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गुरुणा सहितौ तौ च सप्तमे वाथवाष्टमे । महासौख्यं रतेर्वाच्यं मुदितैर्मुदितस्त्रियाः ||४४६ || स्वगृहे' स्वर्क्षगैः सौम्यः परगेहेऽन्यगेहगः । मित्रtafa तु मित्रस्थैः रतं शुभस्त्रिया सह ||४४७॥ अस्ते शुक्रे च शीतांशौ ससौख्यं सुरतं मतम् । सगुरौ चन्द्रशुक्रे च कर्पूरादि मुखाश्रयम् ||४४८ || क्ररे सौम्ये च सायासं सोद्वगं कलहाश्रयम् । भोगवजं शनौ वाच्यं मैथुनं पूतघीधनैः ॥ ४४९ ॥ एकं रतं चरे वाच्यं स्थिरलग्ने रतद्वयम् । द्विस्वभावे तु लग्न तु तत्रयमुदाहृतम् ||४५० || तुर्ये गुरौ रतं वाच्यमुत्तमे देववेश्मनि । भग्नदेवगृहे भूमौ गुरौ नीचे रतं मतम् ||४५१||
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यदि चन्द्रमा और शुक्र गुरु के साथ सप्तम तथा अष्टम स्थान में रहें तो आनन्दयुक्त स्त्री के साथ आनन्दित पुरुषों को मैथुन-सुख होता है ।। ४४६ ।। शुभग्रह अपने घर में रहें तो अपने घर में, अन्य राशि में रहें तो दूसरों के घर में, मित्रस्थान में रहें तो मित्र के घर में, सुन्दर स्त्री के साथ भोगविलास कहना चाहिये || ४४७ ।।
सप्तमस्थान में यदि शुक्र और चन्द्रमा रहें तो सुखसहित मैथुन होता है । चन्द्रमा और शुक्र यदि गुरु के साथ रहें तो कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित मैथुन होता है ||४४८ ||
सप्तम स्थान में शुभ और पापग्रह दोनों रहें तो आयास, उद्वेग और कलह से युक्त मैथुन होता है। शनि यदि सप्तम स्थान में रहे तो नन्दशून्य मैथुन करना चाहिये ॥ ४४६ ॥
प्रवलन यदि चर हो तो एक बार, स्थिर लग्न हो तो दो वार, द्विस्वभाव लग्न रहे तो तीन वार मैथुन कहना चाहिये ॥ ४५० ॥
चतुर्थ स्थान में गुरु रहे तो उत्तम देवालय में मधुन कहना चाहिये । वही गुरु यदि नीच का हो तो जीर्या देवालय में मैथुन कहना चाहिये ।। ४५१ ॥
1. स्वगृहै : for स्वगृहे ms. 2. मित्रस्थे for मित्रस्थै: Ms. 3. ०सुखा० for oमुखा० AA1, Bh. 4. मिथुनं श्रुतधोधनैः for मेथुन पूतीधनैः A, A1 ६. 5. मुत्तगे for मुत्तमे A1