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( १९५ ) धिष्ण्यवृद्धिदिने यत्र तिथेः पार्वाद् गरीयसी । दिने तत्र समघ स्यातिथिवद्धौ महर्षता ॥१०५२।। ऋक्षवृद्धौ रसाधिक्यं कणाधिक्यं च निश्चितम् । योगाधिक्ये रसोच्छेदो दिनाघः प्रत्यहं स्फुटम् ॥१०५३॥ पभिश्च नाडिकाभिश्च धिष्ण्यवृद्धिः क्रमाद् यदा । प्रत्येकं च तिथैर्यत्र समर्घ तत्र जायते ॥१०५४॥ पडभिश्च नाडिकाभिश्च धिष्ण्यवृद्धिः क्रमाद् यदा । प्रत्येकं तत्र धिष्ण्ये च मह विद्धि निश्चितम् ॥१०५५।। तिथिनक्षत्रयोवृद्धिं विज्ञाय प्रत्यहं द्वयोः । सर्व टिप्पनकं ज्ञात्वा लाभालाभौ विनिर्दिशेत् ॥१०५६॥ यावन्नाड्य उडोवृद्धिः समघ तद्विशोपकाः। यावन्नाड्यस्तिथेवद्धिमहर्घ तत्प्रमाणकम् ॥१०५७॥
जिस दिन नक्षत्र की वृद्धि हो तो उस दिन वहां समर्थ होता है, और तिथि वृद्धि हो तो महर्ष होता है ॥१०५२।।
नक्षत्र को यदि वृद्धि हो तो रस, तथा का का आधिक्य होता है, और योग का आधिक्य होने पर रस का उच्छेद होता है ऐसे वर्ष का निश्चय करें ॥१०५३।।
जब छः छः घटी के क्रम से नक्षत्र की वृद्धि हो तथा प्रत्येक विधि को वृद्धि हो तो वहां समर्थ होता है ॥१०५४॥
जब छः छः नाड़ी के क्रम से नक्षत्र की वृद्धि हो तो प्रत्येक नक्षत्र में महर्ष होता है ।।१०५५।।
तिथि, और नक्षत्र, इन दोनों की वृद्धि प्रत्येक दिन जान कर तथा पूर्वोक्त सब विषयों को विचार कर लाम या हानि भादेश करें॥१०५६॥
जितनी घड़ी नक्षत्र की वृद्धि हो उतने विशोपक प्रमाण समर्थ होता है, और जितनी घटी तिथि वृद्धि हो उतने प्रमाण महर्ष होता है ॥१०५७॥