्षत्रपात से पूर्णिमा नष्ट होती है ॥ १०३५ ।।
दिन या रात्रि में जिस क्षण में मेघ दीख पडे उस मास में वर्षा होती है और शुम वायु से शुभ होता है ॥ १०३६ ।।।
भाषाढ़ी पूर्णिमा की रात्रि में श्राषाढ़ का निश्चय करें, पांच पांच षटीका एक एक मास का प्रमाण होता है, इस तरह पांच घटी का प्रावण मास दुधा ॥ १०३७ ।।
। पांच घटी का माद्रमास, और पांच घटी का आश्विन मास, मासों में जिस मास के घटीविभाग में मेघ तथा पूर्वी उत्तरी वायु
उस मास में वायु तथा मेष आदि के मान से वर्षा होती है. और उस रात्रि में भी सब दिशाओं में वायु तथा मेष, आदि का विचार बरें॥ १०३६ ॥
: वृद्धिादि से तथा उत्पात से रहित मेघ पूणिमा में दिखाई देतो पर पूर्णिमा मुख, वर्षा, धान्य, तथा धन प्रादि देने वाली होती है॥ १०४०॥
1. प्रथम for प्रमाण A. 2. यत्रामा tor या A.
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दिने रात्रिविभागे च यदाप्राणि भवन्ति चेत् । तत्र काले ध्रुवं वृष्टिभुक्तनाडीप्रमाणतः ॥ १०४१ ॥ येषु मासेषु ये दग्धा गर्भाः पौषादिसम्भवाः । तद्रात्रौ पञ्चनाडीषु चन्द्रो भवति निर्मलः ॥ १०४२ ॥ दग्धा गर्माश्च ये पूर्वमुत्पातैः शीतकालजैः । आषाढीमध्यतस्तेन चन्द्रमास्तत्र निर्मलः ॥१०४३।। पौषादिसम्भवे गर्भे ध्रुवमुत्पातसम्भवः । तेनाषाढीदिनं सर्व द्रष्टव्यं वृष्टिहेतवे ॥ १०४४।। यथाषाढीदिनं रात्रिरर्वातैश्च पूरितम् । तदा गर्भाःशुभा ज्ञेयाः शीतकालेऽपि धीमता ॥१०४५।। एकमेव दिनं प्रेक्ष्यं कालनिष्पत्तिहेतवे । अष्टयामाभ्रवातौ चेद्वष यावत्तदा शुभम् ॥१०४६॥
दिन या रात्रि में जिम घटीविभाग में मेघ हो, भुक्तघटी के प्रमाण से उस मास में अवश्य वर्षा होती है ।। १०४१॥
जिन मासों का पौष आदि मासों में गर्भ नष्ट हो गया हो उस रात्रि में उन मासों के पांच घटीविभाग में चन्द्रमा निर्मल दिखाई देते हैं ॥ १०४२ ॥
पहले शीत काल में जिस मास का गर्भ नष्ट हो गया हो, भाषाढ़ी पूर्णिमा में उस मास के घटीविभाग में चन्द्रमा निर्मल दिखाई देते है। १०४३।।
पौष श्रादि मासों में गर्भ सम्भव में अवश्य अपात का सम्भव होता है, इसलिये आषाढी पूर्णिमा में सम्पूर्ण दिन वर्षा के लिये देखना चाहिये ॥ १०४४ ॥
जैसे आषाढी पूर्णिमा के सम्पूर्ण दिन रात्रि मेघ तथा वायु से युक्त हो तो शीत काल में भी गर्भ शुभ आने ॥ १०४५ ॥
काल निष्पत्ति के लिये एक ही दिन देखना चाहिये, यदि माठों प्रहर में मेष तथा वायु हो तो वर्षपर्यन्त शुभ होता है ।। १०४६ ।।
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( १९४ ) आषाढ्यां पूर्विकाषाढा वर्ष यावत् शुभंकराः । आवर्ष मध्यमं धान्यं देशे सर्वत्र कथ्यते ॥१०४७॥ अभ्रं विना यदा रम्यौ वातौ पूर्वोत्तरौ यदि । यत्र याम्यार्द्ध के तत्र मासे वृष्टिहठाद्भवेत् ॥१०४८॥ आषाढीयोगाः। मासाभिधाननक्षत्रं सकायां क्षीयते यद।। महषं च तदावश्यं वृद्धौ ज्ञेया समर्घता ॥१०४९॥ मातनामकनक्षत्रं राकायां न भवेद्यदा। महर्घ च तदावश्यं तन्नियोगे विशेषतः ॥१०५०॥ धिष्ण्यवृद्धिर्दिने चन्द्रः करैयदि न दृश्यते । समय जायते पुष्टं करदृष्ट महघता ॥१०५१॥
आपाढ़ी पूर्णिमा मे यदि पूर्वाषाढा नक्षत्र हो तो वर्ष पर्यन्त शुभ होता है, और सम्पूर्ण वर्ष धान्य की निष्पत्ति तथा प्रजा का सौख्य इत्यादिक सब देशों में होता है ॥ १०४७ ।।
आपढ़ी पूर्णिमा में जिस यामाई में मेघ को छोड़कर सुन्दर पूर्वी सषा उत्तरी वायु वहे तो उस मास में हठात वर्षा होती है ॥१०४८॥
इति आषाढीयोगाः। मासों का नाम नक्षत्र पूर्णिमा में यदि क्षय हो जाय तो महर्घ होता और यदि उस नक्षत्र की वृद्धि हो तो समर्घ होता है ।।१०४६॥ ___ मासों का नाम नक्षत्र यदि पूर्णिमा में नहीं हो तो अवश्य महर्ष होता है उसके नियोग में विशेष रूप से कहते हैं ॥१०५०।।
जिस दिन नक्षत्र की वृद्धि हो और चन्द्रमा पापग्रहों से नहीं देखे जाते हों तो समर्घ होता है, और उस पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो महर्ष होता है ॥१०५१।। ___ 1. For this line A reads, आवर्ष धान्यनिष्पत्तिः प्रजासौख्यमविप्रहात । 2. यामार्टिके for याम्याड़िके A. 3. क्षीयते यदि for न भवेद्यदा Bh. 4. तिथि for तन्नि Bh. तत्र A.
