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मिथुने लाभगेहे तु चन्द्रे तत्रैव संस्थिते । बुधस्यात्यन्तवैरित्वाल्लाभो भवति वाल्पकः ॥ ८७७ ।। स्वगृहे मित्रगेहे च तुंगे गेहे तदोदिते । चन्द्रदृष्टे भवेल्लाभो लाभगेहे तु संपदाम् ॥ ८७८ ।। मकबूले महायोगे मुंथसिलामिश्रिते । ग्रहैः सर्वेषु योगेषु लाभो भवति पृच्छताम् ॥ ८७९ ॥ चरलग्ने शुभर्युक्त लाभे चन्द्रबलाधिके । । त्रिकोणकेन्द्रगः खेटेलामो भवति निश्चितः ॥ ८८० ॥ यत्रोन्यलाभयोगो न भवति नच संभवति शुभदृष्टम् । न तत्रान्वितलाभः प्रष्टुंगणकेन निर्देश्यः ।। ८८१ ॥ यो यो भावो भवेत्पुष्टो द्वादश क्षेत्रमध्यगः । तस्माद्धनादिपुत्रादिलामो भवति तद्विधः ॥ ८८२ ।।
मिथुन लाभ स्थान में उस मे चन्द्रमा स्थित हो तो बुध के अत्यन्त शत्रु के कारण लाभ वा अल्प लाभ होता है ।। ८७७ ॥
कोई भी शुभ ग्रह स्वगृह, वा मित्र के घर, डच, का होकर लाभ स्थान में हो और उदित हो, और उस पर चन्द्रमा की दृष्टि हो तो सम्पत्तियों का लाभ होता है ।। ८७८ ॥
__ मकबूल महायोग में, तथा सूर्य से युक्त मुथसिल हो, इसतरह सब ग्रहों के योग में प्रश्न कर्ता को लाभ होता है ।।८७६ ॥
__ चर तम हो उस में शुभ ग्रह स्थित हो और बलवान् चन्द्रमा लाम स्थान में हो और ग्रह केन्द्र त्रिकोण में स्थित हो तो निश्चय लाभ होता है ॥८ ॥
___ जहां पर और प्रकार का लाभ योग नहीं हो तथा शुभ ग्रहों की दृष्टि भी नहीं हो वहां लाभ नहीं कहे हैं।। ८८१ ॥
द्वादश भावों में जो जो भाव बलवान हो उसी भाव के द्वारा उस प्रकार धनादि पुत्रादि का लाभ होता है ॥२॥
1. चालक: for वाल्पकः Bh. 2. नवसंस for A. नवसं नवमंच-Bh.