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( ११५ ) लो बलाधिक सन्धावर्थी भवति लापः । अबले सममे सन्धौ दाता भवति सप्तपः ॥६१६॥ विलग्ने' दुर्बले सन्धौ दाता भवति लग्नपः । सप्तमे सबले तत्र वित्तार्थी सप्तमो भवेत् ॥६१७॥ द्वयोः समतया साम्यं न दाता नच याचकः । बलोत्कटे वपर्नाथे हन्यते सप्तमेश्वरः ॥६१८॥ पुत्रगेहे तदीशे वा सन्धानं मबले ध्र वम् । द्वयेपि सबले सन्धिविग्रहो विवले भवेत् ॥६१९॥
इति मन्धिविग्रहप्रकरणम् । वृक्षा ज्ञेया ग्रहः सर्वैः पवृक्षाः पग्रहमताः । स्त्रीवृक्षाः स्त्रीग्रहः प्रोक्ताः स्त्रीग्रहद्वितये लताः ॥६२०॥ रविशाकपलाशाद्या भौमाः कण्टकिनो मताः । क्षीरवृक्षा गुरावुक्ता बलाये बलिनः स्मृताः ॥२१॥
लग्न बलवान् हो तो लग्नेश मन्धि में अर्थी होता है. और सामम भाव बलवान हो तो सप्तमेश मन्धि में दाता होता है ।।६१६।।
लग्न यदि निर्बल हो तो सन्धि में लग्नेश दाता होता है, और सप्तम भाव बलवान हो तो मन्धि में सप्रमेश, धनार्थी होता है ।।६१७||
और लग्नेश मप्तमेश, में दोनों का बल समान हो तो समता होती है। यदि लग्नेश बल में अधिक हो तो मप्रमेश को मारते है ॥१८॥
यदि पश्चम भाव या उसके स्वामी बलवान हों तो दोनों की सेनाओं में बड़े जोर की तैयारी होती है। यदि दोनों के पञ्चमेश बलवान् हो तो सन्धि होती है और निर्बल हो तो विग्रह होता है ।।१।।
इस विग्रहप्रकरणम् ॥ मब ग्रहों से वृक्ष का ज्ञान करें। पुरुष प्रह से वृक्ष और स्त्री प्रह से स्त्रीवृक्ष, और दो स्त्रीमहों से लता का शान करें ॥२०॥
रवि से शाक, पलाश इत्यादि वृक्ष, मंगल से कांटे वाले वृक्ष और वृहस्पति से दूध वाले वृक्ष का ज्ञान होता है । इन पहों के बलवान होने से तत्तद्ग्रहों के वृक्ष भी बलवान होते हैं ॥२१॥
. 1. लग्नगो for विलने A. 2. आयेऽपि for द्वयेऽपि A., Bh.