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( २०४ ) माहेन्द्र वारुणे चैव हृष्टा भवन्ति धनवः । उत्पाताः प्रलयं यान्ति धरणी बद्धते शिवः ॥ ११०४ ॥ फलन्ति तरवः कल्पद्रुमा इव नवैः फलैः । प्राप्नुवन्ति प्रजासौख्यं राज्यानीव हि भूमिपाः ॥११०५ ।। वायौ वह्निमहोत्पाताः पीडयन्ति प्रजापुरः। गावः शुष्यन्ति वृक्षाश्च पीड्यन्ने विग्रहैजनाः ॥ ११०६ ।। निष्कणा जायने पृथ्वी राजानी जनपीडकाः । उद्वशाः सततं देशाः मेघो नव प्रयपति ।। ११०७ ।। एतश्च मण्डलीत्या सुखदुःखं प्रजोद्भवम् । शान्तिं कुर्वन्ति धीमन्तो बलिपूजाविधानतः ।। ११०८ ।। पुष्पवत्प्रचुरभाग्यो हेम पुसा निधिर्नवः । वाञ्छितः फलदो नन्द्यादर्घकाण्डं तरुः फली ॥ ११०९ ॥
माहेन्द्र, और वारुण मण्डल में गाय प्रसन्न होती है, और उत्पात नष्ट होता है, तथा पृथ्वी मंगलों में बढ़ती है ॥ ११०४॥
कल्पद्रम जैसे वृक्षों में नवीन, नवीन, फल, फूल, हुआ करते हैं, जैसे राजा को राज्य से सुब हामा है, वैसे प्रजात्रा को सौख्य होता है ।। ११०५ ॥
वायव्य तथा अग्निमण्डल में बहुत उत्पात होता है और प्रजा लोग पीड़ित होते हैं, गौ नया वृक्ष शुष्क होते है और विग्रह से लोग पीड़ित होते है ।। ११०६ ।।
और पृथ्वी में कण नहीं होना । गना लोग लोगों को पीडा करते है, और देश किसी के वश नहीं रहता । मेघ वर्षा नहीं करते ।।११०७।।
इन मण्डलों के विचार से प्रजाओं का सुख दुःख जानकर, बुद्धिमान लोग पूजा की बलि इत्यादिक विधान से शान्ति करते है।। ११०८।।
इस प्रकार अचं काण्डरूपी फल वाला वृक्ष पुष्प जैसे पुरुषों को बहुत भाग्य. हेम, तथा नया निधि, इत्यादि इच्छानुकूल फल देता है।॥ ११०६ ॥
1. शवः for शिवः A 2. महीश्वरा: हि भूमिपा: A. B. हेमः पुमान् for हेम पुंसा A.