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इति खाधुरीचक्रे
अथ धनुर्वाणचक्रम् । लिखेदादौ धनुश्चक्रे गुणवाणसमन्विते । चन्द्रनक्षत्रतस्त्रीणि त्रीणि मानि क्रमेण च ।। ५८४ ॥ बाणचापगुणानां च मूलमध्येऽर्द्धगानि च । धिष्ण्येषु यत्र वीरक्षं वक्ष्ये तत्र फलाफलम् ॥५८५ ॥ शरमूल्ये भवेन्मृत्युमध्ये रोगः फले जयः । क्रमाद्गुणधनुर्मध्ये वाच्यौ भंगधनक्षयौ ५८६ ॥ गुणचापोर्द्धदेशेषु सल्लाभारिजयो ध्रुवौ । गुणचापयोरधोऽधःस्थे चाधोप॑त्युबलक्षयः ॥५८७॥ पापग्रहयुते वीरधिष्ण्ये पुंसः पलायनम् । जयलाभौ शुभे योगे चापचक्रे विचारितौ ॥५८८॥
पहले धनुष चक्र में गुण बाण से युक्त चन्द्र नक्षत्र अर्थात् दिन नक्षत्र से तीन तीन नक्षत्र स्थापित करें ॥५८४॥
बाणा, चाप, गुणों के मूल मध्य अन्त में दिन नक्षत्र से तीन तीन नक्षत्र लिखें उन में वीर का नक्षत्र जहां पर हो उससे शुभाशुभ फल समझे ॥५८५॥
बाण के मूल में वीर का नक्षत्र हो तो मृत्यु होती है, मध्य में हो तो रोग होता है ऊर्द्ध हो तो जय होता है, गुण के मध्य में हो तो भंग होता है और धनुष के मध्य में हो तो धन क्षय होता है ।।५।।
यदि गुण के ऊर्द्ध देश में वीर नक्षत्र हो तो लाम और चाप के ऊर्द्ध देश में हो तो निश्चय ही शत्रु का जय होता है, गुण और चाप के नीचे भाग में हो तो क्रम से मृत्यु और सेना का क्षय होता है ॥५८७॥
वीर नक्षत्र यदि पाप ग्रह से युक्त हो तो वह भाग जाता है शुभ मह का योग हो तो जय लाभ दोनों होते हैं ॥८॥ ___1. शुभाशुभम for फलाफलम् A. 2. सलामविजयो for समाभारिजयो A. 3. For this line the ms reads बन्धोपवित्रहो मृत्युगणधौ स्थापितो स्मृतौ ।