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(२१) धर्म ९ कर्मा १० य ११ व्ययतो भावा द्वादश लागाः ॥९॥ तनुलप्रमूर्तिहोराकल्पोदया धनमय कुटुम्बञ्च । विक्रमदुश्चिक्यमथ सुहृद्धिबुकपातालम् ॥१५॥ वेश्माम्बुबान्धवसुखं चतुरस्रं त्वष्टमे चतुर्थं च । पुत्रो धीः प्रतिभारिक्षतं कलत्रं तथा धनम् ।।९६॥ जामित्रं चित्तोत्थं धनमस्तं मृत्युरन्ध्रछिद्राणि । ... धर्मो गुरुस्तपस्त्रिकोणमिदमत्र सुतसहितम् ॥९७।। कर्मास्पदमेघरणमानाज्ञायभवनलाभान्त्यरिक्थम् ।
कटककेन्द्रचतुष्टयमेकचतुर्थास्तदशमानाम् ॥९८॥ बाय, व्यय-ये लग्नादि द्वादश भावों की क्रमिक संज्ञाएं हैं ।।६४॥
सनुभाव की संज्ञा-तनु, लम, मूर्ति, होरा, कल्प, उदय है। धनभाव की संज्ञा - कुटुम्ब भी है। अनुजमाव की संज्ञा - विक्रम, दश्चिक्य भी हैं। मित्रभाव के लिये सुहृद, हिबुक और पाताल भी कहे जाते हैं ।।६५
मित्रभाव के लिये वेश्म, अम्बु बान्धव, सुख ये भी संज्ञाएं हैं। चतुरस्र से चौथा और आठवां दोनों का ग्रहणा होता है । सुतभाव के लिये धी, रिपुभाव के लिये प्रतिम अरि, क्षत तथा सप्तमभाव के लिये कलन तथा धन शब्दों का भी प्रयोग होता है ।॥६६॥
इसी भाव के लिये जामित्र, चित्तोत्थ, घन, अस्त भी पर्याय है। अष्टममाव के लिये मृत्यु, रन्ध्र, छिद्र, नवमभाव के लिये धर्म, गुरु, तप पर्याय है। त्रिकोण से नवम तथा पश्चम दोनों का ग्रहण होता है ।।१७||
दशम भाव के लिये कर्म, अास्पद, मेषूरण । ग्यारहवें भाव के लिये प्राय, लाम । बारहवें भाव के लिये अन्त्य, रिक्थ । कटक, केन्द्रचतुष्टय लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम स्थानों को कहते हैं । 1. ब्ययिता for व्ययतो A. 2. मघधनं for धनमथ A.
3. A reads मानान्यज्ञायभवनलाभान्त्यरिष्युः for माना etc. || मांसं नान्यायभुवनलाभांत्यरिष्फं Bh.