________________
( १२६ ) यदा छिद्रेशलमेशौ नीचे वा शत्रुवेश्मनि । नीचगौ नवमस्थौ चेव लाभो न व्यवहारतः ॥ ६७४ ॥ लग्नं पश्यति लग्नेशः छिद्रे भवति वाग्पतिः । व्यवहाराद् धनो लाभस्तरी प्रश्ने सतां मतः॥ ६७५ ॥ बलयुक्तो हि लमेशः छिद्रयुक्ते च भार्गवे । अक्रराध्यासिते तत्राऽसंख्यो लामो जलोद्भवः ॥ ६७६ ॥ अष्टमे चन्द्रसंयुक्त पृच्छालग्ने बलोत्कटे । परदेशीयवस्तुभ्यो लाभो भवति निश्चितः ॥६७७ ॥ उच्चेष्टमे शुभैर्युक्ते मूललग्ने बलाश्रिते । परदेशीयवस्तूनां लाभः शतगुणो भवेत् ॥ ६७८ ॥
इति प्रवहणप्रकरणं चतुर्थं सम्पूर्णम् । 1 बेडाप्रश्ने तनुर्वकं पद्वानं तुर्यकं स्मृतम् । सप्तशत्रुसुते लमं सुकाणमस्तभागगम् ॥ ६७९ ॥
जब अष्टमेश और लमेश नीच में हों वा शत्र के घर में हों वा दोनों नीच स्थित होकर नवम स्थान में हों तो व्यवहार से लाभ नहीं होता है ॥६७४॥
लग्नेश यदि लग्न को देखें और गुरु अष्टम स्थान में हो सो नौका के प्रश्न में व्यवहार से बहुत धन लाभ होता है ॥६७५।।
यदि लग्नेश बलवान हो और शुक्र अष्टम स्थान में हो शुभप्रहों से सम्बन्ध हो तो जल से बहुत लाभ हो ॥६७६।।
प्रश्न लग्न में बलवान् चन्द्रमा अष्टम स्थान में हो तो परदेशीय वस्तु के व्यवहार से निश्चय लाभ होता है ॥६७७||
शुभमह उच्च का होकर अष्टम भाव में हो, और लम बलवान हो तो परदेशीय वस्तुओं का सौगुण लाभ होता है ।।६७८॥
इति प्रवहणप्रकरणं चतुर्थ सम्पूर्णम् बेड़ा प्रश्न में लग्न को वक्र, चौथा को पद्वान, सातवां, छठां, पांचवां, लम को सुकाण ॥६७६।।
1. The portion beginning with ast and ending with इति प्रवहणपद्धतिस्ताजिकाभिप्राये is missing in A,