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( १९५ ) धिष्ण्यवृद्धिदिने यत्र तिथेः पार्वाद् गरीयसी । दिने तत्र समघ स्यातिथिवद्धौ महर्षता ॥१०५२।। ऋक्षवृद्धौ रसाधिक्यं कणाधिक्यं च निश्चितम् । योगाधिक्ये रसोच्छेदो दिनाघः प्रत्यहं स्फुटम् ॥१०५३॥ पभिश्च नाडिकाभिश्च धिष्ण्यवृद्धिः क्रमाद् यदा । प्रत्येकं च तिथैर्यत्र समर्घ तत्र जायते ॥१०५४॥ पडभिश्च नाडिकाभिश्च धिष्ण्यवृद्धिः क्रमाद् यदा । प्रत्येकं तत्र धिष्ण्ये च मह विद्धि निश्चितम् ॥१०५५।। तिथिनक्षत्रयोवृद्धिं विज्ञाय प्रत्यहं द्वयोः । सर्व टिप्पनकं ज्ञात्वा लाभालाभौ विनिर्दिशेत् ॥१०५६॥ यावन्नाड्य उडोवृद्धिः समघ तद्विशोपकाः। यावन्नाड्यस्तिथेवद्धिमहर्घ तत्प्रमाणकम् ॥१०५७॥
जिस दिन नक्षत्र की वृद्धि हो तो उस दिन वहां समर्थ होता है, और तिथि वृद्धि हो तो महर्ष होता है ॥१०५२।।
नक्षत्र को यदि वृद्धि हो तो रस, तथा का का आधिक्य होता है, और योग का आधिक्य होने पर रस का उच्छेद होता है ऐसे वर्ष का निश्चय करें ॥१०५३।।
जब छः छः घटी के क्रम से नक्षत्र की वृद्धि हो तथा प्रत्येक विधि को वृद्धि हो तो वहां समर्थ होता है ॥१०५४॥
जब छः छः नाड़ी के क्रम से नक्षत्र की वृद्धि हो तो प्रत्येक नक्षत्र में महर्ष होता है ।।१०५५।।
तिथि, और नक्षत्र, इन दोनों की वृद्धि प्रत्येक दिन जान कर तथा पूर्वोक्त सब विषयों को विचार कर लाम या हानि भादेश करें॥१०५६॥
जितनी घड़ी नक्षत्र की वृद्धि हो उतने विशोपक प्रमाण समर्थ होता है, और जितनी घटी तिथि वृद्धि हो उतने प्रमाण महर्ष होता है ॥१०५७॥
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भाद्रपदपौषमाधे सितपक्षे पति या तिथिस्तस्याः । द्विगुणदिन पमरणं यदि वा दुर्भिक्षमतिरौद्रम् ।।१०५८।। पूर्णिमास्याममावास्यां संलग्नस्तारकाक्षयः । महषं तत्र पूर्वार्धान्मासमध्येऽपि जायते ॥१०५९।। मासमध्ये यदा द्वौ तु योगी च त्रुटथतः क्रमात् । महर्षे घृततेले द्व योगे वृद्धी समघके ॥१०६०॥ वर्षाकाले त्रिमासेषु नक्षत्रं वद्धते स्फुटम् । तिथिस्त्र्युटयति संलग्ना शुभः कालस्तदा बहु ॥१०६१॥ वर्षाकाले त्रिमासेषु नक्षत्रं त्रुटति स्फुटम् । तिथिश्च वधते तत्र ध्रुवं लोको विनश्यति ॥१०६२।। अधिकोना समा वा स्यान्नक्षत्रात् पूर्णिमा यदा । महषं च समघ च तुल्याघमशनं क्रमात् ।।१०६३।।
भाद्र, पोप, माघ, इन मासों के शुक्ल पक्ष में जिस तिथि का क्षय हो तो उस से उस तिथि के द्विगुण दिन में कर राजा का मरण होता है वा दुर्भिक्ष और अत्यन्त रोद्र समय होता हे ||१०५८।।
यदि पूर्णिमा, अमावास्या, दोनों में लगातार तारा का क्षय हो तो वहां मास के मध्य में भी पूर्वाप से महर्घ होता है ।।१०५६।।
एक मास के मध्य में यदि दो योगों का क्षय हो सो क्रम से घृत तैल दोनों महर्घ होता है, और योग की वृद्धि हो तो समर्ष होता है ।।१०६०॥
वर्षा काल में तीनों मास में लगातार नक्षत्र की वृद्धि, तथा तिथि का क्षय हो तो बहुत शुभ काल होता है ॥१८६१।। ।
यदि वर्षा काल मे तीनों मास में नक्षत्र का क्षय हो और तिथि की वृद्धि हो तो अवश्य लोगों का नाश होता है ।।१०६२।।
__यदि पूर्णिमा मे उस मास के नाम नक्षत्र से अधिक या, ऊन, या, सम नक्षत्र हो तो क्रम सं महर्ष, समर्थ, तुल्यार्घ, होता है ।।१०६३।।
1.ध्रुवमfor स्फुट A.
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( १६७ )
पूर्वात्रयं मूलमवा च सार्पिरौद्री च हीना तिथितो यदि स्यात् । कुहूदिने चैव कणा महर्षाः पूर्वार्धतः स्युर्जगतीविहीनाः ॥ १०६४॥ मार्गादिपञ्चमासेषु आद्यपक्षे तिथिक्षयः दौस्थ्यं वा छत्र मंगो वा जायते राजविध्वरः || १०६५।। शुक्लपक्षे यदा शुक्रः करोत्यस्तमनोदयम् । राजपुत्रसहस्राणां महीपति शोणितम् ||१०६६॥
आदित्यग्राकाले च दुर्भिक्षं प्रायशः पनः । तत्तिथिधिष्ण्यवाच्यानि महर्षाणि भवन्ति हि ॥ १०६७|| द्वयोरपाढयोमध्ये यदा पर्वत्रयं भवेत् । क्षितौ भवेन्महायुद्धं नृपमृत्युः स्फुटः स्मृतः ||१०६८।। तिष्यपुष्यमात्राह्मी रेवतीत्युत्तरेषु च ।
यदा शनिर्भवेद् वाच्यो विग्रहोsपि तदा महान् ।। १०६९॥
पूर्व फल्गुनी, पूर्वापाढ़ पूर्वभाद्र, मूल, मघा, अश्लेषा, आर्द्रा, ये नक्षत्र यदि तिथि से हीन हो तो अमावास्या में पूर्वार्ध से कण मह होता है और पृथ्वी शस्यहीन होती है ।। १०६४ ||
मार्गशीर्ष आदि पांच मासों के शुक्ल पक्ष में यदि तिथिक्षय हो तो दुःस्थिति, तथा छत्रभंग, राजाओं में विग्रह होता है || १०६५||
जब शुक्ल पक्ष में शुक्र का अमन तथा उदय हो तो हजारों क्षत्रियों का शोणित पृथ्वी पीनी है ।। १०६६ ।।
सूर्य के ग्रहण काल में प्राय: दुर्भिक्ष होता है, उस तिथि नक्षत्र में महर्ष होता है ।। १०६७ ॥
पूर्वापाढ़ तथा उत्तराषाढ़ नक्षत्र के मध्य में तीनों पर्व ( चतुर्दशी, अमावास्या, पूर्णिमा ) हों तो पृथ्वी पर महायुद्ध होता है और राजा. का नाश होता है ||१०६८।।
स्वाती, पुण्य, मघा, रोहिणी, रेवती, उत्तरफल्गुनी; उत्तराषाढ़, उत्तरभाद्र, इन नक्षत्रों में यदि शनि हो तो महान् विपड़ होना है ||१०६६।।
1. शुक्ल for आद्य A. 2. क्षये for क्षय: A.
