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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला
[ देवनागरी]
दीघनिकाये
लीनत्थप्पकासना
ततियो भागो
पाथिकवग्गटीका
गन्थकारो
भदन्ताचरियो धम्मपालत्थेरो
विपश्यना विशोधन विन्यास
इगतपुरी १९९८
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धम्मगिरि - पालि - गन्थमाला - ९ [ देवनागरी]
दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है।
प्रथम आवृत्ति : १९९८
ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां
मूल्य : अनमोल
यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं ।
सर्वाधिकार मुक्त । पुनर्मुद्रण का स्वागत है ।
इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं ।
ISBN 81-7414-058-1
यह ग्रंथ छट्ट संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है।
इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया | कंप्यूटर में निवेशन और पेज- सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में हुआ ।
प्रकाशक :
विपश्यना विशोधन विन्यास
धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र- ४२२४०३, भारत
फोन : ( ९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स: (९१-२५५३) ८४१७६
सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक :
दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन
११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर. ओ. सी. फोन : (८८६-२) २३९५-१९९८, फैक्स : (८८६-२) २३९१-३४१५
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā
[Devanāgarī]
Dighanikāye Linatthappakāsanā
Tatiyo Bhāgo
Pāthikavagga-Tīkā
Ganthakāro Bhadantācariyo Dhammapālatthero
Devanāgari edition of the Pāli text of the Chattha Sangāyana
Published by Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri -422403, India
Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C.
Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā—9 [Devanāgari ]
The Digha Nikāya and related literature is being published together in eleven volumes.
First Edition: 1998 Printed in Taiwan, 1200 copies
Price: Priceless This set of books is for free distribution, not to be sold. No Copyright-Reproduction Welcome. All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission.
ISBN 81-7414-058-1
This volume is prepared from the Pali text of the Chattha Sangāyana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanāgari and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India.
Publisher: Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302 Fax: (91-2553) 84176
Co-publisher, Printer and Donor: The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: 886-23913415
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विसय-सूची
प्रस्तुत ग्रंथ Present Text संकेत-सूची
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चक्करतनपातुभाववण्णना दुतियादिचक्कवत्तिकथावण्णना आयुवण्णादिपरिहानिकथावण्णना दसवस्सायुकसमयवण्णना आयुवण्णादिवड्डनकथावण्णना सङ्घराजउप्पत्तिवण्णना मेत्तेय्यबुद्धप्पादवण्णना भिक्खुनो आयुवण्णादिवड्डनकथावण्णना ४. अग्गजसुत्तवण्णना वासेठ्ठभारद्वाजवण्णना चतुवण्णसुद्धिवण्णना रसपथविपातुभाववण्णना चन्दिमसूरियादिपातुभाववण्णना भूमिपप्पटकपातुभावादिवण्णना इत्थिपुरिसलिङ्गादिपातुभाववण्णना मेथुनधम्मसमाचारवण्णना सालिविभागवण्णना महासम्मतराजवण्णना ब्राह्मणमण्डलादिवण्णना
४४ दुच्चरितादिकथावण्णना
बोधिपक्खियभावनावण्णना ५. सम्पसादनीयसुत्तवण्णना
४७ सारिपुत्तसीहनादवण्णना
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१. पाथिकसुत्तवण्णना
सुनक्खत्तवत्थुवण्णना कोरखत्तियवत्थुवण्णना अचेलकळारमट्टकवत्थुवण्णना अचेलपाथिकपुत्तवत्थुवण्णना इद्धिपाटिहारियकथावण्णना
अग्गजपचत्तिकथावण्णना २. उदुम्बरिकसुत्तवण्णना निग्रोधपरिब्बाजकवत्थुवण्णना तपोजिगुच्छावादवण्णना उपक्किलेसवण्णना परिसुद्धपपटिकप्पत्तकथावण्णना परिसुद्धतचप्पत्तादिकथावण्णना निग्रोधस्सपज्झायनवण्णना ब्रह्मचरियपरियोसानादिवण्णना ३. चक्कवत्तिसुत्तवण्णना
अत्तदीपसरणतावण्णना दळहनेमिचक्कवत्तिराजकथावण्णना चक्कवत्तिअरियवत्तवण्णना
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कुसलधम्मदेसनावण्णना
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तालक्खणवण्णना आयतनपण्णत्तिदेसनावण्णना
पादतलचक्कलक्खणवण्णना गब्भावक्कन्तिदेसनावण्णना
आयतपण्हितादितिलक्खणवण्णना आदेसनविधादेसनावण्णना
सतुस्सदतालक्खणवण्णना दस्सनसमापत्तिदेसनावण्णना
करचरणादिलक्खणवण्णना पुग्गलपण्णत्तिदेसनावण्णना
उस्सङ्खपादादिलक्खणवण्णना पधानदेसनावण्णना
एणिजङ्घलक्खणवण्णना
१०१ पटिपदादेसनावण्णना
सुखुमच्छविलक्खणवण्णना १०२ भस्ससमाचारादिदेसनावण्णना
सुवण्णवण्णलक्खणवण्णना १०६ अनुसासनविधादेसनादिवण्णना ६९ कोसोहितवत्थगुव्हलक्खणवण्णना १०६ अञथासत्थुगुणदस्सनादिवण्णना
परिमण्डलादिलक्खणवण्णना
१०७ अनुयोगदानप्पकारवण्णना
सीहपुब्बद्धकायादिलक्खणवण्णना १०८ तिपिटकअन्तरधानकथावण्णना
रसग्गसग्गितालक्खणवण्णना १०८ सासनअन्तरहितवण्णना
जमिनालगत्तादिलक्खणवण्णना १०९ अच्छरियअब्भुतवण्णना
उण्हीससीसलक्खणवण्णना १०९ ६. पासादिकसुत्तवण्णना
एकेकलोमतादिलक्खणवण्णना ११० निगण्ठनाटपुत्तकालङ्किरियवण्णना ७८
चत्तालीसादिलक्खणवण्णना ११० धम्मरतनपूजावण्णना
पहूतजिव्हादिलक्खणवण्णना १११ असम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयवण्णना ७९ सीहहनुलक्खणवण्णना
१११ सम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयादिवण्णना८० समदन्तादिलक्खणवण्णना सङ्गायितब्बधम्मादिवण्णना
८. सिङ्गालसुत्तवण्णना
११४ पच्चयानुञातकारणादिवण्णना ८२ निदानवण्णना
११४ सुखल्लिकानुयोगादिवण्णना ८३ छदिसादिवण्णना
११५ पञ्हब्याकरणवण्णना
चतुठानादिवण्णना
११६ अब्याकतट्ठानादिवण्णना
छअपायमुखादिवण्णना
११७ पुब्बन्तसहगतदिट्ठिनिस्सयवण्णना
सुरामेरयस्स छआदीनवादिवण्णना। ११८ दिट्ठिनिस्सयप्पहानवण्णना
पापमित्तताय छआदीनवादिवण्णना। १२० ७. लक्खणसुत्तवण्णना
मित्तपतिरूपकवण्णना
१२१ द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना
सुहदमित्तवण्णना
१२२
७९
११२
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१३२ १३२ १४४ १४६
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१६४
१९३
१९७ २१०
छद्दिसापटिच्छादनकण्डवण्णना ९. आटानाटियसुत्तवण्णना
पठमभाणवारवण्णना
परित्तपरिकम्मकथावण्णना १०. सङ्गीतिसुत्तवण्णना
उब्भतकनवसन्धागारवण्णना भिन्ननिगण्ठवत्थुवण्णना एककवण्णना दुकवण्णना तिकवण्णना चतुक्कवण्णना अरियवंसचतुक्कवण्णना सोतापत्तियङ्गादिचतुक्कवण्णना पञ्हब्याकरणादिचतुक्कवण्णना दक्खिणाविसुद्धादिचतुक्कवण्णना अत्तन्तपादिचतुक्कवण्णना पञ्चकवण्णना अभब्बट्ठानादिपञ्चकवण्णना पधानियङ्गपञ्चकवण्णना सुद्धावासादिपञ्चकवण्णना चेतोखिलपञ्चकवण्णना चेतसोविनिबन्धादिपञ्चकवण्णना निस्सरणियपञ्चकवण्णना
पतनपञ्चकवण्णना छक्कवण्णना विवादमूलछक्कवण्णना निस्सरणियछक्कवण्णना अनुत्तरियादिछक्कवण्णना सततविहारछक्कवण्णना अभिजातिछक्कवण्णना
निब्बेधभागियछक्कवण्णना सत्तकवण्णना अधिकरणसमथसत्तकवण्णना अट्ठकवण्णना नवकवण्णना दसकवण्णना अकूसलकम्मपथदसकवण्णना कुसलकम्मपथदसकवण्णना अरियवासदसकवण्णना असेक्खधम्मदसकवण्णना
पञ्हसमोधानवण्णना ११. दसुत्तरसुत्तवण्णना
एकधम्मवण्णना द्वेधम्मवण्णना तयोधम्मवण्णना चतुधम्मवण्णना पञ्चधम्मवण्णना छधम्मवण्णना सत्तधम्मवण्णना अट्ठधम्मवण्णना नवधम्मवण्णना दसधम्मवण्णना निगमनकथावण्णना सद्दानुक्कमणिका गाथानुक्कमणिका संदर्भ-सूची
२४५ २४५ २४७ २४८ २५२ २५३ २५४ २५६ २५७ २५७ २५८ २५९ २६०
२१७
:
२२२
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२२३
[३७]
२२६ २२७ २२७
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चिरं तितु सद्धम्मो ! चिरस्थायी हो सद्धर्म !
मे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति । कतमे द्वे ? सुनिक्खित्तञ्च पदब्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो । सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयो
होति ।
अ० नि० १.२.२१, अधिकरणवग्ग
भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जांय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं ।
... ये वो मया धम्मा अभिज्ञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं व्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अनियं अस्स चिरट्टितिकं... ।
दी० नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त
... जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जुल कर बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो... ।
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प्रस्तुत ग्रंथ
दीघनिकाय साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह भगवान बुद्ध के चौंतीस दीर्घाकार उपदेशों का संग्रह है जो कि तीन खंडों में विभक्त है - सीलक्खन्धवग्ग, महावग्ग, पाथिकवग्ग। इन उपदेशों में शील, समाधि तथा प्रज्ञा पर सरल ढंग से प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। व्यावहारिक जीवन में आगत वस्तुओं एवं घटनाओं से जुड़ी हुई उपमाओं के सहारे इसमें साधना के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है।
बुद्ध की देशना सरल तथा हृदयस्पर्शी हुआ करती थी। उनकी यह शैली व्याख्यात्मिका थी पर कभी-कभी धर्म को सुबोध बनाने के लिये 'चूळनिद्देस' एवं 'महानिद्देस' जैसी अट्ठकथाओं का उन्होंने सृजन किया । प्रथम धर्मसंगीति में बुद्धवचन के संगायन के साथ इनका भी संगायन हुआ । तदनंतर उनके अन्य वचनों पर भी अट्ठकथाएं तैयार हुईं । जब स्थविर महेन्द्र बुद्धवचन को लेकर श्रीलंका गये, तो वे अपने साथ इन अट्ठकथाओं को भी ले गये । श्रीलंकावासियों ने इन अट्ठकथाओं को सिंहली भाषा में सुरक्षित रखा । पांचवी सदी के मध्य में बुद्धघोष ने उनका पालि में पुनः परिवर्तन किया ।
दीघनिकाय के अर्थों को प्रकाश में लाते हुए बुद्धघोष ने 'सुमङ्गलविलासिनी' नामक दीघनिकाय अट्ठकथा का प्रणयन किया । यह भी तीन भागों में विभक्त है।
इन अट्ठकथाओं की पुनः व्याख्या करते हुए भदंत आचार्य धम्मपाल थेर ने 'लीनत्थप्पकासना' नामक दीघनिकाय अट्ठकथा-टीका तीन भागों में लिखी | इसके तीसरे भाग पाथिकवग्गटीका का मुद्रित संस्करण आपके सम्मुख प्रस्तुत है। हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा।
निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास
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Dighanikāye Līnatthappakāsanā
Tatiyo Bhāgo
Pāthikavagga-Tīkā
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Ciram Titthatu Saddhammo!
May the Truth-based Dhamma
Endure for A Long Time !
“Doeme, Bhikkbaoe, Dhammã saddhammassa thitiyā asammosāya anantaradhānāya samvattanti. Katame dve? Sunikkbittañca padabyañjanam attho ca sunito. Sunikkbittassa, Bbikebape, padabyañjanassa atthopi sunayo hoti.”
"There are two things, O monks, which A. N. 1. 2. 21, Adhikaranavagga make the Truth-based Dhamma endure
for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation."
...ye vo mayā dhammā abhiññā desitā, tattha sabbebeva sangamma samāgamma atthena attham byañjanena byañjanam sargāyitabbam na vivaditabbam, yathayidam brahmacariyam addhaniyam assa ciratthitikam... ...the dhammas (truths) which I have D. N. 3.177, Pāsādikasutta.
ta' taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating mcaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time...
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Present Text
The Digha Nikāya is an important collection from the perspective of meditation practice. It contains thirty-four important long discourses of the Buddha, divided into three sections-the Sīlakkhandhavagga, Mahāvagga and Pathikavagga. In these discourses a lot of material related to sīla, samādhi and pañña is available. Various aspects of practice have been elucidated by means of similes drawn from familiar objects and the everyday life of the times.
The Buddha's teachings were simple and endearing. His distinctive style was self-explanatory but, still, in order to make the Dhamma all the more lucid, he introduced the use of ațțhakathā (commentaries), such as the Cūļaniddesa and the Mahāniddesa. These were recited, along with the discourses of the Buddha, at the first Dhamma Council. In time the other atthakathā commenting on all his discourses came into being.
When Ven. Mahinda conveyed the words of the Buddha to Sri Lanka he also took the atthakathā with him. The Sinhalese monks preserved these ațțhakathā in their own language. Later on, when they had been lost in India, Ven. Buddhaghosa was able to translate them back to Pāli, during the middle of the fifth century A.D. He then compiled the commentary on the Digha Nikāya in three volumes to help clarify the meaning of the Dīgha Nikāya. To furthur explain and clarify some of the points, Ven. Dhammapāla wrote a sub-commentary (tīkā) on Buddhaghosa's work known as Linatthappakāsanā in three volumes.
We sincerely hope that this publication Līnatthappakāsanā volume three: Pathikavagga-sīkā will provide immense benefit to practitioners of Vipassana as well as research scholars.
Director, Vipassana Research Institute,
Igatpuri, India.
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The Pāli alphabets in Devanāgari and Roman characters: Vowels: 34 a 347 à şi şi Ju 5 ū pe 31770 Consonants with Vowel 37 (a): at ka akha Tga Tgha 3 na च ca छ cha ज ja झ jha ञ ha & ţa tha 3 da ēdha oņa ata e tha da gdha na 1 pa pha aba 4 bha ma य ya र ra ल la व va स saa ह ha ļa One nasal sound (niggahīta): 31 am Vowels in combination with consonants “k” and “kh”: (exceptions: Fru, trü) क ka का ka कि ki की ki कु ku कू ku के ke को ko ख kha खा khā खि khi खी khi खु khu खू khā खे khe खो kho
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Conjunct-consonants: क्क kka chekkha
✉ khva. gva senka
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ग्ग
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Notes on the pronunciation of Pāli
Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brahmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pāli was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation.
The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two consonants and one nasal sound (niggahita).
Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel):
as the "a" in father
a as the "a" in about
- as the "i" in mint
- as the "u" in put
1
u
-
e is pronounced as the "ay" in day, except before double consonants when it is pronounced as the "e" in bed: deva, metta;
o is pronounced as the "o" in no, except before double consonants when it is pronounced slightly shorter: loka, photthabba.
Consonants are pronounced mostly as in English.
g - as the "g" in get
c soft like the "ch" in church
V - a very soft -v- or -w
All aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath following the normal unaspirated sound.
a
i as the "ee" in see as the "oo" in cool
ū -
th - not as in 'three'; rather 't' followed by 'h' (outbreath) ph- not as in 'photo'; rather 'p' followed by 'h' (outbreath)
-
The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the tongueturned back; and I is pronounced with the tongue retroflexed, almost a combined 'rl' sound.
The nasal sounds:
The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tongue touching the upper front teeth.
n- guttural nasal, like -ng- as in singer
ň - as in Spanish señor
n
m- as in hung, ring
-
with tongue retroflexed
Double consonants are very frequent in Pali and must be strictly pronounced as long consonants, thus -nn- is like the English 'nn' in "unnecessary".
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संकेत-सूची
अ० नि० = अङ्गुत्तरनिकाय अट्ठ० = अट्ठकथा अनु टी० = अनुटीका अप० = अपदान अभि० टी० = अभिनवटीका इतिवु० = इतिवृत्तक उदा० = उदान कङ्घा० टी० = कङ्खावितरणी टीका कथाव०=कथावत्थु खु० नि० = खुद्दकनिकाय खु० पा० = खुद्दकपाठ चरिया० पि० = चरियापिटक चूळनि० = चूळनिद्देस चूळव० = चूळवग्ग जा० = जातक टी० = टीका थेरगा० =थेरगाथा थेरीगा० =थेरीगाथा दी०नि० = दीघनिकाय ध० प० = धम्मपद ध० स० = धम्मसङ्गणी धातु० =धातुकथा नेत्ति० = नेत्तिपकरण पटि० म० = पटिसम्भिदामग्ग
पट्ठा० = पट्ठान परि० = परिवार पाचि० = पाचित्तिय पारा० = पाराजिक पु० टी० = पुराणटीका पु० प० = पुग्गलपत्ति पे० व० = पेतवत्थु पेटको० = पेटकोपदेस बु० वं० = बुद्धवंस म० नि० = मज्झिमनिकाय महाव० = महावग्ग महानि० = महानिद्देस मि० प० = मिलिन्दपह मूल टी० = मूलटीका यम० = यमक वि० व० = विमानवत्थु वि० वि० टी० = विमतिविनोदनी टीका वि० सङ्ग० अट्ठ० = विनयसङ्गह अट्ठकथा विनय वि० टी० = विनयविनिच्छय टीका विभं० = विभङ्ग विसुद्धि० = विसुद्धिमग्ग सं० नि० = संयुत्तनिकाय सारत्थ० टी० = सारत्थदीपनी टीका सु० निः = सुत्तनिपात
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दीघनिकाये
लीनत्थप्पकासना
ततियो भागो
पाथिकवग्गटीका
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।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।।
दीघनिकाये
पाथिकवग्गटीका
१. पाथिकसुत्तवण्णना
सुनक्खत्तवत्थुवण्णना
१. अपुब्बपदवण्णनाति अत्थसंवण्णनावसेन हेट्ठा अग्गहितताय अपुब्बस्स अभिनवस्स पदस्स वण्णना अत्थविभावना | “हित्वा पुनप्पुनागतमत्थ "न्ति (दी० नि० अट्ठ० १. गन्थारम्भकथा ) हि वृत्तं । मल्लेसूति एत्थ यं वत्तब्बं तं हेट्ठा वुत्तनयमेव । छायूदकसम्पन्ने वनसण्डे विहरतीति अनुपियसामन्ता कतस्स विहारस्स अभावतो । यदि न ताव पविट्ठो, कस्मा " पाविसीति वुत्तन्ति आह "पविसिस्सामी' तिआदि, तेन अवस्सं भाविनि भूते विय उपचारा होन्तीति दस्सेति । इदानि तमत्थं उपमाय विभावेन्तो " यथा कि "न्तिआदिमाह । एतन्ति एतं " अतिप्पगो खो"तिआदिकं चिन्तनं अहोसि । अतिविय
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१.२-३)
च
पगो खोति अतिविय पातोव । छन्नकोपीनताय, परिब्बाजकपब्बज्जुपगमेन छन्नपरिब्बाजकं, न नग्गपरिब्बाजकं ।
२. यस्मा भगवतो उच्चाकुलप्पसुततं, महाभिनिक्खमननिक्खन्ततं, अनञसाधारणदुक्करचरणं, विवेकवासं, लोकसम्भाविततं, ओवादानुसासनीहि लोकस्स बहुपकारतं, परप्पवादमद्दनं, महिद्धिकतं, महानुभावतन्ति एवमादिकं तंतंअत्तपच्चक्खगुणविसेसं निस्साय येभुय्येन अतित्थियापि भगवन्तं दिस्वा आदरगारवबहुमानं दस्सेन्तियेव, तस्मा वुत्तं "भगवन्तं दिस्वा मानथद्धतं अकत्वा"तिआदि | लोकसमुदाचारवसेनाति लोकोपचारवसेन । चिरस्सन्ति चिरकालेन । आदीनि वदन्ति उपचारवसेन। तस्साति भग्गवगोत्तस्स परिब्बाजकस्स । गिहिसहायोति गिहिकालतो पट्टाय सहायो। पच्चक्खातोति येनाकारेन पच्चक्खाना, तं दस्सेतुं “पच्चक्खामी'तिआदि वुत्तं ।
___३. उद्दिस्साति सत्थुकारभावेन उद्दिस्साति अयमेत्थ अधिप्पायोति तं दस्सेन्तो "भगवा मे"तिआदिमाह । यदा सुनक्खत्तस्स "भगवन्तं पच्चक्खामी'"ति चित्तं उप्पन्न, वाचा भिन्ना, तदा एवस्स भगवता सद्धिं कोचि सम्बन्धो नत्थि असक्यपुत्तियभावतो सासनतो परिबाहिरत्ता । अयं तावेत्थ सासनयुत्ति, सा पनायं ठपेत्वा सासनयुत्तिकोविदे अजेसं न सम्मदेव विसयोति भगवा सब्बसाधारणवसेनस्स अत्तना सम्बन्धाभावं दस्सेतुं “अपि नू"ति आदिं वत्वा सुनक्खत्तं "को सन्तो कं पच्चाचिक्खसी"ति आह । यस्मा मुखागतोयं सम्बन्धो, न पूजागतादिको, यो च याचकयाचितब्बतावसेन होति, तदुभयञ्चेत्थ नत्थीति दस्सेन्तो भगवा सुनक्खत्तं “को सन्तो कं पच्चाचिक्खसी"ति अवोच, तस्मा तमत्थं दस्सेतुं "याचको वा"तिआदि वुत्तं । याचितको वा याचकं पच्चाचिक्खेय्याति सम्बन्धो । त्वं पन नेव याचको “अहं भन्ते भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामी''ति एवं मम सन्तिकं अनुपगतत्ता। न याचितको “एहि त्वं सुनक्खत्त ममं उद्दिस्स विहराही''ति एवं मया अपत्थितत्ता।
को समानोति याचकयाचितकेसु को नाम होन्तो । कन्ति याचकयाचितकेसु एव कं नाम होन्तं मं पच्चाचिक्खसि। तुच्छपुरिसाति झानमग्गादिउत्तरिमनुस्सधम्मेसु कस्सचिपि अभावा रित्तपुरिसा । ननु चायं सुनक्खत्तो लोकियज्झानानि, एकच्चाभिञञ्च उप्पादेसीति ? किञ्चापि उप्पादेसि, ततो पन भगवति आघातुप्पादनेन सहेव परिहीनो अहोसि । अपराधो नाम सुप्पटिपत्तिया विरज्झनहेतुभूतो किलेसुप्पादोति आह “यत्तको ते
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(१.४-६)
सुनक्खत्तवत्थुवण्णना
अपराधो, तत्तको दोसो"ति । यावञ्चाति अवधिपरिच्छेदभावदस्सनं “यावञ्च तेन भगवता''तिआदीसु (दी० नि० १.३) विय । तेति तया । इदन्ति निपातमत्तं । अपरद्धन्ति अपरज्झितं । इदं वुत्तं होति - “पच्चाचिक्खामिदानाहं भन्ते भगवन्त"न्तिआदीनि वदन्तेन तुच्छपुरिस तया यावञ्चिदं अपरद्धं, न तस्स अपराधस्स पमाणं अत्थीति |
४. मनुस्सधम्माति भावनानुयोगेन विना मनुस्सेहि अनुट्ठातब्बधम्मा। सो हि मनुस्सानं चित्ताधिट्ठानमत्तेन इज्झनतो तेसं सम्भावितधम्मो विय ठितो तथा वुत्तो, मनुस्सग्गहणञ्चेत्थ तेसु बहुलं पवत्तनतो। इद्धिभूतं पाटिहारियं, न आदेसनानुसासनीपाटिहारियन्ति अधिप्पायो। कतेति पवत्तिते । निय्यातीति निग्गच्छति, वट्टदुक्खतो निग्गमनवसेन पवत्ततीति अत्थो। धम्मे हि निग्गच्छन्ते तंसमङ्गिपुग्गलो "निग्गच्छती''ति वुच्चति, अट्ठकथायं पन नि-सद्दो उपसग्गमत्तं, याति इच्चेव अत्थोति दस्सेतुं गच्छतीति अत्थो वुत्तो। तत्राति पधानभावेन वुत्तस्स अत्थस्स भुम्मवसेन पटिनिद्देसोति तस्मिं धम्मे सम्मा दुक्खक्खयाय निय्यन्तेति अयमेत्थ अत्थोति दस्सेन्तो आह "तस्मिं...पे०... संवत्तमाने"ति ।
५. अग्गन्ति ञायतीति अग्गजे। लोकपत्तिन्ति लोकस्स पापनं । लोकस्स अग्गन्ति लोकुप्पत्तिसमये "इदं नाम लोकस्स अग्ग"न्ति एवं जानितब्बं बुज्झितब् । अग्गमरियादन्ति आदिमरियादं ।
६. एत्तकं विप्पलपित्वाति "न दानाहं भन्ते भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामी''ति, “न हि पन मे भन्ते भगवा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोती'ति, “न हि पन मे भन्ते भगवा अग्गों पञपेती''ति च एत्तकं विप्पलपित्वा । इदं किर सो भगवा सत्थुकिच्चं इद्धिपाटिहारियं, अग्गञपञापनञ्च कातुं न सक्कोतीति पकासेन्तो कथेसि । तेनाह "सुनक्खत्तो किरा"तिआदि । उत्तरवचनवसेन पतिठ्ठाभावतो अप्पतिट्ठो। ततो एव निरवो निस्सद्दो ।
आदीनवदस्सनत्थन्ति दिट्ठधम्मिकस्स आदीनवस्स दस्सनत्थं । तेनाह “सयमेव गरहं पापुणिस्ससी"ति । सम्परायिका पन आदीनवा अनेकविधा, ते दस्सेन्तो सुनक्खत्तो न सद्दहेय्याति दिठ्ठधम्मिकस्सेव गहणं । अनेककारणेनाति “इतिपि सो भगवा अरह"न्तिआदिना (दी० नि० १.१५७, २५५) अनेकविधेन वण्णकारणेन । एवं मे
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१.७-७)
अवण्णो न भविस्सतीति अज्झासयेन अत्तनो बालताय वण्णारहानं अवण्णं कथेत्वा। एवं भगवा मक्खिभावे आदीनवं दस्सेत्वा पुन तस्स कथने कारणं विभावेतुं “इति खो ते''तिआदिमाहाति तं दस्सेतुं "ततो"तिआदि वुत्तं । एवहि सुनक्खत्तस्स अप्पकोपि वचनोकासो न भविस्सतीति । अपक्कमीति अत्तना यथाठिता वुट्ठाय अपसक्कि । अपक्कन्तो सासनतो भट्ठो। तेनाह "चुतो"ति । एवमेवाति अपक्कमन्तो च न यथा तथा अपक्कमि, यथा पन कायस्स भेदा अपाये निब्बत्तेय्य, एवमेव अपक्कमि।
कोरखत्तियवत्थुवण्णना ७. द्वीहि पदेहीति द्वीहि वाक्येहि आरद्धं ब्यतिरेकवसेन तदुभयत्थनिद्देसवसेन उपरिदेसनाय पवत्तत्ता । अनुसन्धिदस्सनवसेनाति यथानुसन्धिसङ्खातअनुसन्धिदस्सनवसेन ।
एकं समयन्ति च भुम्मत्थे उपयोगवचनन्ति आह “एकस्मिं समयेति च । थूलू नाम जनपदोति जनपदीनं राजकुमारानं वसेन तथालद्धनामो । कुक्कुरवतं समादानवसेन एतस्मिं अत्थीति कुक्कुरवतिकोति आह "समादिन्नकुक्कुरवतो"ति । अञम्पीति “चतुक्कोण्डिकस्सेव विचरणं, तथा कत्वाव खादनं, भुञ्जनं, वामपादं उद्धरित्वा मुत्तस्स विस्सज्जन''न्ति एवमादिकं अचम्पि सुनखेहि कातब्बकिरियं । चतूहि सरीरावयवेहि कुण्डनं गमनं चतुक्कोण्डो, सो एतस्मिं अत्थीति चतुक्कोण्डिको। सो पन यस्मा चतूहि सरीरावयवेहि सङ्घट्टितगमनो होति, तस्मा वुत्तं "चतुसङ्घट्टितो"ति । तेनेवाह "ढे जण्णूनी"तिआदि । भक्खसन्ति वा भक्खितब्, असितब्बञ्च । तेनेवाह "यं किञ्चि खादनीयं भोजनीय"न्ति । कामं खादनञ्च नाम मुखेन कातब्बं, हत्थेन पन तत्थ उपनामनं निवारेतुं अवधारणं कतन्ति आह "हत्थेन अपरामसित्वा"ति, अग्गहेत्वाति अत्थो । सुन्दररूपोति सुन्दरभावो । वताति पत्थनत्थे निपातो "अहो वताहं लाभी अस्स"न्तिआदीसु विय । “समणेन नाम एवरूपेन भवितब्बं अहो वताहं एदिसो भवेय्य''न्ति एवं तस्स पत्थना अहोसि । तेनाह "एवं किरा"तिआदि ।
गरहत्थे अपि-कारो “अपि सिञ्चे पलण्डक''न्तिआदीसु विय । अरहन्ते च बुद्धे, बुद्धसावके “अरहन्तो खीणासवा न होन्ती''ति एवं तस्स दिट्ठि उप्पन्ना। यथाह महासीहनादसुत्ते “नस्थि समणस्स गोतमस्स उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियाणदस्सनविसेसा'ति
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(१.८-१०)
कोरखत्तियवत्थुवण्णना
(म० नि० १.१४६)। सत्तमं दिवसन्ति भुम्मत्थे उपयोगवचनं । अलसकेनाति अजीरणेन आमरोगेन ।
अद्वितचमत्तताय पुराणपण्णसदिसो। बीरणथम्बकन्ति बीरणगच्छा ।
मत्ता एतस्स अत्थीति मत्तं, भोजनमत्तवन्तन्ति अत्थो। तेनाह “पमाणयुत्त"न्ति । मन्ता मन्ताति मन्ताय मन्ताय ।
८. एकतीहिकाय गणनाय । निराहारोव अहोसि भगवतो वचनं अञथा कातुकामो, तथाभूतोपि सत्तमे दिवसे उपट्टाकेन उपनीतं भक्खसं दिस्वा “धी''ति उपठ्ठापेतुं असक्कोन्तो भोजनतण्हाय आकड्डियमानहदयो तं कुच्छिपूरं भुजित्वा भगवता वुत्तनियामेनेव कालमकासि | तेन वुत्तं “अथस्सा"तिआदि । सचेपि...पे०... चिन्तेय्याति यदि एसो अचेलो “धी"ति पच्चुपट्टपेत्वा “अज्जपि अहं न भुजेय्य"न्ति चिन्तेय्य, तथाचिन्तने सतिपि देवताविग्गहेन तं दिवसं...पे०... करेय्य। कस्मा ? अद्वेज्झवचना हि तथागता, न तेसं वचनं वितथं होति ।
गतगतवानं अङ्गणमेव होतीति तेहि तं कड्डित्वा गच्छन्तेहि गतगतप्पदेसो उत्तरकसामन्ता विवटङ्गणमेव हुत्वा उपट्ठाति । तेति तित्थिया । सुसानंयेव गन्त्वाति "बीरणथम्बकं अतिक्कमिस्सामा"ति गच्छन्तापि अनेकवारं तं अनुसंयायित्वा पुनपि तंयेव सुसानं उपगन्त्वा।
९. इदन्ति इदं मतसरीरं । "तमेव वा सरीरं कथापेसीति तं सरीरं अधिट्ठहित्वा ठितपेतेन कथापेसी"ति केचि । कोरखत्तियं वा असुरयोनितो आनेत्वा कथापेतु अचं वा पेतं, को एत्थ विसेसो। “अचिन्तेय्यो हि बुद्धविसयो"ति पन वचनतो तदेव सरीरं सुनक्खत्तेन पहतमत्तं बुद्धानुभावेन उट्ठाय तमत्थं आपेसीति दट्ठब्बं । पुरिमोयेव पन अत्थो अट्ठकथासु विनिच्छितो । तथा हि वक्खति “निब्बत्तट्ठानतो''तिआदि (दी० नि० अट्ठ० ३.१०)।
१०. विपाकन्ति फलं, अत्थनिब्बत्तीति अत्थो ।
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( १.११-१२)
समानेतब्बानीति सम्मा आनेतब्बानि, सरूपतो आनेत्वा दस्सेतब्बानीति अत्थो । पाटिहारियानं पठमादिता भगवता वृत्तानुपुब्बिया वेदितब्बा । केचि पत्थ “परचित्तविभावनं, आयुपरिच्छेदविभावनं, ब्याधिविभावनं, गतिविभावनं, सरीरनिक्खेपविभावनं, सुनक्खत्तेन सद्धिं कथाविभावनञ्चाति छ पाटिहारियानी" ति वदन्ति तं यदि सुनक्खत्तस्स चित्तविभावनं सन्धाय वृत्तं एवं सति “सत्ता "ति वत्तब्बं तस्स भाविअवण्णविभावनाय सद्धिं । अथ अचेलस्स मरणचित्तविभावनं तं "सत्तमं दिवसं कालं करिस्सती 'ति इमिना सङ्गहितन्ति विसुं न वत्तब्बं, तस्मा अट्ठकथायं वुत्तनयेनेव गहेतब्बं ।
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
अचेलकळारमट्टकवत्थुवण्णना
११. निक्खन्तदन्तमट्टकोति निक्खन्तदन्तो मट्टको । सो किर अचेलकभावतो पुब्बे मट्टकितो हुत्वा विचरि विवरदन्तो च तेन नं “ कोरमट्टको "ति सञ्जानन्ति । यं किञ्चि तस्स देन्तो " साधुरूपो अयं समणो ति सम्भावेन्तो अग्गं सेट्ठयेव देन्ति । तेन वृत्तं " लाभग्गं पत्तो, अग्गलाभं पत्तो 'ति । बहू अचेलका तं परिवारेत्वा विचरन्ति, गहट्ठा च तं बहू अड्डा विभवसम्पन्ना कालेन कालं उपसङ्कमित्वा पयिरुपासन्ति । तेन वुत्तं “ यसग्गं अग्गपरिवारं पत्तो 'ति । वतानियेव पज्जितब्बतो पदानि । अञ्ञमञ्ञ असङ्करतो वतकोट्ठासा वा । समत्तानीति समं अत्तनि गहितानि । पुरत्थिमेनाति एन - सद्दसम्बन्धेन " वेसालि "न्ति उपयोगवचनं, अविदूरत्थे च एन- सद्दो पञ्चम्यन्तोति आह "वेसालितो अविदूरे "ति ।
१२.
सासने परिचयवसेन तिलक्खणाहतं पञ्हं पुच्छि । न सम्पायासीति नावबुज्झि न सम्पादेसि । तेनाह " सम्मा आणगतिया " तिआदि । सम्पायनं वा सम्पादनं । पञ्हं पुट्ठस्स च सम्पादनं नाम सम्मदेव कथनन्ति तदभावं दस्सेन्तो “ अथ वा 'तिआदिमाह । कोपवसेन तस्स अक्खीनि कम्पनभावं आपज्जिंसूति आह “ कम्पनक्खीनिपि परिवत्तेत्वा "ति । कोपन्ति कोधं, सो पन चित्तस्स पकुप्पनवसेन पवत्ततीति आह " कुप्पनाकार "न्ति । दोसन्ति आघातं, सो पन आरम्मणे दुस्सनवसेन पवत्तीति आह " दुस्सनाकार "न्ति । अतुट्ठाकारन्ति तुट्टिया पीतिया पटिपक्खभूतप्पवत्तिआकारं । कायवचीविकारेहि पाकटमकासि । मा वत नोति एत्थ माति पक्खेिपो, नोति मय्हन्ति अत्थोति आह “ अहो वत मे न भवेय्या" ति । मं वत नोति एत्थ पन नोति संसयेति आह “ अहोसि वत नु
ममा "ति ।
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(१.१४-१७)
अचेलपाथिकपुत्तवत्थुवण्णना
१४. परिपुब्बो दहित-सद्दो वत्थनिवासनं वदतीति आह “परिदहितो निवत्थवत्थो"ति । यसनिमित्तकताय लाभस्स यसपरिहानियाव लाभपरिहानि वुत्ता होतीति पाळियं “यसा निहीनो"ति वुत्तं ।
__ अचेलपाथिकपुत्तवत्थुवण्णना
१५. “अहं सबं जानामी"ति एवं सब्ब ताणं वदति पटिजानातीति आणवादो, तेन मया प्राणवादेन सद्धिं। अतिक्कम्म गच्छतोति उपड्डभागेन परिच्छिन्नं पदेसं अतिक्कमित्वा इद्धिपाटिहारियं कातुं गच्छतो। किं पनायं अचेलो पाथिकपुत्तो अत्तनो पमाणं न जानातीति ? नो न जानाति । यदि एवं, कस्मा सुक्खगज्जितं गज्जीति ? "एवाहं लोके पासंसो भविस्सामी''ति कोहचे कत्वा सुक्खगज्जितं गज्जि । तेन वुत्तं "नगरवासिनो''तिआदि । पट्टपेत्वाति युगग्गाहं आरभित्वा ।
१६. हीनज्झासयत्ता...पे०... उदपादि। वुत्तज्हेतं “हीनाधिमुत्तिका सत्ता हीनाधिमुत्तिके एव सत्ते सेवन्ति भजन्ति पयिरुपासन्ती"ति (सं० नि० १.२.९८) ।
__ यस्मा तथावुत्ता वाचा तथारूपचित्तहेतुका, तञ्च चित्तं तथारूपदिट्ठिचित्तहेतुकं, तस्मा "तं वाचं अप्पहाया"ति वत्वा यथा तस्सा अप्पहानं होति, तं दस्सेन्तो "तं चित्तं अप्पहाया"ति आह, तस्स च यथा अप्पहानं होति, तं दस्सेतुं “तं दिठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा"ति अवोच । यस्मा वा तथारूपा वाचा महासावज्जा, चित्तं ततो महासावज्जतरं तंसमुट्ठापकभावतो, दिट्टि पन ततो महासावज्जतमा तदुभयस्स मूलभावतो, तस्मा तेसं महासावज्जताय इमं विभागं दस्सेत्वा अयं अनुक्कमो ठपितोति वेदितब्बो । तेसं पन यथा पहानं होति, तं दस्सेतुं “अह"न्तिआदि वुत्तं । "नाहं बुद्धो"ति वदन्तोति साठेय्येन विना उजुकमेव “अहं बुद्धो न होमी"ति वदन्तो । चित्तदिटिप्पहानेपि एसेव नयो। विपतेय्याति एत्थ वि-सद्दो पठमे विकप्पे उपसग्गमत्तं, दुतिये पन विसरणत्योति आह "सत्तधा वा पन फलेय्या"ति ।
१७. एकंसेनाति एकन्तेन, एकन्तिकं पन वचनपरियायविनिमुत्तं होतीति आह "निप्परियायेना"ति। ओधारिताति अवधारिता नियमेत्वा भासिता। विगतरूपेनाति
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
अपगतसभावेन । तेनाह “विगच्छितसभावेना "ति, इद्धानुभावेन अपनीतसकभावेन । तेन वृत्तं " अत्तनो "तिआदि ।
१८. द्वयं गच्छतीति द्वयगामिनी । कीदिसं द्वयन्ति आह " सरूपेना "तिआदि । अयञ्हि सो गण्डस्सुपरिफोट्ठब्बादोसं ।
( १.१८-२२)
१९. अजितस्स लिच्छविसेनापतिस्स महानिरये निब्बत्तित्वा ततो आगन्त्वा अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स सन्तिके परोदनं । अभावाति पुब्बे वुत्तप्पकारस्स पाटिहारियकरणस्स अभावा । भगवा पन सन्निपतितपरिसायं पसादजननत्थं तदनुरूपं पाटिहारियमकासियेव । यथाह "तेजोधातुं समापज्जित्वा 'तिआदि ।
इद्धिपाटिहारियकथावण्णना
२०. निचयनं धनधञानं सञ्चयनं निचयो, तत्थ नियुत्ताति नेचयिका, गहपति एव नेचयिका गहपतिनेचयिका । एत्तकानि जङ्घसहस्सानीति परिमाणाभावतो सहस्सेहिपि अपरिमाणगणना । तेनेवाति इमस्स वसेन सन्निपतिताय एवं महतिया परिसाय बन्धनमोक्खं कातुं लब्भति, एतेनेव कारणेन ।
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२१. चित्तुत्रासभयन्ति चित्तस्स उत्रासनाकारेन पवत्तभयं न आणभयं नापि " भायति एतस्मा "ति एवं वृत्तं आरम्मणभयं । छम्भितत्तन्ति तेनेव चित्तुत्रासभयेन सकलसरीरस्स छम्भितभावो । लोमहंसोति तेनेव भयेन तेन च छम्भितत्तेन सकलसरीरे लोमानं हट्टभावो, सो पन तेसं भित्तियं नागदन्तानं विय उद्धंमुखताति आह “ लोमानं उद्धग्गभावो 'ति । अन्तन्तेन आविज्झित्वाति अत्तनो निसीदनत्थं निगूळहट्ठानं उपपरिक्खन्तो परिब्बाजकारामं परियन्तेन अनुसंयायित्वा, कस्सचिदेव सुनक्खत्तस्स वा सुनक्खत्तसदि वा सब्बञ्जुपटि अप्पहाय सत्थु सम्मुखीभावे सत्तधा तस्स मुद्धाफलनं धम्मता । तेन वृत्तं " मा नस्सतु बालो " तिआदि ।
२२. संसप्पतीति तत्थेव पासाणफलके बालदारको विय उट्ठातुं असक्कोन्तो अवसीदनवसेन इतो चितो च संसप्पति । तेनाह “ओसीदतीति । तत्थेव सञ्चरतीति तस्मिंयेव पासाणे आनिसदुपट्ठिनो सञ्चलनं निसज्जवसेनेव सञ्चरति, न उट्ठाय पदसा |
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(१.२३-२८)
इद्धिपाटिहारियकथावण्णना
२३. विनहरूपोति सम्भावनाय विनासेन, लाभस्स विनासेन च विनट्ठसभावो ।
पठमभाणवारवण्णना निहिता ।
२५. गोयुत्तेहीति बलवन्तबलीबद्दयोजितेहि ।
२६. तस्साति जालियस्स। अयहि मण्डिसेन परिब्बाजकेन सद्धिं भगवन्तं उपसङ्कमित्वा धम्मं सुणि, ततो पुरेतरं भगवतो गुणानं अजाननकाले अयं पवत्ति । तेनेवाह "तिद्वतु ताव पाटिहारियं...पे०... पराजयो भविस्सती"ति ।
२७. तिणसीहोति तिणसदिसहरितवण्णो सीहो । काळसीहोति काळवण्णो सीहो । पण्डुसीहोति पण्डुवण्णो सीहो। केसरसीहोति केसरवन्तो सेतवण्णो, लोहितवण्णो वा सीहो। मिगरोति एत्थ मिग-सद्दो किञ्चापि पसदकुरुङ्गादीसु केसुचिदेव चतुप्पदेसु निरुळहो, इध पन सब्बसाधारणवसेनाति दस्सेन्तो “मिगरञोति सब्बचतुष्पदानं रो"ति वुत्तं । आगन्त्वा सेति एत्थाति आसयो, निवासनट्ठानं । सीहनादन्ति परिस्सयानं सहनतो, पटिपक्खस्स च हननतो “सीहो"ति द्धनामस्स मिगाधिपस्स घोसं, सो पन तेन यस्मा कुतोचिपि अभीतभावेन पवत्तीयति, तस्मा वुत्तं "अभीतनाद"न्ति । तत्थ तत्थ तासु तासु दिसासु गन्त्वा चरितब्बताय भक्खितब्बताय गोचरो घासोति आह "गोचरायाति आहारत्थाया"ति । वरं वरन्ति मिगसङ्घे मिगसमूहे मुदुमंसताय वरं वरं महिंसवनवराहादिं वधित्वाति योजना | तेनाह "थूलं थूल"न्ति । वरवरभावेन हि तस्स वरभावो इच्छितो । सूरभावं सन्निस्सितं सूरभावसनिस्सितं, तेन । सूरभावेनापि हि “किं इमे पाणके दुबले हन्त्वा''ति अप्पथामेसु पाणेसु कारुनं उपतिठ्ठति ।
२८. विघासोति परस्स भक्खितसेसताय विरूपो घासो विघासो, उच्छिटुं । तेनाह "भक्खितातिरित्तमंस''न्ति, तस्मिं विघासे, विघासनिमित्तन्ति अत्थो । अस्मिमानदोसेनाति अस्मिमानदोसहेतु, अहंकारनिमित्तन्ति अत्थो । सो पनस्स अस्मिमानो यथा उप्पज्जि, तं दस्सेतुं “तत्राय"न्तिआदि वुत्तं ।
“सेगालकंयेवा"तिपि पाठो, यथावुत्तोव अत्थो। भेरण्डकंयेवाति भेरण्डसकुणरवसदिसंयेव, भेरण्डो नाम एको पक्खी द्विमुखो, तस्स किर सद्दो अतिविय
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१.२९-३४)
विरूपो अमनापो। तेनाह “अप्पियअमनापसद्दमेवा"ति । सम्मापटिपत्तिया विसेसतो सुट्ट गताति सुगता, सम्मासम्बुद्धा। ते अपदायन्ति सोधेन्ति सत्तसन्तानं एतेहीति सुगतापदानानि, तिस्सो सिक्खा । यस्मा ताहि ते “सुगता''ति लक्खीयन्ति, ता च तेसं ओवादभूता, तस्मा "सुगतलक्खणेसू"तिआदि वुत्तं । यदि ता सुगतस्स लक्खणभूता, सासनभूता च, कथं पनेस पाथिकपुत्तो तत्थ तासु सिक्खासु जीवति, को तस्स ताहि सम्बन्धोति आह "एतस्स ही"तिआदि । सम्बुद्धानं देमाति देन्तीति बुद्धसाय देन्तीति अधिप्पायो। तेन एस...पे०... जीवति नाम न सुगतन्वयअज्झुपगमनतो | "तथागते"तिआदि एकत्ते पुथुवचनन्ति आह "तथागत"न्तिआदि । बहुवचनं एव गरुस्मिं एकस्मिम्पि बहुवचनप्पयोगतो एकवचनं विय वुत्तं वचनविपल्लासेन ।
२९. समेक्खित्वाति समं कत्वा मिच्छादस्सनेन अपेक्खित्वा, तं पन अपेक्खनं तथा मञ्जनमेवाति आह "मञित्वा'ति । पुब्बे वुत्तं समेक्खनम्पि मञ्जनं एवाति वुत्तं "अमञीति पुन अमञ्जित्था"ति, तेन अपरापरं तस्स मञनप्पवत्तिं दस्सेति । भेरण्डकरवं कोसति विक्कोसतीति कोत्थु ।
३०. ते ते पाणे ब्यापादेन्तो घसतीति ब्यग्घोति इमिना निब्बचनेन "ब्यग्घो"ति मिगराजस्सपि सिया नामन्ति आह "ब्यग्योति मञ्जतीति सीहोहमस्मीति मञ्जती"ति । यदिपि यथावुत्तनिब्बचनवसेन सीहोपि “ब्यग्यो''ति वत्तब्बतं अरहति, ब्यग्घ-सद्दो पन मिगराजे एव निरुळहोति दस्सेन्तो “सीहेन वा"तिआदिमाह ।
३१. सीहेन विचरितवने संवद्वत्ता वुत्तं “महावने सुझवने विवड्डो'ति ।
३४. किलेसबन्धनाति तण्हाबन्धनतो । तण्हाबन्धनहि थिरं दळहबन्धनं दुम्मोचनीयं ।
यथाह
“सारत्तरत्ता मणिकुण्डलेसु, ।
पुत्तेसु दारेसु च या अपेक्खा । एतं दळ्हं बन्धनमाहु धीरा,
ओहारिनं सिथिलं दुप्पमुञ्चन्ति ।। (ध० प० ३४६; जा० १.२.१०२)
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(१.३६-४१)
अग्गझपञत्तिकथावण्णना
किलेसबन्धनाति वा दसविधसंयोजनतो। महाविदुग्गं नाम चत्तारो ओघा महन्तं जलविदुग्गं विय अनुपचितकुसलसम्भारेहि दुग्गमढेन ।
अग्गजपत्तिकथावण्णना
३६. इमस्स पदस्स । इदं नाम लोकस्स अग्गन्ति जानितब्बं, तं अग्गलं, सो पन लोकस्स उप्पत्तिक्कमो पवत्ति पवेणी चाति आह "लोकुप्पत्तिचरियवंस"न्ति । सम्मासम्बोधितो उत्तरितरं नाम किञ्चि नत्थि पजानितब्बेसु, तं पन कोरि कत्वा दस्सेन्तो "याव सब्ब तञाणा पजानामी"ति आह । “मम पजानना''ति अस्सादेन्तो तण्हावसेन, “अहं पजानामी''ति अभिनिविसन्तो दिट्ठिवसेन, “सुट्ट पजानामि सम्मा पजानामीति पग्गण्हन्तो मानवसेन न परामसामीति योजना | “पच्चत्तओवा''ति पदं “निब्बुति विदिता''ति पदद्वयेनापि योजेतब्बं “पच्चत्तंयेव उप्पादिता निब्बुति च पच्चत्तंयेव विदिता''ति, सयम्भुञाणेन निब्बत्तिता निब्बुति सयमेव विदिताति अत्थो । अट्ठकथायं पन "पच्चत्त''न्ति पदं विविधविभत्तिकं हुत्वा आवुत्तिनयेन आवत्ततीति दस्सेतुं “अत्तनायेव अत्तनी"ति वुत्तं । अविदितनिब्बानाति अप्पटिलद्धनिब्बाना मिच्छापटिपन्नत्ता । पजाननम्पि हि तदधिगमवसेनेव वेदितब्बं । एति इट्ठभावेन पवत्ततीति अयो, सुखं । तप्पटिक्खेपेन अनयो, दुक्खं । तदेव हितसुखस्स ब्यसनतो ब्यसनं।
३७. तं दस्सेन्तोति भगवापि “अञतित्थियो तत्थ सारसञी"ति तं दस्सेन्तो। आधिपच्चभावेनाति आधिपच्चसभावेन । यस्स आचरियवादस्स वसेन पुरिसो "आचरियो''ति वुच्चति, सो आचरियवादो आचरियभावोति आह “आचरियभावं आचरियवाद"न्ति । एत्थाति आचरियवादे । इति कत्वाति इमिना कारणेन । सोति आचरियवादो । “अग्गजं" त्वेव वुत्तो अग्गञविसयत्ता । केन विहितन्ति केन पकारेन विहितं । तेनाह "केन विहितं किन्ति विहित"न्ति । ब्रह्मजालेति ब्रह्मजालसंवण्णनायं (दी० नि० अठ्ठ० १.२८)। तत्थ हि वित्थारतो वुत्तविधिं इध अतिदिसति, पाळि पन तत्थ चेव इध च एकसदिसा वाति ।
४१. खिड्डा पदोसिका मूलभूता एत्थ सन्तीति खिड्डापदोसिकं, आचरियकं । तेनेवाह "खिड्डापदोसिकमूलक''न्ति । मनोपदोसिकन्ति एत्थापि एसेव नयो ।
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१२
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
४७. येन वचनेन अब्भाचिक्खन्ति, तस्स अविज्जमानता नाम अत्थवसेनेवाति आह 'असंविज्जमानट्ठेना "ति । तुच्छा, मुसाति च करणत्थे पच्चत्तवचनन्ति आह “ तुच्छेन, मुसावादेनाति । वचनस्स अन्तोसारं नाम अविपरीतो अत्थोति तदभावेनाह " अन्तोसारविरहितेना "ति । अभिआचिक्खन्तीति अभिभवित्वा घट्टेन्ता कथेन्ति, अक्कोसन्तीति अत्थो । विपरीतसञ्ञति अयाथावसञ्ञो । सुभं विमोक्खन्ति "सुभ"न्ति वुत्तविमोक्खं । वण्णकसिणन्ति सुनीलकसुपीतकादिवण्णकसिणं । सब्बन्ति यं सुभं, असुभञ्च वण्णकसिणं, तञ्च सब्बं । न असुभन्ति असुभम्पि " असुभ "न्ति तस्मिं समये न सञ्जानाति, अथ खो “सुभं” त्वेव सञ्जानातीति अत्थो । विपरीता अयाथावगाहिताय, अयाथाववादिताय च ।
४८. यस्मा सो परिब्बाजको अविस्सट्ठमिच्छागाहिताय सम्मा अप्पटिपज्जितुकामो सम्मापटिपन्नं विय मं समणो गोतमो, भिक्खवो च सञ्जानन्तूति अधिप्पायेन “ तथा धम्मं देसेतु"न्तिआदिमाह, तस्मा वुत्तं " मया एतस्स... पे०... वट्टती 'ति । मम्मन्ति मम्मप्पदेसं पीळाजननट्ठानं । सुति सक्कच्चं । यथा न विनस्सति, एवं अनुरक्ख ।
वासनायाति किलेसक्खयावहाय पटिपत्तिया वासनाय । सेसं सुविज्ञेय्यमेवाति ।
पाथिकसुत्तवण्णनाय लीनत्थष्पकासना ।
( १.४७-४८)
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२. उदुम्बरिकसुत्तवण्णना
निग्रोधपरिब्बाजकवत्थुवण्णना
४९. उदुम्बरिकायाति सम्बन्धे सामिवचनन्ति आह "उदुम्बरिकाय देविया सन्तके परिब्बाजकारामेति । “उदुम्बरिकाय"न्ति वा पाठो, तथा सति अधिकरणे एतं भुम्मं । अयव्हेत्थ अत्थो उदुम्बरिकाय रञ्जो देविया निब्बत्तितो आरामो उदुम्बरिका, तस्सं उदुम्बरिकायं । तेनाह "उदुम्बरिकाय देविया सन्तके'ति । ताय हि निब्बत्तितो तस्सा सन्तको | वरणादिपाठवसेन चेत्थ निब्बत्तत्थबोधकस्स सद्दस्स अदस्सनं । सन्धानोति भिन्नानम्पि तेसं सन्धापनेन “सन्धानो"ति एवं लद्धनामो। संवण्णितोति पसंसितो । इरियतीति पवत्तति । अरियेन जाणेनाति किलेसेहि आरकत्ता अरियेन लोकुत्तरेन आणेन । अरियाय विमुत्तियाति सुविसुद्धाय लोकुत्तरफलविमुत्तिया ।
दिवा-सद्दो दिन-सद्दो विय दिवसपरियायो, तस्स विसेसनभावेन वुच्चमानो दिवा-सद्दो सविसेसं दिवसभागं दीपेतीति आह "दिवसस्स दिवा"तिआदि । यस्मा समापन्नस्स चित्तं नानारम्मणतो पटिसंहतं होति, झानसमङ्गी च पविवेकूपगमनेन सङ्गणिकाभावतो एकाकियाय निलीनो विय होति, तस्मा वुत्तं "ततो ततो...पे०... गतो"ति । मनो भवन्ति मनसो विवट्टनिस्सितं वडिं आवहन्तीति मनोभावनियाति आह "मनवड्कान"न्तिआदि | उन्नमति न सङ्कुचति, अलीनञ्च होतीति अत्थो ।
५१. यावताति यावन्तोति अयमेत्थ अत्थोति आह “यत्तका''ति । तेसन्ति निद्धारणे सामिवचनं । निद्धारणञ्च केनचि विसेसेन इच्छितब्बं । येहि च गुणविसेसेहि समन्नागता भगवतो सावका उपासका राजगहे पटिवसन्ति, अयञ्च तेहि समन्नागतोति इमं विसेसं दीपेतुं “तेसं अन्भन्तरो"ति वुत्तं । तेनाह "भगवतो किरा"तिआदि ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
५२. तेसन्ति परिब्बाजकानं । कथायाति तिरच्छानकथाय । दस्सनेनाति दिट्ठिदस्सनेन ।
आकप्पेनाति वेसेन । कुत्तेनाति किरियाय । आचारेनाति अञ्ञमञ्ञस्मिं
आचरितब्बआचारेन । विहारेनाति रत्तिन्दिवं विहरितब्बविहरणेन । इरियापथेनाति ठानादिइरियापथेन । अञ्ञाकारताय अञ्ञतित्थे नियुत्ताति अञ्ञतित्थिया । सङ्गन्त्वा समागन्त्वा रासी हुत्वा परेहि निसिन्नट्ठाने । अरञ्ञानि च तानि वनपत्थानि चाति अरञ्ञवनपत्थानि । तत्थ यं अरञ्ञकङ्गनिप्फादकं आरञ्ञकानं, तं “अरञ्ञ"न्ति वेदितब्बं । वनपत्थन्ति गामन्तं अतिक्कमित्वा मनुस्सानं अनुपचारट्ठानं, यत्थ न कसीयति न वप्पीयति । वृत्तहेतं “वनपत्थन्ति दूरानमेतं सेनासनानं अधिवचन "न्ति “वनपत्थन्ति वनसण्डानमेतं सेनासनानं, वनपत्थन्ति भीसनकानमेतं, वनपत्थन्ति सलोमहंसानमेतं, वनपत्थन्ति परियन्तानमेतं वनपत्थन्ति न मनुस्सूपचारानमेतं सेनासनानं अधिवचन 'न्ति ( विभं० ५३१) । तेन वुत्तं " गामूपचारतो मुत्तानी "तिआदि । पन्तानीति परियन्तानि अतिदूरानि । तेनाह "दूरतरानी" तिआदि । विहारूपचारेनाति विहारस्स उपचारप्पदेसेन | अद्धिकजनस्साति मग्गगामिनो जनस्स । मन्दसद्दानीति उच्चासद्दमहासद्दाभावतो तनुसद्दानि । मनुस्से समागम्म एकज्झं पवत्तितसद्दो निग्घोसो, तस्स यस्मा अत्थो दुब्बिभावितो होति, तस्मा वृत्तं " अविभावितत्थेन निग्घोसेना "ति । विगतवातानीति विगतसद्दानि । “ रहस्स करणस्स युत्तानी" ति इमिनापि तेसं ठानानं अरञ्ञलक्खणयुत्ततं, जनविवित्ततं वनविवित्तमेव च विभावेति, तथा " एकीभावस्स अनुरूपानी "ति इमिना ।
(२.५२-५३)
५३. केनाति हेतुम्हि, सहयोगे च करणवचनन्ति आह “केन कारणेन केन पुग्गलेन सद्धि "न्ति । एकोपि हि विभत्तिनिद्देसो अनेकत्थविभावनो होति, तथा तद्धितत्थपदसमाहारेति ।
संसन्दनन्ति आलापसल्लापवसेन कथासंसन्दनं । आणब्यत्तभावन्ति ब्यत्तत्राणभावं, सो पन परस्स वचने उत्तरदानवसेन, परेन वा वुत्तउत्तरे पच्चुत्तरदानवसेन सियाति आह “उत्तरपच्चुत्तरनयेना "ति । यो हि परस्स वचनं तिपुक्खलेन नयेन रूपेति, तथा परस्स रूपनवचनं जातिभावं आपादेति, तस्स तादिसं वचनसभावं जाणवेय्यत्तियं विभावेति पाकटं करोतीति । सुञगारेसु नट्ठाति सुञ्ञागारेसु निवासेसु नट्ठा विनट्ठा अभावं गता । नास्स पञ्ञा नस्सेय्य तेहि तेहि कतपुच्छनपटिपुच्छननिमित्तं नानापटिभानुप्पत्तिया विसारमापन्नं पुच्छितं पञ्हं विस्सज्जेतुं असमत्थताय । ओरोधेय्यामाति निरुत्साहं विय करोन्ता अवरोधेय्याम, तं परस्स ओरोधनं वादजालेन विनन्धनं विय होतीति आह
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(२.५४-५६)
तपोजिगुच्छावादवण्णना
"विनन्धेय्यामा"ति । तदत्थं तेन तुच्छकुम्भिनिदस्सनं कतं, तं ब्यतिरेकमुखेन दस्सेतुं "पूरितघटो ही"तिआदि वुत्तं ।
बलं दीपेन्तोति अभूतमेव अत्तनो जाणबलं पकासेन्तो। असम्भिन्नन्ति जातिसम्भेदाभावेन असम्भिन्नं । अञजातिसम्भेदे सति अस्सतरस्स अस्सस्स जातभावो विय सीहस्सपि सीहथामाभावो सियाति आह "असम्भिन्नकेसरसीह"न्ति । ठानसो वाति तङ्खणे एव ।
५४. “सुमागधा नाम नदी"ति केचि, तं मिच्छाति दस्सेन्तो "सुमागधा नाम पोक्खरणी"ति वत्वा तस्सा पोक्खरणिभावस्स सुत्तन्तरे आगततं दस्सेतुं “यस्सा तीरे"तिआदि वुत्तं । मोरानं निवापो एत्थाति मोरनिवापो। ब्यधिकरणानम्पि हि पदानं बाहिरत्थसमासो होतियेव यथा “उरसिलोमो''ति । अथ वा निवुत्थं एत्थाति निवापो, मोरानं निवापो मोरनिवापो, मोरानं निवापदिन्नट्ठानं । तेनाह “यत्थ मोरान"न्तिआदि । यस्मा निग्रोधो तपोजिगुच्छवादो, सासने च भिक्खू अत्तकिलमथानुयोगं वज्जेत्वा भावनानुयोगेन परमस्सासप्पत्ते विहरन्ते पस्सति, तस्मा “कथं नु खो समणो गोतमो कायकिलमथेन विनाव सावके विनेतीति सञ्जातसन्देहो “को नाम सो"तिआदिना भगवन्तं पुच्छि । अस्ससति अनुसङ्कितपरिसङ्कितो होति एतेनाति अस्सासो, पीतिसोमनस्सन्ति आह "अस्सासप्पत्ताति तुट्ठिप्पत्ता सोमनस्सप्पत्ता"ति । अधिको सेट्ठो आसयो निस्सयो अज्झासयोति आह "उत्तमनिस्सयभूत"न्ति । आदिभूतं पुरातनं सेठ्ठचरियं आदिब्रह्मचरियं, लोकुत्तरमग्गन्ति अत्थो । तथा हेस सब्बबुद्धपच्चेकबुद्धसावकेहि तेनेव आकारेन अधिगतो। तेनाह "पुराण...पे०... अरियमग्ग"न्ति । तथा हि तं भगवा “अद्दस पुराणं मग्गं पुराणमञ्जस"न्ति अवोच । पूरेत्वा भावनापारिपूरिवसेन । “पूरेत्वा''ति वा इदं “अज्झासयं आदिब्रह्मचरिय"न्ति एत्थ पाठसेसोति वदन्ति । “अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं पटिजानन्ति अस्सासप्पत्ता'"ति एवं वा एत्थ योजना ।
तपोजिगुच्छावादवण्णना ५५. पकता हुत्वा विच्छिन्ना विष्पकताति आह “अनिहिताव हुत्वा ठिता'ति । ५६. वीरियेन पापजिगुच्छनवादोति लखपटिपत्तिसाधनेन वीरियेन
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(२.५७-५८)
अत्ततण्हाविनोदनवसेन पापकस्स जिगुच्छनवादो। जिगुच्छतीति जिगुच्छो, तब्भावो जेगुच्छं, अधिकं जेगुच्छं अधिजेगुच्छं, अतिविय पापजिगुच्छनं, तस्मिं अधिजेगुच्छे। कायदळहीबहुलं तपतीति तपो, अत्तकिलमथानुयोगवसेन पवत्तं वीरियं, तेन कायदळहीबहुलतानिमित्तस्स पापस्स जिगुच्छनं, विरज्जनम्पि तपोजिगुच्छाति आह "वीरियेन पापजिगुच्छा"ति । घासच्छादनसेनासनतण्हाविनोदनमुखेन अत्तस्नेहविरज्जनन्ति अत्थो। उपरि वुच्चमानेसु नानाकारेसु अचेलकादिवतेसु एकझं समादिन्नानं परिसोधनमेवेत्थ पारिपूरणं, न सब्बेसं अनवसेसतो समादानं तस्स असम्भवतोति आह "परिपुण्णाति परिसुद्धा"ति । परिसोधनञ्च नेसं सकसमयसिद्धेन नयेन पटिपज्जनमेव । विपरियायेन अपरिसुद्धता वेदितब्बा ।
५७. "एकं पहम्पि न कथेती"ति पठमं अत्तना पुच्छितपञ्हस्स अकथितत्ता वुत्तं ।
तपनिस्सितकोति अत्तकिलमथानुयोगसङ्घातं तपं निस्साय समादाय वत्तनको । सीहनादेति सीहनादसुत्तवण्णनायं । यस्मा तत्थ वित्थारितनयेन वेदितब्बानि, तस्मा तस्सा अत्थप्पकासनाय वुत्तनयेनपि वेदितब्बानि ।
उपक्किलेसवण्णना
५८. "सम्मा आदियती"ति वत्वा सम्मा आदियनञ्चस्स दळहग्गाहो एवाति आह "दळ्हं गण्हाती"ति। "सासनावचरेनापि दीपेतब्ब''न्ति वत्वा तं दस्सेतुं "एकच्चो ही"तिआदि वुत्तं, तेन धुतङ्गधरतामत्तेन अत्तमनता, परिपुण्णसङ्कप्पता सम्मापटिपत्तिया उपक्किलेसोति इममत्थं दस्सेति, न यथावुत्ततपसमादानधुतङ्गधरतानं सतिपि अनिय्यानिकत्ते सदिसतन्ति दट्ठब्बं ।
"दुविधस्सापीति 'अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो'ति च एवं उपक्किलेसभेदेन वुत्तस्स दुविधस्सापि तपस्सिनो''ति केचि । यस्मा पन अट्ठकथायं सासनिकवसेनापि अत्थो दीपितो, तस्मा बाहिरकस्स, सासनिकस्स चाति एवं दुविधस्सापि तपस्सिनोति अत्थो वेदितब्बो। तथा चेव हि उपरिपि अत्थवण्णनं वक्खतीति । एत्तावताति यदिदं “को अञ्जो मया सदिसो''ति एवं अतिमानस्स, अनिहितकिच्चस्सेव च "अलमेत्तावता''ति एवं अतिमानस्स च उप्पादनं, एत्तावता ।
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(२.५९-६२ )
उपक्किलेसवण्णना
उक्कंसतीति उक्कट्टं करोति । उक्खिपतीति असं उपरि खिपति, पग्गहाती अत्थो । परं संहारेतीति परं संहरं निहीनं करोति । अवक्खिपतीति अधो खिपति, अवमञ्ञतीति अत्थो ।
मानमदकरणेनाति मानसङ्घातस्स मदरस करणेन उप्पादनेन । मुच्छितो होती ति मुच्छापन्नो होति सा पन मुच्छापत्ति अभिज्झासीलब्बतपरामासकायगन्थेहि गधितचित्तता, तत्थ च अतिलग्गभावोति आह “गधितो अज्झोसन्नो 'ति । पमज्जनञ्चेत्थ पमज्जनमेवाति आह “पमादमापज्जती”ति । केवलं धुतङ्गसुद्धिको हुत्वा कम्मट्ठानं अननुयुञ्जन्तो य एव धुतङ्गसुद्धिकताय अत्तुक्कंसनादिवसेन पवत्तेय्याति दस्सेतुं “सासने "तिआदि वृत्तं । तेनाह “धुतङ्गमेव... पे०... पच्चेती 'ति ।
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५९. तेयेव पच्चया । सुट्टु कत्वा पटिसङ्घरित्वा लद्धाति आदरगारवयोगेन सक्कच्चं अभिसङ्घरित्वा दानवसेन उपनयवसेन लद्धा । वण्णभणनन्ति गुणकित्तनं । अस्साति तपस्सिनो ।
६०. वोदासन्ति ब्यासनं, विभज्जनन्ति अत्थो । तं पनेत्थ विभज्जनं द्विधा इच्छितन्ति आह " द्वेभागं आपज्जती 'ति । द्वे भागे करोति रुच्चनारुच्चनवसेन । गेधजातोति सञ्जातगेधो । मुच्छनं नाम सतिविप्पवासेनेव होति, न सतिया सतीति आह "समुट्ठस्सती 'ति । आदीनवमत्तम्पीति गधितादिभावेन परिभोगे आदीनवमत्तम्पि न पस्सति । मत्तताति परिभोगे मत्तञ्ञता । पच्चवेक्खणपरिभोगमत्तम्पीति पच्चवेक्खणमत्तेन परिभोगम्पि एकवारं पच्चवेक्खित्वापि परिभुञ्जनम्पि न करोति ।
६१. विचक्कसण्ठानाति विपुलतमचक्कसण्ठाना । सब्बस्स भुञ्जनतो अयोकूटसदिसा दन्ता एव दन्तकूटं । अपसादेतीति पसादेति । अचेलकादिवसेनाति अचेलकवतादिवसेन । लूखाजीविन्ति सल्लेखपटिपत्तिया लूखजीविकं ।
६२. तपं करोतीति भावनामनसिकारलक्खणं तपं चरति चरन्तो विय होति । चङ्कमं ओतरति भावनं अनुयुञ्जन्तो विय । विहारङ्गणं सम्मज्जति वत्तपटिपत्तिं पूरेन्तो विय ।
" आदस्सयमानो "ति वा पाठो ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(२.६३-६४)
किञ्चि वज्जन्ति किञ्चि कायिकं वा वाचसिकं वा दोसं। दिद्विगतन्ति विपरीतदस्सनं । अरुच्चमानन्ति अत्तनो सिद्धन्ते पटिक्खित्तभावेन अरुच्चमानं । रुच्चति मेति “कप्पति मे"ति वदति। अनुजानितब्बन्ति तच्छाविपरीतभूतभावेन "एवमेत"न्ति अनुजानितब्बं । सवनमनोहारिताय “साधु सुटू"ति अनुमोदितब्बं ।
६३. कुज्झनसीलताय कोधनो। वुत्तलक्खणो उपनाहो एतस्स अत्थीति उपनाही। एवंभूतो च तंसमङ्गी होतीति “समनागतो होती"ति वुत्तं । एस नयो इतो परेसुपि ।
___ अयं पन विसेसो - इस्सति उसूयतीति उस्सुकी। सठनं असन्तगुणसम्भावनं सठो, सो एतस्स अत्थीति सठो। सन्तदोसपटिच्छादनसभावा माया, माया एतस्स अत्थीति मायावी। गरुठ्ठानियानम्पि पणिपाताकरणलक्खणं थम्भनं थद्धं, तमेत्थ अत्थीति थद्धो। गुणेहि समानं, अधिकञ्च अतिक्कमित्वा निहीनं कत्वा मञनसीलताय अतिमानी। असन्तगुणसम्भावनत्थिकतासङ्घाता पापा लामका इच्छा एतस्साति पापिच्छो। मिच्छा विपरीता दिट्ठि एतस्साति मिच्छादिट्ठिको। “इदमेव सच्चं, मोघमञ्जन्ति (म० नि० १८७, २०२, ४२७; ३.२७, २९; उदा० ५५; महानि० २०; नेत्ति० ५८) एवं अत्तना अत्ताभिनिविठ्ठताय सता दिट्टि सन्दिहि, तमेव परामसतीति सन्दिट्ठिपरामासी। अट्ठकथायं पन “सयं दिट्ठि सन्दिट्ठी''ति वत्थुवसेन अत्थो वुत्तो। आ बाळ्हं विय धीयतीति आधानन्ति आह "दहें सुट्ट ठपित"न्ति । यथागहितं गाहं पटिनिस्सज्जनसीलो पटिनिस्सग्गी, तप्पटिक्खेपेन दुप्पटिनिस्सग्गी। पटिसेधत्थो हि अयं दु-सद्दो यथा “दुप्पञो, (म० नि० १.४४९) दुस्सीलो"ति (अ० नि० २.५.२१३; ३.१०.७५; पारा० १९५; ध० प० ३०८) च ।
परिसुद्धपपटिकप्पत्तकथावण्णना
६४. इध निग्रोध तपस्सीति यथानुक्कन्तं पुरिमपाळिं निगमनवसेन एकदेसेन दस्सेति । तेनाह “एवं भगवा"तिआदि । गहितलद्धिन्ति “अचेलकादिभावो सेय्यो, तेन च संसारसुद्धि होती"ति एवं गहितलद्धिं । रक्खितं तपन्ति ताय लद्धिया समादियित्वा रक्खितं अचेलकवतादितपं। “सब्बमेव संकिलिट्ठ"न्ति इमिना यं वक्खति परिसुद्धपाळिवण्णनायं “लूखतपस्सिनो चेव धुतङ्गधरस्स च वसेन योजना वेदितब्बा"ति (दी० नि० अट्ठ० ३.६४), तस्स परिकप्पितरूपस्स लूखस्स तपस्सिनोति अयमेत्थ
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परिसुद्धतचप्पत्तादिकथावण्णना
अधिप्पायोति दस्सेति । " परिसुद्धपाळिदस्सनत्थ "न्ति च इमिना तित्थियानं वसेन पाळि येवेत्थ लब्भति, न पन तदत्थोति दस्सेति । वृत्तविपक्खवसेनाति वुत्तस्स अत्थस्स परिपक्खवसेन, पटिक्खेपवसेनाति अत्थो। तस्मिं ठानेति हेतुअत्थे भुम्मन्ति तस्स हेतु अत्थेन करणवचनेन अत्थं दस्सेन्तो “एवं सो तेनाति आदिमाह । उत्तरि वायममानोति यथासमादिन्नहि धुतधम्मेहि अपरितुट्ठो, अपरियोसितसङ्कप्पो च हुत्वा उपरि भावनानुयोगवसेन सम्मावायामं करोन्तो ।
(२.६९-७४)
६९. इतो परन्ति इतो यथावुत्तनयतो परं । अग्गभावं वा सारभावं वाति तपोजिगुच्छाय अग्गभावं वा सारभावं वा अजानन्तो । " अयमेवस्स अग्गभावो सारभावो 'ति मञ्ञमानो "अग्गप्पत्ता, सारप्पत्ता चा "ति आह ।
परिसुद्धतचप्पत्तादिकथावण्णना
७०. यमनं संयमनं यामो, हिंसादीनं अकरणवसेन चतुब्बिधो यामोव चातुयामो, सो एव संवरो, तेन संवुतो गुत्तसब्बद्वारो चातुयामसंवरसंवुतो । तेनाह “चतुब्बिधेन संवरेन पिहितो 'ति । अतिपातनं हिंसनन्ति आह "पाणं न हनती 'ति । लोभचित्तेन भावितं सम्भावितन्ति कत्वा भावितं नाम पञ्च कामगुणा । अयञ्च तेसु तेसंयेव समुदाचारो मग्गोट्ठापकं वियाति आह “तेसं सञ्ञाया" ति ।
एतन्ति अभिहरणं, नाय अनावत्तनञ्च । तेनाह " सो अभिहरतीति आदिलक्खण "न्ति । अभिहरतीति अभिबुद्धिं नेति । तेनाह " उपरूपरि वड्ढेती "ति । चक्कवत्तिनापि पब्बजितस्स अभिवादनादि करीयतेवाति पब्बज्जा सेट्ठा गुणविसेसयोगतो, दोसविरहिततो च यतो सा पण्डितपञ्ञत्ता वृत्ता । गिहिभावो पन निहीनो तदुभयाभावतोति आह " हीनाय गिहिभावत्थाया ''ति ।
७१. तप्त्ताति तचं पत्ता, तचसदिसा होतीति अत्थो ।
तित्थियानं वसेनाति तित्थियानं समयवसेन । नेसन्ति तित्थियानं । तन्ति सीलसम्पदाति सब्बाकारसम्पन्नं चतुपारिसुद्धिसीलं । तचसारसम्पत्तितोति तचतपोजिगुच्छायासारसम्पत्तितो । विसेसभावन्ति विसेससभावं ।
७४.
दिब्बचक्खु ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
अचेलकपाळिमत्तम्पीति अचेलकपाळिआगतत्थमत्तम्पि नत्थि, तस्मा मयं अनस्साम विट्ठाति अत्थो । अ-कारो वा निपातमत्तं, नस्सामाति विनस्साम । कुतो परिसुद्धपाळीति कुतो एव अम्हेसु परिसुद्धपाळि आगतपटिपत्ति । एस नयो सेसेसुपि । सुतिवसेनापीति सोतपथागमनमत्तेनापि न जानाम ।
निग्रोधस्सपज्झायनवण्णना
७५.
अस्साति सन्धानस्स गहपतिस्स । कक्खळन्ति फरुसं । दुरासदवचनन्ति अवत्तब्बवचनं । यस्मा फरुसवचनं यं उद्दिस्स पयुत्तं तस्मिं खमापिते खमापकस्स पटिपाकतिकं होति, तस्मा " अयं मयी "तिआदि वृत्तं ।
(२.७५-७८)
७६. बोधत्थाय धम्मं देसेति, न अत्तनो बुद्धभावघोसनत्थाय । वादत्थायाति परवादभञ्जनवादत्थाय । रागादिसमनत्थाय धम्मं देसेति, न अन्तेवासिकम्यताय । ओघनित्थरणत्थायाति चतुरोघनित्थरणत्थाय धम्मं देसेति सब्बसो ओरपारातिण्णमावहत्ता सनाय । सब्बकिलेसपरिनिब्बानत्थाय धम्मं देसेति किलेसानं लेसेनपि देसनाय अपरामट्टभावतो ।
ब्रह्मचरियपरियोसानादिवण्णना
७७. इदं सब्बम्पीति सत्तवस्सतो पट्ठाय याव " सत्ताह"न्ति पदं, इदं सब्बम्पि वचनं । असठो पन अमायावी उजुजातिको तिक्खपञ्ञ उग्घटितद्भूति अधिप्पायो । सो हि तंमुहुत्तेनेव अरहत्तं पत्तुं सक्खिस्सतीति । वङ्कवङ्कोति कायवङ्कादीहिपि वङ्केहि वङ्को जिम्हो कुटिलो । “सटं पनाहं अनुसासितुं न सक्कोमी " ति न इदं भगवा किलासुभावेनेव वदति, अथ खो तस्स अभाजनभावेनेव ।
७८. पकतिया आचरियोति यो एव तुम्हाकं इतो पुब्बे पकतिया आचरियो अहोसि, सो एव इदानिपि पुब्बाचिण्णवसेन आचरियो होतु, न मयं तुम्हे अन्तेवासिके कातुकामाति अधिप्पायो । न मयं तुम्हाकं उद्देसेन अत्थिका, धम्मतन्ति मेव पन तुम्हे आपेतुकामम्हाति अधिप्पायो । आजीवतोति जीविकाय वुत्तितो । अकुसलाति कोट्ठासं पत्ताति अकुसलाति तं तं कोट्ठासतंयेव उपगता । किलेसदरथसम्पयुत्ताति किलेसदरथसहिता
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(२.७९-७९)
ब्रह्मचरियपरियोसानादिवण्णना
तंसम्बन्धनतो । जातिजरामरणानं हिताति जातिजरामरणिया। संकिलेसो एत्थ अस्थि, संकिलेसे वा नियुत्ताति संकिलेसिका। वोदानं वुच्चति विसुद्धि, तस्स पच्चयभूतत्ता वोदानिया। तथाभूता चेते वोदापेन्तीति आह “सत्ते वोदापेन्ती"ति। सिखाप्पत्ता पञ्जाय पारिपूरिवेपुल्लता मग्गफलवसेनेव इच्छितब्बाति आह "मग्गपञ्जा...पे०... वेपुल्लत"न्ति । उभोपि वा एतानि पारिपूरिवेपुल्लानि । या हि तस्स पारिपूरी, सा एव वेपुल्लताति । ततोतिसंकिलेसधम्मप्पहानवोदानधम्माभिबुद्धिहेतु ।
७९. “यथा मारेना"ति नयिदं निदस्सनवसेन वुत्तं, अथ खो तथाभावकथनमेवाति दस्सेतुं "मारो किरा"तिआदि वुत्तं । अथाति मारेन तेसं परियुट्ठानप्पत्तितो पच्छा अञासीति योजना। कस्मा पन भगवा पगेव न अज्ञासीति ? अनावज्जितत्ता। मारं पटिबाहित्वाति मारेन तेसु कतं परियुट्ठानं विधमत्वा, न तेसं सति पयोजने बुद्धानं दुक्करं । सोति मग्गफलुप्पत्तिहेतु । तेसं परिब्बाजकानं ।।
फुट्ठाति परियुट्ठानवसेन फुट्ठा । यत्राति निद्धारणे भुम्मन्ति आह “येसू"ति । अजाणत्थन्ति आजाननत्थं, उपसग्गमत्तञ्चेत्थ आ-कारोति आह "जाननत्थ"न्ति, वीमंसनत्थन्ति अत्थो । चित्तं नुप्पन्नन्ति “जानाम तावस्स धम्म''न्ति आजाननत्थं "ब्रह्मचरियं चरिस्सामा''ति एकस्मिं दिवसे एकवारम्पि तेसं चित्तं नुप्पन्नं । सत्ताहो पन वुच्चमानो एतेसं किं करिस्सतीति योजना | सत्ताहं पूरेतुन्ति सत्ताहं ब्रह्मचरियं पूरेतुं, ब्रह्मचरियवसेन वा सत्ताहं पूरेतुन्ति अत्थो। परवादभिन्दनन्ति परवादमद्दनं । सकवादसमुस्सापनन्ति सकवादपग्गण्हनं । वासनायाति सच्चसम्पटिवेधवासनाय । नेसन्ति च पकरणवसेन वुत्तं । तद सम्पि हि भगवतो सम्मुखा, परम्पराय च देवमनुस्सानं सुणन्तानं वासनाय पच्चयो एवाति । यं पनेत्थ अत्थतो न विभत्तं, तं सुविनेय्यमेवाति ।
उदुम्बरिकसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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३. चक्कवत्तिसुत्तवण्णना
अत्तदीपसरणतावण्णना ८०. उत्तानं वुच्चति पाकटं, तप्पटिक्खेपेन अनुत्तानं अपाकटं, पटिच्छन्नं, अपचुरं, दुविनेय्यञ्च । अनुत्तानानं पदानं वण्णना अनुत्तानपदवण्णना। उत्तानपदवण्णनाय पयोजनाभावतो अनुत्तानग्गहणं । “मातुला"ति इथिलिङ्गवसेन लद्धनामो एको रुक्खो, तस्सा आसन्नप्पदेसे मापितत्ता नगरम्पि “मातुला" त्वेव पञायित्थ । तेन वुत्तं "मातुलायन्ति एवं नामके नगरे"ति । अविदूरेति तस्स नगरस्स अविदूरे ।
कामञ्चेत्थ सुत्ते “भूतपुब्बं, भिक्खवे, राजा दळहनेमि नाम अहोसी"तिआदिना अतीतवंसदीपिका कथा आदितो पट्ठाय आगता, “अड्डतेय्यवस्ससतायुकानं मनुस्सानं वस्ससतायुका पुत्ता भविस्सन्ती"तिआदिना पन सविसेसं अनागतत्थपटिसंयुत्ता कथा आगताति वुत्तं "अनागतवंसदीपिकाय सुत्तन्तकथाया'ति । अनागतत्थदीपनहि अच्छरियं, तत्थापि अनागतस्स सम्मासम्बुद्धस्स पटिपत्तिकित्तनं अच्छरियतमं । समागमेनाति सन्निपातेन ।
__ "भत्तग्गं अमनाप"न्तिआदि केवलं तेसं परिवितक्कमत्तं । अमनापन्ति अमनुछ । बुद्धेसु कतो अप्पकोपि अपराधो अप्पको कारो विय गरुतरविपाकोति आह "बुद्धेहि सद्धिं...पे०... सदिसं होती"ति । तत्राति तस्मिं मातुलनगरस्स समीपे, तस्सं वा परिसायं ।
___ अत्तदीपाति एत्थ कामं यो परो न होति, सो अत्ताति ससन्तानो “अत्ताति वुच्चति, हितसुखेसिभावेन पन अत्तनिब्बिसेसत्ता धम्मो इध “अत्ता''ति अधिप्पेतो । तेनाह "अत्ता नाम लोकियलोकुत्तरो धम्मो"ति । द्विधा आपो गतो एत्थाति दीपो, ओघेन
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(३.८०-८०)
अत्तदीपसरणतावण्णना
अनज्झोत्थतो भूमिभागो। इध पन कामोघादीहि अनज्झोत्थरणीयत्ता दीपो वियाति दीपो, अत्ता दीपो पतिठ्ठा एतेसन्ति अत्तदीपा। तेनाह "अत्तानं दीप"न्तिआदि । दीपभावो चेत्थ पटिसरणताति आह "इदं तस्सेव वेवचन"न्ति । अञसरणपटिक्खेपवचनन्ति अञसरणभावपटिक्खेपवचनं । इदहि न अझं सरणं कत्वा विहरणस्सेव पटिखेपवचनं, अथ खो अञस्स सरणसभावस्सेव पटिक्खेपवचनं तप्पटिक्खेपे च तेन इतरस्सापि पटिक्खेपसिद्धितो । तेनाह "न ही"तिआदि । इदानि तमेवत्थं सुत्तन्तरेन साधेतुं "वुत्तम्पि चेत"न्तिआदि । यदि एत्थ पाकतिको अत्ता इच्छितो, कथं तस्स दीपसरणभावो, तस्मा अधिप्पायिको एत्थ अत्ता भवेय्याति पुच्छति "को पनेत्थ अत्ता नामा"ति । इतरो यथाधिप्पेतं अत्तानं दस्सेन्तो "लोकियलोकुत्तरो धम्मो"ति । दुतियवारोपि पठमवारस्सेव परियायभावेन देसितोति दस्सेतुं “तेनाहा"तिआदि वुत्तं ।
___ गोचरेति भिक्खूनं गोचरट्ठानभूते । तेनाह "चरितुं युत्तट्ठाने"ति । सकेति कथं पनायं भिक्खूनं सकोति आह "पेत्तिके विसये"ति । पितितो सम्मासम्बुद्धतो आगतत्ता "अयं तुम्हाकं गोचरो''ति तेन उद्दिट्टत्ता पेत्तिके विसयेति । चरन्तन्ति सामिअत्थे उपयोगवचनन्ति आह “अयमेवत्थो"ति, चरन्तानन्ति च अत्थो, तेनायं विभत्तिविपल्लासेनपि वचनविपल्लासेनपीति दस्सेति । किलेसमारस्स ओतारालाभेनेव इतरमारानम्पि ओतारालाभो वेदितब्बो । अयं पनत्थोति गोचरे चरणं सन्धायाह, वत्थु पन ब्यतिरेकमुखेन आगतं ।
__ सकुणे हन्तीति सकुणग्धि, महासेनसकुणो। अज्झप्पत्ताति अभिभवनवसेन पत्ता उपगता। न म्यायन्ति मे अयं सकुणग्धि नालं अभविस्स। नङ्गलकट्ठकरणन्ति नङ्गलेन कसितप्पदेसो । लेड्डुवानन्ति लड्डूनं उट्ठपितवानं । सके बलेति अत्तनो बलहेतु। अपत्थद्धाति अवगाळ्हत्थम्भा सञ्जातत्थम्भा । अस्सरमानाति अव्हायन्ती ।
महन्तं लेड्डुन्ति नङ्गलेन भिन्नट्ठाने सुक्खताय तिखिणसिङ्गअयोधनसदिसं महन्तं लेड्डु । अभिरुहित्वाति तस्स अधोभागेन अत्तना पविसित्वा निलीनयोग्गप्पदेसं सल्लक्खेत्वा तस्सुपरि चङ्कमन्तो अस्सरमानो अट्ठासि। “एहि खो"तिआदि तस्स अस्सरमानाकारदस्सनं । सन्नयहाति वातग्गहणवसेन उभो पक्खे समं ठपेत्वा । पच्युपादीति पाविसि । तत्थेवाति यत्थ पुब्बे लापो ठितो, तत्थेव लेड्डुम्हि | उरन्ति अत्तनो उरप्पदेसं । पच्चताळेसीति पति अताळेसि सारम्भवसेन वेगेन गन्त्वा पहरणतो विधारेन्ती पताळेसि । आरम्मणन्ति पच्चयं । “अवसर"न्ति केचि।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(३.८१-८१)
"कुसलान''न्ति एवं पवत्ताय देसनाय को अनुसन्धि ? यथाअनुसन्धि एव । आदितो हि “अत्तदीपा, भिक्खवे, विहरथा''तिआदिना (दी० नि० ३.८०) येव अत्तधम्मपरियायेन लोकियलोकुत्तरधम्मा गहिता, ते येवेत्थ कुसलग्गहणेन गहिताति । अनवज्जलक्खणानन्ति अवज्जपटिपक्खसभावानं । “अवज्जरहितसभावान''न्ति केचि । तत्थ पुरिमे अत्थविकप्पे विपाकधम्मधम्मा एव गहिता, दुतिये पन विपाकधम्मापि । यदि एवं, कथं तेसं समादाय वत्तनन्ति ? न खो पनेतं एवं दट्ठब्बं “विपाकधम्मा सीलादि विय समादाय वत्तितब्बा''ति । समादानन्ति पन अत्तनो सन्ताने सम्मा आदानं पच्चयवसेन पवत्ति येवाति दट्ठब्बं । विपाकधम्मा हि पच्चयविसेसेहि सत्तसन्ताने सम्मदेव आहिता आयुआदिसम्पत्तिविसेसभूता उपरूपरिकुसलविसेसुप्पत्तिया उपनिस्सया होन्तीति वदन्ति । पुलं पवडतीति एत्थ पुञ्जन्ति उत्तरपदलोपेनायं निद्देसोति आह "पुञफलं वडती"ति । पुञफलन्ति च एकदेससरूपेकसेसेन वुत्तं “पुञञ्च पुञफलञ्च पुञफल''न्ति आह "उपरूपरि पुजम्पि पुज्ञविपाकोपि वेदितब्बो'"ति ।।
"मातापितून"न्तिआदि निदस्सनमत्तं, तस्मा अझम्पि एवरूपं हेतूपनिस्सयं कुसलं दट्ठब्बं । सिनेहवसेनाति उपनिस्सयभूतस्स सिनेहस्स वसेन, न सम्पयुत्तस्स । न हि सिनेहसम्पयुत्तं नाम कुसलं अस्थि । मुदुमद्दवचित्तन्ति मेत्तावसेन अतिविय मद्दवन्तं चित्तं । यथा मत्थकप्पत्तं वट्टगामिकुसलं दस्सेतुं “मातापितूनं ...पे०... मुदुमद्दवचित्त"न्ति वुत्तं, एवं मत्थकप्पत्तमेव विवट्टगामिकुसलं दस्सेतुं "चत्तारो सति...पे०... बोधिपक्खियधम्मा"ति वुत्तं । तदोपि पन दानसीलादिधम्मा वट्टस्स उपनिस्सयभूता वट्टगामिकुसलं विवट्टस्स उपनिस्सयभूता विवट्टगामिकुसलन्ति वेदितब्बा । परियोसानन्ति फलविसेसावहताय फलदाय कोटि सिखाप्पत्ति, देवलोके च पवत्तिसिरिविभवोति परियोसानं "मनुस्सलोके"ति विसेसितं, मनुस्सलोकवसेनेव चायं देसना आगताति। मग्गफलनिब्बानसम्पत्ति परियोसानन्ति योजना। विवट्टगामिकुसलस्स विपाकं सुत्तपरियोसाने दस्सिस्सति “अथ खो, भिक्खवे, सङ्घो नाम राजा''तिआदिना (दी० नि० ३.१०८)।
दळ्हनेमिचक्कवत्तिराजकथावण्णना
८१. इधाति इमस्मिं “कुसलानं, भिक्खवे, धम्मान"न्तिआदिना (दी० नि० ३.११०) सुत्तदेसनाय आरद्धट्ठाने वट्टविवट्टगामिभावेन साधारणे कुसलग्गहणे। तत्थ वट्टगामिकुसलानुसन्धिवसेन "भूतपुब्बं भिक्खवे"ति देसनं आरभि, आरभन्तो च
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(३.८२-८४)
देसियमानमत्तं । धम्मपटिग्गाहकानं भिक्खूनं सङ्क्षेपतो एवं दीपेत्वा आरभीति दस्सेतुं “भिक्खवे 'तिआदि वृत्तं पठमं तथा अदीपेन्तोपि भगवा अत्थतो दीपेति वियाति अधिप्पायो ।
चक्कवत्तिअरियवत्तवण्णना
८२. ईसकम्पीति अप्पमत्तकम्पि । अवसक्कितन्ति ओगतभट्टं । नेमिअभिमुखन्ति नेमिप्पदेसस्स सम्मुखा । बन्धिंसु चक्करतनस्स ओसक्कितानोसक्कितभावं जानितुं । तदेतन्ति यथावुत्तट्ठाना चवनं । अतिबलवदोसेति रञ्ञो बलवति अनत्थे उपट्टिते सति ।
अप्पमत्तोति रञ्ञो आणाय पमादं अकरोन्तो ।
एकसमुद्दपरियन्तमेवाति जम्बुदीपमेव सन्धाय वदति । सो उत्तरतो अस्सकण्णपब्बतेन परिच्छिन्नं हुत्वा अत्तानं परिक्खिपित्वा ठितएकसमुद्दपरियन्तो । पुञ्ञिद्धिवसेनाति चक्कवत्तिभावावहाय पुञ्ञिद्धिया वसेन ।
८३.
एवं कत्वाति कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा । सुकतं कम्मन्ति दसकुसलकम्मपथमेव वदति ।
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" दसविधं द्वादसविध"न्ति च वृत्तविभागो परतो आगमिस्सति । पूरेन्तेनेवाति पूरेत्वा ठितेनेव । निद्दोसेति चक्कवत्तिवत्तस्स पटिपक्खभूतानं दोसानं अपगमने निद्दोसे | चक्कवत्तीनं वत्तेति चक्कवत्तिराजूहि वत्तितब्बवत्ते । भाविनि भूते विय हि उपचारो यथा 'अगमा राजगहं बुद्धो 'ति ( सु० नि० ४१० ) । अधिगतचक्कवत्तिभावापि हि ते तत्थ वत्तन्तेवाति तथा वृत्तं ।
""
चक्कवत्तिअरियवत्तवण्णना
८४. अञ्ञथा वत्तितुं अदेन्तो सो धम्मो अधिट्ठानं एतस्साति तदधिट्ठानं, तेन तदधिट्ठानेन चेतसा । सक्करोन्तोति आदरकिरियावसेन करोन्तो । तेनाह “यथा "तिआदि | गरुं करोन्तोति पासाणच्छत्तं विय गरुकरणवसेन गरुं करोन्तो । तेनेवाह " तस्मिं गाखुप्पत्तिया "ति । मानेन्तोति सम्भावनावसेन मनेन पियायन्तो । तेनाह " तमेवा "तिआदि । एवं पूजयतो अपचायतो एवञ्च यथावुत्तसक्कारादिसम्भवोति तं दस्सेतुं “तं
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(३.८४-८४)
अपदिसित्वा"तिआदि वुत्तं । "धम्माधिपतिभूतो आगतभावेना"ति इमिना यथावुत्तधम्मस्स जेटकभावेन पुरिमपुरिमतरअत्तभावेसु सक्कच्च समुपचितभावं दस्सेति । "धम्मवसेनेव सब्बकिरियानं करणेना"ति एतेन ठाननिसज्जादीसु यथावुत्तधम्मनिन्नपोणपब्भारभावं दस्सेति । अस्साति रक्खावरणगुत्तिया । परं रक्खन्तो अझं दिठ्ठधम्मिकादिअनत्थतो रक्खन्तो तेनेव परत्थसाधनेन खन्तिआदिगुणेन अत्तानं ततो एव रक्खति। मेत्तचित्तताति मेत्तचित्तताय | निवासनपारुपनगेहादीनं सीतुण्हादिपटिबाहनेन आवरणं। अन्तो जनस्मिन्ति अब्भन्तरभूते पुत्तदारादिजने।
"सीलसंवरे पतिद्वापेही"ति इमिना रक्खं दस्सेति, “वत्थगन्धमालादीनि देही"ति इमिना आवरणं, इतरेन गुत्तिं । भत्तवेतनसम्पदानेनपीति पि-सद्देन सीलसंवरे पतिट्ठापनादीनि सम्पिण्डेति । एसेव नयो इतो परेसुपि पि-सद्दग्गहणेसु । निगमो निवासो एतेसन्ति नेगमा, एवं जानपदाति आह "निगमवासिनो"तिआदि ।
नवविधा मानमदाति “सेय्योहमस्मी"तिआदि (सं० नि० २.४.१०८; ध० स० ११२१; विभं० ८६६; महानि० २१, १७८) नयप्पवत्तिया नवविधा मानसङ्खाता मदा । मानो एव हेत्थ पमज्जनाकारेन पवत्तिया मानमदो । सोभने कायिकवाचसिककम्मे रतोति सूरतो उ-कारस्स दीघं कत्वा, तस्स भावो सोरच्चं, कायिकवाचसिको अवीतिक्कमो, सब्बं वा कायवचीसुचरितं । सुट्ठ ओरतोति सोरतो, तस्स भावो सोरच्चं, यथावुत्तमेव सुचरितं । रागादीनन्ति रागदोसमोहमानादीनं । दमनादीहीति दमनसमनपरिनिब्बापनेहि। एकमत्तानन्ति एकं चित्तं, एकच्चं अत्तनो चित्तन्ति अत्थो । रागादीनहि पुब्बभागियं दमनादिपच्चेकं इच्छितब्बं, न मग्गक्खणे विय एकज्झं पटिसङ्खानमुखेन पजहनतो। एकमत्तानन्ति वा विवेकवसेन एकं एकाकिनं अत्तानं । काले कालेति तेसं सन्तिकं उपसङ्कमितब्बे काले काले ।
इध ठत्वाति “इदं खो, तात, त"न्ति एवं निगमनवसेन वुत्तट्ठाने ठत्वा । वत्तन्ति अरियचक्कवत्तिवत्तं । समानेतब्बन्ति “दसविधं, द्वादसविध"न्ति च हेट्ठा वुत्तगणनाय च समानं कातब्बं अनूनं अनधिकं कत्वा दस्सेतब्बं । अधम्मरागस्साति अयुत्तट्ठाने रागस्स । विसमलोभस्साति युत्तट्ठानेपि अतिविय बलवभावेन पवत्तलोभस्स ।
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(३.८५-९१)
चक्करतनपातुभाववण्णना
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चक्करतनपातुभाववण्णना ८५. वत्तमानस्साति परिपुण्णे चक्कवत्तिवत्ते वत्तमानस्स, नो अपरिपुण्णेति आह "पूरेत्वा वत्तमानस्सा'ति । कित्तावता पनस्स पारिपूरी होतीति ? तत्थ “कताधिकारस्स ताव हेट्ठिमपरिच्छेदेन द्वादसहिपि संवच्छरेहि पूरति, पञ्चवीसतिया, पञ्जासाय वा संवच्छरेहि | अयञ्च भेदो धम्मच्छन्दस्सपि तिखमज्झमुदुतावसेन, इतरस्स ततो भिय्योपी''ति वदन्ति ।
दुतियादिचक्कवत्तिकथावण्णना
९०. अत्तनो मतियाति परम्परागतं पुराणं तन्तिं पवेणिं लङ्घित्वा अत्तनो इच्छिताकारेन । तेनाह "पोराणक"न्तिआदि ।
न पब्बन्तीति समिद्धिया न पूरेन्ति, फीता न होन्तीति अत्थो । तेनाह "न वड्डन्ती"ति । तथा चाह "कत्थचि सुआ होन्ती"ति । तत्थ तत्थ राजकिच्चे रा अमा सह वत्तन्तीति अमच्चा, येहि विना राजकिच्चं नप्पवत्तति । परम्परागता हुत्वा रो परिसाय भवाति पारिसज्जा। तेनाह "परिसावचरा"ति । तस्मिं ठानन्तरे ठपिता हुत्वा रञो आयं, वयञ्च याथावतो गणेन्तीति गणका। जातिकुलसुताचारादिवसेन पुथुत्तं गतत्ता महती मत्ता एतेसन्ति महामत्ता, ते पन महानुभावा अमच्चा एवाति आह "महाअमच्चा'ति । ये रञो हत्थानीकादीसु अवट्ठिता, ते अनीकट्ठाति आह "हत्थिआचरियादयो"ति। मन्तं पञ्चं असिता हुत्वा जीवन्तीति मन्तस्साजीविनो, मतिसजीवाति अत्थो, ये तत्थ तत्थ राजकिच्चे उपदेसदायिनो | तेनाह "मन्ता वुच्चति पञ्जा"तिआदि ।
आयुवण्णादिपरिहानिकथावण्णना
९१. बलवलोभत्ताति "इमस्मिं लोके इदानि दलिद्दमनुस्सा नाम बहू, तेसं सब्बेसं धने अनुप्पदियमाने मय्हं कोसस्स परिक्खयो होती"ति एवं उप्पन्नबलवलोभत्ता । उपरूपरिभूमीसूति छकामसग्गसङ्घातासु उपरूपरिकामभूमीसु । कम्मस्स फलं अग्गं नाम, तं पनेत्थ उद्धगामीति आह "उद्धं अग्गं अस्सा"ति । सग्गे नियुत्ता, सग्गप्पयोजनाति वा सोवग्गिका। दसन्नं विसेसानन्ति दिब्बआयुवण्णयससुखआधिपतेय्यानञ्चेव दिब्बरूपादीनञ्च
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(३.९२-१०३)
फलविसेसानं । वण्णग्गहणेन चेत्थ सको अत्तभाववण्णो गहितो, रूपग्गहणेन बहिद्धा रूपारम्मणं ।
९२. सुट्ट निसिद्धन्ति यथायं इमिना अत्तभावेन अदिन्नं आदातुं न सक्कोति, एवं सम्मदेव ततो निसेधितं कत्वा | मूलहतन्ति जीविता वोरोपनेन मूले एव हतं ।
९६. रागवसेन चरणं चरितं, चरित्तमेव चारित्तं, मेथुनन्ति अधिप्पायो, तं पन “परेसं दारेसूति वुत्तत्ता "मिच्छाचार"न्ति आह ।
१००. पच्चनीकदिट्ठीति “अस्थि दिन्न'न्तिआदिकाय (म० नि० १.४४१, २.९४; विभं० ७९३) सम्मादिट्ठिया पटिपक्खभूता दिट्टि ।
१०१. मातुच्छादिका उपरि सयमेव वक्खति । अतिबलवलोभोति अतिविय बलवा बहलकिलेसो, येन अकाले, अदेसे च पवत्तति । मिच्छाधम्मोति मिच्छा विपरीतो अविसभागवत्थुको लोभधम्मो । तेनाह "पुरिसान"न्तिआदि ।
तस्स भावोति येन मेत्ताकरुणापुब्बङ्गमेन चित्तेन पुग्गलो “मत्तेय्यो"ति वुच्चति, सो तस्स यथावुत्तचित्तुप्पादो, तंसमुट्ठाना च किरिया मत्तेय्यता। तेनाह "मातरि सम्मा पटिपत्तिया एतं नाम"न्ति । या सम्मा पज्जितब्बे सम्मा अप्पटिपत्ति, सोपि दोसो अगारवकिरियादिभावतो । विप्पटिपत्तियं पन वत्तब्बमेव नत्थीति आह "तस्सा अभावो चेव तप्पटिपक्खता च अमत्तेय्यता"ति । कुले जेट्टानन्ति अत्तनो कुले वुद्धानं महापितुचूळपितुजेट्ठकभातिकादीनं ।
दसवस्सायुकसमयवण्णना
१०३. "य"न्ति इमिना समयो आमट्ठो, भुम्मत्थे चेतं पच्चत्तवचनन्ति आह “यस्मिं समये"ति । अलं पतिनोति अलंपतेय्या। तस्सा परियत्तता भरियाभावेनाति आह "दातुं युत्ता'ति । अग्गरसानीति मधुरभावेन, भेसज्जभावेन च अग्गभूतरसानि ।
दिप्पिस्सन्तीति पटिपक्खभावेन समुज्जलिस्सन्ति । तेनाह “कुसलन्तिपि न
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(३.१०४-१०५)
आयुवण्णादिवड्डनकथावण्णना
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भविस्सती''ति । अहो पुरिसोति मातादीसुपि ईदिसो, अञ्जेसं केसं किं विस्सज्जेस्सति, अहो तेजवपुरिसोति ।
गेहे मातुगामं वियाति अत्तनो गेहे दासिभरियाभूतमातुगामं विय। मिस्सीभावन्ति मातादीसु भरियाय विय चारित्तसङ्करं |
बलवकोपोति हन्तुकामतावसेन उप्पत्तिया बलवकोपो। आघातेतीति आहनति, अत्तनो कक्खळफरुसभावेन चित्तं विबाधतीति अत्थो। निस्सयदहनरसो हि दोसो। ब्यापादेतीति विनासेति, मनोपदूसनतो मनस्स पकोपनतो। तिब्बन्ति तिक्खं, सा पनस्स तिक्खता सरीरे अवहन्तेपि सिनेहवत्थु लचित्वापि पवत्तिया वेदितब्बाति आह "पियमानस्सपी"तिआदि ।
१०४. कप्पविनासो कप्पो उत्तरपदलोपेन, अन्तराव कप्पो अन्तरकप्पो। तण्हादिभेदो कप्पो एतस्स अत्थीति कप्पो, सत्तलोकोति आह “अन्तराव लोकविनासो"ति । स्वायं अन्तरकप्पो कतिविधो, कथञ्चस्स सम्भवो, किं गतिकोति अन्तोगधं चोदनं सन्धायाह "अन्तरकप्पो च नामा"तिआदि । लोभुस्सदायाति लोभाधिकाय पजाय वत्तमानाय ।
एवं चिन्तयिंसूति पुब्बे यथानुस्सवानुस्सरणेन, अत्तनो च आयुविसेसस्स लभनतो। गुम्बलतादीहि गहनं ठानन्ति गुम्बलतादीहि सञ्छन्नताय गहनभूतं ठानं । रुक्खेहि गहनन्ति रुक्खेहि निरन्तरनिचितेहि गहनभूतं । नदीविदुग्गन्ति छिन्नतटाहि नदीहि ओरतो, पारतो च विदुग्गं । तेनाह “नदीन"न्तिआदि । पब्बतेहि विसमं पब्बतन्तरं । पब्बतेसु वा छिन्नतटेसु दुरारोहं विसमट्ठानं। सभागेति जीवनवसेन समानभागे सदिसे करिस्सन्ति।
आयुवण्णादिवड्डनकथावण्णना
१०५. आयतन्ति वा दीघं चिरकालिकं । मरणवसेन हि आतिक्खयो आयतो अपुनरावत्तनतो, न राजभयादिना उक्कमनवसेन पुनरावत्तियापि तस्स लब्भनतो । ओसक्केय्यामाति ओरमेय्याम । विरमणम्पि अत्थतो पजहनमेव परिच्चजनभावतोति आह "पजहेय्यामाति अत्थो"ति । सीलगब्भे वड्डितत्ताति मातु, पितु च सीलवन्तताय तदवयवभूते गब्भे वड्डि “सीलगब्भे वड्डिता''ति वुत्ता, एतेन उतुआहारस्स विय तदञस्सापि बाहिरस्स पच्चयस्स वसेन सत्तसन्तानस्स विसेसाधानं होतीति दस्सेति । यं पनेत्थ वत्तब्द, तं
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AAD
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(३.१०६-१०७)
ब्रह्मजालटीकायं (दी० नि० टी० १.७) वुत्तमेव । खेत्तविसुद्धियाति अधिट्ठानभूतवत्थुविसुद्धिया। ननु च तं विसेसाधानं जायमानं रूपसन्ततिया एव भवेय्याति ? सच्चमेतं, रूपसन्ततिया पन तथा आहितविसेसाय अरूपसन्ततिपि लभ्रूपकारा एव होति तप्पटिबद्धवुत्तिभावतो। यथा कबळीकाराहारेन उपत्थम्भिते रूपकाये सब्बोपि अत्तभावो अनुग्गहितो एव नाम होति, यथा पन रञो चक्कवत्तिनो पुञ्जविसेसं उपनिस्साय तस्स इत्थिरतनादीनं अनञसाधारणा ते ते विसेसा सम्भवन्ति तब्भावे भावतो, तदभावे च अभावतो, एवमेव तस्मिं काले मातापितूनं यथावुत्तपुञ्जविसेसं उपनिस्साय तेसं पुत्तानं जायमानानं दीघायुकता खेत्तविसुद्धियाव होतीति वेदितब्बा संवेगधम्मछन्दादिसमुपब्रूहिताय तदा तेसं कुसलचेतनाय तथा उळारभावेन समुप्पज्जनतो । एत्थाति इमस्मिं मनुस्सलोके, तत्थाति यथावुत्तं कुसलधम्म समादाय वत्तमाने सत्तनिकाये | तत्थेवाति तस्मिंयेव सत्तनिकाये । “अत्तनोव सीलसम्पत्तिया"ति वुत्तं ससन्ततिपरियापन्नस्स धम्मस्स तत्थ विसेसप्पच्चयभावतो । खेत्तविसुद्धिपि पन इधापि पटिक्खिपितुं न सक्का ।
कोहासाति चत्तारीसवस्सायुकातिआदयो असीतिवस्ससहस्सायुकपरियोसाना एकादस कोट्ठासा। अदिनादानादीहीति आदि-सद्देन कुले जेठापचायिकापरियोसानानं दसन्नं पापकोट्ठासानं गहणं ।
सङ्घराजउप्पत्तिवण्णना
१०६. एवं उप्पज्जनकतण्हाति एवं वचीभेदं पापनवसेन पवत्ता भुजितुकामता । अनसनन्ति कायिककिरियाअसमत्थताहेतुभूतो सरीरसङ्कोचो। तेनाह “अविष्फारिकभावो"तिआदि । घननिवासतन्ति गामनिगमराजधानीनं घननिविठ्ठतं अञमञस्स नातिदूरवत्तितं । निरन्तरपूरितोति निरन्तरं विय पुण्णो तत्रुपगानं सत्तानं बहुभावतो ।
मेत्तेय्यबुद्धप्पादवण्णना
१०७. किञ्चापि पुब्बे वड्डमानकवसेन देसना आगतं, इदं पन न वड्डमानकवसेन वुत्तं । कस्माति चे आह “न ही"तिआदि । सत्तानं वड्डमानायुककाले बुद्धा न निब्बत्तन्ति संसारे संवेगस्स दुब्बिभावनीयत्ता । ततो वस्ससतसहस्सतो ओरमेव बुद्धप्पादकालो ।
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(३.१०८-१०८)
मेत्तेय्यबुद्धप्पादवण्णना
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१०८. समुस्सितढेन यूपो वियाति यूपो, यूपन्ति एत्थ सत्ता अनेकभूमि कूटागारोवरकादिवन्ततायाति यूपो, पासादो। रञो हेतुभूतेनाति हेतुअत्थे करणवचनन्तिदस्सेतिउस्साहसम्पत्तिआदिना। महता राजानुभावेन, महता च कित्तिसद्देन समन्नागतत्ता चतूहि सङ्गहवत्थूहि महाजनस्स रञ्जनतो महापनादो नाम राजा जातो। जातकेति महापनादजातके (जा० १.३.४० महापनादजातके) ।
पनादो नाम सो राजाति “अतीते पनादो नाम सो राजा अस्सोसी''ति अत्तभावन्तरताय अत्तानं परं विय निद्दिसति । आयस्मा हि भद्दजित्थेरो अत्तना अज्झावुत्थपुब्बं सुवण्णपासादं दस्सेत्वा एवमाह । यस्स यूपो सुवण्णयोति यस्स रो अयं यूपो पासादो सुवण्णयो सुवण्णमयो। तिरियं सोळसुब्बेधोति वित्थारतो सोळससरपातप्पमाणो, सो पन अड्ढयोजनप्पमाणो होति । उन्भमाहु सहस्सधाति उब्भं उच्चभावं अस्स पासादस्स सहस्सधा सहस्सकण्डप्पमाणं आहु, सो पन योजनतो पञ्चवीसतियोजनप्पमाणो होति । केचि पनेत्थ गाथासुखत्थं “आहूति दीघं कतं, अहु अहोसीति अत्थं वदन्ति ।
___ सहस्सकण्डोति सहस्सभूमिको, “सहस्सखण्डो" तिपि पाठो, सो एव अत्थो । सतगेण्डूति अनेकसतनियूहको। धजालूति तत्थ तत्थ नियूहसिखरादीसु पतिठ्ठपितेहि सत्तिधजवीरङ्गधजादीहि धजेहि सम्पन्नो। हरितामयोति चामीकरसुवण्णमयो। केचि पन हरितामयोति “हरितमणिपरिक्खटो''ति वदन्ति । गन्धब्बाति नटा। छसहस्सानि सत्तधाति छमत्तानि गन्धब्बसहस्सानि सत्तधा तस्स पासादस्स सत्तसु ठानेसु रञो अभिरमापनत्थं नच्चिंसूति अत्थो । ते एवं नच्चन्तापि किर राजानं हासेतुं नासक्खिंसु । अथ सक्को देवराजा देवनटं पेसेत्वा समज्जं कारेसि, तदा राजा हसीति ।।
कोटिगामो नाम मापितो। वत्थूति भद्दजित्थेरस्स वत्थु । तं थेरगाथावण्णनायं (थेरगा० अट्ठ० भद्दजित्थेरगाथावण्णनाय) वित्थारतो आगतमेव । इतरस्साति नळकारदेवपुत्तस्स | आनुभावाति पुञानुभावनिमित्तं ।
दानवसेन दत्वाति तं पासादं अत्तनो परिग्गहभाववियोजनेन दानमुखे नियोजत्वा । विस्सज्जेत्वाति चित्तेनेव परिच्चजनवसेन दत्वा पुन दक्खिणेय्यानं सन्तकभावकरणेन निरपेक्खपरिच्चागवसेन विस्सज्जेत्वा । एत्तकेनाति "भूतपुब्बं भिक्खवे"ति आदि कत्वा याव “पब्बजिस्सती''ति पदं एत्तकेन देसनामग्गेन ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(३.११०-११०)
भिक्खुनो आयुवण्णादिवड्डनकथावण्णना ११०. इदं भिक्खुनो आयुस्मिन्ति आयुस्मिं साधेतब्बे इदं भिक्खुनो इच्छितब्बं चिरजीविताय हेतुभावतोति । तेनाह "इदं आयुकारण"न्ति |
सम्पन्नसीलस्स अविप्पटिसारपामोज्जपीतिपस्सद्धिसुखसमाधियथाभूतञाणादिसम्भवतो तंसमुट्ठानपणीतरूपेहि कायस्स फुटत्ता सरीरे वण्णधातु विप्पसन्ना होति, कल्याणो च कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छतीति आह “सीलवतो ही"तिआदि ।
विवेकजं पीतिसुखादीति आदि-सद्देन समाधिजं पीतिसुखं, अपीतिजं कायसुखं, सतिपारिसुद्धिजं उपेक्खासुखञ्च सङ्गण्हाति ।
अप्पटिक्कूलतावहोति अप्पमाणानं सत्तानं, अत्तनो च तेसु अप्पटिक्कूलभावतो । हितूपसंहारादिवसेन पवत्तिया सब्बदिसासु फरणअप्पमाणवसेन सब्बदिसासु विप्फारिकता ।
बल''न्ति
वुत्तं
तस्स
अकुप्पधम्मताय
केनचि
"अरहत्तफलसङ्घातं अनभिभवनीयभावतो।
"लोके"ति इदं यथा “एकबलम्पी"ति इमिना सम्बन्धीयति, एवं “दुप्पसहं दुरभिसम्भवन्ति इमेहिपि सम्बन्धितब्बं । लोकपरियापन्नेहेव हि धम्मेहि तेसं बलस्स दुप्पसहता, दुरभिसम्भवता, न लोकुत्तरेहीति । एत्थेवाति एतस्मिं अरहत्तफले एव, तदत्थन्ति अत्थो ।
लोकुत्तरपुञम्पीति लोकुत्तरपुञ्जम्पि पुञफलम्पि। याव आसवक्खया पवडति विवट्टगामिकुसलधम्मानं समादानहेतूति योजना । अमतपानं पिविंसु हेट्ठिममग्गफलसमधिगमवसेनाति अधिप्पायो ।
चक्कवत्तिसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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४. अग्गसुत्तवण्णना
वासेट्ठभारद्वाजवण्णना
१११. एत्थाति “पुब्बारामे, मिगारमातुपासादे"ति एतस्मिं पदद्वये। कोयं पुब्बारामो, कथञ्च पुब्बारामो, का च मिगारमाता, कथञ्चस्सा पासादो अहोसीति एतस्मिं अन्तोलीने अनुयोगे | अयं इदानि वुच्चमाना अनुपुब्बिकथा आदितो पट्ठाय सोपेनेव अनुपुब्बिकथा । पदुमुत्तरं भगवन्तं एकं उपासिकं अग्गुपट्टायिकट्ठाने ठपेन्तिं दिस्वान तत्थ सञ्जातगारवबहुमाना तमेवत्थं पुरक्खत्वा भगवन्तं निमन्तेत्वा। मेण्डकपुत्तस्साति मेण्डकसेट्ठिपुत्तस्स । सोतापना अहोसि तथा कताधिकारत्ता ।
मातुट्ठाने ठपेसि अत्तनो सीलाचारसम्पत्तिया गरुट्टानियत्ता। उपयोगन्ति तत्थ तत्थ अप्पेतब्बट्ठाने अप्पनावसेन विनियोगं अगमंसु । अझेहि च वेकुरियलोहितङ्कमसारगल्लादीहि । भस्सतीति ओतरति । सुद्धपासादोव न सोभतीति केवलो एकपासादो एव विहारो न सोभति । नियूहानि बहूनि नीहरित्वा कत्तब्बसेनासनानि "दुवड्ढगेहानी"ति वदन्ति । मज्झे गब्भो समन्ततो अनुपरियायतोति एवं द्विक्खत्तुं वड्वेत्वा कतसेनासनानि दुवड्ढगेहानि। चूळपासादाति खुद्दकपासादा ।
उत्तरदेवीविहारो नाम नगरस्स पाचीनद्वारसमीपे कतविहारो ।
तित्थियलिङ्गस्स अग्गहितत्ता नेव तिथियपरिवासं वसन्ति। अनुपसम्पन्नभावतो आपत्तिया आपन्नाय अभावतो न आपत्तिपरिवासं वसन्ति। भिक्खुभावन्ति उपसम्पदं । तेविज्जसुत्तन्ति इमस्मिं दीघनिकाये तेविज्जसुत्तं सुत्वा ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(४.११३-११४)
११३. अनुवत्तमाना चङ्कमिंसु अननुचकमने यथाधिप्पेतस्स अत्थस्स पुच्छनादीनं असक्कुणेय्यत्ता। तेसन्ति तेसं द्विन्नं । तेनाह “पण्डिततरो'ति । अत्थाति भवत्थ । कुलसम्पनाति सम्पन्नकुला उदितोदिते ब्राह्मणकुले उप्पन्ना। ब्राह्मणकुलाति केनचि पारिजु न अनुपकुता एव ब्राह्मणकुला। तेनाहः “भोगादिसम्पन्न"न्तिआदि । इमे ब्राह्मणा उच्चा हुत्वा “इमं वसलं पब्बज्जं पब्बजिंसू'तिआदिना जातिआदीनि घट्टेन्ता अक्कोसन्ति। परिभासन्तीति परिभवित्वा भासन्ति । अत्तनो अनुरूपायाति अत्तनो अज्झासयस्स अनुरूपाय । अन्तरन्तरा विच्छिज्ज पवत्तियमाना परिभासा परिपुण्णा नाम न होति खण्डभावतो, तब्बिपरियायतो परिपुण्णा नाम होतीति आह “अन्तरा"तिआदि ।
अप्पतिद्वतायाति अपस्सयरहितत्ता। विभिन्नोति विनट्ठो ।
इतरे तयो वण्णाति खत्तियादयो वण्णा हीना। ननु खत्तियाव सेट्ठा वण्णा यथा बुद्धा एतरहि खत्तियकुले एव उप्पन्नाति ? सच्चमेतं, ते पन अत्तनो मिच्छाभिमानेन, मिच्छागाहेन च "ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो 'ति वदन्ति, तं तेसं वचनमत्तं । "सुज्झन्तीति सुद्धा होन्ति, न निन्दं गरहं पापुणन्तीति वदन्ति । सुज्झन्ति वा संसारतो सुज्झन्ति, न सेसा वण्णा असुक्कजातिकत्ता, मन्तज्झेनाभावतो चाति । ब्रह्मनो मुखतो जाता वेदवचनतो जाताति मुखतो जाता । ततो एव ब्रह्मनो महाब्रह्मनो वेदवचनतो विजाताति ब्रह्मजा। तेन दुविधेनापि निम्मिताति ब्रह्मनिम्मिता। वेदवेदङ्गादिब्रह्मदायज्जं अरहन्तीति ब्रह्मदायादा। मुण्डके समणकेति एत्थ क-कारो गरहायन्ति आह "निन्दन्ता जिगुच्छन्ता वदन्ती"ति । इब्भेति सुद्दे, ते पन घरबन्धनेन बद्धा निहीनतराति आह "गहपतिके"ति । कण्हेति कण्हजातिके । बन्धनद्वेन बन्धु, कस्स पन बन्धूति आह "मारस्स बन्धुभूते"ति । पादापच्चेति पादतो जातापच्चे। अयं किर ब्राह्मणानं लद्धि “ब्राह्मणा ब्रह्मनो मुखतो जाता, खत्तिया उरतो, ऊरूहि वेस्सा, पादतो सुद्दा''ति ।
११४. यस्मा पठमकप्पिककाले चतुवण्णववत्थानं नत्थि, सब्बेव सत्ता एकसदिसा, अपरभागे पन तेसं पयोगभेदवसेन अहोसि, तस्मा वुत्तं "पोराणं...पे०... अजानन्ता"ति । लद्धिभिन्दनत्थायाति "ब्राह्मणा ब्रह्मनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता''ति एवं पवत्ताय लद्धिया विनिवेठनत्थं । पुत्तप्पटिलाभत्थायाति “एवं मयं पेत्तिकं इणं सोधेस्सामा''ति लद्धियं ठत्वा पुत्तप्पटिलाभाय । अयञ्हेत्थ धम्मिकानं ब्राह्मणानं अज्झासयो। सजातपुप्फाति रजस्सला । इत्थीनहि कुमारिभावप्पत्तितो पट्ठाय पच्छिमवयतो ओरं असति विबन्धे अट्ठमे
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( ४.११५-११६)
चतुवणसुद्धा
अट्ठमे सत्ताहे गब्भासयसञ्जिते ततिये आवत्ते कतिपया लोहितपीळका सण्ठहित्वा अग्गहितपुप्फा एव भिज्जन्ति, ततो लोहितं पग्घरति, तत्थ उतुसमञ्ञा, पुप्फसमञ्ञा च । नेसन्ति ब्राह्मणानं । सच्चवचनं सियाति "ब्रह्मनो पुत्ता'तिआदिवचनं सच्चं यदि सिया, ब्राह्मणीनं... पे०... मुखं भवेय्य, न चेतं अत्थि ।
चतुवण्णसुद्धिवण्णना
११५. मुखच्छेदकवादन्ति 'ब्राह्मणा महाब्रह्मनो मुखतो जाता" ति वादस्स छेदकवादं । अरियभावे असमत्थाति अनरियभावावहा । पकतिकाळकाति सभावेनेव न सुद्धा | कण्होति किलिट्ठो उपतापको । तेनाह “ दुक्खोति अत्थो " ति ।
सुक्कभावो नाम परिसुद्धताति आह “निक्किलेसभावेन पण्डरा "ति । सुक्कोति न किलिट्ठो अनुपतापकोति वृत्तं " सुखोति अत्थो "ति ।
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११६. उभयवोकिण्णेति वचनविपल्लासेन वुत्तन्ति आह “उभयेसु वोकिण्णेसू 'ति । मिस्सीभूतेसूति “कदाचि कण्हा धम्मा, कदाचि सुक्का धम्मा" ति एवं एकस्मिं सन्ताने, एकस्मिंयेव च अत्तभावे पवत्तिया मिस्सीभूतेसु न पन एकज्झं पवत्तिया । एत्थाति अनन्तरवुत्तधम्माव अन्वाधिट्ठाति आह " कण्हसुक्कधम्मेसू 'ति । यस्मा च ते ब्राह्मणान चेव ते धम्मे अतिक्कन्ता, याय च पटिपदाय अतिक्कमेय्युं, सापि तेसं पटिपदा नत्थि, तस्मा वुत्तं " वत्तमानापी' 'ति । नानुजानन्ति अयथाभुच्चवादभावतो । अनुजाननञ्च नाम अब्भनुमोदनन्ति तदभावं दस्सेन्तेन " नानुमोदन्ति, न पसंसन्तीति वुत्तं । चतुन्नं वण्णानन्ति निद्धारणे सामिवचनं । तेसन्ति पन सम्बन्धेपि वा सामिवचनं । ते च ब्राह्मणा न एवरूपा न एदिसा, यादिसो अरहा एकदेसेनापि तेन तेसं सदिसताभावतो, तस्मा तेन कारणेन नेसं ब्राह्मणानं “ ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो "ति वादं विज्ञू यथाभूतवादिनो बुद्धादयो अरिया नानुजानन्ति ।
आरकत्तादीहीति एत्थ किलेसानं आरकत्ता पहीनभावतो दूरत्ता अरहं, किलेसारीनं हतत्ता अहं, संसारचक्कस्स अरानं हतत्ता अरहं, पच्चयादीनं अरहत्ता अरहं, पापकरणे रहाभावेन अरहन्ति एवमत्थो वेदितब्बो । अयमेत्थ सङ्क्षेपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गे, (विसुद्धि० १.१२५ आदयो ) तं संवण्णनासु (विसुद्धि० टी० १.१२४) च वृत्तनयेन
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
वेदितब्बो । आसवानं खीणत्ताति चतुन्नम्पि आसवानं अनवसेसतो पहीनत्ता । ब्रह्मचरियवासन्ति मग्गब्रह्मचरियवासं । तस्स वासस्स परियोसितत्ता वुत्थवासो, दसन्नम्पि वा अरियवासानं वुत्थत्ता वुत्थवासो । वृत्तहेतं -
“दसयिमे, भिक्खवे, अरियावासा, यदरिया आवसिंसु वा आवसन्ति वा आवसिस्सन्ति वा । कतमे दस ? इध भिक्खवे, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीन होत छळङ्गसमन्नागतो एकारक्खो चतुरापस्सेनो पनुण्णपच्चेकसच्चो समवयसठेसनो अनाविलसङ्कप्पो पस्सद्धकायसङ्घारो सुविमुत्तचित्तो सुविमुत्तपञ्ञ । इमे खो, भिक्खवे, दस अरियावासा "ति (अ० नि० ३.१०.१९) ।
(४.११७-११७)
वुस्सतीति वा वुसितं, अरियमग्गो, अरियफलञ्च तं एतस्स अत्थीति अतिसयवचनिच्छावसेन अरहा " वुसितवा " ति तो करणीयं नाम परिञापहानसच्छिकिरियाभावना दुक्खस्सन्तं कातुकामेहि एकन्ततो कत्तब्बत्ता, तं पन यस्मा चतूहि मग्गेहि पच्चेकं चतूसु सच्चेसु कातब्बं कतं, तस्मा वुत्तं " चतूहि... पे०... कतकरणीयो 'ति । ओसीदापनट्टेन भारा वियाति भारा, किलेसा, खन्धा च । वृत्तहि “भारा हवे पञ्चक्खन्धा ति (सं० नि० २.३.२२) ओहारितोति अपनीतो । सो सदत्थोति एत्थ द-कारो पदसन्धिकरो । कामं दिट्ठिआदयोपि संयोजनानि एव, तथापि तण्हाय भवसंयोजनट्ठो सातसयो । यथाह "अविज्जानीवरणानं सत्तानं तण्हासंयोजनान "न्ति । (सं० नि० १.२.१२५, १२६, १२७, १३२, १३४, १३६, १४२; ३.५.५२०; कथाव० ७५) ततो सा एव सुत्ते ( दी० नि० २.४००; म० नि० १.९३, १३३; ३.३७३; सं० नि० ३.१०८१; पटि० म० १.३४ आदयो) समुदयसच्चभावेन वुत्ता, तस्मा वुत्तं " भवसंयोजनं वुच्चति तव्हा ''ति । सम्मदञा विमुत्तोति सम्मा अञ्ञाय जाननभूताय अग्गमग्गपञ्ञाय सम्मा यथाभूतं यं यथा जानितब्बं, तं तथा जानित्वा विमुत्तो । इमस्मिं लोकेति इमस्मिं सत्तलोके । इधत्तभावेति इमस्मिं अत्तभावे, परत्तभावेति परस्मिं अत्तभावे, इधलोके, परलोके चाति अत्थो ।
११७. अन्तरविरहिताति विभागविरहिता । तेनाह " अत्तनो कुलेन सदिसा "ति । अनुयन्तीति अनुयन्ता, अनुयन्ता एव आनुयन्ता, अनुवत्तका । तेनाह “बसवत्तिनो”ति ।
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(४.११८-११८)
चतुवण्णसुद्धिवण्णना
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११८. निविद्वाति सद्धेय्यवत्थुस्मिं अनुपविसनवसेन निविट्ठा । ततो एव तस्मिं अधिकं निविसनतो अभिनिविट्ठा। अचलट्ठिताति अचलभावे ठिता ।।
यन्ति यं कथेतब्बधम्मं अनुपधारेत्वा, तदत्थञ्च अप्पच्चक्खं कत्वा कथनं, एतं अट्ठानं अकारणं तस्स बोधिमूलेयेव समुच्छिन्नत्ता। विच्छिन्दजननत्थन्ति रतनत्तयसद्धाय विच्छिन्दस्स उप्पादनत्थं, अञथत्तायाति अत्थो । सोति मारो । मुसावादं कातुं नासक्खीति आगतफलस्स अरियसावकस्स पुरतो मुसा वत्तुं न विसहि, तस्मा आम मारोस्मीति पटिजानि। सिलापथवियन्ति रतनमयसिलापथवियं । सिनेरुं किर परिवारेत्वा ठितो भूमिप्पदेसो सत्तरतनमयो, “सुवण्णमयो'"ति केचि, सा वित्थारतो, उब्बेधतो अनेकयोजनसहस्सपरिमाणा अतिविय निच्चला । किं त्वं एत्थाति किं कारणा त्वं एत्थ । “ठितो''ति अच्छरं पहरि। ठातुं असक्कोन्तोति अरियसावकस्स पुरतो ठातुं असक्कोन्तो । अयहि अरियधम्माधिगमस्स आनुभावो, यं मारोपि नाम महानुभावो उजुकं पटिप्परितुं न सक्कोति ।
___ मग्गो एव मूलं मग्गमूलं, तस्स । सञ्जातत्ता उप्पन्नत्ता। तेन मग्गमूलेन पतिद्वितसन्ताने लद्धपतिट्ठा। भगवतो देसनाधम्मं निस्साय अरियाय जातिया जातो "भगवन्तं निस्साय अरियभूमियं जातो"ति वुत्तो । “उरे वसित्वा"ति इदं धम्मघोसस्स उरतो समुट्ठानताय वुत्तं । उरे वायामजनिताभिजातिताय वा ओरसो। मुखतो जातेन जातो "मुखतो जातो"ति वुत्तो । कारणकारणेपि हि कारणे विय वोहारो होति “तिणेहि भत्तं सिद्ध''न्ति । केचि पन “विमोक्खमुखस्स वसेन जातत्ता मुखतो जातो''ति वदन्ति, तत्थापि वुत्तनयेनेव अत्थो वेदितब्बो । पुरिमेनत्थेन योनिजो, सेदजो, मुखजोति तीसु सम्बन्धेसु मुखजेन सम्बन्धेन भगवतो पुत्तभावो विभावितो । अत्थद्वयेनापि धम्मजभावोयेव दीपितो। अरियधम्मप्पत्तितो लद्धविसेसो हुत्वा पवत्तो तदुत्तरकालिको खन्धसन्तानो "अरियधम्मतो जातो"ति वेदितब्बो, अरियधम्मं वा मग्गफलं निस्साय, उपनिस्साय च जातो सब्बोपि धम्मप्पबन्धो “अरियधम्मतो जातो"ति गहेतब्बो । तेसं पन अरियधम्मानं अपरियोसितकिच्चताय अरियभावेन अभिनिब्बत्तिमत्तं उपादाय “अरियधम्मतो जातत्ता"ति वुत्तं । परियोसितकिच्चताय तथा निब्बत्तिपारिपूरि उपादाय "निम्मितत्ता"ति वुत्तं, यतो "धम्मजो धम्मनिम्मितो''ति वुत्तं । “नवलोकुत्तरधम्मदायं आदियतीति धम्मदायादो" तिपि पाठो । अस्साति “भगवतोम्हिपुत्तो''तिआदिना वुत्तस्स वाक्यस्स । अत्थं दस्सेन्तोति भावत्थं पकासेन्तो । तथागतस्स अनञसाधारणसीलादिधम्मक्खन्धस्स समूहनिवेसवसेन धम्मकायताय न किञ्चि वत्तब्बं अत्थि, सत्थुठ्ठानियस्स पन धम्मकायतं दस्सेतुं “कस्मा तथागतो
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(४.११९-१२०)
धम्मकायोति वुत्तो''ति सयमेव पुच्छं समुट्ठापेत्वा "तथागतो ही"तिआदिना तमत्थं विस्सज्जेति । हदयेन चिन्तेत्वाति “इमं धम्मं इमस्स देसेस्सामी''ति तस्स उपगतस्स वेनेय्यजनस्स बोधनत्थं चित्तेन चिन्तेत्वा । वाचाय अभिनीहरीति सद्धम्मदेसनावाचाय करवीकरुतमञ्जुना ब्रह्मस्सरेन वेनेय्यसन्तानाभिमुखं तदज्झासयानुरूपं हितमत्थं नीहरि उपनेसि । तेनाति तेन कारणेन एवंसद्धम्माधिमुत्तिभावेन । अस्साति तथागतस्स | धम्ममयत्ताति धम्मभूतत्ता। इधाधिप्पेतधम्मो सेट्ठद्वेन ब्रह्मभूतोति आह “धम्मकायत्ता एव ब्रह्मकायो"ति । सब्बसो अधम्मं पजहित्वा अनवसेसतो धम्मो एव भूतोति धम्मभूतो। तथारूपो च यस्मा सभावतो धम्मो एवाति वत्तब्बतं अरहतीति आह "धम्मसभावो"ति ।
११९. सेटुच्छेदकवादन्ति “ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णोति (दी० नि० ३.११६) एवं वुत्तसेट्ठभावच्छेदकवादं। अपरेनपि नयेनाति यथावुत्तसेट्ठच्छेदकवादतो अपरेनपि पोराणकलोकुप्पत्तिदस्सननयेन | सेट्ठच्छेद...पे०... दस्सेतुन्ति सोपि हि "ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीना अझे वण्णा''ति, “ब्राह्मणा ब्रह्मनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा'ति (दी० नि० ३.११४) च एवं पवत्ताय मिच्छादिट्ठिया विनिवेठनो जातिब्राह्मणानं सेट्ठभावस्स छेदनतो सेट्ठच्छेदनवादो नाम होतीति दस्सेतुन्ति अत्थो ।
इत्थभावन्ति इमं पकारतं मनुस्सभावं। सामञजोतना हि विसेसे अवतिकृति, पकरणवसेन वा अयमत्थो अवच्छिन्नो दट्टब्बो। मनेनेव निब्बत्ताति बाहिरपच्चयेन विना केवलं उपचारझानमनसाव निब्बत्ता। याय उपचारज्झानचेतनाय ते तत्थ निब्बत्ता, नीवरणविक्खम्भनादिना उळारो तस्सा पवत्तिविसेसो, तस्मा झानफलकप्पो तस्सा फलविसेसोति आह "ब्रह्मलोके विया"तिआदि। “सयंपभा"ति पदानं तत्थ सूरियालोकादीहि विना अन्धकारं विधमन्ता सयमेव पभासन्तीति सयंपभा, अन्तलिक्खे आकासे चरन्तीति अन्तलिक्खचरा, तदञकामावचरसत्तानं विय सरीरस्स विचरणट्ठानस्स असुभताभावतो सुभं, सुभेव तिट्ठन्तीति सुभट्ठायिनोति अत्थो वेदितब्बो ।
रसपथविपातुभाववण्णना
१२०. सबं चक्कवाळन्ति अनवसेसं कोटिसतसहस्सं चक्कवाळं । समतनीति सञ्छादेन्ती विष्फरि, सा पन तस्मिं उदके पतिट्ठिता अहोसीति आह "पतिद्वही"ति ।
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(४.१२१-१२१)
चन्दिमसूरियादिपातुभाववण्णना
वण्णेन सम्पन्नाति सम्पन्नवण्णा । मक्खिकण्डकरहितन्ति मक्खिकाहि च तासं अण्डकेहि च रहितं।
अतीतानन्तरेपि कप्पे लोलोयेव। कस्मा ? एवं चिरपरिचितलोलतावसेन सब्बपठमं तथा अकासीति दस्सेति । किमेविदन्ति “वण्णतो, गन्धतो च ताव जातं, रसतो पन किमेविदं भविस्सती''ति संसयजातो वदति । तिद्वतीति अट्ठासि ।
चन्दिमसूरियादिपातुभाववण्णना
१२१. आलुप्पकारकन्ति एत्थ आलोपपरियायो आलुप्प-सद्दोति आह “आलोपं कत्वा"ति । पच्चक्खभूतानम्पि चन्दिमसूरियानं पवत्तियं लोकियानं सम्मोहो होति, तं विधमितुं "को पन तेस"न्तिआदिना अट्ट पहाविस्सज्जनानि गहितानि। तत्थ तेसन्ति चन्दिमसूरियानं । कस्मिन्ति कस्मिं ठाने । “को उपरी"ति एतेनेव को हेट्ठाति अयमत्थो वुत्तोयेव । तथा “को सीघं गच्छती"ति इमिना को सणिकं गच्छतीति अयम्पि अत्थो वुत्तोयेव । वीथियोति गमनवीथियो । एकतोति एकस्मिं खणे पातुभवन्ति। सूरियमण्डले पन अत्थङ्गते चन्दमण्डलं पायित्थ । छन्दं ञत्वा वाति रुचिं अत्वा विय ।
उभयन्ति अन्तो, बहि च ।
उजुकन्ति आयामतो, वित्थारतो, उब्बेधतो च । परिमण्डलतोति परिक्खेपतो ।
उजुकं सणिकं गच्छति अमावासियं सूरियेन सद्धिं गच्छन्तो दिवसे दिवसे थोकं थोकं ओहीयन्तो पुण्णमासियं उपड्डमग्गमेव ओहीयनतो। तिरियं सीघं गच्छति एकस्मिम्पि मासे कदाचि दक्खिणतो, कदाचि उत्तरतो दस्सनतो । "द्वीसु पस्सेसू"ति इदं येभुय्यवसेन वुत्तं । चन्दस्स पुरतो, पच्छतो, समञ्च तारका गच्छन्तियेव । अत्तनो ठानन्ति अत्तनो गमनट्ठानं । न विजहन्ति अत्तनो वीथियणव गच्छनतो । सूरियस्स उजुकं गमनस्स सीघता चन्दस्स गमनं उपादाय वेदितब्बा । तिरियं गमनं दक्खिणदिसतो उत्तरदिसाय, उत्तरदिसतो च दक्खिणदिसाय गमनं दन्धं छहि छहि मासेहि इज्झनतो। सोति सूरियो । काळपक्खउपोसथतोति काळपक्खे उपोसथे चन्देन सहेव गन्त्वा ततो परं । पाटिपददिवसेति सुक्कपक्खपाटिपददिवसे । ओहाय गच्छति अत्तनो सीघगामिताय, तस्स च दन्धगामिताय ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(४.१२१-१२१)
लेखा विय पञ्जायति पच्छिमदिसायं | याव उपोसथदिवसाति याव सुक्कपक्खउपोसथदिवसा । "चन्दो अनुक्कमेन वडित्वा"ति इदं उपरिभागतो पतितसूरियालोकताय हेट्ठतो पवत्ताय सूरियस्स दूरभावेन दिवसे दिवसे अनुक्कमेन परिहायमानाय अत्तनो छायाय वसेन अनुक्कमेन चन्दमण्डलप्पदेसस्स वड्डमानस्स विय दिस्समानताय वुत्तं, तस्मा अनुक्कमेन वड्वित्वा विय । उपोसथदिवसे पुण्णमायं परिपुण्णो होति, परिपुण्णमण्डलो हुत्वा दिस्सतीति अत्थो । धावित्वा गण्हाति चन्दस्स दन्धगतिताय, अत्तनो च सीघगतिताय । अनुक्कमेन हायित्वाति एत्थ “अनुक्कमेन वड्डित्वा''ति एत्थ वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो। तत्थ पन छायाय हायमानताय मण्डलं वड्डमानं विय दिस्सति, इध छायाय वड्डमानताय मण्डलं हायमानं विय दिस्सति ।
__ याय वीथिया सूरिये गच्छन्ते वस्सवलाहका देवपुत्ता सूरियाभितापसन्तत्ता अत्तनो विमानतो न निक्खमन्ति, कीळापसुता हुत्वा न विचरन्ति, तदा किर सूरियस्स विमानं पकतिमग्गतो अधो ओतरित्वा विचरति, तस्स ओरुय्ह चरणेनेव चन्दविमानम्पि अधो
ओरुय्ह चरति तग्गतिकत्ता, तस्मा सा वीथि उदकाभावेन अजानुरूपताय "अजवीथी"ति समनं गता। याय पन वीथिया सूरिये गच्छन्ते वस्सवलाहका देवपुत्ता सूरियाभितापाभावतो अभिण्हं अत्तनो विमानतो बहि निक्खमित्वा कीळापसुता इतो चितो च विचरन्ति, तदा किर सूरियविमानं पकतिमग्गतो उद्धं आरुहित्वा विचरति, तस्स उद्धं आरुय्ह चरणेनेव चन्दविमानम्पि उद्धं आरुयह चरति तग्गतिकत्ता, तग्गतिकता च समानगतिना वातमण्डलेन विमानस्स फेल्लितब्बत्ता, तस्मा सा वीथि उदकबहुभावेन नागानुरूपताय "नागवीथीति समक्षं गता। यदा सूरियो उद्धमनारुहन्तो, अधो च अनोतरन्तो पकतिमग्गेनेव गच्छति, तदा वस्सवलाहका यथाकालं, यथारुचि च विमानतो निक्खमित्वा सुखेन विचरन्ति, तेन कालेन कालं वस्सनतो लोके उतुसमता होति, ताय उतुसमताय हेतुभूताय सा चन्दिमसूरियानं गति गवानुरूपताय "गोवीथी"ति समझं गता । तेन वुत्तं “अजवीथी"तिआदि ।
एवं “कति नेसं वीथियो''ति पऽहं विस्सज्जेत्वा "कथं विचरन्ती"ति पहं विस्सज्जेतुं “चन्दिमसूरिया'तिआदि वुत्तं । तत्थ सिनेरुतो बहि निक्खमन्तीति सिनेरुसमीपेन तं पदक्खिणं कत्वा गच्छन्ता ततो गमनवीथितो बहि अत्तनो तिरियगमनेन चक्कवाळाभिमुखा निक्खमन्ति । अन्तो विचरन्तीति एवं छ मासे खणे खणे सिनेरुतो अपसक्कनवसेन ततो निक्खमित्वा चक्कवाळसमीपं पत्ता, ततोपि छ मासे खणे खणे
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(४.१२२-१२३)
भूमिपप्पटकपातुभावादिवण्णना
अपसक्कनवसेन निक्खमित्वा सिनेरुसमीपं पापुणन्ता अन्तो विचरन्ति । इदानि तमेवत्थं सङ्केपेन वुत्तं विवरितुं "तेही"तिआदि वुत्तं । सिनेरुस्स, चक्कवाळस्स च यं ठानं वेमझं, तस्स, सिनेरुस्स च यं ठानं वेमज्झं, तेन गच्छन्ता "सिनेरुसमीपेन विचरन्ती"ति वुत्ता, न सिनेरुस्स अग्गाळिन्दअल्लीना । चक्कवाळसमीपेन चरित्वाति एत्थापि एसेव नयो । मज्झेनाति सिनेरुस्स, चक्कवाळस्स च उजुकं वेमज्झेन मग्गेन । चित्रमासे मज्झेनाति एत्थापि एसेव नयो।
एकप्पहारेनाति एकवेलाय, एकेनेव वा अत्तनो एकप्पहारेन। मज्झन्हिकोति ठितमज्झन्हिको कालो होति। तदा हि सूरियमण्डलं उग्गच्छन्तं हुत्वापि इमस्मिं दीपे ठितस्स उपड्वमेव दिस्सति, उत्तरकुरूसु ठितस्स ओगच्छन्तं हुत्वा । एवहि एकवेलायमेव तीसु दीपेसु आलोककरणं ।
येसु कत्तिकादिनक्खत्तसमझा, तानिपि तारकरूपानि येवाति वुत्तं "सेसतारकरूपानि चा"ति, नक्खत्तसञ्जिततारकरूपतो अवसिठ्ठतारकरूपानीति अत्थो । उभयानिपि तानि देवतानं वसनकविमानानीति वेदितब्बानि । रा-सद्दो तियति छिज्जति एत्थाति रत्ति, सत्तानं सदस्स वूपसमनकालोति अत्थो । दिब्बन्ति सत्ता कीळन्ति जोतन्ति एत्थाति दिवा। सत्तानं आयुं मिनन्तो विय सियति अन्तं करोतीति मासो। तं तं किरियं अरति वत्तेतीति उतु । तं तं सत्तं, धम्मप्पवत्तिञ्च सङ्गम्म वदन्तो विय सरति वत्तेतीति संवच्छरो।
१२२. विवज्जनं विवज्जो, सो एव वेवज्जं, वण्णस्स वेवज्ज वण्णवेवजं, वण्णसम्पत्तिया विगमो, तस्स पन अत्थिता “वण्णवेवज्जता"ति वुत्ता। तेनाह "विवज्जभावो"ति । तेसन्ति वण्णवन्तानं सत्तानं । अतिमानप्पच्चयाति दुब्बण्णवम्भनवसेन अतिक्कम्म अत्तनो वण्णं पटिच्च मानपच्चया, मानसम्पग्गण्हननिमित्तन्ति अत्थो । सातिसयो रसो एतिस्सा अत्थीति रसाति लद्धमानाय, अनुभासिंसूति अनुरोधवसेन भासिंसु । लोकुप्पत्तिवंसकथन्ति लोकुप्पत्तिवंसजं पवेणीकथं, आदिकाले उप्पन्नं पवेणीआगतकथन्ति अत्थो । “अनुपतन्ती"तिपि पाठो, सो एवत्थो ।
भूमिपप्पटकपातुभावादिवण्णना १२३. एदिसो हुत्वाति अहिच्छत्तकसदिसो हुत्वा ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(४.१२४-१२६)
१२४. पदालताति "पदा"ति एवंनामा एका लता, सा पन यस्मा सम्पन्नवण्णगन्धरसा, तस्मा "भद्दलता"ति वुत्ता । नाळिकाति नाळिवल्लि | अहायीति नस्सि |
१२५. अकट्ठपाकोति अकडेयेव ठाने उप्पज्जित्वा पच्चनको, नीवारो विय सञ्जातो हुत्वा निप्पज्जनकोति अत्थो । कणो “कुण्डक"न्ति च वुच्चति । थुसन्ति तण्डुलं परियोनन्धित्वा ठितत्तचो, तदभावतो "अकणो, अथुसो"ति सालि वुत्तो । “पटिविरूळ्ह"न्ति इदं पक्कभावस्स कारणवचनं । पटिविरूळहतो हि तं पक्कन्ति । यस्मिं ठाने सायं पक्को सालि गहितो, तदेव ठानं दुतियदिवसे पातो पक्केन सालिना परिपुण्णं हुत्वा तिकृतीति आह "सायं गहितद्वानं पातो पक्कं होती"तिआदि। अलायितन्ति लायितवानम्पि तेसं कम्मप्पच्चया अलायितमेव हुत्वा अनूनं परिपुण्णमेव पञ्जायति, न केवलं पञ्चायनमेव, अथ खो तथाभूतमेव हुत्वा तिट्ठति ।
इत्थिपुरिसलिङ्गादिपातुभाववण्णना १२६. "मनुस्सकाले"ति इदं पुब्बे मनुस्सभूतानंयेव तत्थ इदानि निकन्तिवसेन उप्पत्ति होतीति कत्वा वुत्तं, देवतानम्पि पुरिमजातियं इत्थिभावे ठितानं तत्थ विरागादिपुरिसत्तप्पच्चये असति तदा इथिलिङ्गमेव पातुभवति । पुरिसत्तपच्चयेति “अत्तनोपि अनिस्सरता, सब्बकालं परायत्तवृत्तिता, रजस्सलता वञ्चता, गब्भधारणं, पठमाय पकतिया निहीनपकतिता, सूरवीरताभावो, 'अप्पका जनाति हीळेतब्बता'ति एवमादि आदीनवपच्चवेक्खणपुब्बकम्पि इत्थिभावे 'अलं इथिभावेन, न हि इत्थिभावे ठत्वा चक्कवत्तिसिरिं, न सक्कमारब्रह्मसिरियो पच्चनुभवितुं, न पच्चेकबोधिं, न सम्मासम्बोधिं अधिगन्तुं सक्का'ति एवं इत्थिभावविरज्जनं, 'यथावुत्तआदीनवविरहतो उत्तमपकतिभावतो सम्पदमिदं पुरिसत्तं नाम सेढें उत्तमं, एत्थ ठत्वा सक्का एता सम्पत्तियो सम्पापुणितु'न्ति एवं पुरिसत्तभावे सम्भावनापुब्बकं पत्थनाठपनं, 'तत्थ निन्नपोणपब्भारचित्तता'ति" एवमादिके पुरिसभावस्स पच्चयभूते धम्मे। पूरेत्वा वड्डेत्वा । पच्चक्खं भूतं, सदिसञ्च दिट्ठधम्मिकं, सम्परायिकञ्च सुविपुलं अनत्थं अचिन्तेत्वा पुरिसस्स कामेसु मिच्छाचरणं केवलं इत्थियं आसापत्ति फलेनेवाति आसाआपत्ति इथिभावावहापि होतियेव । तन्निन्नपोणपब्भारभावेन तन्निकन्तिया निमित्तभावापत्तितोति वुत्तं "पुरिसो इत्थत्तभावं लभन्तो कामेसुमिच्छाचारं निस्साय लभती'ति । तदाति यथावुत्ते पठमकप्पिककाले । पकतियाति सभावेन । मातुगामस्साति पुरिमत्तभावे मातुगामभूतस्स | पुरिसस्साति एत्थापि “पकतिया'ति
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(४.१२७-१३१)
मेथुनधम्मसमाचारवण्णना
पदं आनेत्वा सम्बन्धितब् । उपनिज्झायतन्ति उपेच्च निज्झायन्तानं । यथा अञमञ्जस्मिं सारागो उप्पज्जति, एवं सापेक्खभावेन ओलोकेन्तानं। रागपरिळाहोति रागजो परिळाहो ।
निब्बुव्हमानायाति परिणता हुत्वा निय्यमानाय ।
मेथुनधम्मसमाचारवण्णना
१२७. गोमयपिण्डमत्तम्पि नालस्थाति सम्मदेव विवाहकम्मं नालत्थाति अधिप्पायेन वदन्ति। पातब्यतन्ति तस्मिं असद्धम्मे किलेसकामेन पिवितब्बतं किञ्चि पिवितब्बवत्थं पिवन्ता विय अतिविय तोसेत्वा परिभुजितब्बतं आपजिंसु, पातव्यतन्ति वा परिभुञ्जनकतं आपजिंसु उपगच्छिंसु । परिभोगत्थो हि अयं पा-सद्दो, कत्तुसाधनो च तब्य-सद्दो, यथारुचि परिभुजिंसूति अत्थो।।
सनिधिकारकन्ति सन्निधिकारं, क-कारो पदवड्डनमत्तन्ति आह "सन्निधिं कत्वा"ति । अपदानन्ति अवखण्डनं । एककस्मिं ठानेति यत्थ यत्थ वहितं, तस्मिं तस्मिं एकेकस्मिं ठाने । गुम्बगुम्बाति पुञ्जपुञ्जा।।
सालिविभागवण्णना १२८. सीमं ठपेय्यामाति “अयं भूमिभागो असुकस्स, अयं भूमिभागो असुकस्सा''ति एवं परिच्छेदं करेय्याम । तं अग्गं कत्वाति तं आदि कत्वा ।
महासम्मतराजवण्णना
१३०. पकासेतब्बन्ति दोसवसेन पकासेतब्बं । खिपितब्बन्ति खेपं कातबं । तेनाह “हारेतब्ब"न्ति, सत्तनिकायतो नीहरितब्बं ।
नेसन्ति निद्धारणे सामिवचनं । १३१. अक्खरन्ति निरुत्तिं । सा हि महाजनेन सम्मतोति निद्धारेत्वा वत्तब्बतो
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
निरुत्ति, तस्मिंयेव निरूहभावतो, अञ्ञत्थ असञ्चरणतो अक्खरन्ति च वुच्चति, तथा सङ्घातब्बतो सङ्घा, समञ्ञयतीति समञ्ज, पञ्ञापनतो पञ्ञत्ति, वोहरणतो वोहारो । उप्पन्नोति पवत्तो । न केवलं अक्खरमेवाति न केवलं समञ्ञाकरणमेव । खेत्तसामिनोति तं तं भूमिभागं परिग्गहेत्वा ठितसत्ता । तीहि सङ्खेहीति तिविधकिरियाभिसङ्घतेहि तीहि सङ्ग्रहि खत्तियादीहि तीहि वण्णेहि परिग्गहितेहि । “खत्तियानुयन्तब्राह्मणगहपतिकनेगमजानपदेहि तीहि गहपतीहि परिग्गहितेही "ति च वदन्ति । अग्गन्ति आतेनाति अग्गं कुलन्ति जातेन । खत्तियकुलञ्हि लोके सब्बसेट्टं । यथाह “ खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं, ये गोत्तपटिसारिनो 'ति, ( दी० नि० १.२७७; ३.१४० म० नि० २.३० सं० नि० १.१.१८२, २४५) अभेदोपचारेन पन अक्खरस्स खत्तियसद्दस्सपि सेट्ठताति पाळियं "अग्गञ्जेन अक्खरेना "ति वृत्तं । इदानि अभेदोपचारेन विना एव अत्थं दस्सेतुं “ अग्गे वा "तिआदि वृत्तं ।
ब्राह्मणमण्डलादिवण्णना
१३२. येन अनारम्भभावेन बाहिताकुसला "ब्राह्मणा' 'ति वुत्ता, तमेव ताव दस्सेतुं पाळियं ‘“वीतङ्गारा’”तिआदि वृत्तन्ति तदत्थं दस्सेन्तो “पचित्वा "ति आदिमाह । तमेनन्ति वचनविपल्लासेन निद्देसोति आह " ते एते 'ति । अभिसङ्घरोन्ताति चित्तमन्तभावेन अञ्ञमञ्जं अभिविसिट्टे करोन्ता, ब्राह्मणाकप्पभावेन सङ्घरोन्ता च । वाचेन्ताति परेसं कथेन्ता, ये तथा गन्थे कातुं न जानन्ति । अच्छन्तीति आसन्ति, उपविसन्तीति अत्थो । तेनाह “वसन्ती'ति । अच्छेन्तीति कालं खेपेन्ति । हीनसम्मतं झानभावनानुयोगं छत्वा गन्थे पसुततादीपनतो । सेट्ठसम्मतं जातं " वेदधरा सोत्तिया सुब्राह्मणाति एवं सेट्ठसम्मतं जातं ।
( ४.१३२ - १३५)
१३३. मेथुनधम्मं समादियित्वाति जायापतिकभावेन द्वयं द्वयं निवासं अज्झुपगन्त्वा । वाणिजकम्मादिकेति आदि- सद्देन कसिकम्मादिं सङ्गहाति ।
१३४.
