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( १५४ ) सौम्येम्बरस्थे सुभगा सुरूपा संप्राप्यते स्त्री बहुपुत्रपौत्रा ॥८२७ छिद्रे स्थिते चन्द्रयुते च शुक्रे लग्ने गुरौ सौम्ययुते च सूर्ये । लामेऽथ दुश्चिक्यगतेशनौतु प्राप्नोतिकन्यां सुरसां सुरूपाम्।।८२८ शुक्र मूर्ती सुरूषा स्त्री साहंकारा च भूमिजे । बुधे वक्रा गुरौ सश्रीश्चतुरस्राखिलैः शुभैः ॥८२९॥ शुद्ध शनौ दरिद्रा तु दुर्भगा युवती मता। शुक्रे लग्ने गुगै घने सेवते न पतिं निजम् ।। ८३० ।। तुर्य तुंगाश्रिते चन्द्रे जीवदृष्टे महोदया । विद्याधरीसमा प्राप्या जितारिश्च बहुप्रजा ॥ ८३१ ॥ चन्द्रो लग्नेश्वरो वापि कन्यालाभाय सप्तगौ । सप्तपो मूर्तिगः शीघ्र स्त्रीलामो निश्चितो भवेत् ।। ८३२ ॥
सूर्य उनका होकर लाभ स्थान में हो, पूर्ण चन्द्रमा लग्न में हो, शुममा दशम स्थान में हो तो वह बहुत सुन्दरी सुभगा तथा बहुत पुत्र पौत्र को उत्पन्न करने वाली स्त्री का लाभ करता है ।।८२७॥
चन्द्रमा से युक्त, शुक्र, अष्टम स्थान में हो, लग्न में गुरु हो, बुधसे युत सूर्य लाभ में हो और शनि तृतीय में हो तो वह सुन्दर रस वालो मुन्दरी स्त्री को प्राप्त करता है ।। ८२८॥
लग्न में शुक हो तो सुन्दर स्त्री का लाभ होता है । यदि मंगल, माग्न में हो तो अहंकारयुक्ता स्त्री, और बुध हो तो वा स्त्री, गुरु हो तो लक्ष्मी रूपा, सब शुभप्रह हों तो सब गुणों से युक्ता स्त्री का नाम होता है ।। ८२६ ॥
शनि हो तो दरिद्रा. दुर्भगा, स्त्री होती है, यदि शुक्र लग्न में हो, भोर वृहस्पति सप्तम भाव में हो तो उसकी स्त्री अपने पति को सेवा नहीं करती ॥३०॥
चन्द्रमा उच्च का होकर चतुर्य में हो, उस पर बृहस्पति की दृष्टि हो तो वह महोदया, तथा विद्याधरी के समान शत्रु को जीतने और बहुत पुत्रादिक उत्पम कर वाली खो को प्राप्त करता है ।। ८३१॥
चन्द्रमा, लप्रेश, दोनों, सप्तम में हों तो कन्या का लाभ होता है, और सममेश लम्र में हो तो शीघ्र स्त्रीलाभ होता है ॥८३२॥