Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 बनकरवाजी-रचनात्याकनाशिफलकरगमेदीजीएबंजाबलाशिफलगपाटीयानकयाससानायगामानवाशनादिनीसंगीकारक विदरे विवरमुनिम मानसशकमालीनदयघवाननिकलकर कयायपाइसंलागाएदीनारयहि मिसावधानाचमनपाउकसाताबाटामधर-विविकासनमवली.यापर्य। मजामी यो जोगतिसंही मोजaavकारेशक यमनकायमुनानीजाति राथदिवाशिदएयायो नामितपसिंहीणतामविरक्सामाजीपसबासम. सामाजम Lagaaानी यानिममनोगमापारीजीवितिसलीमनाउरदेजगतारोमाऊचाल कमी झाली मासिकुसारीमालकविरायचीजयजामंगसमालिनी बnिal (ममा यो करिना ना समिरोजी सावकमनवानही सघनादिलोजी तथा avaguanायशिकिरी मुशवाराधनबेदे विनयध्यावनिamसाय जगालनमममीकरकरणाखापान तथा मननशशिष्टयणेकरीकरिखएकाग्रता फनधानविसभाकक्ष दिवसुविनाम दिवास्व वियथिaana विमापाजीराया नामसदितएकताभियतनपानेदोमा नेकपसानबेदनकरिबरियालीयनाम्पत्यादिकरवर जावापिकने पनि कसोशयधिएशिविनयवि Jamipथमनसूर शाखीयानरस्तोगनावारुजी मिलानतामवरदानमरजगा वारजेतासंप्रदानयमानयनचबीमारामविनय कि विनय कायनासमजो मशीनवसायबाणी जी माऊशलेमीकदीरा विश्वासारजामदिनवनोदशिदिनयदा वतिनामिविनयजे 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जारपाजे/जामिनबधितोजी सध्यतिकदिवाया मारा किती कर्मकरिनायरे करशीदमकार्यासस्वामजद Jaiamanारेदेऊन सताविपेयहिंगणरेसेजनगरमा सीरियामागेमाकजसोतसलीमरेशाकिनीनीवरुनिमायर अगरीवस्तीभविष्कासविदो संगीतराणीकपीरिजेएजमानामा मामाकानयासमरेश सन्यामर्सनाति रजनमानेमन्परेका भगवती-जोड़ (खण्ड-५) श्रीमज्जयाचार्य Laagwी विश्या नेस्तनश्करेपर्युषसमाजामें जानरे काहीयबलज वणवायएचारित्रविनयवार रमनविनयमते मनविनयविनिमयमम जगबीरला. कम विनयधारामयसमा मरवातिमा म विनयजपनभि518नक हिवायरaapakaकरिनिन Lawm267 सविनय विनाaaaaaकरकरीबोजन माशासनकर सुनाली कर्मयताहिक नापायी जायस्वमनकदिनाबरे दिनविन सपकार रिलीजामानयरिवार-शसियासणीसुविचार यातना शिनियर्थस्यदायरे यकयकरण उपायजेटलवायतकविय दिनयत्रा नवशनिवार विहानीयाmaiरेर मनरूयसरितिकमय सम्म सिमकारे सोनोगुणीजन सामानकरीन मारदिनमननामाकन atSaamभायaangऊलंगराजाanaaमरायामकामासnalaanाशियमस्टीमोamaatmयर नमnaiविधिदानीRDarमादिश्य३२०यम संगीलिकाध्यादिकजाकिया विवियन लियिकाम कनकमपतिजीसरे शिमकशनारकमानिसमुदायनगीसरे संघकाही मनकादिक याताकवीनेदेििनरुपन्किसंगीaraशियतिकमा aaनवरती कामशिवालिकथावेर कडीकियां संचामानवकरणीवर साकार पंचमसेवी विपश्यने करतaajaner क संबसवावीमेनकादिन सोगिकीयाmaमवावनिमत मनमक कविनायजेयकी मानेसंकासयनवीनमा एमजेदारसूता जाननी जानकिमानजीनीकरवीनसानजामनिएपनरेनी ननिस किन- यामा प्रशानमनविनये ममप्रवनिकालकर Teasमानसिनामी मानवरनिनालिएदयनर.an.gणवर्ण मतममममनविनय विकार यमनविनयादागासप्रकार शमानकरी नकारिजेट जादावियतानीसद वणवा maaRनयारमा एद पापकारिक मेमन नामकारका एस्सेदकथन वियकीन कोठविककरिae maana गरमाथी जगनाथ सानिदियशमरे विनय सुशुशारना मनोद सावानामगीतालिकाध्याटिकन किरियादिमनमा एलियर निय जानवरलाशमयागया साधना शिविज्ञानशाणारनाहली जनसकिश्यकदिवायलिमनमाकादिक यामकलेवामीश्वरसमयका PRMARAT2nमानविपनयन्यनाममा नायरलिजपयी गतीमान प्रावियाहादिक ग्राम्प्रवकरामदीन सापकर पंचमकधीय साधनादय:Rapaahaaकयातिदासमकार २Rमश्मिदिनन करणाoaश्म नकमुशकराजदयकीजीवनका aaaatनशिबाफनावाचारिदिए२२३२२ममBeसयपन एवमनामरासिसकनेमन जलवायो यमनविनयेनयम माननग्राममनिममsaवधा२२वीणविनयमनायामिवार रविनयधनगरथम कविय २३विनयविकारमशिनयनaam 'पिaaRaमना२२करनीधा लाजताभूपाकरवायायप्रकारामानaaaविनय२२२२३३विनयोतिीयसे श्रीनिवासामादिविनिRARRRRRधमकरायचारिalaमयमा सुधम्मपालमawalaमयकरिनायकायमसनमाविससाय सुरक्ष inreyकार 12 ग सामायिक जा३.ययामा विनायकरापापकावामान्य मानिकननिमयालयमसनम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों के मुख्य दो विभाग हैं- अंग और अंग बाह्य। अंग बारह थे। आज केवल ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। उनमें पांचवां अंग है- भगवती। इसका दूसरा नाम व्याख्या-प्रज्ञप्ति है। इसमें अनेक प्रश्नों के व्याकरण हैं। जीव-विज्ञान, परमाणु-विज्ञान, सृष्टि-विधान, रहस्यवाद, अध्यात्म - विद्या, वनस्पति- विज्ञान आदि विद्याओं का यह आकर-ग्रन्थ है। उपलब्ध आगमों में यह सबसे बड़ा है। इसका ग्रन्थमान १६००० अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण माना जाता है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरी ने इस पर टीका लिखी। उसका ग्रन्थमान अठारह हजार श्लोक प्रमाण है। भगवती सूत्र की सबसे बड़ी व्याख्या है- यह 'भगवती जोड़'। इस की भाषा है राजस्थानी। यह पधात्मक व्याख्या है, इसलिए इसे 'जोड़' की संज्ञा दी गई है। इस ग्रन्थ में सर्व प्रथम जयाचार्य द्वारा प्रस्तुत जोड़ के पद्य और ठीक उनके सामने उन पद्यों के आधारस्थल दिये गये हैं। जयाचार्य ने मूल के अनुवाद के साथ-साथ अपनी ओर से स्वतंत्र समीक्षा भी की है। आवरण पृष्ठ पर मुदित हस्तलिखित पत्र ग्रन्थ की ऐतिहासिक पाण्डुलिपि के नमूने हैं। इनकी लेखिका है-तेरापंथ धर्मसंघ की विदुषी साध्वी गुलाब, जो आशु- लेखन की कला में सिद्धहस्त थीं। जयाचार्य भगवती-जोड़ की रचना करते हुए पद्यों का सृजन कर बोलते जाते और महासती गुलाब अविकल रूप से उन्हें कलम की नोक से कागज पर उतारती जातीं। उस प्रथम ऐतिहासिक प्रति के ये पत्र प्रशा, कला और ग्रहण-शीलता की समन्विति के जीवन्त साक्ष्य है। मुद्रण का आधार पही प्रति है। For Private & Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती-जोड़ (शतक १६ से २३) श्रीमज्जयाचार्य Jain Education Intemational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वाङ्मय : ग्रन्थ १६ भगवती-जोड़ खण्ड ५ (शतक १६ से २३) प्रवाचक प्रधान सम्पादक गणाधिपति तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ सम्पादन साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध-सम्पादक : श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन (जैन विश्व भारती) ISB No 81-7195-041-8 © जैन विश्व भारती, लाडनूं राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारत सरकार, नई दिल्ली के आर्थिक सौजन्य से प्रकाशित । प्रथम संस्करण : १६६४ मूल्य : ३०० रुपये मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित न विश्व भारती प्रेसला (राजस्थान) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'भगवती-जोड़' का प्रथम खण्ड जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के अवसर पर 'जय वाङमय' के चतुर्दश ग्रन्थ के रूप में सन् १९८१ में प्रकाशित हुआ था। इसका दूसरा खंड सन् १९८६ में प्रकाशित हुआ, तीसरा खण्ड सन् १९९० में तथा चतुर्थ १९९४ में प्रकाशित हुआ । अब उसी ग्रन्थ का पंचम खण्ड पाठकों के हाथ में सौंपते हुए अति हर्ष का अनुभव हो रहा है। प्रथम खण्ड में उक्त ग्रन्थ के चार शतक समाहित हैं। द्वितीय खंड में पांचवें से लेकर आठवें शतक, तृतीय खंड में नौवें से लेकर ग्यारहवें शतक तक तथा चतुर्थ खण्ड में बारहवें से पन्द्रहवें तक चार शतक एवं एक परिशिष्ट 'गोशाला री चौपई' संगहीत है । प्रस्तुत खण्ड में सोलहवें से तेइसवें शतक तक की सामग्री समाहित है। साहित्य की बहुविद्य दिशाओं में आगम ग्रन्थों पर श्रीमज्जयाचार्य ने जो कार्य किया है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । प्राकृत आगमों को राजस्थानी जनता के लिए सुबोध करने की दृष्टि से उन्होंने उनका राजस्थानी पद्यानुवाद किया जो सुमधुर रागनियों में ग्रथित है। प्रथम आचारांग की जोड़, उत्तराध्ययन की जोड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पन्नवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़-ये कृतियां उक्त दिशा में जयाचार्य के विस्तृत कार्य की परिचायक है। "भगवई" अंग ग्रन्थों में सबसे विशाल है । विषयों की दृष्टि से यह एक महान् उदधि है । जयाचार्य ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आगम-ग्रन्थ का भी राजस्थानी भाषा में गीतिकाबद्ध पद्यानुवाद किया। यह राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा ग्रन्थ माना गया है। इसमें मूल के साथ टीका ग्रन्थों का भी अनुवाद है और वार्तिक के रूप में अपने मंतव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। इसमें विभिन्न लय ग्रथित ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढालें हैं। ४१ ढालें केवल दोहों में है। ग्रन्थ में ३२९ रागनियां प्रयुक्त इसमें ४९९३ दोहे, २२२५४ गाथाएं, ६५५२ सोरठे, ४३१ छंद, १८४८ प्राकृत, संस्कृत पद्य तथा ७४४९ पद्य-परिमाण, ११९० गीतिकाएं, ९३२९ पद्य-परिमाण, ४०४ यंत्रचित्र आदि हैं। इसका अनुष्टुप् पद्य-परिमाण ग्रन्थाग्र ६०९०६ है। प्रस्तुत खण्ड में मूल राजस्थानी कृति के साथ संबंधित आगम पाठ और टीका गाथाओं के सामने दी गई है। इससे पाठकों को समझने की सुविद्या के साथ-साथ मूल कृति के विशेष मंतव्य की जानकारी भी हो सकेगी। इस ग्रन्थ का कार्य गणाधिपति श्री तुलसी के तत्त्वावधान में हुआ है और साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने उनका पूरा-पूरा हाथ बंटाया है। उनका श्रम पग-पग पर अनुभूत होता-सा दृष्टिगोचर होता है। इस ग्रन्थ का मुद्रण कार्य जैन विश्व भारती के निजी मुद्रणालय में सम्पन्न हुआ है, जिसकी स्थापना जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में हुई थी। श्रीचन्द रामपुरिया Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय जैन आगम साहित्य में सबसे बड़ा आगम है भगवती । इसके इकतालीस शतक हैं। भाषा में पद्यमय भाष्य लिखकर राजस्थानी साहित्य की समृद्धि में अभूतपूर्व योगदान दिया। वृत्ति को भी अपनी लेखनी का विषय बनाया। संस्कृत भाषा का प्राथमिक अध्ययन होने पर समझा है, आश्चर्य का विषय है। यहां दो संभावनाएं की जा सकती हैं- • जयाचार्य की अन्तर्दृष्टि जागृत थी । • जयाचार्य को किसी दिव्यशक्ति का सहयोग प्राप्त था । ऐसे कारणों की उपस्थिति बिना इतना विशाल कार्य कोई कर सकता है, यह कल्पना भी संभव नहीं है । उनकी लिखने की शैली भी विलक्षण रही है । आगम के मूल पाठ और उसकी वृत्ति का भावानुवाद कोई भी अच्छा लेखक कर सकता है । किन्तु उसका मूलस्पर्शी पद्यानुवाद बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी दुरुह जैसा लगता है। किन्तु जयाचार्य ने इतनी सहजता और सरलता से यह काम कैसे किया ? इस जिज्ञासा को कोई समाधानसूत्र नहीं मिल पाया। जयाचार्य एक महान् साधक थे। साधुचर्या के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता थी। उसमें उनका समय नियमित रूप से लगता था । वे एक धर्मसंघ के आचार्य थे । तेरापंथ धर्मसंघ की परम्परा के अनुसार प्रशासन और नीति-निर्धारण सम्बन्धी प्रत्येक कार्य स्वयं आचार्य करते हैं। प्रवचन और जन संपर्क के कार्य भी पर्याप्त समय ले लेते हैं । जयाचार्य ध्यान की साधना में भी काफी समय लगाते थे । उनकी साहित्य साधना को देखकर अनुमान किया जा सकता है कि वे आगमों, आगमों के व्याख्या साहित्य तथा अन्य ग्रंथों का स्वाध्याय बहुत करते थे । आश्चयं तो इस बात का है कि इतने कार्यों को सम्पादित करने के लिए वे समय का नियोजन कैसे कर पाते थे । जयाचार्य ने इसकी जोड़ - राजस्थानी उन्होंने मूल आगम की तरह उसकी भी उन्होंने जिस बारीकी से तथ्यों को जयाचार्य ने वि०सं० १९१९ आश्विन कृष्णा नवमी को भगवती-जोड़ की रचना प्रारम्भ की और वि०सं० १९२४ पोष शुक्ला 'दशमी को इसे सम्पन्नता पर पहुंचा दिया । उन्होंने वि०सं० १९२० में अपने उत्तराधिकारी के रूप में मुनि मघवा को युवाचार्य पद पर नियुक्त किया । उनकी नियुक्ति के बाद प्रवचन और जन-सम्पर्क- इन दो कार्यों का दायित्व युवाचार्य को सौंप दिया । इससे आपका कार्यभार कुछ हल्का अवश्य हो गया था। फिर भी एक आचार्य को काफी समय लगाना ही होता है । धर्मसंघ की सारणा वारणा और व्यवस्था में अपना भगवती-जोड़ जैसे विशाल ग्रन्थ के निर्माण में जयाचार्य को कुल पांच वर्ष का समय लगा। उनकी निर्वाण शताब्दी का निमित्त सामने आया। भगवती-जोड़ के संपादन और प्रकाशन की योजना बनी । अब तक चार खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं। उनमें पन्द्रह शतकों का समावेश हुआ । प्रस्तुत ग्रन्थ उसका पांचवां खण्ड है । इसमें सोलह से तेबीस तक आठ शतक आ गए हैं । प्रत्येक शतक में विविध विषयों का विवेचन है । भगवती सूत्र में कितने विषयों का स्पर्श किया गया है, यह इसका विषयानुक्रम देखने से ही ज्ञात हो जाता है । सोलहवां शतक सोलहवें शतक में चौदह उद्देश है। शकों में वर्णित विषयों को जयाचार्य ने पन्द्रदानों में गुम्फित किया है। प्रथम उद्देशक में अधिकरणी के अभिघात से वायुकाय की उत्पत्ति और उसकी सचेतनता अचेतनता के बारे में वृत्तिकार का अभिमत स्पष्ट किया गया है। अग्निकाय के साथ वायुकाय की स्थिति का उल्लेख है। अग्निकाय से तपे हुए लोहे को संडासे से निकालने या डालने या पुरुष को लगने वाली क्रियाओं का वर्णन है। जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? यह आत्माधिकरणी है ? पराधिकरणी है ? वाले अथवा उभयाधिकरणी है ? वह अधिकरणी क्यों है ? शरीर, इन्द्रिय और योग की संरचना करने वाला जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान प्रथम उद्देशक में उपलब्ध है । दूसरे उद्देशक में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जरा और शोक के संबन्ध में प्रश्न पूछे । भगवान् के दर्शन करने प्रथम स्वर्ग के अधिपति शक्रेन्द्र का आगमन हुआ । शक्रेन्द्र ने अवग्रह के बारे में कुछ प्रश्न पूछे । भगवान् ने देवेन्द्र, चक्रवर्ती, गाथापति, सागारिक और साधर्मिक ये पांच प्रकार के अवग्रह् बताए । शक्रेन्द्र लौट गया तो गणधर गौतम ने शक्रेन्द्र को विषय बनाकर कुछ जिज्ञासाएं प्रस्तुत कीं। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) तीसरे उद्देशक में कर्मप्रकृतियों की चर्चा के सम्बन्ध में गणधर गौतम ने एक विचित्र प्रश्न उपस्थित किया। उन्होंने पूछाभन्ते ! किसी भावितात्म अनगार के अर्श की बीमारी है । वह कायोत्सर्ग में उपस्थित है। उस समय कोई वैद्य अर्श का छेदन करे तो उसकी क्रिया वैद्य को लगेगी या मुनि को ? सूत्रकार ने वैद्य के क्रिया बताई। वृत्तिकार ने इस क्रिया को शुभ माना है। इस बिन्दु पर जयाचार्य ने ९२ गाथाओं में विस्तृत समीक्षा करते हुए वृत्तिकार के अभिमत को विरुद्ध प्रमाणित किया है। इसके लिए उन्होंने निसीहज्झयणाणि, उत्तरज्झयणाणि, रायपसेणइज्ज, आयार चूला आदि आगमों को उद्धृत कर अपने मन्तव्य की पुष्टि की है। चतुर्थ उद्देशक में गणधर गौतम ने एक प्रश्न उठाया है-नारक जीव सौ, हजार, लाख, करोड़ और करोड़ा-करोड़ वर्षों में जितने कर्मों का क्षय करते हैं, एक मुनि उतने कर्म कितनी तपस्या के द्वारा क्षय कर लेते हैं ? भगवान् ने उक्त प्रश्न को उत्तरित कर एक उदाहरण के द्वारा उसे बुद्धिगम्य बना दिया । इसी प्रकार पांचवें उद्देशक में गंगदत्तदेव के पूर्वभव का वर्णन है। छठे उद्देशक में स्वप्नों और उनके फलों की विस्तृत चर्चा है । सातवें उद्देशक में पासणिया-पश्यत्ता, आठवें उद्देशक में लोक के विभिन्न भागों में जीवों और परमाणु-पुदगलों की गति, नौवें उद्देशक में बलि सभा, दसवें उद्देशक में अवधिज्ञान तथा ग्यारहवें से चौदहवें तक चार उद्देशकों में द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार एवं स्तनित कुमार की चर्चा की गई है। सतरहवां शतक सतरहवें शतक में सतरह उद्देशक हैं । संग्रहणी गाथा में प्रत्येक उद्देशक में प्रतिपादित होने वाले विषयों की सूचना है। प्रथम उद्देशक में उदायी और भूतानंद नामक हाथियों की उत्पत्ति और मुक्ति की संक्षिप्त चर्चा के साथ क्रिया का वर्णन है। अन्त में छह भावों का उल्लेख है । दूसरे उद्देशक में संयत, असंयत और संयतासंयत की धर्म-अधर्म में स्थिति, बाल, पंडित के सम्बन्ध में अन्यतीथिकों का मन्तव्य, जीव और जीवात्मा का एकत्व और रूपी-अरूपी विक्रिया के सन्दर्भ में भगवान् महावीर और गणधर गौतम के प्रश्नोत्तर हैं । तीसरे उद्देशक में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव एजना, शरीर, इन्द्रिय और योग की चलना का निरूपण हुआ है तथा संवेग, निर्वेद आदि धर्मों की साधना का अन्तिम फल मोक्ष बताया है । चौथे उद्देशक में भिन्न प्रकार से क्रिया की चर्चा के बाद दुःख के वेदन की प्रक्रिया बताई गई है। पांचवें उद्देशक में दूसरे स्वर्ग ईशान की सभा आदि का संक्षिप्त वर्णन है। छठे से ग्यारहवें उद्देशक तक छह उद्देशकों में जीवों के मारणान्तिक समुद्घात और मृत्यु के बाद उत्पत्ति-क्षेत्रों का वर्णन है । शेष छह उद्देशकों में एकेन्द्रिय जीवों तथा नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युतकुमार, वायुकुमार और अग्निकुमार देवों के आहार, श्वासोच्छवास, आयुष्य आदि की समानता के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। अठारहवां शतक अठारहवें शतक के दस उद्देशक हैं । प्रारंभिक पद्यों में संग्रहणी-गाथा के आधार पर प्रत्येक उद्देशक की विषयवस्तु का उल्लेख किया गया है । यह क्रम प्रायः सभी शतकों में इसी प्रकार है। प्रस्तुत शतक की जोड़ इक्कीस ढालों में निबद्ध है। इसके प्रथम उद्देशक को दो ढालों में समेटा गया है। विषय प्रतिपादन की दृष्टि से प्रमुख रूप में दो बिन्दुओं का स्पर्श हुआ है-प्रथमअप्रथम और चरम-अचरम । जीव प्रथम है या अप्रथम ? सिद्ध प्रथम है या अप्रथम? इस प्रकार के प्रश्नों द्वारा अत्यन्त रोचक ढंग से तत्त्वज्ञान परोसा गया है । प्रथम-अप्रथम की तरह ही विविध दृष्टियों से चरम-अचरम की चर्चा है। इनके आधार पर ज्ञानवर्धक और रोचक दो थोकड़ों का निर्माण किया जा सकता है। दूसरे उद्देशक में भगवान् महावीर की उपस्थिति विशाखा नाम की नगरी में दिखाई गई है। वहां प्रथम स्वर्ग सौधर्म का देवराज शक्र अपनी दिव्य ऋद्धि के साथ भगवान् के समवसरण में दर्शन करने आया। उसके आभियोगिक देवों ने बत्तीस प्रकार के नाटक दिखाए । शक लौट गया । गणधर गौतम ने शक के पूर्वभव के बारे में जिज्ञासा की। भगवान् गौतम को बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के युग में ले गए। उस समय हस्तिनापुर नामक नगर में कार्तिक नाम का श्रेष्ठी था। वह तत्त्वज्ञ श्रमणोपासक था। उसने तीर्थकर मुनिसुव्रत के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करता हुआ आयुष्य पूरा होने पर वहां से अनशनपूर्वक मृत्यु का वरण कर सौधर्म कल्प में इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ है । इस उद्देशक में बताया गया है कि संसार से विरक्त व्यक्ति को यह लोक जलता हुआ दिखाई देता है । जन्म-मरण की अग्नि से अपनी आत्मा को बचाने के लिए प्रव्रज्या को ही एक मात्र उपाय बताया गया है। इस दृष्टि से इस उद्देशक को वैराग्य की प्रेरणा देने वाला माना जा सकता है। तीसरे उद्देशक में तत्त्व-चर्चा का एक रोचक प्रसंग है । भगवान् के शिष्य माकन्दीपुत्र ने कापोत लेश्या वाले पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की मुक्ति के बारे में भगवान् से कुछ प्रश्न पूछे । अपने प्रश्नों के उत्तर पाकर उसने अन्य श्रमण Jain Education Intemational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थों के सामने वह चर्चा की। श्रमणों को उसके कथन पर विश्वास नहीं हुआ। वे भगवान् के पास गए। उन्होंने माकन्दीपुत्र अनगार द्वारा बताई गई सारी बातें पूछी । भगवान् बोले-माकन्दीपुत्र ने तुम्हारे सामने जो कुछ कहा, वह सत्य है। यह बात सुन सब श्रमणों ने माकन्दीपुत्र अनगार के पास जाकर उससे 'खमत-खामणा' किया। उसके बाद माकन्दीपुत्र अनगार पुनः भगवान् के उपपात में पहुंचा । उसने भावितात्म अनगार की अन्तक्रिया के प्रसंग में निर्जरा-पुद्गलों के बारे में विस्तार से अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया। चौथे उद्देशक में प्राणातिपात पाप आदि अठारह पापों के परिभोग, कषाय तथा संख्या के संदर्भ में कृतयुग्म आदि का वर्णन है। पांचवें उद्देशक में भवनपति देवों और नरक भूमि में उत्पन्न होने वाले नैरयिकों के बारे में चर्चा की गई है। छठे उद्देशक में फाणित गुड़, भ्रमर आदि में पाए जाने वाले वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि का विवेचन निश्चयनय और व्यवहारनय के आधार पर किया गया है। सातवें उद्देशक में केवली के असत्य संभाषण सम्बन्धी अन्यतीथिकों के असत् अभिमत का निरसन करते हुए बताया गया है -यक्षाविष्ट केवली असत्य और मिश्र भाषा बोलते हैं, यह कथन मिथ्या है। न तो केवली यक्षाविष्ट होते हैं और न उक्त भाषाएं बोलते हैं । वे सत्य और व्यवहार-ये दो भाषाएं बोलते हैं। राजगृह नगर में कालोदाई, सेलोदाई आदि अन्यतीथिकों ने मदुक श्रमणोपासक से पंचास्तिकाय के बारे में कुछ प्रश्न किए। मद्दुक के उत्तरों से उनको सन्तोष नहीं हुआ । मद्दुक ने प्रतिप्रश्न उपस्थित कर उनको समाहित किया । अन्यतीथिकों के प्रश्नों के उत्तर देकर मदुक भगवान् के पास पहुंचा । भगवान् ने मदुक के उतरों को सही बताया । मदुक कृतार्थ हो गया। उसने भगवान् के चरणों में बैठकर अपनी अन्य जिज्ञासाओं को समाहित किया । यह प्रसंग भी इसी उद्देशक में है। आठवें उद्देशक में ईर्यापथिकी और सांपरायिकी-इन दो क्रियाओं के वर्णन में जयाचार्य द्वारा की गई लम्बी समीक्षा है। ६८ पद्यों की समीक्षा में अनेक आगमों के उद्धरण प्रस्तुत कर यह सिद्ध किया है कि वीतराग के ईर्यापथिकी क्रिया होती है । इसी उद्देशक में गणधर गौतम की अन्यतीथिकों के साथ हुई चर्चा का वर्णन है। उद्देशक के अन्त में छद्मस्थ मनुष्य और केवलज्ञानी के ज्ञान-दर्शन की क्षमता का उल्लेख हुआ है। नौवें उद्देशक में भव्य द्रव्य नारक आदि जीवों का वर्णन है । दशवें उद्देशक में सोमिल ब्राह्मण और भगवान् महावीर के बीच हुई रोचक चर्चा को विस्तार से दिया गया है । सोमिल वेदों का ज्ञाता था। विद्वान् था । उसने यात्रा, यमनीय, अव्याबाध, प्रासूक विहार और भक्ष्याभक्ष्य के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित किए। भगवान् से समाधान प्राप्त कर वह संतुष्ट हआ। उसने भगवान के पास श्रमणोपासक की दीक्षा स्वीकार की। उन्नीसवां शतक उन्नीसवें शतक के दस उद्देशक हैं । इस शतक के प्रथम दो उद्देशकों में लेश्या की चर्चा है। तीसरे उद्देशक में पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीवों के शरीर पर्याप्ति के बंध, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, आहार, उत्पत्ति, स्थिति, समुद्घात, उद्वर्तन, अवगाहना, अल्पबहुत्व, वेदना आदि का वर्णन है । चौथे और पांचवें उद्देशक में आश्रव, क्रिया, वेदना और निर्जरा की अल्पता और अधिकता को आधार बनाकर चौबीस दण्डकों का निरूपण किया गया है । छठे उद्देशक में द्वीप-समुद्रों की संक्षिप्त-सी चर्चा है। सातवें उद्देशक में देवों के भवनों और विमानों की संख्या और स्वरूप पर विचार किया गया है । आठवें उद्दे शक में निर्वृत्ति-निष्पत्ति के संदर्भ में जीव, कर्म, शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन, कषाय, वर्ण, गन्ध, रस, संस्थान, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, योग और उपयोग के प्रकार बतलाए गए हैं। नौवें उद्देशक में करण की चर्चा में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव करण का उल्लेख करने के बाद शरीर करण, इन्द्रिय करण, प्राणातिपात करण, पुद्गल करण, वर्ण करण और संस्थान करण का वर्णन है। दसवें उद्देशक में व्यन्तर देवों के आहार करण और ऋद्धि की अल्पता-अधिकता की चर्चा के साथ प्रस्तुत शतक समाप्त हो जाता है। बीसवां शतक बीसवें शतक के दस उद्देशकों में द्वीन्द्रिय आदि जीवों की वक्तव्यता प्रथम उद्देशक में है। दूसरे उद्देशक में आकाश के दो भेद लोकाकाश और अलोकाकाश का उल्लेख है । लोकाकाश के संदर्भ में पांच अस्तिकाय की सूचना के साथ उनके पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं। तीसरे उद्देशक में प्राणातिपात आदि की आत्मा के साथ अभिन्नता बताई गई है। चौथे उद्देशक में इन्द्रियों के उपचय का उल्लेख करके इस विषय को पन्नवणा के आधार पर समझने का संकेत दिया गया है। बीसवें शतक के पांचवें उद्देशक की जोड़ प्रस्तुत ग्रन्थ के २५६ पृष्ठ से शुरू होकर ३४२ पृष्ठ तक पहुंचती है। ग्रन्थ के ८७ पृष्ठों में परमाणु और स्कन्ध में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के आधार पर किए गए भंगों का वर्णन है। यह उद्देशक एक प्रकार से गणित का उद्देशक है । मूल तथ्यों को पद्यवद्ध रचना में प्रस्तुति देने के बाद जयाचार्य ने उनको अंकों में स्थापित किया है। Jain Education Intemational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) द्विप्रदेशी पुद्गल-स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशिक पुद्गल स्कन्ध के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से जितने भंग बनते हैं, उन सबके यन्त्र बनाना उनकी एकाग्रता की विशिष्ट साधना का फलित है । उस भंग-संयोजना का प्रतिलिपि से मिलान करने में भी हमें बहुत एकाग्रता रखनी पड़ी। इसके आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि बिना गहरी एकाग्रता के भंग-संरचना नहीं हो पाती। यह पूरा प्रसंग आम पाठक की रुचि के अनुरूप न भी हो, पर इसका महत्त्व किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। कम्प्यूटर के इस युग में यह लेखा-जोखा मानव-मस्तिष्क को वरीयता देने वाला है। प्रस्तुत उद्देशक के अन्त में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से परमाणु का विवेचन किया गया है। छठे उद्देशक में पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वायुकायिक जीवों के आहार आदि का वर्णन है । सातवें उद्देशक में जीवप्रयोग बंध, अनन्तर बंध और परम्पर बंध की चर्चा में चौबीस दण्डक के जीवों से संबंधित बन्ध का निरूपण है। आठवें उद्देशक में कर्मभूमि, अकर्मभूमि, पंच महाव्रत रूप धर्म, चतुर्याम रूप धर्म, तीर्थंकर आदि के विवरण में तीर्थंकरों के विरहकाल में कालिक श्रुत के विच्छेद-अविच्छेद की चर्चा है । इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए गणधर गौतम ने एक प्रश्न उपस्थित किया है-'भंते ! इस अवसर्पिणी काल में आपका तीर्थ कितने समय तक रहेगा?' भगवान् ने कहा -'गौतम ! मेरा तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा।' जयाचार्य ने इस प्रसंग की अनेक आगमों और शब्दकोशों के प्रमाण देकर समीक्षा की है । तीर्थ शब्द का अर्थ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ भी होता है और तीर्थंकरों के प्रवचन (आगम) को भी तीर्थ कहा जाता है । जयाचार्य ने पूरी समीक्षा का सार प्रस्तुत करते हुए लिखा है • वर्ष इकवीस हजार, तीर्थ रहिस्यै न्याय तसु । एम संभवै सार, फुन बहुश्रुत कहै तेह सत्य ॥ ० वर्ष इकवीस हजार, तीर्थ रहिस्य इम को। पिण चिहु तीर्थ सार रहिस्य इम आख्यो नथी॥ ० ते माट अवधार, तीर्थ प्रवचन सूत्र छ। ___ कद ही संघ आधार, द्रयलिंगी आधार कद ॥ इस शतक के नवमें उद्देशक में जंघाचारण और विद्याचारण मुनियों और उनकी गति के बारे में बताया गया है। इस प्रसंग में भी जयाचार्य ने चैत्य शब्द को अपनी समीक्षा का विषय बनाया है। दसवें उद्देशक में सोपक्रम और निरुपक्रम आयुष्य के संदर्भ में चौबीस दण्डकों की चर्चा है। इसी क्रम में कतिसंचित आदि तथा षट्कसमजित आदि का विवेचन किया गया है। तीन शतक इक्कीसवां, बाईसवां और तेईसवां--ये तीन शतक वनस्पति विज्ञान के भंडार हैं। अत्यन्त संक्षेप में वनस्पति की जितनी प्रजातियों का यहां विवेचन किया गया है, पढ़कर आश्चर्य होता है । सामान्य व्यक्ति के लिए ऐसा विवेचन समझना भी कठिन है। वनस्पति के जीव एक समय में एक साथ कितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं। वे कहां से आकर उत्पन्न होते हैं। उनके शरीर की अवगाहना कितनी हैं । उनके कर्म-बन्धन की प्रक्रिया क्या है। उनमें लेश्या, दृष्टि आदि कितने होते हैं। उनकी स्थिति कितनी है आदि अनेक प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर दिए हैं । विस्तृत जानकारी के लिए पन्नवणा सूत्र और भगवती सूत्र के ग्यारहवें शतक का संकेत दिया है। इक्कीसवें शतक में आठ वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग के दस उद्देशक हैं । प्रतिपाद्य विषयों की सूचना देते हुए लिखा गया है सालि कल अयसि वंसे इक्खू दब्भे य अब्भ तुलसी य । अट्ठए दस वग्गा असीति पुण होंति उद्देसा ॥ बाईसवें शतक में छह वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग के दस-दस उद्देशक हैं । वर्गों और उद्देशकों की संकेत गाथा यह है तालेगट्ठिय बहुबीयगा य गुच्छा य गुम्म वल्ली य । छद्दस बग्गा एए, सट्टि पुण होंति उद्देसा ॥ तेईसवें शतक में पांच वर्ग हैं । प्रत्येक वर्ग के दस-दस उद्देशक हैं । शतक की प्रारम्भिक रचना इस प्रकार है आलुय लोही अवए पाढा तह मासवपिण-वल्लि य। पंचेते दस वग्गा, पन्नासं होंति उद्देसा॥ उक्त तीनों शतकों के आधार पर की गई जोड़ पढ़कर ऐसा लगता है कि जयाचार्य की भाषान्तर क्षमता अप्रतिम थी। वनस्पति जगत् के विचित्र-विचित्र शब्दों को उन्होंने प्राकृत भाषा से राजस्थानी में घड़ दिया। यह पूरा विवेचन वनस्पति जीववैज्ञानिकों के लिए पठनीय है। Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) कतत्व का स्मरण प्रस्तुत ग्रन्थ भगवती जोड़ का पांचवां खंड है । इसके सम्पादन का अवसर मुझे मिला, यह मेरा सौभाग्य है । ग्रंथ-सम्पादन की पूरी यात्रा परमाराध्य गणाधिपति गुरुदेव के चरणों में बैठकर की गई है। इस कार्य में गुरुदेव का सान्निध्य उपलब्ध नहीं होता तो स्थान-स्थान पर आने वाले अवरोधों से यह यात्रा कभी भी स्थगित हो सकती थी। समय-समय पर आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के मार्गदर्शन से काम करने में सुगमता हुई । इस यात्रा में मेरी अभिन्न सहयात्री रही है साध्वी जिनप्रभाजी । प्रारंभ से ही इस कार्य में साथ रहने के कारण उनका इससे आन्तरिक लगाव भी हो गया है । जोड़ में यत्र-तत्र निर्दिष्ट आगमों के प्रमाण खोजने में मुनि हीरालालजी का सहज योग उपलब्ध है । जोड़ के समानान्तर मूल पाठ और वृत्ति का समायोजन हमने किया, पर उसकी पाण्डुलिपि साध्वी स्वर्णरेखा ने तैयार की। प्रफ निरीक्षण के कार्य में साध्वी जिनप्रभाजी को साध्वी विभाश्रीजी, जयविभाजी आदि अनेक साध्वियों का सहयोग रहा है । जैन विश्व भारती प्रेस के कार्यकर्ता भी इस ग्रन्थ की दुरूह कम्पोजिंग को गहरी निष्ठा और दक्षता के साथ सम्पादित कर रहे हैं । कुल मिलाकर यह माना जा सकता है कि हम सब तो निमित्त हैं, इस कार्य में प्राप्त होने वाली ऊर्जा के मूल स्रोत परमाराध्य गणाधिपति गुरुदेव हैं। आपका मंगल आशीर्वाद ही आलोक बनकर हमारा मार्ग प्रशस्त करता रहा है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा २२ अक्टूबर १९९४ नई दिल्ली Jain Education Intemational Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय वायुकाय पद अग्निकाय पद कति क्रिया पद अधिकरणी अधिकरण पद शरीर इन्द्रिय और योग नीं पृच्छा जरा शोक पद शक्र का अवग्रह- अनुज्ञा पद शक सम्बन्धी व्याकरण पद चैतन्य - अचैतन्य कृत कर्म पद कर्म पद अर्शछेदन और वैद्यक्रिया पद नैरयिक- निर्जरा पद शक्र - उत्क्षिप्त प्रश्न व्याकरण पद गंगदत्तदेव: परिणममाण-परिणत पद गंगदत्तदेव : आत्मविषयक प्रश्न पद गंगदत्तदेव पूर्वभव पद स्वप्न पद भगवान् द्वारा महास्वप्न-दर्शन पद स्वप्न फल पद 1 गंध पुद्गल पद लोक- चरमांते जीवाजीवादिमार्गणा पद परमाणु - पुद्गल - गति पद क्रिया पद अलोके गति-निषेध पद बलि सभा पद अवधि पद द्वीपकुमार आदि पद हस्तराज पद क्रिया पद बुमूलस्यूं सम्बन्धित किया वृक्ष - कंद स्यूं सम्बन्धित क्रिया भाव पद धर्म-अधर्म - स्थित पद बाल पंडित पद जीव-जीवात्मा एकत्व पद रूपी अरूपी पद एजना पद पृष्ठ १३ १४ १७ १९ २२ २३ २९ ३४ विषयानुक्रम चलना पद क्रिया पद दु:ख वेदना पद ईशान पद देश सर्व मारणांतिक समुद्घात पद ३५ ३९ ३९ ४२ ४८ ५२ ५५ ५७ ६५ ६६ ६६ ६८ ७१ ७२ ७८ ७८ ८० ८० ८२ * ८३ ८४ ८६ ८९ ९२ एकेन्द्रिय पद नागकुमार आदि पद समुच्चय जीव द्वार पद आहारक द्वार भवसिद्धिक द्वार सन्नी - असन्नी द्वार लेश्या द्वार समदृष्टि द्वार संयत द्वार कषाय द्वार ज्ञान द्वार योग द्वार उपयोग द्वार पर्याप्त द्वार चरम अचरम के सन्दर्भ में जीव द्वार आहारक द्वार भव्य द्वार सन्नी द्वार लेश्या द्वार समदृष्टि द्वार संयति द्वार कषाय द्वार ज्ञान द्वार योग द्वार उपयोग द्वार वेद द्वार शरीर द्वार पर्याप्त द्वार शक्र का पूर्वभव - कार्तिक सेठ माकंदी पुत्र अणगार निर्जरा पुलों को जानना देखना बंध पद कर्म नानात्व पद ९४ ९८ १०० १०१ १०२ १०६ १०७ ११२ ११२ ११३ ११४ ११५ ११५ ११६ ११६ ११७ ११७ ११८ ११९ ११९ १२० १२१ १२२ १२२ १२२ १२४ १२४ १२५ १२६ १२६ १२७ १२७ १२७ १२८ १३५ १३९ १४२ ૪૪ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) २११ १४८ १४८ २११ १५१ १५२ २१५ २१७ १५४ १५४ १५६ १५७ १६० २१८ २२२ २२२ २२८ २२९ १६२ १६२ १६३ १६५ २३० २३१ २३२ २३२ १६८ २३३ जीवों का परिभोग-अपरिभोग पद कषाय पद युग्म पद अन्धकवृष्णिजीवों का वर-पर पद वक्रिय-अवैक्रिय असुरकुमारादि पद नैरयिक आदि का महाकर्मादि पद नरयिकादि का आयुष्य पद असुरकुमार आदि की विकुर्वणा निश्चय-व्यवहार नय पद परमाणु स्कन्धों का वर्णादि पद केवलि-भाषा पद उपधि पद परिग्रह पद प्रणिधान पद कालोदायी आदि का पञ्चास्तिकाय-संदेह पद मदुक श्रमणोपासक द्वारा समाधान पद भगवान द्वारा मद्दुक-प्रशंसा पद विकुर्वणा के साथ एक जीव सम्बन्ध पद देवासुर संग्राम पद देवों द्वारा द्वीप समुद्र-अनुपरिवर्तन पद देवों का कर्म क्षपण-काल पद ईर्या के सम्बन्ध में गौतम का संवाद पद अन्यतीथिकों का आरोप पद परमाणु पुद्गल आदि का जानना-देखना पद भव्य द्रव्य पद भावितात्मा का असिधारा आदि अवगाहन पद परमाणु पुद्गल द्वारा वायुकाय स्पर्श पद द्रव्यों का वर्णादि पद सोमिल ब्राह्मण पद लेण्या पद पृथ्वीकाय पद स्यात् द्वार लेश्या द्वार दृष्टि द्वार ज्ञान द्वार योग द्वार उपयोग द्वार आहार द्वार प्राणातिपातादिक द्वार उत्पत्ति द्वार स्थिति द्वार समुद्घात द्वार १७१ १७१ १७४ उद्वर्तन द्वार अपकाय पद तेजसकाय पद वायुकाय पद वनस्पतिकाय पद स्थावर जीवों की अवगाहना : अल्पबहुत्व पद स्थावर जीव : सर्व सूक्ष्म सर्व बादर पद पृथ्वी शरीर : विशालता पद पृथ्वीकाय : शरीर अवगाहना पद अपकायादि वेदना पद महाआश्रवादि पद चरम परम पद वेदना पद द्वीप समुद्र पद असुरकुमारादि के भवनादि पद जीव-निवृत्ति पद कर्म-निवृत्ति पद शरीर-निवृत्ति पद सर्वेन्द्रिय-निर्वृत्ति पद भाषा-निवृत्ति पद मन-निर्वृत्ति पद कषाय-निर्वृत्ति पद वर्ण-निर्वृत्ति पद संस्थान-निर्वृत्ति पद संज्ञा-निवत्ति पद लेश्या-निर्वृत्ति पद दृष्टि-निर्वृत्ति पद ज्ञान-निर्वृत्ति पद अज्ञान-निवृत्ति पद योग-निवृत्ति पद उपयोग-निर्वृत्ति पद करण पद शरीर करण पद इन्द्रिय करण पद प्राणातिपात करण पद पुद्गल करण पद वर्ण करण पद संस्थान करण पद द्वीन्द्रिय आदि पद पंचेन्द्रिय पद अल्प बहुत्व अस्तिकाय पद rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr mm mr mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm १७८ १८१ १८४ १८६ १८७ २३४ २३४ २३५ २३५ २३५ २३५ २३६ २३७ or ~rrrrrrrrrrr U०० ० ० ० ० ० ० ० ० ० 99 ISIS IS २३८ २०९ २१० २४३ २४५ २११ ૨૪૬ २११ २४७ Jain Education Intemational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) ૨૪૬ ३६२ ३६४ २४९ २५० २५२ २५४ ३६६ ३६८ ३७२ ३७३ ३८० ३८० २५५ २५५ २५६ २५६ २५७ ३८१ MY MY MAY m r m US VISUS mm . २५९ २६४ २७५ २७९ ३८३ ३८४ ३८५ २८३ २८७ ३८७ ३८७ धर्मास्तिकाय के अभिवचन अधर्मास्तिकाय के अभिवचन आकाशास्तिकाय के अभिवचन जीवास्तिकाय के अभिवचन पुद्गलास्तिकाय के अभिवचन प्राणातिपात आदि की आत्मा रूप में परिणति गर्भोत्पत्ति के समय वर्णादि पद इन्द्रियोपचय पद परमाणु में वर्णादि भंग द्विप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग त्रिप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग च्यारप्रदेशिक स्कंध में वर्णादि भंग पंचप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग षट्प्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग सप्तप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग अष्टप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग नवप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग दसप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग पृथ्वीकाय का आहारादि पद अपकाय का आहारादि पद वायुकाय का आहारादि पद बन्ध पद समयक्षेत्र में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी पद पंचमहाव्रत चतुर्याम धर्म पद तीर्थकर पद कालिकाश्रुत पद पूर्वगत पद तीर्थ पद उग्र आदि का निर्ग्रन्थ धर्मानुगमन पद विद्याचारण पद जंघाचारण पद २९१ आयुष्य पद उत्पाद-उद्वर्तन पद कतिसंचितादि पद षट्क समजितादि पद द्वादश समजितादि पद चतुरशीति समजितादि पद शालि आदि जीवों का उपपात पद शालि आदि जीवों का अपहार शालि आदि जीवों की अवगाहना आदि शालि आदि जीवों में लेश्या आदि शालि आदि जीवों का काय-संवेध शालि आदि जीवों का आहार आदि शालि आदि जीवों की कन्दादि रूप में पृच्छा लेश्या सम्बन्धी भंग कलाय आदि जीवों की पृच्छा अतसी आदि जीवों की पृच्छा वंश आदि जीवों की पृच्छा इक्षु आदि जीवों की पृच्छा सेडिक आदि जीवों की पृच्छा अभ्ररुह आदि जीवों की पृच्छा तुलसी आदि जीवों की पृच्छा ताल आदि वृक्षों की पृच्छा नीम आदि एकास्थिक वृक्षों की पृच्छा अस्थिक आदि बहुबीजा वृक्षों की पृच्छा बैगन आदि गुच्छ वर्ग की पृच्छा सेडियक आदि गुल्म वर्ग की पृच्छा पूष्यफली आदि वल्लि वर्ग की पृच्छा आलू आदि साधारण वनस्पति की पृच्छा लोही आदि साधारण वनस्पति की पृच्छा आय आदि साधारण वनस्पति की पृच्छा पाढा आदि मधुररस वनस्पति की पृच्छा मासपर्णी आदि बल्लि विशेष की पृच्छा २९४ ३८८ २९५ ३८८ ३४२ ३४४ ३४५ ३४६ ३८९ ३९३ ३९४ ३९४ ३४९ ३९५ ३४९ ३५० ३५० ३९५ ३५१ EE ० KKK 0 0 0 0 0 ० ० . ० . ० . ३९९ ३५२ ३५६ ३५७ ३५९ ७ ० Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोडश शतक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहा १. शतक पनरमा मैं विषे, एकेंद्रियादि मांय । गोशालक नों जीव जे जनम मरण बहु पाय ॥ २. सोलम जतके विण हिये जो नणां पहियाण जनम-मरण कहिये अछे, वारू श्री जिन-वाण ।। तो, उद्देशक अभिधान । कहिये छै सुविधान ॥ लोहादिक प्रति जान । अधिकरण पहिखान ॥ ३. इण संबंध इण शतक सूचक गाथा आदि जे ४. धरिये कूटण तें अरथ जेह विषे तेहने कही ५. ए लोहार प्रमुख तणों, उपधि विशेष कहाय । लोक मांहि अहरण वहे, तेह जाणवी ताय ॥ ६. तेह प्रमुख वस्तु अरथ प्रथम उद्देशक मांद उद्देशक नों नाम पिण, अधिकरणी कहिवाय ॥ ७. जरादि अर्थ विषयपणे जरा नाम उद्देश। कर्म प्रकृति आदिक कथन, तृतीय नाम सुविशेष || षोडश शतक ढाल : ३४७ ८. जावतियं ए आदि दे रव कर उपलक्षित । जावतियं इम चतुर्थः, नाम उद्देस कथित ।। प्रतिबद्ध । ६. गंगदत्त जे सुर तणीं, वक्तव्यता तास भाव थी पंचमः, गंगदत्त इम सिद्ध ॥ १०. स्वप्न विषय थी स्वप्न ए, वर उपयोगज अर्थ | प्रतिपादक नां भाव थी, ए उपयोग तदर्थ ॥ ११. लोक स्वरूपज कैण वलि संबंध पदार्थ जे थी, लोकज कहिया थी १२. अवधि परूपण अर्थ थी, द्वीपकुमार नीं वारता, अष्टम नाम । बलि ताम ।। दशम अवधि तसु नाम । द्वीप नाम तसु पाम ॥ १. व्याख्यातं पञ्चदशं शतं तंत्र केखियादिषु गोशालकजीवस्यानेकधा जन्ममरणं चोक्तं । (बु०प०६९६) २२. हा जीवजन्ममरणाच्यते इत्येवंबंधस्यास्येयमुद्देशकाभिधानसूचिका गाथा ( वृ० प० ६९६ ) ४. अहिगरणि 'अहिगरण' त्ति अधिक्रियते लोहादि यस्यां साऽधिकरणी । ५६. लोहकाराद्युपकरणविशेषस्तत्प्रभूतिपदार्थविशेषितार्थविषय उद्देकोऽधिकरण्येोष्यते स चात्र ( वृ० प० ६९६ ) प्रथमः । कम्मे धियते कुट्टनार्थं ( वृ० प० ६९६) ७. जरा, 'नर' जिवित्वारेति द्वितीय:" 'रुम्मे' नि कम्प्रकृतिप्रभृतिकार्यविषयत्वात्कर्मेति तृतीयः । ( वृ० प० ६९६) ८. जावतियं 'जावइयं' ति 'जावइय' मित्यनेनादिशब्देनोपलक्षितो जामतिः। ( वृ० प० ६९०) ९. गंगदत्त 'गंगदत्त' त्ति 'गंगदत्त' देववक्तव्यताप्रतिबद्धत्वाद् गङ्गदत्त एवं पञ्चमः । ( वृ० प० ६९७ ) १०. सुमि व उपओन 'सुमिणे य' त्ति स्वप्नविषयत्वात्स्वप्न इति षष्ठः, 'उवओग' त्ति उपयोगार्थप्रतिपादकत्वादुपयोग एव ( वृ० प०६९७) सप्तमः । ११. लोग, बलि 'लोग' त्ति लोकस्वरूपाभिधायकत्वाल्लोक एवाष्टमः, 'बलि' त्ति बलिसम्बन्धिपदार्थाभिधायिकत्वादबलिरेव (२०१०६९७) नवमः । १२. ओहि, दीव 'ओहि' ति अवधिज्ञानप्ररूपणार्थत्वादवधिरेव दशमः, 'दीव' सि द्वीपकुमार वक्तव्यतार्थो द्वीप एवैकादश: । ( वृ० प० १९७ ) श० १६, उ० १, ढा० ३४७ ३ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. उदधि उद्देशाने विषे उदधिकुमार सुवास । दिशाकुमार सुवारता, दिशा नाम वसु स्वात ॥ १४. थणियकुमार सुकथन तें, थणिय चउदमो उद्देशका, सोलम शतके ए चउदश १५. तत्र अधिकरणी इसो, प्रस्तावन अर्थे प्रकट, वायुकाय पद *सुणज्यो भव्य प्राणी हो, वीर वचनामृत जाणी हो । (ध्रुपदं ) १६. तिण काले नैं तिण समय, नगर राजगृह जाणी हो । जाब सेव करते छते व गीयम इस वाणी हो । १७. छै प्रभु ! अधिकरणी विषे, लोह तणां पहिछाणी हो । घण नै अभिघाते करो, वायु उपजे आणी हो ? हंता अस्थि जाणी हो । नाम । ताम ॥ सोरठा १८. वृत्तौ वायु सोय, आक्रांत संभव भाव करि । आदि प्रथम अवलोय, वायु अचेतन ऊपजै ॥ १६. छै सचेतन हंत, एटवो संभावियै अछे । एम प्रश्न करतो है ॥ जाण, अटकर्णी वायु अचित । तेह की परिछाण धान सचित वायु तथी ॥ जनक परंपर तारा, २१. एह गोपि कही। मुख उघाड़े वाय, गावज्ज भाषा शक नीं ॥ २२. हस्त तथा वस्त्रादि मुख डांगी वोल्यांएव उत्पन्न तोमरंत, २०. 'वृद्ध धारणा निरवद्य भाषा वादि, गत सोलम दुजे वृत्तौ ॥' (ज० स० ) प्रथम उद्देशक अर्थ । कहियै अछे तदर्थ || २३. ते वायु भगवंत जी ! शस्त्र स्वायादि जाणी हो । के गरे अछे के अगक माणी हो । गरे अछे ते प्राणी हो । २४. जिन भार्या मरे, अणफय न मराणी हो । ते प्रभु! स्यूं कलेवर थकी, शरीर सहित निकलाणी हो । के तनू रहित विद्याणी हो ? * लय : सो ही तेरापन्थ पाव हो भगवती जोड २५. जिम वर्णन खंधक तणें, दाख्यो तिम इहां माणी हो । यावत ति अर्थ करी यावत तनु रहिताणी हो । नोक नहीं प्राणी हो, इहां लग कहिवो पिछाणी हो । ! ४ १३. उदही, दिसा 'उदहि' त्ति उदधिकुमारविषयत्वादुदधिरेव द्वादश 'दिसि' त्ति दिक्कुमारविषयत्वाद्दिगेव त्रयोदशः । ( वृ० प० ६९७) १४. थणिते 'वणिए' ति स्वनितकुमारविषयत्वात्स्तनित एव चतुर्दश प्रति (१० ५० ६९७) १२. तत्राधिकरणका प्रस्तावनामाह ( वृ० प० ६९७ ) १६. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमागे एवं पासी १७. अत्थि णं भंते ! अधिकरणिसि वाउयाए वक्कमति ? हंता अस्थि । ( श० १६/१ ) 'वक्कमइ' त्ति व्युत्क्रामति अयोघनाभिघातेनोत्पद्यते । (बु०प०६९७) १८,१९. अयं चाक्रान्तसम्भव त्वेनादावचेतनतयोत्पन्नोऽपि पश्चात्सचेतनीभवतीति सम्भाव्यत इति । उत्पन्नश्च सन म्रियत इति प्रश्नयन्नाह (यू० १०६९७) २२. हस्ताद्यावृतमुखस्य हि भाषमाणस्य जीवसंरक्षण( वृ० ८० ७०१) तोऽनवद्या भाषा भवति । 'पुट्ठे' २३. से भंते! कि पुट्ठे उद्दाइ ? अपुट्ठे उद्दाइ ? स्पृष्टः स्वकावस्त्रादिना ? ( वृ० १०६९७) २४. गोमा ! पुट्ठे उद्दाइ, नो अपुट्ठे उद्दाइ । ( ० १६०२) से भंते! कि ससरीरी निक्खमइ ? असरीरी निक्खमइ ? २५. एवं जहा बंदए ( भ० श० २।१०-१२ ) जाव से तेणटठेणं नो असरीरी निवखमइ । (० १६०३,४) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २६ तेजस कार्मण ताय, शरीर सहित कहाय, काया तेह आवयी वायु जे निकले छे धकी ॥ २७. तनु औदारिक आदि ते आधी तनु रहित ते । नीकलवो संवादि, बंधक उसे को ॥ वायु सूत्र कम पर्छ। २८. अग्नी सहचर बाय अग्नि सूत्र हिव ताय, कहियै छै ते सांभलो ।। अग्निकाय पद २९. अंगारकारिका ने विषे, अनिका वहिदानी हो । किता काल तिष्ठ तिहां ? ए सिपड़ी विषे आणी हो । अमिनी ठाणी हो । ३०. श्री जिन भारी जन्य थी 2 आणी हो । यति उकृष्ट थकीत तीन दिवस निशि ठाणी हो । दाखे पूर्ण नाणी हो || ३१. तेह अग्नि-सिड़ी विषे केवल अग्नि न जाणो हो । अन्य तिहां वाउकाइया उपजे आणी हो । तास न्याय इम जाणी हो || तेस्मार्ट पाणी हो ? नहि प्रले विद्याणी हो । वायुविण न दीपाणी हो || ३२. अग्नितां बाउका छ अग्निकाय वायु विना त ३२. अग्नि तो अधिकार थी, अग्नितप्त अब जेह ते अधिकृत्य करी इहां गोवम प्रश्न करेह ॥ कति किया पद ३४. *पुरुष प्रभु! अप कोठा विषे ते आरण विधे जाणी हो । लोह ने संडा करी लोह प्रति का वाणी हो । तथा प्रक्षेपत आणी हो । ३५. किती क्रिया से पुरुष में ? जिन भाखे सुखदाणी हो। ज्यां लगते नर अय प्रतै, आरण विषे पहिछाणी हो । सोह संडासे ताणी हो । तथा प्रजाणी हो । काइया जाव जाणी हो । या पंच फर्शाणी हो ।। जो नीनो जाणी हो । संडासो पहिछाणी हो । लोह तणो ए माणी हो । ईपत बंक अग्राणी हो । भत्था धमण नोपाणी हो । पंच क्रिया फर्माणी हो । ३६. बाहिरका लोह त्यां लग ते नर ने क्रिया, पाणावाय माणी हो ३७. जे जीवन शरीर थी वलि लोह-कोठो नीपनो, ३८. अंगारा काढवा तणीं, लोहनी लाठी नोपनी, तेह जोवा रं जाणी हो, * लय: सो ही तेरापन्थ पाव हो २६. सशरीरश्च कडेवरान्निष्क्रामति कार्म्मणाद्यपेक्षया । (बु. १०६९७) २७. औदारिकाद्यपेक्षया त्वशरीरीति । ( वृ० प० ६९७ ) २८. अग्निमरवाहावर्षायुमूत्रानन्तरमग्निमाह (१० १०६९०) २९. इंगालकारियाए णं भंते! अगणिकाए केवतियं काल संचिट्ठइ ? 'इंगाल कारियाए ' त्ति अङ्गारान् कारिका अग्निशकटिका तस्यां २०. गोषमा ! जग तो राइंदियाई । करोतीति अंगार( वृ० प० ६९७ ) उनकोसेणं तिष्णि ३१ न केवलं तस्यामग्निकायो भवति । ( वृ० प० ६९७ ) अण्णे वि तत्थ वाउयाए वक्कमति, ३२. यत्राग्निस्तत्र वायुरितिकृत्वा, कस्मादेयमित्याह-( वृ० प० ६९७) न विणा वाउयाएणं अगणिकाए उज्जलति । (श० १६/५) ३३. अग्न्यधिकारादेवाग्नितप्तलोमधिकृत्याह ( वृ० प० ६९७ ) ३४,३५. पुरिसे णं भंते! अयं अयकोइठंसि अयोमएणं संडास मागे वा पश्विमाणे वा कति किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोट्ठसि अयोमएणं संडासएण 'उहिमाणे 'ति उन वा पन्हिमाणे व त्ति प्रक्षिपन् वा । (२००६९७) ३६. उब्बिति वा पव्विति वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पाणाश्वायकिरियाए पंचहि किरियाहि पुट्ठे, २०.पि वागं सरीरेहितो आए निव्यलिए, अयको नियत्तिए, संडास निब्बतिए 1 ३०. गाला निष्पत्तिया इंगाली निम्बत्तिया भत्वा निव्वत्तिया, ते विणं जीवा काइयाए जाव पाणाइवाकिरियाए पंचहि किरियापु (०१६६) श० १६ उ० १ ढा० ३४८ ५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. पुरुष प्रभु अप-कोठा लोह में संडासे ग्रही, बाहिर काढत ताणी हो, ४०. किती क्रिया ते पुरुष नैं ? भाखे जिन जिहां लगे जे पुरुष नै लोटते अय- कोठा घी जाणी हो, जाव प्रक्षेपे ४१. तिहां लगे ते पुरुष में काइया जाव पाणाइवाय ते, की, लोह प्रतं पहिचानी हो। अहरण ऊपर आणी हो । सिहां प्रक्षेपतो जाणी हो ।। गुणखाणी हो । पहाणी हो। आणी हो । क्रिया पंच जाणी हो । फर्शाणी हो । ए जिन वाण हाणी हो । सोरठा ४२. इहां अय आदि सुजोय, वस्तु नीपनी जीव नैं । जिया पंच अवलोय, अविरत भावे कर वृत्तो ॥ थी, लोह नीपनो आणी हो । अयहरयो जानी हो । नीपनो तेह माणी हो ॥ ४३. *जेह जीव नां शरीर बलि संडास नीपनो मि ४४. अति लघुघन वलि नोपनो, लोह नीं अंहरण जाणी हो । जे काष्ठ ऊपर अहरण धाविय ते अंहरण खोळी जाणी हो । जंतु तनु थी नीपाणी हो ।। ए जलभाजन जाणी हो । ए उपकरण पिछाणी हो । ते लोट पडतां ठाणी हो । ४६. ओहरण-शाला नोपनी, अय-परिकर्म ग्रहाणी हो । इतर शाल लोहार नीं एह सर्व ने माणी हो । काइयादिक जाणी हो, पंच क्रिया फर्शाणी हो || ४५. उदकद्रोणि वलि नीपनी, जे तप्त लोह शीतल करें धुर ४७. सोलम शत धुर देश ए, ढाल तीनसौ सुहाणी हो । ऊपर संतालीसमी, गुरु भिक्षू गुणखाणी हो । भारीमाल राय जाणी हो, 'जय' संपति सुखदाणी हो ॥ *लय सो ही तेरापन्थ पावै हो ६ भगवती जोड़ 'sreefsणि' त्ति ईषद्वङ्काग्रा लोहमययष्टि: 'भत्थ' ति ध्मानखल्ला | (० ० ६९०) ३९,४०. पुरिसे णं भंते ! अय अयकोट्टाओ अयोमएणं संडासएण गहाय अहिकरणिसि उक्खिव्वमाणे वा निफितिकिरिए ? गोवमा ! जावं जाव (सं० पा० ) निक्खिव वा से पुरिसे अयं अपकोदालो ४१. तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पाणाइवायकिरियाए - पंचहि किरियाहि पुट्ठे, ४२. प्रभूतिपदानिशंकजीवानां पञ्चत्रिय त्वमविरतिभावेनावसेयमिति । ( वृ० प० ६९७) ४३. जेसिपि जीवाण खरीरेहितो अपो निम्बलिए, संडास निव्यसिए चम्मे निव्यत्तिए । 'बम्मेट्ठे' त्ति लोहमयः प्रतलायतो लोहादिकुप्रयोजनी सहकारापकरणविशेषः । ( वृ० प० ६९७) ४४. मुट्ठिए निव्वत्तिए, अधिकरणी निव्वत्तिया, अधिकणखोडी निव्वत्तिया, 'मुट्ठिए' त्ति लघुतरो घनः 'अहिगरणिखोडि' त्ति यत्र काष्ठेऽधिकरणी निवेश्यते । ( वृ० प० ६९७ ) ४५. उदगदोणी निव्वत्तिया, 'उदगदोणि' त्ति जलभाजनं यत्र तप्तं लोहं शीतलीकरणाय क्षिप्यते । ( वृ० प० ६९७ ) ४६. अधिकरणसाला निव्वत्तिया, ते वि णं जीवा काइयाए जाव पाणाइवायकिरियाए - पंचहि किरिवाहि पुट्ठा । ( श० १६।७ ) 'अहिगरणसाल' त्ति लोहपरिकर्म गृहम् । (बृ० प०६९७) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३४८ सोरठा १. पूर्व क्रिया विख्यात तेह क्रिया अधिकरणिकी। अधिकरणी रै ख्यात, ते अधिकरण छते हुवे || २. तिण कारण अवलोय, अधिकरणी अधिकरण फुन । एह निरूपण दोय, कहिये हिव आगले || छँ अधिकरण अधिकरण पद * प्रभुजी नीं वाण सुहाणी हो । ३. जीव प्रभु! स्वं अधिकरणी छे के अधिकरण पिछाणी हो ? जिन कहे जीव अधिकरणी पिण, अधिकरण पिण जाणी हो । 1 ४. किण अर्थ कहिये इस प्रभुजी ! जीव अधिकरणी छे हो । अधिकरण पण जीव अर्थ? ए प्रश्न गोयम इम प्रोछे हो । ५. श्री जिन भाखं अव्रत आश्रयी, ते तिण अर्थ जाणी हो । यावत अधिकरण पण कहिये हव तसु न्याय पिछाणी हो । , ६. अधिकरण कहिवाय, तमू बांधाई ताय, ७. तथा बाह्य हल आदि परिग्रह ते अधिकरण है। ते जेहनें व्याधि अधिकरणी है जीव ते ॥ ८. शरीरादि अधिकरण तेही किणही प्रकार करि अभ्यतिरिक्त उच्चरण, अधिकरण ए जीव छ । ६. अधिकरण को जीव, वलि अधिकरणी पिण को। अवत तास सदीव तेह जीव ने ईज बे ॥ १०. विरतवंत मुनिराय शरीरादिक ने भाव पिण । अधिकरणी ते नांय, अधिकरण पिण नहि वृत्तौ ॥ सोरठा दुर्गति दुर्गति निमित्तज वस्तु जे । शरीर नैं वलि इन्द्रिय । ११. हिव दण्डक चउवीस, तेह विषे ए देखाड़े सुजगीस, चित्त लगाई १२. "रो प्रभु स्यं अधिकरणी *लय श्री रामजी काधी नेहराई पद बिहुं । सांभो ॥ श्री जिन भाव अधिकरणी पिण वलि अधिकरण वदीजै हो । १३. इम जिम जीव कति रोते नारक पिण कहिवाई हो । एवं अंतर रहित जाव ते वैमानिक पिण थाई हो || के अधिकरण कहीजे हो ? १२. प्रक्रिया प्ररूपितास्तासु चाधिकरणको, सा वाधिकरणिनोऽधिकरणे सति भवतीत्यतस्तद्वयनि(२००९९७) रूपणायाह ३. जीवे णं भंते ! कि अधिकरणी ? अधिकरणं ? गोयमा ! जीवे अधिकरणी वि, अधिकरणं पि । (४० १६४८) ४. से केणट्ठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जीवे अधिकरणी वि, अधिकरणं पि ? ५. गोयमा ! अविरति पडुच्च । से तेणट्ठेणं जाव (सं० पा० ) अधिकरणं पि । ( श० १६ ९ ) ६. 'अहिगरणीयि' सि अधिकरण- दुर्गतिनिमितं वस्तु तच्च विवक्षया शरीरमिन्द्रियाणि च । (बु०प०६९०) ७. तथा बाह्यो हसख्यादिपरिग्रहस्तदस्यास्तीत्यधिकरणी जीवः । ( वृ० प० ६९८ ) ८. 'अहिकरणं' ति शरीराद्यधिकरणेभ्यः कथयदव्यतिरिक्तत्वादधिकरणं जीवः । ( वृ० प० ६९८ ) ९. एतच्च द्वयं जीवस्याविरति प्रतीत्योच्यते । ( वृ० प० ६९०) १०. तेन यो विरतिमान् असौ शरीरादिभावेऽपि नाधिकरणी नाप्यधिकरणमविरतियुक्तस्यैव शरीरादेरधिकरणत्वादिति । ( वृ० प० ६९० ६९९ ) ११. एतदेव चतुर्विगतिदण्डके दर्शयति । (बृ० प० ६९९ ) १२. नेरइए णं भंते ! कि अधिकरणी ? अधिकरणं ? गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि । १३. एवं जहेव जीवे तहेव नेरइए वि । एवं निरंतरं जाव मागिए । (१० १६.१०) श० १६, उ० १, ढा० ३४८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४-१७. अधिकरणी जीव इति प्रागुक्तं, स च दूरवत्तिनाsप्यधिकरणेन स्याद् यथा गोमान् इत्यतः पृच्छति । (वृ०प० ६९९) सोरठा १४. पूर्वे जोव उच्चरण, अधिकरणी छै जीवड़ो। दूरवत्ति अधिकरण, तिण करिक पिण स्यू हवे? १५. यथा गाय छै जास, ते गोमान कहीजिये । गाय जुदी छै तास, तनु तसु संलग्ने नथी ।। १६. तिणविध ए स्यू होय, जीव थकी अधिकरण ते । दूरवत्ति पिण जोय, तिणसं अधिकरणी जंतु॥ १७. इण कारण पूछत, गोयम प्रश्नज आगलै । सुण श्रोता मतिवंत, अधिकरण प्रति ओलखो ।। १८. *जीव प्रभु ! स्यूं सअधिकरणी, के निरअधिकरणी त्यांही हो ? श्री जिन भाखै सअधिकरणी, निरअधिकरणी नांही हो ।। १६. किण अर्थे पूछयां जिन भाखै, अव्रत आश्रयी जाणो हो। वत्ति विषे आख्यो ते कहिये, सांभलजो भव्य प्राणी हो । सोरठा २०. सभाविक तनु आदि, ते अधिकरणे करी सही। वरत जीव संवादि, सअधिकरणी तसु कह्यो ।। १८. जीवे णं भंते ! कि साहिकरणी ? निरहिकरणी? गोयमा ! साहिकिरणी, नो निरहिकरणी। (श० १६।११) १९. से केणठेणं -पुच्छा ! गोयमा ! अविरतिं पडुच्च । २१. संसारिक नां जाण, तनु अधिकरणज सर्वदा । सहचारिक पहिछाण, स्व अधिकरणपणों कह्यो। २०. 'साहिगरणि' त्ति सह–सहभाविनाऽधिकरणेन शरीरादिना वर्तत इति समासान्तेन्विधिः साधिकरणी (०प० ६९९) २१. संसारिजीवस्य शरीरेन्द्रियरूपाधिकरणस्य सर्वदैव सहचारित्वात् साधिकरणत्वमुपदिश्यते । (वृ० ५० ६९९) २२. शस्त्राद्यधिकरणापेक्षया तु स्वस्वामिभावस्य । (वृ० प० ६९९) २३. तदविरतिरूपस्य सहवत्तित्वाज्जीवः साधिकरणीत्युच्यते। (वृ० प० ६९९) २४. अत एव वक्ष्यति-'अविरई पहुच्च' ति। (वृ०प० ६९९) २२. फुन अधिकरण शस्त्रादि, तेह तणींज अपेक्षया । ते शस्त्र तणों संवादि, स्वामी जीव कहीजिये। २३. ते शस्त्र तणीं विख्यात, अविरत सहवर्ती थकी। जीव भणी आख्यात, सअधिकरणी तेहनें ॥ २४. तिण कारण जिन वाय, अविरत पडुच्च जीव जे। सअधिकरणी थाय, ते सहचारीपण सदा ।। वा०-साहिगरणी कहितां शरीरादिक अधिकरण करिक सहीत वत्तै ते साधिकरणी । संसारी जीव नां सरीर, इंद्रिय रूप अधिकरण नै सर्व काल हीज सहचारीपणा थकी साधिकरणपणों कह्यो । वलि अधिकरण ते शस्त्रादिक नी अपेक्षया शस्त्र नी अव्रत रूप नै सहवर्तीपणां थकी जीव नै साधिकरणी कह्यो । जिम खड्गादिक शस्त्र किण ही वेलां कनै न हुदै । तो पिण शस्त्र नी अव्रत सहित जीव छ, ते माटै साधिकरणी जीव नै कहिये ।। सोरठा २५. संजत तणु कहाव, तनु सद्भावे पिण तसु । अविरति तणों अभाव, सअधिकरणपणों नथी। २५. अत एव संयतानां शरीरादिसद्भावेऽप्यविरतेर भावान्न साधिकरणित्वं । (वृ० प० ६९९) *लय : श्री रामजी कीधी नैहराई १. वृत्ति के जिस अंश के आधार पर वातिका लिखी गई है, वह ऊपर की पांच गाथाओं के सामने उद्धृत है। ८ भगवती जोड़ Jain Education Intermational Jain Education Intemational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. निरधिकरणी जाण, तास अर्थ इम कीजिये । नीकलियो पहिछाण, अधिकरण जिण जीव थी। २७. संजति सिद्ध विण ताहि, अधिकरण सू दूर नहीं। निरधिकरणी नांहि, अविरति सहवर्तीपण ।। २८. अथवा सुत मित्रादि, ते अधिकरण करी सहित । वरत जेह संवादि, सअधिकरणी तसु कह्यो । २६. नहि किण रै पुत्रादि, तो पिण तेहनी विरति नहीं। साधिकरण संवादि, निरधिकरणी नहि जिको ।। २६. 'निरहिगरणि' त्ति निर्गतमधिक रणमस्मादिति निरधिकरणी। (वृ० ५० ६९९) २७. अधिकरणदूरवर्तीत्यर्थः, स च न भवति, अविरतेरधिकरणभूताया अदूरवत्तित्वादिति । (वृ० १० ६९९) २८. अथवा सहाधिकरणिभिः-पुत्रमित्रादिभिर्वर्तत इति साधिकरणी। (वृ० ५० ६९९) २९. कस्यापि जीवस्य पुत्रादीनामभावेऽपि तद्विषयविरतेर भावात्साधिकरणित्वमवसेयमत एव नो निरधिकरणीत्यपि मन्तव्यमिति । (०प० ६९९) ३०. 'प्रश्न करै का ताहि, राधिकरणी जीव छ । निरधिकरणी नाहि, एहवो आख्यो सूत्र में ।। ३१. जीव विषे तो लेह, सिद्ध संजती पिण सहु । निरधिकरणी तेह, उत्तर कहियै तेहनों ।। ३२. जीवेणं वच एक, जीव अवती माहिलो। एक जीव संपेख, ते आश्री ए संभवै ॥' (ज० स०) ३३. *तिण अर्थे करि जाव कहोजे, निरधिकरणी नाही हो । एवं जाव वैमानिक इक वच, जीव संलग्न कहाई हो । ३३. से तेणट्टेणं जाव नो निरहिकरणी । एवं जाव वेमाणिए। (श० १६:१२). ३४. अधिकरणाधिकारादेवेदमाह- (वृ० प० ६९९) दूहा ३४. अधिकरणी अधिकार थी, तेहिज वली कहेह। प्रश्नोत्तर शिष्य प्रभु तणां, सांभलजो चित देह ।। ३५. *आत्मा अधिकरणी प्रभु ! कहियै ? निज आतम कर वरणी हो। करसण प्रमुख कार्य जन करता, ते आतम अधिकरणी हो ।। ३६. पर अधिकरणी करसणादिक प्रति, अन्य भणी प्रवर्ताव हो। अन्य पास करसणादि करावे, पराधिकरणी कहावै हो ।। ३७. तदुभय अधिकरणी ए तोजो, करसणादिक थी प्रीतं हो। पोते करै अन्य पास करावै, वह अधिकरण सहीत हो ।। ३५. जीवे णं भंते ! कि आयाहिकरणी ? 'आयाहिगरणि' त्ति अधिकरणी—कृष्यादिमान् आत्मनाऽधिकरणी आत्माधिकरणी। (वृ० प० ६९९) ३६. पराहिकरणी? _ 'पराहिगरणि' त्ति परतः ---परेषामधिकरणे प्रवर्त नेनाधिकरणी पराधिकरणी। (वृ० प. ६९९) ३७. तदुभयाहिकरणी? 'तदुभयाहिगरणि' त्ति तयोः आत्मपरयोरुभयं तदुभयं ततोऽधिकरणी यः स तथेति । (वृ०प०६९९) ३८. गोयमा ! आयाहिकरणी वि, पराहिकरणी वि, तदुभयाहिकरणो वि। (श० १६.१३) से केणठेणं भंते ! एवं वृच्चइ-जाव तदुभयाहि करणी वि? ३९. गोयमा ! अविरति पडुच्च ।से तेणठेणं जाव तदुभयाहिकरणी वि । एवं जाव वेमाणिए । (स० १६१४) ३८. जिन कहै आतम अधिकरणी पिण, पर अधिकरणी कहीजै हो। तदुभय अधिकरणी ए जीव छै, प्रभु ! किण अर्थ वदीजै हो? ३६. श्री जिन भाखै अव्रत आश्रयी, तिण अर्थ ए वानिक हो । यावत उभय अधिकरणी छ, एवं जाव वैमानिक हो ।। *लय : श्री रामजी कीधी नैहराई श०१६, उ०१, ढा० ३४८ ९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया सोरठा ४०. कृष्यादि न करंत, तो पिण अधिकरणी जित, स्याग ४१. आगल हि तदर्थ अधिकरण नो ईज जे। हेतु परूपण अर्थ. कहिये छे ते सांभलो || ४२. जीवां अधिकरण प्रभु ! स्पू. आश्रयी । नहि तेहनां ॥ आत्म-प्रयोग निष्पन्नो हो । निज मन प्रमुख व्यापार करी नैं, ते अधिकरण उप्पन्नो हो । ४३. पर नैं मनादिक व्यापारे करि, अधिकरण निपजायो हो । ते पर प्रयोग निपन्नो कहिये के उभय प्रयोग निपायो हो ? ४४. श्री जिन भावे आत्म प्रयोगे निपायो पिण होई हो । पर प्रयोग निपजायोगिण उभय प्रयोगे जोई हो || ४५. कि अ प्रभु! म कहिये ? तब भाखे जिनरायो हो । अविरत आधी एहत्याग भावना हो । ४६. ति अर्थ करि जाव तदुभय, प्रयोग करि निपजाई हो । एवं यावत चरम दंडके वैमाणियाण कहाई हो । सोरठा ४७. कही वृत्ति में वाय वचनादिक जेहनें नहीं। पर प्रयोग करि ताय, निपजावै ते किण विधै ? ४८. अविरत की पेक्षाय, आत्म प्रयोगादिक तणां । त्याग भाव नहि ताय, तिण सूं त्रिविध संभावियै ।। अव्रत ४९. *देश सोनम ने प्रथम उद्देशक, त्रिण अडतालीमी दाल हो । भिक्षु भारीमाल ऋषिशव प्रसादे 'जय जय' हरय विशाल हो । २. इंद्रिय प्रभु श्रोतेंद्रिय धुर छै *सय ओरामजी कीधी हराई १० भगवती जोड़ ढाल : ३४९ हा शरीर इन्द्रिय और योग नीं पृच्छा १. हे प्रभु ! किता शरीरगा ? जिन कहै पंच कहेह | औदारिक घर आखियो जाय कार्मण जेह ॥ धुर कही ? जिन कहे पंच पिछाण । सही, जाव फशेंद्रिय जाण ॥ ४०. ननु यस्य कृष्यादि नास्ति स कथमधिकरणीति ? अत्रोच्यते, अविरत्यपेक्षयेति । (२०१०६९९) ४१. अधिकरणस्यैव हेतुप्ररूपणार्थमाह ( वृ० प० ६९९) ४२. जीवाणं भंते ! अधिकरणे कि आयप्पयोगनिव्वत्तिए ? 'आयप्पओगनिव्वत्तिए' त्ति आत्मनः प्रयोगेण – मनः प्रभृतिव्यापारेण निर्वर्तितं निष्पादितं ( वृ० प० ६९९ ) ४३. परप्ययोगवित्तिए ? तदुभयप्ययोगनिए ? ४४. गोमा आयोगनिव्यत्तिए वि परययोग निव्यत्तिएव तद्भवण्ययोगनिव्यत्तिए वि ( ० १६/१२) ४५. से केणट्ठणं भंते । एवं वुच्चइ ? गोयमा ! अविरति पडुच्च । ४६. से तेजाव तदुभयग्ययोगनिव्यत्तिए वि एवं जाव वेमाणियाणं । (२०१६/१६) ४७. ननु यस्य वचनादि परप्रवर्त्तनं वस्तु नास्ति तस्य कथं परप्रयोगनिवृत्तितादि भविष्यति । ( वृ० प० ६९९ ) ४८. अविरत्यपेक्षया त्रिविधमप्यस्तीति भावनीयमिति । (०१०६९९) १. कति णं भंते ! सरीरंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-ओरा (०१६/१७) लिए, जाव (सं० पा० ) कम्मए । २. कति णं भंते! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहा- सोइंदिए जाव (सं० पा० ) फासिदिए । ( श० १६ । १८ ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. हे प्रभु! जोग किता का? जिन कहे तीन प्रकार मन जोग नैं वचन फुन, काय जोग अवधार ॥ सोरठा त्रयोदण निपजावत ते। जीवादिक ने हिव कहै । ४. हिवत इंद्रिय जोग, अधिकरण मुप्रयोग, ५. प्रभु ! जीव औदारिक, तनु प्रति निपजावत रे। अधिकरणी अच्छे अधिकरण कहावत रे ? ६. जिन कहै गोयमा ! अधिकरणी पिण छे रे । वलि अधिकरण छै, तब गोयम प्रीछे रे ॥ ७. किण अर्थे प्रभुजी ! इह विध उच्चरणं रे । अधिकरणी अर्छ, वलि अधिकरणं रे ? ८. जिन भाखे अविरत आथपी उच्चरणं रे । तिण अर्थ करी यावत अधिकरण रे ।। ६. प्रभु! पुडी जोदारिक तनु निपजायत रे। अधिकरणी अछे ? इमहीज कहावत रे ॥ १०. इम जाव मनुष्य नै, णवरं जेहनें, जे "जिनवाणी भली ( ध्रुपदं ) सोरठा ११. नारक सुर अरु वाय, तिरि पंचेंद्रिय मनुष्य फुन । वैक्रिय तनु कहिवाय, अन्य विषे नहि वैक्रिय || १२. * प्रभु ! जीव आहारक तनु निपजावत रे । अधिकरणी अछे, अधिकरण कहावत रे ? १२. जिन है गोयमा ! अधिकरणी पिछे रे। वलि अधिकरण छै, तब गोयम प्रोछे रे ॥ १४. किण अर्थ प्रभुजी ! यावत अधिकरणं रे । हिव प्रभु इह विधे, वर इह विधे, वर उत्तर वरणं रे ।। आश्रयी, तिण अर्थे उच्चरणं रे । यावत तेहनें, कहिये अधिकरणं १५. प्रमाद रे ॥ इम वैक्रिय कहियै रे । छै ते ते लहियं रे ॥ सोरठा १६. आहारक शरीर सोय, छठे गुणठाणेज ज्यां अविरत नहि कोय, तिणसूं प्रमाद आश्रयी ॥ *लय : हिव आगे जातां अटवी । १७. फोड़ ह अशुभ जोग रूपी तिको प्रमाद कहिये तेह, तिणमें नहिं जिण आगन्या ॥ ३. कतिविहे णं भंते ! जीए पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा मणजोए, वइजोए, कायजोए । ( श० १६ । १९ ) ४. अथ शरीराणामिन्द्रियाणां योगानां च निर्वर्तनायां जीवादेरधिकरणित्वादि प्ररूपयन्निदमाह ( ० १०६९९) ५. जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी ? अधिकरणं ? ६. गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि । ( श० १६।२० ) ७. से केणट्ठणं भंते ? एवं वुच्चइ अधिकरणी वि अधिकरणं पि ? ८. • गोयमा ! अविरति पडुच्च । से तेणट्ठेणं जाव अधिकरणं पि । ( श० १६।२१ ) --- ९. विकणं भंते माणे किं अधिकरणी ? अधिकरणं ? एवं चेव । १०. एवं जाव मणुस्से । एवं वेउब्वियसरीरं पि, नवरं जस्स अस्थि । ( श० १६।२२) ओरानिवसरीर निव्य ११. नारदेवानां वायोपयति मनुष्याणां च तदस्तीति ज्ञेयं । (२०० ६९९) आहारवसरीरं नियम कि १२. अधिकरणी पुच्छा । १३. गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि १४. से केणट्ठेणं जाव अधिकरणं पि ? १५. गोयमा ! पमायं अधिकरणं पि । ( ० १६०२३) पडुच्च । से तेणट्ठेणं जाव १६. इहाहारकशरीरं संयमवतामेव भवति तत्र चाविरतेरभावेऽपि प्रमादादधिकरणित्वमवसेयं । ( वृ० प० ६९९ ) १७. ते णं भंते ! जीवे कतिकिरिए ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। ( पण ० ३६।७८, ७९ ) श० १६, उ० १, ढा० ३४९ ११ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. पद छत्तीसम मांहि, आहारक तेजु वैक्रिय । लब्धि फोड़वै ताहि, क्रिया पंच उत्कृष्ट थी।। १६. शीतल तेज जाण, वली उष्ण तेज कही। शतक पनर में वाण, तिणसू बिहुं तेजू विषे ।। २०. जंघा-विद्याचार, वली वैक्रिय फोड़वै । विण आलोयां धार, कह्यो विराधक केवली ।। १९. "जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिणा तेयलेस्सा पडिहया । (भग० १५।६५) २०. विज्जाचारणस्स णं भते ! "से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेति नस्थि तस्स आराहणा। (भग० २०८३) जंघाचारणस्स ण भंते ! ...'से ण तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा। (भग० २०१७) २२. एवं मणुस्से वि। २१. तिणसू एह संवाद, लब्धि आहारक फोड़वै। ____अशुभ जोग प्रमाद, प्रायश्चित्त आवै तसु ॥' (ज० स०) २२. *इम मनुष्य विष पिण, आहारक निपजावत रे। अन्य दंडक विषे, ए तनु नहिं पावत रे ।। २३. जिम कह्यो औदारिक, तिम तैजस गिणवू रे । णवरं सर्व हो, जीवां रै भणवं रे।। सोरठा २४. कह्या सर्व ए जोव, ते संसारिक आश्रयी। सिद्धां में न कहोव, ते तनु रहितपणां थकी ।। २५. *इम शरीर कार्मण, ते पिण इम कहिवू रे । सह संसारिका, ते विषेज लहिवू रे॥ २३. तेयासरीरं जहा ओरालियं, नवरं-सव्वजीवाणं भाणियब्वं । २५. एवं कम्मगसरीरं पि । (श० १६।२४) २६. जीवे णं भंते । सोइदियं निव्वत्तेमाणे कि अधि करणी ? अधिगरणं? २७. एवं जहेव ओरालियसरीरं तहेब सोइदियं पि भाणियव्वं । २८. नवरं ---जस्स अत्थि सोइंदियं । २९. एवं चक्खिदिय-घाणिदिय-जिभिदिय २६. प्रभ ! जीव सोइंदिय, निपजावत वरणं रे । ___अधिकरणी अछ, के अधिकरणं रे? २७. इम जिम औदारिक, तनु प्रतैज भाख्यो रे । तिम श्रोतेंद्रिय, भणवो इम आख्यो रे ।। २८. णवरं जे एहने, श्रोतद्रिय पावै रे। कहिवं तेह विषे, तेहिज निपजावै रे ।। २६. एवं श्रोतेंद्रिय', चक्खि द्रिय जाणी रे। वलि घ्राणेंद्रिय, जिभिद्रिय भाणी रे ।। ३०. फर्शन्द्रिय पिण दम, णवरं जाणेव रे। जेहनें जेह छै, तेहिज आणेव रे ।। ३१. मन योग जीव प्रभु ! निपजाबत वरणं रे। अधिकरणी अछ, के अधिकरणं रे? ३२. श्रोतेंद्रिय तिम सहु, इमहिज बच योगो रे । णवरं एकेद्रिय वर्जी सुप्रयोगो रे ॥ ३३. इम काय जोग पिण, णवरं सहु जीवा रे। जाव वैमानिके, सह विषे कहीवा रे ॥ *लय : हिव आगे जातां अटवी १. एवं सोइंदिय पाठान्तर में है। १२ भगवती जोड़ ३०. फासिदियाण वि, नवरं ---- जाणियब्वं जस्स ज अत्थि । (श०१६।२५) ३१. जीवे ण भते! मणजोग निव्वत्तेमाणे कि अधि करणी ? अधिकरण? ३२. एवं जहेव सोइंदियं तहेव निरवसेस । वइजोगो एवं चेव, नवरं---एगिदियवज्जाण । ३३. एवं कायजोगो वि नवरं-सव्वजीवाणं जाव वेमाणिए। (श० १६।२६) Jain Education Intenational Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३४. को धर्मसी एम. तन इंद्रियादिक जीव नैं । बाह्य उपकरण तेम, अधिकरण जंतु तिणे ॥ ३५. वलि अविरत ताय ते माटे जीव नै । अधिकरण कहिवाय, अधिकरणी पिण जीव छै । ३६. तनु इंद्रमे जोग, तेरे निपजावतां । अधिकरणीज प्रयोग अधिकरण पण जीव ए ॥ ३७. आहारक तन निपजात प्रमाद आश्रयी जोव ए अधिकरणी आख्यात अधिकरण दिए जीव कहैं. गोयम स्वामी रे | हम ३८. *सेवं भंते ! सोलम त त ३१. त्रिणसौ गुणपपासमी, भिक्षु ऋषि भला. पट भारीमानो रे ।। र उद्देश धामी रे ॥ कही हाल रसानो रे । ४०. 'जय जश' आनंदे रे । तसु पट तूपइंदु मुख संपति गदा, चि ती गोहदे रे ।। चिडं तीर्थ ४१. उगणीसे वायोगं धर वेष्ट जाणी रे । मुदि पक्ष मोहतो, तिथि दश ठाणी रे || चवदश ४२. उदयाचल अणसण, इकसठमों दिग्नो रे । मेलो लावणं, जनक धिन धिन्नो रे ॥ ४३. बाबीसमें दिवसे, पचख्यो संथारो रे । दिवस सहू या इकसठ सुखकारो रे । ४४. तिहाँ संत संताली, इक सय इक अज्जा रे । आज दिवस इहां वर उभय सुलज्जा रे ॥ यो प्रथमोद्देशार्थः || १ || 2 जरा शोक पद १. प्रथम उद्देशक जीव ने अधिकरण संवादि । द्वितीये पण जीवां त विषे दुहा २. नगर राजगृह ने श्री जिन प्रति वंदन करी, गोयम प्रश्न प्रधान || , ।। ' [ ज० स०] कहिये जर शोकादि ॥ जाव वदे इम वान । १. पांच शरीर, पांच इंद्रियां और तीन योग । *लय हिव आगे जातां अटवी ढाल : ३५० ३८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (TO PEIRO) , १. प्रथमोद्देश के जीवानामधिकरणमुक्तं द्वितीये तु तेषामेव जराशोकादिको धर्म उच्यते । ( वृ० प० ६९९ ) २. रायगिहे जाव एवं वयासी श० १६, उ० १,२ ढा० ३४९, ३५० १३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. हे प्रभो! स्यं जीवां तणे, जरा शोक छ सोय? जिन भाखै जीवां तणे, जरा शोक बिहं होय ।। ४. किण अर्थ? तब प्रभ कहै, जेह जीव जग मांहि । तनु दुख वेदै तेहने, जरा कहीजै ताहि ।। ५. जेह जीव मन वेदना, वेदै छै जग मांय । ते जीवां रै शोक है, तिण अर्थे बिहं पाय । ६. वृत्तिकार आख्यो इसो, जरा कही वय-हानि ।। ते तो तनु दुख रूप है, प्रत्यक्ष ही पहिछानि । ३. जीवाणं भंते ! कि जरा? सोगे? गोयमा ! जीवाणं जरा वि, सोगे वि । (श० १६।२८) ४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्च इ... गोयमा ! जे ण जीवा सारीरं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं जरा। ५. जेणं जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाण सोगे । से तेणट्टेणं । ६. 'जर' ति ‘ज वयोहानौ' इति वचनात् जरणं जरा -वयोहानिः शारीरदुःखरूपा चेयम् । (व०प० ७००) ७. अतो यदन्यदपि शारीरं दुःखं तदनयोपलक्षितं । (वृ० प० ७००) ८. 'सोगे' ति शोचनं शोको-दैन्यम्, उपलक्षणत्वादेव चास्य सकलमानसदुःखपरिग्रहस्ततश्च उत शोको भवतीति । (वृ०प० ७००) ७. उपलक्षित थी अन्य पिण, दुक्ख गरीरी जेह । जरा कहीजै जेहने, शरीर पीड़ा तेह ।। ८. दीन भाव ते शोक है, उपलक्षण थी जेह । सकल मानसी दुक्ख पिण, शोक कहीजै जेह ।। ६. कर्म-वेदनी उदय थी, जरा दुक्ख तनु पोड़। कर्म मोहनी उदय थी, शोक मनो दुख भीड़ ।। १०. इम नारक नैं पिण बिहं. एवं यावत जान । थणियकुमार तण बिहुँ, जरा शोक पहिछाण ।। ११. पुढवीकाय तणें प्रभु ! जरा शोक स्यूं होय? जिन कहै पृथ्वी ने जरा, शोक नहीं छै कोय ।। १२. किण अर्थ? तब प्रभु कहै, पृथ्वी कायिक ताहि । वेदै शरीर वेदना, मन दुख वेदै नांहि ।। १३. तिण अर्थ यावत नसु, गोक नहीं कहिवाय । इम यावत चउरिद्रिया, तास जरा इक पाय ।। १४. शेष जीव ने जिम कह्या, जाव वैमानिक तम । तिरि-पं. मनु व्यंतर सुग, ज्योतिषी नै बिहुँ एम ।। १५. सेवं भंते ! स्वाम जी, इम कहि गोयम स्वाम। जाव करै पर्यपासना, वीर प्रभ नी ताम ।। १६. पूर्व वैमानिक तणे, जरा सोग आख्यात । हिव तसु विशेष शक नीं, वक्तव्यता अवदात ।। शक का अवग्रह-अनुज्ञा पद __*प्रभु में गुण अति घणां ललना ॥ (ध्रुपदं) १७. तिण काले नै तिण समय ललना, प्रभुजी ! हो शक्र सुरिद सुराय । वज्र हाथ छै जेहने ललना, प्रभुजी ! हो वज्रपाणि कहिवाय । १०. एनं नेरइयाण वि। एवं जाव थणिय कुमाराणं । (श० १६।२९) ११. पुढविकाइयाणं भते ! कि जरा? सोगे ? गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे । (श० १६।३०) १२. से केणठेणं? गोयमा ! पुढविकाइयाणं सारीरं वेदणं वेदेति, नो माणसं वेदणं वेदेति । १३. से तेणठेणं जाव (सं० पा०) नो सोगे । एवं जाव चउरिदियाणं । १४ सेसाणं जहा जीवाणं जाव वेमाणियाणं । (श० १६॥३१) १५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव पज्जुवासति । (ज० १६॥३२) १६. अनन्तरं वैमानिकानां जराशोकावुक्तौ अथ तेषामेव विशेषस्य शक्रस्य वक्तव्यतामभिधातुकाम आह (वृ० प० ७००) १७. तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविदे देवराया वज्जपाणी *लय : हिरणी जब घर, ललना १४ भगबती जोड़ Jain Education Intemational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. पुरंदरे जाव दिब्वाई भोगभोगाई भंजमाणे विहरइ । १९. इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विपुलेणं ओहिणा आभोएमाणे-आभोएमाणे पासति । २०. एत्थ णं समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे १८. असुर-पुरां ने विदारवै ल०, प्र० ! नाम पुरंदर तास । यावत भोगवतो थको ल०, प्र० ! विचरै करत विलास ।। १६. एहिज केवल कल्प जे ल०, प्र० ! जंबुद्वीप शोभंत । विस्तीर्ण अवधे करी ल०, प्र० ! प्रजंजतो पेखंत ॥ २०. श्रमण भगवंत महावीर ने ल०, प्र. ! जंबूद्वीप रै मांहि । देख लिया तिण अवसरे ल०, प्र० ! वंदण री हुई चाहि ।। २१. जिम ईशानज आखियो ल०, प्र० तीज शतक धुर उद्देश । तिमहिज कहिवो शक नों ल०, प्र० ! णवरं इतरो विशेष ॥ २२. ईशाणेंद्र अवधे करी ल०, प्र० ! देख्या श्री जिनराय । तेड्या सुर आभियोगिया ल०, प्र० ! शके तेड्या नाय ।। २१. एनं जहा ईसाणे तइयसए (३।२७) तहेव सक्के वि, नवरं--- २२. आभिओगे ण सद्दावेति । तत्र किलेशानो महावीरमवधिनाऽवलोक्याभियोगिकान देवान शब्दयामास शक्रस्तु नै। (व. प०७००) २३. तथा तत्र लघुपराक्रमः पदात्यनीकाधिपतिनन्दि घोपाघण्टाताडनाय नियुक्त उक्तः । (वृ० प०७००) २३. लघु पराक्रम पदाति अनीक नां ल०, प्र०! अधिपति सुर - जान। नंदीघोष घंटा ताड़वा ल०, प्र० ! दियो आदेश ईशान ।। २४. शक्र सुघोष घंटा प्रते ल०, प्र०! ताड़ण अर्थे ताम । हरिणगमेषी देव ने ल०, प्र० ! आदेश दै इण ठाम ।। २५. पुष्पक विमानकारी कह्यो ल०, प्र. ! ईशान में अधिकार । पालक विमानकारी कह्यो ल०, प्र० ! शक तणे सुविचार ।। २४. हरी पायत्ताणियाहिवई, सुघोसा घंटा, इह तु मुघोषाघण्टाताडनाय हरिणगमेषी नियुक्त इति वाच्यं । (वृ० ५० ७००) २५. पालओ विमाणकारी, तथा तत्र पुष्पको विमानकारी उक्त इह तु पालकोऽसौ वाच्यः । (व०प०७००) २६. पालगं विमाणं, तथा तत्र पुष्पक विमानमुक्तमिह तु पालकं वाच्यं । (वृ० प० ७००) २७. तथा तत्र दक्षिणो निर्याणमार्ग उक्तः । (वृ०प० ७००) २६. पुष्पक नामै विमान छ ल०, प्र० ! ईशान नैं अवलोय। पालक नामै विमाण छै ल०, प्र० ! णक सुरिद्र ने सोय ।। २८. उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे, इह तूत्तरो वाच्यः । (वृ० ५० ७००) २७. दक्षिण कानी आवा तणों ल०, जिनवरजी ! हो मारग जेहनों होय । दक्षिण निर्याण मग को ल०, जिनवरजी ! हो ईशान नै अवलोय ॥ २८. उत्तर कानी आवा तणो ल०, गोयमजी! हो मारग जेहन होय । उत्तर निर्याण मग कह्यो ल०, गो०! शक्र तणे अवलोय।। २६. अथवा नंदीसर द्वीप में ल०, गो० ! ईणाणकूण मझार। रतिकर पर्वत में विष ल०, गो० ! ईशान नों अवतार ।। ३०. इहां नंदोसर द्वीप में ल०, जि० ! अग्निकूण रे मांहि । रतिकर पर्वत नै विषे ल०, जि० ! णक ऊतरै ताहि। ३१. शेष तं चेव कहीजिये ल०, जि०! जाव पोता नों नाम । संभलावी ने इम कहै ल०, जि० ! वारू वच अभिराम ।। ३२.हं प्रभु ! शक सुरिंद्र छं ल०, जि० ! देवानुप्रिय प्रति हेव । नमस्कार वंदणा करूं ल०, जि० ! इम कही करतो सेव ।। ३३. धर्म कथा जिनजी कही ल०, जि० ! यावत परषद ताम । पोहती निज-निज स्थानके ल०, जि० ! वंदी शिर नाम ।। २९. तथा तत्र नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरपूर्वो रतिकरपर्वत __ईशानेन्द्रस्यावतागयोक्तः । (वृ०प० ७००) ३०. दाहिणपुरस्थिमिल्ले रतिकरपब्वए। इह तु पूर्वदक्षिणोऽसौ वाच्यः। (वृ०प० ७००) ३१,३२. सेसं तं वेब जाव नामगं सावेत्ता पज्जुवासति । 'नामगं सावेत्त' त्ति स्वकीयं नाम श्रावयित्वा यदुताहं भदन्त ! शक्रो देवराजो भवन्तं वन्दे नमस्यामि चेत्येवम् । (वृ० १०७००) ३३. धम्मकहा जाव परिसा पडिगया। (श० १६।३३) श० १६, उ० २, ढा० ३५० १५ Jain Education Intemational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. शक्र सुरिंद्र तिण अवसरे ल०, जि० ! धर्म सुणी हि धारने ल०, जि० ! ३५. नमस्कार वंदना करो ल०, जि० ! प्रभु ! अवग्रह केतला ल०, जि० ! स्वामी 7 वीर पास निर्दोष । पाम्या हरष संतोष | ३६. श्री जिन भाखे हे सक्का ! ल०, J सुरिद जी! हो पंच प्रकार विचार | प्रगट अवग्रह परुपियो ल० मु० ! स्वामीपणे श्रीकार ॥ ३७. प्रथम देविंद्र अवग्रहे ल० मु० ! शक्र अनैं ईशाण । लोकार्द्ध दक्षिण उत्तरे ल०, तास अवग्रह जाण ॥ सु० ! ३६. गाथापति अवग्रह कह्यो ल०, सु० ! निज मंडल नों ते धणी ल०, सु० ! सु० ! ३८. राजा चक्रवत्ति तेहनों ल०, षट खंड क्षेत्र भरतादि नां ल०, सु० ! वचन वदै इम सार । कृत स्वीकार ? अवग्रह ग्रहण करेह | नृपति अवग्रह जेह ॥ ४०. सागारिक अवग्रह कह्यो ल०, सु० ! घर आगार सहीत । घर ईज तास अवग्रह ल०, सु० ! निज घर स्वामी वदीत ॥ प्रगट थयो जिण दिशि थकी ल०, *लय : हिरणी जाव चरं, ललना १६ भगवती जोड ४१. सायमिक अवग्रह को ल० गु० ! सादृश्य धर्म वर्तह ते साधनोज अवग्रह ० ० इहां वृत्तिकार कहे। " ते मंडलिक राजान | ग्रहपति अवग्रहमान ॥ मोरठा ४२. पंच कोस परिमाण, अशन निमित योजन जइ आवै निज स्थान, दिशा तिमित अभ्र ४३. ऋतुबंध शेयेकाल माय एक वर्षाकाल विशाल, प्यार मास ४४. * शक्र सुणी नें इम कहे ल० जि० ! श्रमण निज विपरता ० शि० ४५. एहने हूं अवग्रह प्रतं ल०, जि० ! निर्ग्रथ नै म्हारी आगन्या ल०, जि० ४६. प्रभु प्रति स्तुति नमण करी ल०, लग अरध । कोस फुन ॥ अवग्रह । लग इम सी ॥ आर्यपणे अवलोय | ते मुनिवर ने जय ॥ अनुजाणूं छू स्वाम | ! एम कहीनें आम || सु० ! चढ दिव्य यान विमान । सु० ! तेहिज दिशि गयो जान ॥ ३४. तए गं से सक्के देविदे देवराया समणस्स भगवओ अंतियं धम्मं महावीरस्स निसम्म सोच्चा ह ३५. समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसिता एवं पानी कतिविहे णं भंते सोम पणते ? 'हे' ति भवते सोऽवग्रहः । ३६. सक्का ! पंचविहे ओग्गहे पण्णत्ते, ३७. देविदोग्गहे, 'देविदोहे य' त्ति देवेन्द्रः शक्र ईशानो वा तस्यावग्रहो दक्षिणं लोकार्द्धमुत्तरं वेति देवेन्द्रावग्रहः । (बृ० प० ७००) ३८. रायोग्गह, 'राभोग' त्ति राजा चक्रवर्ती तस्यावग्रहःपट्खण्डभरतादिक्षेत्रं राजावग्रहः । ( वृ० प० ७०० ) ३९. गाहा, स्वामिना स्वीपिते य (१० १०७००) जहा -- तं ४१. ४०. महे 1 'सागरिया' ति सहावारेण मेहेनत इति सागार में एवं सागरिकस्तस्यानपहो गृहमेवेति सागारिकावग्रहः । ( वृ० प० ७०० ) 'गाहावई उग्गहे' त्ति गृहपति: माण्डलिको राजा तस्यावग्रहः स्वकीयं मण्डलमिति गृहपत्यवग्रहः । (१० प० ७००) + 'सहमति समानेन पण चरन्तीति साधम्मिकाः साध्यपेक्षया साधव एव तेषामवग्रहः । ( वृ० प० ७०१ ) ४२,४३. तदाभाव्यं पञ्चक्रोशपरिमाणं क्षेत्रमृतुबद्धे मासमेकं वर्षासु चतुमासान यावदिति साधम्मकाद( वृ० प० ७०१) ग्रहः । ४४. एवमुपश्रुत्येन्द्रो यदाचख्यौ तदाह - ( वृ० प० ७०१ ) जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति ४५. एएसि णं ओग्गहं अणुजाणामीति कट्टु ४६. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुहति दुहित्ता जामेव दिस पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए । ( श० १६।३४ ) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक सम्बन्धो व्याकरण पद ४७. हे भगवंत! इह विध कही ल०, जि० ! गोतम भगवंत ताय । स्तुति नमण करि वीर ने ल०, जि० ! इह विध बोलं वाय ॥ ४८. जे प्रभु ! शक्र सुरिंद ही ल०, प्र० ! प्रवर देव नों राय । तुझ प्र एवं कहे ल० प्र० दक्षिण भरत १ मा ।। ! मांय ४६. अनुजाणूं मुझ आगन्या ल०, जि० ! जिन भाखे तिण अवसरे ल०, सु० ! ए थाय ? कहाय ॥ सोरठा ए जोय, तथापि शक्र स्वरूप करि । होय, के सम्यकवादी नथी ॥ गोतम भगवंत वीर प्रति । सम्यकवादी तणों ॥। ५०. सत्य अर्थ सम्यकवादी ५१. इम आसकी ताय, प्रश्न करे हित स्याय प्रश्न ! देव तणों ए राय । मिथ्यावादी कहाय ? ५२. * हे प्रभु ! शक्र सुरिंद ही ल०, जि० स्यूं सम्माबादी अछे ल०, जि०! के ५३. जिन भाखे तिम अवसरे ल०, गो० ! सम्मावादी ते होय । पिण मिथ्यावादी नहीं ल०, गो० ! तास न्याय अबलोय || सोरठा इम वाय, शक्रज सम्यक ईज कहाय, वदवा नुं ५४. वृत्ति विषे ५५. सम्मावादी सम्यकवादी ५६. समदृष्टी मिथ्या सत्य अर्थ हंता सत्य तसु धर्मसी । मिथ्यावादी नथी ॥ करें परूपणा । तास परूपणा ॥ बोलां तणी । सोय, अर्थ कियो होय, पिण सक-इंद साची नां दश फंद, न करें ५७. शुध सरधे दश बोल, ते दश ही शक्र सुरिंद अमोल, सूधी करें ५८. भाषा तेहने प्यार हिव आगले । सांभलजो नर नार, पूछे गोयम गणहरू | ५६. * हे प्रभु! शक्र सुरेंद्र ही ल०, जि० ! सहु सत्य भाषा बोलंत । मृषा तथा वनि मिश्र ही १०. जि० ! असत्यामृषा त ? ल०, परूपणा ॥ तास प्रश्न बहुलपणे करी । तसु शील है। ६०. जिन कहै सत्य भाषा प्रते ल०, गो० ! शक्र सुरिंद्र भावंत । जाव असत्यामृषा वदै ल०, गो० ! इम चिहुं भाषा हुंत ।। ६१. सत्य ते सोरठा मार्ट अवलोय, भाषा पिण सोय, बोलतां सावज हुवै । सावज्ज निरवद नों प्रश्न ॥ सुद्रि ही ल०, जि० ! सावज्ज भाषा बोलत के निरवद्य भाषा प्रते ल०, जि० ! बोलै छै धर खंत ? ६२. "हे प्रभु! *लय हिरणी जव चरं, ललना ४७. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी ४८. जण्णं भंते! सक्के देविदे देवराया तुम्भे एवं वदइ, ४९. सच्चे एसम ? हंता सच्चे । ५०, ५१ अथ भवत्वयमर्थः (४० १५।३५) सत्यस्तथाऽप्ययं स्वरूपेण सम्यग्वादी उत न ? इत्याशंक्याह (बु० ५०७०१) ५२. सक्के णं भंते! देविंदे देवराया कि सम्मावादी ? मिन्द्राबादी ? ५३. गोयमा ! सम्मावादी, नो मिच्छावादी । (१० १६०३६) ५४. 'सक्के ण' मित्यादि, सम्यग् वदितुं शीलं - स्वभावो यस्य स सम्यग्वादी प्रायेणासौ सम्यगेव वदतीति । ( वृ० प० ७०१ ) ५९. सक्के णं भंते! देविदे देवराया कि सच्चं भासं भासति ? मोसं भासं भासति ? सच्चामोसं भासं भासति ? असच्चामोसं भासं भासति ? ६०. गोयमा ! सच्चं पि भासं भासति जाव असच्चामोसं पि भासं भासति । ( श० १६।३७ ) ६१. सत्याऽपि भाषा कथञ्चिद्भाष्यमाणा सावद्या संभवतीति पुनः पृच्छति । ( वृ० ८० ७०१) ६२. सक्के णं भंते! देविदे देवराया कि सावज्जं भासं भासति ? अणवज्जं भासं भासति ? श० १६, उ०२, ढा० ३५० १७ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ६२. जिन भाखे सुण गोयमा ! ल०, जि० ! सावज्ज पिण भावंत । निरवद्य निण भाषा ते ० ० भाखे शक्र महंत ॥ ६४. कि अर्थ ? इस आखियो ल० जि० ! सावन पिण भावंत | निरवद्य पिण भाषा प्रतं ल० बोलं शक्र महंत ॥ , जि० ! 1 शक्र ६५. जिन कहै सुरिंद जदा व० मुख प्रति अणढाकी करी ल०, ६६. ताहे शक्र सुरिंद्र तदा ल०, गो० ! जे सावज्ज भाषा प्रतै ल०, गो० ! ६७. बलि की सुरिंद्र जदा न०, गो० प्रति जे ढांकी करो ल०, गो० ! मुख ६८. ताहेक सुरिंद्र तदा ल०, गो० ! जे निरवद्य भाषा प्रतै ल०, गो० ! ! कहाय, वृद्धवदे इम वाय, ६६. सूक्ष्मकाय गो० ! गो० ! | सूदमकाय विचार सूक्ष्मकार्य बोले इंद्र जिवार ॥ *लय : हिरणी जव चरं, ललना १८ भगवती जोड देव तणों ए राय । बोलै इम कहिवाय ॥ सूक्ष्मकाय विचार । बोलै इंद्र जिवार ।। देव तणों ए राय । इम कहिवाय ॥ बोलै सोरठा हस्तादिक आचार्य अन्य बोलंतां जंतू रक्षा। ७०. हस्तादिक आवृत्त, निरवद वचन उचित्त, अन्य वच सावज्ज इम वृत्तौ ॥ प्रतै । वस्तु वस्त्र कहै ॥ वा०-- 'वृत्ति में जीव नी रक्षा कही ते वायुकाय नां जीव जाणवा । देवलोक में विककेंद्री तां प्रयाप्तानां स्थानक नथी । अनं मनुष्यलोक में इंद्रादिक आवै तेनां मुख ने विधे माखी माछरादिक प्रवेश नों उपद्रव न संभव, ते भणी ए वायुकाय नीं रक्षा जाणवी । दशकालिक अध्ययन चार वायुकाय ने अधिकारे कह्यो साधु वीजणादिके बीजे नहीं अमू की फूंक देये नहीं।' अनं कोई कहे फूंक सूं वायु जीव 1 मरे, ते माटे फूंक वर्जी पिण उघाड़े मुख बोलणो न वर्ज्यो । तेहनो उत्तरजे फूंक नां शब्द थी वायुकाय नां जीव मरे तिमहिज उघाड़े मुख बोल्यां ते शब्द थी बायु भी हिंसा एवं तथा प्रश्नव्याकरण अध्ययन पहिले वायु नीं हिंसा ने अधिकारे करतल अने मरे अने मुख । नो वायु कह्यो । करतल ते ताली पीटे ते शब्द थी वायु नां जीव मुख नों को ते उघाड़े मुख बोल्या अने फूंक दीधां ते शब्द थी वायु नीं हिसा हुवै। वली साधु ने पण ठाम ठाम मुंहपोत्तिया ते मुखवस्त्रिका कही छे। अने श्रावक भगवंत नैं तथा स्थविरां ने वांद्या तिहां पंच अभिगमन साचव्या । तिणमें तीजो अभिगमन वस्त्रे करी उत्तरासंग को छ ते सर्व वायु नीं रक्षा माटे । जिम इंद्र मुख आडो हस्तादिक तथा वस्त्रादिक देई बोलें तो निरवद्य भाषा कही । तिहां वृत्तिकार जीव नीं रक्षा थकी निरवद्य भाषा कही पिण इम नथी कह्यो ते वस्त्रादिक मुख आडो देवे ते विनय छ । इम विनय थी निरवद्य भाषा नथी । तिमहिज साधु मुंहपोलिया, धावक उत्तरासंग ते जीव भी रक्षा मार्ट जाणवूं ' (१० स० ) ७१. *णि अर्थ करि जाव ते ल०, गो० ! भाषा प्रतिभावंत । १ शक्र तणां अधिकार थी ल०, गो० ! शक्र तणोंज वृतंत ।। ६३. गोयमा ! सावज्जं पि भासं भासति, अणवज्जं पि भासं भासति । (१० १६०२८) ६४. से केणट्ठणं भंते! एवं बुच्चइ- सक्के देविदे देवराया सावज्जं पि भासं भासति, अणवज्जं पि भासं भासति ? ६५. गोयमा ! जाहे णं सक्के देविदे देवराया सुहुमकार्य अभिहिता भास भारति ६६. ताहे णं सक्के देविंदे देवराया सावज्जं भासं भासति । ६७. आाहेणं सके देविदे देवरावा सुकार्य निहिता णं भासं भासति ६८ ताहे णं सक्के देविदे देवराया अणवज्जं भासं भासति । ६९. 'सुहुमकार्य' ति सूक्ष्मकार्य हस्तादिकं वस्त्विति वृद्धा, अन्ये स्वाह: सहुमकार्य तिवस्यम् । (१०१० ७०१) ७०. हस्ताद्यावृतमुखस्य हि भाषमाणस्य जीवसंरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति अन्या तु सावद्येति । ( वृ० प० ७०१ ) से भिक्खू वान फुमेज्जा न वीएज्जा । (दसवे० ४।२१) - प-वियण तालयंट पेहुण-मुह-करयल सुप्पबस्यमा दिएहि अलि सागपत्त (पण्ड० १।१७) भासति, अणवज्जं पि ७१. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ — सक्के देविदे देवराया सावज्जं पि भासं भासं भासति । मेवाधिकरवाह ( ० १६३९) ( वृ० प० ७०१ ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. हे प्रभु ! शक्र सुरेंद्र ही, ल०, जि० ! स्यूं भवसिद्धिक इष्ट । के छ अभवसिद्धियो ल०, जि० ! समदृष्टि मिच्छदष्ट ? ७३. इम जिम मो० उद्देशके ल०, जि० ! तृतीय शतक धुर ताहि । सनतकुमार नी वारता ल०, जि० ! यावत अचरिम मांहि ।। सोरठा ७४. पूर्वे शक स्वरूप, आख्यो ते ह कर्म थी। कहिये हिव तद्रूप, कर्म स्वरूप प्रमाण करि ।। चैतन्य-अचैतन्य कृत कर्म पद ७५. *जीव अहो भगवंत जी! ल०, जि० ! चैतन्य चेतना सोय। ___ तिण बांध्यां कर्म हुवै अछे ल०, जि० ! के अचैतन्य कर्म कृत होय? ७२. सक्के णं भंते ! देविदे देवराया किं भवसिद्धीए ? ___अभवसिद्धीए ? सम्मदिट्ठीए ? मिच्छादिट्ठीए ? ७३. एवं जहा मोउद्देसए सणकुमारे जाव नो अचरिमे। (श०१६।४०) 'मोउद्देसए' त्ति तृतीय शते प्रथमोद्देशके (३।७३) । (वृ० प० ७०१) ७४. अनन्तरं शक्रस्वरूपमुक्तं, तच्च कर्मतो भवतीति सम्बन्धेन कर्मस्वरूपप्ररूपणायाह (वृ० प०७०१) ७५. जीवाणं भंते ! कि चेयकडा कम्मा कज्जति ? अचेय कडा कम्मा कज्जंति ? सोरठा ७६. 'चेयकडकम्म' त्ति चेत:-चैतन्यं जीवस्वरूपभूता चेतनेत्यर्थः तेन कृतानि-बद्धानि चेतःकृतानि कर्माणि । (वृ०प०७०१) ७७. गोयमा! जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति । (श० १६१४१) ७६. चैतकडा चेतन्य, जीव स्वरूपज भूत है। __ चैतन्य तेह प्रपन्न, तिण कीधा बांध्या कर्म ।। ७७. *श्री जिन भाखै जीवड़ा ल०, जि० ! चैतन्य चेतना सोय । तिण कीधा कर्म हुवै अछै ल०, गो० ! अचैतन्य कृत नहिं होय ।। ७८. किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो ल०, जि० ! जोव चैतन्य जोय । कीधा कर्म हवे अछे ल०, जि० ! अचैतन्य कृत नहिं होय? ७६. जिन भाखै जीवां तणे ल०, गो० ! आहाररूपपणे ताय । जेह पोग्गला उपचिता ल०, गो० ! संच्या ते कहिवाय ।। ८०. पछै बोंदिपणे संच्या पोग्गला, ल०, गो० ! अव्यक्त अवयव शरीर । कहिये ते बोंदिपणे करी ल०, गो० ! संच्या पुद्गल भीड़ ।। ८.. पछै कलेवरपणे चिण्या ल०, गो० ! एह शरीर नां जाण । अवयव प्रगटपणे करी ल०, गो० ! पुद्गल संच्या पिछाण ।। ५२. तेणे-तेणे प्रकारे करी ल०, गो० ! आहारादिपणे करि सोय। तेह पोग्गला परिणमै ल०, गो० ! ते जीव चैतन्यकृत जोय ।। ७८. से केणटठेणं भंते ! एवं वुच्च इ-जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति ? ७९. गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, आहाररूपतयोपचिताः-सञ्चिता ये पुद्गलाः । (वृ०प०७०२) ८०. बोंदिचिया पोग्गला, इह बोंदि:--अव्यक्तावयवं शरीरं ततो बोन्दितया चिता ये पुद्गलाः। (वृ० १० ७०२) ८१. कलेवरचिया पोग्गला, कडेवरतया चिता ये पुद्गलाः। (वृ० प० ७०२) ८२. तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, तेन तेन प्रकारेण आहारादितयेत्यर्थः ते पुद्गलाः परिणमंति। (वृ० प० ७०२) ८३. एवं च कर्मपुद्गला अपि जीवानामेव तथा तथा परिणमन्तीति कृत्वा चैतन्यकृतानि कर्माणि । (वृ० प० ७०२) ८४. नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! ८३. कर्म पुद्गल पिण इह विधे ल०, गो० ! जीवां तणे इज होय । परिणमै ते ते प्रकार थी ल०, गो० ! चैतन्य कृत कर्म जोय। ८४. अचैतन्य कृत कर्म नहिं हुवै ल०, गो० ! हे श्रमण ! आउखावंत । मृदु कोमल वचने करी ल०, गो०! शीष भणी पभणंत ।। सोरठा ८५. जीव चेत कृत जान, चैतन्य कृत ए धुर अरथ। तथा चेय चयमान, भाव अर्थ में य प्रत्यय ।। *लय : हिरणी जव चरै, ललना ८५. अथवा 'चेयकडा कम्मा कज्जति' ति चेयंचयनं चय इत्यर्थः भावे यप्रत्ययविधानात् । (वृ० प० ७०२) श० १६, ०२, ढा० ३५० १९ Jain Education Intemational Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. तत्कृत चय कीध, पुद्गल संचय रूप कर्म । जीवां रैज प्रसीध, कज्जती कहितां हवै।। ८७. आहार उपचिता आदि, पुद्गल इमहिज जाणवा। आहार रूप संवादि, पुद्गल ह उपचित छता ।। ८८. अथवा बोंदी रूप, चिता छता पुद्गल हुवै। चिण्या छता तद्रूप, वली कलेवर रूप ह॥ ८६. तत्कृतानि सञ्चयकृतानि पुदगलसञ्चयरूपाणि कर्माणि भवन्ति । (वृ० प०७०२) ८७. 'आहारोबचिया पोग्गला' इत्यादि, आहाररूपा उपचिताः सन्तः पुद्गला भवन्ति । (वृ०प० ७०२) ८५. तथा बोन्दिरूपाश्चिताः सन्तः पुद्गला भवंति, तथा ___कडेवररूपाश्चिताः सन्तः पुद्गला भवन्ति । (वृ. ५० ७०२) ८९. कि बहुना ? तथोच्छ्वासादिरूपतया ते पुद्गलाः परिणमन्ति । ९०. चयादेवेति शेषः । (वृ०प०७०२) ८६. कि बहुनाज स्वरूप, तेणे-तेण प्रकार करि । उश्वासादिक रूप, तिण भावे करि परिणमै ।। १०. संचय कीधा जेह, चेयकडा धुर चय कृता । ते आहारादि रूपपणेह, उपचित छताज परिणमै ।। ६१. कर्म असंचय कृत, आहार बोंदिकलेवरा । तेहपणे उपचित्त, जीव तणज हुवै नहीं। ९१. एवं च न सन्ति 'अचेयकृतानि' असञ्चयकृतानि कर्माणि आहारबोन्दिकडेवरपुद्गलवदिति । (वृ० प०७०२) ६२. चेयकडा नों जाण, चैतन्य कृत चय संचय कृत मान, द्वितीय अर्थ इम धुर अर्थ ते। आखियो ।। ६३. *अथवा दुःस्थानक विषे ल०, गो० ! डंस मंस सी तापादि। काउसग्ग आथयादिक विषे ल०, गो० ! ते दुष्ट स्थान संवादि ।। १४. अपर दुष्ट सिज्या विषे ल०, गो० ! दुख नी उपावणहार । वसती तेह सिज्या विषे ल०, गो० ! तनु ने अति दुखकार ।। ६५. वलि दुख नी हेतू कही ल०, गो० ! स्वाध्याय भूमिका जेह । तेह विषेज रह्यो छतो ल०, गो० ! त्यां पिण दुक्ख लहेह ॥ ९३. दुट्ठाणेसु' 'दुटाणेसु' त्ति शीतातपदंशमसकादियुक्तेषु कायोत्सर्गासनाद्याश्रयेषु। (वृ० प०७०२) ९४. दुसेज्जासु, 'दुसेज्जासु' त्ति दुःखोत्पादकवसतिषु । (वृ० ५०७०२) ९५. दुन्निसीहियासु, ___ 'दुन्निसीहियासु' त्ति दुःखहेतुस्वाध्यायभूमिषु । (वृ० प० ७०२) ९६. तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नस्थि अचेयकडा कम्मा । 'तथा तथा' तेन तेन प्रकारेण बहुविधासातोत्पादकतया 'ते पोग्गल' त्ति ते कार्मणपुद्गलाः परिणमन्ति । (वृ० प०७०२) ९७. समणाउसो! १६. तेणे-तेणे प्रकारे करी ल०, गो० ! बह दुख नां उपावण ताहि । पुदगल कार्मण परिणमै ल०, गो० ! ते अचेयकडा कर्म नाहि ।। ६७. हे श्रमण ! आयुष्मन ! मुनिवरू ल०, गो० ! इम भाखै भगवान । वलि विशेषज एह नों ल०, गो० ! न्याय सुणो धर कान । सोरठा ६८. जीवां ने इज हंत, जे दुख नां संभव थकी। ते दुख हेतूभूत, कर्म तिके जीवे किया । ६६. दुख नों हेतुभूत, कर्म जीव न करै तदा । जो दुख तणों प्रसूत, तो अकृत अभ्यागम दोष ह॥ १००. जीवे कीधा कर्म, तो सिद्ध चैतन्य कृतपणों। तिणसू जिन वच मर्म, नथी अचेयकडा कम्मा । *लय : हिरणी जब चर, ललना ९८. ततश्च जीवानामेवासातसम्भवात्तैरेवासातहेतुभूत - कर्माणि कृतानि । (व०प०७०२) ९९. अन्यथाऽकृताभ्यागमदोषप्रसङ्गः। (व०प०७०२) १००. जीवकृतत्वे च तेषां चेतःकृतत्वं सिद्धमतो निगम्यते 'नत्थि अचेयकडा कम्म' त्ति। (वृ०प०७०२) २० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१. चय संचय व्याख्यान, द्वितीय अर्थ नो न्याय इम । दुःस्थानादिक जान, दुख हेतू पुद्गल परिणमैं || १०२. ते माटे इम वाय, नथी अनेयकडा कर्म संचय थी दुख पाय, असंचय थी दुख नथी । कम्मा । १०३. * अथवा आतंक समुपजै ल०, गो० ते जीव तणोंइज रोग जे ल०, गो० १०४. एवं संकल्प भयादिके ल० गो० ! विकल्प विविध प्रकार | तेह जीव नें हुवै अछे ल०, गो० ! वध मरण अर्थ धार ॥ १०५. दंडादिघात थकी हुवै ल०, गो० मरण रूप जे विनाश । जेह जीव ने हुवै अछे ल०, गो० ! वधाय मरणाय तास ।। ! १०६. तेणे- तेणे प्रकारे करी ल०, गो० ! पुद्गल असातावेदनी तणां ल० ! जेह ज्वरादिक जोय । ! वध मरण अर्थ होय ॥ *लय : हिरणी जव चरं, ललना मरण उपावणहार | १०७. ते णत्थि अचेयकडा कम्मा ल०, गो० ! हे श्रमण ! आउखावंत ! वलि विशेष एहनों ल०, गो० ! स्याय सुणो घर खत ॥ सोरठा १०८. वध जंतु नों एम, एक हेतु कर्मज तेम पुद्गल १०६. जीव कृता इण न्याय, ते कर्म कहीजै ताय, नत्थि अनेयकडा ११०. चय संचय व्याख्यान पूर्वोक्तज अनुसार करि लीज्यो सर्व पिछान, बिहुं अर्थ विद्यान, विहं अर्थ ए वृत्ति थी । १११. *ति अर्थे इम आखियो ल०, गो० ! जाव कर्म इम होय । नारकनै पिण इह विधि ल०, गो० ० ! इम जाव वैमानिक जोय ॥ भाव थी वध असातवेय मादै चैतन्य मो० ! परिणम वरतं धार ॥ तणों । जे ॥ ११२. सेवं भंते ! इम कही ल०, गो० ! जाव गोयम विचरंत । सोलम शतके अर्थ थी ल०, गो० ! द्वितीय उद्देशक तंत ॥ ११३. तीनसी ने पचासमी ल०, मुनिदजी ! हो आखी ढाल रसाल । भिक्षु भारीमात ऋषिराय थी १०, मु० ! 'जय जश' गण गुणमाल ॥ षोडश द्वितीयाद्देकार्थः ।। १६।२।। कृता । कम्मा || १०१. चेयव्याख्यानं त्वेव नीयते यतो दुःस्थानादिष्वसातहेतुतया पुद्गलाः परिणमन्ति । ( वृ० प० ७०२ ) १०२. अतो नोऽचेयकृतानि कर्माणि नासञ्चयरूपाणि कर्माणि, असञ्चयरूपाणामतिसूक्ष्मत्वेना सातोत्पादकत्वासम्भवाद्। (बु० प० ७०२) १०३. आयके से बहाए होति । 'आपके' इत्यादि बात' कृच्छ्जीवितकारी 'आतङ्क ज्वरादिः 'से' तस्य जीवस्य 'वधाय' मरणाय भवति । (बु०प०७०२) १०४. कप्पे से वहाए होति । एवं 'संकल्प' भयादिविकल्पः । * १०५. मरणंते से बहाए होति । यस्मात्सः मरणान्त: मरणरूपोऽन्तो विनाशो मरणान्तः दण्डादिघातः । ( वृ० प० ७०२ ) १०६. तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमति । 'तथा तथा' तेन तेन प्रकारेण वधजनकत्वेन ते 'पुद्गला' आतंकादिजनका सात संवेदनीयसम्बन्धिनः 'परिणमंति' वर्त्तन्ते । ( वृ० प० ७०२ ) १०७. नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! (बु० प० ७०२) १०८, १०९. एवं च वधस्य जीवानामेव भावाद् वधहेतवोsसातवेद्यपुद्गला जीवकृता वतश्चेतः कुलानि कर्माणि न सन्त्यचेतः कृतानि । ( वृ० प० ७०२) ११०. चेयव्याख्यानं तु पूर्वोक्तानुसारेणावगंतव्यमिति । (बु० १०७०२) १११. से तेणट्ठे गोयमा ! एवं वुच्चइ - जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति । एवं नेरइयाण वि एवं जाव वेमाणियाणं । (८० १६०४२) ११२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श० १६०४३) श० १६, ३०२, ४० ३५० ove २१ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३५१ १. द्वितीयोद्देशकान्ते तदेवोच्यते। कर्माभिहितं, तृतीयेऽपि (वृ०प०७०२) दूहा १. द्वितीय उद्देशक अंत में, कह्यो कर्म अधिकार । कर्म ईज कहियै हिवै, तृतीय उद्देश मझार ।। कर्म पद २. नगर राजगृह नैं विष, जाव बद इम बाय । कर्म प्रकृति प्रभु ! केतली? जिन कहै अष्ट कहाय ।। ३. ज्ञानावरणी कर्म धुर, जाव वली अंतराय । एवं जाव वेमानिया, अष्ट कर्म तसु पाय ॥ ४. जीव अहो भगवंत जी ! ज्ञानावरणी एह । ते कर्म वेदंतो किती कर्म प्रकृति वेदेह ? ५. जिन कहै कर्म प्रकृति अठ, पन्नवण सूत्र कहेस । सप्तवीसमा पद विषे, वेदावेद उद्देस ।। ६. वेदंतो वेदै किता? ते वेदावेद कहाय । ते सगलो कहिवो इहां, निमल विचारी न्याय ।। ७. वेदाबंधो वि तिमज, एक कर्म अवलोय । वेदंतो बांधै किता? छब्बीसम पद जोय ।। २. रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते ! कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ट कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ। ३. नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं । एवं जाव वेमाणियाणं। (श० १६।४४) ४. जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्जं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? ५. गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ-एवं जहा पण्णवणाए वेदावेउद्देसओ सो चेव निरवसेसो भाणियव्वो। प्रज्ञापनायाः सप्तविंशतितमं पदं वेदावेदोद्देशकः । (व०प०७०३) ६. वेद-वेदने कर्मप्रकृतेः एकस्याः वेदो-वेदनमन्यासां प्रकृतीनां यत्रोद्देशकेऽभिधीयते स वेदावेदः स एवोद्देशकः। (वृ०प० ७०२,७०३) ७. वेदाबंधो वि तहेव। 'वेदाबंधोवि तहेव' त्ति एकस्याः कर्मप्रकृतेर्वेदेवेदने अन्यासां कियतीनां बन्धो भवतीति प्रतिपाद्यते यत्रासौ वेदाबन्ध उच्यते, सोऽपि तथैव प्रज्ञापनायामिवेत्यर्थः, स च प्रज्ञापनायां षड्विंशतितमपदरूपः । (वृ०प०७०३) ८.बंधावेदो वि तहेव । 'बंधावेदोवि तहेव' त्ति एकस्याः कर्मप्रकृतेर्बन्धे सत्यन्यासां कियतीनां वेदो भवति ? इत्येवमों बन्धावेद उद्देशक उच्यते, सोऽपि तथैव-प्रज्ञापनायामिवेत्यर्थः, स च प्रज्ञापनायां पञ्चविंशतितमपदरूपः । बंधाबंधो वि तहेव। (व०प० ७०३) 'बंधाबंधो' त्ति एकस्या बन्धेऽन्यासां कियतीनां बन्धः ? इति यत्रोच्यतेऽसी बन्धाबन्ध इत्युच्यते, स च प्रज्ञापनायां चतुर्विशतितमं पदं । (वृ०५०७०३) १०. इह संग्रहगाथा क्वचिद् दृश्यते । (वृ०५०७०३) ८. बंधावेदोवि तिमज, एक कर्म अवलोय । बांधतो वेद किता? पणवीसम पद जोय ।। ६. बंधाबंधो वि तिमज, एक कर्म अवलोय । बांधंतो बांधे किता? चउवीसम पद जोय ।। १०. वत्तिकार इहविध कां, संग्रह-गाथा ताय । किहांइक दोसै छै इहां, ते आगल कहिवाय ।। २२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational tior Intermational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ए सहु भणवा जाव ते, वैमानिक ने जेह । __ सेवं भंते ! इम कही, जाव सुखे विचरेह ।। ११. भाणियब्वो जाव वेमाणियाणं ति। (श० १६:४५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श० १६।४६) १२. अनन्तरं बन्धक्रिया उक्तेति क्रियाविशेषाभिधानाय प्रस्तावनापूर्वकमिदमाह- (वृ०प०७०३) १२. बंध-क्रिया पूर्वे कही, क्रिया विशेषज नाम । आगल गोयम प्रश्न वर, करिस्यै अति अभिराम ।। अर्शछेदन और वैद्यक्रिया पद १३. भगवंत श्री महावीरजी, अन्य दिवस किण वार । नगर राजगह थी प्रभु, श्रमण तपस्वी सार । १४. गुणशिल नामा चैत्य थी, नीकलिया भगवंत । बाहिर जनपद देश में, विहार करै विचरंत ।। १५. *तिण काले तहतीको, बलि निणहिज समय सधीको। उल्लुक तीर अति नीको रे, कांड नगर हंतो रलियामणो ।। १६. तिण उल्लुक तीर रै बारं, कांइ कूण ईशाण मझारं । इक जंबू नाम उदारं रे, इहां चैत्य हुँतो वर्णक तम् ।। १३. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णदा कदायि राय गिहाओ नगराओ १४. गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श० १६।४७) १५. तेणं कालेणं तेण समएणं उल्लुयतीरे नामं नगरे होत्था-वण्णओ। १६. तस्स णं उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए, एत्थ णं एगजंबुए नाम चेइए होत्था -वण्णओ। १७. तए ण समणे भगवं महावीरे १८. अण्णदा कदायि पुवाणुपुब्बि चरमाणे जाव (सं० पा०) एगजंबुए समोसढे । १९. जाव परिसा पडिगया। (श० १६६४८) १७. तिण अवसर श्री महावीर, ज्ञानवंत गुणहीर । श्रमण तपस्वी धीरं रे, काइ कर्म जंभीर करे रह्या ।। १८. अन्य दिवस किण वारं, पूर्वानुपूर्व विहारं । यावत इक जंबू सारं रे, सुखकारं चैत्य समोसरया ।। १६. यावत परषद जानं, पहुंती निज-निज स्थान । वीर तणी सुण बानं रे, एवान सुधारस सारिखी ।। २०. हे भदंत ! इम धामी, भगवंत गोतम स्वामी। वीर प्रतै शिर नामी रे, वच स्तुति करिकै इम बदै ।। २१. हे भदंत ! अणगारो, संजम तप करि सारो। भावित-आत्म उदारो रे, कांइ करै निरंतर छट्ठ-छट्ट ।। २२. जाव आतापन लेतो, अभिग्रह एहव वेतो। पूर्व अर्द्ध दिन गेतो रे, नहि कल्पै दो प्रहरी लगै ।। २३. कर पग बांहि कहायो, उरु साथल अधिकायो । नहि कल्पै छै ताह्यो रे, कांइ संकोचवा रु पसारिवा ।। २४. पश्चिम अर्द्ध दिन पेखो, कल्पै तास विशेखो। कर पग बांहि उरु लेखो रे, कांड संकोचवा रु पसारिवा। २०. भंतेति ! भगवं गोयमं समणं भगवं महाबीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी२१. अणगारस्स ण भंते ! भावियप्पणो छठंछठेणं अणिक्खितेण २२. जाव (सं० पा०) आयावेमाणस्स तस्स गं पुरथिमेणं अवड्ढे दिवसं नो कप्पति २३. हत्थं वा पादं वा बाहं वा ऊरु आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा। २४. पच्चत्थिमेणं से अवड्ढ दिवसं कप्पति हत्थं वा पाद बा बाहं वा ऊरुवा आउंटावेत्तए बा पसारेत्तए वा। सोरठा २५. पूर्व अर्द्ध दिन मांहि, कर पग आदि हलायवा । नहिं कल्पै छ ताहि, कायोत्सर्ग रह्या थकी ।। २६. पश्चिम दिन अर्द्धह, कर पग आदि हलायवा। ते मुनि नैं कल्पेह, काउसग्ग तणां अभाव थी।। २५. 'अवड्द' त्ति अपगतार्द्धमर्द्धदिवसं यावत न कल्पते हस्ताद्याकुण्टयितुं कायोत्सर्गव्यवस्थितत्वात् । (वृ०प० ७०४) २६. 'पच्चत्थिमेणं' ति पश्चिमभागे 'अवढं दिवसं' ति दिनार्द्ध यावत् कल्पते हस्ताद्याकुण्टयितुं कायोत्सर्गाभावात् । (वृ० ५० ७०४) *लय : आबूगढ़ तीरथ ताजा श०१६, उ० ३, ढा० ३५१ २३ Jain Education Intemational Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. एतच्च चूण्यनुसारितया व्याख्यात । (वृ० ५० ७०४) २८. तस्स णं अंसियाओ लंबति । २७. कायोत्सर्ग उदार, ए अक्षर सूत्रे नथी। चूणि तणे अनुसार, आख्यो छै इहविध वृत्तौ। २८. *एहवो मुनि मतिवंतो, काउसग्ग अभिग्रहवंतो। तसु अंसियाओ लटकतो रे, व्रण फोड़ा हरस कहै तसु ।। सोरठा २६. अंसियाओ कहिवाय, तास अर्थ चूणि विषे । एह नासिका मांय, अर्शासि ते अंसिया ।। ३०. अंसियाओ नो ताहि, अर्थ धर्मसी इम कियो। ___ एह नासिका मांहि, लांबो मस ए हरस छै ।। ३१. *ताम वैद्य सूविशेखी, मूनि काउसग्ग प्रति पेखी। हरस लटकती देखी रे, कांइ ते छेदण रै कारण ।। २९. 'अंसियाओ' त्ति अासि तानि च नासिकासत्कानीति चूर्णिकारः । (वृ० प० ७०४) ३२. ईषत थोरो सो धारी, भूमि विषे मुनि पाड़ी। छदै हरस तिवारी रे, निज छंदे वैद्य करै इसी॥ ३३. ते निश्चै हे भगवानो! जे छेदै तसु जानो। ___ वैद्य प्रतै पहिछानो रे, काइ क्रिया हुवै छै तेहनै ? ३४. जिण साधु नी जाणी, हरस तास छेदाणी। तास क्रिया नहिं ठाणी रे, कांइ मुनि नैं क्रिया हुवै नथी ।। ३१. तं च वेज्जे अदक्खु । 'तं च' त्ति तं चानगारं कृतकायोत्सर्ग लम्बमानार्शसम 'अदक्खु' त्ति अद्राक्षीत्, ततश्चार्शसा छेदार्थं । (वृ०प०७०४) ३२. ईसि पाडेति, पाडेत्ता अंसियाओ छिदेज्जा । 'ईसि पाडेइ' त्ति तमनगारं भूम्यां पातयति । (वृ० प०७०४) ३३. से नूर्ण भंते ! जे छिदति तस्य किरिया कज्जति ? 'तस्स' त्ति वैद्यस्य । (व०प०७०४) ३४. जस्स छिज्जति नो तस्स किरिया कज्जति ।। 'जस्स छिज्जइ' त्ति यस्य साधोरासि छिद्यन्ते नो तस्य क्रिया भवति निर्व्यापारत्वात् । (वृ०प०७०४) ३५. णण्णत्थेगेणं धम्मंतराएणं? ३६.हंता गोयमा ! जे छिदति जाब (सं० पा०) धम्मतराएणं । (श० १६०४९) ३५. एक धर्म अंतरायो, ते मुनि ने पिण थायो। ___ अन्य क्रिया न कहायो रे ? सह प्रश्न गोयम ए पूछियां । ३६. जिन भाखै हंता ताहो, जे छेदै तसु थायो। जाव धर्म अंतरायो रे, कांइ पूछयो जिम उत्तर दियो । सोरठा ३७. जाव शब्द में जोय, पूछयो जिम उत्तर तसु । क्रिया वैद्य नैं होय, पिण मुनि ने क्रिया नथी। ३८. एक धर्म अंतराय, ते तो मुनि ने पिण हवै। अन्य क्रिया नहिं थाय, कह्यो सूत्र नों अर्थ ए॥ ३६. वृत्ति विष इम वाय, धर्म बुद्धि छेद्यां थकां । क्रिया हवै शुभ ताय, अशुभ क्रिया लोभादि करि ।। ४०. 'विरुद्ध अर्थ छै एह, सूत्र थकी मिलतो नथी। मुनि नवि अनुमोदेह, तास क्रिया शुभ किम हवै।। ४१. इम शुभ क्रियाजु होय, तो औषधि तेलादि करि । मुनि तनु मर्दै कोय, तास क्रिया पिण शुभ हवै।। ४२. वलि मुनि पग थी ताय, खीलो कांटो काढियो। ___तसु लेखे कहिवाय, तेहनें पिण ह्र शुभ क्रिया ।। *लय : आबूगढ तीरथ ताजा ३९. 'क्रिया' व्यापाररूपा सा च शुभा धर्मबुद्ध्या छिन्दा____नस्य लोभादिना त्वशुभा। (वृ०प०७०४) २४ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. वलि मुनि शिर थी सोय, जुआं लोखां काढियां । तसु लेखे अवलोय, तेहनै पिण ह शुभ क्रिया ।। ४४. मुनि अति तृषा अचेत, सचित अचित्त जल पाय करि । कीधो गृहस्थ सचेत, तसु लेखै हुवै शुभ क्रिया ।। ४५. थाको मुनी उजाड़, गाडे हय खर चाढकै । आणे ग्राम मझार, तसू लेखै है शुभ क्रिया ।। ४६. इत्यादिक अवलोय, मुनि नैं जे कल्पै नहीं। ते कर कार्य गहि कोय, तसु लेखै ह शुभ क्रिया ।। ४७. जो या बोलां मांहि, नहि है गहि नै शुभ क्रिया। तो हरस छेद्यां पिण ताहि, किम शुभ क्रिया कहीजिये ।। ४८. हरस छेदण री ताम, जिन मुनि आज्ञा नहि दियै । जिन आज्ञा विण काम, कीधा नहि छै धर्म पुन्य ।। ४६. गृहस्थ मुनि नी पेख, हरस छेदवै धर्म पुन्य । तो मुनि कार्य अनेक, तसु लेखे कीधां धरम ।। ५०. मुनि पग कांटो जाण, वलि फांटो चक्ष थकी। गहि काढे विण आण, तसू लेखे धर्म गहि भणी ।। ५१. दुखै पेट अपार, मुनि चित व्याकुल दुख घणों। गहि मसलै करि सार, तेहनै पिण पुन्य लेख तम् ।। ५२. पेटूची' अति दुक्ख, दूठी भूती सम कहै। गहि मसले करि सुक्ख, तेहनै पिण तसु लेख पुन्य ।। ५३. अटवी विषे अचेत, हय खर सकट बेसाण ने । आणे गहि पुर तेथ, तेहनै पिण पुन्य तसु मते ।। ५४. मुनि थावो मग मांय, बोभ, घणों पोथ्यां तणों। पग भर खिस्यो न जाय, तो बोझ उठायां पिण धरम ।। ५५. अरण्य वलि पूर माय, संत तृषातूर चेत नहीं। सचित्त उदक गहि पाय, तेहनै लेखै धर्म तसु ।। ५६. इत्यादिक अवलोय, गृहि मुनि नां कारज करै। हरस छेद्यां धर्म होय, तसु लेखे सह में धरम ।। ५७. मुनि नी हरस छेदंत, तेहनै अनुमोदै मुनि । दंड चउमासी हुंत, नशीत उद्देशे तीसरे ।। ५८. अनुमोद्यांई पाप, तो गहि छेद्यां पुन्य किम ? जिन आज्ञा चित स्थाप, आज्ञा विण नहि धर्म पून्य ।। ५६. सामायक पचखाण, निरवद्य कार्य अन्य वलि । ग्रहस्थ करै को जाण, ते मुनि अनुमोदै तसु । ६०. निरवद्य कार्य ताय, गृहि कीध धर्म पुन्य तसु । अनुमोदै मुनिराय, तेहनै पिण धर्म पुन्य छै ।। ६१. विणज अनै व्यापार, सावज्ज कार्य अन्य वलि । ग्रहस्थ कर तिवार, धर्म पुन्य तेहने नथी ।। ६२. सावज्ज कार्य ताय, गहि कीधे पिण पाप छ । अनुमोदै मुनिराय, प्रायश्चित आवै तसु॥ ५७. जे भिक्खू अप्पणो कायंसि "अंसियं वा""अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं "अच्छिदंतं वा विच्छिदंत वा सातिज्जति । (निसीह० ३।३४) १. धरण। श०१६, उ०३, ढा० ३५१ २५ Jain Education Intemational Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. हरस छेदण री ताहि, आज्ञा जिन मुनि ना दिय । अनुमोदै पिण नांहि, तिणसू ते सावज अछ।। ६४. गृहस्थ पास जाण, कार्य करावा मुनि तणें । जावजीव पचखाण, मरणांते पिण नियम ए॥ ६५. हरस गूंबडा आदि, गृहि पै छेदावण तणां । मुनि नै त्याग संवादि, गहि छेदै जबरी थकी। ६६. मुनि अनुमोदै नांय, तो तसु त्याग भांगै नहीं। पिण कामी कहिवाय, त्याग भंगावा नो गृही ।। ६७. तिणसू सावज एह, वलि अनुमोदै पिण नहीं। आज्ञा पिण नहि देह, ते माटै नहि धर्म पुन्य ।। ६८. जे कामी गृहि थाय, त्याग भंगावा मुनि तणों। धर्म नहिं तिण भांय, न्याय दृष्टि अवलोकियै ।। ६६. किण गहि अट्ठम कीध, आहार च्यार त्यागन किया। व्याकुल तृषा प्रसीध, थयां अचेतन अन्य गही ।। ७०. उष्णोदक तसु पाय, कियो सचेतन अधिक सुख । नियम भंग तसु नाय, पिण कामी त्याग भंगावण तणों ।। ७१. तेम इहां अवलोय, नियम भंग मुनि नों नथी। पिण कामी गहि होय, त्याग भंगावा मुनि तणो ।। ७२. किर्णाह गृहस्थ पचखाण, हरस छेदावा नां किया। जबरी सू पहिछाण, वैद्य हरस छेदै तसु ।। ७३. नियम भंग तसु नाय, पिण त्याग भंग करिया तणों। कामी वैद्य कहिवाय, तिणसू धर्म न तहनें ।। ७४. तिम मुनि रै पचखाण, हरस छेदावा गृहि कनँ । __ जबरो सू पहिछाण, वैद्य हरस छेदै तसु ।। ७५. नियम भंग तसु नांय, पिण त्याग भग करिवा तणों। कामो वैद्य कहाय, तिणसू नहि तसु धम पुन्य ।। ७६. वलि टीका रै मांय, अर्थ धर्म अतराय नों। शुभ ध्यान विच्छेदज थाय, अथवा अनुमोदन थकी ।। ७७. अनुमोद्यांई पाप, तो छेदै तसु पुन्य किम । तृतीय करण अघ स्थाप, प्रथम करण तो अधिक अघ ।। ७८. पाप हुव धुर करण, ते अघ नी अनुमोदना । तीजै करण उच्चरण, तिण लेख तसु पाप है।। ७६. प्रथम करण पुन्य होय, ते पुन्य नी करणी प्रतै। अनुमोदै जो कोय, तास पाप किणविध हुवै । ८०. करणवाला ने पुन्न, ते अनुमोद्यां पाप कहै । प्रत्यक्ष वचन जबुन्न, न्याय दृष्टि करि देखियै ।। ५१. छेदै तिणने पुन्य, ते पुन्य नो करणी प्रतै । ___अनुमोदै जो मुन्य, तास पाप किणविध हुवै ? ८२. धर्म विना पुन्य नांय, शुभ जोगां थी निर्जरा। पुन्य बंध पिण थाय, ज्यं गहं लारै खाखलो ।। ८३. वंदना कोधां संध, नीच गोत रो क्षय करै। ऊंच गोत रो बंध, उत्तरज्झयण गुणतोसमें ।। २६ भगवती जोड़ ७६. धर्मान्तरायश्च नाद्वेति । शुभध्यानविच्छेदादर्शश्छेदानुमोद (वृ० प० ७०४) ५३. वंदणएणं निबंधइ। नीयागोयं कम्म खवेइ, उच्चागोयं (उत्तर० २९।११) Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 ८४. वंदना कीधां धर्म, तेह करायां पिण धरम । देखो एहनों मर्म अनुमोद्यां पिण धर्म है ॥ ८५. निज पूजा रे हेत, वंदनादिक वंछे नहीं । पूजा बांधा एम ए अनुमोदन थी जुदो ॥ ८६. लोलपणां रे काज, आहारादिक वंछे नहीं । पण बहिरावं स्हाज, करें तास अनुमोदना || ८७. निरवद कारज सर्व तेहनं अनुमोदे मुनि । पिण नाणें मन गर्व, वयों छै ए गर्व नैं ॥ दम निरवद अनुमोदेह, पिण मन गर्व करें नहीं। अनुमोदन भी एह गर्न जुदो इन कारणं ॥ ८. वंदना नदी आग, प्रभु सुरियाभज देव नं वलि सेवग ने जाण, रायप्रश्रेणी नैं विषे ।। १०. जिन-वंदण री जाण, बंधक ने गोतम मुनि । द्वितीयकरण दी आण, तो अनुमोदन किम नहि करै ॥ दीधी नवी 1 ६१. सावज नाटक सोय, प्रभु आज्ञा दीधी नथी । अनुमोद्यो नहि कोय, रायप्रश्रेणी सूप में ।। सूत्र १२. नाटक पाड्यो ताहि, प्रभु आज्ञा अनुमोद्य पिण नांहि, प्रथम करण नहिं धर्म पुन्य ॥ ९३. तिम सावज कहिवाय, हरस छेदवो वैद्य नों। तिण कारण मुनिशय, अनुमोदे नहि तेहनें ॥ २४. वैद्य हरस छेवंत मुनि आज्ञा देवे नथी। 1 वलि नहि अनुमोदत, तो प्रथम करण नहि धर्म पुन्य ॥ ६५. द्वितीय आचारंग मांय, तेरम अध्येन नैं विषे । पाठ कया जिनराव ग्रहस्थ करें साधु तणां ॥ १६. पर गृहि मुनिवर पाय अल्प तथा मुनि मन बांछे नांय न करावे व ६७. ग्रहस्थ मुनि नां पाय, वलि चोपड़े मुनि मन करिबांचे नांव न करावे व ८. वलि गृहि मुनिवर पाय फर्म ने रंगे वली । मुनि मन कर वांछे नांय, न करावे वच काय करि ।। २९. बलि गृहि मुनिनां पाय तेलादिक मर्दन करें। बहु भाटके काय करि ।। मर्दन करें। काय करि ।। मुनि मन करि वांछे नांय, न करावे बच काय करि ॥ १०० बलि गहि मूनि न पाय लोद्रादिक करि उगरणों । मन करि वांछे नांय, न करावे वच काय करि ॥ १०१. वलि गृहि मुनि नां पाय, छांटे धोवै जल करि । मन करि वांछे नोय न करावे वच काय करि ॥ १०२. बलि गृहि मुनि ना पाय मन करि वांछे नांय, न करे विलेपन अल्प बहु करावे वच काय करि ॥ ८९. सूरियाभाइ ! समणे भगवं एवं वयासी - पोराणमेयं 'पोराणमेयं देवा ! महावीरे सूरियाभं देवं सूरियामा ! ( राय० सू० ५९, ११) ९०. तए णं से बंदए कच्चायणसगोते भगवं गोयमं एवं वयासी - गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो अहासुहं देवापिया ! मा पदबंध | (भग० २०३९) ९१. सम भगवं महावीरे सूरिया देवे एवं ते समाणे सूरियामरस देवस्स एयम आढाइ णो परियाणइ तुसिणीए संचिट्ठति । णो ( राय० सू० ६४ ) ९६. आधारचूला अ० १३,१४/२) ९७. आवारा १३,१४१३) ९८. (आयारचूला अ० १३, १४०४ ) ९९. (आयारचूला अ० १३, १४१५ ) १००. (आयारचूला अ० १२.१४१६) १०१. (आयाराम० १२,१४१७) १०२. (आयारचूला अ० १३, १४१८ ) श० १६, उ० ३, ढा० ३५१ २७ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३. (आयारचूला अ० १३,१४।९) १०४. (आयारचूला अ० १३,१४।१०) १०५. (आयारचूला अ० १३,१४।११) १०८. (आयारचूला अ० १३,१४।२६) १०९. (आयारचूला अ० १३,१४।२७) ११३. (आयारचूला अ० १३,१४॥३५) १०३. वलि गहि मुनि नां पाय, धूपै धूपज जाति करि । मन करि वांछै नाय, न करावं बच काय करि ।। १०४. गृहि मनि पग थी ताहि, खीलो कांटो काढियां । मन करि वांछै नांहि, न करावे वच काय करि ।। १०५. गहि मनि पग थी ताहि, राधि रुधिर काढे तस् । मुनि मन करि वांछै नांहि, न करावै बच काय करि ।। १०६. ए दश सूत्र पिछाण, आख्या छ पग आश्रयी। काय आश्रयी जाण, धुर अठ कहिवा पूर्ववत ।। १०७. व्रण गंबडो काय, तेहना पिण दश सूत्र है। अठ पूर्ववत ताय, दोय सूत्र कहियै हिवै ।। १०८. मुनि तनु व्रणज थाय, गहि छेदे शस्त्रे करी। मुनि मन करि वांछ नांय, न करावे वच काय करि ।। १०६. व्रण छेदी नै ताहि, राधि रुधिर काढ गही। मुनि मन कर वांछै नाहि, न करावे वच काय करि ।। ११०. ए दश सूत्रज ख्यात, काया नां वर्ण आश्रयी। __ वलि दश सूत्र कहात, गंड अरइ पुलकादि नां ॥ १११. गंड गंबडो थात, अरई ते अरिओ कह्यो। पुलक व्याधि नी जात, वली भगंदर नां कह्या ।। ११२. ए चिउं नां दश देख, जिम काया नां वर्ण नां । आख्या दश संपेख, तिम ए चिहुं नां सूत्र दश ।। ११३. परसेवो जल ताहि, मुनि तनु थी काडै गही। मन करि वांछै नांहि, न करावे वच काय करि ।। ११४. चख नख कर्ण रु दंत, तेहनो मल काढे गृही। मन करि नहिं वंछत, न करावे वच काय करि ।। ११५. लांबा शिर नां बाल, दीर्घ रोम मुनि तनु तणां । भांपण दीर्घ संभाल, दीर्घ रोम मुनि-कक्ष नां ।। ११६. वत्थिरोम दीर्घ ताहि, गहि कापै रु समारतां। ___ मन करि वांछै नांहि, न करावै वच काय करि ।। ११७. मुनि मस्तक थी ताहि, गृहि काढे जूं लीख प्रति । मन करि वांछै नाहि, ने करावै बच काय करि ।। ११८. इत्यादिक बहु जाण, पहिरावै हारादि जे। वलि मुनि देख गिलाण, सचित्त पिंडादिक नैषणी ।। ११६. हरि कूटी कूटाय, गहि औषधि इच्छै इसो। मुनि मन करि वांछ नाय, न करावै वच काय करि ॥ १२०. नो तं साइए एथ, ते मन करि वांछ नहीं। नो तं नियमे तेथ, न करावै वच काय करि ।। १२१. नो तं साइए ताय, ते मन करि वंछ नहीं। इहां मन करि मुनिराय, अनुमोदै नहि अर्थ इम ।। १२२. सूत्र नशीत रै माय, साइज्जइए पाठ ते। अनुमोदन कहिवाय, तेम इहां पिण संभवै ।। १२३. ए सगलाई बोल, गृहस्थ करै मुनिवर तणां । हिवड़ा बाजू तोल, मुनिवर अनुमोद नहीं। २८ भगवती जोड़ ११४. (आयारचूला अ० १३,१४।३६) ११५,११६. (मायारचूला अ० १३,१४॥३७) ११७. (आयारचूला अ० १३,१४१३८) ११८. (आयारचूला अ० १३,१४७६) ११९. (आयारचूला अ० १३,१४।१७८) जय Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४. मुनि अनुमोदै नांहि, तो गृहस्थ करै ए ऋषि तणां। धर्म पुन्य तिण मांहि, किण ही बोल विष नथी ।। १२५. मुनि तनु व्रण छेदंत, धर्म कहै इक बोल में। तो तसु लेखै हुँत, धर्म सर्व बोलां मझे। १२६. धर्म पुन्य नहि होय, ते सगला बोलां मझे। तो पाप गही में जोय, जिन-आज्ञा नहि ते भणी ।। १२७. तिम ते हरस छेदंत, अशुभ क्रिया ते वैद्य नैं। मुनि नहि अनुमोदंत, धर्म पुन्य किणविध हवै।। १२८. हरस छेद्यां शुभ कर्म, तो आचारंग में कह्या। त्या सगला में धर्म, कहिवो तिणरै लेख ए।। १२६. धर्म नहि अन्य मांहि, तो छेदै व्रणादि गृही। तिणमें पिण पुन्य नांहि, ए सावज आज्ञा नथी ।। १३०. हरस छेद्यां धर्म हुँत, तो मुनि शिर सेती गृही। जंआ पिण काढंत, तिणमें पिण तसू लेख पुन्य ।। १३१. वलि मुनिवर नी सोय, पगचंपी मर्दन करै। करैज ओषधि कोय, तसु लेख पुन्य सह मझे।।' [ज० स०] १३२. *सेवं भंते ! सत्य वाणी, सोलम शतके जाणी। तृतीय उद्देश पिछाणी रे, गुणखाणी अर्थ थकी कह्यो ।। १३३. ढाल तीनसो ताह्यो, ऊपर एकावनमी कहायो। भिक्षु भारीमाल ऋषिरायो रे, सुखदायो 'जय-जश' संपदा ॥ षोडशशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥१६॥३॥ १३२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श० १६।५०) ढाल : ३५२ १. अनन्तरोद्देशकेऽनगारवक्तव्यतोक्ता, चतुर्थेऽप्यसावेवोच्यते । (वृ०प०७०४) दूहा १. तृतीय उद्देशक मुनि तणी, वक्तव्यता आख्यात । तुर्य उद्देशक पिण हिवै, तेह तणो अवदात ।। नैरयिक-निर्जरा पद २. नगर राजगह नै विषे, यावत इम बोलंत । वीर प्रत वंदी नमी, प्रश्न गोयम पूछत ।। तप बड़ो प्रभु भाखियो । (ध्रुपदं) ३. अन्न विना भगवंत जी! हवै गिलान अत्यंतो रे। अन्नग्लायक तिणनै कयो, एहवो श्रमण निग्रंथो रे ।। २. रायगिहे जाव एवं वयासी ३. जावतियं णं भंते ! भन्नगिलायए समणे निग्गंथे *लय : आबूगढ तीरथ ताजा लय : तप बड़ो संसार में श०१६ उ०३,४ ढा० ३५१,३५२ २९ Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ४. वृतिकार कहिवाय, नवो कुरादि निष्पति । । ५. वासी कुरादि ताम कूरगडक मुनि प्राय ६. चूर्णिकार संवादि, जीमै शीत कुरादि जिता काल लगताय, संत क्षुधा नहि सहि सकै ॥ प्रांत ईज ने भोगवे । क्षुधा सहन असमर्थ अति ।। ए निस्पृहपणा की। अंत-प्रांत आहारी तिको || कर्म ७. *मुनि कर्म निर्जर जेतला. एता कम नरक विषे जे नेरइया, एक वर्ष रे ८. अथवा वर्ष घर्ण करी, अथवा वर्ष सौ मांह्यो रे । कर्म खपावै नारकी ? अर्थ समर्थ नांयो रे ॥ सोरठा ९. निष्पत्ति कुरादि धान, क्षुधा खर्गे श्रमण निग्रंथ सुजान, कर्म खपावै १०. एता कर्म खपाय, सौ वर्षे करि तब भारी जिनराय यह अर्थ ११. नारक कर्म खपाय, सौ वर्षे पायो रे । मांह्यो रे । इतरो अद्धा । जेतला ॥ नारकी ? समर्थ नहीं ॥ करिने जिता । तेह थकी अधिकाय, अन्नग्नायक मुनि तणें ॥ १२. * श्रमण निर्ग्रथ चोथ भक्त में, जेता कर्म खपायो रे । कर्म खपावे इता नारकी, सौ वर्षे करि तायो रे || १३. अथवा पण सौ वर्ष करी सहस्र वर्ष २ माहयो रे । कर्म खपावै प्रभु ! नारकी ? अर्थ समर्थ नांह्यो रे ॥ 1 सोरठा १४. सहस्र वर्ष रे मांय, कर्म खरावं नारकी। एह थकी अधिकाय, चोथ भक्त में मूनि तणें ॥ १५. * श्रमण निग्रंथ छठ भक्त में, जेता कर्म खपायो रे । कर्म खपावे इता नारकी, सहस्र वर्ष है मांह्यो रे । १६. अथवा बहु सहस्र वर्ष करी, लक्ष वर्ष करिताह्यो रे। कर्म खपावे प्रभु ! नारकी ? अर्थ समर्थ न रे ।। सोरठा । १७. लक्ष वर्ष है मांय, कर्म पाये नारकी ₹ तेह थकी अधिकाय छ भक्त में मुनि वर्णं ॥ १८. भ्रमण निर्बंध अठम भक्त में जेता कर्म खपायो रे। कर्म खपावे इता नारकी, लक्ष वर्ष रै मांह्यो रे ॥ ११. अथवा वह लक्ष वर्ष करी, कोड़ वर्ष करिताह्यो रे। कर्म खपावे प्रभु! नारकी ? अर्थ समर्थ नांह्यो रे ।। *लय : तप बड़ो संसार में ३० भगवती जोड़ ४, ५. प्रत्यय कुरादिनिष्पत्ति यावद् बुभुक्षातुरतया प्रतीक्षितुमशक्नुवन् यः पर्युषितकुरादि प्रातरेव नते कूरगड्डुकप्राय इत्यर्थ: । (२०१० ७०५) ६. चूर्णिकारेण तु निःस्पृहत्वात् 'सीयकूर भोई अंतपंताहारो' त्ति व्याख्यातं । ( वृ० प० ७०५) ७८. कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वासेण वा वासेहि वा वाससएण वा खवयंति ? नो पण सम । १२, १३. जातिय गं भंते! उत्थभत्तिए समणे निवे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससण या वाससहि वा वाससहस्मेण वा वयंति ? नोट समट्ठे । १५,१६. जावतियं णं भंते ! छट्टभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वाससहस्सेण वा वाससहस्मेहिं वा वाससय सहस्सेण वा यंति ? नोट सम १८,१९. जावतियं णं भंते ! अट्टमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरइया वासवसहस्रोण या वापसहमेहि वा वासकाडीए वा खवयंति ? नो इणट्ठे समट्ठे । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २०. कोड़ वर्ष रै मांय, कर्म खपावै नारकी। तेह थकी अधिकाय, अठम भक्त विषे मुनि ।। २१. *श्रमण निग्रंथ दशम भक्त में, जेता कर्म खपायो रे । कर्म खपावै इता नारकी, कोड़ वर्षे करि ताह्यो रे ।। २२. अथवा बह कोड़ वर्षे करी, वर्ष कोड़ा कोड़ माह्यो रे। कर्म खपावै प्रभु ! नारकी ? अर्थ समर्थ नांह्यो रे। २१,२२ जावतियं णं भंते ! दसमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्म नरएसु नेरइया वासकोडीए वा वासकोडीहिं वा वासकोडाकोडीए वा खवयंति ? नो इणठे समठे। (श.० १६०५१) सोरठा २३. कोडाकोड़ वर्ष रै मांय, कर्म खपाव नारकी। तेह थकी अधिकाय, दशम भक्त में मुनि तणें ॥ २४. ए दशमा ताई जाण, प्रश्नोत्तर शिष्य वीर नां। हिव तसु न्याय पिछाण, पूछ गोयम गणहरू । २५. *किण अर्थ प्रभु ! इम कह्यो, अन्नग्लान कहायो रे। श्रमण तपस्वी निग्रंथ जे, जेता कर्म खपायो रे ॥ २६. एता कर्म जे नारकी, एक वर्ष करि ताह्यो। अथवा घणे वर्षे करी, सौ वर्षे न खपायो रे ।। २७. जेता कर्म चोथ भक्त में, एवं तिमइज जाणी रे । पूर्वे भण्यो छै तिण विधे उच्चरवू पहिछाणी रे ।। २८. जाव वर्ष कोडाकोड़ में, नारकि नरक रै मांह्यो रे। कर्म खपावै नहिं तेतला, ते किण अर्थ कहायो रे ? २५. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाबतियं अन्न गिलायए समणे निग्गंधे कम्मं निज्जरेति । २६. एवतियं कम्म नरएसु नेरइया वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा नो खवयंति । २७. जावतियं चउत्थभत्तिए-एवं तं चेव पुव्वभणियं उच्चारेयव्वं । २८. जाव वासकोडाकोडीए वा नो खवयंति ? सोरठा २६. नारकि नरक मझार, दुख अनंतो भोगवै। बहु काले करि धार, कर्म खपै नहिं तेतला ॥ ३०. जेता कर्म खपाय, अल्प कष्ट पाम्ये मुनि । अल्पकाल करि ताय, किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो ? ३१. तब भाखै भगवान, वर दष्टांत देई करी। __ सुणो सुरत दे कान, उत्तर में प्रभ इह विधे ।। ३२. *से जहानामए पाठ नो, आख्यं अर्थ पिछाणी रे। जहा यथादृष्टांते करी, नाम संभावन जाणी रे ॥ ३३. ए इति वच अलंकार छ, से कहितां नर कोई रे। जुण्णे कहितां देह तेहनी, जीर्ण हानिज होई रे ।। २९,३०. अथ कथमिदं प्रत्याय्यं यदुत नारको महाकष्टा पन्नो महताऽपि कालेन तावत्कर्म न क्षपयति यावत्साधुरल्पकष्टापन्नोऽल्पकालेनेति ? __ (व०प०७०५) ३१. उच्यते, दृष्टान्ततः, स चायम् ३२,३३. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे जुण्णे, यथेति दृष्टान्ते नाम-सम्भावने ए इत्यलंकारे 'से' त्ति स कश्चित्पुरुषः 'जुन्ने' त्ति जीर्णः-हानिगतदेहः । __ (व० प०७०५) सोरठा ३४. कारण वस थी तेह, अवृद्धभावे पिण तसु । जीर्ण है छै देह, इण कारण आगल कहै ।। ३५. *जरा करी देह जोजरी, शिथिल त्वचा करि जासो रे। बलि-तरंग करि नै वली, व्याप्त अछै तनु तासो रे॥ *लय : तप बड़ो संसार में ३४. स च कारणवशादवृद्धभावेऽपि स्यादत आह (वृ० ५० ७०५) ३५. जराजज्जरियदेहे सिढिलतयावलितरंग-संपिणद्धगत्ते श० १६, उ.४, ढा० ३५२ ३१ Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. पविरल अतिही छीदा पड्या, केयक केयक पड़ियारे। दंत-श्रेणि एहवी तसु, जरा अवस्थाए लड़िया रे ।। ३७. उष्ण तृषाए पराभव्यो, आतूर दालिद्री ताह्यो रे। भंडी परै रहिवू तसु, एहवो पुरुष कहायो रे ॥ ३८. झंझिए' कहितां भूखो घणो, तास अर्थ टीकाकारो रे। झुरतो थको एहवू करै, ओ तो दीन अपारो रे ।। ३६. ते तृषावंत है विशेष थी, दुब्बल ते बलहीनो रे । कोलते मन नी किलामना, मन खेदे करि खीनो रे । ४०. वृद्ध पुरुष जे एहवो, एक मोटो पिछाणी रे। कोसंब वृक्ष विशेष ही, तेहनां खंड प्रति जाणी रे ।। ३६. पविरल-परिसडिय-दंतसेढी प्रविरला: केचित् क्वचिच्च परिशटिता दंता यस्यां सा। (वृ०प०७०५) ३७. उण्हाभिहए तण्हाभिहए आउरे 'आउरे' त्ति आतुर दुःस्थः। (वृ० प०७०५) ३८. झुसिए 'झुझिए' त्ति बुभुक्षितः झुरित इति टीकाकारः । (वृ०प०७०५) ३९. पिवासिए दुब्बले किलते 'दुब्बले' त्ति बलहीनः "किलंते' त्ति मनः क्लमं गतः । (वृ० प०७०५) ४०. एग महं कोसंबगंडियं 'कोसंबगंडियं' ति 'कोसंब' त्ति वृक्षविशेषस्तस्य गण्डिका --खण्डविशेषस्तां। (वृ०प० ७०५) ४१. सुक्कं जडिलं 'जडिलं' ति जटावती वलितोद्वलितामिति वृद्धाः । (व० प०७०५) ४२. गंठिल्लं चिक्कणं 'गंठिल्ल' ति ग्रन्थिमतीं 'चिक्कणं' ति श्लक्ष्णस्कन्धनिष्पन्नां। (वृ०प०७०५) ४३. वाइद्धं अपत्तियं । 'वाइद्ध' न्ति व्यादिग्धां---विशिष्टद्रव्योपदिग्धां वक्रामिति वृद्धा: 'अपत्तियं' ति अपात्रिकाम्-अविद्यमानाधाराम् । (वृ० ५० ७०५) ४४. मुंडेण परसुणा अक्कमेज्जा, ४१. ते खंड सुको सर्वथा, जडिल जटावंत जोयो रे । वृद्ध करै अर्थ जडिल नो, बल्यो विशेष थो सोयो रे।। ४२. गांठिवंत तरुखंड ते, बली चीकणो तेहो रे। खंड श्लक्षण करि तिको, दृढ़ नीपनो जेहो रे ।। ४३. वाइद्धं विशिष्ट द्रव्ये करी, ओ तो व्याप्त कहायो रे। वृद्ध कहै ए वक्र है, आधार रहितज तायो रे ।। ४५. तए णं से पुरिसे महंताई-महंताई सद्दाई करेइ, ४४. एहवो तरुखंड तहने, मुंड कुठार करेहो रे। ते दुख छेदवा योग्य ते, अथवा फरसी करी तेहो रे। ४५. तेह कोसंब तरुखंड में, तेह वद्ध छेदंतो रे। शब्द मोटा-मोटा करै, पराक्रम फोड़तो रे ।। ४६. मोटा-मोटा जे दल प्रतै, विदारै नहिं तायो रे ।। इण दृष्टांते गोयमा । नेरइया कहिवायो रे ।। ४६. नो महताई-महंताई दलाई अवद्दालेइ, एवामेव गोयमा! नेरइयाणं ४७. पावाई कम्माई गाढीकयाई चिक्कणीकयाइं एवं जहा छट्टसए (६१४)। ४८. जाव (सं० पा०) नो महापज्जवसाणा भवंति । ४९. से जहानामए केइ पुरिसे अहिकरणि पाउडेमाणे महया नो महापज्जवसाणा भवंति । ४७. पाप कर्म गाढा किया, वली चीकणा कीधा रे । इम जिम छठा शतक में, पढम उदेशे प्रसीधा रे॥ ४८. जाव महापर्यवसान नहिं हवै, नहीं महाकर्म अंतो रे । वलि दृष्टांत दूजो कहै, सांभलजो धर खंतो रे ।। ४६. कोइ पुरुष अहिरण प्रतै, कूटतो अधिकायो रे। करै मोटा-मोटा शब्द ने, जाव अंत न थायो रे ।। सोरठा ५०. कह्या दोय दृष्टांत, नारक निर्जर ऊपरे । कर्म खपावै संत, तेह ऊपरे दोय हिव ।। *लय : तप बड़ो संसार में १. अंगसुत्ताणि भाग २ में 'झुसिए' पाठ है। वहाँ 'झुझिए' को पाठांतर में लिया गया है। ३२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं जाव मेहावी निउणसिप्पोवगए ५२. एगं महं सामलि-गंडियं उरल अजहिलं अगंटिल्लं ५३,५४. अचिक्कणं अवाइद्ध सपत्तियं तिवखेण परसुणा भक्कमेज्जा, ५१. यथादृष्टांत कोइ पुरुष ते, तरुण बलवंत तायो रे । जाव मेधावी बुद्धिवंत ते, निपुण शिल्प गुण पायो रे ।। ५२. इक महासामली वृक्ष नां, खंड प्रतै पहिछाणी रे। ते नीलो जटा करि रहित छ, गांठ रहित पिणजाणी रे।। ५३. ते तरुखंड नहिं चीकणा, वलि अवक्र सोयो रे। आधार सहित तरुखंड ते, तीक्ष्ण कुठार करि जोयो रे ।। ५४. अथवा तीखी फरसी करी, सामली-खंड तेहो रे। तरुण पुरुष पूर्व कह्यो, उमंग धरी छेदेहो रे ।। ५५. मोटा-मोटा शब्द नहिं करै, तो पिण तेहना जाणी रे। मोटा-मोटा बहु दल प्रतै, विदारै चित आणी रे॥ ५६. इण दृष्टांते गोयमा ! श्रमण निग्रंथ नैं सारो रे। यथाबादर बह कर्म में, किया शिथिल तिवारो रे ।। ५७. वलि नीठा बह कर्मा प्रत, यावत' शीघ्रपणेई रे। परिविध्वंस हवै अछ, निश्चै करिनै कहेई रे ।। ५८. जेतला लग तेतला लगै, यावत कर्म नों अंतो रे । हवै श्रमण निग्रंथ नैं, वलि दूजो दृष्टतो रे ।। ५६. अथवा यथादृष्टांते करी, कोई पुरुष कहायो रे । सूका तृणपूला प्रतै, न्हाखै अग्नि रै मायो रे ॥ ६०. इम जिम छठा शतक नां, प्रथम उद्देशक माह्यो रे। तप्त पात्र अय तिण विधे, जावकर्म अंत थायो रे ।। ६१. तिण अर्थे करि गोयमा ! कहियै छै इम वायो रे। श्रमण निग्रंथ अन्नग्लान ते, जेता कर्म खपायो रे ।। ६२.तिमइज यावत जाणवो, वर्ष कोड़ाकोड़ी माह्यो रे। कर्म खपावै नहिं नारकी, सेवं भंते ! शोभायो रे ॥ ६३. यावत गोतम विचरता, सोलम तुर्य उद्देशो रे । उगणीस बावीस समै, द्वितीय जेष्ठ सुविशेषो रे ।। ६४. ढाल तीनसौ बावनमी, भिक्षु भारी ऋषिरायो रे। 'जय-जश' संपति सुख सदा,सुजाणगढ़ तप गायो रे।। ५५. तए णं से पुरिसे नो महंताइ-महंताई सद्दाई करेति, महंताई-महंताई दलाई अवद्दालेति । ५६. एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबादराई कम्माइं सिढिलीकयाई ५७. निट्ठियाई कयाइ विप्परिणामियाई खिप्पामेव परि विद्धत्थाई भवंति, ५८. जावतियं तावतियं जाव (सं० पा०) महापज्जवसाणा भवंति । ५९. से जहा वा केइ पुरिसे सुक्कतणहत्थगं जायतेयंसि पक्खेिवेज्जा । ६०. एवं जहा छट्ठसए (६।४) तहा अयोकवल्ले वि जाव (सं० पा०) महापज्जवसाणा भवति । ६१. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जावतियं अन्नगिलायए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति । ६२. तं चेव जाव वासकोडाकोडीए वा नो खवयंति। __ (श० १६।५२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श० १६॥५३) षोडशशते चतुर्थोद्देशकार्थः ॥१६॥४॥ ढाल : ३५३ दूहा १. तुर्य उद्देशे नरक नी, निर्जरण-शक्ति स्वरूप । पंचम आगमनादि हिव, सुर-शक्ती तद्रूप ।। १. चतुर्थोद्देशके नारकाणां कर्मनिर्जरणशक्तिस्वरूपमुक्तं, पञ्चमे तु देवस्यागमनादिशक्तिस्वरूपमुच्यते । (वृ० प० ७०५) १. अंगसुत्ताणि भाग २ में जाव को पाठांतर में लिया है। वहां जाव के स्थान पर 'विप्परिणामियाई' पाठ है। श० १६, उ०४,५, ढा० ३५२,३५३ ३३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्र-उत्क्षिप्तप्रश्नव्याकरण पद २. तिण काले नै तिण समय, नगरज उल्लुक तीर । __ चैत्य एक जंबू भलो, वर्णक योग्य सुहीर ।। ३. तिण काले नै तिण समय, समवसरचा जिन स्वाम। यावत परषद प्रेम स्यूं, सेव करै अभिराम ।। ४. तिण काले नै तिण समय, शक्र सुरिद सुरराय । वज्र आयुध जसु हाथ में, वज्रपाणि कहिवाय ।। ५. इम जिम एहिज शतक नां, द्वितीय उद्देशक माय । तिम दिव्य यान विमान करि, आयो तिहां चलाय॥ ६. जाव जिहां भगवंत छै, तिहां आवी ने ताय । यावत शिर नामो करी, बोलै इहविध वाय ।। *शक प्रश्न अष्ट सांभलो ।। (ध्रुपदं) ७. सुर प्रभु ! महाऋद्धि नों धणी, यावत वलि जान । महेसक्खे नों अर्थ ए, महाऐश्वर्यवान ।। ८. बाहिरला पुद्गल तिके, लीधां विण ताहि । __ आविवा नैं समर्थ हुवै ? जिन कहै समर्थ नांहि ।। ६. महद्धिक जाव महासक्खे, बाहिर पुद्गल लेय। सुर प्रभु ! समर्थ आविवा? जिन हंता कहेय ।। १०. सुर प्रभु ! महद्धिक इम इणे, आलावे करि जाण । जाविवा में समर्थ हवै? पूर्ववत पहिछाण ।। ११. एवं इमहिज बोलवा, उत्तर देवा तदर्थ । पुद्गल लियां विण समर्थ नहीं, पुद्गल लीधे समर्थ ।। २. तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नाम नगरे होत्था -वण्णओ। एगजंबुए चेइए-वण्णओ। ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति । ४. तेणं कालेणं तेणं समएग सक्के देविदे देवराया वज्जपाणी५. एवं जहेव बितियउद्देसए (१६।३३) तहेव दिव्वेणं जाणविमाणेणं आगओ ६. जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव (सं० पा०) नमंसित्ता एवं वयासी ७. देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महेसक्खे ८. बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू आगमित्तए? नो इणठे समठे। ९. देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू आगमित्तए? हंता पभू । १०. देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महेसक्खे एवं एएणं अभिलावेणं गमित्तए वा, ११. भासित्तए वा, विआगरित्तए वा, 'भासित्तए वा वागरित्तए व' ति भाषित-वक्तुं व्याकर्तुम् ---उत्तरं दातुमित्यनयोविशेषः । (वृ०प०७०७) १२. उम्मिसावेत्तए वा, निमिसावेत्तए वा, १३. आउंटावेत्तए वा, १४. ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चे इत्तए वा, १५. विउवित्तए वा, परियारेत्तए वा जाव हंता पभू १२. मींची आंख उघाड़वा, उघाड़ी चक्षु जेह । मींचवा में समर्थ तिको, पूर्व रीत कहेह ।। १३. हस्तादिक नै संकोचवा, वली पसारिवा' पेख । समर्थ पूरवली परै, कहिवो सुविशेख ।। १४. स्थानक प्रति सेज्या प्रतै, निसेज्जा प्रति सोय । ऊभो रहिवो सूयवो, बेसवो अवलोय ।। १५. इमहिज करिवा वैक्रिय, परिचारणा एम। भोगविवा ते भोगने, यावत हंता तेम ।। वा०-वृत्तिकार कह्यो-इहां सर्व पिण संसारी बाह्य पुद्गल प्रत ग्रह्यां विना काई पिण क्रिया न करें, इम निश्चै ईज वलि महद्धिक देव निश्चय महद्धिकपणां थकीज गमनादि क्रिया प्रत रखे-कदाचित करिस्यै, इसी विचारणा नै विष शक्र प्रश्न करयो। सोरठा १६. पुद्गल विण लीधेह, अष्ट करण समर्थ नहीं। पुदगल लीधे तेह, ए आळं समर्थ अछ। *लय : मारग वहै रे उतावलो १. अंगसुत्ताणि भाग २ में 'पसारावेत्तए' पाठ नहीं है। ३४ भगवती जोड़ वा० -इह सर्वोऽपि संसारी बाह्यान् पुद्गलाननुपादाय न काञ्चित् क्रियां करोतीति सिद्धमेव, किन्तु देवः किल महद्धिकः, महद्धिकत्वादेव च गमनादिक्रियां मा कदाचित् करिष्यतीति सम्भावनायां शक्रः प्रश्न चकार। (वृ० प० ७०७) Jain Education Intemational International Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. *उत्क्षिप्त प्रश्नज अष्ट ए, विस्तार रहीत । __ संक्षेपे करि पूछिया, शक इंद्र वदीत ।। १७. इमाई अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, उत्क्षिप्तानीवोत्क्षिप्तानि-अविस्तारितस्वरूपाणि । (व०प०७०७) १८, प्रच्छनीयत्वात्प्रश्ना: व्याक्रियमाणत्वाच्च व्याकरणानि यानि तानि । (वृ० ५० ७०७) १९. पुच्छित्ता संभंतियवंदणएणं वंदति, २०. वंदित्ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुहति, दुहित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। (श० १६।५४) २१. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी२२. अण्णदा भंते ! सक्के देविदे देवराया देवाणुप्पियं वंदति नमसति २३. सक्कारेति जाव पज्जुवासति, १८. पूछवा योग्यपणां थकी, एह प्रश्न कहाय । व्याक्रियमानपणां थकी, व्याकरण ए ताय ।। १६. उत्क्षिप्त प्रश्न व्याकरण ए, अष्ट पूछी तेह । संभ्रम वंदना ए करी, प्रभु प्रति वंदेह ।। २०. तेहिज देव संबंधिया, चढी यान विमान । जे दिशि थी आयो हंतो, गयो छै निज थास्न । गंगदत्तदेव : परिणममाण-परिणत पद २१. हे भगवंत ! इसो कही, गोतम वीर नैं ताय । नमस्कार वंदना करी, बोलै इहविध वाय ।। २२. अन्य दिवस भगवंत जी ! शक्र सुरिद सुरराय । वांदै देवानुप्रिया प्रतै, नमस्कार करि ताय ।। २३. नमस्कार वंदना करि, बलि देवै सत्कार । जाव करै पर्यपासना, आछी रीत उदार ।। २४. किण कारण भगवंत जी! आज अबारूं ताय । शक्र सुरां नो इंद्र ते, देवतां नो राय ॥ २५. तेह देवानुप्रिया प्रतै, अष्ट उत्क्षिप्त ताम । प्रवर प्रश्न व्याकरण नैं, पूछ पूछी में स्वाम ॥ २६. संभ्रांति ओत्सुकपण, वांदै वांदी नै ताय । जाव गयो निज स्थानके, किण कारण जिनराय ? २७. हे गोतम ! इण वचन नी, आदि में नाम स्थाप । भगवंत श्री महावीर जी, गोतम प्रति कहै आप ।। २८. इम निश्चै करि गोयमा! सुणजे अवदात । संभ्रम वंदना इंद्र नीं, तसु कारण ख्यात ।। २६. सोलम शतक तणो कह्यो पंचम उद्देश । देश थकी ए आखियो, देश रह्यो वलि शेष ।। ३०. ढाल तीन सौ त्रेपनमी, भिक्षु भारीमाल । रायऋषि सुप्रसाद थी, 'जय' हरष विशाल ।। २४. किण्णं भंते ! अज्ज सक्के देविदे देवराया २५. देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता २६. संभंतियवंदणएणं वंदइ नमसइ नाव पडिगए ? सम्भ्रांति:--सम्भ्रमः औत्सुक्यं । (बृ० प० ७०७) २७. गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी२८. एवं खलु गोयमा ! ढाल : ३५४ दूहा १. तिण काले नै तिण समय, महाशुक्र रै माय । महासामान्य विमान छ, तेह विषे कहिवाय ।। २. महाऋद्धिवंता देव बे, जाव महेश्वर तेह । एक विमान विषे तिके, उपना देवपणेह ।। *लय : मारग बहै रे उतावलो १. तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे २. दो देवा महिड्डिया जाव महेसक्खा एगविमाणंसि देवत्ताए उववन्ना, श०१६, उ०५, ढा० ३५३,३५४ ३५ Jain Education Intemational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. तं जहा–माथिमिच्छदिट्ठिउववन्नए य, अमायिसम्म दिट्ठिउववन्नए य । ४. तए णं से मायिमिच्छदिदिउववन्नए देवे तं अमायि सम्मदिट्ठिउववन्नगं देवं एवं वयासी ५. परिणममाणा पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, ६. परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया। ८. तए णं से अमायिसम्मदिदिउववन्नए देवे तं मायि मिच्छदिट्ठिउववन्नगं देवं एवं वयासी ९. परिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, १०. परिणमंतीति पोग्गला परिणया, नो अपरिणया। ३. एक मिथ्यादृष्टिपणे, उपनो मायी तेह। द्वितीय अमाई ऊपनो, ते समदृष्टिपणेह ।। ४. मायिमिच्छद्दिठी तदा, द्वितीय अमायी देव । समदृष्टि उत्पन्न प्रत, इम बोल्यो स्वयमेव ।। ५. पुद्गल परिणमता थका, नो परिणम्या कहाय । पिण परणमिया तेहनें, नहिं कहिजै मुझ न्याय ।। ६. वर्तमान अद्धा अने, काल अतीतज ताय । एह तणांज विरोध थी, नहिं परिणम्या कहाय ।। ७. परिणमै छै इम करि तिके, पुद्गल नो परिणम्याज । ___ अणपरिणमिया तेहने, कहिये इम वच साज ।। ८. अमायि समदृष्टि तब, जे सुर मायी जाण । मिथ्यादृष्टी ऊपनो, वदै तास प्रति वाण ।। ६. पुद्गल परिणमता थका, परिणमिया कहिवाय । पिण अणपरिणमिया तसु, नहिं कहिजै वर न्याय ।। १०. परिणमै छै इम करि तिके, पुद्गल परिणमियाज । पिण अणपरिणमिया तसु, कहिये नहीं समाज' ।। वा०-परिणममाणा पोग्गला नो परिणया कहितां परिणमता छता पुद्गल नहीं परिणम्या वर्तमान अतीत काल-विरोध थकी। इण कारण थकीज कहै छैअपरिणया कहिता अपरिणम्यां छै इहाईज उपपत्ति ते युक्ति कहै छ-परिणमंतीति कहितां परिणमै छै इम करीनै पोग्गला नो परिणया ते पुद्गल नहीं परिणम्या ते माट अपरिणया कहितां अपरिणम्या कहिय ए मिथ्यादृष्टि नो वचन । वलि सम्यकदृष्टि कहै छै--परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया। परिणमता छता पुद्गल परिणम्या छ, पिण अपरिणम्या नथी, किण कारण इम का ? तेहगें न्याय कहै छ–परिणमंतीति कहितां परिणमै छ, इम करीनै पोग्गला परिणया कहितां परिणम्या छै ते माटे नो अपरिणया कहितां अपरिणम्या नथी परिणमंति कहितां परिणमै छै इम जे कहिये ते परिणाम नां सद्भाव थकीज कहिये अन्यथा अति प्रसंग हुवे । ___ वली परिणाम सद्भाव नै विषे तो परिणमंतीति परिणमै छ इम व्यपदेश नै विष परिणतपणों अवश्यभावी छ । जो परिणम्ये छते पिण परिणतपणों न थाय तो सर्वदा ते परिणत नो अभाव प्रसंग हुवै । ११. मायी मिथ्यादृष्टि प्रति, एम हणी तिण ठाम । अवधि प्रजूंझी अवधि करि, मुझ ने दीठो ताम ।। वा०–'परिणममाणा पोग्गला नो परिणय' त्ति वर्तमानातीतकालयोविरोधादत एवाह--'अपरिणय' त्ति, इहैवोपपत्तिमाह परिणमन्तीति कृत्वा नो परिणतास्ते व्यपदिश्यन्त इति मिथ्यादृष्टिवचनं । सम्यग्दृष्टिः पुनराह–'परिणममाणा पोग्गना परिणया नो अपरिणय' त्ति कुतः ? इत्याह-परिणमन्तीति कृत्वा पुद्गलाः परिणता नो अपरिणताः, परिणमन्तीति हि यदुच्यते तत्परिणामसद्भावे नान्यथाऽतिप्रसंगात। परिणामसद्भावे तु परिणमन्तीति व्यपदेशे परिणतत्वमवश्यंभावि, यदि हि परिणामे सत्यपि परिणतत्वं न स्यात्तदा सर्वदा तदभावप्रसंग इति । ११. तं मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नगं एवं पडिहणइ, पडिह णित्ता मोहिं पउंजइ, पउंजित्ता ममं ओहिणा आभोएइ, १२. आभोएत्ता अयमेयारूवे जाव (सं०पा०) समुप्प ज्जित्था। १२. मुझ ने देखी सुर तणं, एहवू तसु मन मांहि । यावत संकल्प ऊपनो, इम निश्चै करि ताहि ।। १. प्रस्तुत ढाल की छह से दस तक पांच गाथाओं के निर्माण में वृत्ति को भी आधार बनाया गया है। वृत्ति का वह अंश आगे वातिका के सामने उद्धृत किया है। इसलिए यहां केवल पाठ ही रखा गया है। ३६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. एवं खलु समणे भगव महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे उल्लुयतीरस्स *अब नहीं वीसरूं, म्हारै हृदय वस्या जिन स्वाम, ज्यांनै बांदण री चित हाम, ज्यांरा लीजै नित प्रति नाम ।। (ध्रुपदं) १३. इम निश्चै करिनै सही, भगवंत श्री महावीर । जम्बूद्वीप नां भरत में, पुरवर उल्लुकज तीर ।। १४. तेह नगर रे बारणे, एक जंबू उद्यान । त्यां योग्य अभिग्रह प्रभु ग्रही, यावत विचरै जान ।। १५. ते माटै निश्चै करी, मुझने श्रेय उदार। वीर प्रत वंदी करी, सेव करूं सुखकार ।। १६. इम एहवा व्याकरण प्रति, प्रश्न पूछवो ताहि । तेह श्रेय छै मो भणी, इम चितवी मन मांहि ।। १७. च्यार हजार सामानिका, वलि ले निज परिवार। जिम सुरियाभ तणुं का, तिम कहि अधिकार ।। सोरठा १८. जिम सूरियाभज ख्यात, इण वचने सूचित इस् । तीन परषदा साथ, सप्त अनिक अनिकाधिपति ।। १४. नगरस्स बहिया एगजंबुए चेहए अहापडिरूवं जाव (सं० पा०) विहरइ। १५. त सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं बंदित्ता जाव पज्जुवासित्ता । १६. इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ संपेहेत्ता १७. चउहिं सामाणियसाहस्सीहि परियारो जहा ___ सूरियाभस्स जाव (सं० पा०) १८. 'परिवारो जहा सूरियाभस्से' त्यनेनेदं सूचितं "तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं (वृ० प० ७०७) १९. सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य बहूहिं (वृ० प० ७०७) २०. महासामाणविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि सद्धि संपरिवडे' इत्यादि। (वृ०प०७०७) २१. जाव (सं० पा०) दुंदुहि-निग्घोस-नाइयरवेणं २२. जेणेव जंबुद्दीवे दीवे, जेणेव भारहे वासे, जेणेव उल्लुयतीरे नगरे, जेणेव एगजंबुए चेइए, २३. जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेत्थ गमणाए । १६. सुरवर सोल हजार, आत्मरक्षक संग ले। निज तनु रक्षाकार, अन्य वली बह देवता ।। २०. महासामान्य विमान, तसु वासी बहु देव करि । परवरियो पहिछान, इत्यादिक कहिवो इहां ।। २१. *जाव निर्घोषज नाद जे, वाजंत्र विविध प्रकार । तेहनै रव शब्दे करी, होय रह्यो झिणकार ।। २२. ज्यां ए जंबूद्वीप छै, जिहां भरत अभिधान । उल्लुक तीर पुरवर जिहां, ज्यां इक जंबू नाम उद्यान ।। २३. ज्यां वलि मुझ समीप त्यां, गमन अर्थ सिद्ध थाय । आवै छै ते देवता, सप्तम कल्प थी ताय ।। २४. तिण अवसर में शक्र जे, सुरिंद सुर-राजान । ते सुर नी दिव्य ऋद्धि जे, देव संबंधी प्रधान ।। २५. दिव्य देव नी कांति द्युति, देव तणों अनुभाव। ते पिण दिव्य प्रधान छ, ते आवै इण प्रस्ताव।। २६. दिव्य प्रधानज तेहनों, तेज लेश सुविशेष । ते प्रति अणसहतो थको, शक्र सुरेंद्र सुरेश ।। २७. अष्ट उत्क्षिप्त संक्षेप थी, प्रश्नव्याकरण जान । पूछी शक्रज वंद ने, जाव गयो निज स्थान ।। २४. तए णं से सक्के देविदे देवराया तस्स देवस्स तं दिव्वं देविडि २५. दिव्वं देवजुति दिव्वं देवाणुभागं २६. दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणे २७. ममं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छित्ता संभंतिय वंदणएणं वंदित्ता जाव पडिगए। (श० १६।५५) *लय :बअ नहीं बीसक श० १६, उ०५, ढा० ३५४ ३७ Jain Education Intemational Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. इह किल शक्रः पूर्वभवे कात्तिकाभिधानोऽभिनवश्रेष्ठी बभूव । (वृ०प०७०८) सोरठा २८. इह किल शक्र सुजान, ते पूरवभव नै विषे । कात्तिक तसु अभिधान, अभिनव श्रेष्ठि हंतो तिको ।। २६. गंगदत्त फुन ताहि, जीर्ण श्रेष्ठ हुँतो तिहां। ए बिहं माहोमांहि, मच्छर बहुलपणे हुवै ।। ३०. तेहनी तेजोलेश, असहन कारण एहवू । संभाविय विशेष, एहवू आख्यूं वृत्ति में ।। ३१. *जितरै गोयम नै प्रभु ! अर्थ प्रकाशै एह । ते स्थानक सुर तेतलै, शीघ्रपणे आवेह ।। २९,३०. गंगदत्तस्तु जीर्णः श्रेष्ठीति, तयोश्च प्रायो मत्सरो भवतीत्यसावसहनकारणं संभाव्यत इति । (वृ० प०७०८) ३१. जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमय़ परिकहेति तावं च णं से देवे तं देसं हव्व मागए। ३२. तए णं से देवे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आया हिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी३३. एवं खलु भंते ! महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे ३२. तिण अवसर ते देवता, वीर प्रभु नैं ताय । तीन वार वंदी नमी, बोलै इहविधि वाय ।। ३४. एगे मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नए देवे ममं एवं वयासी-- ३५. परिणममाणा पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, ३६. परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया । ३३. इम निश्चै भगवंत जी! महाशक सुरलोक । महासामान्य विमान है, तेह विषे सुप्रयोग ।। ३४. इक मायी मिथ्यादृष्टि, देव ऊपनो ताय । ते मुझ प्रति भगवंत जी ! बोल्यो एहवी वाय ।। ३५. पुद्गल परिणमता थका, नो परिणम्या कहाय । पिण परिणमिया तेहनें, नहिं कहियै मुझ न्याय ।। ३६. परिणमै छै इम करि तिके, पुदगल नो परिणम्याज। अणपरिणमिया तेहने, कहिये इम वच साज ।। ३७. तिण अवसर हं स्वामजी! मायो मिथ्यादष्ट । देव आनो ते प्रतै, इम बोल्यो वच इष्ट ।। ३८. पुदगल परिणमता थका, परणमिया कहिवाय । पिण अणपरणमिया तसु, नहिं कहिजे वर न्याय ।। ३६. परिणमै छै इम करि तिके, पुद्गल परणमियाज । पिण अपरणमिया तसु, कहिये नहीं समाज ।। ४०. ते किम हे भगवंत ! इम, इति प्रश्न गुणहीर । हे गंगदत्त ! इहविधि कही, बोल्या श्री महावीर ।। ३७. तए णं अहं तं मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नगं देवं एवं वयासी३८. परिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, ३९. परिणमंतीति पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, ४१.हं पिण हे गंगदत्त ! इम, आइक्खामि चिउं ताहि । पुद्गल परिणमता थका, जाव अपरिणम्या नांहि ।। ४०. से कहमेयं भंते ! एवं? (श० १६५६) गंगदत्तादि ! समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी४१. अहं पि णं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि भासेमि पण्णवेमि परूवेमि-परिणममाणा पोग्गला जाव (सं० पा०) नो अपरिणया। ४२. सच्चमेसे अछे। (श० १६।५७) तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमलैं सोच्चा निसम्म ४३. हट्ठतुठे समणं भगवं महावीरं वंदइ ४२. एह अर्थ साचूं अछ, तुम्हे कह्यो जे जाण। तिण अवसर गंगदत्त सुर, सांभल ए जिन वाण ।। ४३. हृदय धार हरख्यो घणो, वलि संतोषज पाय । भगवंत श्री महावीर , वंदै स्तुती सवाय ।। ४४. नमस्कार शिर नाम नैं, वीर थकी सुविमास । नहिं अति दूर नजीक ही, जाव करै पर्युपास ।। ४४. नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने जाव पज्जुवासति । (श० १६०५८) *लय : अब नहीं वीसरू ३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगदत्तदेव : आत्मविषयक प्रश्न पद ४५. तपधारक प्रभुजी तदा, भगवंत श्री महावीर । गंगदत्त सुर तेहनें, जाव धर्म कहै हीर ।। ४६. यावत आराधक हुवै, धर्म कथा विस्तार | तिणअवसर गंगदत्त सुर, जिन वच सुण हिय धार ॥ ४७. हरष संतोष पायो घणो, ऊठी कमो नमस्कार वंदना करी वीर प्रतं ४८. गंगदल देवता स्यं तथा अभव्यसिद्धिक अछू ? ४६. जाव बतीस प्रकार नां, थाय । कहै वाय ॥ भवसिद्धिक स्वाम ! सुरियाभ जेम तमाम ।। नाटक - विधि देखाड़ । जाव आयो जे दिशि थकी, ते दिशि गयो तिवार ।। ५०. हे भदंत ! विधि कही, श्री गोतम भगवंत । भगवंत श्री महावीर प्रति जावत एम वदंत ॥ शोभंत । कंत ॥ ५१. गंगवत सुर ने प्रभु! तिका दिव्य देव संबंधी ऋद्धि ए. दिव्य देव यति ५२. यावत ते पेठा किहां, रूप अनेक जिन भाखे तनु में गया, पेठा शरीर ५३. कूट आकारे शाल नों, कहिवो जे यावत पेठा तनु मझे, इम भाखै भगवंत ॥ दूहा ५४. अहो आश्चर्य हे प्रभु! गंगदत्त सुर सोय । महाऋद्धि करि सहित ते जाव महेश्वर जोय ।। ५५. *शत सोलम पंचमुद्देश ए, त्रिणसय चउपनमीं ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय - जश' मंगलमाल || उदार ? मभार ॥ दृष्टंत । ढाल : ३५५ दूहा १. कुन गोयम पूछा करें, प्रभुवर पे श्री जिनवर गोतम प्रतं गंगवलदेव पूर्वभव पद । २. गंगदल सुरवर तिका, दिव्य देव ऋद्धि जान दिव्य देव नीं कांति द्युति, किम लाधी भगवान ? ३. यात जे गंगदत्त सुरं दिव्य देव ऋद्धि तेह। यावत भोगविवा भणी, सन्मुख थईज एह ॥ *लय : अब नहीं बीसरू' कर जोड़ । उत्तर दे बाहोड़ ॥ ४५. तए णं समर्ण भगवं महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जाव (सं० पा० ) परिसाए धम्मं परिकहेइ ४६. जाव आराहए भवति । तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म ( ० १६ / ५९) भगवओ महावीरस्स ४७. हनुट्ठे उठाए उट्ठे उट्ठेसा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी४८. अण्णं भंते ! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए ? अभवसिद्धिए ? एवं जहा सूरियाभो ४९. जाव बत्तीसतिबद्धं नट्टविहि उवदंसेति, उवदंसेत्ता जाव तामेव दिसं पडिगए । ( ० १६ / ६०-६३) ५०. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव (सं० पा०) एवं वपासी ५१. गंगदत्तस्स णं भंते! देवस्स सा दिव्वा देविड्ढी दिव्या देवती ५२. जाव (सं० पा० ) कहि अणुप्पविट्ठे ? गोयमा सरीरं मए सरीर अप ५३. कूडागारसाला दितो जाव सरीरं अणुप्पविटठे । - ५४. वो गं भंते! गंगद देवे महिदिए जाय (स० पा० ) महेसनले । (श० १६ / ६४ ) २. गंगदत्तेनं भंते! देवेणं सा दिव्वा देविड्ढी सा दिग्वा देवती से दिवे देवागुभागे किन्गा लड़े ? ३. जाव गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए । ( श० १६ / ६५ ) . श० १६, उ० ५, ढा० ३५४, ३५५ ३९ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी५. एवं खलु गोयमा ! ४. हे गोतम ! इहविधि प्रथम, आमंत्रण दे ताय । __ महावीर गोतम प्रतै, बोले इहविधि वाय ।। ५. इम निश्चै करि गोयमा ! गंगदत्त सुर सोय । पाछिल भव कहूं तेहनों सांभलजो अवलोय ।। ६. तिण काले नै तिण समय, इण जंबुद्वीप मझार । __ भरत क्षेत्र माहै हुँतो, हत्थिणापुर नगर उदार ।। ७. वर्णक तेहनों अति घणो, सहस्रांब वन उद्यान । ते वर्णववा योग्य छ, छहुँ ऋतु में सुखदान ।। ८. तिण हत्थिणापुर नगर में, गंगदत्त शुभ संज। गाथापती वस तिहां, ऋद्धिवंत जाव अगंज ।। ६. तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था । ७. वण्णभो । सहसंबवणे उज्जाणे-वण्णओ। ८. तत्थ णं हस्थिणापुरे नगरे गंगदत्ते नाम गाहावती परिवसति-अड्ढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए। २. तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहा। १०. आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी *हो महिमागर प्रभुजी!आप धीर मंदरगिरि जेहड़ा। हो शिवदायकस्वामी! आप च्यार तीर्थ गिर-सेहरा।। (ध्रुपदं) ६. तिण काले तिण समय विचार, हो जयवंता जिनजी, मुनि सुव्रत महिमानिला। अरहंत अधिक उदार, हो जशवंता प्रभुजी, ज्ञानादिक करि गुणनिला। १०. धर्म आदि करणहार हो गुणसागर ज्ञानी, एह पोता नां शासण तणी। सर्वज्ञ महासुखकार, हो करुणागर ध्यानी सर्वदर्शी कीत्ति घणी ।। ११. रह्यो आकास में जेण, हो ज०, रूड़ो चक्र रलियामणो। जाव पकड्डिज्जमाणेण हो ज०, चालतो फटिक सुहामणो॥ १२. शोस नां समूह संघात, हो गु०, पूर्वानुपूर्व प्रभु हालता। ग्रामानुग्राम विख्यात, हो क०, महिमंडल तल म्हालता ।। १३. जाव जिहां सहस्रांब, हो ज०, वन उद्यान विषे रली। जावत विचरै सुबंभ, हो जा, परषद वंदन नीकली। १४. जाव करै पर्युपास, हो गु०, त्रिविध सेव प्रभु तणी। तिण अवसर सुविमास हो क०, गाथापति गंगदत्त सुणी॥ १५. जिण आगमन उदार, हो ज०, ए कथा अर्थ लाधे छते । हरष संतोष अपार हो ज०, पायो तन मन अधिकते।। १६. स्नान करी शुद्ध जन, हो गु०, कृत वलिकर्म तिणे वली। जाव अलंकृत तन, हो गु०, निज घर थी ते नीकली।। ११. आगासगएणं चक्केणं, जाव (सं० पा०) पकढिज्ज माणेणं-पकडिढज्जमाणेणं १२. सीसगणसंपरिवुडे पुब्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगाम १३. जाव (सं० पा०) जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरति । परिसा निग्गया। १४,१५. जाव पज्जुवासति । (श. १६/६६) तए णं से गंगदत्ते गाहावती इमीसे कहाए लढे समाणे हठ्ठतुठे १७. चालतो पालो विहार, हो ज०, हथणापुर मध्य-मध्य थई। निकले निकली तिवार, हो ज०, सहस्रांब वन जिहां आवही॥ १८. जिहां मुनिसुव्रत अरिहंत, हो गु०, तिहां आवै आवी करी। मूनिसुव्रत नै धर खंत, हो क०, वंदन करत हरष धरी ।। १६. तीन वार सुविमास, हो ज०, जीमणा पासा थी प्रदक्षिणा। जाव त्रिविध पर्युपास, हो ज०, तंत जोग त्रिहं तेह तणां ।। १६. व्हाए कयबलिकम्मे जाव अप्पमहग्धाभरणालंकिय सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्ख मित्ता १७. पायविहारचारेणं हत्थिणापुर नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति, निग्गगच्छित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे १८. जेणेव मुणिसुब्बए अरहा तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता मुणिसुब्वयं अरहं १९. तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासति। (श० १६।६८) *लय : हो जयवंता जिनजी म्हारो मन ४० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. तए णं मुणिसुव्वए अरहा गंगदत्तस्स गाहावतिस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ । २१,२२ जाव परिसा पडिगया। (श० १६।६९) तए णं से गंगदत्ते गाहावती मुणिसुब्वयस्स अरहमओ अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हठ्ठतुठे उट्ठाए उठेति, उठेत्ता मुणिसुब्वयं अरहं वंदइ नमसइ । २३. वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी–सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वदह । २४. जं नवरं देवाणुप्पिया ! जेट्टपुत्तं कुडुंबे ठावेमि, तए अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं २५. मुंडे जाव (सं० पा०) पव्वयामि । अहासुहं देवा णुप्पिया ! मा पडिबंधं । (श० १६७०) २६,२७ तए णं से गंगदत्ते गाहावई मुणिसुब्बएणं अरया एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुझे मुणिसुब्वयं अरहं वंदइ नमसइ, २०. मुनिसुव्रत अरिहंत, हो गु०, गंगदत्त नैं तिण अवसरे। ते परषद मोटी महंत, हो क०, धर्म कथा प्रभ वागरै।। २१. जाव परषद गई स्थान, हो ज०, गाथापति गंगदत्त तदा । मुनिसुव्रत पे जान, हो ज०, धर्म सुणी हरख्यो मृदा ॥ २२. पायो संतोष अत्यंत, हो गु०, ऊठ ताम ऊठी करी। मुनिसुव्रत अरिहंत, हो क०, नमस्कार वंदना वरी ।। २३. अरहंत प्रति कहै वाय, हो ज०, सरळू छ निग्रंथ प्रवचन नैं। जाव बदो तुम ताय, हो ज०, तेहिज सत्य शोभनपणे ॥ २४. जे णवरं एतलो विशेष, हो गु०, जे मुझ जेष्ठज सुतन नैं। कुटंब विषे संपेख, हो क०, स्थायी देवानुप्रिया कनै ।। २५. मंड थई मैं सोय, हो ज०, जाव प्रव्रज्या लेसं सही। जिण कहै जिम सुख होय, हो ज०, प्रतिबंध विलंब कीजै नहीं।। २६. तिण अवसर गंगदत्त, हो गु०, गाथापति रलियामणो। मुनिसुव्रत अरिहंत, हो क०, इम को छते हरख्यो घणो ।। २७. आयो संतोष अत्यंत, हो ज०, मुनिसुव्रत अरिहंत नैं । वच स्तुति वंदंत, हो ज०, नमस्कार निरमल मनें ।। २८. मुनिसुव्रत भगवान, हो गु०, तास समीप थकी तदा । सहस्रांब वन उद्यान, हो ज०, तेह थकी निकल्यो मुदा ।। २६. ज्यां हत्थिणापुर जाण, हो ज०, ज्यां निज घर त्यां आवियै । विस्तीर्ण अन-पान, हो ज०, यावत ताम रंधाविये ।। ३०. मित्री ज्ञाती नै निजग्ग, हो गु०, जाव आमंत्री नै पर्छ । कीधो सिनान समग्ग, हो क०, पूरण जिम कहिवो अछै ।। ३१. जाव जेष्ठ सुत साव, हो ज०, कुटंब विषे स्थापी करी। मित्र न्यातीला जाव, हो ज०, जेष्ठ सुतन पूछी वरी ।। ३२. उपाडै पुरुष हजार, हो ज०, तेह सेवगा प्रति चढी। ते सेवगा महासुखकार, हो ज०, जग माह कीरति बढी ।। ३३. मित्र न्यातीला निजग्ग, हो ज०, जाव परिजन जेष्ठ सुत वली। चालता के. सुमग्ग, हो ज०, सर्व ऋद्धि करि रंगरली ।। ३४. यावत नाद रवेण, हो ज०, हत्थिणापुर मध्य-मध्य थई । नीकलियो जन श्रेण, हो ज०, चरण इच्छा चित अधिक ही। ३५. जिहां सहस्रांब वन उद्यान, हो ज०, तिहां आवै आवी करी । छत्रादिक सुविधान, हो क , जिन अतिशय देख चक्ष ठरी॥ ३६. जेम उदायन राय, हो गुणधारी गोयम, जाव पोते आभरण उतारियै । वलि स्वयमेवज ताय, हो जशधारी गोयम, लोचन पंच मुष्टी कियै ।। ३७. जिहां मुनिसुव्रत अरिहंत, हो गु०, राय उदायन नी परै। तिमहिज दीख्या तंत, हो ज०, अंग इग्यारै तिमज वरै।। ३८. जाव मास नी सार, हो गु०, संलेखना संवेद नैं। साठ भक्त सुखकार, हो ज०, अणसण यावत छेद नै । ३६. आलोई पडिकमी समाध हो गु०, पाम्यो गंगदत्त मुनिवरू। काल के अवसर साध, हो गु०, काल करी गुणसुंदरू ।। २८. वंदित्ता नमंसित्ता मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणामओ पडिनिक्खमति । २९. जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवा गच्छति, उवागच्छत्ता विउलं असणपाण जाव (सं० पा०) उवक्खडावेति । ३०. मित्त-नाइ-नियग जाव (सं० पा०) आमंतेति, आमं तेत्ता तो पच्छा व्हाए जहा पूरणे ३१. जाव जेठ्ठपुत्तं कुडंबे ठावेति । तं मित्त-नाइ जाव (सं० पा०) जेठ्ठपुत्तं च आपुच्छइ, आपुच्छिता ३२. पुरिससहस्सवाहणि सीयं द्र हति, ३३. मित्त-नाइ-नियग जाव (सं० पा०) परिजणेणं जेट्ठ पुत्तण य समणुगम्ममाणमग्गे सव्विड्ढीए ३४. जाव दुंदुहि-निग्घोसनादितरवेणं हथिणागपुरं मझ मज्झेणं निग्गच्छइ, ३५. जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता छत्तादिते तित्थगरातिसए पासति । ३६. एवं जहा उद्दायणे जाव सयमेव आभरणे ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति । ३७. जेणेव मुणिसुब्वए अरहा एवं जहेव उद्दायणे तहेव पवइए, तहेव एक्कारस अंगाई अहिज्जइ ३८. जाव मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसेत्ता सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेति । ३९. आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा श०१६, उ० ५, ढा० ३५५ ४१ Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. महाशुक्र आख्यात, हो गु०, महासामान्य विमान में। पवर सभा उपपात, हो ज०, देव सिज्या मन मैं गमै ।। ४१. जाव गंगदत्त जेह, हो गु०, देवपणे ते ऊपनो। तिण अवसर सुर तेह, हो ज०, तब ततकाल नो नीपनो।। ४२. पंच पर्याप्त करेह, हो गु०, भाव पर्याप्त पामियो। आहार पर्याप्त जेह, हो ज०, जाव भाषा मन धामियो ।। ४३. इम निश्चै अवधार, हो गु०, गंगदत्त सुर द्रव्य ऋद्धि लही। जाव भोगविवा सार, हो ज०, सनमुख तसु प्राप्ती थई ।। ४०. महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे उबवायसभाए देवसयणिज्जसि ४१. जाव गंगदत्तदेवत्ताए उववन्ने। (श० १६७१) तए णं से गंगदत्ते देवे अहुणोववन्नमेत्तए समाणे ४२. पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तभावं गच्छति । (तं जहा-आहारपज्जत्तीए जाव भासा-मणपज्जत्तीए)। ४३. एवं खलु गोयमा ! गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्वा देविड्ढी जाव (सं० पा०) अभिसमण्णागए। (श० १६७२) ४४. गंगदत्तस्स णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! सत्तरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । (श० १६७३) ४५. गंगदतेणं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव (सं० पा०) महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति । (श० १६७४) ४६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १६१७५) ४४. गंगदत्त सूर नी स्वाम ! हो ज०, किता काल नी स्थिति कही? भाखै श्री जिन ताम, हो ज०, सागर सतर तणी लही ।। ४५. गंगदत्त सुर प्रभु ! तेथ, हो ज०, ते कल्प थकी आउ क्षय करी। जाव महाविदेहखेत, हो ज०, सीझस्यै लहिस्यै शिव सिरी॥ ४६. सेवं भंते ! सोलम पंचमेह हो ज०, त्रिण सय पचपनमीं ढाल ए। भिक्षु भारीमाल नप जेह, हो ज०, 'जय-जश' हरष विशाल ए ।। षोडशशते पंचमोद्देशकार्थः॥१६॥५॥ ढाल : ३५६ १,२ पञ्चमोद्देशके गंगदत्तस्य सिद्धिरुक्ता सा च भव्यानां केषाञ्चित् स्वप्नेनापि सूचिता भवतीति स्वप्नस्वरूपं षष्ठेनोच्यते इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् । (वृ० प० ७०९) दूहा १. पंचमुद्देशा नैं विषे, गंगदत्त शिव ख्यात । ते कोयक जे भव्य नैं, स्वप्ने करि अवदात ।। २. तिणसं षष्ठमुद्देश करि, स्वप्न सरूपज सोय । इण संबंध सूं एहनूं, आदि अर्थ इम होय ।। स्वप्न पद ३. कितै प्रकारे हे प्रभु ! स्वप्न विषे दर्शन । जिन कहै पंच प्रकार जे, दर्शन स्वप्न कथन ।। ४. शयन क्रिया अनुगत अर्थे, विकल्प तेहनो जान । दर्शन जे अनुभवन ते, स्वप्न दर्शन पहिछान ।। ५. जिन प्रकार करि ते यथातथ्य सत्य अवलोय । तिण करिकै वरतै तिको, यथातथ्य धुर जोय ॥ ६. जिन प्रकार करिने यथातथ्य-तत्व है सोय । तिण करिकै वरतै तिको, यथातत्व पिण होय ।। ७. अहातच्च धुर सपना तणां, दोय भेद इम लाध । दृष्टार्थ अविसंवादि धुर, फल में अविसंवाद ।। ४२ भगवती जोड़ ३ कतिविहे णं भंते ! सुविणदंसणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे सुविणदंसणे पण्णत्ते, ४. स्वप्नस्य--स्वापक्रियानुगतार्थविकल्पस्य दर्शनंअनुभवनं । (वृ०प०७१०) ५,६ तं जहा-अहातच्चे, 'अहातच्चे' त्ति यथा-येन प्रकारेण तथ्य-सत्यं तत्त्वं वा तेन यो वर्ततेऽसौ यथातथ्यो यथातत्त्वो वा। (वृ० प० ७१०) ७. स च दृष्टार्थाविसंवादी फलाविसंवादी वा। (वृ०प०७१०) Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. देख्यो किणही स्वप्न में, जिम मुझ कर फल दत्त। जागी सागी निरखियो, स्वप्न दृष्ट फल पत्त ।। ६. फलाऽविसंवादी तिको, गो वृषभाद्यारूढ़। दृष्ट बुद्ध कालांतरे, संपति लहै अमूढ ।। १०. द्वितीय पताणे स्वप्न जे, प्रतान ते विस्तार । तेह रूप जे स्वप्न ए, विस्तर सहित विचार ।। ११. यथातथा देखै स्वप्न, अथवा तेहथी अन्न । ते देखै विस्तार थी, दूजो स्वप्न कथन्न ।। १२. ए विस्तारज रूप कृत, प्रथम द्वितीय रै माय । तेहिज भेद विचारिवो, इम आगल पिण आय ।। १३. चिता स्वप्नज तीसरो, जाग्रत चितित अर्थ । तेहिज स्वप्नो देखियो, चिता स्वप्न तदर्थ ।। १४. तद्विपरीतज तुर्य फुन, स्वप्न वस्तु जे दृष्ट । बुद्ध विपर्यय पामिय, तविपरीतज इष्ट ।। ८. तत्र दृष्टार्थाविसंवादी स्वप्नः किल कोऽपि स्वप्नं पश्यति यथा मह्य फलं हस्ते दत्तं जागरितस्तथैव पश्यतीति । (वृ० ५० ७१.) ९. फलाविसंवादी तु किल कोऽपि गोवृषकुंजराद्यारूढ मात्मानं पश्यति बुद्धश्च कालान्तरे सम्पदं लभत इति । (वृ०प० ७१०) १०. पताणे 'पयाणे' त्ति प्रतननं प्रतानो-विस्तारस्तद्र पः स्वप्नो यथातथ्यः तदन्यो वा प्रतान इत्युच्यते । (वृ० प०७१०) १२. विशेषणकृत एव चानयोर्भेदः एवमुत्तरत्रापि । (वृ० प० ७१०) १३. चिंतासुविणे, "चितासुमिणे' त्ति जाग्रदवस्थस्य या चिन्ता-अर्थचिन्तनं तत्संदर्शनात्मकः स्वप्नश्चिन्तास्वप्नः । (वृ० ५० ७१०) १४. तविवरीए। 'तव्विवरीय' त्ति यादृशं वस्तु स्वप्ने दृष्टं तद्विपरीतस्यार्थस्य जागरणे यत्र प्राप्तिः स तद्विपरीतस्वप्नः । (वृ० प० ७१०) १५. यथा कश्चिदात्मानं मध्यविलिप्तं स्वप्ने पश्यति जागरितस्तु मेध्यमर्थ कंचन प्राप्नोतीति । (वृ० प०७१०) १६. अन्ये तु तद्विपरीतमेवमाहुः-कश्चित् स्वरूपेण मृत्तिकास्थलमारूढः स्वप्ने च पश्यत्यात्मानमश्वारूढमिति । (वृ० प० ७१०,७११) १७. अव्वत्तदंसणे। (श० १६७६) 'अव्वत्तदंसणे'त्ति अव्यक्तं-अस्पष्टं दर्शनं--अनुभवः स्वप्नार्थस्य यत्रासावव्यक्तदर्शनः । (वृ० प० ७११) १८. सुत्ते णं भंते ! सुविणं पासति ? जागरे सुविणं पासति ? सुत्तजागरे सुविणं पासति ? १९. गोयमा ! नो सुत्ते सुविणं पासति, नो जागरे सुविणं पासति, १५. जिम किण स्वप्ने आत्म प्रति, अमेध्य विलिप्त दृष्ट । जाग्रत ते मेध्य अर्थ प्रति, कांचन पामै इष्ट ।। १६. अन्य कहेज स्वरूप करि, तविपरीतज होय । स्वप्ने मृतका स्थल चढयां, अश्वारूढ सुजोय ।। १७. अव्यक्त स्वप्नो पंचमो, स्वप्न अर्थ नो जाण । प्रगट दर्शन अनुभव नहीं, अव्यक्त दर्शन मान । *जिन-वान सुधारस सम जाणी। (ध्रुपदं) १८. सूतो प्रभु ! सुपनो पेखै, के जाग्रत स्वप्न प्रतै देखे। कै सुप्त-जाग्रत सुपनो माणी ।। १६. श्री जिन भाखै सुविशेख, जिन सुप्त सुपन प्रति नहिं देखै । स्वप्न जाग्रत नहीं दृष्टानी ।। २०. नहीं अतिसुप्त निद्रा मांही, नहीं अतिजाग्रत पिण ज्यांही। ते सुप्तजाग्रत स्वपनो ठाणी ॥ सोरठा २१. इहां सूतो अवलोय, ते तो निद्रा ने कह्यो। जाग्रतपणोज जोय, निद्रा तणां अभाव थी॥ २०. सुत्तजागरे सुविणं पासति । (श० १६१७७) *लय: प्रभु वासपूज भजल प्राणी ! श०१६, उ०६, ढा० ३५६ ४३ Jain Education Intemational ducation Intemational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. 'सुत्तजागरे' ति नातिसुप्तो नातिजाग्रदित्यर्थः । (व०प० ७११) २९. अथ विरत्यपेक्षया जीवादीनां पञ्चविंशते: पदानां सुप्तत्वजागरत्वे प्ररूपयन्नाह- (वृ०प० ७११) २२. कांइक निद्रा मांहि, कांइक छै वलि जागतो। सुप्तजागरो ताहि, सुपनो देखै इम कह्यो। २३. ए सूतो आख्यात, ते द्रव्य निद्रा जाणवी। दर्शणावरणी पात, ते तणांज उदा थकी। २४. स्वप्न आदि जंजाल, तेह तो मोह उदय थकी। भाव नींद ए भाल, द्रव्य भाव बिहुं जुजुआ। २५. द्रव्य निद्रा थी जोय, कर्म तणो बंध व नथी। भाव थकी बंध होय, तिण कारण बिहं जुजुआ।। २६. अव्रत नै मिथ्यात, अशुभ जोग वलि जाणवो। भाव निद्रा ए ख्यात, मोह कर्म नां उदय थी। २७. द्रव्य निद्रा अधिकार, ते तो पूर्वे आखियो। भाव निद्रा हिव धार, जीवादिक पणवीस पद ।। २८. ते भाव निद्रा अवदात, अव्रत आश्री प्रश्न हिव। अशुभ जोग मिथ्यात, ते आश्री इहां प्रश्न नहीं। २६. वृत्तिकार पिण सोय, आख्यो छै व्रत आश्रयी। जीवादिक नैं जोय, पद पणवीस परूपणा ।। ३०. हे प्रभु ! जीव सूता कहिये, अथवा जाग्रत भावहियै । ते सुप्तजागरा बहु माणी? ३१. जिन कहै सूता पिण जीवा, - वलि जागरा पिण मुनिवर कहिवा । सुप्त जागरा पिण ठाणी ।। ३२. नारक प्रभुजी ! स्यूं सूता, अव्रत आश्रवमें खूता। जागरा सुत्तजागरा ख्यानी ।। ३३. नारक सूता जिन कहिये, पिण जाग्रत भाव नहींलहिये । सुप्त-जागरा नहिं ठाणी ।। सोरठा ३४. सूता नारक जीव, अविरति नां सद्भाव थी। जाग्रत नहीं कहीव, सर्वविरति नहिं ते भणी ।। ३५ सुप्त जागरा नांय, देशविरति पिण नहिं तसु । तिणसू ए कहिवाय, सूता अविरति आश्रयी ।। ___*वचनामृत वीर तणी वाणी। (ध्रुपदं) ३६. एवं नारकवत ताह्यो, जाव चउरिद्रिया कहिवायो। ते उगणीस दंडक आणी ।। ३७. तिरि पंचेंद्रिया भगवंतो, स्यूं सूता पूछा हुंतो? जिन भाखै सांभल नाणी ।। ३८. सूता छै तिरि पंचेंद्रिया, तास जागरा नहिं कहिया। सुप्त-जागरा पिण जाणी ।। ३०. जीवा णं भंते ! किं सुत्ता ? जागरा ? सुत्तजागरा ? (श० १६७८) ३१. गोयमा ! जीवा सुत्ता , विजागरा वि, सुत्तजागरा वि। ३२. नेरइयाणं भंते ! किं सुत्ता-पुच्छा। ३३. गोयमा ! नेरइया सुत्ता, नो जागरा, नो सुत्त नागरा। ३६. एवं जाव चारिदिया । (श० १६७९) ३७. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया भिंते ! कि सुत्ता पुन्छा । ३८. गोयमा ! सुत्ता, नो जागरा, सुत्तजागरा वि। लय : प्रभु वासपूज मजले प्राणी ४४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३६. तिरि पं सूता जेह, अव्रत नां सद्भाव थी। पिण जागरा न जेह, सर्वविरति नहिं ते भणी॥ ४०. सुप्त जागरणा जाण, देश विरति छै जेहने । ते माटै पहिछाण, दोय भेद कहियै इहां ॥ ४१. *मनुष्य जीवनी पर कहिये, भेद तीनई इहां लहिये। सूता जागरा उभय ठाणी। ४२. वाणव्यंतर ज्योतिषी देवा, वैमानिक सुर सुख मेवा । जेम नारक तिम जाणी।। ४१. मणुस्सा जहा जीवा। ४२. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । (श० १६८०) ४६. भावसुप्तास्त्वमुनयो गृहस्था मिथ्यात्वाज्ञानावृता हिंसाद्यास्रवद्वारेषु सदा प्रवृत्ताः (आ० वृ० ५० १५१) सोरठा ४३. 'प्रथम च्यार गुणठाण, सूता अव्रत आश्रयी। बावीस दंडक जाण, तिणसू सूता बोल इक ॥ ४४. सुप्त-जागरा सोय, ए पंचम गुणठाण है। वलि जागरा जोय, छट्ठा थी चवदम लगै॥ ४५. भावे निद्रा एह, ते अव्रत आश्री इहां। मिथ्यातादिक जेह, तेहनो कथन इहां नथी। ४६. धुर अंग तृतिय अज्झयण, प्रथम उद्देशे वृत्ति में। भावे निद्रा वयण, हिंसादिक मिथ्यात्व नैं। ४७. हिंसादिक में जोय, पांचं आश्रव आविया । अशुभ जोग ए सोय, ते पिण भावे नींद है। ४८. तिणसू ए मिथ्यात, बली अशुभ जोगां तणों। इहां कथन नहिं ख्यात, इहां कथन अविरतितणों॥ ४६. जे सुर चउथे गुणठाण, तास मिथ्यात क्रिया नथी। अव्रत आश्रयी जाण, भावे सूता आखिया ॥ ५०. छठे गुण मुनिराय, अशुभ जोग आवै कदा। पिण तसु अविरति नांय, तिणसं दाख्या जागरा॥ ५१. तिणसं ए अवलोय, अव्रत भावे नींद जे । तेह आश्रयी सोय, आख्या सूता-जागरा ।।' (ज० स०) ५२. स्वप्नो देखणहार, पूर्वे ते आख्या तिहां । हिवै स्वप्न अधिकार, तथ्यातथ्यादिक भाव करि ।। ५३. *संवत प्रभु ! स्वपनो पेखै, अथवा असंवृत ते देखे । कै संवुडासंवुड सुविण ठाणी॥ ५२. पूर्व स्वप्नद्रष्टार उक्ताः, अथ स्वप्नस्यैव तथ्यातथ्य विभागदर्शनार्थं तानेवाह- (वृ० १० ७११) ५३. संवुडे णं भंते ! सुविणं पासति ? असंवुडे सुविणं पासति ? संवृडासंवुडे सुविणं पासति ? सोरठा ५४. रूंधै आथव द्वार, हिंसादिक पांचू प्रत । सर्वविरति अणगार, संवुडो संवत तिको। ५५. नहीं रूंध्या आश्रव द्वार, हिंसादिक त्यागा नथी। तसु नहिं विरति लिगार, तेह असंवडो कह्यो। *लय : प्रभु वासपूज भजल प्राणी ! श०१६, उ०६, ढा० ३५६ ४५ Jain Education Intemational Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. 'संवृतः' निरुद्धाश्रवद्वारः सर्वविरत इत्यर्थः, अस्य च जागरस्य च शब्दकृत एव विशेषः । (वृ० ५० ७११) ५८. द्वयोरपि सर्वविरताभिधायकत्वात् । (वृ० ५० ७११) ५९. किन्तु जागरः सर्वविरतियुक्तो बोधापेक्षयोच्यते । (वृ० प० ७११) ६०. संवृतस्तु तथाविधबोधोपेतसर्वविरत्यपेक्षयेति । (वृ० ५० ७११) ६१. गोयमा ! संवुडे वि सुविणं पासति, असंवुडे वि सुविणं पासति, संवुडासंबुडे वि सुविणं पासति । ६२. संवुडे सुविणं पासति अहातच्चं पासति । ५६. देश थकी पचखाण, देश थकी आगार तसु । विरताविरती जाण, संवुडासंवुड तिको ।। ५७. रूंध्या आश्रव द्वार, सर्व विरति संवर मुनि । जेह जागरा सार, शब्द तणोज विशेष है ।। ५५. संवत जागृत दोय, सर्व विरति है बिहं तणें । ते कारण थी होय, शब्द तणोज विशेष है।। ५६. वली जागरो ताय, सर्व विरति करि युक्त है। बोधि तणी अपेक्षाय, कह्यो जागरो एहनें ।। ६०. संवुडो ए ताय, बोधि तथाविध सहित पिण । ____ सर्वं विरति अपेक्षाय, संवुडो संवृत कह्यो। ६१. *जिन कहै स्वप्न संवृत देखे, असंजति पिण ते देखै । संवुडासंवुड दृष्टानी ॥ ६२. संवुडो स्वप्न प्रतै देखै, तेह जथातथ ही पेखे। वृत्ति थी न्याय कहूं जाणी ।। सोरठा ६३. संवत इहां विचार, अति विशिष्ट संवृतत्वयुत। बहुलपणे अवधार, मल तसु क्षीणपणां थकी। ६४. वली देवता तास, अनुग्रह युक्तपणां थकी। सत्य स्वप्न सुविमास, देखै छै संवृत तिको ।। ६५. तुर्य आवश्यक न्हाल, सोयणवत्तियाए कह्यो। स्वप्न आल जंजाल, वलि स्त्रियादिक नों स्वपन ।। ६६. तिणसू सुपनो सत्य, सगला संवृत नैं नहीं। अति विशिष्ट संवृत, यथातथा तसु संभवै ।। ६७. *असंवुडो सुपनो देखै, सत्य तथा अन्यथा पेखे । इमज संवुडासंवुड जाणी।। सोरठा ६८. पूर्व संवत आदि, सुपनो देखै इम कह्यो। संवतपणादि लाधि, जीव प्रमुख दंडक विषे ।। ६६. *जीव प्रभ ! संवुडा कहिये, अथवा असंवुडा लहिये। कै संवुडासंवुड आख्यानी ।। ७०. जिन कहै संवुडा पिण जीवा, ___ असंवुडा पिण ते कहिवा। संवुडासंवुड पिण जाणी।। ७१. दंडक सुप्ततणोजकह्यो, संवृतनो तिमहीज लह्यो। वारू विधि ए व्याख्यानी। ६३. संवृतश्चेह विशिष्टतरसंवतत्वयुक्तो ग्राह्यः स च प्रायः क्षीणमलत्वात् । (वृ० प० ७११) ६४. देवताऽनुग्रहयुक्तत्वाच्च सत्यं स्वप्नं पश्यतीति । (वृ०प०७११) ६५. आवस्सयं ४।५ ६७. असंवुडे सुविणं पासति तहा बा तं होज्जा, अण्णहा वा तं होज्जा। संवुडासंवुडे सुविणं पासति तहा वा तं होज्जा, अण्णहा वा तं होज्जा। (श० १६।८१) ६८. अनन्तरं संवृतादिः स्वप्नं पश्यतीत्युक्तमथ संवृतत्वा द्येव जीवादिषु दर्शयन्नाह- (वृ० प० ७११) ६९. जीवा णं भंते ! कि संवुडा ? असंवुडा ? संवुडा संवुडा? ७०. गोयमा ! जीवा संवुडा वि, असंवुडा वि, संवुडा संवुडा वि। ७१. एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियव्वो। (श० १६८२) ७२. स्वप्नाधिकारादेवेदमाह (वृ०प०७११) दूहा ७२. स्वप्न तणां अधिकार थी, स्वप्न तणो इज सोय । गोयम प्रश्नज पूछवे, तसु जिन उत्तर जोय ।। *लय : प्रभु वासपूज भजलै प्राणी! ४६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३. *स्वप्न प्रभु ! कितरा आख्या, बयांलीस जिनजी दाख्या । वलि गोतम पूछे जाणी ।। ७३. कति णं भंते ! सुविणा पण्णत्ता ? गोयमा ! बायालीसं सुविणा पण्णत्ता । (श० १६।८३) सोरठा ७४. विशिष्ट फल अपेक्षाय, बयालीस स्वप्ना कह्या। __ अन्य प्रकारे ताय, असंख संभवै इम वृत्तौ ।। ७५. *प्रभु ! मोटा स्वप्न केता कहिये ? श्री जिन तास उत्तर दइयै । तोस मोटा सुपना जाणी।। ७४. 'बायालीसं सुविण' त्ति विशिष्टफलसूचकस्वप्नापेक्षया द्विचत्वारिंशदन्यथाऽसंख्येयास्ते संभवन्तीति । (वृ० ५० ७११) ७५. कति णं भंते ! महासुविणा पण्णत्ता? गोयमा ! तीसं महासुविणा पण्णत्ता। (श० १६८४) ७६. 'महासुविण' त्ति महत्तमफलसूचका: 'बावत्तरि' त्ति एतेषामेव मीलनात् । (वृ०५० ७११) ७७. कति णं भंते ! सव्वसुविणा पण्णत्ता ? गोयमा ! बावत्तरि सव्वसुविणा पण्णत्ता। (श०१६।८५) ७८. तित्थगरमायरो णं भंते ! तित्थगरंसि गभं वक्कममापंसि ७९. कति महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति ? ८०. गोयमा ! तित्थगरमायरो तित्थगरंसि गम वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं ८१. इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति, तं जहा-गय-उसभ जाव सिहिं च। (श० १६८६) सोरठा ७६. अतिही महाफल ताय, तीस स्वप्ना मोटा कह्या। ए बेहुं मिल थाय, सर्व बोहित्तर स्वप्न है। ७७. *सर्व स्वप्न प्रभुजी ! केता? हिव जिन भाखै छै जेता। सर्व स्वप्न बोहित्तर जाणी।। ७८. वलि गोतम पूछ बातं, प्रभु तीर्थकर नी मातं । जिन गर्भ उपजै आणी ।। ७६. मोटा स्वप्न किता सागै, देखी जिन माता जागे । हिव जिन उत्तर इम जाणी।। ८०. देवाधिदेव तणी मातं, हवै गर्भ जिन उपपातं । ए तीस महासुपन अंतर जाणी।। ८१. ए चउद सुपन देखी जागै, गज वृषभ सार्दुल सागै । यावत अग्नि शिखा जाणी।। सोरठा ५२. जाव शब्द थी जोय, लक्ष्मी देवी माल्य फुन । शशि सूर्य ध्वज सोय, कुंभ सरोवर पद्म वलि ।। ८३. सागर भवन विमान, रत्न राशि वलि निरमली। जाव शब्द थी जाण, स्वप्न इहां ए आखिया ।। ८४. *हे प्रभ ! चक्रवत्ति नी मातं, चक्री गर्भ आयां ख्यातं । कति महास्वप्न देखै राणी? ८५. जिन कहै चक्री नी मातं, चक्री गर्भे उपपातं । ए महास्वप्न तीस महिला जाणी।। ८६. इम जिम तीर्थकर मातं, यावत अग्निशिखा ख्यातं । चउदश स्वप्न सुपहिछाणी ॥ ८७. वासुदेव तणी मायो, तास प्रश्न की, ताह्यो। हिव जिन उत्तर सुविहाणी ।। *लय : प्रभु वासपूज भजल प्राणी ! ८२,८३. गय उसह सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं झयं कुंभं । पउमसर सागर विमाणभवण रयणुच्चय सिहिं च ।। (भग० ११।१४२) ८४. चक्कवट्टिमायरो णं भंते ! चक्कट्टिसि गम्भं वक्कममाणंसि कति महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झति? ८५. गोयमा ! चक्कवट्टिमायरो चक्कवट्टिसि गम्भ वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं ८६. एवं जहा तित्थगरमायरो जाव (सं०पा०) सिहिं च । (श० १६८७) ८७. वासुदेवमाय रो णं-पुच्छा। श०१६. उ०६, ढा० ३५६ ४७ Jain Education Intemational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८. वासुदेव तणी मातं, यावत तस गर्ने ख्यातं । वासुदेव उपजे आणी ।। ८६. ए महास्वप्न चउदश पवरा, त्यां मांहिला सप्त अन्यतरा । महास्वप्न देख जागै राणी।। १०. वलि बलदेव तणी मातं, प्रश्न कियां जिनवर ख्यातं । बलदेव मात यावत जाणी॥ ६१. ए महास्वप्न चउदश जबरा, ते मांहिला चिउं अन्यतरा। महास्वप्न देख नागै राणी ॥ ६२. वलि मंडलीक तणी मातं, प्रश्न कियां जिन आख्यातं । मंडलीक मात यावत जाणी॥ ६३. ए महास्वप्न चउदश वर ही, ते माहिलो एक अन्यतर ही। ___ महास्वप्न देख जाग राणी ।। ६४. सोलम शतक छठो देशं, ढाल विशालज सविशेषं । तीनसो छप्पनमी जाणी ।। ६५. भिक्षु भाण भरत मांह्यो, भारीमाल वलि ऋषिरायो। 'जय-जश' सुख संपति जाणी॥ ५५. गोयमा ! वासुदेवमायरो जाव (सं० पा०) वक्कममाणंसि ८९. एएसि चोद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे सत्त महा सुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति । (श० १६८८) ९०. बलदेवमायरो पुच्छा। गोयमा ! बलदेवमायरो जाव ९१. एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति । (श० १६१८९) ९२. मंडलियमायरो णं भंते ! पुच्छा। गोयमा! मंडलियमायरो जाव ९३. एएसि चोद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरं एगं महा सुविणं पासित्ता णं पडिबुझंति। (श० १६.९०) ढाल : ३५७ भगवान द्वारा महास्वप्न-दर्शन पद १. समणे भगवं महावीरे २. छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, तं जहा दूहा १. श्रमण तपस्वी शोभता, भगवंत ऐश्वर्यवंत । महावीर उपसर्ग में, अचल कर्म रिपु हंत ।। २. छद्मस्थ कालपणां तणी, अंतिम रात्रे ख्यात । ए महास्वप्न दश देखने, जाग्या श्री जगनाथ ।। *धीर गुणहीर महावीर देख्या स्वप्न । (ध्रुपदं) ३. एक महाघोर जे रूप विद्रूप अति, दिप्त वा दप्ति धर रोद्र सागै । ताल इव काल विकराल पिशाच प्रति, ___स्वप्न में जीत करि देख जागै ।। ४. एक अति महातनु पुरुष कोकिल भनु, शुक्ल अति धवल वर पक्ष तासं । स्वप्न में देखियो पवर ही पेखियो, जागिया स्वाम गणधाम जासं ।। लय: कड़खा ३. एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ता णं पडिबुद्धे । 'घोररूवदित्तधरं' ति घोरं यद्रूपं दीप्तं च दृप्तं वा तद्धारयति यः सः । (वृ० प०७११) ४. एगं च णं महं सुक्किलपक्खगं पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता गं पडिबुद्धे । ४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. एक महा चित्र विचित्र पांखे करी, पुरुष कोकिल प्रति देख बुद्धा। माल्य द्वय सरस ही सर्व रत्नामयी, स्वपन में देख जाग्या समृद्धा ।। ५. एगं च णं महं चित्तविचितपक्खग पसकोइलगं सूविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । एगं च णं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । 'दामदुगं' ति मालाद्वयम् । (व०प०७११) ६. एगं च णं महं सेयं गोवग्गं सुविणे पासिता णं पडिबुद्धे । ७. एगं च णं महं पउमसरं सव्वमओ समंता कुसुमियं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । ६. पंचमे स्वप्न वलि एक महाऊजलो __ वर्ग गायां तणो श्वेत भारी। स्वप्न में पेख झट प्रगट जाग्या प्रभु, स्वाम सूख ठाम आरामकारी। ७. एक महापद्म सर प्रवर अति सखर ही, सर्व थी सर्व प्रकार धामी। कुसुम करि छावियो अधिक शोभावियो, स्वप्न में देख जाग्याज स्वामी ।। ८. एक महा उदधि कल्लोल मोटा लघु, तेहनां सहस्र करिनैज चारू । तेह भुजा करी स्वप्न मांहे तिरी, जागिया वीर भव-नीर तारू । ६. एक महासूर तप पूर जन नूर वृद्धि, प्रवर पंडर पंकज विकासी। तेज करि जाज्वलमान स्वप्ना विषे, देख जाग्या प्रभु जग प्रकासी । १०. एक महा गिरिवर मानुषोत्तर सखर, हरित वेडूर्य वर्ण सम सुहागं । आपणी आंत करि सर्व थी बींटियो, पुनः पुनः बींटियो निरख जागं ।। ११. एक महामंदर चूलिका ऊपरे, प्रवर सिंहासने आप बैठा । स्वप्न में देख सुविशेष जाग्या प्रभु, चरण अरु करण में स्वाम सैंठा ।। ८. एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं भूयाहिं तिण्णं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । 'उम्मीवी इसहस्सकलियं' ति इहोर्मयो-. महाकल्लोला: वीचयस्तु ह्रस्वा: । (वृ०प०७११) ९. एगं च णं महं दिणयर तेयसा जलंत सुविणे पासित्ता ण पडिबुद्धे । १०. एगं च णं महं हरिवेरुलियवण्णाभेण नियगेणं अंतेणं माणुसुत्तरं पव्वयं सवओ समंता आवेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ता णं पडि बुद्धे ! ११. एगं च णं महं मंदरे पव्वए मंदरचूलियाए उरि सीहासणवरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । सोरठा १२. ए दश स्वप्ना जाण, देख्या छद्म निशांत में। हिव तसु फल पहिछाण, गणधर देव कहै गुणी ।। १३. *जे प्रभु ! एक महा ताल पिशाच ही, स्वप्न में जीत जाग्याज थुणियो। तेह भगवंत महावीर मोटा तपी, मूल थी मोहणी कर्म हणियो। १४. जे प्रभु ! पक्ष शित पुरुष कोकिल प्रति, स्वप्न में पेख प्रतिबुद्ध जितरै। तेह भगवंत भव अंत तपकारका, शुक्ल ध्यानोपगत आप विचरै। १३. जण्णं समणे मगवं महावीरे एगं महं घोररूवदित्त धरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ता णं पडिबुद्धे, तण्ण समणेणं भगवया महावीरेणं मोहणिज्जे मूलाओ उग्घाइए। १४. जण्णं समणे भगवं महावीरे एग महं सुक्किल पक्खगं पुंसकोइलग सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, तण्ण समणे भगवं महावीरे सुक्कज्झाणोवगए विहरति । *लय: कड़खा श०१६, उ० ६. ढा० ३५७ ४९ Jain Education Intemational Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनी १५. जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्त पक्खगं पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । १६. तण्णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपर समइयं १७. दुवालसंगं गणिपिडगं १५. तीजे स्वप्न जेह प्रभु जाणी, चित्र विचित्र पांख पिछाणी। पुरुष कोकिल स्वप्ने पेख, जाग्या तास अर्थ इम लेख ।। १६. तेह भगवंत श्री महावीर, विचित्रपणे गुणहीर । स्व समय प्रभु नां सिद्धंत, पर समय पाखंडी नां ग्रंथ ॥ १७. बिहुं समय तणां अधिकार, कह्या द्वादश अंग मझार । ते द्वादश अंग पिछाण, गणि नां पिटक सम जाण ।। १८. गणि नां बहु अर्थ नां अंश, तेहनां पिटक समान प्रसंस । पिटक आश्रय पेटीभूत, एहवा बार अंग शुभ सूत ।। १६. इतरै अर्थ नी पेटी सुचंग, एहवा आख्या है द्वादश अंग । गणिपिटक नो ए धुर अर्थ, हिवै कहिये छै तदर्थ ॥ २०. गणि आचार्य न जाण, पिटक पेटी समान पिछाण । ___ सर्व धन नो भाजन सुचंग, ते पेटी सम द्वादश अंग ।। २१. बहु अर्थ नी पेटी समान, ए प्रथम अर्थ पहिछाण । आचार्य नी पेटी अर्थ बीजै, एहवा द्वादश अंग कहीजै ।। २२. आघवेइ सामान्य विशेख, पण्णवेइ सामान्य थी पेख । परूवेइ प्रति सूत्र देख, तसु अर्थ ने कहिवे अशेख ।। १८,१९. 'गणिपिडगं' ति गणीनां --अर्थपरिच्छेदानां पिटकमिव पिटकं-आश्रयो गणिपिटकं । (वृ० प०७११) २०. गणिनो वा आचार्यस्य पिटकमिव--सर्वस्वभाज नमिव गणिपिटकम्। (वृ० प० ७११) २३. दराइते वारै अंग मांहि, क्रिया पडिलेहणादिक ताहि । तसं देखा डबै करि स्वाम, ए पिण अर्थ थकी अभिराम ।। २२. आघवेति पण्णवेति परूवेति। 'आघवेइ' त्ति आख्यापयति सामान्यविशेषरूपतः 'पन्नवेति' त्ति सामान्यतः 'परूवेइ' त्ति प्रतिसूत्रमर्थकथनेन। (वृ० प०७११) २३. दंसेति 'दंसे इ' त्ति तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनेन । (वृ० प०७११) २४. निदंसेति 'निदंसेइ' त्ति कथञ्चिदगृहृतोऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनदर्शयति । (वृ०प०७११) २५. उवदंसेति, 'उवदंसेइ' त्ति सकलनययुक्तिभिरिति । __ (वृ० ५० ७११) २६. आयारं, सूयगडं जाव दिट्ठिवाय । २४. निदसइ किणही प्रकार, कोइ ग्रहण न करतो विचार । तसु अनुकंपा करि सार, निश्चे करि देखावै वारंवार ।। २५. उवदंसह ते अवधार, सकल मैं युक्ति करि सार। अथं करि अधिक सुचंग, एहवा आख्या द्वादश अंग ।। २६. आयारं सुयगडं जाण, जाव दष्टिवाद पिछाण । अर्थ थकी अंग ए बार, प्रभु आख्या अधिक उदार ।। २७. *जे प्रभु ! एक महामाल्य द्वय रत्नमय, स्वप्न में देख जाग्या जिवारं। तेह महावीर प्रभु धर्म द्विविध कह्यो, ग्रहस्थ साधु तणो प्रवर सारं ।। यतनी २८. जेह श्रमण महावीर विशेख, मोटो श्वेत गो वर्गज एक । स्वप्न विषे देखी नैं जागत, तसु अर्थ सुणो धर खंत ।। २६. तेह श्रमण प्रभु रे पुनीत, च्यार वर्ण ज्ञानादि सहीत । एहवो श्रमण संघ सुखकार, तिणरो अर्थ सुणो धर प्यार ।। २७. जण्णं समणे भगवं महावीरे एग महं दामदुगं सव्व रयणामयं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे दुविहे धम्मे पण्णवेति, त जहाअगारधम्म वा भणगारधम्म वा। २८. जण्णं समणे भगवं महावीरे एग महं सेयं गोवग्गं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, २९. तणं समणस्स भगवओ महावीरस्स चाउव्वण्णाइण्णे समणसंघे, *लय : कड़खा ५० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. संघ नैं आदि श्रमण कहाय, तिणसं श्रमण संघ कह्या ताय । श्रमणा बहु श्रमणी सोय, बहु आवक आविका जोय || ३१. *जे प्रभु वीर इक पद्म सर मोटको यावत देख जाग्याज नाणी । ते प्रभु देव चितं विध प्रतिबोधिया, ३२. जे प्रभु वीर वलि एक मोटो उदधि, ते प्रभ वीर जसु आदि अरु अंत नहीं, भवनपत्यादिक प्रगट जाणी ॥ जाव प्रतिबुद्ध भुज सूंज बरिया । जाब संसार-कंतार तिरिया || ३३. जेह भगवंत प्रभु एक मोटो रवि, जाव प्रतिबुद्ध वर ध्यान ध्याया । ते प्रभु नेंज अनंत अनुत्तर, जाव केवल वर युगल पाया ॥ पवर । सोरठा ३४. केवलज्ञान अनंत, विषय अनंतपणां तेह अनुत्तर तंत सर्वोत्कृष्टपणां ३५. जाव शब्द में जाण, पाठ निव्वाघाए निर्व्यापात विद्याण, अप्रतिहत भींत्यादि ३६. निरावरण निकलंक, ज्ञानावरणी क्षय किसणे कृत्स्न अंक, सफल अर्थ ग्राहक धकी ॥ ३७. पढिन्ने परिपूर्ण, ऊणो नहीं स्व अंश कर । एहवो केवल तूर्ण पाया श्री महावीर प्रभु ॥ यतनी कर ॥ थकी । थकी 1 थकी ॥ 1 ३८. जे प्रभु! एक महंत हरित वैदूर्य जाव जागत। नील वर्ण पोता नीं अति कर, वीटयो मानुषोत्तरगिरवर ।। " ३६. ते प्रभु वीर नीं जाणी, मोटी कीति वर्ण वखाणी । शब्द श्लोक देव मनु लोप पनि असुर लोक में होय ॥ ४०. इस निश् व जिन हीर, श्रमण भगवंत श्री महावीर इम निश्चै जिन बोलंत, श्रमण महावीर भगवंत || ४१ श्रमण भगवंत श्री महावीर, मंदर पर्वत चूलिका धीर । आप बैठा स्वप्न मांहि देखें भट जान्या है तुरंत विशे 11 ४२. तेह भगवंत श्री महावीर " देव सहित मनुष्य समीर ॥ वलि असुर परषदा मांय, आप बैठा थका जिनराय । ४३. धर्म केवली प्रणीत सार, कहै सामान्य थी जगतार । जाव सहु नय युक्ति करेह, जिन धर्म कहै गुणगेह || *लय: कड़खा ३०. समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ । 1 ३१. जण्णं समणे भगवं महावीरे एवं महं पउमसरं जाव (सं० पा० ) पडिबुद्धे व समणे भगवं महावीरे पठ देने पति तं जहा भवनवासी, वाम मंतरे जोतिसिए, वेमाणिए । 1 ३२. जण्णं समणे भगवं महावीरे एवं महं सागरं जाव (सं० पा० ) पडिबुद्धे, तण्णं समणेणं भगवया महावीरेण बणादीए अगवद जाव (सं० पा०) संसारकंतारे तिण्णे । ३३. जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं दिणयरं जाव (सं० पा० ) पडिबुद्धे, तण्णं समणस्स भगवओो महावीरस्स अणते अणुत्तरे जाव (सं० पा० ) केवलवरनापदंसणे समुप्यणे। ३४. 'अनंते' ति विषयानन्तत्वात् 'अणुत्तरे' ति सर्वप्रधानत्वात् । ( वृ० प० ७११) ३५.याकरणादिदं दृश्यं निव्वाषाए कटकुड्यादिनाऽप्रति (० ० ७११) २६. 'निरावरणे' आविकरवाह 'कसिणे' ग्राह कत्वात् । ( वृ०प० ७११) ३७. 'पडिपुन्ने' अंशेनापि स्वकीयेनान्यूनत्वादिति । ( वृ० प० ७११) ३८. जण्णं समणे भगवं महावीरे एवं महं हरिवे रुलिय वण्णाभेणं नियगेणं अंतेणं माणुसुत्तरं पव्वयं सव्वओ समंता आवेढियं परिवेढितं सुविणे पासित्ता ण परिबुद्धे । ३९. तण्णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ओराला कित्तिबष्ण-रा-सिलो देवमनुयासुरे लोए परिभ्रमति । ४० इति व समणे भगवं महावीरे इति खलु सम खलु भगवं महावीरे । ४१. जण्णं समणे भगवं महावीरे मंदरे पव्वए मंदरचूलियाए उवरि सीहासणवरगयं अप्पाणं सुविणे पासिता णं पडिबुद्धे । ४२. तण्णं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराए परिसाए मज्भागए ४३. केवली धम्मं आघवेति जाव (सं० पा० ) उवदंसेति । (० १६०९१) श० १६, उ० ६, ढा० ३५७ ५१ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. *ए दश स्वप्न प्रभु देख जाग्या तुरत, शुक्ल ध्यानाग्नि अघ दग्ध कीधा । देव गणधर भला अधिक ही गुणनिला, प्रवर ही अर्थ कीधा सीधा ।। ४५. सोलमा शत तणुं देश षष्ठम भणुं, स्वाम भिक्षु भारीमात ऋषिराम जी स्वप्न फल पद त्रिणसौ सतावनमी दाल ताजी । दूहा १. वलि विशेष बहु स्वप्न नो, कहिये छे अधिकार श्रोता चित दे सांभलो, जिन वच महा जयकार | 'जय जय' संपति सरस जाभी || ढाल : ३५८ +सुण गुणधारी, एतो जिन वच महा जयकारी । (ध्रुपदं ) 1 २. स्त्री अथवा पं जाणी, एतो स्वप्नांते पहिचाणी। अंत विभाग प्रमाने तथा स्वप्न त अवसाने || ३. मोटी एक उदारं, हय पंक्ति वा गज पंक्ति सारं । जाव वृषभ नी जोई, आ तो पंक्ति प्रति अवलोई ॥ सोरठा ४. जाव शब्द थी जाण, नर पंक्ती किंनर इमज । बलि किंपुरुष पिछाण महाउरग गंधर्व नीं ॥ ५. +ए महा पंक्ति विशेख, देखतो छतोइज देखे । चहतो को च सोई, ते पंक्ति ऊपर अवलोई ॥ , सोरठा " ६. पेखंतो पेखंत, पेखण गुण युक्तज छतो । अवलोकं स्वपनंत पंक्ति मनुष्यादिक तणी ॥ ७. ते पंक्ति विषे सुविधाने, चढ्यो आतम प्रति माने । ततखण हिज जागतो, ते तो तिणहिजभव सिज्यंतो । [सुण गुणधारी, जाव सर्व दुख अंतकारी ।। ] ८. स्त्री अथवा नरसोई, आ तो स्वप्नांत अवलोई। गाय प्रमुख नीं जाणी, आ तो बांधवानी रज्जु ठाणी ॥ ५ *लय कड़खा लिय: सुण चिरताली थारा लीजं ५२ भगवती जोड़ २. इस्वी वा पुरिसेवा सुवि वा । 'सुविणते' त्ति 'स्वप्नान्ते' स्वप्नस्य विभागे अवसाने (बृ० प० ७१२) ३. एगं महं हयपंति वा गयपंति वा जाव (सं० पा० ) वसभपति वा । ४. इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'नरपंति वा एवं किन्नर किपुरिसमहोरगंधव्यसि ० ० ७१२) ५. पासमाणे पासति, द्रुहमाणे दुहति, ६. 'पासमाणे पासइ' त्ति पश्यन् पश्यत्तागुणयुक्तः सन् 'पश्यति' अवलोकयति ( वृ० प० ७१२) ७. दूढमिति अप्पानं मन्नति तस्वणामेव बुज्मति, तेणेव भवग्गहणं सिन्झति जान सदुक्खाणं अंत करेति । (०१६।९२) ८. इत्थी वा पुरिसेवा सुविणंते एवं महं दामिणि 'दामिणि' न्ति गवादीनां बन्धनविशेषभूतां रज्जु ( वृ० प० ७१२) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ६. पूर्व पश्चिम विकानी आ तो समुद्र लग फर्शाणी!! स्वप्न विषे सुविशेख, ओ तो देखतो छतो; तसु देखे || १०. एकठी करतो थकोई, ओ तो करै एकठी सोई । ते रज्जु एकठी कीधी, माने निज आत्म प्रति सीधी ॥ ११. ते ततकाल जागतो, ते तो तिणहिज भव सितो। करेजाव सर्व दुख अंतो ए द्वितीय स्वप्न विरतो ॥ १२. स्त्री अथवा नर सोयो, ओ तो स्वप्नांते इम होयो । एक मोटो रज्जु जेही, पूर्व पश्चिम लंबपणेही ॥ १२. हिं पासे पहिछाणं, आ तो लोक अंत फर्शा। देखतो थको ते देखे, वलि छेदतो छेर्दै विशेख || १४. तेह रज्जु प्रति छेदी, इम मानै आत्म प्रति वेदी । ततखिण जागे जेही जान अंत करं भव तेही । १५. स्त्री अथवा नर भारी, ए तो स्वप्नांते सुविचारी । महा मूत एक कालो, जाव शुक्ल सूत सुविशालो || १६. देखतो थको इज देखे ओ तो स्वप्न मांहि सुविशेवं । गोपवतो विमोह उपातो, ओ तो गोपवे ते सुजातो ॥ १७. म्है गोपव्यो आरम प्रति मानें, ओ तो ततखिण जाग्रत जानें। यावत अंत करतो, ते तो तिणहिज भव सिज्यंतो ॥ १८. स्त्री अथवा नर जाणी, ओ तो स्वप्नांते पहिछाणी । इक महा लोहनी राणी, आ तो तांबा नी राशि विमासी। १६. तरुआ नीं रागि विचारी पति राशि सीसा भी भारी। देखतो यकोइज देखें, बलि चढतो चढे सुविशेवं ॥ २०. हूं चढ्यो इसो निज माने, ओ तो ततखिण जागी जानै । दूजे भव सितो करे जाव सर्व दुख अंतो || २१. स्त्री अथवा नरधारी, ओ तो स्वप्नांते सुविचारी । इक महा रूपानी राशी, वलि सुवर्णराशि विमासी ॥ २२. रत्न राशि सुखकारी आ तो बखराशि अति भारी । देखतो थकोइज देखै, ओ तो चढतो चढे सुविशेखै ॥ २३. हं चढ्यो आत्म प्रति मानें, जो तो ततखिण जागी जाने । तिगहिज भव सितो, ओ तो जान करे दुख अंतो ॥ २४. स्त्री अथवा नर सोई, ओ तो स्वप्नांते अवलोई | एक मोटी तृण राशी, जिम तेज निसर्ग विमासी ॥ सोरठा २५. गोशालक अधिकार, तेजू मूकी वोर नैं । पत्र राशि सुविचार, त्वक् तुस गोबर राशि फुन ॥ १. अंगमुत्तानि भाग २ में 'तु' के बाद '' पाठ है उसकी जोड़ नहीं है। ९. पाईप डिणायतं दुहओ समुद्दे पुट्ठ पासमाणे पासति, १०. संवेल्लेमाणे संवेल्लेइ, संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नति, ११ तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (०१६/९३) १२. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एवं महं रज्जुं पाईपडियाव १३. दुहओ लोगंते पुट्ठे पासमाणे पासति, छिदमाणे छिदति, १४. निमित भयाणं मन्नति, तणामेव ति तेणेव भवग्गणं सम्मति जान सम्बदुखाएं अंत करेति । (२०१६/९४) १५. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एवं महं किन्हसुत्तगं वा जाव (सं० पा० ) सुक्किलसुत्तगं वा १६. पासमाणे पासति, उग्गोवेमाणे उग्गोवेति, १७. उम्पोवितमिति बप्पाणं मन्नति तखामेव युग्मति तेणेव भवग्गणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (श० १६०९५) १८. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं मह् अयरासि वा तंबरासि वा, १९. तउयरासि वा सीसगरासि वा पासमाणे पासति, दुरहमाणे दुरुहति " २०. दुमिति बप्पागं मन्नति तपधणामेव ति दोच्चे भवग्गहणे सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति । ( श० १६/९६ ) २१. इवा सेवा सुविणं एवं महं हिरणरासि वा सुवणरासि वा, २२. रयणरासि वा वइररासि वा पासमाणे पासति, दुरुह - माणे दुरति २३. दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (०१६/९७) २४. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं तणरासि वा जहा तेयनिसग्गे । २५. 'जहा तेयनिसग्ग' त्ति यथा गोशालके, अनेन चेदं सूचितं । (बु० प० ७१२) पतरावा तपसि वा तुसरासि वा सराशि वा गोमयरासि वा श० १६. उ० ६, ढा० ३५८ ५३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जाव राशि कचरा नीं ओ तो देखतो देवं सुजानी। ते ढिगला प्रति छेड़े, ओ तो विखेरतोज बिसेरं ॥ २७. म्है बिखेर्यो इम निज माने, ओ तो ततखिण जागी जानें। तिणहिज भव सिज्यंतो, ओ तो जाव करें दुख अंतो ।। २८. स्त्री अथवा नर भारी एतो स्वप्नांते सुविचारी । इक महा शर नो थंभो, ओ तो वीरण थंभ अचंभो || २९. वंशी मूल थंभ जाणी, वल्लि मूल थंभ पहिछाणी । देखतो कोइज देखें, उन्मूलतो उखेले विशेखे || ३०. उन्मूल्यो आत्म प्रति माने, ओ तो ततखिण जागी जानें । ते तो तिणहिज भव सितो, जाव करें दुख तो ।। ३१. स्त्री अथवा नर जोई, एतो स्वप्नांते अवलोई। एक महा दूध तो कुंभ, ओ तो वलि दहि कुंभ सुरंभं ॥ ३२. घृतकुंभ म्हाली ओ तो मधु तो कुंभ विशाली देखतो कोइज देखें, उपाड़तो उपाड़े विशे ।। ३३. हे उपाय आरम प्रति मानं ओ तो ततखिण जाग्रत जाने तिहिज भव सितो, ओ तो जाय करें दुख तो ! , ३४. स्त्री अथवा महाली आ तो स्वप्नांते सुविशाली महासुरा विगट कुंभ एक, विगट सौवीर कुंभ विशेख ॥। ३५. मुरारूप जे जाण, तेहनो कुंभ पिछाण, ३६. सौवीर कांजी जाण, तेहनो कुंभ पिछाण सोरठा । सुरा विकट कुंभज तिको सुरा विकट कुंभ ते कह्यो । विगट कहीजे विगट कहीजै जल तसु । सौवीर विगटज कुंभ ते ।। 7 ३७. तेल कुंभ प्रति ताह्यो वलि वशा नां कुंभ कहायो । देखतो अकोइज देखे भेदतो भेदं विशेख || ३८. म्है भेद्यो आत्म प्रति मानें, ओ तो ततखिण जागी जानै । दुजै भव सिज्मंतो, ओ तो जाव करें दुख अंतो || ३९. स्त्री अथवा नर चारू, ए तो स्वप्नांते गुणकारू । महापद्म सरोवर एक ओ तो कुसम सहित सुविशेख || ४०. देखतो थकोइज देखे, वलि अवगाहतो सुविशेवं । अवगाहै तिन वार, पेसे पद्म सरोबर मझार ॥ ४१. म्हे अवगाह्यो इम मानं ओ तो ततविण जागी जाने । तिपहिज भव सितो, ओ तो जाय करें दुख अंतो || J ४२. स्त्री अथवा नर वारू, एतो स्वप्नांते अति चारू । इक महानमुद्र वदतं उम्मी वीची जाव तिण सहितं ॥ *लय : सुण चरिताली थारा लीजं ५४ भगवती जोड़ २६. अवकररासि वा पासमाणे पासति, विक्खिरमाणे विक्रिति, २७. विक्खिणमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति । ( ०१६९८ ) २५. इसी या पुरसे या सुविगंत एवं महं सरभं वा वीरणथंभं वा २९. वसीमूलभं वा वल्लीमूलथंभं वा पासमाणे पासति, उम्मम्म्रति २०. उम्मूलिमिति णाणं मन्नति तखामेव ति तेगेव भवयहणं सम्मति जान सक्खाणं अंत करेति । ( श० १६ ९९ ) ३१. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं खीरकुंभं वा दधिकुंभं वा ३२. घयकुंभं वा मधुकुंभं वा पासमाणे पासति, उप्पाडेमागे उप्पाडेति ३३. उप्पाडितमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवम् सिम्मति जाब दुक्खाणं अंत करेति । (४० १६.१००) ३४. इत्यी वा पुरिसेवा सुविते एवं महं सुराविडकुंभ वा सोवीरवियडकुंभं वा २५. राति सुरापद् विकट जयं तस्य कुम्भो यः स (१०१० ७१३) २६. सोवी व सि इह सौवीर काक मिति । ( वृ० प० ७१३) २७.कुंभं वा पासमा पासति भिमाणे भिवति, ३८. भिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, दोच्चे भवग्गहणे सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (श० १६ १०१ ) ३९. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एवं महं पउमसरं कुसुमियं ४०. पासमाणे पासति, ओगाहमाणे भोगाहति, ४१. ओगाढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (०१६।१०२) ४२. इबी वा पुरिसेवा सुविणांते एवं महं सागरं उम्मीबीसल Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. देखतो थकोइज देख तिरतो को तिरं सुविशेख हूं तिर्यो आत्म प्रति माने, ओ तो ततविण जागी जानें || ४४. तिहिज भव सितो, जो तो जाय करें दुख अंतो । एवारम स्वप्न उदारो, हिवे त्रयोदशम अवधारो ॥ ४५. स्त्री अथवा नर सारं, ए तो स्वप्नांते गुणकार । मोटो भवन इक बंगो, ओ तो सर्व रत्न में सुरंगो । ४६. देखतो थकोइज देखें, ओ तो पेसतो पेसे विशेख | हूं पेठी आत्म मानतो, तिण भव जान करें दुख अतो ।। ४७. स्त्री अथवा नर कहिये, ए तो स्वप्नांते इम लहियै । मोटो एक विमाणो, ओ तो सर्व रत्नमय जाणो ॥ ४८. देखतो थकोइज देखे, ओ तो चढतो चढे सुविशेखै । हं चढ्यो आत्म प्रति माने, ओ तो ततखिण जागी जाने || ४९. तिहिज भय सितो, ओ तो जान करें दुख अंतो ए स्वप्न चवदमो आख्यो, । तिणरो फल पिण उत्तम दाख्यो । सोरठा मांय, पंचम ने दक्षमें स्वपन । पाय, शेष द्वादशे तिण भवे ॥ पंचमें | ततखिण जाग्यां द्वादश स्वप्ना शेष तिणहिज भव दशमें स्वपन || द्वितीय भव । शिव पाविये । विषय है। करी ॥ ५३. पूर्वे स्वप्ना ख्यात, ते अच विषयात, तत्साधमर्ण कहाय, वक्तव्यता तेहूनी हि पूछै प्रश्न अचक्षू ५४. पुद्गल गंध कहिया अर्थ ताव, सुहामणो || ५०. ए उदश सूपना बीजे भव शिव ५१. अय तंबादिक राश, चढ़तो चज मदिरादिक कुंभ तास, भेदंतो ५२. ए वे स्वप्ना देव गंध- पुद्गल पद ५५. अब हिव हे भगवानो! कोष्ठपुड़ा पहिचानो जाव केतकी कहिये, ए तो तास पुड़ा वलि लहियै ॥ सोरठा विषेज ताय पचे वास कोष्ठ ईज कहिवाय, तास पुटा ५६. कोठा ५७. जाव शब्द थी जाण, इत्यादिक पहिछाण ५५. घुर तमालपत्रादि, तगर पुढा संवादि *लय : सुण चरिताली थारा लीज । समुदाय जे ते कोष्ठपुट || पत्र चोय वलि तगर पुट । तास अर्थ कहिये हिये ।। चोप पुछा कहिये त्वचा । ते गंध द्रव्य विशेष ही ॥ ४३. पासमाणे पासति, तरमाणे तरति तिष्णमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, ४४. तेणेव भवग्गणेणं सिज्भति जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति । (० १६०१०३) ४५. इसवी वा पुरिने वा सुवर्ण एवं महं भव सव्वरयणामयं ४६. पासमाणे पासति, अणुप्पविसमाणे अणुप्पविसति, अणुविट्टमिति अप्पाण मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (२० १६० १०४) ४७. इत्यी वा पुरिसे वा सुवर्णते एवं मह विमान सव्वरयणामयं ४८. पासमा पासति मागे ति वृद्धमिति अप्पा मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, ४९. तेणेव भवव्यहणं सिम्झति जायसम्यदुक्खाणं अंत करेति । (०१६।१०५) ५३. अनन्तरं स्वप्ना उक्तास्ते चाचक्षुविषया इत्यचक्षु विषयितासाधर्म्येण ( वृ० प० ७१३) ५४. व्यामभिधातुमाह ( वृ० प० ७१३ ) ५५. अह भंते ! कोट्ठपुडाण वा जाव केयइपुडाण वा ५६. 'कोपुडाण व त्ति कोष्ठे यः पच्यते वाससमुदायः स कोष्ठ एव तस्य पुटाः पुटिका: कोष्ठपुटाः । (२०१० ७१३) २०. करणादिपतपुहाग वा शेवढा वा तगरपुडाण वे' त्यादि, (२०१० ७१३) ५८. तत्र पत्राणि - तमालपत्राणि 'चोय' त्ति त्वक् तगरं च - गन्धद्रव्यविशेष: ( वृ० प० ७१३) श० १६, उ० ६, ढा० ३५८ ५५ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकूल वायो ते प्रदेश जे देश की वायु आयो, ओ तो स्वान ५९. बाज पहिचाणी । ६०. उब्भिज्जमाणाणं जाणी, ते प्रचलपण ते सुगंध द्रव्य समीचा, वायु जोग आये ऊंचा नीचा ॥ ६१. जाव एक स्थानक थी ताह्यो, घालै बीजा स्थानक मांह्यो । रै ते प्रभु ! स्यूं कहिवाय, आवै कोठा नों वायु समुदाय || महासुखदायो । इसो सुखदायो । ६२. जाव केतकी नो जाण, वायु समुदाय पिछाण । ते आवं जगनाथ ! हिवै जिन कहै सुण अवदात || ६२. कोष्ठन बाजे ताह्यो, जाव केतकी बाजे गंध गुणे करि सहीत, ते पुद्गल बाजै नांह्यो। पुनीत || ६४. सेवं भंते! सेवं भंत, शत सोलम नो तंत । छठा उद्देशा नो चारू, कह्यो अर्थ अनुपम बारू || ६५. दाल तीनसीमी ताजी, ऊपर अठावनमी साजी भिजू भारीमा ऋषिरायो, सुख 'जय जय' हरय सवायो।। षोडशशले पोशकार्थः ।।१६।६।। । ढाल : ३५९ हा १. पष्ठमुदेशक अंत में, गंध पुद्गल बाजेह उपयोगे ते जाणिये हिव उपयोग कहे २. प्रभु ! उपयोगज कतिविधे ? जिन कहे दोय प्रकार पन्नवण पद गुणती समें, तिम सहु भगवो सार ॥ ३. ज्ञान पंच अज्ञान त्रिण, ए आठूं अणागार दर्शन चिहुं, इत्यादिक *लय : सुण चरिताली थारा लीज ५६ भगवती जोड़ ४. वली पासणिया पद तिको, ए स्थाने आख्यात | ते पन्नवण पद तीस में कहि ते अवदात || , सागार । अवधार ॥ ५९. अणुवास 'अणुवायं सि' अनुकूलो वातो यत्र देशे सोऽनुवातोऽतस्तत्र यस्माद्देशाद्वायुरागच्छति तत्रेत्यर्थः ( वृ० प० ७१३) ६०. उब्भिज्ज माणाण वा 'उम्बिन्नमाषाण व ति प्राबल्येनोद्ध्वं वा दीर्यमाणानाम् (पृ० प० ७१३) ६१. जाव (सं०पा० ) ठाणाओ वा ठाणं संकामिज्जमाणाणं कि कोट्ठे याति 'कि कोट्ठे वाइ' कोष्ठो वाससमुदायो ६२. जाव केयई वाति ? ( वृ० प० ७१३) ६३. गोयमा ! नो कोट्ठे वाति जाव नो केयई वाति, घाणसहगया पोग्गला वांति । (२०१६ १०६) 'घाणसहाय' त्ति घ्रायत इति घ्राणो गन्धः ६४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( वृ० प० ७१३) (१० १६.१०७) o १. पष्ठो का गन्धपुद्गला वान्तीत्युक्तं, ते चोपयोगेना वसीयत इस्युपयोगस्तद्विशेषभूता पश्यत्ता ( वृ० प० ७१२) च सप्तमे प्ररूप्यते २. कतिविहे णं भंते ! उवओगे पण्णत्ते ? गोवमा दुषि उपभोगेपगते, ! उवओगे पण्णत्ते, एवं जहा उवओगपदं पण्णवणाए तहेव निरवसेसं नेयव्वं, ३. सागारोवओगे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते" ( पण्णवणा २९/२ ) अणगारोवनेषं भंते! कतिविहे पण ४. पासणयापदं च नेयव्वं । ( पण्णवणा २९1३) ( श० १६/१०८ ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. पासणिया कतिविध प्रभु ! जिन कहै दोय प्रकार । पासणिया सागार है, अनाकार फुन धार ॥ ६. पासणिया सागार नां, छै षट भेद सुजाण । ज्ञान चिरं मति ज्ञान विण, श्रुत अरु विभंग अनाण ॥ वा०-- पासणिया- पश्यत्ता - पेखवा नां भाव, तेहने पासणिया कहिये । बोध परिणामविशेष, बोध परिणाम ते जीव नां जाणवा रूप परिणाम ए शब्दार्थ | इहां शिष्य पूछे -- पासणिया अनं उपयोग विहुं पिण साकार अनाकार भेदे करी तुल्य छते एहमें स्यूं प्रतिविशेष ? एतले उपयोग नां पिण बे भेद किया— साकार अन अनाकार । पासणया नां पिण बे भेद किया - साकार अन अनाकार । ते माटे उपयोग अनैं पासणिया में स्यूं विशेष ? तेहनो उत्तरजेहन विषे तीन काल नो अवबोध --- जाणपणो छे ते पासणिया कहिये । अनं जेहन विषे वर्तमान नो अथवा तीनू काल नों अवबोध जाणपणों तेहने उपयोग कहिये । इम ए विशेष । इण कारण थकी मति ज्ञान अनं मति अज्ञान साकार पासणिया नैं विधे न कह्या । ते मति ज्ञान अनं मति अज्ञान उत्पन्न अविनष्ट अर्थग्राहकपणे करी वर्त्तमान काल विषयपणां थकी साकार पासणिया नैं विषे ए बिहुँ न कह्या । अथ कि कारण थकी अनाकार पासणिया नै विषे चक्षुदर्शण कह्यो अनै शेष इंद्रिय दर्शन ते अचक्षु दर्शण छै, तेहनैं न कह्यो ? तेहनों उत्तर - प्रकृष्ट अतिही देखते पासणिया कहिये। दृशिर् धातु प्रेक्षण अर्थव पिण इण वचन थकी । अने प्रकर्ष करिकै देखवो चक्षुदर्शण नैं इज छँ, अचक्षु दर्शण नै नथी । शेष इंद्रिय नां उपयोग नी अपेक्षा करिकै चक्षु इंद्रि नो उपयोग अल्प कालपणां थकी अने जिहां उपयोग नो अल्प कालपणों होय, तिहां देखवा नो पिण प्रकर्षपणों होय, कारण शीघ्र ही वस्तु नो ज्ञान थवा थी । ते माटे चक्षुदर्शण नै ईन पासणिया कहिये पिन अचलदर्शण नेन कहिये जति ए अर्थ पन्नवणा थकी विशेष करिकै जाणवो । ७. अनाकार उपयोग जे, पासणिया त्रिण भेद । दर्शण चक्षु अवधि फुन, केवल दर्शण वेद ।। ८. इत्यादिक अधिकार जे सेयं भंते! स्वाम अर्थ सोलमा शतक नों, सप्तमुदेशो ताम || षोडशशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥ १६ ॥६॥ ।। 1 ६. पूर्व उद्देशक विषे वर उपयोग विचार | ते तो लोक विषे हुवे हिवं लोक अधिकार ।। लोक चरमांते जीवाजीवादिमार्गणा पद जी । १०. "हे प्रभुजी ! ए लोक, कितरो मोटो कह्य श्री जिन भाखे सोय, महा अतिमोदु ला जी ॥ ११. द्वादशमा शत मांय, सप्तम उद्देश विषे जी। लोक स्वरूप कहाय, तिम इहां सर्व असे जी ॥ *लय एक दिवस जय राज पमणे ५. कतिविहा णं भंते ? पासणया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पासणया पण्णत्ता, तं जहा ६. सागारपासण्या णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? (पवना ३०:२) गोयमा ! छविबहा पण्णत्ता" वा० 'पासणय' त्ति पश्यतो भावः पश्यत्ता बोधपरिणामविशेष:, ननु पश्यत्तोपयोगयोस्तुल्ये साकारानाकारभेदत्वे कः प्रतिविशेषः ? उच्यते यत्र त्रैकालिकोऽवबोधोऽस्ति तव पश्यत्ता यत्र पुनर्वर्तमानकाल कालिकश्च तत्रोपयोग इत्ययं विशेष:, अत एव मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च साकारपश्यत्तायां नोक्तं, तस्योत्पन्नाविनष्टा ग्राहकत्वेन साम्प्रतकालविषयत्वात् अथ कस्मादनाकारपश्यत्तायां चक्षुर्दर्शनमधीतं न शेषेन्द्रियदर्शनं उच्यते पश्यत्ता प्रकृष्टमीक्षणमुच्यते 'दृतिर् प्रेक्षणे' इति वचनात् प्रेक्षणं च पशुस्यैवास्ति न शेषाणां चक्षुरिन्द्रियोपयोगस्य मेथेन्द्रियोपयोगापेक्षयाऽल्पकालत्वात् यत्र बोपयोगीअल्पकालस्तत्रेणस्य प्रकर्षो भटित्यर्वपरिच्छेदात् तदेवं चक्षुर्दर्शनस्यैव पश्यत्ता नेतरस्येति, अयं चार्थः प्रज्ञापनातो विशेषणावगम्य इति । ( वृ० प० ७१४) कतिविहा पण्णत्ता ? (पा० ३०१३) ( श० १६ १०९ ) (३०|१) 1 1 ७. अणागारपासणया णं भंते ! गोयणा ! तिविहा पण्णत्ता" = सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति ! ९. सप्तमे उपयोग उक्तः, स च सम्बन्धादष्टमे लोकोऽभिधीयते लोकविषयोऽपीति( वृ० प० ७१४) १०. केमहालए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोषमा ! महत्तिमहालए लोए पत्ते ११. जहा बारसमसए (१२।१३०) तहेव । श० १६, उ० ७,८, ढा० ३५९ ५७ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जाव जोजन असंख्यात, कोड़ाकोड़ तणी जी। १२. जाव असंखेज्जाओ जोयण कोडाकोडीओ परिक्खेवेणं । परधि तास अवदात, इम जिन वाण भणी जी ।। (श० १६।११०) १३. लोक तण भगवान ! पूर्व दिशि नै विषे जी। १३. लोयस्स णं भंते ! पुरथिमिल्ले चरिमंते चरमांते पहिछाण, चरम प्रदेश अखे जी ।। १४. स्यू जीवा सुविशेष, ए खंध आश्री कह्या जी। १४. कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा, जीव तणां छै देश, जीव प्रदेश रह्या जी ।। १५. वलि अजीवा विशेष, देश अजीव तणां जी। १५. अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपदेसा ? अजीवनांज प्रदेश? प्रश्न षट सुहामणां जी ।। १६. जिन कहै जीवा नांहि, ते खंध आश्री कही जी। १६. गोयमा ! नो जीवा, आखो जीव न मांहि, तिणसू जीव नहीं जी ।। वा०---पूर्व दिशि नां चरिम रूप अंत, ते चरिमांत नै विषे असंख्यात वा० --'चरमते' ति चरमरूपोऽन्तश्चरमान्तः, तत्र प्रदेश अवगाहीपणां थकी संपूर्ण जीव नो असंभव, ते भणी नो जीवा इम चासंख्यातप्रदेशावगाहित्वाज्जीवस्यासम्भव इत्यत कह्यो । आह---'नो जीवे' त्ति (वृ०प०७१५) १७. जीव देश बहु होय, जीव प्रदेश वली जी। १७. जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, इक-इक जीव नां जोय, असंख-असंख मिली जी ।। वा०--पूर्व चरिमांत नै विषे जीव नां घणां देश नो एक आकाश प्रदेश वा०-जीवदेशादीनां त्वेकप्रदेशेऽप्यवगाहः संभवतीत्युक्त नै विषे पिण अवगाह संभवै, ते माट जीव नां घणां देश कह्या । 'जीवदेसा वी' त्यादि, (वृ० प०७१५) १८. अजीवा पिण सुविशेष, देश अजीव तणां जी । १८. अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि । अजीवनांज प्रदेश, ए बिहं कहियै घणां जी ।। वा०-पूर्व दिशि नां चरिमांत - विषे अजीवा वि ते घणां पुद्गल खंध वा०— 'अजीवावि' त्ति पुद्गलस्कन्धाः 'अजीवदेसावि' हुवै, 'अजीवदेसा वि' ते धर्मास्तिकायादिक नां देश वलि पुद्गल खंध ना घणां त्ति धर्मास्तिकायादिदेशाः स्कन्धदेशाश्च तत्र देश संभवै । इम अजीव नां घणां प्रदेश पिण कहिये । अथ जीव देशादिक नै संभवन्ति, एवमजीवप्रदेशा अपि । अथ जीवादिदेशादिषु विशेष प्रति कहै छ विशेषमाह - (वृ०प०७१५) १९. जीव देशा जे होय, ते निश्चै करिकै तिहां जी। १९. जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा य, बहु एकेंद्रिय नां जोय, देश बहु छै जिहां जी ।। वा०---जे जीवदेशा ते पृथिव्यादि एकेंद्रिय जीवा ना घणां' देश, ते एकेंद्री वा- 'जे जीवे' त्यादि, ये जीवदेशास्ते पृथिव्यायेजीवां ना लोकांते अवश्यंभाव थी। इम इकयोगिक एक विकल्प । केन्द्रियजीवानां देशास्तेषां लोकान्तेऽवश्यं भावादित्येको विकल्पः, (वृ०प०७१५) २०. अथवा एकेंद्रिय अनंत, तेहनां देश बहु जी। २०. अहवा एगिदियदेसा य वइंदियस्स य देसे, एक बेंद्रिय जंत, तसु इक देश रघु जी ।। वा० -अथवा शब्द ते अन्य प्रकार देखाड़वा नै अर्थे । एकेंद्रिय ना बहुपणा वा०—'अहव' त्ति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, एकेन्द्रियाणां थकी ते पूर्व चरिमांत नै विषे घणां ते एकेंद्रिय ना देश हवं, अनै बेइंद्रिय नां बहुत्वाद्बहवस्तत्र तद्देशा भवन्ति, द्वीन्द्रियस्य च कदाचितपणां थकी। कदाचित ते किवारे एक बेंद्रिय नों एक देश हवै, ए द्विक- कादाचित्कत्वात्कदाचिद्देशः स्यादित्येको द्विकयोगयोगिक प्रथम विकल्प । विकल्पः, (७० ५० ७१५) सोरठा २१. यद्यपि . इह लोकत, जीव बेंद्रिय छै नथी। तथापि बेंद्रिय जंत, एकेंद्रिय में ऊपजै ।। २२. समुद्घात पहिछाण, मारणांतिक गत बेंद्रिय । तेह आश्रयी जाण, एक बेंद्रिय देश इक ॥ २१,२२. यद्यपि हि लोकान्ते द्वीन्द्रियो नास्ति तथाऽपि यो द्वीन्द्रिय एकेन्द्रियेषू त्पित्सुर्मारणान्तिकसमुद्घातं गतस्तमाश्रित्यायं विकल्प इति । (व०प०७१५) ५८ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. *इम जिम शत दशमेह, आग्नेयी विदिशि का जी। २३. एवं जहा दसमसए अग्गेयी दिसा तहेव, तिमहिज इहां कहेह, णवरं विशेष लह्य जी ।। २४. देश विषे अवलोय, अणिदिया नां लहै जो। २४. नवरं-देसेसु अणिदियाण आइल्लविरहिओ। आदि रहित भंग दोय, हिव तसु न्याय कहै जी ।। वा०--जिम दशम शते आग्नेयी विदिशि आश्रयी कह्य, तिम इहां पूर्व वा०–एवं जहे' त्यादि, यथा दशमशते (१०१६) चरिमांत आश्री कहिवं, ते इम--एकेद्रिय नां घणां देश, एक बेइंद्रिय नां घणां आग्नेयीं दिशमाश्रित्योक्तं तथेह पूर्वचरमान्तमाश्रित्य देश -ए द्विकयोगिक दुजो विकल्प । अथवा एकेंद्रिय नां घणां देश अनै घणां वाच्यं, तच्चेदम्-अहह्वा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स बेइंद्रिय ना घणा देश.-.-ए द्विकयोगिक तीजो विकल्प । इम तेइंद्रिय चरिद्रिय य देसा अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा पंचेंद्रिय नो इकयोगिक एक भांगो, द्विकयोगिक तीन-तीन भांगा कहिवा। 'अहवा एगिदियदेसा य तेइंदियस्स य देसे' इत्यादि, बलि इहां विशेष देखाड़वा नै अर्थ कहै छै---'गवरं'---देश नै विषे यः पुनरिह विशेषस्तद्दर्शनायाह--'नवरं अणिदियाण' अणिदिया में फेर छै। अणि दिया ते केवली, तेहनां देश विषे द्विकयोगिक तीन मित्यादि, अनिन्द्रियसम्बन्धिनि देशविषये भङ्गकत्रये भांगा नै विषे आदि भांगो---एकेंद्रिय नां घणा देश अनै एक अनिद्रिया नो एक 'अहवा एगिदियदेसा य अणिदियस्सदेसे' इत्येवंरूपः देश, ए प्रथम भांगो दशम शतके आग्नेयी विदिशि नै विषे का, पिण इहां पूर्व प्रथमभङ्गको दशमशते आग्नेयीप्रकरणेऽभिहितोऽपीह चरिमांत नै विषे न कहि । एहिज अर्थ सुखे समझवा नै सोरठिया दूहा में न वाच्यः, (वृ० प० ७१५) कहै छै सोरठा २५. दशम शतक रै मांहि, प्रथम उद्देशा नै विषे । अणिदिया नै ताहि, त्रिण भांगा द्विकयोगिका ।। २६. एकेंद्री बहु देश, एक अणिदिया नो वली। एक देश सुविशेष, आदि भंग ए जाणवो ।। २७. एकेंद्री बहु देश, एक अणि दिया नों वली। देश घणां सुबिशेष, द्वितीय भंग ए जाणवो।। २८. एकेंद्रिय बह देश, घणां अणिदिया नां वली। देश बहू सुविशेष, तृतीय भंग इम जाणवो ।। २९. आग्नेयी विदिशे एह, त्रिण भांगा दशमें शतक । अणिदिया नां जेह, देश विषे ए आखिया ।। ३०. इहां पूर्व चरिमांत, देश विषे इम आखियो। अणिदिया जिन हंत, प्रथम भंग तसु वरजियो ।। ३१. एकद्री वह देश, एक अणिदिया नों वलि । एक देश सुविशेष, प्रथम भंग ए नहिं हुवै ।। ३२. केवली समुद्घात, कपाटादि अवस्था विषे । ३२. यतः केवलिसमुद्घाते कपाटाद्यवस्थायां लोकस्य लोक तणां आख्यात, पूर्व दिशि चरिमंत त्या ।। पूर्वचरमान्ते (वृ० प०७१५) ३३. है प्रदेश वृद्धि हान, दांता तणांज वश थकी। ३३,३४. प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकसद्भावेनानिन्द्रियइक अणि दिया नां जाण, देश घणां त्यां संभवै ।। स्य बहूनां देशानां सम्भवो न त्वेकस्येति, ३४. लोक तणी वृद्धि हानि, ते माटै वह देश है। (वृ० प० ७१५) एक अणि दियो जान, तसु इक देश न ते भणी ।। ३५. *जेह अरूपी अजीव, तस् षट भेद लहै जी । ३५. जे अरूवी अजीवा ते छविहा, अद्धासमयो नत्थि । अद्धा समय न कहीव, शेषं तं चेव कहै जी।। सेसं तं चेव निरवसेसं। (श०१६।१११) ३६. लोक तणां भगवान ! चरिमंत दक्षिण तणे जी । ३६. लोगस्स णं भंते ! दाहिणिल्ले चरिमंते कि जीवा ? स्यू जीवा पहिछाण ? एवं चेव भणे जी ।। एवं चेव । *लय : एक दिवस जय राज पभण श०१६, उ०८, ढा० ३५९ ५९ Jain Education Intemational l Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. एवं पच्चथिमिल्ले वि, उत्तरिल्ले वि । (श० १६।११२) ३८. लोगस्स णं भंते ! उरिल्ले चरिमंते कि जीवा पुच्छा । ३९. गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा बि जाव अजीवपदेसा वि। ४०. जे जीवदेसा ते नियम, ४१. एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य, ३७. इम पश्चिम परिमंत, उत्तर नोंज कह्यो जी। इणहिज विधि विरतंत,श्री जिन वच थी लह्यो जी। ३८. लोक तणों भगवान ! चरिमंत ऊपरलो जी। स्यूं जीवा पहिछाण ? गोयम प्रश्न भलो जी ॥ ३९. जिन कहै जीचा नांय, जीव नां देश घणां जी। यावत वलि कहिवाय, प्रदेश अजीव तणां जी ।। ४०. जे जीव नां बहु देश, ते नियमा थी लहै जी। द्विकयोगिक सुविशेष, भांगो एक कहै जी ।। ४१. एकेंद्रिय बहु देश, वले अणिद्रिय नां जी। देश बहू सुविशेष, ए बेहं निश्चै धनां जी ।। सोरठा ४२. ऊपरलो चरिमंत, सिद्ध उपलक्षित वांछियो। ते माट इम इंत, अणिदिया नां देश बहु ।। ४३. एकेंद्रिय सह लोग, सिद्ध अणिदिया ते भणी। ए बेहुं तणां प्रयोग, देश घणां निश्चै करी ।। ४४. ते माटै आख्यात, द्विकयोगिक ए भंग इक । नियमा तसु विख्यात, देश अनंता बिहुँ तणां ।। हिवै त्रिकसंयोगिक तीन भांगा कहें छ४५. *तथा एकेंद्रि नां बहु देश, अणि दिया देश बहू जी। एक बेइंदि कहेस, तसु एक देश कहूं जी ।। ४६. तथा एकेंद्रि नां बहु देश, अणि दिया देश बहू जी। घणां बेइंदिया कहेस, तसु बहु देश कहूं जी ।। ४७. लहै द्विकयोगिक भंग एक, त्रिण त्रिक योग विषे जी। मध्यम भंग म लेख, शेष बे भंग अखे जी ।। ४२-४४. 'उवरिल्ले चरिमंते' त्ति, अनेन सिद्धोपलक्षित उपरितनचरिमान्तो विवक्षितस्तत्र चैकेन्द्रियदेशा अनिन्द्रियदेशाश्च सन्तीतिकृत्वाऽऽह--'जे जीवे' त्यादि, इहायमेको द्विकसंयोगः, (वृ० प० ७१५) ४५. अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसे, ४६. अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा, ४७. एवं मज्झिल्लविरहिओ त्रिकसंयोगेषु च द्वौ द्वौ कायौं , तेषु हि मध्यमभङ्गः। (वृ० प० ७१५) सोरठा ४८. एकेंद्री बहु देश, अणिदिया नां देश बहु । इक बेंद्रिय बहु देश, ए मध्य भांगो नथी ।। ४९. इक बेंद्रिय बहु देश, तास असंभव थीज इम। हिव तसू न्याय विशेष, कहियै छै ते सांभलो ।। ५०. इक बेइंद्रिय ख्यात, ऊपरलै चरिमांत जे । ___ मारणांतिक समुद्घात, तसु देश एक-इक संभवै ।। ४८. 'अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा' इत्येवंरूपो नास्ति, (वृ० प० ७१५) ४९. द्वीन्द्रियस्य च देशा इत्यस्यासम्भवाद्, (वृ० ५० ७१५) ५०. यतो द्वीन्द्रियस्योपरितनचरिमान्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन गतस्यापि देश एव तत्र संभवति (वृ० प० ७१५) ५१-५३. न पुनः प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकवशादनेक प्रतरात्मकपूर्वचरमान्तवद्देशाः, उपरितनचरिमान्तस्यैकप्रतररूपतया लोकदन्तकाभावेन देशानेकत्वाहेतुत्वादिति, (वृ० प०७१५) ५१. प्रदेश नीं वृद्धि हान, ऊपरलै चरिमंत नहीं। दंतक अभाव जान, तिणसू बहु प्रतर नहीं। ५२. पर्वले चरिमंत, दंतक तणांज वश थकी। प्रतर अनेकज हुँत, तिम उवरिम चरिमंत नहीं।। ५३. ऊपरलै चरिमंत, इक हिज प्रतरपणे करी । दंतक अभाव हुत, बहु देश नहीं इण कारणे ।। *लय : एक दिवस जय राज पभण ६० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. जाव पंचिदियाणं । ५५. जे जीवप्पदेसा ते नियम एगिदियप्पदेसा य अणि दियप्पदेसा य, ५६ अहवा एगिदियप्पदेसा य अणिदियप्पदेसा य बेइंदियस्स पदेसा य, ५७. अहवा एगिदियप्पदेसा य अणिदियप्पदेसा य वेइंदियाण य पदेसा, ५८, एवं आदिल्लविरहिओ जाव पंचिदियाणं । (वृ० ५० ५४. *जाव पंचेंद्रिया पेख, तेहनां देश घणां जी। द्विकयोगिक इक-एक, बे त्रिक योग तणां जी ।। ५५. जे जीव प्रदेशा कहेस, ते नियमाई कहं जी। एकेंद्री बहु प्रदेश, अणिदिया नां बहू जी ।। ५६. अथवा वलि सुविशेष, बहु एकेंद्री तणां जी। अणिदिया नां बहु प्रदेश, इक बेइंद्री घणां जी ।। ५७. अथवा वलि सुविशेष, बह एकेंद्री तणां जी। अणिदिया नां बहु प्रदेश, बहु बेंद्री नां घणां जी ।। ५८. इम धुर भंग रहीत, जाव पंचेंद्री तणां जी। बहु प्रदेश वदीत, प्रभु वच सुहामणां जी ।। ५९. प्रदेश नी अपेक्षाय, त्रिकयोगिक नै मही जी। प्रथम भंग नहिं पाय, ते कहिय छै सही जी ।। ६०. एकेंद्री वह प्रदेश, अणि दिया नां बहू जी। इक बेइंद्रो न विशेष, एक प्रदेश कहूं जी ।। ६१. ए धुर भांगो नाय, त्रिकयोगिक ने मही जी। दोय भांगा तिहां पाय, जाव पंचेद्री कही जी ।। सोरठा ६२. ऊपरलै चरिमंत, इक बेइंद्रियादिक तणु । एक प्रदेश न हुँत, तिणसू धुर भंग वरजियो ।। ६३. जे केवलि समुद्घात, ते वरजी सह जीव नां । इक प्रदेश ज्यां ख्यात, तिहां असंख्याताज है। ६४. जेह अजीव नां भेद, जिम शत दशमें विषे जी। जेम तमा संवेद, तिम इहां सर्व अखे जी ।। ५९. इह पूर्वोक्ते भङ्गकत्रये प्रदेशापेक्षया (वृ० प० ७१५) ६०. 'अहवा एगिदियपएसा य अणिदियप्पएसा य बेइंदियस्सप्पएसे' (वृ०प० ७१६) ६१. इत्ययं प्रथमभङ्गको न वाच्यः, (वृ० ५० ७१६) ६२,६३. द्वीन्द्रियस्य च प्रदेश इत्यस्यासम्भवात्, तदसम्भवश्च लोकव्यापकावस्था निन्द्रियवर्जजीवाना यत्रकप्रदेशस्तत्रासंख्यातानामेव तेषां भावादिति । (वृ० ५० ७१६) ६४. अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेस । (श० १६।११३) सोरठा ६५. जिम दशमें शत सोय, अधो तमा दिशि नै विषे । तिम इहां आख्य जोय, ऊपरलै चरिमंत में ।। ६६. अजीव दोय प्रकार, रूपी नां चिउं भेद पिण । वली अरूपी धार, तेहनां छै षट भेद त्यां ।। ६५. यथा दशमशते 'तमाए' त्ति तमाभिधानां दिशमा श्रित्य सूत्रमधीतं तथेहोपरितनचरमान्तमाश्रित्य वाच्यं, (वृ० प० ७१६) ६६. जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-रूविअजीवा य अरूविअजीवा य, जे रूविअजीवा ते चउविहा पण्णत्ता, जे अरूविअजीवा ते छव्विहा पण्णता, (व०प० ७१६) ६७. लोगस्स गं भंते ! हेट्ठिल्ले चरिमंते कि जीवा पुच्छा । ६८. गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि जाव अजीवपदेसा ६७. "लोक तणो भगवंत ! चरिमंत हेठलो जी। स्यं जीवा त्यां हंत? गोयम प्रश्न भलो जी ।। ६८. जिन कहै जीवा नांय, जीव तणां बह देशा। जाव वलि इहां पाय, घणां अजीव-प्रदेशा ।। ६९. जीव-देशा जे कहेस, ते नियमा विशेषा। एगेंदिय बह देश, हिव द्विकयोगिक कहेसा ।। ७०. अथवा एकेद्रिय जीव, तेहनां देश बहू जी। ___ एक बेइंद्री कहीव, तसु इक देश कहूं जी।। ६९. जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा, ७०. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे, *लय : एक दिवस जय राज पभणं ०१६, उ०८, डा० ३५९ ६१ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा, ७२. एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव अणिदियाण, ७१. अथवा एकेंद्री जाण, तेहनां देश घणां जी। बहु बेइंद्री पिछाण, देश बहु तेह तणां जी ।। ७२. मध्य भंग विण एस, भांगा बे भणवा जी। जाव अणिदिया प्रदेश, इहां लगै गुणवा जी।। सोरठा ७३. जिम पूर्व चरिमंत, तेहनी पर भांगा इहां । करिवा प्रवर सुचित, णवरं इतो विशेष है ।। ७४. तसु त्रिण भंग थी एस, एकेद्रिया नां देश बहु । इक बेंद्री बहु देश, ए मध्य भंग इहां वरजवो।। ७५. ऊपरलै चरिमंत, प्रतर एकज छै तिहां। दंतक अभाव हुँत, इक बेंद्री बहु देश नहीं ।। ७६. इणहिज विधि कहिवाय, आख्यो चरिमंत हेठलो। तिणसं मध्य भंग नाय, दोय भंग द्विकयोगिका ।। ७७. देश आश्रयी ख्यात, हिवै प्रदेशज आश्रयी । __भांगा नो अवदात, कहियै छै ते सांभलो ।। ७८. प्रदेश विषे पहिछाण, प्रथम भंग विण सर्व ही। बेइंदियादिक जाण, अणि दिया पर्यंत इम ।। ७९. जिम पूर्व चरिमंत, तास विषे जे आखियो। कहि तिमज वृतंत, प्रथम भंग इहां वरजवो ।। ७३, इह पूर्वचरमान्तबद्भङ्गाः कार्याः नवरं (वृ० ५० ७१६) ७४. तदीयस्य भङ्गकत्रयस्य मध्यात् 'अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा' इत्येवंरूपो मध्यमभङ्गकोऽत्र वर्जनीयः, (वृ० प० ७१६) ७५. उपरितनचरिमान्तप्रकरणोक्तयुक्तेस्तस्यासम्भवाद्, (वृ०प० ७१६) ७६. अत एवाह-एवं मज्झिल्लविरहिओ' त्ति, (वृ० प०७१६) ७७. देशभङ्गका दर्शिताः अथ प्रदेशभङ्गकदर्शनायाह (वृ०प०७१६) ७८. पदेसा आइल्ल-विरहिया सव्वेसि ७९. जहा पुरथिमिल्ले चरिमंते तहेव । प्रदेशचिन्तायामाद्यभङ्गकरहिताः प्रदेशा वाच्या इत्यर्थः (वृ० प० ७१६) ८०. एकेंद्रिय बहु प्रदेश, एक बेइंद्रि तेहनों। एक प्रदेश विशेष, ए पहिलो भांगो नथी । ८१. तल चरिमंते जाण, इक बेइंद्री तेहनां । प्रदेश बहुल पिछाण, तिणसं ए धुर भंग नहीं । ८२. तथा एकेंद्रिय जाण, तेहनां बहु प्रदेश त्यां। इक बेइंद्री माण, तेहनां पिण प्रदेश बहु ।। ८३. तथा एकेद्रिय जाण, तेह तणांज प्रदेश बहु । बेइंदिया बहु माण, प्रदेश छै बहु तेहनां ।। ८४. ए बे भांगा होय, सव्वेसि इण पाठ स । बेइंदियादिक जोय, अणिदिया पर्यंत इम ।। ५५. अजीव नां इम धार, ऊपरलै चरिमंत जिम । रूपी तणांज च्यार, भेद अरूपी नांज षट । ८१. स च प्रदेशानामधश्चरमान्तेऽपि बहुत्वान्न संभवति (वृ० प० ७१६) ८२. अहवा एगिदियप्पएसा य बेइंदियस्स पएसा (बृ० १०७१६) ८३. अहवा एगिदियप्पएसा य बेइंदियाण य पएसा (वृ० प०७१६) ८४. इत्येतद्वयं 'सब्वेसि' ति द्वीन्द्रियादीनामनिन्द्रियान्तानाम् (वृ० प० ७१६) ८५. अजीवा जहेव उवरिल्ले चरिमते तहेव । (श० १६।११४) ८६. चरमान्ताधिकारादेवेदमाह--- (वृ०प० ७१६) ८६. चरिमंत नां अधिकार थो, वलि चरिमंत कहेह । गोयम प्रश्न सुहामणा, श्री जिन उत्तर देह ।। ८७. *रत्नप्रभा प्रभु! एह, पूरव नै चरिमंते । स्यू बहु जीव कहेह, गोयम प्रश्न करते ।। १८. जिन कहै जीवा नांहि, इम जिम लोक तण जी। पूर्व चरिमंत ताहि, तिम इज ए पभण जी ।। "लय : एक दिवस जय राज पभण ८७. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमते कि जोवा पुच्छा । ८८. गोयमा ! नो जीवा, एवं जहेव लोगस्स तहेव ६२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नप्रभा नां । सुजाना ॥ जी । ९. का लोक नां चिरं परिमंत तिमहिज चिउं चरिमंत कथंत, जाव उत्तरिल्ले ९०. ऊपरले परिमंत, जिम शत दशम कह्य विमला दिशि जिम हुत, तिम सह एह ला जी ॥ वा० - दशम शतके जिम विमला दिशि कही, तिमहिज रत्नप्रभा नों ऊपरलो चरिमांत कहिवुं निरविशेषं जिम हुवै, ते इम 'इमीसे णं भंते! रयणप्यार पुढबीए बरिल्ले चरिमते कि जीवा ? गोमा ! तो जीवा - एक प्रदेश प्रतरात्मकपण करि ते एक प्रदेश नै विषे सम्पूर्ण जीव नां अनवस्थान-अणरहिवा थकी जीवनुं खंध नथी, ते माटै नो जीवा का । अनैं जीव नां घणां देश पिण छे । जे जीवदेशा ते नियमा एगिदियदेशा सर्वत्र एकेंद्रिय नां बहु देश नां भाव थकी। हि द्विकयोगिक तीन भांगा कहै छँ अहवा एगिदियदेसाय बेइंदियस्स य देसे ? अहवा एगिदियदेसाय बेइंदियस्स य देसा २ अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियाण य देसा ३ एहनों अर्थ एकेंद्रिय बहु देश, एक बेइंद्रिय नुं एक देश १ | अथवा एकेंद्रिय नां बहु देश एक बेइंद्रिय नां घणां देश २ । अथवा एकेंद्रिय नां घणां देश, बहु बेइंद्रिय नां घणां देश ३ । अति ही थोड़ा ते मा उपरिना परिमांत में रत्नप्रभा वेइंद्रियनों आश्रय छै, तो पिण एकेंद्रिय नीं अपेक्षाय ते बेइंद्रिय कदाचित एक देश ह अथवा घणां देश हुव इति । इम तेंद्रियादिक थी लेइ अनिद्रियांत लगे पिण कहिवूं । तथा जे जीवपएसा ते णियमा एगिदियपएसा १ अथवा एगिंदियपएसावि बेइंदियस्स पएसा २ अहवा एगिदिय एसा बेइंदियाण य पएसा ३ एहनो अर्थ- जे जीवप्रदेश ते निश्च एकेंद्रिय बहुप्रदेश हु हि द्विक्संयोगिक नैं विषे तीन भांगा में प्रथम भांगो, ते नथी । अन आगला बे भांगा पात्र ते कहे छै – एकेंद्रिय नां घणां प्रदेश अन एक बेइंद्रिय नुं एक प्रदेश ए प्रथम भांगो न पावे, जे एक प्रदेश रूप प्रतर नैं विषे एक बेइंद्रिय नं एक प्रदेश न हुवै। जेम पूर्ण लोक प्रदेश प्रमाणे एक जीव नां प्रदेश छं ते मार्ट एक बेइंद्रिय तुं एक प्रदेश न हुवै ते भणी ए प्रदेश आश्रयी प्रथम भांगो न हुवै । अन एकेंद्रिय नां घणां प्रदेश एक बेइंद्रिय नां घणां प्रदेश ए बीजो भांगो दुवै । एकेंद्रिय नां घणां प्रदेश घणां बेंद्रिय नां घणां प्रदेश ए तीजो भांगो हुवै । इम इंद्रियादिक नैं विषे अनैं छेहड़े अनिद्रिय लगे कहिबुं । तथा जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता तं जहा - रूविअजीवा य अरूविअजीवा य । जे रूवि अजीवा ते चउव्विहा पण्णत्ता तं जहा - बंधा जाव परमाणु-पोग्गला । जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता तं जहानो धम्मस्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे afrate पसा एवमधम्मत्थिकायस्सवि आगासत्थिकायस्स वि । 'अद्धा समएत्ति' अद्धा समय मनुष्यक्षेत्र मांहि वर्त्ते ते रत्नप्रभा नां उपरला चरिमांत नैं विषे ही इति । ९१. हेल्लि परिमंत एम. लोक नुं तल चरिमंतं । जिम आयो है तेम रत्नप्रभा तो उदंतं ॥ ८९. चत्तारि वि चरिमंता जाव उत्तरिल्ले, ९०. उवरिल्ले तहेव, जहा दसमसए (१०।७) विमला दिसा तव निरवसेसं । वा०-- 'उवरिल्ले जहा दसमसए ( १०४ ) विमला दिसा तहेव निरवसेसं' ति दशमशते यथा विमला दिगुक्ता नव रत्नप्रभोपरिचरमान्तो वाच्यो निरवशेषं यथा भवतीति स चैवम्- 'इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्ले चरिमन्ते कि जीवा० ? गोयमा ! तो जीवा' एकप्रदेशप्रतरात्मकत्वेन तत्र तेषामनवस्थानात 'जीवदेसावि, जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा' सर्वत्र तेषां भावात् 'अहवा एगिदियदेसा य वेइंदियस्स य देसे अहवा दिशा व बेदियस्स व देस अहवा एगिदिय देसा य वेइंदियाण य देसा, रत्नप्रभा हि हीन्द्रियाणामाश्रयः ते चैकेन्द्रियापेक्षयाऽतिस्तोकास्ततश्च तदुपरितनचरिमाया कदानिदेशः स्याद्देगा देवि, एवं त्रीन्द्रियादिष्वप्यनिन्द्रियन्ते तथा जे जीवप्पएसा ते नियमा एगिदियपएसा अहवा एगिंदिय एसावि बेइंदियस्स पएसा अहवा एगिंदियपएसा बेदिया व पसा ( वृ० प० ७१६) 1 17 तथा 'जे - 2 एवं पीन्द्रियादिष्वप्यनि अजीवा ते दुबिहा पन्नत्ता, तं जहा - रूविअजीवा य अरूविअजीवा य, जे रूविअजीवा ते चउब्विहा पन्नंसा तं जहाचा जाब परमाणुपोग्ला, जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पन्नत्ता, तं जहा नो धम्मथिका धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा एवमधम्मत्थिकायस्सवि आगासत्थिकायस्सवि अद्धासमए' ति बासमपो हि मनुष्यक्षेत्रान्तर्वतिनि रत्नप्रभोपरितनचरिमान्तेऽस्त्येवेति, ९१. हेट्ठिल्ले चरिमंते जहेव लोगस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते व 2 ० १६, उ० ८ डा० ३५९ ६३ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२. नवरं-देसे पंचिदिएसु तियभंगो त्ति सेस तं चेव । ९२. णवरं देश विषेज, पंचेंदिय वही जी। भांगा तीन कहेज, शेषं तं चेव सही जी॥ सोरठा ९३. इहां रत्नप्रभा अधिकार, हेट्रिल चरिमंस ने विषे । पंचेन्द्रिय नां धार, देश विष भांगा त्रिहुं ।। ९४. पंचेंद्रिय विण शेष, बेइंद्रियादिक जीव ने । - मझिम रहित संपेख, देश विषे बे भंग तस् ।। ९५. रत्नप्रभा ने जाण, हेटिल्ल चरिमंत नै विषे । पंचेन्द्रिय सुर माण, गमनागमनज द्वार करि ।। ९६. एक देश तिहां होय, देश बहू फुन संभवै । इण कारण थी जोय, पंचेंद्रिय परिपूरण भंग ।। ९७. विकलेंद्रिय नै धार, रत्नप्रभा अधस्तन । चरिमंते सुविचार, मारणांतिक समुद्धात पिण ।। ९८. त्यां देश एकइज होय, एक बेंद्री जीव नों। बहु देशा नहिं कोय, एक प्रतर तसु ते भणी ।। ९९. *रत्नप्रभा नां जेम, चिउं चरिमंत कह्या जी। सक्करप्रभा नां तेम, चिउं दिशि नांज लह्या जी ।। १००. सक्करप्रभा नो हंत, ऊपरलै चरिमंते । वलि हेट्ठिल चरिमंत, ए बिहुनाज कथंते ।। १०१. रत्नप्रभा नो जेह, हेटिल्ल चरिमांत कह्य जी। तेम शक्कर नां बेह, उरिम हेट्टिल्ल रह्य जी ।। ९३. इह तु रत्नप्रभाऽधस्तनचरमान्ते पञ्चेन्द्रियाणां परिपूर्णमेव तद्वाच्यं, (वृ० प०७१६) ९४, शेषाणां तु द्वीन्द्रियादीनां मध्यमरहितमेव, (वृ०प०७१६) ९५, रत्नप्रभाऽधस्तनचरमान्ते देवपञ्चेन्द्रियाणां गमागमद्वारेण (वृ० प० ७१६) ९६. देशो देशाश्च संभवन्त्यतः पञ्चेन्द्रियाणां ततत्र परिपूर्ण मेवास्ति, (वृ०प०७१६) ९७. द्वीन्द्रियाणां तु रत्नप्रभाऽधस्तनचरिमान्ते मारणा न्तिकसमुद्घातेन गतानामेव (वृ० प० ७१६) ९८, तत्र देश एव संभवति न देशा: तस्यैकप्रतररूपत्वेन देशानेकत्वाहेतुत्वादिति। (वृ० प० ७१६) ९९. एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया एवं सक्करप्पभाए वि । १००. उवरिम १०१. हेट्ठिल्ला जहा रयणप्पभाए हेट्ठिल्ले । सोरठा १०२. सक्करप्रभा रा जाण, चरिमंत ऊपर अधस्तन । रत्नप्रभा नां माण, अधस्तन चरिमंतवत ।। १०३. विकलेंद्रिय रै मांहि, पूर्वोक्तज युक्ते करी। मध्यम भांगो नांहि, देश भंग त्रिण मांहिला ।। १०४. पंचेंद्रिय रे मांय, परिपूर्ण त्रिण भंग ह। देश विषे इम थाय, हिव प्रदेश चिता विषे ।। १०५. बेइंद्रियादिक जेह, सर्व विषे धूर भंग विण । शेष भंग छै बेह, द्विकयोगिक धुर भंग नहीं ।। बा--एकेंद्री नां घणां प्रदेश, एक बेइंद्री - एक प्रदेश, ए प्रथम भांगो नथी। १०६. अजीव चिता मांय, रूपो नां जे भेद चिउं । वलि षट भेदज पाय, अजोव अरूपी तणां ।। १०२. शर्कराप्रभाया उपरितनाधस्तनचरमान्तौ रत्नप्रभाया उपरितनाधस्तनचरमान्तवद्वाच्यौ, (वृ० प० ७१७) १०३. द्वीन्द्रियादिषु पूर्वोक्तयुक्तेमध्यमभङ्गरहित (बृ०प०७१७) १०४. पञ्चेन्द्रियेषु तु परिपूर्ण देशभङ्गकत्रय, प्रदेशचिन्तायां (वृ०प० ७१७) १०५. द्वीन्द्रियादिषु सर्वेष्वाद्यभङ्गकरहितत्वेन शेषभङ्गकद्वयं, (वृ० प० ७१७) १०६. अजीवचिन्तायां तु रूपिणां चतुष्कमरूपिणां त्वद्धासमयस्य तत्राभावेन षट्कं वाच्यमिति भावः । (वृ०प० ७१७) १०७. एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं सोहम्मस्स वि जाव अच्चुयस्स । १०७. *सक्करप्रभा कही तेम, जाव सप्तमो कहीजै । सौधर्म पिण छै एम, यावत अच्युत लहीजै ।। *लय : एक दिवस जय राज पमण ६४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८. इम ग्रैवेयक विमान, णवरं विशेष लह्यो जी। उवरिम हेटिल्ल जाण, चरिमंत विषे कह्यो जी ।। १०९. देश विष सुवदीत, पंचेंद्रि नां पिण कहिये । मध्यम भंग रहीत, शेष तिमज सहु लहियै ।। १०८, गेवेज्जवि माणाणं एवं चेब, नबर- उरिम हेटिल्लेसु चरिमंतेसु १०९. देसेसु पंचिंदियाण वि मज्झिल्लविरहिओ चेव, सेसं तहेव । सोरठा ११०. नव ग्रैवेयक विमान, अच्युत जेम कहीजिये ।। णवरं विशेष जान, देश विषे पंचेंद्रि पिण ।। १११. अच्युत कल्पे धार, सर पंचेंद्रिय नो हवै। गमनागमन विचार, तेह तणां सद्भाव थी ।। ११२. तल ऊपर चरिमंत, पंचेंद्रिय विषेज तिहां । देश आश्रयी हुँत, संभव भांगा त्रिण तणों ।। ११३. ग्रैवेयक अधिकार, सुर पंचेंद्रिय नों तिहां । गमनागमन प्रकार, तेह तणांज अभाव थी ।। ११४. विकलेंद्रिय जिम रीत, पंचेंद्रिय विषे अखी ।। मज्झिम भंग रहीत, शेष भंग बे है तिहां ।। ११५. *जिम ग्रैवेयक विमान, तेम अनुत्तर सारं । इसीपब्भारा जान, तिमहिज कथन उदारं ।। ११६. सोलम शतक पिछाण, अष्टम देश सही जी। ढाल तीनसय जाण, ए गुणसठमी कही जी ।। ११७. भिक्षु नै भारीमाल, वलि ऋषिराय गुणी जी। 'जय-जश' हरष विशाल, संपति कीत्ति थणी जी ।। ११०. ग्रैवेयक विमानेषु तु यो विशेषस्तं दर्शयितुमाह'नवर' मित्यादि, (वृ० प० ७१७) १११. अच्युतान्तदेवलोकेषु हि देवपञ्चेन्द्रियाणां गमागमसद्भावात् (वृ०प०७१७) ११२. उपरितनाधस्तनचरमान्तयोः पञ्चेन्द्रियेषु देशाना श्रित्य भङ्गकत्रयं संभवति, (वृ०प०७१७) ११३. ग्रेवेयकेषु विमानेषु तु देवपञ्चेन्द्रियगमागमाभावाद् (वृ० प०७१७) ११४. द्वीन्द्रियादिष्विव पञ्चेन्द्रियेष्वपि मध्यमभङ्गकरहितं शेषभङ्गकद्वयं तयोर्भवतीति। (वृ०प० ७१७) ११५. एवं जहा गेवेज्जविमाणा तहा अणुत्तरविमाणा वि, ईसिपब्भारा बि । (श०१६।११५) ढाल:३६० १. चरमाधिकारादेवेदमपरमाह- (वृ० प० ७१७) दूहा १. चरिम तणां अधिकार थी, अपर चरिम अधिकार । गोयम प्रश्न करै हिवै, उत्तर दै जगतार ।। परमाणु-पुद्गल-गति पद जोयजो रे ज्ञान अनोपम जिन नो ।। (ध्र पदं) २. हे भगवंत ! परमाणु लोक नां पूर्व चरिमंत थी ताह्यो। पश्चिम नां चरिमंत प्रतै जे, एक समय में जायो ? २. परमाणुपोग्गले ण भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ पच्च थिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? ३. पच्चस्थिमिल्लाओ चरिमताओ पुरथिमिल्ल चरिमंत एगसमएणं गच्छति ? ३. पश्चिम नां चरिमंत थकी जे, पूर्व नै चरिमंतो। एक समय मांहै ते जावै, परमाणु भगवंतो? *लय : एक दिवस जय राज पभण लय : पर नारी नो संग न कीज श०१६, २०८, ढा० ३५९,३६० ६५ Jain Education Intemational Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. दक्षिण नां चरिमंत थकी जे, उत्तर यावत जायो। उत्तर नां चरिमंत थकी जे, दक्षिण यावत ध्यायो? ५. ऊपरला चरिमंत थकी जे, हेडिल्ल चरिमंत ताह्यो । एक समय मांहै ते जावे? पंचम प्रश्न कहायो।। ६. वलि हेड्रिल्ल चरिमंत थकी जे, ऊपरलै चरिमंतो। एक समय जावै परमाणु ? हंता कहै भगवंतो।। सोरठा ७. परमाणु नो एह, गमन समर्थपणों कह्यो। तथा स्वभावपणेह, तेह थकी ए गति वृत्तौ ।। ४. दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं जाव (सं० पा०) गच्छति ? उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ दाहिणिल्ल जाव (सं० पा०) गच्छति ? ५. उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेट्ठिल्लं चरिमंतं एगसम एणं गच्छति ? ६. हेट्ठिल्लाओ चरिमंताओ उवरिल्ल चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? हंता गोयमा ! गच्छति । (श० १६.११६) सारा ७. 'परमाणु' इत्या दि, इदं च गमनसामर्थ्य परमाणोस्तथास्वभावत्वादिति मन्तव्यमिति । (वृ०प०७१७) ८. अनन्तरं परमाणोः क्रिया विशेष उक्त इति क्रियाधिकारादिदमाह - (वृ०प०७१७) ८. अनंतरे आख्यात, परमाण नी गति क्रिया। क्रिया अधिकारात, आगल क्रिया कहीजिये ।। क्रिया पद ९. *पुरुष प्रभु ! घन पारख करिवा, मेह वरसै इण वारी। अथवा मेघ न बरसै हिवड़ा, एहवी मन में धारी ।। वा० .. वृष्टि निजर न आवै ते भणी आकास नै विषे हस्तादिक पसारवा थकी जाणिय, ते मार्ट हस्तादिक संकोचै तथा पसारै । ९. पुरिसे णं भंते ! वासं वासति, वासं नो वासतीति १०. हस्त पांव बाहु साथल प्रति, जे संकोचन करतो। अथवा कर पग आदि पसारतो, क्रिया केतली धरतो? ११. श्री जिन भाखै ए अभिलाखै, ज्यां लग जे नर जाणी। वरषा वरसै कै नहि वरसै, इम पारख मम आणी ।। १२. हस्त पांव बाहु साथल प्रति, संकोचे रु पसारै । ते नर फर्श पंच क्रिया प्रति, काइयादिक तिण वारै ।। वा० - अचक्षुरालोके हि वृष्टिराकाशे हस्तादिप्रसारणादेव गम्यते इतिकृत्वा हस्तादिकं आकुण्टयेद्वा प्रसारयेद्वाऽऽदित एवेति । (बृ०५० ७१७) १०. हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेमाणे वा पसारेमाणे वा कतिकिरिए ? ११. गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे वासं वासति, वासं नो वासतीति १२. हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरु वा आउंटावेति वा पसारेति वा, तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव (सं० पा०) पंचहि किरियाहि पुठे । (श० १६।११७) १४. आकुण्टनादिप्रस्तावादिदमाह- (वृ०प० ७१७) सोरठा १३. एहवं इहां जणाय, जल बिंदु फयें पंच क्रिय। छांट न लागी काय, तो त्रिण क्रिया जणाय छै ।। १४. संकोचन रु पसार, अनंतरे जे आखियो। तेह तणोज प्रकार, तसु प्रस्ताव थकी हिवै।। अलोके गति-निषेध पद १५. *हे भगवंतज सुर ! महाऋद्धिवंत, जाव महेश्वर जोई। लोक तणां जे अंत विषे रही, समर्थ ते अवलोई ।। १६. कर पग वाहु उरु साथल प्रति, जेह अलोक रै मांह्यो। संकोचन करिवा समर्थ छै वलि पसारिवा ताह्यो ? १७. जिन कहै अर्थ ए समर्थ नाही, किण अर्थे भगवंतो? इम कहिये जे सुर महाऋद्धिवंत, जाव महेश्वरवंतो।। १५.१६. देवे णं भंते ! महिड्ढिए जाव महेसक्खे लोगंते ठिच्चा पभू अलोगंसि हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा ? १७. नो इणठे समठे। (श० १६।११८) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ देवे णं महिड्ढिए जाव महेसक्खे *लय : पर नारी रो संग न कीजे ६६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. लोक तणां जे अंत विषे रही सुर समर्थ नहीं अलोक में कर जाव पसारिवा, वारू न्याय १९. वीर प्रभुजी ! इम फुरमावै, जीवां रै के आहार रूप जे पुद्गल चिणिया, ते जीवां संयुक्त २०. बोंदिचिया पोग्गला वलि कहियै, अव्यक्त अवयव जेहो । ते तनु रूपपणें करि पुद्गल, जीवां रे केई एहो । २१. वली कलेवरचिया पोग्गला ए तनुरूपपर्णो । ते पिण पुद्गल चिनिया रह्या छं, जीवां रे के एहो । सोरठा २६. इतर इम आयात पुद्दल ताह्यो। बतायो । रह्या छै । कह्या छै । सोरठा २२. उपलक्षण थी जोय, चिणिया उश्वासे करी । इत्यादिक अवलोय, ते पिण पुद्गल जाणवा ॥ २३. इणे करी हम ख्यात, जीवा के रक्षिण रो प्रगटपणे साख्यात, पुद्गल तणों स्वभाव हृ ॥ २४. तिण कारण थी जाण, जेहिज क्षेत्रे जीव छे। तेहिज क्षेत्रे माण, पुद्गल नी गति इम वृत्तौ ॥ २५. प्रति ते पामी आश्रयी, जीव पुद्गल नीं जोयो । *पुद्गल गति पर्याय तिको गति धर्मज, कहियै इम अवलोयो || 1 जिण तिणहिज क्षेत्रे थात, गति पुद्गल जीवां *लय पर नारी रो संग न कीजं २७. अलोक ने विषे जीव नहीं से, पुद्गल पिण नहि कोई तिण अर्थे कर जाव पसारिवा सेवं भंते! सोई ॥ क्षेत्र में। तणी ॥ २८. सोलमा सतनों अष्टमुद्देशक, विणसय साठमी ढालं । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय जय' हर विशालं ॥ षोडशश अष्टमोद्देशकार्थः || १७|८|| १८. लोगते ठिच्चा तो पभू लोगंसि हत्थं वा जाव (सं० पा० ) पसारेत्तए वा ? १९. गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, 'जीवाणं आहारोवचिया पोग्गल' त्ति जीवानां जीवानुगता इत्यर्थः आहारोपचिता आहाररूपतयोपचिताः ( वृ० प० ७१७ ) २०. बोंदिचिया पोग्गला, 'बोंदिचिया पोग्गल' त्ति अव्यक्तावयवशरीररूपतया चिताः ( वृ० प० ७१७) २१. कलेवरचिया पोग्गला । 'कडेवरचिया पोग्गल' त्ति शरीररूपतया चिता: ( वृ० प० ७१७ ) उच्छ्वासचिता: पुद्मला २२. उपलक्षणत्वाच्चास्य इत्याद्यपि द्रष्टव्यं । ( वृ० प० ७१७ ) २३. अनेन चेदमुक्त जीवानुग: मिस्वभावाः पुद्गला भवन्ति, ( वृ० प० ७१७) २४. ततश्च यत्रैव क्षेत्रे जीवास्तत्रैव पुद्गलानां गतिः स्यात्, (० ०७१७) २५. पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाज य गतिपरियाए आहिज्जइ । पुद्गलानां च गतिपर्यायो गतिधर्म्म, ( वृ० प० ७१७ ) २६. आख्यायते इदमुक्तं भवति - पत्र क्षेत्रे पुद्गलास्तत्रैव जीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवति, (बृ० प० ७१०) २७. अलोए णं नेवत्थि जीवा, नेवत्थि पोग्गला । से तेपणं जाव (सं०पा० ) पसारेतए वा । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति । " (१० १६।११९) ( श० १६ । १२० ) श० १६, उ० ८ ढा० ३६० ६७ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हा नीं. वक्तव्यता आख्यात | १. अष्टदेशक देव बलि सुर विशेष नीं हिये नवम उद्देशक बात ।। बलि सभा पद ढाल : ३६१ राजान । २. वलि वैरोचन इंद्र नीं वैरोचन सभा सौधर्म तेहनी, किहां कही भगवान ? ३. * जिन कहै जंबूद्वीप मझारो रे, ओ तो मंदिरगिरि थी सारो रे । उत्तर दिशि नैं पासो रे, तिरछा द्वीप असंख विमासो रे ।। ४. जिम चमर अधिकार विशेषो रे, बीजा शतक नो अष्टमुदेशो रे । को सभा सुधर्मा स्वरूपो रे, तिम बलि नो कहिवो अनूपो रे ।। ५. जाव योजन बयालीस हजारो रे, अवगाहो अरुणोदधि सारो रे । इहां बलि वैरोचन इंदो रे, वैरोचन नृप नो सोहंदो रे ।। ६. ओ तो रुकेंद्र नाम रसालो रे. को गिरि उत्पात विशालो रे । ते तर सौ इकवीसो रे, योजन ऊंचो सुजगीसो रे । ७. इम प्रमाण एहना आयो रे, जिम तिगिच्छकूट नो भाख्यो रे । द्वितीय शतक में ताह्यो रे, ओ तो अष्टमुद्देश कहायो रे । सोरठा ८. चमर संबंधी जाण, तिगिच्छकूट नामे तिको 1 गिरि उत्पात विछाण, तसु प्रमाण जिम आखियो । ९. तिम बलि संबंधी जोय, तसु रुचकेंद्रज नाम वर । गिरि उत्पातज सोय, तास प्रमाण कहीजिये | १०. प्रासाद अवतंसक पेखी रे, तसु जे प्रमाण विशेखी रे । तं चैव पमाणं जाणी रे, तिमिच्छकूट ऊपर तिम माणी रे ।। दूहा ११. तिगिच्छकंंट उत्पात गिरि, चमर संबंधी जेह । तसु ऊपर प्रासाद नों, कह्यो प्रमाण जिणेह ॥ *लय इह अवसर इक बालक ६८ भगवती जोड़ १. अष्टमोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, नवमे तु जेव विशेषस्य सोच्यते (० ०७१८) २. कहिण्णं भंते ! बलिस्स वइरोयणिदस्स वइरोयणरणी सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? ३. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं तिरियमसंखेज्जे ४. जहेव चमरस्स (भ० २।११८ ) ५. जाव बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं बलिस्स वइरोर्याणदस्स वइरोयणरण्णो ६. रुयगिदे नामं उप्पायपव्वए पण्णत्ते । सत्तरस एक्कबीजो ७. एवं पमाणं जहेव तिगिच्छकूडस्स ८. थायमरसत्कस्य द्वितीयशताष्टोदेशकाभिहितस्यैव तिकिटाभिधानस्योत्पातपर्वतस्य प्रमाणमभिहितं ९. तथाऽस्यापि रुचकेन्द्रस्य वाच्यं, (२०१० ७१८) ( वृ० प० ७१०) १०. पासा यवडेंसगस्स वि तं चेव पमाणं, ( भ० २।११८ ) ११. यत्प्रमाणं चमरसम्बन्धिनस्तगिभिधानो त्पातपर्वतोपरिवर्तिनः प्रासादावतंसकस्य ( वृ० प० ७१८ ) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १२.तिम बलि संबंधी जाण, रुचकेंद्र नाम उत्पात गिरि । तसु ऊपर पहिछाण, वर प्रासाद प्रमाण है। १३. *सिहासण परिवार सहीतो रे, बलि नों परिवार संगीतो रे। अर्थ तिमहिज णवरं विशेखो रे, रुचकेंद्र प्रभायं पेखो रे ।। १२. तदेव बलिसत्कस्यापि रुचकेन्द्राभिधानोत्पातपर्वतोपरिवत्तिनस्तस्य, (वृ० ५० ७१८) १३. सीहासणं सपरिवारं बलिस्स परियारेणं, अट्ठो तहेव, नवरं--रुयगिदप्पभाई-रुयगिदप्पभाईरुयगिदप्पभाई। सोरठा १४. अवतंसक प्रासाद, तसु मध्य भाग विषे कह्यो। चमर सिंहासण साध, तेहनी पर कहिवो इहां ।। १५. केवल चमर तणेह, सामानिक चउसठ सहस्र। आसन तास कहेह, आत्मरक्षक चौगुणां ।। १४. प्रासादावतंसकमध्यभागे सिंहासनं बलिसत्कं बलिसत्कपरिवारसिंहासनोपेतं वाच्यमित्यर्थः (वृ०प०७१८) १५. केवलं तत्र चमरस्य सामानिकासनाना चतुःषष्टिः सहस्राणि आत्मरक्षासनानां तु तान्येव चतुर्गुणान्युक्तानि (वृ० प० ७१८) १६,१७. बलेस्तु सामानिकासनानां षष्टिः सहस्राणि आत्मरक्षासनानां तु तान्येव चतुर्गुणानीत्येतावान् विशेषः, (वृ० प० ७१८) १६. बलि नै साठ हजार, आसन सामानिक तणां । आत्मरक्षक सार, तेहनां आसन चौगुणां ।। १७. इतरोईज विशेख, बीजो अर्थज बलि तणो । कहिवो तिमज संपेख, सर्व विचारी ने इहां ।। १८. णवरं इतो विशेख, रुचक इंद्र प्रभा इसो। कहिवं नाम संपेख, बलि नै अधिकारे इहां ।। १९. तिगिच्छकट जिम नाम, अनु अर्थ अभिधायकं । आख्यो छै तिण ठाम, तिम एहनों पिण आखियै ।। २०. त्यां तिगिच्छकट अनु अर्थ, प्रश्न तणां उत्तर विषे । कहियै हिवै तदर्थ, चमर तणां ए कूट नों।। २१. तिगिच्छज रत्न विशेख, ते समप्रभाये तिहां । उत्पल आदि संपेख, तिगिच्छकुट अभिधान इम ।। २२. रुचकेंद्र रत्न विशेख, ते समप्रभाये तिहां। छै उत्पलादि पेख, रुचक इंद्र इम आखियो ।। २३. ते बलि सूत्रे ईज, अन्य स्थान आख्यो इसो। प्रभु ! किण अर्थ कहीज, रुचकेंद्र उत्पात गिरि ? १९. यथा तिगिच्छिकूटस्य नामान्वर्थाभिधायक वाक्यं तथाऽस्यापि वाच्यं (वृ०प० ७१८) २०. केवलं तिगिच्छिकूटान्वर्थप्रश्नस्योत्तरे (वृ० ५० ७१८) २१. यस्मात्तिगिच्छिप्रभाण्युत्पलादीनि तत्र सन्ति तेन तिगिच्छिकूट इत्युच्यत इत्युक्तं (वृ० ५० ७१८) २२. इह तु रुचकेन्द्रप्रभाणि तानि सन्तीति वाच्यं, रुचकेन्द्रस्तु रत्नविशेष इति, (वृ०प० ७१८) २३. तत्पुनरर्थतः सूत्रमेवमध्येयं-से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ रुयगिदे-रुयगिदे उप्पायपब्बए? (वृ० प० ७१८) २४. गोयमा ! रुयगिदे णं बहूणि उप्पलाणि पउमाई कुमुयाई जाव (वृ० १० ७१८) २५. रुयगिदवण्णाइं रुयगिदलेसाई रुयगिदप्पभाई, से तेणठेणं रुयगिद उप्पायपव्वए त्ति (वृ० प० ७१८) २६. सेसं तं चेव जाव बलिचंचाए रायहाणीए अण्णे सिं च जाव २७. रुगिदस्स णं उप्पायपब्वयस्स उत्तरे णं छक्कोडिसए तहेब जाव चत्तालीसं जोयणसहस्साई २४. तब भाखै जिनराय, रुचक इंद्र उत्पात गिरि । ____ छै बहु उत्पल ताय, पद्म कुमुद इत्यादि जे ।। २५. रुचकेंद्र रत्न विशेख, ते सम वर्ण रु लेश तस् । ते सम प्रभा सुदेख, तिण अर्थे रुचकेंद्र है। २६. *शेष तिमज पहिछानी रे, जाव बलिचंचा रजधानी रे । ___ अन्नेसिं यावत नित्तो रे, पाठ एतला लगै कथित्तो रे ॥ २७. रुचकेंद्र गिरि उत्पातो रे, तेहथी उत्तर पास आख्यातो रे । योजन छ सौ कोड़ो रे, तिम जाव चाली सहस्र जोड़ोरे ।। *लय : इह अवसर इक बालक श० १६, उ० ९, ढा० ३६१ ६९ Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २९. वलि पचावन कोड़, ए जाव शब्द में जोड़, ३०. *इता योजन अवगाही रे, इहाँ बलि वैरोचन इंदोरे, २८. जिम चमरचा अधिकार, सूत्र कह्यो छे तिम दहां । कहिवो सर्व विचार, जाव शब्द में एह छै । योजन लक्ष पचास फुन । आदि अंत पहिला क ु ॥ रत्नप्रभा पृथ्वी प्रतिताही रे । तेहनी बलिचंचा नगरी कथिदो रे ।। ३१. ते बलिचंचा रजधानी रे, एक लक्ष योजन सुखदानी रे। प्रमाण तिमज पहिछानी रे, जिम चमरचंचा तिम जानी रे ।। सोरठा ३२. इक लक्ष योजन जान, लांबो ने चोड़ी कही। बलिचंचा अभिधान त्रिगुणी जाही परिधि है । ३३. तीन लक्ष योजन्न, सोल सहस्र नें दोयसौ । सत्तावीस प्रपन्न, इतरा योजन आखिया ॥ ३४. तीन कोश वलि ताय, इकसौ अट्ठावीस धनु । आंगुल तेर कहाय, अर्द्ध आंगुल किंचित अधिक ॥। ३५. 'जावत जे बलिपीठो रे, त्यां लग वर्णक तास उयीठो रे । ते इहां रीत कहायो रे, संक्षेप थकी कहूं ताह्यो रे ।। सोरठा ३६. नगरी तणों विचार, तेह प्रमाण कह्यां पछै । प्रकार नैं तसु द्वार, वलि उपकारिक लयन वर ।। वा० -प्रासाद अवतंसकादिक नी पीठका नैं उपकारिक लयन कहिये । ३७. वर प्रासादवतंस, सभा सुधर्मा बलि तणी । , चैत्य भवन सुप्रसंस, फुन उपपात सभा कही || ३८. द्रहरु सभा अभिषेक, सभा अलंकारिक वली । सभा व्यवसाय संपेख, ए पुस्तक वाचण तणी ॥ ३९. सभा आदि तु सोय प्रमाण अनं स्वरूप तसु । चमर जेम अवलोय, कहि सगलो बलि तणो ।। ४०. यावत जे बलिपीठ, वर्णक एहनूं ज्यां लगे । अन्य शास्त्र थी दीठ, जाव शब्द में छे इहां ॥ ४१. *उपपात सभा पहिछाणी रे, जाव आत्मरक्षक जाणी रे । सर्व तिमज निविशेषो रे, पमर नो कह्यो जेम अशेषो रे ।। ४२. पवर सभा ७० सोरठा उपपात, उपपात तेह विधे जे बलि इह ऊपजवो आख्यात वक्तव्यता ते 水 "लय : इह अवसर इक बालक भगवती जोड़ तणो । विधे || २८. यथा नगरचवाव्यतिकरे सूत्रमुमिहापि तथैव वाच्यं तच्चेदं , (बृ० प० ७१८) २९. पणपन्न कोडीओ पन्नासं च सयसहस्साई (५० प० ७१०) २०. हा एत्थ णं बलिस्स वइरोयणिदस्स वरोरण्णो वलिचंचा नाम राहाणी पण्णत्ता । २१. एवं जहर पमा तहेव 'पमाणं तहेव' त्ति यथा चमरचञ्चायाः, J ३५. जाव बलिपेढस्स 7 ३२-३४. 'एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसय सहस्साइं सोलस य सहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोगणसए तिन्निव को अट्ठावीस प अणुस तेरस व अंगुलाई अगुवयं च किचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्तं' (५० प० ७१८) वृ० लयन A ( वृ० प० ७१८) ३६. नगरीप्रमाणाभिधानानन्तरं प्राकारतद्द्वारोपकारिका( वृ० प० ७१८ ) ३७. प्रासादावतंसकधर्म सभा वैभवोपपातसभा ( पृ० प० ७१०) ३८,३९. ह्रदाभिषेकसभाऽलङ्कारिकसभाव्यवसायसभादीनां प्रमाणं स्वरूपं च तावद्वाच्यं । (१० ५०७१९) ४०. यावद्वलिपीठस्य, तच्च स्थानान्तरादवसेयं, (२००७१९) ४१. उववाओ जाव आयरक्खा सब्बं तहेव निरवसेसं, ४२. 'उववाओ' त्ति उपपातसभायां बलेरुपपातवक्तव्यता वाच्या, ( वृ०प० ७१९ ) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. 'तेणं कालेणं तेणं समएणं बली वइरोयणिदे अहुणोववन्नमेत्तए समाणे (वृ०प० ७१९) ४४. पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ इत्यादि, 'जाव आयरक्ख' त्ति (वृ० प० ७१९) दूहा ४३. तिण काले नै तिण समय, बलि वैरोचन इंद । ते ततकाल तणोंज त्यां, उत्पन्न छते अमंद ।। ४४. पंचविधे पर्याप्ति करि, थयो पर्याप्त भाव । प्रमुख यावत आत्मरक्ख, तिहां लगैज कहाव ।। सोरठा ४५. जाव शब्द थी जाण, अभिषेक अलंकार प्रति । ग्रहण करेवू माण, पुस्तक नो वलि बांचवो।। ४६. सिद्धायतन प्रतिमादि, अर्चन फुन सुधर्मसभा। गमन करण संवादि, तिहां रह्या ते इंद्र नां ।। ४७. सामानिका उदार, अग्रमहेषी बलि तणी । परिषद तीन प्रकार, सप्त अनीकज अधिपति ।। ४८. आत्मरक्षक धार, चिउं पास रहै इंद्र नै । अपर सर्व परिवार, यथायोग्य वलि पै रहै ।। ४९. कहि एह अशेष, वक्तव्यता प्रतिबद्ध सहु। सर्व तिमज निविशेष, ए अतिदेशज सूत्र करि ।। ४५. इह यावत्क रणादभिषेकोऽलङ्कार ग्रहण पुस्तकवाचन (वृ० प० ७१९) ४६,४७. सिद्धायतनप्रतिमाद्यर्चनं सुधर्मसभागमनं तत्रस्थस्य च तस्य सामानिका अग्रमहिष्यः पर्षदोऽनीकाधिपतयः (वृ० प० ७१९) ४८. आत्मरक्षाश्च पार्श्वतो निषीदन्तीति वाच्यं (वृ० प० ७१९) ४९. एतद्वक्तव्यताप्रतिबद्धसमस्तसूत्रातिदेशायाह - 'सव्वं तहेब निरवसेसं' ति, सर्वथा साम्यपरिहारार्थमाह... 