नळकार
लुद्दाचारकम्मखुद्दाचारकम्मुनाति परविहेठनादिलुद्दाचारकम्मुना, दारुकम्मादिखुद्दाचारकम्मुना च । सुद्दन्ति एत्थ सु-इति सीघत्थे निपातो । दा-इति गरहणत्थेति आह "सुद्द सुद्द लहुं लहुं कुच्छितं गच्छन्ती”ति ।
१३५. अहूति कालविपल्लासवसेन वुत्तन्ति दस्सेन्तो " होति खो" ति आह ।
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(४.१३६-१३७)
दुच्चरितादिकथावण्णना
इमिनाति “इमेहि खो, वासेट्ट, चतूहि मण्डलेहि समणमण्डलस्स अभिनिब्बत्ति होती"ति इमिना वचनेन । इमं दस्सेतीति समणमण्डलं नाम...पे०... सुद्धिं पापुणन्तीति इमं अत्थजातं दस्सेति । यदि इमेहि...पे०... अभिनिब्बत्ति होति, एवं सन्ते इमानेव चत्तारि मण्डलानि पधानानि, समणमण्डलं अप्पधानं ततो अभिनिब्बत्तत्ताति ? नयिदमेवन्ति दस्सेतुं "इमानी"तिआदि वुत्तं । समणमण्डलं अनुवत्तन्ति गुणेहि विसिट्ठभावतो । गुणो हि विषेनं अनुवत्तनहेतु, न कोलपुत्तियं, वण्णपोक्खरता, वाक्करणमत्तं वा। तेनाह “धम्मेनेव अनुवत्तन्ति, नो अधम्मेना"ति । सो धम्मो च लोकुत्तरोव अधिप्पेतो, येन संसारतो विसुज्झति, तस्मा समणमण्डलन्ति च सासनिकमेव समणगणं वदतीति दट्ठब्बं । तेनाह "समणमण्डलही"तिआदि ।
दुच्चरितादिकथावण्णना १३६. मिच्छादिट्ठिवसेन समादिन्नकम्मं नाम “को अनुबन्धितब्बो । अजोतग्गिसोडिमिसो''तिआदिना यञविधानादिवसेन पवत्तितं हिंसादिपापकम्मं । मिच्छादिट्टिकम्मस्साति “एस सद्धाधिगतो देवयानो, येन यन्ति पुत्तिनो विसोका''तिआदिना पवत्तितस्स मिच्छादिट्ठिसहगतकम्मस्स । समादानं तस्स तथा पवत्तनं, तस्सा वा दिट्ठिया उपगमनं ।
१३७. द्वयकारीति कुसलाकुसलद्वयस्स कत्ता। तयिदं द्वयं यस्मा एकज्झं नप्पवत्तति, तस्मा आह "कालेना"तिआदि । एकक्खणे उभयविपाकदानवानं नाम नत्थि एकस्मिं खणे चित्तद्वयूपसहिताय सत्तसन्ततिया अभावतो। यथा पन द्वयकारिनो सुखदुक्खपटिसंवेदिता सम्भवति, तं दस्सेतुं “येन पना"तिआदि वुत्तं । एवंभूतोति विकलावयवो । द्वेपिहि कुसलाकुसलकम्मानि कतूपचितानि सभावतो बलवन्तानेव होन्ति, तस्मा मरणकाले उपट्टहन्ति । तेसु अकुसलं बलवतरं होति पच्चयलाभतो। निकन्तिआदयो हि पच्चयविसेसा अकुसलस्सेव सभागा, न कुसलस्स, तस्मा कतूपचितभावेन समानबलेसुपि कुसलाकुसलेसु पच्चयलाभेन विपच्चितुं लद्धोकासताय कुसलतो अकुसलं बलवतरं होतीति, तथाभूतम्पि तं यथा विपाकदाने लद्धोकासस्स कुसलस्सापि अवसरो होति, तथा लद्धपच्चयं पटिसन्धिदानाभिमुखं कुसलं पटिबाहित्वा पटिसन्धिं देन्तं तिरच्छानयोनियं निब्बत्तापेतीति । “अकुसलं बलवतरं होती"ति एत्थ “अकुसलं चे बलवतरं होति, तं कुसलं पटिबाहित्वा''ति वुत्तनयेनेव अत्थं वत्वा तेसु कुसलं चे बलवतरं होति,
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(४.१३८-१४०)
तञ्च अकुसलं पटिबाहित्वा मनुस्सयोनियं निब्बत्तापेति, अकुसलं पवत्तिवेदनीयं होति, अथ नं तं काणम्पि करोति खुज्जम्पि पीठसप्पिम्पि कुच्छिरोगादीहि वा उपहृतं । एवं सो पवत्तियं नानप्पकारं दुक्खं पच्चनुभवतीति इदं सन्धाय वुत्तं "सुखदुक्खप्पटिसंवेदी होती'ति । तत्रायं विनिच्छयो- वुत्तकाले वा कारेन समानबलेसु कुसलाकुसलकम्मेसु उपठ्ठहन्तेसु मरणस्स आसन्नवेलायं यदि बलवतरानि कुसलजवनानि जवन्ति, यथाउपट्टितं अकुसलं पटिबाहित्वा कुसलं वुत्तनयेन पटिसन्धिं देति । अथ बलवतरानि अकुसलजवनानि जवन्ति, यथाउपट्टितं कुसलं पटिबाहित्वा अकुसलं वुत्तनयेनेव पटिसन्धिं देति । तं किस्स हेतु ? उभिन्नं कम्मानं समानबलवभावतो, पच्चयन्तरसापेक्खतो चाति, सब्बं वीमंसित्वा गहेतब्बं ।
बोधिपक्खियभावनावण्णना
१३८. बोधि वुच्चति मग्गसम्मादिवि, चत्तारि अरियसच्चानि बुज्झतीति कत्वा, सभावतो, तंसभावतो च तस्सा पक्खे भवाति बोधिपक्खिया, सतिवीरियादयो धम्मा, तेसं बोधिपक्खियानं। पटिपाटियाति बोधिपक्खियदेसनापटिपाटिया । भावनं अनुगन्त्वाति अनुक्कमेन पवत्तं भावनं पत्वा । तेनाह “पटिपज्जित्वा"ति । सउपादिसेसाय निब्बानधातुया वसेन खीणासवस्स सेट्ठभावं लोकस्स पाकटं कत्वा दस्सेतुं सक्का, न इतराय सब्बसो अपञत्तिभावूपगमने तस्स अदस्सनतोति वुत्तं "परिनिब्बातीति किलेसपरिनिब्बानेन परिनिब्बायती"ति । विनिवत्तेत्वाति ततो चतुवण्णतो नीहरित्वा ।
१४०. तमेवत्थन्ति “खीणासवोव देवमनुस्सेसु सेट्ठो''ति वुत्तमेवत्थं ।
सेट्ठच्छेदकवादमेवाति जातिब्राह्मणानं सेट्ठभावसमुच्छेदकमेव कथं । दस्सेत्वा भासित्वा । सुत्तन्तं विनिवत्तेत्वाति पुब्बे लोकियधम्मसन्दस्सनवसेन पवत्तं अग्गझसुत्तं “सत्तन्नं बोधिपक्खियानं धम्मानं भावनमन्वाया''तिआदिना ततो विनिवत्तेत्वा नीहरित्वा तेन असंसर्ल्ड कत्वा । आवज्जन्ताति समन्नाहरन्ता । अनुमज्जन्ताति पुब्बेनापरं अत्थतो विचरन्ताति ।
अग्गझसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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५. सम्पसादनीयसुत्तवण्णना
सारिपुत्तसीहनादवण्णना १४१. पावारेन्ति सञ्छादेन्ति सरीरं एतेनाति पावारो, वत्थं । पावरणं वा पावारो, “वत्थं दुस्स"न्ति परियायसदा एतेति दुस्समेव पावारो, सो एतस्स बहुविधो अनेककोटिप्पभेदो भण्डभूतो अत्थीति दुस्सपावारिको। सो किर पुब्बे दहरकाले दुस्सपावारभण्डमेव बहुं परिग्गहेत्वा वाणिज्जं अकासि, तेन नं सेट्ठिट्टाने ठितम्पि “पावारिको" त्वेव सञ्जानन्ति । भगवतीति इति-सदो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, तेन भगवन्तं उपसङ्कमित्वा थेरेन वुत्तवचनं सब्द सङ्गण्हाति । “कस्मा एवं अवोचा'ति तथावचने कारणं पुच्छित्वा "सोमनस्सपवेदनत्थ"न्ति कस्मा पयोजनं विस्सज्जितं, तयिदं अम्बं पुट्ठस्स लबुजं ब्याकरणसदिसन्ति ? नयिदमेवं चिन्तेतब्बं । या हिस्स थेरस्स तदा भगवति सोमनस्सुप्पत्ति, सा निद्धारितरूपा कारणभावेन चोदिता, तस्मा एवं अवोचाति, सा एव च यस्मा निद्धारितरूपा पवेदनवसेन भगवतो सम्मुखा तथावचनं पयोजेति, तस्मा “अत्तनो उप्पन्नसोमनस्सपवेदनत्थ''न्ति पयोजनभावेन विस्सज्जितं ।
तत्राति तस्मिं सोमनस्सपवेदने । विहारे निवासपरिवत्तनवसेन सुनिवत्थनिवासनो। आभुजित्वाति आबन्धित्वा ।
समापत्तितो वुट्ठाय “अहो सन्तो वतायं अरियविहारो''ति समापत्तिसुखपच्चवेक्षणमुखेन अत्तनो गुणे अनुस्सरितुं आरद्धो, आरभित्वा च नेसं तं तं सामञविसेसविभागवसेन अनुस्सरि । तथा हि “समाधी''ति सामञतो गहितस्सेव “पठमं झान''न्तिआदिना विसेसविभागो, “पञआ"ति सामञतो च गहितस्सेव “विपस्सनाआण"न्तिआदिना विसेसविभागो उद्धटो। “लोकियाभिआसु दिब्बचक्खुञाणस्सेव गहणं
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१४१-१४१)
थेरस्स इतरेहि सातिसयन्ति दस्सेतु'न्ति वदन्ति, पुब्बेनिवासञआणम्पि पन "कप्पसतसहस्साधिकस्सा''तिआदिना किच्चवसेन दस्सितमेव, लक्खणहारवसेन वा इतरेसं पेत्थ गहितता वेदितब्बा।
अत्थप्पभेदस्स सल्लक्खणविभावनववत्थानकरणसमत्थं अत्थे पभेदगतं जाणं अत्थपटिसम्भिदा। तथा धम्मप्पभेदस्स सल्लक्खणविभावनववत्थानकरणसमत्थं धम्मे पभेदगतं आणं धम्मपटिसम्भिदा। निरुत्तिपभेदस्स सल्लक्खणविभावनववत्थानकरणसमत्थं निरुत्तियं पभेदगतं आणं निरुत्तिपटिसम्भिदा। पटिभानप्पभेदस्स सल्लक्खणविभावनववत्थान करणसमत्थं पटिभाने पभेदगतं आणं पटिभानपटिसम्भिदा। अयमेत्य सङ्ग्रेपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गे, (विसुद्धि० २.४२८) तं संवण्णनासु (विसुद्धि० टी० २.४२८) वुत्तनयेनेव वेदितब्बो । सावकविसये परमुक्कंसगतं आणं सावकपारमित्राणं सब्बञ्जतञाणं विय सब्बजेय्यधम्मसु । तस्सापि हि विसु परिकम्मं नाम नत्थि, सावकपारमिया पन सम्मदेव परिपूरितत्ता अग्गमग्गसमधिगमेनेवस्स समधिगमो होति । सब्बञ्जतञाणस्सेव सम्मासम्बुद्धानं याव निसिन्नपल्लङ्का अनुस्सरतोति योजना ।
भगवतो सीलं निस्साय गुणे अनुस्सरितुमारद्धोति योजना । यस्मा गुणानं बहुभावतो नेसं एकझं आपाथागमनं नत्थि, सति च तस्मिं अनिरूपितरूपेनेव अनुस्सरणेन भवितब्बं, तस्मा थेरो सविसये ठत्वा ते अनुपदं सरूपतो अनुस्सरि, अनुस्सरन्तो च सब्बपठमं सीलं अनुस्सरि, तं दस्सेन्तो "भगवतो सीलं निस्साया"ति आह, सीलं आरब्भाति अत्थो । सेसपदेसुपि एसेव नयो । यस्मा चेत्थ थेरो एकेकवसेन भगवतो गुणे अनुस्सरित्वा ततो परं चतुक्कपञ्चकादिवसेन अनुस्सरि, तस्मा “चत्तारो इद्धिपादे''ति वत्वा ततो परं बोज्झङ्गभावनासामञ्जन इन्द्रियेसु वत्तब्बेसु तानि अग्गहेत्वा “चत्तारो मग्गे"तिआदि वुत्तं । चतुयोनिपरिच्छेदकाणं महासीहनादसुत्ते (म० नि० १.१५२) आगतनयेनेव वेदितब् । चत्तारो अरियवंसा अरियवंससुत्ते (अ० नि० १.४.२८) आगतनयेनेव वेदितब्बा ।
पधानियङ्गादयो सङ्गीति (दी० नि० ३.३१७) दसुत्तरसुत्तेसु (दी० नि० ३.३५५) आगमिस्सन्ति । छ सारणीय धम्मा परिनिब्बानसुत्ते (दी० नि० २.१४१) आगता एव । सुखं सुपनादयो (अ० नि० ३.११.१५; पटि० म० २.२२) एकादस मेत्तानिसंसा | "इदं दुक्खं अरियसच्चन्तिआदिना सं० नि० ३.५.१०८१, महाव० १५, पटि० म० २.३०) चतूसु अरियसच्चेसु तिपरिवत्तवसेन आगता द्वादस धम्मचक्काकारा। मग्गफलेसु
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.१४१-१४१)
सारिपुत्तसीहनादवण्णना
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पत्तानि अट्ठ जाणानि, छ असाधारणञाणानि चाति चुद्दस बुद्धज्ञाणानि। पञ्चदस मुत्तिपरिपाचनिया धम्मा मेघियसुत्तवण्णनायं (उदा० अट्ठ० ३१) गहेतब्बा, सोळसविधा नापानस्सति आनापानस्सतिसुत्ते (म० नि० ३.१४८), अट्ठारस बुद्धधम्मा (महानि० १, १५६; चूळनि० ८५; पटि० म० ३.५; दी० नि० अट्ठ० ३.३०५) एवं देतब्बा --
अतीतंसे बुद्धस्स भगवतो अप्पटिहतं आणं, अनागतंसे, पच्चुप्पन्नंसे बुद्धस्स भगवतो अप्पटिहतं जाणं । इमेहि तीहि धम्मेहि समन्नागतस्स बुद्धस्स भगवतो सब्बं कायकम्मं आणपुब्बङ्गमं आणानुपरिवत्ति, सब्बं वचीकम्मं, सब्बं मनोकम्म आणपुब्बङ्गमं जाणानुपरिवत्ति । इमेहि छहि धम्मेहि समन्नागतस्स बुद्धस्स भगवतो नत्थि छन्दस्स हानि, नत्थि धम्मदेसनाय हानि, नत्थि वीरियस्स हानि, नस्थि समाधिस्स हानि, नत्थि पञ्जाय हानि, नत्थि विमुत्तिया हानि । इमेहि द्वादसहि धम्मेहि समन्नागतस्स बुद्धस्स भगवतो नत्थि दवा, नत्थि रवा, नत्थि अप्फुटुं, नत्थि वेगायितत्तं, नत्थि अब्यावटमनो, नत्थि अप्पटिसङ्खानुपेक्खाति ।।
तत्थ “नथि दवाति खिड्डाधिप्पायेन किरिया नत्थि । नत्थि रवाति सहसा किरिया थी''ति वदन्ति । सहसा पन किरिया दवा, “अझं करिस्सामी''ति अञस्स करणं ।। नत्थि अप्फुटन्ति आणेन अफुसितं नत्थि । नत्थि वेगायितत्तन्ति तुरितकिरिया नत्थि । स्थ अब्यावटमनोति निरत्थकचित्तसमुदाचारो नत्थि। नत्थि अप्पटिसङ्खानुपेक्खाति
आणुपेक्खा नत्थि । केचि पन “नत्थि धम्मदेसनाय हानी''ति अपठित्वा “नत्थि छन्दस्स नि, नत्थि वीरियस्स हानि, नत्थि सतिया [सत्तिया (विभं० मूलटी० तन्तभाजनीयवण्णना)] हानी''ति पठन्ति ।
जरामरणादीसु एकादससु पटिच्चसमुप्पादङ्गेसु पच्चेकं चतुसच्चयोजनावसेन पवत्तानि तुचत्तालीस जाणानियेव (सं० नि० १.२.३३) सुखविसेसानं अधिट्ठानभावतो णवत्थूनि। वुत्तव्हेतं -
“यतो खो भिक्खवे अरियसावको एवं जरामरणं पजानाति, एवं जरामरणसमुदयं पजानाति, एवं जरामरणनिरोधं पजानाति, एवं जरामरणनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाती"तिआदि (सं० नि० १.२.३३)।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१४१-१४१)
जरामरणसमुदयोति चेत्थ जाति अधिप्पेता। सेसपदेसु भवादयो वेदितब्बा ।
कुसलचित्तुप्पादेसु फस्सादयो परोपण्णास कुसलधम्मा।
"जातिपच्चया जरामरण''न्ति जाणं, “असति जातिया नत्थि जरामरण"न्ति जाणं, अतीतम्पि अद्धानं “जातिपच्चया जरामरण''न्ति आणं, “असति जातिया नत्थि जरामरण"न्ति आणं, अनागतम्पि अद्धानं “जातिपच्चया जरामरण''न्ति आणं, “असति जातिया नत्थि जरामरण"न्ति आणं । “यम्पि इदं धम्मट्ठितिजाणं, तम्पि खयधम्मवयधम्म विरागधम्म निरोधधम्म''न्ति आणन्ति एवं जरामरणादीसु एकादससु पटिच्चसमुप्पादङ्गेसु पच्चेकं सत्त सत्त कत्वा सत्तसत्तति आणवत्थूनि (सं० नि० १.२.३४) वेदितब्बानि । तत्थ यम्पीति छब्बिधम्पि पच्चवेक्खणाणं विपस्सनारम्मणभावेन एकझं गहेत्वा वुत्तं । धम्मट्ठितित्राणन्ति छपि जाणानि सजिपित्वा वुत्तं जाणं । “खयधम्म"न्तिआदिना पन पकारेन पवत्तञाणस्स दस्सनं, विपस्सनादस्सनतो विपस्सना पटिविपस्सनादस्सनमत्तमेवाति न तं "अङ्ग''न्ति वदन्ति, पाळियं (सं० नि० १.२.३४) पन सब्बत्थ आणवसेन अङ्गानं वुत्तत्ता “निरोधधम्मन्ति आण"न्ति इति-सद्देन पकासेत्वा वुत्तं विपस्सनाञाणं सत्तम आणन्ति अयमत्थो दिस्सति । न हि यम्पि इदं धम्मट्टितिञाणं, तम्पि आणन्ति सम्बन्धो होति जाणग्गहणेन एतस्मिं आणभावदस्सनस्स अनधिप्पेतत्ता, “खयधम्म...पे०... निरोधधम्म''न्ति एतेसं सम्बन्धभावप्पसङ्गो चाति । चतुवीसति...पे०... वजिरजाणन्ति एत्थ केचि ताव आहु “भगवा देवसिकं द्वादसकोटिसतसहस्सक्खत्तुं महाकरुणासमापत्तिं समापज्जति, द्वादसकोटिसतसहस्सक्खत्तुमेव च अरहत्तफलसमापत्तिं समापज्जति, तासं पुरेचरं, सहवचरञ्च आणं पटिपक्खेहि अभेज्जतं, महत्तञ्च उपादाय महावजिरञाणं नाम | वुत्तज्हेतं भगवता -
'तथागतं, भिक्खवे, अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं द्वे वितक्का बहुलं समुदाचरन्ति - खेमो च वितक्को, पविवेको च वितक्को'ति (इतिवु० ३८)।
खेमवितक्को हि भगवतो महाकरुणासमापत्तिं पूरेत्वा ठितो, पविवेकवितक्को अरहत्तफलसमापत्तिं । बुद्धानहि भवङ्गपरिवासो लहुको, मत्थकप्पत्तो समापत्तीसु वसीभावो, तस्मा समापज्जनवुढानानि कतिपयचित्तक्खणेहेव इज्झन्ति । पञ्च रूपावचरसमापत्तियो चतस्सो अरूपसमापत्तियो अप्पमञासमापत्तिया सद्धिं दस, निरोधसमापत्ति,
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१-१४१)
सारिपुत्तसीहनादवण्णना
फलसमापत्ति चाति द्वादसेता समापत्तियो भगवा पच्चेकं दिवसे दिवसे तसहस्सक्खत्तुं पुरेभत्तं समापज्जति, तथा पच्छाभत्त"न्ति । “एवं ज्जतब्बसमापत्तिसञ्चारितत्राणं महावजिरत्राणं नामा''ति केचि ।
अपरे पन “यं तं भगवता अभिसम्बोधिदिवसे पच्छिमयामे पटिच्चसमुप्पादमुखेन मनयेन जरामरणतो पट्ठाय आणं ओतारेत्वा अनुपदधम्मविपस्सनं आरभन्तेन यथा पुरिसो सुविदुग्गं महागहनं महावनं छिन्दन्तो अन्तरन्तरा निसानसिलायं फरसुं तं करोति, एवमेव निसानसिलासदिसियो समापत्तियो अन्तरन्तरा समापज्जित्वा स तिक्खविसदसूरभावं सम्पादेतुं अनुलोमपटिलोमतो पच्चेकं पटिच्चसमुप्पादङ्गवसेन न्तो दिवसे दिवसे लक्खकोटिलक्खकोटिफलसमापत्तियो समापज्जति, तं सन्धाय वुत्तं सति...पे०... महावजिरञाणं निस्साया'ति' | ननु भगवतो समापत्तिसमापज्जने मे पयोजनं नत्थीति ? नयिदं एकन्तिकं । तथा हि वेदना टिप्पणामनादीसु सविसेसं मपुब्बङ्गमेन समापत्तियो समापज्जि। अपरे पन “लोकियसमापत्तिसमापज्जने म्मेन पयोजनं नत्थि । लोकुत्तरसमापत्तिसमापज्जने तज्जं परिकम्मं इच्छितब्बमेवा''ति
"अपरम्परा''ति पदं येसं देसनाय अस्थि, ते अपरम्परियाव। कुसलपञत्तियन्ति धम्मानं पञापने । अनुत्तरोति उत्तमो। उपनिस्सये ठत्वाति आणूपनिस्सये ठत्वा सो पुब्बूपनिस्सयो पुब्बयोगो, तत्थ पतिट्टाय । महन्ततो सद्दहति पटिपक्खविगमेन स विय सद्धायपि तिक्खविसदभावापत्तितो। अवसेसअरहन्तेहीति पकतिसावकेहि । ते महाथेरा परमत्थदीपनियं थेरगाथावण्णनायं नामतो उद्धटा । चत्तारो महाथेराति स्सपअनुरुद्धमहाकच्चानमहाकोट्टिकत्थेरा | तेसुपि अग्गसावकेसु सारिपुत्तत्थेरो पञआय भावतो। सारिपुत्तत्थेरतोपि एको पच्चेकबुद्धो तिक्खविसदजाणो अभिनीहारमहन्तताय जाणसम्भारत्ता । सतिपि पच्चेकबोधिया अविसेसेसु बहूसु एकज्झं सन्निपतितेसु गवसेन लोकिये विसये सिया कस्सचि आणस्स विसिट्ठताति दस्सेतुं “सचे तिआदि वुत्तं । “सब्ब बुद्धोव बुद्धगुणे महन्ततो सद्दहती"ति इदं हेट्ठा देसनासोतवसेन वुत्तं । बुद्धा हि बुद्धगुणे महत्तं पच्चक्खतोव पस्सन्ति, न वसेन ।
इदानि यथावुत्तमत्थं उपमाय विभावेतुं “सेय्यथापि नामा''तिआदि आरद्धं । गम्भीरो
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१४१-१४
उत्तानोति गम्भीरो वा उत्तानो वाति जाननत्थं । “एवमेवा"तिआदि यथादस्सिताय उपमा उपमेय्येन संसन्दनं । बुद्धगुणेसु अप्पमत्तविसयम्पि लोकियमहाजनस्स आ अपवत्तितरूपेनेव पवत्तति अनवत्तितसभावत्ताति वुत्तं "एकव्याम...पे०... वेदितब्बा"ति तत्थ ञातउदकं वियाति पमाणतो आतउदकं विय । अरियानं पन तत्थ अत्तनो विस पवत्तनकजाणं पवत्तितरूपेनेव पवत्तति अत्तनो पटिवेधानुरूपं, अभिनीहारानुरूप अवत्तितसभावत्ताति दस्सेन्तो "दसव्यामयोत्तेना"तिआदिमाह । तत्थ पटिविद्धसच्चान पटिपक्खविधमनपुब्बयोगविसेसवसेन आणं सातिसयं, महानुभावञ्च होतीति इममत्थं दस्से सोतापन्नभाणस्स दसब्यामउदकं ओपम्मभावेन दस्सेत्वा ततो परे दसुत्तरदिगुणदसगुणअसीतिगुणविसिटुं उदकं ओपम्मं कत्वा दस्सितं । ननु एवं सन् बुद्धगुणा परिमितपरिच्छिन्ना, थेरेन च ते परिच्छिज्ज आताति आपज्जतीति ? नापज्जती दस्सेन्तो "तत्थ यथा सो पुरिसो"तिआदिमाह। तत्थ सो पुरिसोति र चतुरासीतिब्यामसहस्सप्पमाणेन योत्तेन चतुरासीतिब्यामसहस्सट्टाने महासमुद्दे उदकं मिनिट ठितो पुरिसो। सो हि थेरस्स उपमाभावेन गहितो। धम्मन्वयेनाति अनुमानञाणेन । तजि सिद्ध धम्म अनुगन्त्वा पवत्तनतो “धम्मन्वयो"ति वुच्चति, तथा अन्वयवसेन अत्थस बुज्झनतो अन्वयबुद्धि, अनुमेय्यं अनुमिनोतीति अनुमानं, निदस्सने दिट्ठनयेन अनुमेय गण्हातीति "नयग्गाहो"ति च वुच्चति । तेनाह "धम्मन्वयेना''तिआदि । स्वायं धम्मन्वयो : यस्स कस्सचि होति, अथ खो तथारूपस्स अग्गसावकस्सेवाति आह "सावकपारमित्रा ठत्वा"ति । यदि थेरो बुद्धगुणे एकदेसतो पच्चक्खे कत्वा तदझे नयग्गाहेन गहि, न एवं सन्ते बुद्धगुणा परिमितपरिच्छिन्ना आपन्नाति ? नयिदं एवन्ति दस्सेन्तो “अनन्त अपरिमाणा"ति ।
"सद्दहती''ति वत्वा पुन तमेवत्थं विभावेन्तो “थेरेन हि...पे०... बहुतरा"ति आह कथं पनायमत्थो एवं दट्टब्बोति एवं अधिप्पायभेदकं उपमाय सञापेतुं “यथा का विया"तिआदि वुत्तं "उपमायमिधेकच्चे विघु पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ती''ति (सं० नि० १.२.६७) इतो नव इतो नवाति इतो मज्झट्ठानतो याव दक्खिणतीरा नद इतो मज्झट्ठानतो याव उत्तरतीरा नव । इदानि यथावुत्तमत्थं सुत्तेन समत्थेतुं “बुद्धोपी"ति गाथमाह ।
यमकयुगळमहानदीमहोघो वियाति द्विन्नं एकतो समागतत्ता युगळभूतानं महानदी महोघो विय।
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(५.१४२-१४२)
सारिपुत्तसीहनादवण्णना
अनुच्छविकं कत्वाति योयं मम पसादो बुद्धगुणे आरब्भ ओगाळहो हुत्वा उप्पन्नो, तं अनुच्छविकं अनुरूपं कत्वा । पटिग्गहेतुं सम्पटिच्छितुं अञो कोचि न सक्खिस्सति याथावतो अनवबुज्झनतो। पटिग्गहेतुं सक्कोति तस्स हेतुतो, पच्चयतो, सभावतो, किच्चतो, फलतो सम्मदेव पटिविज्झनतो। पूरत्तन्ति पुण्णभावो। पग्घरणकालेति विकिरणकाले, पतनकालेति अत्थो। “पसनो"ति इमिना पसादस्स वत्तमानता दीपिताति “उप्पनसद्धोति इमिनापि सद्धाय पच्चुप्पन्नता पकासिताति आह "एवं सद्दहामीति अत्थो"ति । अभिज्ञायतीति अभिञो, अधिको अभिञो भिय्योभिज्ञो, सो एव अतिसयवचनिच्छावसेन “भिय्योभिज्ञतरो"ति वुत्तोति आह "भिय्यतरो अभिज्ञातो"ति । दुतियविकप्पे पन अभिजानातीति अभिञा, अभिविसिट्ठा पञ्जा, भिय्यो अभिञा एतस्साति भिय्योभिज्ञो, सो एव अतिसयवचनिच्छावसेन भिय्योभिज्ञतरो, स्वायमस्स अतिसयो अभिजाय भिय्योभावकतोति आह "भिय्यतराभिओ वा"ति । सम्बुज्झति एतायाति सम्बोधि, सब्बञ्जतञाणं, अग्गमग्गजाणञ्च । सब्ब तञाणपदट्ठानहि अग्गमग्गजाणं, अग्गमग्गजाणपट्ठानञ्च सब्ब ताणं सम्बोधि नाम । तत्थ पधानवसेन तदत्थदस्सने पठमविकप्पो, पदट्टानवसेन दुतियविकप्पो । कस्मा पनेत्थ अरहत्तमग्गजाणस्सेव गहणं, ननु हेट्ठिमानिपि भगवतो मग्गजाणानि सवासनमेव यथासकं पटिपक्खविधमनवसेन पवत्तानि । सवासनप्पहानहि अय्यावरणप्पहानन्ति ? सच्चमेतं, तं पन अपरिपुण्णं पटिपक्खविधमनस्स विप्पकतभावतोति आह “अरहत्तमग्गजाणे वा"ति । अग्गमग्गवसेन चेत्थ अरियानं बोधित्तयपारिपूरीति दस्सेतुं “अरहत्तमग्गेनेव ही"तिआदि वुत्तं । निप्पदेसाति अनवसेसा। गहिता होन्तीति अरहत्तमग्गेन गहितेन अधिगतेन गहिता अधिगता होन्ति । सब्बन्ति तेहि अधिगन्तब्बं । तेनाति सम्बोधिना सब्ब ताणपदट्ठानेन अरहत्तमग्गाणेन ।
१४२. खादनीयानं उळारता सातरसानुभावेनाति आह "मधुरे आगच्छती"ति । पसंसाय उळारता विसिट्ठभावेनाति आह "सेट्टे"ति, ओभासस्स उळारता महन्तभावेनाति वुत्तं "विपुले"ति । उसभस्स अयन्ति आसभी, इध पन आसभी वियाति आसभी। तेनाह "उसभस्स वाचासदिसी"ति । येन पन गुणेनस्सा तंसदिसता, तं दस्सेतुं “अचला असम्पवेधी"ति वुत्तं । यतो कुतोचि अनुस्सवनं अनुस्सवो। विज्जाहानेसु कतपरिचयानं आचरियानं तं तमत्थं विज्ञापेन्ती पवेणी आचरियपरम्परा। केवलं अत्तनो मतिया "इतिकिर एवंकिराति परिकप्पना इतिकिर। पिटकस्स गन्थस्स सम्पदानतो सयं सम्पदानभावेन गहणं पिटकसम्पदानं। यथासुतानं अत्थानं आकारस्स परिवितक्कनं आकारपरिवितक्को। तथैव "एवमेत"न्ति दिट्ठिया निज्झानखमनं दिट्ठिनिज्झानक्खन्ति ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१४२-१४२)
आगमाधिगमेहि विना तक्कमग्गं निस्साय तक्कनं तक्को। अनुमानविधिं निस्साय नयग्गाहो। यस्मा बुद्धविसये ठत्वा भगवतो अयं थेरस्स चोदना, थेरस्स च सो अविसयो, तस्मा “पच्चक्खतो आणेन पटिविज्झित्वा विया"ति वुत्तं । सीहनादो वियाति सीहनादो, तंसदिसता चस्स सेट्ठभावेन, सो चेत्थ एवं वेदितब्बोति दस्सेन्तो "सीहनादो"तिआदिमाह । नेव दन्धायन्तेनाति न मन्दायन्तेन । न भग्गरायन्तेनाति अपरिसङ्कन्तेन ।
अनुयोगदापनत्थन्ति अनुयोगं सोधापेतुं । विमद्दक्खमज्हि सीहनादं नदन्तो अत्थतो तत्थ अनुयोगं सोधेति नाम | अनुयुञ्जन्तो च नं सोधापेति नाम । दातुन्ति सोधेतुं । केचि "दानत्थ''न्ति अत्थं वदन्ति, तदयुत्तं । न हि यो सीहनादं नदति, सो एव तत्थ अनुयोगं देतीति युज्जति । निघंसनन्ति विमद्दनं । धममानन्ति तापयमानं, तापनञ्चेत्थ गग्गरिया धमापनसीसेन वदति । सब्बे तेति सब्बे ते अतीते निरुद्धे सम्मासम्बुद्धे, तेनेतं दस्सेति - ये ते अहेसुं अतीतं अद्धानं तव अभिनीहारतो ओरं सम्मासम्बुद्धा, तेसं ताव सावकाणगोचरे धम्मे परिच्छिन्दन्तो मारादयो विय बुद्धानं लोकियचित्तचारं त्वं जानेय्यासि । ये पन ते अब्भतीता ततो परतो छिन्नवटुमा छिन्नपपञ्चा परियादिण्णवट्टा सब्बदुक्खवीतिवत्ता सम्मासम्बुद्धा, तेसं सब्बेसम्पि सावकञाणस्स अविसयभूते धम्मे कथं जानिस्ससीति ।
अनागतबुद्धानं पनाति पन-सद्दो विसेसत्थजोतनो, तेन अतीतेसु ताव खन्धानं भूतपुब्बत्ता तत्थ सिया आणस्स सविसये गति, अनागतेसु पन सब्बसो असञ्जातेसु कथन्ति इममत्थं जोतेति। तेनाह “अनागतापी"तिआदि । “चित्तेन परिच्छिन्दित्वा विदिता''ति कस्मा वुत्तं, ननु अतीतानागते सत्ताहे एव पवत्तं चित्तं चेतोपरियञाणस्स विसयो, न ततो परन्ति ? नयिदं चेतोपरियजाणकिच्चवसेन वुत्तं, अथ खो पुब्बेनिवासअनागतंसजाणवसेन वुत्तं, तस्मा नायं दोसो ।
विदितवाने न करोति सिक्खापदेनेव तादिसस्स पटिक्खेपस्स पटिक्खित्तत्ता, सेतुघाततो च । कथं पन थेरो द्वयसम्भवे पटिक्खेपमेव अकासि, न विभज्ज ब्याकासीति आह “थेरो किरा"तिआदि । पारं परियन्तं मिनोतीति पारमी, सा एव आणन्ति पारमिञाणं, सावकानं पारमिञाणं सावकपारमिजाणं, तस्मिं । सावकानं उक्कंसपरियन्तगते जानने नायं अनुयोगो, अथ खो सब्बञ्जतञाणे सब्बञ्जताय जानने । केचि पन "सावकपारमिञआणेति सावकपारमिञाणविसयेति अत्थं वदन्ति । तथा सेसपदेसुपि ।
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(५.१४३-१४३)
सारिपुत्तसीहनादवण्णना
सील..पे०... समत्थन्ति सीलसमाधिपाविमुत्तिसङ्घातकारणानं जाननसमत्थं । बुद्धसीलादयो हि बुद्धानं बुद्धकिच्चस्स, परेहि “बुद्धा"ति जाननस्स च कारणं ।
१४३. अनुमानजाणं विय संसयपिट्टिकं अहुत्वा “इदमिदन्ति यथासभावतो जेय्यं धारेति निच्छिनोतीति धम्मो, पच्चक्खञाणन्ति आह "धम्मस्स पच्चक्खतो आणस्सा"ति | अनुएतीति अन्वयोति आह "अनुयोगं अनुगन्त्वा'ति । पच्चक्खसिद्धहि अत्थं अनुगन्त्वा अनुमानञाणस्स पवत्ति दिवेन अदिट्ठस्स अनुमानन्ति वेदितब्बो | विदिते वेदकम्पि आणं अत्थतो विदितमेव होतीति “अनुमानजाणं नयग्गाहो विदितो"ति वुत्तं । विदितोति विद्धो पटिलद्धो, अधिगतोति अत्थो । अप्पमाणोति अपरिमाणो महाविसयत्ता। तेनाह "अपरियन्तो"ति । तेनाति अपरियन्तत्ता, तेन वा अपरियन्तेन जाणेन, एतेनेव थेरो यं यं अनुमेय्यमत्थं आतुकामो होति, तत्थ तत्थस्स असङ्गमप्पटिहटअनुमानजाणं पवत्ततीति दस्सेति । तेनाह "सो इमिना"तिआदि । तत्थ इमिनाति इमिना कारणेन | पाकारस्स थिरभावं उद्घमुद्धं आपेतीति उद्धापं, पाकारमूलं | आदि-सद्देन पाकारद्वारबन्धपरिखादीनं सङ्गहो वेदितब्बो । पच्चन्ते भवं पच्चन्तिमं। पण्डितदोवारिकट्ठानियं कत्वा थेरो अत्तानं दस्सेतीति दस्सेन्तो "एकद्धारन्ति कस्मा आहा"ति चोदनं समुट्ठापेसि । यस्सा पञ्जाय वसेन पुरिसो “पण्डितो''ति वुच्चति, तं पण्डिच्चन्ति आह "पण्डिच्चेन समन्नागतो"ति । तंतंइतिकत्तब्बतासु छेकभावो ब्यत्तभावो वेय्यत्तियं। मेधति सम्मोसं हिंसति विधमतीति मेधा, सा एतस्स अत्थीति मेधावी। ठाने ठाने उप्पत्ति एतिस्सा अत्थीति ठानुप्पत्तिका, ठानसो उप्पज्जनकपञ्जा। अनुपरियायन्ति एतेनाति अनुपरियायो, सो एव पथोति अनुपरियायपथो, परितो पाकारस्स अनुसंयायनमग्गो । पाकारभागा सन्धातब्बा एत्थाति पाकारसन्धि, पाकारस्स फुल्लितप्पदेसो । सो पन हेट्ठिमन्तेन द्विन्नम्पि इट्ठकानं विगमेन एवं वुच्चतीति आह "द्विन्नं इट्ठकानं अपगतद्वान"न्ति । छिनट्ठानन्ति छिन्नभिन्नप्पदेसो, छिन्नट्ठानं वा । तहि “विवर''न्ति वुच्चति ।
किलिट्ठन्ति मलीनं । उपतापेन्तीति किलेसपरिळाहेन सन्तापेन्ति । विबाधेन्तीति पीळेन्ति । उप्पन्नाय पञ्जाय नीवरणेहि न किञ्चि कातुं सक्काति आह "अनुप्पन्नाय पञ्जाय उप्पज्जितुं न देन्ती"ति । तस्माति पच्चयूपघातेन उप्पज्जितुं अप्पदानतो। चतूसु सतिपट्टानेसु सुटु ठपितचित्ताति चतुब्बिधायपि सतिपट्टानभावनाय सम्मदेव ठपितचित्ता । यथासभावेन भावत्वाति अविपरीतसभावेन यथा पटिपक्खा समुच्छिज्जन्ति, एवं भावेत्वा ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१४४-१४४)
___ पुरिमनये सतिपट्टानानि, बोज्झङ्गा च मिस्सका अधिप्पेताति ततो अजथा वत्तुं "अपिचेत्था"तिआदि वुत्तं । मिस्सकाति समथविपस्सनामग्गवसेन मिस्सका । “चतूसु सतिपट्ठानेसु सुप्पतिहितचित्ता''तिआदितो वुत्तत्ता सतिपट्ठाने विपस्सनाति गहेत्वा “सत्त बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा''ति वुत्तत्ता, मग्गपरियापन्नानंयेव च नेसं निप्परियायबोज्झङ्गभावतो, तेसु च सब्बसो अधिगतेसु लोकनाथेन सब्बञ्जताणम्पि अधिगतमेव होतीति "बोझङ्गे मग्गो, सब्ब ताणञ्चाति गहिते सुन्दरो पज्हो भवेय्या"ति महासिवत्थेरो आह, न पनेवं गहितं पोराणेहीति अधिप्पायो । इतीति वुत्तप्पकारपरामसनं । थेरोति सारिपुत्तत्थेरो।
___ तत्थाति तेसु पच्चन्तनगरादीसु । नगरं विय निब्बानं तदत्थिकेहि उपगन्तब्बतो, उपगतानञ्च परिस्सयरहितसुखाधिगमनट्ठानतो। पाकारो विय सीलं तदुपगतानं परितो आरक्खभावतो। परियायपथो विय हिरी सीलपाकारस्स अधिट्ठानभावतो। वुत्तज्हेतं "परियायपथोति खो भिक्खु हिरिया एतं अधिवचन''न्ति । द्वारं विय अरियमग्गो निब्बाननगरप्पवेसनअञ्जसभावतो। पण्डितदोवारिको विय धम्मसेनापति निब्बाननगरपविठ्ठपविसनकानं सत्तानं सल्लक्खणतो। दिनोति दापितो, सोधितोति अत्थो ।
१४४. निष्फत्तिदस्सनत्थन्ति सिद्धिदस्सनत्थं, अधिगमदस्सनत्थन्ति अत्थो । "पञ्चनपुतिपासण्डे "ति इदं यस्मा थेरो परिब्बाजको हुत्वा ततो पुब्बेव निब्बानपरियेसनं चरमानो ते ते पासण्डिनो उपसङ्कमित्वा निब्बानं पुच्छि, ते नास्स चित्तं आराधेसुं, तं सन्धाय वुत्तं । ते पन पासण्डा हेट्टा वुत्ता एव । तत्थेवाति तस्सयेव भागिनेय्यस्स देसियमानाय देसनाय । परस्स वड्डितं भत्तं भुञ्जन्तो विय सावकपारमिञाणं हत्थगतं अकासि अधिगच्छि। उत्तरुत्तरन्ति हेट्ठिमस्स हेट्ठिमस्स उत्तरणतो अतिक्कमनतो उत्तरुत्तरं, ततो एव पधानभावं पापितताय पणीतपणीतं । उत्तरुत्तरन्ति वा उपरूपरि । पणीतपणीतन्ति पणीततरं, पणीततमञ्चाति अत्थो। कण्हन्ति काळकं संकिलेसधम्मं । सुक्कन्ति ओदातं वोदानधम्मं । सविपक्खं कत्वाति पहातब्बपहायकभावदस्सनवसेन यथाक्कम उभयं सविपक्खं कत्वा । “अयं कण्हधम्मो, इमस्स अयं पहायको''ति एवं कण्हं पटिबाहित्वा देसनावसेन नीहरित्वा सुक्कं, “अयं सुक्कधम्मो, इमिना अयं पहातब्बो"ति एवं सुक्कं पटिबाहित्वा कण्हं। सउस्साहन्ति फलुप्पादनसमत्थतावसेन सब्यापारं। तेनाह "सविपाक"न्ति । विपाकधम्मन्तिअत्थो।
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सारिपुत्तसीहनादवण्णना
तस्मिं देसि धम्मेति तस्मिं वुत्तनयेन भगवा तुम्हेहि देसिते धम्मे एकच्चं धम्मं नाम सावकपारमिञाणं जानित्वा पटिविज्झित्वा । तंजानने हि वुत्ते चतुसच्चधम्मजाननं अवुत्तसिद्धन्ति । “चतुसच्चधम्मेसू " ति इदं पोराणट्ठकथायं वृत्ताकारदस्सनं । विपक्खो पन परतो आगमिस्सति । एत्थाति “धम्मेसु निट्टं अगम "न्ति एतस्मिं पदे । थेरसल्लापति थेरानं सल्लापसदिसो विनिच्छयवादी । काळवल्लवासीति काळवल्लविहारवासी । इदानीति एतरहि "इदाहं भन्ते'' तिआदिवचनकाले । इमस्मिं पन टानेति “धम्मेसु निट्टं अगम "न्ति इमस्मिं पदेसे, इमस्मिं वा निट्ठानकारणभूते योनिसो परिविितक्कने । “इमस्मिं पन ठाने बुद्धगुणेसु निट्ठङ्गतो 'ति कस्मा वुत्तं, ननु सावकपारमिञाणसमधिगतकाले एव थेरो बुद्धगुणेसु निट्ठङ्गतोति ? सच्चमेतं इदानि पन तं पाकटं जातन्ति एवं वृत्तं । सब्बन्ति "चतुसच्चधम्मेसू "तिआदि सुमत्थेरेन वुत्तं सब्बं । अरहत्ते निट्टङ्गतोति एत्थापि वृत्तनयेनेव अनुयोगपरिहारा वेदितब्बा । यदिपि धम्मसेनापति “सावकपारमित्राणं मया समधिगत "न्ति इतो पुब्बेपि जानातियेव इदानि पन असङ्ख्येय्यापरिमेय्यभेदे बुद्धगुणे नयग्गाहवसेन परिग्गहेत्वा किच्चसिद्धिया तस्मिं ञाणे नङ्गो अहोसीति दस्सेन्तो “महासिवत्थेरो... पे०... धम्मेसूति सावकपारमित्राणे निट्टङ्गतो" ति अवोच ।
(५.१४४-१४४)
बुद्धगुणा पन नयतो आगता, ते नयग्गाहतो याथावतो जानन्तो सावकपारमिञाणे तथाजाननवसेन निट्टङ्गतत्ता सावकपारमिञाणमेव तस्स अपरापरुप्पत्तिवसेन, तेन तेन भावेतब्बकिच्चबहुतावसेन च “धम्मेसू "ति पुथुवचनेन वुत्तं । अनन्तापरिमेय्यानं अनञ्ञविसयानं बुद्धगुणानं नयतो परिग्गण्हनेन थेरस्स सातिसयो भगवति पसादो उप्पज्जतीति आह “भिय्योसोमत्ताया" ति आदि । " सुट्टु अक्खातो "ति वत्वा तं एवस्स सु अक्खाततं दस्सेतुं “निय्यानिको मग्गो "ति वृत्तं । स्वाक्खातता हि धम्मस्स यदत्थं देसितो, तदत्थसाधनेन वेदितब्बा | फलत्थाय नियातीत अनन्तरविपाकत्ता, अत्तनो उप्पत्तिसमनन्तरमेव फलनिप्फादनवसेन पवत्ततीति अत्थो । वट्टचारकतो निय्यातीति वा निय्यानिको, निय्यानसीलोति वा । रागदोसमोहनिम्मदनसमत्थोति इधापि "पसन्नोस्मि भगवतीति दस्सेती 'ति आनेत्वा सम्बन्धो । वङ्कादीति आदि-सद्देन जिम्हकुटिले, अञ्ञे च पटिपत्तिदोसे सङ्गण्हाति। भगवा तुम्हाकं बुद्धसुबुद्धता विय धम्मसुधम्मता, सङ्घसुप्पटिपत्ति च धम्मेसु निट्टङ्गमनेन सावकपारमिञाणे निट्ठङ्गतत्ता मय्हं सुट्टु विभूता सुपाकटा जाताति दस्सेन्तो थेरो “स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो सङ्घोति पसीदि "न्ति अवोच ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१४५-१४५)
कुसलधम्मदेसनावण्णना १४५. अनुत्तरभावोति सेट्ठभावो । अनुत्तरो भगवा येन गुणेन, सो अनुत्तरभावो, तं अनुत्तरियं । यस्मा तस्सापि गुणस्स किञ्चि उत्तरितरं नत्थि एव, तस्मा वुत्तं “सा तुम्हाकं देसना अनुत्तराति वदती''ति । कुसलेसु धम्मेसूति कुसलधम्मनिमित्तं । निमित्तत्थे हि एतं भुम्म, तस्मा कुसलधम्मदेसनाहेतुपि भगवाव अनुत्तरोति अत्थो । भूमि दस्सेन्तोति विसयं दस्सेन्तो। कुसलधम्मदेसनाय हि कुसला धम्मा विसयो । वुत्तपदेति “कुसलेसु धम्मेसू"ति एवं वुत्तवाक्ये, एवं वा वुत्तधम्मकोट्ठासे । “पञ्चधा"ति कस्मा वुत्तं, ननु छेकटेनपि कुसलं इच्छितबं “कुसलो त्वं रथस्स अङ्गपच्चङ्गान"न्तिआदीसूति (म० नि० २.८७) ? सच्चमेतं, सो पन छेकट्ठो कोसल्लसम्भूतद्वेनेव सङ्गहितोति विसुं न गहितो। “कच्चि नु भोतो कुसलं, कच्चि भोतो अनामय''न्ति . (जा० १.१५.१४६; २.२२.२००८) जातके आगतत्ता "जातकपरियायं पत्वा आरोग्यटेन कुसलं वदृती"ति वुत्तं । “तं किं मञथ, गहपतयो, इमे धम्मा कुसला वा अकुसला वा सावज्जा वा अनवज्जा वा''तिआदीसु सुत्तपदेसेसु “कुसला'ति वुत्तधम्मा एव "अनवज्जा"ति वुत्ताति आह "सुत्तन्तपरियायं पत्वा अनवज्जटेन कुसलं वट्टती"ति । अभिधम्मे “कोसल्ल"न्ति पञ्जा आगताति योनिसोमनसिकारहेतुकस्स कुसलस्स कोसल्लसम्मूतट्ठो, दरथाभावदीपनतो निद्दरथट्ठो, “कुसलस्स कतत्ता उपचितत्ता'ति वत्वा इट्टविपाकनिद्दिसनतो सुखविपाकट्ठो च अभिधम्मनयसिद्धोति आह "अभिधम्म...पे०... विपाकद्वेना"ति | बाहितिकसुत्ते (म० नि० २.३५८) भगवतो कायसमाचारादिके वण्णेन्तेन धम्मभण्डागारिकेन “यो खो महाराज कायसमाचारो अनवज्जो'ति कुसलो कायसमाचारो रञो पसेनदिस्स वुत्तो। न हि भगवतो सुखविपाककम्मं अत्थीति सब्बसावज्जरहिता कायसमाचारादयो “कुसला''ति वृत्ता, इध पन “कूसलेसू धम्मेसूति बोधिपक्खियधम्मा “कसला''ति वृत्ता, ते च समथविपस्सना मग्गसम्पयुत्ता एकन्तेन सुखविपाका एवाति अवज्जरहिततामत्तं उपादाय अनवज्जत्थो कुसल-सद्दोति आह "इमस्मिं पन...पे०... दट्टब्ब"न्ति । एवञ्च कत्वा “फलसतिपट्टानं पन इध अनधिप्पेत''न्ति इदञ्च वचनं समत्थितं होति सविपाकस्सेव गहणन्ति कत्वा ।
"चुद्दसविधेना''तिआदि सतिपट्टाने (दी० नि० २.३७६; म० नि० १.१०९) वुत्तनयेन वेदितब्बं । पग्गहद्वेनाति कुसलपक्खस्स पग्गण्हनसभावेन । किच्चवसेनाति अनुप्पन्नाकुसलानुप्पादनादिकिच्चवसेन । ततो एव चस्स चतुब्बिधता । इज्झनटेनाति
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(५.१४६-१४६)
आयतनपण्णत्तिदेसनावण्णना
निप्पज्जनसभावेन । छन्दादयो एव इद्धिपादेसु विसिट्ठसभावा, इतरे अविसिट्ठा, तेसम्पि विसेसो छन्दादिकतोति आह “छन्दादिवसेन नानासभावा''ति ।
अधिमोक्खादिसभाववसेनाति पसादाधिमोक्खादिसलक्खणवसेन। उपत्थम्भनद्वेनाति सम्पयुत्तधम्मानं उपत्थम्भनकभावेन । अकम्पियद्वेनाति पटिपक्खेहि अकम्पियसभावेन | सलक्खणेनाति अधिमोक्खादिसभावेन । निय्यानटेनाति संकिलेसपक्खतो, वट्टचारकतो च निग्गमनढेन । उपट्ठानादिनाति उपट्ठानधम्मविचयपग्गहसम्पियायनपस्सम्भनसमाधानअज्झुपेक्खनसङ्खातेन अत्तनो सभावेन । हेतुटेनाति निब्बानस्स सम्पापकहेतुभावेन । दस्सनादिनाति दस्सनाभिनिरोपनपरिग्गहसमुट्ठापनवोदापनपग्गहुपट्ठानसमाधानसङ्खातेन अत्तनो सभावेन ।
सासनस्स परियोसानदस्सनत्यन्ति सासनं नाम निप्परियायतो सत्ततिंस बोधिपक्खियधम्मा । तत्थ ये समथविपस्सनासहगता, ते सासनस्स आदि, मग्गपरियापन्ना मज्झे, फलभूता परियोसानं, तंदस्सनत्थं । तेनाह "सासनस्स ही"तिआदि ।
पुन एतदानुत्तरियं भन्तेति यथारद्धाय देसनाय निगमनं । वुत्तस्सेव अत्थस्स पुन वचनहि निगमनं वुत्तं । तं देसनन्ति तं कुसलेसु धम्मेसु देसनाप्पकारं, देसनाविधिं, देसेतब्बञ्च, सकलं वा सम्पुण्णं अनवसेसं अभिजानाति अभिविसिठून आणेन जानाति, असेसं अभिजाननतो एव उत्तरि उपरि अभिज्ञेय्यं नत्थि। इतोति भगवता अभिजाततो । अञो परमत्थवसेन धम्मो वा पञत्तिवसेन पुग्गलो वा अयं नाम यं भगवा न जानातीति इदं नत्थि न उपलब्भति सब्बस्सेव सम्मदेव तुम्हेहि अभिआतत्ता। कुसलेसु धम्मेसु अभिजानने, देसनायञ्च भगवतो उत्तरितरो नत्थि।
आयतनपण्णत्तिदेसनावण्णना
१४६. आयतनपञापनासूति चक्खादीनं, रूपादीनञ्च आयतनानं सम्बोधनेसु, तेसं अज्झत्तिकबाहिरविभागतो, सभागविभागतो, समुदयतो, अत्थङ्गमतो, आहारतो, आदीनवतो, निस्सरणतो च देसनायन्ति अत्थो ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१४७–१४८)
गब्भावक्कन्तिदेसनावण्णना
१४७. गब्भोक्कमनेसूति गब्भभावेन मातुकुच्छियं अवक्कमनेसु अनुप्पवेसेसु, गब्भे वा मातुकुच्छिस्मिं अवक्कमनेसु । पविसतीति पच्चयवसेन तत्थ निब्बत्तेन्तो पविसन्तो विय होतीति कत्वा वुत्तं । ठातीति सन्तानट्टितिया पवत्तति, तथाभूतो च तत्थ वसन्तो विय होतीति आह “वसती"ति । पकतिलोकियमनुस्सानं पठमा गम्भावक्कन्तीति पचुरमनुस्सानं गब्भावक्कन्ति देसनावसेन इध पठमा । “दुतिया गब्भावक्कन्ती"तिआदीसुपि एवं योजना वेदितब्बा।
अलमेवाति युत्तमेव ।
खिपितुं न सक्कोन्तीति तथा वातानं अनुप्पज्जनमेव वदति । सेसन्ति पुन "एतदानुत्तरिय''तिआदि पाठप्पदेसं वदति ।
आदेसनविधादेसनावण्णना
१४८. परस्स चित्तं आदिसति एतेहीति आदेसनानि, यथाउपट्टितनिमित्तादीनि, तानि एव अञमञस्स असंकिण्णरूपेन ठितत्ता आदेसनविधा, आदेसनाभागा, तासु आदेसनविधासु। तेनाह “आदेसनकोट्ठासेसू"ति । आगतनिमित्तेनाति यस्स आदिसति, तस्स, अत्तनो च उपगतनिमित्तेन, निमित्तप्पत्तस्स लाभालाभादिआदिसनविधिदस्सनस्स पवत्तत्ता "इदं नाम भविस्सती"ति वुत्तं । पाळियं पन “एवम्पि ते मनोतिआदिना परस्स चित्तादिसनमेव आगतं, तं निदस्सनमत्तं कतन्ति दट्टब्बं । तथा हि “इदं नाम भविस्सती''ति वुत्तस्सेव अत्थस्स विभावनवसेन वत्थु आगतं । गतनिमित्तं नाम गमननिमित्तं । ठितनिमित्तं नाम अत्तनो समीपे ठाननिमित्तं, परस्स गमनवसेन, ठानवसेन च गहेतब्बनिमित्तं । मनुस्सानं परचित्तविदून, इतरेसम्पि वा सवनवसेन परस्स चित्तं ञत्वा कथेन्तानं सदं सुत्वा। यक्खपिसाचादीनन्ति हिङ्कारयक्खानञ्चेव कण्णपिसाचादिपिसाचानं, कुम्भण्डनागादीनञ्च ।
वितक्कविष्फारवसेनाति विप्फारिकभावेन पवत्तवितक्कस्स वसेन । उप्पन्नन्ति ततो समुट्ठितं । विप्पलपन्तानन्ति कस्सचि अत्थस्स अबोधनतो विरूपं, विविधं वा पलपन्तानं ।
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(५.१४८ - १४८)
आदेसनविधादेसनावण्णना
सुत्तपमत्तादीनन्ति आदि-सद्देन वेदनाट्टखित्तचित्तादीनं सङ्गहो । महाअट्ठकथायं पन “इदं वक्खामि, एवं वक्खामीति वितक्कयतो वितक्कविप्फारसद्दो नाम उप्पज्जती 'ति (अभि० अट्ठ० १. वचीकम्मद्वारकथापि ) आगतत्ता जागरन्तानं पकतियं ठितानं अविप्पलपन्तानं वितक्कविष्फारसद्दो कदाचि उप्पज्जतीति विञ्ञायति, यो लोके “मन्तजप्पो 'ति वुच्चति । यस्स महाअट्ठकथायं असोतविञ्ञेय्यता वुत्ता । तादिसहि सन्धाय विञ्ञत्तिसहजमेव ‘“जिव्हातालुचलनादिकरवितक्कसमुट्ठितं सुखुमसद्दं दिब्बसोतेन सुत्वा आदिसतीति सुत् वुत्त "न्ति (ध० स० मूलटी० वचीकम्मद्वारकथावण्णना) आनन्दाचरियो अवोच । वुत्तलक्खणो एव पन नातिसुखुमो अत्तनो, अच्चासन्नप्पदेसे ठितस्स च मंससोतस्सापि आपाथं गच्छतीति सक्का विञ्ञातुं । तस्साति तस्स पुग्गलस्स । तस्स बसेनाति तस्स वितक्कस्स वसेन । एवं अयम्पि आदेसनविधा चेतोपरियञाणवसेनेव आगताति वेदितब्बा | केचि पन " तस्स वसेनाति तस्स सद्दस्स वसेना" ति अत्थं वदन्ति तं अयुत्तं । न हि सद्दग्गहणेन तंसमुट्ठापकचित्तं गय्हति सद्दग्गहणानुसारेनपि तदत्थस्सेव गहणं होति, न चित्तस्स । एतेनेव यदेके “यं वितक्कयतोति यमत्थं वितक्कयतो 'ति वत्वा " तस्स वसेनाति तस्स अत्थस्स वसेना "ति वण्णेन्ति, तम्पि परिक्खित्तं ।
मनसा सङ्घरीयन्तीति मनोसङ्घारा, वेदनासञ्ञ । पणिहिताति पुरिमपरिबन्धविनयेन पधानभावेन निहिता ठपिता । तेनाह “ चित्तसङ्घारा सुट्ठपिता "ति । वितक्कस्स वितक्कनं नाम उप्पादनमेवाति आह " पवत्तेस्सती 'ति । "पजानातीति पुब्बे वुत्तपदसम्बन्धदस्सनवसेन आनेति । आगमनेनाति झानस्स आगमनट्ठानवसेन । पुब्बा मग्गस्स सब्बपुब्बभागेन विपस्सनारम्भेन । उभयं पेतं यो सयं झानलाभी, अधिगतमग्गो च अञ्ञ तदत्थाय पटिपज्जन्तं दिस्वा " अयं इमिना नीहारेन पटिपज्जन्तो अद्धा झानं लभिस्सति, मग्गं अधिगमिस्सती 'ति अभिज्ञाय विना अनुमानवसेन जानाति, तं दस्सेतुं वृत्तं । तेनाह " आगमनेन जानाति नामा'' तिआदि । अनन्तराति वुट्ठितकालं सन्धायाह । तदा हि पवत्तवितक्कपजाननेनेव झानस्स हानभागियतादिविसेसपजाननं ।
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किं पनिदं चेतोपरियाणं परस्स चित्तं परिच्छिज्ज जानन्तं इद्धिचित्तभावतो अविसेसतो सब्बेसम्पि चित्तं जानातीति ? नोति दस्सेन्तो " तत्था "तिआदिमाह । न अरियानन्ति येन चित्तेन ते अरिया नाम जाता, तं लोकुत्तरचित्तं न जानाति अप्पटिविद्धभावतो । यथा हि पुथुज्जनो सब्बेसम्पि अरियानं लोकुत्तरचित्तं न जानाति अप्पटिविद्धत्ता, एवं अरियोपि हेट्टिमो उपरिमस्स लोकुत्तरचित्तं न जानाति अप्पटिविद्वत्ता
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१४९-१४९)
एव । यथा पन उपरिमो हेट्ठिमं फलसमापत्तिं न समापज्जति, किं एवं सो तस्स लोकुत्तरचित्तं न जानातीति चोदनं सन्धायाह "उपरिमो पन हेट्ठिमस्स जानाती"ति, पटिविद्धत्ताति अधिप्पायो । “उपरिमो हेट्ठिमं न समापज्जती"ति वत्वा तत्थ कारणमाह "तेसही"तिआदि। तेसन्ति अरियानं । हेट्ठिमा हेट्ठिमा समापत्ति भूमन्तरप्पत्तिया पटिप्पस्सद्धिकप्पा । तेनाह "तत्रुपपत्तियेव होती"ति, न उपरिभूमिपत्ति । निमित्तादिवसेन आतस्स कदाचि ब्यभिचारोपि सिया, न पन अभिञाञआणेन आतस्साति आह "चेतो...पे०... नत्थी"ति । “तं भगवा"तिआदि सेसं नाम ।
दस्सनसमापत्तिदेसनावण्णना
१४९. ब्रह्मजालेति ब्रह्मजालसुत्तवण्णनायं । उत्तरपदलोपेन हेस निद्देसो । आतप्पन्ति वीरियं आतप्पति कोसज्जं सब्बम्पि संकिलेसपक्खन्ति । कुसलवीरियस्सेव हेत्थ गहणं अप्पमादादिपदन्तरसन्निधानतो । पदहितब्बतोति पदहनतो, भावनं उद्दिस्स वायमनतोति अत्थो । अनुयुञ्जितब्बतोति अनुयुञ्जनतो। ईदिसानं पदानं बहुलंकत्तुविसयताय इच्छितब्बत्ता आतप्पपदस्स विय इतरेसम्पि कत्तुसाधनता दट्ठब्बा। पटिपत्तियं नप्पमज्जति एतेनाति अप्पमादो, सतिअविप्पवासो । सम्मा मनसि करोति एतेनाति सम्मामनसिकारो, तथापवत्तो कुसलचित्तुप्पादो। भावनानुयोगमेव तथा वदति । देसनाक्कमेन पठमा, दस्सनसमापत्ति नाम करजकाये पटिक्कूलाकारस्स सम्मदेव दस्सनवसेन पवत्तसमापत्तिभावतो। निप्परियायेनेवाति वुत्तलक्खणदस्सनसमापत्तिसन्निस्सयत्ता, दस्सनमग्गफलभावतो च पठमसामञफलं परियायेन विना दस्सनसमापत्ति।
अतिक्कम्म छविमंसलोहितं अलि पच्चवेक्खतीति तानि अपच्चवेक्खित्वा अट्ठिमेव पच्चवेक्खति । अद्विआरम्मणा दिब्बचक्खुपादकज्झानसमापत्तीति वुत्तनयेन अट्ठिआरम्मणा दिब्बचक्खुअधिट्ठाना पठमज्झानसमापत्ति । यो हि भिक्खु आलोककसिणे चतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा तं पादकं कत्वा अधिगतदिब्बचक्खुजाणो हुत्वा सविाणके काये अळिं परिग्गहेत्वा तत्थ पटिक्कूलमनसिकारवसेन पठमं झानं निब्बत्तेति, तस्सायं पठमज्झानसमापत्ति दुतिया दस्सनसमापत्ति । तेन वुत्तं “अट्ठि अट्ठी''तिआदि । यो पनेत्थ पाळियं द्वत्तिंसाकारमनसिकारो वुत्तो, सो मग्गसोधनवसेन वुत्तो । तत्थ वा कतपरिचयस्स सुखेनेव वुत्तनया अट्ठिपच्चवेक्खणा समिज्झतीति । तेनेवेत्थ "इमं चेवा''ति “अतिक्कम्म चा"ति च-सद्दो समुच्चयत्थो वुत्तो। तं झानन्ति यथावुत्तं पठमज्झानं । अयन्ति अयं
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(५.१४९-१४९)
दस्सनसमापत्तिदेसनावण्णना
सकदागामिफलसमापत्ति | सातिसयं चतुसच्चदस्सनागमनतो परियायेन विना मुख्या दुतिया दस्सनसमापत्ति । याव ततियमग्गा वत्ततीति आह " खीणासवस्स वसेन चतुत्था दस्सनसमापत्ति कथिता "ति ।
पालियं पुरिसस्स चाति च सद्दो ब्यतिरेके, तेन यथावुत्तसमापत्तिद्वयतो वच्चमानंयेव इमस्स विसेसं जोतेति । अविच्छेदेन पवत्तिया सोतसदिसताय विञ्ञाणमेव विञ्ञाणसोतं, तदेतं विञ्ञाणं पुरिमतो अनन्तरपच्चयं लभित्वा पच्छिमस्स अनन्तरपच्चयो हुत्वा पवत्ततीति अयं अस्स सोतागतताय सोतसदिसता, तस्मा पजानितब्बभावेन वुत्तं एकमेव चेत्थ विञ्ञाणं, तस्मा अट्ठकथायं “ विञ्ञाणसोतन्ति विञ्ञाणमेवा" ति वृत्तं । द्वीहिपि भागेहीति ओरभागपरभागेहि । इधलोको हिस्स ओरभागो, परलोको परभागो द्विन्नम्पि वसेनेतं सम्बन्धन्ति । तेनाह “ इधलोके पतिट्ठित "न्तिआदि । विञ्ञाणस्स खणे खणे भिज्जन्तस्स कामं नत्थि कस्सचि पतिट्ठितता, तण्हावसेन पन तं " पतिट्ठित "न्ति वुच्चतीति आह “ छन्दरागवसेना "ति । वृत्तहेतं
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"कबळीकारे चे भिक्खवे आहारे अत्थि रागो, अत्थि नन्दी, अत्थि तण्हा, पतिट्ठितं तत्थ विञ्ञाणं विरुळ्हं । यत्थ पतिट्ठितं विञ्ञाणं विरुळ्हं...पे०... अत्थि तत्थ आयतिं पुनब्भवाभिनिब्बत्ती "तिआदि (सं० नि० १.२.६४; कथाव० २९६; महानि० ७) ।
कम्पन्ति कुसलाकुसलकम्मं उपयोगवचनमेतं । कम्मतो उपगच्छन्तन्ति कम्मभावेन उपगच्छन्तं, विञ्ञणन्ति अधिप्पायो । अभिसङ्घारविञ्ञाणहि येन कम्मुना सहगतं, अञ्ञदत्थु तब्भावमेव उपगतं हुत्वा पवत्तति । इधलोके पतिट्ठितं नाम इध कतूपचितकम्मभावूपगमनतो । कम्मभवं आकङ्क्षन्तन्ति कम्मविञ्ञणं अत्तना सम्पयुत्तकम् जवापेत्वा पटिसन्धिनिब्बत्तनेन तदभिमुखं आकड्ढन्तं । तेनेव पटिसन्धिनिब्बत्तनसामत्थियेन परलोके पतिट्ठितं नाम अत्तनो फलस्स तत्थ पतिट्ठापनेन । केचि पन " अभिसङ्घारविञ्ञाणं परतो विपाकं दातुं असमत्थं इधलोके पतिट्ठितं नाम, दातुं समत्थं पन परलोके पतिट्ठितं नामा'ति वदन्ति, तं तेसं मतिमत्तं “ उभयतो अब्बोच्छिन्न "न्ति वुत्तत्ता । यञ्च तेहि “परलोके पतिट्ठित"न्ति वुत्तं तं इधलोकेपि पतिट्ठितमेव । न हि तस्स इधलोके पतिट्ठितभावेन विना परलोके पतिट्ठितभावो सम्भवति । सेक्खपुथुज्जनानं चेतोपरियत्राणन्ति
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१५०-१५०)
सेक्खानं, पुथुज्जनानञ्च चेतसो परिच्छिन्दनकजाणं । कथितं परिच्छिन्दितब्बस्स चेतसो छन्दरागवसेन पतिट्टितभावजोतनतो ।
चतुत्थाय दस्सनसमापत्तिया ततियदस्सनसमापत्तियं वुत्तप्पटिक्खेपेन अत्थो वेदितब्बो ।
पुरिमानं द्विन्नं समापत्तीनं पुब्बे समथवसेन अस्थस्स वुत्तत्ता इदानि विपस्सनावसेन दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । निच्चलमेव पुब्बे वुत्तस्स अत्थस्स अपनेतब्बतो। अत्थन्तरत्थताय दस्सियमानाय पदं चलितं नाम होति । अपरो नयोति एत्थ पठमज्झानस्स पठमदस्सनसमापत्तिभावे अपुब्बं नत्थि। दुतियज्झानं दुतियाति एत्थ पन “अट्टिकवण्णकसिणवसेन पटिलद्धदुतियज्झानं दुतिया दस्सनसमापत्तीति वदन्ति, ततियज्झानम्पि तथैव पटिलद्धं । दस्सनसमापत्तिभावो पन यो भिक्खु आलोककसिणे चतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा तं पादकं कत्वा अधिगतदिब्बचक्खुको हुत्वा सविज्ञाणके अर्टि परिग्गहेत्वा तत्थ वण्णकसिणवसेन हेट्ठिमानि तीणि झानानि निब्बत्तेति, तस्स । ततियज्झानं ततिया दस्सनसमापत्ति अधिट्ठानभूतस्स दिब्बचक्खुञाणस्स वसेन । चतुत्थज्झानं चतुत्थाति रूपावचरचतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा तं पादकं कत्वा अधिगतदिब्बचक्खुञाणस्स तं चतुत्थज्झानं चतुत्था दस्सनसमापत्ति। इधापि सेक्खपुथुज्जनानं चेतसो परिच्छिन्दनेन ततिया दस्सनसमापत्ति, अरहतो चित्तस्स परिच्छिन्दनेन चतुत्था दस्सनसमापत्ति वेदितब्बा । एवञ्हेसा अत्थवण्णना पाळिया संसन्देय्य । “पठममग्गो"तिआदीसु अट्ठिआरम्मणपठमज्झानपादको पठममग्गो पठमा दस्सनसमापत्ति । अट्ठिआरम्मणदुतियज्झानपादको दुतियमग्गो दुतिया दस्सनसमापत्ति । परचित्तञाणसहगता चतुत्थज्झानपादका ततियचतुत्थमग्गा ततियचतुत्थदस्सनसमापत्तियोति । पुरिसस्स विचाणपजाननं पनेत्थ असम्मोहवसेन दट्ठब्बं ।।
पुग्गलपण्णत्तिदेसनावण्णना १५०. पुग्गलपण्णत्तीसूति पुग्गलानं पञापनेसु । गुणविसेसवसेन अचमनं असङ्करतो ठपनेसु । लोकवोहारवसेनाति लोकसम्मुतिवसेन । लोकवोहारो हेस, यदिदं “सत्तो पुग्गलो''तिआदि । रूपादीसु सत्तविसत्तताय सत्तो। तस्स तस्स सत्तनिकायस्स पूरणतो गलनतो, मरणवसेन पतनतो च पुग्गलो। सन्ततिया नयनतो नरो। अत्तभावस्स पोसनतो पोसो। एवं पञापेतब्बासु वोहरितब्बासु। “सब्बमेतं पुग्गलो''ति इमिस्सा
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(५.१५०-१५०)
पुग्गलपण्णत्तिदेसनावण्णना
साधारणपञत्तिया विभावनवसेन वुत्तं, न इधाधिप्पेतअसाधारणपञत्तिया, तस्मा लोकपञत्तीसूति सत्तलोकगतपञत्तीसु। अनुत्तरो होति अनञसाधारणत्ता तस्स पञापनस्स।
दीहि भागेहीति कारणे, निस्सक्के चेतं पुथुवचनं, आवृत्तिआदिवसेन चायमत्थो वेदितब्बोति आह “अरूपसमापत्तिया"तिआदि, एतेन “समापत्तिया विक्खम्भनविमोक्खेन, मग्गेन समुच्छेदविमोक्खेन विमुत्तत्ता उभतोभागविमुत्तो''ति एवं पवत्तो तिपिटकचूळनागत्थेरवादो, “नामकायतो, रूपकायतो च विमुत्तत्ता उभतोभागविमुत्तो"ति एवं पवत्तो तिपिटकमहाधम्मरक्खितत्थेरवादो, “समापत्तिया विक्खम्भनविमोक्खेन एकवारं विमुत्तोव मग्गेन समुच्छेदविमोक्खेन एकवारं विमुत्तत्ता उभतोभागविमुत्तो''ति एवं पवत्तो तिपिटकचूळाभयत्थेरवादो चाति इमेसं तिण्णम्पि थेरवादानं एकज्झं सङ्गहो कतोति दट्ठब्बं । विमुत्तोति किलेसेहि विमुत्तो, किलेसविक्खम्भनसमुच्छेदनेहि वा कायद्वयतो विमुत्तोति अत्थो । अरूपसमापत्तीनन्ति निद्धारणे सामिवचनं । अरहत्तप्पत्तअनागामिनोति भूतपुब्बगतिया वृत्तं। न हि अरहत्तप्पत्तो अनागामी नाम होति । पाळीति पुग्गलपञ्जत्तिपाळि। अट्ठ विमोक्खे कायेन फुसित्वाति अट्ठ समापत्तियो सहजातनामकायेन पटिलभित्वा । पञ्जाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्तीति विपस्सनापजाय सङ्घारगतं, मग्गपञाय चत्तारि सच्चानि पस्सित्वा चत्तारोपि आसवा परिक्खीणा होन्ति । दिस्वाति दस्सनहेतु । न हि आसवे पाय पस्सन्ति, दस्सनकारणा पन परिक्खीणा “दिस्वा परिक्खीणा''ति वुत्ता दस्सनायत्तपरिक्खीणत्ता । एवहि दस्सनं आसवानं खयस्स पुरिमकिरियाभावेन वुत्तं ।
पञाय विसेसतो मुत्तोति पञ्जाविमुत्तो अनवसेसतो आसवानं परिक्खीणत्ता। अट्ठविमोक्खपटिक्खेपवसेनेव, न तदेकदेसभूतरूपज्झानपटिक्खेपवसेन। एवहि अरूपज्झानेकदेसाभावेपि अट्ठविमोक्खपटिक्खेपो न होतीति सिद्ध होति । अरूपावचरज्झानेसु हि एकस्मिम्पि सति उभतोभागविमुत्तोयेव नाम होति, न पाविमुत्तोति ।
फुटुन्तं सच्छिकरोतीति फुट्ठानं अन्तो फुट्ठन्तो, फुट्ठानं अरूपज्झानानं अनन्तरो कालोति अधिप्पायो, अच्चन्तसंयोगे चेतं उपयोगवचनं, फुट्ठानन्तरकालमेव सच्छिकातब्बं , सच्छिकतो सच्छिकरणूपायेनाति वुत्तं होति । तेनाह “सो झानफस्स"न्तिआदि । एकच्चे आसवाति हेट्टिममग्गत्तयवज्झा आसवा । यो हि अरूपज्झानेन रूपकायतो,
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६६
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१५०-१५०)
नामकायेकदेसतो च विक्खम्भनविमोक्खेन विमुत्तो, तेन निरोधसङ्घातो विमोक्खो आलोचितो पकासितो विय होति, न पन कायेन सच्छिकतो। निरोधं पन आरम्मणं कत्वा एकच्चेसु आसवेसु खेपितेसु तेन सच्छिकतो होति, तस्मा सो सच्छिकातब्बं निरोधं यथालोचितं नामकायेन सच्छिकरोतीति कायसक्खीति वुच्चति, न तु विमुत्तोति एकच्चानं आसवानं अपरिक्खीणत्ता ।
दिद्वन्तं पत्तोति दस्सनसङ्घातस्स सोतापत्तिमग्गाणस्स अनन्तरं पत्तोति अत्थो । “दिद्वत्ता पत्तो''तिपि पाठो, तेन चतुसच्चदस्सनसङ्घाताय दिठ्ठिया निरोधस्स पत्ततं दीपेति । तेनाह “दुक्खा सङ्घारा"तिआदि । पठमफलतो पट्ठाय याव अग्गमग्गा दिट्ठिप्पत्तोति आह "एसोपि कायसक्खी विय छब्बिधो होती"ति | इदं दुक्खन्ति “इदं दुक्खं, एत्तकं दुक्खं, न इतो उद्धं दुक्ख''न्ति यथाभूतं पजानाति। यस्मा इदं याथावसरसतो पजानाति, पजानन्तो च ठपेत्वा तण्हं पञ्चुपादानक्खन्धे “दुक्खसच्च"न्ति पजानाति । तण्हं पन इदं दुक्खं इतो समुदेति, तस्मा "अयं दुक्खसमुदयो"ति यथाभूतं पजानाति । यस्मा इदं दुक्खञ्च समुदयो च निब्बानं पत्वा निरुज्झन्ति वूपसमन्ति अप्पवत्तिं गच्छन्ति, तस्मा तं "अयं दुक्खनिरोधो"ति यथाभूतं पजानाति। अरियो पन अट्ठङ्गिको मग्गो तं दुक्खनिरोधं गच्छति, तेन तं “अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा"ति यथाभूतं पजानाति। एत्तावता नानक्खणे सच्चववत्थानं दस्सितं । इदानि तं एकक्खणे दस्सेतुं "तथागतप्पवेदिता"तिआदि वुत्तं । तथागतप्पवेदिताति तथागतेन बोधिमण्डे पटिविद्धा विदिता पाकटा कता । धम्माति चतुसच्चधम्मा । वोदिट्ठा होन्तीति सुदिट्ठा होन्ति । वोचरिताति सुचरिता, तेसु तेन पञ्जा सुटु चरापिताति अत्थो । अयन्ति अयं एवरूपो पुग्गलो "दिटिप्पत्तो"ति बुच्चति ।
__सद्धाय विमुत्तोति सद्दहनवसेन विमुत्तो, एतेन सब्बथा अविमुत्तस्सपि सद्धामत्तेन विमुत्तभावं दस्सेति । सद्धाविमुत्तोति वा सद्धाय अधिमुत्तोति अत्थो । वुत्तनयेनेवाति कायसक्खिम्हि वुत्तनयेनेव । नो च खो यथा दिट्टिप्पत्तस्साति यथा दिटिप्पत्तस्स आसवा परिक्खीणा, न एवं सद्धाय विमुत्तस्साति अत्थो । किं पन नेसं किलेसप्पहाने नानत्तं अत्थीति ? नस्थि । अथ कस्मा सद्धाविमुत्तो दिट्टिप्पत्तं न पापुणातीति ? आगमनीयनानत्तेन । दिट्ठिप्पत्तो हि आगमनम्हि किलेसे विक्खम्भेन्तो अप्पदुक्खेन, अकिलमन्तो च सक्कोति विक्खम्भेतुं, सद्धाविमुत्तो दुक्खेन किलमन्तो विक्खम्भेति, तस्मा दिट्टिप्पत्तं न पापुणाति । तेनाह "एतेसु ही"तिआदि ।
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(५.१५१-१५३)
पधानदेसनावण्णना
६७
आरम्मणं याथावतो धारेति अवधारेतीति धम्मो, पञ्जा । पञ्जापुब्बङ्गमन्ति पञापधानं । पञ्ज वाहेतीति पञ्जावाही, पझं सातिसयं पवत्तेतीति अत्थो । पञा वा इमं पुग्गलं वाहेति, निब्बानाभिमुखं गमेतीति अत्थो । सद्धानुसारिनिद्देसेपि एसेव नयो ।
__ तस्माति विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० २.७७०, ७७६) वुत्तत्ता, ततो एव विसुद्धिमग्गे, तं संवण्णनासु (विसुद्धि० टी० २.७७६) वुत्तनयेनेत्थ अत्थो वेदितब्बो ।
पधानदेसनावण्णना
१५१. पदहनवसेनाति भावनानुयोगवसेन। सत्त बोज्झङ्गा पधानाति वुत्ता विवेकनिस्सितादिभावेन पदहितब्बतो भावेतब्बतो ।
पटिपदादेसनावण्णना
१५२. दुक्खेन कसिरेन समाधिं उप्पादेन्तस्साति पुब्बभागे आगमनकाले किच्छेन दुक्खेन ससङ्खारेन सप्पयोगेन किलमन्तस्स किलेसे विक्खम्भेत्वा लोकुत्तरसमाधि उप्पादेन्तस्स । दन्धं तं ठानं अभिजानन्तस्साति विक्खम्भितेसु किलेसेसु विपस्सनापरिवासे चिरं वसित्वा तं लोकुत्तरसमाधिसङ्घातं ठानं दन्धं सणिकं अभिजानन्तस्स पटिविज्झन्तस्स, सच्छिकरोन्तस्स पापुणन्तस्साति अत्थो । अयं वुच्चतीति या एसा एवं उप्पज्जति, अयं किलेसविक्खम्भनपटिपदाय दुक्खत्ता, विपस्सनापरिवासपाय च दन्धत्ता मग्गकाले एकचित्तक्खणे उप्पन्नापि पञ्जा आगमनवसेन “दुक्खपटिपदा दन्धाभिञा नामा"ति वुच्चति । उपरि तीसु पदेसुपि इमिनाव नयेन अत्थो वेदितब्बो ।
भस्ससमाचारादिदेसनावण्णना
१५३. भस्ससमाचारेति वचीसमाचारे । ठितोति यथारद्धं तं अविच्छेदवसेन कथेन्तो । तेनाह "कथामग्गं अनुपच्छिन्दित्वा कथेन्तो'ति । मुसावादूपसहितन्ति अन्तरन्तरा पवत्तेन मुसावादेन उपसंहितं । विभूति वुच्चति विसुंभावो, तत्थ नियुत्तन्ति वेभूतिकं, तदेव वेभूतियं, पेसुझं । तेनाह “भेदकरवाच"न्ति । करणुत्तरियलक्खणतो सारम्भतो जाताति सारम्भजा। तस्सा पवत्तिआकारदस्सनत्थं "त्वं दुस्सीलो"तिआदि वुत्तं । बहिद्धाकथा
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६८
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१५३-१५३)
अमनापा, मनापापि परस्स चित्तविघातावहत्ता करणुत्तरियपक्खियमेवाति दस्सेन्तो "तुम्ह"न्तिआदिमाह । विक्खेपकथापवत्तन्ति विक्खेपकथावसेन पवत्तं | जयपुरेक्खारो हुत्वाति अत्तनो जयं पुरक्खत्वा । यं किञ्चि न भासतीति योजना । “मन्ता"ति वुच्चति पञ्जा, मन्तनं जाननन्ति कत्वा । “मन्ता"ति इदं “मन्तेत्वा''ति इमिना समानत्थं निपातपदन्ति आह "उपपरिक्खित्वा"ति । युत्तकथमेवाति अत्तनो, सुणन्तस्स च युत्तरूपमेव कथं । हदये निदहितब्बयुत्तन्ति अत्थसम्पत्तिया, ब्यञ्जनसम्पत्तिया अत्थवेदादिपटिलाभनिमित्तत्ता चित्ते ठपेतब्बं, विमुत्तायतनभावेन मनसि कातब्बन्ति अत्थो। सब्बङ्गसम्पन्नापि वाचा अकाले भासिता अभाजने भासिता विय न अत्थावहाति आह “युत्तपत्तकालेना"ति । अयञ्च चतुरङ्गसमन्नागता सुभासितवाचा सच्चसम्बोधावहादिताय सत्तानं महिद्धिका महानिसंसाति दस्सेतुं “एवं भासिता ही"तिआदि वुत्तं ।
सीलाचारेति सीले च आचारे च परिसुद्धसीले चेव परिसुद्धमनोसमाचारे च । ठितोति पतिठ्ठहन्तो । सच्चं एतस्स अस्थीति सच्चोति आह "सच्चकथो"ति । एस नयो सद्धोति एत्थापि । तेनाह "सद्धासम्पनो"ति । “ननु च हेट्ठा सच्चं कथितमेवा''ति कस्मा वुत्तं ? हेट्ठा हि वचीसमाचारं कथेन्तेन सच्चं कथितं, पटिपक्खपटिक्खेपवसेन इध सीलं कथेन्तेन तं परिपुण्णं कत्वा दस्सेतुं सच्चं सरूपेनेव कथितं । "पुग्गलाधिट्ठानाय कथाय आरब्भन्तरञ्चेतं, तथापि सच्चं वत्वा अनन्तरमेव सच्चस्स कथनं पुनरुत्तं होतीति परस्स चोदनावसरो मा होतू"ति तत्थ परिहारं दातुकामो “इध कस्मा पुन वुत्त"न्ति आह । हेट्ठा वाचासच्चं कथितं चतुरङ्गसमन्नागतं सुभासितवाचं दस्सेन्तेन । अन्तमसो...पे०... दस्सेतुं इध वुत्तं “एवं सीलं सुपरिसुद्धं होती''ति । इमस्मिं पनत्थे “एवं परित्तकं खो, राहुल, तेसं सामनं, येसं नत्थि सम्पजानमुसावादे लज्जा''तिआदि नयप्पवत्तं राहुलोवादसुत्तं दस्सेतब्बं ।
गुत्ता सतिकवाटेन पिदहिता द्वारा एतेनाति गुत्तद्वारोति आह "छसु इन्द्रियेसू"तिआदि। परियेसनपटिग्गण्हनपरिभोगविस्सज्जनवसेन भोजने मत्तं जानातीति भोजने मत्तञ्जू। समन्ति अविसमं। समचारिता हि कायविसमादीनि पहाय कायसमादिपूरणं । निसज्जायाति एत्थ इति-सद्दो आदिअत्थो, तेन “आवरणीयेहि धम्मेहि चित्तं परिसोधेती"ति एवमादिं सङ्गण्हाति । भावनाय चित्तपरिसोधनहि जागरियानुयोगो, न निद्दाविनोदनमत्तं । नित्तन्दीति विगतथिनमिद्धो । सा पन नित्तन्दिता कायालसियविगमने पाकटा होतीति वुत्तं "कायालसियविरहितो"ति । “आरद्धवीरियो"ति इमिना दुविधोपि वीरियारम्भो गहितोति तं विभजित्वा दस्सेतुं “कायिकवीरियेनापी"तिआदि वुत्तं । सङ्गम्म
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(५.१५४-१५६)
अनुसासनविधादेसनादिवण्णना
६९
गणविहारो सहवासो सङ्गणिका, सा पन किलेसेहिपि एवं होतीति ततो विसेसेतुं "गणसङ्गणिक"न्ति वुत्तं । गणेन सङ्गणिकं गणसङ्गणिकन्ति । आरम्भवत्थुवसेनाति अनधिगतविसेसाधिगमकारणवसेन एकविहारी, न केवलं एकीभाववसेन । किलेससङ्गणिकन्ति किलेससहितचित्ततं। यथा तथाति विपस्सनावसेन, पटिसङ्घानवसेन वा। समथवसेन आरम्मणूपनिज्झानं। विपस्सनावसेन लक्खणूपनिज्झानं ।
कल्याणपटिभानोति सुन्दरपटिभानो, सा पनस्स पटिभानसम्पदा वचनचातुरियसहिताव इच्छिताति आह "वाक्करण...पे०... सम्पनो चा"ति । “पटिभान''न्ति हि आणम्पि वुच्चति आणस्स उपट्टितवचनम्पि | तत्थ अत्थयुत्तं कारणयुत्तं पटिभानमस्साति युत्तपटिभानो। पुच्छितानन्तरमेव सीघं ब्याकातुं असमत्थताय नो मुत्तपटिभानं अस्साति नो मुत्तपटिभानो। इध पन विकिण्णवाचो मुत्तपटिभानो अधिप्पेतोति अधिप्पायेन "सीलसमाचारस्मिव्हि ठितभिक्खु मुत्तपटिभानो न होती"ति वुत्तं । गमनसमत्थायाति अस्सुतं धम्मं गमेतुं समत्थाय । धारणसमत्थायाति सातिसयं सतिवीरियसहितताय यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं धारेतुं समत्थाय । मुननतो अनुमिननतो मुतीति अनुमान पञाय नामं। तीहि पदेहीति “गतिमा धितिमा मुतिमा''ति तीहि पदेहि । हेट्टाति हेट्ठा “आरद्धवीरियो''ति वुत्तट्ठाने | इधाति “धितिमा''ति वुत्तट्ठाने। वीरियम्पि हेट्ठा गुणभूतं गहितन्ति वुत्तोवायमत्थो। हेट्ठाति "जागरियानुयोगमनुयुत्तो, झायी''ति एत्थ विपस्सनापञ्जा कथिता। इधाति “धितिमा मुतिमा"ति एत्थ बुद्धवचनगण्हनपञा कथिता करणपुब्बापरकोसल्लपञादीपनतो। किलेसकामोपि वत्थुकामो विय यथापवत्तो अस्सादीयतीति वुत्तं "वत्थुकामकिलेसकामेसु अगिद्धो"ति ।
अनुसासनविधादेसनादिवण्णना १५४. अत्तनो उपायमनसिकारेनाति अत्तनि भावनामनसिकारेन । पटिपज्जमानोति विसुद्धिं पटिपज्जमानो।
सम्भूतेन
पथमनसिकारेन
१५५. किलेसविमुत्तित्राणेति किलेसप्पहानजानने ।
१५६. परियादियमानोति परिच्छिज्ज गण्हन्तोति अत्थो । सुद्धक्खन्धेयेव अनुस्सरति नामगोत्तं परियादियितुं असक्कोन्तो। वुत्तमेवत्थं विवरितुं "एको ही"तिआदि वुत्तं ।
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७०
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१५७-१५९)
सक्कोति परियादियितुं । असक्कोन्तस्स वसेन गहितं, “अमुत्रासिं एवंनामो''तिआदि वुत्तन्ति अत्थो । असक्कोन्तस्साति च आरोहने असक्कोन्तस्स, ओरोहने पन आणस्स थिरभूतत्ता। तेनाह "सुद्धक्खन्धेयेव अनुस्सरन्तो"तिआदि । एतन्ति पुब्बापरविरोधं । न सल्लखेसि दिट्ठाभिनिवेसेन कुण्ठञआणत्ता। तेनाह "दिद्विगतिकत्ता"ति | ठानन्ति एकस्मिं पक्खे अवट्ठानं । नियमोति वादनियमो पटिनियतवादता। तेनाह "इमं गहेत्वा"तिआदि ।
१५७. पिण्डगणनायाति “एकं द्वे"तिआदिना अगणेत्वा सङ्कलनपदुप्पादनादिना पिण्डनवसेन गणनाय। अच्छिद्दकवसेनाति अविच्छिन्दकगणनावसेन गणना कमगणनं मुञ्चित्वा “इमस्मिं रुक्खे एत्तकानि पण्णानी"ति वा “इमस्मिं जलासये एत्तकानि उदकाळहकानी''ति वा एवं गणेतब्बस्स एकज्झम्पि पिण्डेत्वा गणना | कमगणना हि अन्तरन्तरा विच्छिज्ज पवत्तिया पच्छिन्दिका । सा पनेसा गणना सवनन्तरं अनपेक्खित्वा मनसाव गणेतब्बतो "मनोगणना"तिपि वुच्चतीति आह “मनोगणनाया'ति । पिण्डगणनमेव दस्सेति, न विभागगणनं । सङ्घातुं न सक्का अझेहि असङ्ख्येय्याभावतो। पञापारमिया पूरितभावं दस्सेन्तो इतरासं पूरणेन विना तस्सा पूरणं नत्थीति "दसन्नं पारमीनं पूरितत्ता"ति आह । तेनाह "सब्ब ताणस्स सुप्पटिविद्धत्ता"ति । एत्तकन्ति दस्सेथाति दीपेति थेरो। यं पन पाळियं “साकारं सउद्देसं अनुस्सरती''ति वुत्तं, तं तस्स अनुस्सरणमत्तं सन्धाय वुत्तं, न आयुनो वस्सादिगणनाय परिच्छिन्दनं तस्स अविसयभावतो।
१५८. तुम्हाकं सम्मासम्बुद्धानं येव अनुत्तरा अनञसाधारणत्ता। इदानि तस्सा देसनाय मज्झे भिन्नसुवण्णस्स विय विभागाभावं दस्सेतुं “अतीतबुद्धापी"तिआदि वुत्तं । इमिनापि कारणेनाति अनुत्तरभावेन, अझेहि बुद्धेहि एकसदिसभावेन च ।
१५९. आसवानं आरम्मणभावूपगमनेन सासवा। उपेच्च आधीयन्तीति उपाधी, दोसारोपनानि, सह उपाधीहीति सउपाधिका। अनरियिद्धियहि अत्तनो चित्तदोसेन एकच्चे उपारम्भं ददन्ति, स्वायमत्थो केवट्टसुत्तेन दीपेतब्बो। नो “अरिया"ति वुच्चति सासवभावतो। निद्दोसेहि खीणासवेहि पवत्तेतब्बतो निदोसा दोसेहि सह अप्पवत्तनतो । ततो एव अनुपारम्भा। अरियानं इद्धीति अरियिद्धीति बुच्चति।
अप्पटिक्कूलसञ्जीति इट्ठसञ्जी इट्ठाकारेन पवत्तचित्तो। पटिक्कूलेति अमनुञ्जे
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अञ्ञथासत्थुगुणदस्सनादिवण्णना
अनिट्ठे । धातुसञ्ञन्ति “ धातुयो" ति सञ्चं । उपसंहरतीति उपनेति पवत्तेति । अनिट्ठस्मिं वत्थुस्मिति अनि सत्तसञ्जिते आरम्मणे । मेत्ताय वा फरतीति मेत्तं हितेसितं उपसंहरन्तो सब्बत्थकमेव तं तत्थ फरति । धातुतो वा उपसंहरतीति धम्मसभावचिन्तनेन धातुसो, पच्चवेक्खणाय धातुमनसिकारं वा तत्थ पवत्तेति । अप्पटिक्कूले सत्ते तिमित्तादिके याथावतो धम्मसभावचिन्तनेन अनिच्चसञ्ञाय विसभागभूते “केसादि असुचिकोट्ठासमेवात असुभ फरति असुभमनसिकारं पवत्तेति । छळङ्गपेक्खायाति इट्ठानिट्टछळारम्भणापाथे परिसुद्धपकतिभावाविजहनलक्खणाय छसु द्वारेसु पवत्तनतो “छळङ्गुपेक्खाया ति लद्धनामाय तत्रमज्झत्तुपेक्खाय ।
(५.१६०-१६०)
तं सनन्ति तं द्वसु इद्धिविधासु देसनप्पकारं देसनाविधिं । असे सकलन्ति असे सं निरवसेसं सम्पुण्णं अभिविसिट्टेन आणेन जानाति । असेसं अभिजानतो ततो उत्तरि अभिज्ञेय्यं नत्थि । इतोति भगवतो अभिज्ञाततो । अञ्ञो परमत्थवसेन धम्मो वा पञ्ञत्तिवसेन पुग्गलो वा अयं नाम यं भगवा न जानातीति इदं नत्थि न उपलब्भति सब्बस्सेव सम्मदेव तुम्हेहि अभिज्ञातत्ता । द्वीसु इद्धिविधासु अभिजानने, देसनायञ्च भगवतो उत्तरितरो नत्थि। इमिनापीति पि- सद्दो न केवलं वुत्तत्थसमुच्चयत्थो, अथ खो अवुत्तत्थसमुच्चयत्थोपि दट्ठब्बो । यं तं भन्तेतिआदिनापि हि भगवतो गुणदस्सनं तस्सेव पसादस्स कारणविभावनं ।
अञ्ञथासत्थुगुणदस्सनादिवण्णना
१६०. पुब्बे “ एतदानुत्तरियं भन्ते" तिआदिना यथावुत्तबुद्धगुणा दस्सिता, ततो अञ्ञ एवायं पकारो “यं तं भन्ते " तिआदिना आरद्धोति आह " अपरेनापि आकारेना”ति | बुद्धानं सम्मासम्बोधिया सद्दहनतो विसेसतो सद्धा कुलपुत्ता नाम बोधिसत्ता, महाबोधिसत्ताति अधिप्पायो । ते हि महाभिनीहारतो पट्ठाय महाबोधियं सत्ता आसत्ता लग्गा नियतभावूपगमनेन केनचि असंहारियभावतो । यतो नेसं न कथञ्चि तत्थ सद्धाय अञ्ञथत्तं होति, एतेनेव तेसं कम्मफलं सद्धायपि अञ्ञथत्ताभावो दीपितो दट्टब्बो | तस्माति यस्मा अतिसयवचनिच्छावसेन, “अनुप्पत्तं तं भगवता " ति सद्दन्तरसन्निधानेन च विसिट्ठविसयं ‘“सद्धेन कुलपुत्तेनाति इदं पदं, तस्मा । लोकुत्तरधम्मसमधिगममूलकत्ता सब्बबुद्धगुणसमधिगमस्स "नव लोकुत्तरधम्मा "ति वृत्तं । 'आरद्धवीरियेना" तिआदीसु समासपदेसु “वीरियं थामो '' तिआदीनि अवयवपदानि | आदि - सद्देन परक्कमपदं सङ्गण्हाति,
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१६०-१६०)
न धोरम्हपदं । न हि तं वीरियवेवचनं, अथ खो वीरियवन्तवाचकं । धुराय नियुत्तोति हि धोरयहो। तेनाह “तं धुरं वहनसमत्थेन महापुरिसेना''ति। पग्गहितवीरियेनाति असिथिलवीरियेन । थिरवीरियेनाति उस्सोळ्हीभावूपगमनेन थिरभावप्पत्तवीरियेन । असमधुरेहीति अनञसाधारणधुरेहि । परेसं असव्हसहना हि लोकनाथा । तं सबं अचिन्तेय्यापरिमेय्यभेदं बुद्धानं गुणजातं । पारमिता, बुद्धगुणा, वेनेय्यसत्ताति यस्मा इदं तयं सब्बेसम्पि बुद्धानं समानमेव, तस्मा आह “अतीतानागत...पे०... ऊनो नत्थी'ति ।
कामसुखल्लिकानुयोगन्ति कामसुखे अल्लीना हुत्वा अनुयुञ्जनं । को जानाति परलोकं “अत्थी''ति, एत्थ “को एकविसयोयं इन्द्रियगोचरो''ति एवंदिठ्ठि हुत्वाति अधिप्पायो । सुखोति इट्ठो सुखावहो । परिब्बाजिकायाति तापसपरिब्बाजिकाय तरुणिया। मुदुकायाति सुखुमालाय | लोमसायाति तरुणमुदुलोमवतिया | मोळिबन्धाहीति मोळिं कत्वा बन्धकेसाहि । परिचारेन्तीति अत्तनो पारिचारिकं करोन्ति, इन्द्रियानि वा तत्थ परितो चारेन्ति । लामकन्ति पटिकिलिटुं । गामवासीनं बालानं धम्म। पुथुज्जनानमिदन्ति पोथुज्जनिकं। यथा पन तं "पुथुज्जनानमिदन्ति वत्तब्बतं लभति, तं दस्सेतुं "पुथुज्जनेहि सेवितब्ब"न्ति आह । अनरियेहि सेवितब्बन्ति वा अनरियं । यस्मा पन निद्दोसत्थो अरियत्थो, तस्मा “अनरियन्ति न निदोस"न्ति वुत्तं । अनत्थसंयुत्तन्ति दिठ्ठधम्मिकसम्परायिकादिविविधविपुलानत्थसहितं । अत्तकिलमथानुयोगन्ति अत्तनो किलमथस्स खेदनस्स अनुयुञ्जनं । दुक्खं एतस्स अत्थीति दुक्खं। दुक्खमनं एतस्साति दुक्खमं ।
आभिचेतसिकानन्ति अभिचेतो वुच्चति अभिक्कन्तं विसुद्धं चित्तं, अधिचित्तं वा, तस्मिं अभिचेतसि जातानीति आभिचेतसिकानि, अभिचेतोसन्निस्सितानि वा । दिट्ठधम्मसुखविहारानन्ति दिठ्ठधम्मे सुखविहारानं, दिट्ठधम्मो वुच्चति पच्चक्खो अत्तभावो, तत्थ सुखविहारभूतानन्ति अत्थो, रूपावचरझानानमेतं अधिवचनं । तानि हि अप्पेत्वा निसिन्ना झायिनो इमस्मिंयेव अत्तभावे असंकिलिटुं नेक्खम्मसुखं विन्दन्ति, तस्मा "दिठ्ठधम्मसुखविहारानी''ति वुच्चन्तीति । कथिता “दिट्ठधम्मसुखविहारो''ति सप्पीतिकत्ता, लोकुत्तरविपाकसुखुमसहितत्ता च । सह मग्गेन विपस्सनापादकज्झानं कथितं "चत्तारोमे चुन्द सुखल्लिकानुयोगा एकन्तनिब्बिदाया'तिआदिना (दी०नि० ३.१८४) चतुत्थज्झानिकफलसमापत्तीति चतुत्थज्झानिका फलसमापत्ति दिट्ठधम्मसुखविहारभावेन कथिता । चत्तारि रूपावचरानि “दिट्ठधम्मसुखविहारज्झानानी"ति कथितानीति अत्थो । निकामलाभीति निकामेन लाभी अत्तनो इच्छावसेन लाभी । इच्छिातेच्छितक्खणे समापज्जितुं समत्थोति
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(५.१६१-१६१)
अनुयोगदानप्पकारवण्णना
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अत्थो । तेनाह “यथाकामलाभी'ति । अदुक्खलाभीति सुखेनेव पच्चनीकधम्मानं समुच्छिन्नत्ता समापज्जितुं समत्थो । अकसिरलाभीति अकसिरानं विपुलानं लाभी, यथापरिच्छेदेनेव वुढातुं समत्थो । एकच्चो हि लाभीयेव होति, न पन सक्कोति इच्छितिच्छितक्खणे समापज्जितुं । एकच्चो तथा समापज्जितुं सक्कोति, पारिबन्धके पन किच्छेन विक्खम्भेति । एकच्चो तथा च समापज्जति, पारिबन्धके च अकिच्छेनेव विक्खम्भेति, न सक्कोति नाळिकयन्तं विय यथापरिच्छेदे वुट्ठातुं | भगवा पन सब्बसो समुच्छिन्नपारिबन्धकत्ता वसिभावस्स सम्मदेव समधिगतत्ता सब्बमेतं सम्मदेव सक्कोति ।
अनुयोगदानप्पकारवण्णना
१६१. दससहस्सिलोकधातुयाति इमाय लोकधातुया सद्धिं इमं लोकधातुं परिवारेत्वा ठिताय दससहस्सिलोकधातुया। जातिखेत्तभावेन हि तं एकज्झं गहेत्वा “एकिस्सा लोकधातुया''ति वुत्तं, तत्तकाय एव जातिखेत्तभावो धम्मतावसेन वेदितब्बो । “परिग्गहवसेना''ति केचि । सब्बेसम्पि बुद्धानं तत्तकं एव जातिखेत्तं । "तन्निवासीनंयेव च देवानं धम्माभिसमयोति वदन्ति । पकम्पनदेवतूपसङ्कमनादिना जातचक्कवाळेन समानयोगक्खमट्ठानं जातिखेत्तं। सरसेनेव आणापवत्तनट्ठानं आणाखेत्तं। बुद्धाणस्स विसयभूतं ठानं विसयखेत्तं। ओक्कमनादीनं छन्नमेव गहणं निदस्सनमत्तं महाभिनीहारादिकालेपि तस्स पकम्पनलब्भनतो । आणाखेत्तं नाम, यं एकच्चं संवट्टति, विवति च । आणा वत्तति तन्निवासिदेवतानं सिरसा सम्पटिच्छनेन, तञ्च खो केवलं बुद्धानं आनुभावेनेव, न अधिप्पायवसेन | “यावता पन आकोय्या'ति (अ० नि० १.३.८१) वचनतो ततो परम्पि आणा पवत्तेय्येव ।।
नुष्पज्जन्तीति पन अत्थीति “न मे आचरियो अत्थि, सदिसो मे न विज्जती"ति (म० नि० १.२८५; २.३४१; महाव० ११; कथाव० ४०५) इमिस्सा लोकधातुया ठत्वा वदन्तेन भगवता, इमस्मिंयेव सुत्ते “किं पनावुसो, सारिपुत्त, अत्थेतरहि अञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता समसमो सम्बोधियन्ति (दी० नि० ३.१६१) एवं पुट्ठो “अहं भन्ते नोति वदेय्य"न्ति (दी० नि० ३.१६१) वत्वा तस्स कारणं दस्सेतुं “अट्ठानमेतं अनवकासो, यं एकिस्सा लोकधातुया द्वे अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा''ति (दी०नि० ३.१६१; म० नि० ३.१२९; अ० नि० १.१.२७७; नेत्ति० ५७; मि० प० ५.१.१) इमं सुत्तं
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१६१-१६१)
दस्सेन्तेन धम्मसेनापतिना च बुद्धखेत्तभूतं इमं लोकधातुं उपेत्वा अञ्ञत्थ अनुष्पत्ति वुत्ता होतीति अधिप्पायो।
एकतोति सह, एकस्मिं कालेति अत्थो । सो पन कालो कथं परिच्छिन्नोति ? चरिमभवे पटिसन्धिग्गहणतो पट्ठाय याव धातुपरिनिब्बानन्ति दस्सेन्तो "तत्थ बोधिपल्लङ्के"तिआदिमाह। निसिनकालतो पट्ठायाति पटिलोमक्कमेन वदति । खेत्तपरिग्गहो कतोव होति “इदं बुद्धानं जातिखेत्त''न्ति । केन पन परिग्गहो कतो? उप्पज्जमानेन बोधिसत्तेन । परिनिब्बानतो पट्ठायाति अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बानतो पट्ठाय । एत्थन्तरेति चरिमभवे बोधिसत्तस्स पटिसन्धिग्गहणं, धातुपरिनिब्बानन्ति इमेहि द्वीहि परिच्छिन्ने एतस्मिं अन्तरे ।
तिपिटकअन्तरधानकथावण्णना
"न निवारिता'ति वत्वा तत्थ कारणं दस्सेतुं "तीणि ही"तिआदि वुत्तं । पटिपत्तिअन्तरधानेन सासनस्स ओसक्कितत्ता अपरस्स उप्पत्ति लद्धावसरा होति । पटिपदाति पटिवेधावहा पुब्बभागपटिपदा।
“परियत्ति पमाण"न्ति वत्वा तमत्थं बोधिसत्तं निदस्सनं कत्वा दस्सेतुं "यथा"तिआदि वुत्तं । तयिदं हीनं निदस्सनं कतन्ति दट्ठब् । निय्यानिकधम्मस्स हि ठिति दस्सेन्तो अनिय्यानिकधम्म निदस्सेति ।
