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लग्नद्यनांशयोः संगे नष्टं कष्टेन लभ्यते । लमेशे शुभसंयुक्ते लब्धिः क्ररयुतेन हि ॥ ८५४|| लग्ने लग्नशसंयुक्ते नपो नष्टलाभदः । स्मरं गते तु लभेशे नष्टलाभो न दृश्यते ।। ८५५ ।। शुभयुक्ते विधौ पूर्णे तुर्ये वित्ते च लभ्यते । सार्क चन्द्रे स्मरे लाभे वक्रिणि द्यनपे नहि ।। ८५६ ॥ द्यनपे लग्नमायाते नष्टं चौरः प्रयच्छति । चन्द्रे क्रूरयुते नष्टं चौरेभ्योऽपि प्रणश्यति ।। ८५७ ।। अस्तपे शुभसंयुक्त केन्द्रे नष्टस्य लब्धयः ।
स्वामिप्रणाशे तु चौर्येशोऽपि मरिष्यति ।। ८५८ ॥ क्रिणिद्यनपे प्राप्तिः स्वस्थं मार्गस्थिते नहि ।
लग्नास्तपयुते नष्टं भूपायत्तं पदेश्वरे ॥ ८५९ ॥
लम, तथा सप्तम भाव के नवमांश का योग हो तो नष्ट वस्तु का कष्ट से लाभ होता है, लग्नेश शुभ ग्रह से युक्त हो तो लाभ होता है। और क्रूर ग्रह से युक्त हो तो लाभ नहीं होता है ।। ८५४ ।।
सप्तमेश से युक्त लग्नेश लग्न में हो तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है, और लग्नेश, सप्तम में हो तो नष्ट वस्तु का लाभ नहीं होता है ।। ८५५ ॥ शुभ ग्रह से युक्त पूर्ण चन्द्रमा चतुर्थ, तथा धन भाव में हो तो नष्ट वस्तु का लाभ होता है, और सूर्य से युक्त चन्द्रमा सप्तम भाव में हो तो लाभ होता है इस में यदि घनेश वक्री हो तो नहीं होता है ।। ८५६ ।। यदि द्यूनेश लग्न में हो तो नष्ट वस्तु चोर दे देता है, और चन्द्रमा पाप ग्रह से युक्त हो तो वह नष्ट वस्तु चार के पास से भी नष्ट हो जाती है ।। ८५७ ॥
सप्तमेश शुभ ग्रहों से युक्त होकर केन्द्र में हो तो नष्ट वस्तु. का लाभ होता है, और सप्तमेश नष्ट हो तो चोर भी मर जाता है || ८५८ || सप्तमेश वक्री हो तो न वस्तु का लाभ नहीं होता है और बहू स्वस्थ तथा भार्गी हो तो उस वस्तु का लाभ होता है यदि पद स्थान के स्वामी लग्नेश, अष्टमेश से युक्त हों तो वह नष्ट वस्तु राजा के अधीन होती है ॥ ८५६ ॥
1. धनशसंयोगे for oधनांशयो: संगे A.