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( १६८ ) वर्षाकाले परीवेषः सूर्येन्दोश्चेद् यदा भवेत् । चतुर्दिवसमध्ये च देवो वर्षति भूतले ।। १०७० || ऐन्द्रं धनुर्यदोदेति प्रभाते पश्चिमाश्रितम् । तहिने पञ्चमे यामे घनः प्लावयति महीम् ||१०७१ || यत्र राशौ भवेत्पर्व तस्या वाच्यं क्रयाणकम् ।
2
अत्य लम्क्ते मूल्यं पीड्यमानं च राहुणा || १०७२ ||
यत्र राशौ कुजो याति चक्रं तत्र सुनिश्चितम् । तद्वाच्यानि क्रयाणानि महर्षाणि भवन्ति हि ॥ १०७३॥
मकरे मङ्गले सौख्यं ततः कुम्भे च पञ्चके । यदा गच्छेत्तदा दौस्थ्यं तुलायामपि मंगलः ॥ १०७४ |
पञ्चवर्ष परीवेषो वारुणे मण्डले यदा ।
तदा वेगवती वृष्टिर्जायते यामपञ्चके || १०७५ ||
वर्षाकाल में सूर्य चन्द्रमा का यदि परिवेष हो तो चार दिन के अन्दर पृथ्वी पर वर्षा होती है ॥१०७० ||
प्रातः काल में पश्चिम दिशा में यदि इन्द्रधनुष का उदय हो तो उसी दिन पांच प्रहर में मेघ पृथ्वी को डुबा देता है ।। २०७१ ||
जिस राशि में पर्व हो उस राशि से क्रयाक कहें, यदि वह राशि बहु से पीडित हो तो बहुत महर्ष वस्तु मिले ||१०७२ ।।
जिस राशि में मंगल जाता है उस राशि में निश्चय क्रयायक म होता है || १०७३ ।।
मकर में मंगल हो तो सौख्य होता है, और कुम्भ से पांच राशि में बरि मंगल जाय तो दौस्थ्य होता है ||१०७४ ||
यदि वारुण मण्डल में पांच याम परिवेष हो तो पांच वर्ष तक बहुत वृष्टि होती है || १०७५।।
1. हिनात् for तद्दिनं Bh 2. शून्यं चक्रं Bh. 4, तम: for ततः Bh. 6. व
for मूल्यं A. 3. a for for वर्षे A.
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( १६६ ) चटन्ति भुजगा वृक्षे यदि भूतापपीडिताः । चतुर्दिवसमध्ये तु वृष्टिसिक्ता धरा मता ॥१०७६॥ ऊर्ध्वा चेद्डरी शेते धर्मातिशयपीडिता। तदा वर्षति पर्जन्यश्चतुर्दिवसमध्यतः ॥१०७७।। अम्लं तक्रं च तत्कालं लोहे कट्टस्तथैव हि । चतुर्दिवसमध्ये तु मेघवृष्टिर्घना मता ॥१०७८॥ कर्पासरसमांजिष्ठा बहुमूल्यास्तदा स्मृताः । सक्ररे मंगले विद्ध करान्तरगतेऽपि च ॥१०७९।। चतुर्दशी तु आषाढी हीना वर्षे यदा भवेत् । भावाश्रयेण तद् वाच्यं महषं च समे समम् ॥१०८०॥ आषाढी त्वधिका तस्याः समय तु तदा मतम् । संवत्सरस्य वर्तिन्याः शून्यपाते तु निष्कणम् ॥१०८१॥
सर्प यदि पृथ्वी के ताप से पीडित होकर वृक्ष पर चढ़े नो चार दिन के अन्दर पृथ्वी वर्षा मे सिक्त होती है ॥१०७६।।
धर्म से अतिशय पीडित होकर यदि गडरी उर्वाभिमुख सोवे तो इन्द्र चार दिन के अन्दर वर्षा करते हैं ।।१०७७।।
यदि अम्ल. तक्र, लोहा, कह श्रादि का पात हो तो चार दिन के अन्दर वर्षा होती है ।।१०७८||
मंगल और पापग्रहों से युक्त हो, या विद्ध हो या पाप ग्रहों के अन्तर में हो तो कार्पाम आदि का बहुत मूल्य होता है ।।१०७६।।।
__ जिस वर्ष में आषाढ़ को पूर्णिमा तथा चतुर्दशी की हानि हो तो महर्ष होता है, इस प्रकार भाव के आप्रय से महर्घ और सम होने से समान कहना चाहिये ।।१०८०॥
___ यदि आषाढी अधिक हो सो समर्थ होता है, इस प्रकार जिस वर्ष में उसका क्षय हो तो का नहीं होता है ॥१०८११॥
1. कुरुरी for गडरी Bh. tre have adopted the reading of A. Amb. text reads उर्वाचे गहरी शेते | Al reads ऊर्ध्वा चेद्रादरी शेते । 2. किट्ट for कट्ट A.
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( २०० ) इत्यधकाण्डे त्रिपञ्चायोगाः । आषाढीयोगाः रोहिणीयोगाश्च समाख्याताः ॥ अतः परं चूडामणिसारोद्धारेणाधकाण्डमुच्यते । अर्घकाण्डं प्रवक्ष्यामि नरेन्द्रक्षोभकारकम् । येन विज्ञातमात्रेण क्षेमलाभौ यथा ध्रुवौ ॥१०८२।। पूर्वमासाभिधानं च प्रष्टुर्नाम लिखेत्ततः । स्थापयेद् ध्रुवकं भिन्नं सूक्ष्मवणक्रमेण च ॥ १०८३ ।। कुसुमा निर्मलाः ख्याताः प्रश्ना ग्राह्या यथोद्भवाः । स्वराणां द्विगुणा संख्या वणसंख्या समा भवेत् ॥ १०८४ ॥ मासभाण्डस्थितो राशिर्गणयेत् प्रश्नसंख्यया। मात्रासंख्याहते मागे शेषांकः फलमादिशेत् ॥१०८५ ॥ मासस्य ध्रुवके हीनं माण्डस्थाने ध्रुवं भवेत् । तस्मिन् मासे च तद् भाण्डं महधं च भविष्यति ॥१०८६॥ इत्यर्घकाण्डे त्रिकपश्चकयोगाः । श्राषाढीयोगाश्च रोहिगीयोगाश्च ममाख्याताः॥ अतः परं चूडामणिसागेद्धारेगाार्घकाए हमुच्यते ।।
अब अर्घ काण्ड को कहते हैं जो कि राजा को भी क्षोभ कारक होता है, जिसको जानते ही निश्चय क्षेम और लाभ होता है ।।१०८२।।
पहले अभीष्ट मास का नाम उसके बाद भाण्ड का नाम लिखें तब सूक्ष्म वर्ण के क्रम से पृथक ध्रवा की स्थापना करें ।।१०८३।।
प्रश्न में ख्यात निर्मल पुरुषों का नाम ग्रहण करके उसकी स्वर संख्या को द्विगुण करें और वर्ण संख्या को समान हो स्थापित करें ॥१०८४॥ - मास और भाण्डस्थित राशि को मात्रा संख्या से गुणा करें और वर्ण की संख्या से भाग देवें जो शेष बचे उससे फल का आदेश करें॥१०८५॥
याद मास की धूवा ( शेष ) हीन हो और भाण्ड स्थान में अधिक हो सो सस मास में वह भाएड महर्ष होगा ॥ १०८६ ॥
1-A adds जलयोगाश्च before समाख्याताः 2. भाएड. for प्रष्टु. Bh.
