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उदयालंकृते खेटे शुभग्रहक्लिोकिते। अकस्माधिविरायाति पण्यायस्य महात्मनः ॥२९॥ यावन्त्योऽप्यंशका मुक्तास्तावन्त्याचारभाजने । छादित कलसादौ तु द्रव्यं वाच्यं गृहे गृहे ॥१९४॥ धातुभाण्डे चरे श्रेयं मूलभाण्डं स्थिरे पुनः । द्विस्वभावेष मृद्भाण्डं च भाण्डस्य "निर्णयः ॥२९५॥ लमस्थमेषमाश्रित्य वृषयुग्मादिदक्षिणे। गृहस्यांशस्थिते भावे विज्ञयो निधिदायकः ॥२९६॥ मीनकुम्भाधुत्तरोंशः सम्मुखस्थे च दक्षिणः । विन्यस्तचक्रमानेन देशो वाच्यो निधिश्यम् ॥२९७।। लगमूर्तेहस्यैव हिबुकं दक्षिण भवेत् । उत्तरे दशमस्थानं प्रविविक्षाविपर्ययः ॥२९८॥
सभी ग्रह यदि उच्च वा केन्द्र के हों और सबल रहे, साथ ही चन्द्र की दृष्टि रहे, तो लक्ष संख्या म निधि मिले ।। २६२ ॥
शुभप्रह यदि लग्न में हों और अन्य शुभ ग्रहों से देखे जाय तो पुण्य-शील पुरुष का एकाएक निधि प्राप्त हाती है ।। २६३ ॥
जतने अंश को व भोग कर गये हा उतने श्राधारपात्र वा कलश आदि में ढका हुश्रा द्रव्य घर में स्थित कहना चाहिये ॥ २६४॥
यदि चर राशि का लग्न हो ता धातु भाण्ड में, स्थिर राशि को हो सो मूल भाण्ड में, द्विस्वभाव का लग्न हो तो मट्टी के बर्तन में निधि का होना कहना कहिये । इस प्रकार भाण्डों का निर्णय समझना ।। २६५॥
' लन का मेष समझ कर वृषादि दक्षिण क्रम से गृही का जिस अंश में निधि भाव पड़े उसी भाग में निधि कहना चाहिये ।। २६६ ॥
मीन कुम्भादि क्रम से उत्तरााद दिशाओं म स्थापना कर और उत्तर का सम्मुख दक्षिणा समझना चाहिये । इस प्रकार चक्र को स्थापित कर के निषि का स्थान बतलाना चाहिये ।। २६७ ॥
-लमस्थान से घर में, चतुर्थ स्थान स दक्षिण दिशा मे, और दशम स्थान से उत्तर दिशा में और याद कोई ग्रह अन्य स्थान में जाने वाले हों तो विपरीत दिशा समझनी चाहिये ।। २६८ ॥
1. बलोत्कटे for विलोकिते A. 2. स्थापित for यादि A. 8. कतारसदो for कलसादी A.4. तु tor A.;. त्वेयं for चर्व A