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________________ (१४८) ऊर्ध्वसंक्रमणे मित्रे शुमयुक्ते च पूर्व कात् । त्रिवारे तुर्यगे धिष्ण्ये बृहक्षेसंक्रमः ॥७९४॥ यदा भवेत्तदा वाच्यं सुभिक्षं सततं क्षितौ । रात्रौ सुप्त च सरे पापविद्धक्षितेऽपि वा ॥७९५॥ पूर्वात्तृतीयपञ्चक्षुलध्वः यदि संक्रमः । तदा भवेन्महल्लोके दुर्भिक्षं कष्टकारकम् ॥७९६।। मध्यक्षे मिश्रसंयुक्तेऽप्युपविष्ट च संक्रमः । अर्घसाम्यं तदा वाच्यं सर्यसंक्रान्तिलक्षणैः ॥७९७|| यदा धनुषि मार्तण्डः संक्रामति तदा विधुः । विलोक्यते हो किंमध्ये किंजघन्यके ॥७९८॥ अनुराधा, तथा तोनों पूर्वा से तृतीय, चतुर्थ, तथा बृहत संज्ञक नक्षत्र में शुभग्रह से युक्त रवि यदि ऊर्ध्व-संज्ञक संक्रान्ति करता हो ॥ ७६४॥ तो पृथ्वी पर सर्वदा सुभिक्ष होता है और मुप्त अर्थात तैतिल, नाग, चतुष्पद करणों में रवि के संक्रान्ति होने से सुप्त संक्रान्ति होती है जैसे नारद का वचन है ___ "निविष्टो वणिजे विष्टयां बालवे च बवे गरे । कौलवं शकुनो भानु: किस्तुन्ने चोर्ध्व संस्थित । चतुष्पातैतिले नागे सुप्तः क्रान्ति करोति सः । धान्यावृष्टिषु समं श्रेष्ठं हीनं भवेत्क्रमात् ॥" रात्रि में पाप ग्रह से युक्त वा विद्ध वा दृष्ट पूर्वा से तृतीय, पत्र (हस्त. स्वाती, अभिजित. धनिष्ठा, रेवती, भरणी, ) और लध्वः (अश्लेषा, शतभिषा, आर्द्रा, स्वाती, ज्येष्ठा, भरणी.) इन नक्षत्रों में रवि की सुप्त संक्रान्ति हो तो महर्लोक में दुर्भिक्ष तथा कष्ट कारक होता है। प्रसङ्ग से वृहत सम जघन्य नक्षत्रों की संज्ञा संक्रांति वश से जैसे नारद का वचन है "तारा जघन्याः सान्द्रा वातान्तकतोयपाः । ध्रुवादिनि द्विदेवत्यं वृहत्तारा: पग: ममा: ।" इति ।। ७६५ ॥ ७६६ ॥ मध्यम अर्थात् सम संज्ञक तथा विशाखा, कृत्तिका इन नक्षत्रों में रवि की संक्रान्ति हो तो संक्रान्ति के लक्षण से अर्घ साम्य कहना पाहिये ॥ ७ ॥ धनुराशि की संक्रान्ति में चन्द्रमा यदि बृहन्नक्षत्र, या मध्य नक्षत्र, या जघन्य नक्षत्र में हो ॥ ६ ॥ 1. हट्रिम्पये for वृहह A.
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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