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( २०१ ) विलोमं दृश्यते यत्र समर्घ तत्र जायते । उभये विषमे तद्वद् व्याख्यातं च समे समम् ॥ १०८७ ॥ मासस्य प्रवके भूरिभाण्डस्नानेऽणुकं यदि । समषं च तदादिष्टं वीतरागेण जन्मिनाम् ॥ १०८८ ।। उभयोः स्थानके शून्यं महर्षमिति दृश्यते । अर्घान्तरमिति ज्ञात्वा प्रमाणं तत्र कारयेत् ।। १०८९ ।। इति चूडामणिसूक्ष्माक्षगप्रमाणेनापकाण्डम् । मण्डलाभिप्रायेणापि कथ्यते । अग्निमण्डलनक्षत्रैयदा संक्रमते रविः । सहितो भौमवारेण मस्पृहा धातुजातयः ।। १०९० ।। रूप्यसौवर्णकांस्यादित्रपुताम्राणि पित्तलम् । वातधिष्ण्यस्तु सङक्रान्तिः शनौ वारे विशेषतः ॥ १०९१ ॥
यदि विलोम हो अर्थात मास को धवा अधिक हो और भाण्ड की हीन हो तो उस मास में समर्घ होता है। दोनों के विषम होने पर ऐसा फल होता है, और यदि दोनों ममान हो सो ममान फल होता है ।।१०८७॥
यदि मास की ध्रवा अधिक हो और भाण्ट की ध्रवाहीन हो तो समर्घ होगा ऐसा श्रादेश करें ।। १०८८ ।।
यदि दोनों के स्थान में ध्रुवा शून्य हो तो महर्घ होता है, इस प्रकार अर्घान्तर को भी देखकर इसका प्रमाणा करें ।। १०८६ ॥
इति चुडामणिसूक्ष्माचगप्रमागोनार्थकाराम ।
अथ मण्डलाभिप्रायेगापि कथ्यते । यदि अग्निमंडलनक्षत्र में मंगलवार रवि की संक्रान्ति हो तो धातु जाति सस्पृहा होती है ।। १०६० ।।
पदि वायु मंडल नक्षत्र में शनिवार रवि की संक्रान्ति होतो चान्दी मोना, काश्य, पु, नाम्र, पित्तल, आदि धातुओं की विशेष मांग होती है ॥ १०६१ ।।
1. शत० for वात A,
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( २०२ ) लोहभेदाः रसाः सर्वे शीघ्रं भवन्ति सस्पृहाः। नक्षत्रैर्वारुणैर्वापि बुधवारेण संक्रमे ॥ १०९२॥ पच्यन्ते धान्यभेदास्तु रत्नान्यम्भोधिजानि च । नक्षत्रः पार्थिवैर्वापि सूर्यवारसमन्वितैः॥ १०९३ ॥ सस्पृहा ये सुगन्धाढ्या वारणादिचतुष्पदाः । अथवा सर्वमासेषु पूर्णिमायां दिवानिशम् ॥ १०९४ ॥ अन्वेषयेत्तदुत्पातात् परिवेषोर्कसोमयोः । यस्मिन्मण्डलधिष्ण्ये च दुनिमित्तं च दृश्यते ॥ १०९५ ॥ तन्मण्डलस्य वाच्याश्च क्षणाद्भवन्ति सस्पृहाः । एवं द्वारेण संक्रान्तेरर्घकाण्डं प्रदर्शितम् १०९६ ॥
अथ मण्डलानि ज्येष्ठानुराधारोहिण्यो धनिष्ठा श्रवणस्तथा । अभीचिरुत्तराषाढा शुभं माहेन्द्रमण्डलम् ॥ १०९७ ॥
यदि वारुगा मंडल नक्षत्र में बुधवार रवि की संक्रान्ति हो तो लोहा तथा रस जाति सस्पृहा होती है ॥ १०६२ ।।
यदि माहेन्द्र मण्डल नक्षत्र में रविवार रवि की संक्रान्ति हो तो धान्यादि, तथा रत्न, और समुद्र से उत्पन्न होने वाले मुक्ता आदि पचित होते हैं ॥ १०६३ ॥
और सुगन्धित द्रव्य, हाथी आदि के चतुष्पद भी सस्पृह होते है. अथवा सब मासों में पूर्णिमा को रात्रिन्दिवा देखें ।। १०६४ ॥
उत्पात से तथा सूर्य चन्द्रमा के परिवेष से अन्वेषगा करें जिस मण्डल के नक्षत्र में दुनिमित्त देख पड़े ।। १०६५ ।।
उस मण्डन को उसी क्षण सस्पृहा कहें. इस प्रकार संक्रान्ति के द्वारा भर्घ काण्ड को दिखलाया ॥ १०६६ ।।
अथ मण्डलानि ज्येष्ठा, अनुराधा, रोहिणी, धनिष्ठा, श्रवगा, तथा अभिजित उत्तराषाढ़ा, ये नक्षत्र माहेन्द्र मंडल कहलाते हैं यह मण्डल शुभकारक होता है ।। १०६७ ॥
1. वारुणा for वारणा A. A.
