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(१४३) चलत्यङ्गारके वृष्टिरुदये च बृहस्पती । शुक्रस्यास्तमने वृष्टिवक्रं याते शनैश्चरे ।। ७६७ ॥ उदयास्तमने चारे वक्र याते शनैश्चरे। . जलनाडिगताः खेटाः महावृष्टिकरा मताः ॥ ७६८ ।। भृगुतः सप्तमश्चन्द्रः शुभदृष्टय ष्टिदः । त्रिकोणस्मरगो वापि शनिः प्राकृषि कीर्तितः ॥ ७६९ ॥ त्रिपूर्व मूलपैयग्निरग्रयोगाः षडेव हि । अश्विनीयाम्यकर्णाश्च धनिष्ठा मैत्र रेवती ॥ ७७० ॥ पुप्यो मृगकरश्चित्रा पृष्टयोगा दश स्मृताः । एतानि दुरतिक्रम्य भुने वारे सदैव हि ॥ ७७१ ॥
मंगल के संचार में वर्षा होती है. और बृहस्पति के उदय होने पर तथा शुक्र के अस्त हाने से, तथा शनि को वक्री होने पर वर्षा होतो है ।। ७६७ ॥
__ इस प्रकार ग्रहों के उदय. अस्त, चार तथा शनि के वक्री होने पर जो वर्षा का योग कहा गया है उस में यदि आपाढी में नाडी के बल से जो वर्षा का योग कहा गया है उन दोनों का यदि एक काल में योग हो तो महावृष्टि होती है ।। ७६८ ।।
शुक्र से सप्तम में चन्द्रमा हो और शुभ ग्रहों से देखा जाय तो वर्षा होती है वा, नवम, पञ्चम, या, सप्तम, में शनि हो तो वर्षा होती है।। ७६६ ।।
पूर्वफल्गुनी, पूर्वाषाढ़, पूर्वभाद्र, मूल, मघा, कृत्तिका, ये अनि योग है, अश्विनी, भरणी, श्रवगा, धनिष्ठा, अनुराधा, रेवती, पुष्य, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, ये दश नक्षत्र पृष्ठ योग है, इन नक्षत्रों को चन्द्रमा दिन में सर्वदा क्रम से भोग करते हैं ।। ७७०, ७७१ ।।
__ 1 शनीश्वरे Bh. 2. वारे for चारे ms. चरे Bh. 3. शन: for शनिः A, Bh. 4. मैत्र्य for मंत्र A. 5. वा for वारे Bh.