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( १३८ )
दिशि यस्यां रविस्तस्यां धान्यनाशोऽतितापतः । यत्रापि मङ्गलः क्रूरः सस्यनाशोपि तापतः ॥ ७४० ।। यस्यां दिशि शुभाः पुष्टाः समस्तबलगर्विताः । निष्पन्ना सा च विज्ञेया समस्ताः सस्यसम्पदः ।। ७४१ ।। अस्मदीये पुनः क्षेत्र वृष्टिः शस्या भविष्यति ।
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एवं प्रश्ने बुधैश्चिन्त्यं लग्नं सव्योमतुर्यकम् ।। ७४२ ।। लग्नस्य सवलत्वे च सस्याधिक्यं वनं स्मृतम् । चतुर्थस्य बलाधिक्ये क्षेत्रं सर्व समृद्धिमत् ।। ७४३ ।। कर्मणः सवलत्वेन शुभग्रहबलात् पुनः ।
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सफलानि कर्माणि सस्योत्पत्तौ भवन्ति हि ।। ७४४ ॥ चन्द्रादितस्तु महावृष्टिः प्रकीर्तिता ।
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क्रूरैस्तत्राप्यनावृष्टिवक्तव्या हितमिच्छता ।। ७४५ ।।
जिस दिशा में रवि हो उस दिशा में अत्यन्त ताप होने के कारण धान्य का नाश होता है, और जिस दिशा में मंगल हो उसमें भी अत्यन्त ताप से सस्य का नाश होता है ।। ७४० ॥
जिस दिशा में शुभ ग्रह पुष्ट तथा समस्त बल से युक्त होकर स्थित हो उस दिशा में समस्त सस्य- सम्पत्ति की निष्पत्ति करनी चाहिये ||७४१|| हमारे यहां वर्षा तथा धान्यादि होगा या नहीं इस प्रश्न में पंडित लोग लग्न, चतुर्थ, दशम भावों का विचार करें ॥ ७४२ ॥
लग्न को बलवान् होने से धान्य बहुत कहना चाहिये । चतुर्थ भाव बलवान हो तो सब क्षेत्रों को सस्यादि से समृद्ध कहना चाहिये ||७४३ ||
कर्मस्थान के बल से तथा शुभ ग्रहों के बल से क्षेत्रों में सुन्दर फल तथा कर्मों से युक्त सस्योत्पत्ति होती है ।। ७४४ ॥
चन्द्रमा शुक्र यदि चतुर्थ स्थान में हों तो महावृष्टि होती है । वहीं पर यदि पाप ग्रह हो तो अनावृष्टि होती है । हित की इच्छा करने वाले ऐसा कहें । ७४५ ॥
1. भव्या for शस्या A., Bh. 2. व्योमचतुर्थकम् Bh. 3. बलात्मके for बलात्पुन: A, A 1, Bh. 4. चतुर्थचन्द्रशुक्राद्यैः for चन्द्रशुक्रादिसस्तुयें A1. D. ०मिच्छताम् for oमिच्छता A.