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( २०३ ) आश्लेिषा शतभिषक पूर्वाषाढा च रेवती । मूलमुत्तरभद्रा च वारुणं शुभकारणम् ॥ १०९८॥ भग्णी कृत्तिका पुष्यो विशाखा पूर्वफाल्गुनी । पूर्वभद्रा मघा चेति चानेयमशुभप्रदम् ॥ १०९९ ॥ चित्रास्वातिमृगाश्विन्यः पुनर्वसुकरौ तथा । उत्तरा फाल्गुनी चैव वायव्यमशुभप्रदम् ॥११००॥ उल्कापातादयः सर्वेऽमीषु स्वसुफलप्रदाः । वर्षाकालं विना ज्ञेया वर्षाकाले च वृष्टिदाः । १००१॥ माहेन्द्रं सप्तरात्रेण सव्यो वारुणमण्डलम् । आग्नेयमर्द्धमासेन फले मासेन पावनम् ॥ ११०२ ॥ सुभिक्षं क्षेममारोग्यं राज्ञां सन्धिः परस्परम् । आद्यं मण्डलयो यं तद्विपरीतमन्त्ययोः ॥ ११०३॥
आर्द्रा, अश्लेषा, शतभिषा, पूर्वाषाढा, रेवती, मूल, उत्तराभाद्र, ये नक्षत्र वारुणा मण्डल कहलाते हैं, यह मण्डल शुभकारक होता है॥ १०६८।।
भरणी कृत्तिका, पुष्य, विशाखा, पूर्वफल्गुनी, पूर्वभाद्र, मघा, ये नक्षत्र आग्नेय मण्डल कहलाते हैं, यह मण्डल अशुभ कारक होता है ।। १०६४।।
चित्रा, स्वाती, मृगशिरा, अश्विनी, पुनर्वसु, हस्त, उत्तराफाल्गुनी ये वायव्य मण्डल कहलाते हैं. यह मण्डल अशुभ कारक होता है ॥ ११००।
"वषा काल को छोड़ कर और समय में यदि इन मण्डलों में उल्कापात इत्यादिक हो तो शुभ फल देते हैं, और वर्षा काल में हो तो वर्षा होती है ।। ११०१॥
____ माहेन्द्र मण्डल में सात दिन में वारुण मण्डल में सद्यः आग्नेय मण्डल में आधा मास में और वायु मण्डल में मास में फल होता है॥ ११०२॥
पहले दोनों ( माहेन्द्र, वारुगा, ) मंडल में सुभिक्ष, क्षेम. आरोग्य और राजाओं में परस्पर सन्धि होती है, और अन्त्य के दोनों (आग्नेय, वायव्य, ) मण्डल में उसका विपरीन फल होना है ।। ११८३ ।।
1, वर्षदाः for वृष्टिदा: A.
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1
य
( २०४ ) माहेन्द्र वारुणे चैव हृष्टा भवन्ति धनवः । उत्पाताः प्रलयं यान्ति धरणी बद्धते शिवः ॥ ११०४ ॥ फलन्ति तरवः कल्पद्रुमा इव नवैः फलैः । प्राप्नुवन्ति प्रजासौख्यं राज्यानीव हि भूमिपाः ॥११०५ ।। वायौ वह्निमहोत्पाताः पीडयन्ति प्रजापुरः। गावः शुष्यन्ति वृक्षाश्च पीड्यन्ने विग्रहैजनाः ॥ ११०६ ।। निष्कणा जायने पृथ्वी राजानी जनपीडकाः । उद्वशाः सततं देशाः मेघो नव प्रयपति ।। ११०७ ।। एतश्च मण्डलीत्या सुखदुःखं प्रजोद्भवम् । शान्तिं कुर्वन्ति धीमन्तो बलिपूजाविधानतः ।। ११०८ ।। पुष्पवत्प्रचुरभाग्यो हेम पुसा निधिर्नवः । वाञ्छितः फलदो नन्द्यादर्घकाण्डं तरुः फली ॥ ११०९ ॥
माहेन्द्र, और वारुण मण्डल में गाय प्रसन्न होती है, और उत्पात नष्ट होता है, तथा पृथ्वी मंगलों में बढ़ती है ॥ ११०४॥
कल्पद्रम जैसे वृक्षों में नवीन, नवीन, फल, फूल, हुआ करते हैं, जैसे राजा को राज्य से सुब हामा है, वैसे प्रजात्रा को सौख्य होता है ।। ११०५ ॥
वायव्य तथा अग्निमण्डल में बहुत उत्पात होता है और प्रजा लोग पीड़ित होते हैं, गौ नया वृक्ष शुष्क होते है और विग्रह से लोग पीड़ित होते है ।। ११०६ ।।
और पृथ्वी में कण नहीं होना । गना लोग लोगों को पीडा करते है, और देश किसी के वश नहीं रहता । मेघ वर्षा नहीं करते ।।११०७।।
इन मण्डलों के विचार से प्रजाओं का सुख दुःख जानकर, बुद्धिमान लोग पूजा की बलि इत्यादिक विधान से शान्ति करते है।। ११०८।।
इस प्रकार अचं काण्डरूपी फल वाला वृक्ष पुष्प जैसे पुरुषों को बहुत भाग्य. हेम, तथा नया निधि, इत्यादि इच्छानुकूल फल देता है।॥ ११०६ ॥
1. शवः for शिवः A 2. महीश्वरा: हि भूमिपा: A. B. हेमः पुमान् for हेम पुंसा A.
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( २०५ ) इति दिनमासवर्षाकाण्डे मण्डलपद्धतिः समाप्ता । करस्थं धारयेन्मूलं केतकीतालवृक्षयोः । मदोन्मत्तो गजस्तस्य द्वारेणैव हि गच्छति ।। १११० ॥ अमृतोष्णमरीचीनां दिव्याङ्गकोटिकारणम् । स्फुरद्भामण्डलव्याजाद्दर्शयन्तं तु केवलम् ॥ ११११ ॥ दहन्तं तु भयोद्यानं द्योतयन्तं जगत्त्रयम् । लक्ष्मीलक्षविधातारं नत्वा पार्श्व जिनेश्वरम् ।। १११२ ॥ श्रीमदवेन्द्र शिष्याणुः सर्वशस्त्राब्धिपारगः । श्रीमान हेमप्रभः सूरिकाण्डं स्मरत्यसौ ।। १११३ ॥ सेतिकामानपल्लीनां संख्यां विज्ञाय साम्प्रतम् । बहुप्यकाण्डेषु तथ्यशास्त्रं विरच्यते ॥ १११४ ॥ एकदिनार्धमध्ये तु घटिकार्घस्य कारणम् । क्रयं त्रिशतपष्टश्च मूल्यनिश्रयहतवे ।। १११५ ॥ चैत्र यश्व प्रधानोऽवः स पण्याघोऽत्र गृह्यते ।
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प्रत्यहं प्रमभं वापि प्रतिपण्यं च नूतनः ।। १११६ ।।
इति दिनमात्र काण्डे मण्डल पद्धतिः समाप्ता ।
जो केतकी, तथा ताल वृक्ष के मूल को हाथ में धारया करते हैं और जिनके द्वारा मदोन्मत्त हाथी चलता है, और जो चन्द्रमा, सूर्य के दिव्याङ्ग काकोटि कारणा तथा अपने देदीप्यमान तेजमण्डल को व्याज से दिखलाने वाले, जा भय रूपी उद्यान को दग्ध करते हैं. और तीनों संसार को प्रकाश करते है, तथा लाखों प्रकार से लक्ष्मी को देते हैं, ऐसे जिनेश्वर देव को नमस्कार करके श्रीमन देवेन्द्र के शिष्य सत्र शास्त्ररूपी समुद्र में पारंगत श्रीमान् हेमप्रभसूर अर्ध काण्ड को स्मरण करते हैं ।। १११०-१११३ ।। सेतिका तथा पल्लियों की मानसंख्या को सम्प्रति जानकर बहुत अर्ध काण्ड मथ्य शास्त्र को करते हैं, ।। ११९४ ।।
एक दिनार्थ के मध्य में होने पर भी घटिका का कारण होता है, तीन सौ साठ खरीदन योग्य वस्तु को मूल्य निश्चय करने के लिये चैत्र में जो प्रधान होता है, उस प्रतिपण्यार्ध को प्रतिदिन हठात ग्रहण करते है ।। ११५५-१११६ ॥
1. दूरेणेव for द्वारव A. 2. भो० for भयो० A. Al 3. सवि० for संतिo Bh. 1. नव्यं for तथ्य A. . प्रत्तमं चापि for प्रसभं वापि A.
