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( ५४) ऊदृष्टौ' भवेद मधोधिष्ण्ये च स्वभ्रगम् । समदृष्टौ समे गेहे युक्तं वस्तु दिशा क्रमात् ॥ २७५॥ ऊर्ध्वदृष्टौ पदे "मिन्नैर्वक्रिते मितिमध्यतः । ग्रहो यदि दिनैकेन राशिमन्यां यियासति ॥२७६।। छन्नं मध्ये तदा शेयं निधानं' स्थापितं. बुधैः । यावन्तः खेचरास्तूर्ये तावत्संख्यो निधिर्मतः॥२७७॥ यत्संख्ये वर्तते चन्द्रो नक्षत्रे निधिदायकः। गृहे निधिश्च तसंख्ये विज्ञेयः खातशोधने ॥२७८॥ शुक्र चन्द्र जलस्थाने देवस्थाने शुभे गुरौ । चतुष्पदगृहे सूर्ये वेष्टिकानिचये बुधे ।।२८९।। मौमे महानसस्थाने शनौ राही बहिर्भुवि । निधानं गेहमध्ये तु स्थानेश्वेतेषु लक्षयेत् ।।२८०॥
प्रहों की ऊर्ध्व दृष्टि रहने से घर के प्रदेश में, अधोदृष्टि रहने से कहीं गर्त में और सम दृष्टि से सम प्रदेश में निधि कहनी चाहिये ॥२७॥
ऊध्वदृष्टि में भित्ति स्थान पर, वक्री होने पर भित्ति के मध्य में। पर यदि एक ही दिन में प्रह दूसरी राशि में जाना चाहे तो ॥२७६।।
. मध्य स्थान में निधि को छिपा हुआ कहना चाहिये। चतुर्थ स्थान में जितने ग्रह हों उतने प्रकार की निधि कहनी चाहिये ॥२७७॥
निधि बतलाने वाला चन्द्र जितनी संख्या वाले नक्षत्र मे रहे उतनी बार गड्ढा खोदने पर निधि प्राप्त होती है ॥२७॥
शुक्र वा चन्द्र निधिदायक हों वा जलस्थान म, गुरु यदि हों तो मन्दिर भादि शुभ स्थान में, सूर्य यदि हों तो पशुशाला में बुध यदि हों तो ईट के भट्टों की जगह निधि प्राप्त हो ॥२७६।।
मंगल यदि हों तो पाकालय में, शनि और राह हों तो घर के बाहर वा घर के बीच निधि को बतलाना चाहिये ।।२८०॥
1. अधिष्ण्ये for ऊर्द्धदृष्टौ A. 2. स्वभ्रके for स्वभ्रगम A., Bh. 8. समधिष्ण्ये tor समदृष्टी A. 4. The text reads दशं for दिशाम 6. मि for भिन्ने A. 6. मन्यं for मन्यां A. मध्ये Bh. 7. The text reads धनगं for निधानं A. 8. निवपे. for निचये A.,नियो Bh.