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तदा दुर्भिक्षमादेश्यं नक्षत्रस्य प्रभावतः । विकल्पैः सकलैरेवं सुभिक्षं पृच्छतां वदेत् ||८१५|| शुक्रो बुधकुजौ सौरिर्बृहद्धिष्ण्ये च राशिगाः । तदा जने समघं स्यान्मध्यं मध्येऽधमेऽधमम् ||८१६ ॥ पनसो विशाखायां रोहिण्यामुचरात्रये । नवेन्द्रः कुरुते प्रोद्यत् दुर्भिक्षं दक्षिणोन्नतः ||८१७ || समो नवेन्दुरुद्गच्छन् समध कुरुतेऽशनम् । नवेन्दुः कुरुते प्रोद्यत्सुभिक्षमुत्तरोन्नतः ||८१८ ॥ स्वात्यश्लेषा भरण्यार्द्रा ज्येष्ठा शतभिषक्सुच । पंचदशसु शेषेषु नक्षत्रेषु च सर्वदा ||८१९ || पुनर्वसू विशाखा च रोहिणी चोत्तरात्रयम् । एतानि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि संक्रमे ||२०|| वेदार्कों याति मेपादौ विधौ सप्तमराशिगे । किराम्भोधिमासेष्वर्थः क्रमाद् भवेत् ||८२१ ॥
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तो नक्षत्र के प्रभाव से दुर्भिक्ष कहना चाहिये इस के विकल्प में सुभिक्ष कहना चाहिये ॥ ८१५ ॥
शुक्र, बुध, मंगल, शनि यदि बृहन्नक्षत्र के राशि में हों तो समर्थ होता है । मध्यम में मध्यम तथा अधम में अधम होता है ॥ ८१६ ॥ पुनर्वसु, विशाखा, रोहिणी, उत्तर फल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तरभाद्र, इन नक्षत्रों में चन्द्रमा का दक्षिणोन्नत शृङ्ग उदित हो तो दुर्भिक्ष होता हे ॥ ८१७ ।।
पूर्व के नक्षत्रों में यदि चन्द्रमा का सब शृङ्ग उदित हो तो समर्थ होता है. उत्तरोन्नत शृङ्ग उदित हो तो सुभिक्ष होता है ।। ८१८ ॥
स्वाती, अश्लेषा, भरणी, आर्द्रा, ज्येष्ठा, शतभिषा, इन, नक्षत्रों में संक्रान्ति होने से पन्द्रह मुहूर्त होते हैं, पुनर्वसु, विशाखा, उत्तरात्रय, इन नक्षत्रों में संक्रान्ति होने से ४५ मुहूर्त होता है और शेष नक्षत्रों में तीस ३० मुहूत होता है ॥ ८१६ ॥ ८२० ॥
यदि सूर्य के मेष संक्रम काल में चन्द्रमा सप्तम राशि में हो तो क्रम से तीन, दो, एक, पांच, चार, मासों में जाकर अर्ध होता है ॥ ८२१||
1. वेद को for वेदार्थों A चेदर्को Bh. 2. त्रिंशद्येकपट्ारमो for त्रिशोकशराम्भोधि A. A