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( २०६ )
त्रिशतषष्टिपण्यानां चतुर्भेदवतामपि ।
प्रत्येकं गणितादीनां चैत्रार्घेणैव निश्वयः ।। १११७ ॥
वाणीदेवीप्रसादाच्च गुरोः शुद्धोपदेशतः । सत्यो भवति शास्त्रार्धी नु भवन्नेव निश्चयः ।। १११८ ॥ वक्रं याति ग्रहः कश्चिदश्विनाषाढयोर्यदि ।
कर्कतोऽलिनि संक्रान्तौ कर्क तुलाघसंभवः । १११९ ॥ मृगश्चित्रा धनिष्ठा च पुनर्वसू च वासवम् । शताख्यं चाग्निदेवं च पञ्चत्रिंशच्छतं भवेत् ॥ ११२० ॥ अश्विनी भरणी कर्णा स्वातिश्च नवतिः पुनः । विशाखा रोहिण पौष्णं शतं सार्द्ध बुधैः स्मृतम् ||११२१॥ आर्द्रानुरोधिकाधिष्ण्यशतं विंशतिमिश्रितम् ।
1
अधिकं पञ्चसप्तत्या पुष्यं हस्तं शतं स्मृतम् ।। ११२२ ॥ तीन सौ साठ पण्यों का तथा उस के चारों भेदों का प्रत्येक के गणितादि का विश्वार चैत्रार्ध से ही निश्चित होता है ।। १११७ ॥ सरस्वती देवी की प्रसन्नता से तथा गुरु के शुद्धोपदेश से अर्थ शास्त्र निश्चय सत्य होता है ।। १११८ ।।
श्विन, आषाढ़ में तुल, कर्क के संक्रान्ति में कोई ग्रह वक्री हो यो फर्क तुला कर अर्ध सम्भव होता है ।। १११६ ॥
मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा, पुनर्वसु, धनिष्ठा, शतभिषा, कृतिका इन नक्षत्रों की एक सौ पैंतीस संख्या होती है ॥ ११२० ॥
अश्विनी, भरणी, श्रवणा, स्वाति, इन नक्षत्रों की ६० संख्या होती है, विशाखा, रोहिणी, रेवती, इन नक्षत्रों की १५० संख्या होती है ॥ ११२१ ॥
अनुराधा, आर्द्रा, में १२० संख्या, और तथा हस्त, नक्षत्र में १७५ संख्या होती है, ।। ११२२ ।।
1. श्रार्द्रानुराधाधिष्ण्यं च for आर्द्रानुराधिकाविन्य A. A1.
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( २०७ ) शतं च भवत्यश्लेषा पञ्चनवतिपूरितम् । एकादशाधिकान्यत्र मघानवशतानि च ॥ ११२३ ॥ सप्तदशाधिकं चात्र शतद्वयं च फाल्गुनी । द्वे तु भद्रपदे चवमेतदृक्षचतुष्टयम् ॥११२४॥ पूर्वाषाढाशते द्वे च पञ्चाशदधिके मते । द्वे शते ऽप्यु तर पाला पञ्चपञ्चाशदुत्तरे ॥ १९२५ ॥ मूले पष्टिभवेदेवं धिण्यसंख्या प्रकीर्तिता । पण्णवतिशतान्यष्टौ चतुस्सहस्रपिण्डकः ॥ ११२६॥ नक्षत्रसंख्यापिण्डः ४८९६ सिंहधनुर्घटाः सर्वे नवतिसंख्यका मताः । शतसंख्यो भवेत्ककस्त्वेकविंशतिमिश्रितः॥ ११२७॥ पञ्चोत्तरशतं शेषा मेषादय उदाहृताः । द्वादशव शतान्यत्रा येकत्रिंशद् युतानि च ॥ ११२८ ॥ १२३१ सवराशिसंख्यापिण्डः कथितः । प्रत्येकं खलु खेटानां संख्यां ब्रवीमि शाश्वतीम् ।
अश्लेषा नक्षत्र में १६५ संख्या, और मघा मे ६११ संख्या होती है।। ११२३ ॥
पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी, नक्षत्र में २१७ और पूर्वभाद्र, उत्तर भाद्र नक्षत्र में २ संख्या होती है यह नक्षत्रचतुष्टय होता है ॥ ११२४॥
पूर्वषाढ नक्षत्र मे २५० और उत्तराषाढ़ नक्षत्र में २५५ संख्या होती है ।। ११२५ ॥
मूल नक्षत्र में साठ होता है इस प्रकार नक्षत्रों की संख्या कही, इस प्रकार नक्षत्र संख्या पिए ४८६६ होता है ।। ११२६ ।।
सिंह, धनुष, कुम्भ में ७० संख्या, कर्क मे १२१, संख्या होती है।॥ ११२७ ।।
मौर शेष मेषादिक राशियों की १०५ संख्या, सब को मिला कर १२३१ संख्या पिण्ड होता है ।। ११२८ ।।
1. प्रदर्शिता for प्रकीर्तिता A.