मातिकाय अन्तरहितायाति “यो पन भिक्खू''तिआदि (पारा० ३९, ४४; पाचि० ४५) नयप्पवत्ताय सिक्खापदपाळिमातिकाय अन्तरहिताय । निदानुद्देससङ्खाते पातिमोक्खे, पब्बज्जाउपसम्पदाकम्मेसु च सासनं तिट्ठति। यथा वा पातिमोक्खे धरन्ते एव पब्बज्जा उपसम्पदा च, एवं सति एव तदुभये पातिमोक्खं तदुभयाभावे पातिमोक्खाभावतो। तस्मा तयिदं तयं सासनस्स ठितिहेतूति आह "पातिमोक्खपब्बज्जाउपसम्पदासु ठितासु सासनं तिद्वती"ति । यस्मा वा उपसम्पदाधीनं पातिमोक्खं अनुपसम्पन्नस्स अनिच्छितत्ता, उपसम्पदा च पब्बज्जाधीना, तस्मा पातिमोक्खे, तं सिद्धिया सिद्धासु पब्बज्जुपसम्पदासु च सासनं तिठ्ठति । ओसक्कितं नामाति पच्छिमकपटिवेधसीलभेदद्वयं एकतो कत्वा ततो
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(५.१६१-१६१)
सासनअन्तरहितवण्णना
परं विनटुं नाम होति, पच्छिमकपटिवेधतो परं पटिवेधसासनं, पच्छिमकसीलभेदतो परं पटिपत्तिसासनं विनटुं नाम होतीति अत्थो ।
सासनअन्तरहितवण्णना
___ एतेन कामं “सासनट्ठितिया परियत्ति पमाण''न्ति वुत्तं, परियत्ति पन पटिपत्तिहेतुकाति पटिपत्तिया असति सा अप्पतिट्ठा होति पटिवेधो विय, तस्मा पटिपत्तिअन्तरधानं सासनोसक्कनस्स विसेसकारणन्ति दस्सेत्वा तयिदं सासनोसक्कनं धातुपरिनिब्बानोसानन्ति दस्सेतुं "तीणि परिनिब्बानानी"तिआदि वुत्तं । धातूनं सन्निपातनादि बुद्धानं अधिट्टानेनेवाति वेदितबं ।
ताति रस्मियो। कारुञ्जन्ति परिदेवनकारुनं। जम्बुदीपे, दीपन्तरेसु, देवनागब्रह्मलोकेसु च विप्पकिरित्वा ठितानं धातूनं महाबोधिपल्लङ्कट्ठाने एकझं सन्निपातनं, रस्मिविस्सज्जनं, तत्थ तेजोधातुया उद्यानं, एकजालिभावो चाति सब्बमेतं सत्थु अधिट्ठानवसेनेवाति वेदितब्बं ।
अनच्छरियत्ताति द्वीसुपि उप्पज्जमानेसु अच्छरियत्ताभावदोसतोति अत्थो । बुद्धा नाम मज्झे भिन्नसुवण्णं विय एकसदिसाति तेसं देसनापि एकरसा एवाति आह "देसनाय च विसेसाभावतो"ति, एतेन च अनच्छरियत्तमेव साधेति । “विवादभावतो"ति एतेन विवादाभावत्थं द्वे एकतो न उप्पज्जन्तीति दस्सेति ।
तत्थाति मिलिन्दपज्हे (मि० प० ५.१.१)। एकुद्देसोति एको एकविधो अभिन्नो उद्देसो । सेसपदेसुपि एसेव नयो ।
एकं एव बुद्धं धारेतीति एकबुद्भधारणी, एतेन एवंसभावा एते बुद्धगुणा, येन दुतियं बुद्धगुणं धारेतुं असमत्था अयं लोकधातूति दस्सेति । पच्चयविसेसनिप्फन्नानहि धम्मानं सभावविसेसो न सक्का निवारेतुन्ति । “न धारेय्या'ति वत्वा तमेव अधारणं परियायेहि पकासेन्तो "चलेय्या"तिआदिमाह । तत्थ चलेय्याति परिप्फन्देय्य । कम्पेय्याति पवेधेय्य । नमेय्याति एकपस्सेन नता भवेय्य । ओणमेय्याति ओसीदेय्य । विनमेय्याति विविधा इतो चितो च नमेय्य । विकिरेय्याति वातेन भुसमुट्ठि विय विप्पकिरेय्य ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(५.१६१-१६१)
विधमेय्याति विनस्सेय्य । विद्धंसेय्याति सब्बसो विद्धस्ता भवेय्य । तथाभूता च न कत्थचि तिद्वैय्याति आह “न ठानं उपगच्छेय्या"ति ।
इदानि तत्थ निदस्सनं दस्सेन्तो “यथा महाराजा"तिआदिमाह । तत्थ समुपादिकाति समं उद्धं पज्जति पवत्ततीति समुपादिका, उदकस्स उपरि समंगामिनीति अत्थो । वण्णेनाति सण्ठानेन । पमाणेनाति आरोहेन | किसथूलेनाति किसथूलभावेन, परिणाहेनाति अत्थो । द्विन्नम्पीति द्वेपि, द्विन्नम्पि वा सरीरभारं ।
छादेन्तन्ति रोचेन्तं रुचिं उप्पादेन्तं । तन्दीकतोति तेन भोजनेन तन्दीभूतो । अनोणमितदण्डजातोति यावदत्थभोजनेन ओणमितं असमत्थताय अनोणमितदण्डो विय जातो । सकिं भुत्तोवाति एकं वड्डितकं भुत्तमत्तोव मरेय्याति । अतिधम्मभारेनाति धम्मेन नाम पथवी तिढेय्य, सकिं तेनेव चलति विनस्सतीति अधिप्पायेन पुच्छति । पुन थेरो रतनं नाम लोके कुटुम्बं सन्धारेन्तं, अभिमतञ्च लोकेन; तं अत्तनो गरुसभावताय सकटभङ्गस्स कारणं अतिभारभूतं दिट्ठमेवं धम्मो च हितसुखविसेसेहि तंसमङ्गिनं धारेन्तो, अभिमतो च विझूनं गम्भीरप्पमेय्यभावेन गरुसभावत्ता अतिभारभूतो पथविचलनस्स कारणं होतीति दस्सेन्तो "इध महाराज द्वे सकटा"तिआदिमाह, एतेनेव तथागतस्स मातुकुच्छिओक्कमनादिकाले पथविकम्पनकारणं संवण्णितन्ति दट्ठब् । एकस्साति एकस्मा, एकस्स वा सकटस्स रतनं तरमा सकटतो गहेत्वाति अत्थो ।
ओसारितन्ति उच्चारितं, कथितन्ति अत्थो ।
अग्गोति सब्बसत्तेहि अग्गो ।
सभावपकतिकाति सभावभूता अकित्तिमा पकतिका। कारणमहन्तत्ताति कारणानं महन्तताय, महन्तेहि बुद्धकरधम्मेहि पारमिसङ्घातेहि कारणेहि बुद्धगुणानं निब्बत्तितोति वुत्तं होति । पथविआदीनि महन्तानि वत्थूनि, महन्ता च सक्कभावादयो अत्तनो अत्तनो विसये एकेकाव, एवं सम्मासम्बुद्धोपि महन्तो अत्तनो विसये एको एव । को च तस्स विसयो ? बुद्धभूमि, यावतकं वा जेय्यमेवं “आकासो विय अनन्तविसयो भगवा एको एव होती"ति वदन्तो “एकिस्सा लोकधातुया''ति वुत्तलोकधातुतो अ सुपि चक्कवाळेसु अपरस्स बुद्धस्स अभावं दस्सेति ।
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(५.१६२-१६३)
अच्छरियअब्भुतवण्णना
| ভূত
"सम्मुखा मेत"न्तिआदिना पवत्तितं अत्तनो ब्याकरणं अविपरीतत्थताय सत्थरि पसादुप्पादनेन सम्मापटिपज्जमानस्स अनुक्कमेन लोकुत्तरधम्मावहम्पि होतीति आह "धम्मस्स...पे०... पटिपद"न्ति । वादस्स अनुपतनं अनुप्पवत्ति वादानुपातोति आह "वादोयेवा"ति।
अच्छरियअब्भुतवण्णना
१६२. उदायीति नामं, महासरीरताय पन थेरो महाउदायीति पञायित्थ, यस्स वसेन विनये निसीदनस्स दसा अनुञाता | पञ्चवण्णाति खुद्दिकादिभेदतो पञ्चप्पकारा । पीतिसमुट्ठानेहि पणीतरूपेहि अतिब्यापितदेहो “निरन्तरं पीतिया फुटसरीरो"ति वुत्तो, ततो एवस्सा परियायतो फरणलक्खणम्पि वुत्तं । अप्प-सद्दो “अप्पकसिरेनेवा''तिआदीसु (सं० नि० २.१.१०१; ३.५.१५८; अ० नि० २.७.७१) विय इध अभावत्थोति आह "अप्पिच्छताति नित्तण्हता"ति | तीहाकारेहीतियथालाभयथाबलयथासारुप्पप्पकारेहि ।
न न कथेति कथेतियेव । चीवरादिहेतुन्ति चीवरुप्पादादिहेतुभूतं पयुत्तकथं न कथेति । वेनेय्यवसेनाति विनेतब्बपुग्गलवसेन । कथेति “एवमयं विनयं उपगच्छती''ति । “सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मी"तिआदिका (म० नि० १.२८५; २.३४१; महाव० ११; कथाव० ४०५; ध० प० ३५३) गाथापि “दसबलसमन्नागतो, भिक्खवे, तथागतो''तिआदिका (सं० नि० १.२.२१, २२) सुत्तन्तापि।
१६३. अभिक्खणन्ति अभिण्हं । निग्गाथकत्ता, पुच्छनविस्सज्जनवसेन पवत्तितत्ता च "वेय्याकरण"न्ति वुत्तं । सेसं सब्बं सुविज्ञेय्यं एवाति ।
सम्पसादनीयसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना ।
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६. पासादिकसुत्तवण्णना
निगण्ठनाटपुत्तकालङ्किरियवण्णना १६४. लक्खस्स सरवेधं अविरज्झित्वान विज्झनविधिं जानन्तीति वेधञा। तेनाह "धनुम्हि कतसिक्खा"ति। सिप्पं उग्गहणत्थायाति धनुसिप्पादिसिप्पस्स उग्गहणत्थाय । मज्झिमेन पमाणेन सरपातयोग्यतावसेन कतत्ता दीघपासादो।
सम्पति कालं कतोति अचिरकालं कतो। वेधिकजाताति जातद्वेधिका सञ्जातभेदा | बेज्झजाताति दुविधभावप्पत्ता । भण्डन्ति परिभासन्ति एतेनाति भण्डनं, विरुद्धचित्तं । तन्ति भण्डनं । “इदं नहानादि न कत्तब्ब''न्ति पञत्तवत्तं पण्णत्ति। धम्मविनयन्ति पावचनं सिद्धन्तं । विज्झन्ता मुखसत्तीहि । सहितं मेति मय्हं वचनं सहितं सिलिटुं पुब्बापरसम्बन्धं अत्थयुत्तं कारणयुत्तं । तेनाह “अत्थसंहित"न्ति । अधिचिण्णन्ति आचिण्णं । विपरावत्तन्ति विरोधदस्सनवसेन परावत्तितं, परावत्तं दूसितन्ति अत्थो । तेनाह "चिरकालवसेन पगुणं, तं मम वादं आगम्म निवत्त"न्ति । परियेसमानो विचर तत्थ गन्त्वा सिक्खाति अत्थो । सचे सक्कोसि, इदानियेव मया वेठितं दोसं निब्बेठेहि । मरणमेवाति अञमञघातनवसेन मरणमेव । नाटपुत्तस्स इमेति नाटपुत्तिया, ते पन तस्स सिस्साति आह “अन्तेवासिकेसू"ति । पुरिमपटिपत्तितो पटिनिवत्तनं पटिवानं, तं रूपं सभावो एतेसन्ति पटिवानरूपा। तेनाह "निवत्तनसभावा"ति। कथनं अत्थस्स आचिक्खनं । पवेदनं हेतुदाहरणानि आहरित्वा बोधनं । तेनाह "दुप्पवेदितेति दुविज्ञापिते"ति । न उपसमाय संवत्ततीति अनुपसमसंवत्तनं, तदेव अनुपसमसंवत्तनिकं, तस्मिं । समुस्सितं हुत्वा पतिट्ठाहेतुभावतो थूपं, पतिठ्ठाति आह "भिनथूपेति भिन्नपतिद्वे"ति, थूपोति वा धम्मस्स निय्यानभावो वेदितब्बो अञ्चे धम्मे अभिभुय्य समुस्सितढेन, सो निगण्ठस्स समये | केहिचि अभिन्नसम्मतोपि भिन्नो विनट्ठो एव सब्बेन सब्बं अभावतोति सो भिन्नथूपो, सो
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(६.१६५-१६६)
धम्मरतनपूजावण्णना
एव निय्यानभावो वट्टदुक्खतो मुच्चितुकामानं पटिसरणं, तमेत्थ नत्थीति अप्पटिसरणो, तस्मिं भिन्नथूपे अप्पटिसरणेति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो ।
आचरियप्पमाणन्ति आचरियमुद्वि हुत्वा पमाणभूतं । नानानीहारेनाति नानाकारेन ।
१६५. तथैव समुदाचरिंसु भूतपुब्बगतिया । सामाकानन्ति सामाकधञानं ।
'येनस्स उपज्झायो"ति वत्वा यथास्स आयस्मतो चुन्दस्स धम्मभण्डागारिको उपज्झायो अहोसि, तं वित्थारेन दस्सेतुं "बुद्धकाले किरा"तिआदि वुत्तं । तत्थ बुद्धकालेति भूतकथनमेतं, न विसेसनं । सत्थु परिनिब्बानतो पुरेतरमेव हि धम्मसेनापति परिनिब्बुतो ।
धम्मरतनपूजावण्णना सद्धिविहारिकं अदासीति सद्धिविहारिकं कत्वा अदासि |
कथाय मूलन्ति भगवतो सन्तिका लभितब्बधम्मकथाय कारणं । समुट्ठापेतीति उट्ठापेति, दालिद्दियपङ्कतो उद्धरतीति अधिप्पायो । सन्धमन्ति सम्मदेव धमन्तो। एकेकस्मिं पहारेयेव तयो तयो वारे कत्वा दिवा नववारे रत्तिं नववारे। उपट्ठानमेव गच्छति बुद्धपट्ठानवसेन, पहापुच्छनादिवसेन पन अन्तरन्तरापि गच्छतेव, गच्छन्तो च दिवसस्स...पे०... गच्छति ।
आतुं इच्छितस्स अत्थस्स उद्धरणभावतो पहोव पहुद्धारो, तं गहेत्वाव गच्छति अत्तनो महापञताय, सत्थु च धम्मदेसनायं अकिलासुभावतो।
असम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयवण्णना
१६६. आरोचितेपि तस्मिं अत्थे । सामिको होति, तस्स सामिकभावं दस्सेतुं “सोव तस्सा आदिमज्झपरियोसानं जानाती"ति आह । एवन्ति वचनसम्पटिच्छनं । चुन्दत्थेरेन हि आनीतं कथापाभतं भगवा सम्पटिच्छन्तो “एव"न्ति आह । “एव"न्ति दुरक्खाते धम्मविनये सावकानं द्वेधिकादिभावेन विहरणकिरियापरामसनव्हेतं ।
यस्मा...पे०... पाकटं होति ब्यतिरेकमुखेन च नेय्यस्स अत्थस्स विभूतभावापत्तितो ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(६.१६७-१७०)
अथ वा यस्मा...पे०... पाकटं होति दोसेसु आदीनवदस्सनेन तप्पटिपक्खेसु गुणेसु आनिसंसस्स विभूतभावापत्तितो। वोक्कम्माति अपसक्केत्वा । आमेडितलोपेन चायं निद्देसो, वोक्कम्म वोक्कम्माति वुत्तं होति, तेन तस्स वोक्कमनस्स अन्तरन्तराति अयमत्थो लब्भतीति आह "न निरन्तर"न्तिआदि । धम्मानुधम्मपटिपत्तिआदयोति तेन सत्थारा वुत्तमुत्तिधम्मस्स अनुधम्मं अप्पटिपज्जनादयो। आदि-सद्देन पाळियं आगता असामीचिपटिपदादयो च सङ्गय्हन्ति । मनुस्सत्तम्पीति पि-सद्देन “विचारणपञआय असम्भवो, दोसेसु अनभिनिवेसिता, असन्दिट्ठिपरामासिता"ति एवमादीनं सङ्गहो दट्टब्बो। “तथा एव"न्ति पदेहि यथाक्कम पकारस्स कामं तिरोक्खता, पच्चक्खता वुच्चति, तथापि यथा "तथा पटिपज्जतू'ति पदेन पटिपज्जनाकारो नियमेत्वा विहितो, तथा “एवं पटिपज्जतू"ति इमिनापीति इदं तस्स अत्थदस्सनभावेन वुत्तं । समादपितत्ता मिच्छापटिपदाय अपुञ्ज पसवति।
१६७. आयति मुत्तिधम्मो एतेनाति आयो, तेन सत्थारा वुत्तो धम्मानुधम्मो, तं पटिपन्नोति जायप्पटिपत्रो, सो पन यस्मा तस्स मुत्तिधम्मस्स अधिगमे कारणसम्मतो, तस्मा वुत्तं "कारणप्पटिपन्नो"ति । निप्फादेस्सतीति साधेस्सति, सिद्धिं गमिस्सतीति वुत्तं होति । दुक्खनिब्बत्तकन्ति सम्पति, आयतिञ्च दुक्खस्स निब्बत्तकं। वीरियं करोति मिच्छापटिपन्नत्ता।
सम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयादिवण्णना
१६८. निय्यातीति वत्तति, संवत्ततीति वा अत्थो ।
१७०. इध सावकस्स सम्मापटिपत्तिया एकन्तिकअपस्सयदस्सनत्थं सत्थु सम्मासम्बुद्धता, धम्मस्स च स्वाक्खातता कित्तिताति “सम्मापटिपन्नस्स कुलपुत्तस्स पसंसं दस्सेत्वा"ति वुत्तं । एवम्हि इमिस्सा देसनाय संकिलेसभागियभावेन उद्विताय वोदानभागियभावेन यथानुसन्धिना पवत्ति दीपिता होति । अबोधितत्थाति अप्पवेदितत्था, परमत्थं चतुत्थसच्चपटिवेधं अपापिताति अत्थो । पाळियं “अस्सा"ति पदं “सावका सद्धम्मे"ति द्वीहि पदेहि योजेतब्बं “अस्स सम्मासम्बुद्धस्स सावका, अस्स सद्धम्मे'ति । सब्बसङ्गहपदेहि कतन्ति सब्बस्स सासनत्थस्स सङ्गण्हनपदेहि एकज्झं कतं । तेनाह "सब्बसङ्गाहिकं कतं न होतीति अत्थो"ति । पुब्बेनापरं सम्बन्धत्थभावेन सङ्गहेतब्बताय वा
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(६.१७२-१७७)
सङ्गायितब्बधम्मादिवण्णना
सङ्गहानि पदानि कतानि एतस्साति सङ्गहपदकतं, ब्रह्मचरियं । तप्पटिक्खेपेन न च सङ्गहपदकतन्ति योजना। रागादिपटिपक्खहरणं, यथानुसिटुं वा पटिपज्जमानानं वट्टदुक्खतो पटिहरणं निब्बानपापनं पटिहारो, सो एव आ-कारस्स इ-कारं कत्वा पटिहिरो, पटिहिरो एव पाटिहिरो, सह पाटिहिरेनाति सप्पाटिहिरं, तथा सुप्पवेदितताय सप्पाटिहिरं कतन्ति सप्पाटिहिरकतं। तादिसं पन वट्टतो निय्याने नियुत्तं, निय्यानप्पयोजनञ्च होतीति आह "निय्यानिक''न्ति । देवलोकतोति देवलोकतो पट्टाय रूपीदेवनिकायतो पभुति । सुप्पकासितन्ति सुट्ठ पकासितं । याव देवमनुस्सेहीति वा याव देवमनुस्सेहि यत्तका देवा मनुस्सा च, ताव ते सब्बे अभिब्यापेत्वा सुप्पकासितं। अनुतापाय होतीति अनुतप्पो, सो पन अनुतापं करोन्तो विय होतीति वुत्तं “अनुतापकरो होती"ति ।
१७२. थिरोति ठितधम्मो केनचि असंहारियो, असेक्खा सीलक्खन्धादयो थेरकारका धम्मा ।
१७३. योगेहि खेमत्ताति योगेहि अनुपद्दतत्ता। सद्धम्मस्साति अस्स सद्धम्मस्स । अस्साति च अस्स सत्थुनो।
१७४. उपासका ब्रह्मचारिनो नाम विसेसतो अनागामिनो | सोतापन्नसकदागामिनोपि तादिसा तथा वुच्चन्तीति "ब्रह्मचरियवासं वसमाना अरियसावका" इच्चेव वुत्तं ।
१७६. सब्बकारणसम्पन्नन्ति यत्तकेहि कारणेहि सम्पन्नं नाम होति, तेहि सब्बेहि कारणेहि सम्पन्नं सम्पत्तं उपगतं परिपुण्णं, समन्नागतं वा। इममेव धम्मन्ति इममेव सासनधम्म ।
उदकेन पदेस ना अत्तनो पञ्जावेय्यत्तियतं दस्सेतुं अनिय्यानिके अत्थे पयुत्तं पहेलिकसदिसं वचनं, भगवता अत्तनो सब्बञ्जताय निय्यानिके अत्थे योजेत्वा दस्सेतुं “उदको सुद''न्तिआदि वुत्तन्ति तं दस्सेतुं “सो किरा"तिआदिमाह।
सङ्गायितब्बधम्मादिवण्णना
१७७. सङ्गम्म समागम्माति तस्मिंयेव ठाने लब्भमानानं गतिवसेन सङ्गम्म ठानन्तरतो
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દર
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(६.१७८-१८२)
पक्कोसनेन समागतानं वसेन समागम्म । तेनाह "सङ्गन्त्वा समागन्त्वा"ति । अत्थेन अत्थन्ति पदन्तरे आगतअत्थेन सह तत्थ तत्थ आगतमत्थं । ब्यञ्जनेन व्यञ्जनन्ति एत्थापि एसेव नयो । समानेन्तेहीति समानं करोन्तेहि, ओपम्मं वा आनेन्तेहि । सङ्गायितब्बन्ति सम्मदेव गायितब् कथेतब्, तं पन सङ्गायनं वाचनामग्गोति आह "वाचेतब्ब"न्ति ।
१७८. तस्स वा भासितेति तस्स भिक्खुनो भासिते अत्थे चेव ब्यञ्जने च । अत्थमिच्छागहणरोपनानि यथा होन्ति, तं दस्सेतुं "चत्तारो सतिपट्ठाना"तिआदि वुत्तं । आरम्मणं "सतिपट्ठान"न्ति गण्हाति, न सतियेव “सतिपट्ठान''न्ति । “सतिपट्ठानानी"ति ब्यञ्जनं रोपेति तस्मिं अत्थे, न “सतिपट्ठाना''ति । उपपन्नतरानीति युत्ततरानि । अल्लीनतरानीति सिलिट्ठतरानि । या चेवाति लिङ्गविपल्लासेन वुत्तं, विभत्तिलोपेन वा । पुन या चेवाति लिङ्गविपल्लासेनेव निद्देसो । नेव उस्सादेतब्बोति न उक्कंसेतब्बो विरज्झित्वा वुत्तत्ता। न अपसादेतब्बोति न सन्तज्जेतब्बो विवादपरिहरणत्थं । धारणत्थन्ति उपधारणत्थं सल्लक्खणत्थं ।
१८१. अत्थेन उपेतन्ति अविपरीतेन अत्थेन उपेतं तं “अयमेत्थ अत्थो"ति उपेच्च पटिजानित्वा ठितं । तथारूपो च तस्स बुज्झिता नाम होतीति आह “अत्थस्स विज्ञातार"न्ति । एवमेतं भिक्खुं पसंसथाति वुत्तनयेन धम्मभाणकं अमुं भिक्षु “एवं लाभा नो आवुसो"तिआदिआकारेन पसंसथ । इदानिस्स पसंसभावं दस्सेतुं “एसो ही"तिआदि वुत्तं । एसाति परियत्तिधम्मस्स सत्थुकिच्चकरणतो, तत्थ चस्स सम्मदेव अवट्टितभावतो "बुद्धो नाम एसा"ति वुत्तो। “लाभा नो"तिआदिना चस्स भिक्खूनं पियगरुभावं विभावेन्तो सत्था तं अत्तनो ठाने ठपेसीति वुत्तो।
पच्चयानुञातकारणादिवण्णना
१८२. ततोपि उत्तरितरन्ति या पुब्बे सम्मापटिपन्नस्स भिक्खुनो पसंसनवसेन 'इध पन चुन्द सत्था च होति सम्मासम्बुद्धो"तिआदिना (दी० नि० ३.१६७, १६९) पवत्तितदेसनाय उपरि “इध चुन्द सत्था च लोके उदपादी''तिआदिना (दी० नि० ३.१७०, १७१) देसना वड्डिता । ततोपि उत्तरितरं सविसेसं देसनं वड्डेन्तो “पच्चयहेतू"तिआदिमाह । तत्थ पच्चयहेतूति पच्चयसंवत्तनहेतु । उप्पज्जनका आसवाति पच्चयानं परियेसनहेतु चेव परिभोगहेतु च उप्पज्जनका कामासवादयो। तेसं
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(६.१८३-१८६)
सुखल्लिकानुयोगादिवण्णना
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दिट्ठधम्मिकानं आसवानं “इध, भिक्खवे, अरियसावको मिच्छाआजीवं पहाय सम्माआजीवेन जीवितं कप्पेती"ति (सं० नि० ३.५.८) "इध, भिक्खवे, भिक्खु पटिसङ्खा योनिसो चीवरं पटिसेवती''तिआदिना (म० नि० १.२३; अ० नि० २.६.५८) च सम्मापटिपत्तिं उपदिसन्तो भगवा पटियाताय धम्मं देसेति नाम | “यो तुम्हेसु पाळिया अत्थब्यञ्जनानि मिच्छा गण्हाति, सो नेव उस्सादेतब्बो, न अपसादेतब्बो, साधुकं सापेतब्बो तस्सेव अत्थस्स निसन्तिया"ति एवं परियत्तिधम्मे मिच्छापटिपन्ने सम्मापटिपत्तियं भिक्खू नियोजेन्तो भगवा भण्डनहेतु उप्पज्जनकानं सम्परायिकानं आसवानं पटिघाताय धम्मं देसेति नाम । यथा ते न पविसन्तीति ते आसवा अत्तनो चित्तसन्तानं यथा न ओतरन्ति । मूलघातेन पटिहननायाति यथा मूलघातो होति, एवं मूलघातवसेन पजहनाय | तन्ति चीवरं । यथा चीवरं इदमत्थिकतमेव उपादाय अनुज्ञातं, एवं पिण्डपातादयोपि।
सुखल्लिकानुयोगादिवण्णना १८३. सुखितन्ति सञ्जातसुखं । पीणितन्ति धातं सुहितं । तथाभूतो पन यस्मा थूलसरीरो होति, तस्मा "थूलं करोती"ति वुत्तं ।
१८६. नठितसभावाति अनवट्ठितसभावा, एवरूपाय कथाय अनवट्ठानभावतो सभावोपि तेसं अनवट्ठितोति अधिप्पायो । तेनाह "जिव्हा नो अत्थी"तिआदि । कामं "पञ्चहि चक्खूही''ति वुत्तं, अग्गहितग्गहणेन पन चत्तारि चक्खूनि वेदितब्बानि । सब्ब ताणहि समन्तचक्खूति । तस्स वा जेय्यधम्मेसु जाननवसेन पवत्तिं उपादाय "जानता"ति वुत्तं । हत्थामलकं विय पच्चक्खतो दस्सनवसेन पवत्तिं उपादाय "पस्सता"ति वुत्तं । नेमं वुच्चति थम्भादीहि अनुपविट्ठभूमिप्पेदेसोति आह “गम्भीरभूमि अनुपविट्ठो"ति । सुट्ट निखातोति भूमिं निखनित्वा सम्मदेव ठपितो । तस्मिन्ति खीणासवे । अनज्झाचारो अचलो असम्पवेधी, यस्मा अज्झाचारो सेतुघातो खीणासवानं । सोतापनादयोति एत्थ आदि-सद्देन गहितेसु अनागामिनो ताव नवसुपि ठानेसु खीणासवा विय अभब्बा, सोतापन्नसकदागामिनो पन “ततियपञ्चमट्ठानेसु अभब्बा''ति न वत्तब्बा, इतरेसु सत्तसु ठानेसु अभब्बाव ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(६.१८७-१८७)
पञ्हब्याकरणवण्णना
१८७. गिहिब्यञ्जनेनाति गिहिलिङ्गेन । खीणासवो पन गिहिब्यञ्जनेन अरहत्तं पत्तोपि न तिट्ठति विवेकट्ठानस्स अभावाति अधिप्पायो। तस्स वसेनाति भुम्मदेवत्तभावे ठत्वा अरहत्तप्पत्तस्स वसेन । अयं पञ्होति “अभब्बो सो नव ठानानि अज्झाचरितु"न्ति अयं पञ्हो आगतो इतरस्स पब्बज्जाय, परिनिब्बानेन वा अभब्बताय अवुत्तसिद्धत्ता । यदि एवं कथं भिक्खुगहणन्ति आह “भित्रदोसत्ता'तिआदि। अपरिच्छेदन्ति अपरियन्तं, तयिदं सुविपुलन्ति आह "महन्त"न्ति । अय्यस्स हि विपुलताय आणस्स विपुलता वेदितब्बा, एतेन “अपरिच्छेद'"न्ति वुच्चमानम्पि जेय्यं सत्थु आणस्स वसेन परिच्छेदमेवाति दस्सितं होति । वुत्त हेतं “आणपरियन्तिकं नेय्य"न्ति (महानि० ६९, १५६; चूळनि० ८५; पटि० म० ३.५) अनागते अपञापनन्ति अनागते विसये आणस्स अपञआपनं । “पच्चक्खं विय कत्वाति कस्मा विय-सद्दग्गहणं कतं, ननु बुद्धानं सब्बम्पि आणं अत्तनो विसयं पच्चक्खमेव कत्वा पवत्तति एकप्पमाणभावतोति ? सच्चमेतं, "अक्ख"न्ति पन चक्खादिइन्द्रियं वुच्चति, तं अक्खं पति वत्ततीति चक्खादिनिस्सितं विज्ञाणं, तस्स च आरम्मणं "पच्चक्ख"न्ति लोके निरुळहमेतन्ति तं निदस्सनं कत्वा दस्सेन्तो "पच्चक्खं विय कत्वा"ति अवोच, न पन भगवतो जाणस्स अप्पच्चक्खाकारेन पवत्तनतो । तथा हि वदन्ति -
“आविभूतं पकासनं, अनुपकुतचेतसं ।। अतीतानागते आणं, पच्चक्खानं वसिस्सती"ति ।।
अञ्जत्थ विहितकेनाति अञ्जस्मिं विसये पवत्तितेन । सङ्गाहेतब्बन्ति समं कत्वा कथयितब्बं, कथनं पन पञापनं नाम होतीति पञापेतब्बन्ति अत्थो वुत्तो । तादिसन्ति सततं समितं पवत्तकं । जाणं नाम नत्थीति आवज्जनेन विना आणुप्पत्तिया असम्भवतो । एकाकारेन च जाणे पवत्तमाने नानाकारस्स विसयस्स अवबोधो न सिया । अथापि सिया, अनिरुपितरूपेनेव अवबोधो सिया, तेन च आणं जेय्यं अज्ञातसदिसमेव सिया । न हि "इदं त''न्ति विवेकेन अनवबुद्धो अत्थो जातो नाम होति, तस्मा “चरतो च तिट्ठतो चा''तिआदि बाललापनमत्तं । तेनाह “यथरिव बाला अव्यत्ता, एवं मञ्जन्ती"ति ।
सतिं
अनुस्सरतीति सतानुसारि, सतियानुवत्तनवसेन पवत्ताणं। तेनाह
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(६.१८८-१८८)
पञ्हब्याकरणवण्णना
“पुब्बेनिवासानुस्सतिसम्पयुत्तक "न्ति । त्रणं प्रेसेसीति आणं पवत्तेसि । सब्बत्थकमेव ञेय्यावरणस्स सुप्पहीनत्ता अप्पटिहतं अनिवारितं आणं गच्छति पवत्ततिच्चेव अत्थो । “बोधि वुच्चति चतूसु मग्गेसु ञाणन्ति ( चूळनि० २११) वचनतो चतुमग्गञाणं बोधि, ततो तस्स अधिगतत्ता उप्पज्जनकं पच्चवेक्खणञाणं “बोधिजं आणं उप्पज्जतीति वुत्तं । बोधिजं बोधिले जातं चतुमग्गजाणं, तञ्च खो अनागतं आरम्भ उद्दिस्स तस्स अप्पवत्तिअत्थं तथागतस्स उप्पज्जति तस्स उप्पन्नत्ता आयतिं पुनब्भवाभावतो । कथं तथागतो अनागतमद्धानं आरब्भ अतीरकं ञाणदस्सनं पञ्ञापेतीति ? अतीतस्स पन अदुनो महन्तताय अतीरकं आणदस्सनं तत्थ पञ्ञापेतीति को एत्थ विरोधो । तित्थिया पन इममत्थं याथावतो अजानन्ता - "तयिदं किं सु, तयिदं कथंसू " ति अत्तनो अञ्ञाणमेव पाकटं करोन्ति । तस्मा भगवता ससन्ततिपरियापन्नधम्मप्पवत्तिं सन्धाय 'अञ्ञविहितकं आणदस्सन "न्तिआदि वृत्तं । इतरं पन सन्धाय वुच्चमाने सति तथारूपे पयोजने अनागतम्पि अद्धानं आरब्भ अतीरकमेव ञाणदस्सनं पञ्ञापेय्य भगवाति अनत्थसंहितन्ति अयमेत्थ अत्थोति आह " न इधलोकत्थं वा परलोकत्थं वा निस्सित "न्ति । यं पन सत्तानं अनत्थावहत्ता अनत्थसंहितं, तत्थ सेतुघातो तथागतस्स । 'भारतयुद्धसीताहरणसदिसन्ति इमिना तस्सा कथाय येभुय्येन अभूतत्थतं दीपेति । सहेतुकन्ति आपकेन हेतुना सहेतुकं । सो पन हेतु येन निदस्सनेन साधीयति, तं तस्स कारणन्ति तेन सकारणं त्वा । यथा हि पटिञतत्थसाधनतो हेतु, एवं साधकं निदस्सनन्ति । युत्तपत्तकालेयेवाति युत्तानं पत्तकाले एव । ये हि वेनेय्या तस्सा कथाय युत्ता अनुच्छविका, तेसंयेव योजने सन्धाय वा कथाय पत्तो उपकारावहो कालो, तदा एव कथेतीति अत्थो ।
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१८८. “ तथा तथैव गदनतो " ति इमिना " तथागतो 'ति आमेडितलोपेनायं निद्देसोति दस्सेति। तथा तथेवाति च धम्मअत्थसभावानुरूपं, वेनेय्यज्झासयानुरूपञ्चाति अधिप्पायो । दिट्ठन्ति रूपायतनं दट्ठब्बतो, तेन यं दिट्टं, यं दिस्सति, यं दक्खति यं सति समवाये परसेय्यं, तं सब्बं "दिट्ठ” त्वेव गहितं कालविसेसस्स अनामट्टभावतो । “सुत "न्तिआदीसुपि एसेव नयो । सुतन्ति सहायतनं सोतब्बतो । मुतन्ति सनिस्सयेन घानादिइन्द्रियेन सयं पत्वा पापुणित्वा गहेतब्बं । तेनाह “पत्वा गहेतब्बतो "ति | विज्ञातन्ति विजानितब्बं, तं पन दिट्ठादिविनिमुत्तं विञ्ञेय्यन्ति आह “सुखदुक्खादिधम्मायतन "न्ति । पतन्ति यथा तथा पत्तं, हत्थगतं अधिगतन्ति अत्थो । तेनाह " परियेसित्वा वा अपरियेसित्वा वाति । परियेसितन्ति पत्तियामत्थं परियिट्टं, तं पन पत्तं वा सिया अप्पत्तं वा उभयथापि परियेसितमेवाति आह "पत्तं वा अप्पत्तं वा "ति । पदद्वयेनापि द्विप्पकारम्पि पत्तं,
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(६.१८९-१८९)
द्विप्पकारम्पि परियेसितं, तेन तेन पकारेन तथागतेन अभिसम्बुद्धन्ति दस्सेति । चित्तेन अनुसञ्चरितन्ति चोपनं अपापेत्वा चित्तेनेव अनुसंचरितं, परिवितक्कितन्ति अत्थो । पीतकन्ति आदीति आदि-सद्देन लोहितकओदातादि सब्बं रूपारम्मणविभागं सङ्गण्हाति । सुमनोति रागवसेन, लोभवसेन, सद्धादिवसेन वा सुमनो | दुम्मनोति ब्यापादवितक्कवसेन, विहिंसावितक्कवसेन वा दुम्मनो। मज्झत्तोति अञआणवसेन वा आणवसेन वा मज्झत्तो । एसेव नयो सब्बत्थ । तत्थ तत्थ आदि-सद्देन सङ्घसद्दो पणवसद्दो, पत्तगन्धो पुष्फगन्धो, पत्तरसो फलरसो, उपादिन्नं अनुपादिन्नं, मज्झत्तवेदना कुसलकम्मं अकुसलकम्मन्ति एवं आदीनं सङ्गहो दट्टब्बो।
अप्पत्तन्ति जाणेन असम्पत्तं, अविदितन्ति अत्थो। तेनाह "आणेन असच्छिकत"न्ति । तथेव गतत्ताति तथेव ज्ञातत्ता अभिसम्बुद्धत्ता। गत-सद्देन एकत्थं बुद्धिअत्थन्ति अत्थो । “गतिअत्था हि धातवो बुद्धिअत्था भवन्ती"ति अक्खरचिन्तका ।
अब्याकतानादिवण्णना
१८९. “असमतं कथेत्वा'"ति वत्वा समोपि नाम कोचि नत्थि, कुतो उत्तरितरोति दस्सेतुं “अनुत्तरत"न्ति वुत्तं । सा पनायं असमता, अनुत्तरता च सब्बञ्जतं पूरेत्वा ठिताति दस्सेतुं "सब्ब त"न्ति वुत्तं । सा सब्बञ्जता सद्धम्मवरचक्कवत्तिभावेन लोके पाकटा जाताति दस्सेतुं "धम्मराजभावं कथेत्वा"ति वुत्तं । तथा सब्ब भावेन च सत्था इमेसु दिठ्ठिगतविपल्लासेसु एवं पटिपज्जतीति दस्सेन्तो "इदानी"तिआदिमाह। तत्थ सीहनादन्ति अभीतनादं सेट्ठनादं । सेट्ठनादो हेस, यदिदं ठपनीयस्स पञ्हस्स ठपनीयभावदस्सनं । ठपनीयता चस्स पाळिआरुहा एव “न हेत''न्तिआदिना। यथा उपचितकम्मकिलेसेन इत्थत्तं आगन्तब्, तथा नं आगतोति तथागतो, सत्तो । तथा हि सो रूपादीसु सत्तो विसत्तोति कत्वा "सत्तो"ति च वुच्चति । इत्थत्तन्ति च पटिलद्धत्ता तथा पच्चक्खभूतो अत्तभावोति वेदितब्बो ।
“अत्थसंहितं न होती"ति इमिना उभयत्थ विधुरतादस्सनेन निरत्थकविप्पलापतं तस्स वादस्स विभावेति, उभयलोकत्थविधुरम्पि समानं “किं नु खो विवट्टनिस्सित"न्ति कोचि आसङ्केय्याति तदासङ्कानिवत्तनत्थं "न च धम्मसंहित"न्ति वुत्तं । तेनाह "नवलोकुत्तरधम्मनिस्सितं न होती"ति | यदिपि तं न विवट्टोगतं होति, विवट्टस्स पन
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(६.१९०-१९२)
पुब्बन्तसहगतदिट्ठिनिस्सयवण्णना
अधिट्ठानभूतं नु खोति आदिब्रह्मचरियक"न्तिआदि वुत्तं ।
कोचि
आसङ्केय्याति
तदासङ्कानिवत्तनत्थं
"न
१९०. कामं तण्हापि दुक्खसभावत्ता “दुक्ख''न्ति ब्याकातब्बा, पभवभावेन पन सा ततो विसु कातब्बाति "तण्हं ठपेत्वा"ति वुत्तं । तेनाह "तस्सेव दुक्खस्स पभाविका"तिआदि | ननु च अविज्जादयोपि दुक्खस्स समुदयोति ? सच्चं समुदयो, तस्सा पन कम्मस्स विचित्तभावहेतुतो, दुक्खुप्पादने विसेसपच्चयभावतो च सातिसयो समुदयट्ठोति सा एव सुत्तेसु तथा वुत्ता। तेनाह "तण्हा दुक्खसमुदयोति ब्याकत"न्ति । उभिन्नं अप्पवत्तीति दुक्खसमुदयानं अप्पवत्तिनिमित्तं। "दुक्खपरिजाननो"तिआदि मग्गकिच्चदस्सनं, तेन मग्गस्स भावनत्थोपि अत्थतो दस्सितोवाति दट्टब्बं । न हि भावनाभिसमयेन विना परिचाभिसमयादयो सम्भवन्तीति । सच्चववत्थापनं अप्पमादपटिपत्तिभावतो असम्मोहकल्याणकित्तिसद्दादिनिमित्तताय यथा सातिसयं इधलोकत्थावहं, एवं याव आणस्स तिक्खविसदभावप्पत्तिया अभावेन नवलोकुत्तरधम्मसम्पापकं न होति, ताव तत्थ तत्थ सम्पत्तिभवे अब्भुदयसम्पत्ति अनुगतमेव सियाति वुत्तं "एतं इधलोकपरलोकत्थनिस्सित"न्ति । नवलोकुत्तरधम्मनिस्सितन्ति नवविधम्पि लोकुत्तरधम्मं निस्साय पवत्तं तदधिगमूपायभावतो । यस्मा सच्चसम्बोधं उद्दिस्स सासनब्रह्मचरियं वुस्सति, न अञदत्थं, तस्मा एतं सच्चववत्थापनं “आदिपधानन्ति वुत्तं पठमतरं चित्ते आदातब्बतो ।
पुब्बन्तसहगतदिट्ठिनिस्सयवण्णना
१९१. तं मया ब्याकतमेवाति तं मया तथा ब्याकतमेव, ब्याकातब्बं नाम मया अब्याकतं नत्थीति ब्याकरणावेकल्लेन अत्तनो धम्मसुधम्मताय बुद्धसुबुद्धतं विभावेति । तेनाह "सीहनादं नदन्तो"ति | पुरिमुप्पन्ना दिट्ठियो अपरापरुप्पन्नानं दिट्ठीनं अवस्सया होन्तीति "दिवियोव दिविनिस्सया"ति वुत्तं । दिविगतिकाति दिट्ठिगतियो, दिट्ठिप्पवत्तियोति अत्थो । इदमेव दस्सनं सच्चन्ति “सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति इदमेव दस्सनं सच्चं अमोघं अविपरीतं । अञ्जेसं वचनं मोघन्ति “असस्सतो अत्ता च लोको चा"ति एवमादिकं अजेसं समणब्राह्मणानं वचनं मोघं तुच्छं, मिच्छाति अत्थो । न सयं कातब्बोति असयंकारोति आह "असयंकतो"ति, यादिच्छिकत्ताति अधिप्पायो ।
१९२. अत्थि खोति एत्थ खो-सद्दो पुच्छायं, अत्थि नूति अयमेत्थ अत्थोति आह
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(६.१९६-१९६)
"अस्थि खो इदं आवुसो बुच्चती"तिआदि । आवुसो यं तुम्हेहि "सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति वुच्चति, इदमत्थि खो इदं वाचामत्तं, नो नत्थि, तस्मा वाचावत्थुमत्ततो तस्स यं खो ते एवमाहंसु “इदमेव सच्चं मोघं अच"न्ति, तं तेसं नानुजानामीति एवमेत्थ अत्थो च योजना च वेदितब्बा। यं पनेत्थ वत्तब्, तं ब्रह्मजालटीकायं (दी० नि० टी० १.३०) वुत्तमेव । दिट्ठिपञत्तियाति दिट्ठिया पञआपने “एवं एसा दिट्ठि उप्पन्ना"ति तस्सा दिट्ठिया समुदयतो, अत्थङ्गमतो, अस्सादतो, आदीनवतो, निस्सरणतो च याथावतो पापने । अविपरीतवुत्तिया समन आणेन समं कञ्चि नेव समनुपस्सामि । अधिपञत्तीति अभिज्ञेय्यधम्मपञापना । यं अजानन्ता बाहिरका दिट्टिपञ्जत्तियेव अल्लीनाति तञ्च पञत्तितो अजानन्ता थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरन्ति । एत्थ च यायं "दिट्ठिपञत्ति नामा''ति वुत्ता दिठ्ठिया दिट्ठिगतिकेहि एवं गहितताय विभावना, तत्थ च भगवतो उत्तरितरो नाम कोचि नत्थि, स्वायमत्थो ब्रह्मजाले (दी० नि० अट्ठ० १.३०) विभावितो एव । “अधिपञत्ती''ति वुत्ता पन विभावियमाना लोकस्स निब्बिदाहेतुभावेन बहुलीकाराति तस्सा वसेन भगवा अनुत्तरभावं पवेदेन्तो 'नेव अत्तना समसमं समनुपस्सामी'ति सीहनादं नदी''ति केचि । अट्ठकथायं (दी० नि० अट्ठ० ३.१९२) पन “यञ्च वृत्तं ‘पञत्तिया'ति यञ्च 'अधिपञत्ती'ति, उभयमेतं अत्थतो एक''न्ति “इध पन पञत्तियाति एत्थापि पचत्ति चेव अधिपत्ति च अधिप्पेता, अधिपञत्तीति एत्थापी''ति च वुत्ता, उभयस्सपि वसेनेत्थ भगवा सीहनादं नदीति विज्ञायति । उभयं पेतं अस्थतो एकन्ति च पञत्तिभावसामञ्ज सन्धाय वुत्तं, न भेदाभावतो। तेनाह "भेदतो ही"तिआदि ! खन्धपञत्तीति खन्धानं “खन्धा'ति पञापना दस्सना पकासना ठपना निक्खिपना । “आचिक्खति दस्सेति पापेति पट्टपेती"ति (सं० नि० १.२.२०, ९७) आगतट्ठाने हि पञापना दस्सना पकासना पत्ति नाम, “सुपचत्तं मञ्चपीठ''न्ति (पारा० २६९) आगतट्ठाने ठपना निक्खिपना पञत्ति नाम, इध उभयम्पि युज्जति ।
दिविनिस्सयप्पहानवण्णना
१९६. पजहनत्यन्ति अच्चन्ताय पटिनिस्सज्जनत्थं । यस्मा तेन पजहनेन सब्बे दिट्ठिनिस्सया सम्मदेव अतिक्कन्ता होन्ति वीतिक्कन्ता, तस्मा "समतिक्कमायाति तस्सेव वेवचन"न्ति अवोच । न केवलं सतिपट्टाना कथितमत्ता, अथ खो वेनेय्यसन्ताने पतिठ्ठापिताति दस्सेतुं “देसिता''ति वत्वा “पत्ता''ति वुत्तन्ति आह “देसिताति कथिता। पञ्जत्ताति ठपिता"ति । इदानि सतिपट्ठानदेसनाय दिट्ठिनिस्सयानं एकन्तिकं
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(६.१९६-१९६)
दिट्ठिनिस्सयप्पहानवण्णना
पहानावहभावं दस्सेतुं “सतिपट्ठानभावनाय ही"तिआदि वुत्तं । तत्थ सतिपट्टानभावनायाति इमिना तेसं भावनाय एव नेसं पहानं, देसना पन तदुपनिस्सयभावतो तथा वुत्ताति दस्सेति । सेसं सबं सुविद्येय्यमेवाति ।
पासादिकसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना ।
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७. लक्खणसुत्तवण्णना
द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना १९९. अभिनीहारादिगुणमहत्तेन महन्तो पुरिसोति महापुरिसो, सो लक्खीयति एतेहीति महापुरिसलक्खणानि । तं महापुरिसं ब्यञ्जयन्ति पकासेन्तीति महापुरिसब्यञ्जनानि । महापुरिसो निमीयति अनुमीयति एतेहीति महापुरिसनिमित्तानि। तेनाह “अयं...पे०... कारणानी"ति ।
२००. धारेन्तीति लक्खणपाठं धारेन्ति, तेन लक्खणानि ते सरूपतो जानन्ति, न पन समुट्ठानतोति दस्सेति । तेनाह “नो च खो"तिआदि, तेन अनञसाधारणमेतं, यदिदं महापुरिसलक्खणानं कारणविभावनन्ति दस्सेति । कस्मा आहाति यथावुत्तस्स सुत्तस्स समुट्ठानकारणं पुच्छति, आचरियो “अटुप्पत्तिया अनुरूपत्ता'ति वत्वा तमेवस्स अट्ठप्पत्तिं वित्थारतो दस्सेतुं “सा पना"तिआदिमाह। सब्बपालिफुल्लोति सब्बसो समन्ततो विकसितपुप्फो । विकसनमेव हि पुप्फस्स निप्फत्ति । पारिच्छत्तको वियाति अनुस्सवलद्धमत्तं गहेत्वा वदन्ति | उप्पज्जतीति लब्भति, निब्बत्ततीति अत्थो ।
येन कम्मेनाति येन कुसलकम्मुना। यं निब्बत्तन्ति यं यं लक्खणं निब्बत्तं । दस्सनत्थन्ति तस्स तस्स कुसलकम्मस्स सरूपतो, किच्चतो, पवत्तिआकारविसेसतो, पच्चयतो, फलविसेसतो च दस्सनत्थं, एतेनेव पटिपाटिया उद्दिट्टानं लक्खणानं असमुद्देसकारणविभावनाय कारणं दीपितं होति समानकारणानं लक्खणानं एकज्झं कारणदस्सनवसेनस्स पवत्तत्ता । एवमाहाति “बाहिरकापि इसयो धारेन्ती''तिआदिना इमिना इमिना पकारेन आह ।
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(७.२०१-२०१)
सुप्पतिट्टितपादतालक्खणवण्णना
सुप्पतिद्वितपादतालक्खणवण्णना २०१. "पुरिमं जातिन्ति पुरिमायं जातियं, भुम्मत्थे एतं उपयोगवचन'न्ति वदन्ति । “पुब्बे निवुत्थक्खन्धसन्ताने ठितो''ति वचनतो अच्चन्तसंयोगे वा उपयोगवचनं । यत्थ यत्थ हि जातियं महासत्तो पुञकम्मं कातुं आरभति, आरभतो पट्ठाय अच्चन्तमेव तत्थ पुञकम्मप्पसुतो होति । तेनाह “दळ्हसमादानो''तिआदि । सेसपदद्वयेपि एसेव नयो । निवुत्थक्खन्धा "जाती"ति वुत्ता खन्धविनिमुत्ताय जातिया अभावतो, निब्बत्तिलक्खणस्स च विकारस्स इध अनुपयुज्जनतो | जातवसेनाति जायनवसेन । “तथा"ति इमिना “पुब्बे निवुत्थक्खन्धा''ति इमं पदं उपसंहरति । भवनवसेनाति पच्चयतो निब्बत्तनवसेन | निवुत्थवसेनाति निवुसिततावसेन । आलयद्वेनाति आवसितभावेन । निवासत्थो हि निकेतत्थो ।
___ तत्थाति देवलोकादिम्हि । आदि-सद्देन एकच्चं तिरच्छानयोनिं सङ्गण्हाति । न सुकरन्ति देवगतिया एकन्तसुखताय, दुग्गतिया एकन्तदुक्खताय, दुक्खबहुलताय च पुञ्जकिरियाय ओकासो न सुलभरूपो पच्चयसमवायस्स दुल्लभभावतो, उप्पज्जमाना च सा उळारा, विपुला च न होतीति गतिवसेनापि खेत्तविसेसता इच्छितब्बा “तिरच्छानगते दानं दत्वा सतगुणा दक्खिणा पाटिकशितब्बा, पुथुज्जनदुस्सीले दानं दत्वा सहस्सगुणा दक्खिणा पाटिकङ्कितब्बा''ति (म० नि० ३.३७९) वचनतो। मनुस्सगतिया पन सुखबहुलताय पुञ्जकिरियाय ओकासो सुलभरूपो पच्चयसमवायस्स च येभुय्येन सुलभभावतो। यञ्च तत्थ दुक्खं उप्पज्जति, तम्पि विसेसतो पुञ्जकिरियाय उपनिस्सयो होति, दुक्खूपनिसा सद्धाति । यथा हि अयोघनेन सत्थके निप्फादियमाने तस्स एकन्ततो अग्गिम्हि तापनं, उदकेन वा तेमनं छेदनकिरियासमत्थताय न विसेसपच्चयो, तापेत्वा पन समानयोगतो उदकतेमनं तस्सा विसेसपच्चयो, एवमेव सत्तसन्तानस्स एकन्तदुक्खसमङ्गिता दुक्खबहुलता एकन्तसुखसमङ्गिता सुखबहुलता च पुञ्जकिरियासमत्थताय न विसेसपच्चयो, सति पन समानयोगतो दुक्खसन्तापने, सुखुमब्रूहने च ल पनिस्सया पुञ्जकिरिया समत्थताय सम्भवति, तथा सति उप्पज्जमाना पुञ्जकिरिया महाजुतिका महाविष्फारा पटिपक्खच्छेदनसमत्था होति । तस्मा मनुस्सभावो पुञ्जकिरियाय विसेसपच्चयो। तेन वुत्तं "तत्थ न सुकरं, मनुस्सभूतस्सेव सुकर"न्ति ।।
अथ “मनुस्सभूतस्सा''ति एत्थ को वचनत्थो ? “मनस्स उस्सन्नताय मनुस्साति,
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(७.२०१-२०१)
सूरभावसतिमन्तताब्रह्मचरिययोग्यतादिगुणवसेन उपचितमनका उक्कट्ठगुणचित्ताति अत्थो । के पन ते ? जम्बुदीपवासिनो सत्तविसेसा । तेनाह भगवा -
'तीहि, भिक्खवे, ठानेहि जम्बुदीपका मनुस्सा उत्तरकुरुके च मनुस्से अधिग्गण्हन्ति देवे च तावतिंसे । कतमेहि तीहि ? सूरा सतिमन्तो इध ब्रह्मचरियवासोति (अ० नि० ३.९.२१; कथाव० २७१)।
तथा हि बुद्धा भगवन्तो, पच्चेकबुद्धा, अग्गसावका, महासावका, चक्कवत्तिनो, अझे च महानुभावा सत्ता तत्थेव उप्पज्जन्ति । ते हि समानरूपादिताय पन सद्धिं परित्तदीपवासीहि इतरमहादीपवासिनोपि मनुस्सा त्वेव पञायिंसूति केचि । अपरे पन भणन्ति “लोभादीहि, अलोभादीहि च सहितस्स मनस्स उस्सन्नताय मनुस्सा। ये हि सत्ता मनुस्सजातिका, तेसु विसेसतो लोभादयो, अलोभादयो च उस्सन्ना, ते लोभादिउस्सन्नताय अपायमग्गं, अलोभादिउस्सन्नताय सुगतिमग्गं, निब्बानगामिमग्गञ्च परिपूरेन्ति, तस्मा लोभादीहि, अलोभादीहि च सहितस्स मनस्स उस्सन्नताय परित्तदीपवासीहि सद्धिं चतुदीपवासिनो सत्तविसेसा मनुस्साति वुच्चन्ती''ति । लोकिया पन “मनुनो अपच्चभावेन मनुस्सा"ति वदन्ति । मनु नाम पठमकप्पिको लोकमरियादाय आदिभूतो सत्तानं हिताहितविधायको कत्तब्बाकत्तब्बतासु नियोजनतावसेन पितुट्ठानियो, यो सासने “महासम्मतो''ति वुच्चति अम्हाकं महाबोधिसत्तो, पच्चक्खतो, परम्परा च तस्स
ओवादानुसासनियं ठिता सत्ता पुत्तसदिसताय “मनुस्सा, मानुसा''ति च वुच्चन्ति । ततो एव हि ते “मानवा, मनुजा”ति च वोहरीयन्ति । मनुस्सभूतस्साति मनुस्सेसु भूतस्स जातस्स, मनुस्सभावं वा पत्तस्साति अत्थो । अयञ्च नयो लोकियमहाजनस्स वसेन वुत्तो | महाबोधिसत्तानं पन सन्तानस्स महाभिनीहारतो पट्ठाय कुसलधम्मपटिपत्तियं सम्मदेव अभिसङ्खतत्ता तेसं सुगतियं, अत्तनो उप्पज्जनदुग्गतियञ्च निब्बत्तानं कुसलकम्म गरुतरमेवाति दस्सेतुं “अकारणं वा एत"न्तिआदि वुत्तं ।
एवरूपे अत्तभावेति हत्थिआदिअत्तभावे । ठितेन कतकम्मं न सक्का सुखेन दीपेतुं लोके अप्पञ्जातरूपत्ता। सुखेन दीपेतुं “असुकस्मिं देसे असुकस्मिं नगरे असुको नाम राजा, ब्राह्मणो हुत्वा इमं कुसलकम्मं अकासी''ति एवं सुविञापयभावतो । थिरग्गहणोति असिथिलग्गाही थामप्पत्तग्गहणो। निच्चलग्गहणोति अचञ्चलग्गाही तत्थ केनचिपि
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(७.२०१-२०१)
तपादतालक्खणवण्णना
असंहारियो। पटिकुटतीति संकुटति, जिगुच्छनवसेन विवट्टति वा। पसारियतीति वित्थतं होति वेपुल्लं पापुणाति ।
तवेसो महासमुद्दसदिसोति एसो उदकोघो तेव महासमुद्दसदिसो ।
दीयति एतेनाति दानं, परिच्चागचेतना । दिय्यनवसेनाति देय्यधम्मस्स परियत्तं कत्वा परिच्चजनवसेन दानं। संविभागकरणवसेनाति तस्सेव अत्तना सद्धिं परस्स संविभजनवसेन संविभागो, तथापवत्ता चेतना | सीलसमादानेति सीलस्स सम्मदेव आदाने, गहणे पवत्तनेति अत्थो । तं पवत्तिकालेन दस्सेन्तो “पूरणकाले"ति आह । मातु हितो मत्तेय्यो, यस्स पन धम्मस्स बसेन सो “मत्तेय्यो''ति वुच्चति, सो मत्तेय्यताति आह "मातु कातब्बवत्ते"ति । एसेव नयो “पेत्तेय्यताया"तिआदीसु । अञतरञतरेसूति अञमञविसिढेसु अओसु, ते पन कुसलभावेन वुत्ता कुसलाति आह "एवरूपेसू"ति । अधिकुसलेसूति अभिविसिट्टेसु कुसलेसु, सा पन अभिविसिट्ठता उपादायुपादाय होति । यं पनेत्थ उक्कंसगतं अधिकुसलं, तदुक्कंसनयेन इधाधिप्पेतन्ति तं दस्सेतुं "अत्थि कुसला, अत्थि अधिकुसला"तिआदि वुत्तं । ननु पञापारमिसङ्गहाणसम्भारभूता कुसला धम्मा निप्परियायेन सब्ब ताणपटिलाभपच्चया कुसला नाम, इमे पन महापुरिसलक्खणनिब्बत्तका पुञ्जसम्भारभूता कस्मा तथा वुत्ताति ? सब्बेसम्पि महाबोधिसत्तसन्तानगतानं पारमिधम्मानं सब्ब ताणपटिलाभपच्चयभावतो। महाभिनीहारतो पट्ठाय हि महापुरिसो यं किञ्चि पुजं करोति, सब्बं तं सम्मासम्बोधिसमधिगमायेव परिणामेति । तथा हि ससम्भाराब्यासो, दीघकालाब्यासो, निरन्तराज्यासो, सक्कच्चाब्यासोति चत्तारो अब्यासा चतुरधिट्ठानपरिपूरितसम्बन्धा अनुपुब्बेन महाबोधिट्ठाना सम्पज्जन्ति |
सकिम्पीति पि-सद्देन अनेकवारम्पि कतं विजातियेन अन्तरितं सङ्गण्हाति । अभिण्हकरणेनाति बहुलीकारेन । उपचितन्ति उपरूपरि वड्डितं । पिण्डीकतन्ति पिण्डसो कतं । रासीकतन्ति रासिभावेन कतं । अनेकक्खत्तुम्हि पवत्तियमानं कुसलकम्मं सन्ताने तथालद्धपरिभावनं पिण्डीभूतं विय, रासीभूतं विय च होति। विपाकं पति संहच्चकारिभावत्ता चक्कवाळं अतिसम्बाधं भवग्गं अतिनीचं, सचे पने तं रूपं सियाति अधिप्पायो । विपुलत्ताति महन्तत्ता। यस्मा पन तं कम्मं मेत्ताकरुणासतिसम्पजचाहि परिग्गहितताय दुरसमुस्सारितं पमाणकरणधम्मन्ति पमाणरहितताय “अप्पमाण''न्ति वत्तब्बतं अरहति, तस्मा "अप्पमाणत्ता"ति वुत्तं ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(७.२०२-२०२)
अधिभवतीति फलस्स उळारभावेन अभिभुय्य तिट्ठति । अत्थतो पणीतपणीतानं भोगानं पटिलाभो एवाति आह “अतिरेकं लभती"ति । अधिगच्छतीति विन्दति, निब्बत्तमानोव तेन समन्नागतो होतीति अत्थो । एकदेसेन अफुसित्वा सब्बप्पदेसेहि फुसनतो सब्बप्पदेसेहि फुसन्तियो एतेसं पादतलानं सन्तीति "सब्बावन्तेहि पादतलेही"ति वत्तं । यथा निक्खिपने सब्बे पादतलप्पदेसा संहच्चकारिनो अनिन्त्रताय समभावतो. एवं उल वुत्त “सम फुसति, सम उद्धरतीति । इदानि इमस्स महापुरिसलक्खणस्स समधिगमेन लद्धब्बनिस्सन्दफलविभावनमुखेन आनुभावं विभावेतुं "सचेपि ही"तिआदि वुत्तं । तत्थ नरकन्ति आवाटं । अन्तो पविसति समभावापत्तिया । "चक्कलक्खणेन पतिट्ठातब्बट्ठान"न्ति इदं यं भूमिप्पदेसं पादतलं फुसति, तत्थ चक्कलक्खणम्पि फुसनवसेन पतिट्ठातीति कत्वा वुत्तं । तस्स पन तथा पतिद्वानं सुप्पतिट्टितपादताय एवाति सुप्पतिट्टितपादताय आनुभावकित्तने “लक्खणन्तरानयनं किमत्थियन्ति न चिन्तेतब्बं । सीलतेजेनाति सीलप्पभावेन । पुञतेजेनाति कुसलप्पभावेन । धम्मतेजेनाति आणप्पभावेन । तीहिपि पदेहि भगवतो बुद्धभूतस्स धम्मा गहिता, "दसनं पारमीन"न्ति इमिना बुद्धकरधम्मा गहिता ।
२०२. महासमुद्दोव सीमा सब्बभूमिस्सरभावतो। “अखिलमनिमित्तमकण्टक"न्ति तीहिपि पदेहि थेय्याभावोव वुत्तोति आह "निच्चोर"न्तिआदि । खरसम्फस्सटेनाति घट्टनेन दुक्खसम्फस्सभावेन खिलाति । उपद्दवपच्चयटेनाति अनत्थहेतुताय निमित्ताति । "अखिल"न्तिआदिना एकचारीहि चोराभावो वुत्तो, “निरब्बुद"न्ति इमिना पन गणबन्धवसेन विचरणचोराभावो वुत्तोति दस्सेतुं "गुम्बं गुम्बं हुत्वा"तिआदि वुत्तं । अविक्खम्भनीयोति न विबन्धनीयो केनचि अप्पटिबाहनीयो ठानतो अनिक्कड्डनीयो । पटिपक्खं अनिट्ठ अत्थेतीति पच्चत्थिको, एतेन पाकटभावेन विरोधं अकरोन्तो वेरिपुग्गलो वुत्तो। पटिविरुद्धो अमित्तो पच्चामित्तो, एतेन पाकटभावेन विरोधं करोन्तो वेरिपुग्गलो वुत्तो । विक्खम्भेतुं नासक्खिंसु, अञदत्थु सयमेव विघातब्यसनं पापुणिंसु चेव सावकत्तञ्च पवेदेसुं।
"कम्म"न्तिआदीसु कम्मं नाम बुद्धभावं उद्दिस्स कतूपचितो लक्खणसंवत्तनियो पुञ्जसम्भारो। तेनाह "सतसहस्सकप्पाधिकानी"तिआदि । कम्मसरिक्खकं नाम तस्सेव पुञसम्भारस्स करणकाले केनचि अकम्पनीयस्स दळहावत्थितभावस्स अनुच्छविको सुप्पतिट्टितपादतासङ्घातस्स लक्खणस्स परेहि अविक्खम्भनीयताय आपकनिमित्तभावो, स्वायं निमित्तभावो तस्सेव लक्खणस्साति अट्ठकथायं “कम्मसरिक्खकं नाम...पे०...
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(७.२०३-२०३)
सुप्पतिट्टितपादतालक्खणवण्णना
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महापुरिसलक्खणन्ति वुत्तं । ठानगमनेसु पादानं दळहावत्थितभावो लक्खणं नाम। पादानं भूमियं समं निक्खिपनं, पादतलानं सब्बभागेहि फुसनं, सममेव उद्धरणं, तस्मा सुटु समं सब्बभागेहि पतिहिता पादा एतस्साति सुप्पतिद्वितपादो, तस्स भावो सुप्पतिद्वितपादताति वुच्चति लक्खणं । सुट्ठ समं भूमिया फुसनेनेव हि नेसं तत्थ दळहावत्थितभावो सिद्धो, यं "कम्मसरिक्खक"न्ति वुत्तं । लक्खणानिसंसोति लक्खणपटिलाभस्स उद्रयो, लक्खणसंवत्तनियस्स कम्मस्स आनिसंसफलन्ति अत्थो । निस्सन्दफलं पन हेट्टा भावितमेव ।
२०३. कम्मादिभेदेति कम्मकम्मसरिक्खकलक्खण लक्खणानिसंसविसञिते विभागे । गाथाबन्धं सन्धाय वुत्तं, अत्थो पन अपुब्बं नत्थीति अधिप्पायो। पोराणकत्थेराति अट्ठकथाचरिया । वण्णनागाथाति थोमनागाथा वुत्तमेवत्थं गहेत्वा थोमनावसेन पवत्तत्ता । अपरभागे थेरा नाम पाळिं, अट्ठकथञ्च पोत्थकारोपनवसेन समागता महाथेरा, ये साट्ठकथं पिटकत्तयं पोत्थकारुळ्हं कत्वा सद्धम्मं अद्धनियचिरहितिकं अकंसु । एकपदिकोति "दळ्हसमादानो अहोसी"तिआदिपाठे एकेकपदगाही। अत्थुद्धारोति तदत्थस्स सुखग्गहणत्थं गाथाबन्धवसेन उद्धरणतो अत्थुद्धारभूतो, तयिदं पाळियं आगतपदानि गहेत्वा गाथाबन्धवसेन तदत्थविचारणभावदस्सनं, न पन धम्मभण्डागारिकेन ठपितभावपटिक्खिपनन्ति दट्ठब्बं ।
कुसलधम्मानं वचीसच्चस्स बहुकारतं, तप्पटिपक्खस्स च मुसावादस्स महासावज्जतं दस्सेतुं अनन्तरमेव कुसलकम्मपथधम्मे वदन्तोपि ततो वचीसच्चं नीहरित्वा कथेति सच्चेति वा सन्निधानेव “धम्मे'ति वुच्चमाना कुसलकम्मपथधम्मा एव युत्ताति वुत्तं "धम्मेति दसकुसलकम्मपथधम्मे"ति । गोबलीबद्दायेन वा एत्थ अत्थो वेदितब्बो। इन्द्रियदमनेति इन्द्रियसंवरे । कुसलकम्मपथग्हणेनस्स वारित्तसीलमेव गहितन्ति इतरम्पि सङ्गहेत्वा दस्सेतुं संयमस्सेव गहणं कतन्ति “संयमेति सीलसंयमेति वुत्तं । सुचि बुच्चति पुग्गलो यस्स धम्मस्स वसेन, तं सोचेय्यं, कायसुचरितादि । एतस्सेव हि विभागस्स दस्सनत्थं वुत्तम्पि चेतं पुन वुत्तं, मनोसोचेय्यग्गहणेन वा झानादिउत्तरिमनुस्सधम्मानम्पि सङ्गण्हनत्थं सोचेय्यग्गहणं । आलयभूतन्ति समथविपस्सनानं अधिट्ठानभूतं । उपोसथकम्मन्ति उपोसथदिवसे समादियित्वा समाचरितब्बं पुकम्मं उपोसथो सहचरणञायेन । “अविहिंसायाति सत्तानं अविहेठनाया'ति वदन्ति, तं पन सीलग्गहणेनेव गहितं। तस्मा अविहिंसायाति करुणायाति अत्थो । अविहिंसाग्गहणेनेव चेत्थ अप्पमञासामञ्जेन चत्तारोपि ब्रह्मविहारा उपचारावत्था गहिता लक्खणहारनयेन । सकलन्ति अनवसेसं परिपुण्णं । एवमेत्थ कामावचरत्तभावपरियापन्नत्ता लक्खणस्स तंसंवत्तनिककामावचरकुसलधम्मा एव
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(७.२०४-२०४)
एव।
गाथायं
पारमितासङ्गहपुञसम्भारभूतकायसुचरितादीहि द्वादसधा विभत्ता "सच्चे"तिआदिना दसधा सङ्गय्ह दस्सिता । एस नयो सेसलक्खणेपि ।
अंनुभीति गाथासुखत्थं अकारं सानुनासिकं कत्वा वुत्तं । ब्यञ्जनानि लक्खणानि आचिक्खन्तीति वेयजनिका। विक्खम्भेतब्बन्ति पटिबाहितब्बं तस्साति महापुरिसस्स, तस्स वा महापुरिसलक्खणस्स । लक्खणसीसेन चेत्थ तंसंवत्तनिकपुञ्जसम्भारो वुच्चति ।
पादतलचक्कलक्खणवण्णना
२०४. भयं नाम भीति, तं पन उब्बिज्जनाकारेन, उत्तसनाकारेन च पवत्तिया दुविधन्ति आह "उब्बेगभयञ्चेव उत्तासभयञ्चा"ति । तदुभयम्पि भयं विभागेन दस्सेतुं "तत्था"तिआदि वुत्तं । अपनूदिताति यथा चोरादयो विलुप्पनबन्धनादीनि परस्स न करोन्ति, कतञ्च पच्चाहरणादिना पटिपाकतिकं होति, एवं यथा च चण्डहत्थिआदयो दूरतो परिवज्जिता होन्ति, अपरिवज्जिते तस्स यथा ठाने ठितेहि अभिभवो न होति, एवं अपनूदिता । अतिवाहेतीति अतिक्कामेति । तं ठानन्ति तं सासङ्कट्ठानं । असक्कोन्तानन्ति उपयोगत्थे सामिवचनं, असक्कोन्तेति अत्थो । असक्कोन्तानन्ति वा अनादरे सामिवचनं । सह परिवारेनाति सपरिवारं। तत्थ किञ्चि देय्यधम्मं देन्तो यदा तस्स परिवारभावेन अञम्पि देय्यधम्म देति, एवं तस्स तं दानमयं पुओं सपरिवारं नाम होति ।
तमत्थं वित्थारेन दस्सेतुं "तत्थ अन"न्तिआदि वुत्तं । तत्थ यथा देय्यधम्मं तस्स अन्नदानस्स परिवारो, एवं तस्स सक्कच्चकरणं पीति दस्सेन्तो “अथ खो"तिआदिमाह । यागुभत्तं दत्वाव अदासीति योजना । एस नयो इतो परतोपि । सुत्तं वदेतीति चीवरस्स सिब्बनसुत्तकं दुवट्टतिवट्टादिवसेन वट्टितं अकासि । रजनन्ति अल्लिआदिरजनवत्थु । पण्डुपलासन्ति रजनुपगमेव पण्डुवण्णं पलासं ।
हेट्ठिमानीति अन्नादीनि चत्तारि। निसदग्गहणेनेव निसदपोतोपि गहितो। चीनपिढे सिन्धुरकचुण्णं । कोजवन्ति उद्दलोमिएकन्तलोमिआदिकोजवत्थरण । सुविभत्तअन्तरानीति सुटु विभत्तअन्तरानि, एतेन चक्कावयवट्ठानानं सुपरिच्छिन्नतं दस्सेति ।
लद्धाभिसेका खत्तिया अत्तनो विजिते विसविताय ब्राह्मणादिके चतूहि सङ्गहवत्थूहि
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(७.२०५-२०५)
पादतलचक्कलक्खणवण्णना
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रजेतुं सक्कोन्ति, न इतराति आह “राजानोति अभिसित्ता''ति । राजतो यथालद्धगामनिगमादिं इस्सरवताय भुञ्जन्तीति भोजका, तादिसो भोगो एतेसं अत्थि, तत्थ वा नियुत्ताति भोगिका, ते एव “भोगिया"ति वुत्ता। सपरिवारं दानन्ति वुत्तनयेन
परिवारदानं । जानातूति “सदेवको लोको जानातू''ति इमिना विय अधिप्पायेन निब्बत्तं चकलक्खणन्ति लक्खणस्सेव कम्मसरिक्खता दस्सिता । एवं सति तिकमेव सिया, न चतुक्कं, तस्मा चक्कलक्खणस्स महापरिवारताय आपकनिमित्तभावो कम्मसरिक्खकं नाम । तेनेवाह “सपरिवारं...पे०... जानातूति निब्बत्त"न्ति । “दीघायुकताय तं निमित्त"न्ति (दी० नि० ३.२०७) च वक्खति, तथा "तं लक्खणं भवति तदत्थजोतक''न्ति (दी० नि० ३.२२१) च । निस्सन्दफलं पन पटिपक्खाभिभवो दट्ठब्बो। तेनेवाह गाथायं “सत्तुमद्दनो''ति ।
२०५. एतन्ति एतं गाथाबन्धभूतं वचनं, तं पनत्थतो गाथा एवाति आह "इमा तदत्थपरिदीपना गाथा बुच्चन्ती"ति ।
पुरत्थाति वा “पुरे"ति वुत्ततोपि पुब्बे । यस्मा महापुरिसो न अतीताय एकजातियं, नापि कतिपयजातीसु, अथ खो पुरिमपुरिमतरासु तथाव पटिपन्नो, तस्मा तत्थ पटिपत्तिं दस्सेतुं “पुरे पुरत्था"ति वुत्तं । इमिस्सापि जातियं अतीतकालवसेन “पुरेपुरत्था''ति वत्तुं लब्भाति ततो विसेसनत्थं “परिमासु जातीसूति वृत्तन्ति आह "इमिस्सा"तिआदि । केचि "इमिस्सा जातिया पुब्बे तुसितदेवलोके कतकम्मपटिखेपवचन''न्ति वदन्ति, तं तेसं मतिमत्तं तत्थ तादिसस्स कतकम्मस्स अभावतो। अपनूदनोति अपनेता । अधिमुत्तोति युत्तपयुत्तो।
पुञकम्मेनाति दानादिपुञकम्मेन । एवं सन्तेति सतमत्तेन पुञकम्मेन एकेकं लक्खणं निब्बत्तेय्य, एवं सति । न रोचयिंसूति केवलं सतमत्तेन पुञकम्मेन लक्खणनिब्बत्तिं न रोचयिंसु अट्ठकथाचरिया । कथं पन रोचयिंसूति आह “अनन्तेसु पना"तिआदि । एकेकं कम्मन्ति एकेकं दानादिपुब्बकम्मं । एकेकं सतगुणं कत्वाति अनन्तासु लोकधातूसु यत्तका सत्ता, तेहि सब्बेहि पच्चेकं सतक्खत्तुं कतानि दानादिपुञकम्मानि यत्तकानि, ततो एकेकं पुञकम्मं महासत्तेन सतगुणं कतं “सत''न्ति अधिप्पेतं, तस्मा इध सत-सद्दो बहुभावपरियायो, न सङ्ख्यावचनोति दस्सेति “सतग्घि सतं देवमनुस्सा''तिआदीसु विय । तेनाह "तस्मा सतपुञलक्खणोति इममत्थं रोचयिंसू"ति ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
आयतपण्हितादितिलक्खणवण्णना
२०६. सरसचुति नाम जातस्स सत्तस्स यावजीवं जीवित्वा पकतिया मरणं । आकड्ढजियस्स धनुदण्डस्स विय पादानं अन्तोमुखं कुटिलताय अन्तोवङ्कपादता । बहिमुखं कुटिलताय बहिवङ्कपादता । पादतलस्स मज्झे ऊनताय उक्कुटिकपादता । अग्गपादेन खञ्जनका अग्गकोण्डा । पहिप्पदेसेन खञ्जनका पण्हिकोण्डा । उन्नतकायेनाति अनोनतभावेन समुस्सितसरीरेन । मुट्ठिकतहत्थाति आवुधादीनं गहणत्थं कतमुट्ठिहत्था । फ अञ्ञमञ्ञ संसदृङ्गुलिहत्था । इदमेत्थ कम्मसरिक्खकन्ति इदं इमेसं तिण्णम्पि लक्खणानं तथागतस्स दीघायुकताय आपकनिमित्तभावो एत्थ आयतपण्हिता, दीघङ्गुलिता ब्रह्मजुगत्तताति एतस्मिं लक्खणत्तये कम्मसरिक्खकतं । निस्सन्दफलं पन अनन्तरायतादि दट्ठब्बं ।
२०७. भायितब्बवत्थुनिमित्तं उप्पज्जमानम्पि भयं अत्तसिनेहहेतुकं पहीनसिनेहस्स तदभावतोति आह “यथा महं मरणतो भयं मम जीवितं पियन्ति । सुचिणेनाति सु कतूपचितेन सुचरितकम्मुना ।
( ७.२०६ - २०८ )
चवित्वाति सग्गतो चवित्वा । “सुजातगत्तो सुभुजो "ति आदयो सरीरावयवगुणा इमेहि लक्खणेहि अविनाभाविनोति दस्सेतुं वुत्ता | चिरयपनायाति अत्तभावस्स चिरकालं पवत्तनाय । तेनाह “दीघायुकभावाया "ति । ततोति चक्कवत्ती हुत्वा यापनतो । वसिष्पत्तोति झानादीसु वसीभावञ्चेव चेतोवसिभावञ्च पत्तो हुत्वा, कथं इद्धिभावनाय इद्धिपादभावनायाति अत्थो । यापेति चिरतरन्ति योजना ।
सत्तुरसदतालक्खणवण्णना
२०८. रसो जातो एतेसन्ति रसितानि, महारसानि । तेनाह " रससम्पन्नान "न्ति | पिट्ठखज्जकादीनीति पूपसक्खलिमोदकादीनि । आदि-सद्देन पन कदलिफलादिं सङ्गण्हाति । पिट्टं पक्खिपित्वा पचितब्बपायसं पिट्ठपायसं । आदि- सद्देन तथारूपभोज्जयागुआदि सङ्गहाति ।
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(७.२०९-२१०)
करचरणादिलक्खणवण्णना
___ इध कम्मसरिक्खकं नाम सत्तुस्सदतालक्खणस्स पणीतलाभिताय आपकनिमित्तभावो । इमिना नयेन तत्थ तत्थ लक्खणे कम्मसरिक्खकं निद्धारेत्वा योजेतब्बं ।
२०९. उत्तमो अग्गरसदायकोति सब्बसत्तानं उत्तमो लोकनाथो अग्गानं पणीतानं रसानं दायको । उत्तमानं अग्गरसानन्ति पणीतेसुपि पणीतरसानं । खज्जभोज्जादिजोतकन्ति खज्जभोज्जादिलाभजोतकं। लाभसंवत्तनिकस्स कम्मस्स फलं “लाभसंवत्तनिक"न्ति कारणूपचारेन वदति। तदत्थजोतकन्ति वा तस्स पणीतभोजनदायकत्तसङ्घातस्स अत्थस्स जोतकं । तदाधिगच्छतीति एत्थ आ-कारो निपातमत्तन्ति आह "तं अधिगच्छती'ति । लाभिरुत्तमन्ति र कारो पदसन्धिकरो ।
करचरणादिलक्खणवण्णना २१०. पब्बजितपरिक्खारं पत्तचीवरादिं गिहिपरिक्खारं वत्थावुधयानसयनादिं ।
सब्बन्ति सब्बं उपकारं । मक्खेत्वा नासेति मक्खिभावे ठत्वा । तेलेन विय मक्खेतीति सतधोततेलेन मक्खेति विय। अत्थसंवड्डनकथायाति हितावहकथाय । कथागहणञ्चेत्थ निदस्सनमत्तं | परेसं हितावहो कायपयोगोपि अत्थचरिया। अट्ठकथायं पन वचीपयोगवसेनेव अत्थचरिया वुत्ता।
समानत्ततायाति सदिसभावे समानहाने ठपनेन, तं पनस्स समानहाने ठपनं अत्तसदिसताकरणं, सुखेन एकसम्भोगता, अत्तनो सुखुप्पत्तियं; तस्स च दुक्खुप्पत्तियं तेन अत्तनो एकसम्भोगताति आह "समानसुखदुक्खभावेना"ति । सा च समानसुखदुक्खता एकतो निसज्जादिना पाकटा होतीति तं दस्सेन्तो “एकासने"तिआदिमाह । न हि सक्का एकपरिभोगो कातुं जातिया हीनत्ता। तथा अकरियमाने च सो कुज्झति भोगेन अधिकत्ता, तस्मा दुस्सङ्गहो। न हि सो एकपरिभोगं इच्छति जातिया हीनभावतो। न अकरियमाने च कुज्झति भोगेन हीनभावतो । उभोहीति जातिभोगेहि । सदिसोपि सुसङ्गहो एकसदिसभावेनेव इतरेन सह एकपरिभोगस्स पच्चासीसाय, अकरणे च तस्स कुज्झनस्साभावतो । अदीयमानेपि किस्मिञ्चि आमिसे अकरियमानेपि सङ्गहे। न पापकेन चित्तेन पस्सति पेसलभावतो। ततो एव परिभोगोपि...पे०... होति। एवरूपन्ति गिही चे, उभोहि सदिसं; पब्बजितो चे, सीलवन्तन्ति अधिप्पायो ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(७.२११-२१३)
सुसङ्गहिताव होन्तीति सुट्ठ सङ्गहिता एव होन्ति दळहभत्तिभावतो। तेनाह "न भिज्जन्ती"ति ।
दानादिसङ्गहकम्पन्ति दानादिभेदं परसङ्गाहनवसेन पवत्तं कुसलकम्मं ।
२११. अनवातेन अपरिभूतेन सम्भावितेन । पमोदो वुच्चति हासो, न अप्पमोदेनाति एत्थ पटिसेधद्वयेन सो एव वुत्तो। सो च ओदग्यसभावत्ता न दीनो धम्मूपसहितत्ता न गब्भयुत्तोति आह “न दीनेन न गभितेनाति अत्थो"ति । सत्तानं अगण्हनगुणेनाति योजना।
अतिरुचिरन्ति अतिविय रुचिरकतं, तं पन पस्सन्तानं पसादावहन्ति आह "सुपासादिक"न्ति । सुटु छेकन्ति अतिविय सुन्दरं । विधातब्बोति विधातुं सन्दिसितुं सक्कुणेय्यो । पियं वदतीति पियवदू यथा “सब्बविदू''ति । सुखमेव सुखता, तं सुखतं । धम्मञ्च अनुधम्मञ्चाति लोकुत्तरधम्मञ्चेव तस्स अनुरूपपुब्बभागधम्मञ्च |
उस्सङ्खपादादिलक्खणवण्णना
२१२. “अत्थूपसंहित''न्ति इमिना वट्टनिस्सिता धम्मकथा वुत्ताति आह "इधलोकपरलोकत्थनिस्सित"न्ति । “धम्मूपसंहित"न्ति इमिना विवट्टनिस्सिता, तस्मा दसकुसलकम्मपथा विवट्टसन्निस्सया वेदितब्बा । निदंसेसीति सन्दस्सेसि ते धम्मे पच्चक्खे कत्वा पकासेसि । निदंसनकथन्ति पाकटकरणकथं । जेट्टटेन अग्गो, पासंसद्वेन सेटो, पमुखठून पामोक्खो, पधानटेन उत्तमो, हितसुखत्थिकेहि पकारतो वरणीयतो रजनीयतो पवरोति एवं अत्थविसेसवाचीनम्पि “अग्गो"तिआदीनं पदानं भावत्थस्स भेदाभावतो "सब्बानि अञमञवेवचनानी"ति आह ।
उद्धङ्गमनीयाति सुणन्तानं उपरूपरि विसेसं गमेन्तीति उद्धङ्गमनीया । सवाय अधो पिट्ठिपादसमीपे एव पतिट्टितत्ता अधोसङ्घा पादा एतस्साति अधोसङ्घपादो। सङ्घाति च गोप्फकानमिदं नामं ।
२१३. धम्मदानयज्ञन्ति धम्मदानसङ्खातं यनं ।
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(७.२१४-२१५)
एणिजङ्घलक्खणवण्णना
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सुटु सण्ठिताति सम्मदेव सण्ठिता। पिट्ठिपादस्स उपरि पकतिअङ्गुलेन चतुरङ्गुले जङ्घापदेसे निगूळ्हा अपञ्जायमानरूपा हुत्वा ठिताति अत्थो ।
एणिजङ्घलक्खणवण्णना
२१४. सिप्पन्ति सिक्खितब्बढेन “सिप्प"न्ति लद्धनामं सत्तानं जीविकाहेतुभूतं आजीवविधिं । जीविकत्थं, सत्तानं उपकारत्थञ्च वेदितब्बढेन विज्जा, मन्तसत्थादि । चरन्ति तेन सुगति, सुखञ्च गच्छन्तीति चरणं। कम्मस्सकताजाणं उत्तरपदलोपेन “कम्म"न्ति वुत्तन्ति आह “कम्मन्ति कम्मस्सकताजाननपञ्जा'ति । तानि चेवाति पुब्बे वुत्तहत्थिआदीनि चेव। सत्त रतनानीति मुत्तादीनि सत्त रतनानि । च-सद्देन रजो उपभोगभूतानं वत्थसेय्यादीनं सङ्गहो । रञो अनुच्छविकानीति रो परिभुञ्जनयोग्यानि । सब्बेसन्ति "राजारहानी''तिआदिना वुत्तानं सब्बेसंयेव एकज्झं गहणं। बुद्धानं परिसा नाम ओधिसो अनोधिसो च समितपापा, तथत्थाय पटिपन्ना च होतीति वुत्तं “समणानं कोट्ठासभूता चतस्सो परिसा"ति ।
सिप्पादिवाचनन्ति सिप्पानं सिक्खापनं । पाळियम्पि हि “वाचेता''ति वाचनसीसेन सिक्खापनं दस्सितं । उक्कुटिकासनन्ति तंतंवेय्यावच्चकरणेन उक्कुटिकस्स निसज्जा । पयोजनवसेन गेहतो गेहं गामतो गामं जङ्घायो किलमेत्वा पेसनं जपेसनिका। लिखित्वा पातितं विय होति अपरिपुण्णभावतो । अनुपुब्बउग्गतवट्टितन्ति गोप्फकट्ठानतो पट्ठाय याव जाणुप्पदेसा मंसूपचयस्स अनुक्कमेन समन्ततो वड्डितत्ता अनुपुब्बेन उग्गतं हुत्वा सुवट्टितं । एणिजङ्घलक्खणन्ति सण्ठानमत्तेन एणिमिगजङ्घासदिसजङ्घलक्खणं ।
२१५. “यतुपघाताया"ति एत्थ त-कारो पदसन्धिकरो, अनुनासिकलोपेन निद्देसोति आह "य"न्तिआदि । “उद्धग्गलोमा सुखुमत्तचोत्थता"ति वुत्तत्ता चोदकेन “किं पन अञ्जन कम्मेन अचं लक्खणं निब्बत्तती"ति चोदितो, आचरियो “न निब्बत्तती"ति वत्वा “यदि एवं इध कस्मा लक्खणन्तरं कथित"न्ति अन्तोलीनमेव चोदनं परिहरन्तो "यं पन निब्बत्ततीति...पे०... इध वुत्त"न्ति आह । तत्थ यं पन निब्बत्ततीति यं लक्खणं वुच्चमानलक्खणनिब्बत्तकेन कम्मुना निब्बत्तति । तं अनुव्यञ्जनं होतीति तं लक्खणं वुच्चमानस्स लक्खणस्स अनुकूललक्खणं नाम होति । तस्मा तेन कारणेन इध एणिजङ्घलक्खणकथने “उद्धग्गलोमा सुखुमत्तचोत्यता''ति लक्खणन्तरं वुत्तं ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(७.२१६-२१६)
सुखुमच्छविलक्खणवण्णना २१६. समितपापटेन समणं, न पब्बज्जामत्तेन । बाहितपापटेन ब्राह्मणं, न जातिमत्तेन ।
__महन्तानं अत्थानं परिग्गण्हनतो महती पञ्जा एतस्साति महापञो। सेसपदेसुपि एसेव नयोति आह “महापजादीहि समन्नागतोति अत्थो"ति । नानत्तन्ति याहि महापञ्जादीहि समन्नागतत्ता भगवा “महापो''तिआदिना कित्तीयति, तासं महापञ्जादीनं इदं नानत्तं अयं वेमत्तता ।
यस्स कस्सचि विसेसतो अरूपधम्मस्स महत्त नाम किच्चसिद्धिया वेदितब्बन्ति तदस्सा किच्चसिद्धिया दस्सेन्तो "महन्ते सीलक्खन्धे परिग्गण्हातीति महापञ्जा"तिआदिमाह । तत्थ हेतुमहन्तताय, पच्चयमहन्तताय, निस्सयमहन्तताय, पभेदमहन्तताय, किच्चमहन्तताय, फलमहन्तताय, आनिसंसमहन्तताय च सीलक्खन्धस्स महन्तभावो वेदितब्बो । तत्थ हेतु अलोभादयो। पच्चयो हिरोत्तप्पसद्धासतिवीरियादयो। निस्सयो सावकबोधिपच्चेकबोधिसम्मासम्बोधिनियतता, तंसमङ्गिनो च पुरिसविसेसा । पभेदो चारित्तवारित्तादिविभागो। किच्चं तदङ्गादिवसेन पटिपक्खविधमनं । आनिसंसो पियमनापतादि । अयमेत्थ सोपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गे, (विसुद्धि० १.६) आकचेय्यसुत्तादीसु (म० नि० १.६५) च आगतनयेनेव वेदितब्बो। इमिना नयेन समाधिक्खन्धादीनम्पि महन्तता यथारहं वित्थारेत्वा वेदितब्बा । ठानाठानानं पन महाविसयताय, सा बहुधातुकसुत्ते आगतनयेन वेदितब्बा । विहारसमापत्तियो समाधिक्खन्धनिद्धारणनयेन वेदितब्बा । अरियसच्चानं सकलसासनसङ्गहतो, सो सच्चविभङ्ग(विभं० १८९) -तंसंवण्णनासु (विभं० अट्ठ० १८९) आगतनयेन, सतिपट्ठाना दीनं सतिपट्टानविभङ्गादीसु, (विभं० ३५५) तंसंवण्णनासु (विभं० अट्ठ० ३५५) च आगतनयेन, सामञ्जफलानं महतो हितस्स, महतो सुखस्स, महतो अत्थस्स, महतो योगक्खेमस्स निब्बत्तिभावतो, सन्तपणीतनिपुणअतक्कावचरपण्डितवेदनीयभावतो च; अभिञानं महासम्भारतो, महाविसयतो, महाकिच्चतो, महानुभावतो, महानिब्बत्तितो च, निब्बानस्स मदनिम्मदनादिमहत्तसिद्धितो महन्तता वेदितब्बा ।
पुथुपाति एत्थापि वुत्तनयानुसारेन अत्थो वेदितब्बो। अयं पन विसेसो - नानाखन्धेसु आणं पवत्ततीति “अयं रूपक्खन्धो नाम...पे०... अयं विचाणक्खन्धो
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(७.२१६-२१६)
सुखुमच्छविलक्खणवण्णना
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नामा"ति एवं पञ्चन्नं खन्धानं नानाकरणं पटिच्च आणं पवत्तति । तेसुपि “एकविधेन रूपक्खन्धो, एकादसविधेन रूपक्खन्धो । एकविधेन वेदनाक्खन्धो, बहुविधेन वेदनाक्खन्धो । एकविधेन सञआक्खन्धो | एकविधेन सङ्कारक्खन्धो | एकविधेन विज्ञाणक्खन्धो. बहविधेन विज्ञाणक्खन्धो''ति एवं एकेकस्स खन्धस्स अतीतादिभेदवसेनापि नानाकरणं पटिच्च आणं पवत्तति । तथा “इदं चक्खायतनं नाम...पे०..इदं धम्मायतनं नाम । तत्थ दसायतना कामावचरा, द्वे चतुभूमका''ति एवं आयतनानं नानत्तं पटिच्च आणं पवत्तति । नानाधातूसूति “अयं चक्खुधातु नाम...पे०... अयं मनोविज्ञाणधातु नाम । तत्थ सोळस धातुयो कामावचरा, द्वे धातुयो चतुभूमिका''ति एवं नानाधातूसु आणं पवत्तति, तयिदं उपादिन्नकधातुवसेन वुत्तं । पच्चेकबुद्धानम्पि हि द्विन्नञ्च अग्गसावकानं उपादिन्नकधातूसु एवं नानाकरणं पटिच्च आणं पवत्तति, तञ्च खो एकदेसतोव, न निप्पदेसतो । अनुपादिन्नकधातूनं पन लक्खणादिमत्तमेव जानन्ति, न नानाकरणं। सब्ब बुद्धानमेव पन “इमाय नामधातुया उस्सन्नत्ता इमस्स रुक्खस्स खन्धो सेतो, इमस्स काळो, इमस्स मट्ठो, इमस्स बहलत्तचो, इमस्स तनुतचो। इमस्स पत्तं वण्णसण्ठानादिवसेन एवरूपं । इमस्स पुष्पं नीलं, इमस्स पीतकं, लोहितकं, ओदातं, सुगन्धं, दुग्गन्धं । फलं खुद्दकं, महन्तं, दीघं, वट्ट, सुसण्ठानं, दुस्सण्ठानं, मटुं, फरुसं, सुगन्धं, दुग्गन्धं, मधुरं, तित्तकं, अम्बिलं, कटुकं, कसावं। कण्टको तिखिणो, अतिखिणो, उजुको, कुटिलो, कण्हो, नीलो, ओदातो होती''ति धातुनानत्तं पटिच्च आणं पवत्तति ।
नानापटिच्चसमुप्पादेसूति अज्झत्तबहिद्धाभेदतो च नानापभेदेसु पटिच्चसमुप्पादङ्गेसु । अविज्जादिअङ्गानि हि पच्चेकं पटिच्चसमुप्पादसञितानि । तेनाह सङ्खारपिटके "द्वादस पच्चया द्वादस पटिच्चसमुप्पादा''ति । नानासुञतमनुपलब्भेसूति नानासभावेसु निच्चसारादिविरहितेसु सुञतभावेसु ततो एव इत्थिपुरिसअत्तत्तनियादिवसेन अनुपलब्भनसभावेसु पकारेसु । म-कारो हेत्थ पदसन्धिकरो । नानाअत्थेसूति अत्थपटिसम्भिदाय विसयभूतेसु पच्चयुप्पन्नादिवसेन नानाविधेसु अत्थेसु। धम्मेसूति धम्मपटिसम्भिदाय विसयभूतेसु पच्चयादिवसेन नानाविधेसु धम्मसु । निरुत्तीसूति तेसंयेव अत्थधम्मानं निद्धारणवचनसङ्खातेसु नानानिरुत्तीसु। पटिभानेसूति अत्थपटिसम्भिदादीसु विसयभूतेसु "इमानि आणानि इदमत्थजोतकानी''ति (विभं० ७२६, ७२९, ७३१, ७३२, ७३४, ७३६, ७३९) तथा तथा पटिभानतो उपतिट्ठनतो “पटिभानानी''ति लद्धनामेसु नानाजाणेसु । “पुथुनानासीलक्खन्धेसू"तिआदीसु सीलस्स पुथुत्तं वुत्तमेव, इतरेसं पन वुत्तनयानुसारेन सुविज्ञेय्यत्ता पाकटमेव । यं पन अभिन्नं एकमेव निब्बानं, तत्थ
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(७.२१६-२१६)
उपचारवसेन पुथुत्तं गहेतब्बन्ति आह "पुथुज्जनसाधारणे धम्मे समतिक्कम्मा"ति, तेनस्स मदनिम्मदनादिपरियायेन पुथुत्तं परिदीपितं होति ।
एवं विसयवसेन पाय महत्तं, पुथुत्तं दस्सेत्वा इदानि सम्पयुत्तधम्मवसेन हासभावं, पवत्तिआकारवसेन जवनभावं, किच्चवसेन तिक्खादिभावं दस्सेतुं “कतमा हासपञा"तिआदि वुत्तं । तत्थ हासबहुलोति पीतिबहुलो । सेसपदानि तस्सेव वेवचनानि । सीलं परिपूरेतीति हट्ठपहट्ठो उदग्गुदग्गो हुत्वा ठपेत्वा इन्द्रियसंवरं तस्स विसुं वुत्तत्ता अनवसेससीलं परिपूरेति । पीतिसोमनस्ससहगता हि पञा अभिरतिवसेन आरम्मणे फुल्लितविकसिता विय पवत्तति, न एवं उपेक्खासहगता । पुन सीलक्खन्धन्ति अरियसीलक्खन्धमाह । “समाधिक्खन्ध"न्तिआदीसुपि एसेव नयो।
सब्बं तं रूपं अनिच्चतो खिप्पं जवतीति या रूपधम्मे “अनिच्चा''ति सीघवेगेन पवत्तति, पटिपक्खदूरभावेन पुब्बाभिसङ्खारस्स सातिसयत्ता इन्देन विस्सट्टवजिरं विय लक्खणं अविरज्झन्ती अदन्धायन्ती रूपक्खन्धे अनिच्चलक्खणं वेगसा पटिविज्झति, सा जवनपञा नामाति अत्थो । सेसपदेसुपि एसेव नयो । एवं लक्खणारम्मणिकविपस्सनावसेन जवनपधे दस्सेत्वा बलवविपस्सनावसेन दस्सेतुं “रूप"न्तिआदि वुत्तं । तत्थ खयटेनाति यस्थ यत्थ उप्पज्जति, तत्थ तत्थेव भिज्जनतो खयसभावत्ता । भयटेनाति भयानकभावतो । असारकडेनाति असारकभावतो अत्तसारविरहतो, निच्चसारादिविरहतो च। तुलयित्वाति तुलनभूताय विपस्सनापाय तुलेत्वा । तीरयित्वाति ताय एव तीरणभूताय तीरयित्वा । विभावयित्वाति याथावतो पकासेत्वा पच्चक्खं कत्वा । विभूतं कत्वाति पाकटं कत्वा । रूपनिरोधेति रूपक्खन्धनिरोधहेतुभूते निब्बाने निन्नपोणपब्भारभावेन । इदानि सिखाप्पत्तविपस्सनावसेन जवनपझं दस्सेतुं पुन "रूप''न्तिआदि वुत्तं । "वुट्ठानगामिनिविपस्सनावसेना"ति केचि ।
जाणस्स तिक्खभावो नाम सविसेसं पटिपक्खपहानेन वेदितब्बोति । “खिप्पं किलेसे छिन्दतीति तिक्खपञ्जा'ति वत्वा ते पन किलेसे विभागेन दस्सेन्तो “उप्पन्नं कामवितक्क"न्तिआदिमाह । तिक्खपञो खिप्पाभिञो होति, पटिपदा चस्स न चलतीति आह “एकस्मिं आसने चत्तारो अरियमग्गा...पे०... अधिगता होन्ती"तिआदि ।
“सब्बे सङ्घारा अनिच्चा दुक्खा विपरिणामधम्मा, सङ्घता पटिच्चसमुप्पन्ना खयधम्मा
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(७.२१७-२१७)
सुखुमच्छविलक्खणवण्णना
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वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा''ति याथावतो दस्सनेन सच्चप्पटिवेधो इज्झति, न अञथाति कारणमुखेन निब्बेधिकपञ्चं दस्सेतुं “सब्बसङ्खारेसु उब्बेगबहुलो होती"तिआदि वुत्तं । तत्थ उब्बेगबहुलोति वुत्तनयेन सब्बसङ्खारेसु अभिण्हपवत्तसंवेगो। उत्तासबहुलोति आणुत्तासवसेन सब्बसङ्खारेसु बहुसो उत्रासमानसो, एतेन आदीनवानुपस्सनमाह । “उक्कण्ठनबहुलो"ति पन इमिना निब्बिदानुपस्सनमाह, “अरतिबहुलो"तिआदिना तस्सा एव अपरापरुप्पत्तिं । बहिमुखोति सब्बसङ्खारतो बहिभूतं निब्बानं उद्दिस्स पवत्तञाणमुखो, तथा वा पवत्तितविमोक्खमुखो। निबिज्झनं निब्बेधो, सो एतिस्सा अस्थि, निब्बिज्झतीति वा निब्बेधिका, सा एव पञ्जा निब्बेधिकपञ्जा। यं पनेत्थ अत्थतो अविभत्तं, तं हेट्ठा वुत्तनयत्ता, उत्तानत्थत्ता च सुविधेय्यमेव ।
२१७. पब्बजितं उपासिताति एत्थ यादिसं पब्बजितं उपासतो पापटिलाभो होति, तं दस्सेतुं “पण्डितं पब्बजित"न्ति वुत्तं । उपासनञ्चेत्थ उपट्ठानवसेन इच्छितं, न उपनिसीदनमत्तेनाति आह “पयिरुपासिता"ति । अत्थन्ति हितं । अब्भन्तरं करित्वाति अब्भन्तरगतं कत्वा । तेनाह “अत्थयुत्त"न्ति । भावनपुंसकनिद्देसो चायं, हितूपसम्हितं कत्वाति अत्थो । अन्तर-सद्दो वा चित्तपरियायो “यस्सन्तरतो न सन्ति कोपा''तिआदीसु (उदा० २८) विय। तस्मा अत्थन्तरोति हितज्झासयोति अत्थो ।
__ पटिलाभत्थाय गतेनाति पटिलाभत्थाय पवत्तेन, पटिलाभसंवत्तनियेनाति अत्थो । उप्पादे च निमित्ते च छेकाति उप्पादविधिम्हि चेव निमित्तविधिम्हि च कुसला । उप्पादनिमित्तकोविदतासीसेन चेत्थ लक्खणकोसल्लमेव दस्सेति । अथ वा सेसलक्खणानं निब्बत्तिया बुद्धानं, चक्कवत्तीनञ्च उप्पादो अनुमीयति, यानि तेहि लद्धब्बआनिसंसानि निमित्तानि, तस्मिं उप्पादे च निमित्ते च अनुमिननादिवसेन छेका निपुणाति अत्थो । ञत्वा पस्सिस्सतीति आणेन जानित्वा पस्सिस्सति, न चक्खुविआणेनाति अधिप्पायो ।
अत्थानुसासनीसूति अत्थानं हितानं अनुसासनीसु । यस्मा अनत्थपटिवज्जनपुब्बिका सत्तानं अत्थपटिपत्ति, तस्मा अनत्थोपि परिच्छिज्ज गहेतब्बो, जानितब्बो चाति वुत्तं "अत्थानत्थं परिग्गाहकानि आणानी"ति, यतो “आयुपायकोसल्लं विय अपायकोसल्लम्पि इच्छितब्ब"न्ति वुत्तं ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
सुवण्णवण्णलक्खणवण्णना
२१८. पटिसङ्घानबलेन कोधविनयेन अक्कोधनो, न भावनाबलेनाति दस्सेतुं “न अनागामिमग्गेना'' तिआदि वृत्तं । एवं अक्कोधवसिकत्ताति एवं मघमाणवो विय न कोधवसं गतत्ता । नाभिसज्जीति कुज्झनवसेनेव न अभिसज्जि । यहि कोधस्स उप्पत्तिट्ठानभूते आरम्मणे उपनाहस्स पच्चयभूतं कुज्झनवसेन अभिसज्जनं तं इधाधिप्पेतं, न लुब्भनवसेन । तेनाह “कुटिलकण्टको विया "तिआदि । सो हि यत्थ लग्गति, तं खोभेन्तो एव लग्गति । तत्थ तत्थाति तस्मिं तस्मिं मम्मट्ठाने । मम्मन्ति फुट्ठमत्तेपि रुज्जनट्ठानं । पुब्बुप्पत्तिकोति पठमुप्पन्नो । ततो बलवतरो ब्यापादो लद्वासेवनताय चित्तस्स ब्यापज्जनतो । ततो बलवतरा पतित्थियनाति सातिसयं लद्धासेवनताय ततो ब्यापादावत्थायपि बलवतरा पतित्थियना पच्चत्थिकभावेन थामप्पत्तितो ।
सुखुमत्थरणादीति आदि-सद्देन पणीतभोजनीयादीनम्पि सङ्गहो दट्ठब्बो भोजनदानस्सपि वण्णसम्पदानिमित्तभावतो । तेनाह भगवा "भोजनं भिक्खवे ददमानो दायको पटिग्गाहकानं... पे०... आयुं देति, वण्णं देती 'ति (अ० नि० २.५.३७) तथा च वक्खति "आमिसदानेन वा "ति ।
( ७.२१८-२२०)
२१९. अभिविस्सज्जेसीति अदासि । देवोति मेघो, पज्जुन्नो एव वा । वरत उत्तमतरो । पब्बज्जाय विसदिसावत्थादि भावतो न पब्बज्जाति अपब्बज्जा, गिहिभावो । अच्छादेन्ति कोपीनं पटिच्छादेन्ति एतेहीति अच्छादनानि निवासनानि, तेसं अच्छादनानञ्चेव सेस वत्थानञ्च कोजवादि उत्तमपावुरणानञ्च । विनासोति कतस्स कम्मस्स अविपच्चित्वा विनासो ।
कोसोहितवत्थगुव्हलक्खणवण्णना
२२०. समानेताति सम्मदेव आनेता समागमेता । रज्जे पतिट्ठितेन सक्का कातुं बहुभतिकस्सेव इज्झनतो । कत्ता नाम नत्थीति वज्जं पटिच्छादेन्तीति आनेत्वा सम्बन्धो, कति वज्जटिच्छादनकम्मन्ति वा । ननु वज्जपटिच्छादनकम्मं नाम सावज्जन्ति ? सच्चं सावज्जं संकिलिट्ठचित्तेन पटिच्छादेन्तस्स, इदं पन असंकिलट्ठचित्तेन
परस्स
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(७.२२१-२२३)
परिमण्डलादिलक्खणवण्णना
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उप्पज्जनकअनत्थं परिहरणवसेन पवत्तं अधिप्पेतं । “आतिसङ्गहं करोन्तेना"ति एतेन आतत्थचरियावसेन तं कम्मं पवत्ततीति दस्सेति ।
२२१. अमित्ततापनाति अमित्तानं तपनसीला, अमित्ततापनं होतु वा मा वा एवंसभावाति अत्थो। न हि चक्कवत्तिनो पुत्तानं अमित्ता नाम केचि होन्ति, ये ते भवेय्यु, चक्कानुभावेनेव सब्बेपि खत्तियादयो अनुवत्तका तेसं भवन्ति ।
पठमभाणवारवण्णना निहिता ।
परिमण्डलादिलक्खणवण्णना
२२२. समन्ति समानं । तेन तेन लोके विज्ञातगुणेन समं समानं जानाति, यतो तत्थ पटिपज्जनविधिनाव इतरस्मिं पटिपज्जति । सयं जानातीति अपरनेय्यो हुत्वा सयमेव जानाति । पुरिसं जानातीति वा “अयं सेट्ठो, अयं मज्झिमो, अयं निहीनो"ति तं तं पुरिसं याथावतो जानाति । पुरिसविसेसं जानातीति तस्मिं तस्मिं पुरिसे विज्जमानं विसेसं जानाति, यतो तत्थ तत्थ अनुरूपदानपदानादिपटिपत्तिया युत्तपत्तकारी होति । तेनाह "अयमिदमरहती"तिआदि।
