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( १६० ) चन्द्रमण्डलमध्येन बेधं कुर्वन्ति ग्रहाः । दुर्मिक्ष जायते ऽवश्यं विग्रहोऽप्यन्तरान्तरा ११०२४॥ यदा ग्रहेण सौम्येन करेगापि च सम्मुखः । विद्धा करः शुभो वापि दुर्मिक्षं तत्र निधितम् ।।१०२५॥ सर्वनक्षत्रमध्येन रोहिणी पतिता त्रिके । सौम्ययोगे शुभे च स्यादशुमा करयोगतः ॥१०२६।।
इति रोहिणीयोगाः।
अथाषाढीयोगं वच्मि - मीनसंक्रान्तिकाले च पौष्णभागे दिने भवेत् । यत्र विधुच्छुमो वातस्ततो गर्भो ध्रुवो भवेत् ॥१०२७ मेषसंक्रान्तिकालातु नवस्वपि दिनेष्वपि । 'यत्रानं बातविद्युत्स्यादाादौ तत्र वर्षति । ॥१०२८॥
यदि चन्द्रमण्डल के मध्य से मह वेध करें तो अवश्य दुर्मित होता है और मध्य मध्य में विग्रह भी होता है ॥ १०२४ ॥
यदि शुभग्रह या पाप ग्रह से पाप, या शुभ ग्रह का सम्मुखदेव होमोनिश्चय दुर्भिक्ष होता है ॥ १०२५ ॥
त्रिक नक्षत्र में सब नक्षत्र से रोहिणी यदि पतित हो तो शुभग्रह के योग से शुभ होता है और अशुभ ग्रह के योग से अशुभ शेता है।॥१०२६ ॥
इति रोहिणीयोगः मीन संक्रांति काल में रेवती नक्षत्र हो उस दिन यदि विद्यत् व्या शुभ वायु कहे तो वहां निमय गर्भ समझना चाहिये ॥ १०२७ ॥
मेष संक्रांति काल से नौ दिनों में जिस दिन जहां पर मेघ, वायु, तो तो माझे भादि कम से उस नक्षत्र में वर्ष वर्ग होली १॥ १०२८॥
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