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(१४६) उत्तमः समर्ष स्यान्मध्यमे समता मता । जघन्येषु महर्घ स्यादेवं संक्रमधिष्ण्यतः ॥७९९॥ तिथिः षष्टिघटीमानात् त्रिभागेन विभाजिता । आधभागे ततो नाड्यः पञ्चदश प्रकीर्तिताः ॥८००॥ त्रिंशबाड्यो द्वितीयेऽपि पञ्चदश तृतीयके । एवं चन्द्रस्य धिष्ण्यं तु ततस्त्रेधा विभज्यते ॥८०१॥ बृहद्धिष्ण्यस्य चाद्योंशश्चन्द्रतिथ्योरथांशकः । आयो भवेत्रिधा तुल्यस्ततः सूर्यः शुभेक्षितः ।।८०२॥ धनुषि याति संपुष्टस्तूत्तमा तदा भवेत् । यदा च गुरुधिष्ण्यस्य कंटकः स्याद् द्वितीयकः ॥८०२॥
बृहन्नक्षत्र में हो तो समर्घ होता है । मध्यम में हो तो-समता, जघन्य में महर्घ होता है ऐसा संक्रान्ति के नक्षत्र-से फल का विचार करें ॥ ७६६ ॥
तिथि के साठ घटी मान को तीन विभाग करने पर पहले भाग में पन्द्रह घटी कही है ॥८००||
और द्वितीय भाग में तीस घटी, तृतीय भाग मे पन्द्रह पटी, इसी तरह चन्द्र नक्षत्र के साठ घटी मान के भी तीन भाग करें ।।८०१॥
बृहत संज्ञक नक्षत्र के तथा चन्द्र नक्षत्र के पहले घटी विभाग में सूर्य की संक्रान्ति हो और शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो अर्घ समान होता है ।।८०२
यदि बलवान सूर्य बृहत संज्ञक नक्षत्र के द्वितीय घटी विभाग में घनु राशि में जाय तो उत्तम अर्घ होता है ।।८०३।।
___ 1. सुभिक्षं for समर्घ A, A1 2. Bh adds before this verse the following: 3. कण्टकस्य for कण्टक:स्याद् A.
वृहद्रक्षाद्यमागश्च प्रातश्चन्द्रतिथिरपि। तदोत्तमजघन्यायपाकश्रीशास्त्रसम्मतः ॥ But this verse is repeated, see V. 806.