'नवर' मित्यादि, (वृ०प० ७१९) ५०. नवरं सातिरेगं सागरोवमं टिती पण्णता । सेसं तं चेव जाव बली वइरोयणिदे, बली बइरोयणिदे । (श० १६।१२१) ५०. *णवरं स्थिति तसु जाणी रे, सागरोपम जाझी बखाणी रे। शेषं तं चेव कथिदो रे, जाव बलि वैरोचन इंदो रे ।। सोरठा ५१. इहां अर्थ ए भाल, सागरोपम स्थिति चमर नीं। दाखी दीनदयाल, बलि – सागर अधिक है। ५१. अयमर्थः ...- चमरस्य सागरोगमं स्थितिः प्रजप्तेत्युक्तं बलेस्तु सातिरेक सागरोपमं स्थिति: प्रज्ञप्तेति वाच्यमिति (वृ०प० ७१९) ५२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ। (श० १६।१२२) ५२. *सेवं भंते ! दोय वारो रे, जाव विचरै गोयम गणधारो रे। शतक सोलमा नों वारू रे, ओ तो नवमो उद्देशो चारू रे ।। षोडशशते नवमोद्देशकार्थः ॥१६।९।। ५३. नवमोद्देशकै बलेर्वक्तव्यतोक्ता, बलिश्चावधिमानित्य वधेः स्वरूपं दशमे उच्यते (वृ० ५० ७१९) ५३. नवम उद्देशक ने विषे, आख्यो वलि अधिकार । ते बलि अवधिजवंत है, दशमें अवधि विचार ।। अवधि पद ५४. *प्रभु ! कतिविधि अवधि कहायो रे ? जिन भाख द्विविध थायो रे। पद अवधि संपूर्ण भणवो रे, तेतीसम पन्नवण थुणवो रे ।। ५४, कतिविहा णं भंते ! ओही पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा ओही पण्णता । ओहीपदं निरवसेस भाणियव्वं । (श० १६।१२३) सोरठा ५५. भवपच्चझ्या खओवमिया य, (वृ०प० ७१९) ५५. धुर भवप्रत्यय जाण, दूजो क्षयोपशम वली। ए द्विविध पहिछाण, आख्यो अवधि तीर्थकरे ।। *लय : इह अवसर इक बालक श०१६, उ० ९,१०, ढा० ३६१ ७१ Jain Education Intemational Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. सर नारक ने सोय, आख्यो भवप्रत्यय अवधि क्षयोपशम अवलोय, तिरि पंचेंद्रिय मनुष्य ने । ५७. "इत्यादिक जे वृतंतो रे, सेवं भंते ! जाव विचरंतो रे। शत सोलम नुं जाणी रे, अर्थ दशम उद्देश - आणी रे ।। षोडशशते दशमोद्देशकार्थः ॥१६॥१०॥ ५६. दोण्हं भवपच्चइया, तं जहा-देवाण य नेरइयाण य, दोण्हं खओवसमिया, तं जहा--माणुस्साणं पंचिदियतिरिक्खजोणियाण य (व०प०७१९) ५७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ। (श० १६।१२४) इत्यादीति । (वृ०प० ७१९) ५८. दशमेऽवधिरुक्तः, एकादशे त्ववधिमद्विशेष उच्यते । (वृ० ५० ७१९) ५९. दीवकुमारा णं भंते ! सब्वे समाहारा ? सव्वेसमुस्सासनिस्सासा ? नो इणठे समठे। ६०. एवं जहा पढमसए बितिय उद्देसए (१६७४,७५) दीवकुमाराणं वत्तव्वया तहेव दूहा ५८. दशमें अवधि आखियो, एकादशमें आद। अवधिवंत नी वारता, हिव विशेष विधिवाद ।। द्वीपकुमार आदि पद ५९. *द्वीपकुमार नो स्वामी रे, सहु ने आहार सरीखा धामी रे। सहु नै सम उश्वास निःस्वासो रे? अर्थ समर्थ नहि तासो रे ।। ६०. इम जिम धुर शत जाणी रे, ___ओ तो द्वितीय उद्देश बखाणी रे । बात द्वीपकुमार नी जेमो रे, कहिवोज इहां पिण तेमो रे ।। ६१. जाव समायु आयु सरीखो रे, सम उश्वास निस्सास परीखो रे । एतला लग कहिवायो रे, इम नागकुमार' नै थायो रे ॥ सोरठा ६२. आहार सरीखो तास, वलि सरीखो आउखो। सम उश्वास निस्वास, प्रश्नोत्तर धुर शतक जिम ।। ६३. *द्वीपकुमार ने धामी रे, आ तो लेश्या केतली स्वामी रे? जिन कहै लेश्या च्यारो रे, कृष्ण जाव तेजु अवधारो रे ।। ६१. जाव समाउया, समुस्सासनिस्सासा । (श० १६।१२५) ६४. ए प्रभु! द्वीपकुमारो रे, तसु कृष्ण जाव तेजु धारो रे। कुण-कुण जाव कहीजै रे? विसेसाहिया आप वदीजै रे ।। ६३. दीवकुमाराणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहाकण्हलेस्सा, जाव (सं० पा०) तेउलेस्सा । (श० १६।१२६) ६४. एएसि णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा? ६५. गोयमा ! सव्वत्थोवा दीवकुमारा तेउलेस्सा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा, ६६. नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया । (श० १६।१२७) ६५. तब भाखै जगतारो रे, सर्व थी थोड़ा द्वीपकुमारो रे । तेजोलेश्यावंत ताह्यो रे, असंखगुणां कापोत कहायो रे।। ६६. तेहथी नीललेस्यावतो रे, ए तो विशेषाधिक सुवदंतो रे। तेहथी कृष्ण लेश्या जाणी रे, एतो विसेसाहिया पिछाणी रे ।। *लय : इह अवसर इक बालक १. 'एवं नागा वि' यह पाठ अंगसुत्ताणि भाग २ श. १६।११५वें सूत्र के पादटिप्पण में लिया गया है। ७२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. एएसि णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेसाणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पिड्ढिया वा ? महिड्ढिया वा? ६८. गोयमा ! कण्हलेस्साहितो नीललेस्सा महिड्ढिया ६९. जाव सव्वमहिड्ढिया तेउलेस्सा। (श० १६।१२८) सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ। (श० १६३१२९) ६७. ए द्वीपकुमार वंदतो रे, कृष्ण जाव तेजोलेश्यावंतो रे । कुण-कुण थी अल्प ऋद्विवानो रे, तथा महाऋद्धिवान सुजानो रे? ६८. तब भाखै जिनरायो रे, कृष्णलेशी थकी कहिवायो रे। नीललेशी जे देवा रे, ते महाऋद्धिवान कहेवा रे ।। ६९. जाव सर्व थी विशेषी रे, महाऋद्धिवंत तेजोलेसी रे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! धामी रे, जाव विचरै गोतम स्वामी रे ।। ७०. सोलम शतक विशेषो रे, अर्थ एकादशमो उददेशो रे । हिव बारसमों कहिवायो रे, तिको सांभलजो चित ल्यायो रे ॥ ७१. उदधिकुमार भदंतो! रे, सर्व सरीखा आहारी कहंतो रे। इत्यादिक प्रश्नोत्तर जाणी रे, सह पूर्ववत पहिछाणो रे।। ७२. सेवं भंते ! बे वार विशेषो रे, शत सोलम बारमदेशो रे। तिमहिज दिशाकमारो रे, शत सोलम तेरम सारो रे ।। षोडशशते एकादशद्वादशत्रयोदशोदेशकार्थः ॥१६॥११-१३॥ ७३. इमहिज थणियकुमारो रे, सेवं भंते ! सत्य वच सारो रे । जाव गोतम विचरंतो रे, शत सोलम चवदम हुँतो रे ।। ७१. उदहिकुमारा णं भंते ! सब्वे समाहारा? एवं चेव । (श० १६।१३०) ७२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १६३१३१) एवं दिसाकुमारा वि । (श० १६६१३२) ७३. एवं थणियकुमारा वि। (श० १६।१३३) सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ। (श० १६।१३४) ७४. कह्यो सोलम शतक रसालो रे, तीनसौ इकसठमी ढालो रे । भिक्षु भारीमाल ऋषिरायो रे, सुख 'जय-जश' हरष सवायो रे ॥ गोतक छंद १. रवि सारिखा इह भरत भिक्ष न्याय निर्णय छाणिया। ते थकी जे बह जीव तत्व यथार्थ करिक जाणिया ।। २. जिन आण शिर ऊपर ठवी बहु भविक नैं प्रतिबोधिया । शत सोलमें वर न्याय रचना तस् प्रसादे सोधिया ।। षोडशशते चतुर्दशोदेशकार्थः ।।१६।१४।। श०१६, उ०१३,१४, ढा०३६१ ७३ Jain Education Intemational Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश शतक Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १. शत सोलम आख्यात, हिव अनुक्रम आव्यो इहां । शत सतरम अवदात, प्रारंभियो ते सांभलो || २. नमस्कार शिर नाम श्रुतदेवता' हि भगवती । तसु अर्थे अभिराम, हिव शत सतरम नैं विषे ॥ ३. आदि विषे जे वाह, आखी उद्देशक तणी । संग्रह अर्थ गाह, कुंजर संजय आदि जे || दूहा ४. श्रेणिक सुख कोणिक तसृ, गजपति नाम उदायि । प्रमुख अर्थ उद्देश धुर, कुंजर नाम कहायि || ५. अर्थ संजतादिक प्रतै, कहिवा थी तसु नाम । संजत द्वितीय उद्देश नं इम सर्वत्र तमाम ।। ७. अर्थ क्रियादिक जे विषे, क्रिया वक्तव्यता ईशाण नी ते ईशाण सप्तदश शतक ६. सेनेशी प्रमुख अर्थ, कहिया थी तसु नाम तृतीय उद्देशक नो पवर, सेलेशी अभिराम ॥ ८. ढाल : ३६२ पृथ्वी अर्थ तणां कह्या, षष्टम सप्तम दोय । उदक अर्थ जेहनें विषे, अष्टम नवम सुहोय || ११. विद्युत वायू अग्नि पुन, ए त्रि सप्तदशम ९. वायु अर्थ जेहनें विषे, दशम एकादशमेह | एकेंद्रिय स्वरूप $, द्वादशमुद्देशेह || 1 तुर्य उद्देश | कलेस || १०. तेरम उद्देशक विषे नागकुमार विचार। पवर सुवर्णकुंवार नों, चवदमुद्देश मझार ॥ | १. गणधर देव नीं वाणी । चरम उद्देश | शतके का, सतर उद्देश विशेष ॥ १. व्याख्यातं षोडशं शतं अथ क्रमायातं सप्तदशमारभ्यते, (२०१० ७२०) २. नमो सुयदेवयाए भगवईए ३. तस्य चादावेवोद्देशकसंग्रहाय गाथा । ४. कुंजर तत्र कुंजर ति श्रेणिकसूनोः कूणिकराजस्य सत्क उदायिनामा हस्तिराजस्तत्प्रमुखार्थाभिधायकत्वात् कुर एवं प्रथम उच्यते ० प० ७२० ) ५. संजय 'संजय' ति संयताद्यर्थप्रतिपादको द्वितीयः ( वृ० प० ७२० ) (बृ० १०७२०) 1 ६. सेलेसि 'सेलेसि' निश्वादिवतव्यतास्तृतीयः । ( वृ० प० ७२० ) ७. किरिय ईसाण ( वृ० प० ७२० ) ८. 'किरिय' त्ति क्रियाद्यर्थाभिधायकश्चतुर्थः 'ईसाण' त्ति ईशानेन्द्रवक्तव्यतार्थः पञ्चमः पुढवि दग 'पुढवि' त्ति पृथिव्यर्थः षष्ठः सप्तमश्च 'दग' ति अकायार्थोऽष्टमी नवमश्च ( वृ० १० ७२० ) ९. बाऊ एबिदिय 'वाउ' त्ति वायुकायार्थो दशम एकादशश्च 'एगिदिय'त्ति एकेन्द्रियस्यरूपार्थो द्वादशः ॥ (१० १० ७२०) १०. नाग सुवण्ण 'जाग' ति नामकुमारवतव्यतार्थस्त्रयोदशः 'सुवन्न' त्ति सुवर्णकुमारानुगतश्चतुर्दशः १०० ७२० ) ११. विपित्तरसे 'बि'कुमाराभिधायकः पञ्चदम 'बाद' शिवकुमारवक्तव्यतार्थ षोडश 'अग्गि' त्ति अग्निकुमार वक्तव्यतार्थः सप्तदशः 'सत्तरसे' त्ति सप्तदश एते उद्देजका भवन्ति । ( वृ० प० ७२० ) श० १७, उ० १, ढा० ३६२ ७७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. तत्र प्रथमोद्देशकार्थप्रतिपादनार्थमाह-- (वृ० प० ७२०) १३. रायगिहे जाव एवं वयासी १२. प्रथम उद्देश विषे जिहां, कोणिक नो गजराज। नाम उदायि नो प्रथम, कहियै अर्थ समाज ।। १३. नगर राजगृह नै विषे, जाव वदै इम ताम। विनय करी थी वीर नै, पूछ गोयम स्वाम ।। हस्तिराज पद ___*प्रश्नोत्तर गोयम जिनवर नां ।। (ध्रपदं) 'प्रश्नोत्तर गोयम जिनजी रा सांभलतां सुखदाया रे ॥ (ध्र पदं) १४. हे प्रभु ! गजपति नाम उदायी, अंतर-रहित कहायी रे। किहां थकी निकली नै ऊपनो, हस्तीरायपणे आई रे ।। १५. जिन कहै असुरकुमार देव थी, नीकली अंतर रहीतो रे। उदाई गजपतिपणेज ऊपनो, संदर शोभ सहीतो रे ।। १६. हे प्रभुजी ! गजराज उदायी, काल नै अवसर जानो रे। काल करीनै किण गति जासी, ऊपजस्यै किण स्थानो रे? १७. जिन कहै रत्नप्रभा नै विषे ए, उत्कृष्ट सागर स्थिति में रे। नरकावासा विषे उपजस्यै, गजपति नारक गति में रे ।। १४. उदायी णं भंते ! हत्थिराया कओहितो अणंतरं उब्वट्टित्ता उदायिहत्थिरायत्ताए उववन्ने ? १५. गोयमा ! असुरकुमारहितो देवेहितो अणंतरं उब्ब ट्टित्ता उदायिहत्थिरायत्ताए उववन्ने । (श० १७:१) १६. उदायी णं भंते ! हत्थिराया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ? कहि उववज्जिहिति ? १७. गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोस सागरोवमट्ठितियंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति। (श० १७४२) १८. से णं भंते ! तओहितो अणंतरं उव्वट्टिता कहि गच्छिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति । (श० १७१३) १९. भूयाणंदे णं भंते ! हत्थिराया कओहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता भूयाणंदे हत्थि रायत्ताए उववन्ने ? २०. एवं जहेव उदायी जाव अंतं काहिति । (श० १७।४) १८. ते प्रभु ! अंतर-रहित तिहां थी, नीकल किहां उपजस्य रे? जिन कहै क्षेत्र विदेह सीझस्यै, यावत अंतज करिस्यै रे ।। १९. भूतानंद' प्रभु ! गजराजा, किहां थकी सुविचारो रे। अंतर-रहित नीकली उपनो ? गोयम प्रश्न उदारो रे ।। २०. इम जिम गजपति कह्यो उदाई, भूतानंद तिम जाणी रे। यावत दुख नों अंतज करिस्यै, एकावतारी पिछाणी रे ॥ २१. अनन्तरं भूतानन्दस्योद्वर्तनादिका क्रियोक्तेति क्रियाऽधिकारादेवेदमाह - (वृ० १० ७२०) सोरठा २१. पूर्वे भूतानंद, तसु नीकलवादिक क्रिया। आखी तेह प्रबंध, क्रियाधिकार थी हिव क्रिया । क्रिया पद २२. *पुरुष प्रभुजी ! ताल तरु चढि, ताल तरु थी फल तालो रे । अतिही कंपावतो हेठो पाड़तो, किती क्रिया तसु न्हालो रे? २२. पुरिसे णं भंते ! तलमारुहइ, आरुहित्ता तलाओ तलफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? 'तालं' ति तालवृक्षं 'पचालेमाणे व' त्ति प्रचलयन् वा 'पवाडेमाणे व' त्ति अधः प्रपातयन् वा (वृ. प. ७२१) २३. गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तलमारुहइ, आरुहित्ता तलाओ तलफलं पचालेइ वा पवाडेइ वा २४. तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं २३. श्री जिन भाखै ज्यां लग जे नर, ताल वृक्ष चढि सोयो रे। ताल थकी फल ताल हलावत, हेठो पाड़त जोयो रे ।। २४. त्यां लग तेह पुरुष ने फर्श, काइयादिक पहिछाणी रे। पाणाइवाय पंच क्रिया करि, ए जिन वाण सुहाणी रे ॥ *लय : इम सतगुरु जीवां ने समझाव लिय : लाल हजारी को जामो विराज चढ़वा तुरकी घोड़ो रे १. भूतानंद नामे कोणिक राजा नो प्रधान हस्ती। पुठे। ७८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. जे पिण जीव तणां जे तनु थी, ताल तरू निपजायो रे । २५. जेसि पि णं जीवाणं सरीरेहितो तले निव्वत्तिए, __ वलि फल ताल निपायो तसु पिण, पंच क्रिया फर्शायो रे ।। तलफले निब्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा । (श० १७१५) २६. अथ प्रभु ! ते ताल फल पोता नैं ,निज भारे करि जाणी रे। २६. अहे णं भंते ! से तलफले अप्पणो गरुयत्ताए जाव यावत पड़तो गगनादिक में, प्राण बहू पहिछाणी रे ।। (सं० पा०) पच्चोवयमाणे जाइं तत्थ पाणाई वा०-जाव शब्द थकी संभारिकपणे करी गुरूसंभारिकपणे करी इमबा०-यावत्करणात् सम्भारिकतया गुरुकसम्भारिकतयेति जाणवो। दृश्यं । (वृ०प०७२१) २७. *जाव जीवतव्य थकीज अलगा, करै तिवारो ताह्यो रे । २७. जाव जीवियाओ ववरोवेति, तए णं भंते ! से पुरिसे तेह पुरुष नै हे भगवंत जी ! क्रिया केतली थायो रे ? कतिकिरिए ? २८. श्री जिन भाखै ज्यां लग जे नर, तेह ताल फल जाणी रे । २८. गोयमा ! जावं च णं से तलफले अप्पणो गरुयत्ताए निज पोता नै भार करीन, जाव हणे बहु प्राणी रे ।। जाव जीवियाओ ववरोवेति २९. त्यां लग तेह पुरुष नैं प्रगटज, काइयादिक रै मांही रे । २९. तावं च णं से पूरिसे काइयाए जाव चाहि यावत च्यार क्रिया करि फर्श, क्रिया पंचमी नाही रे ।। किरियाहिं पुढें । सोरठा ३०. वध विषे पहिछाण, निमित्त भाव नुं पुरुष नैं। ३०. वनिमित्तभावस्याल्पत्वेन तासां चतसृणामेव अल्पपणे करि जाण, च्यार क्रिया वंछी इहां ।। विवक्षणात्, (वृ० प०७२१) ३१. अल्पपणो वलि एम, जिम ताल फल कंपावतां । ३१. तदल्पत्वं च यथा पुरुषस्य तालफलप्रचलनादौ तेहना वध नो जेम, निमित्त भाव साक्षात छै ।। साक्षाद्वधनिमित्तभावोऽस्ति। (वृ० प० ७२१) ३२. तिम नहि निमित्त ताय, पड़तां फल जे ताड़ नो। ३२. न तथा तालफलव्यापादितजीवेष्वितिकृत्वा, जीव हणे तिण मांय, तिण थी नर नै चिहुं क्रिया ।। (व० ५० ७२१) वा०-निमित्तभाव नों अल्पपणों किम जेहथी पुरूष नै पांच क्रिया नहीं? उत्तर-जिम पुरुष ताल फल नै पोते हलावै, तिहां जीव नी हिंसा थाय । तिण हिंसा में विषे तेहनों साक्षात निमित्तभाव छ। तेहवो निमित्तभाव फल आपणां भार थकी पड़तां जे जीव नी हिंसा कर, तिण हिंसा में नथी तिण थी। ३३. *जे पिण जीवां नां जे तनु थी, ताल तरू निपजायो रे । ३३. जेसि पि णं जीवाणं सरीरेहितो तले निव्वत्तिए ते ते पिण जीव काइया यावत, च्यार क्रिया फर्शायो रे ।। वि णं जीवा काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुट्ठा । सोरठा ३४. जेहन निपन ताल, च्यार क्रिया तिण जीव नै । ३४. एवं तालनिर्वर्तकजीवा अपि, (वृ० प०७२१) फल हणवा नां न्हाल, वध निमित्त साक्षात नहीं। ३५. *जे पिण जीवां नां जे तनु थी, ते ताल फल निपजायो रे। ३५. जेसि पिणं जीवाणं सरीरेहितो तलफले निव्वत्तिए ते पिण जीव काइया यावत, पंच क्रिया फर्शायो रे ।। ते णं जीवा काइयाए जाब पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। सोरठा ३६. फल ने पंच निहाल, वध निमित्त साक्षात तसु । ३६. फलनिर्वर्त्तकास्तु पञ्चक्रिया एव, साक्षात्तेषां निज भारे करि हाल, पड़ियो छै तिण कारणे ।। वधनिमित्तत्वात्, (वृ०प०७२१) ३७. *स्वभाव थी जे ताल तणो फल, नीचो पड़तां ताह्यो रे । ३७. जे वि य से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स नेश्राय वर्ते ते जीवा पिण, पंच क्रिया फर्शायो रे ।। उवग्गहे व ति ते वि य णं जीवा काइयाए जाव वा० ते ताल फल नीचो पड़तां पांख प्रमुख ते फल नै उपकारे ते पंचहि किरियाहि पुट्ठा । (श० १७१६) साहाय्य ना देणहार वत्” । फल हे पड़ता पंखोवादिक नों फटको लागां त्रस प्रमुख हणीज्या तो तेमां साहाय्यकारी पंखोवादिक नां जीवां नै पिण काइयादिक पंच क्रिया फर्श । *लय : इम सतगुरु जीवां ने समझाव श०१७, उ० १, ढाल ३६२ ७९ Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३८. ते फल अधो पड़ंत, उपकारे वर्त्ते तसु । पंच क्रिया तसु हुत, वध निमित्त अति बहु थकी ।। ३९. ए षट सूत्र पिछाण, विशेष थी व्याख्यान तसु । पंचम शतके जाण, कांड क्षेप्तृ नर सूत्र थी । ४०. फल द्वारे करि एह, दाख्या वलि षट सूत्र जे । क्रिया स्थानक जेह, हिव मूलादि विषेज षट ॥ वृक्ष- मूल स्यूं सम्बन्धित क्रिया ४१. * पुरुष प्रभु ! तरु मूल प्रतै जे, अतिहि हलावत ताह्यो रे । अथवा तसु हेठो पातो, किती क्रिया कहिवायो रे ? ४२. जिन कहे ज्यां लग जे नर तरु नो मूल हलाई गई रे । त्यां लग तेह पुरुष काइयादिक, पंच क्रिया फर्शाड़े रे ।। ४३. जे पिण जीव तणां तनु सेती, जेह मूल निपजायो रे । यावत बीज निपायो ते पिण, पंच क्रिया फर्शायो रे ॥ ४४. अथ प्रभु ! मूलज निज भारे करि, यावत जीव हणाणो रे । तेह पुरुष भगवंत तिवारे, किती क्रिया फर्शाणो रे ? ४५. जिन कहै ज्यां लग मूल पोतानों, बाबत जीव हणाणो रे । त्यांलग तेह पुरुष काइयादिक, प्यार क्रिया फर्शाणो रे ।। ४६. जे पि जीव तणां तनु सेती, यावत बीज निपायो ते पिण, ४७. जे पिण जीव तणां तनु सेती, ते पिण जीव काइया यावत, पंच ४८. जे पिण जीव स्वभावे करि तल, वर्त्तेत उपकारे ते पिण, पंच जेह कंद निपजायो रे । प्यार क्रिया फर्शायो रे ।। जेह मूल निपजायो रे । त्रिया फर्शायो रे ॥ मूल पड़तां ताह्यो रे । क्रिया फर्शायो रे ।। वृक्ष-कंद स्यूं सम्बन्धित क्रिया ४९. पुरुष प्रभु ! तरु-कंद हलावत, ए जिन कहै ज्यां लग जे नर बाबत ८० ५०. जे पिण जीव तणां तनु सेती, जेह यावत बीज निपायो ते पिण, पंच *लय इम सतगुरु जीवां नं समझावै भगवती जोड़ धुर प्रश्न पुछायो रे । पंच क्रिया फर्शायो रे ॥ मूल निपजायो रे । क्रिया फर्शायो रे ।। ३८. ये चाधोनिपततस्तालफलस्योपग्र हे उपकारे वर्त्तन्ते जीवास्तेऽपि पञ्च क्रियाः, वधे तेषां निमित्तभावस्य बहुतरत्वात्, (१० १० ७२१) ३९. एतेषां च सूत्राणां विशेषतो व्याख्यानं पञ्चमशतोक्तकाण्डक्षेप्तृपुरुषसूत्रादवसेयम्, (१०० ७२१) ४०. एतानि च फलद्वारेण षट् क्रियास्थानान्युक्तानि, मूलादिष्वपि षडेव भावनीयानि, ( वृ० प० ७२१) ४१. पुरिसे णं भंते! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? ४२. गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेइ वा पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जात पंचाहि किरियाहि पुट्ठे । ४३. जेसिपि जीवाणं सरीरेहितो मुले निव्यत्तिए जाव बीए निव्वत्तिए, ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा 1 (१०१००७) ४४. अहे णं भंते! से मूले अप्पणी गरुययाए जाव जीवियाओ ववरोवेति, तए णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए ? ४५. गोयमा ! जावं च णं से मूले अप्पणो गरुययाए जाव जीवियाओ ववरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहि पुट्ठे । ४६. जैसिपि णं जीवाणं खरीरोहितां दे निव्यत्तिए जाव बीए निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव चउहि किरिवाहि पुद्रा । ४७. जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो मूले निव्वत्तिए ते णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा । ४८. जे विय से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे वट्टति ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरिवाहि पुट्ठा। (श० १७१८) ४९. पुरिसे णं भंते! रुक्खस्स कंदे पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स कंद पचालेइ वा पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंर्चाह किरियाहि पुट्ठे । ५०. जेसिपि जीवाणं सरीरेहितो मुले निव्यत्तिए जाव बीए निव्वत्तिए ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुढा ( श० १७१९ ) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. अथ प्रभु ! ते कंद प्रश्नज तोजो, यावत से कंद ताह्यो । निज भारे करि जाव क्रिया चिडं, तेह पुरुष फर्शायो रे ।। ५२. जे पिण जीव तणां तनु सेती, जेह मूल निपजायो रे । खंध निपायो ते पिण जीवा, यावत चिउं फर्शायो रे ।। ५३. जे पिण जीव तणां तनु सेती, जेह ते पिण जीवा यावत कहिये पंच कंद निपजायो रे ।। किया फर्शायो रे ।। ५४. जे पिण जीव स्वभावे करिनें हेठे पडतां ताह्यो रे । तसु उपकारे पंख प्रमुख छै, पंच क्रिया तसु थायो रे || ५५. जेम कंद इम जाव बीज लग, जाव शब्द में जाणी रे । खंध त्वचा अरु साल प्रवालज, पत्र पुष्प फल माणी रे || सोरठा । ५६. किवाधिकार थकीज, शरीर इंद्रिय जोग जं तेह विषेज कहीज, परूपणा क्रिया तणी ॥ ५७. * प्रभु! शरीर परूप्या कतिविध ? जिन कहै पंच प्रकारो रे । औदारिक तत् प्रथम परूप्यो, जाव कार्मण धारो रे ।। ५८. हे प्रभु! इंद्रियकितली परुपी ? जिन कहे पंच प्रकारो रे । श्रोतेंद्रिय यावत फशेंद्रिय, ए द्रव्य - इंद्रिय धारो रे ।। ५९. हे प्रभु! जोग परूप्या कतिविध ? जिन कहे तीन प्रकारी रे। मन वचन काया नां जोग छै, ए पिण द्रव्य अधिकारो रे ।। ६०. इक जीव औदारिक तनु निपजावत, किती क्रिया प्रभु ! संचो रे ? जिन कहे तीन क्रिया द्वं कदाचित, कदा प्यार कदा पंचो रे । । करि तदा ।। सोरठा ६१. औदारिक जिह वार, पर-परिताप अभाव निपजावतांज धार, तीन क्रिया तसु ह्न ६२. करतो पर-परिताप, निपजावै ए तनु च्यार क्रिया तसु प्राप, पिण नहि तेहने पंचमी ॥ ६३. औदारिक जिह वार, निपजावतोज पर तणां । जीव काया करें न्यार, पंच क्रिया तेहनं तदा ।। यदा । *लय इम सतगुरु जीवां ने समझावं ५१. अहे णं भंते ! से कंदे अप्पणी गरुययाए जाव जीनिवाओ वदति तए णं भते से पुरिमे 'कति किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से कंदे अप्पणी गरुययाए जाव जीवियाओ ववरोवेति तायं ष णं से पुरिये काइवाए जाव चहि किरियाहि पुट्ठे । ५२. जेसिपि जीवाण सरीरेहितो मूले निव्यत्तिए, बंधे निम्यत्तिए जाव बीए निव्यसिए से विणं जीवा काइयाए जाव चउहि किरिया हि पुट्ठा । ५२.पि जीवाणं सरीरेहितो कंदे नितिए ते णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा । ५४. जे वि य से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे वट्टति ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा । ५५. जहा कंदे, एवं जाव बीयं । (श० १७।१०) "एवं जाव बीर्य' ति अनेन कन्दाणीव स्क वालपुष्पी जत्राव्यध्येयानीति सूचितम्। ( वृ० प० ७२१) ५६. क्रियाधिकारादेव शरीरेन्द्रिययोगेषु क्रियाप्ररूपणार्थमिदमाह -- (० ०७२१) ५७. कति णं भंते ! सरीरंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा ओरालिए जाव कम्मए । ( श० १७/११ ) ५८. कति णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहा सोइंदिए जाव फासिदिए । (० १७।१२) ५९. कतिविहे णं भंते ! जोए पण्णत्ते ? गोवमा ! तिविहे जो जोए काजोए । ६०. जीवे णं भंते ! 3 तं तं वहा मणजोए, (१० १०/१२) ओलसर निव्वतेमाणे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकरिए । ६९. यदा औदारिकशरीरं परपरितापाद्यभावेन निर्वर्तयति तदा त्रिक्रियः ( वृ० प० ७२२) कुर्वस्तन्निर्वर्तयति तदा ९२. यदा तु परपरितापं चतुष्षयः, ( वृ० प० ७२२) ६३. यदा तु परमतिपातयंस्तन्निर्वर्त्तयति तदा पञ्चक्रिय इति । (२०१० ७२२) श० १७, उ० १, ढाल ३६२ ८१ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. *एवं पुढवीकायिक कहिये, जाव मनुष्य इम जाणी रे । एक वचन करि एह कह्या छ, हिव बहु वचन पिछाणीरे ।। ६५. बहु जीव औदारिक तनु निपजावत, __किती क्रिया भगवंतो रे ? जिन कहै तीन क्रियावंत पिण ह,वलि चिउं पंच कहंतो रे ।। सोरठा ६६. पृथक दंडक पेख, कदाचित कहिवू नथी। इक काले पिण देख, त्रिण चिउं पंच क्रिया हुवै ।। ६७. *इम पृथ्वीकायिक बहु वचने, जाव मनुष्य इम कहियै रे। इम वैक्रिय तनु नां दो दंडक, णवरं छै जसु लहियै रे ।। ६४. एवं पुढविकाइए बि । एवं जाव मणुस्से । (श० १७.१४) ६५. जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणा कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि। ६६. पृथक्त्वदण्ड के स्याच्छब्दप्रयोगो नास्ति, एकदाऽपि सर्वविकल्पसद्भावादिति । (वृ०प० ७२२) ६७. एवं पुढविकाइया वि । एवं जाव मणुस्सा । एवं वे उब्वियसरीरेण वि दो दंडगा, नवरं जस्स अत्थि वे उब्वियं। ६८, एवं जाव कम्मगसरीरं । एवं सोइंदियं जाव फासि दियं । एवं मणजोगं, वइजोगं, कायजोग । ६९. जस्स जं अस्थि तं भाणियब्वं । एए एगत्तपुहत्तण छब्बीसं दंडगा। (श० १७।१५) ६८. एवं यावत शरीर कार्मण, श्रोतेंद्रिय प्रति एमो रे । यावत फर्श द्रिय निपजावत, जोग त्रिहं पिण तेमो रे ।। ६९. जेहन जे छ ते तिहां भणवा, तनू इंद्रिय – जोगो रे । ए तेरै इक बहु बचने करि, छबीस दंडक प्रयोगो रे ।। सोरठा ७०. पूर्व क्रिया ख्यात, जीव तणे भावे हवै। ते माटै अवदात, भाव तणो कहियै हिवै ।। ७०, अनन्तरं क्रिया उक्तास्ताश्च जीवधर्मा इति जीवधर्माधिकाराज्जीवधर्मरूपान् भावानभिधातुमाह ---- (वृ० प० ७२२) भाव पद ७१. *हे प्रभु ! भाव परूप्या कतिविध, जिन कहै षट विध भावो रे । उदय अनैं उपशमिक जीव, वलि सन्निपातिक ते मिलावो रे ।। ७२. अथ स्यूं कहियै उदय भाव ते, जिन कहै द्विविध जन्नो रे। उदय अष्ट कर्मा प्रति कहिये, दूजो उदय-निपन्नो रे ।। ७१. कतिविहे णं भंते ! भाव पण्णते ? गोयमा ! छविहे भावे पण्णत्ते, तं जहा ओदइए, ओवस मिाा जाव (सं० पा०) सन्निवाइए। (श० १७॥१६) ७२. से कि तं ओदइए? ओदइए भावे दुविहे पणत्ते, तं जहा उदए य, उदयनिष्फन्ने य। ७३. एवं एएणं अभिलावणं जहा अणुओगदारे (सू०२७१) छन्नामं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं । ७४. जाव सेत्तं सन्निवाइए भावे । (श० १७३१७) सेवं भंते ! सर्व भंते ! ति। (श० १७११८) ७३. इम एणे आलावे करिने, जिम अनुयोगजद्वारो रे। तिहां षट नाम कह्या तिमहिजजे, भणिवो सह विस्तारो रे ।। ७४. जाव से तं सन्निवाइए, भावे सेवं भंते ! जाणी रे । सतरम शत नों प्रथम उद्देशक, अर्थ अनुपम वाणी रे ।। ७५. ढाल तीनसौ दोय साठमी, भिक्षु भारीमाल ऋषिरायो रे। तास प्रसादे गण सुख संपति, जय-जश' हरष सवायो रे ।। सप्तदशशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥१७॥१॥ *लय : इम सतगुरु जीवां में समानार्थ ८२ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूहा १. प्रथम उद्देशक अंत में, भाव कह्या छै भाववंत तो अ संयत आदि २. संयत आदि तणो हिवं, द्वितीय उदेशे श्रोता चित दे सांभलो, जिन वच तरणी ढाल : ३६३ धर्म-अधर्म-स्थित पद * देव जिनेंद्र दयाल नीं, वर वाण सुधा सुखदाया हो लाल । गोयम गणधर गुणनिला, ३. हे प्रभु! ते निश्च करि, ताय । कहाय ॥ भाव | नाव ॥ वर प्रश्न छटा हृदयाया हो लाल ।। [ ध्रुपदं ] हणिया पाप कर्म पचखाणे करी ओ तो संयत विरत शोभाया हो लाल । तिके संजम में रहिवाया हो लाल ? ४. असंजती ने अविरती, तिण पचखाणे करि ताहि हो लाल । पाप कर्म हणिया नथी, तिको रह्यो अधर्म मांहि हो लाल ? ५. संयतासंयतवंत ते रह्यो धर्म-अधर्म रे मांय हो लाल ? जिन कहै हंता गोयमा ! जिम पूछयो तिम कहिवाय हो लाल ।। ६. हे प्रभु ! एह धर्म विषे, वलि अधर्म नं विषे सोय हो लाल । धर्म-अधर्म विषे वली, कोइ बेसवा समर्थ होय हो लाल ।। ७. जाव ति ऊपर सूवा कांद, समर्थ है जिनराय हो लाल ? जिन कहे अर्थ समर्थ नहीं, बलि गोतम पछे बाय हो लाल ।। ८. सेकेणं खाई अट्ठे प्रभु कांड, इम कहिये जिनराय हो लाल । रहिवा समर्थ नांय हो लाल ? पाप कर्म पचखत हो लाल । धर्म विषे रह्यो धर्म नैं, अंगीकार करी विचरंत हो लाल ।। जाव धर्म-अधर्म विधे कांड, ९. श्री जिन भाखै संयती, जाव सोरठा की। १०. धर्मादिक तेह सुविचार, तेह अमूर्तपणां विषे अवधार, सण समर्थ को नहीं ॥ ११. "असंयति यावत तिको, पाप कर्म नहीं पचत हो लाल । अधर्म विषे रह्यो तिको, अधर्म अंगीकरी विषरंत हो लाल ।। सोरठा १२. धर्म इहां आख्यात सर्व विरति संवर भणी । अधर्म अविरत थात, पिण कथन नहीं निर्जरा तणो ।। ' ( ज.स.) *सव धूमधूमाल पाचशे १२. प्रथमोद्देशकान्ते भावा उक्तास्तद्वन्तश्च संयतादयो भवन्तीति द्वितीये ते उच्यन्त इत्येवंसंबद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् - ( वृ० प० ७२२) ३. से नूणं भंते ! संजत-विरत पडित पंचक्खातपावकम्मे धम्मे ठिते ? 'धम्मे' त्ति संयमे ( वृ० प० ७२३) ४. अस्संजत अविरत अप-अपचवातपायकम्मे अधम्मे ठिते ? ५. संजतासंजते धम्माधम्मे ठिते ? हंता गोयमा ! संजत-विरत - जाव (सं० पा० ) धम्माधम्मे ठिते । ( ० १०१९) ६. एयंसि णं भंते ! धम्मंसि वा अधम्मंसि वा, धमाधम्मंसि वा चक्किया केइ आसइत्तए वा, ७. जाव (सं० पा० ) तुयट्टित्तए वा ? इट्ठे समट्ठे । गोयमा ! नो (०१७/२० ) ८. से केणं खाईं अट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ जाव संजता संजते धम्माधम्मे ठिते ? ९. गोयमा ! संजत विरत जाव (सं० पा० ) पावकम्मे धम्मेठिले धम्मं चैव उपसंपति विहरति । 2 १०. धमदिरात् मूर्त एवं वासनादिकरण - त्वादिति । (१० १०७२३) ११. अस्संजत - जाव (सं० पा० ) पावकम्मे अधम्मे ठिते, अधम्मं चेव उवसंपज्जित्ताणं विहरति । श० १७, उ०२, ढाल ३६३ ८३ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. संयतासंयती छे तिको, रह्यो धर्म-अधर्म रे मांह्यो हो लाल । विचरै धर्म अधर्म अंगीकरी, कांइ तिण अर्थे कहिवायो हो लाल ।। सोरठा १४. अथ हिव धर्म उदार, सर्व विरति स्थित्यादि जे। दंडक विषे विचार, करें निरूपण प्रितं ॥ १५. जीव बहु भगवंत जी ! रह्या धर्म विरति विषे तेह हो लाल । के अधर्म व्रत में रह्या, धर्माधर्म विषेज रहेह हो लाल ? १६. जिन कहे जीव धर्म विषे रह्या, तेह संवती पवित्त हो वाल । अधर्म विषे रह्या अवती, श्रावक धर्माधर्मी स्थित्त हो लाल ।। १७. नेरश्या नीं पूछा कियां, जिन कई धर्मो न रहाय हो । रह्या अधर्म विषे तिके, धर्माधर्म विषे रह्या नांय हो लाल ।। १८. एवं जान चउरिद्रिया तिरि-पंचेंद्रिया पूछाय हो लाल । जिन कहै तिरि-पंचेंद्रिया, तिके धर्म विषे रह्या नांय हो लाल ।। १९. अधर्म विषे रह्या अछे तिके, अव्रती चिडं गुणठाण हो लाल । धर्माधर्म विषे रह्या, ते तो देश विरतियंत जाण हो लाल ।। २०. मनुष्य जीव जिम हिं विधे व्यंतर जोतिथि वैमानीक हो लाल । कहिवा नारक नीं परं, एकांत अव्रती कथीक हो । सोरठा २१. कह्या ए संजती आद, तेह पंडितादिक ि बाद देखाड़े अन्ययुथिक मत ॥ बाल पंडित पद २२. अन्यतीधिक प्रभु! दम कहे कांइ, जाव परूपे एम हो लाल । इम निश्वं करि भ्रमण ते कांद, पंडित कहिये तेम हो लाल ।। २३. श्रमणोपासक ने कहा। कांइ, वालपंडित अवधार हो लाल । ए बिहु पक्ष कहै अछे कांइ, अन्यतीर्थी तिह वार हो लाल ।। सोरठा २४. श्रमण पंडित पंडित बाल सुदरख प्रथम पक्ष ए आखियो । श्रावक्क, ए दूजो पक्ष जाणवूं || २५. ए बेहं न्याय, जिन भावं तिमहिज का द्वितीय पक्ष प्रति ताय, दूषवता ते इम कहै | पक्ष बा० - 'समणा पंडिया समणोवासगा बालपंडिया' ए बे पक्ष तो तीर्थंकर ने मानवा जोग्य हीज है । हिवं 'समणोवासगा बालपंडिया' - ए दूजा पक्ष प्रत दूषवा ते अन्यतीर्थी इम कहे * लय : घूमघूमालो घाघरो ८४ भगवती जोड़ १३. संजतासंजते धम्माधम्मे ठिते, धम्माधम्मं उवसंपज्जिताणं विहरति । से तेणट्ठेणं जाव धम्माधम्मे ठिते । ( ० १७।२१) १४. अथ धर्म्मस्थितत्वादिकं दण्डके निरूपयन्नाह( वृ० प० ७२३ ) १५. जीवा णं भंते ! कि धम्मे ठिता ? अधम्मे ठिता ? धम्माधम्मे ठिता ? १६. गोयमा ! जीवा धम्मे विठिता, धमाधम्मे विठिता । १७. नेरइयाणं पुच्छा 1 गोयमा ! नेरइया नो धम्मे ठिता, अधम्मे ठिता, नो धम्माधम्मे ठिता । १८. एवं जाव चउरिदियाणं । पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । गोमा ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया नो धम्मे ठिता, १९. अधम्मे ठिता, धम्माधम्मे वि ठिता । अधम्मे विठिता, ( श० १७/२२ ) २०. मणुस्सा जहा जीवा । वाणमंतर जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । (श० १७/२४) २१. संयतादयः (० १०।२३) प्रागुपदर्शितास्ते च पण्डितादयो व्यपदिश्यन्ते, अत्र चार्थेऽन्ययूथिकमतमुपदर्शयन्नाह( वृ० प० ७२३ ) २२. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खति जाब परूवेंति - एवं खलु समणा पंडिया, २३. समगोवासवा बालयि २४, २५. 'समणा पंडिया समणोवासया बालपंडिय त्ति एतत् किल पक्षद्वयं जिनाभिमतमेवानुवादपरतयोक्त्वा द्वितीयपक्षं दूषयन्तस्ते इदं प्रज्ञापयन्ति(व० प० ७२३ ) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. *इक पण जीव हणवा तणां अपराध सहित त्रस जीव नां जिण कीधा नहिं पचखाण हो लाल । तथा पृथव्यादिक नां जाण होतात ॥ २७. तेह एकांत बाल छै कांइ, एहवो तास कहाय हो लाल । अन्यतीर्थी प्रभु ! इम कहै, किम ए वचन छै ताय हो लाल ? सोरठा २८. इक पिण जंतू जेह, हणवा नों आगार तसु । बालपंडित नहि तेह, एकंत बाल कहीजिये || २६. तो बलि जेहनें जोय, बहु जीव मारण रा त्याग ते। बाल-पंडित कम होय, ए अन्यतीर्थी वच किम प्रभु ? ३०. *इम गोतम ! प्रश्न पूछयां हिव उत्तर दे जिन सोय हो लाल । जे अन्यतीर्थिक इस कहे, जाव वक्तव्यता दम होय हो लाल ।। ३१. जे ते ए पूर्वे का तिको, मिथ्या वच आख्यात हो लाल । बलि गोयम ! इम कहूं कां जाव परुयूँ बात हो लाल ।। ३२. दम निश्चैकरिश्रमण ने कांड पंडित कहिये विमास हो लाल । श्रमणोपासक ने कह्या कांइ, बालपंडित गुणरास हो लाल ।। ३३. जिण इक पिण जीव हणवा तणो कांइ, 1 त्याग कियो अवलोय हो लाल । वक्तव्यता इम होय हो लाल हो । सोरठा त्याग किया हणवा तणां । बालपंडित कहिये तसु ॥ एकांत बाल तिको नहीं कांड, ३४. इक पिण प्राण सुजोय, एकांत बाल न होय, ३५. विरति अंश छै जास, मिश्रपणां थी तास, *लय : घूमघूमालो घाघरो तेह बालपंडित श्रावक सद्भावे दूहा ३६. जीवादिक पूछे दंडक विषे, बालादिक गोयम गणहरू, प्रवर प्रश्न ३७. "हे भगवंत ! जीवां भणी कांद, बात कहीजे ताय हो लाल । के पंडित कहिये अछे तथा बालपंडित कहिवाय हो लाल ? ३८. जिन भाखं जीवां भणी कांइ, बाला पिण कहिवाय हो लाल । वलि कहिये तसु पंडिया, कहिये बालपंडित पण ताय हो लाल ।। की। कह्यो । अवदात । विख्यात || २६. जस्स णं एगपाणाए वि दंडे अणिक्खित्त 'जस्स' त्ति येन देहिना 'एकप्राणिन्यपि' एकत्रापि जीवे सापराधादी पृथ्वीकायिकादौ वा, ( वृ० प० ७२३ ) (श० १७२४) २७. सेवाले वित्तव्यं सिया से हमे भते । एवं ? २८,२९. 'अनिक्षिप्त:' अनुज्झितोऽप्रत्याख्यातो भवति स एकान्तबाल इति वक्तव्यः स्यात् एवं च श्रमणोपासका एकान्तबाला एव न बालपण्डिताः, एकान्तबालव्यपदेशनिबन्धनस्यासर्व प्राणिदण्डत्यागस्य भावादिति परमतम् । ( वृ० प० ७२२) ३०. गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खति जाव एगंतवाले त्ति वत्तव्वं सिया, ३१. जे ते एवमाहं मिच्छेते एवमाहं अहं पुण गोयमा ! एवमाक्खामि जाव परूवेमि ३२. एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासगा बालपंडिया ३३. जस्स णं एगपाणाए वि दंडे निक्खित्ते से णं नो एगंतबाले त्ति वत्तव्वं सिया । ( श० १७।२६) ३४. स्वमतं त्वेकप्राणिन्यपि येन दण्डपरिहारः कृतोऽसौ नैकान्तेन बाल, कि हि ? वापतिः (५० १०७२३) ३५. विसावेन मत्वात्तस्य एतदेवाह - 'जस्स ण' मित्यादि । (१० १०७२३) ३६. देवमात्यादि जीवादिषु निरुपयन्नाह - (बृ० प० ७२३) ३७. जीवा णं भंते ! कि बाला ? पंडिया ? बालपंडिया ? ३८. गोयमा ! बाला वि, पंडिया वि, बालपंडिया वि । (१० १७।२७) श० १७, उ० २, ढाल ३६३ ८५ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनो आद, तिहां पंडित आदि संवाद | पिण अर्थ की नहि भेद || विशेषण क्रिया मुनि आधार | इम को टीका है मांय ॥ ३९. ह्या पूर्व संयत तिणरो शब्द भी भेद संवेद, ४०. तो पिग संयतपणां नो विचार, पंडितपणादि बोधि पेक्षाय ४१. रानीं पूछा कियां, जिन भाखं बाल कहाय हो लाल । पंडित नहीं है नेरइया, बलि बालपंडित पण नांय हो लाल । ४२. एवं जाव चद्रिया कांद्र, तिरिοपंचेंद्रिय ताय हो वाल । प्रश्न तास पूछयां थकां तव भाखे थी जिनराय हो लाल । ४३. पंचेंद्रिय तिरखजोगिया कोई बात कहीजे सोय हो लाल । पंडित त कहिये नहीं, तिके वालपंडित पिण होय ही लाल ।। ४४. मनुष्य जीव जिम जाणव, कोइ वाणव्यंतर पहिछाण हो लाल । 1 ज्योतिषी देव वैमानिया कांड, नारक नीं पर जाण हो लाल || ४५. शत सतरम देश दूजा तणो, तीनसौ त्रेसठमी ढाल हो जाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल हो लाल ।। ढाल : ३६४ दूहा १. अन्ययूथिक अधिकार थी, अन्ययुचिक कहै तेहनो, जीव जीवात्मा एकत्व पद वलि जे मिथ्या बात । गोयम प्रश्न वदात रंगोयम गणधार, प्रभु ने पूछ्या प्रश्न उदार ॥ ( ध्रुपदं) २. अन्यतीर्थिक प्रभु ! इम कहै वान, कां जाव परूपै जान । इम निश्चै करि कहिवाय, कांइ प्राणातिपात रे मांय || ३. मृषावाद विषे पिण ताहि, जाव मिथ्यादर्शणसल्य मांहि । व ते अन्य जीव पहिछाण, कोइ अन्य जीवात्मा जाण ॥ ४. प्राणातिपात वेरमण सोय, जाव परिग्रह- वेरमण जोय । क्रोध विवेक ते क्रोध ने टाले, आतम नैं उजवाले || ५. जाव मिथ्यादर्शणसल्य विवेक, टाले पाप अठार विशेख | तेहविषे वर्तमान सूजन्य अन्य जीव जीवात्मा अन्य ६. च्यार बुद्धि उत्पत्तिया आदि, जाव परिणामिया संवादि । तेह विषे वर्तमान कथन्न, अन्य जीव जीवात्मा अन्न । *लय : घूमघूमालो घाघरो +लय : दसकंधर राजा रावण ८६ भगवती जोड़ ३९. प्रागुक्तानां संपादीनामिहोक्तानां च पण्डि तादीना यद्यपि शब्दत एवं भेदो नार्थतः ( वृ० प० ७२३ ) ४०. तथाऽपि संयतत्वादिव्यपदेशः क्रियाव्यपेक्षः पण्डितःत्यादिव्यपदेशेष इति । ( वृ० प० ७२३ ) ४१. नेरइयाणं पुच्छा । गोयमा ! नेरइया बाला, नो पंडिया, नो बालपंडिया । ४२. एवं जाव चउरिदिया । पंचिदियतिरिखजोणियाणं पुच्छा ४३. गोयमा ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया बाला, पंडिया, वालपंडिया वि । ( ० १०.२८ ) १. अन्ययूथिक प्रक्रमादेवेदमाह ४४. मणुस्सा जहा जीवा । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जया नेरइया । ( ० १७२९) नो ( वृ० प० ७२३) २. अण्णउत्थिया णं भंते ! परूवेंति एवं खलु पाणातिवाए, ३. मुसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले वट्टमाणस्स अ जीवे, अण्णे जीवाया । ४. पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे एवमाइक्खति जाव ५. जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे वट्टमाणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया । ६. उप्पत्तियाए जाव (सं० पा० ) पारिणामियाए माणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. अवग्रह ईहा अवाय कहाय, वलि धारणा माय । तेह विषे वर्तमान कथन्न, अन्य जीव जीवात्मा अन्न ।। ८. उट्ठाण जाव पराक्रम जान, तेह विषे वर्तमान । जाव जीवात्मा अन्य कहाय, तिणमें वत्तै ते जीव नाय ।। ९. नारक तिरिख मनुष्य मर जान, तेह विपे वर्तमान । जाव जीवात्मा अन्य कहाय, यांमे वर्तं ते जीव नांय ।। १०. ज्ञानावरणी जावत अंतराय, यामें वर्तमान जे ताय । जाव जीवात्मा अन्य कहाय, या में वत्त ते जीव नाय ।। ११. एवं कृष्ण लेश्या रै मांहि, जाव शुक्ल लेश्या में ताहि । वलि समदृष्टि आदि पहिछाण, तीन दृष्टि में जाण ।। १२. इम चक्षु आदि दर्शण चिउं संच, आभिनिबोधि प्रमुख ज्ञान पंच । मति प्रमुख जे तीन अनाण, आहारादिक चिउं संज्ञा जाण ।। ७. ओग्गहे ईहा अवाए धारणाए वट्टमाणस्स अण्णे __जीवे, अण्णे जीवाया। ८. उट्ठाणे जाव (सं० पा०) परक्कमे वट्टमाणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया। ९. नेरइयत्ते तिरिक्ख-मणुस्स-देवत्ते वट्टमाणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया। १०. नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए वट्टमाणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया। ११. एवं कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए, सम्मदिट्ठीए मिच्छदिट्ठीए सम्मामिच्छदिट्ठीए, १२. एवं चक्खुदंसणे अचक्खुदंसणे ओहिदसणे केवलदसणे, आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे ओहिनाणे मणपज्जवनाणे केवलनाणे, मतिअण्णाणे सुयअण्णाणे विभंगनाणे, आहारसपणाए भयसण्णाए मेहुणसण्णाए परिग्गहसण्णाए, १३. एवं ओरालियसरीरे वेउव्वियसरीरे आहारगसरीरे तेयगसरीरे कम्मगसरीरे, एवं मणजोगे बइजोगे कायजोगे, सागारोवओगे, अणागारोवओगे १४. वट्टमाणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया। (श० १७।३०) १५. से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा ! जणं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु । १६. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु पाणातिवाए १७. जाव मिच्छादसणसल्ले वट्टमाणस्स सच्चेव जीवे, सच्चेव जीवाया १३. इम पंच शरीर ओदारिक आद, इम मन योगादिक वाद। सागार नै अणागार विचार, इम उपयोग दोय प्रकार ।। १४. एह सर्व विष वर्तमान, अन्य जीव पहिछान । जीवात्मा पिण अन्य कहाय, यांमे वर्ते ते जीव नाय ।। १५. अन्यतीर्थी जे वदै इम वाण, ते किम हे भगवान ? जिन कहै अन्यतीर्थी इम आखै, यावत झूलूं भाखै ।। १६. हं वलि गोयम ! आखं एम, जाव परूपू तेम। इम निश्चै करिनै कहिवाय, प्राणातिपात रै माय ।। १७. जाव मिथ्यादर्शणसल्य जान, तेह विषे वर्तमान । तेहिज जीव कहिजै सोय, तेहिज जीवात्मा होय ।। सोरठा १८. 'अष्टादश अघस्थान, तह विषे वर्तमान तस । जीव कह्यो भगवान, ए जीव तणी पर्याय है ।। १९. सेवै पाप अठार, पाप विषे इम वर्ततो। एही आश्रव द्वार, तिणसू आश्रव जीव है ।। २०. द्रव्य जीव नी जोय, जेह पर्याय अनंत में। जीव कहीजे सोय, भाव जीव ए जाणवो।। २१. छेद्यो नहिं छेदाय, त्रिहं काले पिण शाश्वतो। जीवात्मा कहिवाय, द्रव्य जीव ए जाणवो।। २२. जीव जीवात्म कहीव, तिणमें अत्यंत जुदापणों नथी । तिणसं तेहिज जीव, तेहिज जीवात्मा वली ।। २३. अन्यतीथिक अविचार, द्रव्य जीव पर्याय नैं। सरधै अत्यंतज न्यार, तिणस तेहनो मत मिथ्या ।। श० १७, उ०२, रा. ३६४ ८७ Jain Education Intemational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. श्री जिन वचन विख्यात द्रव्य अने पर्याय विहे जीव राशि में आत, तिणसूं तेहिज जीव जीवात्मा । ' ( ज.स.) वा०-- 'आउखा ने बले जीवं ते जीव । नारकादि पर्याय अन जीवात्मा ते सर्व भेद र अनुगामी ते कड़े वर्तनवालो द्रव्य जीव । एतले जीव नीं अनंती पर्याय छे, ते भाव जीव । तेहने जीव कहिये। अने ते पर्याय नैं केड़े, असंख्यात प्रदेश रूप द्रव्य जीव, तेहने जीवात्मा कहिये । द्रव्य पर्याय नो अत्यंत भेद ते जुदापणों नथी, ते मार्ट तेहिज जीव अन तेहिज जीवात्मा । द्रव्य जीव नै द्रव्य जीव नीं पर्यायए बिहु जीव राशि में कहिये पिण जीव राशि थकी अनेरा न (.स.) कहिये ते मार्ट । ' २५. पुद्गल पाप अठार, जीव तणी पर्याय नहीं। अजीव राशि महार, चउफर्शी द्वादशम शत || २६. *जाव अनाकार उपयोग जान तेह विषे वर्त्तमान । तेहिज जीव कहीजे ताम तेहिज जीवात्मा नाम ।। सोरठा २७. 'त्यागै पाप अठार, ए संवर पर्याय जीव नीं । वर्त्ते तेह मकार, तेहिज जीव जीवात्म फुन ॥ २८. उत्पत्तियादिक प्यार, बुद्धि जीव पर्याव छै । वर्त्ते तेह मकार, तेहिज जीव जीवात्म फुन । २९. अवग्रहादिक मति च्यार, जीव तणी पर्याय ए । वर्त्ते तेह मझार, तेहिज जीव जीवात्म फुन ॥ ३०. उट्ठाण आदि विचार जीव तणी पर्याय ए वर्त्ते तेह मकार, तेहिज जीव जीवात्म फुन ।। ३१. उद्वाण कम्म बल ताम, वीर्य पुरस्कारादि में । कह्या अरूपी स्वाम, बारम शत पंचम उदे' || ३२. भाव जोग छे एह कहिये जोगाथव तसु । जीव राशि में जेह, ए रूपी पुद्गल नथी । ३३. भाष गती जे प्यार, जीव तणी पर्याय छे व तेह मझार तेहिज जीव ३४. कर्म आइ धार, पुद्गल वर्त्तं व तेह मकार, मकार, तेहिज जीव २५. ज्ञानावरणी आद, बांधण नैं वेदण तणां । जीवात्म फुन ॥ नीं पर्याय छै । जीवात्म ही || जीव परिणाम संवाद, जीव तणी पर्याय छै । ३६. ते पर्याय विषेह, द्रव्य जीव पिण के छे। तेहिज जीवात्मा वली ॥ जीव तणीं पर्याय नहीं । चिहुंफर्शी द्वादशम शत ॥ जीव तणी पर्याय है। वर्त्ते जीव जीवात्म ते ।। तिणसं जीवज तेह, २७. पिण आद कर्म, पुद्गल नों ए धर्म, ३८. भाव लेश कृष्णादि, तेह विषे संवादि, *लय दसकंधर राजा रावण १. ८८ भगवती जोड़ २५.''''पाणाइवाए मुसावा चउफासे पण्णत्ते । २६. जाव अणागारोवओगे सच्चैव जीवाया । पंचवणे, दुगंधे, पंचर (४० १२ १०२-१०७) वट्टमाणस्स सच्चेव जीवे, (२० १७३१) २७. अह भंते! पाणाइवायवेरमणे अगंधे अरसे, अफासे पण्णत्ते । २८. अह भंते ! उप्पत्तिया अवण्णा, गोयमा ! अवणे, (भ० १२ १०८) अगंधा, अरसा, ( भ० १२ १०९ ) अफासा पण्णत्ता । २९. अह भंते ! ओग्गहे, अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पण्णत्ता । ( भ० १२ ११० ) ३१. अह भंते! उगे अवणे, गंधे, अरसे, अफासे पण्णत्ते । ( ० १२ १११) **** ३७. नाणावर णिज्जे अंतराइए— एयाणि चउफासाणि । ( ० १२।११६) ३८, ३९ कण्हलेसा णं भंते ! कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता ? जाव Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. अठफर्शी द्रव्य लेश, पुद्गल नों परिणाम छ । दव्वलेसं पडुच्च पचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता । तेह विषे सविशेष, वर्ते जीव जीवात्म ही ।। भावलेसं पडुच्च अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पण्णत्ता। (भ० १२।११७) ४०. तीन दृष्टि कहेह, जीव तणी पर्याय ए। ४०-४२. सम्मदिट्ठी,"...' चक्खुदंसणे..."आभिणिबोहियवत्तै जेह विषेह, तेहिज जीव जीवात्म फुन ।। नाणे जाव विभंगनाणे आहारसणा'... ''एयाणि ४१. तीनं दृष्टि विषेह, वर्ण गंध रस फर्ण नहीं । अवण्णाणि, अगंधाणि, अरसाणि, अफासाणि । द्वादशमे शतकेह, ते माट ए जीव छ ।। (भ० १२।११७) ४२. इम दर्शण चक्षु आदि, पांच ज्ञान अज्ञान त्रिण । चउ संज्ञा आहारादि, जीव तणी पर्याय ए॥ ४३. तनु पंच द्रव्य त्रिण जोग, पुद्गल नो पर्याय है ।। ४३. ओरालियसरीरे... (भ० १२।११७) तास विषे सुप्रयोग, वत्त जीव जीवात्म ही ।। ४४. उट्ठाण कम्म बलादि, भाव योग पूर्वे कह्या । तिणसं एह संवादि, द्रव्य योग संभावियै ।। ४५. साकार ने अनाकार, जीव तणी पर्याय छ । ४५. सागारोवओगे अणागारोवओगे य अवण्ण । वर्तं जेह मझार, तेहिज जीव जीवात्म ही ।। (भ० १२।११७) ४६. जाव शब्द में जान, अघ-विरमणादि आदि ए। विशेष थी कर छाण, न्याय सहित आख्या इहां ।।' (ज० स०) ४७. कहा जीव पर्याय, वली अन्य पर्याय प्रति । आगल कहिये ताय, चित्त लगाई सांभलो॥ रूपी अरूपी पद ४८. *देव प्रभु! जे महाऋद्धिवंत, जाव महेश्वर हुंत । ४८. देवे णं भंते ! महिड्ढिए जाव महेसक्वे पुवामेव पहिला रूपी थई समर्थ तेह, अरूपी विकुर्वी रहेह ? रुवी भवित्ता पभू अरूवि विउविवत्ता गं चिद्वित्तए? यतनी ४९. वांछित काल थी पहिला संध, शरीरादिक पुद्गल संबंध । ४९,५०. पूर्व-विवक्षितकालात् शरीरादिपुद्गलसम्बन्धात् तेह थकी मूर्त जे होय, मूर्त छतो अवलोय ।। मूर्तो भूत्वा मूर्तः सन्नित्यर्थः । ५०. *समर्थ छै ते देव, अरूपी रूपातीत कहेव । प्रभुः 'अरूवि' ति अरूपिणं रूपातीतममूर्तमात्माअमूर्त आत्म प्रति सोय, विकुर्वी रहिवा ते होय ।। नमिति गम्यते, (वृ० प० ७२५) ५१. जिन कहै अर्थ ए समर्थ नाय, किण अर्थे प्रभु ! इम वाय। ५१. नो इणठे समठे। (श० १७१३२) देव यावत नहीं समर्थ लहिवा, अरूपी प्रति विकुर्वी रहिवा।। से केणठेणं भंते! एवं वच्चइ- देवे णं जाव (सं० पा०) नो पभू अरूवि विउवित्ता णं यतनी चिट्ठित्तए ? ५२. हिव भाखै श्री भगवान, निज वचन तणां पहिछान । ५२,५३. 'गोयमा!' इत्यादिना स्वकीयस्य वचनस्याव्यभि___अव्यभिचारी भाव, देखाडिवा अर्थ कहाव ॥ चारित्वोपदर्शनाय सद्धोधपूर्वकतां दर्शयन्नुत्तरमाह-- ५३. पोता नो जे सम्यकज्ञान, पूर्व तेह प्रतै भगवान । (वृ० प० ७२५) देखाड़ता उत्तर देह, ते सांभलजो गुणगेह ।। ५४. *आगल जेह कहूं सुभ सूत, ए प्रश्न नों निर्णयभूत । ५४. गोयमा ! अहमेय जाणामि, ते हूं ज्ञान विशेष थी जाणू, इम वस्तु प्रति पहिछाणू ।। 'अहमेयं जाणामि' त्ति अहम् 'एतत्' वक्ष्यमाणमधिकृतप्रश्ननिर्णयभूतं वस्तु जानामि विशेषपरिच्छेदेनेत्यर्थः (०प०७२५) *लय । बसकंधर राजा रावण श० १७, उ०२, ढाल ३६४ ८९ Jain Education Intemational Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. एह वस्तु सामान्य थी देखं, ते हं दर्शन करिक पेखं । इण वस्तु ने सरधं सोय, बुज्झामि नो अर्थ ए होय ।। ५५. अहमेयं पासामि, अहमेयं बुज्झामि, 'पासामि' ति सामान्यपरिच्छेदतो दर्शनेनेत्यर्थः 'बुज्झामि' त्ति बुद्धये श्रधे, (व०प० ७२५) ५६. बोधेः सम्यग्दर्शनपर्यायत्वात्, (व०प० ७२५) सोरठा ५६. बोधि शब्द ए जोय, श्रद्धावाची छै जिहां । ____सम्यक दर्शण सोय, तसु पर्यायपणां थकी ।। ५७. ए वस्तु अभिसमण्णागच्छामि सोय, अभिविधि सांगत्य करि जोय । सर्व प्रकार करी स्वयमेवा, सन्मुख थाव जाणेवा ।। ५७. अहमेयं अभिसमण्णागच्छामि, 'अभिसमागच्छामि नि अभिविधिना साङ्गत्येन चावगच्छामि सः परिच्छित्तिप्रकारैः परिच्छिनद्मि। (वृ०प०७२५) ५८.५९. अनेनात्मनो वर्तमानकालेऽर्थपरिच्छेदकत्वमुक्तमथातीतकाले गभिरेव धातुभिस्तदर्शयन्नाह .. (३०प० ७२५) सोरठा ५८. इण शब्दे करि जाण, वर्तमान अद्धा विषे । निज आत्मा नो माण, आख्यं परिच्छेदकपणों ।। ५९. हिव जे काल अतीत, तेह इण विषे धातु करि । पहिज अर्थ वदीत, देखाड़तो कहिये हिवै ।। ६०. *म्है एह जाण्यो दीठो एह, म्है ए श्रद्धयो जेह। एह विशेष थकी स्वयमेवा, हूँ मन्मुख थयो जाणेवा ।। ६१. तथा गति देवपणांदि प्रकार, पाम्या जीव नै धार । वर्ण गंधादिक गुणवंत जेह, रूप सहीत - तेह ।। ६२. जीव अरूपी मैं किम वर्णादि, आगल तेह संवादि। __ कर्म पुद्गल नां संबंध थी सोय, वर्ण गंधादिक होय ।। ६३. कर्म संबंध हुवै तसु केम, आगल. कहिये तेम। राग सहित थी कर्म संबंध, लोभ माया युत अंध ।। ६०, मार एवं नायं, मायं दिळं. मम [यं बुद्धं, माए यं अभिममपणागयं ६१. जणं तहागयस्म जीवस्म सविस्म, 'जन्न' मित्यादि, 'तहागयस्म' ति तथागतस्य तं देवत्वादिकं प्रकारमापन्नस्य 'सरू विस्स' त्ति वर्णगन्धादिगुणवतः, (व०प०७२५) ६२. मकम्मरस, अथ स्वरूपेणामूर्तस्य सतो जीवस्य कथमेतत् ? इत्याह 'सकम्मस्स' त्ति कर्मपृद्गलसम्बन्धादिति भावः, (वृ० प०७२५) ६३. सरागस्य, एतदेव कथमित्यत आह 'सरागस्म' त्ति रागसम्बन्धात् कर्मसम्बन्ध इति भावः रागश्चेह मायालोभलक्षणो ग्राह्यः, (व०प०७२५) ६४. सवेदस्स, समोहम्स, 'सवेयग्य' नि स्न्यादिवेदयुक्तस्य, तथा 'समोहस्स' ति इह माहः कलत्रादिषु स्नेहो मिथ्यात्वं चारित्रमोहो वा (वृ० प०७२५) ६५. सलेसस्स, समरीरस्स, ताओ सरीराओ अविप्प मुक्कस्स ६४. तथा स्त्रियादिक वेद सहीत, तथा मोहसहित संगीत । मोह इहां कलत्रादि स्नेह, तथा मिथ्यात्व चारित्र वेह ।। ६५. लेश्या सहित शरीर सहीत, एहवा जीव – संगीत । तेह शरीर थकी अवलोय, अविप्रमुक्त नैं जोय ।। सोरठा ६६. इतरै शरीर सहीत, तेहने जन सामान्य पिण। जाणै एम प्रतीत, ते आगल कहिय अछै ।। ६६. एवं पण्णायति, तं जहा -- ‘एवं' ति वक्ष्यमाणं प्रज्ञायते सामान्यजनेनापि तद्यथा (वृ०प०७२५) ६७. कालत्ते वा जाव सुक्किलत्ते वा, सुब्भिगंधत्ते वा, दुब्भिगंधत्ते वा, ६७. कृष्णपणे अथवा वलि एह, जाव शुक्लपण जेह । सगंधपणे अथवा वलि जाण, दुर्गधपणे पहिचाण।। *लय : दशकंधर राजा रावण ९० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. तिक्तपणे अथवा अवलोय, जाव मधुरपण जोप कर्कश फर्शपणे तथा ताम, जाव रुक्षपणें आम || ६९. तिण अर्थ वावत कहिवाय, रहिवा समर्थ नांय रूप सहित छतो देव तदर्थ, अरूपी विकुर्वण ने समर्थ ॥ ७०. एहिज अर्थ विचार, विपरीतपण करी | खड़ अवधार, कहिय ते सांभलो । ७१. *तेहिज जीव देवादिक जान, पहिला अरूपी थई भगवान ! रूपी आत्म प्रति विकुर्वी सोय, रहिवा समर्थ होय ? ७२. जिन कहे अर्थ ए समर्थ नांय, प्रभु किण अर्थ इम वाय ? जिन कहै हूँ इम जाणं सोप, ज्ञान करी अवलोय || ७३. यावत जे भणी कहिवाय जीव रूप रहित ने कर्म रहित, ७४. वेद रहित मोह सोरठा जं ७७. कर्म रहित सिद्ध हेतु नहीं लिगार, ७८. कर्म अभावे सोय, 7 स्नेह रहीत शरीर रहित शुद्ध संप्रयुक्त, ते ७५. शरीर कार्मण रहित सुजान केवली पण इम जाणं नांहि, ते आगल कहै छै ताहि ।। ७६. कृष्ण वर्णपणे न जाणे तेह जाव लक्षणं न जाणेह | तिण अर्थ करि इम कहिवाय यावत रहिया ताय ॥ *लय : दशकंधर राजा रावण तथागत ताय । राग रहीत वदीत ॥ 1 सोरठा सार, तास कर्म बंधन तणों । तिणसूं अभाव कर्म नों ॥ तसु तनु तणों अभाव छै । अभाव वर्णादिक तणों ॥। सिद्ध अरूपी व वति । रूप विकुर्वी सोय, रहिवा में नैं समर्थ नथी । तनु अभाव थी होय, ७९. इम हेतु थी सोच, ८०. * सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाण, सत्य तुम्हारी वाण । सतरमा शतक तो द्वितीय उद्देश अर्थ थकी सुविशेष || ८१. सिव चौसठमी एढाल जिन वच गरम रसाल । भिक्षु भारीमा ऋषिराम पसाय, 'जय जय' हरप सवाय ।। सप्तदशशते द्वितीयोद्देशकार्थः || १७|२|| लेश रहित पुनीत । शरीर थकी विप्रमुक्त || एहवा सिद्धां में जान ६८. तित्तत्ते वा क्ख वा । ६९. मे तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चद देवे णं महिड्डिए जाव महेसक्से पुव्वामेव स्त्री भवित्ता नो प्रभु विविता गं चिट्टित्तए । ७०. एतदेव विपर्ययेण दर्शयन्नाह जाव महुरते वा कवडते वा जाव (० १०३३) -(०१० ७२५) ७१. सच्चेव णं भंते ! से जीवे पुव्वामेव अस्वी भविता पशु रुवि विउचिता ७२. नो इट्ठे गट्टे । से के जाणामि, भने ! एवं बुच्चड ? (० १७०३४) गोयमा ! अहमेय ७३. जाव (मं० पा० ) जपणं नहागयस्स जीवस्स अविरस, अकम्मरस, अरागस्त, ७८,७५. अवेदस्स, अमोहस्स, अलेस्स, असरीरस्स, ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स नो एवं पण्णायति, तं जहा ७६. कालते वा जाव (सं० पा० ) लक्खते बा | सं गणंजान (सं० पा० ) । (म० १०/२५) ७७. अमृतस्य कम्यन्त्रहेत्वभावेन कर्माभावात् (२०१० ७२५) ७८. तदभावे च शरीराभावाद्वर्णाद्यभावः ( वृ० प० ७२५) ७९. इति भवतीति (० ०७२५ ८०. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति । (० १७३९) श० १७, उ० २, ढाल ३६४ ९१ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३६५ १. द्वितीयोद्देशकान्ते रूपिताभवनलक्षणो जीवस्य धर्मो निरूपितः, तृतीये त्वेजनादिलक्षणोऽसौ निरूप्यते (वृ० प० ७२५) १. द्वितीय उदेशक अंत में, जीव अरूपी भाव । कंपन लक्षण आदि जे, तृतीय उद्देश कहाव ।। एजना पद २. शैलेसी अणगार प्रभु ! सदा प्रमाण-सहीत । कंप अने विशेष थी कंप॑ तेह पुनीत ।। ३. यावत ते-ते भाव प्रति, जेह परिणमै स्वाम? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, णण्णत्थ कहिये ताम ।। ४. एकज पर प्रयोग करि, एजन आदिज थाय । कपै अपर प्रयोग करि, अन्यत्र नहि कंपाय ।। २. मेलेसि पडिवन्नाए णं मंते ! अणगारे सया समियं एयति वेयति ३,४. जाव (सं० पा०) घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमति ? नो इणठे समठे, णण्णत्थेगेणं परप्पयोगेण । (ग० १७।३७) जनादिकारणेषु मध्ये परप्रयोगेण वैकेन शैलेण्यामेजनादि भवति न कारणान्तरेणेति भावः । ___ (वृ० प० ७२६) ५. कतिविहा णं भंते ! एयणा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा -. ६. दवेयणा, खेत्तयणा, कालेयणा, ७. भवेयणा, भावेयणा । (श० १७॥३८) ५. *कित प्रकार कहाइये, प्रभु ! एजना थाइयै । [था इयै जिन कहै पंचविधा कही ए।। ६. द्रव्य एजना जाणिय, खेत्र एजना माणियै । माणिय काल एजना वलि सही ए।। ७. भव एजना पिछाणिय, भाव एजना जाणियै । जाणिय पंच प्रकारे आखियै ए। यतनी ८. नारक तिर्यंचादिक जाण, जीव द्रव्य तणी पहिछाण । एजना जे चलणा होय, तिका द्रव्य एजना जोय ।। २. नारकादिक जे पहिछाण, जेह क्षेत्र विषे वर्तमान । एजना कंपना जसु थाय, तिका क्षेत्र एजना कहाय ।। १०. नारकादिक जे बली जान, जिण काल विष वर्तमान । एजना कंपना जसु थाय, तिका काल एजना कहाय ।। ११. नारकादिक भव वत्तमान, तसु एजना कपना जान । कहिजै भव एजना एह, हिव भाव एजना कहेह ।। १२. भाव उदयादिक वर्तमान, नारकादिक ने पहिछान । उदयादिक रूपज भाव, रह्या पुद्गल द्रव्य कंपाव ।। ८. 'दब्वेयण' त्ति द्रव्याणां-- नारकादिजीवसंपृक्तपुद्गल द्रव्याणां नारकादिजीवद्रव्याणां वा एजना चलना द्रव्यंजना। (वृ० प० ७२६) ९. 'खेत्तेयण' त्ति क्षेत्रे . नारकादिक्षेत्रे वर्तमानानामेजना क्षेत्रजना। (वृ० प० ७२६) १०. 'कालेयण' ति काले नारकादिकाले वर्तमानानामजना कालैजना। (वृ० प० ७२६) ११. 'भवेयण' त्ति भवे नारकादिभवे वर्तमानानामेजना भवैजना। (वृ० प० ७२६) १२. 'भावेयण' त्ति भावे औदयिकादिरूपे वर्तमानानां नारकादीनां तद्गतपुद्गलद्रव्याणां वैजना भावैजना। (वृ०प०७२६) १३. दव्वेयणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! चउबिहा पण्णता, तं जहा - १४. नेरइयदब्बेयणा, तिरिक्खजोणियदब्वेयणा, मणुस्स दव्वेयणा देवदव्वेयणा। (श० १७१३९) १३. *द्रव्य एजना कतिविधा ? कहियै प्रभुजी ! गुणवद्धा। गुणवृद्धा जिन कहै चिउं विध दाखियै ए।। १४. नारक द्रव्य एजन कही, तिर्यंच मनुष्य वली लही । वली लही, देव द्रव्य एजन भणी ए ।। *लय : एक दिवस लंकापति ९२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational n Education International Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. किण अर्थे प्रभु ! इम कह्य, नारक द्रव्य एजन लह्य। एजन ला, जिन भाखै सांभल गुणी ए ।। १६. जेह भणी नारक कह्या, नरक जीव द्रव्ये रह्या । द्रव्ये रह्या, जीव द्रव्य में वर्तता ए।। १५. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइनेरइयदव्वेयणा नेरइयदव्वेयणा? १६. गोयमा ! जणं नेरइया नेरइयदब्वे वटिस वा, २०. जीवा णं भंते ! कि सासया? असासया'"गोयमा ! दबट्ठयाए सासया, भावयाए असासया।। (भ० ७.५८,५९) २१,२२. 'नेर इयदव्वे वट्टिसु' त्ति नैरयिकलक्षणं यज्जीवद्रव्यं द्रव्यपर्याययोः कथञ्चिभेदान्नारकत्वमेवेत्यर्थः (वृ० प० ७२६) २४. बति वा, सोरठा १७. 'नारक विषेज जेह, अजरामर द्रव्य जीव छ । अछेद्य अभेद्य तेह, असंख्यात प्रदेश जे ।। १८. कर्ता पिण ते नांहि, भोक्ता पिण नहिं छै तिको । अक्षय अव्यय ताहि, काल त्रिउं में शाश्वतो ।। १९. नारकपणेज ताय, कर्ता भोक्ता छ तिको । कहिये तसु पर्याय, भाव जीव पिण नाम तसु ।। २०. द्रव्य शाश्वतो जीव, भाव थकीज अशाश्वतो। सप्तम शतक कहीव, द्वितीय उद्देशे वीर जिन ।। २१. इहां आख्यो भगवान, जेह नारकी नरक नां। द्रव्य विषे वर्तमान, वृत्ति विषे कह्यो जीव द्रव्य ।। २२. नारक में द्रव्य जीव, नारकपणों पर्याय छ । किणहि प्रकार कहीव, तास अभेद थकी इहां ।। २३. नारक द्रव्य वर्त्तमान, छ तेहनी पर्याय में । वर्तमान पहिछाण, वर्ते नरकपणां विषे ।। (ज.स.) २४. *नारक द्रव्य विपे रही, गये काल वो सही। वयो सही, वर्तमान वत्तिको ए ।। २५. काल अनागत में वही, नरकपणे वर्त्तस्यै सही । वर्तस्यै मही, नारकपणे रह्यो थको ए।। २६. नारक द्रव्ये वर्तते, नारक द्रव्य एजन प्रत । जन प्रतै, किया करै करिस्य वली ए।। वा०-नारक जीव मंपृक्त पुद्गल द्रव्य नी अथवा नारक द्रव्य जीव नीं एजना ते नारक-द्रव्य-एजना कहिये । पइमु वा कहितां कीधी, पयंति वा कहिता करै छ, एयस्संति वा कहिता करसी । तथा अतीत काले अनुभव्या, वर्तमान काले अनुभवे छ, आगमिये काले अनुभवस्यै। २७. ते तिण अर्थे यावत सही, नारक द्रव्य एजन कही। एजन कही, वलि गोतम पूछ रली ए।। २८. प्रभु ! किण अर्थे आखियै, तिरि द्रव्य एजन दाखियै । दाखिय एवं चेव गुणीजिये ए।। २९. णवरं इतो विशेष ही, तिथंच द्रव्य विषे सही । विषे सही, करिस्य एम भणीजियै ए ।। ३०. शेष तिमज अवधारियै, एवं जाब विचारिये । विचारिय, देव द्रव्य एजन भणी ए।। ३१. क्षेत्र एजना ते सही, हे प्रभूजी ! कतिविध कही ? कतिविध कही, जिन भाखै चउविध थुणी ए॥ *लय : एक दिवस लंकापति २५. वट्टिस्संति वा, २६. ते णं तत्थ नरइया नेरइयदब्बे वट्टमाणा नेर इयदवे यणं एइंमु वा, एयंति वा, एइरसंति बा। वा--'नेरइयदब्वेयण' नि नैरयिकजीवसंपृक्तपुद्गल द्रव्याणां नैरयिकजीवद्रव्याणां वैजना नै रयिकद्रव्यैजना ताम् 'एहंमु' त्ति ज्ञातवन्तोऽनुभूतवन्तो बेत्यर्थः । (वृ० प० ७२६) २७. से तेणठेणं जाव नेरइयदव्वेयणा । २८. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ -तिरिक्खजोणिय दब्वेयणा-तिरिक्खजोणियदव्वेयणा ? एवं चेव, २९. नवरं तिरिक्खजोणियदब्वे भाणियब्वं, ३०. सेसं तं चेव, एवं जाव देवदव्वेयणा । (श० १७६४०) ३१. खेतैयणा णं भंते ! कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! चउविवहा पण्णत्ता, तं जहा--- श० १७, उ०३, ढाल ३६५ ९३ Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. नेरइयखेत्तयणा जाव देवखेत्तयणा । (श० १७१४१) ३३. से कणद्वेण भंते ! एवं बुच्चइ-नेरइयखेत्तेयणा नेरइयखेत्तयणा ? एवं चेव, ३४. नवरं--नेरइयखेत्तेयणा भाणियव्वा, ३५. एवं जाव देववेत्तयणा । ३६. एवं कालेयणा वि, एवं भवेयणा वि, ३२. नारकि क्षेत्रज एयणा, जाव चतुर्थी इम भणा। इम भणा, देव क्षेत्र एजनलही ए॥ ३३. प्रभु ! किण अर्थ इम कही, नारकि खित्त एजन वही। एजन वही, एवं चेव अछै सही ए ।। ३४. णवरं इतो विशेष ही, इहां इहविधि भणवं सही। भणव सही, नारक दोत्रज एयणा ए ।। ३५. एवं यावत जाणिये, सूर खित्त एजन माणियै । माणिय, सत्य वचन ज्ञानी तणां ए॥ ३६. इणहिज रीत बखाणिय, काल एजना जाणियै । जाणिय, भव एजन पिण इम भणी ए।। ३७. भाव एजना पिण सही, एवं यावत जिन कही। जिन कही, देव भाव एजन भणी ए।। सोरठा ३८. कही. एजना एह, एहनाईज विशेष प्रति । चलणा हिवै किहेह, श्रोता चित दे सांभलो ।। चलना पद ३९. *चलणा प्रभु ! कतिविध कही? जिन भाखै त्रिण विध सही। विध सही, शरीर इंद्रिय योग नी ए।। ३७. एवं भावेयणा वि, एवं जाव देवभावेयणा । (श० १७।४२) ३८. एजनाया एव विशेषमधिकृत्याह - (वृ० ५० ७२) ३९. कतिविहा णं भंते ! चलणा पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा चलणा पण्णत्ता, तं जहासरीरचलणा, इंदियचलणा, जोगचलणा। (श० १७।