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परचक्रागमं प्राहुश्चरे लमे स्थिरे विधौ । द्वयोश्चरस्थयोऽपि नत्वेतस्माद्विपर्यये ॥४५७॥ चरे शशी ततो द्वयङ्गे अदं गत्वा निवर्तते । विपर्यये द्विधा याति करदृष्टे पराजयः ॥४५८॥ मेषवृषधनुःसिंहा मूर्ती तुर्ये यदि स्थिताः । अग्रहाः सग्रहा वापि रिपुं व्यावर्तयन्ति ते ॥४५९॥ रिपुरायाति बन्धुस्थः शीघ्रं प्रश्ने शुभग्रहैः । चन्द्राको तु सुखस्थौ चेत्तदा नायान्ति शत्रवः ॥४६०॥ लग्नाभ्रचन्द्रधर्मशः स्थिरस्थे गमो रिपोः । स्थिरग्रहैः स्थिरे लग्ने दृष्ट नति' कदाचन ॥४६१।। __ लग्न यदि चर राशि में रहे और चन्द्रमा स्थिर राशि के हों तो शत्रुसेना का आगमन होता है। दोनों यदि चरराशि के हों तो शत्रु भावे । इस से विपरीत शत्रु नहीं सकता ।। ४५७ ॥
चर राशि में चन्द्रमा रहे, लम द्विस्वभावराशि के हों तो शत्रु भाधे रास्ते से खाकर लौट जाता है । इसस विपरीतावस्था में दो बार प्राता है। यदि पापग्रह की दृष्टि रह वा उसकी हार हा जाती है।॥ ४५८।।
मेष, वृष, धनु, सिह इन्हीं राशियों में से कोई यदि लग्न और चतुर्थ स्थान दोनों में रहे और वे याद ग्रहों के साथ वा विना ग्रह के रहें तो शत्रु को लौटा देते है ।। ४५६ ।।
प्रश्नकाल में यदि सभी शुभग्रह चतुर्थस्थान में रहें दो शत्रु शीघ्र ही प्रामआता है। यदि रवि, चन्द्र चतुर्थस्थान में रहें तो शत्रु नहीं भासकते ॥ ४६०॥
लमेश, दशमेश, धर्मेश और चन्द्र यदि स्थिर राशि में हो तो शत्रु का आगमन नहीं होता । लग्न स्थिर राशि रहे और स्थिर प्रहों से देखा आय तो भी शत्रु कमी नहीं पाते ।। ४६१ ॥
1 for नैति Bh.