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( ६४ ) युद्धप्रकरणं वक्ष्ये गमनाय महीभुजाम् । गुरूपदेशतो ज्ञात्वा देवं नत्वा जिनेश्वरम् ॥ ५०० ॥ शत्रुलग्नेश्वरौ करो करौ वा लग्नसप्तपौ' । अन्योन्येक्षितयुक्तौ तु युद्धाय करवर्गगौ ॥५०१।। युद्धकृद् धनपः केन्द्र ग्रहो वक्री च केन्द्रगः । करयुक्तक्षिते लग्ने करवर्गाधिकेऽपि वा ॥५०२।। भूतौ करे बुधे त्रिस्थे रवौ तुर्ये रणोदये । पौरनृपविनाशः स्यादमीषां नवमांशके ॥५०३॥ कुजः स्वोच्चं गतः केन्द्र रविपि निजोच्चगः । विरोधी सप्तमः केन्द्रे युद्धयोगो महानयम् ॥५०४॥
अपने इष्ट जिनेश्वर देव को नमस्कार करके और गुरु का उपदेश जानकर राजाओं को जाने के लिये युद्ध प्रकरण कहता हूँ ॥५००॥
षष्ठेश और लग्नेश पाप हों अथवा लग्नेश, सप्तमेश पाप हों और पाप ग्रहों के वर्ग में हों और दोनों आपस में देखते हों तो युद्ध होता है ।।५०१॥
यदि सप्तमेश केन्द्र में हो या वक्री प्रह केन्द्र में हो और पापग्रह लन में स्थित हो वा देखता हो और पापग्रहों की वर्गों की अधिकता हो तो युद्ध होता है ।।५०२॥
लन में पाप ग्रह हो, बुध तृतीय में हो और रवि चतुर्थ स्थान में हो और इन्हीं राशियों के नवांश युद्धकाल में लग्न हो तो उस नगर के राजा का नाश होता है ।।५०३।।
___यदि मङ्गल उच्च का हो कर केन्द्र में हो और रवि उच्च का होकर शत्रु स्थान या सप्तम या और केन्द्रों में हो तो बहुत भारी युद्ध का योग होता है ।।५०४॥
1 सप्तमौ for °सप्तपो Bh. 2. केन्द्र for केन्द्रे A. 3. ०धिकोऽपि वा for ofधकेऽपि वा A. 4. महानसौ for महानयम A.