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(४५) स्त्रीकेन्द्रं च तृतीयकं बुधजनैहत्यिकेन्द्रं स्मृतम् । अमाख्यं दशमं मतं सुमनसां क्षोणीन्द्रकेन्द्रं पदं पुष्टास्ते किल कण्टका बलयुता यच्छन्ति पूर्ण फलम् ॥२२६॥ तन्वादिसप्तमं यावदुत्तरो भाव उत्तमः । सप्तमं प्रथमं यावदक्षिणस्त्वबलोऽधमः ॥२२७|| आद्याः' केन्द्रगताः खेटाः समस्ता उदिता मताः । अस्तकेन्द्रस्थिता सर्वेऽप्यस्तमिताः शुभाशुभाः ॥२२८|| पातालेऽप्युत्तमाः प्रोक्ता आकाशे मध्यमाः स्थिताः । उत्तरेऽभ्युदिता ज्ञेया विशेषेण बलाधिकाः ॥२२९।। दक्षिणेऽप्युत्तमे भागे बलहीना ग्रहा मताः । एवं लग्नबलं ज्ञात्वा विलग्ने फलमादिशेत् ॥२३०।।
केन्द्र पहला, चौथा, सातवां, दशवां कहलाते हैं । उसमें पहला भयकंटक और क्षितिगृह, दूसरा पातालकेन्द्र, तीसरा, स्त्रीकेन्द्र और हर्षफन्द्र चौथा अर्थात दशम स्थान को अभ्राख्यकेन्द्र वा क्षोणीन्द्रकेन्द्र कहते है । यदि ये स्थान सबल पुष्ट रहें तो पूर्ण फल को देते है ।।२२६॥
केन्द्रों में लग्न से सप्तम तक उत्तर भाव कहलाते हैं। वह उत्तम हैं और सप्तम से प्रथम तक दक्षिगा भाव कहलाते हैं वह अधम अबल होते हैं ।। २२७ ॥
पहले केन्द्रस्थित सब ग्रह उदित कहलाते हैं। और सप्तमकेन्द्र में स्थितग्रह शुभ अशुभ कहलाते हैं ॥२२॥
पातालकेन्द्र में स्थित ग्रह उत्तम कहलाते हैं और दशम में मध्यम कहलाते हैं। उत्तर में स्थित ग्रह अभ्युदित कहलाते हैं उनमें बल भी होता है ॥२२॥
दक्षिण में उत्तम भाग में रहने पर भी ग्रह बलहीन होते हैं। इस प्रकार लग्न जान कर फलादेश कहना चाहिये ।।२३०॥ ___ 1. तत्वादि for तन्वादि Amb. 2. दुत्तमो for दुत्तरो Amb. 3. सप्तमात् for सप्तमं Amb. 4. ऽधनः for ऽधमः Amb. 5. भाद्या: for अथ Amb. 6. गता० for स्थिता A. 7. वधमा for प्युत्तमे A., Bh.