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(३८) कर्मतो राजवृद्धयादि पितृमुद्रापुरादिकम् । खेचरत्वं पुण्यमानौ निर्वाहश्चाधिकारिता ॥१८॥ राजवेश्म मित्रवेश्म पशुप्रारब्धकर्म च । आचार स्थानमायातुर्यानानि करिवाजिनः ॥१८९।। वस्त्रायुः स्वर्णसस्यत्रीविद्याराजपरिच्छदः । मित्राश्रमौ रूपवित्तं लाभो राजकुलादपि ॥१९०॥ व्ययाद्विवाहयज्ञादि महायुद्धानि कीत्तनम् । त्यागभोगो कृषिभ्रंशः विश्वासकुपथा व्ययः ॥१९१।।
इति द्वादशभावेभ्यस्तत्त्वचिन्ता । सर्वश्रियां परीणामो यत्स्वरूपं जगत्त्रयम् । · सिद्धचक्रं नमस्कृत्य वक्ष्ये किश्चित्तमोऽपहम् ।।१९२।।
कर्मस्थान से राजकुल में प्रतिष्ठा, सम्मान आदि, पैतृक सम्पत्ति की प्राप्ति, माम आदि की प्राप्ति, व्योमयानों मे उड़ना अथवा देवाह सम्मान की प्रापि, पुण्य प्राप्ति, श्रेयप्राप्ति, अच्छा निर्वाह तथा अधिकारप्राप्ति-इन बातों का विचार करना चाहिये ॥१८८||
राजभवन से सम्बन्ध, मित्र के घर से सम्बन्ध, पशु के साथ सम्बन्ध, प्रारब्ध कर्म की सफलता, आचार, स्थान, तथा हाथी, घोड़ा मादि यानों के विषय में विचार करना चाहिये ॥१८६।।
आय स्थान से वस्त्र, श्रायु, सुवर्ण, धान्य, स्त्री, विद्या, राजसम्बन्ध, मित्र, श्राश्रम, रूप, धन राजकुल से लाभ आदि बातों का विचार करना चाहिये ।।१६।।
__ व्यय स्थान से विवाह, यज्ञ, आदि, युद्ध, त्याग, भोग, कृषि की हानि, किसी पर विश्वास तथा कुमार्ग से धन व्यय आदि विचार करना चाहिये ॥१६॥
जो सब प्रकार की सम्पत्तियों के कारण हैं, जो तीनों लोकों के स्वरूप हैं ऐसे सिद्ध महापुरुषों को नमस्कार करके मैं कुछ अज्ञाननाशक बातें कहता हूँ ।।१६२॥
1. भाचारा: for प्राचार A. 2. मायान्त यानानि for oमायाहर्यानानि A. 3. भूपवित्तं for रूपवित्तं A. भूमिवित्त Bh. 4. The reading of the Amb. text (राजलाभो कुलादपि) is obviously in- correct, I have, therefore, adopted the reading of A, Al .