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( १०८ ) कांघ्रिपृष्ठपुच्छस्थो गन्धर्वाङ्गेऽर्कनन्दने । विभ्रम भंगहानी च करोत्यश्वो महाहवे ॥ ५७८ ॥ चतु:काष्टास्थिता तस्य रिपवस्सन्ति शङ्किताः । अश्वाः सन्ति धना राज्ये यस्य क्षोण्यां सुलक्षणाः ॥ ५७९ ॥ नवभेदलिखेचक्रं खड़गाकारं सधिष्ण्यकम् । वीरमादि समारभ्य त्रीणि त्रीणि च मान्यपि ।। ५८० ॥ यव वक्नं ततो मुष्टिः पाली बन्धश्च धारकम् । खङ्ग तीक्ष्णं क्रमाच्चेदं नवभेदास्त्वमी स्मृताः ॥ ५८१ ।। खङ्गचक्रे यवादौ तु बन्धतः रखेचराः। रणे यत्र च दृश्यन्ते मृत्युस्तत्र भिया सह ॥ ५८२ ॥ मिश्रमिश्रफलं प्रोक्तं नवभेदग्रहैस्त्वसौ । अनेनैव प्रकारेण क्षुरीजयति भूपतिः ॥५८३॥
जब शनि दोनों कान, दानों चरणा, पृष्ठ, पुच्छ इन स्थानों में हो तो महायुद्ध में विभ्रम, भंग, हानि इत्यादि होता है ॥५७८।।
जिन राजाओं के इस पृथ्वी पर बहुत से सुन्दर घोड़े हैं उनके शत्रु सर्वदा सशंकित होकर शिविका इत्यादिक पर रहते है ॥५७६॥
नो भेदों से युक्त नक्षत्रों के साथ खड़गाकार चक्र लिखें जिसमें वीरों के नक्षत्र के क्रम से तीन तीन नक्षत्र स्थापित करें ।।५८oll
यव, वक्त्र, पाश, मुष्टि, पाली, बन्ध, धार, खङ्ग, तीक्ष्ण इनके कम से नौ भेद होते है ।।२८॥
खग चक्र में यवादि मं बन्ध से लेकर जहां पर पापग्रह हो वहां अय के साथ मरण भी कहना चाहिये ॥५८२॥
मिश्र ग्रह से मिश्र फल अर्थात शुभ अशुभ दोनों होता है इन नौ भेद के दुरो चक्र में ग्रहों के सम्बन्ध से राजा जय प्राप्त करते ॥८॥
1. The ms reads गन्धव्यंगर्कनन्दने which too gives no sense.2 फलेऽय च क्रमादेवं for तीक्ष्ण खङ्ग क्रमाञ्चेदं A. 8. After this verse A & A1 add : यवादौ यत्र सौम्यास्तु सदा लामा महान् भवेत् । खड्ग धारोद्वयेऽप्रेच करैर्जयति भूपतिः । 4. चक्र स्पर पुषः for जयति भूपति: A. .