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ॐ स्वस्ति श्रीगणेशाय नमः । श्रीहेमप्रभसूरिविरचितः
त्रैलोक्यप्रकाशः श्रीमत्पार्धामि देव केवलज्ञानभास्करम् । वाग्देवी खेचरांचापि नत्वा लंग्नमहं ब्रुवे ।।१।। लमं देवः प्रभुः स्वामी लग्नं ज्योतिः परं मतम् । लमं दीपो महान् लोके लमं तत्त्वं दिशन् गुरुः ॥२॥ लमं माता पिता लनं लग्नं बन्धुनिजः स्मृतम् । लमं वृद्धिर्महालक्ष्मीलग्नं देवी सरस्वती ॥३॥ लग्नं सूर्यो विधुलग्नं लग्नं भौमो बुधोऽपि च । लग्नं गुरुः कविर्मन्दो लग्नं राहुः सकेतुकः ॥४॥
वक्रतुण्ड ! महाकाय : सूर्यकोटिसमप्रम !
अविघ्नं कुरु में दव ! सर्वकार्येषु सर्वदा ।। मैं, ज्ञानसूर्य अपने इष्टदेव पार्श्वनाथ, सरस्वती और नक्षत्रों को नमस्कार कर, लग्न के विषय में कहता हूँ॥१॥
लग्न ही देवता है, लग्न ही स्वामी है, लग्न ही परम प्रकाश अर्थात् ज्ञान है । लग्न ही संसार में महान दीप है और लग्न ही तत्त्व को दिखलाने वाला गुरु है ।।२।।
लग्न ही माता है. लग्न ही पिता है और लग्न ही अपना बन्धु है । लग्न ही वृद्धि का कारण महालक्ष्मी है । लग्न ही देवी सरस्वती है ॥३॥
लग्न ही सूर्य है, लग्न ही चन्द्रमा है, लग्न ही मंगल और बुध है। लग्न ही बृहस्पति, शुक्र और शनि है। लग्न ही राहु और केतु है |क्षा
1. श्रीसर्वज्ञाभिधं for श्रीमत्पाश्वामिधं A, A1. 2. The opening verse is a salutation to Sriparsvadeva, Vagdevi, i.e, the goddess of speech and the grahas. It is clear, therefore, that the author of this work is Jain. 3. सताम for स्मृतम् A, A, B, Bh. 4. मलिक for दि० Bh.