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क्रूरे जीयमानो यो राहुपार्श्वे यथा रविः । क्रूराकान्तः स विज्ञेयः क्रूरयुक्तः समेंशके ॥१५४॥ पूर्णया दृश्यते दृष्ट्या क्रूरो दृष्टः स उच्यते । प्रविविक्षः प्रविष्टो वा सूर्यराशौ विरश्मिकः || १५५ ।। लग्नाधिपे विनष्टे स्याद्विनष्टावयवः पुमान् । विनष्टजातिवर्ण शुभाकारो विपर्यये ॥ १५६ ॥ राजयोगानाह
भावेभ्योऽप्युत्तमं भाग्यं तृतीयेन समन्वितम् । उभयत्राश्रिताः सौम्या भाग्यस्यैव हि पोषकाः || १५७॥ तृतीयेऽपि ग्रहे सौम्या भाग्यप्रकर्षपोषकाः । तत्रापि पूर्णदृष्ट्या च पुण्योपचयसाधकाः || १५८ ।।
जिस तरह राहु के पास सूर्य दिखाई देते हैं उसी तरह पापग्रहों से जो ग्रह पराजित किया गया हो वह क्रूराक्रान्त कहलाता है ।
यदि क्रूरह के समान अंश में कोई ग्रह हो तो वह क्रूरयुक्त कहलाता है ।। १५४||
जब कोई ग्रह पापग्रह से पूर्णदृष्टि से देखा जाय तो क्रूरदृष्ट कहलाता है। जो ग्रह सूर्य राशि में प्रवेश करना चाहता अथवा प्रविष्ट हो गया हो वह विरश्मिक समझा जाता है ।। १५५||
लग्नाधीश यदि विनष्ट हो तो उसे किसी अङ्ग से हीन कहना चाहिये। उसके जाति और वर्ण सभी न कहने चाहियें। इसकी विपfree में उसे शुभ आकार वाला कहना चाहिये || १५६ ॥
सभी भावों में भाग्यस्थान और तृतीय स्थान उत्तम कहा गया है । इन दोनों स्थानों में यदि शुभग्रह हों तो वे भाग्य के पूर्ण वर्द्धक होते हैं । १५७ तृतीय भाव में यदि शुभ ग्रह हों तो वे भाग्य के प्रकृष्ट पोषक होते है। फिर भी यदि वे पूर्ण दृष्टि से भाग्येश को देखते हों तो उसे पुण्यशीख कहना चाहिये || १५८||
1. क्रूरदृष्ट: for क्रूरो दृष्टः A. 2. महा: for महे A. 3. भाग्याप्रकर्ष A., भाग्याकर Bh.