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( १६१) स्थिरलमे स्थिरे भागे वर्गोत्तमनवांशके । स्थितं तत्रैव तद् द्रव्यं स्वकीयेनैव चोरितम् ॥ ८६५॥ द्विशरीरे गृहबाह्ये गृहनिकटनिवासिना हृतं द्रव्यम् । स्थिरराशौ तत्रस्थं चरराशौ निर्गतं बहिर्भवनात् ।। ८६६॥ घिषणादष्टमे सौम्ये नष्टप्रश्नेऽथ विष्ण्यके । वेगेन लभ्यते नष्टं दीप्तत्वेन विशेषतः ॥ ८६७ ॥
इति लाभ नष्टलाभप्रकरणम् ।।
अथ लाभप्रकरणम् ॥ अयं त्रयं दिवारानावन्धं द्वयं द्वयं पुनः । बधिरं चैककं पंगुर्मपाधवं विचारयेत् ।। ८६८ ॥ चन्द्रलमेशवित्तेशा युतदृष्टाः परस्परम् । वित्तलमात्रिकोणस्थाः सद्यो लाभकरा मताः ॥ ८६९ ॥ एवं केन्द्र शुभाः सर्वे मयो लाभकरा मताः । कराः कुर्वन्ति दारिद्रयं त्रिकोणे कण्टके स्थिताः ॥ ८७० ॥
स्थिर लग्न हो स्थिर राशि का अंश हो और वर्गोत्तम नवमांश में हो तो वहीं पर उस वस्तु को स्थित कहना चाहिये वा स्वयं उसकी चोरी करवा दिया हो ऐसा फल कहना चाहिये ।। ८६५॥
द्विः स्वभाव राशि लग्न हो तो घर के बाहर उसके समीपवर्ती लोगों ने धन हरण किया ऐसा कहना चाहिये, स्थिर राशि में वहीं पर पर राशि में घर से बाहर द्रव्य कहना चाहिये ।। ८६६ ।।
नष्ट प्रश्न में सूर्य से अष्टम शुभ ग्रह हो तो शीघ्र नष्ट वस्तु का लाभ होता है । दीप्त अवस्था में विशेष करके लाभ होता है ।। ८६७ ।।
इति लाभे नष्टलाभप्रकरणाम।।। अहोरात्रि में मेषादि क्रम से तीन तीन राशि अन्ध, तथा दो दो राशि बधिर एक, एक राशि पंगु, होता है ऐसा विचार करें ॥८ ॥
चन्द्रमा, लग्नेश, और धनेश, ये परस्पर युत या दृष्ट होकर धन, लम, पञ्चम, नवम, में हों तो सद्यः लाभ होता है ।।८६६ ।।
इस प्रकार केन्द्र मे सब शुभ ग्रह हो तो सयः लाभ होता है और पाप ग्रह यदि केन्द्र, त्रिकोण, स्थित हों तो दरिद्र होता है ।।८७० ॥