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प्रय स्त्रीजातकम् । क्रूरलमोद्भवा नारी स्वमपश्यति लमपे । पतिं न रञ्जयत्येषा ऋरत्वेनाप्यहंकृता ॥४३१॥ कर्मस्थे मङ्गले जाता स्वैरिणी कुलदृषिका । निःशुक्राथ पतेद्वेप्या चिरं भ्रमति वेश्मसु ॥४३२ द्वौ शुभौ दुर्जनक्षेत्रेऽप्यन्यः करो विलग्नगः । तत्र लग्ने ध्रुवं जाता स्त्री भवेद्विषकन्यका ॥४३३॥ द्वादशेऽप्यष्टमे भौमे करे तत्रैव संस्थिते । राही विलमे नूनं रण्डा भवति कन्यका ॥४३४॥
कर लग्न में उत्पन्न स्त्री, जब लग्नेश लग्न को न देख रहा हो, करता के व्यवहार से, अहंकार के कारण अपने पति को प्रसन्न नहीं करती ॥ ४३१॥
मंगल दशमस्थान में यदि रहे तो वह स्त्री अपनी इच्छा से घूमने वाली और अपने वंश को दूषित करने वाली, शुक्ररहित तथा पतिद्वेषियी बनकर चिरकाल तक लोगों के घरों में घूमती फिरती है ॥ ४३२ ॥
दो शुभ ग्रह यदि पापग्रह की राशि में हों और एक पापग्रह लन में रहे तो ऐसे लग्न में उत्पन्न कन्या विषकन्या ही समझी जाय ॥ ४३३ ।।
द्वादश वा अष्टम स्थान में मंगल रहे और अन्य भी पापप्रह उसमें रहें और लग्न में राहु रहें तो वह कन्या अवश्य विधवा होगी ॥४३४॥
1. स्थि for स्थे A. 2. स्वरं for चिरं Bh. पतेष्याश्चि (स्वरं AI) भ्रमति for पते₹ष्या चिरं भ्रमति A, A+ 3. The text reads fearaq: för faarao: 1 Samhitasaia quotes a verse of similer interest and ascribes it to Trailokyaprakasa. The verse is the following.
रिपुक्षेत्रस्थितौ द्वौ तु लग्ने यत्र शुभौ ग्रहो। करचव तदा जाता भवेत स्त्री विषकन्यका ।।
Compare also Ranavırajyotirnibandha Strijataka 1.P. 517 : ... . -