सम्पत्तिपटिलाभटेनाति दिट्ठधम्मिकादिसम्पत्तीनं पटिलाभापनद्वेन । समसङ्गहकम्मन्ति समं जानित्वा तदनुरूपं तस्स तस्स सङ्गण्हनकम्मं ।
२२३. तुलयित्वाति तीरयित्वा । पटिविचिनित्वाति वीमंसित्वा । निपुणयोगतो निपुणा, अतिविय निपुणा अतिनिपुणा, सा पन तेसं निपुणता सण्हसुखुमा पञाति आह "सुखुमपञा"ति।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
सीहपुब्बद्धकायादिलक्खणवण्णना
२२४. खेमकामोति अनुपद्दवकामो । कम्मस्सकताञाणं सब्बसम्पत्तिविधायकन्ति आह “ पञ्ञायाति कम्मस्सकतापञ्जाया'ति ।
रामन्तपरिपूरानीति समन्ततो सब्बभागेहि परिपुण्णानि । अनूनानि । धनादीहीति धनधञादीहि ।
(७.२२४-२२७)
२२५. ओकप्पनसद्धा सद्धेय्यवत्युं ओक्कन्दित्वा पक्खन्दित्वा सद्दहनसद्धा । सा एव पसादनीयवत्थुस्मिम्पि अभिप्पसीदनवसेन पवत्तिया पसादसद्धा । परियत्तिसवनेनाति सत्तानं हितसुखावहाय परियत्तिया सवनेन । धारणपरिचयादीनं तंमूलकत्ता तथा वुत्तं । एतेसन्ति सद्धादीनं । सह हानधम्मेनाति सहानधम्मो, न सहानधम्मोति असहानधम्मो तस्स भावो असहानधम्मता, तं असहानधम्मतं, अपरिहानियसभावन्ति अत्थो ।
सत्तानं वड्ढिआवहं
रसग्गसग्गितालक्खणवण्णना
२२६. तिलफलमत्तम्पि भोजनं । सब्बत्थ फरतीति सब्बा रसाहरणियो अनुस्मरन्तं सभावेन सब्बस्मिं काये फरति । समा हुत्वा वहन्तीति अविसमा उजुका हुत्वा पवत्तन्ति ।
ततो एव अहीनानि
आरोग्यकरणकम्मन्ति अरोगभावकरं सत्तानं अविहेठनकम्मं । मधुरादिभेदं रसं गति हरति एतेहि, सयमेव वा तं सन्ति गिलन्ति अन्तो पवेसेन्तीति रसग्गसा, रसग्गसानं अग्गा रसग्गसग्गा, ते एत्थ सन्तीति रसग्गसग्गी, तदेव लक्खणं । भवति हि अभिन्नेपि वत्थुस्मिं तग्गतविसेसावबोधनत्थं भिन्नं विय कत्वा वोहारो यथा “सिलापुत्तकस्स सरीर "न्ति । रसग्गसग्गितासङ्घातं वा लक्खणं रसग्गसग्गिलक्खणं ।
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२२७. वध - सद्दो “ अत्तानं वधित्वा वधित्वा रोदती "तिआदीसु (पाचि० ८७९) बाधनत्थोपि होतीति ततो विसेसनत्थं " मारणवधेना "ति वुत्तं, मारणसङ्घातेन वधेनाति अत्थो । बाधनत्थो एव वा वध - सद्दो, मारणेन, बाधनेन चाति अत्थो । उब्बाधनायाति बन्धनागारे पक्खिपित्वा उद्धं उद्धं बाधनेन । तेनाह “बन्धनागारप्पवेसनेना "ति ।
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(७.२२८-२३०)
अभिनीलनेत्तादिलक्खणवण्णना
अभिनीलनेत्तादिलक्खणवण्णना
२२८. विसटन्ति कुज्झनवसेन विनिसटं कत्वा । तेनाह “कक्कटको विया"तिआदि । विसाचीति विरूपं साचितकं, विजिम्हन्ति अत्थो । तेनाह "वकक्खिकोटिया"ति, कुटिलअक्खिकोटिपातेनाति अत्थो । विधेय्य पेक्खिताति उजुकं अनोलोकेत्वा दिट्ठिपातं विचारेत्वा ओलोकेत्वा । तेनाह "यो कुज्झित्वा"तिआदि । परोति कुज्झितो । न ओलोकेति तं सम्मुखा गच्छन्तं कुज्झित्वा न ओलोकेति, परम्मुखा। वितेय्याति विरूपं तिरियं, विञ्जूनं ओलोकनक्कमं वीतिक्कमित्वाति अत्थो । जिम्हं अनोलोकेत्वा उजुकं ओलोकनं नाम कुटिलभावकरानं पापधम्मानं अभाजनउजुकतचित्ततस्सेव होतीति आह "उजुमनो हुत्वा उजुं पेक्खिता"ति । यथा च उजुं पेक्खिता होतीति आनेत्वा सम्बन्धो। पसटन्ति उम्मीलनवसेन सम्मदेव पत्थटं । विपुलं वित्थतन्ति तस्सेव वेवचनं । पियं पियायितब्बं दस्सनं ओलोकनं एतस्साति पियदस्सनो।
काणोति अक्खीनि निम्मीलेत्वा पेक्खनको । काकक्खीति केकरक्खो। वक्खीति जिम्हपेक्खनको। आविलक्खीति आकुलदिट्टिपातो। नीलपीतलोहितसेतकाळवण्णानं वसेन पञ्चवण्णो। तत्थ पीतलोहितवण्णा सेतमण्डलगतराजिवसेन, नीलसेतकाळवण्णा पन तंतंमण्डलवसेनेव वेदितब्बा । “पसादोति पन तेसं वण्णानं पसन्नाकारं सन्धाय वुत्त''न्ति केचि । पञ्चवण्णो पसादोति पन यथावृत्तपञ्चवण्णपरिवारो, तेहि वा पटिमण्डितो पसादोति अत्थो। नेत्तसम्पत्तिकरानीति “पञ्चवण्णपसादता तिरोहितविदूरगतदस्सनसमत्थता"ति एवमादि चक्खुसम्पदाय कारणानि । लक्खणसत्थे युत्ताति लक्खणसत्थे आयुत्ता सुकुसला ।
उण्हीससीसलक्खणवण्णना
__२३०. पुब्बङ्गमोति एत्थ पुब्बङ्गमता नाम पमुखता, जेट्टसेट्ठकभावो बहुजनस्स अनुवत्तनीयताति आह "गणजेट्ठको 'तिआदि ।
पुब्बङ्गमताति पुब्बङ्गमस्स कम्मं । यस्स हि कायसुचरितादिकम्मस्स वसेन महापुरिसो बहुजनस्स पुब्बङ्गमो अहोसि, तदस्स कम्मं “पुब्बङ्गमता"ति अधिप्पेतं, न पुब्बङ्गमभावो । तेनाह "इध कम्मं नाम पुब्बङ्गमता"ति । पीतिपामोज्जेन परिपुण्णसीसोति पीतिया,
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(७.२३१-२३४)
पामोज्जेन च सम्पुण्णपञ्जासीसो बहुलं सोमनस्ससहगताणसम्पयुत्तचित्तसमङ्गी एव हुत्वा विचरति। महापुरिसोति महापुरिसजातिको ।
२३१. बहुजनन्ति सामिअत्थे उपयोगवचनन्ति आह "बहुजनस्सा"ति । परिभुञ्जनद्वेन पटिभोगो, उपयोगवत्थु पटिभोगो, तस्स हिताति पटिभोगिया। देसकालं ञत्वा तदुपकरणूपट्ठानादि वेय्यावच्चकरा सत्ता। अभिहरन्तीति ब्याहरन्ति । तस्स तस्स वेय्यावच्चस्स पटिहरणतो पवत्तनकरणतो पटिहारो, वेय्यावच्चकरो, तस्स भावो पटिहारकन्ति आह "वेय्यावच्चकरभाव"न्ति । विसवनं विसवो, कामकारो वसिता, सो एतस्स अत्थीति विसवीति आह "चिण्णवसी"ति ।
एकेकलोमतादिलक्खणवण्णना २३२. उपवत्ततीति अनुकूलभावं उपेच्च वत्तति । तेनाह “अज्झासयं अनुवत्तती"ति ।
एकेकलोमलक्खणन्ति एकेकस्मिं लोमकूपे एकेकलोमतालक्खणं । एकेकेहि लोमेहीति अछेसं सरीरे एकेकस्मिम्पि लोमकूपे अनेकानिपि लोमानि उट्ठहन्ति, न तथागतस्स । तेहि पुन पच्चेकं लोमकूपेसु एकेकेहेव उप्पन्नेहि कुण्डलावत्तेहि पदक्खिणावत्तकजातेहि निचितं विय सरीरं होतीति वुत्तं “एकेकलोमूपचितङ्गवा''ति ।
चत्तालीसादिलक्खणवण्णना २३४. अभिन्दितब्बपरिसोति परेहि केनचि सङ्गहेन सङ्गहेत्वा, युत्तिकारणं दस्सेत्वा वा न भिन्दितब्बपरिसो।
अपिसुणवाचायाति उपयोगत्थे सामिवचनं, पेसुञस्स पटिपक्खभूतं कुसलकम्मं । पिसुणा वाचा एतस्साति पिसुणवाचो, तस्स पिसुणवाचस्स पुग्गलस्स । अपरिपुण्णाति चत्तारीसतो ऊनभावेन न परिपुण्णा । विरळाति सविवरा ।
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( ७.२३६-२३८)
पहूतजिव्हादिलक्खणवण्णना
पहूतजिव्हादिलक्खणवण्णना
२३६. आदेय्यवाचोति आदरगारववसेन तब्बवचनो सिरसा सम्पटिच्छितसासनो ।
बद्धजिहाति यथा सुखेन परिवत्तति, एवं सिरादीहि पलिबुद्धजिव्हा । गूळ्हजिव्हाति रसबहलताय गूळहगण्डसदिसजिव्हा । द्विजिव्हाति अग्गे कप्पभावेन द्विधाभूतजिव्हा । मम्मनाति अप्परिप्पुटतलापा । खरफरुसकक्कसादिवसेन सद्दो भिज्जति भिन्नकारो होति । विच्छिन्दित्वा पवत्तस्सरताय छिन्नस्सरा वा । अनेकाकारताय भिन्नस्सरा वा । काकस्स विय अमनुञ्ञस्सरताय काकस्सरा वा । मधुरोति इट्ठे, कम्मफलेन वत्थुनो सुविसुद्धत्ता । पेमनीयोति पीतिसञ्जननो, पियायितब्बो वा ।
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आदातब्बवचनो | " एवमेत”न्ति
२३७. अक्कोसयुत्तत्ताति अक्कोसुपसहितत्ता अक्कोसवत्थुसहितत्ता । आबाधकरिन्ति घट्टनवसेन परेसं पीळावहं । बहुनो जनस्स अवमद्दनतो, पमद्दाभावकरणतो वा बहुजनप्पमद्दनं । अबाळ्हन्ति वा एत्थ अ-कारो वुद्धिअत्थो " असेक्खा धम्मा' 'तिआदीसु (० स० तिकमातिका ११ ) विय, तस्मा अतिविय बाळ्हं फरुसं गिरन्ति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो । न भणीति चेत्थ “न अभणि न भणी' 'ति सरलोपेन निद्देसो । सुसंहितन्ति सुट्टु संहितं । केन पन सुट्टु संहितं ? " मधुर "न्ति अनन्तरमेव वुत्तत्ता मधुरतायाति विञ्ञायति, का पनस्स मधुरताति आह “" सुड्ड पेमसंहित "न्ति । उपयोगपुथुत्तविसयो यं वाचा-सद्दोति आह “वाचायो "ति, सा चस्सा उपयोगपुथुत्तविसयता " हदयगामिनियो”ति पदेन समानाधिकरणताय दट्ठब्बा । " कण्णसुख "न्ति पाठे भावनपुंसकनिद्देसोयन्ति दस्सेतुं “यथा”तिआदि वृत्तं । वेदयथाति कालविपल्लासेनायं निद्देसोति आह “वेदयित्था’”ति । ब्रह्मस्सरतन्ति सेट्ठस्सरतं, ब्रह्मनो सरसदिसस्सरतं वा । बहूनं बहुन्ति बहूनं जनानं बहुं सुभणितन्ति योजना |
सीहहनुलक्खणवण्णना
२३८. अप्पधंसिकोति अप्पधंसियो । य-कारस्स हि क-कारं कत्वा अयं निद्देसो यथा “निय्यानिका धम्मा”ति (ध० स० दुकमातिका ९७) गुणतोति अत्तना अधिगतगुणतो । ठातोति यथाठितट्ठानन्तरतो ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(७.२३९-२४१)
पलापकथायाति सम्फप्पलापकथाय। अन्तोपविठ्ठहनुका एकतो, उभतो वा संकुचितविसुका। वङ्कहनुका एकपस्सेन कुटिलविसुका। पब्भारहनुका पुरतो ओलम्बमानविसुका ।
२३९. विकिण्णवचना नाम सम्फप्पलापिनो, तप्पटिक्खेपेन अविकिण्णवचना महाबोधिसत्ता। वाचा एव तदत्थाधिगमुपायताय "ब्याप्पथो"ति वुत्ताति आह "अविकिण्ण...पे०... वचनपथो अस्सा"ति। "द्वीहि द्वीही"ति नयिदं आमेडितवचनं असमानाधिकरणतो, अथ खो द्वीहि दिगुणतादस्सनन्ति आह "द्वीहि द्वीहीति चतूही"ति । तस्मा “द्विदुगमा'ति चतुगमा वुत्ताति आह "चतुप्पदान"न्ति । तथासभावोति यथास्स वुत्तनयेन केनचि अप्पधंसियता होति गुणेहि, तथासभावो ।
समदन्तादिलक्खणवण्णना
२४०. विसुद्धसीलाचारताय परिसुद्धा समन्ततो सब्बथा वा सुद्धा पुग्गला परिवारा एतस्साति परिसुद्धपरिवारो।
२४१. पहासीति तदङ्गवसेन, विक्खम्भनवसेन च परिच्चजि । तिदिवं तावतिसभवनं पुरं नगरं एतेसन्ति तिदिवपुरा, तावतिंसदेवा, तेसं वरो तिदिवपुरवरो, इन्दो । तेन तिदिवपुरवरेन। तेनाह "सक्केना'ति । लपन्ति कथेन्ति एतेनाति लपनं, मुखन्ति आह "लपनजन्ति मुखज"न्ति । सुट्ठ धवलताय सुक्का, ईसकम्पि असंकिलिट्ठताय सुचि। सुन्दरसण्ठानताय सुट्ट भावनतो, विपस्सनतो च सोभना। कामं जनानं मनुस्सानं निवासनट्ठानादिभावेन पतिट्ठाभूतो देसविसेसो "जनपदो''ति वुच्चति, इध पन सपरिवारचतुमहादीपसञितो सब्बो पदेसो तथा वुत्तोति आह "चक्कवाळपरिच्छिनो जनपदो"ति । ननु च यथावुत्तो पदेसो समुद्दपरिच्छिन्नो, न चक्कवाळपब्बतपरिच्छिन्नोति ? सो पदेसो चक्कवाळपरिच्छिन्नोपि होतीति तथा वुत्तं । ये वा समुद्दनिस्सिता, चक्कवाळपादनिस्सिता च सत्ता, तेसं ते ते पदेसा पतिठ्ठाति तेपि सङ्गण्हन्तो "चक्कवाळपरिच्छिन्नो"ति अवोच। चक्कवाळपरिच्छिन्नोति च चक्कवाळेन परिच्छिन्नोति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो। तस्साति तस्स चक्कवत्तिनो। पुन तस्साति तस्स जनपदस्स । बहुजन सुखन्ति एत्थ पच्चत्तबहुवचनलोपेन बहुजनग्गहणन्ति आह "बहुजना''ति । यथा पन ते हितसुखं चरन्ति, तं विधिं दस्सेतुं “समानसुखदुक्खा हुत्वा"ति वुत्तं । विगतपापोति
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(७.२४१-२४१)
समदन्तादिलक्खणवण्णना
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सब्बसो समुच्छिन्दनेन विनिद्भुतपापधम्मो। दरथो वुच्चति कायिको, चेतसिको च परिळाहो । तत्थ चेतसिकपरिळाहो “विगतपापो"ति इमिनाव वुत्तोति आह “विगतकायिकदरथकिलमथो"ति । रागादयो यस्मिं सन्ताने उप्पन्ना, तस्स मलीनभावकरणेन मला। कचवरभावेन खिला। सत्तानं महानत्थकरत्ता विसेसतो दोसो कलीति वुत्तं “दोसकलीनञ्चा"ति । पनूदेहीति समुच्छिन्दनवसेन ससन्तानतो नीहारकेहि, पजहनकेहीति अत्थो । सेसं सुविद्येय्यमेव ।
एत्थ च यस्मा सब्बेसम्पि लक्खणानं महापुरिससन्तानगतपुञ्जसम्भारहेतुकभावेन सब्बयेव तं पुञकम्मं सब्बस्स लक्खणस्स कारणं विसिट्ठरूपत्ता फलस्स । न हि अभिन्नरूपकारणं भिन्नसभावस्स फलस्स पच्चयो भवितुं सक्कोति, तस्मा यस्स यस्स लक्खणस्स यं यं पुञकम्मं विसेसकारणं, तं तं विभागेन दस्सेन्ती अयं देसना पवत्ता । तत्थ यथा यादिसं कायसुचरितादिपुञकम्मं सुप्पतिट्ठितपादताय कारणं वुत्तं, तादिसमेव "उण्हीससीसताय' कारणन्ति न सक्का वत्तुं दळ्हसमादानताविसिट्ठस्स तस्स सुप्पतिट्टितपादताय कारणभावेन वुत्तत्ता, इतरस्स च पुब्बङ्गमताविसिट्ठस्स वुत्तत्ता, एवं यादिसं आयतपण्हिताय कारणं, न तादिसमेव दीघङ्गुलिताय, ब्रह्मजुगत्तताय च कारणं विसिवरूपत्ता फलस्स । न हि अभिन्नरूपकारणं भिन्नसभावस्स फलस्स पच्चयो भवितुं सक्कोति। तत्थ यथा एकेनेव कम्मुना चक्खादिनानिन्द्रियुप्पत्तियं अवत्थाभेदतो, सामत्थियभेदतो वा कम्मभेदो इच्छितब्बो । न हि यदवत्थं कम्मं चक्खुस्स कारणं, तदवत्थमेव सोतादीनं कारणं होति अभिन्नसामत्थियं वा, तस्मा पञ्चायतनिकत्तभावपत्थनाभूता पुरिमनिप्फन्ना कामतण्हा पच्चयवसेन विसिट्टसभावा कम्मस्स विसिट्ठसभावफलनिब्बत्तनसमत्थतासाधनवसेन पच्चयो होतीति एकम्पि अनेकविधफलनिब्बत्तनसमस्थतावसेन अनेकरूपतं आपन्नं विय होति, एवमिधापि “एकम्पि पाणातिपाता वेरमणिवसेन पवत्तं कुसलकम्मं आयतपण्हितादीनं तिण्णम्पि लक्खणानं निब्बत्तकं होती"ति वुच्चमानेपि न कोचि विरोधो । तेन वुत्तं “सो तस्स कम्मस्स कतत्ता...पे०... इमानि तीणि महापुरिसलक्खणानि पटिलभती"ति नानाकम्मुना पन तेसं निब्बत्तियं वत्तब्बमेव नत्थि, पाळियं पन "तस्स कम्मस्सा''ति एकवचननिद्देसो सामञवसेनाति दट्ठब्बो । एवञ्च कत्वा सतपुञलक्खणवचनं समत्थितं होति । “इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभती''तिआदीसुपि एसेव नयोति ।
लक्खणसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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८. सिङ्गालसुत्तवण्णना
निदानवण्णना २४२. पाकारेन परिक्खित्तन्ति पदं आनेत्वा सम्बन्धो। गोपुरट्टालकयुत्तन्ति द्वारपासादेन चेव तत्थ तत्थ पाकारमत्थके पतिठ्ठापितअट्टालकेहि च युत्तं । वेळूहि परिक्खित्तत्ता, अब्भन्तरे पुप्फूपगफलूपगरुक्खसञ्छन्नत्ता च नीलोभासं। छायूदकसम्पत्तिया, भूमिभागसम्पत्तिया च मनोरमं ।
काळकवेसेनाति कलन्दकरूपेन । निवापन्ति भोजनं । तन्ति उय्यानं ।
"खो पना"ति वचनालङ्कारमत्तमेतन्ति तेन समयेनाति अत्थवचनं युत्तं । गहपति महासालोति गहपतिभूतो महासारो, र-कारस्स ल-कारं कत्वा अयं निद्देसो । विभवसम्पत्तिया महासारप्पत्तो कुटुम्बिको । “पुत्तो पनस्स अस्सद्धो"तिआदि अट्ठप्पत्तिको यं सुत्तनिवखेपोति तं अट्ठप्पत्तिं दस्सेतुं आरद्धं । कम्मफलसद्धाय अभावेन अस्सद्धो। रतनत्तये पसादाभावेन अप्पसत्रो। एवमाहाति एवं इदानि वुच्चमानाकारेन वदति ।
यावजीवं अनुस्सरणीया होति हितेसिताय वुत्ता पच्छिमा वाचाति अधिप्पायेन | पुथुदिसाति विसुं विसुं दिसा, ता पन अनेकाति आह "बहुदिसा"ति ।
२४३. “न ताव पविट्ठो"तिआदीसु वत्तब् हेट्ठा वुत्तमेव । न इदानेवाति न इमाय एव वेलाय । किं चरहीति आह "पच्चूससमयेपी"तिआदि । गिहिविनयन्ति गिहीनं गहट्ठानं विनयतन्तिभूतं “गिहिना एवं वत्तितब्बन्ति गहठ्ठाचारस्स गहट्ठवत्तस्स अनवसेसतो
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( ८.२४४ - २४४)
छदिसादिवण्णना
इमस्मिं सुत्ते सविसेसं कत्वा वृत्तत्ता । तथैवाति यथा बुद्धचक्खुना दिट्ठ, तथैव पस्सि । नमस्सति वत्तवसेन कत्तब्बन्ति गहेत्वा ठितत्ता ।
छदिसादिवण्णना
२४४. वचनं सुत्वाव चिन्तेसि बुद्धानुभावेन अत्तसम्मापणिधाननिमित्तेन पुञ्ञबलेन च चोदियमानो । न किर ता एताति ता छ दिसा एता इदानि मया नमस्सियमाना पुरथिमादिका न होन्ति किराति । निपातमत्तन्ति अनत्थकभावं तस्स वदति । पुच्छापदन्ति पुच्छावचनं ।
भगवा गहपतिपुत्तेन नमस्सितब्बा छ दिसा पुच्छितो देसनाकुसलताय आदितो एव ता अकथेत्वा तस्स ताव पटिपत्तिया नं भाजनभूतं कातुं वज्जनीयवज्जनत्थञ्चेव सेवितब्बसेवनत्थञ्च ओवादं देन्तो “ यतो खो गहपतिपुत्ता" तिआदिना देसनं आरभि । तत्थ कम्मकिलेसाति कम्मभूता संकिलेसा । किलिस्सन्तीति किलिट्ठा मलीना विय ठिता, उपतापिता च होन्तीति अत्थो । तस्माति किलिस्सननिमित्तत्ता । यदिपि सुरापानं पञ्चवेरभावेन उपासकेहि परिवज्जनीयं, तस्स पन अपायमुखभावेन परतो वत्तुकामताय पाणातिपातादिके एव सन्धाय " चत्तारो "ति वुत्तं, न " पञ्चा "ति । "विसुं अकम्मपथभावतो चा’'ति अपरे । “सुरापानम्पि 'सुरामेरयपानं, भिक्खवे, आसेवितं भावितं बहुलीकतं निरयसंवत्तनिक 'न्तिआदि (अ० नि० ३.८.४०) वचनतो विसुं कम्मपथभावेन आगतं । तथा हि तं दुच्चरितकम्मं हुत्वा दुग्गतिगामिपिट्ठिवत्तकभावेन नियत "न्ति केचि तेसं मतेन एकादस कम्मपथा सियुं । तस्मा यथात्वेव कम्मपथे उपकारकत्तसभागत्तवसेन अनुप्पवेसो दट्ठब्बोति “विसुं अकम्मपथभावतो चा" ति सुवुत्तमेतं । सुरापानस्स भोगापायमुखभावेन वत्तुकामताय " चत्तारो" त्वेव अवोच | तिट्ठति एत्थ फलं तदायत्तवृत्तितायाति ठानं, हेतूति आह " ठानेहीति कारणेही 'ति । अपेन्ति अपगच्छन्ति, अपेति वा एतेहीति अपाया, अपायानं, अपाया एव वा मुखानि द्वारा अपायमुखानि । विनासमुखानीति एत्थापि एसेव नयो ।
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किञ्चापि ‘“अरियसावकस्सा "ति पुब्बे साधारणतो वुत्तं, विसेसतो पन पठमाय भूमियं ठितस्सेव वक्खमाननयो युज्जतीति "सोति सो सोतापन्नो "ति वृत्तं । पापक-सद्दो निहीनपरियायोति “लामकेही "ति वृत्तं । अपायदुक्खं वट्टदुक्खञ्च पापेन्तीति वा पापका,
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
तेहि पापकेहि। छ दिसा पटिच्छादेन्तोति तेन तेन भागेन दिस्सन्तीति " दिसा "ति सञ्ञिते छ भागे सत्ते यथा तेहि सद्धिं अत्तनो छिद्दं न होति, एवं पटिच्छादेन्तो पटिसन्धारेन्तो । विजिननत्थायाति अभिभवनत्थाय । यो हि दिट्ठधम्मिकं, सम्परायिकञ्च अनत्थं परिवज्जनवसेन अभिभवति, ततो एव तदुभयत्थं सम्पादेति, सो उभयलोकविजया पटिपन्नो नाम होति पच्चत्थिकनिग्गण्हनतो, सकत्थसम्पादनतो च । तेनाह " अयञ्चेव लोको”तिआदि । पाणातिपातादीनि पञ्च वेरानि वेरप्पसवनतो । आरद्धो होतीति संसाधितो होति, तयिदं संसाधनं कित्तिसद्देन इध सत्तानं चित्ततोसनेन, वेराभावापादनेन च होतीति आह " परितोसितो चेव निप्फादितो चा "ति । पुन पञ्च वेरानीति पञ्च वेरफलानि उत्तरपदलोपेन ।
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कतमस्साति कतमे अस्स । किलेससम्पयुत्तत्ता किलेसोति तंयोगतो तंसदिसं वदति यथा “पीतिसुखं पठमं झानं (दी० नि० १.२२६; म० नि० १.२७१, २८७, २९७; सं० नि० १.२.१५२; अं० नि० १.४.१२३; २.५.२८; पारा० ११; ध० स० ४९९; विभं० ५०८) नीलं वत्थ "न्ति च । सम्पयुत्तता चेत्थ तदेकट्टताय वेदितब्बा, न एकुप्पादादिताय । एवञ्च कत्वा पाणातिपातकम्मस्स दिट्ठिमानलोभादीहिपि किलिट्ठता सिद्धा होति, मिच्छाचारस्स दोसादीहि किलिट्ठता । तेनाह “संकिलेसोयेवा "तिआदि । पुब्बे वुत्तअत्थवसेन पन सम्मुखेनपि नेसं किलेसपरियायो लब्भतेव । एतदत्थपरिदीपकमेवाति यो “पाणातिपातो खो’तिआदिना वुत्तो, एतस्स अत्थस्स परिदीपकमेव । यदि एवं कस्मा पुन वुत्तन्ति आह " गाथाबन्ध' "न्ति, तस्स अत्थस्स सुखग्गहणत्थं भगवा गाथाबन्धं अवोचत अधिप्पायो ।
( ८.२४६-२४६)
चतुठानादिवण्णना
२४६. “पापकम्मं करोतीति कस्मा अयं उद्देसनिद्देसो पवत्तोति अन्तोलीनचोदनं सन्धाय “इदं भगवा”तिआदि वृत्तं । सुक्कपक्खवसेन हि उद्देसो कतो, कण्हपक्खवसेन च निद्देसो आरद्धो । कारकेति पापकम्मस्स कारके । अकारको पाकटो होति यथा पटिपज्जन्तो पापं करोति नाम, तथा अप्पटिपज्जनतो । संकिलेस धम्मविवज्जनपुब्बकं वोदानधम्मपटिपत्तिआचिक्खनं इध देसनाकोसल्लं । पठमतरं कारकं दस्सेन्तो आह यथा " वामं मुञ्च दक्खिणं गण्हा "ति (ध० स० अट्ठ० ४९८) तथा हि भगवा अट्ठतिस मङ्गलानि दस्सेन्तो “असेवना च बालान "न्ति (खु० पा० ५.३; सु० नि० २६२) वत्वा
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(८.२४७-२४७)
छअपायमुखादिवण्णना
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“पण्डितानञ्च सेवना''ति (खु० पा० ५.३; सु० नि० २६२) अवोच । छन्दागतिन्ति एत्थ सन्धिवसेन सरलोपोति दस्सेन्तो आह “छन्देन पेमेन अगति"न्ति । छन्दाति हेतुम्हि निस्सक्कवचनन्ति आह "छन्देना''ति । छन्द-सद्दो चेत्थ तण्हापरियायो, न कुसलच्छन्दादिपरियायोति आह "पेमेना"ति । परपदेसूति “दोसागतिं गच्छन्तो''तिआदीसु वाक्येसु । “एसेव नयोति इमिना “दोसेन कोपेना''ति एवमादि अत्थवचनं अतिदिसति । मित्तोति दळहमित्तो, सम्भत्तोति अत्थो । सन्दिट्ठोति दिमत्तसहायो । पकतिवेरवसेनाति पकतिया उप्पन्नवेरवसेन, चिरकालानुबन्धविरोधवसेनाति अत्थो । तेनेवाह "तवणुप्पत्रकोधवसेन वा"ति । यं वा तं वा अयुत्तं अकारणं वत्वा। विसमे चोरादिके, विसमानि वा कायदुच्चरितादीनि समादाय वत्तनेन निस्सितो विसमनिस्सितो।
छन्दागतिआदीनि न गच्छति मग्गेनेव चतुन्नम्पि अगतिगमनानं पहीनत्ता, अगतिगमनानीति च तथापवत्ता अपायगमनीया अकुसलचित्तुप्पादा वेदितब्बा अगति गच्छति एतेहीति ।
यस्सति तेन कित्तीयतीति यसो, थुतिघोसो। यस्सति तेन पुरेचरानुचरभावेन परिवारीयतीति यसो, परिवारोति आह "कित्तियसोपि परिवारयसोपी''ति । परिहायतीति पुब्बे यो च यावतके लब्भति, ततो परितो हायति परिक्खयं गच्छति ।
छअपायमुखादिवण्णना २४७. पूवे भाजने पक्खिपित्वा तज्जं उदकं दत्वा महित्वा कता पूवसुरा। एवं सेससुरापि। किण्णाति पन तस्सा सुराय बीजं वुच्चति, ये "सुरामोदका" तिपि वुच्चन्ति, ते पक्खिपित्वा कता किण्णपक्खित्ता। हरीतकीसासपादिनानासम्भारेहि संयोजिता सम्भारसंयुत्ता। मधुकतालनाळिकेरादिपुप्फरसो चिरपारिवासिको पुष्फासवो। पनसादिफलरसो फलासवो। मुद्दिकारसो मध्वासवो। उच्छुरसो गुळासवो। हरीतकामलककटुकभण्डादिनानासम्भारानं रसो चिरपारिवासिको सम्भारसंयुत्तो। तं सब्बम्पीति तं सब्बं दसविधम्पि । मदकरणवसेन मजं पिवन्तं मदयतीति कत्वा। सुरामेरयमज्जे पमादट्ठानं सुरामेरयमज्जपमादबानं। अनु अनु योगोति पुनप्पुनं तंसमङ्गिता। तेनाह "पुनप्पुनं करण"न्ति, अपरापरं पवत्तनन्ति अत्थो । उप्पना चेव भोगा परिहायन्ति पानब्यसनेन ब्यसनकरणतो। अनुष्पना च नुप्पज्जन्ति पमत्तस्स कम्मन्तेसु आयकरणाभावतो । भोगानन्ति
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(८.२४८-२४८)
भुञ्जितब्बढेन “भोगा''ति लद्धनामानं कामगुणानं | अपायमुख-सद्दस्स अत्थो हेट्ठा वुत्तो एव । अवेलायाति अयुत्तवेलाय । यदा विचरतो अत्थरक्खादयो न होन्ति । विसिखासु चरियाति रच्छासु विचरणं ।
समज्जा वुच्चति महो, यत्थ नच्चानिपि पयोजीयन्ति, तेसं दस्सनादिअत्थं तत्थ अभिरतिवसेन चरणं उपगमनं समज्जाभिचरणं। नच्चादिदस्सनवसेनाति नच्चादीनं दस्सनादिवसेनाति आदिसद्दलोपो दट्ठब्बो, दस्सनेन वा सवनम्पि गहितं विरूपेकसेसनयेन । आलोचनसभावताय वा पञ्चविआणानं सवनकिरियायपि दस्सनसोपसम्भवतो "दस्सनवसेन" इच्चेव वुत्तं । इध चित्तालसियता अकारणन्ति “कायालसियता"ति वुत्तं । युत्तप्पयुत्तताति तप्पसुतता अतिरेकतरताय ।
सुरामेरयस्स छआदीनवादिवण्णना २४८. सयं दट्ठब्बन्ति सन्टुिं । सन्दिट्ठमेव सन्दिविकं, धनजानिसद्दापेक्खाय पन इथिलिङ्गवसेन निद्देसो, दिट्टधम्मिकाति अयमेत्थ अत्थोति आह "इधलोकभाविनी''ति । समं, सम्मा पस्सितब्बाति वा सन्दिट्ठिका, पानसमकालभाविनीति अत्थो । कलहप्पबड्डनी मित्तस्स कलहे अनादीनवदस्सिभावतो । खेत्तं उप्पत्तिट्ठानभावतो। आयतनन्ति वा कारणं, आकरो वाति अत्थो । परलोके अकित्तिं पापुणन्ति अकित्तिसंवत्तनियस्स कम्मस्स पसवनतो । कोपीनं वा पाकटभावेन अकत्तब्बरहस्सकम्मं । सुरामदमत्ता च पुब्बे अत्तना कतं तादिसं कम्म अमत्तकाले छादेन्ता विचरित्वा मत्तकाले पच्चत्थिकानम्पि विवरन्ति पाकटं करोन्ति, तेन तेसं सा सुरा तस्स कोपीनस्स निदंसनतो "कोपीननिदंसनी"ति वुच्चतीति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो। कम्मस्सकतापञ्जन्ति निदस्सनमत्तं दट्ठब् | “यं किञ्चि लोकियं पलं दुब्बलं करोतियेवा''ति हि सक्का विज्ञातुं । तथा हि ब्यतिरेकमुखेन तमत्थं पतिठ्ठपेतुं “मग्गपञ्ज पना"तिआदि वुत्तं । “अन्तोमुखमेव न पविसती"ति इमिना सुराय मग्गपादुब्बलकरणस्स दुरसमुस्सारितभावमाह । ननु चेवं सुराय तस्सा पाय दुब्बलीकरणे सामत्थियविघातो अचोदितो होति अरियानं अनुप्पयोगस्सेव चोदितत्ताति ? नयिदं एवं उपयोगोपि नाम सदा तेसं नत्थि, कुतो किच्चकरणन्ति इमस्स अत्थस्स वुत्तत्ता । अथ पन अट्ठानपरिकप्पवसेनस्सा कदाचि सिया उपयोगो, तथापि सो तस्सा दुब्बलियं ईसकम्पि कातुं नालमेव सम्मदेव पटिपक्खदूरीभावेन सुप्पतिट्ठितभावतो। तेनाह "मग्गपञ्ज पन दुब्बलं कातुं न सक्कोती''ति । मग्गसीसेन चेत्थ अरियानं सब्बस्सापि
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सुरामेरयस्स छआदीनवादिवण्णना
लोकियोकुत्तराय पञ्ञाय दुब्बलभावापादाने असमत्थता दस्सिताति दट्ठब्बं । पज्जति एतेन फलन्ति पदं, कारणं ।
(८.२४९-२५१)
२४९. अत्तापिस्स अकालचारिस्स अगुत्तो सरसतो अरक्खितो उपक्कमतोपि परिवज्जनीयानं अपरिवज्जनतो । तेनाह “अवेलाय चरन्तो ही "तिआदि । कण्टकादीनिपीति पि-सन सोभादिके सङ्गण्हाति । वेरिनोपीति पि-सद्देन चोरादिका सङ्गय्हन्ति । पुत्तदाराति एत्थ पुत्तग्गहणेन पुत्तीपि गहिताति आह “ पुत्तधीतरोति । बहि पत्थनन्ति कामपत्थनावसेन अन्तोगेहस्सिततो निबद्धवत्थुतो बहिद्धा पत्थनं कत्वा । अञ्ञेहि कतपापकम्मेसूति परेहि कतासु पापकिरियासु | सङ्कितब्बो होति अकाले तत्थ तत्थ चरणतो । रुहति यस्मिं पदेसे चोरिका पवत्ता, तत्थ परेहि दिट्ठत्ता । वत्तुं न सक्काति “ एत्तकं दुक्खं, एत्तकं दोमनस्स"न्ति परिच्छिन्दित्वा वत्तुं न सक्का । तं सब्बम्पि विकालचारिम्हि पुग्गले आहरितब्बं तस्स उपरि पक्खिपितब्बं होति । कथं ? अञ्ञस्मिं पुग्गले तथारूपे आसङ्कितब्बे असति । इतीति एवं । सोति विकालचारी । पुरक्खतो पुरतो अत्तनो उपरि आसङ्कन्ते कत्वा चरति ।
२५०. नटनाटकादिनच्चन्ति नटेहि नाटकेहि नच्चितब्बनाटकादिनच्चविधि । आदि-सद्देन अवसिद्धं सब्बं सङ्गण्हाति । “तत्थ गन्तब्बं होती 'ति वत्वा तत्थस्स गमनेन यथा अनुप्पन्नानं भोगानं अनुप्पादो, उप्पन्नानञ्च विनासो होति, तं दस्सेतुं " तस्सा" तिआदि वृत्तं । गीतन्ति सरगतं, पकरणगतं, ताळगतं, अपधानगतन्ति गन्धब्बसत्थविहितं अञ्ञम्पि सब्बं गीतं वेदितब्बं । वादितन्ति वीणावेणुमुदिङ्गादिवादनं । अक्खानन्ति भारतयुद्धसीताहरणादिअक्खानं । पाणिस्सरन्ति कंसताळं, “ पाणिताळ "न्तिपि वदन्ति । कुम्भथूनन्ति चतुरस्स अम्बणकताळं । “कुटभेरिसद्दो 'ति केचि । “ एसेव नयो "ति इमिना “कस्मिं ठाने "तिआदिना नच्चे वुत्तमत्थं गीतादीसु अतिदिसति ।
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२५१. जयन्ति जूतं जिनन्तो । वेरन्ति जितेन कीळकपुरिसेन जयनिमित्तं अत्तनो उपरि वेरं विरोधं पसवति उप्पादेति । तहिस्स वेरपसवनं दस्सेतुं "जितं मया "तिआदि वुत्तं । जिनोति जूतपराजयापन्नाय धनजानिया जिनो । तेनाह "अञ्ञेन जितो समानो" तिआदि । वित्तं अनुसोचतीति तं जिनं वित्तं उद्दिस्स अनुत्थुनति । विनिच्छयट्ठानेति यस्मिं किस्मिञ्चि अट्टविनिच्छयट्ठाने । सक्खिपुट्ठस्साति सक्खिभावेन पुट्ठस्स । अक्खसोण्डोति अक्खधुत्तो । जूतकरोति जूतपमादट्ठानानुयुत्तो । त्वम्प नाम कुलपुत्तोति कुलपुत्तो नाम त्वं,
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अनिच्छितोति रित्ततुच्छभावतो ।
न मयं तयि कोलपुत्तियं इदानि पस्सामाति अधिप्पायो । छिन्नभिन्नकोति छिन्नभिन्नहिरोत्तप्पो, अहिरिको अनोत्तप्पीति अत्थो । तस्स कारणाति तस्स अत्थाय ।
न इच्छितो । पोसितब्बा भविस्सति जूतपराजयेन सब्बकालं
दीघनिकाये पाथिकवरगटीका
पापमित्तताय छआदीनवादिवण्णना
२५२. अक्खधुत्ताति अक्खेसु धुत्ता, अक्खनिमित्तं अत्थविनासका । इत्थसोण्डा इत्थीसु सोण्डा, इत्थिसम्भोगनिमित्तं आतप्पनका । तथा भत्तसोण्डादयो वेदितब्बा। पिपासाति उपरूपरि सुरापिपासा । तेनाह “पानसोण्डा "ति । नेकतिकादयो हेट्ठा वुत्ता एव । मेत्तिउप्पत्तिट्ठानताय मित्ता होन्ति । तस्माति पापमित्तताय ।
२५३. कम्मन्तन्ति कम्मं यथा सुत्तंयेव सुत्तन्तो, एवं कम्मंयेव कम्मन्तो, तं कातुं गच्छामाति वृत्तो। कम्मं वा अन्तो निट्टानं गच्छति एत्थाति कम्मन्तो, कम्मकरणट्ठानं, तं गच्छामाति वृत्तो ।
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(८.२५२-२५३)
पन्नसखाति सुरं पातुं पन्ने पटिपज्जन्ते एव सखाति पन्नसखा । तेनाह 'अयमेवत्थो" ति । “सम्मियसम्मियो 'ति वचनमेत्थ अत्थीति सम्मियसम्मियो। तेनाह “सम्मसम्माति वदन्तो 'ति । सहायो होतीति सहायो विय होति । ओतारमेव गवेसतीति रन्धमेव परियेसति अनत्थमस्स कातुकामो । वेरप्पसवोति परेहि अत्तनि वेरस्स पसवनं अनुपवत्तनं । तेनाह “वेरबहुलता "ति । परेसं करियमानो अनत्थो एत्थ अत्थीति अनत्थो, तब्भावो अनत्थताति आह " अनत्थकारिता "ति । यो हि परेसं अनत्थं करोति, सो अत्थतो अत्तनो अनत्थकारो नाम, तस्मा अनत्थताति उभयानत्थकारिता । अरियो वुच्चति सत्तो, कुच्छितो अरियो कदरियो । यस्स धम्मस्स वसेन सो " कदरियो "ति वुच्चति, सोम कदरियता, मच्छरियं । तं पन दुब्बिसज्जनीयभावे ठितं सन्धायाह “सुड्ड कदरियता थद्धमच्छरियभावोति । अविपण्णसभावतो उट्टातुं असक्कोन्तो च इणं गहन्तो संसीदन्तोव इणं विगाहति नाम । सूरिये अनुग्गते एव कम्पन्ते अनारभन्तो रत्तिं अनुट्ठानसीलो ।
अत्थाति धनानि । अतिक्कमन्तीति अपगच्छन्ति । अथ वा अत्थाति किच्चानि ।
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(८.२५४-२५७)
मित्तपतिरूपकवण्णना
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अतिक्कमन्तीति अतिक्कन्तकालानि होन्ति, तेसं अतिक्कमोपि अत्थतो धनानमेव अतिक्कमो। इमिना कथामग्गेनाति इमिना “यतो खो गहपतिपुत्ता'तिआदि (दी० नि० ३.२४४) नयप्पवत्तेन कथासङ्घातेन हिताधिगमूपायेन । एत्तकं कम्मन्ति चत्तारो कम्मकिलेसा, चत्तारि अगतिगमनानि, छ भोगानं अपायमुखानीति एवं वुत्तं चुद्दसविधं पापकम्मं ।
मित्तपतिरूपकवण्णना
२५४. अनत्थोति “भोगजानि, आयसक्यं, परिसमज्झे मनुभावो, सम्मूळ्हमरण'"न्ति एवं आदिको दिट्ठधम्मिको “दुग्गतिपरिकिलेसो, सुगतियञ्च अप्पायुकता, बह्वाबाधता, अतिदलिद्दता, अप्पन्नपानता''ति एवं आदिको च अनत्थो उप्पज्जति। यानि कानिचि भयानीति अत्तानुवादभयपरानुवादभयदण्डभयादीनि लोके लब्भमानानि यानि कानिचि भयानि । उपद्दवाति अन्तराया। उपसग्गाति सरीरेन संसट्ठानि विय उपरूपरि उप्पज्जनकानि ब्यसनानि । अञदत्थूति एकन्तेनाति एतस्मिं अत्थे निपातो “अञदत्थुदसो"तिआदीसु (दी० नि० १.४२) वियाति वुत्तं "एकंसेना"ति | यं किञ्चि गहणयोग्यं हरतियेव गण्हातियेव । वाचा एव परमा एतस्स कम्मन्ति वचीपरमो। तेनाह “वचनमत्तेनेवा"तिआदि । अनुप्पियन्ति तक्कनं, यं वा “रुची''ति वुच्चति येहि सुरापानादीहि भोगा अपेन्ति विगच्छन्ति, तेसु तेसं अपायेसु ब्यसनहेतूसु सहायो होति।
२५५. हारकोयेव होति, न दायको, तमस्स एकंसतो हारकभावं दस्सेतुं "सहायस्सा"तिआदि वुत्तं । यं किञ्चि अप्पकन्ति पुप्फफलादि यं किञ्चि परित्तं वत्थु दत्वा, बहं पत्थेति बहं महग्धं वत्थयुगादिं पच्चासीसति। दासो विय हत्वा मित्तस्स तं तं किच्चं करोन्तो कथं अमित्तो नाम जातोति आह "अय"न्तिआदि। यस्स किच्चं करोति अनत्थपरिहारत्थं, अत्तनो मित्तभावदस्सनत्थञ्च, तं सेवति। अत्थकारणाति वड्डिनिमित्तं, अयमेतेसं भेदो ।
२५६. परेति परदिवसे । न आगतो सीति आगतो नाहोसि । खीणन्ति तादिसस्स, असुकस्स च दिन्नत्ता । सस्ससङ्गहेति सस्सतो कातब्बधसङ्गहे कते।
२५७. “दानादीसु यं किञ्चि करोमा''ति वुत्ते “साधु सम्म करोमा''ति अनुजानातीति इममत्थं "कल्याणेपि एसेव नयो"ति अतिदिसति । ननु एवं अनुजानन्तो
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(८.२५९-२६३)
अयं मित्तो एव, न अमित्तो मित्तपतिरूपकोति ? अनुप्पियभाणीदस्सनमत्तमेतं । सहायेन वा देसकालं, तस्मिं वा कते उप्पज्जनकविरोधादिं असल्लक्खेत्वा “करोमा''ति वुत्ते यो तं जानन्तो एव “साधु सम्म करोमा'"ति अनुप्पियं भणति, तं सन्धाय वुत्तं "कल्याणं पिस्स अनुजानातीति । तेन वुत्तं “कल्याणेपि एसेव नयो''ति ।
२५९. मित्तपतिरूपका एते मित्ताति एवं जानित्वा ।
सुहदमित्तवण्णना २६०. सुन्दरहदयाति पेमस्स अस्थिवसेन भद्दचित्ता ।
२६१. पमत्तं रक्खतीति एत्थ पमादवसेन किञ्चि अयुत्ते कते तादिसे काले रक्खणं "भीतस्स सरणं होती''ति इमिनाव तं गहितन्ति ततो अचमेव पमत्तस्स रक्खणविधिं दस्सेतुं “मज्जं पिवित्वा'तिआदि वुत्तं । गेहे आरक्खं असंविहितस्स बहिगमनम्पि पमादपक्खिकमेवाति "सहायो बहिगतो वा होती"ति वुत्तं । भयं हरन्तोति भयं पटिबाहन्तो। भोगहेतुताय फलूपचारेन धनं “भोग"न्ति वदति । किच्चकरणीयेति खुद्दके, महन्ते च कातब्बे उप्पन्ने।
२६२. निगुहितुं युत्तकथन्ति निगूहितुं छादेतुं युत्तकथं, निगुहितुं वा युत्ता कथा एतस्साति निगुहितुं युत्तकथं, अत्तनो कम्मं । रक्खतीति अनाविकरोन्तो छादेति । जीवितम्पीति पि-सद्देन किमङ्गं पन अझं परिग्गहितवत्थुन्ति दस्सेति ।
२६३. पस्सन्तेसु पस्सन्तेसूति आमेडितवचनेन निवारियमानस्स पापस्स पुनप्पुनं करणं दीपेति । पुनप्पुनं करोन्तो हि पापतो विसेसेन निवारेतब्बो होति । सरणेसूति सरणेसु वत्तस्सु अभिन्नानि कत्वा पटिपज्ज, सरणेसु वा उपासकभावेन वत्तस्सु। निपुणन्ति सण्हं । कारणन्ति कम्मस्सकतादिभेदयुत्तं । इदं कम्मन्ति इमं दानादिभेदं कुसलकम्मं । "कम्म"न्ति साधारणतो वुत्तस्सापि तस्स “सग्गे निब्बत्तन्ती''ति पदन्तरसन्निधानेन सद्धाहिरोत्तप्पालोभादिगुणधम्मसमङ्गिता विय कुसलभावो जोतितो होति । सद्धादयो हि धम्मा सग्गगामिमग्गो । यथाह -
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(८.२६४-२६५)
सुहदमित्तवण्णना
१२३
“सद्धा हिरियं कुसलञ्च दानं
धम्मा एते सप्पुरिसानुयाता । एतहि मग्गं दिवियं वदन्ति,
___ एतेन हि गच्छति देवलोक"न्ति ।। (अ० नि० ३.८.३२)
२६४. भवनं सम्पत्तिवड्ढनं भवोति अत्थो, तप्पटिक्खेपेन अभवोति आह “अभवेन अबुड्डिया'ति । पारिजुञ्जन्ति जानि। अनत्तमनो होतीति अत्तमनो न होति अनुकम्पकभावतो । अञदत्थु तं अभवं अत्तनि आपतितं विय मञति । इदानि तं भवं सरूपतो दस्सेतं "तथारूप"न्तिआदि वृत्तं । विरूपोति बीभच्छो। न पासादिकोति तस्सेव वेवचनं । सुजातोति सुन्दरजातिको जातिसम्पन्नो ।
२६५. जलन्ति जलन्तो। अग्गीवाति अग्गिक्खन्धो विय भासतीति विरोचति । यस्मास्स भगवता सविसेसं विरोचनं लोके पाकटभावञ्च दस्सेतुं "जलं अग्गीव भासती'ति वुत्तं, तस्मा यदा अग्गि सविसेसं विरोचति, यत्थ च ठितो दूरे ठितानम्पि पञ्जायति, तं दस्सनादिवसेन तमत्थं विभावेतुं "रत्ति"न्तिआदि वुत्तं ।
"भमरस्सेव इरीयतो"ति एतेनेवस्स भोगसंहरणं धम्मिकं आयोपेतन्ति दस्सेन्तो "अत्तानम्पी"तिआदिमाह । रासिं करोन्तस्साति यथास्स धनधादिभोगजातं सम्पिण्डितं रासिभूतं हुत्वा तिट्ठति, एवं इरीयतो आयूहन्तस्स च । चक्कप्पमाणन्ति रथचक्कप्पमाणं । निचयन्ति वुद्धिं परिवुद्धिं । “भोगा सन्निचयं यन्ती"ति केचि पठन्ति ।
समाहत्वाति संहरित्वा। अलं-सद्दो “अलमेव सब्बसङ्घारेसु निब्बिन्दितुं, अलं विरज्जितु''न्तिआदीसु (दी० नि० २.२७२; सं० नि० १.२.१२४, १२९, १३४, १४३) युत्तन्ति इममत्थं जोतेति, “अलमरियाणदस्सनविसेस''न्तिआदीसु (म० नि० १.३२८) परियत्तन्ति । यो वेठितत्तोतिआदीसु (सु० नि० २१७) विय अत्त-सद्दो सभावपरियायोति तं सब्बं दस्सेन्तो “युत्तसभावो"तिआदिमाह । सण्ठपेतुन्ति सम्मा ठपेतुं, सम्मदेव पवत्तेतुन्ति अत्थो ।
एवं विभजन्तोति एवं वुत्तनयेन अत्तनो धनं चतुधा विभजन्तो विभजनहेतु मित्तानि गन्थति सोळस कल्याणमित्तानि मेत्ताय अजीरापनेन पबन्धति । तेनाह "अभेज्जमानानि
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(८.२६६-२६६)
ठपेती"ति । कथं पन वुत्तनयेन चतुधा भोगानं विभजनेन मित्तानि गन्थतीति आह "यस्स ही"तिआदि । तेनाह भगवा “ददं मित्तानि गन्थती"ति (सं० नि० १.१.२४६) । भुजेय्याति उपभुजेय्य, उपयुञ्जय्य चाति अत्थो। समणब्राह्मणकपणद्धिकादीनं दानवसेन चेव अधिवत्थदेवतादीनं पेतबलिवसेन, न्हापितादीनं वेतनवसेन च विनियोगोपि उपयोगो एव । तथा हि वक्खति “इमेसु पना"तिआदि आयो नाम हेट्ठिमन्तेन वयतो चतुग्गुणो इच्छितब्बो, अञथा वयो अविच्छेदवसेन न सन्तानेय्य, निधेय्य, भाजेय्य च असम्भतेति वुत्तं "दीहि कम्मं पयोजये"ति । निधेत्वाति निदहित्वा, भूमिगतं कत्वाति अत्थो । राजादिवसेनाति आदि-सद्देन अग्गिउदकचोरदुब्भिक्खादिके सङ्गण्हाति | न्हापितादीनन्ति आदि-सद्देन कुलालरजकादीनं सङ्गहो ।
छदिसापटिच्छादनकण्डवण्णना
२६६. चतूहि कारणेहीति न छन्दगमनादीहि चतूहि कारणेहि । अकुसलं पहायाति "चत्तारो कम्मकिलेसा''ति वुत्तं अकुसलञ्चेव अगतिगमनाकुसलञ्च पजहित्वा । छहि कारणेहीति सुरापानादीसु आदीनवदस्सनसङ्खातेहि छहि कारणेहि । सुरापानानुयोगादिभेदं छब्बिधं भोगानं अपायमुखं विनासमुखं वज्जेत्वा। सोळस मित्तानीति उपकारादिवसेन चत्तारो, पमत्तरक्खणादिकिच्चविसेसवसेन पच्चेकं चत्तारो चत्तारो कत्वा सोळसविधे कल्याणमित्ते सेवन्तो भजन्तो । सत्थवाणिज्जादिमिच्छाजीवं पहाय जायेनेव वत्तनतो धम्मिकेन आजीवेन जीवति। नमस्सितब्बाति उपकारवसेन, गुणवसेन च नमस्सितब्बा सब्बदा नतेन हुत्वा वत्तितब्बा । दिसा-सद्दस्स अत्थो हेट्ठा वुत्तो एव । आगमनभयन्ति तत्थ सम्मा अप्पटिपत्तिया, मिच्छापटिपत्तिया च उप्पज्जनकअनत्थो । सो हि भायन्ति एतस्माति "भय''न्ति वुच्चति | येन कारणेन मातापितुआदयो पुरथिमादिभावेन अपदिट्ठा, तं दस्सेतुं "पुब्बुपकारिताया''तिआदि वुत्तं, तेन अत्थसरिक्खताय नेसं पुरथिमादिभावोति दस्सेति । तथा हि मातापितरो पुत्तानं पुरथिमभावेन ताव उपकारिभावेन दिस्सनतो, अपदिस्सनतो च पुरस्थिमा दिसा । आचरिया अन्तेवासिकस्स दक्खिणभावेन, हिताहितं पतिकसलभावेन दक्खिणारहताय च वुत्तनयेन दक्खिणा दिसा | इमिना नयेन "पच्छिमा दिसा"तिआदीसु यथारहं अत्थो वेदितब्बो। घरावासस्स दुक्खबहुलताय ते ते च किच्चविसेसा यथाउप्पतितदुक्खनित्थरणत्थाति वुत्तं "ते ते दुक्खविसेसे उत्तरती"ति | यस्मा दासकम्मकरा सामिकस्स पादानं पयिरुपासनवसेन चेव तदनुच्छविककिच्चसाधनवसेन च येभुय्येन
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(८.२६७-२६७)
छद्दिसापटिच्छादनकण्डवण्णना
१२५
सन्तिकावचरा, तस्मा वुत्तं “पादमूले पतिद्वानवसेना'ति । गुणेहीति उपरिभावावहेहि गुणेहि । उपरि ठितभावेनाति सग्गमग्गे मोक्खमग्गे च पतिट्टितभावेन ।
२६७. भतोति पोसितो, तं पन भरणं जातकालतो पट्ठाय सुखपच्चयूपहरणेन दुक्खपच्चयापहरणेन च तेहि पवत्तितन्ति दस्सेतुं “थनं पायेत्वा"तिआदि वुत्तं । जग्गितोति पटिजग्गितो। तेति मातापितरो।
मातापितूनं सन्तकं खेत्तादिं अविनासेत्वा रक्खितं तेसं परम्पराय ठितिया कारणं होतीति "तं रक्खन्तो कुलवंसं सण्ठपेति नामा"ति वुत्तं । अधम्मिकवंसतोति "कुलप्पदेसादिना अत्तना सदिसं एकं पुरिसं घटेत्वा वा गीवायं वा हत्थे वा बन्धमणियं वा हारेतब्ब"न्ति एवं आदिना पवत्तअधम्मिकपवेणितो । हारेत्वाति अपनेत्वा तं गाहं विस्सज्जापेत्वा | मातापितरो ततो गाहतो विवेचनेनेव हि आयतिं तेसं परम्पराहारिका सिया। धम्मिकवंसेति हिंसादिविरतिया धम्मिके वंसे धम्मिकाय पवेणियं । ठपेन्तोति पतिठ्ठपेन्तो। सलाकभत्तादीनि अनुपच्छिन्दित्वाति सलाकभत्तदानादीनि अविच्छिन्दित्वा ।
दायजं पटिपज्जामीति एत्थ यस्मा दायपटिलाभस्स योग्यभावेन वत्तमानोयेव दायज्जं पटिपज्जति नाम, न इतरो, तस्मा तमत्थं दस्सेतुं “मातापितरो"तिआदि वुत्तं । दारकेति पुत्ते । विनिच्छयं पत्वाति “पुत्तस्स चजविस्सज्जन'"न्ति एवं आगतं विनिच्छयं आगम्म । दायज्जं पटिपज्जामीति वुत्तन्ति “दायज्जं पटिपज्जामी' ति इदं चतुत्थं वत्तनट्ठानं वुत्तं । तेसन्ति मातापितूनं । ततियदिवसतो पट्ठायाति मतदिवसतो ततियदिवसतो पट्टाय ।
पापतो निवारणं नाम अनागतविसयं । सम्पत्तवत्थुतोपि हि निवारणं वीतिक्कमे अनागते एव सिया, न वत्तमाने । निब्बत्तिता पन पापकिरिया गरहणमत्तपटिकाराति आह “कतम्पि गरहन्ती"ति । निवेसेन्तीति पतिठ्ठपेन्ति । वुत्तप्पकारा मातापितरो अनवज्जमेव सिप्पं सिक्खापेन्तीति वुत्तं "मुद्दागणनादिसिप्प"न्ति । रूपादीहीति आदि-सद्देन भोगपरिवारादिं सङ्गण्हाति । अनुरूपेनाति अनुच्छविकेन ।
निच्चभूतो समयो अभिण्हकरणकालो। अभिण्हत्थो हि अयं निच्च-सद्दो “निच्चपहंसितो निच्चपहट्ठो''तिआदीसु विय । युत्तपत्तकालो एव समयो कालसमयो।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(८.२६८-२६८)
"उट्ठाय समुट्ठाया"ति इमिनास्स निच्चमेव दाने तेसं युत्तपयुत्ततं दस्सेति । सिखाठपनं दारककाले | आवाहविवाहं पुत्तधीतूनं योब्बनप्पत्तकाले ।
तं भयं यथा नागच्छति, एवं पिहिता होति “पुरत्थिमा दिसा''ति विभत्तिं परिणामेत्वा योजना । यथा पन तं भयं आगच्छेय्य, यथा च नागच्छेय्य, तदुभयं दस्सेतुं "सचे ही"तिआदि वुत्तं । विप्पटिपन्नाति “भतो ने भरिस्सामी''तिआदिना उत्तसम्मापटिपत्तिया अकारणेन चेव तप्पटिपक्खमिच्छापटिपत्तिया अकरणेन च विप्पटिपन्ना पुत्ता अस्सु। एतं भयन्ति एतं "मातापितून अप्पतिरूपाति विझूनं गरहितब्बताभयं, परवादभय''न्ति एवमादि आगच्छेय्य पुत्तेसु । पुत्तानं नानुरूपाति एत्थ “पुत्तान''न्ति पदं एतं भयं पुत्तानं आगच्छेय्याति एवं इधापि आनेत्वा सम्बन्धितब् । तादिसानहि मातापितूनं पुत्तानं ओवादानुसासनियो दातुं समत्थकालतो पट्ठाय ता तेसं दातब्बा एवाति कत्वा तथा वुत्तं । पुत्तानहि वसेनायं देसना अनागता सम्मापटिपनेसु उभोसु अत्तनो, मातापितूनञ्च वसेन उप्पज्जनकताय सबं भयं न होति सम्मापटिपन्नत्ता । एवं पटिपन्नत्ता एव पटिच्छन्ना होति तत्थ कातब्बपटिसन्थारस्स सम्मदेव कतत्ता। खेमाति अनुपद्दवा । यथावुत्तसम्मापटिपत्तिया अकरणेन हि उप्पज्जनकउपद्दवा करणेन न होन्तीति ।
“न खो ते"तिआदिना वुत्तो सङ्गीतिअनारुळहो भगवता तदा तस्स वुत्तो परम्परागतो अत्थो वेदितब्बो । तेनाह "भगवा सिङ्गालकं एतदवोचा"ति । अयज्हीति एत्थ हि-सद्दो अवधारणे । तथा हि "नो अञ्जा"ति अञ्जदिसं निवत्तेति ।
___२६८. आचरियं दूरतोव दिस्वा उट्ठानवचनेनेव तस्स पच्चुग्गमनादिसामीचिकिरिया अवुत्तसिद्धाति तं दस्सेन्तो “पच्चुग्गमनं कत्वा"तिआदिमाह । उपट्ठानेनाति पयिरुपासनेन | तिक्खत्तुंउपट्ठानगमनेनाति पातो, मज्झन्हिके, सायन्ति तीसु कालेसु उपट्ठानत्थं उपगमनेन । सिप्पुग्गहणत्थं पन उपगमनं उपट्ठानन्तोगधं पयोजनवसेन गमनभावतोति आह "सिप्पुग्गहण...पे०... होती"ति । सोतुं इच्छा सुस्सूसा, सा पन आचरिये सिक्खितब्बसिक्खे च आदरगारवपुब्बिका इच्छितब्बा “अद्धा इमिना सिप्पेन सिक्खितेन एवरूपंगुणं पटिलभिस्सामीति । तथाभूतञ्च तं सवनं सद्धापुब्बङ्गमं होतीति आह "सद्दहित्वा सवनेना"ति । वुत्तमेवत्थं ब्यतिरेकवसेन दस्सेतुं “असद्दहित्वा...पे०... नाधिगच्छती"ति वुत्तं । तस्मा तस्सत्थो वुत्तपटिपक्खनयेन वेदितब्बो। यं सन्धाय “अवसेसखुद्दकपारिचरियाया''ति वुत्तं, तं विभजनं अनवसेसतो दस्सेतुं “अन्तेवासिकेन
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(८.२६९-२६९)
छद्दिसापटिच्छादनकण्डवण्णना
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ही"तिआदि वुत्तं । पच्चुपट्टानादीनीति आदि-सद्देन आसनपञापनं बीजनन्ति एवमादिं सङ्गण्हाति । अन्तेवासिकवत्तन्ति अन्तेवासिकेन आचरियम्हि सम्मावत्तितब्बवत्तं । सिप्पपटिग्गहणेनाति सिप्पगन्थस्स सक्कच्चं उग्गहणेन । तस्स हि सुट्ठ उग्गहणेन तदनुसारेनस्स पयोगोपि सम्मदेव उग्गहितो होतीति । तेनाह “थोकं गहेत्वा''तिआदि ।
सुविनीतं विनेन्तीति इध आचारविनयो अधिप्पेतो। सिप्पस्मिं पन सिक्खापनविनयो "सुग्गहितं गाहापेन्ती''ति इमिनाव सङ्गहितोति वुत्तं "एवं ते निसीदितब्बन्तिआदि । आचरिया हि नाम अन्तेवासिके न दिठ्ठधम्मिके एव विनेन्ति, अथ खो सम्परायिकेपीति आह "पापमित्ता वज्जेतब्बा"ति । सिप्पगन्थस्स उग्गण्हनं नाम यावदेव पयोगसम्पादनत्थन्ति आह “पयोगं दस्सेत्वा गण्हापेन्तीति । मित्तामच्चेसूति अत्तनो मित्तामच्चेसु । पटियादेन्तीति परिग्गहेत्वा नं ममत्तवसेन पटियादेन्ति । “अयं अम्हाकं अन्तेवासिको'तिआदिना हि अत्तनो परिग्गहितदस्सनमुखेन चेव "बहुस्सुतो''तिआदिना तस्स गुणपरिग्गण्हनमुखे च तं तेसं पटियादेन्ति। सब्बदिसासु रक्खं करोन्ति चातुद्दिसभावसम्पादनेनस्स सब्बत्थ सुखजीविभावसाधनतो । तेनाह "उग्गहितसिप्पो ही"तिआदि । सत्तानहि दुविधा सरीररक्खा अब्भन्तरपरिस्सयपटिघातेन, बाहिरपरिस्सयपटिघातेन च। तत्थ अन्भन्तरपरिस्सयो खुप्पिपासादिभेदो, सो लाभसिद्धिया पटिहञ्जति ताय तज्जापरिहारसंविधानतो । बाहिरपरिस्सयो चोरअमनुस्सादिहेतुको, सो विज्जासिद्धिया पटिहञ्जति ताय तज्जापरिहारसंविधानतो । तेन वुत्तं "यं यं दिस"न्तिआदि ।
पुब्बे "उग्गहितसिप्पो ही"तिआदिना सिप्पसिक्खापनेनेव लाभुप्पत्तिया दिसासु परित्ताणकरणं दस्सितं, इदानि “यं वा सो"तिआदिना तस्स उग्गहितसिप्पस्स निप्फत्तिवसेन गुणकित्तनमुखेन पग्गण्हनेनपि लाभुप्पत्तियाति अयमेतेसं विकप्पानं भेदो । सेसन्ति “पटिच्छन्ना होती''तिआदिकं पाळिआगतं, “एवञ्च पन वत्वा''तिआदिकं अट्ठकथागतञ्च । एत्थाति एतस्मिं दुतियदिसावारे । पुरिमनयेनेवाति पुब्बे पठमदिसावारे वुत्तनयेनेव ।
२६९. सम्मानना नाम सम्भावना, सा पन अत्थचरियालक्खणा च दानलक्खणा च चतुत्थपञ्चमट्ठानेहेव सङ्गहिताति पियवचनलक्खणं तं दस्सेतुं “सम्भावितकथाकथनेना"ति वुत्तं । विगतमानना विमानना, न विमानना अविमानना, विमाननाय अकरणं । तेनाह “यथा दासकम्मकरादयो''तिआदि । सामिकेन हि विमानितानं इत्थीनं सब्बो परिजनो
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(८.२७०-२७०)
विमानेतियेव । परिचरन्तोति इन्द्रियानि परिचरन्तो । तं अतिचरति नाम तं अत्तनो गिहिनि अतिमञ्जित्वा अगणेत्वा वत्तनतो। इस्सरियवोस्सग्गेनाति एत्थ यादिसो इस्सरियवोस्सग्गो गिहिनिया अनुच्छविको, तं दस्सेन्तो "भत्तगेहे विस्सटे"ति आह । गेहे एव ठत्वा विचारेतब्बम्पि हि कसिवाणिज्जादिकम्मं कुलिस्थिया भारो न होति, सामिकस्सेव भारो, ततो आगतसापतेय्यं पन ताय सुगुत्तं कत्वा ठपेतब्बं होति । “सब्बं इस्सरियं विस्सटुं नाम होती"ति एता मञ्जन्तीति अधिप्पायो । इथियो नाम पुत्तलाभेन विय महग्घविपुलालङ्कारलाभेनपि न सन्तुस्सन्तेवाति तासं तोसनं अलङ्कारदानन्ति आह “अत्तनो विभवानुरूपेना"ति ।
कुलिस्थिया संविहितब्बकम्मन्ता नाम आहारसम्पादनविचारप्पकाराति आह "यागुभत्तपचनकालादीनी"तिआदि । सम्माननादीहि यथारहं पियवचनेहि चेव भोजनदानादीहि च पहेणकपेसनादीहि अञतो, तत्थेव वा उप्पन्नस्स पण्णाकारस्स छणदिवसादीसु पेसेतब्बपियभण्डेहि च सङ्गहितपरिजना। गेहसामिनिया अन्तोगेहजनो निच्चं सङ्गहितो एवाति वुत्तं "इध परिजनो नाम...पे०... आतिजनो"ति। आभतधनन्ति बाहिरतो अन्तोगेहं पवेसितधनं । गिहिनिया नाम पठमं आहारसम्पादने कोसल्लं इच्छितब्, तत्थ च युत्तपयुत्तता, ततो सामिकस्स इथिजनायत्तेसु किच्चाकिच्चेसु, ततो पुत्तानं परिजनस्स कातब्बकिच्चेसूति आह “यागुभत्तसम्पादनादीसू"तिआदि । “निक्कोसज्जा''ति वत्वा तमेव निक्कोसज्जतं ब्यतिरेकतो, अन्वयतो च विभावेतुं “यथा"तिआदि वृत्तं । इधाति इमस्मिं ततियदिसावारे । पुरिमनयेनेवाति पठमदिसावारे वुत्तनयेनेव । इति भगवा “पच्छिमा दिसा पुत्तदारा''ति उद्दिसित्वापि दारवसेनेव पच्छिमं दिसं विस्सज्जेसि, न पुत्तवसेन । कस्मा ? पुत्ता हि दारककाले अत्तनो मातु अनुग्गण्हनेनेव अनुग्गहिता होन्ति अनुकम्पिता, विश्रुतं पत्तकाले पन यथा तेपि तदा अनुग्गहेतब्बा, स्वायं विधि “पापा निवारेन्ती"तिआदिना पठमदिसावारे दस्सितो एवाति किं पुन विस्सज्जनेनाति । दानादिसङ्गहवत्थूसु यं वत्तब्बं, तं हेट्ठा वुत्तमेवाति।।
२७०. चत्तारिपि ठानानि लकृित्वा पञ्चममेव ठानं विवरितुं "अविसंवादनताया"तिआदि वुत्तं । तत्थ यस्स यस्स नामं गण्हातीति सहायो अत्थिकभावेन यस्स यस्स वत्थुनो नाम कथेति । अविसंवादेत्वाति एत्थ दुविधं अविसंवादनं वाचाय, पयोगेन चाति तं दुविधम्पि दस्सेतुं "इदम्पी"तिआदि वुत्तं । “दानेना"ति च इदं निदस्सनमत्तं दट्ठब् इतरसङ्गहवत्थुवसेनपि अविसंवादेत्वा सङ्गण्हनस्स लब्भनतो,
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( ८.२७१-२७२ )
छद्दिसापटिच्छादनकण्डवण्णना
इच्छितब्बतो च । अपरा पच्छिमा पजा अपरपजा, अपरापरं उप्पन्ना वा पजा अपरपजा । पटिपूजना नाम ममायना, सक्कारकिरिया चाति तदुभयं दस्सेतुं “ केलायन्ती "तिआदि वृत्तं । ममायन्तीति ममत्तं करोन्ति ।
२७१. यथाबलं कम्मन्तसंविधानेनाति दासकम्मकरानं यथाबलं बलानुरूपं तेसं तेसं कम्मन्तानं संविदहनेन विचारणेन, कारापनेनाति अत्थो । तेनाह "दहरेही "तिआदि । भत्तवेतनानुष्पदानेनाति तस्स तस्स दासकम्मकरस्स अनुरूपं भत्तस्स, वेतनस्स च पदानेन । तेनेवाह “अयं खुद्दकपुत्तो" तिआदि । भेसज्जादीनीति आदि- सद्देन सप्पायाहारवसनट्ठानादिं सङ्गण्हाति । सातभावो एव रसानं अच्छरियताति आह " अच्छरिये मधुररसे "ति । तेसन्ति दासकम्मकरानं। वोस्सज्जनेनाति कम्मकरणतो विस्सज्जनेन । वेलं ञत्वाति "पहारावसेसो, उपड्डुपहारावसेसो वा दिवसो "ति वेलं जानित्वा । यो कोचि महुस्सवो छणो नाम । कत्तिकुस्सवो, फग्गुणुस्सवोति एवं नक्खत्तसल्लक्खितो महुस्सवो नक्खत्तं । पुब्बुट्ठायिता, पच्छानिपातिता च महासुदस्सने वुत्ता एवाति इध अनामट्ठा ।
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दिन्नादायिनोति पुब्बपदावधारणवसेन सावधारणवचनन्ति अवधारणेन निवत्तितं दस्सेतुं " चोरिकाय किञ्चि अग्गहेत्वा" ति वृत्तं । तेनाह " सामिकेहि दिनस्सेव आदायिनो 'ति । न मयं किञ्चि लभामाति अनुज्झायित्वाति पटिसेधद्वयेन तेहि लद्धब्बस्स लाभं दस्सेति । " किं एतस्स कम्मेन कतेनाति अनुज्झायित्वा इदं तुट्ठहदयताय कारणदस्सनं परिपक्खदूरीभावतो । तुट्टहदयतादस्सनम्पि कम्मस्स सुकतकारिताय कारणदरसनं । कित्ति एव वण्णो कित्तिवण्णो, तं कित्तिवण्णं गुणकथं हरन्ति तं तं दिसं उपाहरन्तीति त्वरा । तथा तथा कित्तेतब्बतो हि कित्ति, गुणो, तेसं वण्णनं कथनं वण्णो । तेनाह " गुणकथाहारका "ति ।
२७२. कारणभूता मेत्ता एतेसं अत्थीति मेत्तानि, कायकम्मादीनि । यानि पन तानि यथा यथा च सम्भवन्ति, तं दस्सेतुं “ तत्था "तिआदि वृत्तं । “विहारगमन "न्ति आदी सु "मेत्तचित्तं पच्चुपट्टापेत्वा "ति पदं आहरित्वा यीजेतब्बं । अनावटद्वारतायाति एत्थ द्वारं नाम अलोभज्झासयता दानस्स मुखभावतो । तस्स सतो देय्यधम्मस्स दातुकामा अनाव एवहि घरमावसन्तो कुलपुत्तो गेहद्वारे पिहितेपि अनावटद्वारो एव, अञ्ञथा अपिहितेप घरद्वारे आवटद्वारो एवाति । तेन वुत्तं " तत्था "तिआदि । विवरित्वापि वसन्तोति वचनसेसो। पिदहित्वापीति एत्थापि एसेव नयो । “सीलवन्तेसू" ति इदं पटिग्गाहको
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(८.२७३-२७३)
दक्खिणविसुद्धिदस्सनत्थं वुत्तं । करुणाखेत्तेपि दानेन अनावटद्वारता एव । “सन्तञवा"ति इमिना असन्तं नत्थिवचनं पुच्छितपटिवचनं विय इच्छितब्बं एवाति दस्सेति विनं अथिकानं चित्तमद्दवकरणतो । “पुरेभत्तं परिभुञ्जितब्बक"न्ति इदं यावकालिके एव आमिसभावस्स निरुळहताय वुत्तं ।
"सब्बे सत्ता"ति इदं तेसं समणब्राह्मणानं अज्झासयसम्पत्तिदस्सनं पक्खपाताभावदीपनतो, ओधिसो फरणायपि मेत्ताभावनाय लब्भनतो। याय कुसलाभिवड्आिकङ्खाय तेसं उपट्ठाकानं, तथा नेसं गेहपविसनं, तं सन्धायाह “पविसन्तापि कल्याणेन चेतसा अनुकम्पन्ति नामा"ति । सुतस्स परियोदापनं नाम तस्स याथावतो अत्थं विभावेत्वा विचिकिच्छातमविधमनेन विसोधनन्ति आह “अत्थं कथेत्वा कथं विनोदेन्ती"ति । सवनं नाम धम्मस्स यावदेव सम्मापटिपज्जनाय असति तस्मिं तस्स निरत्थकभावतो, तस्मा सुतस्स परियोदापनं नाम सम्मापटिपज्जापनन्ति आह "तथत्ताय वा पटिपज्जापेन्तीति ।
२७३. अलमत्तोति समत्थसभावो, सो च अत्थतो समत्थो एवाति "अगारं अज्झावसनसमत्थो"ति वुत्तं । दिसानमस्सनट्ठानेति यथावुत्तदिसानं पच्चुपट्टानसञ्जिते नमस्सनकारणे । पण्डितो हुत्वा कुसलो छेको लभते यसन्ति योजना । सोहगुणयोगतो सण्हो, सण्हगुणोति पनेत्थ सुखुमनिपुणपञा, मुदुवाचाति दस्सेन्तो "सुखुम...पे०... भणनेन वा"ति वुत्तं । दिसानमस्सनट्ठानेनाति येन जाणेन यथावुत्ता छ दिसा वुत्तनयेन पटिपज्जन्तो नमस्सति नाम, तं आणं दिसानमस्सनट्ठानं, तेन पटिभानवा। तेन हि तंतंकिच्चयुत्तपत्तवसेन पटिपज्जन्तो इध “पटिभानवाति वुत्तो। निवातवुत्तीति पणिपातसीलो | अत्थद्धोति न थद्धो थम्भरहितोति चित्तस्स उद्धुमातलक्खणेन थम्भितभावेन विरहितो। उट्ठानवीरियसम्पन्नोति कायिकेन वीरियेन समन्नागतो। निरन्तरकरणवसेनाति आरद्धस्स कम्मस्स सततकारितावसेन । ठानुप्पत्तिया पञायाति तस्मिं तस्मिं अत्थकिच्चे उपट्टिते ठानसो तङ्खणे एव उप्पज्जनकपञ्जाय ।
सङ्गहकरोति यथारहं सत्तानं सङ्गण्हनको । मित्तकरोति मित्तभावकरो, सो पन अत्थतो मित्ते परियेसनको नाम होतीति वुत्तं "मित्तगवेसनो"ति | यथावुत्तं वदं वचनं जानातीति वदति आह "पुब्बकारिना वुत्तवचनं जानाती"ति । इदानि तमेवत्थं सोपेन वुत्तं वित्थारवसेन दस्सेतुं "सहायकस्सा"तिआदि वुत्तं । पुब्बे यथापवत्ताय वाचाय जानने वदतं दस्सेत्वा इदानि आकारसल्लक्खणेन अप्पवत्ताय वाचाय जाननेपि वदछुतं
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(८.२७४-२७४)
छद्दिसापटिच्छादनकण्डवण्णना
दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । "येन येन वा पना''तिआदिना वचनीयत्थतं वदञ्जू-सद्दस्स दस्सेति । नेताति यथाधिप्पेतमत्थं पच्चक्खतो पापेता । तेनाह "तं तमत्थं दस्सेन्तो पज्ञाय नेता"ति । नेति तं तमत्थन्ति आनेत्वा सम्बन्धो । पुनप्पुनं नेतीति अनु अनु नेति, तं तमत्थन्ति आनेत्वा योजना ।
तस्मिं तस्मिन्ति तस्मिं तस्मिं दानादीहि सङ्गहेहि सङ्गहेतब्बे पुग्गले। आणियाति अक्खसीसगताय आणिया। यायतोति गच्छतो। पुत्तकारणाति पुत्तनिमित्तं । पुत्तहेतुकहि पुत्तेन कत्तब्ध मानं वा पूजं वा ।
उपयोगवचनेति उपयोगत्थे । वुच्चतीति वचनं, अत्थो। उपयोगवचने वा वत्तब्बे । पच्चत्तन्ति पच्चत्तवचनं । सम्मा पेक्खन्तीति सम्मदेव कातब्बे पेक्खन्ति । पसंसनीयाति पसंसितब्बा | भवन्ति एते सङ्गहेतब्बे तत्थ पुग्गले यथारहं पवत्तेन्ताति अधिप्पायो ।
२७४. “इति भगवा"तिआदि निगमनं । या दिसाति या मातापितुआदिलक्खणा पुरथिमादिदिसा। नमस्साति नमस्सेय्यासीति अत्थो “यथा कथं पना"तिआदिकाय गहपतिपुत्तस्स पुच्छाय वसेन देसनाय आरद्धत्ता "पुच्छाय ठत्वा"ति वुत्तं । अकथितं नत्थि गिहीहि कत्तब्बकम्मे अप्पमादपटिपत्तिया अनवसेसतो कथितत्ता । मातापितुआदीसु हि तेहि च पटिपज्जितब्बपटिपत्तिया निरवसेसतो कथनेनेव राजादीसुपि पटिपज्जितब्बविधि अत्थतो कथितो एव होतीति । गिहिनो विनीयन्ति, विनयं उपेन्ति एतेनाति गिहिविनयो। यथानुसिट्ठन्ति यथा इध सत्थारा अनुसिटुं गिहिचारितं, तथा तेन पकारेन तं अविराधेत्वा । पटिपज्जमानस्स वुद्धियेव पाटिकङ्घाति दिठ्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थेहि वुद्धियेव इच्छितब्बा अवस्सम्भाविनीति ।
सिङ्गालसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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९. आटानाटियसुत्तवण्णना
पठमभाणवारवण्णना
२७५. “चतुद्दिसं रक्खं ठपेत्वा''ति इदं द्वीसु ठानेसु चतूसु दिसासु ठपितं रक्खं सन्धाय वुत्तन्ति तदुभयं दस्सेतुं “असुरसेनाया"तिआदि वुत्तं । अत्तनो हि अधिकारे, अत्तनो रक्खाय च अप्पमज्जनेन तेसं इदं द्वीसु ठानेसु चतूसु दिसासु आरक्खट्ठपनं । यहि तं असुरसेनाय पटिसेधनत्थं देवपुरे चतूसु दिसासु सक्कस्स देवानमिन्दस्स आरक्खट्ठपनं, तं अत्तनो अधिकारे अप्पमज्जनं। यं पन नेसं भगवतो सन्तिकं उपसङ्कमने चतूसु दिसासु आरक्खठ्ठपनं, तं अत्तनो कता रक्खाय अप्पमज्जनं। तेन वुत्तं "असुरसेनाय निवारणत्थ"न्तिआदि | पाळियं चतुद्दिसन्ति भुम्मत्थे उपयोगवचनन्ति भुम्मवसेन तदत्थं दस्सेन्तो “चतूसु दिसासू"ति आह । आरक्खं ठपेत्वाति वेस्सवणादयो चत्तारो महाराजानो अत्तना अत्तना रक्खितब्बदिसासु आरक्खं ठपेत्वा गुत्तिं सम्मदेव विदहित्वा । बलगुम्बं ठपेत्वाति यक्खसेनादिसेनाबलसमूहं ठपेत्वा। ओवरणं ठपेत्वाति पटिपक्खनिसेधनसमत्थं आवरणं ठपेत्वा । इति तीहि पदेहि यथाक्कम पच्चेकं देवनगरद्वारस्स अन्तो, द्वारसमीपे, द्वारतो बहि, दिसारक्खावसनोति तिविधाय रक्खाय ठपितभावो वा दीपितो। तेनाह "एवं सक्कस्स...पे०... कत्वा"ति । सत्त बुद्धे आरम्भाति एत्थ सत्तेव बुद्धे आरब्भ परिबन्धनकारणं महापदानटीकायं (दी० नि० टी० २.१२) वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । धम्मआणन्ति धम्ममयं आणं, सत्थु धम्मचक्कन्ति अत्थो । “परिसतो बाहिरभावो, असम्भोगो"ति एवमादि इदञ्चिदञ्च विवज्जनकरणं करिस्सामाति । सावनन्ति चतुन्नम्पि परिसानं तिक्खत्तुं परिवारेन अनुसावनं, यथा सक्को देवानमिन्दो असुरसेनाय निवारणत्थं चतूसु दिसासु आरक्खं ठपापेति, एवं महाराजानोपि तादिसे किच्चविसेसे अत्तनो आरक्खं ठपेन्ति । इमेसम्पि हि ततो सासङ्घ सप्पटिभयन्ति । तेन वुत्तं "अत्तनोपी"तिआदि ।
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(९.२७५-२७५)
पठमभाणवारवण्णना
१३३
अभिक्कन्ताति अतिक्कन्ता, विगताति अत्थोति आह "खये दिस्सती'ति । तेनेव हि "निक्खन्तो पठमो यामो''ति अनन्तरं वुत्तं । अभिक्कन्ततरोति अतिविय कन्ततरो । तादिसो च सुन्दरो भद्दको नाम होतीति आह "सुन्दरे दिस्सती"ति ।
कोति देवनागयक्खगन्धब्बादीसु को कतमो। मेति मम । पादानीति पादे । इद्धियाति इमाय एवरूपाय देविद्धिया । “यससा"ति इमिना एदिसेन परिवारेन, परिच्छेदेन च । जलन्ति विज्जोतमानो। अभिक्कन्तेनाति अतिविय कन्तेन कमनीयेन अभिरूपेन । वण्णेनाति सरीरवण्णनिभाय । सब्बा ओभासयं दिसाति दसपि दिसा पभासेन्तो चन्दो विय, सूरियो विय च एकोभासं एकालोकं करोन्तोति गाथाय अत्थो । अभिरूपेति उळाररूपे सम्पन्नरूपे । अब्भनुमोदनेति सम्पहंसने । इध पनाति “अभिक्कन्ताय रत्तिया''ति एतस्मिं पदे । तेनाति खयपरियायत्ता।
रूपायतनादीसूति आदि-सद्देन अक्खरादीनं सङ्गहो दट्ठब्बो। सुवण्णवण्णोति सुवण्णच्छवीति अयमेत्थ अत्थोति आह "छविय"न्ति । तथा हि वुत्तं "कञ्चनसन्निभत्तचो''ति' (दी० नि० २.३५; ३.२००, २१८; म० नि० २.३८६) सञ्जूळ्हाति सङ्गन्थिता । वण्णाति गुणवण्णनाति आह "थुतिय"न्ति, थोमनायन्ति अत्थो । कुलवग्गेति खत्तियादिकुलकोट्ठासे । तत्थ “अच्छो विप्पसन्नो''तिआदिना वण्णितब्बतुन वण्णो, छवि। वण्णनटेन वण्णो, थुति । अभित्थवनटेन वण्णो, थुति, अञमचं असङ्करतो वण्णितब्बतो ठपेतब्बतो वण्णो, खत्तियादिकुलवग्गो। वण्णीयति आपीयति एतेनाति वण्णो, आपकं कारणं । वण्णनतो थूलरस्सादिभावेन उपट्ठानतो वण्णो, सण्ठानं । “महन्तं खुद्दकं, मज्झिम''न्ति वण्णेतब्बतो पमाणेतब्बतो वण्णो, पमाणं | वण्णीयति चक्खुना विवरीयतीति वण्णो, रूपायतनन्ति एवं तस्मिं तस्मिं अत्थे वण्ण-सद्दस्स पवत्ति वेदितब्बा । सोति वण्णसद्दो। छवियं दट्ठब्बो रूपायतने गव्हमानस्स छविमुखेनेव गहेतब्बतो । "छविगता पन वण्णधातु एव सुवण्णवण्णोति एत्थ वण्णग्गहणेन गहिता''ति अपरे |
केवलपरिपुण्णन्ति एकदेसम्पि असेसेत्वा निरवसेसतोव परिपुण्णन्ति अयमेत्थ अत्थोति आह "अनवसेसता अत्थो"ति । केवलकप्पाति कप्प-सद्दो निपातो पदपूरणमत्तं, केवलं इच्चेव अत्थो । केवल-सद्दो बहुलवाचीति आह "येभुय्यता अत्थो"ति । केचि पन “ईसकं असमत्ता केवलकप्पा''ति वदन्ति । एवं सति अनवसेसत्थो एव केवल-सद्दत्थो सिया, अनत्थन्तरेन पन कप्प-सद्देन पदवड्डनं कतं केवलमेव केवलकप्पन्ति । अथ वा कप्पनीयता,
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(९.२७६-२७६)
पापेतब्बता केवलकप्पा । अब्यामिस्सता विजातियेन असङ्करा सुद्धता। अनतिरेकता तंपरमता विसेसाभावो । केवलकप्पन्ति केवलं दळ्हं कत्वाति अत्थो। केवलं वुच्चति निब्बानं सब्बसङ्घतविवित्तत्ता। तं एतस्स अधिगतं अस्थीति केवली, सच्छिकतनिरोधो खीणासवो।
कप्प-सद्दो पनायं स-उपसग्गो, अनुपसग्गो चाति अधिप्पायेन ओकप्पनियपदे लब्भमानं कप्पनियसद्दमत्तं निदस्सेति, अञथा कप्प-सद्दस्स अत्थुद्धारे ओकप्पनियपदं अनिदस्सनमेव सिया। समणकप्पेहीति विनयक्कमसिद्धेहि समणवोहारेहि | निच्चकप्पन्ति निच्चकालं । पञत्तीति नामज्हेतं तस्स आयस्मतो, यदिदं कप्पोति । कप्पितकेसमस्सूति कत्तरिया छेदितकेसमस्सु | दङ्गुलकप्पोति मज्झन्हिकवेलाय वीतिक्कन्ताय द्वङ्गुलताविकप्पो । लेसोति अपदेसो । अनवसेसं फरितुं समत्थस्स ओभासस्स केनचि कारणेन एकदेसफरणम्पि सिया, अयं पन सब्बसोव फरीति दस्सेतुं समन्तत्थो कप्प-सद्दो गहितोति आह "अनवसेसं समन्ततो"ति।
यस्मा देवतानं सरीरप्पभा द्वादसयोजनमत्तं ठानं, ततो भिय्योपि फरित्वा तिठ्ठति, तथा वत्थाभरणादीहि समुट्ठिता पभा, तस्मा वुत्तं "चन्दिमा विय, सूरियो विय च एकोभासं एकं पज्जोतं करित्वा"ति। कस्मा एते महाराजानो भगवतो सन्तिके निसीदिंस? नन येभुय्येन देवता भगवतो सन्तिकं उपगता ठत्वाव कथेतब्बं कथेन्ता गच्छन्तीति ? सच्चमेतं, इध पन निसीदने कारणं अस्थि, तं दस्सेतुं "देवतान"न्तिआदि वुत्तं । “इदं परित्तं नाम सत्तबुद्धपटिसंयुत्तं गरु, तस्मा न अम्हेहि ठत्वा गहेतब्ब"न्ति चिन्तेत्वा परित्तगारववसेन निसीदिंसु।
२७६. कस्मा पनेत्थ वेस्सवणो एव कथेसि, न इतरेसु यो कोचीति ? तत्थ कारणं दस्सेतुं "किञ्चापी"तिआदि वुत्तं । विस्सासिको अभिण्हं उपसङ्कमनेन । ब्यत्तोति विसारदो, तञ्चस्स वेय्यत्तियं सुट्ट सिक्खितभावेनाति आह "सुसिक्खितो"ति। मनुस्सेसु विय हि देवेसुपि कोचिदेव पुरिमजातिपरिचयेन सुसिक्खितो होति, तत्रापि कोचिदेव यथाधिप्पेतमत्थं वत्तुं समत्थो परिपुण्णपदब्यञ्जनाय पोरिया वाचाय समन्नागतो । “महेसक्खा"ति इमस्स अत्थवचनं “आनुभावसम्पन्ना''ति, महेसक्खाति वा महापरिवाराति अत्थो । पाणातिपाते आदीनवदस्सनेनेव तं विपरियायतो ततो वेरमणियं आनिसंसो पाकटो होतीति “आदीनवं दस्सेत्वा" इच्चेव वुत्तं । तेसु सेनासनेसूति यानि “अरञवनप्पत्थानी''तिआदिना (म०
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( ९.२७७-२७७)
पठमभाणवारवण्णना
नि० १.३४-४५) वृत्तानि भिक्खूनं वसनट्ठानभूतानि अरञ्ञायतनानि, तेसु भिक्खूहि सयितब्बतो, आसितब्बतो च सेनासनसञ्ञितेसु । निबद्धवासिनोति रुक्खपब्बतपटिबद्धेसु विमानेसु निच्चवासिताय निबद्धवासिनो । बद्धत्ताति गाथाभावेन गन्धितत्ता सम्बन्धितत्ता ।
“उग्गण्हातु भन्ते भगवा ' ति अत्तना वुच्चमानं परित्तं भगवन्तं उग्गण्हापेतुकामो वेस्वणो अवोचाति अधिप्पायेन चोदको “किं पन भगवतो अप्पच्चक्खधम्मो नाम अत्थी'ति चोदेसि । आचरियो सब्बत्थ अप्पटिहतञाणचारस्स भगवतो न किञ्चि अप्पच्चक्खन्ति दस्सेन्तो " नत्थी "ति वत्वा "उग्गण्हातु भन्ते भगवा "ति वदतो वेस्सवणस्स अधिप्पायं विवरन्तो "ओकासकरणत्थ "न्तिआदिमाह । यथा हि पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो देवानं तावतिंसानं, ब्रह्म॒नो च सनङ्कुमारस्स सम्मुखा अत्तनो यथासुतं धम्मं भगवतो सन्तिकं उपगन्त्वा पवेदेति, एवमयम्पि महाराजा इतरेहि सद्धिं आटानाटनगरे गाथावसेन बन्धितं परित्तं भगवतो पवेदेतुं ओकासं कारेन्तो “उग्गण्हातु भन्ते भगवा "ति आह, न नं तस्स परियापुणने नियोजेन्तो । तस्मा उग्गहातूति यथिदं परित्तं मया पवेदितमत्तमेव हुत्वा चतुन्नं परिसानं चिरकालं हितावहं होति, एवं उद्धं आरक्खाय गण्हातु, सम्पटिच्छति अत्थो । सत्थु कथितेति सत्थु आरोचिते, चतुन्नं परिसानं सत्थु कथने वाति अत्थो । सुखविहारायाति यक्खादीहि अविहिंसाय लद्धब्बसुखविहाराय |
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२७७. सत्तपि बुद्धा चक्खुमन्तो पञ्चहि चक्खूहि चक्खुमभावे विसेसाभावतो । तस्माति यस्मा चक्खुमभावो विय सब्बभूतानुकम्पितादयो सब्बेपि विसेसा सत्तन्नम्पि बुद्धानं साधारणा, तस्मा, गुणनेमित्तकानेव वा यस्मा बुद्धानं नामानि नाम, न लिङ्गिकावत्थिकयादिच्छकानि, तस्मा बुद्धानं गुणविसेसदीपनानि " चक्खुमन्तस्सा 'तिआदिना ( दी० नि० ३.२७७) वुत्तानि एतानि एकेकस्स सत्त सत्त नामानि होन्ति । तेसं नामानं साधारणभावं अत्थवसेन योजेतब्बाति दस्सेतुं “सब्बेपी ' ' तिआदि वृत्तं । सब्बभूतानुकम्पिनोति अनञ्ञसाधारणमहाकरुणाय सब्बसत्तानं अनुकम्पिका । न्हातकिलेसत्ताति अट्ठङ्गिकेन अरियमग्गजलेन सपरसन्तानेसु निरवसेसतो धोतकिलेसमलत्ता । मारसेनापमद्दिनोति सपरिवारे पञ्चपि मारे पमद्दितवन्तो । वुसितवन्तोति मग्गब्रह्मचरियवासं, दसविधं अरियवासञ्च सितवन्तो । वुसितवन्तताय एव बाहितपापता वुत्ता होतीति "ब्राह्मणस्सा’”ति पदं अनामट्टं । विमुत्ताति अनञ्ञसाधारणानं पञ्चन्नम्पि विमुत्तीनं वसेन निरवसेसतो मुत्ता । अङ्गतोति सरीरङ्गतो, ञाणङ्गतो च, द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खण- ( दी० नि० २.३३; ३.२००; नि० २.३८५) निक्खमनप्पभा, - असीति अनुब्यञ्जनेहि
म०
ब्यामप्पभा,
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(९.२७७-२७७)
केतुमालाउण्हीसप्पभा च सरीरङ्गतो निक्खमनकरस्मियो, यमकमहापाटिहारियादीसु उप्पज्जनकप्पभा ञाणङ्गतो निक्खमनकरस्मियो। न एतानेव “चक्खुमा"तिआदिना (दी० नि० ३.२७७) वुत्तानि सत्त नामानि, अथ खो अनिपि बहूनि अपरिमितानि नामानि । कथन्ति आह “असङ्ख्येय्यानि नामानि सगुणेन महेसिनोति वुत्त"न्ति (ध० स० अट्ठ० १३१३; उदा० अट्ठ० ५३; पटि० अट्ठ० ७६)। केन वुत्तं ? धम्मसेनापतिना ।
यदि एवं कस्मा वेस्सवणो एतानेव गण्हीति आह "अत्तनो पाकटनामवसेना"ति । खीणासवा जनाति अधिप्पेता। ते हि कम्मकिलेसेहि जातापि एवं न पुन जायिस्सन्तीति इमिना अस्थेन जना। यथाह “यो च कालघसो भूतो"ति (जा० १.२.१९०) देसनासीसमत्तन्ति निदस्सनमत्तन्ति अत्थो, अवयवेन वा समुदायुपलक्खणमेतं । सति च पिसुणवाचप्पहाने फरुसवाचा पहीनाव होति, पगेव च मुसावादोति “अपिसुणा" इच्चेव वुत्ता। महत्ताति महा अत्ता सभावो एतेसन्ति महत्ता। तेनाह "महन्तभावं पत्ता"ति । महन्ताति वा महा अन्ता, परिनिब्बानपरियोसानाति वुत्तं होति । महन्तेहि वा सीलादीहि समन्नागता। अयं ताव अट्ठकथायं आगतनयेन अत्थो। इतरेसं पन मतेन बुद्धादीहि अरियेहि महनीयतो पूजनीयतो महं नाम निब्बानं, महमन्तो एतेसन्ति महन्ता, निब्बानदिहाति अत्थो । निस्सारदाति सारज्जरहिता, निब्भयाति अत्थो। तेनाह "विगतलोमहंसा"ति।
हितन्ति हितचित्तं, सत्तानं हितेसीति अत्थो। यथाभूतं विपस्सिसन्ति पञ्चुपादानक्खन्धेसु समुदयादितो याथावतो विविधनाकारेन पस्सिंसु । “ये चापी''ति पुब्बे पच्चत्तबहुवचनेन अनियमतो वुत्ते तेसम्पीति अत्थं सम्पदानबहुवचनवसेन नियमेत्वा "नमत्थू'ति च पदं आनेत्वा योजेति यं तं-सद्दानं अब्यभिचारितसम्बन्धभावतो । विपस्सिंसु नमस्सन्तीति वा योजना । पठमगाथायाति “ये चापि निब्बुता लोके"ति एवं वुत्तगाथाय । दुतियगाथायाति तदन्तरगाथाय । तत्थ देसनामुखमत्तन्ति इतरेसम्पि बुद्धानं नामग्गहणे पत्ते इमस्सेव भगवतो नामग्गहणं तथा देसनाय मुखमत्तं, तस्मा तेपि अत्थतो गहिता एवाति अधिप्पायो। तेनाह "अयम्पि ही"तिआदि । तत्थ अयन्ति अयं गाथा । पुरिमयोजनायं तस्साति विसेसितब्बताय अभावतो “यन्ति निपातमत्त"न्ति वुत्तं, इध पन “तस्स नमत्थू''ति एवं सम्बन्धस्स च इच्छितत्ता "य"न्ति नामपदं उपयोगेकवचनन्ति दस्सेन्तो “यं नमस्सन्ति गोतम"न्ति आह ।
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(९.२७८-२७८)
पठमभाणवारवण्णना
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२७८. “यतो उग्गच्छति सूरियो''तिआदिकं कस्मा आरद्धं ? यं ये यक्खादयो सत्थु धम्मआणं, अत्तनो च राजाणं नादियन्ति, तेसं “इदञ्चिदञ्च निग्गहं करिस्सामा"ति सावनं कातुकामा तत्थ तत्थ द्विसहस्सपरित्तदीपपरिवारेसु चतूसु महादीपेसु अत्तनो आणाय वत्तानं अत्तनो पुत्तानं, अट्ठवीसतिया यक्खसेनापतिआदीनञ्च सत्थरि पसादगारवबहुमानञ्च पवेदेत्वा निग्गहारहानं सन्तज्जनत्थं आरद्धं । तत्थ “यतो उग्गच्छती''तिआदीसु “यतो ठानतो उदेती"ति वुच्चति, कुतो पन ठानतो उदेतीति वच्चति ? पुब्बविदेहवासीनं ताव मज्झन्हिकट्ठाने ठितो जम्बुदीपवासीनं उदेतीति वुच्चति, उत्तरकुरुकानं पन ओग्गच्छतीति इमिना नयेन सेसदीपेसुपि सूरियस्स उग्गच्छनोग्गच्छनपरियायो वेदितब्बो । अयञ्च अत्थो हेट्ठा अग्गजसुत्तवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० ३.१२१) पकासितो एव । अदितिया पुत्तोति लोकसमुदाचारवसेन वुत्तं । लोकिया हि देवे अदितिया पुत्ता, असुरे अतिथिया पुत्ताति वदन्ति । आदिप्पनतो पन आदिच्चो, एकप्पहारेनेव तीसु दीपेसु आलोकविदंसनेन समुज्जलनतोति अत्थो । मण्डलीति एत्थ ई-कारो भुसत्थोति आह "महन्तं मण्डलं अस्साति मण्डली"ति। महन्तं हिस्स विमानमण्डलं पञासयोजनायामवित्थारतो । “संवरीपि निरुज्झती"ति इमिनाव दिवसोपि जायतीति अयम्पि अत्थो वुत्तोति वेदितब्बो । रत्ति अन्तरधायतीति सिनेरुपच्छायालक्खणस्स अन्धकारस्स विगच्छनतो।।
उदकरहदोति जलधि । "तस्मिं ठाने"ति इदं पुरस्थिमसमुदस्स उपरिभागेन सूरियस्स गमनं सन्धाय वुत्तं । तथा हि जम्बुदीपे ठितानं पुरथिमसमुद्दतो सूरियो उग्गच्छन्तो विय उपट्ठाति । तेनाह “यतो उग्गच्छति सूरियो"ति । समुद्दनठून अत्तनि पतितस्स सम्मदेव, सब्बसो च उन्दनटेन किलेदनटेन समुद्दो। समुद्दो हि किलेदनट्ठो रहदो। सारितोदकोति अनेकानि योजनसहस्सानि विस्थिण्णोदको, सरिता नदियो उदके एतस्साति वा सरितोदको।
सिनेरुपब्बतराजा चक्कवाळस्स वेमज्झे ठितो, तं पधानं कत्वा वत्तब्बन्ति अधिप्पायेन “इतोति सिनेरुतो''ति वत्वा तथा पन दिसाववत्थानं अनवट्टितन्ति “तेसं निसिन्नट्ठानतो वा"ति वुत्तं । तेसन्ति चतुन्नं महाराजानं । निसिनवानं आटानाटनगरं । तत्थ हि निसिन्ना ते इमं परित्तं बन्धिंसु । तेसं निसिनहानतोति वा सत्थु सन्तिके तेसं निसिन्नट्ठानतो। उभयथापि सूरियस्स उदयट्ठाना पुरत्थिमा दिसा नाम होति । पुरिमपक्खंयेवेत्थ वण्णेन्ति । तेन वुत्तं “इतो सा पुरिमा दिसा'ति । सूरियो, पन चन्दनक्खत्तादयो च सिनेरुं दक्खिणतो, चक्कवाळपब्बतञ्च वामतो कत्वा परिवत्तेन्ति ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(९.२७९-२८१)
यत्थ च नेसं उग्गमनं पञ्जायति, सा पुरत्थिमा दिसा । यत्थ ओक्कमनं पायति, सा पच्छिमा दिसा। दक्खिणपस्से उत्तरा दिसा, वामपस्से दक्खिणा दिसाति चतुमहादीपवासीनं पच्चेकं सिनेरु उत्तरादिसायमेव, तस्मा अनवट्ठिता दिसाववत्थाति आह "इति नं आचिक्खति जनो"ति । यं दिसन्ति यं परस्थिमदिसं यसस्सीति महापरिवारो। कोटिसतसहस्सपरिमाणा हि देवता अभिण्हं परिवारेन्ति । चन्दननागरुक्खादीसु ओसधितिणवनप्पतिसुगन्धान अब्बनतो, तेहि दित्तभावूपगमनतो “गन्धब्बा'"ति लद्धनामानं चातुमहाराजिकदेवानं अधिपति भावतो । मे सुतन्ति एत्थ मेति निपातमत्तं । सुतन्ति विस्सुतन्ति अत्थो । अयव्हेत्थ योजना - तस्स धतर?महाराजस्स पुत्तापि बहवो । कित्तका ? असीति, दस एको च । एकनामा । कथं ? इन्दनामा । “महप्फला''ति च सुतं विस्सुतमेतं लोकेति।
आदिच्चो गोतमगोत्तो, भगवापि गोतमगोत्तो, आदिच्चेन समानगोत्तताय आदिच्चो बन्धु एतस्सातिपि आदिच्चबन्धु, आदिच्चस्स वा बन्धूति आदिच्चबन्धु, तं आदिच्चबन्धुनं । अनवज्जेनाति अवज्जपटिपक्खेन ब्रह्मविहारेन । समक्खसि ओधिसो, अनोधिसो च फरणेन ओलोकेसिआसयानुसयचरियाधिमुत्तिआदिविभागावबोधवसेन । वत्वा वन्दन्तीति “लोकस्स अनुकम्पको''ति कित्तेत्वा वन्दन्ति । सुतं नेतन्ति सुतं ननूति एतस्मिं अत्थे नु-सद्दो । अट्ठकथायं पन नोकारोयन्ति अधिप्पायेन अम्हेहीति अत्थो वुत्तो। एतन्ति एतं तथा परिकित्तेत्वा अमनुस्सानं देवतानं वन्दनं । वदन्ति धतर?महाराजस्स पुत्ता।
___२७९. येन पेता पवुच्चन्तीति एत्थ वचनसेसेन अत्थो वेदितब्बो, न यथारुतवसेनेवाति दस्सेन्तो "येन दिसाभागेन नीहरीयन्तूति वुच्चन्ती"ति आह । डव्हन्तु वाति पेते सन्धाय वदति । छिज्जन्तु वा हत्थपादादिके पिसुणा पिट्टिमंसिका। हञन्तु पाणातिपातिनोतिआदिका । पवुच्चन्तीति वा समुच्चन्ति, “अलं तेस"न्ति समाचिनीयन्तीति अत्थो । एवञ्हि वचनसेसेन विना एव अत्थो सिद्धो होति । रहस्सङ्गन्ति बीजं सन्धाय वदति ।
२८०. यस्मिं दिसाभागे सूरियो अत्थं गच्छतीति एत्थ “यतो ठानतो उदेती"ति एत्थ वुत्तनयानुसारेन अत्थो वेदितब्बो। .