४३) सोरठा ४०. अतिही प्रगट स्वभाव, जेह एजना नों अछ। चलणा तास कहाव, ते माटै आख्यो जूदो ।। ४१. तनु औदारिक आद, ते प्रायोग्य पुद्गल तणो । चलणपण करि बाद, व्यापार परिणमवा विषे ।। ४०. 'चलण' ति एजना एव स्फुटतरस्वभावा । (वृ० प० ७२७) ४१. 'सरीरचलण' त्ति शरीरस्य - औदारिकादेश्चलना... तत्प्रायोग्यपुद्गलानां तद्रूपतया परिणमने व्यापारः शरीरचलना, (वृ०प०७२७) ४२. एवमिन्द्रियबोगचलने अपि, (वृ० प० ७२७) ४२. शरीर चलणा पह, इंद्रिय चलणा पिण इमज । चलणा योग कहेह, ते पिण इणहिज रीतसू ।। ४३. *तनु-चलणा प्रभु ! कतिविधा, पंचविधा भाख बुधा । भाखे बुधा, ओदारिक तनु प्रमुख ही ए।। ४४. प्रभु ! इंद्रिय-चलणा कतिविधा, पंचविधा कहै गुण-वृधा। ____ गुण-वधा, मोईदियादिक नी कही ।।। ४५. चलणा-जोग तणी वही, कित प्रकार प्रभु ! कही ? प्रभु कही, जिन भाखै त्रिविधा सही ए ।। ४६. मनोयोग चलणा वही, वचन जोग चलणा सही। चलणा सही, काय जोग चलणा कही ए।। ४३. सरीरचलणा णं भंते ! कतिबिहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा--ओरालियसरीरचलणा जाव कम्मगसरीरचलणा। (श० १७।४४) ४४. इंदियचलणा णं भंत ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा -सोइंदिय चलणा जाब फासिदियचलणा । (श०१७।४५) ४५. जोगचलणा णं भंते ! कति विहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिबिहा एण्णत्ता, तं जहा४६. मणजोगचलणा, वइजोगचलणा, कायजोगचलणा। (श० १७१४६) *लय : एक दिवस लंकापति ९४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ ओरालियसरीर चलणा-ओरालियसरीरचलणा? ४८, गोयमा ! जपणं जीवा ओरालियसरीरे वट्टमाणा ४९. ओरालियसरीरपायोग्गाई दवाई ५०. ओरालियसरीरत्ताए परिणामेमाणा ५१,५२. ओरालियसरीरचलणं चलिसु वा, चलंति वा, चलिस्संति वा । से तेणठेणं जाव ओरालियसरीरचलणा। ५३. से केणठेणं भंते ! एवं वच्चइ वेउव्वियसरीर चलणा-वेउब्वियसरीरचलणा? एवं चेव, ५४. नवरं वेउब्बियसरीर बट्टमाणा। ५५. एवं जाव कम्ममरीरचलणा । ४७. किण अर्थ प्रभु ! आखियै, ओदारिक नी भाखियै । भाखिय, चलणा जे धुर तनु तणी ए ।। ४८. उत्तर नाथ तदा अखे, औदारिक तनु नै विष । तनु नै विषे, जीव वर्त्तता जे भणी ए ।। ४९. तनु औदारिक जाणिय, नेह प्रायोग्य पिछाणिय । पिछाणिय, द्रव्य अनेक प्रत तदा ए।। ५०. शरीर औदारिकपण, परिणमावता थका मुणे । थका मुणे, ते बहु द्रव्य प्रतै यदा ए ।। ५१. चलणा औदारिक तणी, काल अतीत करी घणी। करी घणी, वर्तमान काले करै ए ।। ५२. अनागत करिस्यै सही, निण अर्थ यावत कही। यावत कही, औदारिक चलणा फुरैए ।। ५३. प्रभु ! किण अर्थे इम कही, वैक्रिय तनु चलणा वही। चलणा वही, एवं चेव विचारियै ।।। ५४. णवरं विशेष जिन अखे. वैनिय गर्गर ने विपे : तनु विप, वर्तमान उच्चारियै ए ।। ५५. एवं जाव अहीजिये, कार्मण तनु कही जिये। कहीजिये, चलणा आखी तनु तणी ए।। ५६. प्रभु ! किण अर्थे इम कही, श्रोतद्रिय बनणा वही । चलण। वहीं, तब भावं विचनधणी ए।। ५७. जे जीव सोइंदिए वर्तते, सोइंदिय जोग बह द्रव्य प्रते। द्रव्य प्रते, मोहंदियपण परिणमावता ए।। ५८. थोतेंद्रिय चलणा प्रति वही, चल्या चले चलस्यै सही। चलस्यै सही, इम प्रभु न्याव बतावता ए।। ५९. तिण अर्थे इम आखिये, सोइदिय चलणा दाखियं । दाखियै, इम जाव फासिदिय चलणा भणी ए।। ६०. किण अर्थे प्रभ ! इम कही, मनोजोग चलणा मही। चलणा वही, नव भाख नार्थ धणी ए।। ६१. मनोजोग विषे जीव वर्तते, मन जोग प्रायोग्य द्रव्यां प्रतै । द्रव्यां प्रते, मन जोगपणे परिणमावता ए ।। ६२. मन जोग चलण प्रति ले सही, चन्या चले नलस्यै वही। चलये वही, निण अर्थ म भावताए । ६३. इम वचन जोग चलणाही, काग जोग चालणा वही। चलणा वही, दाहिजरीन कहावताए । ६४. सतरम शतक तणो भलो, तृतीय उद्देशक गुणनिलो। गुण निलो, तेहनों देश जणावता ए ।। ६५. पवर तीन सय ढाल जी, आखी अधिक रसाल जी। रसाल जी, पंच साठमी ए वली ए॥ ६६. भिक्षु भारीमाल जी, रायऋषि सुविशाल जी। सुविशाल जी, 'जय-जश' संपति रंगरली ए॥ ५.६. से कणट्टेणं भंते ! एवं वच्चइ सोइंदियचलणा गोइंदियनलणा? ५७. गोयमा ! जणं जीवा मोइदिये वट्टमाणा सोइदिय पायोग्गाई दवाई सोईदियत्ताए परिणामेमाणा ५८. साइंदियचनणं चलिग वा. चलंति वा, चलिस्मंति वा। ५९. में तेणछेण जाव सोईदियचलणा। एवं जाव फामि दियचलणा। ६०. में केणठे मंते ! एवं वुच्चइ मणजोगचलणा मणजोगचलणा? ६१. गोयमा ! जणं जीवा मणजोगे वट्टमाणा मणजोग पाओग्गाई दवाई मणजोगत्ताए परिणामेमाणा ६२. मणजोगचलण चलिस वा, चलन वा, चलिस्मंति वा । म नेणटेणं जाय मणजोग चलणा। ६३. एवं बहजोगचलणा वि । एवं कायजोगचलणा वि । (श० १७।४७) श० १७, उ०३, ढाल ३६५ ९५ Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३६६ दूहा १. अनंतरे चलणा धर्म, भेद करी आख्यात । अथ संवेगादिक धर्म, तसू फल थी अवदात ।। २. अह भंते ! अथ शब्द ए, परिप्रश्नार्थे जान। हे भदंत ! इह विधि कहीं, पूछ शिष्य सुविहान ।। *महाराज ! मुझ मन लागो हो, जिन वचनां थकी ।। (ध्रुपदं) ३. संवेग शिव अभिलाष नों, हो जी वलि निर्वेद पिछान । विरक्त भाव संसार थी, हो जी स्यूं फल तसु भगवान ? १. अनन्तरं चलनाधर्मो भेदत उक्तः, अथ संवेगादि धर्मान् फलतोऽभिधित्सुरिदमाह--- (वृ० ५० ७२७) २. अह भंते! 'अहे' त्यादि, अथेति परिप्रश्नार्थः (वृ०५० ७२७) ४. सेवा गुरु साधर्मी तणी, हो जी दीक्षाचार्य गुरु देख । साधर्मी सामान्य साधु कही, हो जी वृत्ति विषे इम लेख ।। ५. आलोयणया अभिविधि करी, हो जी सकल पोता नां दोष । गुरु आदिक रै आगलै, हो जी प्रकाशवै संतोष ।। ३. संवेगे, निव्वेए 'संवेए' त्ति संवेजनं संवेगो---मोक्षाभिलाषः 'निब्बेए' त्ति निर्वेदः -- संसारविरक्तता (वृ० ५० ७२७) ४. गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया, 'गुरुसाहम्मियसुस्सूसणय' त्ति गुरूणां-दीक्षाद्याचार्याणां साधम्मिकाणां च-सामान्यसाधूनां या शुश्रूषणता सेवा सा। (वृ० प० ७२७) ५. आलोयणया, 'आलोयण' त्ति आ - अभिविधिना सकलदोषाणां लोचना गुरुपुरतः प्रकाशना आलोचना संवालोचनता (वृ० ५० ७२७) ६. निदणया, गरहणया, 'निंदणय' त्ति निन्दनं आत्मनैवात्मदोषपरिकुत्सनं 'गरहणय' त्ति गर्हणं-परसमक्षमात्मदोषोद्भावनं (वृ० प० ७२७) ७. खमावणया, 'खमावणय' त्ति परस्यासन्तोषवतः क्षमोत्पादनं (वृ० प०७२७) ८. विउसमणया, 'विउसमणय' त्ति व्यवशमनता - परस्मिन् क्रोधान्निवर्तयति सति क्रोधोज्झनं, (वृ० प० ७२७) ६. निंदणया आत्मा करी, हो जी आत्म दोष निदंत । गरहणया पर आगलै, हो जी आतम दोष कहंत ।। ७. खमावणिया खमायवो, हो जी असंतोषी अन्य जान । तास संतोष उपावणो, हो जी तिणरो चित्त करै गलतान ।। ८. विउसमणया वली कह्यो, हो जी अन्य विषे अवधार । क्रोध थकी निवत्यै छते, वली क्रोध न राखै लिगार ।। सोरठा ९. विउसमणया जाण, किहांइक ए दीसै नथी । वृत्ति विपे ए वाण, तिण कारण ए आखियो ।। १०. *सूत्र सिद्धांतज ईज छै, हो जी परम सहायक जास । सूत्र सहायपणा तणों, हो जी स्यूं फल कहियै तास ।। ११. भावे अपडिबद्धता, हो जी हासादिक जे भाव । तेह विषे प्रतिबद्ध नथी, हो जी वर्जे हास्य असाव ।। ९. एतच्च क्वचिन्न दृश्यते, (वृ०प० ७२७) १०,११. सुयसहायता भावे अप्पडिबद्धया, 'सुयसहायय' त्ति श्रुतमेव सहायो यस्यासौ श्रुतसहायस्तद्भावस्तत्ता, 'भावे अप्पडिबद्धय' त्ति भावे हासादावप्रतिबद्धता अनुबन्धवर्जन (वृ० प० ७२७) १२. विणिवट्टणया, 'विणिवट्टणय' त्ति विनिवर्तन-विरमणमसंयमस्थानेभ्यः (वृ०प० ७२७) १२. विण्णिवणया विशेष थी, हो जी निवर्त्तवो अवलोय । जेह असंजम स्थान थो, हो जी विरति संबर ए जोय ।। *लय : मुझ मन मान्यो हो अभयकुमार ९६ भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. विवक्तसयनासन सेविवू, होजी स्त्री पसु पंडग रहीत । सयन अने आसन प्रतै, होजी भोगविवो शुद्ध रीत ।। सोरठा १४. उपलक्षण थी जाण, स्त्री पसु पंडग रहित फुन । प्रवर उपाश्रय माण, तेहनी पिण जे सेवणा ।। १५. *श्रोतेंद्रिय नै संवरै, होजी जाव फर्श द्रिय पेख । तास संवरै वस करै, होजी वर्जे विषय विशेख ।। १६. जोग तणां पचखाण जे, होजी हिंसादिक नां जाण । तीन करण तीन जोग सं, होजी सेवण रा पचखाण ।। १३. विवित्तसयणासणसेवणया, 'विवित्तसयणासणसेवणय' ति विविक्तानि-~स्त्याद्यसंसक्तानि यानि शयनासनानि (वृ० ५० ७२७) १४. उपलक्षणत्वादुपाधयश्च तेषां या सेवना सा (वृ० प० ७२७) १५. सोइंदियसंवरे जाव फासिदियसंवरे, १७. वलि पचखाण शरीर नां, होजी निज तनु ऊपर जाण। ममत्व भाव करिवा तणां, होजी प्रवर करै पचखाण ।। १८. वलि पचखाण कषाय नां, होजी क्रोधादिक चिउं भार। ते न करूं हूं एहवी, होजी धारै प्रतिज्ञा सार ।। १९. वलि पचखाण संभोग नां, होजी एक मंडली मांहि । जीमण नां पचखाण जे, होजी जिनकल्पादिक ताहि ।। सोरठा २०. सं कहितां सुप्रयोग, स्व पर लाभ मिलाय कर। भोगविवं ते भोग, ते संभोग इक मंडली ।। १२१.*उपधि तणां पचखाण जे, होजी अधिक उपधि पचखाण । वलि पचखाणज भात नां, होजी अणसण तप ए जाण ।। १६. जोगपच्चक्खाणे, 'जोगपच्चक्खाणे' त्ति कृतकारितानुमतिलक्षणानां मनः प्रभृतिव्यापाराणां प्राणातिपातादिषु प्रत्याख्यानं -निरोधप्रतिज्ञानं योगप्रत्याख्यानं, (वृ० प० ७२७) १७. सरीरपच्चक्खाणे, 'सरीरपच्चक्खाणे' त्ति शरीरस्य प्रत्याख्यान-- अभिष्वङ्गप्रतिवर्जनपरिज्ञानं शरीरप्रत्याख्यानं । (वृ० ५० ७२७) १८. कसायपच्चक्खाणे, 'कसायपच्चक्खाणे' त्ति क्रोधादिप्रत्याख्यान तान् न करोमीति प्रतिज्ञान (वृ० प० ७२७) १९. संभोगपच्चक्खाणे, एकमण्डलीभोक्तृकत्वमित्येकोऽर्थः तस्य यत् प्रत्याख्यान-जिनकल्पादिप्रतिपत्त्या परिहार, (वृ०प० ७२७) २०. 'संभोगपच्चक्खाणे' त्ति समिति-संकरेण स्वपर लाभमीलनात्मकेन भोगः सम्भोगः (वृ० ५० ७२७) २१. उवहिपच्चक्खाणे, भत्तपच्चक्खाणे, 'उवहिपच्चक्खाणे' त्ति उपधेरधिकस्य नियमः भक्तप्रत्याख्यानं व्यक्त (वृ०प० ७२७) २२. खमा, विरागया, 'खम' त्ति क्षान्तिः 'विरागय' त्ति वीतरागता--- रागद्वेषापगमरूपा (वृ० प० ७२७) २३. भावसच्चे, 'भावसच्चे' ति भावसत्य-शुद्धान्तरात्मतारूपं पारमार्थिकावितथत्वमित्यर्थः (व० प० ७२७) २४. जोगसच्चे, 'जोगसच्चे' ति योगाः ----मनोवाक्कायास्तेषां सत्यं ---अवितथत्वं योगसत्यं (व०प०७२७) २५. करणसच्चे, 'करणसच्चे' त्ति करणे-प्रतिलेखनादौ सत्यं यथोक्तत्वं करणसत्यं (वृ०प० ७२७) २२. क्षमा करै चित क्षांत सू, होजी विरागता सुविशेष । राग द्वेष रूप भाव नै, होजी टालै एह अशेष ।। २३. भाव सत्य नों फल वली, होजी अंतरआत्मा शुद्ध । परमारथ थी सत्य ने, होजी शुद्ध कह्या अविरुद्ध ।। २४. जोग सत्य त्रिहुं जोग नै, होजी मन वचन नै काय । सत्य शुद्ध प्रवर्तायवै, होजी अशुभ वर्तावै नांय ।। २५. करण सत्य प्रतिलेखना, होजी प्रमुख विषे सत्य शुद्ध । __ जिम शास्त्रे कातिम करै, होजी निर्मल ज्यांरी बुद्ध ।। *लय : मुझ मन मान्यो हो अभयकुमार श० १७, उ० ३, ढा० ३६६ ९७ Jain Education Intemational Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. मणसमण्णाहरणता, होजी मन वशीकरणपणेह । सम्यक स्व अनुरूप करि, होजी मर्यादा करि जेह ।। २७. वइसमण्णाहरणया, होजी इम वस करै वचन । कायसमण्णाहरणया, होजी इम इज कर वस तन ।। २८. क्रोधविवेक कह्यो वली, होजी कोप तजै इह रीत । क्रोध वस वच नहीं वदै, होजी उदय निरोध वदीत ।। २६. मणसमन्नाहरणया, 'मणसमन्नाहरणय' त्ति मनसः समिति- सम्यक अन्विति--- स्वावस्थानुरूपेण आङिति-मर्यादया आगमाभिहितभावाभिव्याप्त्या वा हरणं---संक्षेपणं मनः समन्वाहरणं तदेव मन समन्वाहरणता, (वृ० ५० ७२७) २७. वइसमन्नाहरणया, कायसमन्नाहरणया, एवमितरे अपि (वृ० प० ७२७) २८. कोहविवेगे, 'कोहविवेगे' ति क्रोधविवेकः - कोपत्यागः तस्य दुरन्ततादिपरिभावनेनोदयनिरोधः (वृ० प० ७२७) २९. जाब मिच्छादसणसल्लविवेगे, नाणसंपन्नया, दसणसंपन्नया, चरित्तसंपन्नया, ३०. वेदणअहियासणया, मारणतियअहियासणया 'वेयणअहियासणय' त्ति क्षुधादिपीडासहनं 'मारणंतियअहियासणय' त्ति कल्याणमित्रबुद्धया मारणान्ति कोपसर्गसहनमिति । (वृ० प० ७२७) ३१. एए णं किंपज्जवसाणफला पण्णत्ता समणाउसो ! २९. जाव मिच्छादसणसल्य तजे, होजी ज्ञानसंयुक्तपणेह । दर्शणयुक्तपणे करी, होजी चरित्तयुत्त गुणगेह ।। ३०. क्षुधादिक नी वेदना, होजी सहिवै करि मन शुद्ध । मारणांतिक उपसर्ग सहै, कांइ मित्र किल्याण नी बुद्ध ।। ३१. पर्यवसान फल एहनों, होजी छेहड़े फल स्यूं थाय? अहो आयुष्मन ! वीर जी, होजी ए गोयम प्रश्न सुहाय ।। ३२. जिन भाखै संवेग नों, होजी वलि निर्वेद नो जाण । जाव मरणांत उपसर्ग नै, होजी सहिवापण करि माण ।। ३३. एह सर्व बोलां तणों, होजी मोक्ष गमन सुख हंत । पर्यवसान फल अंत में, होजी श्रमण आउखावंत ! ।। ३४. सेव भंते ! इम कही, कांइ जाव गोतम विचरंत । शतक सतरमा नों कह्यो, होजी तृतीय उद्देशक तंत ।। ३५. तीनसौ नै छासठमी, होजी आखी ढाल रसाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, होजी 'जय-जश' मंगलमाल ।। सप्तदशशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥१७॥३॥ ३२. गोयमा ! संवेगे, निव्वेए जाव मारणंतियअहियास णया ३३. एए णं सिद्धिपज्जवसाणफला पण्णत्ता समणा उसो ! (श० १७१४८) ३४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श० १७।४९) ढाल : ३६७ दूहा १. तृतीय उद्देशे एजना-प्रमुख क्रिया आख्यात । तुर्य उद्देशे पिण वली, क्रिया तणों अवदात ।। क्रिया पद २. तिण काले नै तिण समय, जाव वदै इम वाय । विनय भक्ति करि वीर नीं, गोयम प्रश्न सुहाय ।। १. तृतीयोद्देशके एजनादिका क्रियोक्ता, चतुर्थेऽपि क्रियवोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् । (वृ० ५० ७२८) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी-- ९८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *चतुर नर ! ज्ञान विचारो रे ।।(ध्र पदं) ३. छै प्रभुजी! जीवां तण, प्राणातिपातकी क्रिया होई ? क्रिया कर्म बंधै हिंसा थी ? जिन कहै हंता जोई रे ।। ४. तिका क्रिया प्रभु ! स्यू फर्शी ह, के अणफर्शी होई ? श्री जिन भाखै फर्शी ह छै, अणफर्शी नहिं कोई रे ।। ५. इम जिम धुर शत छठे उदेशे, आख्यं तिम अवलोई। जाव अनानुपूर्वी नहीं छ, वक्तव्यता इम जोई रे ।। ३. अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? हंता अत्थि। (श० १७/५०) ४. सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्ठा कज्जइ ? गोयमा ! पुट्टा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जइ । ५. एवं जहा पढमसए छठुद्देसए (११२७७,२५८-२६६) जाव (सं० पा०) नो अणाणुपुब्बि कडा ति वत्तव्वं सिया। ६. एवं जाव वेमाणियाण, नवरं--जीवाणं एगिदियाण ___य निव्वाघाएणं छद्दिसि, ७. वाघायं पडच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसि । ८. सेसाणं नियम छद्दिसि । (श० १७१५१-५४) ६. एवं यावत वैमानिक ने, णवरं विशेष धरिया। __ जीव एकेंद्री निर्व्याघाते, षट दिशि थी ह्व किरिया रे ।। ७. जीव एकेद्रिय नै व्याघातज, त्रिण दिशि कदा पिछाणी। कदा च्यार दिशि कदा पंच दिशि थकी कर्म बंध जाणी रे।। ८. शेष दंडक उगणीस विषे, इम निश्चै करिने लहिये । षट दिशि सेती क्रिया हुवै छै, कर्म बंध तसु कहिये रे ।। ९. छै प्रभु ! मृषावाद तणी, क्रिया जीवां रै होई ? झूठ थकी कर्म बंध हुवै छै ? जिन कहै हंता जोई रे ।। ९. अत्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जइ? हंता अस्थि । (श० १७१५५) १०. सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्टा कज्जइ ? जहा पाणाइवाएणं दंडओ एवं मुसाबाएण वि । ११. एवं अदिन्नादाणेण वि, मेहुणेण वि, परिग्गहेण वि। एवं एते पंच दंडगा। (०१७।५६) १२. जं समयं णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएण किरिया कज्जइ १३. सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्ठा कज्जइ ? १०. तिका क्रिया प्रभु ! स्यूं फर्शी है ? इत्यादिक उच्चरिवू । जिम प्राणातिपात नो दंडक, मृषावाद पिण कहिवं रे ।। ११. एम अदत्तादान दंडक पिण, मिथून दंडक पिण तेमो। परिग्रह दंडक पिण इम कहिवो, ए पंच दंडक विधि एमो रे।। १२. जेह समय नै विषे प्रभुजी ! जीवां रै अवलोई । जेह प्राणातिपातकी क्रिया, कर्म बंध ह सोई रे ।। १३. तेह समय नै विषे प्रभुजी ! तिका क्रिया कर्म ताह्यो। स्यूं फर्शी छती ते ह छ, के अणफर्शी थायो रे? १४. एवं तिमहिज जाव इसी जे, वक्तव्यता व तासं । ए धुर दंडक जाव वैमानिक लग कहिवो सुविमासं रे ।। १५. एवं यावत परिग्रह कीजे, ए पिण दंडक पंचो। जीव नरक यावत वैमानिक, कहिवा विध ससंचो रे ।। १६. जेह देश नै विषे प्रभुजी! जीवां रै अवधारी। क्रिया प्राणातिपातकी होवै ? एवं चेव विचारी रे ।। १७. एवं जाव परिग्रह कीजे, क्रिया कर्म बंध होई। क्षेत्र तणांज विभाग तेहने, जे देश कह्यो छै सोई रे ।। १४. एवं तहेव जाव वत्तव्वं सिया जाव बेमाणियाणं । १५. एवं जाव परिग्गहेणं । एवं एते वि पंच दंडगा । (श० १७।५७) १६. जं देसं णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ? एवं चेव । १७. जाव परिग्गहेणं । एते वि पंच दंडगा। (श० १७१५८) 'ज देस' ति यस्मिन् देशे-क्षेत्रविभागे प्राणातिपातेन क्रिया क्रियते तस्मिन्निति (वृ०प० ७२८) १८. जं पएसं णं भंते ! जीवाणं पाणातिवाएणं किरिया कज्जइ १९. सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? एवं तहेव दंडओ। १८. जेह प्रदेश विषे हे प्रभुजी! जीवां तणोज लहिये । क्रिया प्राणातिपातकी ह छै, क्रिया कर्म नैं कहियै रे ।। १९. तेह प्रदेश विषे हे प्रभुजी ! तिका क्रिया कहिवाई। फर्शी छती हुवै इम तिमहिज, धुर दंडक ए थाई रे ।। *लय : चतुर नर ! बात विचारो रे श०१७, उ०४ ढा० ३६७ ९९ Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. एवं जाव परिग्रह दंडक, ए दंडक बीस विशेषे । पंच समुच्चय पंच समय नां पंच-पंच देश प्रदेशे रे ॥ सोरठा २१. प्रदेश जे कहिवाय, अति लघु क्षेत्र विभाग ने । तेह विषे जे थाय, प्राणातिपातादिक क्रिया ॥ कर्मरूपते क्रिया २२. पूर्वे क्रिया आख्यात कर्म दुखहेतुत्वात् कहिये दुख नां सूत्र बे ॥ दुःख-वेदना पद २३. स्यं प्रभु ! जीवां रे आत्मकृत, दुख अर्थ जग मांह्यो । के परकृत के तदुभयकृत, दुक्ख कहीजे ताह्यो रे ? २४. जिन भा आत्मकृत दुःख छे, परकृत दुख नांही बलि तदुभयकृत नहीं इम जाव वैमानिक ताई रे ।। " २५. जीवा स्यूं आत्मकृत दुक्ख प्रति वेदं हे भगवंता! के परकृत दुख वेदे के तदुभयकृत दुख वेयंता रे ? २६. जिन कहै आत्मकृत दुख वेदै, परकृत दुख न वेदंता । वलि तदुभयकृत दुख न वेदै, इम जाव वैमानिक अंता रे ॥ सोरठा २७. कर्म चकी दुख चात, कर्म थकी जे वेदना । सूत्र दोय अवदात, तेह वेदना नों नौ हि ॥ २८. "जीवां र प्रभु स्वं आत्मकृत, अर्थ वेदना जाणी । अथवा परकृत अछे वेदना, कै तदुभयकृत माणी रे ? २९. जिन कहे आत्मकृता वेदना परकृत वेदन नाही । वलि तदुभयकृत नथी वेदना, इम जाव वैमानिक तांई रे ।। ३०. जीवा प्रभु! आत्मकृत वेदन वेद भगवंता! कै परकृत वेदन वेदै, के तदुभयकृत वेदंता रे ? ३१. जिन कहै आत्मकृत वेदन प्रति बेई छं जग मांही। परकृत वेदन प्रति नहि वेदे तदुभयकृत न वेदाई रे ।। सोरठा 1 ३२. दहां वेदना ख्यात, धकी ॥ स्वामी । ते सुख-दुख दोनूं ते मा अवदात, सूत्र जुदो ए दुख ३३. एवं जाव विमानिक तांई, सेवं भंते! सतरम शत नैं तुर्य उद्देशे, अर्थ अनूपम धामी रे ॥ ३४. आखी ढाल रसाल तीन सय, सतसठमी ए ताजी । भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रतापे, 'जय जश' संपति जाझा रे ॥ सप्तदशशते चतुर्थीद्देशार्थः || १७| ४ || लय: चतुर नर ! बात विचारो रे १०० भगवती जोड़ तणी । २०. एवं जाव परिग्गहेणं । एवं एते वीस दंडगा । (१० १७१४९) २१. 'जं पएस' ति यस्मिन् प्रदेशे लघुतमे क्षेत्रविभागे (बु०प०७२०) २२. क्रिया प्रागुक्ता सा च कर्म्म, कर्म्म च दुःखहेतुत्वादुःखमिति तन्निरूपणायाह-(बृ० प० ७२८) २३. जीवाणं भंते! किं अत्तकडे दुक्खे ? परकडे दुक्खे ? तदुभयकडे दुक्खे ? २४. गोपमा अत्तकडे दुबे, नो परकडे दुनो तदुभयकडे दुक्खे एवं जाव वेमाणियाणं । ( श० १७/६० ) २५. जीवा णं भंते ! कि अत्तकडं दुक्खं वेदेति ? परकडं दुक्खं वेदेति ? तदुभयकडं दुक्खं वेदेंति ? २६. गोयमा ! अत्तकडं दुक्खं वेदेंति, नो परकडं दुक्खं वेदेति, नो तदुभयकडं दुक्खं वेदेति । एवं जाव वेमाणियाणं । (१० १७६१) २७. कर्म्मजन्या च वेदना भवतीति तन्निरूपणाय दण्डकद्वयमाह( वृ० प० ७२८) वेयणा ? परकडा २८. जीवाणं भंते ! किं अत्तकडा वेयणा ? तदुभयकडा वेयणा ? २९. गोयमा ! अत्तकडा वेयणा, नो परकडा वेयणा, नो तदुभयकडा वेयणा । एवं जाव वैमाणियाणं । ( ० १७६२) ३०. जीवा णं भंते! किं अत्तकडं वेयणं वेदेति ? परकडं वेण वेदेति ? तदुभयकडं देणं वेदेति ? ३१. गोयमा ! जीवा अत्तकडं वेयणं वेदेंति, नो परकडं वेयणं वेदेति, नो तदुभयकडं वेयणं वेदेति । ३३. एवं जाव वेमाणियाणं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १७०६३) (१० १७१६४) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३६८ १. चतुर्थोद्देशकान्ते वैमानिकानां वक्तव्यतोक्ता, (वृ० प० ७२८) २. अथ पञ्चमोद्देशके वैमानिकविशेषस्य सोच्यते (वृ० प० ७२८) १. तुर्य उद्देशक अंत में, वैमानिक नी जान । वक्तव्यता आखी इहां, प्रत्यक्ष ही पहिछान ।। २. अथ पंचम उद्देशके, वेमानिक सुविशेख । वक्तव्यता जे तेहनी, कहियै छै संपेख ।। ईशान पद ३. किहां ईशाण सुरेंद्र नी, सुरराजा नी जान । ___ सभा सुधर्मा शोभती, आखी हे भगवान ? ४. जिन भाखै सुण गोयमा ! जंबूद्वीपज नाम । द्वीप विष मेरू तणे, उत्तर पासे ताम ।। ५. ए रत्नप्रभा पृथ्वी विषे, घणों सरीख जोय । भूमिभाग रमणीक छ, तेह थकी अवलोय ।। ६. ऊंचो चंद्रिम जिम का द्वितीय ठाण पद मांय । सूत्र पन्नवणा में विषे, जाव मध्य कहिवाय ।। ७. ठाण पदे इह विधि कह्य, ऊर्द्ध चंद्रमा जान । रविग्रह गण नक्षत्र वलि, तारारूप पिछान । ३. कहिं णं भंते ! ईसाणस्स देविदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता? ४. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरे ८. योजन बहु सईकड़ां, योजन घणां हजार ।। जाव ऊर्द्ध जइयै तिहां, कल्प ईशाण उदार । ९. इत्यादिक बिच में कह्य, अवतंसक ईशाण । नाम पंचमो एह छै, वारू महाविमाण ॥ १०. ते ईशाणवडिसए, महाविमान वदीत । साढा द्वादश लक्ष जे, योजन तणों प्रतीत ।। ११. इम जिम दशमा शतक में, षष्ठमुद्देश मझार । शक विमान तणी कही, वक्तव्यता अधिकार ।। १२. तिका इहां पिण जाणवी, वर ईशाण विमान । वक्तव्यता तेहनी सहु, जाव आत्मरक्ष जान ।। १३. योजन साढा बार लक्ष, लांबपणे सुविचार । पहुलपणे पिण एतलु, मध्य विमान उदार ।। १४. एगुणचाली लक्ष फुन, बावन सहस्र सुजन्न । अठसय चउरासी वली, योजन परिधि प्रपन्न ।। ५. इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ ६. उड्ढं चंदिम जहा ठाणपदे (२०५१) जाव मज्झे ७. 'जहा ठाणपए' त्ति प्रज्ञापनाया द्वितीयपदे, तत्र चेदमेवम् - 'उड्ढे चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवाणं (वृ० ५० ७२९) ८-१०. ईसाणव.सए। से णं ईसाणवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरसजोयणसयसहस्साइंबहूइं जोयणसयाई बहूइं जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई जाव उप्पइत्ता एत्थ णं ईसाणे णामं कप्पे पन्नत्ते इत्यादि। (वृ० प० ७२९) ११. एवं जहा दसमसए (१०९९) सक्कविमाण वत्तव्वया १२. सा इह वि ईसाणस्स निरवसेसा भाणियन्वा जाब आयरक्खत्ति १३. अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं (वृ०प० ७२९) १४. ऊयालीसं च सयसहस्साई बावन्नं च सहस्साई अट्ठ य अडयाले जोयणसए परिक्खेवेणमित्यादि । (वृ० ५० ७२९) १५. ठिती सातिरेगाई दो सागरोवमाई, सेसं त चेव जाव ईसाणे देविदे देवराया, ईसाणे देविदे देवराया। (श० १७१६५) १६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १७।६६) १५. बे सागर जाझी थिति, शेष तिमज कहिवाय । जाव ईशाण सुरेंद्र ते, देव तणों छै राय ।। १६. सेवं भंते ! स्वाम जी, सतरम शत नों जान । पंचमुद्देशक नों भलो, अर्थ अनोपम वान ।। सप्तदशशते पंचमोद्देशकार्थः ।।१७।५।। श० १७, उ० ५ ढा० ३६८ १०१ Jain Education Interational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. पञ्चमोद्देशके ईशानकल्प उक्तः, पष्ट तु कल्पादिषु पृथिवीकायिकोत्पत्तिरुच्यते (वृ०प० ७२९) सोरठा १७. पंचमुद्देशक ताहि, आख्यो कल्प इशान जे। छठे कल्पादि मांहि, उत्पत्ति पृथ्वीकाय नी ।। देश सर्व मारणान्तिक समुद्घात पद "दीनदयालजी रे कृपा करो जिनराज! आप तारणतिरण जिहाज, भवदधि केरी पाज। देव दयालजी रे मया करो महाराज ! ।। (ध्र पद) १८. हे प्रभु ! पृथ्वीकाइया रे, इण रत्नप्रभा पृथ्वी मांहि । समुद्घात मारणांतिकी, तेह करीनै ताहि ।। १९. सौधर्म सुरलोक में रे, पृथ्वीकायपणेह । जे ऊपजवा योग्य छ, तेहनों प्रश्न करेह ।। २०. ते प्रभु ! स्यूं पहिला तिको रे, उत्पत्ति क्षेत्रे जाय । आहार तणां पुद्गल प्रतै, पाछै ग्रहण कराय ।। २१. अथवा पुद्गल आहार ना रे, प्रथम ग्रही नै रे सोय। पाछै उत्पत्ति क्षेत्र में, तिको ऊपजै जोय? १८. पुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता 'समोहए' ति समवहतः-कृतमारणान्तिकसमुद्घातः (वृ० प० ७३०) १९. जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, २०,२१. से णं भंते ! कि पुवि उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा ? पुवि संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्जा? 'उववज्जित्त' त्ति उत्पादक्षेत्र गत्वा 'संपाउणेज्ज' त्ति पुद्गलग्रहणं कुर्यात् उत व्यत्ययः ? (वृ० प० ७३०) २२. गोयमा ! पुब्बि वा उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा, २२. जिन भाखै सुण गोयमा ! रे, प्रथम ऊपजी रे पेख । पुद्गल आहार तणां पछै, ग्रहण करै सुविशेख ।। मण शिष्य गोयमा ! रे, दाखै दीनदयाल ।।] २३. अथवा पुद्गल आहार ना रे, प्रथम ग्रहण करि तेह। उत्पत्ति क्षेत्र विषे पछै, ऊपजै जंतू जेह ।। २४. किण अर्थे भगवंत जी ! रे, जाव पछै उत्पात? जिन कहै पृथ्वीकाय नैं, समुद्घात त्रिण ख्यात ।। २३. पुव्वि वा संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्जा। (श०१७।६७) २४. से केणठेणं जाव पच्छा उववज्जेज्जा? गोयमा ! पुढविक्काइयाणं तओ समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा२५. वेदणासमुग्घाए, कसायसमुग्धाए, मारणंतियसमु ग्याए। २६. मारणंतियसमुग्धाएणं समोहण्णमाणे देसेण वा समोहण्णति, सव्वेण वा समोहण्णति, २५. समुद्घात धुर वेदना रे, दूजी दाखी कषाय । मारणांतिकी तीसरी, ए तीनूं कहिवाय ।। २६. समुद्घात मारणांतिकी रे, करतो छतो जिवार । देशे करि वा सर्व करि, करतां मरै तिवार ।। सोरठा २७. मारणांतिकी समुद्घात, पाम्यो थको मरै यदा । गति इलिका विख्यात, पामै उत्पत्ति देश प्रति ।। २८. जीव तणों जे देश, पूर्व शरीर विषे रह्यो। जंतु देश फुन शेष, उत्पत्ति देशे प्राप्ति थी। २९. देश' करीनै तेह, समुद्घात प्रति जे करी । इह विधि कहिये जेह, इलिका गति उत्पत्ति जिहां ।। २७. मारणान्तिकसमुद्घातगतो म्रियते तदा ईलिका गत्योत्पत्तिदेशं प्राप्नोति (वृ० प० ७३१) २८,२९. तत्र च जीवदेशस्य पूर्वदेहे एव स्थितत्वाद् देशस्य चोत्पत्तिदेशे प्राप्तत्वात् देशेन समवहन्तीत्युच्यते, (वृ०प० ७३१) *लय : सुण हे सुवटी ! मत कर सुत नी आश रे १०२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. बलि जिण काले जेह, निवृत्त छतो मरेह, ३१. दहा तणी गति ख्यात सर्व करी समुद्घात मारणांतिक समुद्धात थी। सर्व प्रदेश संहरण थी ।। उत्पत्ति देश पाम्ये छते । 7 इम कहिये गति गेंदुके ।। हे गोतम ! सर्वथा त्यजवा वा० - गोयमा ! पुव्वि वा उववज्जेत्ता पच्छा संपाउणेज्जा मारणांतिक समुद्घात थकी निवर्ती ने जिवारे पूर्व शरीर ने थकी गेंदुक ते दड़ा नी गति करिकै क्षेत्रे जाय तिवारै कहिये । पहिला ऊपजी मैं पच्छा संपाउणेज्जा कहितां पछँ पुद्गल ग्रहण करें, आहार करें इत्यर्थः । पुव्वि वा संपाउणेज्जा पच्छा उववज्जेज्जा जिवारे मारणांतिकी समुद्घाते इज मरण पामियै इलिका गति करिकै उत्पाद स्थान जाय तिवारी कहिये । पुदगल ग्रह आहार करीनें पछे ऊपजै, पूर्व शरीर नं विषे रह्या प्रदेश संहरण थकी समस्त जीव प्रदेश करिकै उत्पत्ति क्षेत्र रह्यो हुवै इति भावः । ३२. *तिहां समुद्धात देशे करी रे, तिका ईलिका गति करी ३३. पहिलां पुद्गल आहार नां रे, ग्रहण करी सुविशेष । पछे अपने तिहां, जे अंठ रुचक प्रदेश || छे करतो जंतू रे जेह । जातो थकोज जेह || ३४. सर्व आत्म करिक तिहां रे, उत्पत्ति क्षेत्रे गच्छेह कंदुक गति जातो छतो, सर्व करी ने तेह || ३५. पहिला प्रदेश निज सह रे, पाछै पुद्गल आहार न उपजे उत्पत्ति खेत । ग्रहण करे ए तेथ ॥ ३६. ते तिण अर्थ करि को रे, वलि गोतम पृथ्वी वर्णों, ३७. हे प्रभु! पृथ्वीकाइयो रे, जाव करी समुदघात नैं ३८. कल्प ईशाण विषे तिको जाव पर्छ उपजेह वारू प्रश्न करेह ॥ रत्नप्रभा ने विषेह मारणांतिकी जेह ॥ रे, पृथ्वीकायपणेह । जे ऊपजवा योग्य छ, तास प्रश्न पूछेह ।। ३९. एवं चेव ईशाण ही रे, विमान वैवेयक वली, ४०. इसीपारा ने विधे रे, हिव सक्करप्रभा मही तणों, ४१. हे प्रभु ! पृथ्वीकाइयो रे, यावत अच्युत एम । पंच अनुसर तेम ।। एवं चैव कहाय । प्रश्न गोवम पूछाय ।। सक्करप्रभा विषेह । समुद्घात मारणांतिकी करें करीने तेह ॥ रे, पृथ्वोकायपणेह | जे ऊपजवा योग्य छं प्रश्नोत्तर तसु एह ४२. सौधर्मकल्प विषे तिको 1 *लय सुण हे सुवटी ! मत कर सुत नीं आश रे ३०, यदा तु मारणान्तिकसमुद्घातात् प्रतिनिवृत्तः सन् म्रियते तदा सर्व प्रदेशसंहणतः । (बृ० प० ७२१) ३१. गेन्दुकगत्योत्पत्तिदेशं प्राप्तौ सर्वेण समवहत इत्युच्यते, (० ० ७३१) वा० 'गोयमा ! उववज्जित्ता पच्छा पुि संपाउणेज्ज' त्ति ति मारणालिकसमुद्माता वदा प्राक्तनशरीरस्यायादुत्यो स्पत्तिदेशं गच्छति तो पूर्वमुत्पद्य पश्चात्संप्राप्नु वात् तान् गृह्णीयात् आहारयेदित्यर्थः । 'पुव्वि वा संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्ज' त्ति यदा मारणान्तिकसमुद्घातगत एवं म्रियते ईलिकागत्यो त्पादस्थानं याति तदोच्यते पूर्वं सम्प्राप्य - पुद्गलान् गृहीत्वा पञ्चादुपचेत प्राक्तनशरीरस्थ जीवप्रदेशसंहरणतः समस्तजीवप्रदेश रुत्पत्तिक्षेत्रगतो भवेदिति ( वृ० ० प० ७३०, ३१) भाव:, ३२. देसेण वा समोण्णमाणे तत्र च देशेन समवहन्यमान: ईलिकागत्या गच्छन्नित्यर्थः ( वृ० प० ७३१) ३३. पुवि संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्जा. पूर्व सम्प्राप्य पुलान् गृहीत्वा पश्चादुत्पद्यते - सर्वात्मनोत्पादक्षेत्रे आगच्छति, (०१० ७३१) ३४. सव्वेणं समोहण्णमाणे 'सवेणं समोहणमाणे' गित्यर्थ: ( वृ० प० ७३१) 1 ३५. पुव्वि उववज्जेत्ता पच्छा संपाउणेज्जा पूर्वमुत्पच सर्वात्मनोत्पाददेशमासाद्य 'संपाउणेज्ज' त्ति पुद्गलग्रहणं कुर्यादिति । पश्चात् (५०१० ७३१) ३६. से तेणट्ठेणं जाव पच्छा उववज्जेज्जा । (श० १०१६८) ३७. पुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता ३८. जे भविए ईसाणे कप्पे पुढविवकाइयत्ताए ? ३९. एवं चैव ईसाणे वि एवं जाव अच्चय- गेवेज्जविमाणे, अणुत्तरविमाणे, ४०. ईसिप भाराए य एवं चैत्र । (श० १०।६९) ४१. पुढविक्काइए णं भंते! सक्करप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहगिता ४२. जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविक्काइयत्ताए ? श० १७, उ० ६, ढा० ३६८ १०३ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. एवं जहा रयणप्पभाए पुढविक्काइओ उववाइओ ४४. एवं सक्करप्पभाए वि पुढविक्काइओ उववाएयव्वो जाव ईसिंपन्भाराए। ४५. एवं जहा रयणप्पभाए वत्तव्वया भणिया, एवं जाब अहेसत्तमाए ४६. समोहए ईसिपब्भाराए उववाएयव्वो, सेस तं चेव । (श० १७१७०) ४७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १७१७१) ४८. पुढविक्काइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता ४१. जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढविक्का इयत्ताए उववज्जित्तए, ५०. से णं भंते ! कि पुब्बि उववज्जित्ता पच्छा संपाउ ज्जा? सेसं तं चेव ? जहा रयणप्पभाए पुढविक्काइए ५१. सव्वकप्पेसु जाव ईसिंपन्भाराए ताव उववाइओ, ४३. इम जिम रत्नप्रभा विषे रे, पृथ्वीकाइयो जेह। समुद्घात करि ऊपनो, सौधर्म आदि विषेह ।। ४४. इम सक्करप्रभा विषे रे, पृथ्वीकाइयो रे धार । ___ करि समुद्घात उपजाविवो, यावत इसिपब्भार ।। ४५. इम जिम रत्नप्रभा विषे रे, वक्तव्यता कही एम। यावत तल मही सप्तमी, तास विषे छै तेम ।। ४६. समुद्घात करिनै तिहां रे, सिद्धशिला में उपपात । शेष तिमज कहिवो सह, सेवं भंते ! ख्यात ।। ४७. अर्थ सतरमा शतक नों रे, छठा उद्देशा नो धार । सप्तमुद्देशक नैं विषे, वलि पृथ्वी अधिकार ।। ___ सप्तदशशते षष्ठोद्देशकार्थः ।।१७।६।। ४८. हे प्रभु ! पृथ्वीकाइयो रे, सौधर्म कल्प विषेह । ___ समुद्घात मारणांतिकी, करै करीनै जेह ।। ४९. ए रत्नप्रभा पृथ्वी विषे रे, पृथ्वीकायपणेह । जे ऊपजवा योग्य छै, कर्म तणे बस जेह ।। ५०. ते प्रभु! स्यं पहिलां तिको रे, शेष तिमज सह तेह। जिम रत्नप्रभा पृथ्वी विषे, पृथ्वीपणे उपजेह ।। ५१. सगला कल्प विषे तिको रे, यावत इसिपब्भार । तिहां लगै उपजाविवो, पूरवली पर धार ।। ५२. एवं सौधर्मकल्प नों रे, पुढवीकाइयो पेख । सातई पृथ्वी विष, उपजाविवो विशेख ।। ५३. तिमहिज यावत जाणवो रे, अधो सप्तमी रै मांय । पृथ्वीपणेज ऊपजै, सौधर्म पृथ्वीकाय ।। ५४. इम जिम सौधर्म कल्प नों रे, पृथ्वीकाइयो पेख । सगली पृथ्वी नै विषे, उपजाव्यो सुविशेख ।। ५५. एवं यावत सिद्धशिला रे, पृथ्वीकाइयो तास । सगली पृथ्वी नै विषे, उपजाविवो विमास ।। ५६. जाव सातमी – विषे रे, पृथ्वीकायपणेह। उपज पृथ्वीकाइयो, सिद्धशिला नों जेह ।। सोरठा ५७. अधोलोक नों जेह, पृथ्वीकायिक जीवड़ो। ऊर्द्ध लोक उपजेह, ते उद्देश छठो कह्यो। ५८. ऊर्द्ध लोक नों जेह, पृथ्वीकायिक जीवड़ो। अधोलोक ऊपजेह, एह उद्देशो सातमों। ५९. पृथ्वीकाय नां ताम, दोय उद्देशा आखिया। सेवं भंते ! स्वाम, सतरम शत ए सातमों। सप्तदशशते सप्तमोद्देशकार्थः ।।१७।७।। ६०. अपकायिक भगवंत जी रे, ए रत्नप्रभा नै विषेह । समुद्घात मारणांतिकी, करै करीनै तेह ।। *लय : सुण हे सुवटी ! मत कर सुत नी आश रे ५२. एवं सोहम्मपुढविक्काइओ वि सत्तसु वि पुढवीसु उववाएयव्वो ५३. जाव अहेसत्तमाए। ५४. एवं जहा सोहम्मपुढविक्काइओ सव्वपुढवीसु उववाइओ, ५५. एवं जाव ईसिंपन्भारापुढविक्काइओ सव्वपुढवीसु उववाएयव्वो ५६. जाव अहेसत्तमाए। (श० १७१७२) ५९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १७१७३) ६०. आउक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता १०४ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. जे भविए सोहम्मे कप्पे आउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए? ६२. एवं जहा पुढविक्काइओ तहा आउक्काइओ वि सव्वकप्पेसु ६३. जाव ईसिंपन्भाराए तहेव उववाएयन्वो। ६४. एवं जहा रयणप्पभआउक्काइओ उबवाइओ तहा जाव अहेसत्तम-आउक्काइओ उववाएयव्वो ६५. जाव ईसिंपन्भाराए। (श० १७१७४) ६६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १७७५) ६१. सौधर्मकल्प विषे तिको रे, आउकायपणेह । जे ऊपजवा जोग्य छ, कर्म तण वस जेह ।। ६२. इम जिम पृथ्वीकाइयो रे, जिम पूर्वे आख्यात । अपकायिक पिण तिह विधे, सह कल्पे उत्पात ।। ६३. यावत सिद्धशिला विषे रे, तिणहिज रीत वदीत । पृथ्वी रत्नप्रभा तणों, उपजाविवो प्रतीत ।। ६४. इम जिम रत्नप्रभा तणों रे, अपकायिक उत्पात । तिमहिज यावत सप्तमी, अपकायिक उपपात ।। ६५. यावत सिद्धशिला विष रे, नरक सातमी नों जाण । अपकाधिक उपजाविवो, पूर्ववत पहिछाण ।। ६६. सेवं भंते ! स्वामजी रे, सतरम शत नों रे सोय । प्रवर उद्देशक आठमो, अर्थ थकी अवलोय ।। सप्तदशशते अष्टमोद्देशकार्थः ।।१७।८।। ६७. अपकायिक भगवंत जी ! रे, सौधर्मकल्पे रे जेह । समुद्घात मारणांतिकी, करै करीने तेह ।। ६८. ए रत्नप्रभा न घनोदधि रे, तेहनां वलय विषेह । ऊपजवा नै जोग्य छ, जे अपकायपणेह ।। ६९. ते प्रभु ! शेष तिमज सह रे, इम यावत अवदात । तल सप्तमी घनोदधि, वलय विषे उत्पात ।। ७०. जिम सौधर्म अपकाइयो रे, करै मरण समुद्घात । पृथ्वी सप्त धनोदधि, वलय ऊपजवो ख्यात ।। ७१. एवं यावत सिद्धशिला रे, अपकायिक मरि ताय । जाव सप्तमी घनोदधि, उपजाविवो कहाय ।। सोरठा ७२. अधोलोक नों जेह, जे अपकायिक जीवड़ो। ऊर्द्धलोक उपजेह, पूर्व उद्देशक आठमो ।। ७३. ऊर्द्ध लोक नों तेह, जे अपकायिक जीवड़ो। अधोलोक उपजेह, नवम उद्देशक ए कह्यो ।। ७४. *सेवं भंते ! स्वामजी रे, शत सतरम नों रे सोय । नवम उद्देशक निरमलो, अर्थ थकी अवलोय ।। सप्तदशशते नवमोद्देश कार्थः ।।१७।६।। ७५. वायुकायिक हे प्रभु! मरि रत्नप्रभा ने विषेह । जाव ऊपजवा योग्य छ, सौधर्म वायुपणेह ।। ७६. इम जिम पृथ्वी काइयो रे, तिम वायु पिण धार । णवरं वायुकाय में, समुद्घात है च्यार ।। ६७. आउक्काइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता ६८. जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिवल एसु आउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, ६९. से णं भंते ? सेसं तं चेव, एवं जाव अहेसत्तमाए। ७०. जहा सोहम्मआउक्काइओ ७१. एवं जाव ईसिपब्भाराआउक्काइओ जाव अहेसत्तमाए उववाएयव्वो। (श० १७१७६) ७४. सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १७१७७) ७५. वाउक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए जाव जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, ७६. से णं भंते ? जहा पुढविक्काइओ तहा वाउक्काइओ वि, नवरं वाउक्काइयाणं चत्तारि समुग्धाया पण्णत्ता, ७७. वेदणासमुग्घाए जाव वेउव्वियसमुग्घाए । मारणंतिय समुग्धाए णं समोहण्णमाणे ७८. देसेण वा समोहण्णइ, सेसं तं चेव ७७. समुद्धात धुर वेदना रे, जाव वैक्रिय जाण । समुद्धात मारणांतिकी, करतो छतो पिछाण ।। ७८. देश करीने ते करै रे, समुद्घात सुविचार । शेष तिमज कहिवो सहु, पूरवली पर धार ।। *लय : सुण हे सुवटी ! मत कर सुत नी आश रे ण०१७, उ०८, ९, ढाल ३६८ १०५ Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९. जाव अहेसत्तमाए ममोहओ ईसिपब्भाराए उववाएयव्वो । (श० १७७८) ८०. सेवं भंते ! सेव भंते ! ति । (श. १७७९) ७५. यावत नीच सप्तमो रे, समुद्घात थी रे सोय। सिद्ध शिला उपजाविवो, वायुपणे सुजोय ।। ८०. सेवं भंते ! स्वामजी रे, सतरम शत नों रे सोय । दशम उद्देशो दाखियो, अर्थ थकी अवलोय ।। सप्तदशशते दशमोद्देशकार्थः ।।१७।१०।। ८१. वायूकायिक हे प्रभु ! रे, सौधर्मकल्प विषेह । समुद्घात मारणांतिकी, करै करीने तेह ।। ८२. ए रत्नप्रभा पृथ्वी विषे रे, जे धन वायु विषेह । वलि तनु वायु विषे तिको, जोग्य उपजवा जेह ।। ८३. धन वायु नां वलय में रे, तनु वायु वलयेह । जे ऊपजवा जोग्य छ, वायुकायपणेह ।। ८४. ते प्रभु ! शेष तिमज सहु रे, इम जिम सौधर्म वाय । सातूंई पृथ्वी विष, उपजाव्यो छै ताय ।। ८५. एवं यावत सिद्धशिला रे, उपजाविवो विमास । पृथ्वी सप्तमी जाव ते, उपजाविवो विमास ।। ८१. वाउक्काइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता ८२. जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए, तणुवाए, ८३. धणवायवलएसु, तणुवायवलएस. बाउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, ४. से णं भंते ? सेसं तं चेव । ८५. एवं जहा सोहम्मे वाउक्काइओ सत्तसु वि पुढवीसु उववाइओ एवं जाव ईसिंपव्भारावाउक्काइओ अहेसत्तमाए जाव उववाएयव्वो। (श० १७८०) ८८. सेवं भंते ! सेव भंते ! ति । (श. १७८१) वा--हम जिम सोधर्मकल्प नो वाउकाइयो सात् पृथिवी नै विर्ष उपजवा नो अधिकार जाणवू । इम जावत सिद्धशिला नो बाउकाइयो अधोसप्तमी पृथिवी नै विषे उपजाविवो। ८६. अधोलोक नों जेह रे, वाउकायिक जीवड़ो। ऊर्द्धलोक उपजेह रे, दशम उद्देशक दाखियो।। ८७. ऊर्द्ध लोक नों जेह रे, वाउकायिक जीवड़ो। अधोलोक उपजेह रे, एकादशम उद्देशके ।। ८८. सेव भंते ! स्वामजी रे, सतरम शत नों रे सोय । एकादशम उद्देशको, कह्यो अर्थ थी जोय ।। सप्तदशशते एकादशोद्देशकार्थः ।।१७।११। एकेन्द्रिय पद ८९. हे प्रभु ! एगिदिया सह रे, अछ सरीखै जी आहार । सर्व उस्सास निस्वास ते, तास सरीखा धार ? ९०. इम जिम पहिला शतक में रे, द्वितीय उद्देशक मांहि। प्रथ्वीकायिक नी कही, वक्तव्यता जे ताहि ।। ९१. तेहिज एगिदिया तणी रे, भणवी इहां विचार । जाव सरीखा आउखा साथे उपनां धार ।। ९२. हे प्रभु ! एगिदिया तणे रे, किती लेश सविशेष ? जिन कहै चिउं धुर कृष्ण है, यावत तेजूलेश ।। ८९. एगिदिया ण भंते ! सब्बे समाहारा? ९०. एवं जहा पढमसए वितिय उद्देसए (भग० ११७६-८१) पुढविक्काइयाणं वत्तव्वया भणिया ९१. सा चेव एगिदियाणं इह भाणियव्वा जाव समाउया. समोववन्नगा। (श० १७८२) ९२. एगिदियाणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा.. कण्हलेस्सा जाव (सं० पा०) तेउलेस्सा। (श० १७८३) ९३. एएसि णं भंते ! एगिदियाणं कण्हलेस्माणं जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा ? ९४. गोयमा ! सव्वत्थोवा एगिदिया तेउलेस्सा, ९३. ए प्रभु ! एगिदिया तणे रे, लेश्या कृष्ण कहेह । जाव विशेषाधिक तथा, अल्पबहुत्व पूछेह ? ९४. जिन कहै थोड़ा सर्व थी रे, एगिदिया कहिवाय । तेजलेश्यावंत जे, सुर उपजै ते न्याय ।। १०६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५. अनंतगुणां कापोत नां रे, तेह थकी सुविशेष । नील विशेषाधिक अछ, तेहथी कृष्ण विशेष || ९६. हे प्रभु ! एगिंदिया तणें रे, कृष्णलेशी नैं जेह | ऋद्धि प्रश्न वलि पूछियो, चिउं लेश्या में तेह || ९७. जिम का द्वीपकुमार नैं रे, तिम कहिवो सुविशेष | सेवं भंते ! सतरमे रे, शत द्वादशम उद्देश || सप्तदशशते द्वादशोद्देशकार्यः ।। १७।१२।। नागकुमारादि पद ९८. नागकुमारा छै प्रभु ! रे, सर्व सरीखे आहार ? जिम द्वीपकुमार उद्देश छ सोलम शतक मभार ॥ ९९. तिमहिज सह भणवो सही रे, जान ऋद्धि लग ताम । कहिवो पाठज एतलो रे, सेवं भंते ! स्वाम || १०० विच महामुनी रे, सतरम शत नो रेख्यात । तंत उद्देशो तेरमो रे, अर्थ थकी अवदात || सप्तदशशते त्रयोदशोद्देशकार्यः ।।१७।१३।। १०१. सुवणकुमारा है प्रभु ! रे, सर्व सरीखे जी आहार ? एवं नेव चेव अहीजिये, सेवं भंते ! सार ॥ १०२. सतरम शतक सुहामणो रे, दाख्यो चवदमुद्देश । अर्थ थकी ए ओपतो, वर जिन वचन विशेष ॥ सप्तदशशते चतुर्दशो देशकार्थः ।। १७।१४।। १०२. विकुमारा के प्रभु रे सर्व सरीखे रे आहार ? एवं चेव अहीजिये, सेवं भंते! सार ॥ १०४. सतरम शतक सुहामणो रे, पनरमुद्देश पिछान अर्थ थकी ए आखियो, वर जिनवर नीं वान ॥ सप्तदशशते पंचदशो देशकार्थः ।। १७।१५।। १०५ वायुकुमारा प्रभु रे एवं चैव कहेस । ! सेयं भंते! मतरमे, शत सोलम उद्देश || सप्तदशशते षोडशो देशकार्थः ।। १७।१६ । । १०६. अग्निकुमारा छै प्रभु ! रे, सर्व सरीखे रे आहार ? एवं चेव अहीजिये, सेवं भंते ! सार ।। १०७. सतरम शतनों सतरमो रे, अर्थ थकी उद्देश । सतरम शत पिण अर्थ थी, पूरण थयो विशेष ।। १०८. उगणीस तेवीस में रे, विद श्रावण पांचम बुद्ध । सतर संताली मुनि अज्जा, बीदासर धर्म वृद्ध ॥ ९५. काउलेस्सा अनंतगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया । ( श० १७१८४) ९६. एएसि णं भंते ! एगिदियाणं कण्हलेसाणं इड्ढी ? ९७. हे दीवकुमाराणं ( भग० १६।१२५-१२८ ) । (४० १७८५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १७१०६) ९८. नागकुमारा णं भंते ! सव्वे सोनम दीवकुमारसे १२८) । ९९. तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव इड्ढी । सेवं भंते ! सेवं भंते ! १००. जाव विहरइ । समाहारा ? जहा ( भग० १६०१२४ ( ० १७०७) (०१७) १०१. सुवण्णकुमारा णं भंते! सव्वे समाहारा ? एवं चेव । (STO PUIER) मेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति । ( ० १७९० ) १०३. विज्जुकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा ? एवं चेव । (श० १७१९१) (२० १०९२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । १०५. वायुकुमारा णं भंते! सव्वे समाहारा ? एवं चेव । (श० १७९३) ( श० १७१९४ ) सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति । १०६. अग्गिकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति । ? एवं चेव । ( श० १७।९५ ) ( ० १०९६) ब० १७. उ० १२-१६. डा० ३६८ १०७ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९. त्रिण सय अडसठमी सही रे, आखी ढाल उदार ! भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, __'जय-जश' हरष अपार ।। सप्तदशशते सप्तदशोदवेशकार्थः ।।१७।१७।। गीतक छंद १. सिंह स्वप्न भिक्षु जनमिया जग थया सार्दुल सारिखा । पट दीर्घमाल सुभद्र गिरवा प्रगट गुणिजन पारिखा ।। २. गुणवंत तृतीय पट नृपेंदु तेहनां सुप्रसाद थी। शत सतरमा नी जोड़, रचना रची चित्त समाध थी।। १०८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक Jain Education Intemational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक ढाल : ३६९ सोरठा १. सतरम शत आख्यात, अथ अनुक्रम आगत शतक। अष्टादशम विख्यात, बखाणिय छै ते प्रवर ।। २. प्रथम उद्देशक नींज, संग्रहणी गाथा सखर । पढमा आदि कहीज, ते दश उद्देशक तणी।। १. व्याख्यातं सप्तदशं शतम्, अथावसरायातमष्टादशं व्याख्याते, (वृ. प. ७३१) २. तस्य च तावदादावेवेयमुद्देशकसंग्रहणी गाथा - (वृ. प. ७३१) दूहा ३. जीवादिक नां अर्थ नों, प्रथमपणादि विचार । तिणस् धुर उद्देश नों, प्रथम नाम अवधार ।। ४. पुरी विशाखा नों कह्यो, तत्उपलक्षित ताय । द्वितीय उद्देशक नों प्रवर, नाम विशाख कहाय ।। ५. माकंदीसुत नाम मुनि, तत् उपलक्षित ताम। तृतीय उद्देशक नों कह्यो, माकंदित जे नाम ।। ६. प्राणातिपातादिक तणां, विषय कथन अवदात । तुर्य उद्देशक नों कह्यो, नाम प्राणअतिपात ।। ७. वक्तव्यता असुरादि नी, तत्प्रधान पहिछान । तिणसं पंचमुद्देश नों, अछै असुर अभिधान ।। ३. पढमे 'पढमे' त्यादि, तत्र 'पढमे' त्ति जीवादीनामर्थानां प्रथमाप्रथमत्वादिविचारपरायणउद्देशक: प्रथम उच्यते, स चास्य प्रथमः । (बृ. प. ७३३) ४. विसाह 'विसाह' त्ति विशाखानगरी तदुपलक्षितो विशाखेति द्वितीयः । (वृ. प. ७३३) ५. मायदिए य 'मागंदिए' त्ति माकन्दीपुत्राभिधानानगारोपलक्षितो माकन्दिकस्तृतीयः । (वृ. प. ७३३) ६. पाणाइवाय 'पाणाइवाय'त्ति प्राणातिपातादिविषयः प्राणातिपातश्चतुर्थः । (वृ. प. ७३३) १७. असुरे य 'असुरे य' त्ति असुरादिवक्तव्यताप्रधानोऽसुरः पञ्चमः । (बृ. प. ७३३) ८. गुल 'गुल' त्ति गुलाद्यर्थविशेषस्वरूपनिरूपणपरो गुलः षष्ठः । (वृ. प. ७३३) ९. केवलि 'केवलि' त्ति केवल्यादिविषयः केवली सप्तमः । (वृ. प. ७३३) १०. अणगारे 'अणगारे' त्ति अनगारादिविषयोऽनगारोऽष्टमः । (वृ. प. ७३३) ११. भविए तह 'भविय' त्ति भव्यद्रव्यनारकादिप्ररूपणार्थों भव्यो नवमः । (वृ. प. ७३३) १२. सोमिल 'सोमिल' त्ति सोमिलाभिधानब्राह्मणवक्तव्यतोपलक्षितः सोमिलो दशमः ८. गुलादि अर्थ विशेष नों, स्वरूप कहिवे तास । षष्ठमुद्देशक नों कह्यो, गुल अभिधान विमास ।। ९. पवर केवली आदि नी, विषय अछै इह माय । तिणसूं सप्तमुद्देश नों, नाम केवली पाय ।। १०. अणगारादी विषय छै, अष्टमुद्देशक मांय । ते माट अणगार ए, नाम तास कहिवाय ।। ११. भव्य द्रव्य नारक प्रमुख, परूपणा जे माय । तिणसू नवम उद्देश नों, भव्य नाम कहिवाय ।। १२. वक्तव्यता सोमिल तणी, तत्उपलक्षित ताम। दशम उद्देशक नों कह्यो, मोमिल एहवै नाम ।। श०१८, उ०१. ढा० ३६९ १११ Jain Education Intemational a Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. ए दश उद्देशा कह्या, शतक अठारम माय । प्रथम उद्देशक अर्थ नों, प्रतिपादन कहिवाय ।। १४. प्रथम उद्देशे द्वार नी, संग्रह गाथा सोय । किहां एक दीस अछ, ते आगल अवलोय ।। १३. अट्ठारसे 'अट्ठारसे' त्ति अष्टादशशते एते उद्देशका इति । (व. प. ७३३) १४. उद्देशकद्वारसङग्रहणी चेयं गाथा क्वचिदृश्यते "जीवाहारगभवसन्निलेसादिट्ठी य संजयकसाए । णाणे जोगुवओगे वेए य सरीरपज्जत्ती ।।" (व. प. ७३३) १५. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी १६. जीवे णं भंते ! जीवभावेणं कि पढमे ? अपढमे ? वा०-'जीवे णं भंते' इत्यादि, जीवो भदन्त ! 'जीवभावेन' जीवत्वेन कि 'प्रथमः' प्रथमताधर्मयुक्तः ?, अयमर्थः-कि जीवत्वमसतप्रथमतया प्राप्त उत 'अपढमे' ति अप्रथम:-अनाद्यवस्थितजीवत्वं इत्यर्थः । (वृ. प. ७३३) १७. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे । एवं नेरइए जाव वेमाणिए । (श. १८/१) वा०-इह च प्रथमत्वाप्रथमत्वयोर्लक्षणगाथा -- "जो जेण पत्तपुव्वो भावो सो तेणऽपढमओ होइ। जो जं अपत्तपुव्वं पावइ सो तेण पढमो उ ।।" (वृ. प. ७३३, ७३४) १५. तिण काले नै तिण समय, नगर राजगृह ताम । जाव वदै इम वीर ने, गणधर गोतम स्वाम ।। समुच्चय जीव द्वार ___ *श्री जिन-वाण सदा सुखकारी ।। (ध्रुपदं) १६. जीव प्रभुजी ! जीव भावे करि, स्यं ए प्रथम कहायो जी। अथवा अप्रथम कहिजे तेहनें ? ए इक वच प्रश्न सुहायो जी॥ वा०-जीव हे भगवन ! जीवभावे करि, एतले जीवपणे स्यू प्रथम ---- प्रथमता धर्म सहित कह्य' ? एहनों अर्थ-स्यूं जीवपणों गये काले न हंतो ते प्रथमपणे करिनै पाम्यो अथवा अपढम अनादि-अपर्यवसित जीवपणों ? इति प्रश्नः । १७. श्री जिन भाखै प्रथम न कहिये, जीव अप्रथम कही जी। इम इक नारक जाव वैमानिक, सह इक वचने ग्रही जी।। वा०-इहां प्रथमपणों अप्रथमपणों जाणवा नै अर्थे कहै छ --जे भाव जेणे पहिला पाम्यो, ते तिणे भावे अप्रथम कहिये । तथा जे कोई भाव प्रतै पूर्वे पाम्यो नहीं अनै पाम ते तिणे भावे प्रथम । ते माट जीव छ तिको जीव भावे करि प्रथम नहीं, आदि सहित नहीं। ते जीव अप्रथम छै आदि रहित माट । इम इक नेरइयो पिण अप्रथम छै अनादि संसार नै विषे नेरइयापणों अनंती बार पूर्व पाम्यो ते भणी नेरइयापणों प्रथम नथी-अप्रथम छ। इम यावत वैमानिक लगे कहिवो। १८. इक सिद्ध हे प्रभु ! सिद्ध भावे करि, प्रथम अप्रथम स्यं कहिये जी? श्री जिन भाख प्रथम कहीजै, पिण अप्रथम न लहिये जी ।। सोरठा १९. सिद्धपणां नों भाव, पूर्वे सिद्ध नवि लह्यो। ते पाम्यो सुख साव, प्रथम कहीजे ते भणी।। २०. जीव बह प्रभु ! जीव भावे करि, प्रथमा अप्रथमा स्यं कहीजै ? श्री जिन भाखै पढमा नहीं छै, अप्रथमाज वदीजै जी।। २१. एवं जाव विमानिया कहिये, बहु सिद्ध पृच्छा ज्यांही जी। जिन कहै प्रथमा सादि भाव थी, सिद्धा अप्रथमाज नांही जी।। आहारक द्वार २२. आहारक एक जीव हे.प्रभुजी! आहार भावे करि जाणी जी। प्रथम अप्रथम तणी.जे पूछा, उत्तर तास पिछाणी जी ।। *लय : दया भगोती १८. सिद्धे णं भंते ! सिद्धभावेणं कि पढमे ? अपढमे ? गोयमा ! पढमे, नो अपढमे । (श. १८/२) १९. 'पढमे' ति सिद्धन सिद्धत्वस्याप्राप्तपूर्वस्य प्राप्त त्वात् तेनासौ प्रथम इति । (व. प. ७३४) २०. जीवा णं भंते ! जीवभावेणं कि पढमा ? अपढमा? गोयमा ! नो पढमा, अपढमा। २१. एवं जाव वेमाणिया। (श. १८/३) सिद्धा णं-पुच्छा । गोयमा ! पढमा, नो अपढमा। (श. १८/४) २२. आहारए णं भंते ! जीवे आहारभावेणं कि पढमे ? अपढमे ? ११२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. जिन कहै प्रथम कहीजै नाही, ते अप्रथम कहायो जी। अनादि भवे जीव वार अनंती, पूर्वे आहारक पायो जी।। २४. इम नरकादिक जाव वैमानिक, सिद्वपणां ने सोयो जी। आहारक भाव करी न पूछेवो, सिद्ध अनाहारक होयो जी।। २३. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे । आहारकत्वेन नो प्रथम: अनादिभबेऽनन्तशः प्राप्तपूर्वकत्वादाहारकत्वस्य। (व. प. ७४४) २४. एवं जाव वेमाणिए । एवं नारकादिरपि सिद्धस्त्वाहारकत्वेन न पृच्छ्यते, अनाहारकत्वात्तस्येति । (व, प, ७३४) २५. पोहत्तिए एवं चेव । (श. १८१५) अणाहारए णं भंते ! जीये अणाहारभावेणं-- पुच्छा । २६. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे । (श. १८१६) २५. बह वचने पिण इमहिज कहिवो, अनाहारक हिव इच्छा जी। अनाहारक भावे करि प्रभुजी! इक वचन जीव नी पृच्छा जी ।। २६. श्री जिन भाखै प्रथम कदाचित, कदा अप्रथम कहायो जी। प्रथम सिद्ध नैं अप्रथम संसारी, ते विग्रह गति रै न्यायो जी ।। २७. कश्चिज्जीवोऽनाहारक्त्वेन प्रथमो यथा सिद्धः । (व. प. ७३४) २८, कश्चिच्चाप्रथमो यथा संसारी, संसारिणो विग्रहगता वनाहारकत्वस्यानन्तशो भूतपूर्वत्वादिति । ___ सोरठा २७. कोइक जीव पिछाण, अनाहारक भावे करी । प्रथम यथा सिद्ध जाण, एहवो आख्यो वृत्ति में ।। २८. कोइ अप्रथम कहाय, संसारी विग्रहगति । वार अनंती पाय, पूर्व अनाहारकपणों। २९. *नारक जाव वैमानिक इक वच, प्रथम कहीजै नांही जी। ते अप्रथम विग्रह अनाहारक, पूर्व वार अनंती पाई जी ।। ३०. अनाहारकपणे सिद्ध प्रथम छै, पूर्व सिद्धपणों नहिं पायो जी। तास अप्रथम कहीजै नांही, इक वच दंडक थायो जी। ३१. हे प्रभु! अनाहारका जीवा, अनाहारक भावे करि पृच्छा जी। जिन कहै प्रथमा सिद्ध अपेक्षा, अप्रथमा विग्रहगति इच्छा जी।। २९. नेरइए णं भंते ! जीवे अणाहारभावेणं - गुच्छा। एवं नेरइए जाव वेमाणिए नो पह मे , अपढमे । ३०. सिद्धे पढमे, नो अपढमे । (श. १८७) ३१. अणाहारगाणं भंते ! जीवा अणाहारभावेणं पुच्छा । गोयमा ! पढमा वि, अपढमा वि। ३२. नेरइया जाव वेमाणिया नो पढमा, अपढमा । ३३. सिद्धा पढमा, नो अपढमा। ३२. नेरइया जाव विमानिका बहु वच, प्रथम कहीजै नांही जी। अनाहारक थयो वार अनंती, तिणसू अपढमा थाई जी ।। ३३. सिद्धा प्रथमा, पिण नहीं छै अप्रथमा सिद्धपणों सुखदाई जी। अनाहारक भाव पूर्व न पाया, ते पामवै प्रथमा कहाई जी ।। ३४. जिहां पृच्छा वाक्य लिख्यो नहीं छै, इक-इक पद में त्यांही जी। पृच्छा वाक्य कहिवो विध रीते, द्वार-द्वार रै मांही जी।। भवसिद्धिक द्वार ३५. भवसिद्धिक इक बहु वचने करि, आहारक नै जिम आख्यो जी। तिम कहिवं अप्रथम भव्य छै, अनादिपणे करि भाख्यो जी ।। ३६. अभवसिद्धिक पिण इमहिज कहिवो, हिवै भव्य अभव्य बिहु नांही जी। ते जीव नोभव्य-नोअभव्यपणे करि, पढम अपढम पूछाई जी ।। ३४. एक्केक्के पुच्छा भाणियव्वा। (श. १८८) 'एक्केक्के पुच्छा भाणियब्व' त्ति यत्र किल पृच्छावाक्यमलिखितं तत्रैकैकस्मिन् पदे पृच्छावाक्यं वाच्य मित्यर्थः । ३५. भवसिद्धीए एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए । अप्रथम इत्यर्थः, यतो भव्यस्य भव्यत्वमनादिसिद्ध मतोऽसौ भव्यत्वेन न प्रथमः । (व. प. ७३४) ३६. एवं अभवसिद्धीए वि । नोभवसिद्धीय-नोअभव सिद्धीए णं भंते ! जीवे नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीयभावेणं- पुच्छा । *लय: बया भगोती श० १८, उ० १, ढा० ३६९ ११३ Jain Education Intemational Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. गोयमा ! पढमे, नो अपढमे । ३८. नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीए णं भंते ! सिद्धे नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीयभावेणं-पुच्छा। वाइह च जीवपदं सिद्धपदं च दण्डकमध्यात्संभवति न तु नारकादौनि, नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिकपदेन सिद्धस्य वाभिधानात् । (वृ० प०७३४) ३७. श्री जिन भाख प्रथम कहीजे, तास अप्रथम न कहियै जी। समचै जीव पद आश्रयी आख्या, हिवै सिद्ध पद आश्रयी लहिय जी।। ३८. नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक, हे प्रभु ! सिद्ध विशेखो जी। नोभव्य-नोअभव्यपणे करीने, पूर्ववत वच एको जी॥ वा०-समचे जीव, चउवीस दंडक, सिद्ध पद ए छब्बीस दंडक मध्ये नोभव्य-नोअभव्य ए बोल जीव पद नै कहिवं अनं सिद्ध पद नै कहिलै । ए सिद्ध नै इज हुवे ते माटै । नारकादिक चौबीस दंडक नै विषे नोभव्य-नोअभव्य न कहि । सोरठा ३९. इहां जीव पद थाय, कहिवो सिद्ध पदे वली । नरकादी न कहाय, तास असंभव थीज ए। ४०. जीव अने सिद्ध ईस, नरकादिक चउवीस वलि । ते दंडक षटवीस, बे दंडक ए मध्य थी। ४१. *बहु वचने पिण इणहिज रीते, भव्य अभव्य बिहुं नाही जी। जीव पदे करि सिद्ध पदे करि, ए बिहुँ दंडक त्यांही जी।। सन्नी असन्नी द्वार ४२. इक वच सन्नी जीव प्रभुजी ! सन्नी भाव करि जाणी जी। प्रथम अछै स्यूं? पूछा कीधां, उत्तर आगल ठाणो जी।। ४३. श्री जिन भाखै प्रथम नहीं है, ए अप्रथम कहायो जी। सन्नीपणों जीव वार अनंती, काल अतीतज पायो जी ।। ४१. एवं पुहत्तेण वि दोण्ह वि। (श० १८९) ४२. सण्णी णं भंते ! जीवे सण्णीभावेणं किं पढमे -- पुच्छा । ४३. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे । संज्ञी जीवः सञिभावेनाप्रथमोऽनन्तशः सञ्जित्वलाभात्, (वृ० प० ७३४) ४४. एवं विगलिदियवज्ज जाव वेमाणिए। एवं पुहत्तेण वि। ४४. इम विकलेंद्रिय वरजी यावत, वैमानिक पयंतो जी। इमहिज बहु वच दंडक नैं पिण, कहिवो सर्व उदंतो जी ।। सोरठा ४५. विकलेंद्रिय रे मांहि, इक बे ते चउरिद्रिय । ए चिउं बरजी त्यांहि, शेष सोल दंडक रह्या ।। ४६. *असन्नी एवं चेव कहीजै, इक वच बहु वचनेहो जी। णवरं यावत वाणव्यंतर लग, तेह अप्रथम कहेहो जी ।। ४५. एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियान् वर्जयित्वा शेषा नारकादिवैमानिकान्ताः सज्ञिनोऽप्रथमतया वाच्या इत्यर्थ । (वृ०प० ७३४) ४६. असण्णी एवं चेव एगत्त-पुहत्तेणं, नवरं जाव वाण मंतरा । एवमसंजयपि नवरं 'जाव वाणमंतर' त्ति असंज्ञित्वविशेषितानि जीवनारकादीनि व्यंतरान्तानि पदान्यप्रथमतया वाच्यानि । (व० ५० ७३४) सोरठा ४७. 'रत्नप्रभा रै मांय, भवणपति नै व्यंतरा। सन्नी विषे कहाय, असन्नीपणों कहीजिये ।। ४८. असन्नी उपजै आय, अंतर्महतं काल लग। विभंग अनाण न पाय, त्यां लग नाम असन्नियो ।। *लय : दया भगोती ११४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९. बांध्यो जे पर्याय, होसी भेदज ते माटै कहिवाय, अपर्याप्तो सुनो ५०. भेद तेरमों एह, पिण असन्नी छै नाम जिम त्रस तीन कहेह, तेऊ वायु उदार ५१. को वृत्ति मांय, सन्नी तणें भूतपूर्व गति न्याय, लाभै ए ५२. पृथिव्यादिक पहिछाण, ते तो असली तेह अप्रथमज जाण, अनंत ५३. "नोसीनोसी एक वच, जीव प्रथम कहीजै अप्रथम न कहिये, वार समदृष्टि द्वार ५७. समदृष्टि जीव प्रभु! इक बचने, प्रथम अच्छे स्पं? पूछा कीधां, ५८. श्री जिन भाखे कदाचित प्रथमज, चवदमों । तणों ॥। याद्वार ५४. इक वच सलेसी नीं पूछा, जिन कहै आहारक जेमो जी । अनादि सलेसपणां थी अप्रथमज, बहु वचने पिण एमी जी।। 1 ५५. कृष्णलेशी जाव शुक्ललेशी नैं वरं जेहनें जिका लेश्या छै, ५६. अलेसी जीव मनुष्य सिद्धपद में, कहिवो इणहिज रीतो जी । तेहिज कहिवी प्रतीतो जी ॥ नोसनी नोअसली जेमो जी ।। अलेसीपणों आगे नहि पायो, ते पामवं प्रथमज एमो जी ॥ *लय : दया भगोगी तसु । स 11 ( ज.स.) कदाचित अप्रथम कहीजै, विषे अपि । असनीपणों || हीज छे । तसु लाभ थी । मनुष्य सिद्ध ला जी । इम बहु वचने साधे जी || ५९. एवं एकेंद्रिय वरजी नें, सिद्ध प्रथम छे अप्रथम नहीं छै, ६०. बहूवच समदृष्टि जीवा प्रथमा, एवं जाव विमानिया समविट्ठी, ६१. मिध्यादृष्टि इक बहु वचने करि मिथ्यादर्शण है अनादिपणां थी, समदृष्टि भावे करि सोयो जी। तसु उत्तर अवलोयो जी ॥ पहिला सम्यक्तज पायो जी। सम्यक्त वमी फिर आयो जी ।। यावत वैमानिक ताह्यो जी । सिद्धपणे सम्यक्त्व धुर पायो जी || अप्रथमा पिण थाई जी । सिद्धा पढमा छै अपढमा नांहीं जी ।। आहारक जेम पिछाणी जी। तिणसूं अप्रथमज जाणी जी ॥ ५१. हिप भूतपूर्व गत्यात्वं लभ्यते असञ्ज्ञिनामुत्पादात् । ( वृ० प० ७३४) २२. पृथिव्यादयस्त्वसनि एम तेपां चाचमत्वमनन्तशस्तल्लाभादिति । ( वृ० प० ७३४) ५३. नोसणी नोबणी जीवे मणुस्से अपढमे । एवं पुहत्तेण वि । ५४. सलेसे णं भंते ! - पुच्छा 1 गोयमा ! जहा आहारए, एवं पुहत्तेण वि । ५५. कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा एवं चेव, नवरं जस्स जा लेसा अत्थि । २६. असे असण्णी । सिद्धे पढमे, नो ( ० १०।१०) जीव-मथुरा-सिडे जहां नोसणी-नी (१० १०।११) ५७. सम्मदिट्ठीए णं भंते! जीवे सम्मदिट्टिभावेणं किं पढमे पुच्छा ! ५८. गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे । 'सिय पढमे सिय अपढमे' त्ति कश्चित्सम्यग्दृष्टिर्जीवः सम्यग्दृष्टितया प्रथमो यस्य तत्प्रथमतया सम्यग्दर्शनलाभः कश्चिच्चाप्रथमो येन प्रतिपतितं सत् सम्यग्दर्शनं पुनर्लब्धमिति । ( वृ० प० ७३४) ५९. एवं एगिदियवज्जं जाव वेमाणिए । सिद्धे पढमे, नो अपढमे । सिद्धस्तु प्रथम एव सिद्धत्वानुगतस्य सम्यक्त्वस्य तदानीमेव भावात् । (२०१० ७३४) ६०. पुत्तिया जीवा पढमा वि, अपढमा वि । एवं जाव वैमाणिया । सिद्धा पढमा नो अपढमा । 7 ६१. मिच्छादिट्ठीए एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारगा । 'जहा आहारग' त्ति एकत्वे पृथक्त्वे च मिध्यादृष्टीनामप्रथमत्वमित्यर्थः, अनादित्वान्मिथ्यादर्शनस्येति | (बृ० प० ७३४) श० १८, उ० १, ढाल ३६९ ११५ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. समामिच्यादृष्टि एक वहुवचने, णवरं समा मिध्यादृष्टि जेहनें है, प्रथम कहिवाय, ६३. कदा कदा अप्रथमज थाय, संयत द्वार ६४. संवत जीव पदे समदृष्टि जिम कहियै जो । तेहिज दंडक गहियै सोरठा जी ॥ जे धुर पायो मिश्र मिश्रपणुं तज बलि जिम समदृष्टि कह्यो तिम कहियो, एक वहु वचनेहो जी । प्रथम अप्रथम छँ एहो जी ॥ सोरठा ६५. घुर संयत जे द्वार, कहीजिये | तेह प्रथम जे पामै बहु बार, तास अप्रथम अहीजिये || ६६. * आहारक जेम असंयति भणवो, तेह अप्रथम कहायो जी। असंयत भाव अनादिपणां थी, प्रथम नहीं इण न्यायो जी ।। कषाय द्वार ७२. सकषाई ने एक अने बलि मनु पद में, ६७. संयतासंयत जीव पदे वलि, पद पंचेंद्री तिर्यचो जी । अथवा मनुष्य पर विषे हुये से इक बच वह बच संचो जी ॥ ६८. ते समदृष्टि तणी पर कहिवो, कदा प्रथम कहिवाय जी । कदाचि तास अप्रथम कहीजै, निसुणो तेह्नों न्यायो जी ।। सोरठा ६९. देशविरति धुर पाय, तास अपेक्षा प्रथम छे । वलि वलि तेहिज आय, तास अपढम कहीजिये ॥ ७०. नहीं संजति नैं नहीं असंयति, संजतासंजति नांही जी । जीव पदे ने सिद्ध पदे ए, इक बहु वचने ज्यांही जी ॥ ७१. प्रथम हुवै छै सादि भाव करि, पिण ते अप्रथम न होई जी संयत द्वार को ए सातमो, कषाय द्वार हिव जोई जी ॥ 1 ७३. एह कषाई सोरठा आहारकवत प्रथम तास कदा प्रथम कदा अप्रथम कही तेहनें, ए वीतराग लय: दया भगोती ११६ भगवती-जोड गुण । ग्रहै ॥ जोय, अनादिपणां थी सोय, ७४. *अकषाई जीव पदे इक वचन, क्रोधकषाई, यावत लोभकषाई जी । 'वचने करि, आहारक जिम कहिवाई जी ।। बहु अप्रथम छै । कहिये नहीं । कहिवायो जी । सुखदायो जी ।। ६२. सम्मामिच्छदिट्ठी एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी, नवरं- जस्स अस्थि सम्मामिच्छत्तं । ( श० १८/१२) ६३. दण्डकचिन्तायां यस्य नारकादेमिश्रदर्शनमस्ति स एवेह प्रथमाप्रथम चिन्तायामधिकर्त्तव्यः । (२०१० ७३४) ६४. संजए जीवे मणुस्से य एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी । तयोश्चकत्वादिना यथा वाच्यः स्यात्प्रथमः स्यादप्रथम इत्यर्थः । ( वृ० प० ७३४ ) ६५. एतच्च संयमस्य प्रथमेतरलाभापेक्षयाऽवसेयमिति । ( वृ० प० ७३४ ) सम्यग्दृष्टिरुक्तस्तथाऽसौ 1 ६६. असंजए जहा आहारए । 