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चतुर्भक्ते ततो जाताः माणकाः कणसंग्रहे ।
धृते धान्ये तिले तैले दृष्टिभाण्डे सुगन्धिकम् ।। ११३६ ।। अनेनैव क्रमेणात्र सर्वेषामर्घनिश्चयः ।
त्रिगुणश्च भवेदर्थोऽयुचैव च खेचरे ।। ११३७ ।।
गेहे मित्रे स्वके चांशे द्विगुणोऽर्ध्वेवं मतः । शनौ नीचे तथा पापे तदंशेऽपि ग्रहे सति ।। ११३८ ।
लास्य बुधैयं चार्द्धमपरीक्षणे ।
शेषेषु च यथासंख्यं तथैवार्धं विनिर्दिशेत् ॥ ११३९ ॥ क्षयवृद्धिद्वयं कृत्वा ऽयं न्यस्य स्थानयोर्द्वयोः ।
चतुर्युग्मे चतुर्भागं लब्धं क्षिपेत्तथोपरि ।। ११४० ॥
उस को प्यार से भाग देवें तो कया संग्रह में, घृत, धान्य, तिल, सैल, भण्ड, सुगन्धित द्रव्य, इत्यादि का परिमाया हो जायगा ||११३६ ।। इस क्रम से सत्र का अर्ध निश्चय होता है, यदि प्रह उब का हो वक्री हो तो श्रर्घ त्रिगुण होता है ।। ११३७ ।।
यदि मित्र के घर में या अपने घर में वा मित्र तथा अपनी नवमांश ग्रह हो तो द्विगुणा अर्थ होता है।
यदि शनि तथा अन्य पापग्रह नीच में हो या उसके अंश में हो या शत्रु आदि के घर में हो तो पंडित लोग लब्धार्ष में भाषा घटा देवें । इस प्रकार शेष का भी यथा संख्या पर से अर्थ का निश्वय करें ।।११३८-११३६ ।।
इस प्रकार क्षय वृद्धि करके दो स्थानों में वर्ष को स्थापित करें और उसको चार से भाग देकर लब्धि को उपर में फिर प करें ||११४०||
1. गया for का Bh. 2. चैव for तैले Bh. 8. दृष्टे for दृष्टि Bh. 4. o for oर्षो Bh. 5. मथ० for oमर्च Bh. 6. बार्ड for one Bh.