२८१. येन दिसाभागेन उत्तरकुरु रम्मो अवट्ठितो, इतो सा उत्तरा दिसाति
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(९.२८१-२८१)
पठमभाणवारवण्णना
१३९
योजना । महानेरूति महन्तो, महनीयो च नेरुसङ्घातो पब्बतो। तेनाह "महासिनेरु पब्बतराजा"ति | रजतमयं। तथा हि तस्स पभाय अज्झोत्थतं तस्सं दिसायं समुद्दोदकं खीरं विय पञ्जायति । मणिमयन्ति इन्दनीलमयं । तथा हि दक्खिणदिसाय समुद्दोदकं येभुय्येन नीलवण्णं हुत्वा पञ्जायति, तथा आकासं । मनुस्सा जायन्ति । कथं जायन्ति ? अममा अपरिग्गहाति योजना। ममत्तविरहिताति “इदं मम इदं ममा''ति ममङ्कारविरहिताति अधिप्पायो । यदि तेसं “अयं मय्हं भरिया'ति परिग्गहो नत्थि, “अयं मे माता, अयं भगिनी''ति एवरूपा इध विय मरियादापि न सिया मातुआदिभावस्स अजाननतोति चोदनं सन्धायाह "मातरं वा"तिआदि । छन्दरागो नुप्पज्जतीति एत्थ “धम्मतासिद्धस्स सीलस्स आनुभावेन पुत्ते दिट्ठमत्ते एव मातु थनतो थनं पग्घरति, तेन सञाणेन नेसं मातरि पुत्तस्स मातुसा , मातु च पुत्ते पुत्तसञा पच्चुपट्टिता"ति केचि |
नङ्गलाति लिङ्गविपल्लासेन वुत्तन्ति आह “नङ्गलानिपी"ति । अकडेति अकसिते अकतकसिकम्मे ।
तण्डुलाव तस्स फलन्ति सत्तानं पुञानुभावहेतुका थुसादिअभावेन तण्डुला एव तस्स सालिस्स फलं । तुण्डिकिरन्ति पचनभाजनस्स नामन्ति वुत्तं "उक्खलिय''न्ति । आकिरित्वाति तण्डुलानि पक्खिपित्वा । निमगारेनाति धूमङ्गाररहितेन केवलेन अग्गिना। जोतिकपासाणतो अग्गिम्हि उट्ठहन्ते कुतो धूमङ्गारानं सम्भवो। भोजनन्ति ओदनमेवाधिप्पेतन्ति "भोजनमेवा"ति अवधारणं कत्वा तेन निवत्तेतब्बं दस्सेन्तो “अञो सूपो वा ब्यञ्जनं वा न होती"ति आह । यदि एवं रसविसेसयुत्तो तेसं आहारो न होतीति ? नोति दस्सेन्तो "भुञ्जन्तानं...पे०... रसो होती"ति आह । मच्छरियचित्तं नाम न होतीति धम्मतासिद्धस्स सीलस्स आनुभावेन । तथा हि ते कत्थचिपि अममा परिग्गहाव हुत्वा वसन्ति ।
अपिच तत्थ उत्तरकुरुकानं पुञानुभावसिद्धो अयम्पि विसेसो वेदितब्बो - तत्थ किर तेसु तेसु पदेसेसु घनचितपत्तसञ्छन्नसाखापसाखा कूटागारूपमा मनोरमा रुक्खा तेसं मनुस्सानं निवेसनकिच्चं साधेन्ति, यत्थ सुखं निवसन्ति, अञ्जपि तत्थ रुक्खा सुजाता सब्बदापि पुप्फितग्गा तिठ्ठन्ति, जलासयापि विकसितकमलकुवलयपुण्डरीकसोगन्धिकादिपुप्फसञ्छन्ना सब्बकालं परमसुगन्धं समन्ततो पवायन्ता तिठ्ठन्ति । सरीरम्पि तेसं अतिदीघतादिदोसरहितं आरोहपरिणाहसम्पन्नं जराय अनभिभूतत्ता वलिपलितादिदोसरहितं यावतायुकं अपरिक्खीणजवबलपरक्कमसोभमेव हुत्वा तिठ्ठति । अनुट्ठानफलूपजीविताय न
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(९.२८१-२८१)
च नेसं कसिवाणिज्जादिवसेन, आहारपरियेटिवसेन दुक्खं अत्थि, ततो एव न दासदासिकम्मकरादिपरिग्गहो अत्थि, न च तत्थ सीतुण्हडंसमकसवातातपसरीसपवाळादिपरिस्सयो अस्थि । यथा नामेत्थ गिम्हानं पच्छिमे मासे पच्चूसवेलायं समसीतुण्हउतु होति, एवमेव सब्बकालं समसीतुण्होव उतु होति, न च तेसं कोचि उपघातो, विहेसा वा उप्पज्जति । अकट्ठपाकिममेव सालिं अकणं अथुसं सुगन्धं तण्डुलफलं परिभुञ्जन्तानं नेसं कुटुं, गण्डो, किलासो, सोसो, कासो, सासो, अपमारो, जरोति एवमादिको न कोचि रोगो उप्पज्जति । न ते खुज्जा वा वामनका वा काणा वा कुणी वा खञ्जा वा पक्खहता वा विकलङ्गा वा विकलिन्द्रिया वा होन्ति । इथियोपि तत्थ नातिदीघा नातिरस्सा नातिकिसा नातिथूला नातिकाळा नाच्चोदाता सोभग्गप्पत्तरूपा होन्ति । तथा हि दीघङ्गुली तम्बनखी लम्बत्थना तनुमज्झा पुण्णचन्दमुखी विसालक्खी मुदुगत्ता संहितूरू
ओदातदन्ता गम्भीरनाभी तनुजङ्घा दीघनीलवेल्लितकेसी पुथुलसुसोणी नातिलोमानालोमा सुभगा उतुसुखसम्फस्सा सण्हा सखिलसम्भासा नानाभरणविभूसिता विचरन्ति । सब्बदा हि सोळसवस्सुद्देसिका विय होन्ति । पुरिसा च पञ्चवीसतिवस्सुद्देसिका विय, न पुत्तदारेसु रज्जन्ति । अयं तत्थ धम्मता ।
सत्ताहिकमेव च तत्थ इत्थिपुरिसा कामरतिया विहरन्ति, ततो वीतरागा यथासकं गच्छन्ति । न तत्थ इध विय गब्भोक्कन्तिमूलकं, गब्भपरिहरणमूलकं, विजायनमूलकं वा दुक्खं होति । रत्तकञ्चुकतो कञ्चनपटिमा विय दारका मातुकुच्छितो अमक्खिता एव सेम्हादिना सुखेनेव निक्खमन्ति, अयं तत्थ धम्मता ।
माता पन पुत्तं वा धीतरं वा विजायित्वा तेसं विचरणप्पदेसे ठपेत्वा अनपेक्खा यथारुचि गच्छति । तेसं तत्थ सयितानं ये पस्सन्ति पुरिसा, इथियो वा, ते अत्तनो अङ्गुलियो उपनामेन्ति, तेसं कम्मबलेन ततो खीरं पवत्तति, तेन दारका यापेन्ति । एवं पन वड्वन्ता कतिपयदिवसेहेव लद्धबला हुत्वा दारिका इत्थियो उपगच्छन्ति, दारका पुरिसे । कप्परुक्खतो एव च तेसं तत्थ तत्थ वत्थाभरणानि निप्पज्जन्ति । नानाविरागवण्णविचित्तानि हि सुखुमानि मुदुसुखसम्फस्सानि वत्थानि तत्थ तत्थ कप्परुक्खेसु ओलम्बन्तानि इट्ठन्ति । नानाविधरंसिजालसमुज्जलविविधवण्णरतनविनद्धानि अनेकविधमालाकम्मलताकम्मभित्तिकम्मविचित्तानि सीसूपगगीवूपगहत्थूपगकटूपगपादूपगानि सोवण्णमयानि आभरणानि च कप्परुक्खतो ओलम्बन्ति । तथा वीणामुदिङ्गपणवसम्मताळसङ्खवंसवेताळपरिवानिवल्लकीपभुतिका तूरियभण्डापि ततो ततो ओलम्बन्ति । तत्थ च बहू फलरुक्खा
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(९.२८१-२८१)
पठमभाणवारवण्णना
१४१
कुम्भमत्तानि फलानि फलन्ति मधुररसानि, यानि परिभुजित्वा ते सत्ताहम्पि खुप्पिपासाहि न बाधीयन्ति । नज्जोपि तत्थ सुविसुद्धजला सुपतित्था रमणीया अकद्दमा वालुकतला नातिसीता नाच्चुण्हा सुरभिगन्धीहि जलजपुप्फेहि सञ्छन्ना सब्बकालं सुरभिं वायन्तियो सन्दन्ति । न तत्थ कण्टकतिणकक्खळगच्छलता होन्ति, अकण्टका पुप्फफलसम्पन्ना एव होन्ति । चन्दननागरुक्खा सयमेव रसं पग्घरन्ति । न्हायितुकामा च नदीतित्थे एकज्झं वत्थाभरणानि ठपेत्वा नदिं ओतरित्वा न्हत्वा उत्तिण्णुत्तिण्णा उपरिट्ठिमं वत्थाभरणं गण्हन्ति, न तेसं एवं होति “इदं मम, इदं परस्सा"ति, ततो एव न तेसं कोचि विग्गहो वा विवादो वा। सत्ताहिका एव च नेसं कामरतिकीळा होति, ततो वीतरागा विय विचरन्ति । यत्थ च रुक्खे सयितुकामा होन्ति, तत्थेव सयनं उपलभन्ति । मते च सत्ते दिस्वा न रोदन्ति, न सोचन्ति, तञ्च मण्डयित्वा निक्खिपन्ति । तावदेव च नेसं तथारूपा सकुणा उपगन्त्वा मतं दीपन्तरं नेन्ति । तस्मा सुसानं वा असुचिट्टानं वा तत्थ नत्थि । न च ततो मता निरयं वा तिरच्छानयोनि वा पेत्तिविसयं वा उपपज्जन्ति । “धम्मतासिद्धस्स पञ्चसीलस्स आनुभावेन ते देवलोके निब्बत्तन्तीति वदन्ति । वस्ससहस्समेव च नेसं सब्बकालं आयुप्पमाणं। सब्बमेतं तेसं पञ्चसीलं विय धम्मतासिद्धं एवाति वेदितब्बं । तत्थाति तस्मिं उत्तरकुरुदीपे ।
__एकखुरं कत्वाति अनेकसफम्पि एकसर्फ विय कत्वा, अस्सं विय कत्वाति अत्थो । “गावि"न्ति वत्वा पुन “पसु"न्ति वुत्तत्ता गावितो इतरो सब्बो चतुष्पदो इध "पसू"ति अधिप्पेतोति आह "ठपेत्वा गावि"न्ति ।
तस्साति गब्भिनित्थिया । पिट्टि ओनमितुं सहतीति कुच्छिया गरुभारताय तेसं आरुळहकाले पिट्टि ओनमति, तेसं निसज्जं सहति पल्लङ्के निसिन्ना विय होन्ति । सम्मादिढिकेति कम्मपथसम्मादिट्ठिया सम्मादिट्ठिके। एत्थाति जम्बुदीपे। एत्थ हि जनपदवोहारो, न उत्तरकुरुम्हि । तथा हि "पच्चन्तिममिलक्खुवासिके"ति च वुत्तं ।।
तस्स रोति वेस्सवणमहाराजस्स । इति सो अत्तानमेव परं विय कत्वा वदति । एसेव नयो परतोपि । बहुविधं नानारतनविचित्तं नानासण्ठानं रथादि दिब्बयानं उपद्वितमेव होति सुदन्तवाहनयुत्तं, न नेसं यानानं उपट्टापने उस्सुक्कं आपज्जितब्बं अस्थि । एतानीति हत्थियानादीनि । नेसन्ति वेस्सवणपरिचारिकानं । कप्पितानि हुत्वा उहितानि आरुहितुं उपकप्पनयानानि । निपन्नापि निसिनापि विचरन्ति चन्दिमसूरिया विय यथासकं विमानेसु |
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(९.२८१-२८१)
नगरा अहूति लिङ्गविपल्लासेन वुत्तन्ति आह "नगरानि भविसूति अत्थो"ति । आटानाटा नामाति इथिलिङ्गवसेन लद्धनामं नगरं आसि।
तस्मिं ठत्वाति तस्मिं पदेसे परकुसिटनाटानामके नगरे ठत्वा। ततो उजु उत्तरदिसायं। एतस्साति कसिवन्तनगरस्स । अपरभागे अपरकोट्ठासे, परतो इच्चेव अत्थो ।
कुवेरोति तस्स पुरिमजातिसमुदागतं नामन्ति तेनेव पसङ्गेन येनायं सम्पत्ति अधिगता, तदस्स पुब्बकम्मं आचिक्खितुं "अयं किरा"तिआदि वुत्तं । उच्छुवप्पन्ति उच्छुसस्सं । अवसेससालाहीति अवसेसयन्तसालाहि, निस्सक्कवचनञ्चेतं । तत्थेवाति पुञ्जत्थं दिन्नसालायमेव ।
___ पटिएसन्तोति पति पति अत्थे एसन्तो वीमंसन्तो। न केवलं ते वीमंसन्ति एव, अथ खो तमत्थं पतिट्टापेन्तीति आह "विसुं विसुं अत्थे उपपरिक्खमाना अनुसासमाना"ति । यक्खरटिकाति यक्खरठ्ठाधिपतिनो । यक्खा च वेस्सवणस्स रञो निवेसनद्वारे नियुत्ता चाति यक्खदोवारिका, तेसं यक्खदोवारिकानं।
यस्मा धरणीपोरक्खणितो पुराणोदकं भस्सयन्तं हेट्ठा वुढि हुत्वा निक्खमति, तस्मा तं ततो गहेत्वा मेघेहि पवुटुं विय होतीति वुत्तं “यतो पोक्खरणितो उदकं गहेत्वा मेघा पवस्सन्ती"ति । यतोति यतो धरणीपोक्खरणितो । सभाति यक्खानं उपट्ठानसभा ।
तस्मिं ठानेति तस्सा पोक्खरणिया तीरे यक्खानं वसनवने । सदा फलिताति निच्चकालं सञ्जातफला। निच्चपुष्फिताति निच्चं सञ्जातपुप्फा । नानादिजगणायुताति नानाविधेहि दिजगणेहि युत्ता। तेहि पन सकुणसङ्केहि इतो चितो च सम्पतन्तेहि परिब्भमन्तेहि यस्मा सा पोक्खरणी आकुला विय होति, तस्मा वुत्तं "विविधपक्खिसङ्घसमाकुला"ति । कोञ्चसकुणेहीति सारससकुन्तेहि ।
"एवं विरवन्तान"न्ति इमिना तथा वस्सितवसेन “जीवजीवका''ति अयं तेसं समञाति दस्सेति । उट्ठवचित्तकाति एत्थापि एसेव नयो। तेनाह "एवं वस्समाना"ति । पोक्खरसातकाति पोक्खरसण्ठानताय “पोक्खरसातका''ति एवं लद्धनामा ।
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(९.२८२-२८२)
पठमभाणवारवण्णना
१४३
सब्बकालं सोभतीति सब्बउतूसु सोभति, न तस्सा हेमन्तादिवसेन सोभाविरतो अस्थि । एवंभूता च निच्चं पुप्फितजलजथलजपुप्फताय, फलभारभरितरुक्खपरिवारितताय, अट्ठङ्गसमन्नागतसलिलताय च निरन्तरं सोभति ।
२८२. परिकम्पन्ति पुब्बुपचारं । परिसोधेत्वाति एकक्खरस्सापि अविराधनवसेन आचरियसन्तिके सब् सोधेत्वा । सुट्ठ उग्गहिताति परिमण्डलपदब्यञ्जनाय पोरिया वाचाय विस्सठ्ठाय अनेलगळाय अत्थस्स विज्ञापनीया सम्मदेव उग्गहिता। तथा हि “अत्थञ्च व्यञ्जनञ्च परिसोधेत्वा"ति वुत्तं । अत्थं जानतो एव हि ब्यञ्जनं परिसुज्झति, नो अजानतो। पदव्यञ्जनानीति पदञ्चेव ब्यञ्जनञ्च अहापेत्वा। एवहि परिपुण्णा नाम होतीति । विसंवादेत्वाति अञथा कत्वा। तेजवन्तं न होति विरज्झनतो चेव विम्हयत्थभावतो च। सब्बसोति अनवसेसतो आदिमज्झपरियोसानतो। तेजवन्तं होतीति सभावनिरुत्तिं अविराधेत्वा सुप्पवत्तिभावेन साधनतो। एवं पयोगविपत्तिं पहाय पयोगसम्पत्तिया सति परित्तस्स अत्थसाधकतं दस्सेत्वा इदानि अज्झासयविपत्तिं पहाय अज्झासयसम्पत्तिया अत्थसाधकतं दस्सेतुं “लाभहेतू'तिआदि वुत्तं । इदं परित्तभणनं सत्तानं अनत्थपटिबाहनहेतूति तस्स जाणकरुणापुब्बकता निस्सरणपक्खो। मेत्तं पुरेचारिकं कत्वाति मेत्तामनसिकारेन सत्तेसु हितफरणं पुरक्खत्वा ।
"वत्थु वा"तिआदि पुब्बे चतुपरिसमज्झे कताय साधनाय भगवतो पवेदनं । घरवत्थुन्ति वसनगेहं । निबद्धवासन्ति परगेहेपि नेवासिकभावेन वासं न लभेय्य, यं पन महाराजानं, यक्खसेनापतीनञ्च अजानन्तानंयेव कदाचि वसित्वा गमनं, तं अप्पमाणन्ति अधिप्पायो । समितिन्ति यक्खादिसमागमं । कामं पाळियं “न मे सो"ति आगतं, इतरेसम्पि पन महाराजानमत्तना एकज्झासयताय तेसम्पि अज्झासयं हदये ठपेत्वा वेस्सवणो तथा अवोच | कनं अनु अनु वहितुं अयुत्तो अनावरहो, सब्बकालं कनं लद्धं अयुत्तोति अत्थो, तं अनावरहं । तेनाह "न आवाहयुत्त"न्ति । न विवय्हन्ति अविवरहं, कजं गहेतुमयुत्तन्ति अत्थो । तेनाह "न विवाहयुत्त"न्ति । आहितो अहंमानो एत्थाति अत्ता, अत्तभावो । अत्ता विसयभूतो एतासं अत्थीति अत्ता, परिभासा, ताहि । परियत्तं कत्वा वचनेन परिपुण्णाहि। यथा यक्खा अक्कोसितब्बा, एवं पवत्ता अक्कोसा यक्खअक्कोसा नाम, तेहि। ते पन “कळारक्खि कळारदन्ता काळवण्णा"ति एवं आदयो ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(९.२८२-२८२)
विरुद्धाति विरुज्झनका परेहि विरोधिनो। रभसाति सारम्भकाति अधिप्पायो । तेनाह "करणुत्तरिया'ति । रभसाति वा साहसिका । सामिनो मनसो अस्सवाति मनस्सा, किङ्करा । ये हि “किं करोमि भद्दन्ते''ति सामिकस्स वसे वत्तन्ति, ते एवं वुच्चन्ति । तेन वुत्तं "यक्खसेनापतीनं ये मनस्सा, तेस"न्ति । आणाय अवरोधितुपचारा अवरुद्धा, ते पन आणावतो पच्चत्थिका नाम होन्तीति "पच्चामित्ता वेरिनो"ति वुत्तं । उज्झापेतब्बन्ति हेट्ठा कत्वा चिन्तापेतब्बं, तं पन उज्झापनं तेसं नीचकिरियाय जानापनं होतीति आह "जानापेतब्बा"ति।
परित्तपरिकम्मकथावण्णना __परित्तस्स परिकम्मं कथेतब्बन्ति आटानाटियपरित्तस्स परिकम्मं पुब्बुपचारट्ठानियं मेत्तसुत्तादि कथेतब्बं । एवहि तं लद्धासेवनं हुत्वा तेजवन्तं होति । तेनाह “पठममेव ही"तिआदि । पिटुं वा मंसं वाति वा-सद्दो अनियमत्थो, तेन मच्छघतसूपादि सङ्गण्हाति | ओतारं लभन्ति अत्तना पियायितब्बआहारवसेन पियायितब्बट्ठानवसेन च । “परित्त...पे०... निसीदितब्बन्ति इमिनाव परित्तकारकस्स भिक्खुनो परिसुद्धिपि इच्छितब्बाति दस्सेति।
"परित्तकारको...पे०... सम्परिवारितेना"ति इदं परित्तकरणे बाहिररक्खासंविधानं । "मेत्तचित्तं ...पे०... कातब्ब"न्ति इदं अब्भन्तररक्खा उभयतो रक्खासंविधानं । एवहि अमनुस्सा परित्तकरणस्स अन्तरायं कातुं न विसहन्ति । मङ्गलकथा वत्तब्बा पुब्बुपचारवसेन । सब्बसन्निपातोति तस्मिं विहारे, तस्मिं वा गामखेत्ते सब्बेसं भिक्खूनं सन्निपातो । घोसेतब्बो, “चेतियङ्गणे सब्बेहि सन्निपतितब्ब"न्ति । अनागन्तुं नाम न लब्भति अमनुस्सेन बुद्धाणाभयेन, राजाणाभयेन च । गहितकापदेसेन अमनुस्सोव पुच्छितो होतीति आह "अमनुस्सग्गहितको 'त्वं को नामा'ति पुच्छितब्बो"ति । मालागन्धादीसु पूजनत्थं विनियुञ्जियमानेसु । पत्तीति तुम्हं पत्तिदानं । पिण्डपाते पत्तीति पिण्डपाते दिय्यमाने पत्तिदानं । देवतानन्ति यक्खसेनापतीनं । परित्तं भणितब्बन्ति एत्थापि “मेत्तचित्तं पुरेचारिकं कत्वाति च “मङ्गलकथा वत्तब्बा''ति च “विहारस्स उपवने''ति एवमादि च सब्बं गिहीनं परित्तकरणे वुत्तं परिकम्म कातब्बमेव ।
सरीरे अधिमुच्चतीति सरीरं अनुपविसित्वा विय आविसन्तो यथा गहितकस्स वसेन न वत्तति, अत्तनो एव वसेन वत्तति, एवं अधिमुच्चति अधिट्ठहित्वा तिट्ठति । तेनाह
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(९.२८३-२८३)
परित्तपरिकम्मकथावण्णना
१४५
"आविसतीति तस्सेव वेवचन"न्ति । लग्गतीति तत्थेव लग्गो अल्लीनो होति । तेनाह "न अपेती"ति । रोगं वड्डेन्तोति धातूनं समभावेन वत्तितुं अप्पदानवसेन उप्पन्नं रोगं वड्डेन्तो । धातूनं विसमभावापत्तिया च आहारस्स च अरुच्चनेन गहितकस्स सरीरे लोहितं सुस्सति, मंसं मिलायति, तं पनस्स यक्खो धातुक्खोभनिमित्तताय करोन्तो विय होतीति वुत्तं “अप्पमंसलोहितं करोन्तो"ति ।
२८३. तेसं नामानि इन्दादिनामभावेन वोहरितब्बतो। ततोति ततो आरोचनतो परं । तेति यक्खसेनापतयो। ओकासो न भविस्सतीति भिक्खुभिक्खुनियो, उपासकउपासिकायो विहेठेतुं अवसरो न भविस्सति सम्मदेव आरक्खाय विहितत्ताति ।
आटानाटियसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना ।
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१०. सङ्गीतिसुत्तवण्णना
२९६. दससहस्सचक्कवाळेति बुद्धखेत्तभूते दससहस्सपरिमाणे चक्कवाळे । तत्थ हि इमस्मिं चक्कवाळे देवमनुस्सायेव कताधिकारा, इतरेसु देवा विसेसभागिनो । तेन वुत्तं "दससहस्सचक्कवाळे आणजालं पत्थरित्वा"ति । आणजालपत्थरणन्ति च तेसं तेसं सत्तानं आसयादिविभावनवसेन आणस्स पवत्तनमेव । तेनाह "लोकं वोलोकयमानो"ति, सत्तलोकं ब्यवलोकयमानो आसयानुसयचरिताधिमुत्तिआदिके विसेसतो ओगाहेत्वा पस्सन्तोति अत्थो । मङ्गलं भणापेस्सन्ति "तं तेसं आयतिं विसेसाधिगमस्स विज्जावानं हुत्वा दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सा''ति । तीहि पिटकेहि सम्मसित्वाति तिपिटकतो एककदुकादिना सङ्गहेतब्बस्स सङ्गण्हनवसेन सम्मसित्वा वीमंसित्वा । ञातुं इच्छिता अत्था पहा, ते पन इमस्मिं सुत्ते एककादिवसेन आगता सहस्सं, चुद्दस चाति आह "चुद्दसपञ्हाधिकेन पज्हसहस्सेन पटिमण्डेत्वा"ति । एवमिध सम्पिण्डेत्वा दस्सिते पञ्हे परतो सुत्तपरियोसाने “एककवसेन द्वे पञ्हा कथिता''तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० ३.३४९) विभागेन परिगणेत्वा सयमेव दस्सेस्सति ।।
उन्भतकनवसन्धागारवण्णना
२९७. उच्चाधिट्ठानताय तं सन्धागारं भूमितो उब्भतं वियाति "उन्भतक"न्ति नामं लभति। तेनाह "उच्चत्ता वा एवं वुत्त"न्ति । सन्धागारसालाति एका महासाला । उय्योगकरणादीसु हि राजानो तत्थ ठत्वा "एत्तका पुरतो गच्छन्तु, एत्तका पच्छा''तिआदिना तत्थ निसीदित्वा सन्धं करोन्ति मरियादं बन्धन्ति, तस्मा तं ठानं “सन्धागार'"न्ति वुच्चति । उय्योगट्ठानतो च आगन्त्वा याव गेहं गोमयपरिभण्डादिवसेन पटिजग्गनं करोन्ति, ताव एकं द्वे दिवसे ते राजानो तत्थ सन्थम्भन्तीतिपि सन्धागारं, तेसं राजूनं सह अत्थानुसासनअगारन्तिपि सन्धागारन्ति । यस्मा वा ते तत्थ सन्निपतित्वा
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(१०.२९८-२९९)
उब्भतकनवसन्धागारवण्णना
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"इमस्मिं काले कसितुं वट्टति, इमस्मिं कालेवपितु"न्तिआदिना घरावासकिच्चं सन्धरन्ति, तस्मा छिद्दावछिदं घरावासं तत्थ सन्धरन्तीतिपि सन्धागारं, सा एव सालाति सन्धागारसाला। देवताति घरदेवता । निवासवसेन अनज्झावुत्थत्ता "केनचि वा मनुस्सभूतेना"ति वुत्तं । कम्मकरणवसेन पन मनुस्सा तत्थ निसज्जादीनि कप्पेसुमेव | “सयमेव पन सत्थु इधागमनं अम्हाकं पुञवसेनेव, अहो मयं पुचवन्तो''ति हट्टतुट्ठा एवं सम्मा चिन्तेसुन्ति दस्सेन्तो "अम्हेही"तिआदिमाह।
२९८. अट्टकाति चित्तकम्मकरणत्थं बद्धा मञ्चका । मुत्तमत्ताति तावदेव सन्धागारे नवकम्मस्स निट्ठापितभावमाह, तेन “अचिरकारित"न्तिआदिना वुत्तमेवत्थं विभावेति । अरञ्ज आरामो आरमितब्बट्टानं एतेसन्ति अरञआरामा। सन्थरणं सन्थरि, सब्बो सकलो सन्थरि एत्थाति सब्बसन्थरि, भावनपुंसकनिद्देसोयं । तेनाह “यथा सबं सन्थतं होति, एव"न्ति ।
२९९. समन्तपासादिकोति समन्ततो सब्बभागेन पसादावहो चातुरियसो । “असीतिहत्थं ठानं गण्हाती"ति इदं बुद्धानं कायप्पभाय पकतिया असीतिहत्थे ठाने अभिब्यापनतो वुत्तं । इद्धानुभावेन पन अनन्तं अपरिमाणं ठानं विज्जोततेव । नीलपीतलोहितोदातमञ्जठ्ठपभस्सरवसेन छब्बण्णा। सब्बे दिसाभागाति सरीरप्पभाय बाहुल्लतो वुत्तं ।
अब्भमहिकादीहि उपक्किलिटुं सुखं न सोभति, तारकाचितं पन अन्तलिक्खं तासं पभाहि समन्ततो विज्जोतमानं विरोचतीति आह "समुग्गततारकं विय गगनतल"न्ति । सब्बपालिफुल्लोति मूलतो पट्ठाय याव साखग्गा फुल्लो । “पटिपाटियाठपितान"न्तिआदि परिकप्पूपमा । तथा हि विय-सद्दग्गहणं कतं । सिरिया सिरिं अभिभवमानं वियाति अत्तनो सोभाय तेसं सोभन्ति अत्थो । “भिक्खूपि सब्बेवा"ति इदं नेसं “अप्पिच्छा"तिआदिना वुत्तगुणेसु लोकियगुणानं वसेन योजेतब्बं । न हि ते सब्बेव दसकथावत्थुलाभिनो । तेन वुत्तं “सुत्तन्तं आवज्जेत्वा...पे०... अरहत्तं पापुणिस्सन्ती"ति (दी० नि० अट्ठ० ३.२९६) । तस्मा ये तत्थ अरिया, ते सब्बेसम्पि पदानं वसेन बोधिता होन्ति । ये पन पुथुज्जना, ते लोकियगुणदीपकेहि पदेहीति न तथा हेट्टा “असीतिमहाथेरा''तिआदि वुत्तं । पुब्बे अरहत्तभागिनो गहिता ।
रूपकायस्स
असीतिअनुब्यञ्जन-पटिमण्डित-द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खण
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दीघनिकाये पाधिकवग्गटीका
कायप्पभाब्यामप्पभाकेतुमालाविचित्तताव (दी० नि० २.३३; ३.२००; म० नि० २.३८५) बुद्धवेसो । छब्बण्णा बुद्धरस्मियो विस्सज्जेन्तस्स भगवतो कायस्स आलोकितविलोकितादीसु परमुक्कंसगतो बुद्धावेणिको अच्चन्तुपसमो बुद्धविलासो । अस्सन्ति तस्सं ।
सन्धागारानुमोदनपटिसंयुत्ताति "सीतं उण्हं पटिहन्ती' 'तिआदिना (चूळव० २९५, ३१५) नयेन सन्धागारगुणूपसञ्हिता सन्धागारकरणपुञ्ञनिसंसभाविनी । पकिण्णककथा सङ्गीतिअनारुळहा सुणन्तानं अज्झासयानुरूपताय विविधविपुलहेतूपमासमालङ्कता नानानयविचित्ता वित्थारकथा । तेनाह " तदा ही "तिआदि । आकासग ओतारेन्तो विय
( १०.३००-३०० )
निरुपक्किलेसताय सुविसुद्धेन, विपुलोदारताय अपरिमेय्येन च अत्थेन सुणन्तानं कायचित्तपरिळाहवूपसमनतो । पथवोजं आकडन्तो विय असं सुदुक्करताय, महासारताय वा अत्थस्स | महाजम्बुं मत्थके गहेत्वा चालेन्तो विय चालनपच्चयट्ठानवसेन पुब्बेनापरं अनुसन्धानतो । योजनिय... पे०... पायमानो विय देसनं चतुसच्चयन्ते पक्खिपित्वा अत्थवेदधम्मवेदस्सेव लभापनेन सातमधुरधम्मामतरसूपसंहरणतो । मधुगण्डन्ति मधुपटलं ।
३००. “तुण्हीभूतं तुण्हीभूत "न्ति ब्यापनिच्छायं इदं आमेडितवचनन्ति दस्सेतुं “यं यन्दिसन्ति आदि वृत्तं । अनुविलोकेत्वाति एत्थ अनु-सद्दो "परी" ति इमिना समानत्थो, विलोकनञ्चेत्थ सत्थु चक्खुद्वयेनपि इच्छितब्बन्ति “मंसचक्खुना... पे०... ततो ततो विलोकेत्वा”ति सङ्क्षेपतो वत्वा तमत्थं वित्थारतो दस्सेतुं “मंसचक्खुना ही "तिआदि वृत्तं । हत्थेन कुच्छितं कतं हत्थकुक्कुच्चं कुकतमेव कुक्कुच्चन्ति कत्वा । एवं पादकुक्कुच्चं दट्ठब्बं । निच्चला निसीदिंसु अत्तनो सुविनीतभावेन, बुद्धगारवेन च । “आलोकं पन वड्डयित्वा”तिआदि कदाचि भगवा एवम्पि करोतीति अधिप्पायेन वुत्तं । न हि सत्थु सावकानं विय एवं पयोगसम्पादनीयमेतं त्राणं । तिरोहितविदूरवत्तनिपि रूपगते मंसचक्खुनो पवत्तिया इच्छितत्ता वीमंसितब्बं । अरहन्तुपगं अरहत्तपदट्ठानं । चक्खुतलेसु निमित्तं ठपेत्वाति भावनानुयोगसम्पत्तिया सब्बेसं तेसं भिक्खूनं चक्खुतलेसु लब्भमानं सन्तिन्द्रियविगतथिनमिद्धताकारसङ्घातं निमित्तं अत्तनो हदये ठपेत्वा सल्लक्खेत्वा । कस्मा आगिलायति कोटिसतसहस्सहत्थिनागानं बलं धारेन्तस्साति चोदकस्स अधिप्पायो । आचरियो एस सङ्घारानं सभावो, यदिदं अनिच्चता । ये पन अनिच्चा, ते एकन्तेनेव उदयवयपटिपीळितताय दुक्खा एव, दुक्खसभावेसु तेसु सत्थु काये दुक्खुप्पत्तिया अयं
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(१०.३०१-३०३)
भिन्ननिगण्ठवत्थुवण्णना
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पच्चयोति दस्सेतुं “भगवतो ही"तिआदि वुत्तं । पिढिवातो उप्पज्जि, सो च खो पुब्बे कतकम्मपच्चया । स्वायमत्थो परमत्थदीपनियं उदानट्ठकथायं आगतनयेनेव वेदितब्बो ।
भिन्ननिगण्ठवत्थुवण्णना ३०१. हेट्ठा वुत्तमेव पासादिकसुत्तवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० ३.१६४) ।
३०२. स्वाख्यातं धम्मं देसेतुकामोति स्वाख्यातं कत्वा धर्म कथेतुकामो, सत्थारा वा स्वाख्यातं धम्मं सयं भिक्खून कथेतुकामो | सत्थारा देसितधम्ममेव हि ततो ततो गहेत्वा सावका सब्रह्मचारीनं कथेन्ति ।
एककवण्णना
३०३. समग्गेहि भासितब्बन्ति अञमधे समग्गेहि हुत्वा भासितब्बं, सज्झायितब्बञ्चेव वण्णेतब्बञ्चाति अत्थो । यथा पन समग्गेहि सङ्गायनं होति, तम्पि दस्सेतुं "एकवचनेही"तिआदि वुत्तं । एकवचनेहीति विरोधाभावेन समानवचनेहि । तेनाह "अविरुद्धवचनेही 'तिआदि। सामग्गिरसं दस्सेतुकामोति यस्मिं धम्मे सङ्गायने सामग्गिरसानुभवनं इच्छितं देसनाकुसलताय, तत्थ एककदुकतिकादिवसेन बहुधा सामग्गिरसं दस्सेतुकामो। सब्बे सत्ताति अनवसेसा सत्ता, ते पन भवभेदतो सङ्केपेनेव भिन्दित्वा दस्सेन्तो "कामभवादीसू"तिआदिमाह । ब्यधिकरणानम्पि बाहिरत्थसमासो होति यथा "उरसिलोमो''ति आह “आहारतो ठिति एतेसन्ति आहारद्वितिका"ति । तिठ्ठति एतेनाति ठिति, आहारो ठिति एतेसन्ति आहारद्वितिकाति एवं वा एत्थ समासविग्गहो दट्ठब्बो । आहारहितिकाति पच्चयट्ठितिका, पच्चयायत्तवुत्तिकाति अत्थो । पच्चयत्थो हेत्थ आहार-सद्दो "अयं आहारो अनुप्पन्नस्स वा कामच्छन्दस्सउप्पादाया''तिआदीसु (सं० नि० ३.५.१८३, २३२) विय । एवहि “सब्बे सत्ता"ति इमिना असञ्जसत्तापि परिग्गहिता होन्ति । सा पनायं आहारट्ठितिकता निप्परियायतो सङ्खारधम्मो, न सत्तधम्मो। तेनेवाहु अट्ठकथाचरिया "सब्बे सत्ता आहारहितिकाति आगतट्ठाने सङ्घारलोको वेदितब्बो''ति (विसुद्धि० १.१३६; पारा० अट्ठ० वेरञ्जकण्डवण्णना; उदा० अट्ठ० ३०; चूळनि० अट्ठ० ६५; उदान० अट्ट० १८६) यदि एवं “सब्बे सत्ता''ति इदं कथन्ति ? पुग्गलाधिट्टाना देसनाति नायं दोसो । यथाह भगवा “एकधम्मे भिक्खवे भिक्खु सम्मा निबिन्दमानो सम्मा विरज्जमानो
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(१०.३०३-३०३)
सम्मा विमुच्चमानो सम्मा परियन्तदस्सावी सम्मत्तं अभिसमेच्च दिट्ठेव धम्मे दुक्खस्सन्तकरो होति, कतमस्मिं एकधम्मे ? सब्बे सत्ता आहारट्ठितिका ति (अ० नि० ३.१०.२७) एको धम्मोति "सब्बे सत्ता आहारट्ठतिका ति य्वायं पुग्गलाधिट्ठानाय कथाय सब्बेसं सङ्घारानं पच्चयायत्तवृत्तिताय आहारपरियायेन सामञ्ञतो पच्चयधम्मो वुत्तो, अयं आहारो नाम एको धम्मो । याथावतो ञत्वाति यथासभावतो अभिसम्बुज्झित्वा । सम्मदक्खातोति तेनेव अभिसम्बुद्धाकारेन सम्मदेव देसितो ।
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
चोदको वुत्तम्पि अत्थं याथावतो अप्पटिपज्जमानो नेय्यत्थं सुत्तपदं नीतत्थतो दहन्तो "सब्बे सत्ता "ति वचनमत्ते ठत्वा " ननु चा "तिआदिना चोदेति । आचरियो अविपरीतं तत्थ यथाधिप्पेतमत्थं पवेदेन्तो “न विरुज्झती "ति वत्वा " तेसहि झानं आहारो होती' 'ति आह । झानन्ति एकवोकारभवावहं सञ्ञाय विरज्जनवसेन पवत्तं रूपावचरचतुत्थज्झानं । पाळियं पन " अनाहारा "ति वचनं असञ्ञभवे चतुन्नं आहारानं अभावं सन्धाय वुत्तं, न पच्चयाहारस्स अभावतो । “ एवं सन्तेपी "ति इदं सासने येसु धम्मेसु विसेसतो आहार -सद्दो निरुळ्हो, “आहारट्ठितिका ति एत्थ यदि ते एव गय्हन्ति, अब्यापितदोसो आपन्नो । अथ सब्बोपि पच्चयधम्मो आहारोति अधिप्पेतो, इमाय आहारपाळिया विरोधो आपन्नोति दस्सेतुं आरद्धं । "न विरुज्झती 'ति येनाधिप्पायेन वुत्तं तं विवरन्तो “ एतस्मिञ्हि सुत्ते" तिआदिमाह । कबळीकाराहारादीनं ओजट्ठमकरूपाहरणादि निप्परियायेन आहारभावो । यथा हि कबळीकाराहारो ओजट्ठमकरूपाहरणेन रूपकायं उपत्थम्भेति, एवं फस्सादयो च वेदनादिआहरणेन नामकायं उपत्थम्भेन्ति, तस्मा सतिपि जनकभावे उपत्थम्भकभावो ओजादीसु सातिसयो लब्भमानो मुख्यो आहारट्ठोति ते एव निप्परियायेन आहारलक्खणा धम्मात्ता | इधाति इमस्मिं सङ्गीतिसुत्ते । परियायेन पच्चयो आहारोति वृत्तो सब्बो पच्चयो धम्मो अत्तनो फलं आहरतीति इमं परियायं लभतीति । तेनाह “ सब्बधम्मानही "तिआदि । तत्थ सब्बधम्मानन्ति सब्बेसं सङ्खतधम्मानं । इदानि यथावुत्तमत्थं सुत्तेन (अ० नि० ३.१०.६१) समत्थेतुं " तेनेवाहा "तिआदि वृत्तं । अयन्ति पच्चयाहारो ।
निप्परियायाहारोपि गहितोव होति यावता सोपि पच्चयभावेनेव जनको, उपत्थम्भको च हुत्वा तं तं फलं आहरतीति वत्तब्बतं लभतीति । तत्थाति परियायाहारो, निप्परियायाहारोति द्वीसु आहारेसु । असञ्ञभवे यदिपि निप्परियायाहारो न लब्भति, पच्चयाहारो पन लब्भति परियायाहारलक्खणो । इदानि इममेवत्थं वित्थारेन दस्सेतुं " अनुप्पन्ने हि बुद्धे "तिआदि वृत्तं । उप्पन्ने बुद्धे तित्थकरमतनिस्सितानं झानभावनाय असिज्झतो
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(१०.३०३-३०३)
एककवण्णना
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"अनुप्पन्ने बुद्धे"ति वुत्तं । सासनिका तादिसं झानं न निब्बत्तेन्तीति "तित्थायतने पब्बजिता"ति वुत्तं । तित्थिया हि उपत्तिविसेसे विमुत्तिसञिनो, अञआविरागाविरागेसु आदीनवानिसंसदस्सिनो वा हुत्वा असञसमापत्तिं निब्बत्तेत्वा अक्खणभूमियं उप्पज्जन्ति, न सासनिका। वायोकसिणे परिकम्मं कत्वाति वायोकसिणे पठमादीनि तीणि झानानि निब्बत्तेत्वा ततियज्झाने चिण्णवसी हुत्वा ततो वुट्ठाय चतुत्थज्झानाधिगमाय परिकम्म कत्वा । तेनाह "चतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा"ति। कस्मा पनेत्थ वायोकसिणेयेव परिकम्म वुत्तन्ति ? यदेत्थ वत्तब्ध, तं ब्रह्मजालटीकायं (दी० नि० टी० १.४१) वित्थारितमेव । धीति जिगुच्छनत्थे निपातो, तस्मा धी चित्तन्ति चित्तं जिगुच्छामीति अत्थो। धिब्बतेतं चित्तन्ति एतं मम चित्तं जिगुच्छितं वत होतु । वताति सम्भावने, तेन जिगुच्छं सम्भावेन्तो वदति । नामाति च सम्भावने एव, तेन चित्तस्स अभावं सम्भावेति । चित्तस्स भावाभावेसु आदीनवानिसंसे दस्सेतुं "चित्तही"तिआदि वुत्तं । खन्तिं रुचिं उप्पादेत्वाति “चित्तस्स अभावो एव साधु सुदृ"ति इमं दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिं, तत्थ च अभिरुचिं उप्पादेत्वा ।
तथा भावितस्स झानस्स ठितिभागियभावप्पत्तिया अपरिहीनज्झानस्स तित्थायतने पब्बजितस्सेव तथा झानभावना होतीति आह "मनुस्सलोके"ति । पणिहितो अहोसीति मरणस्स आसन्नकाले ठपितो अहोसि । यदि ठानादिना आकारेन निब्बत्तेय्य, कम्मबलेन याव भेदा तेनेवाकारेन तिट्टेय्य वाति आह “सो तेन इरियापथेना"तिआदि ।
एव रूपानम्पीति एवं अचेतनानम्पि | पि-सद्देन पगेव सचेतनानन्ति दस्सेति । कथं पन अचेतनानं नेसं पच्चयाहारस्स उपकप्पनन्ति चोदनं सन्धाय तत्थ निदस्सनं दस्सेन्तो “यथा"तिआदिमाह ।
ये उट्ठानवीरियेनेव दिवसं वीतिनामेत्वा तस्स निस्सन्दफलमत्तं किञ्चिदेव लभित्वा जीविकं कप्पेन्ति, ते उद्यानफलूपजीविनो। ये पन अत्तनो पुञफलमेव उपजीवेन्ति, ते पुञफलूपजीविनो। नेरयिकानं पन नेव उट्ठानवीरियवसेन जीविकाकप्पनं, पुञफलस्स पन लेसोपि नत्थीति वुत्तं "ये पन ते नेरयिका...पे०... न पुञफलूपजीवीति वुत्ता"ति । पटिसन्धिविज्ञाणस्स आहरणेन मनोसञ्चेतनाहारोति वुत्ता, न यस्स कस्सचि फलस्साति अधिप्पायेन "किं पञ्च आहारा अत्थी"ति चोदेति । आचरियो निप्परियायाहारे अधिप्पेते सिया तव चोदनायावसरो, सा पन एत्थ अनवसराति दस्सेतुं “पञ्च न पञ्चाति इदं न वत्तब्बन्ति वत्वा परियायाहारस्सेव पनेत्थ अधिप्पेतभावं दस्सेन्तो "ननु पच्चयो
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०३-३०३)
आहारोति वुत्तमेत"न्ति आह । तस्माति यस्स कस्सचि पच्चयस्स “आहारो''ति इच्छितत्ता । इदानि वुत्तमेवत्थं पाळिया समत्थेन्तो "यं सन्धाया"तिआदिमाह |
___ मुख्याहारवसेनपि नेरयिकानं आहारहितिकतं दस्सेतुं "कबळीकारं आहारं...पे०... साधेती"ति वुत्तं । यदि एवं नेरयिका सुखपटिसंवेदिनोपि होन्तीति ? नोति दस्सेतुं "खेळोपि ही"तिआदि वुत्तं। तयोति तयो अरूपाहारा कबळीकाराहारस्स अभावतो । अवसेसानन्ति असञ्जसत्तेहि अवसेसानं । कामभवादीसु निब्बत्तसत्तानं पच्चयाहारो हि सब्बेसं साधारणोति । एतं पहन्ति “कतमो एको धम्मोति एवं चोदितमेतं पञ्हं । कथेत्वाति विस्सज्जेत्वा ।
"तत्थ तत्थ...पे०... दुक्खं होती"ति एतेन यथा इध पठमस्स पहस्स निय्यातनं, दुतियस्स उद्धरणं न कतं, एवं इमिना एव अधिप्पायेन इतो परेसु दुकतिकादिपञ्हेसु तत्थ तत्थ आदिपरियोसानेसु एव उद्धरणनिय्यातनानि कत्वा सेसेसु न कतन्ति दस्सेति । पटिच्च एतस्मा फलं एतीति पच्चयो, कारणं, तदेव अत्तनो फलं सङ्घरोतीति सङ्घारोति आह "इमस्मिम्पि...पे०... सकारोति वुत्तो"ति । आहारपच्चयोति आहरणट्ठविसिट्ठो पच्चयो। आहरणञ्चेत्थ उप्पादकत्तप्पधानं, सङ्घरणं उपत्थम्भकत्तप्पधानन्ति अयमेतेसं विसेसो। तेनाह "अयमेत्थ हेट्ठिमतो विसेसो"ति । निप्परियायाहारे गहिते “सब्बे सत्ता"ति वुत्तेपि असञ्जसत्ता न गहिता एव भविस्सन्तीति पदेसविसयो सब्ब-सद्दी होति यथा “सब्बे तसन्तिदण्डस्सा"तिआदीसु (ध० प० १३०)। न हेत्थ खीणासवादीनं गहणं होति | पाकटो भवेय्य विसेससामञ्जस्स विसयत्ता पञ्हानं । नो च गहिंसु अट्ठकथाचरिया | धम्मो नाम नत्थि सङ्घतोति अधिप्पायो। इध दुतियपज्हे “सङ्घारो''ति पच्चयो एव कथितोति सम्बन्धो।
यदा सम्मासम्बोधिसमधिगतो, तदा एव सब्बञव्यं सच्छिकतं जातन्ति आह "महाबोधिमण्डे निसीदित्वा"ति। सयन्ति सामंयेव । अद्धनियन्ति अद्धानक्खमं चिरकालावट्ठायि पारम्परियवसेन। तेनाह "एकेन ही"तिआदि । परम्परकथानियमेनाति परम्परकथाकथननियमेन, नियमितत्थव्यञ्जनानुपुब्बिया कथायाति अत्थो । एककवसेनाति एकं एकं परिमाणं एतस्साति एकको, पहो। तस्स एककस्स वसेन । एककं निद्वितं विस्सज्जनन्ति अधिप्पायोति।
एककवण्णना निहिता।
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( १०.३०४ - ३०४)
दुकवण्णना
दुकवण्णना
३०४. चत्तारो खन्धाति तेसं ताव नामनट्टेन नामभावं पठमं वत्वा पच्छा निब्बानस्स वत्तुकामो आह । तस्सापि हि तथा नामभावं परतो वक्खति । “नामं करोति नामयतीति एत्थ यं नामकरणं, तं नामन्ति आह “नामनट्टेनाति नामकरणट्टेना "ति, अत्तनोवाति अधिप्पायो । एवहि सातिसयमिदं तेसं नामकरणं होति । तेनाह “अत्तनो नामं करोन्ताव उप्पज्जन्ती "तिआदि । इदानि तमत्थं व्यतिरेकमुखेन विभावेतुं " यथा ही "तिआदि वृत्तं । यस्स नामस्स करणेनेव ते " नाम "न्ति वुच्चन्ति तं सामञ्ञनामं, कित्तिमनामं, गुणनामं वा न होति, अथ खो ओपपातिकनामन्ति पुरिमानि तीणि नामानि उदाहरणवसेन दस्सेत्वा "न एवं वेदनादीन "न्ति ते पटिक्खिपित्वा इतरनाममेव नामकरणट्टेन नामन्ति दस्सेन्तो “वेदनादयो ही "तिआदिमाह । " महापथविआदयो 'ति कस्मा वुत्तं, ननु पथविआपादयो इध नामन्ति अनधिप्पेता, रूपन्ति पन अधिप्पेताति ? सच्चमेतं, फसवेदनादीनं विय पन पथविआदीनं ओपपातिकनामतासामञ्जेन “पथविआदयो विया "ति निदस्सनं कतं, न अरूपधम्मा विय रूपधम्मानं नामसभावत्ता | फरसवेदनादीनहि 'अरूपधम्मानं सब्बदापि फस्सादिनामकत्ता, पथविआदीनं केसकुम्भादिनामन्तरापत्ति विय नामन्तरानापज्जनतो च सदा अत्तनाव चतुक्खन्धनिब्बानानि नामकरणट्टेन नामं । अथ वा अधिवचनसम्फस्सो विय अधिवचननाममन्तरेन ये अनुपचितसम्भारानं गहणं न गच्छन्ति, ते नामायत्तग्गहणा नामं । रूपं पन विनापि नामसाधनं अत्तनो रुप्पनसभावेन गहणं उपयातीति रूपं । तेनाह “तेसु उप्पन्नेसू”तिआदि । इधापि " यथापथविया 'तिआदीसु वुत्तनयेनेव अत्थो वेदितब्बो निदस्सनवसेन आगतत्ता । "अतीतेपी" तिआदिना वेदनादीसु नामसञ्ञ निरुळ्हा, अनादिकालिका चाति दस्सेति ।
कतनामताय
इति अतीतादिविभागवन्तानम्पि वेदनादीनं नामकरणट्टेन नामभावो एकन्तिको, तब्बिभागरहिते पन एकसभावे निच्चे निब्बाने वत्तब्बमेव नत्थीति दस्सेन्तो " निब्बानं पन... पे०... नामनट्टेन नाम "न्ति आह । नामनद्वेनाति नामकरणट्ठेन । नमन्तीति एकन्ततो सारम्मणत्ता तन्निन्ना होन्ति, तेहि विना नप्पवत्तन्तीति अत्थो । सब्बन्ति खन्धचतुक्कं, निब्बानञ्च । यस्मिं आरम्मणेयेव वेदनाक्खन्धो पवत्तति, तंसम्पयुत्तताय सञक्खन्धादयोपि तत्थ पवत्तन्तीति सो ने तत्थ नामेन्तो विय होति विना अप्पवत्तनतो । एस नयो सञ्ञाक्खन्धादीसुपीति वुत्तं "आरम्म अञ्ञमञ्ञ नामेन्तीति । अनवज्जधम्मे
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०४-३०४)
मग्गफलादिके। कामं केसुचि रूपधम्मेसुपि आरम्मणाधिपतिभावो लब्भतेव, निब्बाने पनेस सातिसयो तस्स अच्चन्तसन्तपणीतताकप्पभावतोति तदेव आरम्मणाधिपतिपच्चयताय "अत्तनि नामेतीति वुत्तं । तथा हि अरिया सकलम्पि दिवसभागं तं आरब्भ वीतिनामेन्तापि तित्तिं न गच्छन्ति ।
"रुप्पनटेना"ति एतेन रुप्पतीति रूपन्ति दस्सेति । तत्थ सीतादिविरोधिपच्चयसन्निपाते विसदिसुप्पत्ति रुप्पनं। ननु च अरूपधम्मानम्पि विरोधिपच्चयसमागमे विसदिसुप्पत्ति लब्भतीति ? सच्चं लब्भति, न पन विभूततरं । विभूततरव्हेत्थ रुप्पनं अधिप्पेतं सीतादिग्गहणतो। वुत्तज्हेतं “रुप्पतीति खो भिक्खवे तस्मा 'रूप'न्ति वुच्चति । केन रुप्पति ? सीतेनपि रुप्पति, उण्हेनपि रुप्पती"तिआदि (सं० नि० २.३.७९) । यदि एवं कथं ब्रह्मलोके रूपसमझाति ? तत्थापि तंसभावानतिवत्तनतो . होतियेव रूपसमा । अनुग्गाहकपच्चयवसेन वा विसदिसपच्चयसन्निपातेति एवमत्थो वेदितब्बो । “यो अत्तनो सन्ताने विज्जमानस्सयेव विसदिसुप्पत्तिहेतुभावो, तं रुप्पन"न्ति अर्छ । इमस्मिं पक्खे रूपयति विकारमापादेतीति रूपं। “सङ्घट्टनेन विकारापत्तियं रुप्पन-सद्दो निरुळहो''ति केचि । एतस्मिं पक्खे अरूपधम्मेसु रूपसमझाय पसङ्गो एव नत्थि सङ्घटनाभावतो । “पटिघतो रुप्पन"न्ति अपरे । "तस्साति रूपस्सा''ति वदन्ति, नामरूपस्साति पन युत्तं । यथा हि रूपस्स, एवं नामस्सापि वेदनाक्खन्धादिवसेन, मदनिम्मदनादिवसेन च वित्थारकथा विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० २.४५६) वुत्ता एवाति । इति अयं दुको कुसलत्तिकेन सङ्गहिते सभावधम्मे परिग्गहेत्वा पवत्तोति ।
अविज्जाति अविन्दियं “अत्ता, जीवो, इत्थी, पुरिसो"ति एवमादिकं विन्दतीति अविज्जा। विन्दियं “दुक्खं, समुदयो'"ति एवमादिकं न विन्दतीति अविज्जा। सब्बम्पि धम्मजातं अविदितकरणद्वैन अविज्जा। अन्तरहिते संसारे सत्ते जवापेतीति अविज्जा । अत्थतो पन सा दुक्खादीनं चतुन्नं सच्चानं सभावच्छादको सम्मोहो होतीति आह “दुक्खादीसु अज्ञाण"न्ति । भवपत्थना नाम कामभवादीनं पत्थनावसेन पवत्ततण्हा । तेनाह “यो भवेसु भवच्छन्दो"तिआदि । इति “अयं दुको वट्टमूलसमुदाचारदस्सनत्थं गहितो।।
भवदिट्ठीति खन्धपञ्चकं “अत्ता च लोको चा"ति गाहेत्वा तं "भविस्सती"ति गण्हनवसेन निविठ्ठा सस्सतदिट्ठीति अत्थो । तेनाह "भवो बुच्चती"तिआदि । भविस्सतीति भवो, तिट्ठति सब्बकालं अस्थीति अत्थो । सस्सतन्ति सस्सतभावो । विभवदिट्ठीति
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(१०.३०४-३०४)
दुकवण्णना
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खन्धपञ्चकमेव “अत्ता''ति च “लोको''ति च गहेत्वा तं “न भविस्सती"ति गण्हनवसेन निविठ्ठा उच्छेददिट्ठीति अत्थो । तेनाह "विभवो बुच्चती"तिआदि । विभविस्सति विनस्सति उच्छिज्जतीति विभवो, उच्छेदो ।
यं न हिरीयतीति येन धम्मेन तंसम्पयुत्तधम्मसमूहो, पुग्गलो वा न हिरीयति न लज्जति, लिङ्गविपल्लासं वा कत्वा यो धम्मोति अत्थो वेदितब्बो । हिरीयितब्बेनाति उपयोगत्थे करणवचनं, हिरीयितब्बयुत्तकं कायदुच्चरितादिधम्मं न जिगुच्छतीति अत्थो । निल्लज्जताति पापस्स अजिगुच्छना। यं न ओत्तप्पतीति एत्थापि वुत्तनयेनेव अत्थो वेदितब्बो। ओत्तप्पितब्बेनाति पन हेतुअत्थे करणवचनं, ओत्तप्पितब्बयुत्तकेन ओत्तप्पस्स हेतुभूतेन कायदुच्चरितादिनाति अत्थो। हिरीयितब्बेनाति एत्थापि वा एवमेव अत्थो वेदितब्बो । अभायनकआकारोति पापतो अनुत्तासनाकारो।
"यं हिरीयती"तिआदीसु अनन्तरदुके वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो। नियकज्झत्तं जातिआदिसमुट्ठानं एतिस्साति अज्झत्तसमुट्ठाना। नियकज्झत्ततो बहिभावतो बहिद्धा परसन्ताने समुट्ठानं एतिस्साति बहिद्धा समुट्ठाना। अत्ता एव अधिपति अत्ताधिपति, अज्झत्तसमुट्ठानत्ता एव अत्ताधिपतितो आगमनतो अत्ताधिपतेय्या। लोकाधिपतेय्यन्ति एत्थापि एसेव नयो । लज्जासभावसण्ठिताति पापतो जिगुच्छनरूपेन अवट्ठिता। भयसभावसण्ठितन्ति ततो उत्तासनरूपेन अवट्ठितं । अज्झत्तसमुट्टानादिता च हिरोत्तप्पानं तत्थ तत्थ पाकटभावेन वुत्ता, न पन तेसं कदाचिपि अञमञविप्पयोगतो । न हि लज्जनं निब्भयं, पापभयं वा अलज्जनं अत्थीति ।
___ दुक्खन्ति किच्छं, अनिट्ठन्ति वा अत्थो । विप्पटिकूलगाहिम्हीति धम्मानुधम्मपटिपत्तिया विलोमगाहके । तस्सा एव विपच्चनीकं दुप्पटिपत्ति सातं इष्टुं एतस्साति विपच्चनीकसातो, तस्मिं विपच्चनीकसाते। एवंभूतो च ओवादभूते सासनक्कमे ओवादके च आदरभावरहितो होतीति आह "अनादरे"ति । तस्स कम्मन्ति तस्स दुब्बचस्स पुग्गलस्स अनादरियवसेन पवत्तचेतना दोवचस्सं। तस्स भावोति तस्स यथावुत्तस्स दोवचस्सस्स अस्थिभावो दोवचस्सता, अस्थतो दोवचस्समेव । तेनेवाह “सा अत्थतो सङ्घारक्खन्धो होती"ति | चेतनाप्पधानताय हि सङ्घारक्खन्धस्स एवं वुत्तं । एतेनाकारेनाति अप्पदक्खिणग्गाहिताकारेन । अस्सद्धियदुस्सील्यादिपापधम्मयोगतो पुग्गला पापा नाम होन्तीति दस्सेतुं "ये ते पुग्गला अस्सद्धा"तिआदि वुत्तं । याय चेतनाय पुग्गलो पापसम्पवको नाम होति, सा चेतना
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०४-३०४)
पापमित्तता, चत्तारोपि वा अरूपिनो खन्धा तदाकारप्पवत्ता पापमित्तताति दस्सेन्तो "सापि अत्थतो दोवचस्सता विय दट्टब्बा"ति आह ।
“सुखं वचो एतस्मिं पदक्खिणग्गाहिम्हि अनुलोमसाते सादरे पुग्गलेति सुब्बचोतिआदिना, “कल्याणा सद्धादयो पुग्गला एतस्स मित्ताति कल्याणमित्तो'तिआदिना च अनन्तरदुकस्स अत्थो इच्छितोति आह सोवचस्सता...पे०... वृत्तपटिपक्खनयेन वेदितब्बा"ति । उभोति सोवचस्सता, कल्याणमित्तता च । तेसं खन्धानं पवत्तिआकारविसेसा "सोवचस्सता, कल्याणमित्तता''ति च वुच्चन्ति, ते लोकियापि होन्ति लोकुत्तरापीति आह "लोकियलोकुत्तरमिस्सका कथिता"ति।।
वत्थुभेदादिना अनेकभेदभिन्ना तंतंजातिवसेन एकज्झं कत्वा रासितो गव्हमाना आपत्तियोव आपत्तिक्खन्धा। ता पन अन्तरापत्तीनं अग्गहणे पञ्चपि आपत्तिक्खन्धा आपत्तियो, तासं पन गहणे सत्तपि आपत्तिक्खन्धा आपत्तियो। “इमा आपत्तियो, एत्तका आपत्तियो, एवञ्च तेसं आपज्जनं होती"ति जाननपञा आपत्तिकुसलताति आह “या तास"न्तिआदि । तासं आपत्तीनन्ति तासु आपत्तीसु । तत्थ यं सम्भिन्नवत्थुकासु विय ठितासु, दुविद्येय्यविभागासु च आपत्तीसु असङ्करतो ववत्थान, अयं विसेसतो आपत्तिकुसलताति दस्सेतुं दुतियं आपत्तिग्गहणं कतं । सह कम्मवाचायाति कम्मवाचाय सहेव । आपत्तितो वुढापनपयोगताय कम्मभूता वाचा कम्मवाचा, तथाभूता अनुसावनवाचा चेव “पस्सिस्सामी"ति एवं पवत्तवाचा च । ताय कम्मवाचाय सद्धिं समकालमेव “इमाय कम्मवाचाय इतो आपत्तितो वुट्टानं होति, होन्तञ्च पठमे वा ततिये वा अनुसावनेय्यकारप्पत्ते, 'संवरिस्सामी'ति वा पदे परियोसिते होती'ति एवं तं तं आपत्तीहि बुढानपरिच्छेदपरिजाननपञ्जा आपत्तिवुट्ठानकुसलता । वुटानन्ति च यथापन्नाय आपत्तिया यथा तथा अनन्तरायतापादनं, एवं वुढानग्गहणेनेव देसनायपि सङ्गहो सिद्धो होति ।
"इतो पुब्बे परिकम्मं पवत्तं, इतो परं भवङ्ग मज्झे समापत्ती'ति एवं समापत्तीनं अप्पनापरिच्छेदजाननपा समापत्तिकुसलता । वुट्टाने कुसलभावो बुट्ठानकुसलता, पगेव वुट्ठान परिच्छेदकरं जाणं । तेनाह "यथापरिच्छिन्नसमयवसेनेवा"तिआदि । वुट्ठानसमत्थाति वुट्ठापने समत्था ।
"धातुकुसलता''ति एत्थ पथवीधातुआदयो, सुखधातुआदयो, कामधातुआदयो च धातुयो
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(१०.३०४-३०४)
दुकवण्णना
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एतास्वेव अन्तोगधाति एतासु कोसल्ले दस्सिते तासुपि कोसल्लं दस्सितमेव होतीति “अट्ठारस धातुयो चक्खुधातु...पे०... मनोविज्ञाणधातू'ति वत्वा "अट्ठारसनं धातूनं सभावपरिच्छेदका"ति वुत्तं । तत्थ सभावपरिच्छेदकाति यथाभूतसभावावबोधिनी । “सवनपञ्जा धारणपञा''तिआदिना पच्चेकं पञ्जा-सद्दो योजेतब्बो । धातूनं सवनधारणपञा सुतमया, इतरा भावनामया। तत्थापि सम्मसनपञ्जा लोकिया। विपस्सना पञ्जा हि सा, इतरा लोकुत्तरा | लक्खणादिवसेन, अनिच्चादिवसेन च मनसिकरणं मनसिकारो, तत्थ कोसल्लं मनसिकारकुसलता। तं पन आदिमज्झपरियोसानवसेन तिधा भिन्दित्वा दस्सेन्तो "सम्मसनपटिवेधपच्चवेक्षणपञा"ति आह । सम्मसनपा हि तस्सा आदि, पटिवेधपञ्जा मज्झे, पच्चवेक्षणपञ्जा परियोसानं ।
आयतनानं गन्थतो च अत्थतो च उग्गण्हनवसेन तेसं धातुलक्खणादिविभागस्स जाननपञ्जा उग्गहजाननपञा। सम्मसनपटिवेधपच्चवेक्खणविधिनो जाननपञ्जा मनसिकारजाननपञ्जा। यस्मा आयतनानिपि अत्थतो धातुयोव मनसिकारो च उग्गण्हनादिवसेन तेसमेव मनसिकारविधि, तस्मा धातुकुसलतादिका तिस्सोपि कुसलता एकदेसे कत्वा दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । सवनं विय उग्गण्हनपच्चवेक्षणानिपि परित्ताणकत्तुकानीति आह “सवन उग्गहणपच्चवेक्षणा लोकिया'ति । अरियमग्गक्खणे सम्मसनमनसिकारानं निप्फत्ति परिनिट्ठानन्ति तेसं लोकुत्तरतापरियायोपि लब्भतीति वुत्तं "सम्मसनमनसिकारा लोकियलोकुत्तरमिस्सका"ति । पच्चयधम्मानं हेतुआदीनं अत्तनो पच्चयुप्पन्नानं हेतुपच्चयादिभावेन पच्चयभावो पच्चयाकारो, सो पन अविज्जादीनं द्वादसन्नं पटिच्चसमुप्पादङ्गानं वसेन द्वादसविधोति आह "द्वादसनं पच्चयाकारान"न्ति । उग्गहादिवसेनाति उग्गहमनसिकारसवनसम्मसनपटिवेधपच्चवेक्खणवसेन ।
ठानञ्चेव तिट्ठति फलं तदायत्तवुत्तितायाति कारणञ्च हेतुपच्चयभावेन करणतो निप्फादनतो । तेसं सोतविज्ञाणादीनं । एतस्मिं दुके अत्थो वेदितब्बोति सम्बन्धो । ये धम्मा यस्स धम्मस्स कारणभावतो ठानं, तेव धम्मा तंविधुरस्स धम्मस्स अकारणभावतो अट्ठानन्ति पठमनये फलभेदेन तरसेव धम्मस्स ठानाहानता दीपिता; दुतियनये पन अभिन्नेपि फले पच्चयधम्मभेदेन तेसं ठानाहानता दीपिताति अयमेतेसं विसेसो । न हि कदाचि अरिया दिट्ठिसम्पदा निच्चग्गाहस्स कारणं होति, अकिरियता पन सिया तस्स कारणन्ति ।
उजुनो भावो अज्जवं, अजिम्हता अकुटिलता अवङ्कताति अत्थोति तमत्थं
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०४-३०४)
अनज्जवपटिक्खेपमुखेन दस्सेतुं “गोमुत्तवङ्कता"तिआदि वुत्तं । स्वायं अनज्जवो भिक्खूनं येभुय्येन अनेसनाय, अगोचरचारिताय च होतीति आह “एकच्चो हि...पे०... चरती"ति। अयं गोमुत्तवङ्कत्ता नाम आदितो पट्ठाय याव परियोसाना पटिपत्तिया वङ्कभावतो । पुरिमसदिसोति पठमं वुत्तभिक्खुसदिसो । चन्दवङ्कता नाम पटिपत्तिया मज्झट्ठाने वङ्कभावापत्तितो । नङ्गलकोटिवता नाम परियोसाने वङ्कभावापत्तितो। इदं अज्जवं नाम सब्बत्थकमेव उजुभावसिद्धितो। अज्जवताति आकारनिद्देसो, येनाकारेनस्स अज्जवो पवत्तति, तदाकारनिद्देसोति अत्थो । लज्जतीति लज्जी, हिरिमा, तस्स भावो लज्जवं, हिरीति अत्थो । लज्जा एतस्स अत्थीति लज्जी यथा “माली, मायी''ति च, तस्स भावो लज्जीभावो, सा एव लज्जा।
परापराधादीनं अधिवासनक्खमं अधिवासनखन्ति। सुचिसीलता सोरच्चं। सा हि सोभनकम्मरतता, सुट्ठ वा पापतो ओरतभावो विरतता सोरच्चं। तेनाह "सुरतभावो"ति |
"नामञ्च रूपञ्चा"तिआदीसु अयं अपरो नयो - नामकरणद्वेनाति अधे अनपेक्खित्वा सयमेव अत्तनो नामकरणसभावतोति अत्थो । यहि परस्स नामं करोति, तस्स च तदपेक्खत्ता अज्ञापेक्खं नामकरणन्ति नामकरणसभावता न होति, तस्मा महाजनस्स आतीनं, गुणानञ्च सामञ्जनामादिकारकानं नामभावो नापज्जति । यस्स च अजेहि नामं करीयति, तस्स च नामकरणसभावता नत्थीति, नत्थियेव नामभावो | वेदनादीनं पन सभावसिद्धत्ता वेदनादिनामस्स नामकरणसभावतो नामता वुत्ता । पथवीआदि निदस्सनेन नामस्स सभावसिद्धतंयेव निदस्सेति, न नामभावसामञ्ज, निरुळहत्ता पन नाम-सद्दो अरूपधम्मेसु एव वत्तति, न पथवीआदीसूति न तेसं नामभावो। न हि पथवीआदिनामं विजहित्वा केसादिनामेहि रूपधम्मानं विय वेदनादिनामं विजहित्वा अजेन नामेन अरूपधम्मानं वोहरितब्बेन पिण्डाकारेन पवत्ति अत्थीति |
अथ वा रूपधम्मा चक्खादयो रूपादयो च, तेसं पकासकपकासितब्बभावतो विनापि नामेन पाकटा होन्ति, न एवं अरूपधम्माति ते अधिवचनसम्फस्सो विय नामायत्तग्गहणीयभावेन "नाम"न्ति वुत्ता। पटिघसम्फस्सो च न चक्खादीनि विय नामेन विना पाकटोति "नाम''न्ति वुत्तो, अरूपताय वा अञ्जनामसभागत्ता सङ्गहितोयं, अञफस्ससभागत्ता वा। वचनत्थोपि हि रूपयतीति रूपं, नामयतीति नामन्ति इध पच्छिमपुरिमानं सम्भवति । रूपयतीति विनापि नामेन अत्तानं पकासेतीति अत्थो |
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( १०.३०४-३०४)
दुकवण्णना
नामयतीति नामेन विना अपाकटभावतो अत्तनो पकासकं नामं करोतीति अत्थो । आरम्मणाधिपतिपच्चयतायाति सतिपि रूपस्स आरम्मणाधिपतिपच्चयभावे न तं परमस्सासभूतं निब्बानं विय सातिसयं नामनभावेन पच्चयोति निब्बानमेव " नाम "न्ति वृत्तं ।
" अविज्जा च भवतण्हा चा "ति अयं दुको सत्तानं वट्टमूलसमुदाचारदरसनत्थो । समुदाचरतीति हि समुदाचारो वट्टमूलमेव समुदाचारो वट्टमूलसमुदाचारो वट्टमूलदस्सनेन वा वट्टमूलानं पवत्ति दस्सिता होतीति वट्टमूलानं समुदाचारो वट्टमूलसमुदाचारो तंदस्सनत्थोति अत्थो ।
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LL
एकेकस्मिञ्च “अत्ता ”ति च "लोको" ति च गहणविसेसं उपादाय 'अत्ता च लोको चा”ति वुत्तं, एकं वा खन्धं “ अत्ता" ति गहेत्वा अञ्ञ अत्तनो उपभोगभूतं "लोको "ति गण्हन्तस्स, अत्तनो अत्तानं " अत्ता "ति गहेत्वा परस्स अत्तानं "लोको "ति गण्हन्तस्स वा वसेन " अत्ता च लोको चा" ति वृत्तं ।
सह सिक्खितब्बो धम्मो सहधम्मो, तत्थ भवं सहधम्मिकं, तस्मिं सहधम्मिके । दोवचस्स - सद्दतो आय - सद्दं अनञ्ञत्तं कत्वा " दोवचस्साय' "न्ति वुत्तं, दोवचस्सस्स वा अयनं पवत्ति दोवचस्सायं । आसेवन्तस्सापि अनुसिक्खना अज्झासयेन भजनाति आह "सेवना... पे०... भजना "ति । सब्बतोभागेन भत्ति सम्भत्ति ।
सह कम्मवाचायाति अब्भानतिणवत्थारककम्मवाचाय, “अहं भन्ते इत्थन्नामं आपत्तिं आपज्जि’न्तिआदिकाय च सहेव । सहेव हि कम्मवाचाय आपत्तिवुट्ठानञ्च परिच्छिज्जति, " पञ्ञत्तिलक्खणाय आपत्तिया वा कारणं वीतिक्कमलक्खणं कायकम्मं वचीकम्मं वा, वुट्ठानस्स कारणं कम्मवाचा "ति कारणेन सह फलस्स जाननवसेन " सह कम्मवाचाया "ति वृत्तं ।" सह कम्मवाचाया " ति । इमिना नयेन सह परिकम्मेनाति एत्थापि अत्थो वेदितब्बो ।
धातुविसया सब्बापि पञ्ञा धातुकुसलता । तदेकदेसा मनसिकारकुसलताति अधिप्पायेन पुरिमपदेपि सम्मसनपटिवेधपञ्ञा वृत्ता । यस्मा पन निप्परियायतो विपस्सनादिपञ्ञ एव मनसिकारकोसल्लं, तस्मा “तासंयेव धातूनं सम्मसनपटिवेधपच्चवेक्खणपञा " ति वृत्तं ।
आयतनविसया सब्बापि पञ्ञ आयतनकुसलताति दस्सेन्तो " द्वादसन्नं आयतनानं
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
उग्गहमनसिकारजाननपञ्ञा' "ति वत्वा पुन "अपिचा "तिआदि वृत्तं । द्वीसुपि वा पदेसु वाचुग्गताय आयतनपाळिया, धातुपाळिया च मनसिकरणं मनसिकारो । तथा उग्गहन्ती, मनसि करोन्ती, तदत्थं सुणन्ती, गन्थतो च अत्थतो च धारेन्ती, “इदं चक्खायतनं नाम, अयं चक्खुधातु नामा 'तिआदिना सभावतो, गणनतो च परिच्छेदं जानन्ती च पञ्ञा उग्गहपञ्ञादिका वृत्ता । मनसिकारपदे पन चतुब्बिधापि पञ्ञ उग्गहोति ततो पवत्तो अनिच्चादिमनसिकारो " उग्गहमनसिकारो "ति वुत्तो । तस्स जाननं पवत्तनमेव, "यथा पवत्तं वा उग्गहं, एवमेव पवत्तो उग्गहो "ति जाननं उग्गहजाननं । “ मनसिकारो एवं पवत्तेतब्बो, एवञ्च पवत्तोति जाननं मनसिकारजाननं । तदुभयम्पि "मनसिकारकोसल्ल"न्ति वृत्तं । उग्गहोपि हि मनसिकारसम्पयोगतो मनसिकारनिरुत्तिं लद्धुं अरहति । यो च मनसिकातब्बो, यो च मनसिकरणूपायो, सब्बो सो “ मनसिकारो "ति वत्तुं वट्टति, तत्थ कोसल्लं मनसिकारकुसलताति । सम्मसनं पञ्ञ, सा मग्गसम्पयुत्ता अनिच्चादिसम्मसनकिच्चं साधेति निच्चसञ्ञदिपजहनतो । मनसिकारो सम्मसनसम्पत्ती, सो तत्थेव अनिच्चादिमनसिकारकिच्चं मग्गसम्पयुत्तो साधेतीति आह " सम्मसनमनसिकारा लोकियलोकुत्तरमिस्सका ''ति । "इमिना पच्चयेनिदं होती "ति एवं अविज्जादीनं सङ्घारादिपच्चयुप्पन्नस्स पच्चयभावजाननं पटिच्चसमुप्पादकुसलता ।
अधिवासनं खमनं । तहि परेसं दुक्कटं दुरुत्तञ्च पटिविरोधाकरणेन अत्तनो उपरि आरोपेत्वा वासनं “ अधिवासनन्ति वुच्चति । अचण्डिक्कन्ति अकुज्झनं । दोमनस्सवसेन परेसं अक्खीसु अस्सूनं अनुप्पादना अनस्सुरोपो । अत्तमनताति सकमनता । चित्तस्स अब्यापन्नो सको मनोभावो अत्तमनता । चित्तन्ति वा चित्तप्पबन्धं एकत्तेन गहेत्वा तस्स अन्तरा उप्पन्नेन पीतिसहगतमनेन सकमनता । अत्तमनो वा पुग्गलो, तस्स भावो अत्तमनता, सा न सत्तस्साति पुग्गलदिट्ठिनिवारणत्थं "चित्तस्सा" ति वृत्तं । अधिवासनलक्खणा खन्ति अधिवासनखन्ति । सुचिसीलता सोरच्चं । सा हि सोभनकम्मरतता । सुट्टु पापतो ओरतभावो विरतता सोरच्चं ! तेनाह " सुरतभावो "ति ।
( १०.३०४-३०४)
सखिलो वुच्चति सण्हवाचो, तस्स भावो साखल्यं, सण्हवाचता । तं पन ब्यतिरेकमुखेन विभावेन्ती या पाळि पवत्ता, तं दस्सेन्तो " तत्थ कतमं साखल्य" न्तिआदिमाह । तत्थ अण्डक सदसवणे रुक्खे निय्यासपिण्डियो, अहिच्छत्तकादीनि वा उट्ठितानि " अण्डकानी 'ति वदन्ति । फेग्गुरुक्खस्स पन कुथितस्स अण्डानि विय उट्ठिता चुण्णपिण्डियो, गण्ठियो वा अण्डका । इध पन
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(१०.३०४-३०४)
दुकवण्णना
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ब्यापज्जनकक्कसादिभावतो अण्डकपकतिभावेन वाचा “अण्डका''ति वुत्ता। पदुमनाळं विय सोतं घंसयमाना पविसन्ती कक्कसा दट्टब्बा | कोधेन निब्बत्तत्ता तस्स परिवारभूता कोधसामन्ता। पुरे संवद्धनारी पोरी, सा विय सुकुमारा मुदुका वाचा पोरी वियाति पोरी। तत्थाति “भासिता होती"ति वुत्ताय किरियायातिपि योजना सम्भवति, तत्थ वाचायाति वा । "सण्हवाचता"तिआदिना तं वाचं पवत्तयमानं चेतनं दस्सेति । सम्मोदकस्स पुग्गलस्स मुदुकभावो मद्दवं सम्मोदकमुदुकभावो। आमिसेन अलब्भमानेन, तथा धम्मेन चाति द्वीहि छिद्दो। आमिसस्स, धम्मस्स च अलाभेन अत्तनो परस्स च अन्तरे सम्भवन्तस्स हि छिद्दस्स विवरस्स भेदस्स पटिसन्थरणं पिदहनं सङ्गण्हनं पटिसन्थारो। तं सरूपतो, पटिपत्तितो च पाळिदस्सनमुखेन विभावेतुं “अभिधम्मेपी"तिआदिमाह । अग्गं अग्गहेत्वाति अग्गं अत्तनो अग्गहेत्वा । उद्देसदानन्ति पाळिया, अट्ठकथाय च उद्दिसनं । पाळिवण्णनाति पाळिया अत्थवण्णना | धम्मकथाकथनन्ति सरभञ्जसरभणनादिवसेन धम्मकथनं ।
करुणाति करुणाब्रह्मविहारमाह । करुणापुब्बभागोति तस्स पुब्बभागउपचारज्झानं वदति । पाळिपदे पन या काचि करुणा “करुणाति वुत्ता, करुणाचेतोविमुत्तीति पन अप्पनाप्पत्ताव । मेत्तायपि एसेव नयो। सुचि-सद्दतो भावे य्य-कारं, इ-कारस्स च ए-कारादेसं कत्वा अयं निद्देसोति आह “सोचेय्यन्ति सुचिभावो'ति । होतु ताव सुचिभावो सोचेय्यं, तस्स पन मेत्तापुब्बभागता कथन्ति आह "वुत्तम्पि चेत"न्तिआदि ।
___ मुट्ठा सति एतस्साति मुट्ठस्सति, तस्स भावो मुट्ठस्सच्चं, सतिपटिपक्खो धम्मो, न सतिया अभावमत्तं । यस्मा पटिपक्खे सति तस्स वसेन सतिविगता विप्पवुत्था नाम होति, तस्मा वुत्तं "सतिविप्पवासो"ति । "अस्सती"तिआदीसु अ-कारो पटिपक्खे दट्ठब्बो, न सत्तपटिसेधे । उदके लाबु विय येन चित्तं आरम्मणे पिलवन्ता विय तिठ्ठति, न ओगाहति, सा पिलापनता। येन गहितम्पि आरम्मणं सम्मुस्सति न सरति, सा सम्मुस्सनता। यथा विज्जापटिपक्खा अविज्जा विज्जाय पहातब्बतो, एवं सम्पजञपटिपक्खं असम्पजों, अविज्जायेव ।
इन्द्रियसंवरभेदोति इन्द्रियसंवरविनासो । अप्पटिसाति अपच्चवेक्खित्वा अयोनिसो च आहारपरिभोगे आदीनवानिसंसे अवीमंसित्वा ।
अप्पटिसङ्कायाति इतिकत्तब्बतासु अप्पच्चवेक्खणाय नामं । अज्ञाणं अप्पटिसङ्खात
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०४-३०४)
निमित्तं । अकम्पनत्राणन्ति ताय अनभिभवनीयं आणं, तत्थ तत्थ पच्चवेक्खणाजाणञ्चेव पच्चवेक्खणाय मुद्धभूतं लोकुत्तरञाणञ्च । निप्परियायतो मग्गभावना भावना नाम, या च तदत्था, तदुभयञ्च भावेन्तस्सेव इच्छितब्, न भावितभावनस्साति वुत्तं "भावेन्तस्स उप्पन्न बल"न्ति । तेनाह "या कुसलानं धम्मानं आसेवना भावना बहुलीकम्म"न्ति ।
कामं सम्पयुत्तधम्मेसु थिरभावोपि बलट्ठो एव, पटिपक्खेहि पन अकम्पनीयता सातिसयं बलट्ठोति वुत्तं "अस्सतिया अकम्पनवसेना'ति । पच्चनीकधम्मसमनतो समथो समाधि। अनिच्चादिना विविधेनाकारेन दस्सनतो विपस्सना पञ्जा। तं आकारं गहेत्वाति समाधानाकारं गहेत्वा । येनाकारेन पुब्बे अलीनं अनुद्धतं मज्झिमं भावनावीथिपटिपन्नं हुत्वा चित्तं समाहित होति, तं आकारं गहेत्वा सल्लक्खेत्वा | निमित्तवसेनाति कारणवसेन । . "एसेव नयो"ति इमिना पग्गहोव तं आकारं गहेत्वा पुन पवत्तेतब्बस्स पग्गाहस्स निमित्तवसेन पग्गाहनिमित्तन्ति इममत्थं अतिदिसति, तस्सत्थो समथे वुत्तनयानुसारेन वेदितब्बो। पग्गाहो वीरियं कोसज्जपक्खतो चित्तस्स पतितुं अदत्वा परगण्हनतो । अविक्खेपो एकग्गता विक्खेपस्स उद्धच्चस्स पटिपक्खभावतो । पटिसङ्घानकिच्चनिब्बत्तिभावतो लोकुत्तरधम्मानं पटिसङ्घानबलभावो, तथा पुब्बे पवत्ताकारसल्लक्खणवसेन समथपग्गाहानं उपरि पवत्तिसब्भावतो समथनिमित्तदुकस्सपि मिस्सकता वुत्ता।
यथासमादिन्नस्स सीलस्स भेदकरो वीतिक्कमो। सीलविनासको असंवरो। सम्मादिविविनासिकाति “अस्थि दिन्न'न्तिआदि (म० नि० १.४४१; २.९४; विभं० ७९३) नयप्पवत्ताय सम्मादिट्ठिया दूसिका।
__ सीलस्स सम्पादनं नाम सब्बभागतो तस्स अनूनतापादनन्ति आह "सम्पादनतो परिपूरणतो"ति । पारिपूरत्थो हि सम्पदा-सद्दोति । मानसिकसीलं नाम सीलविसोधनवसेन अभिज्झादिप्पहानं । दिट्ठिपारिपूरिभूतं आणन्ति अत्थिकदिट्ठिआदिसम्मादिट्ठिया पारिपूरिभावेन पवत्तं आणं ।
विसुद्धिं पापेतुं समत्थन्ति चित्तविसुद्धिआदिउपरिविसुद्धिया पच्चयो भवितुं समत्थं । सुविसुद्धमेव हि सीलं तस्सा पदट्ठानं होतीति । विसुद्धिं पापेतुं समत्थं दस्सनन्ति आणदस्सनविसुद्धिं, परमत्थविसुद्धिनिब्बानञ्च पापेतुं उपनेतुं समत्थं
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(१०.३०४-३०४)
दुकवण्णना
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कम्मस्सकतााणादिसम्मादस्सनं । तेनाह “अभिधम्मे"तिआदि । एत्थ च “इदं अकुसलं कम्मं नो सकं, इदं पन कम्मं सक''न्ति एवं ब्यतिरेकतो अन्वयतो च कम्मस्सकताजाननाणं कम्मस्सकताजाणं। तेनाह "एत्थ चा"तिआदि । “परेन कतम्पी"ति इदं निदस्सनवसेन वुत्तं यथा परेन कतं, एवं अत्तना कतम्पि सककम्मं नाम न होतीति । अत्तना वा उस्साहितेन परेन कतंपीति एवं वा अत्थो दट्टब्बो । यहि तं परस्स उस्साहनवसेन कतं, तम्पि सककम्मं नाम होतीति अयज्हेत्थ अधिप्पायो । अत्थभञ्जनतोति दिठ्ठधम्मिकादिसब्बअत्थविनासनतो । अत्थजननतोति इधलोकत्थपरलोकत्थपरमत्थानं उप्पादनतो।
आरब्भकाले “अनिच्चं दुक्खं अनत्ता''ति पवत्तम्पि वचीसच्चञ्च लक्खणानि पटिविज्झन्तं विपस्सनाजाणं अनुलोमेति तत्थेव पटिविज्झनतो। परमत्थसच्चञ्च निब्बानं न विलोमेति न विरोधेति एकन्तेनेव सम्पापनतो ।
आणदस्सनन्ति आणभूतं दस्सनं, तेन मग्गं वदति । तंसम्पयुत्तमेव वीरियन्ति पठममग्गसम्पयुत्तं वीरियमाह। सब्बापि भग्गपञा दिट्ठिविसुद्धियेवाति दस्सेतुं "अपिचा"तिआदि वुत्तं । अयमेव च नयो अभिधम्मपाळिया (ध० स० ५५०) समेतीति दस्सेन्तो “अभिधम्मे पना"ति आदि अवोच ।
यस्मा संवेगो नाम सहोत्तप्पञाणं, तस्मा संवेगवत्थु भयतो भायितब्बतो दस्सनवसेन पवत्तञआणं । तेनाह "जातिभय"न्तिआदि । भायन्ति एतस्माति भयं, जाति एव भयं जातिभयं। संवेजनीयन्ति संविज्जितब्बं भायितब्बं उत्तासितब्बं । ठानन्ति कारणं, वत्थूति अत्थो । संवेगजातस्साति उप्पन्नसंवेगस्स। उपायपधानन्ति उपायेन पवत्तेतब्बं वीरियं ।
कुसलानं धम्मानन्ति सीलादीनं अनवज्जधम्मानं । भावनायाति उप्पादनेन वड्डनेन च । असन्तुट्ठस्साति “अलं एत्तावता, कथं एत्तावता''ति सङ्कोचापत्तिवसेन न सन्तुट्ठस्स | भिय्योकम्यताति भिय्यो भिय्यो उप्पादनिच्छा । वोसानन्ति सङ्कोचं असमत्थन्ति । तुस्सनं तुट्ठि सन्तुट्टि, नत्थि एतस्स सन्तुट्ठीति असन्तुट्टि, तस्स भावो असन्तुट्ठिता। वीरियप्पवाहे वत्तमाने अन्तरा एव पटिगमनं निवत्तनं पटिवानं, तं तस्स अत्थीति पटिवानी, न पटिवानी अप्पटिवानी, तस्स भावो अप्पटिवानिता। सक्कच्चकिरियताति कुसलानं करणे सक्कच्चकिरियता आदरकिरियता । सातच्चकिरियताति सततमेव करणं । अहितकिरियताति अन्तरा अठ्ठपेत्वा खण्डं अकत्वा करणं । अनोलीनवुत्तिताति न लीनप्पवत्तिता । अनिक्खित्तछन्दताति कुसलच्छन्दस्स अनिक्खिपनं । अनिक्खित्तधुरताति कुसलकरणे
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०५-३०५)
वीरियधुरस्स अनिक्खिपनं । आसेवनाति आदरेन सेवना। भावनाति वड्डना ब्रूहना । बहुलीकम्मन्ति पुनप्पुनं करणं ।
तिस्सो विज्जाति पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणं, दिब्बचक्खुञाणं आसवक्खयाणन्ति इमा तिस्सो विज्जा । पटिपक्खविज्झनटेन पुब्बे निवुत्थक्खन्धादीनं विदितकरणद्वेन विसिट्ठा मुत्तीति विमुत्ति। स्वायं विसेसो पटिपक्खविगमनेन, पटियोगिविगमनेन च इच्छितब्बोति तदुभयं दस्सेतुं "एत्थ चा"तिआदि वुत्तं । तत्थ येन विसेसेन समापत्तियो पच्चनीकधम्मेहि सुट्ठ मुत्ता, ततो निरासङ्कताय आरम्मणे च अभिरता, तं विसेसं उपादाय ता अधिकं मुच्चनतो, आरम्मणे अधिमुच्चनतो च अधिमुत्तियो नामाति वुत्तं "चित्तस्स च अधिमुत्ती"ति । मुत्तत्ताति सब्बसङ्खारेहि विसेसेन निस्सटत्ता विमुत्ति ।
खये आणन्ति समुच्छेदवसेन किलेसे खेपेतीति खयो, अरियमग्गो, तप्परियापन्नं आणं खये आणं। पटिसन्धिवसेनाति किलेसानं तंतंमग्गवज्झानं उप्पन्नमग्गे खन्धसन्ताने पुन सन्दहनवसेन | अनुप्पादभूतेति तंतंफले । अनुप्पादपरियोसानेति अनुप्पादकरो मग्गो अनुप्पादो, तस्स परियोसाने, किलेसानं वा अनुप्पज्जनसङ्खाते परियोसाने, भङ्गेति अत्थोति ।
दुकवण्णना निहिता।
तिकवण्णना
३०५. धम्मतो अञो कत्ता नत्थीति दस्सेतुं कत्तुसाधनवसेन "लुत्भतीति लोभो"ति वुत्तं । लुब्भति तेन, लुब्भनमत्तमेतन्ति करणभावसाधनवसेनपि अत्थो युज्जतेव । दुस्सति मुव्हतीति एत्थापि एसेव नयो। अकुसलञ्च तं अकोसल्लसम्भूतट्टेन एकन्ताकुसलभावतो मूलञ्च अत्तना सम्पयुत्तधम्मानं सुप्पतिट्टितभावसाधनतो, न अकुसलभावसाधनतो। न हि मूलकतो अकुसलानं अकुसलभावो, कुसलादीनञ्च कुसलादिभावो। तथा सति मोमूहचित्तद्वये मोहस्स अकुसलभावो न सिया। तेसन्ति लोभादीनं । "न लुब्भतीति अलोभो'"तिआदिना पटिपक्खनयेन ।
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(१०.३०५-३०५)
तिकवण्णना
दुट्ठ चरितानीति पच्चयतो, सम्पयुत्तधम्मतो, पवत्तिआकारतो च न सुटु असम्मा पवत्तितानि । विरूपानीति बीभच्छानि सम्पति, आयतिञ्च अनिट्ठरूपत्ता । कायेनाति कायद्वारेन करणभूतेन । कायतोति कायद्वारतो । “सुटु चरितानी"तिआदीसु वुत्तविपरियायेन अत्थो वेदितब्बो । यस्स सिक्खापदस्स वीतिक्कमे कायसमुट्ठाना आपत्ति होति, तं कायद्वारे पञत्तसिक्खापदं। अवीतिक्कमो कायसुचरितन्ति वारित्तसीलस्स वसेन वदति, चारित्तसीलस्सपि वा, यस्स अकरणे आपत्ति होति । वचीदुच्चरितसुचरितनिद्धारणम्पि वुत्तनयानुसारेन वेदितब्बं । उभयत्थ पञत्तस्साति कायद्वारे, वचीद्वारे च पञत्तस्स | सिक्खापदस्स वीतिक्कमोव मनोदुच्चरितं मनोद्वारे पञत्तस्स सिक्खापदस्स अभावतो, तयिदं द्वारद्वये अकिरियसमुट्ठानाय आपत्तिया वसेन वेदितब्बं । अवीतिक्कमोति यथावुत्ताय आपत्तिया अवीतिक्कमो मनोसुचरितं। "सब्बस्सापि सिक्खापदस्स अवीतिक्कमो मनोसुचरित"न्ति केचि । तदुभयहि चारित्तसीलं उद्दिस्सपञत्तं सिक्खापदं, तस्स अवीतिक्कमो सिया कायसुचरितं, सिया वचीसुचरितन्ति ।
पाणो अतिपातीयति एतायाति पाणातिपातो, तथापवत्ता चेतना, एवं अदिन्नादानादयोपीति आह "पाणातिपातादयो पन तिस्सो चेतना"ति । वचीद्वारेपि उप्पन्ना कायदुच्चरितं द्वारन्तरे उप्पन्नस्सापि कम्मस्स सनामापरिच्चागतो येभुय्यवुत्तिया, तब्बहुलवुत्तिया च । तेनाहु अट्ठकथाचरिया -
"द्वारे चरन्ति कम्मानि, न द्वारा द्वारचारिनो।। तस्मा द्वारेहि कम्मानि, अञमजं ववत्थिता''ति ।। (ध० स०. अट्ठ० कामावचरकुसलद्वारकथा)
वचीदुच्चरितं कायद्वारेपि वचीद्वारेपि उप्पन्नाति आनेत्वा सम्बन्धितब्बं । चेतनासम्पयुत्तधम्माति मनोकम्मभूताय चेतनाय सम्पयुत्तधम्मा । कायवचीकम्मभूताय पन चेतनाय सम्पयुत्ता अभिज्झादयो तं तं पक्खिका वा होन्ति अब्बोहारिका वाति । चेतनासम्पयुत्तधम्मा मनोसुचरितन्ति एत्थापि एसेव नयो । तिविधस्स दुच्चरितस्स अकरणवसेन पवत्ता तिस्सो चेतनापि विरतियोपि कायसुचरितं कायिकस्स वीतिक्कमस्स अकरणवसेन पवत्तनतो, कायेन पन सिक्खापदानं समादियने सीलस्स कायसुचरितभावे वत्तब्बमेव नत्थि। एसेव नयो वचीसुचरिते।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०५-३०५)
कामपटिसंयुत्तोति एत्थ द्वे कामा वत्थुकामो च किलेसकामो च । तत्थ वत्थुकामपक्खे आरम्मणकरणवसेन कामेहि पटिसंयुत्तो वितक्को कामवितक्को। किलेसकामपक्खे पन सम्पयोगवसेन कामेन पटिसंयुत्तोति योजेतब्बं । “ब्यापादपटिसंयुत्तो"तिआदीसु सम्पयोगवसेनेव अत्थो वेदितब्बो। ब्यापादवत्थुपटिसंयुत्तोपि ब्यापादपटिसंयुत्तोति गव्हमाने उभयथापि योजना लब्भतेव । विहिंसापटिसंयुत्तोति एत्थापि एसेव नयो । विहिंसन्ति एताय सत्ते, विहिंसनं वा एसा सत्तानन्ति विहिंसा, ताय पटिसंयुत्तो विहिंसापटिसंयुत्तोति एवं सद्दत्थो वेदितब्बो । अप्पिये अमनापे सङ्खारे आरब्भ ब्यापादवितक्कप्पवत्ति अट्ठानाघातवसेन दीपेतब्बा । ब्यापादवितक्कस्स अवधिं दस्सेतुं “याव विनासना'ति वुत्तं । विनासनं पन पाणातिपातो एवाति । “सङ्खारो' हि दुक्खापेतब्बो नाम नत्थी''ति कस्मा वुत्तं, ननु ये "दुक्खापेतब्बा''ति इच्छिता सत्तसञिता, तेपि अत्थतो सङ्घारा एवाति? सच्चमेतं, ये पन इन्द्रियबद्धा सविाणकताय दुक्खं पटिसंवेदेन्ति, तस्मा ते विहिंसावितक्कस्स विसया इच्छिता सत्तसञिता। ये पन न दुक्खं पटिसंवेदेन्ति वुत्तलक्खणायोगतो, ते सन्धाय “विहिंसावितक्को सङ्खारेसु नुप्पज्जतीति वुत्तं । यत्थ पन उप्पज्जति, यथा च उप्पज्जति, तं दस्सेतुं “इमे सत्ता"तिआदि वुत्तं ।।
नेक्खम्मं वुच्चति लोभतो निक्खन्तत्ता अलोभो, नीवरणेहि निक्खन्तत्तापि पठमज्झानं, सब्बाकुसलेहि निक्खन्तत्ता सब्बो कुसलो धम्मो, सब्बसङ्घतेहि पन निक्खन्तत्ता, निब्बानं । उपनिस्सयतो, सम्पयोगतो, आरम्मणकरणतो च नेक्खम्मेन पटिसंयुत्तोति नेक्खम्मपटिसंयुत्तो। नेक्खम्मवितक्को सम्मासङ्कप्पो । इदानि तं भूमिविभागेन दस्सेतुं "सो"तिआदि वुत्तं । असुभपुब्बभागेति असुभज्झानस्स पुब्बभागे | असुभग्गहणञ्चेत्थ कामवितक्कस्स उजुविपच्चनीकदस्सनत्थं कतं। कामवितक्कपटिपक्खो हि नेक्खम्मवितक्कोति । एवञ्च कत्वा उपरिवितक्कद्वयस्स भूमिं दस्सेन्तेन सपुब्बभागानि मेत्ताकरुणाझानादीनि उद्धटानि । असुभज्झानेति असुभारम्मणे पठमज्झाने । अवयवे हि समुदायवोहारं कत्वा निद्दिसति यथा “रुक्खे साखा"ति | झानं पादकं कत्वाति निदस्सनमत्तं । तं झानं सम्मसित्वा उप्पन्नमग्गफलकालेपि हि सो लोकुत्तरोति । ब्यापादस्स पटिपक्खो, किञ्चिपि न ब्यापादेति एतेनाति वा अब्यापादो, मेत्ता, ताय पटिसंयुत्तो अब्यापादपटिसंयुत्तो। मेत्ताझानेति मेत्ताभावनावसेन अधिगते पठमज्झाने | करुणाझानेति एत्थापि एसेव नयो। विहिंसाय पटिपक्खो, न विहिंसन्ति वा एताय सत्तेति अविहिंसा, करुणा ।
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(१०.३०५-३०५)
तिकवण्णना
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ननु च अलोभादोसानं अञमाविरहतो तेसं वसेन उप्पज्जनकानं इमेसं नेक्खम्मवितक्कादीनं अञमधे असङ्करणतो ववत्थानं न होतीति ? नोति दस्सेतुं "यदा"तिआदि आरद्धं । अलोभो सीसं होतीति अलोभो पधानो होति । नियमितपरिणतसमुदाचारादिवसेन यदा अलोभप्पधानो नेक्खम्मगरुको चित्तुप्पादो होति, तदा लद्धावसरो नेक्खम्मवितक्को पतिठ्ठहति । तंसम्पयुत्तस्स पन अदोसलक्खणस्स अब्यापादस्स वसेन यो तस्सेव अब्यापादवितक्कभावो सम्भवेय्य, सति च अब्यापादवितक्कभावे कस्सचिपि अविहेठनजातिकताय अविहिंसावितक्कभावो च सम्भवेय्य, ते इतरे दे। तदन्वयिकाति तस्सेव नेक्खम्मवितक्कस्स अनुगामिनो, सरूपतो अदिस्सनतो "तस्मिं सति होन्ति, असति न होन्तीति तदनुमाननेय्या भवन्ति । सेसद्वयेपि इमिना नयेन अत्थो वेदितब्बो। वुत्तनयेनेवाति “कामपटिसंयुत्तो सङ्कप्पो कामसङ्कप्पो"तिआदिना वितक्कत्तिके वुत्तनयेनेव (दी० नि० ३.२८८) वेदितब्बो अस्थतो अभिन्नत्ता। यदि एवं कस्मा पुन देसना कताति? तथा देसनाय बुज्झनकानं अज्झासयवसेन देसनामत्तमेवेतं ।।
कामवितक्कादीनं विय उप्पज्जनाकारो वेदितब्बो “तासु द्वे सत्तेसुपि सङ्खारेसुपि उप्पज्जन्ती''तिआदिना । तत्थ कारणमाह "तंसम्पयुत्तायेव हि एता"ति । तथैवाति यथा नेक्खम्मवितक्कादीनं "असुभपुब्बभागे कामावचरो होती"तिआदिना कामावचरादिभावो वुत्तो, तथेव तासम्पि नेक्खम्मसादीनम्पि कामावचरादिभावो वेदितब्बो।
कामपटिसंयुत्तोति सम्पयोगवसेन कामेन पटिसंयुत्तो। तक्कनवसेन तक्को। विसेसतो तक्कनवसेन वितक्को। सङ्कप्पनपरिकप्पनवसेन सङ्कप्पो। अ सुपि कामपटिसंयुत्तेसु धम्मसु विज्जमानेसु वितक्के एव कामोपपदो धातु-सद्दो निरुळ्हो वेदितब्बो वितक्कस्स कामसङ्कप्पप्पवत्तिया सातिसयत्ता। एस नयो ब्यापादधातुआदीसु । सब्बेपि अकुसला धम्मा कामधातू हीनज्झासयेहि कामितब्बधातुभावतो किलेसकामस्स आरम्मणसभावत्ताति अत्थो । विहेठेतीति विबाधति । तत्थाति तस्मिं यथावुत्ते कामधातुत्तिके। सब्बाकुसलसङ्गाहिकाय कामधातुया इतरा द्वे सङ्गहेत्वा कथनं सब्बसङ्गाहिका कथा। तिस्सो धातुयो अञमचं असङ्करतो कथा असम्भिन्ना। इतरा द्वे गहिताव होन्तीति इतरा द्वे धातुयो गहिता एव होन्ति सब्बेपि अकुसला धम्मा कामधातू''ति वुत्तत्ता सामञ्जजोतनाय सविसयस्स अतिब्यापनेन । ततोति इतरधातुद्वयसङ्गाहिकाय कामधातुया । नीहरित्वाति निद्धारेत्वा । दस्सेतीति एवं भगवा दस्सेतीति वत्तुं वट्टति । ब्यापादधातुं...पे०... कथेसि। कस्मा ?
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०५-३०५)
पगेव अपवादा अभिनिविसन्ति, ततो परं उस्सग्गो पवत्तति, ठपेत्वा वा अपवादविसयं तं परिहरन्तोव उस्सग्गो पवत्ततीति, आयो हेस लोके निरुळ्होति ।।
ढे कथाति “सब्बसङ्गाहिका, असम्भिन्ना चा"ति (दी० नि० अट्ठ० ३.३०५) अनन्तरत्तिके वुत्ता द्वे कथा । तत्थ वुत्तनयेन आनेत्वा कथनवसेन वेदितब्बा। तस्मा तत्थ वुत्तअत्थो इधापि आहरित्वा वेदितब्बो “नेक्खम्मधातुया गहिताय इतरा द्वे गहिताव होन्ती"तिआदिना।
सुञतटेनाति अत्तसुञताय । कामभवो कामो उत्तरपदलोपेन सुझतठून धातु चाति कामधातु। ब्रह्मलोकन्ति पठमज्झानभूमिसञ्जितं ब्रह्मलोकं । धातुया आगतहानम्हीति "कामधातु रूपधातू''तिआदिना धातुग्गहणे कते । भवेन परिच्छिन्दितब्बाति “कामभवो रूपभवो''तिआदिना भववसेन तदत्थो परिच्छिन्दितब्बो, न याय कायचि धातुया वसेन | यदग्गेन च धातुया आगतछाने भवेन परिच्छेदो कातब्बो, तदग्गेन भवस्स आगतहाने धातुया परिच्छेदो कातब्बो भववसेन धातुया परिछिज्जनतो । निरुज्झति किलेसवट्टमेत्थाति निरोधो, सा एव सुझतठून धातूति निरोधधातु, निब्बानं । निरुद्धे च किलेसवढे कम्मविपाकवट्टा निरुद्धा एव होन्ति ।
हीनधातुत्तिको अभिधम्मे (ध० स० तिकमातिका १४) हीनत्तिकेन परिच्छिन्दितब्बोति वुत्तं “हीना धातूति द्वादस अकुसलचित्तुप्पादा"ति । ते हि लामकट्टेन हीनधातु । हीनपणीतानं मज्झे भवाति मज्झिमधातु, अवसेसा तेभूमकधम्मा । उत्तमढेन अतप्पकढेन च पणीतधातु, नवलोकुत्तरधम्मा।
पञ्चकामगुणा विसयभूता एतस्स सन्तीति पञ्चकामगुणिको, कामरागो । रूपारूपभवेसूति रूपारूपूपपत्तिभवेसु यथाधिगतेसु । अनधिगतेसु पन सो पत्थना नाम न होतीति भववसेन पत्थनाति इमिनाव गहितो। झाननिकन्तीति रूपारूपज्झानेसु निकन्ति । भववसेन पत्थनाति भवेसु पत्थनाति । एवं चतूहिपि पदेहि यथाक्कम महग्गतूपपत्तिभवविसया, महग्गतकम्मभवविसया, भवदिट्ठिसहगता, भवपत्थनाभूता च तण्हा "भवतण्हा"ति वुत्ता। विभवदिट्टि विभवो उत्तरपदलोपेन, विभवसहगता तण्हा विभवतण्हा। रूपादिपञ्चवत्थु कामविसया बलवरागभूता तण्हा कामतण्हाति पठमनयो, “सब्बेपि
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(१०.३१५-३०५)
तिकवण्णना
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तेभूमकधम्मा कामनीयद्वेन कामा"ति (महानि० १) वचनतो ते आरब्भ पवत्ता दिट्ठिविप्पयुत्ता सब्बापि तण्हा कामतण्हाति दुतियनयोति अयमेतेसं विसेसो ।
अभिधम्मे पनाति पन-सद्दो विसेसत्थजोतनो, तेन पञ्चकामगुणिकरागतो अओपि कामावचरधम्मविसयो लोभो अभिधम्मे (विभं० ९१५) “कामतण्हा'"ति आगतोति इमं विसेसं जोतेति । तिकन्तरम्पि समानं तण्हंयेव निस्साय पवत्तितदेसनानन्तरताय तं "वारो'ति वत्तब्बतं अरहतीति "इमिना वारेना"ति वुत्तं । इमिना वारेनाति इमिना परियायेनाति अत्थो । रजनीयद्वेनाति कामनीयट्टेन । परियादियित्वाति परिग्गहेत्वा । ततोति कामतण्हाय । नीहरित्वाति निद्धारेत्वा । इतरा द्वे तण्हाति रूपतण्हं, अरूपतण्हञ्च दस्सेति । एतेन “कामतण्हा"ति साधारणवचनमेतं सब्बस्सपि लोभस्स, तस्स पन “रूपतण्हा अरूपतण्हा''ति विसेसवचनं यथा कामगुणिकरागो रूपरागो अरूपरागोति दस्सेति । निरोधतण्हाति भवनिरोधे भवसमुच्छेदे तण्हा । यस्मा हि उच्छेददिट्ठि मनुस्सत्तभावे, कामावचरदेवत्तभावे, रूपावचरअरूपावचरत्तभावे ठितस्स अत्तनो सम्मा समुच्छेदो होतीति भवनिरोधं आरब्भ पवत्तति, तस्मा तंसहगतापि तण्हा तमेव आरब्भ पवत्ततीति ।
वट्टस्मिन्ति तिविधेपि वट्टे । यथा ते हि निस्सरितुं अप्पदानवसेन कम्मविपाकवट्टे तंसमङ्गिसत्तं तेसं परापरुप्पत्तिया पच्चयभावेन संयोजेन्ति, एवं किलेसवट्टेपीति। सतीति परमत्थतो विज्जमाने । रूपादिभेदेति रूपवेदनादिविभागे | कायेति खन्धसमूहे । विज्जमानाति सती परमत्थतो उपलब्भमाना । दिट्ठिया परिकप्पितो हि अत्तादि परमत्थतो नत्थि, दिट्ठि पन अयं अत्थेवाति । विचिनन्तोति धम्मसभावं वीमंसन्तो। किच्छतीति किलमति । परामसतीति परतो आमसति । “सीलेन सुद्धि, वतेन सुद्धी"ति गण्हन्तो हि विसुद्धिमग्गं अतिक्कमित्वा तस्स परतो आमसति नाम । वीसतिवत्थुका दिट्ठीति रूपादि-धम्मे, पच्चेकं ते वा निस्सितं, तेसं वा निस्सयभूतं, सामिभूतं वा कत्वा परिकप्पनवसेन पवत्तिया वीसतिवत्थुका अत्तदिट्ठि वीसति । विमतीति धम्मसु सम्मा, मिच्छा वा मननाभावतो संसयितटेन अमति, अप्पटिपज्जनन्ति अत्थो। विपरियासग्गाहोति असुद्धिमग्गे "सुद्धिमग्गो''ति विपरीतग्गाहो।
चिरपारिवासियद्वेनाति चिरपरिवुत्थताय पुराणभावेन । आसवनद्वेनाति सन्दनढेन, पवत्तनद्वेनाति अत्थो। सवतीति पवत्तति । अवधिअत्थो आ-कारो, अवधि च मरियादाभिविधिभेदतो दुविधो । तत्थ मरियादो किरियं बहि कत्वा पवत्तति यथा “आ
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०५-३०५)
पाटलिपुत्ता वुट्ठो देवो''ति । अभिविधि किरियं ब्यापेत्वा पवत्तति यथा “आ भवग्गा भगवतो यसो पवत्तो''ति । अभिविधिअत्थो अयं आ-कारो वेदितब्बो।
कत्थचि द्वे आसवा आगताति विनयपाळिं (पारा० ३९) सन्धायाह । तत्थ हि "दिठ्ठधम्मिकानं आसवानं संवराय, सम्परायिकानं आसवानं पटिघाताया''ति (पारा० ३९) द्विधा आसवा आगताति । कत्थचीति तिकनिपाते आसवसुत्ते, (इतिवु० ५६; सं० नि० ३.५.१६३) अ सु च सळायतनसुत्तादीसु (सं० नि० २.४.३२१)। सळायतनसुत्तेसुपि हि "तयोमे आवुसो आसवा कामासवो भवासवो अविज्जासवो''ति तयो एव आगताति । निरयं गमेन्तीति निरयगामिनीया। यस्मा इध सासवं कुसलाकुसलं कम्म आसवपरियायेन देसितं, तस्मा पञ्चगतिसंवत्तनीयभावेन आसवा आगता। इमस्मिं सङ्गीतिसुत्ते तयो आगताति । एत्थ यस्मा अञ्जसु च आ भवग्गं आ गोत्रभुं पवत्तन्तेसु मानादीसु विज्जमानेसु अत्तत्तनियादिग्गाहवसेन, अभिब्यापनमदकरणवसेन आसवसदिसता च एतेसंयेव, न अञ्जसं, तस्मा एतेस्वेव आसव-सद्दो निरुळ्हो दट्ठब्बो । न चेत्थ “दिट्ठासवो नागतो''ति चिन्तेतब्बं भवतण्हाय, भवदिट्ठियापि भवासवग्गहणेनेव गहितत्ता । कामासवो नाम कामनठून, आसवनटेन च । वुत्तायेव अत्थतो निन्नानाकरणतो।
कामे एसति गवसति एतायाति कामेसना, कामानं अभिपत्थनावसेन, परियेटिवसेन, परिभुञ्जनवसेन वा पवत्तरागो । भवेसना पन भवपत्थना, भवाभिरतिभवज्झोसानवसेन पवत्तरागो। दिद्विगतिकसम्मतस्साति अतिथियेहि परिकप्पितस्स, सम्भावितस्स च । ब्रह्मचरियस्साति तपोपक्कमस्स। तदेकट्ठन्ति ताहि रागदिट्ठीहि सहजेकट्ठ । कम्मन्ति अकुसलकम्मं । तम्पि हि कामादिके निब्बत्तनाधिट्ठानादिवसेन पवत्तं “एसती"ति वुच्चति । अन्तग्गाहिका दिट्ठीति निदस्सनमत्तमेतं | या काचि पन मिच्छादिट्ठि तपोपक्कमहेतुका ब्रह्मचरियेसना एव ।
आकारसण्ठानन्ति विसिट्ठाकारावट्टानं कथंविधन्ति हि केन पकारेन सण्ठितं, समवट्टितन्ति अत्थो। सद्दत्थतो पन विदहनं विसिट्ठाकारेन अवट्ठानं विधा, विधीयति विसदिसाकारेन ठपीयतीति विधा, कोट्ठासो। विदहनतो हीनादिवसेन विविधेनाकारेन दहनतो उपधारणतो विधा, मानोव । सेय्यसदिसहीनानं वसेनाति सेय्यसदिसहीनभावानं याथावा' याथावभूतानं वसेन । तयो माना वुत्ता सेव्यस्सेव उप्पज्जनका । एस नयो सदिसहीनेसुपि। तेनाह "अयहि मानो"तिआदि । इदानि यथाउद्दिष्टे नवविधेपि माने
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(१०.३०५-३०५)
तिकवण्णना
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वत्थुविभागेन दस्सेतुं “तत्था"तिआदि वुत्तं । राजूनञ्चेव पब्बजितानञ्च उप्पज्जति कस्मा ? ते विसेसतो अत्तानं सेय्यतो दहन्तीति । इदानि तमत्थं वित्थारतो दस्सेन्तो "राजा ही"तिआदिमाह । को मया सदिसो अस्थीति को-सद्दो पटिक्खेपत्थो, अञ्जो सदिसो नत्थीति अधिप्पायो । एतेसंयेवाति राजूनं, पब्बजितानञ्च । उप्पज्जति सेट्ठवत्थुकत्ता तस्स । "हीनोहमस्मी"ति मानेपि एसेव नयो ।
"को मया सदिसो अञो राजपुरिसो अत्थी"ति वा "महं अजेहि सद्धिं किं नानाकरण"न्ति वा “अमच्चो ति नामामेव...पे०... नामाह"न्ति वाति सदिसस्स सेव्यमानादीनं तिण्णं पवत्तिआकारदस्सनं ।
दासादीनन्ति आदि-सद्देन भतिक कम्मकरादीनं पराधीनवुत्तिकानं गहणं । आदि-सद्देन वा गहिते एव “पुक्कुसचण्डालादयोपी"ति सयमेव दस्सेति । ननु च मानो नामायं संपग्गहरसो, सो कथं ओमाने सम्भवतीति ? सोपि अवकरणमुखेन विधानवत्थुना पग्गण्हनवसेनेव पवत्ततीति नायं विरोधो । तेनेवाह "किं दासो नाम अहन्ति एते माने करोती''ति । तथा हिस्स याथावमानता वुत्ता।
याथावमाना भवनिकन्ति विय, अत्तदिट्ठि विय च न महासावज्जा, तस्मा ते न अपायगमनीया । यथाभूतवत्थुकताय हि ते याथावमाना। "अरहत्तमग्गवज्झा"ति च तस्स अनवसेसप्पहायिताय वुत्तं। दुतियततियमग्गेहि च ते यथाक्कमं पहीयन्ति, ये ओळारिकतरा, ओळारिकतमा च । मानो हि “अहं अस्मी"ति पवत्तिया उपरिमग्गेसु सम्मादिट्ठिया उजुविपच्चनीको हुत्वा पहीयति । अयाथावमाना नाम अयथाभूतवत्थुकताय, तेनेव ते महासावज्जभावेन पठममग्गवज्झा वुत्ता।
___ अतति सततं गच्छति पवत्ततीति अद्धा, कालोति आह "तयो अद्धाति तयो काला"ति । सुत्तन्तपरियायेनाति भद्देकरत्तसुत्तादीसु (म० नि० ३.२८३) आगतनयेन । तत्थ हि “यो चावुसो मनो, ये च धम्मा, उभयमेतं पच्चुप्पन्नं, तस्मिं चे पच्चुप्पन्ने छन्दरागपटिबद्धं होति विज्ञाणं, छन्दरागपटिबद्धत्ता विज्ञाणस्स तदभिनन्दति, तदभिनन्दन्तो पच्चुप्पन्नेसु धम्मेसु संहीरती"ति (म० नि० ३.२८४) अद्धापच्चुप्पन्नं सन्धाय एवं वुत्तं । तेनाह "पटिसन्धितो पुब्बे"तिआदि । तदन्तरन्ति तेसं चुतिपटिसन्धीनं वेमज्झं पच्चुप्पनो अद्धा, यो पुब्बन्तापरन्तानं वेमज्झताय "पुब्बन्तापरन्ते कवति, (ध० स०
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११२३) पुब्बन्तापरन्ते अाण''न्ति (ध० स० १०६७, ११०६, ११२८) एवमादीसु "पुब्बन्तापरन्तो''ति च वुच्चति । भङ्गो धम्मो अतीतंसेन सङ्गहितोति आह "भङ्गतो उद्धं अतीतो अद्धा नामा"ति । तथा अनुप्पन्नो धम्मो अनागतंसेन सङ्गहितोति आह "उप्पादतो पुब्बे अनागतो अद्धा नामा"ति । खणत्तयेति उप्पादो, ठिति, भङ्गोति तीसु खणेसु । यदा हि धम्मो हेतुपच्चयस्स समवाये उप्पज्जति, यदा च वेति, इति द्वीसुपि खणेसु ठितिक्खणे विय पच्चुप्पन्नोति । धम्मानहि पाकभावूपाधिकं पत्तब् उदयो, विद्धसभावूपाधिकं वयो, तदुभयवेमज्झं ठिति। यदि एवं अद्धा नामायं धम्मो एव आपन्नोति ? न धम्मो, धम्मस्स पन अवस्थाभेदो, तञ्च उपादाय लोके कालसमजाति दस्सेतुं “अतीतादिभेदो च नाम अय"न्तिआदि वुत्तं । इधाति इमस्मिं लोके । तेनेव वोहारेनाति तं तं अवत्थाविसेसं उपादाय धम्मो “अतीतो अनागतो पच्चुप्पन्नो''ति येन वोहारेन वोहरीयति, धम्मप्पवत्तिमत्तताय हि परमत्थतो अविज्जमानोपि कालो तस्सेव धम्मस्स पवत्तिअवत्थाविसेसं उपादाय तेनेव वोहारेन “अतीतो अद्धा"तिआदिना वुत्तो।
अन्त-सद्दो लोके परियोसाने, कोटियं निरुळहोति तदत्थं दस्सेन्तो “अन्तोयेव अन्तो"ति आह, कोटि अन्तोति अत्थो। परभागोति पारिमन्तो। अमति गच्छति भवप्पबन्धो निट्ठानं एत्थाति अन्तो, कोटि | अमनं निट्ठानगमनन्ति अन्तो, ओसानं । सो पन “एसेवन्तो दुक्खस्सा''ति (म० नि० ३.३९३; सं० नि० १.२.५१) वुत्तत्ता दुक्खण्णवस्स पारिमन्तोति आह “परभागो"ति । अम्मति परिभुय्यति हीळीयतीति अन्तो, लामको । अम्मति भागसो आयतीति अन्तो, अंसोति आह "कोट्ठासो अन्तो'ति । सन्तो परमत्थतो विज्जमानो कायो धम्मसमूहोति सक्कायो, खन्धा, ते पन अरियसच्चभूता इधाधिप्पेताति वुत्तं “पञ्चुपादानक्खन्धा'ति । पुरिमतण्हाति येसं निब्बत्तिका, तन्निब्बत्तितो पगेव सिद्धा तण्हा । अप्पवत्तिभूतन्ति नप्पवत्तति तदुभयं एत्थाति तेसं अप्पवत्तिहानभूतं । यदि "सक्कायो अन्तो''तिआदिना अञमजं विभत्तिताय दुक्खसच्चादयो गहिता, अथ कस्मा मग्गो न गहितोति आह "मग्गो पना"तिआदि । तत्थ उपायत्ताति उपायभावतो, सम्पापकहेतुभावतोति अत्थो।
यदि पन हेतुमन्तग्गहणेनेव हेतु गहितो होति, ननु एवं सक्कायग्गहणेनेव तस्स हेतुभूतो सक्कायसमुदयो गहितो होतीति ? तस्स गहणे सङ्घतदुको विय, सप्पच्चयदुको विय च दुकोवायं आपज्जति, न तिको । यथा पन सक्कायं गहेत्वा सक्कायसमुदयोपि गहितो, एवं सक्कायनिरोधं गहेत्वा सक्कायनिरोधुपायो गव्हेय्य, एवं सति चतुक्को अयं
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तिकवण्णना
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आपज्जेय्य, न तिको, तस्मा हेतुमन्तग्गहणेन हेतुग्गहणं न चिन्तेतब्बं । अयं पनेत्थ अधिप्पायो युत्तो सिया - इध सक्कायसक्कायसमुदया अनादिकालिका, असति मग्गभावनायं पच्चयानुपरमेन अपरियन्ता च, निब्बानं पन अप्पच्चयत्ता अत्तनो निच्चताय एव सब्बदाभावीति अनादिकालिको, अपरियन्तो च । इति इमानि तीणि सच्चानि महाथेरो इमाय सभागताय “तयो अन्ता"ति तिकं कत्वा दस्सेति । अरियमग्गो पन कदाचि करहचि लब्भमानो न तथाति तस्स अतिविय दुल्लभपातुभावतं दीपेतुं तिकतो बहिकतोति अयमेत्थ अत्तनोमति ।
दुक्खताति दुक्खभावो, दुक्खंयेव वा यथा देवो एव देवता। दुक्ख-सद्दो चायं अदुक्खसभावेसुपि सुखुपेक्खासु कञ्चि अनिट्ठताविसेसं उपादाय पवत्ततीति ततो निवत्तेन्तो सभावदुक्खवाचिना एकेन दुक्ख-सद्देन विसेसेत्वा “दुक्खदुक्खता"ति आह । भवति हि एकन्ततो तंसभावेपि अत्थे अञस्स धम्मस्स येन केनचि सदिसतालेसेन ब्यभिचारासङ्काति विसेसितब्बता यथा “रूपरूपं तिलतेल''न्ति (विभं० अट्ठ० पकिण्णकथा) च । सङ्घारभावेनाति सङ्खतभावेन । पच्चयेहि सङ्घरीयन्तीति सङ्घारा, अदुक्खमसुखवेदना । सङ्खरियमानत्ता एव हि असारकताय परिदुब्बलभावेन भङ्गभङ्गाभिमुखक्खणेसु विय अत्तलाभक्खणेपि विबाधप्पत्ता एव हुत्वा सङ्घारा पवत्तन्तीति आह “सङ्घतत्ता उप्पादजराभङ्गपीळिता"ति । तस्माति यथावुत्तकारणतो। अञदुक्खसभावविरहतोति दुक्खदुक्खताविपरिणामदुक्खतासङ्घातस्स अञस्स दुक्खसभावस्स अभावतो । विपरिणामेति परिणामे, विगमेति अत्थो। तेनाह पपञ्चसूदनियं “विपरिणामदुक्खाति नत्थिभावो दुक्ख''न्ति । अपरिञातवत्थुकानहि सुखवेदनुपरमो दुक्खतो उपट्ठाति, स्वायमत्थो पियविप्पयोगेन दीपेतब्बो। तेनाह "सुखस्स ही"तिआदि । पुब्बे वुत्तनयो पदेसनिस्सितो वेदनाविसेसमत्तविसयत्ताति अनवसेसतो सङ्खारदुक्खतं दस्सेतुं “अपिचा"ति दुतियनयो वुत्तो । ननु च “सब्बे सङ्खारा दुक्खा''ति (ध० प० २७८) वचनतो सुखदुक्खवेदनानम्पि सङ्खारदुक्खता आपन्नाति ? सच्चमेतं, सा पन सामञ्जजोतनाअपवादभूतेन इतरदुक्खतावचनेन निवत्तीयतीति नायं विरोधो। तेनेवाह "ठपेत्वा दुक्खवेदनं सुखवेदनञ्चा"ति ।
मिच्छासभावोति “हितसुखावहो मे भविस्सती"ति एवं आसीसितोपि तथा अभावतो, असुभादीसुयेव “सुभ'"न्तिआदिविपरीतप्पवत्तितो च मिच्छासभावो, मुसासभावोति अत्थो । मातुघातकादीसु पवत्तमानापि हि हितसुखं इच्छन्ताव पवत्तन्तीति ते धम्मा “हितसुखावहा
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मे भविस्सन्ती"ति आसीसिता होन्ति । तथा असुभासुखानिच्चानत्तेसु सुभादिविपरियासदळ्हताय आनन्तरियकम्मनियतमिच्छादिट्ठीसु पवत्ति होतीति ते धम्मा असुभादीसु सुभादिविपरीतप्पवत्तिका होन्ति । विपाकदाने सति खन्धभेदानन्तरमेव विपाकदानतो नियतो, मिच्छत्तो च सो नियतो चाति मिच्छत्तनियतो। अनेकेसु आनन्तरियेसु कतेसु यं तत्थ बलवं, तं विपच्चति, न इतरानीति एकन्तविपाकजनकताय नियतता न सक्का वत्तुन्ति “विपाकदाने सती"ति वुत्तं । खन्धभेदानन्तरन्ति चुतिअनन्तरन्ति अत्थो । चुति हि मरणनिद्देसे “खन्धानं भेदो''ति (दी० नि० २.३९०; म० नि० १.१२३; ३.३७३; विभं० १९३) वुत्ता, एतेन वचनेन सति फलदाने चुतिअनन्तरो एव एतेसं फलकालो, न अझोति फलकालनियमेन नियतता वुत्ता होति, न फलदाननियमेनाति नियतफलकालानं अञसम्पि उपपज्जवेदनीयानं, दिट्ठधम्मवेदनीयानम्पि नियतता आपज्जति, तस्मा विपाकधम्मधम्मानं पच्चयन्तरविकलतादीहि अविपच्चमानानम्पि अत्तनो सभावेन विपाकधम्मता विय बलवता आनन्तरियेन विपाके दिन्ने अविपच्चमानानम्पि आनन्तरियानं फलदाने नियतसभावा, आनन्तरियसभावा च पवत्तीति अत्तनो सभावेन फलदाननियमेनेव नियतता, आनन्तरियता च वेदितब्बा । अवस्सञ्च नियतसभावा, आनन्तरियसभावा च तेसं पवत्तीति सम्पटिच्छितब्बमेतं अञस्स बलवतो आनन्तरियस्स अभावे चुतिअनन्तरं एकन्तेन फलदानतो।।
ननु एवं अञसम्पि उपपज्जवेदनीयानं अञस्मिं विपाकदायके असति चुतिअनन्तरमेव एकन्तेन फलदानतो आनन्तरियसभावा, नियतसभावा च पवत्ति आपज्जतीति ? नापज्जति असमानजातिकेन चेतोपणिधिवसेन, उपघातकेन च निवत्तेतब्बविपाकत्ता अनन्तरेकन्तफलदायकत्ताभावा. न पन आनन्तरियानं पठमज्झानादीनं दुतियज्झानादीनि विय असमानजातिकं फलनिवत्तकं अस्थि सब्बानन्तरियानं अवीचिफलत्ता, न च हेटूपपत्तिं इच्छतो सीलवतो चेतोपणिधि विय उपरूपपत्तिजनककम्मबलं आनन्तरियबलं निवत्तेतुं समत्थो चेतोपणिधि अस्थि अनिच्छन्तस्सेव अवीचिपातनतो, न च आनन्तरियुपघातकं किञ्चि कम्मं अस्थि । तस्मा तेसंयेव अनन्तरेकन्तविपाकजनकसभावा पवत्तीति । अनेकानि च आनन्तरियानि कतानि एकन्ते विपाके नियतत्ता उपरताविपच्चनसभावासत्ता निच्छितानि सभावतो नियतानेव । चुतिअनन्तरं पन फलं अनन्तरं नाम, तस्मिं अनन्तरे नियुत्तानि, तन्निब्बत्तनेन अनन्तरकरणसीलानि अनन्तरपयोजनानि चाति सभावतो आनन्तरियानेव च होन्ति । तेसु पन समानसमावेसु एकेन विपाके दिन्ने इतरानि अत्तना कातब्बकिच्चस्स तेनेव कतत्ता न दुतियं ततियञ्च
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पटिसन्धिं करोन्ति, न समत्थताविघातत्ताति नत्थि तेसं नियतानन्तरियतानिवत्तीति । न हि समानसभावं समानसभावस्स समत्थतं विहनतीति । एकस्स पन अञ्जानिपि उपत्थम्भकानि होन्तीति दट्ठब्बानीति । सम्मासभावेति सच्चसभावे । नियतो एकन्तिको अनन्तरमेव फलदानेनाति सम्मत्तनियमतो। न नियतोति उभयथापि न नियतो । अवसेसानं धम्मानन्ति किलेसानन्तरियकम्मनिय्यानिकधम्मेहि अञ्चेसं धम्मानं ।
