________________
( १८२) तुच्छमुहूर्तसङ्क्रान्तिः पूर्वस्माद् द्विकपञ्चके । सप्तविकल्पसङक्रान्तौ दुर्मिक्षं जायते ध्रुवम् ॥ ९८१ ॥ [पूर्णिमाचन्द्रयोगेनाप्यर्घवृद्धिहानी] तुल्याघ पूर्णिमायां तु मृगादिधिष्ण्यपश्चके । मघाचतुष्के दुर्भिक्षं चित्राद्यअष्टसु दुस्तटम् ।। ९८२ ॥ कर्णादौ दशके धिष्ण्ये सुभिक्षं सततं भवेत् । अमावास्यादिने योगे पुनर्वस्वादिपञ्चके ॥ ९८३ ॥ समर्षमघदुर्भिक्षमुत्तरादिचतुष्टये ।
विशाखाज्येष्ठ के रौद्रं दुर्भिक्षं तु विजायते ।। ९८४ ॥ नीच में हो और सुप्त संक्रान्ति करता हो, पूर्व के संक्रान्ति से द्वितीय या पन्चम, तुच्छ मुहूर्त में इन सातों को विकल्पक संक्रान्ति में ध्रव ही दुर्भिक्ष होता है ।। ६७६-६८१ ॥
पूर्णिमा में, मृगशिरा पार्दा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, इन नक्षत्रों का योग हो तो अर्थ की समता रहती है, और मघा, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त, इन नक्षत्रों के योग होने से दुर्भिक्ष होता है,
और चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, इन नक्षत्रों के योग में भी दुर्भिक्ष होता है ॥६८२॥
श्रवण आदि दश नक्षत्रों के योग होने से सर्वदा सुभिन्न होता है। अमावास्या के दिन, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वफल्गुनी, इन पांच नक्षत्रों का योग हो ॥१३॥
तो समर्ष होता है, और उत्तरफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती इन चार नक्षत्रों का योग हो तो दुर्भिक्ष होता है और विशाखा, आदि के पाठ नक्षत्रों में बहुत कठिन दुर्भिक्ष होता है ||४|| ____ 1. त्रिक for द्विक A1 2. ज्येष्ठःसु for ०द्येऽष्टम् Bh. 3. ०मथ for omdf Bh. 4 ogo for oseto A.