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________________ ( ११२ ) याति यत्र वपुश्छाया सूर्ये वहति दक्षिणे । उत्थातव्यं स खड्गेन तत्र मुख्यमरिं प्रति ।।॥५९९।। जयत्येव महोत्साहादिन्द्रतुल्यं क्षितीश्वरम् । संमुखो' गृह्यते चन्द्रः पृष्ठतस्तु दिवाकरः ॥६००॥ योगिनीवामतः कार्या दक्षिणेऽपि विधुन्तदः । ईदृशै बलीरः पृथ्वी जयति संगरे ॥६०१॥ "मर्त्यचक्र नरं न्यस्य सर्वावयवसंयुतम् । येन चिन्तितमात्रेण क्रियते घातनिश्चयः ॥६०२॥ मुखैकं मस्तके त्रीणि पाणौ पादे चतुश्चतुः । हृदि पञ्च त्रिकं कण्ठेऽप्यभिजित्तत्र विन्यसेत् ॥६०३॥ कृत्वा घोऽय (१) मादौ तु मुखे मस्तकवामके । हस्तपादोदरे कण्ठे दक्षहस्तांघ्रि गणवे (?)" ||६०४॥ दिन में सूर्य को दक्षिण करने पर जिधर शरीर की छाया माय उधर ही मुख्य शत्र के प्रति खड्ग लेकर उठना चाहिये ॥५६॥ जो राजा चन्द्रमा को सम्मुख दक्षिण करके और सूर्य को पृष्ठ करके योगिनी को वाम कर युद्ध करने को जाते हैं वह इन्द्र तुल्य बड़े बलवान् राजा को भी जय करते हैं इस तरह भूबल से वीर युद्ध में पृथ्वी को जीत लेते हैं ।।६००-६०१।। मूर्ति चक्र में मनुष्य को सब अवयवों के साथ लिख कर विचार करें जिस का विचार मात्र करने से घात का निश्चय होता है ॥६०२॥ मुख में एक मस्तक में तीन और दोनों हाथों में चार चार मक्षत्र. दोनों चरणों में चार चार, हृदय में पांच, कण्ठ में तीन नक्षत्र अभिजित् भी इम चक्र में न्यास करें ॥६०३।। इस प्रकार मर्त्य चक्र का न्यास करके मुख, मस्तक, वाम हाथ, पाद, तथा उदर, कण्ठ, दक्षिण हस्त, पाद इत्यादि का विचार करें ।।६०४॥ 1.संमुखेfor संमुखो A. 2. पृष्टस्तस्य for पृष्ठतस्तु A. 3. कुर्याद for कार्या4. दक्षिणो for दक्षिणे Bh. 5. मूर्ति for मर्त्य Bh. 6. This verse is missing in Bh.
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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