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________________ ( १५०) चन्द्रधिष्ण्ये तिथेश्चापि कण्टकोऽथ द्वितीयकः । तदाप्युत्तम एवार्थो विज्ञातव्यो महर्दिकः ॥८०४॥ यदा च गुरुधिष्ण्यस्य नृतीयः कण्टको भवेत् । चन्द्रधिष्ण्यतिथेचापि तृतीयश्चोत्तमोत्तमः ॥८०५॥ बृहदृक्षाद्यभागश्चेत् चन्द्रतियोद्वितीयकः । तदाऽपि चोत्तमार्थोऽस्ति नक्षत्रस्य स्वभावतः ।।८०६।। वृहदृक्षाद्यभागश्चेत् प्रान्तश्चन्द्र तिथेरपि । तदोत्तमजघन्यापाकः श्रीशास्त्रसंमतः ।।८०७।। गुर्वक्षमध्यमो भागश्चन्द्रतिथ्योरथान्त्यगः । तदा मध्यो भवेदों गुरुनक्षत्रवैभवात् ।।८०८॥ एवं चतिथिभ्यां च महदृक्षं विचाक्तिम् । त्रिशन्महत के ऽप्येवमाद्यमध्यान्तकल्पना ।।८०९|| - यदि चन्, नक्षत्र तथा निधि की भी द्वितीय घटी विभाग में संक्रान्ति हो तो भी उत्तम अर्थ होता है ।।८०४॥ यदि बृहत संज्ञक नक्षत्र तथा तिथि की भी तृतीय घटी विभाग में संक्रान्ति हो तो अर्घ उत्तमोनम होता है ।।८०५॥ बृहनक्षत्रों का प्रथम भाग चन्द्र, तिथि, का द्वितीय भाग हों तो भो नक्षत्र के स्वभाव से उत्तमार्घ होता हे ।।८०६।। वृहनक्षत्र का श्राद्य भाग, और चन्द्र तिथि का अन्त भाग हो तो शास्त्र संमत से उत्तमाधम अर्घ पाक होता है।०७॥ वृदनक्षत्र का मध्य भाग, और चन्द्र, तिथि का अन्त्य भाग हो तो वृहन्नक्षत्र के प्रभाव से मध्यम अर्घ होता है। इस प्रकार चन्द्रमा, तिथि पर से बृहन्नक्षत्र का विचार किया, इसी तरह तीस मुहूर्त पर से भी श्राद्य मध्य अन्त्य को कल्पना करें ।।०६। 1. महर्षिभिः for महर्टिक: A. 2. मोहूर्तिके for मुहूर्त के A.
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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