तमन्धकारोति तमो अन्धकारोति पदविभागो। अविज्जा तमो नाम आरम्मणस्स छादनढेन । तेनेवाह "तमो विहतो, आलोको उप्पन्नो (म० नि० १.३८५; पारा० १२), तमोक्खन्धो पदालितो''ति (सं० नि० १.१.१६४) च आदि । अविज्जासीसेन विचिकिच्छा वुत्ता महता सम्मोहेन सब्बकालं अवियुज्जनतो | आगम्माति पत्वा । कङ्घतीति “अहोसिं नु खो अहं अतीतमद्धान''न्तिआदिना (म० नि० १.१८; सं० नि० १.२.२०) कचं उप्पादेति संसयं आपज्जति । अधिमुच्चितुं न सक्कोतीति पसादाधिमोक्खवसेन अधिमुच्चितुं न सक्कोति । तेनाह "न सम्पसीदतीति । यावत्तकहि यस्मिं वत्थुस्मिं विचिकिच्छा न विगच्छति, ताव तत्थ सद्धाधिमोक्खो अनवसरोव । न केवलं सद्धाधिमोक्खो, निच्छयाधिमोक्खोपि तत्थ न पतिठ्ठहति एव ।।
न रक्खितब्बानीति “इमानि मया रक्खितब्बानी''ति एवं कत्थचि रक्खाकिच्चं नस्थि परतो रक्खितब्बस्सेव अभावतो | सतिया एव रक्खितानीति मुट्ठस्सच्चस्स बोधिमूले एव सवासनं समुच्छिन्नत्ता सतिया रक्खितब्बानि नाम सब्बदापि रक्खितानि एव । नत्थि तथागतस्स कायदुच्चरितन्ति तथागतस्स कायदुच्चरितं नाम नत्थेव, यतो सुपरिसुद्धो कायसमाचारो भगवतो। नो अपरिसुद्धा, परिसुद्धा एव अपरिसुद्धिहेतूनं किलेसानं पहीनत्ता । तथापि विनये अपकतञ्जतावसेन सिया तेसं अपारिसुद्धिलेसो, न भगवतोति दस्सेतुं "न पना"तिआदि वुत्तं । तत्थ विहारकारं आपत्तिन्ति एकवचनवसेन "आपत्तियो''ति एत्थ आपत्ति-सदं आनेत्वा योजेतब् । अभिधेय्यानुरूपहि लिङ्गवचनानि होन्ति । एस नयो सेसेसुपि । “मनोद्वारे"ति इदं तस्सा आपत्तिया अकिरियसमुट्ठानताय वुत्तं । न हि मनोद्वारे पञत्ता आपत्ति अत्थीति । सउपारम्भवसेनाति सवत्तब्बतावसेन, न पन दुच्चरितलक्खणापत्तिवसेन, यतो नं भगवा पटिक्खिपति । यथा आयस्मतो महाकप्पिनस्सापि “गच्छेय्यं वाहं उपोसथं, न वा गच्छेय्यं । गच्छेय्यं वाहं सङ्घकम्म, न वा गच्छेय्य"न्ति (महाव० १३७) परिवितक्कितं | मनोदुच्चरितन्ति मनोद्वारिकं अप्पसत्थं चरितं । सत्थारा अप्पसत्थताय हि तं दुच्चरितं नाम जातं, न सभावतो ।
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यस्मा महाकारुणिको भगवा सदेवकस्स लोकस्स हितसुखाय एव पटिपज्जमानो अच्चन्तविवेकज्झासयताय तबिधुरं धम्मसेनापतिनो चित्तुप्पादं पटिक्खिपन्तो “न खो ते...पे०... उप्पादेतब्ब"न्ति अवोच, तस्मा सो थेरस्स चित्तुप्पादो भगवतो न पासंसोति कत्वा मनोदुच्चरितं नाम जातो, तस्स च पटिक्खेपो उपारम्भोति आह "तस्मिं मनोदुच्चरिते उपारम्भं आरोपेन्तो''ति । भगवतो पन एत्तकम्पि नत्थि, यतो पवारणासुत्ते "हन्द दानि, भिक्खवे, पवारेमि वो, न च मे किञ्चि गरहथ कायिकं वा वाचसिकं वा"ति (सं० नि० १.१.२१५) वुत्तो भिक्खुसङ्घो “न खो मयं भन्ते भगवतो किञ्चि गरहाम कायिकं वा वाचसिकं वा"ति सत्थु परिसुद्धकायसमाचारादिकं सिरसा सम्पटिच्छि । अयहि लोकनाथस्स दुच्चरिताभावो बोधिसत्तभूमियम्पि चरियाचिरानुगतो अहोसि, पगेव बुद्धभूमियन्ति दस्सेन्तो “अनच्छरियञ्चेत"न्तिआदिमाह ।
बुद्धानंयेव धम्मा गुणा, न अ सन्ति बुद्धधम्मा। तथा हि ते बुद्धानं आवेणिकधम्माति वुच्चन्ति। तत्थ “नथि तथागतस्स कायदुच्चरित"न्तिआदिना कायवचीमनोदुच्चरिताभाववचनं यथाधिकारं कायकम्मादीनं आणानुपरिवत्तिताय लद्धगुणकित्तनं, न आवेणिकधम्मन्तरदस्सनं । सब्बस्मिहि कायकम्मादिके ञाणानुपरिवत्तिनि कुतो कायदुच्चरितादीनं सम्भवो। "बुद्धस्स अप्पटिहतत्राण"न्तिआदिना वुत्तानि सब्ब तञाणतो विसुंयेव तीणि जाणानि चतुयोनिपञ्चगतिपरिच्छेदकजाणानि विया'"ति वदन्ति । एकंयेव हुत्वा तीसु कालेसु अप्पटिहतञाणं नाम सब्ब तञाणमेव । नत्थि छन्दस्स हानीति सत्तेसु हितछन्दस्स हानि नत्थि। नत्थि वीरियस्स हानीति खेमपविवेकवितक्कानुगतस्स वीरियस्स हानि नत्थि । “नथि दवाति खिड्डाधिप्पायेन किरिया नत्थि । नत्थि रवाति सहसा किरिया नत्थी'"ति वदन्ति, सहसा पन किरिया दवा “अनं करिस्सामी"ति अञकरणं रखा। खलितन्ति विरज्झनं आणेन अप्फुटं | सहसाति वेगायितत्तं तुरितकिरिया । अव्यावटो मनोति निरत्थको चित्तसमुदाचारो । अकुसलचित्तन्ति अज्ञाणुपेक्खमाह, अयञ्च दीघभाणकानं पाठो आकुलो विय। अयं पन पाठो अनाकुलो
अतीतंसे बुद्धस्स भगवतो अप्पटिहतत्राणं, अनागतंसे, पच्चुप्पन्नंसे । इमेहि तीहि धम्मेहि समन्नांगतस्स बुद्धस्स भगवतो सबं कायकम्मं ाणपुब्बङ्गमं आणानुपरिवत्ति, सब् वचीकम्मं, सब्बं मनोकम्मं । इमेहि छहि धम्मेहि समन्नागतस्स बुद्धस्स भगवतो नत्थि छन्दस्स हानि, नत्थि धम्मदेसनाय, नत्थि वीरियस्स, नत्थि
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तिकवण्णना
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समाधिस्स, नत्थि पञ्जाय, नत्थि विमुत्तिया । इमेहि द्वादसहि धम्मेहि समन्नागतस्स बुद्धस्स भगवतो नत्थि दवा, नत्थि रवा, नत्थि अप्फुटं, नत्थि वेगायितत्तं, नत्थि अब्यावटमनो, नत्थि अप्पटिसङ्खानुपेक्खाति ।
तत्थ अप्पटिसङ्खानुपेक्खाति अञाणुपेक्खा । सेसं वुत्तनयमेव | एत्थ च तथागतस्स आजीवपारिसुद्धिं कायवचीमनोसमाचारपारिसुद्धियाव सङ्गहेत्वा समाचारत्तयवसेन महाथेरेन तिको देसितो।
किञ्चनाति किञ्चिक्खा। इमे पन रागादयो पलिबुन्धनद्वेन किञ्चना वियाति किञ्चना। तेनाह "किञ्चनाति पलिबोधा"ति |
अनुदहनटेनाति अनु अनु दहनटेन । रागादयो अरूपधम्मा इत्तरक्खणा कथं अनुदहन्तीति आसवं निवत्तेतुं “तत्थ वत्थूनी"ति वुत्तं, दट्टब्बानीति वचनसेसो । तत्थाति तस्मिं रागादीनं अनुदहनटे । वत्थूनीति सासने, लोके च पाकटत्ता पच्चक्खभूतानि कारणानि । रागो उप्पनो तिखिणकरो हुत्वा । तस्मा तंसमुट्ठाना तेजोधातु अतिविय तिखिणभावेन सद्धिं अत्तना सहजातधम्मेहि हदयप्पदेसं झापेसि यथा तं बाहिरा तेजोधातु सनिस्सयं । तेन सा भिक्खुनी सुपतो विय ब्याधि झायित्वा मता| तेनाह "तेनेव झायित्वा कालमकासी"ति । दोसस्स निस्सयानं दहनता पाकटा एवाति इतरं दस्सेतुं "मोहवसेन ही"तिआदि वुत्तं । अतिवत्तित्वाति अतिक्कमित्वा ।
कामं आहुनेय्यग्गिआदयो तयो अग्गी ब्राह्मणेहि इच्छिता सन्ति, ते पन तेहि इच्छितमत्ता, न सत्तानं तादिसा अत्थसाधका । ये पन सत्तानं अत्थसाधका, ते दस्सेतुं “आहुनं बुच्चती"तिआदि वुत्तं । तत्थ आदरेन हुननं पूजनं आहुनन्ति सक्कारो “आहुनन्ति वुच्चति, तं आहुनं अरहन्ति। तेनाह भगवा “आहुनेय्याति भिक्खवे मातापितूनमेतं अधिवचन"न्ति (इतिवु० १०६)। यदग्गेन च ते पुत्तानं बहुकारताय आहुनेय्याति तेसु सम्मापटिपत्ति नेसं हितसुखावहा, तदग्गेन तेसु मिच्छापटिपत्ति अहितदुक्खावहाति आह “तेसु...पे०... निब्बत्तन्ती"ति । स्वायमत्थोति यो मातापितूनं अत्तनो उपरि विप्पटिपन्नानं पुत्तानं अनुदहनस्स पच्चयभावेन अनुदहनट्ठो, सो अयमत्थो । मित्तविन्दकवत्थुनाति मित्तविन्दकस्स नाम मातरि विप्पटिपन्नस्स पुरिसस्स ताय एव विप्पटिपत्तिया चिरतरं कालं आपायिकदुक्खानुभवनदीपनेन वत्थुना वेदितब्बो।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
इदान तत्थं कस्सस्स भगवतो काले पवत्तं विभावेतुं “मित्तविन्दको ही "तिआदि वुत्तं । धनलोभेन, न धम्मच्छन्देनाति अधिप्पायो । अकुतोभयं केनचि अनुट्ठापनीयताय । निवारेसि समुद्दपयाता नाम बह्वन्तरायाति अधिप्पायेन । अन्तरं कत्वाति अतिक्कमनवसेन द्विन्नं पादानं अन्तरे कत्वा ।
नावा अट्ठास तस्स पापकम्मबलेन वातस्स अवायनतो । एकदिवस रक्खितउपोसथकम्मानुभावेन सम्पत्तिं अनुभवन्तो । यथा पुरिमाहि परतो मा अगमासीति वृत्तो, एवं अपरापराहिपीति आह " ताहि 'परतो परतो मा अगमासीति वुच्चमानो" ति । खुरचक्कधरन्ति खुरधारूपमचक्कधरं एकं पुरिसं । उपट्टासि पापकम्मस्स बलेन ।
( १०.३०५ - ३०५)
चतुब्भीति चतूहि अच्छरासदिसीहि विमानपेतीहि, सम्पत्तिं अनुभवित्वाति वचनसेसो । अट्ठज्झगमाति रूपादिकामगुणेहि ततो विसितरा अट्ठ विमानपेतियो अधिगच्छि | अत्रिच्छन्ति अत्रिच्छासङ्घातेन अतिलोभेन समन्नागतत्ता अत्र अत्र कामगुणे इच्छन्तो । चक्कन्ति खुरचक्कं । आसदोति अनत्थावहभावेन आसादेति ।
सोति गेहसामिको भत्ता । पुरिमनयेनेवाति अनुदहनस्स पच्चयताय ।
अतिचारिनीति सामिकं अतिक्कमित्वा चारिनी मिच्छाचारिनी । रत्तिं दुक्खन्ति अत्तनो पापकम्मानुभावसमुपट्ठितेन सुनखेन खादितब्बतादुक्खं । वञ्चेत्वाति तं अजानापेत्वाव कारणट्ठानगमनं सन्धाय वुत्तं । पटपटन्तीति पटपटा कत्वा । अनुरवदस्सनतं । मुट्ठियोगो किरायं तस्स सुनखन्तरधानस्स, यदिदं खेळपिण्डं भूमियं निट्टुभित्वा पादेन घंसनं । तेन वृत्तं "सो तथा अकासि । सुनखा अन्तरधायिसू'ति ।
दक्खिणाति चत्तारो पच्चया दिय्यमाना दक्खन्ति एतेहि हितसुखानीति । तं दक्खिणं अरहतीति दक्खिणेय्यो, भिक्खुसङ्घो । रेवतीवत्थु विमानवत्थुपेतवत्थूसु (वि० व० ८६१ आदयो) तेसं अट्ठकथायञ्च (वि० व० ९७७-९८०; पे० व० अट्ठ० ७१४-७३६) आगतनयेन वेदितब्बं ।
“तिविधेन रूपसङ्गहो”ति एत्थ ननु सङ्गहो एकविधोव, सो कस्मा “चतुब्बिधोति वुत्तोति ? “सङ्गहो”ति अत्थं अवत्वा अनिद्धारितत्थस्स सद्दस्सेव वृत्तत्ता । “वि
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( १०.३०५ - ३०५)
तिकवण्णना
रूपसङ्गहो' 'तिआदीसु (ध० स० रूपकण्ड - तिके) पदेसु सङ्ग्रह - सद्दो ताव अत्तनो अत्थवसेन चतुब्बिधोति अयञ्हेत्थ अत्थो । अत्थोपि वा अनिद्धारितविसेसो सामञ्ञेन गहेतब्बतं पत्तो ‘“तिविधेन रूपसङ्गहो’”तिआदीसु (ध० स० रूपकण्ड - तिके) “सङ्गहो" ति वृत्तोति न कोचि दोसो । निद्धारिते हि विसेसे तस्स एकविधता सिया, न ततो पुब्बेति । " जातिसङ्गहो "ति वुत्तेपि जाति- सद्दस्स सापेक्खसद्दत्ता अत्तनो जातिया सङ्गहोति अयमत्थो विञ्ञायतेव सम्बन्धारहस्स अञ्ञस्स अवुत्तत्ता यथा “ मातापितु उपट्ठानन्ति (खु० पा० ५.६; सु० नि० २६५) । अट्ठकथायं पन यथाधिप्पेतमत्थं अपरिपुण्णं कृत्वा दस्सेतुं " जातिसङ्गहो” इच्चेव वृत्तं । समानजातिकानं सङ्गहो, समानजातिया वा सङ्गहो सजातिसङ्गहो सञ्जयति एत्थाति सञ्जाति, सञ्जातिया सङ्गहो सञ्जातिसङ्गहो, सञ्जातिदेसेन सङ्गहोति अत्थो । किरियाय एवरूपाय सङ्ग्रहो किरियासङ्गहो । रूपक्खन्धगणनन्ति “ रूपक्खन्धो "ति गणनं सङ्ख्यं गच्छति रुप्पनसभावत्ता । तीहि कोट्ठासेहि रूपगणनाति वक्खमानेहि तीहि भागेहि रूपस्स सङ्ग्रहो, गणेतब्बताति अत्थो ।
रूपायतनं
निपस्सति पच्चक्खतो विजानातीति निदस्सनं चक्खुविञ्ञाणं, निदस्सतीति वा निदस्सनं, दट्ठब्बभावो, चक्खुविञ्ञाणस्स गोचरभावो, तस्स च रूपायतनतो अनञ्ञत्तेपि अहि धम्मेहि रूपायतनं विसेसेतुं अजं विय कत्वा " सह निदस्सनेनाति सनिदस्सन”न्ति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो । धम्मसभावसामञ्ञेन हि एकीभूतेसु धम्मेसु यो नानत्तकरो सभावो, सो अञ्ञो विय कत्वा उपचरितुं युत्तो । एवहि अत्थविसेसावबोधो होतीति । चक्खुपटिहननसमत्थतोति चक्खुनो घट्टनसमत्थताय । घट्टनं च घट्टनं दट्ठब्बं । दुतियेन अत्थविकप्पेन दट्टब्बभावसङ्घातं नास्स निदस्सनन्ति अनिदस्सनन्ति योजना । एत्थ च दसन्नं आयतनानं यथारहं सयं, निस्सयवसेन च सम्पत्तानं, असम्पत्तानञ्च पटिमुखभावो अञ्ञमञ्ञपतनं पटिहननं, येन ब्यापारादिविकारपच्चयन्तरसन्निधाने चक्खादीनं विसयेसु विकारुप्पत्ति । तत्थ ब्यापारो चक्खादीनं सविसयेसु आविच्छन्नं, रूपादीनं इट्ठानिट्ठता, तत्थ च चित्तस्स आभुजनन्ति इमे आदिसद्दसङ्गहिता । तेहि विकारप्पत्तिया पच्चयन्तरब्यापारतो अञ्ञन्ति कत्वा अनुग्गहूपघातो विकारो । उपनिस्सयो पन अप्पधानस्स पच्चयो इध गहितो । कारणकारणम्पि कारणमेवाति गरहमाने सिया तस्सापि सङ्गहोति । वुत्तप्पकारन्ति “चक्खुविञ्ञाणसङ्घात”न्ति वुत्तप्पकारं । नास्स पटिघोति एत्थापि " वुत्तप्पकार "न्ति आनेत्वा सम्बन्धो | अवसेसं सोळसविधं सुखुमरूपं ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
सङ्घरोन्तीति सम्पिण्डेन्ति । चेतना हि आयूहनरसताय यथा सम्पयुत्तधम्मे यथासकं किच्चेसु संविदहन्ती विय अभिसन्दहन्ती वत्तमाना तेनेव किच्चविसेसेन ते सम्पिण्डेन्ती विय होति, एवं अत्तनो विपाकधम्मेपि पच्चयसमवाये सङ्घरोन्ती सपिण्डेन्ती विय होति । तेनाह " सहजात... पे०... रासी करोन्ती "ति । अभिसङ्घरोतीति अभिविसिद्धं कत्वा सङ्घरोति । पुञ्ञाभिसङ्घारो हि अत्तनो फलं इतरस्स फलतो अतिविय विसिद्धं भिन्नं कत्वा सङ्खति पच्चयतो, सभावतो, पवत्तिआकारतो च सयं इतरेहि विसिट्ठसभावत्ता । एस नयो इतरेहिपि। पुज्जभवफलनिब्बत्तनतो, अत्तनो सन्तानस्स पुननतो च पुञ्ञो ।
महाचित्तचेतनानन्ति असङ्ख्येय्यायुनिप्फादनादिमहानुभावताय महाचित्तेसु पवत्तचेतनानं । अट्ठेव चेतना होन्ति, या कामावचरा कुसला । “तेरसपी "ति कस्मा वुत्तं, ननु "नवा 'ति वत्तब्बं । न हि भावना आणरहिता युत्ताति अनुयोगं सन्धायाह " यथा ही "तिआदि । कसिणपरिकम्मं करोन्तस्साति कसिणेसु झानपरिकम्मं करोन्तस्स । " पथवी पथवी 'तिआदि भावना हि कसिणपरिकम्मं । तस्स हि परिकम्मस्स सुपगुणभावतो अनुयुत्तस्स तत्थ आदराकरणेन सिया आणरहितचित्तं । झानपच्चवेक्खणायपि एसेव नयो । केचि मण्डलकरणम्पि भावनं भजापेन्ति ।
( १०.३०५ - ३०५ )
दानवसेन पवत्तचित्तचेतसिकधम्मा दानं, तत्थ ब्यापारभूता आयूहनचेतना दानं आरम्भ, दानञ्च अधिकिच्च उप्पज्जतीति वृत्ता । एवं इतरेसुपि । अयं सङ्क्षेपदेसनाति अयं पुञ्ञाभिसङ्घारे सङ्क्षेपतो अत्थदेसना, अत्थवण्णनाति अत्थो ।
सोमनस्सचित्तेनाति अनुमोदनापवत्तिदस्सनमत्तमेतं दट्ठब्बं । उपेक्खासहगतेनापि हि अनुसरति एवाति । कामं निच्चसीलं, उपोसथसीलं, नियमसीलम्पि सीलमेव, परिपुण्णं पन सब्बङ्गसम्पन्नं सीलं दस्सेतुं "सीलपूरणत्थाया "तिआदि वृत्तं । नयदस्सनं वा एतं, तस्मा “निच्चसीलं, उपोसथसीलं, नियमसीलं समादियिस्सामी 'ति विहारं गच्छन्तस्स, समादियित्वा समादिन्नसीले च तस्मिं, "साधु सुट्टू" ति आवज्जन्तस्स, तं सीलं सोधेन्तस्स च पवत्ता चेतना सीलमयाति एवमेत्थ योजना वेदितब्बा ।
पुब्बे समथवसेन भावनानयो गहितोति इदानि सम्मसननयेन तं दस्सेतुं " पटिसम्भिदायं वुत्तेना "तिआदि वृत्तं । तत्थ अनिच्चतोति अनिच्चभावतो । दुक्खतो, अनत्ततोति एत्थापि एसेव नयो ।
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(१०.३०५-३०५)
तिकवण्णना
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तत्थ ये पञ्चुपादानक्खन्धा नामरूपभावेन परिग्गहिता, ते यस्मा द्वारारम्मणेहि सद्धिं द्वारप्पवत्तधम्मवसेन विभागं लभन्ति, तस्मा द्वारछक्कादिवसेन छ छक्का गहिता । यस्मा पन लक्खणेसु अनत्तलक्खणं दुब्बिभावं, तस्मा तस्स विभावनाय छ धातुयो गहिता । ततो येसु कसिणेसु इतो बाहिरकानं अत्ताभिनिवेसो, तानि इमेसं झानानं आरम्मणभावेन उपट्ठानाकारमत्तानि, इमानि पन तानि झानानीति दस्सनत्थं दस कसिणानि गहितानि । ततो दुक्खानुपस्सनाय परिवारभावेन पटिक्कूलाकारवसेन द्वत्तिंस कोट्ठासा गहिता। पुब्बे खन्धवसेन सङ्खपतो इमे धम्मा गहिता, इदानि नातिस पवित्थारनयेन च मनसि कातब्बाति दस्सनत्थं द्वादसायतनानि, अट्ठारस धातुयो च गहिता । तेसु इमे धम्मा सतिपि सुञानिरीहअब्यापारभावे धम्मसभावतो आधिपच्चभावेन पवत्तन्तीति अनत्तभावविभावनत्थं इन्द्रियानि गहितानि । एवं अनेकभेदभिन्नापि इमे धम्मा भूमित्तयपरियापन्नताय तिविधाव होन्तीति दस्सनत्थं तिस्सो धातुयो गहिता । एतावता निमित्तं दस्सेत्वा पवत्तं दस्सेतुं कामभवादयो नव भवा गहिता। एत्तके अभिज्ञेय्यविसेसे पवत्तमनसिकारकोसल्लेन सण्हसुखुमेसु निब्बत्तितमहग्गतधम्मेसु मनसिकारो पवत्तेतब्बोति दस्सनत्थं झानअप्पमञारूपानि गहितानि । तत्थ झानानि नाम वुत्तावसेसारम्मणानि रूपावचरज्झानानि । पुन पच्चयपच्चयुप्पन्नविभागतो इमे धम्मा विभज्ज मनसिकातब्बाति दस्सनत्थं पटिच्चसमुप्पादङ्गानि गहितानि । पच्चयाकारमनसिकारो हि सुखेन, सुट्टतरञ्च लक्खणत्तयं विभावेति, तस्मा सो पच्छतो गहितो। एवं एते सम्मसनीयभावेन गहिता खन्धादिवसेन कोट्ठासतो पञ्चवीसतिविधा, पभेदतो पन अतीतादिभेदं अनामसित्वा गव्हमाना द्वीहि ऊनानि द्वेसतानि होन्ति । इदं तावेत्थ पाळिववत्थानं, अत्थविचारं पन इच्छन्तेहि परमत्थमञ्जूसायं विसुद्धिमग्गसंवण्णनायं वुत्तनयेनेव वेदितब्बं ।
न पुञोति अपुञो। तस्स पुञ-सद्दे वुत्तविपरियायेन अत्थो वेदितब्बो । सन्तानस्स इजनहेतूनं नीवरणादीनं सुविक्खम्भनतो रूपतण्हासङ्घातस्स इञ्जितस्स अभावतो अनिजं, अनिञ्जमेव “आनेञ्ज"न्ति वुत्तं । तथा हि रूपारम्मणं रूपनिमित्तारम्मणं सब्बम्पि चतुत्थज्झानं निप्परियायेन “आनेञ्ज''न्ति वुच्चति ।
चत्तारो मग्गट्ठा, हेट्ठिमा तयो फलट्ठाति एवं सत्तविधो। तिस्सो सिक्खाति अधिसीलादिका तिस्सो सिक्खा । तासु जातोति वा सेक्खो, अरियपुग्गलो हि अरियाय जातिया जायमानो सिक्खासु जायति, न योनियं । सिक्खनसीलोति वा सेक्खो। पुग्गलाधिट्ठानाय वा कथाय सेक्खस्स अयन्ति अञआसाधारणमग्गफलत्तयधम्मा
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०५-३०५)
सेक्खपरियायेन वुत्ता। असेक्खोति च यत्थ सेक्खभावासका अत्थि, तत्थायं पटिसेधोति लोकियनिब्बानेसु असेक्खभावनापत्ति दट्टब्बा । सीलसमाधिपञ्जासङ्खाता हि सिक्खा अत्तनो पटिपक्खकिलेसेहिविप्पमुत्ता परिसुद्धा उपक्किलेसानं आरम्मणभावम्पि अनुपगमनतो एता "सिक्खा''ति वत्तुं युत्ता अट्ठसुपि मग्गफलेसु विज्जन्ति, तस्मा चतुमग्गहेट्ठिमफलत्तयसमङ्गिनो विय अरहत्तफलसमङ्गीपि तासु सिक्खासु जातोति च तंसमङ्गिनो अरहतो इतरेसं विय सेक्खत्ते सति सेक्खस्स अयन्ति च सिक्खा सीलं एतस्साति च “सेक्खो''ति वत्तब्बो सियाति तन्निवत्तनत्थं असेक्खोति यथावुत्तसेक्खभावपटिसेधो कतो। अरहत्तफले हिपवत्तमाना सिक्खा परिनिहितसिक्खाकिच्चत्ता न सिक्खाकिच्चं करोन्ति, केवलं सिक्खाफलभावेनेव पवत्तन्ति, तस्मा न ता सिक्खावचनं अरहन्ति, नापि तंसमङ्गी सेक्खवचनं, न च “सिक्खनसीलो, सिक्खासु जातो"ति च वत्तब्बतं अरहति। हेट्ठिमफलेसु पन सिक्खा सकदागामिमग्गविपस्सनादीनं उपनिस्सयभावतो सिक्खाकिच्चं करोन्तीति सिक्खावचनं अरहन्ति, तंसमङ्गिनो च सेक्खवचनं, “सिक्खनसीला, सिक्खासु जाता''ति च वत्तब्बतं अरहन्ति ।
“सिक्खतीति सेक्खो''ति च अपरियोसितसिक्खो दस्सितोति । अनन्तरमेव "खीणासवो''ति आदिं वत्वा “न सिक्खतीति असेक्खो"ति वुत्तत्ता परियोसितसिक्खो दस्सितो, न सिक्खारहितो तस्स ततियपुग्गलभावेन गहितत्ता। बुद्धिप्पत्तसिक्खो वा असेक्खोति एतस्मिं अत्थे सेक्खधम्मेसु एव ठितस्स कस्सचि अरियस्स असेक्खभावापत्तीति अरहत्तमग्गधम्मा वुद्धिप्पत्ता, यथावुत्तेहि च अत्थेहि सेक्खोति कत्वा तंसमङ्गिनो अग्गमग्गट्ठस्स असेक्खभावो आपन्नोति ? न तंसदिसेसु तब्बोहारतो । अरहत्तमग्गतो हि निन्नानाकरणं अरहत्तफलं ठपेत्वा परिचादिकिच्चकरणं, विपाकभावञ्च, तस्मा ते एव सेक्खधम्मा “अग्गफलधम्मभावं आपन्ना''ति सक्का वत्तुं, कुसलसुखतो च विपाकसुखं सन्ततरताय पणीततरन्ति, वुद्धिप्पत्ता च ते धम्मा होन्तीति तंसमङ्गी “असेक्खो'"ति वुच्चतीति ।
जातिमहल्लकोति जातिया वुड्डतरो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। सो हि रत्तञ्जताय येभुय्येन जातिधम्मकुलधम्मपदेसु थावरियप्पत्तिया जातिथेरो नाम। थेरकरणा धम्माति सासने थिरभावकरा गुणा पटिपक्खनिम्मदनका । थेरोति वक्खमानेसु धम्मसु थिरभावप्पत्तो । सीलवाति पासंसेन सातिसयेन सीलेन समन्नागतो, सीलसम्पन्नोति अत्थो, एतेन
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(१०.३०५-३०५)
तिकवण्णना
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दुस्सील्यसङ्घातस्स बाल्यस्स अभावमाह। सुत्तगेय्यादि बहु सुतं एतेनाति बहुस्सुतो, एतेनास्स सुतविरहसङ्घातस्स बाल्यस्स अभावं, पटिसङ्खानबलेन च पतिद्वितभावं वदति । "चतुन्नं झानानं लाभी"ति इमिना नीवरणादिसङ्घातस्स बाल्यस्स अभावं, भावनाबलेन च पतिट्टितभावं कथेति | “आसवानं खया"तिआदिना अविज्जासङ्घातस्स बाल्यस्स सब्बसो अभावं, खीणासवत्थेरभावेन पतिट्टितभावञ्चस्स दस्सेति। न चेत्थ समुदाये वाक्यपरिसमापनं, अथ खो पच्चेकं वाक्यपरिसमापनन्ति दस्सेन्तो "एवं वुत्तेसु धम्मेसू"तिआदिमाह । थेरनामको वा “थेरो''ति एवं नामको वा ।
अनुग्गहवसेन, पूजावसेन वा अत्तनो सन्तकं परस्स दीयति एतेनाति दानं, परिच्चागचेतना । दानमेव दानमयं। पदपूरणमत्तं मय-सद्दो । पुञञ्च तं यथावुत्तेनत्थेन किरिया च कम्मभावतोति पुञ्जकिरिया। परेसं पियमनापतासेवनीयतादीनं आनिसंसानं । पुब्बे...पे०... वसेनेवाति सङ्खारत्तिके (दी० नि० ३.३०५; दी० नि० अट्ठ० ३.३०५) वुत्तदानमयसीलमयभावनामयचेतनावसेनेव । इमानि वेदितब्बानीति सम्बन्धो । एत्थाति एतेसु पुञ्जकिरियवत्थूसु | कायेन करोन्तस्साति अत्तनो कायेन परिच्चागपयोगं पवत्तेन्तस्स । तदत्थन्ति दानत्थं । “इमं देव्यधम्मं देही''ति वाचं निच्छारेन्तस्स। दानपारमिं आवज्जेत्वा वाति यथा केवलं “अन्नदानादीनि देमी"ति दानकाले तं दानमयं पुञ्जकिरियवत्थु होति, एवं "इमं दानमयं सम्मासम्बोधिया पच्चयो होत"ति दानपारमिं आवज्जेत्वा दानकालेपि दानसीसेनेव पवत्तितत्ता । वत्तसीसे ठत्वाति “एतं दानं नाम मय्हं कुलवंसो कुलतन्ति कुलपवेणी कुलचारित्त"न्ति चारित्तसीले ठत्वा ददतो चारित्तसीलमयं। यथा देय्यधम्मपरिच्चागवसेन पवत्तमानापि दानचेतना वत्तसीसे ठत्वा ददतो सीलमयं पुञ्जकिरियवत्थु होति पुब्बाभिसङ्घारस्स, अपरभागचेतनाय च तथा पवत्तत्ता, एवं देय्यधम्मे खयतो, वयतो सम्मसनं पट्टपेत्वा ददतो भावनामयं पुञ्जकिरियवत्थु होति पुब्बभागचेतनाय, देय्यधम्मे अपरभागचेतनाय च तथा पवत्तत्ता ।
अपचीतिचेतना अपचितिसहगतं अपचीयति एतायाति यथा नन्दीरागो एव नन्दीरागसहगता, यथावुत्ताय वा अपचितिया सहगतं सहपवत्तन्ति अपचितिसहगतं । अपचायनवसेन पवत्तं पुञ्जकिरियवत्थु । वयसा गुणेहि च वुड्डतरानं वत्तपटिपत्तीसु ब्यावटो होति याय चेतनाय, सा वेय्यावच्चं, वेय्यावच्चमेव वेय्यावच्चसहगतं। वेय्यावच्चसङ्घाताय वा वत्तपटिपत्तिया समुट्ठापनवसेनेव सहगतं पवत्तन्ति वेय्यावच्चसहगतं, तथापवत्तं पुञ्जकिरियवत्थु । अत्तनो सन्ताने पत्तं पुझं अनुप्पदीयति एतेनाति पत्तानुप्पदानं। तथा
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०५-३०५)
परेन अनुप्पदिन्नताय पत्तं अब्भनुमोदति एतेनाति पत्तब्भनुमोदनं। अननुप्पदिन्नं पन केवलं अब्भनुमोदीयति एतेनाति अब्भनुमोदनं। धम्मं देसेति एतायाति देसना, देसनाव देसनामयं । सुणाति एतेनाति सवनं, सवनमेव सवनमयं। दिट्ठिया आणस्स उजुगमनं दिट्ठिजुगतं । सब्बत्थ “पुञ्जकिरियवत्थू"ति पदं अपेक्खित्वा नपुंसकलिङ्गता ।।
पूजावसेन सामीचिकिरिया अपचायनं अपचिति। वयसा गुणेहि च जेट्टानं गिलानानञ्च तंतंकिच्चकरणं वेय्यावच्चं। अयमेतेसं विसेसोति आह "तत्था"तिआदि । चत्तारो पच्चये दत्वा सब्बसत्तानन्ति च एकदेसतो उक्कट्ठनिद्देसो, यं किञ्चि देय्यधम्म दत्वा, पुजं वा कत्वा “कतिपयानं, एकस्सेव वा पत्ति होतू"ति परिणामनम्पि पत्तानुप्पदानमेव । तं न महप्फलं तण्हाय परामठ्ठत्ता। परेसं देसेति हितफरणेन मुदुचित्तेनाति आनेत्वा सम्बन्धितब्बं । एवन्ति एवं इमं धम्म सुत्वा बहुस्सुतो हुत्वा परे धम्मदेसनाय अनुग्गण्हिस्सामीति हितफरणेन मुदुचित्तेन धम्मं सुणाति। एवहिस्स सवनं अत्तनो, परेसञ्च सम्मापटिपत्तिया पच्चयभावतो महप्फलं भविस्सतीति। सब्बेसन्ति सब्बेसम्पि दसन्नं पुञ्जकिरियवत्थूनं । नियमलक्खणन्ति महप्फलभावस्स नियामकसभावं । दिट्ठिया उजुभावेनेवाति “अत्थि, नत्थीति अन्तद्वयस्स दुरसमुस्सारितताय “अत्थि दिन्न'"न्तिआदि (म० नि० २.९४; ३.१३६, विभं० ७९३) नयप्पवत्ताय सम्मादिट्ठिया उजुकमेव पवत्तिया । दानादीसु हि यं किञ्चि इमाय एव सम्मादिट्ठिया परिसोधितं महाजुतिकं महाविप्फारं भवति ।
पुरिमेहेव तीहीति पाळियं आगतेहेव तीहि । सीलमये पुञ्जकिरियवत्थुम्हि सङ्गहं गच्छन्ति चारित्तसीलभावतो। दानमये सङ्गहं गच्छन्ति दानसभावत्ता, दानविसयत्ता च । कामं देसना धम्मदानसभावतो दानमये सङ्गहं गच्छतीति वत्तुं युत्ता, कुसलधम्मासेवनभावतो पन विमुत्तायतनसीसे ठत्वा पवत्तिता विय सवनेन सद्धिं भावनामये सङ्गहं गच्छन्तीति वुत्तं । “दिट्टिजुगतं भावनामये''ति केचि । दिद्विजुगते एव च अत्तना कतस्स पुञस्स अनुस्सरणं, तस्स च परेसं अत्थाय परिणामनं, गुणपसंसा, अझेहि करियमानाय पुञ्जकिरियाय, सम्मापटिपत्तिया च अनुमोदनं सरणगमनन्ति एवं आदयो पुञविसेसा सङ्गहं गच्छन्ति दिविजुकम्मवसेनेव तेसं इज्झनतो।
परस्स पटिपत्तिया सोधनत्थो अनुयोगो चोदना, सा यानि निस्साय पवत्तति, तानि चोदनावत्थूनि दिट्ठसुतपरिसङ्कितानि । तेनाह "चोदनाकारणानी"ति । दिद्वेनाति च हेतुम्हि
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(१०.३०५-३०५)
तिकवण्णना
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करणवचनं, दिटेन हेतुनाति अत्थो । किं पन तं दिट्ठन्ति आह “वीतिक्कम"न्ति । दिस्वाति च दस्सनहेतूति अयमेत्थ अत्थो यथा “पञ्जाय चस्स दिस्वाति । "सुतेना"तिआदीसुपि इमिना नयेन अत्थो वेदितब्बो । परस्साति परतो, परस्स वा वचनं सुत्वा । दिट्ठपरिसङ्कितेनाति दिवानुगतेन परिसङ्कितेन, तथा परिसङ्कितेन वा वीतिक्कमेन । सेसपदद्वयेपि एसेव नयो। चोदेति वत्थुसन्दस्सनेन वा संवासप्पटिक्खेपेन वा सामीचिप्पटिक्खेपेन वा । इमस्मिं पन अत्थे वित्थारियमाने अतिप्पपञ्चो होतीति आह "अयमेत्थ सबैपो"ति । वित्थारं पन इच्छन्तानं तस्स अधिगमुपायं दस्सेन्तो “वित्थारो पन...पे०... वेदितब्बो"ति आह ।
कामूपपत्तियोति कामेहि उपपन्नता, समन्नागतताति अत्थो । समन्नागमो च तेसं पटिसेवनं, समधिगमो चाति आह "कामूपसेवना कामपटिलाभा वा'ति । पच्चुपडितकामाति दुतियततियरासीनं विय सयं, परेहि च अनिम्मिता। उट्ठानकम्मफलूपजीविभावतो पन तदुभयवसेन पच्युपट्ठिता कामा एतेसन्ति पच्चुपद्वितकामा। ते पन तेसं येभुय्येन निबद्धानि होन्तीति "निबद्धकामा"ति वुत्तं । चतुदेवलोकवासिनोति चातुमहाराजिकतो पट्ठाय याव तुसिता देवा । विनिपातिकाति आपायिका । परनिम्मिता कामा एतेसन्ति परनिम्मितकामा।
पकतिसेवनवसेनाति अनुमानतो जाननं वदति, न पच्चक्खतो। वसं वत्तेन्तीति यथारुचि पातब्यतं आपज्जन्ति । “मेथुनं पटिसेवन्ती"ति इदं पन केचिवादपटिसेधनत्थं वुत्तं । तेनाह "केचि पना"तिआदि । ते “यामानं अञमकं आलिङ्गितमत्तेन, तुसितानं हत्थामसनमत्तेन, निम्मानरतीनं हसितमत्तेन, परनिम्मितवसवत्तीनं ओलोकितमत्तेन कामकिच्चं इज्झती"ति वदन्ति। "इतरेसं द्विन्नं द्वयंद्वयसमापत्तिया वा"ति वदन्ति तादिसस्स कामेसु विरज्जनस्स तेसु अभावतो, कामानञ्च उत्तरुत्तरि पणीतपणीततरपणीततमभावतो । केवलं पन निस्सन्दाभावो तेसं वत्तब्बो। कामकिच्चन्ति तङ्खणिकपरिळाहूपसमावहं फस्ससुखं । कामाति कामूपभोगा। पाकतिका एवाति हेडिमेहि एकसदिसा एव । एकसङ्घातन्ति एकरूपं समानरूपन्ति, समञातं समानभावन्ति वा अत्थो।
सुखपटिलाभाति सुखसमधिगमा । हेट्ठाति पठमज्झानभूमितो हेट्ठा मनुस्सेसु, देवेसु वा। पठमज्झानसुखन्ति कुसलपठमज्झानं । भूमिवसेनपि हेटुपरिभावो लब्भतेव ब्रह्मकायिकेसु, ब्रह्मपुरोहितेसु वा कुसलज्झानं निब्बत्तेत्वा ब्रह्मपुरोहितेसु, महाब्रह्मेसु वा विपाकसुखानुभवनस्स लब्भनतो। एत्थ च दुतियततियज्झानभूमिवसेन
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दुतियततियसुखूपपत्तीनं वुच्चमानत्ता पठमज्झानभूमिवसेनेव पठमज्झानसुखूपपत्ति वुत्ता । तिन्ताति तेमिता, झानसुखेन चेव झानसमुट्ठानपणीतरूपफुट्टकायेन च पणीता वित्ताति अत्थो । तेनेवाह "समन्ततो तिन्ता'तिआदि । यस्मा कुसलसुखतो विपाकसुखं सन्ततरताय पणीततरं बहुलञ्च पवत्तति, तस्मा वुत्तं "इदम्पि विपाकज्झानसुखं एव सन्धाय वुत्त"न्ति | तेसन्ति आभस्सरानं | सप्पीतिकस्स सुखस्स अतिविय उळारभावतो तेन अज्झोत्थतचित्तानं भवलोभो महा उप्पज्जति। सन्तमेवाति वितक्कविचारसङ्खोभपीतिउब्बिलाविविगमेन अतिविय उपसन्तंयेव । तथा सन्तभावेनेव हि तं अत्तनो पच्चयेहि पधानभावं नीतताय “पणीत''न्ति वुच्चति । तेनाह "पणीतमेवा"ति । अतप्पकेन सुखपारमिप्पत्तेन सुखेन संयुत्ताय तुसाय पीतिया इता पवत्ताति तुसिता। यस्मा ते ततो उत्तरि सुखस्स अभावतो एव न पत्थेन्ति, तस्मा वुत्तं “ततो...पे०... सन्तुट्ठा हुत्वा"ति । ततियज्झानसुखन्ति ततियज्झानविपाकसुखं ।
सत्त अरियपाति अट्ठमकतो पट्ठाय सत्तन्नं अरियानं तेसं तेसं आवेणिकपञ्जा। ठपेत्वा लोकुत्तरं पजे अवसेसा पञ्जा नाम । सब्बापि तेभूमिका पञ्जा “सेक्खा"तिपि न वत्तब्बा, “असेक्खा''तिपि न वत्तब्बाति नेवसेक्खानासेक्खा, पुथुज्जनपञा ।
योगविहितेसूति पाविहितेसु पञ्जापरिणामितेसु उपायपञ्जाय सम्पादितेसु ! कम्मायतनेसूति एत्थ कम्ममेव कम्मायतनं, कम्मञ्च तं आयतनञ्च आजीवादीनन्ति वा कम्मायतनं। एस नयो सिप्पायतनेसुपि । तत्थ च दुविधं कम्मं हीनञ्च वड्डकिकम्मादि, उक्कट्ठञ्च कसिवाणिज्जादि । सिप्पम्पि दुविधं हीनञ्च नळकारसिप्पादि, उक्कठ्ठञ्च मुद्दगणनादि । विज्जाव विज्जाटानं, तं धम्मिकमेव नागमण्डलपरित्तफुधमनकमन्तसदिसं वेदितब्बं । तानि पनेतानि एकच्चे पण्डिता बोधिसत्तसदिसा मनुस्सानं फासुविहारं आकङ्घन्ता नेव अजेहि करियमानानि पस्सन्ति, न वा कतानि उग्गण्हन्ति । न करोन्तानं सुणन्ति, अथ खो अत्तनो धम्मताय चिन्ताय करोन्ति । पञ्जवन्तेहि अत्तनो धम्मताय चिन्ताय कतानिपि अञहि उग्गण्हित्वा करोन्तेहि कतसदिसानेव होन्ति । कम्मस्सकतन्ति "इदं कम्मं सत्तानं सकं, इदं नो सक''न्ति एवं जाननाणं | सच्चानुलोमिकन्ति विपस्सनाजाणं । तहि सच्चपटिवेधस्स अनुलोमनतो "सच्चानुलोमिक"न्ति वुच्चति । इदानिस्स पवत्तनाकारं दस्सेतुं "रूपं अनिच्चन्ति वा"तिआदि वुत्तं । तत्थ वा-सद्देन अनियमत्थेन दुक्खानत्तलक्खणानिपि गहितानेवाति दट्टब्बं नानन्तरियकभावतो। यहि अनिच्चं, तं दुक्खं । यं दुक्खं, तदनत्ताति [(सिज्झनतो) अधिकपाठो विय दिस्सति] । यं एवरूपन्ति यं एवं हेट्ठा निद्दिवसभावं। “अनुलोमिकं खन्ति"न्तिआदीनि
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तिकवण्णना
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पञ्जावेवचनानि । सा हि हेट्ठा वुत्तानं कम्मायतनादीनं पञ्चन्नं कारणानं अपच्चनीकदस्सनेन अनुलोमनतो, तथा सत्तानं हितचरियाय मग्गसच्चस्स, परमत्थसच्चस्स च निब्बानस्स अविलोमनतो अनुलोमेतीति च अनुलोमिका। सब्बानिपि एतानि कारणानि खमति सहति दटुं सक्कोतीति खन्ति। पस्सतीति दिट्ठि। रोचेतीति रुचि। मुनातीति मुति। पेक्खतीति पेक्खा। ते च कम्मायतनादयो धम्मा निज्झायमाना एताय निज्झानं खमन्तीति धम्मनिज्झानक्खन्ति। परतो असुत्वा पटिलभतीति अञस्स उपदेसवचनं असुत्वा सयमेव चिन्तेन्तो पटिलभति । अयं बुच्चतीति अयं चिन्तामया पञा नाम वुच्चति । सा पनेसा अभिञातानं बोधिसत्तानमेव उप्पज्जति । तत्थापि सच्चानुलोमिकाणं द्विन्नमेव बोधिसत्तानं अन्तिमभविकानं, सेसपञा सब्बेसम्पि पूरितपारमीनं महापञानं उप्पज्जति ।
परतो सुत्वा पटिलभतीति कम्मायतनादीनि परेन करियमानानि, परेन कतानि वा दिस्वापि परस्स कथयमानस्स वचनं सुत्वापि आचरियसन्तिके उग्गहेत्वापि पटिलद्धा सब्बा परतो सुत्वा पटिलद्धनामाति वेदितब्बा। समापनस्साति समापत्तिसमनिस्स, निदस्सनमत्तमेतं । विपस्सनामग्गपञा हि इध “भावनापञ्जा''ति विसेसतो इच्छिताति ।
आवुधं नाम पटिपक्खविमथनत्थं इच्छितब्बं, रागादिसदिसो च पटिपक्खो नत्थि, तस्स च विमथनं बुद्धवचनमेवाति “सुतमेव आवुध"न्ति वत्वा "तं अत्थतो तेपिटकं बुद्धवचन"न्ति आह । इदानि तमत्थं विवरन्तो "तं हीति आदिं वत्वा "सुतावुधो"तिआदिना (अ० नि० २.७.६७) सुत्तपदेन समत्थेति । तत्थ अकुसलं पजहतीति तदङ्गादिवसेन अकुसलं परिच्चजति । कुसलं भावेतीति समथविपस्सनादिकुसलं धम्म उप्पादेति वड्डेति च। सुद्धं अत्तानं परिहरतीति तेन अकुसलप्पहानेन, ताय च कुसलभावनाय रागादिसंकिलेसतो विसुद्धं अत्तभावं पवत्तेति ।
विवेकट्टकायानन्ति गणसङ्गणिकं वज्जेत्वा ततो अपकड्डितकायानं । स्वायं कायविवेको न केवलं एकाकीभावो, अथ खो पठमज्झानादि नेक्खम्मयोगतोति आह "नेक्खम्माभिरतान"न्ति । चित्तविवेकोति किलेससङ्गणिकं पहाय ततो चित्तस्स विवित्तता। सा पन झानविमोक्खादीनं वसेन होतीति आह "परिसुद्धचित्तानं परमवोदानप्पत्तान"न्ति । उपधिविवेकोति निब्बानं । तदधिगमेन हि पुग्गलस्स निरुपधिता। तेनाह "निरुपधीनं पुग्गलान"न्ति, विसङ्घारगतानं अधिगतनिब्बानानं, फलसमापत्तिसमङ्गीनञ्चाति अत्थो । सुतम्पि अवस्सयटेनेव आवुधं वुत्तन्ति आह “अयम्पी"ति । तथा हि वुत्तं "तहि निस्साया''ति ।
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कामञ्चेत्थ सुतपविवेकापि पावसेनेव यथाधिप्पेतआवुधत्तसाधका, पञा पन सुतेन, एकच्चपविवेकेन वा विनापि इधाधिप्पेतआवुधत्तसाधनीति ततो पञा सामत्थियदस्सनत्थं विसुं आवुधभावेन वुत्ता । तेनाह “यस्स सा अत्थि, सो न कुतोची'तिआदि ।
नाज्ञातं अविदितं धम्मन्ति अनमतग्गे संसारवटे न अज्ञातं अविदितं अमतधम्म, चतुसच्चधम्ममेव वा जानिस्सामीति पटिपन्नस्स इमिना पुब्बाभोगेन उप्पन्नं इन्द्रियं। यं पाळियं सङ्गहवारे "नव इन्द्रियानि होन्ती"ति वुत्तं, तं पुब्बाभोगसिद्धं पवत्तिआकारविसेसं दीपेतुं वुत्तं, अत्थतो पन मग्गसम्मादिट्ठि एव साति आह "सोतापत्तिमग्गत्राणस्सेतं अधिवचन"न्ति । अञ्जिन्द्रियन्ति आजाननकइन्द्रियं, पठममग्गेन आतमरियादं अनतिक्कमित्वा तेसंयेव तेन मग्गेन तानं चतुसच्चधम्मानं जाननकइन्द्रियन्ति वुत्तं होति। तेनाह "अञआभूतं आजाननभूतं इन्द्रिय"न्ति । आजानातीति अञो, अञस्स भूतं, आजाननवसेन वा भूतन्ति अञभूतं। अञआतावीसूति जानितब्बं चतुअरियसच्चं आजानित्वा ठितेसु। तेनाह "जाननकिच्चपरियोसानप्पत्तेसू'ति, परिञादिभेदस्स जाननकिच्चस्स परिनिट्ठानप्पत्तेसु ।
मंसचक्खु चक्खुपसादोति मंसचक्खु नाम चतस्सो धातुयो, वण्णो, गन्धो, रसो, ओजा, सम्भवो, सण्ठानं, जीवितं, भावो, कायप्पसादो, चक्खुपसादोति एवं चुद्दससम्भारो मंसपिण्डो।
कसिणालोकं वड्डत्वा तत्थ रूपदस्सनतो "दिब्बचक्खु आलोकनिस्सितं आण"न्ति वुत्तं । दिब्बचक्खुप विनिमुत्ता एव लोकियपञा पञाचक्खूति अयमत्थो अवुत्तसिद्धो दिब्बचक्खुस्स विसु गहितत्ताति वुत्तं “पञाचक्खु लोकियलोकुत्तरपञ्जा'ति ।
अधिकं विसिटुं सीलन्ति अधिसीलं। सिक्खितब्बतोति आसेवितब्बतो । अधिसीलं नाम अनवसेसकायिकवाचसिकसंवरभावतो, मग्गसीलस्स पदट्ठानभावतो च। अधिचित्तं मग्गसमाधिस्स अधिट्ठानभावतो। अधिपञ्जा मग्गपञआय अधिट्ठानभावतो। इदानि नेसं अधिसीलादिभावं कारणेन पटिपादेतुं "अनुप्पन्नेपि ही"तिआदि वुत्तं । तत्थ अनुष्पन्नेति अप्पवत्ते। अधिसीलमेव निब्बानाधिगमस्स पच्चयभावतो। समापनाति एत्थ “निब्बानं पत्थयन्तेना''ति पदं आनेत्वा सम्बन्धितब्बं ।
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तिकवण्णना
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"कल्याणकारी कल्याणं, पापकारी च पापकं । अनुभोति द्वयम्पेतुं, अनुबन्धहि कारक"न्ति । (सं० नि० १.१.२५६)
एवं अतीते, अनागते च वट्टमूलकदुक्खसल्लक्खणवसेन संवेगवत्थुताय विमुत्तिआकवाय पच्चयभूता कम्मस्सकतापञ्जा अधिपञ्जा'ति वदन्ति । लोकियसीलादीनं अधिसीलादिभावो परियायेनाति निप्परियायमेव तं दस्सेतुं “सब्बं वा"तिआदि वुत्तं ।।
पञ्चद्वारिककायोति पञ्चद्वारेसु कायो फस्सादिधम्मसमूहो । कायो च सो भावितभावेन भावना चाति कायभावना नाम। यस्मा खीणासवानं अग्गमग्गाधिगमनेन सब्बसंकिलेसा पहीनाति पहीनकालतो पट्ठाय सब्बसो आसेवनाभावतो नत्थि तेसं भाविनियापि चक्खुसोतविद्येय्या धम्मा, पगेव काळका, तस्मा पञ्चद्वारिककायो सुभावितो एव होति । तेन वुत्तं "खीणासवस्स हि...पे०... सुभावितो होती"ति । न अक्षेसं विय दुब्बला दुब्बलभावकरानं किलेसानं सब्बसो पहीनत्ता ।
विपस्सना दस्सनानुत्तरियं अनिच्चानुपस्सनादिवसेन सङ्घारानं सम्मदेव दस्सनतो। मग्गो पटिपदानुत्तरियं तदुत्तरिपटिपदाय अभावतो । फलं विमुत्तानुत्तरियं अकुप्पभावतो । फलं वा दस्सनानुत्तरियं दिवसम्पि निब्बानं पच्चक्खतो दिस्वा पवत्तनतो। निब्बानं विमुत्तानुत्तरियं सब्बसङ्खतविनिस्सटत्ता। दस्सन-सई कम्मसाधनं गहेत्वा निब्बानस्स दस्सनानुत्तरियता वुत्ताति दस्सेन्तो "ततो उत्तरहि दट्ठब्बं नाम नत्थी"ति आह । नत्थि इतो उत्तरन्ति अनुत्तरं, अनुत्तरमेव अनुत्तरियन्ति आह "उत्तमं जेट्टक"न्ति ।
सेसोति वुत्तावसेसो पञ्चकनयेन, चतुक्कनयेन च तिविधो समाधि, इमिना एव च समाधित्तयापदेसेन सुत्तन्तेसुपि पञ्चकनयो आगतो एवाति वेदितब्बं । तत्थ यं वत्तब्द, तं परमत्थमञ्जूसायं विसुद्धिमग्गसंवण्णनायं (विसुद्धि० टी० १.३८) वुत्तमेव, तस्मा तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बं ।
आगच्छति नामं एतस्माति आगमनं, ततो आगमनतो। सगुणतोति सरसतो । आरम्मणतोति आरम्मणधम्मतो । अनत्ततो अभिनिविसित्वाति "सब्बे सङ्खारा अनत्ता''ति विपस्सनं पट्ठपेत्वा । अनत्ततो दिस्वाति पठमं सङ्घारानं “अनत्ता"ति अनत्तलक्खणं पटिविज्झित्वा। अनत्ततो वुढातीति वुढानगामिनिविपस्सनाय अनत्ताकारतो पवत्ताय
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मग्गवुट्टानं पापुणाति । असुञतत्तकारकानं किलेसानं अभावाति अत्ताभिनिवेसपच्चयानं दिवेकट्ठानं किलेसानं विक्खम्भनतो विपस्सना सुञता नाम अत्तसुञताय याथावतो गहणतो। ननु एवं विपस्सनाय सगुणतो सुझता, न आगमनतोति निप्परियायतो नत्थीति ? सच्चमेतं नामलाभे, न पन नामदानेति नायं दोसो । अथ वा सुत्तन्तकथा नाम परियायकथा, न अभिधम्मकथा विय निप्परियायाति भिय्योपि न कोचि दोसो।
यस्मा सगुणतो, आरम्मणतो च नामलाभे सङ्करो होति एकस्सेव नामन्तरलाभसम्भवतो। आगमनतो पन नामलाभे सङ्करो नत्थि नामन्तरलाभाभावतो, असम्भवतो. च, तस्मा “अपरो"तिआदि वुत्तं। निमित्तकारककिलेसाभावाति निच्चनिमित्तादिग्गाहकपच्चयानं किलेसानं विक्खम्भनतो। कामञ्चायं विपस्सना निच्चनिमित्तादिं उग्घाटेन्ती पवत्तति, सङ्घारनिमित्तस्स पन अविस्सज्जनतो न निप्परियायतो अनिमित्तनामं लभतीति । परियायेन पनेतं वुत्तं । तथा हि निप्परियायदेसनत्ता अभिधम्मे मग्गस्स अनिमित्तनामं उद्धटं । सुत्ते च -
"अनिमित्तञ्च भावेहि. मानानसयमज्जह । ततो मानाभिसमया, उपसन्तो चरिस्ससी''ति || (सु० नि० ३४४; सं० नि० १.१.२१२)
अनिमित्तपरियायो आगतो । पणिधिकारककिलेसाभावाति सुखपणिधिआदिपच्चयानं किलेसानं विक्खम्भनतो ।
रागादीहि सुञत्ताति समुच्छेदवसेन पजहनतो रागादीहि विवित्तत्ता | रागादयो एव रागनिमित्तादीनि। पुरिमुप्पन्ना हि रागादयो परतो उप्पज्जनकरागादीनं कारणं होति । रागादयो एव तथा पणिधानस्स पच्चयभावतो रागपणिधिआदयो। निब्बानं विसङ्घारभावेनेव सब्बसङ्खारविनिस्सटत्ता रागादीहि सुझं, रागादिनिमित्तपणिधिविरहितञ्चाति दट्टब्बं । एत्थ च सङ्घारुपेक्खा सानुलोमा वुट्ठानगामिनिविपस्सना, सा सुञतो विपस्सन्ती “सुञता"ति वुच्चति, दुक्खतो पस्सन्ती तण्हापणिधिसोसनतो “अप्पणिहिता''ति । सा मग्गाधिगमाय आगमनपटिपदाठाने ठत्वा मग्गस्स "सुञ्जतं अनिमित्तं अप्पणिहित"न्ति नामं देति । आगमनतो च नामे लद्धे सगुणतो च आरम्मणतो च नामं सिद्धमेव होति, न पन सगुणारम्मणेहि नामलाभे सब्बत्थ आगमनतो नामं सिद्ध होतीति परिपुण्णनामसिद्धिहेतुत्ता,
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तिकवण्णना
"सगुणारम्मणेहि सब्बेसम्पि नामत्तययोगो, न आगमनतो"ति ववत्थानकरत्ता च निप्परियायतो आगमनतोव नामलाभो पधानं, न इतरेहि, परियायतो पन तिधा नामलाभो इच्छितब्बोति अट्ठकथायं “तिविधा कथा"तिआदिना अयं विचारो कतोति दट्ठब्बं ।
सुचिभावोति किलेसासुचिविगमेन सुद्धभावो असंकिलिट्ठभावो। तेनाह "तिण्णं सुचरितानं वसेन वेदितब्बो"ति ।
मुनिनो एतानीति मोनेय्यानि। येहि धम्मेहि उभयहितमुननतो मुनि नाम होति, ते एवं वुत्ताति आह "मुनिभावकरा मोनेय्यपटिपदा धम्मा'ति । तत्थ यस्मा कायेन अकत्तब्बस्स अकरणं, कत्तब्बस्स च करणं, “अस्थि इमस्मिं काये केसा''तिआदिना (दी० नि० २.३७७; म० नि० १.११०; ३.१५३; अ० नि० २.६.२९; ३.१०.६०; विभं० ३५६; खु० पा० ३.१; नेत्ति० ४७) कायसङ्खातस्स आरम्मणस्स जाननं, कायस्स च समुदयतो अत्थङ्गमतो अस्सादतो आदीनवतो निस्सरणतो च याथावतो परिजाननं, तथा परिजाननवसेन पवत्तो विपस्सनामग्गो, तेन च काये छन्दरागस्स पजहनं, कायसङ्खारं निरोधेत्वा पत्तब्बसमापत्ति चाति सब्बे एते कायमुखेन पवत्ता मोनेय्यपटिपदा धम्मा कायमोनेय्यं नाम । तस्मा तमत्थं दस्सेतुं “तिविधकायदुच्चरितस्स पहान"न्तिआदिना पाळि आगता। सेसद्वयेपि एसेव नयो । तत्थ चोपनवाचञ्चेव सद्दवाचञ्च आरब्भ पवत्ता पञ्जा वाचारम्मणे जाणं। तस्स वाचाय समुदयादितो परिजाननं वाचापरिचा। एकासीतिविधं लोकियचित्तं आरब्भ पवत्तञाणं मनारम्मणे आणं। तस्स समुदयादितो परिजाननं मनोपरिञाति अयमेव विसेसो ।
अयन्ति इतो सम्पत्तियोति आयो, कुसलानं धम्मानं अभिबुद्धीति आह “आयोति वुड्डी"ति । अपेन्ति सम्पत्तियो एतेनाति अपायो, कुसलानं धम्मानं हानीति आह "अपायोति अवुड्डी"ति । तस्स तस्साति आयस्स च अपायस्स च । कारणं उपायो उपेति उपगच्छति एतेन आयो, अपायो चाति । तत्थ दुविधा वुड्ढि अनत्थहानितो, अत्थुप्पत्तितो च, तथा अवुड्ढि अत्थहानितो, अनत्थुप्पत्तितो च । तेसं पजाननाति तेसं आयापायसञितानं यथावुत्तप्पभेदानं वुड्डिअवुड्डीनं याथावतो पजानना । कोसल्लं कुसलता निपुणता । तदुभयम्पि पाळिवसेनेव दस्सेतुं “वुत्तहेत"न्तिआदि वुत्तं ।
तत्थ इदं वुच्चतीति या इमेसं अकुसलधम्मानं अनुप्पत्तिनिरोधेसु, कुसलधम्मानञ्च
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
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उप्पत्तिभिय्योभावेसु पञा, इदं आयकोसल्लं नाम वुच्चति । इदानि अपायकोसल्लम्पि पाळिवसेनेव दस्सेतुं "तत्थ कतम"न्तिआदि वुत्तं । तत्थ इदं बुच्चतीति या इमेसं कुसलधम्मानं अनुप्पज्जननिरुज्झनेसु, अकुसलधम्मानञ्च उप्पत्तिभिय्योभावेसु पञा, इदं अपायकोसल्लं नाम वुच्चतीति । एत्थाहआयकोसल्लं ताव पञ्जा होतु, अपायकोसल्लं कथं पञा नाम जाताति एवं मञ्जति “अपायुप्पादनसमत्थता अपायकोसल्लं नामा''ति, तं पन तस्स मतिमत्तं । पञवा एव हि “महं एवं मनसि करोतो अनुप्पन्ना कुसला धम्मा नुप्पज्जन्ति, उप्पन्ना निरुज्झन्ति । अनुप्पन्ना अकुसला धम्मा उप्पज्जन्ति, उप्पन्ना वड्डन्ती"ति पजानाति, सो एवं अत्वा अनुप्पन्ने अकुसले धम्मे न उप्पादेति, उप्पन्ने पजहति । अनुप्पन्ने कुसले धम्मे उप्पादेति, उप्पन्ने भावनापारिपूरिं पापेति । एवं अपायकोसल्लम्पि पञा एवाति । सब्बापीति आयकोसल्लपक्खिकापि अपायकोसल्लपक्खिकापि । तत्रुपायाति तत्र तत्र करणीये उपायभूता ।
तस्स तिकिच्छनत्थन्ति अच्चायिकस्स किच्चस्स, भयस्स वा परिहरणत्थं ठानुप्पत्तियकारणजाननवसेनेवाति ठाने तङ्खणे एव उप्पत्ति एतस्स अत्थीति ठानुप्पत्तिकं, ठानसो उप्पज्जनककारणं, तस्स जाननवसेनेव।
मज्जनाकारवसेन पवत्तमानाति अत्तनो वत्थुनो मदनीयताय मदस्स आपज्जनाकारेन पवत्तमाना उण्णतियो। निरोगोति अरोगो । मानकरणन्ति मानस्स उप्पादनं । योब्बने ठत्वाति योब्बने पतिट्ठाय, योब्बनं अपस्सायाति अत्थो । सब्बेसम्पि जीवितं नाम मरणपभङ्गुरं दुक्खानुबन्धञ्च, तदुभयं अनोलोकेत्वा, पबन्धट्ठितिपच्चया सुलभतञ्च निस्साय उप्पज्जनकमदो जीवितमदोति दस्सेतुं “चिरं जीवि"न्तिआदि वुत्तं ।।
___ अधिपति वुच्चति जेट्ठको, इस्सरोति अत्थो । ततो अधिपतितो आगतं आधिपतेय्यं । किं तं ? पापस्स अकरणं । तेनाह "एत्तकोम्ही"तिआदि । तत्थ सीलादयो लोकिया एव दट्टब्बा, तस्मा विमुत्तियाति लोकियविमुत्तिया । जेट्टकन्ति इस्सरं, गरुन्ति अत्थो । एत्थ च अत्तानं, धम्मञ्च अधिपतिं कत्वा पापस्स अकरणं हिरिया वसेन वेदितब्बं । लोकं अधिपतिं कत्वा अकरणं ओत्तप्पस्स वसेन ।
कथावत्थूनीति कथाय पवत्तिहानानि । यस्मा तेहि विना कथा नप्पवत्तति, तस्मा "कथाकारणानी"ति वुत्तं । अद्धान-सद्दस्स अत्थो हेट्ठा वुत्तो एव, सो पनत्थतो
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(१०.३०६-३०६)
चतुक्कवण्णना
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धम्मप्पवत्तिमत्तं । धम्मा चेत्थ खन्धा एव, तब्बिनिमुत्ता च तेसं गति नत्थीति आह “अतीतं धम्मं, अतीतक्खन्धेति अत्थो"ति । अयञ्च अद्धा नाम दिसादि विय अत्थतो धम्मप्पवत्तिं उपादाय पञत्तिमत्तं, न उपादा न भूतधम्मोति तमत्थं दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं ।
"तमविज्झनटेन विदितकरणद्वेना"ति सोपतो वुत्तमत्थं विवरितुं "पुब्बेनिवासा"तिआदि वुत्तं । पुब्बेनिवासन्ति पुब्बे निवुत्थक्खन्थे । तमन्ति मोहतमं । विज्झतीति विहनति, पजहतीति अत्थो। तेनेव च पटिच्छादकतमविज्झनेन पुब्बेनिवासञ्च विदितं पाकटं करोतीति विज्जाति । तन्ति चुतूपपातं । ..
उपपत्तिदेवविसेसभावावहो विहारोति कत्वा दिब्बो विहारो। ननु एवं अञ्जमज्ञानम्पि दिब्बविहारभावो आपज्जतीति ? न तासं सत्तेसु हितूपसंहारादिवसेन पवत्तिया सविसेसं निदोसटेन, सेट्टटेन च ब्रह्मविहारसमञाय निरुळहभावतो । सुविसुद्धितो पटिपक्खसमुच्छिन्दनवसेन अरणीयतो पत्तब्बतो, अरियभावप्पत्तिया वा अनन्तरं अरियो। अरियानं अयन्ति वा अरियो विहारो ।
सेसं हेट्ठा वुत्तनयमेव ।
तिकवण्णना निहिता।
चतुक्कवण्णना
३०६. पुब्बेति हेट्ठा महासतिपट्ठानवण्णनायं ।
यो छन्दोति यो छन्दियनवसेन छन्दो | छन्दिकताति छन्दभावो, छन्दिकरणाकारो वा । कत्तुकम्यताति कत्तुकामता । कुसलोति छेको कोसल्लसम्भूतो। धम्मच्छन्दोति सभावच्छन्दो । अयहि छन्दो नाम तण्हाछन्दो, दिट्ठिछन्दो, वीरियछन्दो, धम्मच्छन्दोति बहुविधो । इध कत्तुकम्यताकुसलधम्मच्छन्दो अधिप्पेतो । छन्दं जनेतीति तं छन्दं उप्पादेति । तं पवत्तेन्तो हि जनेति नाम। वायामं करोतीति पयोगं परक्कमं करोति । वीरियं आरभतीति
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०७-३०७)
कायिकचेतसिकवीरियं पवत्तेति। चित्तं उपत्थम्भेतीति तेनेव सहजातवीरियेन चित्तं उक्खिपति। पदहतीति पधानं वीरियं करोति। पटिपाटिया पनेतानि पदानि उप्पादनासेवनाभावनाबहुलीकम्मसातच्चकिरियाहि योजेतब्बानि | वित्थारं परिहरन्तो "अयमेत्थ सङ्घपो"तिआदिमाह।
छन्दं निस्सायाति “छन्दवतो चेतोसमाधि होति, मय्हं एवं होती"ति एवं छन्दं निस्साय छन्दं धुरं जेट्टकं पुब्बङ्गमं कत्वा पवत्तो समाधि छन्दसमाधि । पधानभूताति पधानजाता, पधानभावं वा पत्ता । सङ्घाराति चतुकिच्चसाधकं सम्मप्पधानवीरियं वदति । तेहि धम्मेहीति यथावुत्तसमाधिवीरियेहि उपेतं सम्पयुत्तं। इद्धिया पादन्ति निप्फत्तिपरियायेन इज्झनटेन, इज्झन्ति एताय सत्ता इद्धा वुद्धा उक्कंसगता होन्तीति इमिना वा परियायेन "इद्धी''ति सङ्ख्यं गतानं उपचारज्झानादिकुसलचित्तसम्पयुत्तानं छन्दसमाधिपधानसङ्खारानं अधिट्ठानटेन पादभूतं । यस्मा पुरिमा इद्धि पच्छिमाय इद्धिया पादो पादकं पदट्ठानं होति, तस्मा “इद्धिभूतं वा पाद"न्ति च वुत्तं । सेसेसुपीति दुतियइद्धिपादादीसु | कामज्वेत्थ जनवसभसुत्तेपि इद्धिपादविचारो आगतो, सोपि सङ्खपतो एवाति आह "वित्थारो पन...पे०... दीपितो"ति ।
३०७. दिवधम्मो वुच्चति पच्चक्खभूतो अत्तभावोति आह "इमस्मिंयेव अत्तभावे'ति । सुखविहारत्थायाति निक्किलेसताय निरामिसेन सुखेन विहरणत्थाय । फलसमापत्तिझानानीति चत्तारिपि फलसमापत्तिझानानि । अपरभागेति आसवक्खयाधिगमतो अपरभागे। निब्बत्तितज्झानानीति अधिगतरूपारूपज्झानानि ।
सूरियचन्दपज्जोतमणिआदीनन्ति पज्जोतग्गहणेन पदीपं वदति। आदि-सद्देन उक्काविज्जुलतादीनं सङ्गहो। आलोकोति मनसि करोतीति सूरियचन्दालोकादिं दिवा, रत्तिञ्च उपलद्धं यथालद्धवसेनेव मनसि करोति चित्ते ठपेति । तथाव नं मनसि करोति, यथास्स सुभावितालोककसिणस्स विय कसिणालोको यदिच्छकं यावदिच्छकं । सो आलोको रत्तियं उपतिद्वति, येन तत्थ दिवासचं ठपेति दिवा विय विगतथिनमिद्धो होति । तेनाह “यथा दिवा तथा रत्ति"न्ति । यथा रत्तिं आलोको दिट्ठोति यथा रत्तिया चन्दालोकादिआलोको दिट्ठो उपलद्धो । एवमेव दिवा मनसि करोतीति रत्तिं दिट्ठाकारेनेव दिवा तं आलोकं मनसि करोति चित्ते ठपेति । अपिहितेनाति थिनमिद्धपिधानेन न पिहितेन । अनद्धेनाति असञ्छादितेन। सओभासन्ति सजाणोभासं ।
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(१०.३०७-३०७)
चतुक्कवण्णना
१९५
थिनमिद्धविनोदनआलोकोपि वा होतु कसिणालोकोपि वा परिकम्मालोकोपि वा, उपक्किलेसालोको विय सब्बायं आलोको आणसमुट्ठानो वाति । जाणदस्सनपटिलाभत्थायाति दिब्बचक्खुञाणपटिलाभत्थाय । दिब्बचक्खुञाणहि रूपगतस्स दिब्बस्स, इतरस्स च दस्सनटेन इध “ञाणदस्सन"न्ति अधिप्पेतं । “आलोकसझं मनसि करोती"ति एत्थ वुत्तआलोको थिनमिद्धविनोदनआलोको। परिकम्मआलोकोति दिब्बचक्खुजाणाय परिकम्मकरणवसेन पवत्तितआलोको । तत्थ पुरिमस्स वसेन "खीणासवस्सा''ति विसेसेत्वा वुत्तं । तस्स हि थिनमिद्धं सुप्पहीनं होति, न अजेसं । दुतियस्स वसेन "तस्मिं वा आगतेपी"तिआदि वुत्तं । तत्थ तस्मिन्ति दिब्बचक्खुजाणे । आगतेपीति पटिलद्धेपि । अनागतेपीति अप्पटिलद्धेपि । यस्मा तथारूपस्स पादकज्झानस्सेव वसेन परिकम्मआलोकस्स सम्भवो, यतो तं परिसुद्धपरियोदाततादिगुणविसेसुपसंहितं, तस्मा आह “पादक...पे०... भावेतीति वुत्त"न्ति ।
सत्तहानिकस्साति “अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होती"तिआदिना (दी० नि० १.२१४, २.६९; म० नि० १.१०२) वुत्तस्स सत्तट्ठानिकस्स । सतिपि सेक्खानं परिञातभावे एकन्ततो परिञातवत्थुका नाम अरहन्तो एवाति वुत्तं "खीणासवस्स वत्थु विदितं होती"तिआदि । वत्थारम्मणविदिततायाति वत्थुनो, आरम्मणस्स च याथावतो विदितभावेन । यथा हि सप्पपरियेसनं चरन्तेन तस्स आसये विदिते सोपि विदितो एव च होति मन्तागदबलेन तस्स गहणस्स सुकरत्ता, एवं वेदनाय आसयभूते वत्थुम्हि, आरम्मणे च विदिते आदिकम्मिकस्सपि वेदना विदिता एव होति सलक्खणतो, सामञ्जलक्खणतो च तस्सा गहणस्स सुकरत्ता, पगेव परिञातवत्थुकस्स खीणासवस्स | तस्स हि उप्पादक्खणेपि ठितिक्खणेपि भङ्गक्खणेपि वेदना विदिता पाकटा होन्ति । तेनाह "एवं वेदना उप्पज्जन्ती"तिआदि। निदस्सनमत्तञ्चेतं, यदिदं पाळियं वेदनासावितक्कग्गहणन्ति दस्सेन्तो "न केवल"न्तिआदिमाह, तेन अवसेसतो सब्बधम्मानम्पि उप्पादादितो विदितभावं दस्सेति ।
इदानि न केवलं खणतो एव, अथ खो पच्चयतोपि अनिच्चादितोपि न केवलं खीणासवानंयेव वसेन, अथ खो एकच्चानं सेक्खानम्पि वसेन वेदनादीनं विदितभावं दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । तत्थ अविज्जासमुदयाति अविज्जाय उप्पादा, अस्थिभावाति अत्थो । निरोधविरोधी हि उप्पादो अस्थिभाववाचकोपि होतीति तस्मा पुरिमभवसिद्धाय अविज्जाय सति इमस्मिं भवे वेदनाय उप्पादो होतीति अत्थो। अविज्जादीहि
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०८-३०८)
अतीतकालिकादीहि तेसं सहकारणभूतानि उप्पादादीनिपि गहितानेवाति वेदितब्बं । वेदनाय पवत्तिपच्चयेसु फस्सस्स बलवभावतो सो एव गहितो “फस्ससमुदया'ति । तस्मिं पन गहिते पवत्तिपच्चयतासामञ्जेन वत्थारम्मणादीनिपि गहितानेव होन्तीति सब्बस्सापि वेदनाय अनवसेसतो पच्चयतो उदयदस्सनं विभावितन्ति दट्ठब्बं । “निब्बत्तिलक्खण"न्तिआदिना खणवसेन उदयदस्सनमाह । उप्पज्जति एतस्माति उप्पादो, उप्पज्जनं उप्पादोति पच्चयलक्खणं, खणलक्खणञ्च उभयं एकझं गहेत्वा आह "एवं वेदनाय उप्पादो विदितो होती"ति।
अनिच्चतो मनसि करोतोति वेदना नामायं अनच्चन्तिकताय आदिअन्तवती उदयब्बयपरिच्छिन्ना खणभङ्गुरा तावकालिका, तस्मा “अनिच्चा''ति अनिच्चतो मनसि करोतो । तस्सा खयतो, वयतो च उपट्टानं विदितं पाकटं होति। दुक्खतो मनसि करोतोति अनिच्चत्ता एव वेदना उदयब्बयपटिपीळितताय, दुक्खमताय, दुक्खवत्थुताय च "दुक्खा''ति मनसि करोतो भयतो भायितब्बतो तस्सा उपट्ठानं विदितं पाकटं होतीति । तथा अनिच्चत्ता, दुक्खत्ता एव च वेदना अत्तरहिता असारा निस्सारा अवसवत्तिनी तुच्छाति वेदनं अनत्ततो मनसि करोतो सुञतो रित्ततो असामिकतो उपट्ठानं विदितं पाकटं होति । "खयतो"तिआदि वुत्तस्सेव अत्थस्स निगमनं । तस्मा वेदनं खयतो भयतो सुझतो जानातीति अत्थवसेन विभत्तिपरिणामो वेदितब्बो। अविज्जानिरोधा वेदनानिरोधोति अग्गमग्गेन अविज्जाय अनुप्पादनिरोधतो वेदनाय अनुप्पादनिरोधो होति पच्चयाभावे अभावतो । सेसं समुदयवारे वुत्तनयानुसारेन वेदितब्बं | इध समाधिभावनाति सिखाप्पत्ता अरियानं विपस्सनासमाधिभावना । तस्सा पादकभूता झानसमापत्ति वेदितब्बा ।
वुत्तनयमेव महापदाने (दी० नि० २.६२) ।
३०८. पमाणं अग्गहेत्वाति असुभभावना विय पदेसं अग्गहेत्वा । एकस्मिम्पि सत्ते पमाणाग्गहणेन अनवसेसफरणेन । नत्थि एतासं गहेतब्बं पमाणन्ति हि अप्पमाणा, अप्पमाणा एव अप्पमझा।
अपस्सयितब्बटेन अपस्सेनानि, इध भिक्खु यानि अपस्साय तिस्सो सिक्खा सिक्खितुं समत्थो होति, तेसमेव अधिवचनं । तानि पनेतानि पच्चयानं सङ्घाय सेविता अधिवासनक्खन्ति, वज्जनीयवज्जनं, विनोदेतब्बविनोदनञ्च । तेनाह “सङ्खायेकं
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अरियवंसचतुक्कवण्णना
( १०.३०९ - ३०९ )
अधिवासेती' तिआदि । तत्थ सम्मदेव खायति उपट्टाति पटिभातीति सङ्घा, आणन्ति आह " सङ्घायाति आणेना" ति । सङ्घाय सेविता नाम यं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवढन्ति, तस्स सेवनाति आह " सेवितब्बयुत्तकमेव सेवती 'ति । अधिवासनादीसुपि एसेव नयो । अन्तो पविसितुन्ति अब्भन्तरे अत्तनो चित्ते पवत्तितुं न देति ।
अरियवंसचतुक्कवण्णना
३०९. वंस - सद्दो “पिट्ठिवंसं अतिक्कमित्वा निसीदतीतिआदीसु द्विन्नं द्विन्नं गोपानसीनं सन्धानट्ठाने ठपेतब्बदण्डके आगतो ।
"वंसो विसालोव यथा विसत्तो,
पुत्तेसु दारेसु च या अपेक्खा । वंसे कळीरोव असज्जमानो,
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एको चरे खग्गविसाणकप्पो 'तिआदीसु ।। ( अप० १.१.९४ )
अकण्डके । “भेरिसद्दो मुदिङ्गसद्दो वंससद्दो कंसताळसद्दो' तिआदीसु तूरियविसेसे, यो "वेणू” तिपि वुच्चति । “अभिन्नेन पिट्ठिवंसेन मतो हत्थी "तिआदीसु हत्थिआदीनं पिट्टिवेमज्झे पदेसे । “कुलवंसं ठपेस्सामी "तिआदीसु (दी० नि० ३.२६७) कुलवंसे । “वंसानुरक्खको पवेणीपालको 'तिआदीसु (विसुद्धि० १.४२) गुणानुपुब्बियं गुणानं पबन्धप्पवत्तियं | इध पन चतुपच्चयसन्तोसभावनारामतासङ्घातगुणानं पबन्धे दट्ठब्बो । तस्स पन वंसस्स कुलन्वयं, गुणन्वयञ्च निदस्सनवसेन दस्सेतुं “यथा ही "तिआदि वृत्तं । तथ खत्तियवंसोति खत्तियकुलन्वयो । एसेव नयो सेसपदेसुपि । समणवंसो पन समणतन्ति समणपवेणी । मूलगन्धादीनन्ति आदि - सद्देन यथा सारगन्धादीनं सङ्ग्रहो, एवमेत्थ गोरसादीनम्पि सङ्गहो दट्ठब्बो । दुतियेन पन आदि - सद्देन कासिकवत्थसप्पिमण्डादीनं । अरिय-सद्दो अमिलक्खूसुपि मनुस्सेसु वत्तति, येसं पन निवासनट्ठानं "अरियं आयतन "न्ति वुच्चति । यथाह “यावता, आनन्द, अरियं आयतन "न्ति ( दी० नि० २.१५२; उदा० ७६) लोकियसाधुजनेसुपि “ये हि वो अरिया परिसुद्धकायकम्मन्ता...पे०... तेसं अहं अञ्ञतरो” तिआदीसु (म० नि० १.३५ ) । इध पन ये " आरका किलेसेही "तिआदिना
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०९-३०९)
लद्धनिब्बचना पटिविद्धअरियसच्चा, ते एव अधिप्पेताति दस्सेतुं “के पन ते अरिया"ति पुच्छं कत्वा “अरिया बुच्चन्ती"तिआदि वुत्तं ।
तत्थ ये महापणिधानकप्पतो पट्ठाय यावायं कप्पो, एत्थन्तरे उप्पन्ना सम्मासम्बुद्धा, ते ताव सरूपतो दस्सेत्वा तद पि सम्मासम्बुद्धे, पच्चेकबुद्धे, बुद्धसावके च सङ्गहेत्वा अनवसेसतो अरिये दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । तत्थ याव सासनं न अन्तरधायति, ताव सत्था धरति एव नामाति इममेव भगवन्तं, ये चेतरहि बुद्धसावका, ते च सन्धाय पच्चुप्पन्नग्गहणं । तस्मिं तस्मिं वा काले ते ते पच्चुप्पन्नाति चे, अतीतानागतग्गहणं न कत्तब्बं सिया। इदानि यथा भगवा “धम्मं वो, भिक्खवे, देसेस्सामि आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेस्सामि, यदिदं छछक्कानी''ति छक्कदेसनाय (म० नि० ३.४२०) अट्टहि पदेहि वण्णं अभासि, एवं महाअरियवंसदेसनाय अरियानं वंसानं "चत्तारोमे, भिक्खवे, अरियवंसा अग्गा रत्तचा वंसजा पोराणा असंकिण्णा असंकिण्णपुब्बा न सङ्कीयन्ति न सङ्कीयिस्सन्ति अप्पटिकुठ्ठा समणेहि ब्राह्मणेहि विञ्जूही''ति (अ० नि० १.४.२८) येहि नवहि पदेहि वण्णं अभासि, तानि ताव आनेत्वा थोमनावसेनेव वण्णेन्तो "ते खो पनेते"तिआदिमाह । अग्गाति जानितब्बा सब्बवंसेहि सेट्ठभावतो, सेट्टभावसाधनतो च | दीघरत्तं पवत्ताति जानितब्बा रत्तचूहि, बुद्धादीहि तेहि च तथा अनुट्ठितत्ता। वंसाति जानितब्बा बुद्धादीनं अरियानं वंसाति जानितब्बा । पोराणाति पुरातना । न अधुनुष्पत्तिकाति न अधुनातना। असंकिण्णाति न खित्ता न छड्डिता। तेनाह "अनपनीता"ति । न अपनीतपुब्बाति न छड्डितपुब्बा तिस्सन्नं सिक्खानं परिपूरणूपायभावतो न परिचत्तपुब्बा । ततो एव इदानिपि न अपनीयन्ति, अनागतेपि न अपनीयिस्सन्ति। ये धम्मसभावस्स विजाननेव विजू समितपापसमणा चेव बाहितपापब्राह्मणा च, तेहि अप्पटिकुट्ठा अप्पटिक्खित्ता। ये हि न पटिक्कोसितब्बा, ते अनिन्दितब्बा अगरहितब्बा | अपरिच्चजितब्बताय अप्पटिक्खिपितब्बा होन्तीति ।
सन्तुट्ठोति एत्थ यथाधिप्पेतसन्तोसमेव दस्सेन्तो "पच्चयसन्तोसवसेन सन्तुट्ठो"ति वुत्तं । झानविपस्सनादिवसेनपि इध भिक्खुनो सन्तुट्ठता होतीति । इतरीतरेनाति इतरेन इतरेन । इतर-सद्दोयं अनियमवचनो, द्विक्खत्तुं वुच्चमानो यंकिञ्चि-सद्देहि समानत्थो होतीति वुत्तं "येन केनची"ति । स्वायं अनियमवाचिताय एव यथा थूलादीनं अञतरवचनो, एवं यथालद्धादीनम्पि अञ्जतरवचनोति तत्थ दुतियपक्खस्सेव इध इच्छितभावं दस्सेन्तो "अथ
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( १०.३०९ - ३०९ )
अरियवंसचतुक्कवण्णना
खो”तिआदिमाह । ननु च यथालद्धादयोपि धूलादयो एव ? सच्चमेतं, तथापि अथ विसेसो । यो हि यथालद्धेसु थूलादीसु सन्तोसो, सो यथालाभसन्तोसो एव, न इतरो । न हि सो पच्चयमत्तसन्निस्सयो इच्छितो, अथ खो अत्तनो कायबलसारुप्पभावसन्निस्सयोपि । थूलदुकादयो च तयोपि चीवरे लब्भन्ति । मज्झिमो चतुपच्चयसाधारणो, पच्छिमो पन चीवरे, सेनासने च लब्भतीति दट्ठब्बं । “ इमे तयो सन्तोसे "ति इदं सब्बसङ्गाहिकवसेन वृत्तं । ये हि परतो गिलानपच्चयं पिण्डपाते एव पक्खिपित्वा चीवरे वीसति, पिण्डपाते सेनासने पन्नरसाति समपण्णाससन्तोसा वुच्चन्ति ते सब्बेपि यथारहं इमेसु एव तीसु सन्तोसेसु सङ्ग्रहं समोसरणं गच्छन्तीति ।
पन्नरस,
चीवरं जानितब्बन्ति “इदं नाम चीवरं कप्पियन्ति जातितो चीवरं जानितब्बं । चीवरक्खेत्तन्ति चीवरस्स उप्पत्तिक्खेत्तं । पंसुकूलन्ति पंसुकूलचीवरं, पंसुकूललक्खणप्पत्तं चीवरं जानितब्बन्ति अत्थो । चीवरसन्तोसोति चीवरे लब्भमानो सब्बो सन्तोसो जानितब्बो । चीवरपटिसंयुत्तानि धुतङ्गानि जानितब्बानि यानि तोसन्तो चीवरसन्तोसेन सम्मदेव सन्तुट्ठो होतीति। खोमकप्पासिककोसेय्यकम्बलसाणभङ्गानि खोमादीनि । तत्थ खोमं नाम खोमसुत्ते हि वायितं खोमपटचीवरं, तथा सेसानिपि । साणन्ति साणवाकसुत्तेहि कतचीवरं । भङ्गन्ति पन खोमसुत्तादीनि सब्बानि एकच्चानि वोमिस्सेत्वा कतचीवरं । "भङ्गम्पि वाकमयमेवा' ति केचि । छाति गणनपरिच्छेदो । यदि एवं इतो अञ्ञा वत्थजाति नत्थीति ? नो नत्थि, सा पन एतेसं अनुलोमाति दस्सेतुं “दुकूलादीनी "तिआदि वृत्तं । आदि- सद्देन पट्टणं, सोमारपट्टे, चीनपट्टे, इद्धिजं, देवदिन्नन्ति एतेसं सङ्गहो । तत्थ दुकूलं साणस्स अनुलोमं वाकमयत्ता । पट्टुण्णदेसे सञ्जातवत्थं पट्टुण्णं । “पट्टुण्णं कोसेय्यविसेसो 'ति हि अमरकोसे वृत्तं । सोमारदेसे, चीनदेसे च जातवत्थानि सोमारचीनपट्टानि । पट्टुण्णा कोसेय्यस्स अनुलोमानि पाणकेहि कतसुत्तमयत्ता । इद्धिजं एहिभिक्खूनं पुञ्ञिद्धिया निब्बत्तं चीवरं, तं खोमादीनं अञ्ञतरं होतीति तेसमेव अनुलोमञ्च । देवताहि दिनं चीवरं देवदिन्नं, तं कप्परुक्खे निब्बत्तं जालिनिया देवकञ्ञाय अनुरुद्धत्थेरस्स दिन्नवत्थसदिसं, तम्पि खोमादीनंयेव अनुलोमं होति तेसु अञ्ञतरभावतो । इमानीति अन्तोगधावधारणवचनं, इमानि एवाति अत्थो । बुद्धादीनं परिभोगयोग्यताय कप्पियचीवरानि ।
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इदानि अवधारणेन निवत्तितानि एकदेसेन दस्सेतुं "कुसचीर "न्तिआदि वृत्तं । तथ कुसतिणेहि, अञ्ञेहि वा तादिसेहि तिणेहि कतचीवरं कुसचीरं । पोतकीवाकादीहि वाकेहि कतचीवरं वाकचीरं । चतुक्कोणेहि, तिकोणेहि वा फलकेहि कतचीवरं फलकचीरं ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०९-३०९)
मनुस्सानं केसेहि कतकम्बलं केसकम्बलं। चामरीवालअस्सवालादीहि कतं वालकम्बलं । मकचितन्तूहि वायितो पोत्थको। चम्मन्ति मिगचम्मादि यं किञ्चि चम्मं । उलूकपक्खेहि गन्थेत्वा कतचीवरं उलूकपक्खं । भुजतचादिमयं रुक्खदुस्सं, तिरीटकन्ति अत्थो । सुखुमतराहि लतावाकेहि वायितं लतादुस्सं। एरकवाकेहि कतं एरकदुस्सं। तथा कदलिदुस्सं। सुखुमेहि वेळुविलीवेहि कतं वेळुदुस्सं। आदि-सद्देन वक्कलादीनं सङ्गहो। अकप्पियचीवरानि तिथियद्धजभावतो।
अन्नञ्च मातिकानं वसेनाति “सीमाय देति, कतिकाय देती''तिआदिना (महाव० ३७९) आगतानं अट्ठन्नं चीवरुप्पत्तिमातिकानं वसेन । चीवरानं पटिलाभक्खेत्तदस्सनत्थव्हि भगवता “अट्ठिमा, भिक्खवे, मातिका'"तिआदिना मातिका ठपिता । मातिकाति हि मातरो चीवरुप्पत्तिजनिकाति । सोसानिकन्ति सुसाने पतितकं । पापणिकन्ति आपणद्वारे पतितकं । रथियन्ति पुत्थिकेहि वातपानन्तरेन रथिकाय छड्डितचोळकं । सङ्कारकूटकन्ति सङ्कारहाने छड्डितचोळकं । सिनानन्ति न्हानचोळं, यं भूतवेज्जेहि सीसं न्हापेत्वा "काळकण्णीचोळक"न्ति छड्डेत्वा गच्छन्ति । तित्थन्ति तित्थचोळकं सिनानतित्थे छड्डितपिलोतिका। अग्गिदडन्ति अग्गिना दड्डप्पदेसं । तहि मनुस्सा छड्डेन्ति । गोखायितकादीनि पाकटानेव । तानिपि हि मनुस्सा छड्डेन्ति ।
धनं उस्सापेत्वाति नावं आरोहन्तेहि वा युद्धं पविसन्तेहि वा धजयदि उस्सापेत्वा तत्थ बद्धं पारुतचीवरं, तेहि छड्डितन्ति अधिप्पायो ।
सादकभिक्खुनाति गहपतिचीवरस्स सादियनभिक्खुना। एकमासमत्तन्ति चीवरमाससञ्जितं एकमासमत्तं । वितक्केतुं वट्टति, न ततो परन्ति अधिप्पायो । सब्बस्सापि हि तण्हानिग्गहत्थाय सासने पटिपत्तीति। पंसुकूलिको अदमासेनेव करोतीति अपरपटिबद्धत्ता पटिलाभस्स । इतरस्स पन परपटिबद्धत्ता मासमत्तं अनुज्ञातं । इति मासद्ध...पे०... वितक्कसन्तोसो वितक्कनस्स परिमितकालिकत्ता।
महाथेरं तत्थ अत्तनो सहायं इच्छन्तोपि गरुगारवेन गामद्वारं "भन्ते गमिस्सामि" इच्चेवमाह । महाथेरोपिस्स अज्झासयं ञत्वा “अहं पावुसो गमिस्सामी"ति आह । “इमस्स भिक्खुनो वितक्कस्स अवसरो मा होतू''ति पहं पुच्छमानो गामं पाविसि । उच्चारपलिबुद्धोति उच्चारेन पीळितो। तदा भगवतो दुक्करकिरियानुस्सरणमुखेन तथागते
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(१०.३०९-३०९)
अरियवंसचतुक्कवण्णना
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उप्पन्नपीतिसोमनस्सवेगस्स बलवभावेन किलेसानं विक्खम्भितत्ता तस्मिंयेव...पे०... तीणि फलानि पत्तो।
"कत्थ लभिस्सामी"ति चिन्तनापि लाभासापुब्बिकाति तथा “अचिन्तेत्वा"ति वुत्तं, "सुन्दरं लभिस्सामि, मनापं लभिस्सामी''ति एवमादिचिन्तनाय का नाम कथा । कथं पन वत्तब्बन्ति आह "कम्मट्ठानसीसेनेव गमन"न्ति, तेन चीवरं पटिच्च किञ्चिपि न चिन्तेतब्बं एवाति दस्सेति ।
अपेसलो अप्पतिरूपायपि परियेसनाय पच्चयो भवेय्याति “पेसलं भिक्खुं गहेत्वा"ति
वुत्तं।
आहरियमानन्ति सुसानादीसु पतितकं वत्थं "इमे भिक्खू पंसुकूलपरियेसनं चरन्तीति जत्वा केनचि पुरिसेन ततो आनीयमानं ।
एवं लद्धं गण्हन्तस्सापीति एवं पटिलाभसन्तोसं अकोपेत्वाव लद्धं गण्हन्तस्सापि । अत्तनो पहोनकमत्तेनेवाति यथालद्धानं पंसुकूलवत्थानं एकपट्टदुपट्टानं अत्थाय अत्तनो पहोनकपमाणेनेव, अवधारणेन उपरिपच्चासं निवत्तेति ।
___ गामे भिक्खाय आहिण्डन्तेन सपदानचारिना विय द्वारपटिपाटिया चरणं लोलुप्पविवज्जनं नाम चीवरलोलुप्पस्स दूरसमुस्सारितत्ता ।
यापेतुन्ति अत्तभावं पवत्तेतुं ।
धोवनुपगेनाति धोवनयोग्गेन ।
पण्णानीति अम्बजम्बादिपण्णानि ।
अकोपेत्वाति सन्तोसं अकोपेत्वा। पहोनकनीहारेनेवाति अन्तरवासकादीसु यं कातुकामो, तस्स पहोनकनियामेनेव यथालद्धं थूलसुखुमादिं गहेत्वा करणं।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०९-३०९)
तिमण्डलपटिच्छादनमत्तस्सेवाति “निवासनं चे नाभिमण्डलं; जाणुमण्डलं, इतरं चे गलवाटमण्डलं, जाणुमण्डल'"न्ति एवं तिमण्डलपटिच्छादनमत्तस्सेव करणं; तं पन अत्थतो तिण्णं चीवरानं हेट्ठिमन्तेन वुत्तपरिमाणमेव होति ।
अविचारेत्वाति न विचारेत्वा ।
कुसिबन्धनकालेति मण्डलानि योजत्वा सिब्बनकाले । सत्तवारेति सत्तसिब्बनवारे ।
कप्पबिन्दुअपदेसेन कस्सचि विकारस्स अकरणं कप्पसन्तोसो।
सीतपटिघातादि अत्थापत्तितो सिज्झतीति मुख्यमेव चीवरपरिभोगे पयोजनं दस्सेतुं "हिरिकोपीनपटिच्छादनमत्तवसेना"ति वुत्तं । तेनाह भगवा “यावदेव हिरिकोपीनपटिच्छादनत्थ''न्ति (म० नि० १.२३; अ० नि० २.६.६८; महानि० १६२) ।
वट्टति, न तावता सन्तोसो कुप्पति सम्भारानं, दक्खिणेय्यानञ्च अलाभतो ।
सारणीयधम्मे ठत्वाति सीलवन्तेहि भिक्खूहि साधारणतो परिभोगे ठत्वा ।
"इती"तिआदिना पठमस्स अरियवंसस्स पंसुकूलिकङ्गतेचीवरिकङ्गानं, तेसञ्च तस्स पच्चयतं दस्सेन्तो इति इमे धम्मा अञमञस्स समुट्ठापका, उपत्थम्भका चाति दीपेति । एस नयो इतो परतोपि ।
“सन्तुट्ठो होति वण्णवादी"ति एत्थ चतुक्कोटिकं सम्भवति, तत्थ चतुत्थोयेव पक्खो सत्थारा वण्णितो थोमितोति महाथेरेन तथा देसना कता। एको सन्तुट्ठो होति, सन्तोसस्स वण्णं न कथेति सेय्यथापि थेरो नालको (सुत्तनिपाते नालकसुत्ते वित्थारो) एको न सन्तुट्ठो होति, सन्तोसस्स वण्णवादी सेय्यथापि उपनन्दो सक्यपुत्तो (पारा० ५१५, ५२७, ५३२, ५३७ वाक्यखन्धेसु वित्थारो)। एको नेव सन्तुट्ठो होति, न सन्तोसस्स वण्णं कथेति। सेय्यथापि थेरो लाळुदायी (थेरगा० अट्ठ० २.उदायित्थेरगाथावण्णना) एको सन्तुट्ठो चेव होति, सन्तोसस्स च वण्णवादी सेय्यथापि थेरो महाकस्सपो ।
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(१०.३०९-३०९)
अरियवंसचतुक्कवण्णना
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अनेसनन्ति अयुत्तं एसनं । तेनाह "अप्पतिरूप"न्ति, सासने ठितानं न पतिरूपं असारुप्पं अयोग्यं । कोहनं करोन्तोति चीवरुप्पादनिमित्तं परेसं कुहनं विम्हापनं करोन्तो । उत्तसतीति तण्हासन्तासेन उपरूपरि तसति । परितसतीति परितो तसति । यथा सब्बे कायवचीपयोगा तदत्था एव जायन्ति, एवं सब्बभागेहि तसति । गधितं वुच्चति गद्धो, सो चेत्थ अभिज्झालक्खणो अधिप्पेतो। गधितं एतस्स नत्थीति अगधितोति आह "अगधितो...पे०... लोभगिद्धो"ति । मुच्छन्ति तण्हावसेन मुम्हनं, तस्स वा समुस्सयं अधिगतं । अनापन्नो अनुपगतो । अनोत्थतोति अनज्झोत्थतो । अपरियोनद्धोति तण्हाछदनेन अच्छादितो। आदीनवं पस्समानोति दिठ्ठधम्मिकं, सम्परायिकञ्च दोसं पस्सन्तो । गधितपरिभोगतो निस्सरति एतेनाति निस्सरणं, इदमत्थिकता, तं पजानातीति निस्सरणपञो। तेनाह "यावदेव...पे०... पजानन्तो"ति ।
नेवत्तानुक्कंसेतीति अत्तानं नेव उक्कंसेति न उक्खिपति न उक्कट्ठतो दहति । "अह"न्तिआदि उक्कंसनाकारदस्सनं । न वम्भेतीति न हीळयति निहीनतो न दहति । तस्मिं चीवरसन्तोसेतिः तस्मिं यथावुत्ते वीसतिविधे चीवरसन्तोसे। कामञ्चेत्थ वुत्तप्पकारसन्तोसग्गहणेन चीवरहेतु अनेसनापज्जनादिपि गहितमेव तस्मिं सति तस्स भावतो, असति च अभावतो, वण्णवादितानत्तुक्कंसना परवम्भनानि पन गहितानि न होन्तीति “वण्णवादितादीसु वा"ति विकप्पो वुत्तो। एत्थ च "दक्खो"तिआदि येसं धम्मानं वसेनस्स यथावुत्तसन्तोसादि इज्झति, तं दस्सनं । तत्थ "दक्खो"ति इमिना तेसं समुट्ठापनपनं दस्सेति, “अनलसो"ति इमिना पग्गण्हनवीरियं, “सम्पजानो"ति इमिना पाटिहारियपनं "पटिस्सतो"ति इमिना तत्थ असम्मोसवुत्तिं दस्सेति ।
पिण्डपातो जानितब्बोति पभेदतो पिण्डपातो जानितब्बो। पिण्डपातक्खेत्तन्ति पिण्डपातस्स उप्पत्तिट्ठानं । पिण्डपातसन्तोसो जानितब्बोति पिण्डपाते सन्तोसो पभेदतो जानितब्बो | इध भेसज्जम्पि पिण्डपातगतिकमेव । आहरितब्बतो हि सप्पिआदीनम्पि गहणं कतं ।
पिण्डपातक्खेत्तं पिण्डपातस्स उप्पत्तिहानं। खेत्तं विय खेत्तं। उप्पज्जति एत्थ, एतेनाति च उप्पत्तिहानं। सङ्घतो वा हि भिक्खुनो पिण्डपातो उप्पज्जति उद्देसादिवसेन वा। तत्थ सकलस्स सङ्घस्स दातब्बं भत्तं सङ्घभत्तं। कतिपये भिक्खू उद्दिसित्वा उद्देसेन दातब्बं भत्तं उद्देसभत्तं। निमन्तेत्वा दातब्बं भत्तं निमन्तनं। सलाकदानवसेन दातब् भत्तं
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०९-३०९)
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सलाकभत्तं। एकस्मिं पक्खे एकदिवसं दातब्बं भत्तं पक्खिकं। उपोसथे दातब्बं भत्तं उपोसथिकं। पाटिपददिवसे दातब्बं भत्तं पाटिपदिकं। आगन्तुकानं दातब्ध भत्तं आगन्तुकभत्तं । धुरगेहे एव ठपेत्वा दातब् भत्तं धुरभत्तं। कुटिं उद्दिस्स दातब्बं भत्तं कुटिभत्तं। गामवासीआदीहि वारेन दातब्ध भत्तं वारभत्तं। विहारं उद्दिस्स दातब्बं भत्तं विहारभत्तं । सेसानि पाकटानेव ।
वितक्केति “कत्थ नु खो अहं अज्ज पिण्डाय चरिस्सामी''ति । “कत्थ पिण्डाय चरिस्सामा''ति थेरेन वुत्ते “असुकगामे भन्ते"ति काममेतं पटिवचनदानं, येन पन चित्तेन “चिन्तेत्वा''ति वुत्तं, तं सन्धायाह "एत्तकं चिन्तेत्वा"ति । ततो पट्ठायाति वितक्कमाळके ठत्वा वितक्कितकालतो पट्ठाय । “ततो परं वितक्केन्तो अरियवंसा चुतो होती"ति इदं तिण्णम्पि अरियवंसिकानं वसेन गहेतब्, न एकचारिकस्सेव । सब्बोपि हि अरियवंसिको एकवारमेव वितक्केतुं लभति, न ततो परं | परिबाहिरोति अरियवंसिकभावतो बहिभूतो । स्वायं वितक्कसन्तोसो कम्मट्ठानमनसिकारेन न कुप्पति, विसुज्झति च। इतो परेसुपि एसेव नयो । तेनेवाह "कम्मट्ठानसीसेन गन्तब्ब"न्ति ।
गहेतब्बमेवाति अट्ठानप्पयुत्तो एव-सद्दो । यापनमत्तमेव गहेतब्बन्ति योजेतब् ।
एत्थाति एतस्मिं पिण्डपातपटिग्गहणे। अप्पन्ति अत्तनो यापनपमाणतोपि अप्पं । गहेतब्बं दायकस्स चित्ताराधनत्थं । पमाणेनेवाति अत्तनो यापनप्पमाणेनेव अप्पं गहेतब्बं । “पमाणेन गहेतब्ब''न्ति एत्थ कारणं दस्सेतुं “पटिग्गहणस्मिन्ही"तिआदि वुत्तं । मक्खेतीति विद्धंसेति अपनेति । विनिपातेतीति विनासेति अट्ठानविनियोगेन । सासनन्ति सत्थु सासनं अनुसिटुिं । न करोति नप्पटिपज्जति ।
सपदानचारिनो विय द्वारपटिपाटिया चरणं लोलुप्पविवज्जनसन्तोसोति आह "द्वारपटिपाटिया गन्तब्ब"न्ति ।
हरापेत्वाति अधिकं अपनेत्वा ।
आहारगेधतो निस्सरति एतेनाति निस्सरणं। जिघच्छाय पटिविनोदनत्थं कथा,
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(१०.३०९-३०९)
अरियवंसचतुक्कवण्णना
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कायस्सठितिआदिपयोजनं पन अत्थापत्तितो आगतं एवाति आह "जिघच्छाय...पे०... सन्तोसो नामा"ति |
निदहित्वा न परिभुजितब्बं तदहुपीति अधिप्पायो। इतरत्था पन सिक्खापदेनेव वारितं । सारणीयधम्मे ठितेनाति सीलवन्तेहि भिक्खूहि साधारणभोगिभावे ठितेन ।
सेनासनेनाति सयनेन, आसनेन च । यत्थ यत्थ हि मञ्चादिके, विहारादिके च सेति, तं सेनं। यत्थ यत्थ पीठादिके आसति, तं आसनं। तदुभयं एकतो कत्वा “सेनासनन्ति वुत्तं । तेनाह "मञ्चो"तिआदि । तत्थ मञ्चो मसारकादि, तथा पीठं । मञ्चभिसि, पीठभिसीति दुविधा भिसि। विहारो पाकारपरिच्छिन्नो सकलो आवासो । "दीघमुखपासादो''ति केचि । अड्डयोगोति दीघपासादो । “एकपस्सच्छदनकसेनासन"न्ति केचि। पासादोति चतुरस्सपासादो। “आयतचतुरस्सपासादो''ति केचि। हम्मियं मुण्डच्छदनपासादो । गुहाति केवला पब्बतगुहा । लेणं द्वारबन्धं । अट्टो बहलभित्तिकं गेहं, यस्स गोपानसियो अग्गहेत्वा इट्ठकाहि एव छदनं होति । “अट्टालकाकारेन करियती"तिपि वदन्ति । माळो एककूटसङ्गहितो अनेककोणो पतिस्सयविसेसो “वट्टाकारेन कतसेनासनन्ति केचि।
पिण्डपाते वुत्तनयेनेवाति "सादको भिक्खु अज्ज कत्थ वसिस्सामी'ति वितक्केती''तिआदिना यथारहं पिण्डपाते वुत्तनयेन वेदितब्बा, "ततो परं वितक्केन्तो अरियवंसा चुतो होति परिबाहिरो"ति, “सेनासनं गवेसन्तेनापि 'कुहिं लभिस्सामी'ति अचिन्तेत्वा कम्मट्ठानसीसेनेव गन्तब्ब"न्ति च एवमादि सब्बं पुरिमनयेनेव ।
कस्मा पनेत्थ पच्चयसन्तोसं दस्सेन्तेन महाथेरेन गिलानपच्चयसन्तोसो न गहितोति ? न खो पनेतं एवं दट्ठब्बन्ति दस्सेन्तो "गिलानपच्चयो पन पिण्डपाते एव पविट्ठो 'ति आह, आहरितब्बतासाम नाति अधिप्पायो। यदि एवं तत्थ पिण्डपाते विय वितक्कसन्तोसादयोपि पन्नरस सन्तोसा इच्छितब्बाति ? नोति दस्सेन्तो आह "तत्था"तिआदि । ननु चेत्थ द्वादसेव धुतङ्गानि विनियोगं गतानि, एकं पन नेसज्जिकङ्गं न कत्थचि विनियत्तन्ति आह "नेसज्जिकहं भावनारामअरियवंसं भजती"ति । अयञ्च अत्थो अट्ठकथारुळहो एवाति दस्सेन्तो “वुत्तम्पि चेत"न्तिआदिमाह ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३०९-३०९)
"पथविं पत्थरमानो विया"तिआदि अरियवंसदेसनाय सुदुक्करभावदस्सनं महाविसयताय तस्सा देसनाय । यस्मा नयसहस्सपटिमण्डिता होति अरियमग्गाधिगमाय वित्थारतो पवत्तियमाना देसना यथा तं चित्तुप्पादकण्डे, अयञ्च भावनारामअरियवंसकथा अरियमग्गाधिगमाय वित्थारतो पवत्तियमाना एवं होतीति वुत्तं "सहस्सनयप्पटिमण्डितं...पे०... देसनं आरभी"ति । पटिपक्खविधमनतो अभिमुखभावेन रमणं आरमणं आरामोति आह "अभिरतीति अत्थो"ति । ब्यधिकरणानम्पि पदानं वसेन भवति बाहिरत्थसमासो यथा “उरसिलोमो, कण्ठेकाळोति आह "पहाने आरामो अस्साति पहानारामो"ति | आरमितब्बढेन वा आरामो, पहानं आरामो अस्साति पहानारामोति एवमेत्थ समासयोजना वेदितब्बा। "पजहन्तो रमती"ति एतेन पहानारामसद्दानं कत्तुसाधनतं, कम्मधारयसमासञ्च दस्सेति । “भावेन्तो रमती''ति वुत्तत्ता भावनारामोति एत्थापि एसेव नयो ।
कामं “नेसज्जिकङ्गं भावनारामअरियवंसं भजती"ति वुत्तं भावनानुयोगस्स अनुच्छविकत्ता, नेसज्जिकङ्गवसेन पन नेसज्जिकस्स भिक्खुनो एकच्चाहि आपत्तीहि अनापत्तिभावोति तम्पि सङ्गण्हन्तो “तेरसन्नं धुतङ्गान"न्ति वत्वा “विनयं पत्वा गरुके ठातब्ब"न्ति इच्छितत्ता सल्लेखस्स अपरिच्चजनवसेन पटिपत्ति नाम विनये ठितस्सेवाति आह "तेरसत्रं...पे०... कथितं होती"ति। कामं सुत्ताभिधम्मपिटकेसुपि (दी० नि० १.७.१९४; विभं० ५०८) तत्थ तत्थ सीलकथा आगता एव, येहि पन गुणेहि सीलस्स वोदानं होति, तेसु कथितेसु यथा सीलकथाबाहुल्लं विनयपिटकं कथितं होति, एवं भावनाकथाबाहुल्लं सुत्तन्तपिटकं, अभिधम्मपिटकञ्च चतुत्थेन अरियवंसेन कथितमेव होतीति वुत्तं "भावनारामेन अवसेसं पिटकद्वयं कथितं होती"ति। “सो नेक्खम्म भावेन्तो रमतीति नेक्खम्मपदं आदि कत्वा तत्थ देसनाय पवत्तत्ता, सब्बेसम्पि वा समथविपस्सनामग्गधम्मानं यथासकंपटिपक्खतो निक्खमनेन नेक्खम्मसञितानं तत्थ आगतत्ता सो पाठो "नेक्खम्मपाळी"ति वुच्चतीति आह “नेक्खम्मपाळिया कथेतब्बो'ति । तेनाह अट्ठकथायं “सब्बेपि कुसला धम्मा नेक्खम्मन्ति पवुच्चरे'"ति (इतिवु० अट्ठ० १०९) । दसुत्तरसुत्तन्त परियायेनाति दसुत्तरसुत्तन्तधम्मेन, दसुत्तरसुत्तन्ते (दी० नि० ३.३५०) आगतनयेनाति वा अत्थो । सेसद्वयेपि एसेव नयो ।
सोति जागरियं अनुयुत्तो भिक्खु । नेक्खम्मन्ति कामेहि निक्खन्तभावतो नेक्खम्मसञ्जितं पठमज्झानूपचारं । “सो अभिज्झं लोके पहाया"तिआदिना (विभं०
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(१०.३१०-३१०)
अरियवंसचतुक्कवण्णना
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५०८, ५३८) आगता पठमज्झानस्स पुब्बभागभावनाति इधाधिप्पेता, तस्मा "अव्यापाद"न्तिआदीसुपि एवमेव अत्थो वेदितब्बो। यं पनेत्थ वत्तबं, तं ब्रह्मजालटीकार्य वुत्तनयेन वेदितब् | सउपायासानहि अट्ठन्नं समापत्तीनं, अट्ठारसन्नं महाविपस्सनानं, चतुन्नं अरियमग्गानञ्च वसेनेत्थ देसना पवत्ताति ।
"एकं धम्मं भावेन्तो रमति, एकं धम्मं पजहन्तो रमती"ति च न इदं दसुत्तरसुत्ते आगतनियामेन वुत्तं, तत्थ पन “एको धम्मो भावेतब्बो, एको धम्मो पहातब्बो''ति (दी० नि० ३.३५१) च देसना आगता। एवं सन्तेपि यस्मा अत्थतो भेदो नत्थि, तस्मा पटिसम्भिदामग्गे नेक्खम्मपाळियं (पटि० म० १.२४, ३.४१) आगतनीहारेनेव “एकं धम्मं भावेन्तो रमति, एकं धम्म पजहन्तो रमती"ति वुत्तं । एस नयो सेसवारेसुपि । यस्मा चायं अरियवंसदेसना नाम सत्थु पञत्ताव सत्थारा हि देसितं देसनं आयस्मा धम्मसेनापति सारिपुत्तत्थेरो सङ्गायनवसेन इधानेसि, तस्मा महाअरियवंससुत्ते सत्थुदेसनानीहारेन निगमनं दस्सेन्तो "एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु भावनारामो होती"ति आह । एसेव नयो ‘इतो परेसु सतिपट्टानपरियायअभिधम्मनिद्देसपरियायेसुपि। कामञ्चेत्थ कायानुपस्सनावसेनेव सङ्खिपित्वा योजना कता, एकवीसतिया पन ठानानं वसेन वित्थारतो योजना वेदितब्बा | “अनिच्चतो" (विसुद्धि० टी० २.६९८) तिआदीसु यं वत्तब्बं, तं विसुद्धिमग्गसंवण्णनासु वुत्तनयेन वेदितब् ।
३१०. संवरादीनं साधनवसेन पदहति एत्थ, एतेहीति च पधानानि । उत्तमवीरियानीति सेट्ठवीरियानि विसिट्ठस्स अत्थस्स साधनतो । संवरन्तस्स उप्पन्नवीरियन्ति यथा अभिज्झादयो न उप्पज्जन्ति, एवं सतिया उपट्ठापने चक्खादीनं पिदहने अनलसस्स उप्पन्नवीरियं । पजहन्तस्साति विनोदेन्तस्स । उप्पन्नवीरियन्ति तस्सेव पजहनस्स साधनवसेन पवत्तवीरियं । भावेन्तस्स उप्पन्नवीरियन्ति एत्थापि एसेव नयो। समाधिनिमित्तन्ति समाधि एव । पुरिमुप्पन्नसमाधि हि परतो उप्पज्जनकसमाधिपविवेकस्स कारणं होतीति "समाधिनिमित्त"न्ति वुत्तं ।
उपधिविवेकत्ताति खन्धूपधिआदिउपधीहि विवित्तत्ता विनिस्सटत्ता । तं आगम्माति तं निब्बानं मग्गेन अधिगमहेतु । रागादयो विरज्जन्ति एत्थ, एतेनाति वा विरागो। एवं निरोधोपि दट्ठब्बो । यस्मा इध बोज्झङ्गा मिस्सकवसेन इच्छिता, तस्मा “आरम्मणवसेन अधिगन्तब्बवसेन वा"ति वुत्तं । तत्थ अधिगन्तब्बवसेनाति तंनिन्नतावसेन । वोस्सग्गपरिणामिन्ति
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३१०-३१०)
वोस्सज्जनवसेन परिणामितं परिच्चजनवसेन चेव पक्खन्दनवसेन च परिणमनसीलं । तेनाह "ढे वोस्सग्गा"तिआदि। खन्धानं परिच्चजनं नाम तप्पटिबद्धकिलेसप्पहानवसेनाति येनाकारेन विपस्सना किलेसे पजहति, तेनेवाकारेन तंनिमित्तके, खन्धे च “पजहती"ति वत्तब्बतं अरहतीति आह "विपस्सना...पे०... परिच्चजती"ति । यस्मा विपस्सना वुट्टानगामिनिभावं पापुणन्ती निन्नपोणपब्भारभावेन एकंसतो निब्बानं “पक्खन्दती"ति वत्तब्बतं लभति, मग्गो च समुच्छेदवसेन किलेसे, खन्धे च परिच्चजति, तस्मा यथाक्कम विपस्सनामग्गानं वसेन पक्खन्दनपरिच्चागवोस्सग्गापि वेदितब्बा। वोस्सग्गत्थायाति परिच्चागवोस्सग्गत्थाय चेव पक्खन्दनवोस्सग्गत्थाय च । परिणमतीति परिपच्चति । तं परिणमनं वुट्ठानगामिनिभावप्पत्तिया चेव अरियमग्गभावप्पत्तिया च इच्छितन्ति आह "विपस्सनाभावञ्चेव मग्गभावञ्च पापुणाती"ति । सेसपदेसूति “धम्मविचयसम्बोज्झङ्गं भावेती"तिआदीसु सेससम्बोज्झङ्गकोट्ठासेसु ।
भद्दकन्ति अभद्दकानं नीवरणादिपापधम्मानं विक्खम्भनेन रागविधमनेन एकन्तहितत्ता, दुल्लभत्ता च भद्दकं सुन्दरं । न हि अनं समाधिनिमित्तं एवंदुल्लभं, रागस्स च उजुविपच्चनीकभूतं अस्थि । अनुरक्खतीति एत्थ अनुरक्खना नाम अधिगतसमाधितो यथा न परिहानि होति, एवं पटिपत्ति, सा पन तप्पटिपक्खविधमनेनाति आह "समाधी"तिआदि । अट्ठिकसादिकाति अट्टिकज्झानादिका । सासीसेन हि झानं वदति ।
एकपटिवेधवसेन चतुसच्चधम्मे आणन्ति चतूसु अरियसच्चेसु एकाभिसमयवसेन पवत्तञाणं, मग्गजाणन्ति अत्थो । चतुसच्चन्तोगधत्ता चतुसच्चन्भन्तरे निरोधधम्मे निब्बाने आणं, तेन फलजाणं वदति । यस्मा मग्गानन्तरस्स फलस्स मग्गानुगुणा पवत्ति, यतो तंसमुदयपक्खियेसु धम्मेसु पटिप्पस्सद्धिप्पहानवसेन पवत्तति, तस्मा निरोधसच्चेपि यो मग्गस्स सच्छिकिरियाभिसमयो, तदनुगुणा पवत्तीति फलञाणस्सेव धम्मे जाणता वुत्ता, न यस्स कस्सचि निब्बानारम्मणस्स आणस्स | तेन वुत्तं “यथाहा"तिआदि । एत्थ च मग्गपञ्जा ताव चतुसच्चधम्मस्स पटिविज्झनतो धम्मेञाणं नाम होतु, फलपा पन कथन्ति चोदना सोधिता होति निरोधधम्मं आरब्भ पवत्तनतो। दुविधापि हि पञ्जा अपरप्पच्चयताय अत्तपच्चक्खतो अरियसच्चधम्मे किच्चतो च आरम्मणतो च पवत्तत्ता "धम्मेञाण''न्ति वेदितब्बा । अरियसच्चेसु हि अयं धम्म-सद्दो तेसं अविपरीतसभावत्ता, सङ्घतप्पवरो वा अरियमग्गो, तस्स च फलधम्मो । तत्थ पञ्जा तंसहगता धम्मेजाणं ।
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( १०.३१०-३१०)
अरियवंसचतुक्कवण्णना
अन्वयेञाणन्ति अनुगमनत्राणं । पच्चक्खतो दिस्वाति चत्तारि सच्चानि मग्गजाणेन पच्चक्खतो पटिविज्झित्वा । यथा इदानीति यथा एतरहि पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खसच्चं, एवं अतीतेपि अनागतेपि पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खसच्चमेवाति च सरिक्खट्ठेन वुत्तं । एस नयो समुदयसच्चे, मग्गसच्चे च । अयमेवाति अवधारणे । निरोधसच्चे पन सरिक्खट्ठो नत्थि तस्स निच्चत्ता, एकसभावत्ता च । एवं तस्स त्राणस्स अनुगतियं त्राणन्ति तस्स धम्मेञाणस्स " एवं अतीतेपी "तिआदिना अनुगतियं अनुगमने अन्वये आणं । इदं अन्वये आणन्ति योजना । " तेनाहा ''तिआदिना यथावुत्तमत्थं पाळिया विभावेति । सोति धम्माणं त्वा ठितो भिक्खु । इमिना धम्मेनाति धम्मगोचरत्ता गोचरवोहारेन " धम्मो "ति वुत्तेनमग्गञाणेन, उपयोगत्थे वा करणवचनं, इमिना धम्मेन जातेनाति इमं चतुसच्चधम्मं आणेन जानित्वा ठितेन मग्गञाणेनाति अत्थो । दिट्ठेनाति दस्सनेन सच्चधम्मं पस्सित्वा ठितेन । पत्तेनाति सच्चानं पत्वा ठितेन । विदितेनाति सच्चानि विदित्वा ठितेन । परियोगाळ्हेनाति चतुसच्चधम्मं परियोगाहेत्वा ठितेनाति एवं तावेत्थ अभिधम्मट्ठकथायं (विभं० अट्ठ० ७९६) अथ तो । दुविधम्पि पन मग्गफलत्राणं धम्मेञाणं । पच्चवेक्खणाय च मूलं, कारणञ्च नयनयनस्साति दुविधेनापि तेन धम्मेनाति न न युज्जति । तथा चतुसच्चधम्मस्स जातत्ता, मग्गफलसङ्घातस्स वा धम्मस्स सच्चपटिवेधसम्पयोगं गतत्ता नयनयनं होतीति तेन इमिना धम्मेन आणविसयभावेन, आणसम्पयोगेन वा जातेनाति च अत्थो न न युज्जतीति । अतीतानागते नयं नेतीति अतीते, अनागते च नयं नेति हरति पेसेति । इदं पन न मग्गञणस्स किच्चं, पच्चवेक्खणञाणकिच्चं सत्थारा पन मग्गञणं अतीतानागते नयनयनसदिसं कतं मग्गमूलकत्ता । भावितमग्गस्स हि पच्चवेक्खणा नाम होति । नयिदं अञ्ञं ञणुप्पादनं नयनयनं, आणस्सेव पन पवत्तिविसेसोति ।
परेसं चेतसो परितो अयनं परिच्छिन्दनं परियो, तस्मिं परिये । तेनाह “परेसं चित्तपरिच्छेदे 'ति । अवसेसं सम्मुतिम्हित्राणं नाम " आण "न्ति सम्मतत्ता । वचनत्थन सम्मुतिम्हि आणन्ति सम्मुतिम्हित्राणं । धम्मेञाणादीनं विय हि सातिसयस्स पटिवेधकिच्चस्स अभावा विसयोभासनसङ्घातजाननसामञ्जेन " ञाण "न्ति सम्मतेसु अन्तोगधन्ति अत्थो । सम्मुतिवसेन वा पवत्तं सम्मुतिम्हिञाणं सम्मुतिद्वारेन अत्थस्स गहणतो । अवसेसं वा इतरत्राणत्तयविसभागं आणं तब्बिसभागसामञ्ञेन सम्मुतिम्हिञाणम्हि पविट्ठत्ता सम्मुतिम्हित्राणं नाम होतीति ।
कामं सोतापत्तिमग्गञाणादीनि दुक्खञाणादीनियेव उक्कट्ठनिद्देसेन पवमाह
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३११-३११)
"अरहत्तं पापेत्वा"ति । वट्टतो निग्गच्छति एतेनाति निग्गमनं, चतुसच्चकम्मट्ठानं | पुरिमानि ढे सच्चानि वढं पवत्तिपवत्तिहेतुभावतो। इतरानि पन द्वे विवढें निवत्तिनिवत्तिहेतुभावतो । अभिनिवेसोति विपस्सनाभिनिवेसो होति लोकियस्स आणस्स विसभागूपगमनतो। नो विवट्टेति विवट्टे अभिनिवेसो नो होति अविसयभावतो। परियत्तीति कम्मट्ठानतन्ति । उग्गहेत्वाति वाचुग्गतं कत्वा। उग्गहेत्वाति वा पाळितो, अत्थतो च यथारहं सवनधारणपरिपुच्छनमनसानुपेक्खनादिवसेन चित्तेन उद्धं उद्धं गण्हित्वा। कम्मं करोतीति नामरूपपरिग्गहादिक्कमेन योगकम्मं करोति ।
यदि पुरिमेसु द्वीसु एव विपस्सनाभिनिवेसो, तेसु एव उग्गहादि, कथमिदं चतुसच्चकम्मट्ठानं जातन्ति आह "दीसू"तिआदि । कामं पच्छिमानिपि द्वे सच्चानि अभिज्ञेय्यानि, परिझेय्यता पन तत्थ नत्थीति न विपस्सनाब्यापारो। केवलं पन अनुस्सवमत्ते ठत्वा अच्चन्तपणीतभावतो इटुं, आतप्पकनिरामिसपीतिसञ्जननतो कन्तं, उपरूपरि अभिरुचिजननेन मनस्स वड्डनतो मनापन्ति मनसिकारं पवत्तेति । तेनाह "निरोधसच्चं नामा"तिआदि । द्वीसु सच्चेसूति द्वीसु सच्चेसु विसयभूतेसु, तानि च उद्दिस्स असम्मोहपटिवेधवसेन पवत्तमानो हि मग्गो ते उद्दिस्स पवत्तो नाम होतीति । तीणि दुक्खसमुदयमग्गसच्चानि । किच्चवसेनाति असम्मुव्हनवसेन। एकन्ति निरोधसच्चं । आरम्मणवसेनाति आरम्मणकरणवसेनपि असम्मुव्हनकिच्चवसेनपि तत्थ पटिवेधो लब्भतेव । द्वे सच्चानीति दुक्खसमुदयसच्चानि । दुद्दसत्ताति दटुं असक्कुणेय्यत्ता। ओळारिका हि दुक्खसमुदया, तिरच्छानगतानम्पि दुक्खं, आहारादीसु च अभिलासो पाकटो। पीळनादिआयूहनादिवसेनपि “इदं दुक्खं, इदं अस्स कारण"न्ति याथावतो जाणेन ओगाहितुं असक्कुणेय्यत्ता तानि गम्भीरानि। वेति निरोधमग्गसच्चानि । तानि सण्हसुखुमभावतो सभावेनेव गम्भीरताय याथावतो आणेन दुरोगाहत्ता "दुद्दसानी"ति ।
सोतापत्तियङ्गादिचतुक्कवण्णना ३११. सोतो नाम अरियसोतो पुरिमपदलोपेन, तस्स आदितो सब्बपठमं पज्जनं सोतापत्ति, पठममग्गपटिलाभो। तस्स अङ्गानि अधिगमूपायभूतानि कारणानि सोतापत्तियङ्गानि। तेनाह "सोता...पे०... अत्थो"ति। सन्तकायकम्मादिताय सन्तधम्मसमन्नागमतो, सन्तधम्मपवेदनतो च सन्तो पुरिसाति सप्पुरिसा। तत्थ येसं वसेन चतुसच्चसम्पटिवेधावहं सद्धम्मस्सवनं लब्भति, ते एव दस्सेन्तो "बुद्धादीनं सप्पुरिसान"न्ति
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(१०.३११-३११)
सोतापत्तियङ्गादिचतुक्कवण्णना
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आह । सन्तो सतं वा धम्मोति सद्धम्मो। सो हि यथानुसिटुं पटिपज्जमाने अपायदुक्खे, संसारदुक्खे च अपतन्ते धारेतीति एवमादि गुणातिसययोगवसेन सन्तो संविज्जमानो, पसत्थो, सुन्दरो वा धम्मो, सतं वा अरियानं धम्मो, तेसं वा तब्भावसाधको धम्मोति सद्धम्मो, “इध भिक्खु धम्मं परियापुणाती"तिआदिना (अ० नि० २.५.७३) वुत्ता परियत्ति । सा पन महाविसयताय न सब्बा सब्बस्स विसेसावहाति तस्स तस्स अनुच्छविकमेव दस्सेन्तो आह "सप्पायस्स तेपिटकधम्मस्स सवन"न्ति । योनिसोमनसिकारो हेट्टा वुत्तो एव । पुब्बभागपटिपत्तियाति विपस्सनानुयोगस्स ।
