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________________ ( १३४ ) उच्चयुक्तेषु केन्द्रेषु किंवा दृष्टयुतेषु च । ' मकचूले महायोगे राज्यं भवति भूभुजाम् ॥ ७१७ ।। उदयादशमं स्थानं मुख्यस्वामिप्रकाशकम् । ततश्च दशमं गेहं प्रतिहस्तः प्रकाशकृत् ।। ७१८ ॥ इति मध्यताजिके पदप्रकरणं सम्पूर्णम् । दुष्कालकालज्ञानार्थ कौतुकार्थं च जन्मिनाम् । दृष्टिप्रकरणं वक्ष्ये नत्वा देवं जिनेश्वरम् ।। ७१९ ॥ केन्द्रे च जलराशिस्थे सौम्यपक्ष सिते ध्रुवम् । मूत च जलराशिस्थे चन्द्र वा स्यादहृदकम् ।। ७२० ॥ लग्नाद् द्विके त्रिके वापि जलराशियदा भवेत् । जलखेटस्तु तत्रैव जलपातस्तदा ध्रुवम् ॥ ७२१ ॥ सब ग्रह उच्च के होकर केन्द्र में हों अथवा उच्च स्थित ग्रहों की दृष्टि से युक्त हों तो मकचल महायोग में राजाओं को राज्य होता है ॥७१७। लम से दशम स्थान मुख्य स्वामी का प्रकाश करने वाला होता है। और उस से दशम स्थान प्रतिहस्त को प्रकाश करने वाला होता है।। ७१८॥ इति मध्यताजिके पदप्रकरणम् अपने इष्ट जिनेश्वर देव को नमस्कार कर दुष्काल काल अर्थात जिस समय वर्षा नहीं होने से अकाल कहलाता है उस समय के ज्ञान के लिये और शरीर धारियों के प्रानन्द के लिए वृष्टि प्रकरण को कहते है ॥७१६ ॥ जलचर राशि केन्द्र में हो, उस में शुभ ग्रह स्थित हो, शुक्ल पक्ष में बहुत जल होता है वा ज 1 राशि लग्न हो उस में चन्द्रमा हो तो भी बहुत जल होता है।। ७२० ॥ लम से दूसरा, तीसरा, स्थान में जलचर राशि हो उस में चन्द्रमा आदि जल स्वभाव के ग्रह हों तो अवश्य हो वृष्टि होती है ।। ७२१ ॥ 1. दृष्टे शुभेषु वा for दृष्टयुतेषु च ms. 2. वृष्टि for दृष्टि Bh. 3. तृतीयेवा for त्रिक वापि A.
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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