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( २०८ )
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चन्द्रे बुधे कुजः षष्टिः पञ्चत्रिंशच्छतं रविः ।। ११२९ || गुरुश्च पञ्च पञ्चाशत् शुक्रोऽपि पञ्चसप्ततिः । पञ्चषष्टिः शनिर्वाच्यो राहुर्नवतिसंख्यकः ।। ११३० ॥ षशतान्यत्र जायन्ते ग्रहाः सर्वेऽपि पण्डिताः । ग्रहनक्षत्रराशीनां संख्यां संकल्य' चैकतः ||११३१ ॥ गुणितं ग्रहसंख्येन स्थाप्यं गशिद्वयं पृथक । अघोराशेस्ततो भागं गृह्णीया चैत्रजार्घतः | ११३२ ।। यत्र जायते लब्धं भसख्यां तत्र निक्षिपेत् ।
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मेलयित्वा च तां संख्यां भागं गृह्णीत तत्क्षणात् ।। ११३३ ॥ उपरिभं धृते राशौ सम्यगङ्क प्रवर्तनः ।
3
यत्तत्र च भवेल्लब्धं संस्थाप्यं तदुपर्यधः ||११३४ ॥
ग्रहाङ्क भाजितैर्लब्धमुपरि पूर्ववत् क्षिपेत् ।
न्यस्ते च जायते योङ्कस्तावत्यः सेतिका मिताः ॥। ११३५ ।। प्रत्येक महों की संख्या को मै कहता हूँ, चन्द्रमा, बुध, मंगल, इन ग्रहों की ६० संख्या, और रवि को १३५ संख्या होती है ।। ११२६ ।। गुरु की ५५ संख्या, और शुक्र की ७५, शनि को ६५, तथा राहु की ६० संख्या होती हैं
११३० ।।
इन ग्रहों की संख्या को एकत्र कर ६०० पिण्ड होता है, प्रह, नक्षत्र, राशि, इन को संख्या को एक जगह इकठ्ठा करके ।। ११३१ ।। उसको ग्रह की संख्या से गुगान कर पृथक २ दो जगह स्थापित करें, उसमे से आधी राशि को चैत्र नार्घ से भाग देवें ।। ११३२ ।।
जो लब्धि हो उस में नक्षत्र की संख्या को जोर देवें । उस भाग को लेकर ऊपर स्थापित अङ्क मे मिला कर जो हो उसको ऊपर में उस से नीचे स्थापित करें ।। ११३३-११३४ ।।
उस को यह की संख्या से भाग देवें लब्धि जो हो उस को पूर्ववत् भ संख्या में क्षेप करके न्यास करने पर जो अंक आवे उसने ही सेविका का प्रमाया होता है ।। ११३५ ।।
1. पञ्चत्रिंशत्तमा Bh. 2. संमील्य for संकल्य A. 3 मीलfural for after A. 4. उपरि मिते for उपरि भे Bh. 5. समृगेक प्रबर्धनैः
A.
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( २०६ )
चतुर्भक्ते ततो जाताः माणकाः कणसंग्रहे ।
धृते धान्ये तिले तैले दृष्टिभाण्डे सुगन्धिकम् ।। ११३६ ।। अनेनैव क्रमेणात्र सर्वेषामर्घनिश्चयः ।
त्रिगुणश्च भवेदर्थोऽयुचैव च खेचरे ।। ११३७ ।।
गेहे मित्रे स्वके चांशे द्विगुणोऽर्ध्वेवं मतः । शनौ नीचे तथा पापे तदंशेऽपि ग्रहे सति ।। ११३८ ।
लास्य बुधैयं चार्द्धमपरीक्षणे ।
शेषेषु च यथासंख्यं तथैवार्धं विनिर्दिशेत् ॥ ११३९ ॥ क्षयवृद्धिद्वयं कृत्वा ऽयं न्यस्य स्थानयोर्द्वयोः ।
चतुर्युग्मे चतुर्भागं लब्धं क्षिपेत्तथोपरि ।। ११४० ॥
उस को प्यार से भाग देवें तो कया संग्रह में, घृत, धान्य, तिल, सैल, भण्ड, सुगन्धित द्रव्य, इत्यादि का परिमाया हो जायगा ||११३६ ।। इस क्रम से सत्र का अर्ध निश्चय होता है, यदि प्रह उब का हो वक्री हो तो श्रर्घ त्रिगुण होता है ।। ११३७ ।।
यदि मित्र के घर में या अपने घर में वा मित्र तथा अपनी नवमांश ग्रह हो तो द्विगुणा अर्थ होता है।
यदि शनि तथा अन्य पापग्रह नीच में हो या उसके अंश में हो या शत्रु आदि के घर में हो तो पंडित लोग लब्धार्ष में भाषा घटा देवें । इस प्रकार शेष का भी यथा संख्या पर से अर्थ का निश्वय करें ।।११३८-११३६ ।।
इस प्रकार क्षय वृद्धि करके दो स्थानों में वर्ष को स्थापित करें और उसको चार से भाग देकर लब्धि को उपर में फिर प करें ||११४०||
1. गया for का Bh. 2. चैव for तैले Bh. 8. दृष्टे for दृष्टि Bh. 4. o for oर्षो Bh. 5. मथ० for oमर्च Bh. 6. बार्ड for one Bh.
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( २१० ) मरण्यादिचतुष्कं च आर्द्रादिषु चतुष्टयम् । मेघाद्याः पञ्चधिष्ण्यास्तु स्वातित्रिकेन्द्रपञ्चकम् ॥११४१ ।। धनिष्ठाधं ततः पटकं चैवं भसप्तविंशतिः । पञ्चवेदेन भागोऽपि गृहयतेऽधमराशितः ॥ ११४२ ॥ यसत्रापि पुनर्लब्धं राशिस्तु शोध्यते ततः । त्रिषटकेन च गृह्णीत तिम्रः संख्यास्त्वधाधमे ॥ ११४३ ॥ गृहीत्वा तु पुनलब्धं राशावुपरि भे न्यसेत् । उदयास्तमने वक्र ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ॥११४४ ॥ ग्रहयुद्ध राशिसंक्रान्तौ कणाघस्त्वेष जायते । आदित्येनात्र पूर्णाः स्वदेशे चैव लभ्यते ॥ ११४५ ॥ चन्द्रेण तु परे देशे शुक्रणापि स्वमण्डले । पूर्वेणास्तमितः शुक्रः पश्चिमस्यामुदेति चेत् ॥ ११४६ ॥
भरणी आदि के चार नक्षत्र, तथा श्राद्रा आदि के चार, मघा भादि के पांच नक्षत्र, स्वानी आदि के तीन, ज्येष्ठा आदि के पांच नक्षत्र ॥११४१॥
धनिष्ठा आदि के छः नक्षत्र इस प्रकार सत्ताईस नक्षत्र हुए, पांचवार का अधम राशि से भाग लेने पर जो वहां लब्ध हो उस राशि को घटा देते हैं, फिर तीन छः से भाग लेने पर तीन संख्या अधमाधम राशि में प्रहण करते हैं ॥११४२-११४३।।