अवेच्चप्पसादेनाति सच्चसम्पटिवेधवसेन बुद्धादीनं गुणे ञत्वा उप्पन्नप्पसादेन, सो पन पसादो देवादीसु केनचिपि अकम्पियताय निच्चलोति आह “अचलप्पसादेना"ति । एत्थाति एतस्मिं चतुक्कत्तये आहारचतुक्के । लूखपणीतवत्थुवसेनाति ओदनकुम्मासादिकस्स लूखस्स चेव पणीतस्स च वत्थुनो वसेन । सा पनायं आहारस्स ओळारिकसुखुमता “कुम्भिलानं आहारं उपादाय मोरानं आहारो सुखुमो''तिआदिना (सं० नि० अट्ठ० २.२.११) अट्ठकथायं वित्थारतो आगता एव ।
आरम्मणट्ठितिवसेनाति आरम्मणसङ्घातस्स पवत्तिपच्चयट्ठानस्स वसेन | तिट्ठति एत्थाति ठिति, आरम्मणमेव ठिति आरम्मणद्विति। तेनेवाह “रूपारम्मण''न्तिआदि । आरम्मणत्यो चेत्थ उपत्थम्भनत्थो वेदितब्बो, न विसयलक्खणोव । उपत्थम्भनभूतं रूपं उपेतीति रूपूपायं । तेनाह "रूपं उपगतं हुत्वा"तिआदि । रूपक्खन्धं निस्साय तिट्ठति तेन विना अप्पवत्तनतो । तन्ति रूपक्खन्धं निस्साय ठानप्पवत्तनं । एतन्ति “रूपूपाय"न्ति एतं वचनं । रूपक्खन्धो गोचरो पवत्तिट्ठानं पच्चयो एतस्साति रूपक्खन्धगोचरं रूपं सहकारीकारणभावेन पतिट्ठा एतस्साति रूपप्पतिद्वं। इति तीहि पदेहि अभिसङ्कारविज्ञाणं पति रूपक्खन्धस्स सहकारीकारणभावोयेवेत्थ वुत्तो। उपसित्तं विय उपसित्तं, यथा ब्यञ्जनेहि उपसित्तं सिनेहितं ओदनं रुचितं, परिणामयोग्यञ्च, एवं नन्दिया उपसित्तं सिनेहितं कम्मविज्ञाणं अभिरुचितं हुत्वा विपाकयोग्यं होतीति । इतरन्ति दोससहगतादिअकुसलं, कुसलञ्च उपनिस्सयकोटिया उपसित्तं हुत्वाति योजना। एवं पवत्तमानन्ति एवं रूपूपायन्ति देसनाभावेन पवत्तमानं । विपाकधम्मताय बुद्धिं...पे०... आपज्जति। तत्थापि निप्परियायफलनिब्बत्तनवसेन वुद्धिं, परियायफलनिब्बत्तनवसेन विरुव्हिं, निस्सन्दफलनिब्बत्तनवसेन वेपुल्लं। दिठ्ठधम्मवेदनीयफलनिब्बत्तनेन वा वुद्धिं, उपपज्जवेदनीयफलनिब्बत्तनवसेन विरुव्हिं, अपरापरियायफलनिब्बत्तनवसेन वेपुल्लं
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३११-३११)
आपज्जतीति योजना | एकन्ततो वेदनुपायादिवसेन पत्ति नाम अरूपभवे येवाति आह "इमेहि पना"तिआदि । एवञ्च कत्वा पाळियं कतं वा-सद्दग्गहणञ्च समत्थितं होति । "रूपूपाय"न्तिआदिना यथा अभिसङ्खारविज्ञाणस्स उपनिस्सयभूता रूपादयो गम्हन्ति, एवं तेन निब्बत्तेतब्बापि ते गव्हन्तीति अधिप्पायेन "चतुक्कवसेन...पे०... न वुत्त'न्ति आह । विपाकोपि हि धम्मो विपाकधम्मविज्ञाणं उपगतं नाम होति तथा नन्दिया उपसित्तत्ता । तेनाह “नन्दूपसेचन''न्ति । वित्थारितानेव सिङ्गालसुत्ते ।
भवति एतेन आरोग्यन्ति भवो, गिलानपच्चयो । परिवुद्धो भवो अभवो। वुद्धिअत्थो हि अयं अकारो यथा “संवरासंवरो, (पारा० पठममहासङ्गीतिकथा; दी० नि० अट्ठ० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना; ध० स० अट्ठ० निदानकथा) फलाफलं'"ति च । तेलमधुफाणितादीनीति आदि-सद्देन सप्पिनवनीतानं गहणं, तेलादीनं गहणञ्चेत्थ निदस्सनमत्तं । सब्बस्सापि गिलानपच्चयस्स सङ्गहो दट्ठब्बो । अथ वा भवाभवोति खुद्दको चेव महन्तो च उपपत्तिभवो वेदितब्बो। एवञ्च सति “इमेसं पना"तिआदिवचनं समत्थितं होति । भवूपपत्तिपहानत्थो हि विसेसतो चतुत्थअरियवंसो। तण्हुप्पादानन्ति तण्हुप्पत्तीनं, चीवरादिहेतु उप्पज्जनकतण्हानन्ति अत्थो। पधानकरणकालेति भावनानुयोगक्खणे। सीतादीनि न खमतीति भावनाय पुब्बभागकालं सन्धाय वुत्तं । खमतीति सहति अभिभवति । वितक्कसमनन्ति निदस्सनमत्तं । सब्बेसम्पि किलेसानं समनवसेन पवत्ता पटिपदा ।
समाधिझानादिभेदो धम्मो पज्जति पटिपज्जीयति एतेनाति धम्मपदं। अनभिज्झाव धम्मपदं अनभिज्झाधम्मपदं । अयं ताव अलोभपक्खे नयो, इतरपक्खे पन अनभिज्झापधानो धम्मकोट्ठासो अनभिज्झाधम्मपदं। अकोपोति अदोसो, मेत्ताति अत्थो । सुप्पद्वितसतीति कायादीसु सम्मदेव उपट्ठिता सति । सतिसीसेनाति सतिपधानमुखेन । समाधिपधानत्ता झानानं "समापत्ति वा"ति वुत्तं । कामं सविाणकअसुभेपि झानभावना अलोभप्पधाना होति कायस्स जिगुच्छनेन, पटिक्कूलाकारग्गहणवसेन च पवत्तनतो, सत्तविधउग्गहकोसल्लादिवसेन पनस्सा पवत्ति सतिपधानाति ततियधम्मपदेनेव नं सङ्गण्हितुकामो “दस असुभवसेन वाति आह। हितूपसंहारादिवसेन पवत्तनतो ब्रह्मविहारभावना ब्यापादविरोधिनी अब्यापादप्पधानाति आह "चतुब्रह्म...पे०... धम्मपद"न्ति। तत्थ अधिगतानि झानादीनीति योजना। गमनादितो आहारस्स पटिक्कूलभावसल्लक्खणं साय थिरभावेनेव होति तस्सा थिरसञआपदट्ठानत्ताति आहारे
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सोतापत्तियङ्गादिचतुक्कवण्णना
पटिक्कूञापि ततियधम्मपदे एव सङ्ग्रहं गता । आरुप्पसमाधिअभिञ्ञानं अधिट्ठानभावतो कसिणभावना, सत्तविधबोज्झङ्गविज्जाविमुत्तिपारिपूरिहेतुतो आनापानेसु पठमआनापानभावना विसेसतो समाधिपधानाति सा चतुत्थधम्मपदेन सङ्गहिता । चतुधातुववत्थानवसेन अधिगतानिपि एत्थेव सङ्गतब्बानि सियुं पञ्ञापधानताय पन न सङ्गहितानि ।
( १०.३११ - ३११)
धम्मसमादानेसु पठमं अचेलकपटिपदा एतरहि च दुक्खभावतो, अनागतेपि अपायदुक्खवट्टदुक्खावहतो । अचेलकपटिपदाति च निदस्सनमत्तं दट्ठब्बं छन्नपरिब्बाजकानम्पि उभयदुक्खावहपटिपत्तिदरसनतो । दुतियं...पे०... ब्रह्मचरियचरणं एतरहि सतिपि दुक्खे आयतिं सुखावहत्ता । कामेसु पातब्यता यथाकामं कामपरिभोगो । अलभमानस्सापीति पि सद्देन को पन वादो लभमानस्साति दस्सेति ।
दुस्सील्यादिपापधम्मानं खम्भनं पटिबन्धनं खन्धट्ठो, सो पन सीलादि एवाति आह " गुणट्टो खन्धट्टो "ति । गुणविसयताय खन्ध - सद्दस्स गुणत्थता वेदितब्बा । विमुत्तिक्खन्धोति परिपक्खतो सुटु विमुत्ता गुणधम्मा अधिप्पेता, न अविमुत्ता, नापि विमुच्चमानाति हि सह देसनं आरुळ्हा सीलक्खन्धादयोपि तयोति आह “ फलसीलं अधिप्पेतं, चतूसुपि ठानेसु फलमेव वुत्तन्त च । एतेनेव चेत्थ विमुत्तिक्खन्धो फलपरियापन्ना सम्मासङ्कप्पवायामसतियो अधिप्पेताति वेदितब्बं ।
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एतेनेव
उपत्थम्भनन सम्पयुत्तधम्मानं तत्थ थिरभावेन पवत्तनतो, अहिरिक अनोत्तप्पानम्पि सविसये बलट्ठो सिद्धो वेदितब्बो । न हि तेसं पटिपक्खेहि अकम्पियट्ठो एकन्तिको । हिरोत्तप्पानञ्हि अकम्पियट्ठो सातिसयो कुसलधम्मानं महाबलभावतो, अकुसलानञ्च दुब्बलभावतो । तेनाह भगवा “ अबला नं बलीयन्ति, मद्दन्ते नं परिस्सया "ति (सु० नि० ७७६; महानि० ५; नेत्ति० पटिनिद्देसवारे ५ ) बोधिपक्खियधम्मवसेनायं देसनाति "समथविपस्सनामग्गवसेना' 'ति वृत्तं ।
अधीति उपसग्गमत्तं, न " अधिचित्त "न्तिआदीसु (ध० प० १८५) विय अधिकारादित्थं । करणाधिकरणभावसाधनवसेन अधिट्ठान - सद्दस्स अत्थं दस्सेन्तो " तेन वा''तिआदिमाह । तेन अधिट्ठानेन तिट्ठन्ति अत्तनो सम्मापटिपत्तियं गुणाधिका पुरिसा, ते एव तत्थ अधिट्ठाने तिट्ठन्ति सम्मापत्तिया, ठानमेव अधिट्ठानमेव सम्मापटिपत्तियन्ति योजना | पठमेन अधिट्ठानेन | अग्गफलपञ्ञति उक्कट्ठनिद्देसोयं । किलेसूपसमोति किलेसानं
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
अच्चन्तवूपसमो । पठमेन नयेन अधिट्ठानानि एकदेसतोव गहितानि न निप्पदेसतोति निप्पदेसतोव तानि दस्सेतुं “पठमेन चा "तिआदि वृत्तं । " आदि कत्वाति एतेन झानाभिञ्ञापञ्ञञ्चेव मग्गपञ्ञञ्च सङ्गण्हाति । वचीसच्चं आदि कत्वाति आदि - सद्देन विरति सच्च सङ्गण्हाति । ततियेन आदि-सन किलेसानं वीतिक्कमपरिच्चागं, परियुट्ठानपरिच्चागं, हेट्ठिममग्गेहि अनुसयपरिच्चागञ्च सङ्गण्हाति । “ विक्खम्भिते किले से ि एतेन समापत्तीहि किलेसानं विक्खम्भनवसेन वूपसमं वत्वा आदि - सद्देन हेट्ठिममग्गेहि कातब्बं तेसं समुच्छेदवसेन वूपसमं सङ्गण्हाति । अरहत्तफलपञ्ञ कथिता उक्कट्ठनिद्देसतोव, अञ्ञथा वचीसच्चादीनम्पि गहणं सिया । निब्बानञ्च असम्मोसधम्मताय उत्तमट्ठेन सच्चं, सब्बसंकिलेसपरिच्चागनिमित्तताय चागो, सब्बसङ्घारूपसमभावतो उपसमोति च विसेसतो वत्तब्बतं अरहतीति थेरस्स अधिप्पायो । पकट्ठजाननफलताय पञ्ञा, अनवसेसतो किलेसानञ्चजन्ते च वूपसन्ते च उप्पन्नत्ता चागो, उपसमोति च विसेसतो अग्गफलञाणं वुच्चतीति थेरो आह "सेसेहि अरहत्तफलपञ्ञ कथिता " ति |
पञ्हब्याकरणादिचतुक्कवण्णना
३१२. काळकन्ति मलीनं, चित्तस्स अपभस्सरभावकरणन्ति अत्थो । तं पत्थ कम्मपथप्पत्तमेव अधिप्पेतन्ति आह “ दसअकुसलकम्मपथकम्म' "न्ति । कण्हाभिजातिहेतुतो वा कण्हं । तेनाह "कण्हविपाक "न्ति । अपायूपत्ति, मनुस्सेसु च दोभग्गियं कण्हविपाको । अयं तस्स तमभावो वुत्तो । निब्बत्तनतोति निब्बत्तापनतो । पण्डरन्ति ओदातं, चित्तस्स पभस्सरभावकरणन्ति अत्थो । सुक्काभिजातिहेतुतो वा सुक्कं । तेनाह "सुक्कविपाक”न्ति । सग्गूपपत्ति, मनुस्सेसु सोभग्गियञ्च सुक्कविपाको । अयं तस्स जोतिभावो वुत्तो । उक्कट्ठनिद्देसेन पन “सग्गे निब्बत्तनतो " ति वृत्तं निब्बत्तापनतोति अत्थो । मिस्सककम्मन्ति कालेन कण्हं, कालेन सुक्कन्ति एवं मिस्सकवसेन कतकम्मं । “सुखदुक्खविपाक "न्ति वत्वा तत्थ सुखदुक्खानं पवत्तिआकारं दस्सेतुं “मिस्सककम्मही' 'तिआदि वृत्तं । कम्मस्स कण्हसुक्कसमञ्ज कण्हसुक्काभिजातिहेतुतायाति अपचयगामिताय तदुभयविद्धंसकस्स कम्मक्खयकरकम्मस्स इध सुक्कपरियायोपि न इच्छितोति आह " उभय... पे०... अयमेत्थ अत्थोति । तत्थ उभयविपाकस्साति यथाधिगतस्स उभयविपाकस्स । सम्पत्तिभवपरियापन्नो हि विपाको इध “सुक्कविपाको ति अधिप्पेतो, न अच्चन्तपरिसुद्धो अरियफलविपाको ।
पुब्बेनिवासो सत्तानं चुतूपपातो च पच्चक्खकरणेन सच्छिकातब्बा; इतरे पाटिलाभेन
( १०.३१२ - ३१२)
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(१०.३१२-३१२)
पहब्याकरणादिचतुक्कवण्णना
२१५
असम्मोहपटिवेधवसेन पच्चक्खकरणेन च सच्छिकातब्बा। ननु च पच्चवेक्षणापेत्थ पच्चक्खतो पवत्ततीति ? सच्चं पच्चक्खतो पवत्तति सरूपदस्सनतो, न पन पच्चक्खकरणवसेन पवत्तति पच्चक्खकारीनं पिट्ठिवत्तनतो। तेनाह "कायेना"तिआदि ।
ओहनन्तीति हेट्ठा कत्वा हनन्ति गमेन्ति । तथाभूता च अधो सीदेन्ति नामाति आह "ओसीदापेन्ती"ति । कामनठून कामो च सो यथावुत्तेनत्थेन ओघो चाति, कामेसु ओघोति वा कामोघो। भवोघो नाम भवरागोति दस्सेतुं "रूपारूपभवेसू"तिआदि वुत्तं । तत्थ पठमो उपपत्तिभवेसु रागो, दुतियो कम्मभवेसु, ततियो भवदिट्ठिसहंगतो । यथा रञ्जनढेन रागो, एवं ओहनटेन “ओघो''ति वुत्तो ।
योजेन्तीति कम्मं विपाकेन, भवादिं भवन्तरादीहि दुक्खे सत्ते योजेन्ति घट्टेन्तीति योगा। ओघा विय वेदितब्बा अत्थतो कामयोगादिभावतो ।
विसंयोजेन्तीति पटिपन्नं पुग्गलं कामयोगादितो वियोजेन्ति । संकिलेसकरणं योजनं योगो, गन्थिकरणं (गन्थकरणं ध० स० मूलटी० २०-२५), सङ्खलिकचक्कलिकानं विय पटिबद्धताकरणं वा गन्थनं गन्थो, अयं एतेसं विसेसो । पलिबुन्धतीति निस्सरितुं अप्पदानवसेन न मुञ्चेति विबन्धति । इदमेवाति अत्तनो यथाउपट्टितं सस्सतवादादिकं वदति । सच्चन्ति भूतं ।
भुसं, दळहञ्च आरम्मणं आदीयति एतेहीति उपादानानि । यं पन तेसं तथागहणं, तम्पि अत्थतो आदानमेवाति आह "उपादानानीति आदानग्गहणानी"ति । गहणद्वेनाति कामनवसेन दळ्हं गहणढेन । पुन गहणटेनाति मिच्छाभिनिविसनवसेन दळ्हं गहणद्वैन । इमिनाति इमिना सीलवतादिना। सुद्धीति संसारसुद्धि । एतेनाति एतेन दिट्ठिगाहेन । "अत्ता"ति पापेन्तो वदति चेव अभिनिवेसनवसेन उपादियति च।
यवन्ति ताहि सत्ता अमिस्सितापि समानजातिताय मिस्सिता विय होन्तीति योनियो, ता पन अत्थतो अण्डादिउप्पत्तिहानविसिट्ठा खन्धानं भागसो पवत्तिविसेसाति आह "योनियोति कोट्ठासा"ति। सयनस्मिन्ति पुप्फसन्थरादिसयनस्मिं । तत्थ वा ते सयिता जायन्तीति सयनग्गहणं । तयिदं मनुस्सानं, भुम्मदेवानञ्च वसेन गहेतब्बं । पूतिमच्छादीसु किमयो निब्बत्तन्ति । उपपतिता वियाति उपपज्जवसेन पतिता विय ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३१३-३१४)
बाहिरपच्चयनिरपेक्खताय वा उपपतने साधुकारिनो ओपपातिनो, ते एव इध "ओपपातिका"ति वुत्ता। देवमनुस्सेसूति एत्थ ये देवे सन्धाय देवग्गहणं, ते दस्सेन्तो "भुम्मदेवेसू"ति आह ।
अत्तनो सतिसम्मोसेन आहारप्पयोगेन मरणतो "पठमो खिड्डापदोसिकवसेना"ति वुत्तं । अत्तनो परस्स च मनोपदोसवसेन मरणतो "ततियो मनोपदोसिकवसेना"ति वुत्तं । नेव अत्तसञ्चेतनाय मरन्ति, न परसञ्चेतनाय केवलं पुञक्खयेनेव मरणतो, तस्मा चतुत्थो...पे०...। वेदितब्बो।
दक्खिणाविसुद्धादिचतुक्कवण्णना ३१३. दानसङ्खाता दक्खिणा, न देय्यधम्मसङ्घाता । विसुज्झना महाजुतिकता, सा पन महाफलताय वेदितब्बाति आह "महप्फला होन्ती"ति ।
अनरियानन्ति असाधूनं । ते पन निहीनाचारा होन्तीति आह "लामकान"न्ति | वोहाराति सब्बोहारा अभिलापा वा, अत्थतो तथापवत्ता चेतना। तेनाह "एत्थ चा"तिआदि ।
अत्तन्तपादिचतुक्कवण्णना ३१४. तेसु अचेलकोति निदस्सनमत्तं छन्नपरिब्बाजकानम्पि अत्तकिलमथं अनुयुत्तानं लब्भनतो।
न सीलादिसम्पन्नोति सीलादीहि गुणेहि अपरिपुण्णो |
तमोति अप्पकासभावेन तमोभूतो। तेनाह “अन्धकारभूतो"ति, अन्धकारं विय भूतो जातो अप्पकासभावेन, अन्धकारत्तं वा पत्तोति अत्थो । तममेवाति वुत्तलक्खणं तममेव । परं परतो अयनं गति निहाति अत्थो । “नीचे...पे०... निब्बत्तित्वा"ति एतेन तस्स तमभावं दस्सेति, "तीणि दुच्चरितानि परिपूरेती"ति एतेन तमपरायनभावं अप्पकासभावापत्तितो। तथाविधो हुत्वाति नीचे...पे०... निब्बत्तेत्वा । "तीणि सुचरितानि
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(१०.३१५-३१५)
पञ्चकवण्णना
२१७
परिपूरेती"ति एतेन तस्स जोतिपरायनभावं दस्सेति पकासभावापत्तितो। इतरद्वये वुत्तनयानुसारेन अत्थो वेदितब्बो ।
म-कारो पदसन्धिमत्तं “अझमचन्तिआदीसु (सु० नि० ६०५) विय । चतूहि वातेहीति चतूहि दिसाहि उद्वितवातेहि । परप्पवादेहीति परेसं दिह्रिगतिकानं वादेहि । "अकम्पियो"ति वत्वा तत्थ कारणमाह “अचलसद्धाया"ति, मग्गेनागतसद्धाय । पतनुभूतत्ताति एत्थ द्वीहि कारणेहि पतनुभावो वेदितब्बो अधिच्चुप्पत्तिया, परियुट्ठानमन्दताय च । सकदागामिस्स हि वट्टानुसारिमहाजनस्स विय किलेसा अभिण्हं न उप्पज्जन्ति, कदाचि करहचि उप्पज्जन्ति । उप्पज्जमाना च वट्टानुसारिमहाजनस्स विय मद्दन्ता अभिभवन्ता न उप्पज्जन्ति, द्वीहि पन मग्गेहि पहीनत्ता मन्दा मन्दा तनुकाकारा उप्पज्जन्ति । इति किलेसानं पतनुभावेन गुणसोभाय गुणसोरच्चन सकदागामी समणपदुमो नाम। रागदोसानं अभावाति गुणविकासविबन्धानं सब्बसो रागदोसानं अभावेन | खिप्पमेव पुफिस्सतीति अग्गमग्गविकसनेन नचिरस्सेव अनवसेसगुणसोभापारिपूरिया पुफ्फिस्सति । तस्मा अनागामी समणपुण्डरीको नाम। "पुण्डरीक"न्ति हि रत्तकमलं वुच्चति । तं किर लहुं पुष्फिस्सति । 'पदुम'न्ति सेतकमलं, तं चिरेन पुफिस्सती''ति वदन्ति । गन्थकारकिलेसानन्ति चित्तस्स बद्धभावकरानं उद्धम्भागियकिलेसानं सब्बसो अभावा समणसुखुमालो नाम समणभावेन परमसुखुमालभावप्पत्तितो ।
चतुक्कवण्णना निहिता।
निट्ठिता च पठमभाणवारवण्णना ।
पञ्चकवण्णना
३१५. सच्चेसु विय अरियसच्चानि खन्धेसु उपादानक्खन्धा अन्तोगधाति खन्धेसु लोकियलोकुत्तरवसेन विभागं दस्सेत्वा इतरेसु तदभावतो “उपादानक्खन्धा लोकिया वा"ति आह ।
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२१८
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३१५-३१५)
गन्तब्बाति उपपज्जितब्बा। यथा हि कम्मभवो परमत्थतो असतिपि कारके पच्चयसामग्गिया सिद्धो “तंसमङ्गिना सन्तानलक्खणेन सत्तेन कतो''ति वोहरीयति, एवं उपपत्तिभवलक्खणा गतियो परमत्थतो असतिपि गमके तंतंकम्मवसेन येहि तानि कम्मानि “कतानी''ति वुच्चन्ति, तेहि “गन्तब्बा"ति वोहरीयन्ति । यस्स उप्पज्जति, तं ब्रूहन्तो एव उप्पज्जतीति अयो, सुखं । नत्थि एत्थ अयोति निरयो। ततो एव अस्सादेतब्बमेत्थ नत्थीति “निरस्सादो"ति आह । अवीचिआदिओकासेपि निरयसद्दो निरुळहोति आह "सहोकासेन खन्धा कथिता"ति । सूरियविमानादि ओकासविसेसेपि लोके देव-सद्दो निरुळहोति आह "चतुत्थे ओकासोपी"ति ।
__ आवासेति विसये भुम्मं । पेतो वा अजगरो वा हुत्वा निब्बत्तति लग्गचित्तताय, हीनज्झासयताय च । तेहि तेहि कारणेहि आदीनवं दस्सेत्वा यथा . अत्रे न लभन्ति, एवं करोति अत्तनो विसमनिस्सितताय, बलवनिस्सितताय च। वण्णमच्छरियेन अत्तनो एव वण्णं वण्णेति, परेसं वण्णो “किं वण्णो एसो"ति तं तं दोसं वदति । पटिवेधधम्मो अरियानंयेव होति, ते च तं न मच्छरायन्ति मच्छरियस्स सब्बसो पहीनत्ताति तस्स असम्भवो एवाति आह "परियत्तिधम्मे"तिआदि । “अयं इमं धम्म उग्गहेत्वा अञथा अत्थं विपरिवत्तेत्वा नस्सेस्सती"ति धम्मानुग्गहेन न देति। “अयं इमं धम्मं उग्गहेत्वा उद्धतो उन्नळो अवूपसन्तचित्तो अपुओं पसविस्सती"ति पुग्गलानुग्गहेन न देति। न तं अदानं मच्छरियं मच्छरियलक्खणस्सेव अभावतो ।
चित्तं निवारेन्तीति झानादिवसेन उप्पज्जनकं कुसलचित्तं निसेधेन्ति तथास्स उप्पज्जितुं न देन्ति । नीवरणप्पत्तोति नीवरणावत्थो । “अरहत्तमग्गवज्झो"ति एतेन भवरागानुसयस्सपि नीवरणभावं अनुजानाति, . तं विचारेतब्बं । किमेत्थ विचारेतब्बं ? "आरुप्पे कामच्छन्दनीवरणं पटिच्च थिनमिद्धनीवरण"न्ति (पट्ठा० ३.नीवरणगोच्छके ८) आदिवचनतो न यिदं “परियायेन वुत्त"न्ति सक्का वत्तुं, सब्बेसम्पि तेभूमकधम्मानं कामनीयढेन कामभावतो भवरागस्सपि कामच्छन्दभावस्स इच्छितत्ता। तस्मा "कामच्छन्दो नीवरणप्पत्तो''ति भवरागानुसयमाह । सो हि अरहत्तमग्गवज्झो । “या तस्मिं समये चित्तस्स अकल्यता"ति (ध० स० ११६२) आदिवचनतो थिनं चित्तगेलखं। तथा “या तस्मिं समये वेदनाक्खन्धस्सा''ति (ध० स० ४४) आदिवचनतो मिद्धं खन्धत्तयगेलझं। एत्थ च चित्तगेल न चित्तस्सेव अकल्यता, खन्धत्तयगेल न पन रूपकायस्सपि थिनमिद्धस्स निद्दाहेतुत्ता । तथा उद्धच्चन्ति उद्धच्चस्स अरहत्तमग्गवज्झतं उपसंहरति
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(१०.३१६-३१६)
अभब्बट्ठानादिपञ्चकवण्णना
२१९
तथा-सद्देन, न उभयतं । न हि तस्स तादिसी उभयता अस्थि । यं पन केचि वदन्ति "पुथुज्जनसन्तानवुत्ति सेक्खसन्तानवुत्ती''ति, तं इध अनुपयोगि सेक्खसन्तानवुत्तिनो एव चेत्थ अधिप्पेतत्ता।
तेहीति संयोजनेहि । “ओरम्भागियानि उद्धम्भागियानी"ति विसेसं अनामसित्वा "संयोजनानी''ति साधारणतो पदुद्धारो इदानि वुच्चमानचतुक्कानुच्छविकतावसेन, कस्सचिपि किलेसस्स अविक्खम्भितत्ता कथञ्चिपि अविनिपातेय्यतामुत्तो कामभवो अज्झत्तग्गहणस्स विसेसपच्चयत्ता इमेसं सत्तानं अब्भन्तरतुन अन्तो नाम | रूपारूपभवो तब्बिपरियायतो बहि नाम । तथा हि यस्स ओरम्भागियानि संयोजनानि अप्पहीनानि, सो अज्झत्तसंयोजनो वुत्तो, यस्स तानि पहीनानि, सो बहिद्धासंयोजनो, तस्मा अन्तो असमुच्छिन्नबन्धनताय, बहि च पवत्तमानभवङ्गसन्तानताय अन्तोबद्धा बहिसयिता नाम । निरन्तरप्पवत्तभवङ्गसन्तानवसेन हि सयितवोहारो। कामं नेसं बहिबन्धनम्पि असमुच्छिन्नं, अन्तोबन्धनस्स पन थूलताय एवं वुत्तं । तेनाह "तेसहि कामभवे बन्धन"न्ति । इमिना नयेन सेसद्वयेपि अत्थो वेंदितब्बो। असमुच्छिन्नेसु च ओरम्भागियसंयोजनियेसु लद्धप्पच्चयेसु उद्धम्भागियसंयोजनानि अगणनूपगानि होन्तीति । अरियानंयेव वसेनेत्थ चतुक्कस्स उद्धटत्ता लब्भमानापि पुथुज्जना न उद्धटा । ।
__ सिक्खाकोट्ठासोति सिक्खितब्बभागो । पज्जति सिक्खा एतेनाति सिक्खापदं, सिक्खाय अधिगमुपायोति । आगतायेव, तस्मा तत्थ आगतनयेनेव वेदितब्बाति अधिप्पायो ।
अभब्बट्ठानादिपञ्चकवण्णना
३१६. देसनासीसमेवाति देसनापदेसो एव, तस्मा सोतापन्नादयोपि अभब्बा। यदि एवं कस्मा तथा देसनाति आह "पुथुज्जनखीणासवान"न्तिआदि ।
आतिब्यसने येसं ञातीनं विनासो, तेसं हितसुखं विद्धंसेति, तस्मा ब्यसतीति व्यसनं। भोगब्यसनेपि एसेव नयो । रोगब्यसनादीसु पन “यस्स रोगो''तिआदिना योजेतब्बं । नेव अकुसलानि असंकिलिट्ठसभावत्ता। न तिलक्खणाहतानि अभावधम्मत्ता । इतरं पन वुत्तविपरियायतो अकुसलं, तिलक्खणाहतञ्च ।
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२२०
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३१७-३१७)
गुणेहि समिद्धभावा सम्पदा।
वत्थुसन्दस्सनाति यस्मिं वत्थुस्मिं तस्स आपत्ति, तस्स सरूपतो दस्सना । आपत्तिसन्दस्सनाति यं आपत्तिं सो आपन्नो, तस्सा दस्सना। संवासपटिक्खेपोति उपोसथपवारणादिसंवासस्स पटिक्खिपनं अकरणं । सामीचिपटिक्खेपो अभिवादनादिसामीचिकिरियाय अकरणं । चोदयमानेनाति चोदेन्तेन । चुदितकस्स कालोति चुदितकस्स पुग्गलस्स चोदेतब्बकालो । पुग्गलन्ति चोदेतब् पुग्गलं । उपपरिक्खित्वाति “अयं चुदितकलक्खणे तिट्ठति, न तिद्वती''ति वीमंसित्वा । अयसं आरोपेति “इमे मं अभूतेन अब्भाचिक्खन्ता अनयब्यसनं आपादेन्ती"ति भिक्खूनं अयसं उप्पादेति ।
पधानियङ्गपञ्चकवण्णना
३१७. पदहतीति पदहनो; भावनं अनुयुत्तो योगी, तस्स भावो भावनानुयोगो पदहनभावो। पधानं अस्स अत्थीति पधानिको, क-कारस्स य-कारं कत्वा "पधानियो"ति वुत्तं । “अभिनीहारतो पट्ठाय आगतत्ता''ति वुत्तत्ता पच्चेकबोधिसत्तसावकबोधिसत्तानम्पि पणिधानतो पभुति आगता सद्धा आगमनसद्धा एव, उक्कट्ठनिद्देसेन पन "सब्ब बोधिसत्तान"न्ति वुत्तं। अधिगमतो समुदागतत्ता अग्गमग्गफलसम्पयुत्तापि अधिगमनसद्धा नाम, या सोतापन्नस्स अङ्गभावेन वुत्ता। अचलभावेनाति पटिपक्खेन अनभिभवनीयत्ता निच्चलभावेन । ओकप्पनन्ति ओक्कन्तित्वा पक्खन्दित्वा अधिमुच्चनं । पसादुप्पत्ति पसादनीये वत्थुस्मिं पसीदनमेव | सुप्पटिविद्धन्ति सुट्टु पटिविद्धं, यथा तेन पटिवेधेन सब्ब तञाणं हत्थगतं अहोसि, तथा पटिविद्धं । यस्स बुद्धसुबुद्धताय सद्धा अचला असम्पवेधी, तस्स धम्मसुधम्मताय, सङ्घसुप्पटिपन्नताय च सद्धा न तथाति अट्ठानमेतं अनवकासो । तेनाह भगवा “यो, भिक्खवे, बुद्धे पसन्नो, धम्मे सो पसन्नो, सङ्घ सो पसन्नो'"तिआदि । पधानवीरियं इज्झति “अद्धा इमाय पटिपदाय जरामरणतो मुच्चिस्सामी''ति सक्कच्चं पदहनतो।
__ अप्प-सद्दो अभावत्थो “अप्प-सद्दस्स...पे०... खो पना''तिआदीसु वियाति आह "अरोगो"ति । समवेपाकिनियाति यथाभुत्तं आहारं समाकारेनेव पच्चनसीलाय । दळ्हं कत्वा पच्चन्ती हि गहणी घोरभावेन पित्तविकारादिवसेन रोगं जनेति, सिथिलं कत्वा पच्चन्ती मन्दभावेन वातविकारादिवसेन । तेनाह "नातिसीताय नाच्चुण्हाया"ति । गहणीतेजस्स
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(१०.३१८-३१८)
सुद्धावासादिपञ्चकवण्णना
२२१
मन्दतिक्खतावसेन सत्तानं यथाक्कम सीतुण्हसहगताति आह “अतिसीतगहणिको'तिआदि । याथावतो अच्चयदेसना अत्तनो आविकरणं नामाति आह “यथाभूतं अत्तनो अगुणं पकासेता"ति | उदयत्थगामिनियाति सङ्घारानं उदयं, वयञ्च पटिविज्झन्तियाति अयमेत्थ अत्थोति आह “उदयञ्चा''तिआदि। परिसुद्धायाति निरुपक्किलेसाय। निबिज्झितुं समत्थायाति तदङ्गवसेन अवसेसं पजहितुं समत्थाय । तस्स तस्स दुक्खस्स खयगामिनियाति यं दुक्खं इमस्मिं आणे अनधिगते पवत्तारहं, अधिगते न पवत्तति, तं सन्धाय वदति । तथा हेस योगावचरो “चूळसोतापन्नो''ति वुच्चति ।
सुद्धावासादिपञ्चकवण्णना
३१८. “सुद्धा आवसिंसू"तिआदिना अद्धत्तयेपि तेसं सुद्धावासपरियायो अब्यभिचारीति दस्सेति। किलेसमलरहिताति नामकायपरिसुद्धिं वदन्तो एव रूपकायपरिसुद्धिम्पि अत्थतो दस्सेति । तेनाह "अनागामिखीणासवा''ति ।
आयुनो मज्झन्ति अविहादीसु यत्थ यत्थ उप्पन्नो, तत्थ तत्थ आयुनो मज्झं अनतिक्कमित्वा । अन्तरा वाति तस्स अन्तराव ओरमेव । मज्झं उपहच्चाति आयुनो मज्झं अतिच्च । तेनाह "अतिक्कमित्वा"ति | अप्पयोगेनाति अनुस्सहनेन । अकिलमन्तोति अकिलन्तो । सुखेनाति अकिच्छेन । उद्धं वाहिभावेन उद्धं अस्स तण्हासोतं, वट्टसोतञ्चाति उद्धंसोतो; उद्धं वा गन्त्वा पटिलभितब्बतो उद्धं अस्स मग्गसोतन्ति उद्धंसोतो। अकनिटुं गच्छतीति अकनिट्ठगामी। सोधेत्वाति तत्थ तत्थ उप्पज्जन्तो ते ते देवलोके सोधेन्तो विय होतीति वुत्तं "चत्तारो देवलोके सोधेत्वा'ति । तत्थ तत्थ वा उप्पज्जित्वा पुन अनुप्पज्जनारहभावेनेव ततोपि गच्छन्तो देवूपपत्तिभवसञ्जिते अत्तनो खन्धलोके भवरागमलं विसोधेत्वा विक्खम्भेत्वा । अयहि अविहेसु कप्पसहस्सं वसन्तो अरहत्तं पत्तुं असक्कुणित्वा अतप्पं गच्छति, तत्थापि द्वे कप्पसहस्सानि वसन्तो अरहत्तं पत्तुं असक्कुणित्वा सुदस्सं गच्छति, तत्थापि चत्तारिकप्पसहस्सानि वसन्तो अरहत्तं पत्तुं असक्कुणित्वा सुदस्सिं गच्छति, तत्थापि अट्ठकप्पसहस्सानि वसन्तो अरहत्तं पत्तुं असक्कुणित्वा अकनिटुं गच्छति, तत्थ वसन्तो अग्गमग्गं अधिगच्छति ।
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२२२
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
चेतोखिलपञ्चकवण्णना
३१९. चेतोखिला नाम अत्थतो विचिकिच्छा कोधो च ते पन यस्मिं सन्ताने उप्पज्जन्ति, तस्स खरभावो कक्खळभावो हुत्वा उपतिट्ठन्ति, पगेव अत्तना सम्पत्तचित्तस्साति आह "चित्तस्स थद्धभावो 'ति । यथा लक्खणपारिपूरिया गहिताय सब्बा सत्थुरूपकायसिरी गहिताव नाम होति, एवं सब्बञ्ताय सब्बा धम्मकायसिरी” गहिता एव नाम होतीति तदुभयवत्थुकमेव कङ्खं दस्सेन्तो “ सरीरे कङ्क्षमानो 'तिआदिमाह । आतपति किलेसेति आतप्पं, सम्मावायामोति आह " आतप्पायाति वीरियकरणत्थाया" ति । पुनपुनं योगायाति भावनं पुनप्पुनं युञ्जनाय । सततकिरियायाति भावनाय निरन्तरप्पयोगाय । “पटिवेधधम्मे कङ्खमानो 'ति एत्थ कथं लोकुत्तरधम्मे कङ्क्षा पवत्ततीति ? न आरम्मणकरणवसेन, अनुत्सवाकारपरिवितक्कलद्धे परिकप्पितरूपे कङ्क्षा पवत्ततीति दस्सेन्तो आह “विपस्सना... पे०... वदन्ति, तं अत्थि नु खो नत्थीति कङ्क्षती 'ति । सिक्खाति चेत्थ पुब्बभागसिक्खा वेदितब्बा । “कामञ्चेत्थ विसेसुप्पत्तिया महासावज्जताय चेव संवासनिमित्तघट्टनाहेतु अभिण्हुप्पत्तिकताय च 'सब्रह्मचारीसू' ति कोपस्स विसयो विसेसेत्वा वुत्तो, ततो अञ्ञत्थापि पन कोपो न चेतोखिलो 'ति न सक्का विञ्ञातु"न्ति केचि । यदि एवं विचिकिच्छायपि अयं नयो आपज्जति, तस्मा यथारुतवसेनेव गहेतब्बं ।
चेतसोविनिबन्धादिपञ्चकवण्णना
३२०. पवत्तितुं अप्पदानवसेन कुसलचित्तं विनिबन्धन्तीति चेतसोविनिबन्धा । तं पन विनिबन्धन्ता मुट्ठिगाहं गण्हन्ती विय होन्तीति आह " चित्तं बन्धित्वा "तिआदि । कामगिद्धो पुग्गलो वत्थुकामे विय किलेसकामेपि अस्सादेति अभिनन्दतीति वुत्तं " वत्थुकामेपि किलेसकामेपी'ति । अत्तनो कायेति अत्तनो करजकाये, अत्तभावे वा । बहिद्धारूपेति परेसं काये, अनिन्द्रियबद्धरूपे च । उदरं अवदिहति उपचिनोति परिपूरेतीति उदरावदेहकं । सेय्सुखन्ति सेय्याय सयनवसेन उप्पज्जनकसुखं । संपरिवत्तकन्ति संपरिवत्तेत्वा । पणिधायाति तण्हावसेन पणिदहित्वा । इति पञ्चविधोपि लोभविसेसो एव चेतोविनिबन्धो वृत्ति वेदब्बो |
लोकियानेव कथितानि रूपिन्द्रियानंयेव कथितत्ता । पठमदुतियचतुत्थानि लोकियानि परित्तभूमकत्ता । ततियपञ्चमानि कामरूपग्गभूमिकत्ता, कामरूपारूपग्गभूमिकत्ता
च ।
( १०.३१९ - ३२० )
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(१०.३२१-३२१)
निस्सरणियपञ्चकवण्णना
२२३
लोकियलोकुत्तरानि कथितानीति आनेत्वा योजना। “समथविपस्सनामग्गफलवसेना''ति वत्तब्बं । “समथविपस्सनामग्गवसेना"ति वुत्तं ।
निस्सरणियपञ्चकवण्णना ___३२१. निस्सरन्तीति निस्सरणीयाति वत्तब्बे रस्सं कत्वा निद्देसो। कत्तरि हेस अनीय-सद्दो यथा “निय्यानिका"ति । तेनाह "निस्सटा"ति । कुतो पन निस्सटाति ? यथासकं पटिपक्खतो । निज्जीवद्वेन धातुयोति आह “अत्तसुञसभावा"ति । अत्थतो पन धम्मधातुमनोविज्ञाणधातुविसेसा | तादिसस्स भिक्खुनो किलेसवसेन कामेसु मनसिकारो नाम नत्थीति आह “वीमंसनत्थ"न्ति । “नेक्खम्मनिस्सितं इदानि मे चित्तं, किं नु खो कामवितक्कोपि उप्पज्जती"ति वीमंसन्तस्साति अत्थो । पक्खन्दनं नाम अनुप्पवेसो, सो पन तत्थ नत्थीति आह "न पविसती"ति । पसादं नाम अभिरुचिसन्तिट्ठानं, विमुच्चनं अधिमुच्चनन्ति तं सब्बं पक्खिपन्तो वदति “पसादं नापज्जती"तिआदि । एवंभूतं पनस्स चित्तं तत्थ कथं तिद्वतीति आह "यथा पना"तिआदि । तन्ति पठमज्झानं । अस्साति भिक्खुनो । चित्तं पक्खन्दतीति परिकम्मचित्तेन सद्धिं झानचित्तं एकट्ठवसेन एकज्झं गहेत्वा वदति। गोचरे गतत्ताति अत्तनो आरम्मणे एव पवत्तत्ता। अहानभागियत्ताति ठितिभागियत्ता, विसेसभागियत्ता वा। सुढ विमुत्तन्ति विक्खम्भनविमुत्तिया सम्मदेव विमुत्तं । चित्तस्स कायस्स च हननतो विघातो, दुक्खं । परिदहनतो परिळाहो, कामदरथो । न वेदयति अनुप्पज्जनतो। निस्सरन्ति ततोति निस्सरणं। के निस्सरन्ति ? कामा। एवञ्च कत्वा कामानन्ति कत्तरि सामिवचनं सुट्ट युज्जति । यदग्गेन कामा ततो "निस्सटा'"ति वुच्चन्ति, तदग्गेन झानम्पि कामतो “निस्सट"न्ति वत्तब्बतं लभतीति वुत्तं "कामेहि निस्सटत्ता'ति । एवं विक्खम्भनवसेन कामनिस्सरणं वत्वा इदानि समुच्छेदवसेन अच्चन्ततोव निस्सरणं दस्सेतुं “यो पना"तिआदि वुत्तं ।
सेसपदेसूति सेसकोट्ठासेसु । अयं पन विसेसोति विसेसं वदन्तेन "तं झानं पादकं कत्वा''तिआदिको अविसेसोति वत्वा दुतियततियवारेसु सब्बसो अनामट्ठो, चतुत्थवारे पन अयम्पि विसेसोति दस्सेतुं "अच्चन्तनिस्सरणे चेत्थ अरहत्तफलं योजेतब्ब"न्ति वुत्तं ।
यस्मा अरूपज्झानं पादकं कत्वा अग्गमग्गं अधिगन्त्वा अरहत्ते ठितस्स चित्तं सब्बसो रूपेहि निस्सटं नाम होति । तस्स हि फलसमापत्तितो वुट्ठाय वीमंसनत्थं
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२२४
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३२२-३२२)
रूपाभिमुखं चित्तं पेसेन्तस्स इदमक्खातन्ति समथयानिकानं वसेन हेट्ठा चत्तारो वारा कथिता, इदं पन सुक्खविपस्सकस्स वसेनाति आह "सुद्धसङ्खारे"तिआदि । पुन सक्कायो नत्थीति उप्पन्नन्ति इदानि मे सक्कायप्पबन्धो नत्थीति वीमंसन्तस्स उप्पन्नं ।
विमुत्तायतनपञ्चकवण्णना
३२२. विमुत्तिया वट्टदुक्खतो विमुच्चनस्स आयतनानि कारणानि विमुत्तायतनानीति आह "विमुच्चनकारणानी"ति । पाळिअत्थं जानन्तस्साति “इध सीलं आगतं, इध समाधि, इध पातिआदिना तं तं पाळिअत्थं याथावतो जानन्तस्स । पाळिं जानन्तस्साति तदत्थजोतनं पाळिं याथावतो उपधारेन्तस्स | तरुणपीतीति सञ्जातमत्ता मुदुका पीति जायति । कथं जायति? यथादेसितधम्म उपधारेन्तस्स तदनुच्छविकमेव अत्तनो कायवचीमनोसमाचारं परिग्गण्हन्तस्स सोमनस्सप्पत्तस्स पमोदलक्खणं पामोज्जं जायति । तुट्ठाकारभूता बलवपीतीति पुरिमुप्पन्नाय पीतिया वसेन लद्धासेवनत्ता अतिविय तुट्ठाकारभूता कायचित्तदरथपस्सम्भनसमत्थाय पस्सद्धिया पच्चयो भवितुं समत्था बलप्पत्ता पीति जायति । यस्मा नामकाचे पस्सद्धे रूपकायोपि पस्सद्धो एव होति, तस्मा "नामकायो पटिपस्सम्भति" इच्चेव वुत्तं । सुखं पटिलभतीति वक्खमानस्स चित्तसमाधानस्स पच्चयो भवितुं समत्थं चेतसिकं निरामिसं सुखं पटिलभति विन्दति | "समाधियती"ति एत्थ न यो कोचि समाधि अधिप्पेतो, अथ खो अनुत्तरसमाधीति दस्सेन्तो “अरहत्त फलसमाधिना समाधियती"ति आह। "अयव्ही"तिआदि तस्सा देसनाय तादिसस्स पुग्गलस्स यथावुत्तसमाधिपटिलाभस्स कारणभावविभावनं । तस्स विमुत्तायतनभावो। ओसक्कितुन्ति नयितुं । समाधियेव समाधिनिमित्तन्ति कम्मट्ठानपाळिआरुळहो समाधियेव परतो उप्पज्जनकभावनासमाधिस्स कारणभावतो समाधिनिमित्तं । "आचरियसन्तिके "तिआदि ।
तेनाह
विमुत्ति वुच्चति अरहत्तं सब्बसो किलेसेहि पटिप्पस्सद्धिविमुत्तीति कत्वा । परिपाचेन्तीति साधेन्ति निप्फादेन्ति । अनिच्चानुपस्सनाजाणे निस्सयपच्चयभूते उप्पन्नसञ्जा, तेन आणेन सहगताति अत्थो। सेसेसुपि एसेव नयो। यं पनेत्थ वत्तब्बं, तं विसुद्धिमग्गसंवण्णनायं (विसुद्धि० टी० १.३७, ३०६) वुत्तनयेन वेदितब्बं ।
पञ्चकवण्णना निद्विता ।
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(१०.३२३-३२३)
छक्कवण्णना
२२५
छक्कवण्णना
____३२३. अत्तानं अधि अज्झत्ता, अधि-सद्दो समासविसये अधिकारत्थं, पवत्तिअत्थञ्च गहेत्वा पवत्ततीति अत्तानं अधिकिच्च उद्दिस्स पवत्ता अज्झत्ता; अज्झत्तेसु भवानि अज्झत्तिकानीति नियकज्झत्तेसुपि अब्भन्तरानि चक्खादीनि वुच्चन्ति, तानि पन येन अज्झत्तभावेन “अज्झत्तिकानी''ति वुच्चन्ति, तमत्थं पाकटं कत्वा दस्सेन्तो "अज्झत्तिकानी"ति आह । सद्दत्थतो पन अज्झत्तज्झत्तानियेव अज्झत्तज्झत्तिकानि यथा "वेनयिको''ति (म० नि० १.२४६; अ० नि० ३.८.११; पारा० ८) दट्ठब्बं । ततो अज्झत्ततोति ततो अज्झत्तज्झत्ततो, यानि अज्झत्तिकानि वुत्तानि । अज्झत्तिकानहि पटियोगीनि बाहिरानि अज्झत्तधम्मानं विय बहिद्धाधम्मा । “अज्झत्तिकानी''ति हि. सपरसन्तानिकानि चक्खादीनि वुच्चन्ति, तथा रूपादीनि “बाहिरानी''ति । अज्झत्तानि पन ससन्तानिका एव चक्खुरूपादयो, ततो अ व बहिद्धाति । “विज्ञाणसमूहा'"ति एत्थ यदिपि तेसं विज्ञाणानं समोधानं नत्थि भिन्नकालिकत्ता, चित्तेन पन एकज्झं अभिसंयूहनवसेन समूहता वुत्ता यथा “वेदनाक्खन्धो''ति । चक्खुपसादनिस्सितन्ति चक्खुपसादं निस्साय पच्चयं लभित्वा उप्पन्नं कुसलाकुसलविपाकविञाणं चक्खुविञाणतासामओन एकज्झं कत्वा वुत्तं । चक्खुसनिस्सितो सम्फस्सो, न चक्खुद्वारिको । इमे दस सम्फस्सेति इमे पसादवत्थुके दस विपाकसम्फस्से ठपेत्वा। एतेनेव नयेनाति एतेन फस्से वुत्तेनेव नयेन । तण्हाछक्के तण्हं आरब्भ पवत्तापि तण्हा धम्मतण्हाति वेदितब्बा।
अप्पटिस्सयोति अप्पटिस्सवो, व-कारस्स य-कारं कत्वा निद्देसो । गरुना किस्मिञ्चि वुत्ते गारववसेन पटिस्सवनं पटिस्सवो, पटिस्सवभूतं, तंसभागञ्च यं किञ्चि गारवं, नत्थि एतस्मिं पटिस्सवोति अप्पटिस्सवो, गारवरहितो । तेनाह "अनीचवुत्तीति । यथा चेतियं उद्दिस्स कतं सत्थु कतसदिसं, एवं चेतियस्स पुरतो कतं सत्थु पुरतो कतसदिसं एवाति आह "परिनिब्बुते पना"तिआदि । सक्कच्चं न गच्छतीति आदरं गारवं उप्पादेत्वा न उपसङ्कमति । यथा सिक्खाय एकदेसे कोपिते, अगारवे च कते सब्बा सिक्खा कुप्पति, सब्बत्थ च अगारवं कतं नाम होति समुदायतो संवरसमादानं अवयवतो भेदोति । एवं एकभिक्खुस्मिंपि...पे०... अगारवो कतोव होति। अनादरियमत्तेनपि सिक्खाय अपरिपूरियेवाति आह “अपूरयमानोव सिक्खाय अगारवो नामा"ति । अप्पमादलक्खणं सम्मापटिपत्ति । दुविधन्ति धम्मामिसवसेन दुविधं ।
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२२६
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३२५-३२५)
सोमनस्सूपविचाराति सोमनस्ससहगता विचारा अधिप्पेता, उपसद्दो च निपातमत्तन्ति आह "सोमनस्ससम्पयुत्ता विचारा"ति। तथा हिस्स अभिधम्मे (ध० स० ८) "चारो विचारो...पे०... उपविचारो"ति निद्देसो पवत्तो। सोमनस्सकारणभूतन्ति सभावतो, सङ्कप्पतोपि सोमनस्सस्स उप्पत्तिया पच्चयभूतं । कामं परित्तभूमका वितक्कविचारा अञमञमवियोगिनो, किरियाभेदतो पन पठमाभिनिपातताय वितक्कस्स ब्यापारो सातिसयो। ततो परं विचारस्साति तं सन्धाय “वितक्केत्वा''ति पुब्बकालकिरियावसेन वत्वा "विचारेन परिच्छिन्दती"ति वुत्तं । लद्धपुब्बासेवनस्स विचारस्स ब्यापारो पञा विय होति। तथा हि “विचारो विचिकिच्छाय पटिपक्खो''ति पेटके वुत्तं । "दिद्विसामञगतो"ति एत्थ याय दिट्ठिया पुग्गलो दिद्विसामझें गतो वुत्तो, सा पठममग्गसम्मादिट्ठि कोसम्बकसुत्ते अधिप्पेतोति आह "कोसम्बकसुत्ते पठममग्गो कथितो"ति । इधाति इमस्मिं सुत्ते । चतूसुपि मग्गेसु सम्मादिट्टि दिट्ठिग्गहणेन गहिताति आह “चत्तारोपि मग्गा कथिता"ति ।
विवादमूलछक्कवण्णना
३२५. कोधनोति कुज्झनसीलो । यस्मा सो अप्पहीनकोधताय विगतकोधनो नाम न होति, तस्मा "कोधेन समन्नागतो"ति आह । उपनाहो एतस्स अत्थि, उपनव्हनसीलोति वा उपनाही। विवादो नाम उप्पज्जमानो येभुय्येन पठमं द्विन्नं वसेन उप्पज्जतीति वुत्तं "विनं भिक्खूनं विवादो'ति । सो पन यथा बहूनं अनत्थावहो होति, तं निदस्सनमुखेन दस्सेन्तो "कथ"न्तिआदिमाह । अब्भन्तरपरिसायाति परिसब्भन्तरे ।
परगुणमक्खनाय पवत्तोपि अत्तनो कारकं गूथेन पहरन्तं गूथो विय पठमतरं मक्खेतीति मक्खो, सो एतस्स अत्थीति मक्खी। पलासतीति पलासो, परस्स गुणे इंसित्वा विय अपनेतीति अत्थो, सो एतस्स अत्थीति पलासी। पलासी पुग्गलो हि दुतियस्स धुरं न देति, समं पसारेत्वा तिट्ठति । तेनाह "युगग्गाहलक्खणेन पलासेन समनागतो"ति । "इस्सुकी"तिआदीनं पदानमत्थो हेट्ठा वुत्तनयत्ता सुविज्ञय्योव। कम्मपथप्पत्ताय मिच्छादिट्ठिया वसेनेत्थ मिच्छादिट्ठि वेदितब्बाति आह “नथिकवादी अहेतुकवादी अकिरियवादी"ति।
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(१०.३२६-३२७)
निस्सरणियछक्कवण्णना
२२७
निस्सरणियछक्कवण्णना
३२६. हापेत्वाति कुसलचित्तं परिहापेत्वा पवत्तितुमेव अप्पदानवसेन । अभूतं ब्याकरणं ब्याकरोति "मेत्ता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता''तिआदिना (अ० नि० २.६.१३) अत्तनि अविज्जमानं गुणब्याहारं ब्याहरति । चेतोविमुत्ति सदं अपेक्खित्वा "निस्सटा"ति वुत्तं । पुन ब्यापादो नत्थीति इदानि मम ब्यापादो नाम नत्थि सब्बसो नत्थीति ञत्वा ।
___ "अनिमित्ता"ति वत्वा येसं निमित्तानं अभावेन अरहत्तफलसमापत्तिया अनिमित्तता, तं दस्सेतुं “सा ही"तिआदि वुत्तं । तत्थ रागस्स निमित्तं, रागो एव वा निमित्तन्ति रागनिमित्तं। आदि-सद्देन दोसनिमित्तादीनं सङ्गहो दट्ठब्बो। रूपवेदनादिसङ्खारनिमित्तं रूपनिमित्तादि। तेस व निच्चादिवसेन उपट्टानं निच्चनिमित्तादि। तयिदं निमित्तं यस्मा सब्बेन सब्बं अरहत्तफले नत्थि, तस्मा वुत्तं “सा हि...पे०... अनिमित्ताति वुत्ता"ति । निमित्तं अनुसरतीति तं निमित्तं अनुगच्छति आरब्भ पवत्तति ।
अस्मिमानोति “अस्मी''ति पवत्तो अत्तविसयो मानो। अयं नाम अहं अस्मीति रूपलक्खणो, वेदनादीसु वा अञतरलक्खणो अयं नाम अत्ता अहं अस्मि । “अस्मीति मानो समुग्घाटीयति एतेनाति अस्मिमानसमुग्घातो, अरहत्तमग्गो । पुन अस्मिमानो नत्थीति तस्स अनुप्पत्तिधम्मतापादनं कित्तेन्तो समुग्घातत्तमेव विभावेति ।
अनुत्तरियादिछक्कवण्णना
३२७. नत्थि एतेसं उत्तरानि विसिवानीति अनुत्तरानि, अनुत्तरानि एव अनुत्तरियानि यथा अनन्तमेव आनन्तरियन्ति आह "अनुत्तरियानीति अनुत्तरानी'ति । दस्सनानुत्तरियं नाम अनुत्तरफलविसेसावहत्ता । एस नयो सेसेसुपि। सत्तविधअरियधनलाभोति सत्तविधसद्धादिलोकुत्तरधनलाभो । सिक्खत्तयपूरणन्ति अधिसीलसिक्खादीनं तिस्सन्नं सिक्खानं परिपूरणं । तत्थ परिपूरणं निप्परियायतो असेक्खानं वसेन वेदितब् । कल्याणपुथुज्जनतो पट्ठाय हि सत्त सेक्खा तिस्सो सिक्खा पूरेन्ति नाम, अरहा पन परिपुण्णसिक्खोति । इति इमानि अनुत्तरियानि लोकियलोकुत्तरानि कथितानि ।
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( १०.३२८-३२८)
अनुरसतियो एव दिट्ठधम्मिकसम्परायिकादिहितसुखानं कारणभावतो ठानानीति अनुस्पतिट्ठानानि । एवं अनुस्सरतोति यथा बुद्धानुस्सति विसेसाधिगमस्स ठानं होति, एवं "इतिपि सो भगवा" तिआदिना (दी० नि० १.१५७, २५५) बुद्धगुणे अनुस्तरन्तस्स । उपचारकम्मट्ठानन्ति पच्चक्खतो उपचारज्झानावहं कम्मट्ठानं, परम्पराय पन याव अरहत्ता लोकियोकुत्तरविसेसावहं ।
२२८
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
सततविहारछक्कवण्णना
३२८. निच्चविहाराति सब्बदा पवत्तनकविहारा । ठपेत्वा हि समापत्तिवेलं, भवङ्गवेलञ्च खीणासवा इमिनाव छळङ्गुपेक्खाविहारेन सब्बकालं विहरन्ति । चक्खुना रूपं दिस्वाति निस्सयवोहारेन वृत्तं । ससम्भारकथा हेसा यथा “धनुना विज्झती 'ति । तस्मा निस्सयसीसेन निस्सितस्स गहणं दट्टब्बन्ति आह “ चक्खुविज्ञान दिस्वा" ति । इट्टे अरज्जन्तोति इट्टे आरम्मणे रागं अनुप्पादेन्तो मग्गेन समुच्छिन्नत्ता । नेव सुमनो होति गेहसितपेमवसेनपि । न दुम्मनो पसादञ्ञथत्तवसेनपि । असमपेक्खनेति इट्ठेपि अनिट्ठेपि मज्झत्तेपि आरम्मणे न समं न सम्मा अयोनिसो गहणे । यो अखीणासवानं मोहो उप्पज्जति, तं अनुप्पादेन्तो मग्गेनेव तस्स समुग्घाटितत्ता । ञाणुपेक्खावसेनेव उपेक्खको विहरति मज्झत्तो । अयञ्चस्स पटिपत्तिवेपुल्लप्पत्तिया, पञ्ञावेपुल्लप्पत्तिया वाति आह “सतिया "तिआदि । छळपेक्खाति छसु द्वारेसु पवत्ता सतिसम्पञ्जञ्ञस्स वसेन छावयवा उपेक्खा । आणसम्पयुत्तचित्तानि लब्भन्ति तेहि विना सम्पजानताय असम्भवतो । महाचित्तानीति अट्ठपि महाकिरियचित्तानि लब्भन्ति । सततविहारात ञणुप्पत्तिपच्चयरहितकालेपि पवत्तिभेदनतो । दस चित्तानीति अट्ठ महाकिरियचित्तानि हसितुप्पादवोट्ठब्बनचित्तेहि सद्धिं दस चित्तानि लब्भन्ति । अरज्जनादुस्सनवसेन पवत्ति तेसम्पि साधारणाति ।" उपेक्खको विहरतीति वचनतो छळङ्गुपेक्खावसेन आगतानं इमेसं सततविहारानं “ सोमनस्सं कथं लब्भती "ति चोदेत्वा " आसेवनतो लब्भती" ति सयमेव परिहरतीति । किञ्चापि खीणासवो इट्ठानिट्ठेपि आरम्मणे मज्झत्ते विय बहुलं उपेक्खको विहरति अत्तनो परिसुद्धपकतिभावाविजहनतो, कदाचि पन तथा चेतोभिसङ्घाराभावे यं तं सभावतो इट्ठ आरम्मणं, तत्थ याथावसभावग्गहणवसेनपि अरहतो चित्तं सोमनस्ससहगतं हुत्वा पवत्ततेव, तञ्च खो पुब्बासेवनवसेन । तेनाह " आसेवनतो लब्भती”ति ।
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(१०.३२९-३३०)
अभिजातिछक्कवण्णना
२२९
अभिजातिछक्कवण्णना
__३२९. “अभिजातियो'ति एत्थ अभि-सद्दो उपसग्गमत्तं, न अत्थविसेसजोतकोति आह "जातियो"ति। अभिजायतीति एत्थापि एसेव नयो। जायतीति च अन्तोगधहेतुअत्थपदं, उप्पादेतीति अत्थो। जातिया, तंनिब्बत्तककम्मानञ्च कण्हसुक्कपरियायताय यं वत्तब्बं, तं हेट्ठा वुत्तमेव । पटिप्पस्सम्भनवसेन किलेसानं निब्बापनतो निब्बानं सचे कण्हं भवेय्य यथा तं दसविधं दुस्सील्यकम्मं । सचे सुक्कं भवेय्य यथा तं दानसीलादिकुसलकम्मं । विनम्पि कण्हसुक्कविपाकानं। अरहत्तं अधिप्पेतं "अभिजायतीति वचनतो। तं किलेसनिब्बानन्ते जातत्ता निब्बानं यथा रागादीनं खयन्ते जातत्ता रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयोति ।
निब्बेधभागियछक्कवण्णना
निब्बेधो वुच्चति निब्बानं मग्गजाणेन निबिज्झितब्बढेन, पटिविज्झितब्बढेनाति अत्थो । निरोधानुपस्सनाजाणेति निरोधानुपस्सनाजाणे निस्सयपच्चयभूते उप्पन्ना सञ्जा, तेन सहगताति अत्थो।
छक्कवण्णना निहिता।
सत्तकवण्णना
३३०. सम्पत्तिपटिलाभटेनाति सीलसम्पत्तिआदीनं सम्मासम्बोधिपरियोसानानं सम्पत्तीनं पटिलाभापनढेन, सम्पत्तीनं वा पटिलाभो सम्पत्तिपटिलाभो, तस्स कारणं सम्पत्तिपटिलाभट्ठो, तेन सम्पत्तिपटिलाभटेन। तेनेवाह "सम्पत्तीनं पटिलाभकारणतो''ति । सद्भाव उभयहितत्थिकेहि धनायितब्बढेन धनं सद्धाधनं। एत्थाति एतेसु धनेसु । सब्बसेद्वं सब्बेसं पटिलाभकारणभावतो, तेसञ्च संकिलेसविसोधनेन महाजुतिकमहाविप्फारभावापादनतो | तेनाह "पञ्जाय ही"तिआदि । तत्थ पचाय ठत्वाति कम्मस्सकतापाय पतिट्ठाय
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२३०
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३३१-३३१)
सुचरितादीनि पूरेत्वा सग्गूपगा होन्ति। तत्थ चेव पारमिता पञ्जाय च ठत्वा सावकपारमित्राणादीनि पटिविज्झन्ति।
समाधिं परिक्खरोन्ति अभिसङ्घरोन्तीति समाधिपरिक्खारा, समाधिस्स सम्भारभूता सम्मादिट्ठिआदयो । इध पन सहकारीकारणभूता अधिप्पेताति आह "समाधिपरिवारा"ति।
असतं असाधूनं धम्मा तेसं असाधुभावसाधनतो | असन्ताति असुन्दरा गारव्हा । तेनाह "लामका"ति । “विपस्सकस्सेव कथिता''ति वत्वा तस्स विपस्सनानिब्बत्तिं दस्सेतुं "तेसुपी"तिआदि वुत्तं । चतुन्नम्पि हि सच्चानं विसेसेन दस्सनतो मग्गपञ्जा सातिसयं “विपस्सना''ति वत्तब्बा, तंसमझी च अरियो विपस्सनकोति ।
सप्पुरिसानं धम्माति सप्पुरिसानंयेव धम्मा, न असप्पुरिसानं । धम्मानुधम्मपटिपत्तिया एव हि धम्म आदिभावो, न पाळिधम्मपठनादिमत्तेन | भासितस्साति सुत्तगेय्यादिभासितस्स चेव तदञस्स च अत्तत्थपरत्थबोधकस्स पदस्स। अत्थकुसलतावसेन अत्थं जानातीति अत्थञ्जू। अत्तानं जानातीति याथावतो अत्तनो पमाणजाननवसेन अत्तानं जानाति । पटिग्गहणपरिभोगमत्त ताहि एव परियेसनविस्सज्जनमत्त तापि बोधिता होन्तीति “पटिग्गहणपरिभोगेसु" इच्चेव वुत्तं । एवहि ता अनवज्जा होन्तीति । योगस्स अधिगमायाति भावनाय अनुयुञ्जनस्स। अतिसम्बाधन्ति अतिखुद्दकं अतिक्खपञस्स तावता कालेन तीरेतुं असक्कुणेय्यत्ता। अट्ठविधं परिसन्ति खत्तियपरिसादिकं अट्ठविधं परिसं । भिक्खुपरिसादिकं चतुब्बिधं खत्तियपरिसादिकं मनुस्सपरिसंयेव पुन चतुबिधं गहेत्वा अट्ठविधं वदन्ति अपरे । “इमं मे सेवन्तस्स अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्वन्ति, तस्मा सेवितब्बो, विपरियायतो तदो असेवितब्बो''ति एवं सेवितब्बासेवितब्बं पुग्गलं जानातीति पुग्गलञ्जू। एवं तेसं पुग्गलानम्पि बोधनं उक्कट्ठ, निहीनं वा जानाति नाम ।
३३१. "निद्दसवत्थूनी"ति। “आदि-सद्दलोपेनायं निद्देसो"ति आह "निद्दसादिवत्थूनी"ति । नत्थि दानि इमस्स दसाति निद्दसो । पञ्होति आतुं इच्छितो अत्थो । पुन दसवस्सो न होतीति तेसं मतिमत्तन्ति दस्सेतुं “सो किरा"ति किरसद्दग्गहणं । “निद्दसो'"ति चेतं देसनामत्तं, तस्स निब्बीसादिभावस्स विय निन्नवादिभावस्स च
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( १०.३३१ - ३३१)
सत्तकवण्णना
इच्छितत्ताति दस्सेतुं " न केवलञ्चा "तिआदि वृत्तं । गामे विचरन्तोति गामे पिण्डाय विचरन्तो ।
न इदं तित्थियानं अधिवचनं तेसु तन्निमित्तस्स अभावा । सासनेपि सेक्खस्सापि न इदं अधिवचनं, किमङ्गं पन पुथुज्जनस्स । यस्स पनेतं अधिवचनं येन च कारणेन, तं दस्सेतुं “खीणासवस्सेत "न्तिआदि वृत्तं । अप्पटिसन्धिकभावो हिस्स पच्चक्खतो कारणं । परम्पराय इतरानि यानि पाळियं आगतानि ।
२३१
सिक्खाय सम्पदेव आदानं सिक्खासमादानं, तं पनस्सा पारिपूरिया वेदितब्बन्ति आह “सिक्खत्तयपूरणे 'ति । सिक्खाय वा सम्मदेव आदितो पट्ठाय रक्खणं सिक्खासमादानं, तञ्च अत्थतो पूरणे परिच्छिन्नं अरक्खणे सब्बेन सब्बं अभावतो, रक्खणे च परिपूरणतो । बहलच्छन्दोति दहच्छन्दो | आयतिन्ति अनन्तरानागतदिवसादिकालो अधिप्पेतो, न अनागतभवोति आह " अनागते पुनदिवसादीसुपीति । सिक्खं परिपूरेन्तस्स तत्थ निविट्ठअत्थिता अविगतपेमता, तेभूमकधम्मानं अनिच्चादिवसेन सम्मदेव निज्झानं धम्मनिसानाति आह "विपस्सनायेतं अधिवचनन्ति । हाविनयनेति एकीभावेति
तण्हाविक्खम्भने ।
विरागानुपस्सनादिविपस्सनाञाणानुभावसिद्धे गणसङ्गणिकाकिलेससङ्गणिकाविगमसिद्धे विवेकभावे । वीरियारम्भेति सम्मप्पधानवीरियस्स पग्गण्हने, तं पन सब्बसो वीरियस्स परिब्रूहनं होतीति आह "कायिकचेतसिकस्स वीरियस्स पूरणेति । सतियञ्चेव नेपक्कभावे चाति सतोकारिताय चेव सम्पजानकारिताय च। सतिसम्पञ्जञ्जबलेनेव वीरियारम्भो इज्झति । दिट्ठिपटिवेधेति सम्मादिट्ठिया पटिविज्झने । तेनाह " मग्गदस्सने "ति । सच्चसम्पटिवेधे हि इज्झमाने मग्गसम्मादिट्ठि सिद्धा एव होति ।
असुभानुपस्सनाञाणेति दसविधस्स, एकादसविधस्सापि वा असुभस्स अनुपस्सनावसेन पवत्तत्राणे । इदहि दुक्खानुपस्सनाय परिचयत्राणं । आदीनवानुपस्सनात्राणेति सङ्घारानं अनिच्चदुक्खविपरिणामतासंसूचितस्स आदीनवस्स अनुपस्सनावसेन पवत्तत्राणे । अप्पहीनट्ठेनाति मग्गेन असमुच्छिन्नभावेन । अनुसेन्तीति सन्ताने अनु अनुसयन्ति । कारणलाभे हि सति उप्पन्नारहा किलेसा सन्ताने अनु अनु सयिता विय होन्ति, तस्मा ते तदवत्था “ अनुसया "ति वुच्चन्ति । थामगतोति थामप्पत्तो । थामगमनञ्च अहि असाधारणो कामरागादीनमेव आवेणिको सभावो दट्ठब्बो । तथा हि वृत्तं अभिधम् “थामगतानुसयं पजहती 'ति । कामरागो एव अनुसयो कामरागानुसयो । ये पन
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२३२
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३३१-३३१)
"कामरागस्स अनुसयो कामरागानुसयो"ति वदन्ति, तं तेसं मतिमत्तं । न हि कामरागविनिमुत्तो कामरागानुसयो नाम कोचि अस्थि । यदि "तस्स बीज"न्ति वदेय्यु, तम्पि तब्बिनिमुत्तं परमत्थतो न उपलब्भतेवाति । एसेव नयो सेसेसुपि ।
अधिकरणसमथसत्तकवण्णना
अधिकरीयन्ति एत्थाति अधिकरणानि। के अधिकरीयन्ति ? समथा। कथं अधिकरीयन्तीति ? समनवसेन, तस्मा ते तेसं समनवसेन पवत्तन्तीति आह "अधिकरणानि समेन्ती"तिआदि । उप्पत्रानं उप्पन्नानन्ति उहितानं उहितानं । समथत्थन्ति समनत्थं ।
"अट्ठारसहि वत्थूही"ति लक्खणवचनमेतं यथा “यदि मे ब्याधी दाहेय्यु दातब्बमिदमोसध"न्ति, तस्मा तेसु अञतरञतरेन विवदन्ता “अट्ठारसहि वत्थूहि विवदन्ती''ति वुच्चन्ति । उपवदनाति अक्कोसो | चोदनाति अनुयोगो।
अधिकरणस्स सम्मुखाव विनयनतो सम्मुखाविनयो। सन्निपतितपरिसाय धम्मवादीनं येभुय्यताय येभुय्यसिककम्मस्स करणं येभुय्यसिका। अयन्ति अयं यथावुत्ता चतुब्बिधा सम्मुखता सम्मुखाविनयो नाम।
सनसामग्गिवसेन सम्मुखीभावो, न यथा तथा कारकपुग्गलानं सम्मुखाता । भूतताति तच्छता। सच्चपरियायो हि इध धम्म-सद्दो "धम्मवादी"तिआदीसु (दी० नि० १.९, १९४) विय । विनेति एतेनाति विनयो, तस्स तस्स अधिकरणस्स वूपसमनाय भगवता वुत्तविधि, तस्स विनयस्स सम्मुखता विनयसम्मुखता। तेनाह "यथा तं...पे०... सम्मुखता"ति । येनाति येन पुग्गलेन । विवादवत्थुसङ्घाते अत्थे पच्चत्थिका अत्थपच्चत्थिका। सङ्घसम्मुखता परिहायति सम्मतपुग्गलेहेव वूपसमनतो |
नन्ति विवादाधिकरणं । “न छन्दागतिं गच्छती''तिआदिना वुत्तं पञ्चङ्गसमन्नागतं । गुळ्हकादीसु अलज्जुस्सन्नाय परिसाय गुळहको सलाकग्गाहो कातब्बो लज्जुस्सन्नाय विवटको, बालुस्सन्नाय सकण्णजप्पको । यस्ता किरियाय धम्मवादिनो बहुतरा, सा येभुय्यसिकाति आह “धम्मवादीनं येभुय्यताया"तिआदि ।
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(१०.३३३-३३३)
अट्ठकवण्णना
२३३
"चतूहि समथेहि सम्मती"ति इदं सब्बसङ्गाहिकवसेन वुत्तं । तत्थ पन द्वीहि द्वीहि एव वूपसमनं दट्टब्बं । एवं विनिच्छितन्ति सचे आपत्ति नत्थि, उभो खमापेत्वा, अथ अत्थि, आपत्तिं दस्सेत्वा रोपनवसेन विनिच्छितं । पटिकम्मं पन आपत्ताधिकरणसमथे परतो आगमिस्सति ।
न समणसारुप्पं अस्सामणकं, समणेहि अकत्तब्बं, तस्मिं । अज्झाचारे वीतिक्कमे
सति ।
पटिचरतोति पटिच्छादेन्तस्स । पापुस्सन्नताय पापियो, पुग्गलो, तस्स कत्तब्बकम्मं तस्स पापियसिकं। सम्मुखाविनयेनेव वूपसमो नत्थि पटिञाय तथारूपाय, खन्तिया वा विना अवूपसमनतो।
एत्थाति आपत्तिदेसनाय । पटिञाते आपन्नभावादिके करणं किरिया “आयतिं संवरेय्यासी''ति, परिवासदानादिवसेन च पवत्तं वचीकम्मं पटिञातकरणं।
यथानुरूपन्ति "द्वीहि समथेहि चतूहि तीहि एकेना"ति एवं वुत्तनयेन यथानुरूपं । एत्थाति इमस्मिं सुत्ते, इमस्मिं वा समथविचारे । विनिच्छयनयोति विनिच्छये नयमत्तं । तेनाह "वित्थारो पना"तिआदि । समन्तपासादिकायं विनयट्ठकथाय (चूळव० अट्ठ० १८४-१८७) वुत्तो, तस्मा वुत्तनयेनेव वेदितब्बोति अधिप्पायो ।
सत्तकवण्णना निहिता।
निट्ठिता च दुतियभाणवारवण्णना |
अट्ठकवण्णना
३३३. अयाथावाति न याथावा । अनिय्यानिकताय मिच्छासभावा। विपरीतवुत्तिकताय याथावा। निय्यानिकताय सम्मासभावा अविपरीतवुत्तिका ।
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२३४
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३३४-३३६)
३३४. कुच्छितं सीदतीति कुसीतो द-कारस्स त-कारं कत्वा । यस्स धम्मस्स वसेन पुग्गलो “कुसीतो''ति वुच्चति, सो कुसीतभावो इध कुसीत-सद्देन वुत्तो। विनापि हि भावजोतनं सदं भावत्थो विज्ञायति यथा “पटस्स सुक्क"न्ति, तस्मा कुसीतभाववत्थूनीति अत्थो । तेनाह "कोसज्जकारणानीति अत्थो"ति । कम्मं नाम समणसारुप्पं ईदिसन्ति आह "चीवरविचारणादी''ति । वीरियन्ति पधानवीरियं, तं पन चङ्कमनवसेन करणे “कायिकं" तिपि वत्तब्बतं लभतीति आह "दुविधम्पी"ति । पत्तियाति पापुणनत्थं । ओसीदनन्ति भावनानुयोगे सङ्कोचो | मासेहि आचितं निचितं वियाति मासाचितं, तं म । यस्मा मासा तिन्ताविसेसेन गरुका होन्ति, तस्मा “यथा तिन्तमासो"तिआदि वुत्तं । वुद्वितो होति गिलानभावाति अधिप्पायो ।
३३५. तेसन्ति आरम्भवत्थूनं । इमिनाव नयेनाति इमिना कुसीतवत्थूसु वुत्तेनेव नयेन । “दुविधम्पि वीरियं आरभती"तिआदिना, "इदं पठमन्ति इदं हन्दाहं वीरियं आरभामीति एवं भावनाय अब्भुस्सहनं पठमं आरम्भवत्थू"तिआदिना च अत्थो वेदितब्बो। यथा तथा पठमं पवत्तं अब्भुस्सहनहि उपरि वीरियारम्भस्स कारणं होति । अनुरूपपच्चवेक्षणासहितानि हि अब्भुस्सहनानि, तम्मूलकानि वा पच्चवेक्खणानि अट्ठ आरम्भवत्थूनि वेदितब्बानि ।
३३६. आसज्जाति यस्स देति, तस्स आमोदनहेतु तेन समागमनिमित्तं । तेनाह "एत्थ आसादनं दानकारणं नामा"ति । भयाति भयहेतु। ननु भयं नाम लडुकामता रागादयो विय चेतनाय अविसुद्धिकरं, तं कस्मा इध गहितन्ति ? न इदं तादिसं चोरभयादिं सन्धाय वुत्तन्ति दस्सेतुं “तत्था"तिआदि वुत्तं । अदासि मेति यं पुब्बे कतं उपकारं चिन्तेत्वा दीयति, तं सन्धाय वुत्तं । दस्सति मेति पच्चुपकारासीसाय यं दीयति, तं सन्धाय वदति । साहु दानन्ति “दानं नामेतं पण्डितपञत्त'न्ति साधुसमाचारे ठत्वा देति । अलङ्कारत्थन्ति उपसोभनत्थं । परिवारत्थन्ति परिक्खारत्थं । दानहि दत्वा तं पच्चवेक्खन्तस्स पामोज्जपीतिसोमनस्सादयो उप्पज्जन्ति, लोभदोसइस्सामच्छेरादयो विदूरी भवन्ति। इदानि दानं अनुकूलधम्मपरिग्रहनेन, पच्चनीकधम्मविदूरीभावकरणेन च भावनाचित्तस्स उपसोभनाय च परिक्खाराय च होतीति “अलङ्कारत्थं, परिवारत्थञ्च देती"ति वुत्तं । तेनाह "दानहि चित्तं मुदुकं करोती"तिआदि । मुदुचित्तो होति लद्धा दायके “इमिना मव्हं सङ्गहो कतो"ति, दातापि लद्धरि । तेन वुत्तं "उभिन्नम्पि चित्तं मुदुकं करोती"ति ।
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(१०.३३७-३३७)
अट्टकवण्णना
२३५
अदन्तदमनन्ति अदन्ता अनस्सवापिस्स दानेन दन्ता अस्सवा होन्ति वसे वत्तन्ति । अदानं दन्तदूसकन्ति अदानं पन पुब्बे दन्तानं अस्सवानम्पि विघातुप्पादनेन चित्तं दूसेति । उन्नमन्ति दायका, पियंवदा च परेसं गरुचित्तीकारट्ठानताय । नमन्ति पटिग्गाहका दानेन, पियवाचाय लद्धसङ्गहा सङ्गाहकानं ।
चित्तालङ्कारदानमेव उत्तमं अनुपक्किलिट्ठताय, सुपरिसुद्धताय, गुणविसेसपच्चयताय
च।
३३७. दानपच्चयाति दानकारणा, दानमयपुञस्स कतत्ता उपचितत्ताति अत्थो । उपपत्तियोति मनुस्सेसु, देवेसु च निब्बत्तियो । ठपेतीति एकवारमेव अनुप्पज्जित्वा यथा उपरूपरि तेनेवाकारेन पवत्तति, एवं ठपेति । तदेव चस अधिट्टानन्ति आह "तस्सेव वेवचन"न्ति । वड्डेतीति ब्रूहेति, न हापेति । विमुत्तन्ति अधिमुत्तं, निन्नं पोणं पब्भारन्ति अत्थो । विमुत्तन्ति वा विसिटुं । निप्परियायतो उत्तरि नाम पणीतं मझेपि हीनमज्झिमविभागस्स लब्भनतोति वुत्तं "उत्तरि अभावितन्ति ततो उपरि मग्गफलत्थाय अभावित"न्ति । संवत्तति तथा पणिहितं दानमयचित्तं । यं पन पाळियं "तञ्च खो''तिआदि वुत्तं, तं तत्रूपपत्तिया विबन्धकारदुस्सील्याभावदस्सनपरं दट्ठब्बं, न दानमयस्स पुञस्स केवलस्स तंसंवत्तनतादस्सनपरन्ति दट्ठब्बं ।
समुच्छिन्नरागस्साति समुच्छिन्नकामरागस्स । तस्स हि सिया ब्रह्मलोके उपपत्ति, न समुच्छिन्नभवरागस्स। वीतरागग्गहणेन चेत्थ कामेसु वीतरागता अधिप्पेता, याय ब्रह्मलोकूपपत्ति सिया । तेनाह “दानमत्तेनेवा"तिआदि । यदि एवं दानं तत्थ किं अत्थियन्ति आह “दानं पना"तिआदि । दानेन मुदुचित्तोति बद्धाघाते वेरीपुग्गलेपि अत्तनो दानसम्पटिच्छनेन मुदुभूतचित्तो ।
परिसीदति परितो इतो चितो च समागच्छतीति परिसा, समूहो ।
लोकस्स धम्माति सत्तलोकस्स अवस्सम्भावी धम्मा। तेनाह "एतेहि मुत्तो नाम नत्थी"तिआदि । यस्मा ते लोकधम्मा अपरापरं कदाचि लोकं अनुपतन्ति, कदाचि ते लोको, तस्मा तञ्चेत्थ अत्थं दस्सेन्तो “अट्टिमे"ति सुत्तपदं (अ० नि० ३.८.६) आहरि । घासच्छादनादीनं लद्धि लाभो, तानि एव वा लद्धब्बतो लाभो। तदभावो अलाभो।
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२३६
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३४०-३४१)
लाभग्गहणेन चेत्थ तब्बिसयो अनुरोधो गहितो, अलाभग्गहणेन विरोधो । यस्मा लोहिते सति तदुपघातवसेन पुब्बो विय अनुरोधे सति विरोधो लद्धावसरो एव होति, तस्मा वुत्तं "लाभे आगते अलाभो आगतो एवा'ति । एस नयो यसादीसुपि ।
अट्ठकवण्णना निहिता।
नवकवण्णना
३४०. वसति तत्थ फलं तन्निमित्तकताय पवत्ततीति वत्थु, कारणन्ति वुत्तोवायमत्थो । तेनाह “आघातवत्थूनीति आघातकारणानी"ति । कोपो नामायं यस्मिं वत्थुस्मिं उप्पज्जति, न तत्थ एकवारमेव उप्पज्जति, अथ खो पुनपि उप्पज्जतेवाति वुत्तं "बन्धती"ति । अथ वा यो पच्चयविसेसेन उप्पज्जमानो आघातो सविसये बद्धो विय न विगच्छति, पुनपि उप्पज्जेय्येव, तं सन्धायाह “आघातं बन्धती"ति । तं पनस्स पच्चयवसेन निब्बत्तनं उप्पादनमेवाति वुत्तं "करोति उप्पादेती"ति |
तं कुतेत्थ लब्भाति एत्थ तन्ति किरियापरामसनं, पदज्झाहारेन च अत्थो वेदितब्बोति दस्सेन्तो "तं अनत्थचरणं मा अहोसी"तिआदिमाह । केन कारणेन लद्धब्बं निरत्थकभावतो । कम्मस्सका हि सत्ता, ते कस्स रुचिया दुक्खिता, सुखिता वा भवन्ति, तस्मा केवलं तस्मिं मह कुज्झनमत्तं एवाति अधिप्पायो। अथ वा तं कोपकरणमेत्थ पुग्गले कुतो लब्भा परमत्थतो कुज्झितब्बस्स, कुज्झनकस्स च अभावतो । सङ्घारमत्तव्हेतं, यदिदं खन्धपञ्चकं | यं “सत्तो''ति वुच्चति, ते सङ्घारा इत्तरकाला खणिका, कस्स को कुज्झतीति अत्थो । लाभा नाम के सियुं अञत्र अनुप्पत्तितो ।
३४१. सत्ता आवसन्ति एतेसूति सत्तावासा। नानत्तकाया नानत्तसञी आदिभेदा सत्तनिकाया । यस्मा ते ते सत्तनिकाया तप्परियापन्नानं सत्तानं ताय एव तप्परियापन्नताय आधारो विय वत्तब्बतं अरहन्ति समुदायाधारताय अवयवस्स यथा “रुक्खे साखा''ति, तस्मा “सत्तानं आवासा, वसनट्ठानानीति अत्थो"ति वुत्तं । सुद्धावासापि सत्तावासोव “न सो, भिक्खवे, सत्तावासो सुलभरूपो, यो मया अनावुत्थपुब्बो इमिना दीघेन अद्भुना
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( १०.३४२-३४५)
दसकवण्णना
अञ्ञत्र सुद्धावासेहि देवेही 'ति वचनतो । यदि एवं कस्मा इध न गहिताति तथ कारणमाह ‘“असब्बकालिकत्ता ''तिआदि । वेहप्फलो पन चतुत्थंयेव सत्तावासं भजतीति दट्ठब्बं ।
३४२. ओपसमिकोति वट्टदुक्खस्स उपसमावहो, तं पन वट्टदुक्खं किलेसेसु उपसन्तेसु उपसमति, न अञ्ञथा, तस्मा “ किलेसूपसमकरो " ति वृत्तं । तक्करं सम्बोधं गमेतीति सम्बोधगामी ।
यस्मिं देवनिकाये धम्मदेसना न वियुज्जति सवनस्सेव अभावतो, सो पाळियं "दीघायुको देवनिकायो 'ति अधिप्पेतोति आह " असञ्ञभवं वा अरूपभवं वा ''ति ।
३४३. अनुपुब्बतो विहरितब्बाति अनुपुब्बविहारा । अनुपटिपाटियाति अनुक्कमेन । समापज्जितब्बविहाराति समापज्जित्वा समङ्गिनो हुत्वा विहरितब्बविहारा ।
३४४. अनुपुब्बनिरोधाति अनुपुब्बेन अनुक्कमेन पवत्तेतब्बनिरोधा । तेनाह “ अनुपटिपाटिया निरोधा "ति ।
"
नवकवण्णना निट्ठिता ।
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दसकवण्णना
३४५. येहि सीलादीहि समन्नागतो भिक्खु धम्मसरणताय धम्मेनेव नाथति इसति अभिभवतीति नाथोति वुच्चति, ते तस्स नाथभावकरा धम्मा " नाथकरणात
आह
“सनाथा...पे०... पतिट्ठाकरा धम्मा "ति । तत्थ अत्तनो पतिट्ठाकराति यस्स नाथभावकरा, तस्स अत्तनो पतिट्ठाविधायिनो । अप्पतिट्ठो अनाथो, सप्पतिट्टो सनाथोि पतिट्ठत्थो नाथत्थो ।
कल्याणगुणयोगतो
कल्याण
दस्सेन्तो
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"सीलादिगुणसम्पन्ना "ति
आह ।
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२३८
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३४५-३४५)
मिज्जनलक्खणा मित्ता एतस्स अत्थीति मित्तो, सो वुत्तनयेन कल्याणो अस्स अत्थीति तस्स अत्थितामत्तं कल्याणमित्तपदेन वुत्तं । अस्स तेन सब्बकालं अविजहितवासोति तं दस्सेतुं "कल्याणसहायो''ति वुत्तन्ति आह "तेवस्सा"तिआदि । तेवस्साति ते एव कल्याणमित्ता अस्स भिक्खुनो। सह अयनतोति सह वत्तनतो। असमोधाने चित्तेन, समोधाने पन चित्तेन चेव कायेन च सम्पवको।
सुखं वचो एतस्मिं अनुकूलगाहिम्हि आदरगारववति पुग्गलेति सुवचो। तेनाह "सुखेन वत्तब्बो"तिआदि । खमोति खन्ता, तमेवस्स खमभावं दस्सेतुं "गाळ्हेना"तिआदि वुत्तं । वामतोति मिच्छा, अयोनिसो वा गण्हाति। पटिप्फरतीति पटाणिकभावेन तिट्ठति । पदक्खिणं गण्हातीति सम्मा योनिसो वा गण्हाति ।
उच्चावचानीति विपुलखुद्दकानि । तत्रुपगमनीयाति तत्र तत्र महन्ते, खुद्दके च कम्मे साधनवसेन उपायेन उपगच्छन्तिया, तस्स तस्स कम्मस्स निप्फादनेन समत्थायाति अत्थो । तत्रुपायायाति वा तत्र तत्र कम्मे साधेतब्बे उपायभूताय ।
धम्मे अस्स कामोति धम्मकामोति ब्यधिकरणानंपि बाहिरत्थो समासो होतीति कत्वा वृत्तं । कामेतब्बतो वा पियायितब्बतो कामो, धम्मोधम्मो कामो अस्साति धम्मकामो। धम्मोति परियत्तिधम्मो अधिप्पेतोति आह "तेपिटकं बुद्धवचनं पियायतीति अत्थो"ति । समुदाहरणं कथनं समुदाहारो, पियो समुदाहारो एतस्साति पियसमुदाहारो। सयञ्चाति एत्थ च-सद्देन "सक्कच्च"न्ति पदं अनुकड्डति, तेन सयञ्च सक्कच्चं देसेतुकामो होतीति योजना | अभिधम्मो सत्तप्पकरणानि अधिको अभिविसिट्ठो च परियत्तिधम्मोति कत्वा । विनयो उभतोविभङ्गा विनयनतो कायवाचानं। अभिविनयो खन्धकपरिवारा विसेसतो आभिसमाचारिकधम्मकित्तनतो। आभिसमाचारिकधम्मपारिपूरिवसेनेव हि आदिब्रह्मचरियकधम्मपारिपूरी । धम्मो एव पिटकद्वयस्सापि परियत्तिधम्मभावतो । मग्गफलानि अभिधम्मो निब्बानधम्मस्स अभिमुखोति कत्वा । किलेसवूपसमकारणं पुब्बभागिया तिस्सो सिक्खा सङ्केपतो विवट्टनिस्सितो समथो विपस्सना च । बहुलपामोजोति बलवपामोज्जो।
कारणत्थेति निमित्तत्थे । कुसलधम्मनिमित्तं हिस्स वीरियारम्भो। तेनाह "तेसं अधिगमत्थाया"ति । कुसलेसु धम्मेसूति वा निप्फादेतब्बे भुम्मं यथा “चेतसो अवूपसमे अयोनिसोमनसिकारपदट्ठान''न्ति ।
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(१०.३४६-३४६)
दसकवण्णना
२३९
३४६. सकलद्वेनाति निस्सेसटेन, अनवसेसफरणवसेन चेत्थ सकलट्ठो वेदितब्बो, असुभनिमित्तादीसु विय एकदेसे अट्ठत्वा अनवसेसतो गहेतब्बटेनाति अत्थो । तदारम्मणानं धम्मानन्ति तं कसिणं आरब्भ पवत्तनकधम्मानं । खेत्तद्वेनाति उप्पत्तिट्ठानटेन । अधिट्टानटेनाति पवत्तिट्ठानभावेन । यथा खेत्तं सस्सानं उप्पत्तिट्टानं वड्डिट्ठानञ्च, एवमेतं झानं तंसम्पयुत्तानं धम्मानन्ति, योगिनो वा सुखविसेसानं कारणभावेन । “परिच्छिन्दित्वा" ति इदं उद्धं अधोति एत्थापि योजेतब्बं । परिच्छिन्दित्वा एव हि सब्बत्थ कसिणं वड्वेतब्बं । तेन तेन वा कारणेनाति तेन तेन उपरिआदीसु कसिणवड्डनकारणेन । यथा किन्ति आह “आलोकमिव रूपदस्सनकामो"ति । यथा दिब्बचक्खुना उद्धं चे रूपं दट्ठकामो, उद्धं आलोकं पसारेति, अधो चे अधो, समन्ततो चे रूपं दट्ठकामो समन्ततो आलोकं पसारेति; एवमयं कसिणन्ति अत्थो ।
एकस्साति पथवीकसिणादीसु एकेकस्स। अञभावानुपगमनत्यन्ति अञकसिणभावानुपगमनदीपनत्थं, अञस्स वा कसिणभावानुपगमनदीपनत्थं, न हि अओन पसारितकसिणं ततो अओन पसारितकसिणभावं उपगच्छति, एवम्पि नेसं अञकसिणसम्भेदाभावो वेदितब्बो। न अझं पथवीआदि । न हि उदके ठितट्ठाने ससम्भारपथवी अस्थि । अज्ञो कसिणसम्भेदोति आपोकसिणादिना सङ्करो। सब्बत्थाति सब्बेसु सेसकसिणेसु । एकदेसे अट्ठत्वा अनवसेसफरणं पमाणस्स अग्गहणतो अप्पमाणं। तेनेव हि नेसं कसिणसमझा। तथा चाह "तही"तिआदि । चेतसा फरन्तोति भावनाचित्तेन आरम्मणं करोन्तो। भावनाचित्तहि कसिणं परितं वा विपुलं वा सकलमेव मनसि करोति, न एकदेसं।
कसिणुग्घाटिमाकासे पवत्तविज्ञाणं फरणअप्पमाणवसेन "विज्ञाणकसिण"न्ति वुत्तं । तथा हि तं “
विणञ्च''न्ति वुच्चति । कसिणवसेनाति यथाउग्घाटितकसिणवसेन । कसिणुग्घाटिमाकासे उद्धंअधोतिरियता वेदितब्बा। यत्तकहि ठानं कसिणं पसारितं, तत्तकं आकासभावनावसेन आकासो होतीति; एवं यत्तकं ठानं आकासं हुत्वा उपट्टितं, तत्तकं सकलमेव फरित्वा विज्ञाणस्स पवत्तनतो आगमनवसेन विज्ञाणकसिणेपि उद्धंअधोतिरियता वुत्ताति आह “कसिणुग्घाटिं आकासवसेन तत्थ पवत्तविज्ञाणे उद्धंअधोतिरियता वेदितब्बा''ति ।
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२४०
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३४७-३४७)
अकुसलकम्मपथदसकवण्णना ३४७. पथभूतत्ताति तेसं पवत्तनुपायत्ता मग्गभूतत्ता। मेथुनसमाचारसूति सदारसन्तोसपरदारगमनवसेन दुविधेसु मेथुनसमाचारेसु । तेपि हि कामेतब्बतो कामा नाम । मेथुनवत्थूसूति मेथुनस्स वत्थूसु तेसु सत्तेसु । मिच्छाचारोति गारव्हाचारो। गारव्हता चस्स एकन्तनिहीनताय एवाति आह “एकन्तनिन्दितो लामकाचारो"ति । असद्धम्माधिप्पायेनाति असद्धम्मसेवनाधिप्पायेन ।
सगोत्तेहि रक्खिता गोत्तरक्खिता। सहधम्मिकेहि रक्खिता धम्मरक्खिता। सस्सामिका सारखा। यस्सा गमने रञा दण्डो ठपितो, सा सपरिदण्डा। भरियाभावत्थं धनेन कीता धनक्कीता। छन्देन वसन्ती छन्दवासिनी। भोगत्थं वसन्ती भोगवासिनी। पटत्थं वसन्ती पटवासिनी। उदकपत्तं आमसित्वा गहिता ओदपत्तकिनी। चुम्बटं अपनेत्वा गहिता
ओभतचुम्बटा। करमरानीता धजाहटा। तङ्खणिका मुहुत्तिका। अभिभवित्वा वीतिक्कमे मिच्छाचारी महासावज्जो, न तथा द्विन्नं समानच्छन्दताय । “अभिभवित्वा वीतिक्कमने सतिपि मग्गेनमग्गपटिपत्तिअधिवासने पुरिमुप्पन्नसेवनाभिसन्धिपयोगाभावतो मिच्छाचारो न होति अभिभुय्यमानस्सा''ति वदन्ति । सेवनचित्ते सति पयोगाभावो अप्पमाणं येभुय्येन इत्थिया सेवनपयोगस्स अभावतो । तस्मिं असति पुरेतर सेवनचित्तस्स उपट्टापनेपि तस्सा मिच्छाचारो न सिया, तथा पुरिसस्सपि सेवनपयोगाभावेति । तस्मा अत्तनो रुचिया पवत्तितस्स बसेन तयो बलक्कारेन पवत्तितस्स वसेन तयोति सब्बेपि अग्गहितग्गहणेन "चत्तारो सम्भारा"ति वुत्तं ।
उपसग्गवसेन अत्थविसेसवाचिनो धातुसद्दाति “अभिज्झायती"ति पदस्स "परभण्डाभिमुखी"तिआदिना अत्थो वुत्तो । तत्थ तन्निन्नतायाति तस्मिं परभण्डे लुब्भनवसेन निन्नतायाति अयमेत्थ अधिप्पायो वेदितब्बो। अभिपुब्बो वा झा-सद्दो लुब्भने निरुळहो दट्ठब्बो। उपसग्गवसेन अत्थविसेसवाचिनो एव धातुसद्दा। अदिन्नादानस्स अप्पसावज्जमहासावज्जता ब्रह्मजालवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० चूळसीलवण्णना) वुत्ताति आह "अदिनादानं विय अप्पसावज्जा, महासावज्जा चा"ति । तस्मा “यस्स भण्डं अभिज्झायति, तस्स अप्पगुणताय अप्पसावज्जता, महागुणताय महासावज्जता"तिआदिना अप्पसावज्जमहासावज्जविभागो वेदितब्बो । अत्तनो परिणामनं चित्तेनेवाति वेदितब्बं ।
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(१०.३४७-३४७)
अकुसलकम्मपथदसकवण्णना
२४१
हितसुखं ब्यापादयतीति यो नं उप्पादेति, तस्स यं पति चित्तं उप्पादेति, तस्स तस्स सति समवाये हितसुखं विनासेति । फरुसवाचाय अप्पसावज्जमहासावज्जता ब्रह्मजालवण्णनायं विभाविताति आह "फरुसवाचा विया"तिआदि । तस्मा “यं पति चित्तं ब्यापादेति, तस्स अप्पगुणताय अप्पसावज्जो, महागुणताय महासावज्जो'"तिआदिना तदुभयविभागो वेदितब्बो। “अहो वता"ति इमिना परस्स अच्चन्ताय विनासचिन्तनं दीपेति । एवहि स्स दारुणप्पवत्तिया कम्मपथप्पवत्ति ।
यथाभुच्चगहणाभावेनाति याथावगहणस्स अभावेन अनिच्चादिसभावस्स निच्चादितो गहणेन । मिच्छा पस्सतीति वितथं पस्सति । “सम्फप्पलापो विया"ति इमिना आसेवनस्स मन्दताय अप्पसावज्जतं, महन्तताय महासावज्जतं दस्सेति । गहिताकारविपरीतताति मिच्छादिट्ठिया गहिताकारविपरीतभावो । वत्थुनोति तस्स अयथाभूतसभावमाह । तथाभावेनाति गहिताकारेनेव विपरीताकारेनेव । तस्स दिट्ठिगतिकस्स, तस्स वा वत्थुनो उपट्ठानं, “एवमेतं न इतो अञथा''ति ।
धम्मतोति सभावतो। कोट्ठासतोति फस्सपञ्चमकादीसु चित्तङ्गकोट्ठासेसु ये कोट्ठासा होन्ति, ततोति अत्थो ।
चेतनाधम्माति चेतनासभावा ।
“पटिपाटिया सत्ता"ति एत्थ ननु चेतना अभिधम्मे कम्मपथेसु न वुत्ताति पटिपाटिया सत्तन्नं कम्मपथभावो न युत्तोति ? न, अवचनस्स अञहेतुकत्ता । न हि तत्थ चेतनाय अकम्मपथप्पत्तत्ता (ध० स० मूल टी० अकुसलकम्मपथकथावण्णना) कम्मपथरासिम्हि अवचनं, कदाचि पन कम्मपथो होति, न सब्बदाति कम्मपथभावस्स अनियतत्ता अवचनं । यदा पन कम्मपथो होति, तदा कम्मपथरासिसङ्गहो न निवारितो।
एत्थाह - यदि चेतनाय सब्बदा कम्मपथभावाभावतो अनियतो कम्मपथभावोति कम्मपथरासिम्हि अवचनं, ननु अभिज्झादीनम्पि कम्मपथभावं अप्पत्तानं अत्थिताय अनियतो कम्मपथभावोति तेसम्पि कम्मपथरासिम्हि अवचनं आपज्जतीति ? नापज्जति कम्मपथतातंसभागता हि तेसं तत्थ वुत्तत्ता। यदि एवं चेतनापि तत्थ वत्तब्बा सियाति ? सच्चमेतं, सा पन पाणातिपातादिकावाति पाकटो तस्सा कम्मपथभावोति न वुत्तं सिया ।
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२४२
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३४७-३४७)
चेतनाय हि “चेतनाहं, भिक्खवे, कम्मं वदामि (अ० नि० २.६.६३; कथाव० ५३९), तिविधा, भिक्खवे, कायसञ्चेतना अकुसलं कायकम्म'न्ति (कथाव० ५३९) वचनतो कम्मभावो पाकटो; कम्मंयेव च सुगतिदुग्गतीनं, तदुप्पज्जनसुखदुक्खानञ्च पथभावेन पवत्तं “कम्मपथो''ति वुच्चतीति पाकटो तस्सा कम्मपथभावो । अभिज्झादीनं पन चेतनासमीहनभावेन सुचरितदुच्चरितभावो, चेतनाजनितभावेन [चेतनाजनिततंबन्धतिभावेन (ध० स० अनु टी० अकुसलकम्मपथावण्णना)] सुगतिदुग्गतितदुप्पज्जनसुखदुक्खानं पथभावो चाति न तथा पाकटो कम्मपथभावोति ते एव तेन सभावेन दस्सेतुं अभिधम्मे चेतना कम्मपथभावे न वुत्ता, अतथाजातियत्ता वा चेतना तेहि सद्धिं न वुत्ताति दट्ठब् । मूलं पत्वाति मूलदेसनं पत्वा, मूलसभावेसु धम्मेसु देसियमानेसूति अत्थो ।
“अदिनादानं सत्तारम्मण"न्ति इदं “पञ्चसिक्खापदा परित्तारम्मणा एवाति इमाय पञ्हपुच्छकपाळिया (विभं० ७१५) विरुज्झति । यहि पाणातिपातादिदुस्सील्यस्स आरम्मणं, तदेव तंवेरमणिया आरम्मणं। वीतिक्कमितब्बवत्थुतो एव हि विरतीति । सत्तारम्मणन्ति वा सत्तसङ्घातसङ्खारारम्मणं, तमेव उपादाय वुत्तन्ति न कोचि विरोधो । तथा हि वुत्तं सम्मोहविनोदनियं “यानि सिक्खापदानि एत्थ 'सत्तारम्मणानीति वुत्तानि, तानि यस्मा सत्तोति सङ्ख गते सङ्घारेयेव आरम्मणं करोन्ती"ति । (विभं० अट्ठ० ७१४) एस नयो इतो परेसुपि । विसभागवत्थुनो “इत्थी पुरिसो''ति गहेतब्बतो "सत्तारम्मणो"ति एके। "एको दिट्ठो, द्वे सुता''तिआदिना सम्फप्पलापेन दिवसुतमुतविञातवसेन। तथा अभिज्झाति एत्थ तथा-सद्दो “दिट्ठसुतमुतविज्ञातवसेना" तिदम्पि उपसंहरति, न सत्तसङ्घारारम्मणतमेव दस्सनादिवसेन अभिज्झायनतो । “नथि सत्ता ओपपातिका"ति (दी० नि० १.१७१) पवत्तमानापि मिच्छादिट्ठि तेभूमकधम्मविसया एवाति अधिप्पायेनस्सा सङ्खारारम्मणता वुत्ता । कथं पन मिच्छादिट्ठिया सब्बे तेभूमकधम्मा आरम्मणं होतीति ? साधारणतो । “नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको"ति (दी० नि० १.१७१; म० नि० २.९४) पवत्तमानाय अत्थतो रूपारूपावचरधम्मापि गहिता एव होन्तीति ।
सुखबहुलताय राजानो हसमानापि “घातेथा"ति वदन्ति, हासो पन नेसं अत्तवूपसमादिअञविसयोति आह "सनिद्वापक...पे०... होती"ति | मज्झत्तवेदनो न होति, सुखवेदनोव एत्थ सम्भवतीति । मुसावादो लोभसमुट्ठानो सुखवेदनो वा सिया मज्झत्तवेदनो वा, दोससमुट्ठानो दुक्खवेदनो वाति मुसावादो तिवेदनो। इमिना नयेन सेसेसुपि यथारहं वेदनाभेदो वेदितब्बो।
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(१०.३४८-३४८)
कुसलकम्मपथदसकवण्णना
२४३
दोसमोहवसेन द्विमूलकोति सम्पयुत्तमूलमेव सन्धाय वुत्तं । तस्स हि मूलढेन उपकारकभावो। निदानमूले पन गव्हमाने “लोभमोहवसेनपीति वत्तब्बं सिया । आमिसकिञ्जक्खहेतुपि पाणं हनन्ति । तेनेवाह - “लोभो निदानं कम्मानं समुदयाया"तिआदि (अ० नि० १.३.३४)। सेसेसुपि एसेव नयो।
कुसलकम्मपथदसकवण्णना
पाणातिपाता...पे०... वेदितब्बानि लोकियलोकुत्तरमिस्सकवसेनेत्थ कुसलकम्मपथानं देसितत्ता। वेरहेतुताय वेरसञितं पाणातिपातादिपापधम्मं मणति “मयि इध ठिताय कथं आगच्छसी"ति तज्जन्ती विय नीहरतीति वेरमणी, विरमति एतायाति वा “विरमणी'"ति वत्तब्बे निरुत्तिनयेन "वेरमणी"ति वुत्तं । समादानवसेन उप्पन्ना विरति समादानविरति । असमादिन्नसीलस्स सम्पत्ततो यथाउपट्ठितवीतिक्कमितब्बवत्थुतो विरति सम्पत्तविरति । किलेसानं समुच्छिन्दनवसेन पवत्ता मग्गसम्पयुत्ता विरति समुच्छेदविरति । कामञ्चेत्थ पाळियं विरतियेव आगता, सिक्खापदविभङ्गे (विभं० ७०३) पन चेतनापि आहरित्वा दस्सिताति तदुभयम्पि गण्हन्तो "चेतनापि वत्तन्ति विरतियोपी"ति आह । अनभिज्झा हि मूलं पत्वाति कम्मपथकोट्ठासे "अनभिज्झा''ति वुत्तधम्मो मूलतो अलोभो कुसलमूलं होतीति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । सेसपदद्वयेपि एसेव नयो।
दुस्सील्यारम्मणा तदारम्मणजीवितिन्द्रियादिआरम्मणा कथं दुस्सील्यानि पजहन्तीति तं दस्सेतुं “यथा पना"तिआदि वुत्तं । पजहन्तीति वेदितब्बा पाणातिपातादीहि विरमणवसेनेव पवत्तनतो। अथ तदारम्मणभावे, न सो तानि पजहति । न हि तदेव आरब्भ तं पजहितुं सक्का ततो अविनिस्सटभावतो ।
अनभिज्झा...पे०... विरमन्तस्साति अभिज्झं पजहन्तस्साति अत्थो। न हि मनोदुच्चरिततो विरति अत्थि अनभिज्झादीहेव तप्पहानसिद्धितो।।
अरियवासदसकवण्णना
३४८. अरियानमेव वासाति अरियवासा अनरियानं तादिसानं असम्भवतो । अरियाति चेत्थ उक्कट्ठनिद्देसेन खीणासवा गहिता, ते च यस्मा तेहि सब्बकालं
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२४४
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३४८-३४८)
अविरहितवासा एव, तस्मा वृत्तं "अरिया एव वसिंस वसन्ति वसिस्सन्ती"ति । तत्थ वसिंसूति निस्साय वसिंसु । पञ्चङ्गविप्पहीनत्तादयो हि अरियानं अपस्सया । तेसु पञ्चङ्गविप्पहानपच्चेकसच्चपनोदनएसनासमवयविस्सज्जनानि “सङ्खायेकं पटिसेवति, अधिवासेति, परिवज्जेति, विनोदेतीति वुत्तेसु अपस्सेनेसु विनोदनञ्च मग्गकिच्चानेव, इतरे मग्गेनेव समिज्झन्ति ।
आणादयोति आणञ्चेव तंसम्पयुत्तधम्मा च । तेनाह "आणन्ति वुत्ते"तिआदि । तत्थ वत्तब्बं हेट्ठा वुत्तमेव ।
आरक्खकिच्चं साधेति सतिवेपुल्लप्पत्तत्ता । "चरतो"तिआदिना निच्चसमादानं दस्सेति, तं विक्खेपाभावेन दट्ठब्बं ।
पब्बज्जुपगताति यं किञ्चि पब्बज्जं उपगता, न समितपापा। भोवादिनोति जातिमत्तब्राह्मणे वदति । पाटेक्कसच्चानीति तेहि तेहि दिट्ठिगतिकेहि पाटियेक्कं गहितानि "इदमेव सच्च"न्ति (म० नि० २.१८७, २०३, ४२७, ३.२७; उदा० ५५; नेत्ति० ५९) अभिनिविठ्ठानि दिट्ठिसच्चादीनि । दिट्ठिगतानिपि हि "इदमेव सच्च"न्ति (म० नि० २.१८७, २०२, ४२७; ३.२७, २९; नेत्ति० ५९) गहणं उपादाय "सच्चानी''ति वोहरीयन्ति । तेनाह "इदमेवा"तिआदि। नीहटानीति अत्तनो सन्तानतो नीहरितानि अपनीतानि । गहितग्गहणस्साति अरियमग्गाधिगमतो पुब्बे गहितस्स दिट्ठिगाहस्स । विस्सट्ठभाववेवचनानीति अरियमग्गेन सब्बसो परिच्चागभावस्स अधिवचनानि ।
नत्थि एतासं वयो वेकल्यन्ति अवयाति आह “अनूना"ति, अनवसेसाति अत्थो । एसनाति हेट्ठा वुत्तकामेसनादयो ।
मग्गस्स किच्चनिष्फत्ति कथिता रागादीनं पहीनभावदीपनतो।
पच्चवेक्षणाय फलं कथितन्ति पच्चवेक्खणमुखेन अरियफलं कथितं । अधिगते हि अग्गफले सब्बसो रागादीनं अनुप्पादधम्मतं पजानाति, तञ्च पजाननं पच्चवेक्खणजाणन्ति ।
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(१०.३४९-३४९)
असेक्खधम्मदसकवण्णना
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असेक्खधम्मदसकवण्णना
फलञ्च ते सम्पयुत्तधम्मा चाति फलसम्पयुत्तधम्मा, अरियफलसभावा सम्पयुत्ता धम्माति अत्थो । फलसम्पयुत्तधम्माति फलधम्मा चेव तंसम्पयुत्तधम्मा चाति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो । द्वीसुपि ठानेसु पञ्जाव कथिता सम्मा दस्सनटेन सम्मादिवि, सम्मा जाननटेन सम्माजाणन्ति च । अत्थि हि दस्सनजाननानं सविसये पवत्तिआकारविसेसो, स्वायं हेट्ठा दस्सितो एव । फलसमापत्तिधम्माति फलसमापत्तियं धम्मा, फलसमापत्तिसहगतधम्माति अत्थो । अरियफलसम्पयुत्तधम्मापि हि सब्बसो पटिपक्खतो विमुत्ततं उपादाय “विमुत्तीति वत्तब्बतं लभन्ति । केनचि पन यथा असेक्खा फलपञआ दस्सनकिच्चं उपादाय “सम्मादिट्ठी''ति वुत्ता, जाननकिच्चं उपादाय “सम्माजाण''न्तिपि वुत्ता एव; एवं अरियफलसमाधि समादानढें उपादाय “सम्मासमाधी''ति वुत्तो, विमुच्चन8 उपादाय “सम्माविमुत्ती' तिपि वुत्तो। एवञ्च कत्वा "अनासवं चेतोविमुत्ति''न्ति दुतियविमुत्तिग्गहणञ्च समत्थितं होतीति ।
दसकवण्णना निहिता।
पञ्हसमोधानवण्णना
समोधानेतब्बाति समाहरितब्बा ।
३४९. ओकप्पनाति बलवसद्धा। आयतिं भिक्खूनं अविवादहेतुभूतं तत्थ तत्थ भगवता देसितानं अत्थानं सङ्गायनं सङ्गीति, तस्स च कारणं अयं सुत्तदेसना तथा पवत्तत्ताति वुत्तं “सङ्गीतिपरियायन्ति सामग्गिया कारण"न्ति । समनुञो सत्था अहोसि “पटिभातु त, सारिपुत्त, भिक्खून धम्मिं कथा''ति उस्साहेत्वा आदितो पट्ठाय याव परियोसाना सुणन्तो, सा पनेत्थ भगवतो समनुञता “साधु, साधू''ति अनुमोदनेन पाकटा जाताति वुत्तं “अनुमोदनेन समनुज्ञो अहोसी"ति । जिनभासितो नाम जातो, न सावकभासितो। यथा हि राजयुत्तेहि लिखितपण्णं याव राजमुद्दिकाय न लज्जितं होति, न ताव “राजपण्ण''न्ति सङ्ख्यं गच्छति, लञ्जितमत्तं पन राजपण्णं नाम होति । एवमेव
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(१०.३४९-३४९)
“साधु, साधु सारिपुत्ता"तिआदि अनुमोदनवचनसंसूचिताय समनुञासङ्घाताय जिनवचनमुद्दाय लजितत्ता अयं सुत्तन्तो जिनभासितो नाम जातो आहच्चवचनो। यं पनेत्थ अत्थतो न विभत्तं, तं सुविधेय्यमेवाति ।
सङ्गीतिसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना।
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११. दसुत्तरसुत्तवण्णना
३५०. आधुसो भिक्खवेति सावकानं आलपनन्ति सावकानं आमन्तनवसेन आलपनसमुदाचारो, न केवलं "भिक्खवे"ति, सो पन बुद्धानं आलपनं । तेनाह "बुद्धा ही"तिआदि । सत्थुसमुदाचारवसेन असमुदाचारो एवेत्थ सत्थु उच्चट्ठाने ठपनं । सम्पति आगतत्ता कत्थचि न निबद्धो वासो एतेसन्ति अनिबद्धवासा, अन्तेवासिका। कम्मट्ठानं गहेत्वा सप्पायसेनासनं गवेसन्ता यं किञ्चि दिसं गच्छन्तीति दिसागमनीया। इदानि तमत्थं वित्थारतो दस्सेतुं "बुद्धकाले"तिआदि वुत्तं ।
___ असुभकम्मट्ठानन्ति एकादसविधं असुभकम्मट्टानं । तत्थापि पुग्गलवेमत्ततं ञत्वा तदनुरूपं तदनुरूपमेव देति । मोहचरितस्सपि कामं आनापानस्सतिकम्मट्टानं सप्पायं, कम्मट्ठानभावनाय पन भाजनभूतं कातुं सम्मोहविगमाय पठमं उद्देसपरिपुच्छाधम्मस्सवनधम्मसाकच्छासु नियोजेतब्बोति वुत्तं "मोहचरितस्स...पे०... आचिक्खती"ति । सद्धाचरितस्स विसेसतो पुरिमा छ अनुस्सतियो सप्पाया, तासं पन अनुयुञ्जने अयं पुब्बभागपटिपत्तीति दस्सेतुं "पसादनीयसुत्तन्ते"तिआदि वुत्तं । आणचरितस्साति बुद्धिचरितस्स, तस्स पन मरणस्सति, उपसमानुस्सति, चतुधातुववत्थानं, आहारेपटिकूलसञ्जा विसेसतो सप्पाया, तेसं पन उपकारधम्मदस्सनत्थं “अनिच्चतादि...पे०... कथेती"ति वुत्तं । तत्थेवाति सत्थु सन्तिके एव । तेमासिकं पटिपदन्ति तीहि मासेहि सन्निट्ठापेतब्बं पटिपदं ।
इमे भिक्खूति इमिस्सा धम्मदेसनाय भाजनभूता भिक्खू । “एवं आगन्त्वा गच्छन्ते पन भिक्खू"ति इदं “बुद्धकाले''तिआदिना तदुद्देसिकवसेन वुत्तभिक्खू सन्धाय वुत्तं, न "इमे भिक्खू"ति अनन्तरं वुत्तभिक्खू । तेनाह “पेसेती"ति । अपलोकेथाति आपुच्छथ । “पण्डिता''तिआदि सेवनभजनेसु कारणवचनं। “सोतापत्तिफले विनेती"तिआदि
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
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येभुय्यवसेन वुत्तं । आयस्मा हि धम्मसेनापति भिक्खू येभुय्येन सोतापत्तिफलं पापेत्वा विस्सज्जेति “एवमेते नियता सम्बोधिपरायणा''ति । आयस्मा पन महामोग्गल्लानो “सब्बापि भवूपपत्ति जिगुच्छितब्बावा''ति भिक्खू येभुय्येन उत्तमत्थंयेव पापेति ।
सावकेहि विनेतुं सक्कुणेय्या सावकवेनेय्या नाम न सावकेहेव विनेतब्बाति दस्सेन्तो आह "सावकवेनेय्या नामा"तिआदि । दसधा मातिकं ठपेत्वाति एककतो पट्टाय याव दसका दसधा दसधा मातिकं ठपेत्वा विभत्तोति दसुत्तरो। दसुत्तरो गतोतिपि दसुत्तरोति एककतो पट्ठाय याव दसका दसहि उत्तरो अधिको हुत्वा गतो पवत्तोतिपि दसुत्तरो । एकेकस्मिं पब्बेति एककतो पट्ठाय याव दसका दससु पब्बेसु एकेकस्मिं पब्बे । दस दस पहाति “कतमो धम्मो बहुकारो अप्पमादो कुसलेसु धम्मेसू"तिआदिना दस दस पहा । विसेसिताति विस्सज्जिता। दसुत्तरं पवक्खामीति देसियमानं देसनं नामकित्तनमुखेन पटिजानाति वण्णभणनत्थं । पवक्खामीति पकारेहि वक्खामि । तथा हेत्थ पञ्जासाधिकानं पञ्चन्नं पञ्हसतानं वसेन देसना पवत्ता । धम्मन्ति इध धम्म-सद्दो परियत्तिपरियायो “इध भिक्खु धम्मं परियापुणाती''तिआदीसु (अ० नि० २.५.७३) विय | सुत्तलक्खणो चायं धम्मोति आह "धम्मन्ति सुत्त"न्ति । स्वायं धम्मो यथानुसिटुं पटिपज्जमानस्स निब्बानावहो । ततो एव वट्टदुक्खसमुच्छेदाय होति, स चायमस्स आनुभावो सब्बेसं खन्धानं पमोचनुपायभावतोति दस्सेन्तो “निब्बानप्पत्तिया''तिआदिमाह। तेन वुत्तं "निब्बानप्पत्तिया"तिआदि ।
उच्चं करोन्तोति उदग्गं उळारं पणीतं कत्वा दस्सेन्तो, पग्गण्हन्तोति अत्थो। पेमं जनेन्तोति भत्तिं उप्पादेन्तो। इदञ्च देसनाय पग्गण्हनं बुद्धानम्पि आचिण्णं एवाति दस्सेन्तो "एकायनो"तिआदिमाह ।
एकधम्मवण्णना
३५१. (क) कार-सद्दो उप-सद्देन विनापि उपकारत्थं वदति, “बहुकारा, भिक्खवे, मातापितरो पुत्तान"न्तिआदीसु (अ० नि० १.२.३४) वियाति आह "बहुकारोति बहूपकारो"ति।
(ख) वड्डने वुत्ते नानन्तरियताय उप्पादनं वुत्तमेव होतीति "भावेतब्बोति
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वड्ढेतब्बो"ति वुत्तो। उप्पादनपुब्बिका हि वड्डनाति । ननु च "एको धम्मो उप्पादेतब्बो"ति उप्पादनं पेत्थ विसुं गहितं एवाति ? अञविसयत्ता तस्स नायं विरोधो । तथा हि "एको धम्मो परिजेय्यो"ति तीहिपि परिचाहि परिझेय्यतं वत्वापि "एको धम्मो पहातब्बो"ति पहातब्बता वुत्ता।
(ग) तीहि परिञाहीति आततीरणपहानपरिचाहि ।
(घ) पहानानुपस्सनायाति पजहनवसेन पवत्ताय अनुपस्सनाय । मिस्सकवसेन चेतं अनुपस्सनागहणं दट्ठब्बं ।
(ङ) सीलसम्पदादीनं परिहानावहो परिहानाय संवत्तनको।
(च) झानादिविसेसं गमेतीति विसेसगामी। (छ) दुष्पच्चक्खकरोति अनुपचितञाणसम्भारेहि पच्चक्खं कातुं असक्कुणेय्यो । (झ) अभिजानितब्बोति अभिमुखं आणेन जानितब्बो ।
सब्बत्थ मातिकासूति दुकादिवसेन वुत्तासु सब्बासु मातिकासु । एत्थ च आयस्मा धम्मसेनापति ते भिक्खू भावनाय नियोजेत्वा उत्तमत्थे पतिट्ठापेतुकामो पठमं ताव भावनाय उपकारधम्मं उद्देसवसेन दस्सेन्तो “एको धम्मो बहुकारो'"ति वत्वा तेन उपकारकेन उपकत्तब्ध दस्सेन्तो “एको धम्मो भावेतब्बो''ति आह । अयञ्च भावना विपस्सनावसेन इच्छिताति आह "एको धम्मो परिझेय्यो''ति । परिञा च नाम यावदेव पहातब्बपजहनत्थाति आह “एको धम्मो पहातब्बो''ति । पजहन्तेन च हानभागियं नीहरित्वा विसेसभागिये अवट्ठातब्बन्ति आह “एको धम्मो हानभागियो, एको धम्मो विसेसभागियो'ति । विसेसभागिये अवट्ठानञ्च दुप्पटिविज्झनेन, दुप्पटिविज्झपटिविज्झनञ्चे इज्झति, निप्फादेतब्बनिप्फादनं सिद्धमेव होतीति आह “एको धम्मो दुप्पटिविज्झो, एको धम्मो उप्पादेतब्बो'ति । तयिदं द्वयं अभिज्ञेय्यादिजाननेन होतीति आह “एको धम्मो अभिज्ञेय्योति । अभिनेय्यञ्चे अभिज्ञातं, सच्छिकातळ सच्छिकतमेव होतीति । एत्तावता च निहितकिच्चोव होति, नास्स उत्तरि किञ्चि करणीयन्ति एवं ताव महाथेरो
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(११.३५१-३५१)
एककवसेन तेसं भिक्खूनं पटिपत्तिविधिं उद्दिसन्तो इमानि दस पदानि इमिना अनुक्कमेन उद्दिसि ।
(क) एवं अनियमतो उद्दिठ्ठधम्मे सरूपतो नियमेत्वा दस्सेतुं “कतमो एको धम्मो''तिआदिना देसनं आरभि । तेन वुत्तं "इति आयस्मा सारिपुत्तो"तिआदि । एस नयो दुकादीसु। वेलुकारोति वेनो । सो हि वेळुविकारेहि किलञ्जादिकरणेन “वेळुकारो"ति वुत्तो। अन्तो, बहि च सब्बगतगण्ठिं नीहरणेन निग्गण्ठिं कत्वा। एकेककोट्ठासेति एककादीसु दससु कोट्ठासेसु एकेकस्मिं कोट्ठासे ।
सब्बत्थकं उपकारकन्ति सब्बत्थकमेव सम्मा पटिपत्तिया उपकारवन्तं । इदानि तमत्थं वित्थारतो दस्सेतुं “अयज्ही"तिआदि वुत्तं । विपस्सनागभं गण्हापनेति यथा उपरि विपस्सना परिपच्चति तिक्खा विसदा हुत्वा मग्गेन घटेति, एवं पुब्बभागविपस्सनावड्डने । अत्थपटिसम्भिदादीसूति अत्थपटिसम्भिदादीसु निप्फादेतब्बेसु, तेसं सम्भारसम्भरणन्ति अत्थो । एस नयो इतो परेसुपि । ठानाहानेसूति ठाने, अट्ठाने च जानितब्बे । महाविहारसमापत्तियन्ति महतियं झानादिविहारसमापत्तियं । विपस्सनाजाणादीसूति आदि-सद्देन मनोमयिद्धि आदिकानि सङ्गण्हाति । अहसु विज्जासूति अम्बट्ठसुत्ते (दी० नि० १.२७९) आगतनयासु अट्ठसु विज्जासु।
तेनेव भगवा थोमेतीति योजना | नन्ति अप्पमादं ।
थामसम्पन्नेनाति आणबलसमन्नागतेन | दीपेत्वाति “एवम्पि अप्पमादो कुसलानं धम्मानं सम्पादने बहुपकारो''ति पकासेत्वा । यं किञ्चि अनवज्जपक्खिकमत्थं अप्पमादे पक्खिपित्वा कथेतुं युत्तन्ति दस्सेतुं "यं किञ्ची"तिआदि वुत्तं ।।
(ख) कायगतासतीति रस्सं अकत्वा निद्देसो, निद्देसेन वा एतं समासपदं दट्टब्बं । “अट्टिकानि पुजकितानि तेरोवस्सिकानि...पे०... पूतीनि चुण्णिकजातानी''ति (दी० नि० २.३७९) एवं पवत्तमनसिकारो "चुण्णिकमनसिकारो"ति वदन्ति । अपरे पन भणन्ति "चुण्णिकइरियापथेसु पवत्तमनसिकारो''ति । एत्थ उप्पन्नसतियाति एतस्मिं यथावुत्ते एकूनतिंसविधे ठाने उप्पन्नाय सतिया। सुखसम्पयुत्ताति निप्परियायतो सुखसम्पयुत्ता, परियायतो पन चतुत्थज्झाने उपेक्खापि "सुख"न्ति वत्तब्बतं लभति सन्तसभावत्ता ।
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(ग) पच्चयभूतो आरम्मणादिविसयोपि आरम्मणभावेन वणो विय आसवे पग्घरति, सो सम्पयोगसम्भवाभावेपि सह आसवेहीति सासवो। तथा उपादानानं हितोति उपादानियो। इतरथा पन पच्चयभावेन विधि पटिक्खेपो ।
(घ) अस्मीति मानोति “अस्मीति पवत्तो मानो ।
(च) विपरियायेनाति “अनिच्चे अनिच्च"न्तिआदिना नयेन पवत्तो पथमनसिकारो।
(छ) इध पन विपस्सनानन्तरो मग्गो “आनन्तरिको चेतोसमाधी"ति अधिप्पेतो। कस्मा ? विपस्सनाय अनन्तरत्ता, अत्तनो वा पवत्तिया अनन्तरं फलदायकत्ता। सद्दत्थतो पन अनन्तरं फलं अनन्तरं, तस्मिं अनन्तरे नियुत्ता, तं वा अरहति, अनन्तरपयोजनोति वा आनन्तरिको।
(ज) फलन्ति फलपञा | पच्चवेक्षणपञा अधिप्पेता अकुप्पारम्मणताय ।
(झ) अत्तनो फलं आहरतीति आहारो, पच्चयोति आह “आहारहितिकाति पच्चयद्वितिका"ति । अयं एको धम्मोति अयं पच्चयसङ्घातो एको धम्मोति पच्चयतासमञ्चेन एकं कत्वा वदति । आतपरिज्ञाय अभिज्ञायाति ज्ञातपरिञासङ्घाताय अभिज्ञाय ।
(ञ) अकुप्पा चेतोविमुत्तीति अरहत्तफलविमुत्ति अकुप्पभावेन उक्कंसगतत्ता । अञथा सब्बापि फलसमापत्तियो अकुप्पा एव पटिपक्खेहि अकोपनीयत्ता।
अभिज्ञायाति “अभिनेय्यो"ति एत्थ लद्धअभिज्ञाय । परिझायाति एत्थापि एसेव नयो। पहातब्बसच्छिकातब्बेहीति पहातब्बसच्छिकातब्बपदेहि। पहानपरिञाव कथिता पहानसच्छिकिरियानं एकावारताय परिञाय सहेव इज्झनतो। सच्छिकातब्बोति विसेसतो फलं कथितं। एकस्मिंयेव सत्तमे एव पदे लब्भति। फलं पन अनेकेसुपि पदेसु लन्भति पठमट्ठमनवमदसमेसु लब्भनतो । यस्मा तं निप्परियायतो दसमे एव लब्भति, इतरेसु परियायतो तस्मा "लब्भति एवा"ति सासङ्कं वदति ।
