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लाभे शुक्रेन्दुदेवेज्ययुक्ते कन्या स्वहस्तगा । कन्याया रमणो रम्यो लाभे सौम्ययुतेक्षिते ।। ८४९ ।। दौस्थ्यं' कन्यावरादीनां तत्क्षेत्रेशोदयादिभिः । उच्चकेन्द्रस्वमित्रस्थैः सौम्ययुक्तेक्षितः शुभम् ॥ ८५० ॥ इत्याये कन्यालाभप्रकरणम् ।
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अथ नष्टलाभप्रकरणं द्वितीयवारं कथ्यते । लाभ भ्रष्टलाभस्य सम्यग् ज्ञानं प्रकाशितम् । निजानु भावसंवादाद्विशेषः कोऽपि कथ्यते ।। ८५१ ।। पुष्टन्द्रः शुभो वापि दृष्टः शीर्षोदये शुभैः । गतप्राप्ति करोत्येवं लाभे वा सबलैः शुभैः ।। ८५२ ॥ वित्तं तुर्येऽनुजे पुत्रे षष्ठे वा शुभदः खगः । विधत्ते गतलाभं तु क्रूरेंस्तत्र विपर्ययः ।। ८५३ ।।
लाभ स्थान मे शुक्र, चन्द्रमा, बृहस्पति हो तो कन्या को अपने हाथ में समझना चाहिये, लाभ स्थान में शुभ ग्रह का योग तथा दृष्टि हो तो कन्या का सुन्दर रमण होता है || ८४६ ॥
प्रेश और सप्तमेश का उदय हो तो कन्या वर को स्वस्थ कहना चाहिये, और वे यदि उच्च, केन्द्र, या मित्रादि गृह में स्थित हों तथा शुभ ग्रहों से देखे जाते हों तो दोनों को शुभ कहना चाहिये ||८५०|| इत्याये कन्यालाभप्रकरणम् ॥
अथ नष्ट लाभप्रकरण द्वितीयवारं कथ्यते ।
लाम की तरह नष्ट लाभ का ज्ञान सम्यक् प्रकाश किया। अब अपने भावों के अनुसन्धान से कुछ विशेष कहते हैं । ८५१ ॥
पुष्ट चन्द्रमा या शुभ मह शीर्षोदय मे हो और शुभ ग्रहों से देखे औय वा लाभ स्थान में बलवान् शुभ ग्रह हो तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है ।। ८५२ ॥
धन, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम वा षष्ठ भाव में शुभ ग्रह हों तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है, यदि इन स्थानों में पाप ग्रह हो तो लाभ नहीं होता है ॥
८५३ ॥
1 सौस्थ्यं for दौस्थ्यं Bh. 2. शुभेः for शुभम् Bh.