उस लब्ध राशि को उपर के नक्षत्र में न्यास करें, ग्रहों के सदय अस्त, तथा वक्र में और चन्द्र सूर्य का प्रहण में ॥११४४॥ ___मह युद्ध से राशि संक्रान्ति में यह कणार्थ होता है. सूर्य से देश में ही पूर्णा लाभ होता है ।।१०४५॥
चन्द्रमा से अन्य देश में और शुक्र से भी अपने देश में, याद पूर्व में मस्त होकर पश्चिम में उदित हो तो ॥११४६।।
1. mafao for Euro Bh. 2. og for op Bh,
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( २११ ) स्वातित्रिके निजं भागं शोधयत्यर्थपद्धतौ । अस्तमितः प्रतीच्यां चेदुदेति पूर्वतः पुनः ११४७ ॥ तदा पञ्चसु ज्येष्ठादौ पञ्चमं भाग क्षिपेत् । यावन्तो ग्रहयोगास्ते तावत्संख्याः पृथक पृथक् । गुणाकारो भवेनावान् भागाहारोऽपि तादृशः ॥ ११४८ ॥
इत्यर्घकाण्डम् उदिताद्या ग्रहा यत्र धिष्ण्ये तिष्ठन्ति संस्थिता । तन्नक्षत्रतत्राशेश्च संख्यां संमील्य तावतीम् ॥ ११४९ ।। हन्तव्या तद्रहेणैव द्विस्थं गशिं ततः कुरु । द्विस्थस्याधः स्थितं गतिं चैत्रापेण तु तं भजेत् ॥ ११५० ॥ यल्लब्धं तेन खेटेन त्वेकीकृत्यापि मूलके । पिण्डे भागम्तु हर्तव्यो लब्धमघस्ततो भवेत् ॥ ११५१ ।।
स्वाती त्रिक नक्षत्र में अपने माग को घटायें, यदि पश्चिम में अस्त होकर पूर्व में उदित हो तो ज्येष्ठा प्रादि के पांच नक्षत्र में पत्रम भाग को क्षेप करें।
जिनने संख्यक प्रह योग हो उतने संख्यक पृथक पृथक गुणक या मागहार भी होते हैं ।।११४७-११४८ ।।
इत्यर्घकाण्डम् उदितादि प्रह जिस राशि और नक्षत्र में हों उस राशि नपत्र की संख्या को एकत्र करें ॥११४६।।
उसको उस प्रह की संख्या से गुणा कर दो जगह स्थापित करें उसमें अधःस्थिस राशि को चैत्रार्घ से भाग देवें ॥११५०।।
___जो लब्ध हो उसमें मह को मिलाकर फिर पिएट में भाग दें तो सन्घ अर्घ होगा ॥११५॥
1.बाय for त्राण Bh. 2. वां for a Bh,
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( २११ )
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ये लब्धा सितिकाः शेषं चतुर्गुण्यं हृतं ततः ।
2
तेनैव पूर्वभागेन भक्तेन माणकाः पुनः ।। ११५२ ।।
यच्छेषं तच्चतुर्गुण्यं तेन भागेन पल्लिका | ततोऽपि मूललब्धार्यं द्विधा कृत्वा पुनर्भजेत् ॥ ११५३ ॥
त्रिक्रवेदशराचैव लब्धमुपरि मे क्षिपेत् ।
तल्लब्धं सेतिकामध्ये वक्रश्चेत् त्रिगुणं क्षिपेत् ।। ११५४ ॥ स्वगेहे मित्रगेहे च द्विगुणमेव विन्यसेत् । शत्रौ पापे च नीचे च लब्ध्वाधं तत्र पातयेत् ।। ११५५ ॥ संगुण्यभागः शेषं लब्धं च माणकास्ततः । श्रीमद्धेमप्रभेणैवं वर्तिनी दर्शिता स्वयम् ।। ११५६ ॥ श्रीमद्देवेन्द्र शिष्य श्री हेमप्रभसूरिविरचितमर्धकाण्डम् |
लब्ध सेतिका हुआ शेष को चार से गुणा कर उसी पूर्व के भाजक से भाग दे तो माणक हो जायगा ।। ११५२ ।।
तब जो शेष बच्चे उसको बार से गुगा कर उसी से फिर भाग दे तो पल्लिका होगी, तो भी मूल लब्धार्ध को दो जगह स्थापित करके फिर उस भाजक से भाग दें तीन, चार, पांच लब्ध के उपर के नक्षत्रों जोड़ दें. तब जो लब्ध हो वह सेतिका में यदि वक्र हो तो त्रिगुणित क्षेप करें ।। ११५३ - ११५४।।
यदि अपने घर में या मित्र के घर में हो तो द्विगुण न्यास करें और शत्रु या पाप के घर में या नीच में हो तो लब्धार्ष में आधा घटा देवें ।। ११५५।।
उसको चार से गुणा कर भाऊक से भाग देवें तो मायाक होता है यह प्रकार श्रीमान् हेमप्रभसूरि ने स्वयं दिखलाया है ||११५६ ॥ इति श्री मद्देवेन्द्र शिष्य श्रीहेमप्रभसूरिविरचितमर्धकाण्डम् |
1. सेठिका: for सितिकाः Bh. 2. भक्तेन वनका: for भक्तेन मायकाः Bh. 3. लब्धस्वपरिनि for लब्धमुपरि में Bh. 4 पर for मित्र Bh. 6. द्विगुणेनैव for द्विगुणमेव A.
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( २१३ ) धने चक्रं यदा खेटाः कुर्वन्ति मिलिता घनाः । तदा धान्यमचं स्यात्सर्व पण्यौषमध्यतः ॥११५७।। रणे वक्रं यदा यान्ति सर्वेऽपि मिलिता ग्रहाः । तदा धान्यं समर्घ स्यात् जायते भुवि वै मतम् ॥११५८॥ अपात्रदानतोऽपुण्यं पुण्यं सत्पात्रदानतः । इत्यपात्र न दातव्यमर्घकाण्डमहोदयम् ॥११५९॥ प्रतिमास्वल्पदेवानां यावन्तः परिमाणवः ।। तावद्युगसहस्राणि कर्तुर्भोगभुजः फलम् ॥११६०।।
इति त्रैलोक्यप्रकाशो ग्रन्थः समाप्तः ।। यदि धन में सब मह मिलकर एकत्रित हो जाय तो सब धान्य महर्ष होता है ॥११५७॥
यदि रण में सब ग्रह मिलकर वक्री हो जाय तो पृथ्वी पर सब घान्य महर्ष होता है ॥११५८॥
अपात्र को दान देने से पाप होता है और सत्पात्र को दान देने से पुख्य होता है, इसलिये अपात्र को महान उदयवाना अर्ष काण्ड नहीं देना चाहिये ॥११५॥
सब देवताओं की जितनी मूर्तियां है उतने सहन महायुग पर्यन्त महान् मुख को भोग करने के लिये पात्र को यह देना चाहिये ॥११६०॥
इति त्रैलोक्यप्रकाशो प्रन्थः समासः ।
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