सभावतो विज्जमानाति येन बहुकारादिसभावेन देसिता, तेन सभावेन परमत्थतो
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उपलब्भमाना । याथावाति अविपरीता । तथासभावाति तंसभावा । न तथा न होन्तीति अवितथत्ता तथाव होन्ति । ततो एव वृत्तप्पकारतो अञ्ञथा न होन्तीति पञ्चपि पहि तेसं धम्मानं यथाभूतमेव वदति । सम्माति ञायेन । यं पन जातं, तं हेतुयुत्तं कारणयुत्तमेव होतीति आह " हेतुना कारणेना" ति । ओकप्पनं जनेसीति जिनवचनभावेन अभिप्पसादं उप्पादेसि |
एकधम्मवण्णना निट्टता ।
धम्मवण्णना
३५२. (क) “सब्बत्था" ति इदं "सीलपूरणादीसू" ति एतेन सद्धिं सम्बन्धितब्बं । “ सीलपूरणादीसु सब्बत्थ अप्पमादो विय उपकारका "ति एतेन सतिसम्पजञ्जनम्पि अप्पमादस्स विय सब्बत्थ उपकारकता पकासिता होति अत्थतो नातिविलक्खणत्ता ततो तेसं । सतिअविप्पवासो हि अप्पमादो, सो च अत्थतो सब्बत्थ अविजहिता सति एव, सा च खो जणसम्पयुत्ता एव दट्ठब्बा, इतराय तथारूपसमत्थताभावतो ।
(ख) तेसं पञ्चसतमत्तानं भिक्खूनं पुब्बभागपटिपत्तिवसेन देसितत्ता पुब्बभागा कथिता ।
(११.३५२-३५२)
(छ) अयोनिसोमनसिकारो संकिलेसस्स मूलकारणभावेन पवत्तो हेतु, परिब्रूहनभावेन पवत्तो पच्चयो । योनिसोमनसिकारेपि एसेव नयो । यथा च सत्तानं संकिलेसाय, विसुद्धिया च पच्चयभूता अयोनिसोमनसिकारो, योनिसोमनसिकारोति “इमे द्वे धम्मा दुप्पटिविज्झा "ति एत्थ नीहरित्वा वुत्ता, एवं इमेहि धम्मा नीहरित्वा वत्तब्बाति दस्सेन्तो " तथा "ति आदिमाह । तत्थ भज्झाना चत्तारो विसंयोगा नाम कामयोगादिपटिपक्खभावतो । " एवं पभेदा" ति इमिना 'अविज्जाभागिनो धम्मा, विज्जाभागिनो धम्मा, कण्हा धम्मा, सुक्का धम्मा ति ( ध० स० १०१, १०४) एवमादीनं सङ्गहो दट्ठब्बो ।
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(११.३५२-३५२)
तयोधम्मवण्णना
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(झ) पच्चयेहि समेच्च सम्भुय्य कतत्ता पञ्चक्खन्धा सङ्घता धातु। केनचि अनभिसङ्खतत्ता निब्बानं असङ्घता धातु ।
(ञ) तिस्सो विज्जा विज्जनटेन, विदितकरणद्वेन च विजा। विमुत्तीति अरहत्तफलं पटिपक्खतो सब्बसो विमुत्तत्ता ।
अभिज्ञादीनीति अभिज्ञापञ्जादीनि । एककसदिसानेव पुरिमवारे विय विभज्ज कथेतब्बतो । मग्गो कथितोति एत्थ “मग्गोव कथितो''ति एवमत्थं अग्गहेत्वा “मग्गो कथितोवा''ति एवमत्थो गहेतब्बो “अनुप्पादे आणन्ति इमिना फलस्स गहितत्ता । सच्छिकातब्बपदे फलं कथितन्ति एत्थापि “फलमेव कथित"न्ति अग्गहेत्वा “फलं कथितमेवा"ति अत्थो गहेतब्बो विज्जाग्गहणेन तदञस्स सङ्गहितत्ता। एस नयो इतो परेसुपि एवरूपेसु ठानेसु।
द्वेधम्मवण्णना निहिता।
तयोधम्मवण्णना
३५३. (छ) सोति अनागामिमग्गो। सब्बसो कामानं निस्सरणं समुच्छेदवसेन पजहनतो। आरुप्पे अरहत्तमग्गो नाम अरूपज्झानं पादकं कत्वा उप्पन्नो अग्गमग्गो। पुन उप्पत्तिनिवारणतोति रूपानं उप्पत्तिया सब्बसो निवारणतो। निरुज्झन्ति सङ्घारा एतेनाति निरोधो, अग्गमग्गो । तेन हि किलेसवट्टे निरोधिते इतरम्पि वट्टद्वयं निरोधितमेव होति । तस्स पन निरोधस्स परियोसानत्ता अग्गफलं “निरोधो"ति वत्तब्बतं लब्भतीति आह "अरहत्तफलं निरोधोति अधिप्पेत"न्ति । “अरहत्तफलेन हि निब्बाने दिडे" ति इदं अरहत्तमग्गेन निब्बानदस्सनस्सायं निब्बत्तीति कत्वा वुत्तं । एवञ्च कत्वा "अरहत्तसङ्घातनिरोधस्स पच्चयत्ता” ति इदम्पि वचनं समत्थितं होति ।
(ज) अतीतं सारम्मणन्ति अतीतकोट्ठासारम्मणं आणं, अतीता खन्धायतनधातुयो
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२५४
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(११.३५४-३५४)
आरब्भ पवत्तनकजाणन्ति अत्थो। “मग्गो कथितोवा"ति अवधारणं दट्ठब्, तथा "सच्छिकातब्बे फलं कथितमेवा''ति ।
(ञ) आसवानं खये आणन्ति च आसवानं खयन्ते आणन्ति अधिप्पायो, अञ्चथा मग्गो कथितो सिया ।
तयोधम्मवण्णना निट्टिता।
चतुधम्मवण्णना
३५४. (क) दारुमयं चक्कं दारुचक्कं, तथा रतनचक्कं। आणठून धम्मो एव धम्मचक्कं । इरियापथानं अपरापरप्पवत्तितो इरियापथचक्कं, तथा सम्पत्तिचक्कं वेदितब्बं ।
अनुच्छविके देसेति पुञ्जकिरियाय, सम्मापटिपत्तिया अनुरूपदेसे | सेवनं कालेन कालं उपसङ्कमनं । भजनं भत्तिवसेन पयिरुपासनं । अत्तनो सम्मा ठपनन्ति अत्तनो चित्तसन्तानस्स योनिसो ठपनं सद्धादीसु निवेसनन्ति आह "सचे"तिआदि । इदमेवेत्थ पमाणन्ति इदमेव पुब्बेकतपुञतासङ्घातं सम्पत्तिचक्कमेत्थ एतेसु सम्पत्तिचक्केसु पमाणभूतं इतरेसं कारणभावतो । तेनाह "येन ही"तिआदि । सो एव च कतपुओ पुग्गलो अत्तानं सम्मा ठपेति अकतपुञ्जस्स तदभावतो । पठमो लोकियोव, तत्थापि कामावचरोव । इधाति इमस्मिं दसुत्तरसुत्ते। पुब्बभागे लोकियावाति मग्गस्स पुब्बभागे पवत्तनका लोकिया एव । तत्थ कारण वुत्तमेव ।
(च) कामयोगविसंयोगो अनागामिमग्गो, दिट्ठियोगविसंयोगो सोतापत्तिमग्गो, इतरे द्वे अरहत्तमग्गोति एवं अनागामिमग्गादिवसेन वेदितब्बा।
(छ) पठमस्स झानस्स लाभिन्ति य्वायं अप्पगुणस्स पठमस्स झानस्स लाभी, तं | कामसहगता सामनसिकारा समुदाचरन्तीति ततो वुट्टितं आरम्मणवसेन कामसहगता हुत्वा सामनसिकारा समुदाचरन्ति चोदेन्ति तुदेन्ति। तस्स कामानुपक्खन्दानं
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(११.३५४-३५४)
चतुधम्मवण्णना
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सामनसिकारानं वसेन सो पठमज्झानसमाधि हायति परिहायति, तस्मा “हानभागियो समाधी"ति वुत्तो। तदनुधम्मताति तदनुरूपसभावो । “सति सन्तिद्वती"ति इदं मिच्छासतिं सन्धाय वुत्तं । यस्स हि पठमज्झानानुरूपसभावा पठमज्झानं सन्ततो पणीततो दिस्वा अस्सादयमाना अपेक्खमाना अभिनन्दमाना निकन्ति होति, तस्स निकन्तिवसेन सो पठमज्झानसमाधि नेव हायति, न वड्डति, ठितिकोट्टासिको होति, तेन वुत्तं "ठितिभागियो समाधी"ति।
अवितक्कसहगताति अवितक्कं दुतियज्झानं सन्ततो पणीततो मनसि करोतो आरम्मणवसेन अवितक्कसहगता सञ्जामनसिकारा। समुदाचरन्तीति पगुणपठमज्झानतो वुद्वितं दुतियज्झानाधिगमत्थाय चोदेन्ति तुदेन्ति, तस्स उपरि दुतियज्झानुपक्खन्दानं सञ्जामनसिकारानं वसेन सो पठमज्झानसमाधि विसेसभूतस्स दुतियज्झानस्स उप्पत्तिपदट्ठानताय "विसेसभागियो समाधी"ति वुत्तो। निब्बिदासहगताति तमेव पठमज्झानलाभिं झानतो वुट्टितं निब्बिदासङ्घातेन विपस्सनाजाणेन सहगता । विपस्सनाप्राणहि झानङ्गेसु पभेदेन उपट्ठहन्तेसु निबिन्दति उक्कण्ठति, तस्मा "निधिबदा"ति वुच्चति । समुदाचरन्तीति निब्बानसच्छिकरणत्थाय चोदेन्ति तुदेन्ति । विरागूपसज्हितोति विरागसङ्घातेन निब्बानेन उपसहितो। विपस्सनाञाणहि “सक्का इमिना मग्गेन विरागं निब्बानं सच्छिकातु"न्ति पवत्तितो "विरागूपसहित"न्ति वुच्चति, तंसम्पयुत्ता सामनसिकारापि विरागूपसज्हिता एव नाम । तस्स तेसं सञ्जामनसिकारानं वसेन सो पठमज्झानसमाधि अरियमग्गपटिवेधस्स पदट्ठानताय "निब्बेधभागियो समाधी"ति वुत्तो। सब्बसमापत्तियोति दुतियज्झानादिका सब्बा समापत्तियो। अत्थो वेदितब्बोति हानभागियादिअत्थो ताव वित्थारेत्वा वेदितब्बो ।
मग्गो कथितो चतुन्नं अरियसच्चानं उद्घटत्ता । फलं कथितं सरूपेनेव ।
चतुधम्मवण्णना निहिता।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(११.३५५-३५५)
पञ्चधम्मवण्णना
३५५. (ख) “पञ्चङ्गिको सम्मासमाधी"ति समाधिअङ्गभावेन पञ्जा उद्दिट्टाति पीतिफरणतादिवचनेन हि तमेव विभजति । तेनाह “पीतिं फरमाना उप्पज्जती"तिआदि । “सो इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देती"तिआदिना (म० नि० १.४२७) नयेन पीतिया, सुखस्स च फरणं वेदितब्बं । सरागविरागतादिविभागदस्सनवसेन परेसं चेतो फरमाना। आलोकफरणेति कसिणालोकस्स फरणे सति तेनेव आलोकेन फरितप्पदेसे । तस्स समाधिस्स रूपदस्सनपच्चयत्ता पच्चवेक्खणाणं पच्चवेक्षणनिमित्तं।
पीतिफरणता सुखफरणताति आरम्मणे ठत्वा चतुत्थज्झानस्स उप्पादनतो ता "पादा विया"ति वुत्ता। चेतोफरणता आलोकफरणताति तंतंकिच्चसाधनतो ता "हत्था विया"ति वुत्ता। अभिज्ञापादकज्झानं समाधानस्स सरीरभावतो "मज्झिमकायो विया"ति वुत्तं । पच्चवेक्षणनिमित्तं उत्तमङ्गभावतो "सीसं विया"ति वुत्तं ।
(ज) सब्बसो किलेसदुक्खदरथपरिळाहानं विगतत्ता लोकियसमाधिस्स सातिसयमेत्थ सुखन्ति वुत्तं “अप्पितप्पितक्खणे सुखत्ता पच्चुप्पन्नसुखो"ति । पुरिमस्स पुरिमस्स वसेन पच्छिमं पच्छिमं लद्धासेवनताय सन्ततरपणीततरभावप्पत्ति होतीति आह "पुरिमो पुरिमो...पे०... सुखविपाको"ति ।
किलेसपटिप्पस्सद्धियाति किलेसानं पटिप्पस्सम्भनेन लद्धत्ता। किलेसपटिप्पस्सद्धिभावन्ति किलेसानं पटिप्पस्सम्भनभावं । लद्धत्ता पत्तत्ता तब्भावं उपगतत्ता। लोकियसमाधिस्स पच्चनीकानि नीवरणपठमज्झाननिकन्तिआदीनि निग्गहेतब्बानि, अछे किलेसा वारेतब्बा, इमस्स पन अरहत्तसमाधिस्स पटिप्पस्सद्धसब्बकिलेसत्ता न निग्गहेतबं, वारेतब्बञ्च अत्थीति मग्गानन्तरं समापत्तिक्खणे च अप्पयोगेन अधिगतत्ता, ठपितत्ता च अपरिहानवसेन वा ठपितत्ता नसङ्खारनिग्गय्हवारिवावटो। “सतिवेपुल्लप्पत्तत्ता"ति एतेन अप्पवत्तमानायपि सतिया सतिबहुलताय सतो एव नामाति दस्सेति, “यथापरिच्छिन्नकालवसेना''ति एतेन परिच्छिन्दनसतिया सतोति दस्सेति । सेसेसु आणङ्गेसु । पञ्चत्राणिकोति एत्थ वुत्तसमाधिमुखेन पञ्च जाणानेव उद्दिट्टानि, निद्दिट्ठानि च ।
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(११.३५६-३५७)
छधम्मवण्णना
२५७
मग्गो कथितो इन्द्रियसीसेन सम्मावायामादीनं कथितत्ता । फलं कथितं असेक्खानं सीलक्खन्धादीनं कथितत्ता ।
पञ्चधम्मवण्णना निहिता।
छधम्मवण्णना
३५६. मग्गो कथितोति एत्थ वत्तब्बं हेट्ठा वुत्तमेव ।
सत्तधम्मवण्णना
३५७. (ञ) हेतुनाति आदिअन्तवन्ततो, अनच्चन्तिकतो, तावकालिकतो, निच्चपटिक्खेपतोति एवं आदिना हेतुना। नयेनाति “यथा इमे सङ्घारा एतरहि, एवं अतीते, अनागते च अनिच्चा सङ्खता पटिच्चसमुप्पन्ना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा''ति अतीतानागतेसु नयननयेन । कामं खीणासवस्स सब्बेसं सङ्खारानं अनिच्चतादि सुदिट्ठा सुप्पटिविद्धा, तं पन असम्मोहनवसेन किच्चतो, विपस्सनाय पन आरम्मणकरणवसेनाति दस्सेन्तो आह “विपस्सनाञाणेन सुदिट्ठा होन्ती"ति । किलेसवसेन उप्पज्जमानो परिळाहो वत्थुकामसन्निस्सयो, वत्थुकामावस्सयो चाति वुत्तं "वेपि सपरिळाहद्वेन अङ्गारकासु विया"ति । निनस्सेवाति [निन्नस्स (अट्ठकथाय)] निन्नभावस्सेव । अन्तो वुच्चति लामकट्ठेन तण्हा। ब्यन्तं विगतन्तं भूतन्ति ब्यन्तीभूतन्ति आह "निरतिभूतं, [नियतिभूतं (अट्ठकथाय) विगतन्तिभूतं (?)] नित्तण्हन्ति अत्थो"ति । इध सत्तके। भावेतब्बपदे मग्गो कथितो बोज्झङ्गानं वुत्तत्ता ।
पठमभाणवारवण्णना निट्ठिता ।
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२५८
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(११.३५८-३५८)
अट्ठधम्मवण्णना
३५८. (क) आदिब्रह्मचरियिकायाति आदिब्रह्मचरिया एव आदिब्रह्मचरियिका यथा “विनयो एव वेनयिको''ति, तस्सा आदिब्रह्मचरियिकाय । का पन साति आह "पाया"ति। सिक्खत्तयसङ्गहस्साति अधिसीलसिक्खादिसिक्खत्तयसङ्गहस्स । उपचारज्झानसहगता तरुणसमथपञ्जाव उदयब्बयानुपस्सनावसेन पवत्ता तरुणविपस्सनापा तरुणसमथविपस्सनापञ्जा (अट्ठकथायं)] । आदिभूतायाति पठमावयवभूताय, देसनावसेन चेतं वुत्तं । उप्पत्तिकाले पन नत्थ मग्गधम्मानं आदिमज्झपरियोसानता एकचित्तुप्पादपरियापन्नत्ता एकज्झयेव उप्पज्जनतो । पेमन्ति दळ्हभत्ति, तं पन वल्लभवसेन पवत्तमानं गेहसितसदिसं होतीति “गेहसितपेम"न्ति वुत्तं । गरुकरणवसेन पवत्तिया गरु चित्तं एतस्साति गरुचित्तो, तस्स भावो गरुचित्तभावो, गरुम्हि गरुकारो । “किलेसा न उप्पज्जन्ती"ति वत्वा तत्थ कारणमाह “ओवादानुसासनिं लभती"ति । गरूनहि सन्तिके ओवादानुसासनिं लभित्वा यथानुसिटुं पटिपज्जन्तस्स किलेसा न उप्पज्जन्ति । तेनाह "तस्मा"तिआदि ।
(छ) पेताति पेतमहिद्धिका | असुरानन्ति देवासुरानं । पेतासुरा पन पेता एवाति तेसं पेतेहि सङ्गहो अवुत्तसिद्धोव । आवाहनं गच्छन्तीति सम्भोगसंसग्गमुखेन पेतेहेव असुरानं सङ्गहणे कारणं दस्सेति ।
(ज) अप्पिच्छस्साति निइच्छस्स। अभावत्थो हेत्थ अप्प-सद्दो "अप्पडंसमकसवातातपा'तिआदीसु (अ० नि० ३.१०.११) विय । पच्चयेसु अप्पिच्छो पच्चयअप्पिच्छो, चीवरादिपच्चयेसु इच्छारहितो। अधिगमअप्पिच्छोति झानादिअधिगमविभावने इच्छारहितो। परियत्तिअप्पिच्छोति परियत्तियं बाहुसच्चविभावने इच्छारहितो । धुतङ्गअप्पिच्छोति धुतङ्गेसु अप्पिच्छो धुतङ्गविभावेन इच्छारहितो । सन्तगुणनिगृहनेनाति अत्तनि संविज्जमानानं झानादिगुणानञ्चेव बाहुसच्चगुणस्स च धुतङ्गगुणस्स च निगृहनेन छादनेन । सम्पज्जतीति निप्पज्जति सिज्झति । नो महिच्छस्साति महतिया इच्छाय समन्नागतस्स, इच्छं वा महन्तस्स नो सम्पज्जति अनुधम्मस्सापि अनिच्छनतो ।
पविवित्तस्साति पकारेहि विवित्तस्स । तेनाह "कायचित्तउपधिविवेकेहि विवित्तस्सा"ति ।
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(११.३५९-३५९)
नवधम्मवण्णना
२५९
"अट्ठआरम्भवत्थुवसेना"ति एतेन भावनाभियोगवसेन एकीभावोव इध “कायविवेकोति अधिप्पेतो, न गणसङ्गणिकाभावमत्तन्ति दस्सेति | कम्मन्ति योगकम्मं ।।
सत्तेहि किलेसेहि च सङ्गणनं समोधानं सङ्गणिका, सा आरमितब्बतुन आरामो एतस्साति सङ्गणिकारामो, तस्स । तेनाह "गणसङ्गणिकाय चेवा"तिआदि । आरद्धवीरियस्साति पग्गहितवीरियस्स, तञ्च खो उपधिविवेके निन्नतावसेन “अयं धम्मो'"ति वचनतो । एस नयो इतो परेसुपि। विवट्टसन्निस्सितंयेव हि समाधानं इधाधिप्पेतं, तथा पञापि । कम्मस्सकतापञ्जाय हि पतिठ्ठतो कम्मवसेन “भवेसु नानप्पकारो अनत्थो''ति जानन्तो कम्मक्खयकरजाणं अभिपत्थेति, तदत्थञ्च उस्साहं करोति । मानादयो सत्तसन्तानं संसारे पपञ्चेन्ति वित्थारेन्तीति पपञ्चाति आह “निप्पपञ्चस्साति विगतमानतण्हादिट्ठिपपञ्चस्सा"ति |
मग्गो कथितो सरूपेनेव ।
नवधम्मवण्णना
३५९. (ख) विसुद्धिन्ति आणदस्सनविसुद्धिं, अच्चन्तविसुद्धिमेव वा । चतुपारिसुद्धिसीलन्ति पातिमोक्खसंवरादिनिरुपक्किलिठ्ठताय चतुब्बिधपरिसुद्धिवन्तं सीलं । पारिसुद्धिपधानियङ्गन्ति पुग्गलस्स परिसुद्धिया पधानभूतं अङ्गं । तेनाह "परिसुद्धभावस्स पधानङ्ग"न्ति । समथस्स विसुद्धिभावो वोदानं पगुणभावेन परिच्छिन्नन्ति आह "अट्ठ पगुणसमापत्तियो"ति । विगतुपक्किलेसहि “पगुण''न्ति वत्तब्बतं लब्भति, न सउपक्किलेसं हानभागियादिभावप्पत्तितो। सत्तदिट्ठिमलविसुद्धितो नामरूपपरिच्छेदो दिविविसुद्धि। पच्चयपरिग्गहो अद्धत्तयकङ्खामलविधमनतो कावितरणविसुद्धि। यस्मा नामरूपं नाम सप्पच्चयमेव, तस्मा तं परिग्गण्हन्तेन अत्थतो तस्स सप्पच्चयतापि परिग्गहिता एव होतीति वुत्तं “दिद्विविसुद्धीति सप्पच्चयं नामरूपदस्सन"न्ति । यस्मा पन नामरूपस्स पच्चयं परिग्गण्हन्तेन तीसु अद्धासु कङ्खामलवितरणपच्चयाकारावबोधवसेनेव होति, तस्मा "पच्चयाकाराण"न्तिआदि वुत्तं यथा कावितरणविसुद्धि “धम्मट्ठितिञाण''न्ति वुच्चति । मग्गामग्गे आणन्ति मग्गामग्गे ववत्थपेत्वा ठितजाणं । आणन्ति इध तरुणविपस्सना कथिता तेसं भिक्खूनं अज्झासयवसेन "आणदस्सनविसुद्धी''ति वुहानगामिनिया विपस्सनाय वुच्चमानत्ता। यदि "ञाणदस्सनविसुद्धी"ति वुट्टानगामिनिविपस्सना अधिप्पेता, “पञ्जा''ति
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२६०
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
(११.३६०-३६०)
च अरहत्तफलपञ्जा, मग्गो पन कथन्ति ? मग्गो बहुकारपदे विरागग्गहणेन गहितो । वक्खति हि "इध बहुकारपदे मग्गो कथितो"ति (दी० नि० अट्ठ० ३.३५९)।
(छ) चक्खादिधातुनानत्तन्ति चक्खादिरूपादिचक्खुविचाणादिधातूनं वेमत्ततं निस्साय । चक्खुसम्फस्सादिनानत्तन्ति चक्खुसम्फस्ससोतसम्फस्सघानसम्फस्सादिसम्फस्सविभागं । सज्ञानानत्तन्ति एत्थ रूपसदिसनानत्तम्पि लब्भतेव, तं पन कामसादिग्गहणेनेव गव्हति । कामसञ्जादीति आदि-सद्देन ब्यापादसञादीनं गहणं। सञानिदानत्ता पपञ्चसङ्घानं “सञानानत्तं पटिच्च सङ्कप्पनानत्त"न्ति वुत्तं, "यं सङ्कप्पेति, तं पपञ्चेतीति वचनतो “सङ्कप्पनानत्तं पटिच्च छन्दनानत्त"न्ति वुत्तं । छन्दनानत्तन्ति च तण्हाछन्दस्स नानत्तं । रूपपरिळाहोति रूपविसयो रूपाभिपत्थनावसेन पवत्तो किलेसपरिळाहो । सद्दपरिळाहोति एत्थापि एसेव नयो। किलेसो हि उप्पज्जमानो अप्पत्तेपि आरम्मणे पत्तो विय परिळाहोव उप्पज्जति । तथाभूतस्स पन किलेसछन्दस्स बसेन रूपादिपरियेसना होतीति आह "परिळाहनानत्तताय रूपपरियेसनादिनानत्तं उप्पज्जती"ति । तथा परियेसन्तस्स सचे तं रूपादि लब्भेय्य, तं सन्धायाह “परियेसनादिनानत्तताय रूपपटिलाभादिनानत्तं उप्पज्जती"ति ।
(ज) मरणानुपस्सनाजाणेति मरणस्स अनुपस्सनावसेन पवत्तत्राणे, मरणानुस्सतिसहगतपञ्जायाति अत्थो। आहारं परिग्गण्हन्तस्साति गमनादिवसेन आहारं पटिक्कूलतो परिग्गण्हन्तस्स । उक्कण्ठन्तस्साति निबिन्दन्तस्स कत्थचिपि असज्जन्तस्स ।
दसधम्मवण्णना
३६०. (झ) निज्जरकारणानीति पजहनकारणानि । इमस्मिं अभिज्ञापदे मग्गो कथीयतीति कत्वा “अयं हेटा..पे०... पुन गहिता"ति वुत्तं । तथा हि वक्खति "इध अभिज्ञापदे मग्गो कथितो" (दी० नि० अढ० ३.३६०) किञ्चापि निज्जिण्णा मिच्छादिट्ठीति आनेत्वा सम्बन्धितब्बं । यथा मिच्छादिट्ठि विपस्सनाय निज्जिण्णापि न समुच्छिन्नाति समुच्छेदप्पहानदस्सनत्थं पुन गहिता, एवं मिच्छासङ्कप्पादयोपि विपस्सनाय पहीनापि असमुच्छिन्नताय इध पुन गहिताति अयमत्थो “मिच्छासङ्कप्पो''तिआदीसु सब्बपदेसु वत्तब्बोति दस्सेति “एवं सब्बपदेसु नयो नेतब्बो"ति इमिना ।
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(११.३६०-३६०)
दसधम्मवण्णना
एत्थ चाति " सम्माविमुत्तिपच्चया च अनेके कुसला धम्मा भावनापारिपूरिं गच्छन्तीति एतस्मिं पाळिपदे । एत्थ च समुच्छेदवसेन, पटिप्पस्सद्धिवसेन च पटिपक्खधम्मा सम्मदेव विमुच्चनं सम्माविमुत्ति, तप्पच्चया च मग्गफलेसु अट्ठ इन्द्रियान भावनापारिपूरिं उपगच्छन्तीति मग्गसम्पयुत्तानिपि सद्वादीनि इन्द्रियानि उद्धटानि । मग्गवसेन हि फलेसु भावना पारिपूरी नामाति । अभिनन्दनट्ठेनाति अतिविय सिनेहनट्ठेनिदहि | सोमनस्सिन्द्रियं उक्कंसगतसातसभावं सम्पयुत्तधम्मे सिनेहन्तं तेमेन्तं विय पवत्तति । पवत्तसन्ततिआधिपतेय्यट्ठेनाति विपाकसन्तानस्स जीवने अधिपतिभावेन । " एव "न्तिआदि वुत्तस्सेव अत्थस्स निगमनं ।
अद्धेन सह छट्टानि पञ्हसतानि पञ्ञासाधिकानि सह पञ्हसतानीति अत्थो ।
·
एत्थ च आयस्मा धम्मसेनापति “दससु नाथकरणधम्मेसु पतिट्ठाय दसकसिणायतनानि भावेन्तो दसआयतनमुखेन परि पट्ठपेत्वा परिञेय्यधम्मे परिजानन्तो दसमिच्छत्ते, दसअकुसलकम्मपथे च पहाय दसकुसलकम्मपथेसु च अवट्ठितो दससु अरियावासेसु आवसितुकामो दससञ्ञ उप्पादेन्तो दसनिज्जरवत्थूनि अभिज्ञाय दस असेक्खधम्मे अधिगच्छतीति ते भिक्खूनं ओवादं मत्थकं पापेन्तो देसनं निट्टपेसि । पमोदवसेन पटिग्गण्हनं अभिनन्दनन्ति आह " साधु साधूति अभिनन्दन्ता सिरसा सम्पटिच्छिं अत्तमनतायाति ताय यथादेसितदेसनागताय पहट्ठचित्तताय, तत्थ यथालद्धअत्थवेदधम्मवेदेहीति अत्थो । इममेव सुतं आवज्जमानाति इमस्मिं सुत्ते तत्थ तत्थ आगते अभिज्ञेय्यादिभेदे धम्मे अभिजाननादिवसेन समन्नाहरन्ता । सह पटिसम्भिदाहि... पे०... पतिट्ठहिंसूति अत्तनो उपनिस्सयसम्पन्नताय, थेरस्स च देसनानुभावेन यथारद्धं उस्सुक्त्वा पटिसम्भिदापरिवाराय अभिज्ञाय सण्ठहिंसूति ।
विपस्सनं
सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय
दसुत्तरसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना ।
निट्ठिता च पाथिकवग्गट्ठकथायलीनत्थप्पकासना ।
पाथिकवग्गटीका निट्ठिता ।
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
निगमनकथावण्णना
थेरानं महाकस्सपादीनं वंसो पवेणी अन्वयो एतस्साति थेरवंसन्वयो, तेन; चतुमहानिकायेसु थेरियेनाति अत्थो ।
दसबलस्स सम्मासम्बुद्धस्स गुणगणानं परिदीपनतो दसबलगुणगणपरिदीपनस्स । अयहि आगमो ब्रह्मजालादीसु, महापदानादीसु, सम्पसादनीयादीसु च तत्थ तत्थ विसेसतो बुद्धगुणानं पकासनवसेन पवत्तोति । तथा हि वृत्तं आदितो “सद्धावहगुणस्सा " ति ( दी० नि० अट्ठ० १ . गन्थारम्भकथा ) |
महाकथाय सारन्ति दीघनिकायमहाअट्ठकथायं अत्थसारं ।
एकूनसट्ठिमत्तोति थोकं ऊनभावतो मत्त - सद्दग्गहणं ।
मूलकट्ठकथासारन्ति पुब्बे वुत्तं दीघनिकायमहाअट्ठकथासारमेव पुन निगमनवसेन वदति । अथ वा मूलकट्ठकथासारन्ति पोराणट्ठकथासु अत्थसारं, तेनेतं दस्सेति ‘“दीघनिकायमहाअट्ठकथायं अत्थसारं आदाय इमं सुमङ्गलविलासिनिं करोन्तो सेसमहानिकायानम्पि मूलकट्ठकथासु इध विनियोगक्खमं अत्थसारं आदाययेव अकासि "न्ति ।
(११.३६०-३६०)
" महाविहारवासीन "न्ति [महाविहारे निवासिनं (अट्ठकथायं) ] च इदं पुरिमपच्छिमपदेहि सद्धिं सम्बन्धितब्बं "महाविहारवासीनं समयं पकासयन्तिं, महाविहारवासीनं मूलकट्ठकथासारं आदाया "ति च । तेन पुञ्ञेन । होतु सब्बो सुखी लोकोति कामावचरादिविभागो सब्बीपि सत्तलोको यथारहं बोधित्तयाधिगमनवसेन सम्पत्तेन निब्बानसुखेन सुखितो होतूति सदेवकस्स लोकस्स अच्चन्तसुखाधिगमाय अत्तनो पुञ् परिणामेति ।
परिमाणतो साधिकट्ठवीससहस्सनवुतिभाणवारा निट्ठिताति । परिमाणती साधिकट्ठवीससहस्समत्तगन्थेन दीघनिकायटीका रचिताचरियधम्मपालेन ।
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(११.३६०-३६०)
निगमनकथावण्णना
२६३
मिच्छादिट्ठादिचोरेहि, सीलादिधनसञ्चयं । रक्खणत्थाय सक्कच्चं, मञ्जूसं विय कारितन्ति ।। (एत्थन्तरे पाठो पच्छा लिखितो)
निविता सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय लीनत्थप्पकासना ।
दीघनिकायटीका निविता।
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सद्दानुक्कमणिका
अकट्ठपाकोति-४२ अकडेति-१३९ अकण्टका-१४१ अकम्पनञाणन्ति-१६२ अकम्पियसभावेन-५९ अकल्यता-२१८ अकसिरलाभीति-७३ अ-कारो-२०, १११, १६१ अकासिन्ति-२६२ अकिरियवादीति-२२६ अकुसलकम्मन्ति-८६ अकुसलचित्तन्ति-१७६ अकुसलचित्तुप्पादाति- १६८ अकुसलधम्मानं -१९१ अकुसलाति-२० अकोपोति-२१२ अक्खधुत्ताति- १२० अक्खधुत्तो- ११९ अक्खनिमित्तं-१२० अक्खन्ति-८४ अक्खरन्ति-४३,४४ अक्खसोण्डोति-११९ अक्खातोति-५७ अक्खानन्ति-११९ अखीणासवानं-२२८
अग्गकोण्डा- ९८ अग्गजे-३,११ अग्गपरिवारं-६ अग्गफलजाणं-२१४ अग्गफलधम्मभावं-१८२ अग्गमग्गाणपदट्ठानञ्च-५३ अग्गमग्गाणं-५३ अग्गमग्गफलसम्पयुत्तापि - २२० अग्गरसदायकोति-९९ अग्गरसानीति-२८ अग्गहितपुप्फा-३५ अचण्डिक्कन्ति-१६० अचलट्ठिताति-३७ अचेलकपटिपदाति-२१३ अचेलकोति-२१६ अच्चन्तपणीतभावतो-२१० अच्चन्तपरिसुद्धो-२१४ अच्चन्तवूपसमो-२१४ अच्चन्तसन्तपणीतताकप्पभावतोति-१५४ अच्छन्तीति-४४ अच्छादनानञ्चेव-१०६ अच्छेन्तीति-४४ अज्जवं - १५७,१५८ अज्झत्तधम्मानं-२२५ अज्झत्तसंयोजनो-२१९ अज्झत्तिकबाहिरविभागतो-५९ अज्झत्तिकानीति-२२५ अज्झप्पत्ताति-२३
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दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
[अ-अ]
अज्झावसनसमत्थोति-१३० अज्झासयसम्पत्तिदस्सनं-१३० अज्झासयोति-१५ अज्झोत्थतचित्तानं-१८६ अतित्थियापि-२ अञतित्थियेहि-१७० अज्ञा-१९९ अजाणन्ति - १५४, १७२ अज्ञाभूतं-१८८ अचिन्द्रियन्ति-१८८ अट्टकाति-१४७ अट्टो-२०५ अट्ठङ्गिको मग्गो-६६ अट्ठविमोक्खपटिक्खेपो-६५ ।। अट्ठिआरम्मणपठमज्झानपादको-६४ अड्डयोगोति-२०५ अण्डकाति-१६०, १६१ अतिक्कमन्तीति- १२०,१२१ अतिक्कमो- १२१ अतिचारिनीति-१७८ अतिधम्मभारेनाति-७६ अतिनिपुणा-१०७ अतिमानी-१८ अतिवाहेतीति-९६ अतिसम्बाधन्ति - २३० अतुट्ठाकारन्ति-६ अत्थकारणाति-१२१ अत्थचरिया-९९ अत्थद्धोति-१३० अत्थधम्मानं-१०३ अत्यन्तरोति-१०५ अत्थपच्चत्थिका-२३२ अत्यपटिसम्भिदा-४८ अत्थवेदधम्मवेदस्सेव - १४८ अत्थसम्पत्तिया-६८ अत्थानुसासनीसूति-१०५
अत्थुद्धारभूतो- ९५ अत्तकिलमथानुयोगन्ति-७२ अत्ततण्हाविनोदनवसेन-१६ अत्तदिट्ठि- १६९, १७१ अत्तदीपाति-२२ अत्तभावोति-८६, १९४ अत्तमनताति-१६० अत्तसञ्चेतनाय-२१६ अत्तसुञताय-१६८, १९० अत्तसुञसभावाति-२२३ अत्ताति-२२, १५५, १५९,२१५ अत्ताधिपतेय्या -१५५ अत्रिच्छन्ति-१७८ अदुक्खमसुखवेदना - १७३ अदुक्खलाभीति-७३ अदोसो-२१२ अद्धाति-१७१ अद्धिकजनस्साति-१४ । अधम्मरागस्साति-२६ अधिकरणानि-२३२ अधिगतदिब्बचक्खुको-६४ अधिगतदिब्बचक्खुजाणो-६२ अधिगतसमाधितो-२०८ अधिचिण्णन्ति-७८ अधिचित्तं-७२,१८८ अधिजेगुच्छे-१६ अधिपञत्तीति-८८ अधिभवतीति-९४ अधिमुत्तोति-६६,९७ अधिवासनखन्ति-१५८,१६० अधिसीलसिक्खादीनं-२२७ अधिसीलं-१८८ अधुनुप्पत्तिकाति-१९८ अधोति-२३९ अधोसळपादो-१०० अनच्छरियत्ताति-७५
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सद्दानुक्कमणिका
___ [३]
अनत्थसंयुत्तन्ति-७२ अनत्योति-१२१,२५९ अनत्तलक्खणं-१८१, १८९ अनद्धेनाति-१९४ अनन्तरपयोजनोति-२५१ अनयो-११ अनरियन्ति-७२ अनवज्जलक्खणानन्ति-२४ अनवातेन-१०० अनवसेससीलं-१०४ अनसनन्ति-३० अनागतबुद्धानं-५४ अनागामिखीणासवाति-२२१ अनावहं - १४३ अनाविलसङ्कप्पो-३६ अनिक्खित्तछन्दताति-१६३ अनिच्चलक्खणं-१०४ अनिच्चसाय -७१ अनिच्चाति- १०४, १९६ अनिच्चादिमनसिकारकिच्चं-१६० अनिच्चानुपस्सनााणे-२२४ अनिजं-१८१ अनिबद्धवासा-२४७ अनिमित्तपरियायो-१९० अनिमित्ताति-२२७ अनिय्यानिकधर्म-७४ अनुकूलधम्मपरिब्रहनेन-२३४ अनुजानाति-२१८ अनुट्ठातब्बधम्मा-३ अनुट्ठानसीलो- १२० अनुत्तरतन्ति-८६ अनुत्तरभावोति – ५८ अनुत्तरसमाधीति-२२४ अनुत्तरानीति-२२७ अनुत्तरियन्ति-१८९ अनुत्तरोति-५१, ५८
अनुधम्म-८० अनुपटिपाटियाति-२३७ अनुपदधम्मविपस्सनं -५१ अनुपरियायो – ५५ अनुपसमसंवत्तनं -७८ अनुपस्सनागहणं-२४९ अनुपादिसेसाय-७४ अनुपुब्बउग्गतवट्टितन्ति-१०१ अनुप्पन्नेति-१८८ अनुप्पादनिरोधो-१९६ अनुमज्जन्ताति-४६ अनुमानाणं-५५ अनुमानन्ति -५५ अनुयुजितब्बतोति-६२ अनुयोगो-५४, १८४, २३२ अनुरक्खतीति-२०८ अनुलोमिका - १८७ अनुसेन्तीति-२३१ अनुस्सवो-५३ अनेसनन्ति-२०३ अनोलीनवुत्तिताति-१६३ अन्तरकप्पो-२९ अन्तरविरहिताति-३६ अन्तलिक्खचरा-३८ अन्तेवासिकम्यताय-२० अन्तोति-१७२ अन्तोवङ्कपादता-९८ अन्धकारभूतोति - २१६ अन्वयेत्राणन्ति-२०९ अन्वयोति-५५ अपक्कमीति-४ अपचितिसहगतं-१८३ अपज्ञापनन्ति-८४ अपत्थद्धाति-२३ अपदानन्ति-४३ अपनूदनोति-९७
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________________
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
[अ-अ]]
अपनूदिताति-९६ अपरभागचेतनाय-१८३ अपरिच्छेदन्ति-८४ अपरियोसितसङ्कप्पो-१९ अपरिहानियसभावन्ति-१०८ अपस्सेनानि-१९६ अपायो-१९१ अपिहितेनाति-१९४ अपुञो-१८१ अप्पच्चक्खधम्मो-१३५ अप्पटिक्कूलतावहोति-३२ अप्पटिक्कूलसञ्जीति-७० अप्पटिलद्धनिब्बाना-११ अप्पटिवानिता -१६३ अप्पटिसरणो-७९ अप्पटिस्सयोति-२२५ अप्पटिस्सवो-२२५ अप्पणिहितन्ति-१९० अप्पतिठ्ठतायाति-३४ अप्पत्तन्ति-८६ अप्पनापरिच्छेदजाननपा -१५६ अप्पमञासमापत्तिया-५० अप्पमत्तोति-२५ अप्पमाणा-१९६ अप्पमादलक्खणं- २२५ अप्पमादो-६२, २४८,२५०,२५२ अप्पहीनकोधताय-२२६ अप्फुटन्ति-४९ अबोधितत्थाति-८० अब्भनुमोदनं-१८४ अब्भाचिक्खन्ति-१२ अब्यभिचारितसम्बन्धभावतो-१३६ अब्यापादपटिसंयुत्तो-१६६ अब्यापादो-१६६ अब्यावटमनोति-४९ अभवो - २१२
अभावधम्मत्ता-२१९ अभिआचिक्खन्तीति-१२ अभिक्कन्तेनाति- १३३ अभिक्खणन्ति-७७ अभिचेतो-७२ अभिजानातीति-५३ अभिजानितब्बोति -२४९ अभिज्झायतीति-२४० अभिज्झासीलब्बतपरामासकायगन्थेहि-१७ अभिजात्राणेन-६२ अभिज्ञापजादीनि-२५३ अभिनेय्यधम्मपञापना-८८ अभिज्ञो-५३ अभिधम्मकथा- १९० अभिधम्मनयसिद्धोति-५८ अभिधम्मेपीतिआदिमाह -१६१ अभिनन्दतीति- २२२ अभिनिविट्ठा-३७ .. अभिनिवेसोति-२१० अभिमुखोति-२३८ अभिरूपेति-१३३ अभिविस्सज्जेसीति-१०६ अभिसङ्घरोतीति-१८० अभिसङ्कारविज्ञाणं-६३,२११ अभिसम्बुद्धन्ति-८६ अभिसम्बोधिदिवसे-५१ अभिहरतीति-१९ अभीतनादन्ति-९ अमच्चा-२७ अमतधम्म-१८८ अमित्ततापनाति-१०७ अम्बट्टसुत्ते - २५० अयनतोति-२३८ अयोति- २१८ अयोनिसोमनसिकारपदट्ठानन्ति-२३८ अरञकङ्गनिप्फादकं- १४
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________________
अ- अ ]
सद्दानुक्कमणिका
अरञ्ञन्ति - १४ अरञ्ञवनपत्थानि - १४ अरञ्ञारामा १४७ अरहतीति - ३८, १६९, १७८, २०८, २१४
अरहत्तपदट्ठानं - १४८ अरहत्तप्पत्तअनागामिनोति - ६५ अरहत्तफलपञ्जा-२१४, २६०
अरूपरागोति - १६९ अरूपसमापत्तियो - ५० अरोगोति-२२० अलङ्कारत्थं - २३४ अलङ्कारदानन्ति - १२८ अलमरियत्राणदस्सनविसेसाति - ४ अलसकेनाति - ५ अलायितन्ति - ४२ अलंपतेय्या - २८ अल्लीनतरानीति - ८२ अल्लीनाति - ८८ अवक्खिपतीति - १७ अवत्तितसभावत्ताति - ५२ अवधारेतीति - ६७
H
अरहत्तफलविमुत्ति - २५१ अरहत्तफलसमापत्ति - ५१ अरहत्तफले - ३२, १८२, २२७ अरहत्तमग्गज - ५३ अरहत्तमग्गधम्मा - १८२ अरहत्तमग्गोति- २५४ अरहं - ३५ अरियपञ्ञति - १८६ अरियपुग्गलो- १८१ अरियफलविपाको - २१४ अरियफलसमाधि - २४५ अरियफलसम्पयुत्तधम्मापि - २४५ अरियभूमियं - ३७ अरियमग्गन्ति - १५ अरियमग्गो - ३६, ५६, १६४, १७३, २०८
- ९४
अवरुद्धा - १४४ अवसक्कितन्ति - २५ अविक्खम्भनीयोति अविगतपेमता - २३१ अविज्जाति - १५४ अविज्जानिरोधा - १९६
अविज्जानीवरणानं - ३६ अविज्जासमुदयाति - १९५ अविज्जासवोति - १७०
अरियवासा- २४३ अरियविहारोति - ४७ अरियसच्चधम्मे- - २०८ अरियसच्चानि - ४६, २१७
अवितक्कसहगताति - २५५ अविदितनिब्बानाति - ११ अविवहं - १४३
अरिय सद्दो- १९७ अरियसोतो - २१० अरियाति - ७०, १९८, २४३
अविवादहेतुभूतं - २४५ अविसयभावतो - ७०, २१० अविहिंसा - १६६
अरियावासाति - ३६ अरियिद्धीति - ७० अरियन - १३ अरियो - ६६, १२०, १९३, २३० अरूपज्झानं - २२३, २५३ अरूपतण्हाति - १६९ अरूपधम्माति - १५८
अविहेठनकम्मं - १०८ अवूपसन्तचित्तो - २१८ असङ्गमप्पटिहटअनुमानत्राणं - ५५ असञ्ञसमापत्तिं - १५१
असन्तुट्ठिता - १६३ असन्दिट्ठिपरामासिताति - ८० असमधुरेहीति - ७२
5
[4]
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________________
[६]
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
[आ -आ]
असम्पजळ-१६१ असम्पवेधीति-५३ असम्मिन्नं-१५ असम्मुव्हनकिच्चवसेनपि-२१० असम्मोहपटिवेधवसेन- २१०,२१५ असहानधम्मतं-१०८ असहानधम्मो-१०८ असाधारणञाणानि -४९ असुद्धिमग्गे-१६९ असुभकम्मट्ठानन्ति-२४७ असुभज्झानेति-१६६ असुभन्ति-१२ असुभभावना-१९६ असुभमनसिकार-७१ असुभानुपस्सनााणेति - २३१ असेक्खभावापत्तीति- १८२ असेक्खातिपि- १८६ असोतविधेय्यता-६१ असंकिण्णाति- १९८ असंकिलिट्ठसभावत्ता-२१९ अस्मिमानदोसेनाति-९ अस्सरमानाति-२३ अस्सासो-१५ अहानभागियत्ताति-२२३ अहायीति-४२ अहिरिकअनोत्तप्पानम्पि-२१३।। अहेतुकवादी - २२६
आचरियपरम्परा-५३ आचरियवादो-११ आचरियोति-११,२० आजीवतोति-२० आजीवपारिसुद्धिं - १७७ आटानाटनगरं-१३७ आटानाटियपरित्तस्स-१४४ आणाखेत्तं -७३ आतप्पन्ति-६२ आदरकिरियता-१६३ आदिच्चबन्धुनं-१३८ आदिच्चो- १३७, १३८ आदिब्रह्मचरियं-१५ आदेय्यवाचोति-१११ आदेसनानि-६० आदेसनानुसासनीपाटिहारियन्ति-३ आधानन्ति-१८ आधिपतेय्यं-१९२ आनन्तरिको-२५१ आनन्दाचरियो-६१ आनापानस्सतिकम्मट्ठानं-२४७ आनुयन्ता-३६ आपत्तिक्खन्धा-१५६ आबाधकरिन्ति-१११ आभुजित्वाति-४७ आयतनकुसलताति-१५९ आयतनन्ति-११८,१९७ आयतन्ति-२९ आयतपण्हिता-९८ आयुपायकोसल्लं-१०५ आयूहनचेतना-१८० आयोति-१९१ आरक्खकिच्चं-२४४ आरद्धवीरियस्साति-२५९ आरम्मणट्ठिति-२११ आरम्मणधम्मतो-१८९
आ
आकप्पेनाति-१४ आ-कारोति-२१ आकिरित्वाति-१३९ आगन्तुकभत्तं-२०४ आगमनतो-१५५, १८९, १९० आगमनसद्धा-२२०
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________________
[ इ उ ]
आरुप्पसमाधिअभिज्ञानं - २१३ आरोग्यकरणकम्मन्ति - १०८ आलपनन्ति - २४७
आलयभूतन्ति - ९५
आलोकस - १९५
आवज्जन्ताति - ४६
आवाहविवाहं - १२६
आविज्झित्वाति - ८
आविलक्खीति - १०९ आधन्ति - १८७ आवेणिकधम्माति - १७६
आवेणिकपञ्जा - १८६
आसदोति - १७८
आसनपञ्ञापनं - १२७
आसभी - ५३ आसयो - ९, १५ आसवक्खयत्राणन्ति - १६४
आसवक्खया- ३२
आसव- सद्दो - १७० आसवसुते - १७०
आसवाति - ६५, ८३
आसेवनाति - १६४
आहारट्ठतिकाति - १४९, १५०, २५१ आहारपच्चयोति - १५२
आहार - सद्दो- १४९, १५० आहारोति - १५०, १५२ आहुति - १७७
ड
इ-कारं - ८१ इज्झतीति - १८५ इट्ठन्ति - १४०
इत्यभावन्ति - ३८ इत्थिसम्भोगनिमित्तं - १२० इत्थिसोण्डाति - १२०
सद्दानुक्कमणिका
7
-६१
इद्धिचित्तभावतो - इद्धिपाटिहारियं - ३, ७ इद्धियाति - १३३
इद्धीति - ७०, १९४ इन्द्रियगोचरोति - ७२ इन्द्रियन्ति - १८८ इन्द्रियसंवरभेदोति - १६१
- ३४
इब्भेतिइरियतीति - १३
ईसकम्पि - ११२, ११८
उ
उक्कण्ठन्तस्साति - २६० उक्कुटिकपादता - ९८ उक्कुटिकासनन्ति - १०१ उक्कंसतीति - १७
उक्खिपति - १९४, २०३
उग्गहातु - १३५
उग्गहजाननपञ्ञ - १५७
उग्गहजाननं - १६० उग्गहणपच्चवेक्खणा - १५७
उच्चारपलिबुद्धोति - २००
उच्छुवप्पन्ति - १४२ उच्छेददिट्ठीति - १५५ उजुकन्ति - ३९ उजुभावसिद्धितो - १५८ उजुविपच्चनीकदस्सनत्थं - १६६ उट्ठानकम्मफलूपजीविभावतो - १८५ उट्ठानवीरियसम्पन्नोति - १३०
उतुसुखसम्फस्सा - १४० उत्तमवीरियानीति -२०७ उत्तरकुरुदीपे - १४१
[७]
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________________
[८]
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
[ऊ-ऊ]
उत्तरितरन्ति-८२ उत्तरिमनुस्सधम्मा-३,४ उत्तरुत्तरं -५६ उत्तासबहुलोति-१०५ उदकरहदोति-१३७ उदयदस्सनं -१९६ उदयब्बयानुपस्सनावसेन-२५८ उदयो-१७२ उदरावदेहकं-२२२ उद्दिधम्मे - २५० उद्देसभत्तं-२०३ उद्धङ्गमनीया-१०० उद्धम्भागियसंयोजनानि-२१९ उद्धापं-५५ उद्धंसोतो-२२१ उन्नतकायेनाति-९८ उन्नमति-१३ उपकारधम्म-२४९ उपक्किलिर्ट- १४७ उपक्किलेसालोको- १९५ उपचारकम्मट्ठानन्ति-२२८ उपचारज्झानचेतनाय-३८ उपचारज्झानादिकुसलचित्तसम्पयुत्तानं-१९४ उपचितन्ति-९३ उपज्झायोति-७९ उपट्टानन्ति -१७९ उपट्टानेनाति-१२६ उपतापेन्तीति-५५ उपत्थम्भकभावो-१५० उपत्थम्भेति-१५० उपद्दवाति-१२१ उपधिविवेकोति-१८७ उपनरहनसीलोति-२२६ उपनाही-१८, २२६ उपनिज्झायतन्ति-४३ उपपत्तिभवलक्खणा-२१८
उपपन्नतरानीति-८२ उपयोगवचनन्ति-४,२३,९१,११०,१३२ उपवत्ततीति-११० उपवदनाति-२३२ उपसग्गाति-१२१ उपसंहरतीति-७१ उपादानक्खन्धा-२१७ उपादानानीति - २१५ उपादानियो-२५१ उपाधी-७० उपायत्ताति-१७२ उपायपधानन्ति-१६३ उपोसथकम्मन्ति- ९५ उपोसथसीलं-१८० उपोसथिक-२०४ उप्पज्जनकतण्हाति-३० उप्पज्जनकपञ्जा-५५ उप्पज्जनकसुखं-२२२ . उप्पत्तिट्ठानं-२०३,२३९ उप्पन्नवीरियन्ति-२०७ उप्पन्नसा - २२४ उप्पन्नसद्धोति-५३ उप्पादक्खणेपि-१९५ उब्बाधनायाति-१०८ उब्बेगबहुलो-१०५ उब्भतकन्ति-१४६ उभतोभागविमुत्तोति-६५ उभतोविभङ्गा - २३८ उभयविपाकदानट्ठानं-४५ उरन्ति-२३ उस्सुकी-१८ उळारभावतो-१८६
ऊनभावतो-२६२
8
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________________
[ए-क]
सद्दानुक्कमणिका
एकको-१५२ एकचित्तखणे-६७ एकचित्तुप्पादपरियापन्नत्ता-२५८ एकतोति-३९,७४ एकधम्मे - १४९,१५० एकपटिवेधवसेन -२०८ एकबुद्धधारणी-७५ एकीभावेति-२३१ एकुद्देसोति -७५ एकेकलोमलक्खणन्ति-११० एकंसेनाति-७,१२१ एणिजङ्घलक्खणन्ति-१०१ एवंसद्धम्माधिमुत्तिभावेन -३८
ओ।
ओकप्पनन्ति -२२० ओकप्पनसद्धा-१०८ ओघोति-२१५ ओणमेय्याति-७५ ओदपत्तकिनी-२४० ओपपातिनो-२१६ ओपसमिकोति- २३७ ओभतचुम्बटा-२४० ओरम्भागियानि-२१९ ओरसो-३७ ओरोधेय्यामाति-१४ ओसक्केय्यामाति-२९ ओसारितन्ति-७६ ओसीदनन्ति--२३४ ओहनन्तीति-२१५ ओहारितोति-३६
कक्खळन्ति-२० कक्खळभावो-२२२ कङ्घति-१७१ कण्णसुखन्ति-१११ कण्हन्ति-५६ . कण्हविपाको-२१४ कण्होति-३५ कतकम्म-९२,२१४ कतपुञो-२५४ कत्तिकादिनक्खत्तसमझा - ४१ कत्तुकम्यताकुसलधम्मच्छन्दो-१९३ कत्तुकम्यताति-१९३ कदरियता-१२० कदरियो-१२० कन्तं-२१० कप्पितकेसमस्सूति-१३४ कम्पनभावं-६ कम्पेय्याति-७५ कम्मकरणट्ठानं -१२० कम्मकिलेसाति-११५,१२४ कम्मकिलेसेहि-१३६ कम्मक्खयकरजाणं-२५९ कम्मट्ठानतन्ति-२१० कम्मधारयसमासञ्च-२०६ कम्मन्ति-२५, ६३,९७,१०१,१२१,१२२, १५५,
१७०,२५९ कम्मन्तो-१२० कम्मपथभावोति-२४१,२४२ कम्मपथसम्मादिट्ठिया-१४१ कम्मपथोति-२४२ कम्मफलं-७१ कम्मवाचाति-१५९ कम्मविज्ञाणं-६३,२११
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________________
[20]
कम्मस्सकतन्ति - १८६ कम्मस्सकताजाननपञ्ञाति - १०१
कम्मस्सकताञाणं - १०१, १०८, १६३
कम्मस्सका - २३६
कम्मायतनं - १८६
कम्मं - ९३, ९४, १०७, १०९, ११३, ११८, १२०,
१२२, १२४, १६३, १७०, १७४, १८६, २१०,
२१५, २३४, २४२
करणवचनन्ति - १४ करुणाखेत्तेपि - १३० करुणाचेोविमुत्तीति - १६१
करुणाति - १६१
करुणाब्रह्मविहारमाह - १६१
कलीति - ११३ कल्याणकारी - १८९ कल्याणपुथुज्जनतो - २२७
कल्याणमित्तताति- - १५६ कल्याणमित्तोतिआदिना - १५६
कसिणसम्भेदोति - २३९
काकक्खीति - १०९
काकस्सरा - १११
काणोति - १०९
कातब्बकिरियं - ४
कामकिच्चन्ति - १८५
कामच्छन्दनीवरणं - २१८
कामतण्हाति - १६८, १६९
कामधातु - १६८
कामधातूति - १६७
कामपटिसंयुत्तोति - १६६, १६७
कामयोगविसंयोगो - २५४
कामरागविनिमुत्तो - २३२
कामरागानुसयोति – २३२
कामवितक्को - १६६ कामसङ्कप्पोति आदिना - १६७ कामसुखल्लिकानुयोगन्ति - ७२ कामावचरकुसलधम्मा - ९५
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
कामावचरधम्मविसयो - १६९
कामासवो - १७० कामूपपत्तियोति - १८५
कामेसना - १७० कामेसुमिच्छाचारं - ४२ कामोघो - २१५
कामोति - २३८ कायकम्मन्ति - २४२
कायगतासतीति- २५०
कायचित्तउपधिविवेकेहि - २५८
कायदुच्चरितन्ति - १७५
कायदुच्चरितादिधम्मं - १५५ कायमोनेय्यं - १९१
कायवचीसुचरितं - २६
कायवाचानं - २३८
10
कायसखीति - ६६
कायसञ्चेतना - २४२
कायसमुट्ठाना- १६५ कायसुखं - ३२
कायसुचरितन्ति - १६५ कायसुचरितादिपुञ्ञकम्मं - ११३
कायानुपस्सनावसेनेव - २०७ कायिकचेतसिकवीरियं - १९४
कायिकवाचसिककम्मे - २६
कारणमहन्तत्ताति - ७६
कारुञ्ञन्ति – ७५
कालोति - ६५, १७१, २२०
काळकं - ५६
काळसीहोति - ९
किच्चसिद्धिया - ५७, १०२
किच्छतीति - १६९
किञ्चनाति - १७७
कित्तिताति - ८०
कित्तिवण्णहरा - १२९ किलिट्ठन्ति - ५५ किलिट्ठा -- ११५
[ क क]
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________________
[ ख ग ]
किलिस्सननिमित्तत्ता - ११५ किलिस्सन्तीति – ११५ किलेसमलरहिताति- २२१ किलेसविमुत्तिञाणेति - ६९ किलेससङ्गणिकन्ति - ६९
किसथूलेनाति - ७६
कुक्कुच्चन्ति - १४८ कुक्कुरवतिकोति - ४
कुज्झनसीलो - २२६
कुभित्तं २०४ कुण्डकन्ति - ४२ कुत्तेनाति - १४ कुप्पनाकारन्ति - ६ कुम्भनन्ति - ११९
कुलसम्पन्नाति - ३४
कुसलकम्मपथधम्मा - ९५
कुसलकम्मं - ८६, ९२, ९३, १००, ११०, ११३, १२२
कुलचित्तुप्पादो - ६२
कुलचित्तं - २१८, २२२, २२७
कुसलज्झानं - १८५
कुसलधम्मा - ५० कुसलपञ्ञत्तियन्ति - ५१ कुसलपठमज्झानं - १८५
कुसलमूलं - २४३ कुसल - सद्दोति - ५८ कुसलाकुसलकम्मानि - ४५ कुसलाकुसलविपाकविञ्ञाणं - २२५
कुसलोति - १९३
कुसीतोति - २३४ केवलपरिपुण्णन्ति - १३३
केवली - १३४
केसकम्बलं - २००
केसरसीहोति - ९ कोजवन्ति - ९६ कोञ्चसकुणेहीति - १४२ को - १०
सद्दानुक्कमणिका
कोधसामन्ता - १६१
- ६
कोपन्ति कोरमट्टकोति - ६ कोसल्लन्ति - ५८
ख
खग्गविसाणकप्पोतिआदीसु - १९७
खणभङ्गुरा - १९६ खणिका - २३६ खत्तियवंसोति - १९७
खन्ति - १६०, १८७ खन्धपञ्ञत्तीति - ८८
खमतीति - २१२
खमोति - २३८ खयगामिनियाति -२२१
खयधम्मं - ५०
खये त्राणन्ति - १६४
खिड्डापदोसिकं - ११ खिपितब्बन्ति - ४३ खिलाति - ९४
खीणत्ताति -३६
खीणासवोति - १८२
खुरचक्कधरन्ति - १७८ खेत्तविसुद्धियाति - ३० खेमत्ताति - ८१
11
ग
गणका - २७ गणसङ्गणिकन्ति - ६९ गतिविभावनं - ६ गन्थकारकिलेसानन्ति - २१७ गन्धब्बाति - ३१,१३८
गब्भधारणं - ४२
गंभोक्कमनेसूति - ६०
[११]
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________________
[१२]
गमनवीथितो - ४० गमनसमत्थायाति - ६९
गरुचित्तभावो - २५८
गरुचित्तो - २५८ गरुतरविपाकोति - २२
गहणट्टेन - २१५
गहपतिनेचयिका - ८ गिलानपच्चयो - २०५, २१२
गिहिब्यञ्जनेन - ८४
गिहिविनयन्ति - ११४ गिहिविनयो – १३१
- ४३
गुणोति - १११ गुत्तद्वारोति - ६८ गुम्बगुम्बाति - हात - २०५ गूळ्हगण्डसदिसजिव्हा गूळ्हजिव्हाति - १११ गेधजातोति - १७
गोचरोति - २३
गोतमगोत्तो - १३८
गोतमन्ति - १३६
गोतमो - १२, १५ गोत्तपटिसारिनोति - ४४
गोत्तरक्खिता - २४० गोत्रभुं - १७० गोहीति - ९ गोवीथीति - ४०
घ
-- १११
घननिवासतन्ति - ३० घननिविद्वतं
-३०
घरदेवता - १४७ घरावासकिच्चं - १४७ घासच्छादनादीनं - २३५
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
च
12
चक्कन्ति - १७८ चक्कलक्खणन्ति - ९७ चक्कवाळन्ति - ३८
चक्खायतनं - १०३, १६०
चक्खुद्वारिको - २२५
चक्खुधातु - १०३,१६० चक्खसोतविय्या - १८९
चतुअरियसच्चं - १८८ चतुकिच्चसाधकं - १९४ चतुक्कोण्डिको - ४ चतुक्खन्धनिब्बानानि - १५३ चतुचत्तालीसत्राणानियेव - ४९ चतुत्थअरियवंसो - २१२ चतुत्थज्झानिकफलसमापत्तीति - ७२ चतुत्थज्झानं - ६२, ६४, १५१, १८१ चतुत्थसच्चपटिवेधं- - ८० चतुपारिसुद्धिसीलन्ति- - २५९ चतुब्बिधपरिसुद्धिवन्तं - २५९
चतुभूमिकाति - १०३
चतुमग्गञाणं -- ८५
चतुमहानिकायेसु - २६२ चतुयोनिपरिच्छेदकत्राणं - ४८ चतुरोघनित्थरणत्थाय - २० चतुसच्चकम्मट्ठानं - २१० चतुसच्चधम्मं -
- २०९
चतुसच्चसम्पटिवेधावहं - २१०
चन्दननागरुक्खा - १४१
चरण - २३, २८, १०१ ११८, २०१, २०४ चलेय्याति - ७५
चागो - २१४ चातुयामसंवरसंवुतो - १९ चायाम- १९ चारित्तसीलं - १६५
[घ-च]
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________________
[छ - झ]
सद्दानुक्कमणिका
___ [१३]
चारित्तं-२८ चित्तगेलनं-२१८ चित्तन्ति-२६,१५१,१६० चित्तविवेकोति-१८७ चित्तसङ्घारा-६१ चित्तुत्रासभयन्ति-८ चित्तुप्पादो-१६७,१७६ चुतिअनन्तरन्ति - १७४ चुतोति-४ चुन्दत्थेरेन-७९ चूळपासादाति-३३ चेतनाजनितभावेन -२४२ चेतनाति- १६५ चेतनासम्पयुत्तधम्माति-१६५ चेतसिकपरिळाहो-११३ चेतसोविनिबन्धा-२२२ चेतियं-२२५ चेतोपरियाणन्ति-६३ चेतोपरियजाणं-६१ चेतोविमुत्तीति-२५१ चेतोसमाधीति-२५१
जग्गितोति-१२५ जङ्घपेसनिका-१०१ जनपदोति - ४, ११२ जम्बुदीपे-७५, १३७, १४१ जयं-६८ जरामरणनिरोधगामिनिं-४९ जलजपुफेहि - १४१ जलन्ति-१२३,१३३ जवनपञ्जा-१०४ जागरियानुयोगमनुयुत्तो-६९ जातिखेत्तन्ति-७४ जातिजरामरणिया-२१ जातिथेरो-१८२ जातिभयं-१६३ जाननकइन्द्रियन्ति-१८८ जाननजाणं-१८६ जायतीति -- १३७, २२९ जिगुच्छनवादो-१६ जिनन्तो-११९ जिनोति-११९ जिव्हातालुचलनादिकरवितक्कसमुट्ठितं-६१ जूतकरोति - ११९ जूतपमादट्ठानानुयुत्तो-११९ जूतं-११९ जेगुच्छं-१६
छन्दरागो-१३९ छन्दवासिनी-२४० छन्दसमाधि- १९४ छन्दिकताति-१९३ छन्दोति-१९३ छादेन्तन्ति-७६ छिन्नट्ठानन्ति -५५ छिन्नभिन्नकोति-१२० छेदकवाद -३५
झानचित्तं - २२३ झाननिकन्तीति- १६८ झानन्ति-६२,१५० झानपरिकम्म-१८० झानभावना-१५१,२१२
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________________
[१४]
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
[ञ-त]
झानविपस्सनादिवसेनपि- १९८ झानविमोक्खादीनं-१८७ झानसमापत्ति-१९६
जाणजालं-१४६ आणदस्सनन्ति-१६३, १९५ जाणदस्सनविसुद्धीति - २५९ आणबलं-१५ आणरहितचित्तं-१८० आणवादो-७ जाणसम्पयुत्तचित्तानि-२२८ आततीरणपहानपरिचाहि-२४९ आतिब्यसने-२१९ जायप्पटिपन्नो-८० आयो-८०,१६८
तण्हासंयोजनानन्ति-३६ ततियज्झानसुखन्ति-१८६ ततियज्झानं-६४ तथागतप्पवेदिताति-६६ तथागतोति-८५ तथारूपचित्तहेतुका-७ तन्दीकतोति-७६ तपनिस्सितकोति-१६ तपस्सिनोति-१६, १८ तपस्सीति-१८ तपोजिगुच्छाति-१६ तपं-१६, १७ तमोक्खन्धो-१७५ तमोति-२१६ तरुणविपस्सनापञ्जा-२५८ तरुणसमथपञाव-२५८ तिकिच्छनत्थन्ति-१९२ तिक्खपञाति-१०४ , तिणसीहोति-९ तित्थन्ति-२०० तित्थियपरिवासं-३३ तिदिवपुरवरेन- ११२ तिन्ताति-१८६ तिपिटकचूळनागत्थेरवादो-६५ तिपिटकचूळाभयत्थेरवादो-६५ तिपिटकमहाधम्मरक्खितत्थेरवादो-६५ तिवेदनो-२४२ तुच्छपुरिसाति-२ तुरितकिरिया-४९,१७६ तुसिता-१८५,१८६ तेजोधातु-१७७ तंसमुट्ठापकचित्तं-६१ तंसम्पयुत्तधम्मा-२४४,२४५
ठपितचित्ताति-५५ ठातीति-६० ठानाट्ठानता-१५७ ठानुप्पत्तिका-५५ ठानं-२९,४१, ४२, ६७, ७३, ७६, ११५, १२८,
१३४,१४६, १४७, १५७, २२८,२३९ ठितञाणं-२५९ ठितधम्मो - ८१ ठिति-१४९, १७२, २११
तक्को --५४, १६७ तचप्पत्ताति-१९ तण्हाछन्दो- १९३ तण्हाति-३६,१६९
14
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________________
[थ-द]
थ
थद्धो
- १८,१३०
थम्भरहितोति - १३० थम्भितभावेन - १३०
थामप्पत्तग्गहणो - ९२ थिनमिद्धविनोदन आलोको
थिरग्गहणोति - ९२
थिरभावं - ५५ थिरवीरियेनाति - ७२
थिरोति - ८१ सन्ति - ४२ धूपति ७८ धूपं - ७८
-
थूलन्ति - ९
थेरवादानं - ६५
थेरोति - ५६, १८२, १८३
थोमेतीति - २५०
द
दक्खिणाति - १७८ दक्खिय्यो - १७८
दन्तकूटं - १७
- १९५
दमनादीहीति – २६
दलिद्दमनुस्सा- २७
दवाति - ४९, १७६ दस असेक्खधम्मे - २६१ दसुत्तरसुत्तन्तधम्मेन - २०६ दसुत्तरोति - २४८
दस्सनन्ति - १६२
दस्सन-सद्द - १८९ दस्सनसमापत्तीति - ६४ दस्सनेनाति - १४
दानचेतना - १८३
सद्दानुक्कमणिका
दानन्ति - ९७, २३४ दानपच्चयाति - २३५
दानपारमिं - १८३ दानमयचित्तं - २३५
दानमयं - ९६, १८३
दानलक्खणा - १२७
दानसीलादिकुसलकम्मं - २२९ दानादिपुञ्ञकम्मानि - ९७ दानादिसङ्ग्रहकम्मन्ति - १०० दारुचक्कं - २५४
दिधम्मवेदनीयानम्पि - १७४ दिट्ठधम्मसुखविहारज्झानानीति - दिट्ठधम्मसुखविहारोति - ७२ दिट्ठधम्मिकादिसम्पत्तीनं - १०७ दिट्ठधम्मो - ७२, १९४ दिट्ठमत्ते- १३९ दिट्ठसुतमुतविञ्ञातवसेन - दिट्ठिगतिकाति - ८७ दिट्ठछन्दो - १९३
- २४२
दिट्ठजुगतं - १८४
दिट्ठिपञ्ञत्ति – ८८
दिट्ठिपटिवेधेति – २३१
दिट्ठियोगविसंयोगो - २५४
दिट्ठिविसुद्धीति - २५९
दिट्ठिसम्पदा - १५७
दिन्नोति - ५६
दिब्बचक्खुत्राणं - १६४ दिब्बचक्खुपञ्ञाविनिमुत्ता - १८८ दिब्बचक्खुपादकज्झानसमापत्तीति - ६२
दिय्यनवसेनाति - ९३
दिवा - ४१, ७९, १९४
दिसागमनीया - २४७ दिस्सतीति - ४०, १३३ दीघनिकायमहाअट्ठकथायं - २६२ दीघनिकाये - १, ३३ दीपभावो - २३
15
- ७२
[१५]
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________________
[१६]
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
[ध-ध]
द्वयगामिनी-८ द्वयंद्वयसमापत्तिया-१८५ द्विजिव्हाति-१११ द्विधाभूतजिव्हा-१११ द्वेज्झजाताति-७८ द्वेधिकजाताति-७८
दीपितोति-१९४ दीपो-२२, २३ दुक्खताति-१७३ दुक्खनिब्बत्तकन्ति-८० दुक्खनिरोधगामिनी-६६ दुक्खनिरोधोति-६६ दुक्खन्ति-६६,८७, १५५, १७३, १७८ दुक्खपटिपदा-६७ दुक्खमं-७२ दुक्खवेदनं-१७३ दुक्खसच्चन्ति - ६६ दुक्खसमुदयोति-६६,८७ दुक्खं-११, ४६, ४८, ६६, ७२, ९१,११९, १४०,
१५२, १५४, १६३, १६६, १८६, २१०, २२१,
२२३ दुतियज्झानं-६४,२५५ दुतियविमुत्तिग्गहणञ्च-२४५ दुद्दसत्ताति-२१० दुप्पच्चक्खकरोति- २४९ . दुप्पटिपत्ति-१५५
दुब्बलभावतो - २१३ दुम्मनोति -८६ दुस्सपावारिको-४७ दुस्सील्यादिपापधम्मानं-२१३ देय्यधम्म-९६,१८३,१८४ देवताति-१४७ देवनिकायोति-२३७ देवानमिन्दो-१३२ देसनामयं-१८४ दोवचस्सता - १५५,१५६ दोवचस्सायन्ति-१५९ दोसक्खयो-२२९ दोसन्ति-६ द्वङ्गलकप्पोति - १३४ द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खण-१३५ द्वयकारीति-४५
धजालूति-३१ धजाहटा-२४० धतर?महाराजस्स-१३८ धनक्कीता-२४० धममानन्ति-५४ धम्मआणन्ति-१३२ धम्मकामोति - २३८ धम्मकायोति-३८ धम्मचक्कन्ति -१३२ ... धम्मच्छन्दोति--१९३ धम्मजाणं-२०९ धम्मट्ठितिजाणन्ति-५०,२५९ धम्मतण्हाति-२२५ धम्मदानयजन्ति-१०० धम्मदायादो-३७ धम्मनिज्झानक्खन्ति-१८७ धम्मनिम्मितोति-३७ धम्मन्वयेनाति-५२ धम्मपटिसम्भिदा-४८ धम्मपदन्ति-२१२ धम्मभण्डागारिको-७९ धम्मभूतो-३८ धम्ममयत्ताति-३८ धम्मरक्खिता-२४० धम्म-सद्दो-२०८,२३२,२४८ धम्मसभावोति-३८ धम्मसंहितन्ति-८७
16
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________________
[न-न]
सद्दानुक्कमणिका
[१७]
धम्माति-३५, ६६, १११, १८२, १९१, २३०, २३५, | नामयतीति-१५३, १५८, १५९ २३७,२४५,२५२
नाळिकाति-४२ धम्मानुधम्मपटिपत्तिया-१५५२३०
निकामलाभीति-७२ धम्मायतनं-१०३
निग्गमनं-२१० धम्मिकवंसेति-१२५
निग्घोसो-१४ धम्मिकाय-१२५
निग्रोधो-१५ धम्मोति-२२, २३,१५०,१५२,१५५, २०९,२११, निघंसनन्ति-५४ २३८,२४८, २५१, २५९
निचयन्ति- १२३ धातुकुसलताति-१५६
निचयो-८ धातुपरिनिब्बानन्ति -७४
निच्चकप्पन्ति-१३४ धारणस्थन्ति-८२
निच्चपुष्फिताति-१४२ धारणसमत्थायाति-६९
निच्चलग्गहणोति-९२ धारेतीति-७५,२११
निच्चलोति-२११ धितिमाति-६९
निच्च-सद्दो-१२५ धुतङ्गसुद्धिको-१७
निच्चसीलं-१८० धुतधम्मेहि-१९
निट्ठानगमनन्ति-१७२ धुरभत्तं-२०४
नित्तन्दीति-६८ धोररहो-७२
निदस्सनं-७४,७६, ८४,१५१,१५३, १७९ धोवनुपगेनाति-२०१
निदंसेसीति-१०० निद्दोसेति-२५ निन्नपोणपब्भारचित्तताति-४२
निन्नानाकरणतो-१७० नत्थिकवादी - २२६
निपुणयोगतो-१०७ नत्थिभावो-१७३
निपुणाति- १०५ नदीविदुग्गन्ति - २९
निप्पदेसतोति-२१४ नन्दीरागसहगता-१८३
निप्फादेस्सतीति-८० नमस्सति-११५,१३०
निबद्धवासन्ति - १४३ नमेय्य -७५
निबद्धवासिनोति-१३५ नवलोकुत्तरधम्मदायं-३७
निब्बत्तीति-२५३ नवलोकुत्तरधम्मनिस्सितन्ति-८७
निब्बानदिट्ठाति-१३६ नवलोकुत्तरधम्मा-१६८
निब्बानधातुया-४६,७४ नाटपुत्तिया -७८
निबिदासहगताति-२५५ नानत्तकायानानत्तसञी-२३६
निब्बुरहमानायाति -४३ नानादिजगणायुताति-१४२
निब्बेधिकपा-१०५ नाभिमण्डलं-२०२
निमन्तनं-२०३ नामकायपरिसुद्धिं-२२१
निमित्तन्ति- ९७,२२७
11
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________________
[१८]
नियमलक्खणन्ति - १८४ निय्यातीति - ३, ५७, ८० निय्यानट्टेनाति – ५९
निय्यानसीलोति - ५७ निय्यानिको - ५७
निरत्थकचित्तसमुदाचारो - ४९
निरन्तरपूरितोति - ३०
निरयगामिनीया - १७०
निरयो - २१८ निरुत्तिपटिसम्भिदा - ४८
निरोगोति- १९२
निरोधतण्हाति - १६९ निरोधधम्माति - १०५,२५७
निरोधधातु - १६८
निरोधसच्चं - २१०
निरोधसमापत्ति - ५०
निरोधाति - २३७ निरोधानुपस्सनाञाणेति - २२९
निरोधोति - २५३ निल्लज्जताति - १५५
निवातवृत्तीति - १३०
निवापो - १५
निविट्ठाति – ३७ निवुत्थवसेनाति - ९१
निवेसेन्तीति - १२५
निस्सरणपञ्ञ - २०३
निस्सरणीयाति - २२३
निस्सरणं - २०३, २०४, २२३, २५३
निस्सारदाति - १३६
निस्सितन्ति - ८५
नीवरणादिपापधम्मानं - २०८
नेक्खम्मन्ति - २०६ नेक्खम्मवितक्कोति - १६६ नेक्खम्मसुखं - ७२ नेताति - १३१ नेमि अभिमुखन्ति - २५
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
न्हातकिलेसत्ताति - १३५
पकतियाति - ४२ पकतिलोकियमनुस्सानं - ६० पक्खिकं - २०४
गुणन्ति - २५९
पगुणसमापत्तियोति - २५९ पच्चक्खञाणन्ति - ५५
पच्चताळेसीति -२३
पच्चत्थिको - ९४
पच्चनीकदिट्ठीति - २८
पच्चनीकधम्मानं - ७३ पच्चनुभवतीति – ४६ पच्चन्तिमं - ५५ पच्चयअप्पिच्छो- २५८
18
पच्चयोति - १४९, १५९, २५१ पच्चवेक्खणञाणन्ति - २४४
पच्चवेक्खणनिमित्तं - २५६
पच्चवेक्खणपञ्ञा - १५७, २५१
पच्चामित्तो - ९४
पच्चुपट्ठितकामाति - १८५
पचुपादीति - २३
पच्चेकबुद्धो - ५१
पच्छाभत्तन्ति - ५१ पच्छिमकपटिवेधतो - ७५
पच्छिमकसीलभेदतो - ७५
पजहनत्थन्ति - ८८
पजहन्तस्साति - २०७, २४३
पञ्चकामगुणा - १६८ पञ्चकामगुणिको - १६८
पञ्चक्खन्धाति - ३६
पञ्चङ्गविप्पहीनो- - ३६ पञ्चञाणिकोति - २५६ पञ्चद्वारिककायोति - १८९
[प-प]
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________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
[१९]
पञ्चसिक्खापदा-२४२ पञ्चसीलं-१४१ पञ्चुपादानक्खन्धाति-१७२ पञत्तसिक्खापदं-१६५ पञत्ति-४४,८८ पञत्तीति-१३४ पञाचक्खूति-१८८ पजाति-४७,१०७, २५९ पञापारमिया-७० पञ्जावाही-६७ पाविमुत्तोति-६५ पञ्जा-सद्दो-१५७ पहुद्धारो-७९ पटवासिनी-२४० पटिकुटतीति-९३ पटिक्कूलेति-७० पटिक्खेपसिद्धितो-२३ पटिघोति-१७९ पटिचरतोति-२३३ पटिच्चसमुप्पादाति-१०३ पटिजानातीति-७ पटिञातकरणं- २३३ पटिनिस्सग्गी-१८ पटिनिस्सज्जनसीलो-१८ पटिपक्खच्छेदनसमत्था-९१ पटिपक्खधम्मा-२६१ पटिपत्तीति-२०० पटिपदन्ति-७७,२४७ पटिपदाति-६६,७४ पटिप्पस्सद्धिविमुत्तीति-२२४ पटिभानपटिसम्भिदा-४८ पटिभानसम्पदा-६९ पटिभोगिया -११० पटिलद्धदुतियज्झानं-६४ पटिवानरूपा-७८ पटिवानी-१६३
पटिवानं-७८,१६३ पटिविचिनित्वाति-१०७ पटिवेधधम्मो-२१८ पटिवेधपञ्जा-१५७ पटिसन्थारो-१६१ पटिसम्भिदामग्गे-२०७ पटिस्सतोति -२०३ पटिहननं-१७९ . पटिहारो-८१, ११० पठमज्झानसमाधि-२५५ पठमज्झानसमापत्ति-६२ पठमज्झानसुखन्ति-१८५ पठमज्झानानुरूपसभावा- २५५ पठमज्झानं-६२,१६६, २२३,२५५ पणिधायाति-२२२ पणिपाताकरणलक्खणं-१८ पणिहिताति-६१ पणीतन्ति-१८६ पणीतपणीतन्ति-५६ पण्डरन्ति - २१४ पण्डुपलासन्ति-९६ पण्डुसीहोति-९ पण्णानीति-७०,२०१ पण्हिकोण्डा-९८ पत्तानुप्पदानं- १८३ पथविकम्पनकारणं-७६ पथविचलनस्स-७६ पथवीधातुआदयो-१५६ पथवोजं-१४८ पदहतीति-१९४, २२० पदहनभावो-२२० पदहितब्बतोति-६२ पधानभावं-५६,१८६,१९४ पधानवीरियं-२२०,२३४ पधानानि-४५,२०७ पन्तानीति-१४
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________________
[२०]
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
पन्नसखाति-१२० पब्बन्तीति-२७ पभेदाति-२५२ पमाणेन -७८, २०४ पमोदलक्खणं-२२४ पयोगसम्पादनत्थन्ति-१२७ परचित्तञाणसहगता-६४ परचित्तविभावनं-६ परनिम्मितकामा - १८५ परनिम्मितवसवत्तीनं-१८५ परमत्थदीपनियं-५१,१४९ परमत्थमञ्जूसायं-१८१,१८९ परमत्थविसुद्धिनिब्बानञ्च -१६२ परमवोदानप्पत्तानन्ति-१८७ परमसुगन्धं-१३९ परवादभिन्दनन्ति-२१ परसञ्चेतनाय-२१६ परामसतीति- १८,१६९ परिकम्मन्ति- १४३ परिकम्मेनाति-१५९ परिचारेन्तीति-७२ परिच्चागचेतना-९३,१८३ परिच्छिन्दनकजाणं-६४ परिञादिकिच्चकरणं-१८२ परिञायाति - २५१ परिणमतीति-२०८ परिणमनसीलं-२०८ परिनिब्बानसुत्ते - ४८ परिपाचेन्तीति - २२४ परिपुण्णन्ति -१३३ परिपुण्णमण्डलो-४० परिबाहिरोति - २०४, २०५ परिब्बाजिकायाति-७२ परिभासन्ति -७८ परियत्तिअप्पिच्छोति-२५८ परियत्तीति-२१०
परियादियमानोति-६९ परियुट्ठानपरिच्चागं - २१४ परियेसितन्ति-८६ परियोसानकल्याणं-१९८ परियोसानदस्सनत्यन्ति-५९ परियोसितसिक्खो-१८२ परिसुद्धताति-३५ परिसुद्धपरिवारो-११२ परिसुद्धपाळिदस्सनत्थन्ति-१९ परिसुद्धसीले -६८ परिसुद्धाति-१६ परिसोधेतीति-६८ पलासतीति- २२६ पलासीपुग्गलो - २२६ पलिबुद्धजिव्हा-१११ पलिबुन्धतीति-२१५ पवत्तचित्तचेतसिकधम्मा-१८० पवत्तत्राणं-८५,१६३, १९१, २०८ पवत्ततण्हा- १५४ पवत्तनकाणन्ति-२५४ पविवित्तस्साति-२५८ पविसतीति-६०,११८,२२३ पवेदनं-७८,१४३ पसटन्ति-१०९ पसादसद्धा-१०८ पसारियतीति-९३ पसंसनीयाति-१३१ पस्सद्धकायसङ्खारो-३६ पहातब्बोति-५६, २०७, २४९ पहानपरिचाव-२५१ पहानानुपस्सनायाति-२४९ पहासीति-११२ पहूतजिव्हादिलक्खणवण्णना-१११ ।। पाकारसन्धि-५५ पाटिपददिवसेति-३९ पाटिपदिकं -२०४
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________________
[फ-फ]
सद्दानुक्कमणिका
[२१]
पाटिहारियपझ-२०३ पाटिहिरो-८१ पाणातिपातो-११६, १६५,१६६ पाणिस्सरन्ति-११९ पातब्यतन्ति-४३ पातिमोक्खं-७४ पाथिकवग्गट्ठकथाय - २६१ पादापच्चेति-३४ पापकम्मानुभावसमुपट्ठितेन-१७८ पापणिकन्ति-२०० पापभयं-१५५ पापमित्तताति-१५६ पापिच्छो-१८ पामोक्खो-१०० पारमित्राणं-५४ पारमिता-७२,२३० पारमी-५४ पारिजुञ्जन्ति - १२३ पारिसज्जा - २७ पारिसुद्धिपधानियङ्गन्ति-२५९ पावारो-४७ पासादोति-२०५ पाळिअत्यं-२२४ पाळीति-६५ पिटकसम्पदानं-५३ पिट्ठपायसं-९८ पिण्डीकतन्ति-९३ पित्तविकारादिवसेन-२२० पिपासाति- १२० पियदस्सनो-१०९ पियवदू-१०० पिसुणवाचस्स-११० पीणितन्ति-८३ पीतिपामोज्जेन-१०९ पीतिसहगतमनेन - १६० पीतिसुखं -३२, ११६
पीतिसोमनस्सन्ति -- १५ पुग्गलाधिट्ठाना-१४९ पुग्गलोति-६४ पुञकम्मं -९१,९५, ९७,११३ पुञ्जकिरियवत्थूति -१८४ पुञ्जकिरिया - ९१, १८३ पुञतेजेनाति-९४ पुञफलन्ति-२४. पुञानुभावनिमित्तं-३१ पुञोति-१८१ पुण्डरीकन्ति-२१७ पुण्णचन्दमुखी-१४० पुथुज्जनदुस्सीले - ९१ पुथुज्जनपञा-१८६ पुथुदिसाति-११४ पुथुपाति-१०२ पुनप्पुनं-११७,१२२, १३१,१६४,२२२ पुष्फफलसम्पन्ना - १४१ पुब्बङ्गमताति-१०९ पुरिमुप्पन्नसमाधि-२०७ पूरेन्तेनेवाति-२५ पूवसुरा- ११७ पेक्खा-१८७ पेताति-२५८ पेमनीयोति-१११ पेमं-२४८ पोक्खरसातकाति-१४२ पोथुज्जनिकं-७२ पोराणट्ठकथायं-५७ पोरी-१६१ पंसुकूलन्ति - १९९ पंसुकूलिकणतेचीवरिकङ्गानं -२०२
Dh
फणहत्थकाति-९८
21
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________________
[२२]
फरुसवाचा - १३६, २४१ फलञाणं - २०८
फलधम्मो - २०८
फलन्ति - ११९, १३९, १४१,२५१
फलपञ्ञा - २०८, २४५, २५१ फलसतिपट्ठानं - ५८ फलसमापत्तिझानानीति - १९४
फलसमापत्तिधम्माति - २४५ फलसम्पयुत्तधम्माति - २४५
फलसीलं - २१३
फस्सवेदनादीनं - १५३ फस्ससमुदयाति - १९६
फस्ससुखं - १८५ फुट्ठन्तो - ६५ फुट्ठाति - २१
ब
बद्धजिव्हाति - १११ बलवलोभत्ताति - २७ बलवविपस्सनावसेन - १०४
बहिद्धधम्मा - २२५ बहद्धा संयोजनो - २१९
बहमुखोति - १०५ बहिवङ्कपादता - ९८ बहुकारोति - २४८, २४९ बहुजनप्पमद्दनं - १११
बहुधातुकसुते - १०२ बहुस्सुतो - १८३, १८४
बाहिरपरिस्सयो - १२७
बीरणत्थम्बकन्ति - ५
बुज्झतीति - ४६
बुद्धकरधम्मा - ९४ बुद्धकिच्चस्स - ५५
-७५ बुद्धधम्मा - ४९, १७६
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
बुद्धभावं - ९४
१-७६
बुद्धभूमि - बुद्धरस्मियो - १४८ बुद्धवचनन्ति - १८७ बुद्धविसयोति -
५
22
-
बुद्धाति ५५ बुद्धोति-७, २५
बोज्झङ्गा - ५६, ६७, २०७ बोधिजं - ८५
बोधिपक्खियदेसनापटिपाटिया - ४६ बोधिपक्खियधम्माति - २४
बोधिपक्खियानं – ४६
बोधमूले - ८५, १७५
ब्यञ्जनं - ८२, १३९, १४३
ब्यन्तीभूतन्ति - २५७ ब्यसनं - ११, २१९ ब्याकतन्ति - ८७ ब्यापादयतीति - २४१ ब्रह्मकायोति - ३८
ब्रह्मचरियवासन्ति -३६
ब्रह्मचरियस्साति - १७०
ब्रह्मजाति - ३८
ब्रह्मदायादा - ३४
ब्रह्मनिम्मिता - ३४
ब्रह्मलोकन्ति - १६८ ब्रह्मविहारभावना - २१२
ब्राह्मणकुलाति -- ३४ ब्राह्मणाति - ४४
भ
भक्खसं - ५ भगवतोति - १७५ भगवाति - ८५, १३५ भङ्गक्खणेपि – १९५ भङ्गोति- १७२
[ब-भ]
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________________
[म-म]
भण्डनं - ७८
भतो - १२६ भद्दकन्ति - २०८ भद्दजित्थे - ३१
भन्तेति - ५९, २०४
भयन्ति - १२४, १२६
भयं - ९६, ९८, १२२, १२६, १६३, २३४
भवङ्ग - १५६
भवतण्हाति - १६८ भवदिट्ठसहगतो - २१५
भवदिट्ठीति - १५४
भवनिरोधं - १६९
भवरागमलं - २२१
भवरागोति - २१५
भवसंयोजनं - ३६ भवासवो- - १७०
भवो - १५४, २१२ भस्सतीति - ३३ भस्ससमाचारेति - ६७ भारतयुद्धसीताहरणसदिसन्ति - ८५
भारा - ३६
भावना - १६२, १८०, १८९, २४९, २६१
भावनाचित्तेन - २३९
भावनाति - १६४ भावनानयो - १८० भावनानुयोगक्खणे - २१२ भावनानुयोगसम्पत्तिया - १४८
भावनानुयोगो - २२०
भावनापञ्ञति - १८७
भावनाबलेनाति - १०६
भावनामनसिकारलक्खणं - १७
भावनारामअरियवंसं - २०५, २०६
भावनारामोति - २०६ भावनावीथिपटिपन्नं - १६२ भासतीति - ६८, १२३ भिक्खुभावन्ति- ३३
सद्दानुक्कमणिका
भिक्खूति - भिन्नपो - ७८
भिय्योकम्यताति- १६३ भय्योभिञ्ञो - ५३
भूतताति - २३२
- २४७
भूतधम्मोति - १९३
भूतोति - ३८, १३६ भेदकरवाचन्ति - ६७
भेरण्डो - ९ भोगवासिनी - २४०
भोगका - ९७
भोजका - ९७
भोजनतण्हाय - ५
भोजनन्ति - १३९
भोजने मत्तञ्जू - ६८ भोवादिनोति - २४४
मक्खिकण्डकरहितन्ति - ३९ मक्खेतीति - ९९,२०४, २२६
मक्खत्वा - ९९
मग्गकिच्चदस्सनं - ८७
मग्गगामिनो - १४
मग्गञाणन्ति - २०८
मग्गधम्मानं - २५८
मग्गपञ्ञा - १६३, २०८, २३०
मग्गफलत्राणं - २०९
मग्गब्रह्मचरियवासं - ३६, १३५
मग्गभावना - १६२
मग्गमूलं - ३७ मग्गसमाधिस्स - १८८
मग्गसम्मादिट्ठि - ४६, १८८, २३१ मग्गामग्गे - २५९
मग्गोति- ५७
मङ्गलकथा - १४४
23
[२३]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[२४]
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
[म-म]
मच्छरियचित्तं-१३९ मज्झत्तवेदना - ८६ मज्झत्तोति-८६ मज्झन्हिकोति-४१ मज्झिमधातु-१६८ मज्झेकल्याणं-१९८ मञ्जतीति-१० मणिमयन्ति - १३९ मत्त ताति-१७ मत्तेय्यता-२८ मधुगण्डन्ति-१४८ मधुपटलं-१४८ मधुरताति-१११ मधुरोति-१११ मनसिकारकुसलताति - १५९, १६० मनसिकारजाननपञ्जा-१५७ मनसिकारनिरुत्तिं-१६० मनसिकारोति-१६० मनापन्ति-२१० मनुस्सधम्माति-३ मनुस्सा-८१, ९२, १३९,१४७, २०० मनोकम्म- ४९,१७६ मनोदुच्चरितन्ति - १७५ मनोपदोसिकन्ति-११ मनोपरिजाति-१९१ मनोमयिद्धि-२५० मनोविज्ञाणधातूति- १५७ मनोसङ्खारा - ६१ मनोसञ्चेतनाहारोति-१५१ मन्तजप्पोति-६१ मन्तस्साजीविनो-२७ मन्ताति-५, ६८ मन्दसद्दानीति-१४ ममङ्कारविरहिताति-१३९ ममत्तविरहिताति-१३९ मम्मनाति-१११
मरणचित्तविभावनं-६ मरणानुपस्सनाजाणेति-२६० मला-११३ महत्ताति-१३६ महन्ता-७६,१३६ महप्फलाति-१३८ महाकरुणासमापत्तिं-५० महाकस्सपो-२०२ महाकारुणिको-१७६ महाकिरियचित्तानि-२२८ महाचित्तचेतनानन्ति-१८० महाचित्तानीति--२२८ महाथेराति-५१ महानेरूति-१३९ महापञो- १०२ महापदानटीकायं - १३२ महापुरिसनिमित्तानि- ९० महापुरिसब्यञ्जनानि-९० महापुरिसलक्खणन्ति - ९५ महापुरिसलक्खणानि - ९०,११३ महापुरिसोति-११० महामत्ता-२७ महावजिरञाणं-५०, ५१ महाविपस्सनानं-२०७ महाविहारवासीनन्ति-२६२ महिच्छस्साति-२५८ महिद्धिका-६८ महोघो-५२ मातिकाति-२०० मानकरणन्ति-१९२ मानमदकरणेनाति-१७ मानसिकसीलं-१६२ मानेन्तोति-२५ मानोति-२५१ मायावी-१८ मासाचितं-२३४
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________________
[य-य]
सद्दानुक्कमणिका
[२५]
मेत्ताकरुणाझानादीनि-१६६ मेत्ताकरुणासतिसम्पजाहि-९३ मेत्ताझानेति-१६६ मेत्ताति-२१२ मेत्तानि - १२९ मेत्ताभावनाय-१३० मेत्तामनसिकारेन-१४३ मेथुनधम्म-४४ मेथुनन्ति-२८ मेधावी-५५ मोघमन्ति -१८ मोनेय्यपटिपदा-१९१ मोनेय्यानि-१९१ मोरनिवापो-१५ मोहो-२२८ मोळिबन्धाहीति-७२ मंसचक्खु-१८८ मंससोतस्सापि-६१
मासो-४१ मिगारमाता-३३ मिच्छाचारोति-२४० मिच्छादिट्टिकम्मस्साति-४५ मिच्छादिट्ठिको-१८ मिच्छादिट्ठीति - २६० मिच्छाधम्मोति-२८ मिच्छापटिपत्ति-१७७ मिच्छासति-२५५ मिच्छासभावोति– १७३ मित्तकरोति-१३० मित्ताति- १२२, १५६ मित्तो-१२२, २३८ मिलिन्दपज्हे-७५ मिस्सककम्मन्ति-२१४ मिस्सीभावन्ति-२९ मुच्छन्ति - २०३ मुट्ठस्सच्चं-१६१ मुट्ठस्सति-१६१ मुट्ठिकतहत्थाति-९८ मुट्ठियोगो-१७८ . मुतन्ति-८५ मुति-१८७ मुत्तिधम्मो-८० मुदुकायाति-७२ मुदुचित्तोति-२३५ मुदुचित्तेनाति-१८४ मुदुभूतचित्तो-२३५ मुदुमद्दवचित्तन्ति-२४ मुसावादोति-१३६ मुहुत्तिका-२४० मूलकट्ठकथासारन्ति-२६२ मूलन्ति-७९ मूलहतन्ति-२८ मेघो-१०६ मेत्तचित्तं-१२९,१४४
यक्खदोवारिकानं-१४२ यक्खपिसाचादीनन्ति-६० यक्खरटिकाति-१४२ यथाकामलाभीति-७३ यथादेसितधम्म- २२४ यथानुरूपन्ति -२३३ यथानुसिट्ठन्ति-१३१ यथाभूतसभावावबोधिनी-१५७ यथारुचि-४०,४३, १४०, १८५ यथालद्धअत्यवेदधम्मवेदेहीति-२६१ यथावुत्तचित्तुप्पादो-- २८ यथावुत्तसमाधिपटिलाभस्स - २२४ यथावुत्तसम्मापटिपत्तिया - १२६ यमकमहापाटिहारियादीसु-१३६ यसस्सीति-१३८
25
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[२६]
यसो - ११७, १७० याथावा- १७०, २३३ यातुन्ति - २०१
यामोति -- १३३
युत्तकथन्ति - १२२ युत्तपटिभानो - ६९ यूपो - ३१
योगकम्मं - २१०, २५९
योगो - २१५
योनियोति - २१५ योनिसोमनसिकारोति - २५२
रजनन्ति - ९६ रजनीयट्टेनाति – १६९ रतनमयसिलापथवियं - ३७
रत्तकमलं - २१७
रत्ति - ४१, १३७
रथियन्ति - २००
रभसाति - १४४
रवा - ४९, १७६, १७७
रसग्गसग्गा - १०८
रसग्गसग्गिलक्खणं - १०८
रसग्गसग्गी - १०८
रसितानि - ९८ रस्मिविस्सज्जनं - ७५
रहस्सङ्गन्ति - १३८
रागनिमित्तं - २२७
रागादिसदिसो - १८७
रासीकतन्ति - ९३
रुचि - १८७ रूप्पतीति - १५४ रूप्पनन्ति - १५४ रूपकायपरिसुद्धिम्पि - २२१ रूपक्खन्धगणनन्ति - १७९
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
26
रूपक्खन्धगोचरं - २११ रूपक्खन्धोति - १७९
रूपतण्हा - १६९
रूपधम्मा - १५८ रूपनिरोधेति – १०४ रूपप्पतिट्ठे – २११
रूपयतीति - १५८ रूपरागो - १६९
रूपवेदनादिसङ्घारनिमित्तं - २२७
रूपावचरचतुत्थज्झानं - ६४, १५० रूपावचरसमापत्तियो - ५० रोगब्यसनादीसु - २१९ रोगो - १४०
ल
लक्खणानिसंसोति - ९५ लक्खणारम्मणिकविपस्सनावसेन - १०४
लग्गचित्तताय - २१८
लज्जवं - १५८
लज्जासभावसण्ठिताति - १५५
लज्जीभावो - १५८
लाभसिद्धिया – १२७
लाभो - २३५
लामकन्ति - ७२
लामकाचारोति - २४०
लिङ्गविपल्लासं – १५५
खाजीविन्ति - १७ डुट्ठानन्ति - २३ लेणं - २०५
लेसोति - १३४
लोकधम्मा- २३५
लोकधातूति - ७५
लोकनाथो - ९९ लोकपञ्ञत्तिन्ति - ३ लोकियगुणानं - १४७
[र-ल]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[व-व]
सद्दानुक्कमणिका
२७]]
लोकियचित्तं-१९१ लोकियपा -१८८ लोकियलोकुत्तरधम्मा- २४ लोकियलोकुत्तरपति -१८८ लोकियसमाधिस्स-२५६ लोकुत्तरचित्तं -६१, ६२ लोकुत्तरधम्माति-७१ । लोकुत्तरधम्म-८७ लोकुत्तरफलविमुत्तिया -१३ लोकुत्तरमग्गन्ति-१५ लोकुत्तरसमाधिसङ्घातं-६७ लोकुत्तरसमाधि-६७ लोकुत्तरोति-१६६ लोकोति-१५५, १५९, २६२ लोभचित्तेन-१९ लोभधम्मो-२८ लोभुस्सदायाति-२९ लोमसायाति-७२ लोमहंसोति-८
वण्णाति-३४, ३८, १३३ वण्णोति-३४, ३५, ३८ वदति-१३० वयधम्मा-१०५,२५७ वरतरोति-१०६ वाक्यपरिसमापनन्ति-१८३ वाचापरिञा-१९१ वाचासच्चं-६८ वाचेन्ताति-४४ वाणिजकम्मादिकेति-४४ वादानुपातोति-७७ वादितन्ति-११९ वामतोति-२३८ वारभत्तं-२०४ वासनायाति-१२, २१ विकसितपुष्फो -- ९० विकिरेय्याति -७५ विक्खम्भेतब्बन्ति-९६ विगतथिनमिद्धो-६८,१९४ विगतपापोति- ११२, ११३ विगतरूपेनाति-७ विघातो-२२३ विघासो-९ विचक्कसण्ठानाति-१७ विचिकिच्छा-१७५, २२२ विचिनन्तोति -१६९ विच्छिन्दजननत्थन्ति-३७ विज्जासिद्धिया -१२७ विज्झतीति-१९३, २२८ विज्ञाणकसिणन्ति -२३९ विज्ञाणक्खन्धोति-१०३ विजातन्ति-८५ वितक्कविचारा-२२६ वितक्कसन्तोसो-२००,२०४ वितक्कोति-५० वितेय्याति-१०९
वङ्कक्खीति- १०९ वङ्कवङ्कोति-२० वचीकम्म-४९,१५९, १७६, २३३ वचीदुच्चरितं - १६५ वचीसुचरितन्ति - १६५ वजिरआणन्ति-५० वज्जपटिच्छादनकम्मन्ति-१०६ वज्ज - १०६ वट्टगामिकुसलं - २४ वट्टमूलसमुदाचारो-१५९ वड्वेतीति- १९, २३५ वण्णकसिणं-१२ वण्णभणनन्ति-१७ वण्णवेवज्ज-४१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[२८]
विदितेनाति - २०९ विदितोति - ५५
विद्धंसेय्याति - ७६
विधमेय्याति - ७६
विधातब्बोति - १००
विनट्ठरूपोति - ९
विनमेय्याति - ७५
विनयो - २३२, २३८, २५८
विनिपातिकाति - १८५
विनिवत्तेत्वा - ४६ विपच्चनीकसाते - १५५
विपरावत्तन्ति - ७८
विपरिणामधम्मा - १०४
विपरीतदस्सनं - १८
विपरीतसञ्ञति - १२
विपस्सनकोति - २३०
विपस्सनागब्भं - २५० विपस्सनाञाणन्तिआदिना - ४७
विपस्सनाञाणेन - २५५, २५७ विपस्सनाञाणं - ५०, १६३, १८६ विपस्सनाति - ५६, २३०
विपस्सनादस्सनतो-५० विपस्सनादिपञ्ञ - १५९
विपस्सनानन्तरो - २५१ विपस्सनानिब्बत्तिं - २३०
विपस्सनापञ्ञा - ६९ विपस्सनापरिवासपञ्ञाय - ६७
विपस्सनापादकज्झानं - ७२
विपस्सनाभावञ्चेव - २०८
विपस्सनाभिनिवेसो - २१०
विपस्सनामग्गपञ्ञा - १८७ विपस्सनामग्गो - १९१ विपस्सनारम्मणभावेन – ५० विपस्सनासमाधिभावना - १९६ विपस्सनं - १८९, २६१ विपस्सन्ती - १९०
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
28
विपस्सिसुन्ति - १३६ विपाकज्झानसुखं – १८६
विपाकधम्मधम्मा - २४
विपाकधम्मन्ति - ५६ विपाकधम्मविञ्ञाणं - २१२
विपाकन्ति - ५
विपाकसुखं - १८२, १८६
विपाकोति - २४२
विप्पकताति - १५
विप्पटिकूलगाहिम्हीति - १५५ विप्पलपन्तानन्ति - ६०
विबाधेन्तीति - ५५
विभत्तिनिद्देसो - १४
विभत्तिलोपेन - ८२
विभवतण्हा - १६८
विभवदिट्ठीति – १५४
विभवो - १५५, १६८ विभाविताति - २४१
विभिन्नोति - ३४
विमतीति - १६९
विमथनं - १८७
विमानपेतियो - १७८
विमुत्तन्ति २२३, २३५ विमुत्ताति - १३५
विमुत्तिक्खन्धोति - २१३
विमुत्तो-- ३६, ६५, ६६ विरागधम्मं - ५०
विरागानुपस्सनादिविपस्सनाञाणानुभावसिद्धे - २३१ विरागूपसहितन्ति - २५५
विरागो - २०७
विरुद्धचित्तं - ७८
विरूपानीति – १६५
विरूपो - ९, १० विसङ्घारगतानं – १८७ विसटन्ति - १०९ विसमनिस्सितो - ११७
[ व - व ]
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________________
[स-स]
सद्दानुक्कमणिका
[२९]
वेय्यावच्चं-१८३, १८४ वेरन्ति-११९ वेरप्पसवोति- १२० वेरमणीति-२४३ वेरिपुग्गलो-९४ वेवज्जं-४१ वेळुकारोति - २५० वोक्कम्म-८० . वोदानधम्म-५६ वोदानिया-२१ वोदासन्ति-१७ वोस्सग्गपरिणामिन्ति-२०७ वोहारो-३७,४४,१०८
विसयखेत्तं-७३ विसवीति-११० विसवो-११० विसाचीति - १०९ विसुद्धसीलाचारताय-११२ विसुद्धिन्ति-२५९ विसेसगामी - २४९ विसंयोजेन्तीति-२१५ विहारभत्तं-२०४ विहेठेतीति-१६७ वीथियोति-३९,४० वीरियछन्दो-१९३ वीरियन्ति - १६३,२३४ वुहानकुसलता-१५६ वुट्ठानगामिनिविपस्सना-१९०,२५९ वुट्ठानपरिच्छेदपरिजाननपञ्जा-१५६ वुत्थवासो -३६ वुत्तधम्मो - २४३ वुद्धिप्पत्तसिक्खो - १८२ वुसितवन्तो- १३५ वुसितवाति-३६ वुसितं-३६ वूपसमन्ति-६६ वेकल्यन्ति-२४४ वेगायितत्तन्ति-४९ वेदधरा-४४ वेदनाक्खन्धो-१०३,१५३,२२५ वेदनादृखित्तचित्तादीनं-६१ वेदनादिनाम-१५८ वेदनानिरोधोति-१९६ वेदनाभेदो-२४२ वेदनासञ्जा-६१ वेदवेदङ्गादिब्रह्मदायज्ज-३४ वेधा -७८ वेभूतियं-६७ वेयजनिका-९६
सक्कायनिरोधं-१७२ सङ्घरोन्तीति-१८० सङ्खारक्खन्धो-१०३,१५५ सङ्घारधम्मो-१४९ सङ्घारलोको - १४९ सङ्घाराति- १९४ सङ्घारोति-१५२ सङ्गणिकारामो-२५९ सङ्गण्हनकम्म-१०७ सङ्गहकरोति-१३० सङ्गहपदकतं-८१ सङ्गायितब्बन्ति-८२ सङ्गीति-४८, २४५ सङ्घकम्म-१७५ सच्चन्ति- ८७,२१५, २४४ सच्चपरियायो-२३२ सच्चप्पटिवेधो-१०५ सच्चानुलोमिकन्ति-१८६ सच्चोति-६८ सच्छिकरोतीति-६५,६६
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________________
[३०]
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
[स-स]
सञआक्खन्धो-१०३ सञआमनसिकारा-२५४, २५५ सठो-१८ सतगेण्डूति-३१ सतानुसारि-८५ सतिपट्टानन्ति -८२ सतिपट्ठानविभङ्गादीसु-१०२ सतिपधानाति-२१२ सतिपारिसुद्धिजं-३२ सतिसम्पजञबलेनेव -२३१ सतिसम्पजस्स - २२८ सतिसम्पजञानम्पि-२५२ सतिसीसेनाति - २१२ सतीति-१७,१६९,१७४ सतोति-२५६ सत्तदिट्ठिमलविसुद्धितो-२५९ सत्तधम्मो-१४९ सत्तबुद्धपटिसंयुत्तं -- १३४ सत्तलोकोति-२९ सत्तावासा-२३६ सद्धम्मस्सवनं-२१० सद्धम्मो-२११ सद्धाति-९१ सद्धाधनं - २२९ सद्धाधिमोक्खो-१७५ सद्धाविमुत्तोति-६६ सद्धिविहारिकं-७९ सद्धोति-६८ सनाथोति-२३७ सन्तकायकम्मादिताय - २१० सन्तधम्मपवेदनतो-२१० सन्तुट्ठीति-१६३ सन्दिट्टिकं- ११८ सन्दिट्ठिपरामासी-१८ सन्दिट्ठोति --११७ सन्धमन्ति-७९
सन्धागारन्ति-१४६ सन्धागारसालाति- १४६ सप्पाटिहिरकतं-८१ सप्पुरिसा-२१० सब्ब बोधिसत्तानन्ति-२२० सब्बञ्जभावेन-८६ सब्बसन्थरि-१४७ सभावनिरुत्तिं-१४३ सभावपकतिकाति-७६ समचायतीति - ४४ समणपुण्डरीको-२१७ समणवंसो- १९७ समणसुखुमालो- २१७ समणोति-६ समतनीति-३८ समत्तानीति-६ समथविपस्सनादिकुसलं-१८७ समथविपस्सनामग्गधम्मानं-२०६ समथविपस्सनामग्गफलवसेनाति - २२३ समथविपस्सनामग्गवसेनाति-२१३,२२३ समथविपस्सनासहगता–५९ समदन्तादिलक्खणवण्णना-११२ समन्तचक्खूति-८३ समयन्ति-४ समागमेनाति-२२ समाधिजं-३२ समाधिझानादिभेदो-२१२ समाधिनिमित्तन्ति-२०७,२२४ समाधिपरिक्खारा-२३० समाधिभावनाति-१९६ समाधियतीति-२२४ समाधीति - ४७,२५५ समानेताति-१०६ समापत्तीति-१५६ समाहत्वाति-१२३ समुट्ठापनपनं-२०३
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________________
[स - स]
सद्दानुक्कमणिका
_
[३१]
समुट्ठापेतीति-७९ समुपादिकाति-७६ समेक्खसि-१३८ समेक्खित्वाति-१० सम्पजञपटिपक्खं-१६१ सम्पजानकारी-१९५ सम्पजानमुसावादे -६८ सम्पजानोति-२०३ सम्पज्जतीति-२५८ सम्पटिच्छतूति-१३५ सम्पत्तिचक्कं-२५४ सम्पत्तिपटिलाभटेनाति-१०७,२२९ सम्पत्तियोति-१९१ सम्पदा-सद्दोति-१६२ सम्पयुत्तचित्तस्साति-२२२ सम्पयुत्तधम्मतो- १६५ सम्पयुत्तधम्मा-१६५,२४५ सम्बोधगामी-२३७ सम्बोधि-५३ सम्भत्ति-१५९ सम्भावितधम्मो-३ सम्मत्तनियमतो-१७५ सम्मदक्खातोति- १५० सम्मप्पधानवीरियं-१९४ सम्मसनपा -१५७ सम्मसनपटिवेधपच्चवेक्षणपञाति-१५७,१५९ सम्मसनपटिवेधपञा-१५९ सम्माजाणन्ति-२४५ सम्मादिट्ठीति-२४५ सम्मापटिपज्जापनन्ति-१३० सम्मापटिपत्तियन्ति-२१३ सम्मामनसिकारो-६२ सम्मावायामोति - २२२ सम्माविमुत्ति-२६१ सम्मासङ्कप्पो-१६६ सम्मासमाधीति-२४५,२५६
सम्मासम्बुद्धोतिआदिना - ८२ सम्मासम्बुद्धं-५० सम्मासम्बोधिं-४२ सम्मुखीभावो - २३२ सम्मोहविनोदनियं-२४२ सयनस्मिन्ति-२१५ सयंपभाति-३८ सरसचुति - ९८ सलाकभत्तं-२०४ सवनधारणपञा -१५७ सवनपञ्जा-१५७ सवनमयं-१८४ सवासनप्पहानहि-५३ सवासनं-१७५ सविपाकन्ति -५६ सस्सतदिट्ठीति-१५४ सहजातधम्मेहि - १७७ सहधम्मिके-१५९ सहस्सकण्डोति-३१ सहानधम्मोति-१०८ साखल्यं -१६० साधारणपञत्तिया-६५ साधूति-२४५,२६१ सामाकानन्ति-७९ सारखा-२४० सारणीयधम्मे-२०२,२०५ सारम्भजा-६७ सारिपुत्तत्थेरो-५१,५६,२०७ सावकपारमिआणं-४८,५४,५६,५७ सावनन्ति-१३२ सासनन्ति-२०४ सासनब्रह्मचरियं-८७ सासवो-२५१ सिक्खतीति- १८२ सिक्खाति-७८,१८१, १८२, २२२ सिक्खापदं-१६५, २१९
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________________
[३२]
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
[स- स]
सिक्खासमादानं - २३१ सिनानन्ति-२०० सिनेरुतोति-१३७ सिप्पादिवाचनन्ति-१०१ सीतुण्हसहगताति-२२१ सीलक्खन्धन्ति-१०४ सीलतेजेनाति-९४ सीलन्ति-१८८ सीलवाति-१८२ सीलसमादानेति-९३ सीलसम्पदाति-१९ सीलाचारेति-६८ सीलादिधनसञ्चयं-२६३ सीहनादन्ति-९,८६ सीहनादो-५४ सुक्कधम्मो-५६ सुक्कन्ति -५६, २१४, २३४ सुक्कविपाकोति-२१४ सुक्खविपस्सकस्स-२२४ सुखजीविभावसाधनतो-१२७ सुखदुक्खप्पटिसंवेदी-४६ सुखदुक्खवेदनानम्पि-१७३ सुखदुक्खादिधम्मायतनन्ति-८६ सुखन्ति-११२, २५०, २५६ सुखपटिलाभाति-१८५ सुखल्लिकानुयोगा-७२ सुखविपाकोति-२५६ सुखविहारायाति - १३५ सुखवेदनञ्चाति-१७३ सुखवेदनो-२४२ सुखसम्पयुत्ताति - २५० सुखितन्ति-८३ सुखुमनिपुणपञा-१३० सुखुमपाति-१०७ सुखुमरूपं-१७९ सुखोति-३५, ७२
सुगताति-१० सुचिभावोति-१६१, १९१ सुजातोति-१२३ सुज्झन्तीति-३४ सुञताति- १९० सुञागारेसु-१४ सुतन्ति-८५,१३८ सुत्तन्तपरियायेनाति-१७१ सुत्तलक्खणो - २४८ सुदन्तवाहनयुत्तं - १४१ सुद्दन्ति-४४ सुद्धि-१६९ सुन्दरभावो-४ सुन्दरहदयाति - १२२ सुपरिसुद्धो- १७५ सुपरिसुद्धं -६८ सुप्पकासितन्ति-८१ सुप्पटिविद्धन्ति-२२० .. सुप्पट्टितसतीति-२१२ सुप्पतिट्टितपादताति-९५ सुभट्ठायिनोति-३८ सुभासितवाचा-६८ सुमनोति-८६ सुवचो-२३८ सुवण्णमयोति-३७ सुविपुलन्ति-८४ सुविमुत्तचित्तो-३६ सुविमुत्तपो --३६ सुसंहितन्ति-१११ सुस्सूसा-१२६ सूरियविमानं-४० सूरियोति-१३७ सेक्खधम्मा-१८२ सेक्खपुथुज्जनानं-६३,६४ सेक्खवचनं-१८२ सेक्खो-१८१
32
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[ह-ह ]
सेट्ठचरियं - १५ सेट्ठोति
- ४६
सेतकमलं - २१७
सेनासनेनाति – २०५
सेय्यथापि - ५१, २०२
सेवनचित्ते - २४० सेवनपयोगाभावेति - २४०
सेवनाति - ११७, १९७
सेसपञ्जा - १८७ सोतापत्तिफलं - २४८ सोतापत्तिमग्गो - २५४ सोतापत्तियङ्गानि - २१० सोतापन्नत्राणस्स - ५२
सोधितोति - ५६
सोभना - ११२ सोमनस्सचित्तेनाति - १८० सोमनस्ससम्पयुत्ता - २२६ सोमनस्ससहगतं - २२८
सोमनस्सिन्द्रियं - २६१
सोरच्चं - २६, १५८, १६०
सोरतो - २६
सोवग्गिका - २७
सोसानिकन्ति - २००
संकिलेसधम्मं - ५६ संकिलेसिका - २१ स्वाक्खातो-५७
ह
हत्थकुक्कुच्चं - १४८ हृदयगामिनियोति - १११
हृदयप्पदेसं - १७७
हरापेत्वाति - २०४
हरितामयोति - ३१
हानधम्मेनाति - १०८ हान भागियो - २४९, २५५
सद्दानुक्कमणिका
33
हितसुखं - ११२, १७३, २१९, २४१ हितोति - २५१
हितं - १०५
हिरिकोपीनपटिच्छादनत्थन्ति - २०२
हिरीयतीति - १५५ हिरोत्तप्पसद्धासतिवीरियादयो - १०२ हिरोत्तप्पानं - १५५ हिंसादिपापकम्मं - ४५
होतूति - ६८, १८३, १८४, २००, २६२
[३३]
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________________
गाथानुक्कमणिका
अनिमित्तञ्च भावेहि - १९० आविभूतं पकासनं-८४ कल्याणकारी कल्याणं - १८९ द्वारे चरन्ति कम्मानि-१६५
मिच्छादिट्ठादिचोरेहि - २६३ वंसो विसालोव यथा विसत्तो-१९७ सद्धा हिरियं कुसलञ्च दानं- १२३ सारत्तरत्ता मणिकुण्डलेसु-१०
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संदर्भ-सूची पालि टेक्स्ट सोसायटी (लंदन) – १९७०
पालि टेक्स्ट सोसायटी पृष्ठ संख्या
पालि टेक्स्ट सोसायटी
प्रथम वाक्यांश
वि. वि. वि. वि. वि. वि. पृष्ठ संख्या पंक्ति संख्या
army
- Gm Fati om
अपुब्बपदवण्णना महिद्धिकतं महानुभावतन्ति तुच्छपुरिसाति भुम्मवसेन पटिनिद्देसो अपक्कमीति अत्तना सुन्दररूपो ति भुजित्वा भगवता अचेलस्स मरणचित्तविभावनं कम्पखुरभावं आपज्जिंसूति यस्मा तथावुत्ता अभावा ति पुब्बे इतो चितो संसप्पति वरं वरन्ति तथागते ति आदि जलदुग्गं विय ब्रह्मजालसंवण्णनायं उदुम्बरिकायाति यावता ति यावन्तो अद्धिकजनस्साति नानापटिभानुप्पत्तिया विसाद पीतिसोमनस्सन्ति पारिपूरि, न सब्बेसं मुच्छितो होतीति अचेलकादिवसेनाति
5 ww 9 VVO
2028300MR
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________________
[३८]
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
एवं अत्तना सारभावो ति अचेलकपाळिमत्तं न मयं तुम्हाकं उपसग्गमत्तञ्चेस्थ आकारो उत्तानं वुच्चति इध पन कामोघादीहि लेड्डुनं उट्ठपितत्थानं आयुआदिसम्पत्तिविसेसभूता भिक्खवे ति देसनं सक्करोन्तो ति आदिनयप्पवत्तिया न पब्बन्तीति सुट्ट निसिद्धन्ति दिप्पिस्सन्तीति रुक्खेहि गहणन्ति एवमेव तस्मिं काले दुब्बिभावनीयत्ता ते एवं नच्चन्ता एवं दुप्पसहं एत्थाति पुब्बारामे अनुवत्तमाना तेन दुविधेनापि मुखच्छेदकवादन्ति आरकत्तादीनीति अविज्जानीवरणानं पि नाम महानुभावो न किञ्चि वत्तब्ध मनेनेव निब्बत्ता एतेनेव को हेट्ठा अत्थो वेदितब्बो अत्तनो तिरियगमनेन वेवज्ज वण्णवेवज्ज अलायितन्ति काममिच्छाचारं निरुळहभावतो
38
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________________
संदर्भ-सूची
[३९]
अच्छन्तीति सासनिकमेव वत्वा; तेसु सेट्टच्छेदकवादं पावारेन्ति सञ्छादेन्ति पठमज्झानन्ति एकेकवसेन भगवतो तत्थ नत्थि एवं जरामरणादिसु व समापत्तीसु अपरम्पनाति पदं तत्थ आतउदकं उपमाय पिधेकच्चे तदत्थदस्सने बुद्धविसये ठत्वा पीति आदि आतुकामो होति पि सतिपट्टानभावनाय निष्फत्तिदस्सनत्थन्ति विनिच्छयवादो | काळ्हलवासीति इधापि पसन्नोस्मि तं किं मचथ अधिमोक्खादिसभाववसेनाति आयतनानं पबोधनेसु ठितनिमित्तं नाम वेदितब्बा । केचि अप्पटिविद्धभावतो दस्सनमग्गफलभावतो विज्ञाणं, अट्ठकथायं सेखपुथुज्जनानं ततियचतुत्थदस्सनसमापत्तियो किलेसविक्खम्भनसमुच्छेदनेहि पकासितो विय होति सद्धाय विम्मुतो चिरं वसित्वा तं ब्यञ्जनसम्पत्तिया
२०
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१३१
१३२
इन्द्रियेसूति आदि गमनसमत्थायाति
दिट्ठाभिनिवेसेन कुण्ठञाणत्ता उपेच्च अधियन्तीति
अभिज्ञेय्यं नत्थि
तेनाह तं धुरं
दुक्खं तस्स
दीघनिकाये पाथिकवग्गटीका
विक्खम्भेति, न सक्कोति
इमिस्सा लोकधातुया
आदिनयप्पवत्ताय अच्छरियत्ताभावदोसतो सकिं भुत्तो वाति लोकुत्तरधम्मावहं पि लक्खस्स सरवेधं
मरणं एवाति सद्धिविहारिकं
अप्पटिपज्जनादयो । आदिसद्देन
पदं सावका
सद्धम्मस्साति
सतिपट्ठानानीति
परियेसन हेतु चेव
पन चत्तारि
अनागते अपञ्ञापनं ति
सतिं अनुसरतीति
भारतयुद्धसीताहरणसदिसं ति
पन पत्तं वा
दिट्ठिगतिकविपल्लासेसु दुक्खसमुद
लोको चाति
अधिपञ्ञत्तीति
अभिनीहारादिगुणमहत्तेन
लक्खणानं
वचनतो
अग्गसावका, महासावका
थिरगहणो ति पारमीधम्मानं
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६
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संदर्भ-सूची
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-
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Moms M
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M
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१०२ १०३ १०३ १०४ १०५
१४९
१५० १५१
सब्बपदेसेहि अविक्खम्भनीयो वण्णगाथा ति थोमनगाथा समथविपस्सनानं चण्डहत्थिआदयो दूरतो ब्राह्मणादिके पुरिमासु जातिसू ति समुस्सितसरीरेन इध कम्मसरिक्खकं अकयिरमाने च धम्मञ्च अनुधम्मञ्चाति कम्मस्सकतााणं वत्वा : यदि एवं आकङ्घय्यसुत्तादिसु चतुभूमिका ति एवं धम्मपटिसम्भिदाय अदन्धायन्ति रूपक्खन्धे उत्रसनमनसो निमित्तानि, तस्मिं बलवतरा पतित्थियना करोन्तेनाति एतेन खेमकामो ति सरीरन्ति उजुगतचित्तस्सेव होतीति सोमनस्ससहगताणसम्पयुत्तचित्तसमझी अपरिपुण्णा ति चत्तारीसतो एवं एत्थ अत्थो विकिण्णवचना वुत्तं । ये वा कारणभावेन वुत्तत्ता, पाकारेन परिक्खित्तन्ति सविसेसं कत्वा सियुं | तस्मा चित्ततोसनेन विरोधाभावापादनेन तथा हि भगवा कता पूर्वसुरा
१०५
१५२
१५३ १५४ १५५
१०६ १०७ १०८
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MA » v on art 9 022 2029
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११२ ११२ ११३
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२०३
२०४
इध चित्तालसियता
आह । ननु पुरखतो पुरतो सक्खिपुट्ठा परेसं अनत्थकरो
वाचा एव परमा किस्मिञ्चि अयुत्
भवनं सम्पत्तीहि
योगो ठितत्तो
कारणेहि | अकुसलं
उपरिट्ठितभावेनाति पापतो निवारणं
मातापितुन्नञ्च वसेन अन्तेवासिकवत्तन्ति
दीघनिकाये पाधिकवग्गटीका
गुणकित्तनमुखेन
गेहसामिनिया अन्तोगेहजनो
दासकम्मकरानं
कित्ति, गुणो, तेसं
नाम सम्मापटिपज्जापनन्ति
जाननेन वदद्भुतं
गिहिचारितं, तथा
चतुद्दिसं रक्खं
विवज्जनकरणं
असङ्करतो वण्णेतब्बतो
कप्पसद्दोपना
पाणातिपाते
सुखविहारायाति
खीणासवा जनाति
ति एवं वृत्तगाथाय संवरीपि निरुज्झतीति
दक्खिणपस्से
येन ता
अधिपायो । त् वायन्ता तिट्ठन्ति
गब्भपरिहरणमूलकं पग्घरन्ति
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संदर्भ-सूची
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E : * * * แv - * * * * * * * * * * * * *
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१५०
२१९
१५१ १५२
२२०
सभा ति यक्खानं विसिलिट्ठभावतो च अत्ता विसयभूतो उभयतो रक्खासंविधानं ततो ति ततो दससहस्सचक्कवाळे मरियादं बन्धन्ति पसादावहो चतुरस्सट्ठो आदिना नयेन वीमंसितब् सोपेनेव अभिसम्बुज्झित्वा यथावुत्तं अत्थं मरणस्स आसन्नकाले धम्मो ति एवं नियतत्थब्यञ्जनानपुब्बिया कथायाति अनुपचितसम्भारानं रुप्पतीति खो सस्सतदिट्ठीति दुक्खन्ति ति आह या तासन्ति धातूनं सवनधारणपञा एतस्मिं दुके अत्थो महाजनसम्पन्नस्स सत्तानं धातुविसया इमिना पच्चयेन अण्डकपतिकितिभावेन वाचा अभावमत्तं । यस्मा पञा। तं आकारं विसुद्धिं पापेतुं पवत्तं जाणं पच्चनीकधम्मेहि पवत्तिआकारतो तिविधस्स
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* * * * * * * แs * *
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२५८ २५९ २६०
पन निक्खन्तत्ता अविहिंसावितक्कभावो च अकुसला धम्मा अतप्पकद्वेन च रूपतण्हाति अवधि च पवत्तरागो गहणं आदिसद्देन एवं आदिसु सन्तो परमत्थतो पि सुखुपेक्खासु आपन्नाति सभावेन फलनियमेनेव समानसभावस्स बोधिमूले एव पटिक्खिपन्तो विरियस्स हानीति तस्मा तं नधम्मच्छन्देनाति दक्खिणाति चत्तारो निदस्सनं, चक्खुविज्ञाणं एत्थापि वुत्तप्पकारन्ति सोमनस्सचित्तेनाति धम्मसभावतो सिक्खनसीलो ति सेक्खधम्मसु वाक्यपरिसमापनन्ति दस्सेन्तो अपचितिसहगतं महप्फलभावाय वीतिक्कमन्ति । दिस्वाति अञमञआलिङ्गनमत्तेन उळारभावतो धम्मताय चिन्ताय पि पटिलद्धा यथाधिप्पेतआवुधत्थसाधका कसिणालोकं
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१९७ १९८ १९८
२९१ २९२ २९३ २९४ २९५ २९६
नस्थि तेसं किलेसानं अभावा सङ्खारुपेक्खा कायमुखेन अनुप्पन्ना कुसला यस्मा तेहि विना कोसल्लसम्भूतो कामञ्चेत्थ जनवसभसुत्ते जाणदस्सनन्ति अधिप्पेतं आदिमाह । तेनस्स एवञ्च वेदना अन्तोवसितुन्ति खत्तियकुलवंसो छचक्कदेसनाय अनियमवाचिताय चीनपट्ट इद्धिजं लतावाकेहि वायितं अपरपटिबद्धत्ता अकोपेत्वा थेरो लाळुदायी चीवरसन्तोसे असुकगामे भन्तेति यत्य हि मञ्चादिके सुदुक्करभावदस्सनं नेक्खम्मसञितानं इधानेसि, तस्मा वत्तब्बतं अरहतीति तदनुगुणपवत्तीति फलाणस्सेव पत्तेनाति सच्चानि इतरजाणत्तयविसभागजाणं दटुं असक्कुणेय्यत्ता अवेच्चप्पसादेनाति एवं नन्दिया च । तेलमधुफाणितादीनीति पटिक्कूलभावसल्लक्खणं तेसं पटिपक्खेहि
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अञथा वचीसच्चादीनम्पि सम्पत्तिभवपरियापन्नो भुसं दळहञ्च विसुज्झना महाजुतिकता गुणविकासविबन्धानं तेहि कारणेहि च चित्तगेलञ्चेन देसनासीसं एवाति अधिगमतो समुदागतत्ता उदयस्थङ्गामिनियाति कप्पसहस्सानि वसन्तो मुट्ठिगाहं गण्हं पतिट्ठानं विमुच्चनं उप्पन्नन्ति : इदानि विमुत्ति वुच्चति इमे दस सम्फस्सेति अचमावियोगिनो मिच्छादिट्टि वेदितब्बा सिक्खत्तय पूरणन्ति पटिपत्तिवेपुल्लप्पत्तिया रागादीनं खयन्ते धम्म आदिभावो दस्सेतुं दुक्खानुपस्सनाय सम्मुखाविनयो एत्थाति आपत्तिदेसनाय तेसन्ति आरम्भवत्थूनं अदन्तदमनन्ति आह दानं पनाति तस्मिं महं येहि सीलादीहि कामो अस्साति च, एवमेतं झानं आगमनवसेन अभिज्झायतीति कम्मपथेसुन
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धम्मेसु देसियमानेसूति वदन्ति, हासो तदारम्मणजीवितादिआरम्मणा कथं इदमेव सच्चन्ति सम्मादिट्ठीति वुत्ता आवुसो भिक्खवे गच्छन्ते पन धम्मन्ति अभिजानितब्बो सम्मापटिपत्तिया पच्चयभूतो एकस्मिं येव दुप्पटिविज्झाति अरहत्तफलं पठमस्स झानस्स अरियमग्गपटिवेधस्स पटिप्पस्सम्भनेन वत्थुकामसन्निस्सयो सङ्गहो अवुत्तसिद्धो ति जानन्तो कथन्ति ? मग्गो निज्जरकारणानीति नाथकरणधम्मेसु थेरानं महाकस्सपादीनं
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DEDICATION OF MERIT A*****R$*M**$*»-AING*****
May the merit and virtue
accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above,
and relieve the suffering of those on the three paths below.
May those who see or hear of these efforts
generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma,
and finally be reborn together in
the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA
Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: 886-2-23951198 , Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw
Printed in Taiwan 1998, 1200 copies
IN046-2009
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________________ Printed boy 114. Fl.com, 55 Hang Chow South Feed Bee 1Telnet, Teen, ROC. This work is corseadistes , 323 not to be sa 1998, 1200 copies IN045-2009 ISBN 82-7414-03S