________________
(३१) चतुर्वप्युभयत्रापि चन्द्रग्दर्शनं मिथः । कार्यसिद्धिस्तदा ज्ञेया मित्रे चेदधिकं फलम् ॥१४॥ चन्द्रदृष्टिं विनान्यस्य शुभस्य यदि दृग् भवेत् । शुभं प्रयोजनं किश्चिदन्यदुत्पद्यते तदा ॥१४८॥ राजयोगा अमी ख्याताश्चत्वारोऽपि महाफलाः । अत्रैव दृष्टियोगेन सामान्येन फलं स्मृतम् ॥१४९॥ अर्द्धयोगा विनिर्दिष्टाः परस्परदृशं विना । चन्द्रदृष्टिं दिना ज्ञयं शुभं पाइफलं बुधैः ॥१५॥ परस्परं दृश्यमृते चन्द्रयोगो भवेद्यदि । तदाद्धफलमाख्यातं प्रपश्चोऽयं मतो मतेः ॥१५१।। लग्नेशो वीक्षते लग्नं कार्यशः कार्यमीक्षते । कार्यसिद्धिर्भवेदिन्दुः कार्यमेति परं यदा ॥१५२॥ कराक्रान्तः करयुतः करदृष्टश्च यो ग्रहः । विरश्मितां प्रपन्नश्च म विनष्टो बुधैः स्मृतः ॥१५३॥
इन चारों योगों में चन्द्रमा की दृष्टि परस्पर हो तो कार्यसिद्धि होती है। यदि यही मित्र के घर में पड़े हों तो अधिक फल होता है ॥१४॥
यदि उक्त योगों में चन्द्रमा की दृष्टि न हो और अन्य किसी शुभमह की दृष्टि हो सो किसी अन्य ही प्रकार का शुभफल उत्पन्न हो जाता है ॥१४॥
ये चार राजयोग कहे गये हैं जिनके उत्कृष्ट फल होते हैं । इन में सामान्य दृष्ठियोग से सामान्य फल होता है ॥१४६।।
पारस्परिक दृष्टि न होने से अर्धयोग होता है । चन्द्रदृष्टि के बिना चतुर्थाश शुभ जानना चाहिये ॥१५॥ । पारस्परिक दृष्टि के न होने पर यदि चन्द्रमा के साथ योग हो तो अर्धफल कहना चाहिये ।।१५१।।
लग्नेश लग्न को देखे और कार्येश कार्यक्षेत्र को देखे और चन्द्रमा कार्यक्षेत्र में जब हो तो कार्य सिद्धि अवश्य होती है ॥१५२॥ ।
जो ग्रह पापग्रहों से आक्रान्त, युक्त वा दृष्ट हो वा सूर्यराशि में प्रवेश कर गया हो तो वह विनष्ट-सा हो जाता है अर्थात उसकी सत्ता नहीं रहनी ॥१५॥