'अस्संजए जहा आहारए' ति अप्रथम इत्यर्थः असंयतत्वस्यानादित्वात् । (०१० ७३४,७३५) ६७,६८. संजया संजए जीवे पंचिदियतिरिक्खजोणियमस्सा एतेषं जहा सम्मविद्री । एतेष्वेकत्वादिना सम्यग्दृष्टवान्यः स्यात्प्रथमः स्यादप्रथम इत्यर्थः । ( पृ० ८० ७३५) ६९. प्रथमा प्रथमत्वं च प्रथमेतरदेशविरतिलाभापेक्षयेति । (बु० १०७३५) ७०, ७१. नोसंजए नोअस्संजए नो संजयासंजए जीवे सिद्धे एग पढने तो अपढमे (श० १००१३) ७२. सकसायी, कोहकसायी जाव लोभकसायी एए एगराहणं जहा आहारए । ७३. 'सकसाई' त्यादि, कषायिण आहारकवदप्रथमा अनादित्वात्कषायित्वस्येति । (२०१० ७३५) ७४. अकसायी जीवे सिय पढमे, सिय अपढमे । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ७५. यथाख्यात जे चरित्त, प्रथम पामवे पढम है। ते अप्रथम कथित्त, पामै दूजी बार जे ।। ७५. अकषायो जीवः स्यात्प्रथमो यथाख्यातचारित्रस्य प्रथमलाभे स्यादप्रथमो द्वितीयादिलाभे । (व०प० ७३५) ७६. एवं मणुस्से वि । सिद्धे पढमे, नो अपढमे । ७६. *मनुष्य पदे पिण इमहिज कहिवो, सिद्ध पदे करि ज्यांही जी। प्रथम कहीजै सादि भाव थी, अप्रथम कहीजै नांही जी ।। ७७. बहु वच करिकै अकषाई जे, जीव पदे करि ताही जी। मनुष्य पदे वली प्रथमा पिण छ, अप्रथमा पिण थाई जी।। ७७. पुहत्तेणं जीवा मणुस्सा वि पढमा वि अपढमा वि । ८०. सिद्धा पढमा, नो अपढमा। (श० १८।१४) सोरठा ७८. जे बहु जीव कहाय, यथाख्यात पाया नहीं। तेह पामवे ताय, इण न्याये प्रथमा हुवै ।। ७९. थइ वीतराग बहु जीव, उत्कृष्ट काल अनंत रुल । वलि क्षायक चरण ग्रहीव, अप्रथमा इण न्याय बहु ।। ८.. *बहु वचने करि सिद्ध पद माहे, पढमा कहिजै ताह्यो जी। आदि सहित तमु भाव करीन, अप्रथमा न कहायो जी ।। ज्ञान द्वार ८१. ज्ञानी इक वच बहु वचने करि, समदृष्टी जिम कहिये जी । कदाच प्रथमा कदाच अप्रथमा, न्याय पूर्ववत लहिये जी ।। ५२. मतिज्ञानी यावत मनपर्यव, एक बह वचनेहो जी। ए बिहुं दंडक करि इम कहिवो, णवरं जेहनै जे छै जेहो जी। ८१. नाणी एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी। ८२. आभिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी एगत्त पुहत्तेणं एवं चेव, नवरंजस्स जं अस्थि । सोरठा ८३. जेह छै मतिज्ञानादि, जीव नारकादिक तणें । तेहिज तसु संवादि, ते वलि प्रसिद्ध हीज छै ।। ८३. जीवादिदण्डकचिन्तायां यत् मतिज्ञानादि यस्य जीवनारकादेरस्ति तत्तस्य वाच्यमिति । (वृ० प० ७३५) ८४. केवलनाणी जीवे मणुस्से सिद्धे य एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा। ८५. अण्णाणी, मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगनाणी य एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए। (श० १८।१५) ८४. *केवलज्ञानी जीव मनु सिद्ध पद, इक वच बहु वचनेहो जी। प्रथम कहीजै सादि भाव करि, अप्रथमा न कहेहो जी ।। ८५. अज्ञानी मति श्रुत विभंग अनाणी, एक बहू वचनेहो जी। आहारक जिम अप्रथम कहीजै, अज्ञान अनादिपणेहो जी ।। योग द्वार ८६. सजोगी मन वच काय जोगी ते, इक वच बह वच लहिये जी। आहारक जेम अप्रथम अछ ते, णवरं जेह में छै ते कहियै जी।। सोरठा ८७. जीव नारकादेह, दंडक चिंता नै विषे । जोग मनादिक जेह, कहिवा जेह में छै तिके ।। ८६. सजोगी, मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी एगत्त पुहत्तेणं जहा आहाराण, नवरं जस्स जो जोगो अस्थि । ८७. जीवनारकादिदण्डकचिन्तायां यस्य जीवादेयों मनोयोगादिरस्ति स तस्य वाच्यः । (वृ० ५० ७३५) ८८. अजोगी जीव मणुस्स-सिद्धा एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा। (श० १८।१६) ८८. *अजोगी जीव मनुष्य सिद्ध पद में, एक बहु वचनेहो जी। प्रथमा छै ते सादि भाव करि, पिण अप्रथमा न कहेहो जी ।। *लय: दया भगोती श० १८, उ० १, ढाल ३६९ ११७ Jain Education Intemational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९. सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता एगत्त-पुहत्तेणं जहा अणाहारए। (श०१८।१७) उपयोग द्वार ८९. सागार नै अणागारोवउत्ता, एक बह बचनेहो जी। अनाहारक जिम कहिवो एहनें, हिव वृत्ति थी कहूं एहो जी॥ सोरठा २०. साकार ने अनाकार, यथा अनाहारक कह्या । इणहिज रीत विचार, दंडक छब्बीसं विषे ।। ९१. प्रथम जीव पद मांय, कदा प्रथम सिद्ध पेक्षया। कदा अप्रथम कहाय, ते संसारी अपेक्षया ।। ९२. नारक आदिज ताय, वैमानिक पद ने विषे । नो प्रथमा कहिवाय, अप्रथमाज अनादि थी। ९३. सिद्ध पदे अवलोय, प्रथमा सादिपणे करी। अप्रथमा नहिं होय, इक वच बहु वचने करी ।। ९४. साकार नै अनाकार, उपयोग विशेषित सिद्ध नैं । प्रथम थकी हुवै सार, तिणसं अप्रथमा नहीं ।। ९५. *सवेदी जाव नपुंसक-वेदक, इक बहु वचने लहियै जी। जिम आहारक अप्रथम कह्यो छै, तेम अप्रथमज कहियै जी। १६. णवरं जेहन वेद ते भणवू, जीवादि दंडक मांह्यो जी। जे नारकादिक ने नपुंसक आदिक, वेद छै ते कहिवायो जी । ९०. साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताश्च यथाऽनाहार कोऽभिहितस्तथा वाच्याः। (वृ०प० ७३५) ९१. ते च जीवपदे स्यात्प्रथमाः सिद्धापेक्षया स्यादप्रथमाः संसार्यपेक्षया। (वृ०प० ७३५) ९२. नारकादिवैमानिकान्तपदेषु तु नो प्रथमा अप्रथमा अनादित्वात्तल्लाभस्य। (वृ०प०७३५) ९३. सिद्धपदे तु प्रथमा नो अप्रथमाः। (वृ०प०७३५) ९४. साकारानाकारोपयोगविशेषितस्य सिद्धत्वस्य प्रथमत एव भावादिति । (व०प० ७३५) ९५. सवेदगो जाव नपुंसगवेदगो एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए। ९६. नवर-जस्स जो वेदो अत्थि। जीवादिदण्डकचिन्तायां यस्य नारकादेयों नपंसका दिवेदोऽस्ति स तस्य वाच्यः। (वृ० प० ७३५) ९७. अवेदओ एगत्त-पुहत्तेणं तिसु वि पदेसु जहा अकसायी। (श०१८।१८) ९७. इक बहु वचने करिनै अवेदी, जीव मनुष्य सिद्ध जाणी जी। ए त्रिहुं पद ने विषे इम कहिवा, अकषाई जिम ठाणी जी। ९८,९९. जीवमनुष्यसिद्धलक्षणेषु, तत्र च जीवमनुष्य पदयोः स्यात्प्रथमः स्यादप्रथमः अबेदक त्वस्य प्रथमेतरलाभापेक्षया। (वृ०प० ७३५) १००. ससरीरी जहा आहारए, एवं जाव कम्मगसरीरी, जस्स जं अस्थि सरीरं। १०१. नवरं-आहारगसरीरी एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्म दिट्ठी। सोरठा ९८. जीव मनुष्य पद मांहि, कदा प्रथम इह रीत सूं । ___भाव अवेदो ताहि, प्रथमईज ते पामवे ।। ९९. कदा अप्रथम कहाय, जेह अवेदी छै तिको। भाव सवेदी पाय, वलि अवेदी जे हुवै ।। १००. *सशरीरी आहारक जिम अपढम, एवं यावत वरिय जी। कर्म कार्मण पंचम शरीरी, जेहनै छै ते उच्चरियै जी ।। १०१. णवरं विशेषज आहारकशरीरी, इक बहु वचने ताह्यो जी। जिम समदृष्टि तिम कदा प्रथमज, कदा अप्रथम कहायो जी। सोरठा १०२. आवै पहिली बार, प्रथम कहीजे तेहने । आवै द्वयादि बार, तास अपेक्षा अप्रथम ।। १०३. आहारक इक भव मांहि, आवै उत्कृष्ट पदे जदि। दो वर संशय नांहि, पन्नवण अर्थ विष कह्य। *लय : दया भगोती १. एक भव में उत्कृष्टतः दो बार आहारक शरीर का निर्माण किया जा सकता है। इस कथन की पुष्टि में जयाचार्य ने पनवणा के अर्थ का संकेत दिया है। प्रवचनसारोद्धार में इसका संवादी प्रमाण मिलता है। वहां बताया है कि चतुर्दशपुर्वी मुनि अधिक से अधिक चार बार आहारक शरीर का निर्माण १०२. अयं चैवं प्रथमेतराहारकशरीरस्य लाभापेक्षयेति । (वृ०प० ७३५) ११८ भगवती जोड़ Jain Education Interational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४. *अशरीरी जीव पद सिद्ध पद करि, इक बहु वचने ज्यांही जी । प्रथमा अछे ते सादि भाव करि, पिण अप्रथमा' नांही जी ॥ पर्याप्त द्वार १०५. पंच पर्याप्ति बांध्या पर्याप्त सुर भव आश्री एहो जी । पंच पर्याप्ति बांधी नहि ज्यां लग, अपर्याप्तो छ तेहो जी ॥ १०६. पर्याप्त अपर्याप्त इक बहु वचने, कहिये आहारक जेमो जी । गवरं जेहने जेह पर्यायज' कहिवी से धर प्रेमी जी ॥ १०७. जाव विमाणिया लग इम कहियो, प्रथमा त अप्रथमा तेहज कहीजै, वार अनेकज १०८. जे भाव पर्याप्ति पूर्व जिण पायो, शेष करीने प्रथम हुने छे, १०९. शतक अठारमों प्रथम देश ए, नह कहिये जी। लहिये जी ॥ ते भावे करि अपढमा थायो जी। पूर्वे नहि पाम्यो जे पर्याय जी ॥ त्रिण सय गुणंतरमी ढालो जी । 'जय जश' मंगलमालो जी ॥ भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रसादे ढाल : ३७० सोरठा 1 १. प्रथमादिकज कहाव तास विपक्ष प्रत हवे चरमादिक जे भाव, जीवादिक भावे कहै | चरम - अचरम के सन्दर्भ में जीव द्वार * भवियण ! जिन वच महा जयकारी। वाण सुधारस प्यारी रे भवियण ! सरध्यां सूं सम्यक्त्व सारी || ( ध्रुपदं ) कर सकता है। यह कथन अनेक भवों की अपेक्षा से है। एक भव में ऐसा दो बार हो सकता है चत्तारिय बाराओ, चउदसवी करे आहार | संसारम्मि वसंतो, एगे भवे दोन्नि वाराओ ।। (प्रव० द्वार २७३ गाथा ८१) *लय दया भगोती १. बहु वचन का पाठ अंगसुत्ताणि में पाठान्तर में लिया है। २. पर्याप्ति *लय : रे मवियण ! सेवो रे साधु सयाणां १०४. असरीरी जीवो सिद्धो य एगत्त-पुहत्तेणं पढमो, नो अपढमो । (४० १०१९) १०४,१०६. पती पंच पती एगत्त पुहत्तेणं जहा आहारए, नवरं— जस्स जा अत्थि 'पंचही' त्यादि, पञ्चभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तक: तथा पञ्चभिरपर्याप्तिभिरपर्याप्तक आहारकवदप्रथम इति । (बृ० प० ७३५) १०७. जाव वेमाणिया नो पढमा, अपढमा । १०८. जो जेण पत्तपुब्वो, भावो सो तेण अपढमओ होइ । सेसेसु होइ पढमो, अपत्तपुव्वेस भावे || १|| (20 8=120) १. अथ प्रथमादिविपक्षं चरमादित्वं जीवादिष्वेव द्वारेषु निरूपयन्निदमाह (१० १०७३५) श०१८, उ० १, ढाल ३६९,३७० ११९ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. जीवे णं भंते ! जीवभावेणं किं चरिमे ? अचरिमे? २. जीव प्रभुजी ! जीव भावे करि, स्यूं ते चरम कहिवायो। तथा अचरम कहीजै जीव नैं ? ए इक वच प्रश्न पूछायो ।। सोरठा ३. जीवपणां नो जाण, चरम भाग छेहड़ो तिको। तिणसं चरम पिछाण, स्यूं जीवपणों ए मूकस्यै ? ३. 'जीवभावेन' जीवत्वपर्यायेण कि चरम: ? कि जीवत्वस्य प्राप्तव्यचरमभागः किं जीवत्वं मोक्ष्यतीत्यर्थः। (वृ० ५० ७३५) ४. 'अचरमे' त्ति अविद्यमानजीवत्वचरमसमयो, जीवत्व मत्यन्तं न मोक्ष्यतीत्यर्थः। (व०प०७३५) ५. गोयमा ! नो चरिमे, अचरिमे। (श०१८।२१) ६,७. नैव 'चरमः' प्राप्तव्यजीवत्वावसानो, जीवत्वस्याव्यवच्छेदादिति । (वृ० प० ७३५) ४. कै अचरम कहिवाय, जंतु जीवपणां तणों। चरम भाग नहिं पाय, स्यूं जीवपणों नहीं मूकस्यै ? ५. *श्री जिन भाखै जीवपणे करि, जीव चरम नहिं होयो। चरम नहीं तिणसं एह जीव नै, अचरम कहियै जोयो ।। सोरठा ६. जीवपणां नो जाण, चरम भाग छेहड़ो तिको। नहिं पावै अवसान, चरम नहीं इण कारणे ।। ७. जे अचरम कहिये तास, जंतु जीवपणां तणो। न हुवै कदही नाश, जीवत्व अव्यवच्छेद थी। ८. *नारक भाव करीनै नेरइयो, स्यं प्रभु ! चरमज होय । अथवा अचरम कहीजै तेहनै ? इक वच प्रश्न सुजोय ।। ९. श्री जिन भाखै कदाच चरम छै, कदा अचरम कहायो। हिव तसु न्याय कहूं छ आगल, सांभलजो चित ल्यायो ।। सोरठा १०. नारक जे कहिवाय, नरक थकी निकल्यं छतो। कदही नरक न जाय, सिद्ध गमन थी चरम ते ।। ११. अचरम अन्य कहेह, नरक थकी जे नीकली। बिच भव करिने तेह, जास्यै नरक विषे वली ।। *१२. एवं जाव वैमानिक कहिवं, सिद्ध जीव जिम कहिये । अचरम छ पिण चरम नहीं छै, सिद्धपणों नहिं जहियै ।। ८. नेरइए णं भंते ! नेरइयभावेणं-पुच्छा । ९. गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे । १०,११. यो नारको नारकत्वादुवृत्तः सन् पुनर्नरकगति न यास्यति सिद्धगमनात स चरमः अन्यस्त्वचरमः । (वृ० ५० ७३६) १३. जीव घणां नों प्रश्न कियां थी, श्री जिन भाखै जीवा । चरमा नहीं छै कहिये अचरमा, पूरव न्याय ग्रहीवा ।। १२. एवं जाव वेमाणिए । सिद्धे जहा जीवे । (श०१८।२२) 'सिद्धे जहा जीवे' त्ति अचरम इत्यर्थः, न हि सिद्धः सिद्धतया विनङ क्ष्यतीति। (वृ०प०७३६) १३. जीवाणं--पुच्छा । गोयमा ! नो चरिमा, अचरिमा । पृथक्त्वदण्डकस्तथाविध एवेति। (वृ० ५० ७३६) १४. नेरइया चरिमा वि, अचरिमा वि। एवं जाव वेमाणिया । सिद्धा जहा जीवा। (श० १८०२३) १४. बह वच नारक चरमा पिण छै, अचरमा पिण माणी। एवं जाव विमाणिया कहिये, सिद्धा जीव जिम जाणी।। आहारकद्वार १५. आहारक सर्वत्र जीवादि पद में, कहिये इक वचनेहो। कदा चरम कदा अचरम छै ते, हिव तसु न्याय सुणेहो ।। १५. आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। *लय : रे भवियण ! सेवो रे साधु सयाणां १२० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १६. कोइ चरम सुजाण, जे अचरम अन्य पिछाण, जीव १७. * बहु वचने करि चरिमा पण छे, निर्वाणज पामस्यै । नारकादिक पदे ॥ अचरिमा पिण तेह | मुक्ति ज्या त्यांने चरमा कहिजै, अन्य अचरमा गिणेह || १८. अनाहारक जे जीव अनं सिद्ध इक वर्ष वह बचने चरमा नास कहीजं अचरमाज कहेह ॥ नाही, || सोरठा सिद्ध संबंधिक छै तिको । अपर्यवसित भाव थी ॥ सिद्ध अवस्थाईज ए । समचै का विख्यात, पिण अन्य प्रति ग्रहिवूं नथी ।। १९. अनाहारक नों भाव, अचरमईज कहाव, २०. जीव दहां आख्यात 3 २१. *शेष स्थानक नारकादिक पद में इक वच बहु वचनेह । जिम आहारक तिम कदा चरम छै, कदा अचरम कहेह || सोरठा जेह २२. अनाहारक प्रस्ताव, नारकादिकपणे । नहि नहिस्ये ते भाव, सिद्ध गमन यो चरम ते ।। २३. अनाहारक नो भाव, जेह नारकाविकपणें । वलि हिस्यै प्रस्ताव, अनाहारक अचरम तिको । भव्य द्वार २४. भवसिद्धिक जीव भव्यपणें करि, इक वच बहु वचनेहो । चरम अछे पिण अचरम नहीं छै, मुक्ति जावा जोग्य एहो । सोरठा २५. भव्य जीव ए भाल, भव्यपणें करि चरम ते । सिद्धगमन करि न्हाल, चरमपणों भव्य नें हुवे ॥ २६. भव्य नो चरमज भाव, सर्वेपि भवसिद्धिका । हिस्यं शिवसुख साव, ए वच प्रमाण थी कह्यो । २७. *शेष स्थानक जे नारकादिक में, आहारक जिम कहिवायो || कदा चरम कदा अचरम कहिये, इक वचने करि ताह्यो । सोरठा २८. भव्यपणों अवलोय, नारकादिकपणे । जेह सिद्धगमन थी चरम ते ॥ जेह नारकादिकपणें । बलि हिस्यै प्रस्ताव, अचरम भव्य कह्योतिको || ३०. *अभव्यसिद्धिक सगले स्थानक, जीव नरकादि मांग इक बहु वचने चरम नहीं छै, अचरमा जे कहाय ।। वलि नहि हिस्यै कोय, २९. भव्य तणों जे भाव, *लय : रे भवियण ! सेवो रे साधु सयाणां १६. कश्चिच्चरमो यो निर्वास्यति अन्यस्त्वचरम इति । (१०१००२६) १७. लेणं परिमावि, अपरिमा वि १८. अणाहारओ जीवो सिद्धो य एगत्तेण वि पुहत्तेण वि नो चरिमो, अचरिमो । १९,२०. अनाहारकत्वस्य जीवश्चेह सिद्धावस्थ एवेति । तदीयस्थासितत्वात् ( वृ० प० ७३६ ) २१. सट्टा एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारओ । (४० १००२४) 'सेसट्टाणेसु' त्ति नारकादिषु पदेषु 'जहा आहारओ' त्ति स्याच्चरमः स्यादचरम इत्यर्थः । ( वृ० प० ७३६) २२,२३. यो नरकादित्वेनानाहारकत्वं पुनर्न तप्स्यते स चरमो यस्तु तल्लप्स्यतेऽसौ अचरम इति । ( वृ० प० ७३६) २४. भवडीओ जीएम परितो अचरिमे । २५, २६. भव्यो जीवो भव्यत्वेन चरमः, सिद्धिगमनेन भव्यत्वस्य चरमत्वप्राप्तेः, एतच्च सर्वेऽपि भवसिद्धिका जीवा त्स्यन्तीति वचनप्रामाण्यादभिहितमिति । (१० १० ७३६) २७. सेसट्टासु जहा आहारओ। ३०. अभवसिद्धीओ सव्वत्थ एगत्त-पुहत्तेणं नो चरिमे, अचरिमे । अ० १८ उ० १ ० ३७० १२१ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३१. अभव्य नों अवलोय, चरम कदेई resuri नो जोय, कदही नाम न नथी । त । ३२. * नोभव्यसिद्धिक-नोअभव्यसिद्धिक, जीव ने सिद्ध पद मांय । एक अने बहु वचने करिनैं, अभव्य जेम कहाय ॥ सोरठा ३३. अचरम सिद्ध कहाय, सिद्ध नाश कदेइ न थाय, चरम सन्नी द्वार न ३४. 'सनी ते आहारक जिम कहियो, सन्नीपणे करि जोय । कदा चरम कदा अचरम इक वच, असनी पिण इम होय ।। पर्याय तणों तसु । कहियै ते भणी ॥ सोरठा बहु वचने करिनें तिके । पनि अचरिमा पिण ३५. सन्नी असन्नी सोय, घणां चरिम पिन होय, ३६. नोसी ने नोभसन्नी ते जीव पदे करि जेह सिद्ध पदे वलि अचरम कहिये, तसु अविनाशपणेह || ३७. नोसन्नी- नोअसली मनुष्य पदे करि चरम कहीजं तास । एक वचन ने बहु वचने करि, हिव तसु न्याय विभास ॥ । सोरठा ते तो सिद्ध हुवं सही तिणसूं चरम कह्यो तसु । ३८. मनुष्य केवली भाव वलि मनुपर्णे न आव, लेश्या द्वार ३९. *सी जा क्ललेशी ते आहारक जिम अधिकार । णवरं जे पद में जे लेश्या, ते कहिवी सुविचार || सोरठा ४०. कदा चरम इण न्याय, लेशपणो तज शिव गमन । अचरम कदा कहाय, जे शिव गति जास्यै नथी । ४१. इक बचने ए वयात वह बचने करि हिव कहूं। परिमा पण ते थात, बलि अचरिमा पण तिके ।। ४२. *अशी नोसी-नोअसली जिम जीव रु सिद्ध अचरमा । मनुष्य पदे तसु चरमा कहिये, लहिस्यै शिव-सुख परमा || समदृष्टि द्वार ४३. समदृष्टी ते अनाहारक जिम, मिथ्यादृष्टी जे मंद आहारक नीं पर कहिवूं तेहनें, हिव तसु न्याय कथंद || *लयः रे भवियण ! सेवो रे साधु सयाणां १२२ भगवती जोड़ ३१. 'अभवसिद्धिओ सव्वत्थ' त्ति सर्वेषु जीवादिपदेषु 'नो चरिमे' त्ति अभव्यस्य भव्यत्वेनाभावात् । (१० पं० ७३६) ३२. नोभवसिद्धीय- नोअभवसिद्धीयजीवा सिद्धाय एगत्तते जहा अभवसिओ (०१८।२५) ३३. 'नोभवे' त्यादि उभयनिषेधवान् जीवपदे सिद्धपदे चाभवसिद्धिकवदचरमः तस्य सिद्धत्वात् सिद्धस्य च सिद्धत्व पर्यायानपगमादिति । ( वृ० प० ७३६) ३४. सण्णी जहा आहारओ, एवं असण्णी वि । सञ्ज्ञित्वेन स्याच्चरमः स्यादचरम इत्यर्थः । (१०१० ७२६) ३६. नोसण्णी- नोअसण्णी जीवपदे सिद्धपदे य अचरिमे । ३७. मस्तपदे चरिमे एमत्त पुणं । (१० १०२६) ३८. मनुष्यस्तु चरमः उभयनिषेधवतो मनुष्यस्य केवलित्वेन पुनर्मनुष्यत्वस्याताभाविति ५० प० ७३६) ३९. सलेस्सो जाव सुक्कलेस्सो जहा आहारओ, नवरं जस्स जा अत्थि | ४०. 'जहा आहारओ' त्ति स्याच्चरमः स्यादचरम इत्यर्थः.. तत्र ये निर्वास्यन्ति ते सलेश्यत्वस्य चरमाः, अन्ये त्वचरमा इति । (बु०प०७३६) ४२. अलेस्सो जहा नोसण्णी नोअसण्णी । (११२७) ४३. सम्मदिट्ठी जहा अणाहारओ मिच्छादिट्टी जहा आहारओ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. समदृष्टसुखदाय, जीव सिद्ध पद मांय, ४५. समदृष्टी जे जीव, सोरठा अनाहारक जिम आखियो । अचरम छे तसु न्याय इम ॥ भ्रष्ट थये पिण ते बली। सम्यक्त्व अवस्य लहीव, ते माटै अचरम तसु ।। ४६. कदा सम्यक्त्व न जाय तो पिण चरम तथाय ४७. फुल समदृष्टी सिद्ध, प्रतिप ४८. वले नारकी आद, चरम कदाचित लाध, ४९. जेह नारकी आदि, सिद्ध गति जावै त्यां लगे । ते माटै अचरम अछे ।। क्षायक सम्यक्त तेहनीं । चरम नहीं अचरम तिके || एक बहू वह बचने करी । कदाचित अचरम अछे || जिको नारकादिकपणं । नहि लहस्यै चरमा तिके ॥ जिको नारकादिकपणें । बलि समवस्व सुसाध, लहिम्ये अचरमा तिके ।। ५१. मिथ्यादृष्टी ते आहारक जिम तसु आखियो । इक वच बहु वचनेह, पुरवली पर जाणवो ॥ वलि सम्पक्त सुसाधि ५०. जेह नारकी आदि, ५२. "मिश्रदुष्टी एकेंद्री विकलेंद्री, कदा चरम कदा अचरम कहिये " वरजी ने जे शेष एक वचने करि पेष || सोरठा ५३. एकेंद्रिय रे मांय, मिधदृष्टि नह पाय ५४. नारक आदि वलि विकलेंद्रिय नैं विषे । तिए कारण ए वरजियो || मकार, मिश्र आलापक नैं विषे । करिवो तास उचार, ते विध कहिये आगलं ॥ यतनी ५५. ह्यसमा मिध्यादृष्टि मांहि वरजी एकेंद्री विकलेंगी ताहि । तसु उपलक्षण थी वाय, अन्य दंडक पिण इम आय ।। ५६. सम्यकदष्टी आलापक मांय एकेंद्री बरजी ने कहाय । जिहां जेह संभव नांहि तिहां स्वयं वर्जयो ताहि || ५७. जिम सो पद रं मांहि एकेंद्रियादिक वरजी ने ताहि । मन्त्री पद में एह जोतिषी आदि वरजेह ॥ ५८. मिश्रदृष्टी अछे जिह स्थान, तिको इक वचने करि जान । कदा चरम कदा अचरमेह, हिव तसु न्याय कहेह || ५९. मिश्र छे नरकादिक मांहि बलि नारकादिकपणे ताहि । मिश्रणों कदे न पामेह, शिव गमन पो चरम कहेह ।। ६०. मिश्र छै नारकादि मांहि, तिके नारकादिकपणें ताहि । पामस्यै वलि समामिध्यात अचरम नेहने आख्यात || *लय: रे भवियण ! सेवो रे साधु सयाणां ४४, ४५ सम्बदिट्ठी नहा अनाहारमो त्ति जीव: सिद्धरण सम्बन्दुष्टिचरम यतो जीवस्य सम्यक्त्वं प्रतिपतितमप्यवश्यंभावि । (बु० प० ७२९) ४६. सिद्धस्य तु तन्न प्रतिपतत्येव । ४८. नारकादयस्तु स्याच्चरमाः स्यादचरमाः । ४९. ये नारकादयो नारकत्वादिना लप्स्यन्ते ते चरमाः । ५०. ये त्वन्यथा तेऽचरमा इति । (१० १० ७३६) ( वृ० प० ७३६) सह पुनः सम्यक्त्वं न ( वृ० प० ७४६ ) (१०१० ७२६) ५१. 'मिच्छादिट्ठी जहा आहारओ' त्ति स्याच्चरमः स्यादचरम इत्यर्थः, यो हि जीवो निर्वास्यति स मिथ्यादृष्टित्वेन चरमो यस्त्वन्यथाऽसावचरमः । ( वृ० प० ७३६) ५२. सम्मदी एनिदिम विगविदिवसिय चरिमे, सिय अचरिमे । २२.५४. एसिदिगति एतेषां किल मि न भवतीति नारकादिदण्डके नेते मिश्रालापके उच्चारयितव्या इत्यर्थः । ( वृ० १० ७२६) ५५, ५६. अस्य चोपलक्षणत्वेन सम्यग्दृष्टघालापके एकेन्द्रियवर्जमित्यपि द्रष्टव्यं एवमन्यत्रापि यद्यत्र न संभवति तत्तत्र स्वयं वर्जनीयम् । ( वृ० प० ७३६) ५७. यथा सङ्क्षिपदे एकेन्द्रियादयः असङ्क्षिपदे ज्योतिष्कादय इति । ( वृ० प० ७३६) ५८-६०. 'सिय चरिमे सिय अचरिमे' सम्यग्मिथ्यादृष्टि: स्याच्चरमो यस्य तत्प्राप्तिः पुनर्न भविष्यति, इतरस्त्वचरम इति । ( वृ० १०७३५) श० १८, उ० १ ३ ० ३७० १२३ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. * समामिथ्यादृष्टी बहु वचने, चरमा पिण कहिवाय । अचरमा पिण कहिजै तेहनै न्याय पूर्ववत ताय ॥ 1 ६२. मिश्रदृष्टी बहुवचनेह जे नारकाविकपणह चरमा मिश्र वले नहि पाय, अचरमा वले मिश्रण थाय ॥ संवति द्वार यतनी ६३. * संजति जीव पदं मनु पदे में, आहारक जिम अधिकार । कदा चरम कदा अचरम कहिये, इक वचने ए अवधार ॥ सोरठा ६४. बहु वचने अवलोय. बहु अरिम पिण जोय, ६५. संजति जीव सुहाय घणां चरम तद्भवसिद्धि । चरमशरीरी जे नथी ॥ कदा चरम जेहनें वली । संजम थास्यै नांय, तद्भव शिव छेहलूं चरण ।। ६६. संजति जीव उदार, कदाचित अचरम कह्यो । वलि द्वितीयादिक वार, चारिष ग्रहस्यं ते भणी ।। ६७. जीव पदे आख्यात, मनुष्य पदे पिण इमज छ । चारित्र रहन सुआय, मनुष्य विषेज हुवे तिको । ६८. * असंजती पिण इमहिज कहिवो, आहारक जिम सुविचार | इक वचने फुन बहु वचने करि, न्याय पूर्ववत सार ॥ ६९. संजता संजती पण तिमहिज छे, णवरं विशेष से एह जेह पद में विषे जेह हुई छे, ते पद ने विषे कहियूँ तेह || सोरठा । ७०. जीव पदे अवलोय तिरि पद मनु पद ने विषे संयतासंयत होय, शेष दंडके ए नहीं || ७१. *नोसंजति-नोअसंजति वलि, संजता संजति नांय | जिस नोभय ने नोअभव्य आयो तिम अचरम सिद्ध पाय ।। कषाय द्वार 7 ७२. सकषाई जाव लोभकषाई, आहारक जिम चरम कहीजै, + जीवादिक सर्व स्थान | कदा अचरम पिछाण || यतनी ७३. जे जीव पामस्य निर्वाण, ते सकषाईपणे जाण । चरम कहीजै तास, अचरम अन्य विमास || ७४. तथा नारकादिक में जेह सकषायिपणं वर्त्तेह | वलि नारकादिक भावेह सकपाविपर्ण न पामेह ॥ ७५. तिको चरम तास अवलोय, अचरम अन्य सुजोय । कषायिनों अधिकार, तिको सांभलजो विस्तार ॥ हि *लय : रे भवियण ! सेवो रे साधु सयाणां १२४ भगवती जोड ६१. ते बरिमा व अपरिमावि (०१०२८) ६२. जल जीवी मस्ती व जहा आहारओ ६. अस्संजओ वि तहेव । ६९. संजया संजए वि तहेव, नवरं जस्स जं अस्थि । ७०. केवलं जीवन्द्रियतिग्मनुष्यपदेष्वेवायं वाच्यः (२०१० ७२६) ७१. नोसंजय नोअसंजय नोसंजयासंजओ जहा नोभवसिद्धीय नोअभवसिद्धीओ । ( ० १८/२९ ) ७२. सकसायी जाव लोभकसायी सव्वट्टाणेसु जहा आहारओ। ७३. तत्र यो जीवो निर्वास्यति स सकषायित्वेन चरमोऽन्यस्त्वचरमः । (०१००३६) ७४, ७५. नारकादिस्तु वः सकयापित्वं तारकासुतं पुनर्व प्राप्स्यति स चरमोऽन्यस्त्वचरमः । ( वृ० प० ७३६) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ७६. अकषाई जीव अने सिद्ध पद में छे अचरम चरम नांय । मनुष्य पदे कदा चरम कहीजै, कदा अचरम कहाय ॥ यतनी 1 ७७. अरुवाई जीव पद मांय, वलि सिद्ध पदे कहिवाय । चरम नहीं अचरम छै तेह, हिव तेहनुं न्याय सुणेह || ७८. जे उपशांत मोहादि, अकषाई संवादि । तिके जीव मनुष्य सिद्ध बाय कहूं जीव सिद्धां नो न्याय || ७९. जीव अकषाविषणों पाय, तिको पड़ियो को पिण ताय । अवश्य थास्यैतिको अकषाई, तसु अचरम ते कहिवाई || ८०. सिद्ध नै वलि पड़िवं न होय, तिको चरम नहीं छै कोय । तिणसूं अचरमा ते कहिवाय, हिवै मनुष्य दंडक नूं न्याय || ८१. अरुषा मनुष्य पदे इम आख्यो, कदा चरम कहिवाय । कदाचित अचरम कहियै छै, निसुणो हिव तसु न्याय || सोरठा ८२. मनु अकषाई जेह, मनु सकषाई भाव फुन । कदे न लहिरूयै तेह, चरम को इण कारणे ।। ८३. मनु अकषाई जेह, सकषाई थइनें वली । मनु अकषापणेह नहिस्यै ते अचरम । कह्यो । वा० - बारमा, तेरमा, चवदमा गुणठाणां रा मनुष्य वलि सकषाईपणां सहित मनुष्यपणुं न पामस्यै, ते मनुष्य नै चरम कहिये अने इग्यारमां गुणठाणा धणी व मनुष्य सकषाईपणुं पामस्यै, तेह मनुष्य नैं अचरम कहिये । ज्ञान द्वार ८४. * ज्ञानी समदृष्टी जिम कहिजे, जीवादि सिद्ध पर्यंत । एगिंदिया वरजी सह स्थानक, कहिवो जेह वृतंत || ६५. जीवसिद्ध पद दोय, जीव ज्ञान ने खोय, बलि ८६. सिद्ध तणो जे ज्ञान, तिणस अचरम जान, चरम भाव तेहनूं नथी । ८७. शेष नारक आदि, ज्ञान सहित छै ते वली । नारकादि संवादि, ज्ञान न लहिस्यै चरम ते ।। शानी नारक आदि, नारक आदिपणे वली । लहस्ये ज्ञान सुस्वादि, अचरम तेहने आखियो । ८८. सोरठा अचरम ते तसु न्याय इम हिस्ये अचरम को || सदा अक्षीणज भाव है । " aro - - ज्ञानी समदृष्टि नीं पर, ए इहां सम्यग्दृष्टि नां दृष्टांत थी लब्ध छे जेहनो अर्थ एहवो जीव अने सिद्ध अचरम । जीव विद्यमान ज्ञान नैं पड़िये छते पिण अवश्य वलि ज्ञान पामवे करी अचरम । अनं सिद्ध अक्षीण ज्ञान भाव *लय: रे भवियण ! सेवो रे साधु सयाणां ७६. अकसायी जीवपदे सिद्धे य नो चरिमे, अचरिमे । मस्सपदे सिय चरिमे, सिय अचरिमे । (१० १०1३०) ७८. 'अकषायी' उपशान्तमोहादिः स च जीवो मनुष्यः सिद्धश्च स्यात्, तत्र जीवः सिद्धश्चाचरमः । (१०१० ७३६) ७९. यतो जीवस्याकषायित्वं प्रतिपतितमप्यवश्यम्भावि । (बु०प०७३६) ८०. सिद्धस्य तु न प्रतिपतत्येव । ( वृ० प० ७३६, ७३७) ८२,८३. मनुष्यस्तवकासित मनुष्यत्वं प पुनर्न लप्स्यते स चरमो यस्तु लप्स्यते सोऽचरम इति । ( वृ० प० ७३७) ८४. नाणी जहा सम्मट्ठी सव्वत्थ । वा०-- 'नाणी जहा सम्मदिट्ठि' त्ति, अयमिह सम्यम्दृष्टिदृष्टांतला जीवः सिद्धश्वाचरम- जीवो हि ज्ञानस्य सतः प्रतिपातप्यवश्यं पुनभवनाचरमः, मिली ज्ञानभाव एवं भवतीत्यचरमः, श० १८, उ० १. ढाल ३७० १२५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीज हुवै इति अचरम। अनं शेष नारकादिक ज्ञान सहित नारकपणादिक नै वलि पाम न हुवै ते चरम अनै अन्यथा अचरम इति । सव्वत्थ कहितां सर्व जीव आदि सिद्ध पर्यंत पद नै विषे एकद्रिय वर्जन इम जाणवो। ज्ञान भेद अपेक्षा करिके कहै छ --- शेषास्तु ज्ञानोपेतनारकत्वादीनां पुनर्लाभासम्भवे चरमा अन्यथा त्वचरमा इति, 'सव्वत्थ' त्ति सर्वेषु जीवादिसिद्धान्तेषु पदेषु एकेन्द्रियवजितेष्विति गम्यं ज्ञानभेदापेक्षयाऽऽह -- (वृ० प०७३७) ८९ आभिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी जहा आहारओ, नवरं जस्स जं अस्थि । ८९.*आभिनिबोधिक जाव मनपर्यव, आहारक जिम तस कहिये। कदा चरम कदा अचरम णवरं, जेहने छ तेहनैज गहिये ।। सोरठा ९०. धुर चिउं ज्ञानी जान, केवल पामी पुनरपि । नहिं लहिस्यै चिउं ज्ञान, चरम तिके अन्य अचरमा ।। ९१. तिरि पं० नारक देव, तीन ज्ञान तेहमें हवै। मन में पंच कहेव, विकलेंद्रिय में ज्ञान बे।। ६२. केवलज्ञानी जीव मनु सिद्ध पद में, नोसन्नी-नोअसन्नी जेम । अचरम जीव अनैं सिद्ध पद में, चरम मनुष्य पद खेम ।। ६३. अज्ञानी जाव विभंगअनाणी, आहारक जिम अवलोय । कदा चरम कदा अचरम कहिये, आगल न्याय सुजोय ।। ९०. तत्राभिनिबोधिकादिज्ञानं यः केवलज्ञानप्राप्त्या पुनरपि न लप्स्यते स चरमोऽन्यस्त्वचरमः । (वृ०प०७३७) ९२. केवलनाणी जहा नोसण्णी-नोअसण्णी । ९३. अण्णाणी जाव विभंगनाणी जहा आहारओ। (श० १८३१) ९४. यो ह्यज्ञानं पुनर्न लप्स्यते स चरमः । (वृ० प० ७३७) ९५. यस्त्वभव्यो ज्ञान न लप्स्यते एवासावचरम इति । (व० प०७३७) ९६. एवं यत्र यत्राहारकातिदेशस्तत्र तत्र स्याच्चरमः स्यादचरम इति व्याख्येयं । (वृ० प० ७३७) ९७. शेषमप्यनयव दिशाऽभ्युह्यमिति । (बृ० ५०७३७) सोरठा ९४. जे अज्ञानी जाण, ज्ञान लहीने पुनरपि । लहिस्यै नहिं अज्ञान, सिद्धि-गमन थी चरम ते ।। ९५. अभव्य ते अवलोय, ज्ञान कदै लहिस्यै नहीं। ते अज्ञानी जोय, अचरम छ पिण चरम नहीं ।। ९६. जिहां-जिहां इम जेह, आहारक आदिक देश जे । ___ तिहां-तिहांज कहेह, कदा चरम अचरम कदा ।। ९७. कहिबा जोग्यज जेह, शेष द्वार पिण छै जिके । एणे देश करेह, कहिवो सर्व विचार नै । योग द्वार ९८. *सजोगी यावत कायजोगी, ते आहारक जिम अवदात । कदा चरम कदा अचरम कहिये, जेहमें जोग छै ते थात ।। ९९. अजोगी जोव मनुष्य सिद्ध पद में, नोसन्नी-नोअसन्नी जेम। अचरम जीव अने सिद्ध पद में, मनुष्य में चरमज तेम ।। उपयोग द्वार १००. साकार ने अनाकारोवउत्तो, अनाहारक जिम एह । जीव सिद्ध इक वच बहु वचने, नो चरम अचरमा जेह ।। १०१. शेष स्थानक विषे इक बहु वचने, आहारक जिम विध वरिमा। इक वच कदा चरम कदा अचरम, बहु वच चरिमा अचरिमा ।। *लय: रे भवियण! सेवो रे साधु सयाणां ९८. सजोगी जाव कायजोगी जहा आहारओ, जस्स जो जोगो अस्थि । ९९. अजोगी जहा नोसण्णी-नोअसण्णी । (श० १८३२) १००, सागारोवउत्तो अणागारोव उत्तो य जहा अणाहारओ। (ण०१८।३३) १२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२. सवेदओ जाव नपुंसगवेदओ जहा आहारओ । १०३. अवेदओ जहा अकसायी। (श० १८।३४) १०४. ससरीरी जाव कम्मगसरीरी जहा आहारओ, नवरं -जस्स जं अस्थि । वेद द्वार १०२. सवेदी जाव नपुंसकवेदी, आहारक जिम विध वरिमा । इक वच कदा चरम कदा अचरम, बहु वच चरिमा अचरिमा ।। १०३. अवेदी अकषाइ जिम कहिवा, अचरम जीव रु सिद्ध । मनुष्य पदे कदा चरिम कहीजे, कदा अचरम प्रसिद्ध ।। शरीर द्वार १०४. सशरीरी जाव कम्मगशरीरी, आहारक जिम अवलोय । णवरं विशेष जेहनें जे तनु छ, तेहनै ते कहियै सोय ।। बा०-सशरीरी जाब कार्मण-शरीरी जिम आहारक तिम कहिवा । ते इम सर्व स्थानक नै विषे एक वचने तो कदा चरिम कदा अचरिम । बह वचने चरिमा पिण अचरिमा पिण । १०५. शरीर रहित तिको अशरीरी, एह सिद्ध भगवान । नोभव्य ने नोअभव्य आख्यो, कहिवो तिम पहिछाण ।। पर्याप्त द्वार १०६. पंच पर्याप्ति करी पर्याप्तो, वलि जिण पंच पर्याय' नहिं बांधी ते अपर्याप्तो छ, आहारक जिम कहिवाय ॥ वा०-इहां आहारक जिम कह्या, ते इम-सर्व स्थानक नै विषे एक वचने तो कदा चरम कदा अचरम । बहु वचने चरिमा पिण अचरिमा पिण। १०७. ए सगलाई पूर्व कह्या ते, एक बहु बचनेह । ए वे दंडक करिने भणवा, सर्व विचारी लेह ।। वा.----जे जीव नारकादिक भाव प्रतं वतै छ अन वलि ते भाव प्रतै पामस्य ते भाव नी अपेक्षा करिक ते अचरम हवै। अनं जे भाव नों अत्यंत विजोग सर्वथा विरहो हुवै जे नारकादिक नै तेणे भावे करी ते चरम कहिये । एतले नारकादिक भावपण व वलि ते नारकादिक भाव न पामस्य ते नारकादि भाव नी अपेक्षाय चरम कहिये । १०५. असरीरी जहा नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीओ। (श० १८१३५) १०६. पंचहिं पज्जत्तीहि पंचहि अपज्जत्तीहि जहा आहारओ। १०७. सव्वत्थ-एगत्त-पुहत्तेणं दंडगा भाणियव्वा । वा०-'जो जं पाविहिति' गाहा 'यः' जीवो नारकादि: 'य' जीवत्वं नारकत्वादिकमप्रतिपतितं प्रतिपतितं वा 'प्राप्स्यति' लप्स्यते पुनः पुनरपि 'भावं' धर्म स 'तेन' भावेनतद्भावापेक्षयेत्यर्थः अचरमो भवति, तथा 'अत्यन्तवियोगः' सर्वथाविरहः 'यस्य' जीवादेर्येन भावेन स तेनेति शेषः चरमो भवतीति । (वृ०प०७३७) १०८. जो जं पाविहिति पुणो, भावं सो तेण अचरिमो होइ। १०९. अच्चंतविओगो जस्स, जेण भावेण सो चरिमो ॥१॥ (श० १८१३६) ११०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरइ । (श०१८।३७) १०८. जोव नारक आदि देई जे, जेह भाव प्रति जाणी। नारकादिकपणे लहिस्य पुनरपि, अचरम कहिये पिछाणी।। १०९. अत्यंत विजोग हुवै जे भाव नों, सर्वथा विरहो होय । जीवादिक ने जिण भावे करि, ते भावे करि चरम जोय ।। ११०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! इम यावत विचरंत । अर्थ अठारमा शतक तणों ए, प्रथम उद्देशा नोतंत ।। १११. ढाल कहो ए तीनसो ऊपर, सितरमी सुविशाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ।। अष्टादशशते प्रथमोददेशकार्थः ॥१८॥१॥ १. पर्याप्ति ०१८, उ०१, ढाल ३७० १२७ Jain Education Intemational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३७५ हा १. घुर वैमानिका उद्देश कदा चरम अचरम कदा, २. विशेष वैमानिक हिवै, चरम अच्छे कहिये तिको, *स्वाम मुद्दामणां । मोरा नाथ के जिन रलियामणां ।। (ध्रुपदं ) ३. तिण काले नैं तिण समय, होजी नाम विशाखा न्हाल | स्वाम सुहामणां । पूर्वे मानिकपणेह | आख्यो एह || भावेन । द्वितीयोदेश कथनेन || वैमानिक नगरी हुंती रलियामणी, होजी वर्णक योग्य विशाल ॥ " ५. तिण काले में तिण समय, वज्र आयुध तसु हाथ में, ६. असुर तणां पुर दारवे, इम जिम सोलम शतक में ७. तिम दिव्य देव संबंधिया, आग्यो आडंबर करी, ८. आभियोगिका छै इहां, नाटक विध देखाव ने, ९. हे भगवंत ! इसो कही, ४. स्वामी आप समवसरघा, होजी जाव करें पर्युपास स्वाम समोसरघा । परषद त्रिहुं जोगे करी, होजी आणी अधिक हुलास || स्वाम समोसरधा । (म्हारा लाल के स्वाम समोसरघा ) होजी शक्र सुरिंद्र सुरराय । होजी वज्रपाणी कहिवाय || होजी नाम पुरंदर जात । होजी द्वितीय उद्देशक ख्यात ॥ होजी यान विमान करेह । होजी नवरं विशेष मुणेह || होजी जाव बत्तीस प्रकार । होजी जाय गयो तिण बार ॥ होजी श्री गोतम भगवान | होनी जान वदे इम वान ॥ होजी वारू ईशाण वृतंत । तिमहिज कूट आकार जे होजी साला नै दृष्टंत ॥ ११. तिमज पूर्व भव पूछियो, होजी जाव सन्मुख थइ ऋद्ध । शक्र सुरिंद्र भव पाछिले, होजी स्यूं करणी प्रभु ! किद्ध ? १२. हे गोतम ! इहविधि कही, होजी महावीर जगदीश । श्रमण भगवंत महावीर ने १०. जिम तीजा शतक विषे कह्यो, गोतम प्रति इहविधि कहै, होजी इम निश्चे गुण शीस ! १३. तिण काले नैं तिण समय, होजी एहिज जंबूद्वीप मांय । भरतक्षेत्र मांहे भलो होजो हमणापुर सुखदाय ।। १४. वर्णक जोग्य नगर हंतो होजो सहसंय वन अभिधान । प्रवर उद्यान मनोहरू, होजी वर्णक जोग्य बखान ॥ *लय : दिन दूजे दरबार में होजी खबर करावं १२८ भगवती जोड़ स्वाम सुहामणां । १. प्रथमोद्देशक वैमानिको वैमानिकभावेन स्याच्चरमः स्यादचरम इत्युक्तम् । ( वृ० प० ७३७) २. अथ वैमानिकविशेषो यस्तद्भावेन चरमः स द्वितीयो - देश के दयते । (२०१० ७३७) ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा नाम नगरी होत्या - वण्णओ । ४. सामी समोसढे जाव पज्जुवासइ ।। ५. तेणं काले तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्जपाणी । ६. पुरंदरे - एवं जहा सोलसमसए' बितिय उद्देसए । ७. तहेव दिव्वेणं जाणत्रिमाणेण आगओ, नवरं 5. एत्थ अभियोगा वि अस्थि जाव बत्तीसतिविहि नट्टविहि उवसेत्ता जाव पडिगए। (श० १८।३८ ) ९. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव (सं०पा० ) एवं वयासी १०. जहा तइयसए (सू० २८-३०) ईसाणस्स तहेव कूडागारदितो, ११. तहेव पुव्वभवपुच्छा जाव अभिसमन्नागए ? ( श० १८/३९ ) १२. गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! १३. तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीन दीवे भारहे वासे हथिणापुरे नाम नगरे होत्था १४. वण्णओ । सहसंबवणे उज्जाणे - वण्णओ । १. सोलहवें शतक में तीसरे शतक (सू० २७) की भोलावण दी गई है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. तिण हथणापुर नगर में, होजी कात्तिक सेठ वसंत । ऋद्धिवंत यावत जाणवो, होजी अपरिभूत सोहंत ।। १६. निगम वाणिया नैं विषे, होजो प्रथम बेसणो जास। एक सहस्र अठ ऊपरे, होजी वाणोत्तर' छै तास ।। १७. तेहनां बहु कारज विषे, होजी घर नों करिवू जान । स्वजन सन्मानादिक जिके, होजी कार्य विषे पहिछान ।। १५. तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे कत्तिए नाम सेट्ठी परि वसति अड्ढे जाव बहुजणम्स अपरिभूए । १६. नेगमपढमासणिए, नेगमट्ठसहस्सस्स 'णेगमपढमासणिए' त्ति इह नैगमा-वाणिजकाः । (वृ० प० ७३९) १७. बहूसु कज्जेसु य 'कज्जेसु य' त्ति गृहकरणस्वजनसन्मानादिकृत्येषु । (वृ० प० ७३९) १८. कारणेसु य 'कारणेसु' त्ति इष्टार्थानां हेतुषु--कृषिपशुपोषणवाणिज्यादिषु । (वृ० प० ७३९) १९. कोडुबेसु य 'कुटुंबेसु' त्ति सम्बन्धविशेषवन्मानुषवृन्देषु विषयभूतेषु (वृ० प० ७३९) २०. एवं जहा रायपसेणइज्जे (सू०६७५) चित्ते जाव चक्खुभूए। १८. वलि कारण इष्ट अर्थ नां, होजी हेतु विषे छे जेह । करसण नै पशु पोखवं, होजी वलि वणिज्यादि विषेह ।। १९. कुटुंब संबंध बहु नर जिहां, होजी विवाहादिक नै विषेह । कात्तिक पूछवा जोग्य छै, होजी अग्रेसर छै एह ।। २०. जिम रायप्रश्रेणी - विषे, होजी चित्त नै जिम आख्यात। यावत चक्षुभूत छै, होजी इतरा लग अवदात ॥ सोरठा २१. रायप्रश्रेणी जेम, इण वचने करि जाणव । ___ मंत्र विषे जे एम, ते आलोचन नै विषे ।। २२. गुह्य' विषे अवधार, लाज जोग्य कारज विषे । वलि व्यवहार विचार, गोपन विषेज जाणवू ।। २३. जे एकांतज जोग्य, रहिस्य कहिजे तेहने । फुन ववहार प्रयोग्य, तेह विषे पिण जाणवं ।। २४. इण प्रकार करि हीज, कारज करिवं छै इहां। ते निश्चय विषे कहीज, एह पूछवा जोग्य छै ।। २१. मंतेसु य 'एवं जहा रायप्पसेणइज्जे' (सू० ६७५) इत्यादि, अनेन चेदं सूचितं तत्र 'मन्त्रेषु' पर्यालोचनेषु । (वृ० प० ७३९) २२. गुज्झेसु य 'गुह्यषु' लज्जनीयव्यवहारगोपनेषु । (वृ० प० ७३९) २३. रहस्सेसु य ___ 'रहस्येषु' एकान्तयोग्येषु । (वृ० प० ७३९) २४. निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छ णिज्जे। 'निश्चयेषु' इत्थमेवेदं विधेयमित्येवंरूपनिर्णयेषु 'आपृच्छनीयः' प्रष्टव्यः। (वृ० प० ७३९) २५. मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खु । २५. कारज विषेज ताय, मेढी प्रमाण सेठ है। फुन आधार कहाय, आलंबन चक्षु वली ।। २६. मेढी खलहा बीच, रोपै छ जे थोभली। पंक्ती वृषभ समीच, धान्य प्रतै गाहै तिके ।। २७. तद्वत कात्तिक जाण, आलंबी ने अपर जन । सगलाई पहिछाण, वणिक तणां मंडल तिके ।। २८. करण योग्य जे अर्थ, जूदो करै जे धान्य जिम । मेढी सेठ तदर्थ, हिव कहुं अर्थ प्रमाण नुं ।। २६-२८. मेढी-खलकमध्यवर्तिनी स्थूणा यस्यां नियमिता गोपंक्तिर्धान्यं गाहयति तद्वद्यमालम्ब्य सकलनगममण्डलं करणीयार्थान् धान्यमिव विवेचयति स मेढी । (वृ०प०७३९) १. मुनीम-गुमास्ता। २,३. अंगसुत्ताणि भाग २ श. १८४० में पाठ में विपर्यय है। वहां पहले रहस्सेसु य है और उसके बाद गुज्झसु य पाठ है। श०१८, उ० २, ढा० ३७१ १२९ Jain Education Intemational Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. तथा प्रमाणज च्यार, प्रत्यक्ष आदिक जाणवा । तेह सरीखो सार कालिक सेठ कहीजिये ॥ ३०. चिउं प्रमाण कर उचित दृष्ट अर्थ झूठो नवी तिमज प्रवृत्ति निवृत्त गोचर बीज प्रमाण ते ।। ३१. आधेय नुं आधार, तेहनी परि सह कार्य में आधार सेठ उदार, जन उपकारिणां धकी ॥ ३२. आलंबन रज्जुवादि, तेह सरीखो सेठ छै । आपदमर्त्ता आदि तसु निस्तारक भाव यी ॥ ३३. अथवा चक्षू जाण, जन नां बहु कारज विषे । प्रवृत्ति निवृत्ति आग, विषय देखाड़ण थी नयन ।। ३४. मेठीभूत उदार, प्रमाणभूत वली कह्यो । आधारभूत विचार, आलंबनभूत है ॥ तसु अए पाठ है । रायप्रश्रेणी थी कह्या ॥ होजी वाणोत्तर नों विचार । होजी ए अधिपतिपणों धार ॥ होजी पालतो रूड़ी रीत । होजी पूरी तास प्रतीत || होजी जीव अजीव तो जान होजी देतो निर्दोषण दान ।। फुल ३५. भूत शब्द उपमान, जाव शब्द में जान, ३६. एक सहस्र ने आठ जे, वलि पोता नां कुटंब नो, ३७. जाय सेठ करतो यको, महिमा बहु नगरी मझे, ३८. श्रमणोपासक सही यावत विचरे मुनि भणी ३९. देश द्वितीय नं. होजी त्रिणसव इकोत्तरमी ढाल होजी 'जय जय' मंगलमाल || भिक्षु भारीमाल ऋषिराव थी, ढाल : ३७२ दूहा १. द्वादश व्रत श्रावक तणां, पालै रूड़ी रीत । उजवालै निज आतमा, टाले दोष अनीत ॥ २. हलुक्रमी जे जीवड़ा, तसु अति भाग्य प्रमाण । जोग मिले जिनराज नो, सुणजो चतुर सुजाण ।। + स्वाम पधारिया जी ॥ ( ध्र ुपदं ) मुनिसुव्रत अरिहंत । निज तीरथ में हुंत ॥ ३. तिण काले ने तिण समय जी, करणहार धर्म आदि नां जी, *लय : दिन दूजे दरबार में हो जो खबर करावे लय: राम पधारिया जी १३० भगवती जोड़ २९-३० तथा 'प्रमाण' प्रत्यक्षादि तयस्तदृदृष्टार्थानामव्यभिचारित्वेन तचैव प्रवृत्तिनिवृत्तिगोचरत्वात्स प्रमाणं । (० ०७१७) ३१. आधारः आधेयस्येव सर्वकार्येषु लोकानामुपकारित्वात् ( वृ० प० ७३९ ) ३२. 'आलम्बन'म्यादि तदापद्गत्तदिनिस्तारकत्वादालम्बनं । (२०१० ७३९) ३३. चक्षुः - लोचनं तद्वल्लोकस्य विविधकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वाच्चक्षुरिति (२०१० ७३९) ३४. मेढिभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए । ३५. भूतशब्द उपमार्थं इति । (२०१० ७३९) ३६. नेगमट्टसहस्सस्स सयस्स य कुटुंबस्स आहेवच्चं ३७. जाव (सं०पा० ) कारेमाणे पालेमाणे । ३८. समोवास, अमजीवाजीव जाव अहापरिन्गहिएहि तवोकम्येहि अध्यानं भावेमाणे विहर। ( ० १०/४०) ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं आदिगरे मुणिसुब्वए अरहा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. जहा सोलसमसए (सू० ६७, ६८) तहेव जाव समोसढे । ५. जाव परिसा पज्जुवासइ । (श० १८१४१) ६. तए णं से कत्तिए सेट्ठी इमीसे कहाए लद्धडे समाणे ७. हट्ठतुळे एवं जहा एक्कारसमसए (सू० ११६) सुदंसणे। ८. तहेव निग्गओ जाव पज्जुवासति । (श० १८६४२) ९. तए णं मुणिसुव्वए अरहा कत्तियस्स सेट्ठिस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ । १०. जाव परिसा पडिगया। (श० १८४३) ४. जिम सोलम शत पंचमें जी, आख्यो कहिवो तेम। तिमहिज जाव समोसरचा जी, पाम्या जन मन प्रेम ।। ५. यावत परषद परवरी जी, त्रिहं योगे पर्यपास । देवाधिदेव दयाल नी जी, सेव सखर सुखवास ।। ६. स्वाम पधारया सांभल्या जी, कात्तिक सेठ तिवार । ए कथा अर्थ लाधे छते जी, पाम्यो तन मन प्यार ।। ७. हरष संतोष पायो हिये जी, जिम ग्यारम शतकेह। सेठ सुदर्शण वंदवा जी, निकल्यो ऋद्धि करेह ।। ८.तिम कात्तिक पिण नीकल्यो जी, आवी प्रभु रै पाय । __जाव करै पर्युपासना जी, त्रिहं जोगे करि ताय ।। ९. तिण अवसर जिन वीसमां जी, मुनिसुव्रत अरहंत । कात्तिक नामा सेठ नै जी, धर्म कथा सुकहंत ।। १०. जाव परषद पाछी गई जी, स्वाम तणी सुण वाण । यथाशक्ति व्रत धारने जी, पोंहती निज-निज स्थान ।। ११. कात्तिक सेठ तिण अवसरे जी, मुनिसुव्रत नै पास । ___ जाव सुणी दिल धारने जी, पाम्यो अधिक हुलास ।। १२. अति संतोषज ऊपनो जी, ऊठ ऊठी ताम । मुनिसुव्रत अरहंत ने जी, जाव वदै शिर नाम ।। १३. इमहिज हे भगवंत जी ! तुम्है कह्य ते सत्य । जाव तुम्हे कहो छो तिको जी, तिमहिज वच अवितथ्य ।। १४. णवरं देवानुप्रिया जी! एक सहस्र अठ सार । __वाणोत्तर छै महिरै जी, तसु पूछी इणवार ।। १५. कुटंब विषे जेष्ठ पुत्र नै जी, स्थापी में सविमास । दीक्षा लेसू दीपती जी, कांइ देवानुप्रिया पास ।। १६. स्वाम कहै जिम सुख हुवै जी, जाव म कर प्रतिबंध । शीघ्र आण दीक्षा तणी जी, इम दीधी जिनचंद ।। १७. कात्तिक सेठ तिण अवसरे जी, यावत निकलै ताहि । __ स्वाम कनां थी नीकली जी, आयो हथणापुर मांहि ।। ११,१२. तए णं से कत्तिए सेट्ठी मुणिसुव्वयस्स जाव (सं०पा०) निसम्म हट्ठतुढे उट्ठाए उठेति, उठेत्ता मुणिसुव्वयं जाव (सं०पा०) एवं वयासी १३. एवमेयं भंते ! जाव—से जहेयं तु वदह जं, १४. नवरं - देवाणुप्पिया ! नेगमट्ठसहस्सं आपुच्छामि । १५. जेट्टपुत्तं च कुडुंबे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाण अंतियं पव्वयामि । १६. अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध । (श० १८१४४) १७. तए णं से कत्तिए सेट्ठी जाव पडिनिक्खमइ, पडि निक्खमित्ता जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गेहे, तेणेव उवागच्छइ, १८. उवागच्छित्ता नेगमट्ठसहस्सं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी१९. एवं खलु देवाणुपिया ! मए मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतियं धम्मे निसंते, २०. से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए अभिरुइए । १८. जिहां निज घर तिहां आयनै जी, एक सहस्र अठ ताय । वाणोत्तर नै तेड़ने जी, बोले इहविध वाय ।। १९. इम निश्चै देवानुप्रिया जी, मुनिसुव्रत अरहंत । म्है तस पासे सांभल्यो जी, धर्म अमोलक तंत ।। २०. ते पिण धर्म वांछयो अम्है जी, वलि वांछयोज विशेख । प्रवर रुच्यो मुझ मन विष जी, तन मन सू संपेख ।। २१. हं देवानुप्रिया ! तदा जी, ए चिउं गति संसार । तास भ्रमण नां भय थकी जी, पायो उद्वेग अपार ।। २२. जाव दीक्षा लेसू सही जी, ते भणी तुझ में कहेह । हे देवानुप्रिया ! तुम्हे जी, स्यं करिसो निज गेह ।। २१. तए णं अहं देवाणुप्पिया ! संसारभयुब्बिग्गे २२. जाव पव्वयामि, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! कि करेह, श०१८, उ०२, ढा० ३७२ १३१ Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. स्यूं करस्यो व्यवसाय नैं जी, हिवै सहु कहो मुझ। स्यं तुम्ह वांछित हिय तणो जी, साम्यर्थपणो स्यूं तुझ ।। २४. एक सहस्र अठ ओपता जी, वाणोतर तिहवार । कात्तिक सेठ प्रतै तदा जी, बोल्या वचन विचार ।। २५. अहो देवानुप्रिया ! तुम्है जी, भव भ्रमण संसार । उद्वेग पाम्या तसु भय थकी जी, जाव लेसो संजम भार ।। २६. तो अम्ह नैं देवानुप्रिया जी ! आप बिना अन्य सार । कुण आलंबन मुझ भणी जी, अथवा कुण आधार ।। २७. स्यं प्रतिबंध अछे वली जी, म्है पिण सहु इहवार । भ्रमण संसार नां भय थकी जी, पाम्या उद्वेग अपार ।। २८. बीहना जामण-मरण थी जी, देवानुप्रिय साथ । मुनिसुव्रत अरहंत कनै जी, लेसां संजम-आथ ।। २३. कि बवसह, कि भे हियइच्छिए, किं भे सामत्थे ? (श० १८१४५) २४. तए णं तं नेगमट्ठसहस्सं पि कत्तियं सेट्टि एवं वयासी-- २५. जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! संसारभयुब्विग्गा जाव पव्वयह । २६. अम्हं देवाणप्पिया ! के अण्णे आलबे वा, आहारे वा, २७. पडिबंधे वा? अम्हे वि णं देवाणुप्पिया ! संसार भयुब्बिग्गा २८. भीया जम्मणमरणाणं देवाणु प्पिएहिं सद्धि मुणिसुव्व यस्स अरहओ अंतियं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामो। (श० १७॥४६) २९. तए णं से कत्तिए सेट्ठी तं नेगमट्ठसहस्सं एवं वयासी३०. जदि णं देवाणुप्पिया ! संसारभयुविग्गा भीया जम्मणमरणाणं ३१. मए सद्धि मुणिसुव्वयस्स जाव (सं०पा०) पव्वयह । ३२. तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सएसु गिहेसु, विपुलं असणं जाव (सं०पा०) उवक्खडावेह । ३३. मित्त-नाइ-जाव (सं०पा०) जेट्ठपुत्ते कुटुंबे ठावेह, २९. कात्तिक सेठ तिण अवसरे जी, एक सहस्र नै अट्ठ । वाणोत्तर - इह विधे जो, बोल्यो वचन प्रगट्ट ।। ३०. यदि देवानुप्रिया ! तुम्हे जी, संसार भय थी उद्वेग । बीहना जामण-मरण थी जी, पायो मन संवेग ।। ३१. मुझ साथै सगला जणां जी, मुनिसुव्रत रै पास । यावत चरण लेसो तुम्है जी, आणी अधिक हुलास ।। ३२. जाव तम्है देवानुप्रिया जी! आप आपण गेह । विस्तीणं बहु अशन – जी, यावत रंधावेह ।। ३३. मित्र न्यातो यावत सहु जी, तसु आगल सुविचार । कुटंब विषे बड़ा पुत्र नैं जी, स्थापो घर नों भार ।। ३४. घर नं भार स्थापी करी जी, मित्र न्याती प्रति सार । जाव वलि जेष्ठ पुत्र ने जी, पूछो धर अति प्यार ।। ३५. बड़ा पुत्र ने पूछने जी, पुरुष उपाडै हजार । ___ एहवी सेवका ऊपरे जी, आरूढ थई इहवार ।। ३६. मित्र न्याती यावत सहु जी, परिजन करि अवलोय । वलि जेष्ठ पुत्र करी जी, ए सहु साथे जोय ।। ३७. भले प्रकारे मारग चालता जी, सर्व ऋद्धि करि सार । यावत रव शब्दे करी जी, वाजंत्र विविध प्रकार ।। ३८. विलंब रहित निश्चै तुम्हे जी, मुझ समीप अमंद । प्रगट थावो सहु जणां जी, आवो धर आणंद ।। ३९. एक सहस्र अठ ओपता जी, वाणोत्तर तिहवार । कात्तिक सेठ नां वचन नै जी, करै विनय करी अंगीकार ।। ४०. विनय सहित अंगीकरी जी, जिहां निज-निज छै गेह । तिहां आवै आवी करी जी, आहार चिउं रंधावेह ।। ३४. ठावेत्ता तं मित्त-नाइ-जाव (सं०पा०) जेट्ठपुत्ते आपुच्छह, ३५. आपुच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ द्रुहह, द्रु हित्ता, ३६.मित्त-नाइ-जाव (संपा०) परिजणेण जेटुपुत्तेहि ३७. समणुगम्ममाणमग्गा सव्विड्ढीए जाव दुंदुहि-निग्घोस नादियरवेणं ३८. अकालपरिहीणं चेव मम अंतियं पाउब्भवह । (श० १८।४७) ३९. तए णं तं नेगमट्ठसहस्सं पि कत्तियस्स सेट्ठिस्स एय मठें विणएणं पडिसुणेति । ४०. पडिसुणेत्ता जेणेव साइं-साइं गिहाइं तेणेव उवाग च्छति, उवागच्छित्ता विपुलं असणं जाव (सं०पा०) उवक्खडावेति, ४१. उवक्खडावेत्ता मित्त-नाइ जाव (सं०पा०) तस्सेव मित्त-नाइ जाव (सं०पा०) पुरओ ४२. जेट्ठपुत्ते कुडुंबे ठावेति, ठावेत्ता तं मित्त-नाइ जाव (सं०पा०) जेट्ठपुत्ते य आपुच्छइ, ४१. असणादिक रंधायने जी, मित्र ज्ञाति अवलोय । जाव ते मित्र न्याती तणे जी, यावत आगल सोय ।। ४२. कुटंब विषे बड़ा पुत्र नै जी, स्थापै स्थापी तेह । तेह मित्र न्याती प्रतै जी, जाव जेष्ठ पुत्र पूछेह ।। १३२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. जेष्ठ पुत्र में पूछने जी एहवी सेवका ऊपरे जी, ४४. सिविका ऊपर बड़ करी जी, परिजन जेष्ठ पुत्रे करी जी, ४५. सर्व ऋद्धि करि शोभता जी, जाव वार्जित्र सुसादि । विलंब रहित कात्तिक सेठ जी आया घर अहलादि ॥ ४६. कार्तिक सेठ तिण अवसरे जी, विस्तीर्ण चिउं आहार | जिम गंगदत्त नो आखियो जी, कहिवो तिम विस्तार ॥ ४७. जाव मित्र न्यातो सहु जी, यावत परिजन साथ । जेष्ठ पुत्र पिण संग छै जी, चारित्र लेवा जात ॥ ४८. एक सहस्र आठ ओपता जी वाणोत्तर तिवार कात्तिक के चालता जी, सर्व ऋद्धि करि सार ॥ हजार । अपार ॥ पुरुष उपाई चढिया हरष मित्र अरु व्याति निजग्ग चालता थका सुमग्ग || J ४६. जाव वाजित्र रखे करी जी हबणापुर मध्य होय । जिम गंगदत्त तिम आवियो जी, श्री जिन पासे सोय || ५०. शतक अठारम देश दूसरे जी, त्रिण सय बोहितरमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, ३. घर जलते जिम गृहपति निज सुख क्षेम कल्याण हे , 'जय - जश' हरष विशाल || ढाल : ३७३ हा , १. प्रभु ! जान अलिप्त आलेवढ़ो, जलै लोक जग मांय । प्रलिप्त प्रभु! पलेवडो जले लोक अधिकाय ॥ २. आलिप्त प्रलिप्त लोक प्रभु! यावत जास्ये लार निज आतम निस्तारियां परलोके सुख सार ।। सार वस्तु कावंत | इह भव अनु आवंत || ४. जन्म मरण री लाय थी, आतम काढिस बार । पर भव हित सुख क्षेम शिव, तसु फल आस्यै लार ।। ५. ते माटै वांछू प्रभु ! एक सहल ने यह अट्ठ । बाणोत्तर साथै प्रवर, ग्रहिवो चरण सुवट्ट || भेव । ६. प्रव्रज्या स्वयमेव ही, मुंड बाय जाव धर्म कहिवा प्रतै हूं बांछू स्वयमेव ॥ 1 ४३. आपुहिता पुरिवाहिणीओ बीयाओ हति ४४. दुहिता मिस नाइ-जाब (सं०पा०) परिजन जेपुतेहि य समणुगम्ममाणमग्गा ४५. सव्विड्ढीए जाव दुंदुहि निग्घोसनादियरवेणं अकालपरिहीणं चैव कत्तियस्स सेट्टिस्स अंतियं पाउब्भवति । ( ० १८२४०) ४६. ए पं से कतिए सेड्डी विपुलं असणं पाणं खाहमं साइमं वेति जहा गंगदतो (भग० १६७१) ४७. जान परिजण जे ४८. नेगमट्टसहस्सेण या समगम्यमाणम सम्बिड्डीए ४९. जावदुदुहग्ोिसना दियरवेणं हरियणापुरं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छर, जहा गंगदत्तो । (भाग० १६.७१) १. जाव आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! पोए २. आलिस पतिते भलए जान आगामिताए भविस्सति । ५, ६. तं इच्छामि णं भंते ! नेगमट्टसहस्सेण सद्धि सयमेव पव्वावियं जाव धम्ममाइक्खियं । (श० १६४९) श०१८, ०२, ढा० ३७२,३७३ १३३ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. * मुनिसुव्रत तिण अवसरे, कालिक सेठ प्रतं तदा, ८. एक सहस्र अठ ओपता, प्रव्रज्या पोर्न प्रभु, ९. जावत धर्म कहै प्रभु, देवानुप्रिय ! तुम्ह भणी, १०. ऊभो रहिवूं इहविधे, जाव प्रवर्तं तुम्ह भणी, ११. कार्तिक सेठ ति अवसरे, वाणोत्तर ने संघात ही, १२. मुनिसुव्रत अरहंत न धर्म तणां उपदेश ने 1 अरहत इंद्र-पूजनीक जिनदेवा तीर्थकर तहतीक ॥ जिनदेवा बाणोत्तर रे साथ । देवे श्री जगनाथ || शिक्षा दे व्रत क्षेम | गमन करेवूं एम ॥ जयणा तत्पर सार । संजम सहित उदार ॥ एक सहस्र अठ जाण धारै श्री जिन आण || एहवे रूप उदार । रूड़ी रीत करे अंगीकार ॥ १३. श्री जिन आज्ञा तिहविधे वाले यावत संजम नैं विषे यत्न करें 1 १४. कार्तिक सेठ तिण अवसरे, बाणोत्तर सुखकार । एक सहस्र अठ सहित ही, ताम थया अणगार ॥ १५. ईयाँ समिति सहित ही भाषा समित विचार । जाव गुप्त ब्रह्मचर्य नां, धारक अधिक उदार ॥ १६. कार्तिक मुनि तिण अवसरे, मुनिसुव्रत अरहंत । तथारूप स्थविरां कनै, पठन करें धर खंत ॥ १७. सामायक नं आदि दे, पूर्व चवद प्रधान । भणे भणीनें महामुनि, तप करवा सूं ध्यान ।। १८. बहु चउथ छठ तप वलि, अट्ठम भक्त उदार । जावत निज आतम प्रतं भावित वासित सार ॥ , रूड़ी रीत । धर प्रीत || १९. घणूं प्रतिपूर्ण तदा बार वरस लग चारित्र न पर्याय नै पालै मुनि २०. बारै वर्ष चरण पालने, मास तणी संलेखणा करिकै मुनि, आतम प्रति कोषंत ॥ २१. आतम प्रति खी करी साठ भक्त सुखकार । अणसण करिनें महामुनि छेदं छेदी ने सार ॥ २२. आलोई जावत पर्छ, काल समय करि काल । सौधर्म कल्प सुहामणो, तेह विषे सुविशाल || २३. सौधर्म अवतंसक भलो पवर विमान मकार । सभा उपपात विषे अच्छे सुर नीं सेज्या सार ॥ २४. यावत शक्र सुरिंद्रपणे, उपनों कार्त्तिक जान । तिण अवसर ते सत्र ही, देवेंद्र देवराजान || छते, शेष जैम गंगदत्त । आख्यो तिम अवितत्थ || करिस्यै अंत विदेह | वरस्यै शिव-वधु तेह ॥ २५. तत्कालज उपने सोलम शत में पंचमें २६. यावत सगला दुख तणो, मनुष्य व चारित्र ग्रही, लय अजित भजो १. भ. १६/७२-७५ १३४ भगवती जोड़ ताम । गुणधाम ॥ मतिवंत । ७. तए मुबि अरहा कत्तिय पेट्टि णं ८. नेवमसहरसेणं सद्धि सदमेव पचावेति जाव धम्ममा इक्खइ एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं । १०. एवं चिट्टियन्वं जाव संजमियव्वं । ११. लए सेतिए बेट्टी मद्रसहस्त्रेण सदि ( श० १५५० ) १२. मुगमुपर अरहओ इमं एयास्वं धम्मिय उपदेस सम्म पि १३. तमाणाए तहा गच्छति जाव संजमेति । (म० १८५१) १४. तए णं से कत्तिए सेट्ठी नेगमट्टसहस्सेणं सद्धि अणगारे जाए १५. ईरियासमिए जाव भवारी ( ० १०५२) १६. तए णं से कत्तिए अणगारे मुणिसुव्वयस्स अरहओ तहासवाणं देणं अंति १७. सामाइयमाइयाइं वोट्स पुब्वाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता १८. बहूहि चउत्थ छट्टट्टम जाव (सं०पा० ) अप्पाणं भावेगाणे १९. दुबास बसाई सामन्नपरियार पाउणइ, २०. पाउगित्ता मासिवाए संहनाए अत्तानं भोसे, २१. झोसेत्ता स भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदेत्ता २२. आलोइय जाव (सं० पा० ) कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे २२. सोहम्म विमाणे उववाय सभाए देव सयणिज्जं सि २४. जाव (सं०पा० ) सक्के देविदत्ताए उववन्ने । तए णं से सक्के देविदे देवराया (श० १०५३) २५. अहुणोववणमेत्तर सेसं जहां गंगदत्तस्स २६. जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. नवरं-ठिती दो सागरोबमाई, सेसं तं चेव । (श० १८१५४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १८१५५) २७. वरं स्थिति में विशेष है, दोय सागर नी स्थित्ति । शेष गंगदत्त नी परै, सेवं भंते ! तहत्ति ।। २८. अंक इक सय बयांसी तणों, त्रिणसौ तीहंतरमी ढाल । भिक्षु भारोमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल ।। २९. उगणीसै तेवीस में, श्रावण सुदि अष्टम सार । सतर संतालिस मुनि अज्जा, बीदासर सुखकार ।। अष्टादशशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥१८॥२॥ ढाल:३७४ १. द्वितीयोद्देशके कार्तिकस्यान्तक्रियोक्ता, तृतीये तु पृथिव्यादेः सोच्यते। (वृ० प० ७३९) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे होत्था वण्णओ । गुणसिलए चेइए । ३. वण्णओ जाव परिसा पडिगया । ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महा वीरस्स अंतेवासी ५. मागंदियपुत्ते नाम अणगारे पगइभद्दए-जहा मंडिय पुत्ते' (३।१३४)। ६. जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी- (श० १८१५६) ___७. से नूणं भंते ! काउलेस्से पुढविकाइए दूहा १. द्वितीये अंतक्रिया कहो, कात्तिक नी सविचार । तृतीय पृथिव्यादिक तणों, तेहिज छै अधिकार ।। २. तिण काले नै तिण समय, नगर राजगृह नाम । वर्णक योग्य हुँतो प्रवर, गुण सिल चैत्य सुठाम ।। ३. ते पिण वर्णक योग्य है, यावत परिषद जान । निज स्थानक पाछी गई, वीर तणी सुण वान ।। ४. तिण काले नै तिण समय, भगवंत श्री महावीर। जाव सीस तेहनों पवर, अंतेवासी धीर ।। ५. माकंदी-सुत नाम तसु, गृह तजवे अणगार । प्रकृति स्वभावे भद्र है, जिम मंडित-सुत सार ।। ६. जाव सेव करतो छतो, बोलै इहविधि वाय। पूर्वक विनय सुविधि करी, प्रश्न करै मुनिराय ।। ७. *हे प्रभु! निश्चै करी रे हां, णं वाक्यालंकार'। मेरा स्वाम जी! कापोतलेसी छै तिको रे हां, पृथ्वीकायिक धार । मेरा स्वाम जी ! ८. कापोतलेसी पृथ्वी थकी रे हां, अंतर रहित कहेह । नीकली ने जे मनुष्य नों रे हां, शरीर प्रति पामेह ।। ९. मनुष्य तणों तनु पामने रे हां, केवल बोधि बुज्झेह । केवल बोधि बुज्झी करी रे हां, तठा पछै सिझेह ।। १०. जाव करै अंत दुख तणो रे हां? जिन कहै हंता जेह। सांभल महामुनि ! कापोत पृथ्वीकाइयो रे हां, यावत अंत करेह ।। सांभल महामुनि ! *लय : किण-किण नारी सिर घड़ो १. प्रस्तुत सन्दर्भ में पाठ है 'नूणं'। टीका में इसकी कोई व्याख्या नहीं है। संभव है, जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में न और णं दो शब्द हों। उसी को आधार मानकर उन्होंने णं की व्याख्या की है, ऐसा प्रतीत होता है। ८, काउलेस्सेहितो पुढविकाइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुसं विग्गहं लभति, ९. लभित्ता केवलं बोहि बुज्झति, बुज्झित्ता तओ पच्छा सिज्झति १०. जाव सव्वदुक्खाणं अत करेति? हंता मागंदियपुत्ता ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति । (श० १८१५७) १. मंडितपुत्र के प्रसंग में रोहक (श० ११२८८) की भोलावण दी गई है। श०१८, उ०३, ढाल ३७३,३७४ १३५ Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ते निश्चे भगवंत जी ! रे हां, काउलेसी अपकायि । कापोतलेसी अप थकी रे हां, अंतर रहितज ताहि ।। १२. अंतर रहितज नीकली रे हां, मनुष्य तनु पामेह । मनुष्य तणो तनु पामने रे हां, केवल बोधि बुज्झेह । १३. बोधि प्रतै बुज्झी करी रे हां, जाव करै दुख अंत ? जिन भाखै हंता सही रे हां, यावत अंत करंत ।। १४. ते निश्चै भगवंत जी! रे हां, कापोतलेसी जेह । वनस्पतिकायिक तिको रे हां, इम यावत अंत करेह ।। ११. से नूणं भंते ! काउलेस्से आउकाइए काउलेस्सेहितो __ आउकाइएहितो अणंतरं १२. उव्वट्टित्ता माणुसं विग्गहं लभति, लभित्ता केवलं बोहि बुज्झति १३. जाव सब्वदुक्खाणं अंतं करेति ? हंता मागंदियपुत्ता ! जाव सब्वदुक्खाणं अंतं करेति। (श०१८।५८) १४. से नूणं भंते ! काउलेस्से वणस्सइकाइए जाव सब्वदुक्खाणं अंतं करेति। (श० १८१५९) सोरठा १५. इहां पृथ्वी अपकाय, वनस्पती नों नीकली। अनंतरे नर थाय, अंतक्रिया तिणरी हुवे ।। १६. तेऊ वाऊकाय, अंतर रहितज नीकली। मनुष्यपणों नहिं पाय, तिणसू प्रश्नज त्रिहं तणों।। १७. *बे वार सेवं भंते ! कही रेहां, माकंदी-सुत अणगार। श्रमण भगवंत महावीर ने रे हां, जाव करै नमस्कार ।। १८. जिहां श्रमण निग्रंथ छ रे हां, आयो तिहां चलाय । श्रमण निग्रंथ प्रतै तदा रे, बोलै इहविधि वाय ।। .१९. हे आर्यो ! इम निश्च करी रे हां, काउलेसी पृथ्वीकाय । तिमहिज यावत दुख तणों रे हां, अंत करै छै ताय ।। २०. हे आर्यो ! इम निश्चै करी रे हां, कापोतलेशी जंत । अपकायिक छै ते वली रे हां, जाव करै दुख अंत ।। २१. हे आर्यो ! इम निश्चै करी रे हां, कापोतलेसी जेह । वनस्पतिकायिक तिको रे हां, यावत अंत करेह ।। २२. श्रमण निग्रंथ बहु तिण समय रे हां, माकंदी-पुत्र अणगार। इम कहितां सामान्य थो रे हां, जाव परूपतां सार ।। २३. एह अर्थ श्रद्धे नहीं रे हां, प्रतीतै नहिं कोय । वलि मन में नहिं रोचवै रे हां, ते मुनिवर अवलोय ।। २४. एह अर्थ अणश्रद्धता रे हां, अणप्रतीतता मन्न । वलि अणरोचवता थका रे हां, माकंदी-पुत्र वचन्न ।। २५. वीर प्रभु पै आयनं रे हां, भगवंत ने तिणवार । नमस्कार वंदना करी रे हां, इम बोल्या अणगार ।। २६. इम निश्चै भगवंत जी! रे हां, माकंदी-सुत मोय । एम कहै छै अम्ह प्रतै रे हां, जाव परूप सोय ।। २७. आर्यो ! इम निश्चै करी रे हां, कापोतलेसी तेह । पृथ्वीकायिक जीवड़ो रे हां, यावत अंत करेह ।। २८. आर्यो ! इम निश्चै करी रे हां, कापोतलेसी जंत । अपकायिक जे जीवड़ो रे हां, जाव करै दुख अंत ।। २९. इम निश्चै करिने वजी रे हां, वनस्पती पिण जान । जाव करै अंत दुख तणों रे हां, ते किम हे भगवान ? *लय : किणकिण नारी सिर घड़ो १७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति मागंदियपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं जाव (सं० पा०) नमंसित्ता १८. जेणेव समणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणे निग्गंथे एवं वयासी-- १९. एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए तहेव जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति । २०. एवं खलु अज्जो! काउलेस्से आउक्काइए तहेव जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । २१. एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से वणस्सइकाइए तहेव जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति। (श० १८१६०) २२. तए णं ते समणा निग्गंथा मागंदियपुत्तस्स अण गारस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स २३. एयमद्वं नो सद्दहति नो पत्तियंति नो रोएंति, २४. एयमट्ठ असद्दहमाणा अपत्तियमाणा अरोएमाणा। २५. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, ___ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी२६. एवं खलु भंते ! मागंदियपुत्ते अणगारे अम्हं एव माइक्खति जाव परूवेति - २७. एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति । २८. एवं खलु अज्जो! काउलेस्से आउक्काइए जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । २९. एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से वणस्सइकाइए वि जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (श० १८१६१) से कहमेयं भंते ! एवं ? १३६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०.हे आर्यो ! इह विधि कही रे हां, श्रमण भगवंत महावीर। श्रमण निग्रंथ आमंत्र नै रे हां, इम बोल्या गुणहीर ।। ३१. अहो आर्यो! मुनि जे भणी रे हां, माकंदी-सुत अणगार । तुझ प्रति इम आखै अछ रे हां, जाव परूप सार ।। ३२. आर्यो ! इम निश्चै करी रे हां, कापोतलेसी तेह । पृथ्वीकायिक जीवड़ो रे हां, यावत अंत करेह ।। ३३. हे आर्यो! इम निश्चै करी रे हां, कापोतलेसी जंत । अपकायिक जे जीवड़ो रे हां, यावत अंत करंत ।। ३४. इम निश्चै करिनै वली रे हां, वनस्पती पिण जेह । यावत अंत करै अछै रे हां, सत्य अर्थ छै एह ।। ३५. हूं पिण आर्यो ! इम कहूं रे हां, सामान्य थी सुखकार । भाखू पन्नवू छु वली रे हां, एम परूपू सार । ३६. हे आर्यो ! इम निश्च करी रे हां, कृष्णलेसो पृथ्वीकाय । कृष्णलेसी पृथ्वी थकी रे हां, जाव करै अंत ताय ।। ३०. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे ते समणे निग्गंथे आमंतित्ता एवं वयासी३१. जणं अज्जो ! मागंदियपुत्ते अणगारे तुम्भे एवमा इक्खति जाव परूवेति३२. एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । ३३. एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए जाव ___ सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । ३४. एवं खलु अज्जो! काउलेस्से वणस्सइकाइए वि जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । सच्चे णं एसमझें । ३५. अहं पि णं अज्जो! एवमाइक्खामि एवं भासेमि एवं पण्णवेमि एवं परूवेमि - ३६. एवं खलु अज्जो ! कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसे हितो पुढविकाइएहितो जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति। ३७. एवं खलु अज्जो ! नीललेस्से पुढविकाइए. जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । ३८. एवं काउलेस्से वि । जहा पुढविकाइए। ३९. एवं आउकाइए वि, एवं वणस्सइकाइए वि । सच्चे णं एसमठे। (श० १८०६२) ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ३७. हे आर्यो ! इम निश्च करी रे हां, नीललेसी छै जेह । पृथ्वीकायिक जीवड़ो रे हां, यावत अंत करेह ।। ३८. कापोतलेसी पिण वली रे हां, पृथ्वीकायिक जेम। यावत अंत करै अछ रे हां, कहिवो पूरव तेम ।। ३९. अपकायिक पिण इहविधे रे हां, वनस्पती पिण एम। ए र्थ साचो अछै रे हां, ए जिन वचन सुखेम ।। ४०. तहत वचन प्रभु ! तुम्ह तणां रे हां, सेवं भंते ! स्वाम। इम प्रभु वचन अंगीकरी रे हां, संका मेटी ताम ॥ ४१. श्रमण निग्रंथ वीर नै रे हां, वंदै स्तुती सुरीत । नमस्कार शिर नामनै रे हां, करता धरता प्रीत ।। ४२. वीर प्रत वंदी नमी रे हां, ज्यां माकंदी-सुत अणगार । त्यां आवै आवी करी रे हां, आणी हरष अपार ।। ४३. माकंदी-सुत अणगार नै रे हां, कर वंदना नमस्कार । ए अर्थ सम्यक विनय करी रे हां, खामै बारंबार ।। ४१. समणा निग्गंथा समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति, ४२. वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव मागंदियपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ४३. मागंदियपुत्तं अणगारं बंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एयमढें सम्मं विणएणं भुज्जो-भुज्जो खामेंति। (श० १८।६३) ४४. तए णं से मागंदियपुत्ते अणगारे उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा गच्छति, उवागच्छित्ता ४५. समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-- (श० १८१६४) ४४. माकंदी-सुत तिण अवसरे रे हां, ऊठी ऊभो थाय । महावीर प्रभु छै तिहां रे हां, आवै आवी ताय । ४५. श्रमण भगवंत महावीर ने रे हां, वंदै करै नमस्कार । नमस्कार शिर नामनै रे हां, इम बोलै गुणधार ।। दहा ४६. पूर्वे अंतक्रिया कही, अंतक्रिया रै मांय । जे निर्जर पुद्गल हुवै, वक्तव्यता तसु आय ।। ४७. *हे भदंत ! भगवंत जी ! रे हां, भावितात्म अणगार । एह मुनी छै केवलो रे हां, ग्रहिवू तेह उदार ।। *लय : किण किण नारी सिर घड़ो ४६. अनन्तरमन्तक्रियोक्ता, अथान्तक्रियायां ये निर्जरा पुद्गलास्तद्वक्तव्यतामभिधातुमाह- (वृ० ५० ७४०) ४७. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो केवली चेह संग्राह्यः। (वृ० प० ७४१) श० १८, उ० ३, ढा० ३७४ १३७ Jain Education Intemational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. सर्व कर्म वेदतां थकां रे हां, ते भवोपग्राही तीन नाम गोत ने वेदनी रे हां, एह वेदंता बीन ।। ४९. चतुथं आयू जेह, आगल कहिस्यै तेह, ५०. इहां केवली ख्यात, तीन इहां अवदात, ५१. प्रदेश ने अनुभाव, एह थकी हिव साव, रे ५२. *निर्जरतां सहु कर्म नें सर्व मार मरता छतां रे हां, ५३. सर्व तनु ने छोड़ता रे हो, तेजस ने कार्मण प्रतं रे हां, सोरठा भवोपग्राही कर्म कर्म छै । तिनसूं तीन इहां कह्या । सर्व कर्म तसु च्यार है । आगल कहिस्यै आउयो || ए बेहं करि वेदतां । कहियै छै निर्जरपणों ॥। हां, गोत वेदनी नाम । करता आयुञ्जय ताम || औदारिक अवलोम । तजतां थकाज सोय ॥ सोरठा प्रवर विशेषित ते हिव । श्रोता ! चित दे सांभलो ।। आयू कर्म उपभोग्य वेदं वेदवा योग्य ॥ ५४. एहिज न सुविचार कहियै छै पद च्यार, ५५. *चरम कर्म वेदतां यकां रे हां, तास चरम समया विषे रे हां, ५६. चरम कर्म छ तेहने रे हां, निर्जरतां सुविशाल । चरम मार मरतां छतां रे हां, ए आयु क्षय न्हाल ॥ ५७. चरम अवस्था नें विषे रे हां, चरम शरीर विमास । तेह प्रत तजतां थकां रे हां, करता तनु नो नाश ॥ सोरठा ५८. एहिज नो अधिकार, अतिही प्रगटपणें करी । बलि कहिये विस्तार, चिदं पद करिनें आगले ॥ ५९. मारणांतिक कर्म वेदतां रे हां, आयु चरम समयेह भवोपग्राही निहुं कर्म नें रे हां, बेवंतांज कह || ६०. मारणांतिक हिं कर्म नैं रे हां, निर्जरतां अवलोय । जीव प्रदेश की तदा रे हां, दूर करता जोय ॥ ६१. मारणांतिक जे मार में रे हां करता धकांज जेह आयु दलिक अपेक्षया रे हां, मार ते मरण करेह || *लय किणकिण नारी सिर घड़ो १३८ भगवती जोड़ ६२. मारणांतिक तनु छोड़ता रे हां, चरम अवस्था मांहि । औदारिकादिक तनु ते रे हां, राजतां चकांज ताहि ॥ प्रतै ४८. सव्वं कम्मं वेदेमाणस्स तस्य सर्वं कर्म भवोपग्राहित्रयरूपं । ( वृ० प० ७५१ ) ४९. आयुष भेदेनाभिधास्यमानत्वात् (पृ० प० ७४१) ५१. वेदवत: अनुभवतः प्रदेशविपाकानुभवाभ्यां । ( वृ० प० ७४१ ) ५२. सव्वं कम्मं निज्जरेमाणस्स सव्वं मारं मरमाणस्स ५३. सव्वं सरीरं विप्पजह्माणस्स, 'सर्व' समस्तं 'शरीरम्' औदारिकादि विप्रजहतः । ( वृ० प० ७४१ ) (२००७४१) ५४. एतदेव विशेषिततरमाह ५५. चरिमं कम्मं वेदेमाणस्स 'चरमं कम्' आयुपश्चरममयवेयं वेदयत । ( वृ० ८० ७४१) ५६. चरिमं कम्मं निज्जरेमाणस्स चरिमं मारं मरमाणस्स 'चरमं' चरमायुः पुद्गलक्षयापेक्षं । ( वृ० प० ७४१) ५७. चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स । ५८. एतदेव स्फुटतरमाह ५९. मारणंतियं कम्मं वेदेमाणस्स मरणान्तः- आयुष्कचरमसमयस्तत्र भवं मारणान्तिकं 'कर्म्म' भवोपग्राहित्रयरूपं वेदयतः । ( वृ० प० ७४१) ६०. मारणं तियं कम्मं निज्जरेमाणस्स । ( वृ० प० ७४१) ६१. मारणंतियं मारं मरमाणस्स 'मारणान्तिक' मारणान्तिकार्वतिकापेक्ष मारं' मरणं कुर्वतः । ( वृ० प० ७४१ ) ६२. मारणंतियं सरीरं विप्पजह्माणस्स Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. ठाणं ४।१४४ सोरठा ६३. 'अजोगी गुणठाण, छहला समया ने विषे । च्यार कर्म तस जाण, वेदै छै ते कर्म चिउं ।। ६४. निर्जरवो तो जोय, ए चित्रं कर्म नों सिद्ध नैं। प्रथम समय में होय, तुर्य ठाण उद्देश धुर ।। ६५. तिण कारण पहिछाण, चरम समय वेदै करम । सर्व निर्जरा जाण, सिद्ध प्रथम समया विषे॥ ६६. निर्जरतां इम ख्यात, निर्जरवा लागो तसु। निर्जरवोज कहात, इण नय वच ए संभवै ।। ६७. चलवा लागो तास, चलियो कहिजे तेहनें। करवा लागो जास, कृत्य कीधो कहिजै जसु ।। ६८.तिम चवदम गुण अंत, निर्जरवा लागो तस् । निर्जरियोज कहंत, एहवं न्याय जणाय छै ।। (ज.स.) ६९. “जे चरमा अंतिम निर्जरया रे हां, निर्जीर्ण पहिछान । कर्म दलिक सूक्ष्म कह्या रे हां, ते पुद्गल भगवान ! ७०.हे श्रमण आयुष्मन ! इम कही रे हां, भगवंत नै तिणवार । आमंत्रण देई करी रे हां, पूछ शीस जिवार ।। ७१. सर्व लोक प्रति पिण तिके रे हां, निर्जरया पुद्गल तेह । अवगाही व्यापी रह्या रे हां, तास स्वभावपणेह ? ६९. जे चरिमा निज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता। ७०. समणाउसो! ७२. इहविध प्रश्नज पूछियां रे हां, श्री जिन भाख हंत । माकंदी-सुत अणगार ते रे हां, जाव अवगाही रहंत ।। ७३. छद्मस्थ मनु भगवंत जी ! रे हां, अतिसय ज्ञान रहीत । निर्जरचा पुद्गल तेहनै रे हां, जाणें देखें संगीत ? ७१. सव्वं लोगं पिणं ते ओगाहित्ता णं चिठ्ठति ? सर्वलोकमपि तेऽवगाह्म-तत्स्वभावत्वेनाभिव्याप्य तिष्ठन्ति । (वृ० प०७४१) ७२. हता मागंदियपुत्ता ! अणगारस्स ओगाहित्ता गं चिट्ठति । (श० १८६५) ७३. छ उमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं निज्जरापोग्गलाणं किचि छद्मस्थश्चेह निरतिशयो ग्राह्यः। (वृ० ५० ७४१) ७४. आणत्तं वा 'आणत्तं व' त्ति अन्यत्वम्-अनगारद्वयसम्बन्धिनो ये पुद्गलास्तेषां भेदः । (वृ० प० ७४१) ७४. 'आणत्तं' बे अणगार ना रे हां, निर्जरया पुद्गल जेह । . तेहनों भेद पृथक्पणों रे हां, जाण देखै तेह ।। सोरठा ७५. ए पुद्गल पहिछाण, निर्जरिया इण साधु नां । वलि अन्य पुद्गल जाण, ए बीजा साधू तणां ।। ७६. * नाणत्तं' वर्णादिक तिके रे हां, पुद्गलनोंज विशेख । जिम इंद्रिय पद पनरमें रे हां, प्रथम उद्देशे पेख ।। ७६. नाणत्तं वा एवं जहा इंदिए उद्देसए पढमे (१५।४५) 'णाणत्तं वत्ति वर्णादिकृतं नानात्वम् । (वृ० ५० ७४१) ७७. जाव वेमाणिया, जाव तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति-पासंति, आहारेति । ७७. यावत वैमानिक लग रे हां, कहि सर्व विचार । जाव उपयोग सहित छ रे हां, जाण देखै करै आहार।। सोरठा ७८. पन्नवण विषे पिछाण, गोतम पद आख्यो अछ । इहां माकंदी-सुत जाण, ते पृच्छक छै जे भणी ।। ७८, एवं यथा प्रज्ञापनायाः पञ्चदशपदस्य प्रथमोद्देशके तथा शेषं वाच्यम्, अर्थातिदेशश्चायं तेन यत्रेह 'गोयमे' ति पदं तत्र 'मागंदियपुत्ते, ति द्रष्टव्यं, तस्यैव प्रच्छकत्वात् । (वृ०प० ७४२) *लय : किण किण नारी सिर घड़ी श०१८, उ०३, ढा० ३७४ १३९ Jain Education Intemational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९. तेह पाठ इम धार, उत्तम ते हीणो नथी। तुच्छ कहितां सुविचार, असारपणूज आखियो ।। ७९. ओमत्तं वा तुच्छतं वा 'ओमत्तं' ति अवमत्वम्-ऊनता 'तुच्छत्तं' ति तुच्छत्वं निस्सारता। (वृ०५० ७४२) ८०. गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ-पासइ? ८१. मागंदियपुत्ता ! नो इणठे समठे । (श० १८।६६) ८०. गुरुपणूं सुविचार, कर्म दलिक बहु पेक्षया । लघु अल्प अवधार, जाण देखै छद्म मनु ? ८१. तब भाखै जिनराय, एह अर्थ समर्थ नहीं । अन्यत्वादिक ताय, पुद्गल प्रति जाण नहीं ।। ८२. किण अर्थे इम ख्यात, विशिष्ट अवधि रहित जे । छद्म मनु अवदात, निर्जरिया पुद्गल तणं ।। ८३. अन्यपणू अवलोय, वर्णादिक नानापर्यु। अहीनपणोंज जोय, तुच्छ असारपणु वली ।। ८४. भारीपणुं कहाय, हलकापणंज कर्म नों। __ जाणे देखै नांय, ते किण अर्थे स्वाम जी? ८५. तब भाखै जिनराय, विशिष्ट अवधि रहित जे। सुर कितराइक ताय, निर्जरिया पुद्गल तणों। ८६. अन्यत्वादि विख्यात, नहिं जाणे देखै नहीं। तिण अर्थे आख्यात, मन छद्मस्थ अछे तिको।। ८२. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-छउमत्थे णं मणुस्से तेसि निज्जरापोग्गलाणं ८३,८४. नो किंचि आणत्तं वा नाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लइयत्तं वा जाणइ-पासइ? ८५,८६. मागंदियपुत्ता ! देवे वि य णं अत्थेगइए जे ण तेसि निज्जरापोग्गलाणं नो किचि आणत्तं वा नाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहयत्तं वा जाणइ-पासइ। से तेणठेणं मागंदियपुत्ता ! एवं वुच्चइ छउमत्थे णं मणुस्से, . ततश्च देवोऽपि चास्त्येककः किंचिद्विशिष्टावधिज्ञानविकलो यस्तेषां निर्जरापुद्गलानां न किचिदन्यत्वादि जानाति किं पुनर्मनुष्यः ? (वृ० ५० ७४२) ८७. तेसि निज्जरापोग्गलाणं नो किचि आणत्तं वा नाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ-पासइ, ८८. सहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वलोगं पि य णं ते ओगाहित्ता चिट्ठति । (श० १८।६७) ८९. नेरइया णं भंते ! ते निज्जरापोग्गले कि जाणंति पासंति ? आहारेति ? ९०. उदाहु न जाणंति न पासंति, न आहारेंति ? ८७. निर्जर पुद्गल तास, अन्यपणु नानापणुं । इत्यादिकज विमास, नहिं जाण देखै नहीं।। ८८. निर्जरिया जे अंत, ते सूक्षम पुद्गल कह्या । ए श्रमण आउखावंत ! सर्व लोकव्यापी रहै। ८९. नारक हे भगवंत ! निर्जरिया पुद्गल तिके । स्यू जाणे देखंत, आहारपणे लेवे अछै? ९०. अथवा जाण नांहि, ते पुद्गल देखै नहीं। आहारपणे पिण ताहि, ते पुद्गल आवै नहीं ? ९१. जिन कहै नारक ताहि, निर्जरिया पुद्गल तिके । जाणे देखै नांहि, आहारपणे आवै अछै ।। ९२. एवं जाव कहाय, तिरि पंचेंद्रिय कर्म दल । जाण देखै नांय, आहारपणे आवै अछ । ९३. मनुष्य तिके भगवंत ! निर्जरिया पुद्गल प्रतै । स्य जाणे देखत ? आहारपणे आवै अछ ? ९४. अथवा जाण नांहि, वलि तेहने अणदेखता । आहारपणे न लेवाहि, कर्म दलिक निर्जीण प्रति ? ९५. जिन कहै मनुष्य केह, जाण देखे आहरै। केयक नहिं जाणेह, अणदेखतां आहरै ।। ९१. मागंदियपुत्ता ! नेरइया णं ते निज्जरापोग्गले न जाणंति न पासंति, आहारेति । ९२. एवं जाव पंचिदियतिरिक्ख जोणिया । (श० १८६८) ९३. मणुस्सा णं भंते ! ते निज्जरापोग्गले कि जाणंति पासंति ? आहारेति ? ९४. उदाहु न जाणंति न पासंति न आहारति ? ९५. मागंदियपुत्ता ! अत्थेगइया जाणंति-पासंति, आहारेंति । अत्थेगइया न जाणंति न पासंति, आहारेति । (श० १८।६९) ९६. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-अत्थेगइया जाणंति-पासंति, आहारेति ? ९६. किण अर्थे जिनराय ! इम आख्यू केयक मनु । जाणे देखै ताय, आहारपणे आवै अछै ? १४० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७. अत्थेगइया न जाणंति न पासंति आहारेंति ? मागं दियपुत्ता ! मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, ९८. सण्णिभूया य, असण्णिभूया य । ९९. तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं न जाणंति न पासंति, आहारेति । १००. तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते दुविहा पण्णता, तं जहा उवउत्ता य, अणुवउत्ता य । १०१. तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं न जाणंति न पासंति, आहारेति । १०३. तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणं ति-पासंति, आहा रेति । १०४. से तेणढेणं मागं दियपुत्ता ! एवं वुच्चइ ---अत्थे गइया न जाणंति न पासंति, आहारेति । १०५, अत्थेगइया जाणंति-पासंति, आहारेति । १०६. वाणमंतर-जोइसिया जहा नेरइया । (श० १८७०) ९७. केयक नहिं जानंत, अणदेखता आहर ? तब भाखै भगवंत, द्विविध मनुष्य परूपिया ।। ९८. सन्नीभूत सुजाण, विशिष्ट अवधि सहित जे। असन्नीभूत पिछाण, विशिष्ट अवधि रहित जे ।। ९९. तिहां जे असन्नीभूत, ते अणजाणंता थका। अणदेखता सूत, आहरै छै निर्जीर्ण दल ।। १००. सन्नीभूतज हंत, ते द्विविध जिन आखिया । ___ शुद्ध उपयोगजवंत, वलि उपयोग-रहीत जे ।। १०१. त्यां उपयोग-रहीत, ते नहिं जाणंता थकां। अणदेखता संगीत, कर्म दलिक आहरै अछै ।। १०२. त्यां एहज प्रयोग, विशिष्ट अवधिवंत पिण। अणदीधे उपयोग, नहिं जाण देखै नहीं ।। १०३. त्यां उपयोग-सहीत, ते जाण देखै अछ । वलि ते दलिक वदीत, आहारपणे लेवै अछै ।। १०४. तिण अर्थे इम ख्यात, केयक मनुष्य अजाणता । अणदेखता विख्यात, आहारै छै निर्जीर्ण दल ।। १०५. केइ मनुष्य वलि धार, जाण नै देखै अछै । वलि लेवै तसु आर, कर्म दलिक निर्जीर्ण प्रति ॥ १०६. वाणव्यंतरा जोय, वली ज्योतिषी देवता । नारक जिम अवलोय, विशिष्ट अवधि तिहां नथी ।। १०७. वैमानिक भगवंत ! निर्जरिया पुद्गल प्रतै । स्यूं जाण देखंत, आहारपणे लेवै वली? १०८. भाखै ताम जिनेश, मनुष्य तणी पर जाणवो। णवरं इतो विशेष, सुर वैमानिक द्विविधा ।। १०९. माई-मिथ्यादृष्ट, अमाई-समदृष्टि फुन । दैवतपणे सुइष्ट, जेह देवता ऊपनां ।। ११०. माई-मिथ्यादृष्ट, नहिं जाणे देखै नहीं। नहि तसु अवधि विशिष्ट, पिण ते आहारपण ग्रहै ।। १११. 'इहां कह्यो अर्थकार, यदपि कल्प वेयक नां । समदृष्टी सुर सार, नहिं जाण देखै नहीं। ११२. तेहनै पिण उपयोग, कार्मण शरीर नां जिके । पुदगल देखण जोग, अवधिज्ञान नहि ते भणी ।। ११३. अवधिज्ञानी जे हुँत, असंख्यातमें भाग खित्त। ऊणो लोक देखंत, कार्मण तनु देखै जिको ।। ११४. ते माट सुविमास, केयक मनु अनुत्तर सुरा। अवधि विशिष्टज तास, देखै ते निर्जीर्ण दल ।। ११५. सर्व जीव ने जाण, निर्जरिया पुद्गल तणों। आहार ग्रहण पहिछाण, पन्नवण अर्थ थकी कह्यो।।' (ज.स.) ११६. अमाई-समदृष्ट, देवपणे जे ऊपनां। अर्थ अनुत्तर इष्ट, दोय प्रकार परूपिया ।। ११७. धुर अनंतरोत्पन्न, प्रथम समय नां ऊपनां । द्वयादि समय उप्पन्न, परंपरोत्पन्नका तिके ।। १०७. वेमाणिया णं भंते ! ते निज्जरापोग्गले कि जाणंति पासंति ? आहारेंति ? १०८. मागंदियपुत्ता ! जहा मणुस्सा, नवरं-वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, १०९. मायिमिच्छदिट्ठीउववनगा य, अमायिसम्मदिट्ठी उववन्नगा य। ११०. तत्थ णं जे ते मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नगा ते णं न जाणंति न पासंति, आहारेंति । ११६. तत्थ णं जे ते अमायिसम्मदिट्ठीउववन्नगा ते दुविहा पण्णत्ता, ११७. अणंतरोववन्नगा य परंपरोववन्नगा य । श०१८, उ० ३, ढा० ३७४ १४१ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८. तत्थ णं जे ते अणंतरोववन्नगा ते णं न जाणंति न पासंति, आहारेंति। ११९. तस्थ ण जे ते परंपरोववन्नगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य । १२०. तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते ण न जाणंति न पासंति, आहारेति । १२१. तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा उवउत्ता य, अणुवउत्ता य । १२२. तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं न जाणंति नपासंति, आहारति। ११८. अनंतरोत्पन्न जेह, नहिं जाणे देख नहीं । लेवै आहारपणेह, प्रथम समय नां ऊपनां ।। ११९. परंपरोत्पन्न ताय, दोय भेद तस दाखिया । पर्याप्ता कहिवाय, द्वितीय भेद अपर्याप्ता ।। १२०. अपर्याप्ताज ताहि, सम्यक तसु उपयोग नहिं । जाणें देखें नांहि, आहारपणे लेवै अछै ।। १२१. पर्याप्ताज वदीत, भेद दोय तस भाखिया। धुर उपयोग सहीत, वलि उपयोग रहीत जे ।। १२२. अणउपयोगे ताहि, अवधि प्रयंजै नहिं तिके । जाणे देखै नांहि, आहारपणे तो संग्रहै ।। १२३. जाव शब्द में ताम, पन्नवण पद थी ए कह्यो। प्रश्न गोयम तिण ठाम, इहां माकंदी-पुत्र मुनि ।। १२४. जे उपयोगी हुंत, अवधि प्रयुजै ते तदा । जाण ने देखंत, आहारपणे तो संग्रहै ।। १२५. भगवती वृत्ति मझार, आहार करै एहव कह्य । सगले स्थान विचार, ओज आहार ग्रहिवो तिको ।। १२६. ओज आहार नों जान, शरीर विशेष छै ग्राह्य थी। तेह थकी पहिछान, ओज सर्व दंडक विषे ।। १२७. शरीर करिक ओज, लोम आहार त्वच फर्श करि । प्रक्षेप आहारज सोझ, कवल मुखे करि जाणवू ।। १२४. तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति-पासंति, आहारेति। १२५,१२६. आहारयन्तीत्यत्र सर्वत्र ओजआहारो गृह्यते, तस्य शरीरविशेषग्राह्यत्वात् तस्य चाहारकत्वे सर्वत्रभावात्, (वृ० ५० ७४२) १२८.*तिण अर्थे करिने इहां रे हां, भणव जेह निक्खेव । पूर्व निर्जर ते बंध छते रे हां, हिव बंध सूत्र कहेव ।। १२७. सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायव्यो । (वृ०प०७४२) १२८. से तेणढेण मागंदियपुत्ता ! (श० १८१७१) अनन्तरं निर्जरापुद्गलाश्चिन्तितास्ते च बन्धे सति भवन्तीति बन्धं निरूपयन्नाह (वृ०प०७४२) १२९. कतिविहे णं भंते ! बंधे पण्णत्ते? मा गंदियपुत्ता ! दुबिहे बंधे पण्णते, तं जहा-दव्वबंधे य, भावबंधे य। (श० १८७२) १२९. बंध प्रभु ! कतिविध कह्यो ? रे हां, __जिन कहै माकंदी-पूत ! द्विविध बंध परूपियो रे हां, द्रव्य भाव बंध सूत ।। १३०. 'दब्वबंधे य' त्ति द्रव्यबन्ध आगमादिभेदादनेकविध: केवल मिहोभयव्यतिरिक्तो ग्राह्य :, (वृ०प०७४३) सोरठा १३०. त्रिविध छै द्रव्य बंध, आगम नोआगम थकी। उभयव्यतिरिक्त संध, तृतीय भेद ए आखियो ।। १३१.बंध शब्दार्थ जाण, ए उपयोग रहित छ। तो पठन करै तसु मान, आगम थी द्रव्य बंध ए॥ १३२. नोआगम थी न्हाल, बंध शब्द नां अर्थ नो जाण तणो तनु भाल, तथा अनागत ने हुस्यै ।। . १३३. उभय बंध धुर ख्यात, तास इहां न कह्या प्रगट । बिहुं व्यतिरिक्त विख्यात, तेहनों ग्रहण इहां कियो ।। १३४. स्नेह द्रव्य करि सोय, अथवा रज्वादिक करी। द्रव्य तणों बंध होय, तथा परस्पर बंध द्रव्य ।। *लय : किण किण नारी सिर घड़ो १३४, स च द्रव्येण - स्नेहरज्ज्वादिना द्रव्यस्य वा परस्परेण बन्धो द्रव्यबन्धः, (व० ५० ७४३) १४२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५,१३६. 'भावबंधे य' त्ति भावबन्ध आगमादिभेदाद् द्वेधा, स चेह नोआगमतो ग्राह्यः, (वृ० प०७४३) १३५. भाव बंध द्विविधेह, आगम नोआगम थकी। धुर उपयोग करेह, जाणे बंध शब्दार्थ नै ।। १३६. आगम थी छै एह, तेहनं कथन इहां नथी। नोआगम थी जेह, तेहिज ग्रहण कियो इहां ।। १३७. मिथ्यात्वादिक भाव, तिण करिक जे जीव नैं। कर्म तणों बंध थाव, भाव बंध तसु भाखियो । १३७. तत्र भावेन -मिथ्यात्वादिना भावस्य वा-उपयोगभावाव्यतिरेकात् जीवस्य बन्धो भावबन्धः, (वृ०प०७४३) १३८. दब्वबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पयोगबंधे य वीससाबंधे य, १३८. *द्रव्य बंध प्रभु ! कतिविधे ? रे हां, जिन कहै दोय प्रकार । प्रयोग बंध पिछाणिय रे हां, वीससा बंध विचार ।। __ सोरठा १३९. जीव प्रयोग करेह, बंधन जे बहु द्रव्य नो। प्रयोग बंधज जेह, स्वभाव करिकै बीससा ।। १४०. *वीससा बंध प्रभु ! कतिविधे ? रे हां, जिन कहै माकंदी-पूत ! आदि सहित बंध वीससा रे हां, आदि रहित प्रसूत । सोरठा १४१. अभ्रादिक नुं बंध, सादि वीससा बंध ते । आदि रहित बंध संध, धर्मास्तिकायादि नों।। १३९. 'पओयबंधे य' त्ति जीवप्रयोगेण द्रव्याणां बन्धनं 'वीससाबंधे' त्ति स्वभावत: (बृ० प० ७४३) १४०. वीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सादीयवीससाबंधे य, अणादीयवीससाबंधे य । (श० १८७४) १४१. 'साईवीससाबंधे' त्ति अभ्रादीनाम् 'अणाईयवीससाबंधे य' त्ति धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायादीनां (वृ० प० ७३३) १४२. पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सिढिलबंधणबंधे य, धणियबंधणबंधे य। (श० १८७५) १४२.*प्रयोग बंध कतिविधे ? रे हां, जिन कहै द्विविध संध । सिढिल बंधण जे बंध छै रे हां, धणिय बंधण जे बंध ।। सोरठा १४३. सिथिल बंधण जे बंध, तृणा पूलकादिक तणों। धणिय-बंधण जे संध, बंधन रथ चक्रादि नों।। १४४.*भाव बंधण प्रभु ! कतिविधे? रे हां, द्विविध कहै जिनंद। मूल प्रकृति नो बंध है रे हां, उत्तर प्रकृतिज बंध ।। १४३. 'सिढिलबंधणबन्धे य' त्ति तृणपूलिकादीनां 'धणियबंधणबन्धे य' ति रथचक्रादीनामिति । (वृ० प०७४३) १४४. भावबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- मूलपगडि बंधे य, उत्तरपगडिबंधे य। (श० १८७६) १४५. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे भावबंधे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पण्णत्ते, १४५. नारक नै प्रमु! कतिविधे रे हां, भाव बंध आख्यात? जिन कहै माकंदी-पुता! रे हां, दोय प्रकार विख्यात ।। १४६. मूल प्रकृति अठ कर्म छै रे हां, उत्तर प्रकृति बंध । सौ अड़ताली मांहिली रे हां, इम जाव वैमानिक संध ॥ १४७. ज्ञानावरणी कर्म नों रे हां, कितै प्रकार भदंत ! भाव बंध जे आखियो? रे हां, हिव जिनवर आखंत ।। *लय : किण किण नारी सिर घड़ो १४६. मूलपगडिबंधे य, उत्तरपगडिबंधे य। एवं जाव वेमाणियाणं। (श० १८७७) १४७. नाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे भावबंधे पण्णत्ते ? श० १८, उ० ३, ढा० ३७४ १४३ Jain Education Intemational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८. माकंदी-सुत ! जिह विधे रे हां, भाव बंध तसु संच। मूल प्रकृति इकविध अछ रे हां, उत्तर प्रकृति पंच ।। १४९. ज्ञानावरणी कर्म नों रे हां, नारक ने भगवान ! जाव बंध कतिविध कह्यो ? रे हां, जिन कहै द्विविध जान ।। १५०. मूल प्रकृति बंध धुर अछै रे हां, उत्तर प्रकृति बंध । एवं यावत जाणवं रे हां, वैमानिक ने संध ।। १५१. ज्ञानावरणी कर कह्या रे हां, दंडक जिम चौबीस । इम यावत भणवा सही रे हां, अंतराय लग दीस ।। १४८. मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पण्णत्ते, तं जहा मूलपगडिबंधे य, उत्तरपगडिबंधे य। (श० १८१७८) १४९. नेरइयाण भंते ! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कति विहे भावबंधे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पण्णत्ते, १५०. मूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य। एवं जाब वेमाणियाणं । १५१. जहा नाणावरणिज्जेणं दंडओ भणिओ एवं जाव अंतराइएणं भाणियब्बो। (श० १८७९) १५२. कर्माधिकारादिदमाह-- (वृ० प०७४३) १५२. कर्म तणां अधिकार थी, कर्म तणोंज विचार । पूछ माकंदी-सुतन, उत्तर श्री जिन सार ।। १५३. *पाप कर्म प्रभु ! जीवड़ा रे हां, कीधं अतीतज काल । जाव अनागत काल में रेहां, वलि करिस्य जे बाल ।। १५४. छै तेहनों नानापणों रे हां, जुओ-जुओ कहिवाय? जिन भाखै हंता अस्थि रे हां, एक सरीखो नांय ।। १५५. किण अर्थे प्रभु! इम का रेहां, पाप कर्म जे जीव । करच जाव करिस्य वली रे हां, नानापणों कहीव? १५३. जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ जे य कज्जिस्सइ, १५४. अत्थि याइ तस्स केइ नाणत्ते ? हंता अत्थि । (श० १८८०) १५५. से केणठेणं भंते ! एवं वच्चइ-जीवाणं पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ जे य कज्जिस्सइ, अस्थि याइ तस्स नाणत्ते ? १५६. मागंदियपुत्ता ! से जहानामए-केइ पुरिसे धणु परामुसइ, १५७. परामुसित्ता उसं परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाइ, १५८. ठाइत्ता आययकण्णायतं उसु करेति, १५६. जिन कहै माकंदिय-पुता रे हां, तेह यथादृष्टंत । कोइ एक नर छै तिको रे हां, धनुष्य प्रति फर्शत ।। १५७. धनुष्य प्रति फर्शी करी रे हां, बाण प्रतै फर्शेह । बाण प्रतै फर्शी करी रे हां, स्थानक प्रति स्थापेह ।। १५८. स्थान प्रतै स्थापी करी रे हां, तीर प्रतै गुण साथ । मेली नै ते बाण नै रे हां, कान लगै शर जात ।। १५९. कान लगै शर ताणने रे हां, ऊंचो जे आकाश । बाण प्रतै न्हाखै तदा रे हां, ऊंचो न्हाखी तास ।। १६०. ते निश्चै करिनै कहो रे हां, हे माकंदिय-पूत । ते शर ऊर्द्ध आकाश में रे हां, न्हाख्ये छतेज हुंत ।। १६१. बाण तणुं जे कंपवू रे हां, नानापणुंज भेद । अकंप अवस्था अपेक्षया रे हां, एक सरीखो न वेद ।। १५९. करेत्ता उडढं वेहासं उव्विहइ, १६०. से नूणं मागंदियपुत्ता! तस्स उसुरस उड्ढे बेहास उव्वीढस्स समाणस्स १६१. एयति वि नाणत्तं 'एयइ वि नाणत्तं' ति 'जते' कम्पते यदसाविषुस्तदपि 'नानात्वं' भेदोऽनेजनावस्थापेक्षया । (वृ०प०७४३) १६२. वेयति वि नाणत्त, १६३. तं त भावं परिणमति वि नाणतं ? १६२. कंपै बाण विशेष थी रे हां, तेह विषे पिण भेद । अछै तिहां नानापणों रे हां, एक सदश नहिं वेद ।। १६३. यावत ते-ते भाव नै रे हां, परणमै त्यां पिण जान । भेद अछै नानापणुं ? रे हां, इम पूछे भगवान ।। १६४. माकंदी-सुत उत्तर दिय रे हां, हंता हे भगवान ! कंप तिहां पिण भेद छ रे हां, नानापणों पिछान ।। *लय : किण किण नारी सिर घड़ो १६४,१६५. हंता भगवं ! एयति वि नाणत्तं जाव तं तं भावं परिणमति वि नाणत्तं । १४४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५. विशेष थी कंपै तिहां रे हां, नानापणों संवेद। यावत ते-ते भाव नै रे हां, प्रणमै त्यां पिण भेद ।। १६६. तिण अर्थे इम आखिय रे हां, हे माकंदीसुत ! ताय । यावत ते-ते भाव नों रे हां, नानापणों कहाय ।। १६६. से तेणठेणं मागं दियपुत्ता ! एवं वुच्चइ- एयति वि नाणत्तं जाव तं तं भावं परिणमति वि नाणत्तं । (० १८८१) सोरठा १६७. इहां एहवं अभिप्राय, जिम शर ऊर्द्धज न्हाखवै। कंपन प्रमुखज मांय, अछे भेद नानापणुं । १६८. इमज कर्म नों ताम, किया करै करिस्य तसु । तीव्र मंद परिणाम, भेद रूप नानापणुं । १६९. कार्य करवा रूप, तास विषे पिण छै वली। नानापणुं तद्रूप, ए दृष्टांत जणाय इम ।। १७०. *नारक नै भगवंत जी ! रे हां, पाप कर्म जे कीध । ___ एवं चेव अहीजिय रे हां, इम जाव वैमानिक सीध ।। १६७. अयमभिप्राय:--यथा वाणस्योई क्षिप्तस्यैजनादिकं नानात्वमस्ति। (व०प०७४३) १६८,१६९. एवं कर्मणः कृतत्वक्रियमाणत्वकरिष्यमाण त्वरूपं तीवमन्दपरिणामभेदात्तदनुरूपकार्यकारित्वरूपं च नानात्वमवसेयमिति । (वृ० प०७४३) १७०. नेरइयाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे ? एवं चेव । एवं जाव वेमाणियाणं । (श० १८८२) १७१. पूर्वे कर्म निरूपितं, पुद्गल स्वरूपज तेह । ते माट पुद्गल तणुं, हिव अधिकार कहेह।। १७२*हे प्रभुजी ! बहु नारकी रे हां, जे पुद्गल प्रति जान । ___ आहारपणे करिक ग्रहै रे हां, ते पुद्गल भगवान ! १७३. ग्रहण अनंतर काल में रे हां, काल अनागत एह । भाग केतलो आहारै रे हां, कितो भाग निर्जरेह ? १७१. अनन्तरं कर्म निरूपित, तच्च पुदगलरूपमिति पुद्गलानधिकृत्याह- (वृ०प०७४३) १७२. नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति, तेसि णं भंते ! पोग्गलाणं १७३. सेयकालंसि कतिभाग आहारेति ? कतिभागं निज्जरेंति ? 'सेयकालंसि' त्ति एष्यति काले ग्रहणानन्तरमित्यर्थः । (वृ०प०७४३) १७४. मागंदियपुत्ता ! असंखेज्जइभाग आहारेंति, अणंतभागं निज्जरेंति । (श० १८८३) १७४. श्री जिन भाखै आहारै रे हां, असंख्यातमों भाग । निर्जरै भाग अनंतमो रे हां, ग्रहीत पुद्गल माग ।। सोरठा १७५. आहारपणे जे लाग, ग्रहण किया है तेहनों। असंख्यातमो भाग, आहार करै पुद्गल तणों ।। १७६. पुद्गल ग्रह्या पिछाण, तेहनों भाग अनंतमो। निर्जरै छाडै जाण, मूत्रादिक नी पर तजै ।। १७७. *समर्थ कोइ छै प्रभु ! रेहां, निर्जरया पुद्गल विषेह । बेसवा यावत सूयवा ? रे हां, अर्थ समर्थ नहिं एह ।। १७५,१७६. 'असंखेज्जइभाग आहारिति' त्ति गृहीत पुद्गलानामसंख्येययभागमाहारीकुर्वन्ति गृहीतानामेवानन्तभागं 'निर्जरयन्ति' मूत्रादिवत्त्यजन्ति, (वृ० प०७४३) १७७. चक्किया ण भंते ! केइ तेसु निज्जरापोग्गलेस आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा ? णो इणठे समर्छ । 'चक्किय' त्ति शक्नुयात् (व० प० ७४३) १७८. अणाहारणमेयं बुइयं समणा उसो ! १७८. निर्जरया पुद्गल नै विषे रे हां, किणही नों आधार। नहिं थावै इम जिन कह्यो रे हां, हे श्रमण आयुष्मन ! सार ।। १७९. एवं जाव विमानिया रे हां, सेवं भंते ! स्वाम । अर्थ अठारम शतक नों रे हां, तृतीय उद्देशक ताम । *लय : किण किण नारी सिर धड़ो १७९. एवं जाव वेमाणियाणं । सेवं भंते ! सेवं भते ! ति । (श० १८८४) (श० १८८५) श०१८, उ० ३, ढाल ३७४ १४५ Jain Education Intemational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०. ढाल तीनसौ ऊपरै रे हां, चीमंतरमी न्हाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे हां, 'जय-जश' मंगलमाल ।। अष्टादशशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥१८॥३॥ ढाल : ३७५ १,२. तृतीयोद्देशकस्यान्ते निर्जरापुद्गलानामासितुमित्यादिभिः पदैरर्थतः परिभोगो विचारितश्चतुर्थे तु प्राणातिपातादीनामसो विचार्य्यते । (वृ० ५० ७४४) ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव भगवं गोयमे एवं वयासी दूहा १. तृतीय उद्देशक अंत में, निर्जर पुद्गल धार । बेसवं आदि पदे करी, तसू परिभोग विचार ।। २. तुर्य उद्देशक नै विष, अष्टादश अघ आद । तसु परिभोग विचार जे, कहियै धर अहलाद ।। ३. तिण काले नै तिण समय, नगर राजगह ताम । जावत गोतम इम वदै, वीर प्रतै शिर नाम ।। *जगत-प्रभु हो, हूं बलिहारी वीर नीं ॥ (ध्रुपदं) ४. अथ हिव हे भगवंत जी ! प्राणातिपात पिछाण । जिणंद प्रभु हो। मृषावाद यावत वली, मिथ्यादर्शणसल्य जाण ।। जगत-प्रभु हो। ५. वलि अष्टादश पाप नों, विरमण ते निव्रताय । पृथ्वीकायिक जीव ए, जाव वनस्पतिकाय ।। ६. धर्मास्तिकाय कहीजिय, वलि अधर्मास्तिकाय । आगासत्थिकाय तीजी कही, लोक अलोक रै माय ।। ७. तनु प्रतिबद्ध रहित जे, जीव ए सिद्ध भगवंत । परमाणु-पुद्गल वली, सेलेसी प्रतिपन्न संत ।। ४. अह भंते ! पाणाइवाए, मसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले; ५. पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणे, पुढविक्काइए जाव वणस्सइकाइए, ६. धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, ७. जीवे असरीरपडिब, परमाणुपोग्गले, सेलेसि पडिवन्नए अणगारे, 'जीवे असरीरपडिबद्धे' त्ति त्यक्तसर्वशरीरो जीवः । (वृ०प०७४५) ८. सव्वे य बादरबोंदिधरा कलेवरा ८. सर्व बादर बोंदिधरा, कलेवरा कहिवाय । वृत्ति में अर्थ कियो इसुं, सांभलजो चित ल्याय ।। सोरठा ९. सगलाई सुविचार, स्थूल आकारधरा तसु। नहीं सूक्ष्म आकार, कलेवरा निर्जीव तनु ।। १०. अथवा बादर आकार, तेह तणां धारक जिके । बेइंद्रियादि जोव विचार, कलेवर शब्दे जाणवा ।। ९. 'बायरबोंदिधरा कलेवर' त्ति स्थूलाकारधराणि न सूक्ष्माणि कडेवराणि-निश्चेतना देहा: (व०प०७४५) १०. अथवा 'बादरबोन्दिधराः' बादराकारधारिणः कडेवराव्यतिरेकात् कडेवरा द्वीन्द्वियादयो जीवाः, (वृ० प०७४५) ११. एए णं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदवा य ११. एह प्राणातिपातादि नां, दोय प्रकार छै ताय । जीव द्रव्य कहिये तस, अजीव द्रव्य कहाय ।। *लय : राधा प्यारी हे ल नी झखोला १४६ भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. एतानि प्राणातिपातादीनि सामान्यतो द्विविधानि न प्रत्येकं, (वृ०प०७४५) सोरठा १२. समुदाय आश्री ताहि, जीव अजीव कह्या तस । पिण इक-इक वस्तु मांहि, उभयपणुं नहिं छै कदा ।। १३. जिम धुर प्राणातिपात, ए तो अजीव द्रव्य छ । उभयपणुं नहिं ख्यात, इमहिज मृषावाद पिण ।। १४. इह विधि इक-इक बोल, उभयपणुं नहिं तेह में। केई जीव द्रव्य तोल, केयक अजीव द्रव्य छै ।। १५. जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? १७. गोयमा ! पाणाइवाए जाव एए णं दुविहा जीवदव्व' य अजीवदव्वा य दूहा १५. ए अड़तालीस बोल नैं, जीव अजीव कहेह । परिभोगपणे जीवां तणे, शीघ्र प्रभु ! आवेह ।। सोरठा १६. इतले प्रश्न कहीव, अष्टादश अघ आदि दे। भोगवियै छै जीव, हिव जिनजी उत्तर दिये ।। १७. *वीर कहै सुण गोयमा ! प्राणातिपात पिछाण । सुगुण मुनि हो । यावत ए द्विविध कह्या, जीव अजीव द्रव्य जाण ॥ सुगुण मुनि हो। १८. केतलाइक जीवां तणे, परिभोगपणे शीघ्र आय । केतलाइक जीवां तणे, जाव शीघ्र आवै नाय ।। १९. किण अर्थे इह विधि कह्यो, प्राणातिपात पिछाण । यावत शीघ्र आवै नहीं? हिव भाखै जगभाण ।। २०. प्राणातिपात यावत वलि, मिथ्यादर्शणसल्य ताय । पृथ्वीकायिक जीवड़ा, जाव वनस्पतिकाय ।। २१. सर्व बादर बोंदीधरा, कलेवरा कहिवाय । ए बिहं भेदे भाखिया, जीव अजीव द्रव्य ताय ।। २२. परिभोगपणे जीवां तणे, शीघ्र उतावला आय । हिव जीवां रै भोग आव नहीं, भाखै ते जिनराय ।। २३. विरमण प्राणातिपात नों, जाव मिथ्यादर्शणसल्ल । तास विवेकज निवर्ते, शुद्ध परिणाम अदल्ल ।। २४. वलि धर्मास्तिकाय छै, जाव परमाणू जाण । सेलेसी-प्रतिपन्न मुनि, ए चवदम गुणठाण ।। २५. दोय भेद कह्या ए विना, जीव अजीव द्रव्य जेह । परिभोग तेह जीवां तणे, शीघ्र नथी आवेह ।। १८. अत्थेगइया जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अत्थेगइया जीवाणं परिभोगत्ताए नो हब्वमागच्छति । (श० १८१८६) १९. से केणठेणं भंते ! एवं बुच इ- पाणाइवाए जाव ___नो हव्वमागच्छति ? २०. गोयमा ! पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, पुढविक्काइए जाव वणस्सइकाइए, २१. सव्वे य बादरबोंदिधरा कलेवरा-एए ण दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य २२. जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति । २३. पाणाइवायवे रमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे, २४. धम्मत्थिकाए, अधम्मस्थिकाए जाव परमाणुपोग्गले, सेलेसि पडिवन्नए अणगारे --- २५. एए णं दुविहा जीवदध्वा य अजीवदव्वा य जीवाणं परिभोगत्ताए नो हव्वमागच्छति । सोरठा २६. इहां जे पृथ्वी आदि, जीव द्रव्य ते जाणवा । प्राणातिपातादि, अजीव द्रव्यज आखिया ।। २६. तत्र पृथिवीकायादयो जीवद्रव्याणि, प्राणातिपाताद यस्तु न जीवद्रव्याण्यपितु तद्धर्मा इति न जीवद्रव्याण्यजीवद्रव्याणि (वृ० प०७४५) . *लय : राधा प्यारी हे सैनी खोला श०१८, उ०४, ढाल ३७५ १४७ Jain Education Intemational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. सेवै पाप अठार, ते अघ नो तिणवार, २८. तथा चरित मोह कर्म, अपनों धर्म ए प्रवृत्तिरूपपणां थकी । जीवां रे परिभोग है ।। दलिक भोग हेतु थकी। जीवां रे परिभोग इस ॥ गमन २९. पृथ्वीकायादेह, शोचनादिक करी। परिभोगपणे आवेह ते तो प्रसिद्ध ईंज छे ।। ३०. विरमण पाप अठार परिभोग तेहनों नथी । विरतपणें करि सार, जीव स्वरूपपणां थकी ॥ ३१. धर्माधर्म आकाश, ए या तास, ३२. परमाणू पहिचाण, सेलेसी मुनि जाण, ३३. जीव वर्णे कहिवाय, उतावला नहि आय, जीव शरीर रहित जे प्रगट अमृतिपर्ण करी ॥ सूक्ष्मपणे करी तिको प्रेषण आदिपर्ण ए परिभोगपणे तसु । एहवुं आख्यूं वृत्ति में ॥ नथी । ३४. *णि अर्थ करि इम कह्यो, जाव शीघ्र नहि आय । बुद्धिवंत जाणे न्याय || जीव अजीब कह्या तसु, सोरठा ३५. मूर्च्छा थी परिभोग सकपाई ने ईज । हिवै कषाय प्रयोग, प्रश्नोत्तर कहियै तसु ॥ ३६. *हे प्रभु ! दीनदयालजी, कितरा परूप्या कषाय ? श्री जिन भाखै गोयमा ! च्यार कषाय कहाय ॥ ३७. चतुर्दशम पद पन्नवणा, कहिवो सर्व सुजोय । क्रोध मान माया लोभ ए, इत्यादिक अवलोय || सोरठा । ३८. पूर्व का कषाय, ते चि संख्या ए अछे । ते मा कहिवाय, संख्या कृत युग्मादि हिव ।। ३९. *युग्म कह्या प्रभु ! केतला ? जिन कहै प्यार सुयोग । कडजुम्मे तेयोगे कहा, दावरजुम्म कलियोग || यतनी ४०. गिणत परिभाषाए ताय, सम राशि ते युग्म कहाय । वलि विषम राशि छे तास, ओज कहीजे विभास ॥ ४१. तत्र यद्यपि सुजोय, दोय राशि युग्म शब्द होय । वलि दोय राशि जे जाची, तिके होवें ओज शब्दवाची ॥ *लय राधा प्यारी हे ले नी झखोला १४८ भगवती जोड़ २७. तत्र प्राणातिपातादीन् यदा करोति तदा तान् सेवते प्रवृत्तिरूपत्वात्तेषामित्येवं तत्परिभोगः (पृ० प० ७४५) २८. अथवा चारित्रमोहनीय कदलिकभोमहेतुत्वात्तेषा चारित्रमोहानुभोगः प्राणातिपातादिपरिभोग उप ( वृ० प० ७४५) २९. पृथिव्यादीनां तु परिभोगो गमनशोचनादिभिः प्रतीत एव, ( वृ० प० ७४५ ) ३०. प्राणातिपात विरमणादीनां तु न परिभोगोऽस्ति वधादिविरतिरूपत्वेन जीवस्वरूपत्वात्तेषां, ( वृ० प० ७४५) ३१. धर्मास्तिकायादीनां तु चतुर्णामूर्तवेन ( वृ० प० ७४५ ) ३२.३३. परमाणी: सूक्ष्मत्वेन सेशीप्रतिपन्नानमारस्य प्रेषणाद्यविषयत्वेनानुपयोगित्वान्न परिभोग इति ( वृ० प० ७०४५) ३४. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं जाव नो हव्वमागच्छंति । ३५. परिभोगश्च बुच्चइ - पाणाइवाए ( रा० १००७) भावतः कषायान् प्रज्ञापयितुमाह ३६. कति णं भंते ! कसाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता, ३७. कसायपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव निज्जरिस्संति लोभेणं । (WO (SICS) कषायवतामेव भवतीति ( वृ० प० ७४५ ) 1 ३८. अनन्तरं कषाया निरूपिताः ते च चतुः संख्यत्वात् कृतयुग्मलक्षणसंख्याविशेषवाच्या इत्यतो युम्मस्वरूप(२०१० ७४५) प्रतिपादनायाह ३९. कति णं भंते ! जुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहाकम्मे, योगे, दावरम्ये कसिओगे। (To Parce) 7 ४०. इह गणितपरिभाषया समो राशिर्युग्ममुच्यते विषमस्त्वोज इति, ( वृ० प० ७४५) ४१. तत्र च पीडी राशी युग्मशब्दवाच्यो हो पौज: शब्दवाच्यो भवतः (व० प० ७४५ ) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. तो पिण इहां अवधार, युग्म शब्दे करि सुविचार । रास विवक्षिय तास, इतरै च्यार युग्म ते रास ।। ४२. तथाऽपीह युग्मशब्देन राशयो विवक्षिताः अतश्चत्वारि युग्मानि राशय इत्यर्थः, (वृ०प०७४५) ४३. से केणछैणं भंते ! एवं बुच्चइ-जाव कलिओगे? ४४. गोयमा ! जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए सेत्तं कडंजुम्मे । ४५. जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेण अवहीरमाणे तिपज्जवसिए सेत्तं तेयोगे। ४६. जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अबहीरमाणे ___ दुपज्जबसिए सेत्तं दावरजुम्मे । ४३.*किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो, यावत जे कलियोग ? जिन भाखै सुण गोयमा ! सांभल धर उपयोग ।। ४४. जे राशि समूह छै तेहने, चिउं अपहारे पेख । अपहरतो चिउं भाग देतो थको, च्यार रहै जसु शेख ।। जगत्प्रभु हो, ते कृतयुग्म कहीजिये ।। ४५. जे राशि समूह छै ते प्रतै, चिउं अपहारे सुचीन । अपहरतो चिउं भाग देतो थको, शेष रहै जसु तीन ।। जगत्प्रभु हो, तेयोगे तास कहीजिये ।। ४६. जे राशि समूह छै ते प्रतै, चिउं अपहारे जोय । अपहरतो चिउं भाग देतो थको, शेष रहै जसु दोय ।। जगत्प्रभु हो, ते द्वापरयुग्म कहीजिये ।। ४७. जे राशि समूह छै ते प्रत, चिउं अपहारे देख । अपहरतो चिउं भाग देतो थको, शेष रहै जसु एक ।। जगत्प्रभु हो, ते कलियोग कहीजिये ।। ४८. तिण अर्थे करि गोयमा ! इह विधि म्है आख्यात । जाव कल्योज लगै तस्, कहिवो सहु अवदात ।। जगत्प्रभु हो, हूं बलिहारी वीर नी ।। ४९. पूर्वे कृतयुग्मादि ते, रास थकी आख्यात । तेणे करि कहियै हिवै, नारक प्रमुख विख्यात ।। ५०. नेरइया हे भगवंत जी ! स्यूं कृतयुग्म कहाय ? __ अथवा तेयोगा दावरजुम्मा, अथवा कलियोगा ताय? ५१. जिन कहै जघन्य पदे करी, अत्यंत स्तोकपणेह । ___कडजुम्म संज्ञित रासह, नारक थोड़ा एह ।। ४७. जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए सेत्तं कलिओगे। ४८. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव कलिओगे। (श० १८९०) ५२. वलि उत्कृष्ट पदे करी, सर्व उत्कृष्टपणेह। तेयोगे संज्ञित रास ह, सर्व थकी बहु एह ।। ४९. अनन्तरं कृतयुग्मादिराशय: प्ररूपिताः, अथ तैरेव नारकादीन् प्ररूपयन्नाह (वृ० प० ७४५) ५०. नेरइया णं भंते ! किं कडजुम्मा? तेयोगा? दावरजुम्मा ? कलिओगा ? ५१. गोयमा ! जहण्णपदे कडजुम्मा, 'जहन्नपदे कडजुम्म' त्ति अत्यन्तस्तोकत्वेन 'कृतयुग्माः' कृतयुग्मसज्ञिताः (वृ० प० ७४५) ५२. उक्कोसपदे तेयोगा, 'उक्कोसपए' त्ति सर्वोत्कृष्टतायां व्योजः-सज्ञिता: (वृ० प० ७४५) ५३. अजहण्णक्कोसपदे सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा। एवं जाव थणियकुमारा। (श० १८१९१) मध्यमपदे चतुविधा अपि, (वृ० ५० ७४५) ५३. मध्य पदे करिने कदा, कडजुम्मा अवधार । यावत कलियोगा हुवै, इम जाव थणियकवार ।। सोरठा ५४. जघन्य मझम उत्कृष्ट, ते किण न्याय करी कह्या । श्री जिन आज्ञा श्रिष्ट, तेह प्रमाण थकीज है ।। ५५. *प्रश्न वनस्पति ने कियां, जघन्यपदे करि ताहि । वलि उत्कृष्ट पदे करी, अपदा इक ही पद नांहि ।। *लय : राधा प्यारी हे ल नी सखोला ५४. एतच्चवमाज्ञाप्रामाण्यादवगन्तव्यम् । (वृ० प० ७४५) ५५. बणस्सइकाइया णं-पुच्छा। गोयमा ! जहण्णपदे अपदा, उक्कोसपदे य अपदा, श०१८, उ०४, ढा० ३७५ १४९ Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ५६. वनस्पती रै मांय, जघन्य अने उत्कृष्ट पद । वों ते किण न्याय, नियत रूप नहिं ते भणी ।। ५७. नारक प्रमुख मांय, नियत रूपज तेह तणों। कालांतर पिण पाय, तिम नहिं पामै वणस्सई ।। ५६. वनस्पतिकायिका जघन्यपदे उत्कृष्टपदे चापदाः जघन्यपदस्योत्कृष्टपदस्य च तेषामभावात्, (वृ० प० ७४५) ५७. जघन्य पदमुत्कृष्टपदं च तदुच्यते यन्नियतरूपं तच्च यथा नारकादीनां कालन्तरेणापि लभ्यते न तथा वनस्पतीनां, (वृ०प०७४६) ५८,५९. तेषां परम्परया सिद्धिगमनेन तद्राशेरनन्तत्वा परित्यागेऽप्यनियतरूपत्वादिति, (वृ० प० ७४६) ५८. वनस्पती रै मांहि, परंपरा सिद्धि गमन करि । तेह राशि में ताहि, अनंतपणुं अणछांडवै ।। ५९. इम तसु अनियत इष्ट, तिणसं वनस्पति मझे। जघन्य अने उत्कृष्ट, पद इक ही नहिं संभवै ।। ६०. *अजघन्योत्कृष्ट पदे करी, कदा कड जुम्मा होय । जाव कदा कलियोगा ह, अनियत भावे जोय ।। ६१. बेंद्री तणी पूछा कियां, जघन्य कड जुम्मा होय । ते उत्कृष्ट पदे करी, दावर जुम्मा जोय ।। ६२. जघन्य उत्कृष्ट बेहुं नहीं, ए मध्य करि सुप्रयोग। कदा कडजुम्मा ह अछ, जाव कदा कलियोग ।। ६३. एवं जाव चउरिदिया, शेष एकेंद्री च्यार । पृथ्वी अप तेउ वाय ते, बेंद्री जिम अवधार ।। ६४. वलि तिर्यच पंचेंद्रिया, जाव वैमानिक तेम । नारक नी पर जाणवा, सिद्धा वनस्पति जेम ।। ६०. अजहण्णुक्कोसपदे सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा। (श०१८।९२) ६१. बेंदिया णं-पुच्छा। गोयमा ! जहभणपदे कडजुम्मा, उक्कोसपदे दावरजुम्मा, ६२. अजहण्णमणुक्कोसपदे सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा। ६३. एवं जाब चउरिदिया। सेसा एगिदिया जहा बेंदिया। ६४. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहा नेरइया । सिद्धा जहा वणस्सइकाइया। (श० १८१९३) ६५. जघन्यपदे उत्कृष्टपदे चापदाः, अजघन्योत्कृष्टपदे च स्यात् कृतयुग्मादयः इत्यर्थः, (वृ०प० ७४६) ६६-६८. तत्र जघन्योत्कृष्टपदापेक्षयाऽपदत्वं वर्द्धमानतया तेषामनियतपरिमाणत्वाद्भावनीयमिति। (वृ०प०७४६) सोरठा ६५. जघन्य अने उत्कृष्ट, ए बिहुं पद सिद्ध में नथी। मध्यम पद करि इष्ट, कडजुम्मादिक चिउं हुवै ।। ६६. वर्तमान थी जोय, काल अतीत विषेज सिद्ध । अल्प न हुंता कोय, तिणसं जघन्य पदे नथी ।। ६७. वलि आगामिक काल, बधसी सिद्ध अनंत ही। ते माटै इम न्हाल, उत्कृष्ट पद नहिं संभवै ।। ६८. वर्तमान जे काल, तस अनियत परिमाण नैं । ग्रहण करेवं न्हाल, अर्थ विषे इम आखियो ।। ६९. जघन्य अनैं उत्कृष्ट, पद बिहुँ तणी अपेक्षया । अपदपणां प्रति इष्ट, वर्तमान जे काल नां ।। ७०. काल अतीतज मिद्ध, वलि अनागत काल नां । ए बिहु नां गुण वृद्ध, अनियत परिमाणे करी ।। ७१. *स्त्रियां प्रभु ! कृतयुग्म स्यं ? गोयम प्रश्न उत्तम्म । जघन्य पदे कृतयुग्म है, उत्कृष्ट पिण कडजुम्म ।। ७१. इत्थीओ णं भंते ! कि कडजुम्मा-पुच्छा। गोयमा ! जहण्णपदे कडजुम्माओ, उक्कोसपदे कडजुम्माओ, *लय : राधा प्यारी हे ले नी शखोला १५० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. जघन्य उत्कृट बिहुं नहीं, मध्य पदे सुप्रयोग। कदाचित कडजुम्म है, जाव कदा कलियोग ।। ७३. इम स्त्री असुरकुंवार नीं, जाव थणित नी जाण । इमहीज छै तिर्यंचणी, इमज मनुष्यणी माण ।। ७२. अजहण्णमणुक्कोसपदे सिय कडजुम्माओ जाव सिय कलिओगाओ। ७३. एवं असुरकुमारित्थीओ वि जाव थणिय कुमारित्थीओ। एवं तिरिक्खजोणित्थीओ, एवं मणुसित्थीओ, ७४. एवं वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियदेवित्थीओ। (श० १८१९४) ७५. जीवपरिमाणाधिकारादिदमाह- (व०प०७४६) ७६. जावतिय! णं भंते ! वरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवण्हिणो जीवा? ७४. इमहिज व्यंतर नी त्रिया, ज्योतिषिणी पिण एम। वैमानिक सुर नी सुरी, ए पिण कहिवी तेम ।। सोरठा ७५. पूर्व जीव परिमाण, ते अधिकार थकी हिवै। तेहिज नों पहिछाण, प्रश्नोत्तर परिमाण हिव ।। ७६. 'जेतला छै प्रभुजी ! वरा, अंधगवण्हि बहु जीव । तेतला परा कहीजिये, जे अंधगवण्हि अतीव ।। सोरठा ७७. अर्थ वरा नो ताय, वत्त अग्भिाग जे। आयु नी अपेक्षाय, अल्प आउखा नां धणी ।। ७८. अंधगवण्ही जाण, अंहिपा वृक्ष तेह तणी। वहि अग्नि पिछाण, तसु आश्रयपणे करी।। ७९. अंहिपवण्ही जेह, बादर तेऊकाय ए। ___ आउ आश्रयी तेह, अल्प आउखा नां जिता ।। ८०. अन्य कहै इम वाय, अंधक ते अप्रकाशका । सूक्ष्म एह कहाय, वण्ही जंतू अग्नि नां ।। ८१. सूक्ष्म नामज कर्म, तास उदय थी ऊपनां । अग्निपणे तसु धर्म, तेह जीव छै जेतला ।। ८२. परा प्रकृष्ट पिछाण, दीर्घायुष पिण तेतला। तितरोइज परिमाण, अंधगवण्ही जीव छै ।। ८३. बादर अग्निकाय, अल्पायु नां छ जिता । इतराईज कहाय, दीर्घायुष नां पिण तिता ।। ८४. अन्य कहै इम वाय, सूक्ष्म अग्निकाय नां। जिता अल्प स्थिति पाय, दीर्घायुष नां पिण तिता ।। ८५. *जिन कहै हंता जेतला, अंधगवण्हि बहु जीव । अल्प आउखा नां धणी, तितरा दीर्घायु कहीव ।। ७७. यावन्तः 'वर' ति अर्वागभागवतिनः आयुष्का पेक्षयाऽल्पायुष्का इत्यर्थः (वृ० प० ७४६) ७८,७९. 'अंधगवण्हिणो' ति 'अंहिपा-वृक्षास्तेषां वह्नयस्तदाश्रयत्वेनेत्यंहिपवह्नयो बादरतेजस्कायिका इत्यर्थः, (३० प ० ७४६) ८०,८१. अन्ये त्वाहुः-अन्धकाः ....अप्रकाशकाः सूक्ष्मनामकर्मोदयाद्ये वह्नयस्तेऽन्य कवह्नयो जीवाः । (वृ०प०७४६) ८२. 'पर' त्ति पराः प्रकृष्टाः स्थितितो दीर्घायुष इत्यर्थः (वृ० प०७४६) ८५. हंता गोयमा ! जावतिया बरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवण्हिणो जीवा । (श० १८९५) ८६. सेवं भंते ! सेव भते ! त्ति । (श० १८९६) ८६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! स्वाम जी, शत अष्टादशमेह । चउथा उद्देशा नों अर्थ ए, उगणोस तेवीसेह ।। ८७. कृष्ण तोज तिथि भाद्रवे, तीनसौ नै पिचंतरमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल ।। अष्टादशशते चतुर्थोद्देशकार्थः ॥१८॥४॥ *लय : राधा प्यारी हे लैनी सखोला श०१८, उ०४, ढाल ३७५ १५१ Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३७६ १. चतुर्थोद्देशकान्ते तेजस्कायिकवक्तव्यतोक्ता ते च भास्वरजीवा इति पञ्चमे भास्वरजीवविशेषवक्तव्यतोच्यते (वृ० प० ७४६) २. दो भंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना, दूहा १. तुर्य उद्देशक अंत में, तेजसकायिक देख । भास्वर जीवा ते हिव, भास्वर जीव विशेख ।। *हं बलिहारी हो, हूं बलिहारी हो श्री जिन वचनां तणी॥(ध्रुपदं) २. हे प्रभु ! असुरकुमार बे, इक असुरकुंवार आवास हो प्रभुजी ! असुरकुमार देवतपणे, ऊपनां ते सुखरास हो प्रभुजी ! हूं बलिहारी ! ३. इक तिहां असुरकुमार ते, प्रासादनीक पिछाण हो प्रभुजी ! रूप मनोहर अति घणों, देखवा योग्य सुजाण हो प्रभुजी! ४. अभिरूप अति ओपतो, प्रतिरूप पेखंत हो स्वामी जी ! टबा विषे चिउं पद तणों, एक अर्थ आखंत हो स्वामी जी ! ५. अस रकुमारज इक वली, नहीं प्रासादनीक तद्रप हो प्रभजी! देखवा योग्य तिको नहीं, नहिं अभिरूप प्रतिरूप हो प्रभजी ! ६. ते किम ए भगवंत जी? प्रश्न एम पूछत हो प्रभुजी जिन कहै असुरकुमार ते, दोय प्रकार दाखंत हो गोयमजी ७. वे उब्वियसरीरा कह्या, ते विभूषित तनुवंत हो गोयम जी ! अविउब्वियसरीर ते, तनु विभूषा न करत हो गोयम जी ! ३. तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे पासादीए दरिसणिज्जे ४. अभिरूवे पडिरूवे, ८. विभूपित तनुवंत जे, असुरकुमार अनूप हो गोयम जी ! प्रासादनीक मनोहरू, यावत ते प्रतिरूप हो गोयम जी! ९. अविभूषित तनुवंत जे, असुरकुमार तद्रूप हो गोयम जी ! प्रासादनीक नहीं तिको, जाव नहीं प्रतिरूप हो गोयम जी ! ५. एगे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए नो दरिसणिज्जे नो अभिरूवे नो पडिरूवे, ६. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पण्णत्ता, ७. वेउब्वियसरीरा य, अवेउब्वियसरीरा य । 'वेउब्वियसरीर' त्ति विभूषितशरीरः । (वृ० ५० ७४६) ८. तत्थ ण जे से वेउब्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए जाव पडिरूवे । ९. तत्थ णं जे से अवेउब्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए जाव नो पडिरूवे। (श० १८१९७) १०. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तत्थ णं जे से वेउब्वियसरीरे तं चेव जाव नो पडिरूवे? ११. गोयमा ! से जहानामए-इह मणुयलोगंसि दुवे पुरिसा भवंति१२. एगे पुरिसे अलंकियविभूसिए, १३. एगे पुरिसे अणलं कियविभूसिए। १०. किण अर्थे प्रभु ! इम कह्य, तन जे विभूषितवंत हो प्रभुजी ! तं चेव यावत जाणवं, नो प्रतिरूप कहंत हो प्रभुजी ? ११. जिन भाखै सुण गोयमा ! यथादष्टांते जोय हो गोयम जी ! इण मनुष्य लोक विषे हुवै, दोय पुरुष अवलोय हो गोयम जी! १२. एक पुरुष अलंकृत अछ, अधिक विभूषित अंग हो गोयम जी ! वस्त्र अलंकार सहित छै, आमरण सखर सुचंग हो गोयम जी! १३. एक पुरुष तिहां एहवं, अलंकार नहीं अंग हो गोयम जी ! शरीर विभूषित ते नहीं, आभरण वस्त्र न चंग हो गोयम जी ! १४. ए बिहं पुरुष में गोयमा ! कुण नर कहियै अनूप हो गोयम जी ! प्रासादनीक मनोहरू, यावत ते प्रतिरूप हो गोयम जो ! १५. कवण पुरुष दोयां मांहिलो, प्रासादनीक न होय हो गोयम जी! जाव नहीं प्रतिरूप ते, मनहर पिण नहीं कोय हो गोयम जी! १६. जेह अलंकृत पुरुष छ, अधिक विभूषित चंग हो गोयम जी! जेह पुरुष अलंकृत नहीं, नहीं छै विभूषित अंग हो गोयम जी! *लप : हूं बलिहारी हो, हूं बलिहारी हो श्री जिनजी री आगन्या १५२ भगवती जोड़ १४. एएसि णं गोयमा ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे पासादीए जाव पडिरूवे, १५. कयरे पुरिसे नो पासादीए जाव नो पडिरूवे । १६. जे वा से पुरिसे अलंकियविभूसिए, जे वा से पुरिसे अणलंकियविभूसिए? Jain Education Intemational Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. गोतम कहै भगवंत जी ! अलंकृत विभूषित अंग हो प्रभुजी ! प्रासादनीक पुरुष जिको, जाव प्रतिरूप चंग हो प्रभुजी ! १८. तिहां जेह पुरुष अलंकृत नहीं, नहीं छै विभूष अनूप हो प्रभुजी ! प्रासादनीक नहीं तिको, जाव नहीं प्रतिरूप हो प्रभुजी ! १९. तिण अर्थे करि गोयमा ! जाव नहीं प्रतिरूप हो गोयम जी ! द्विविध मनुष्य तणी परै, असुरकुमार तद्रूप हो गोयम जी ! २०. हे प्रभु ! नागकुमार बे, इक नागकुमार आवास हो प्रभुजी! एवं चेव कहीजिये, असुर तणी पर तास हो गोयम जी ! २१. इम जाव थणिय कुमार है, वाणव्यंतर विख्यात हो गोयम जी! ज्योतिषी नै वैमानिक सुरा, एवं चेव आख्यात हो गोयम जी! १७. भगवं ! तत्थ णं जे से पुरिसे अलंकियविभुसिए से __णं पुरिसे पासादीए जाव पडिरूवे । १८. तत्थ णं जे से पुरिसे अणलंकियविभूसिए से णं पुरिसे नो पासादीए जाव नो पडिरूवे । १९. से तेणठेणं जाव नो पडिरूवे। (श० १८९८) २०. दो भंते ! नागकुमारा देवा एगंसि नागकुमारा वासंसि ? एवं चेव २१. जाव थणियकुमारा। वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया एवं चेव। (श० १८१९९) सोरठा २२. अनंतरे आख्यात, विशेष असरादिक तणों। विशेष अधिकारात, कहियै छै हिव आगल ।। २३. *हे भगवंत ! बे नारकी, इक नरकावासा मांय हो प्रभुजी ! __नारकपणे ते ऊपनां, पूर्व पाप पसाय हो प्रभुजी ! २४. एक नारकी छै तिहां, महाकर्मवंत अत्यंत हो प्रभुजी ! यावत ते निश्चै करी, छै महावेदनावंत हो प्रभुजी ! २५. एक नारकी नरक में, अल्प थोड़ा कर्मवंत हो प्रभुजी ! जाव अल्प तसु वेदना, महा अपेक्षाय कहंत हो प्रभुजी ! २६. ते किम ए भगवंत जी? इम इति प्रश्न आख्यात हो प्रभुजी ! __ श्री जिन भाखै नारकी, दोय प्रकार विख्यात हो प्रभुजी ! २७. माईमिथ्यादष्टि ऊपनां, प्रथम भेद ए पाय हो गोयम जी ! ___अमाईसमद ष्टि ऊपना, द्वितीय भेद कहाय हो गोयम जी! २८. तिहां माईमिथ्यादृष्टि जिको, नारक जे उत्पन्न हो गोयम जी! ते अतिमहाकर्मवंत छै यावत, अतिमहा वेदन्न हो गोयम जी ! २९. तिहां अमाईसमदृष्टि जिको, नारक जे उत्पन्न हो गोयम जी! अल्पकर्मवंत छै तिको, जाव अल्प वेदन्न हो गोयम जी ! २२. अनन्तरमसुरकुमारादीनां विशेष उक्तः, अथ विशेषाधिकारादिदमाह (वृ० प० ७४६) २३. दो भते ! नेरइया एगंसि नेरइयावासंसि नेरइयत्ताए उववन्ना। २४. तत्थ णं एगे नेरइए महाकम्मतराए चेव जाव (सं० पा०) महावेयणतराए चेव, २५. एगे नेरइए अप्पकम्मतराए चेव, जाव (सं० पा०) अप्पवेयणतराए चेव, २६. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, २७. मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नगा य, अमायिसम्मदिट्ठिउवव न्नगा य। २८. तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिविउववन्नए नेरइए से णं महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव । २९. तत्थ णं जे से अमायिसम्मदिट्ठिउववन्नए नेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव । (श० १८१००) ३०. दो भंते ! असुरकुमारा? एवं चेव । एवं एगिदिय विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणिया। (श० १८।१०१) ३०. हे प्रभु ! असुरकुमार बे, एवं चेव पहिछाण हो गोयम जी! इम एकेंद्री विकलेंद्री वरजन, जाव वैमानिक जाण हो गोयमजी! सोरठा ३१. इहां एकेंद्रिय आदि, वर्जी छै इण कारणे । माई-मिथ्या लाधि, अमाई-समदृष्टि नहीं । ३२. अमाई-समदृष्ट, विशेष सम्यक्तवंत ए। तिण कारण इम इष्ट, वर्जी विकलेंद्री भणी ॥ ३३. सास्वादान गुणठाण, विकलेंद्रिय माहे कह्य । वमती सम्यक्त जाण, तिणसू कथन न एहनों। *लय : हूं बलिहारी हो, हूं बलिहारी हो श्री जिनजी री आगन्या ३१,३२. 'एगिदियविलिदियवज्ज' ति इहेकेन्द्रियादि वर्जनमेतेषां मायिमिथ्यादृष्टित्वेनामायिसम्यग्दृष्टिविशेषणस्यायुज्यमानत्वादिति। (व० ५० ७४६) श• १८, उ०५, डा. ३७६ १५३. Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. आयु प्रतिसंवेदना, आयू तणों विशेष हिव, पूर्व जे वक्तव्यता आख्यात । अवदात ।। ३४. प्राग् नारकादिवक्तव्यतोक्ता ते चायुष्कप्रतिसंवेदनावन्त इति तेषां तां निरूपयन्नाह (वृ०प०७४७) ३५. नेरइए णं भते ! अणंतरं उवट्टित्ता जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए, ३६. से णं भंते ! कयरं आउयं पडिसंवेदेति ? ३५. *नारक हे भगवंत जी ! नीकली अंतर रहीत हो प्रभुजी ! तिरि पंचेंद्रिय नै विषे, ऊपजवा जोग्य संगीत हो प्रभुजी ! ३६. हे प्रभुजी ! ते नारकी, किसा आय प्रति जान हो प्रभुजी ! वेदै छै नरक रह्यो छतो? तब भाख भगवान हो गोयम जी! ३७. नारक नां आउखा प्रतै, नरक रह्यो वेदंत हो गोयम जी ! तिरि पंचेंद्री आयु प्रत, आगल करि तिष्ठंत हो गोयम जी! ३८. मनुष्य विषे पिण इमज छै, णवरं विशेष छै एह हो गोयम जी! मनुष्य तणां आउखा प्रतै, आगल करि तिष्ठेह हो गोयम जी! ३९. हे प्रभु ! असुरकुमार जे, नीकली अंतर रहीत हो प्रभुजी ! ऊपजवा जोग्य पृथ्वी विषे, तास प्रश्न सुवदीत हो प्रभुजी ! ४०. जिन कहै असुरकुमार नां, आअखा प्रतिवेदंत हो गोयम जी ! पृथ्वीकाय नां आयु प्रतै, आगल करि तिष्ठंत हो गोयम जी! ४१. इम जेह जीव भविक विषे, ऊपजस्य जे दंडकेह हो गोयम जी! तेह तणां आउखा प्रतै, ते आगल करि तिष्ठेह हो गोयम जी! ४२. जिहां जे जीव रह्यो हुवे, ते आयु प्रति वेदेह हो प्रभुजी ! यावत वैमानिक लगे, णवरं विशेष छै एह हो प्रभुजी ! ४३. पृथ्वीकायिक जीवड़ो, रह्यो छ निज भव मांहि हो प्रभुजी ! अन्य पृथ्वीकायिक विषे, ऊपजवा जोग्य ताहि हो प्रभुजी ! ४४. पूर्व पृथ्वीकाय नां, आउखा प्रतिवेदंत हो गोयम जी ! अन्य पृथ्वी ना आयु प्रतै, आगल करि तिष्ठत हो गोयम जी! ४५. इमहिज जाव मनुष्य लगै, उपजाविवो स्व स्थान हो गोयम जी! ऊपजै पर स्थानक विषे, पूर्ववत पहिछाण हो गोयम जी ! ३७. गोयमा! नेरइयाउयं पडिसंवेदेति, पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाउए से पुरओ कडे चिट्ठति । ३८. एवं मणुस्सेसु वि, नवरं मणुस्साउए से पुरओ कडे चिट्ठति । (श० १८।१०२) ३९. असुरकुमारे णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए (सं० पा०) पुच्छा। ४०. गोयमा ! असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेति, पुढवि काइयाउए से पुरओ कडे चिट्ठति । ४१. एवं जो जहि भविओ उववज्जित्तए तस्स तं पुरओ ___कडं चिट्ठति, ४२. जत्थ ठिओ तं पडिसंवेदेति जाव वेमाणिए, नवरं -- ४३. पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववज्जति, ४४. पुढविकाइयाउयं पडिसंवेदेति, अण्णे य से पुढवि काइयाउए पुरओ कडे चिट्ठति । ४५. एवं जाव मणुस्सो सट्टाणे उववाएतव्यो, परढाणे तहेव। (श० १८।१०३) सोरठा ४६. आयु प्रति संपेख, संवेदन पूर्वे कह्य । अथ चिउं आयु विशेख, वक्तव्यता तेहनी कहै ।। ४७. *असुरकुमार बे देवता, हे भगवंत जी ! तेह हो प्रभजी ! एक असुर नां आवास में, ऊपनां ते सुर बेह हो प्रभुजी ! ४८. त्यां इक असुरकुमार ते, सरल विकुर्वे स्यू ताम हो प्रभुजी ! इसी इच्छा करि सर्व ही, रूप विकुर्वं आम हो प्रभुजी ! ४९. वांका जे रूप प्रत वली, विकर्वस्यं हूं तेह हो प्रभुजी ! इम मन चितवी वक्र ही, रूप प्रतै विकुर्वेह हो प्रभुजी ! ५०. जेह विषे जिम वंछतो, तेह प्रतै तिमहीज हो प्रभुजी ! वांछित विकुर्वणा करै, ए इक असुर कहीज हो प्रभुजी ! ५१. असुरकुमार जे इक वली, सरल रूप विकुर्वीस हो प्रभुजी ! इम मन मांहे चितवी, विकुर्वं वक्र जगीस हो प्रभुजी ! *लय : हूं बलिहारी हो, हूं बलिहारी हो श्री जिनजी री आगन्या १५४ भगवती-जोड ४६. पूर्वमायु:-प्रतिसंवेदनोक्ता, अथ तद्विशेषवक्तव्यतामाह (वृ० प० ७४७) ४७. दो भते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना। ४८. तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे उज्जयं विउव्विस्सामीति उज्जुयं विउब्वइ, ४९. वंक विउब्बिस्सामीति वंक विउब्बइ, ५०. जं जहा इच्छइ तं तहा विउव्वइ । ५१. एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं विउव्विस्सामीति वक विउव्वइ, Jain Education Intemational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. वक रूप हूं वली, विकुर्वसूं सुविचार हो प्रभुजी ! एहवूं मन मांहे चितवी विकुर्वे सरल प्रकार हो प्रभुजी ! ५३. जेह रूप जिम वांछतो, तेह रूप प्रति तंत हो प्रभुजी ! विकुर्वणी आवै नहीं, ते किम ए भगवंत ? हो प्रभुजी ! ५४. जिन कहै असुरकुमार जे दोय प्रकार सुइष्ट हो गोयम जी ! माईमिथ्यादृष्टि ऊपनां, वलि अमाईसमदृष्ट हो गोयम जी ! , ५५. तिहां माईमिध्यादृष्टि ऊपनो, ते चितवं मन मांय हो गोयम जी ! सरल रूप विकुर्वीस हूं, व प्रतं विकुर्वाय हो गोवम जी ! ५६. यावत तेह प्रतै तिको, रूप विकुर्वे नांय हो गोयम जी ! वांछित रूप न विकुर्वे, अल्प बहु फेर थाय हो गोयम जी ! सोरठा ५७. जिम धारं मन मांहि विकुर्व सकै नहि, २८. मायामिष्या भाव, तेहवा तेहवा रूप प्रतं तिको । कांयक फेर पड़े प्रत्यय कर्म प्रभाव तसु ॥ थी । विकुवर्ण प्रस्ताव, बंक विकुर्वे इम वृत्तौ ॥ ५९. *तिहां अमाईसमदृष्टि अपना, असुरकुमार अनुप हो गोयम जी ! सरल विकुर्व दम धरी विकुर्वे सरल स्वरूप हो गोवम जी ! ६०. यावत तेहिज रूप में, तिमज रूप विकुर्वेह हो गोवम जी ! मन में वांछे जेवो, रूप विकुर्वे तेह हो गोयम जी ! सोरठा ६१. अमायी छै जेह, सम्यक्त्व प्रत्यय तेह, ६२. सम्यग्दृष्टी रूपज आर्जव सहितपणे करी । कर्म तनां वश थी वृत्तौ ।। हेर, वंछित विकुर्वे । बहुलपणे नहि फेर, एहव न्याय जणाय छ ॥ ६३. बे प्रभु ! नागकुमार ते, इमहिज कहिवूं सोय हो गोयम जी ! जाणियकुमार ही, व्यंतर ज्योतिषी जोय हो गोयम जी ! ६४. इमहि देव वेमानिया, सेवं भंते! सेवं मंत! हो स्वामी जी ! अर्थ अठारमा शतक नों, पंचमुदेशक संत हो स्वामी जी | ६५. ढाल तीन सय ऊपरं, छिहतरमी सुविशाल हो स्वामी जी ! भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय जय' हरष विशाल हो स्वामी जी ! अष्टादशशते पंचमोद्देश कार्थः || १८|५|| *लय : हूं बलिहारी हो, हूं बलिहारी हो श्री जिनजो री आगन्या ५२. बंक विउब्विस्सामीति उज्जुयं विउव्वइ, ५३. जं जहा इच्छति नो तं तहा विउव्व से कहमेयं भंते ! एवं ? ५४. गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा जहा - मायिमिच्छदिट्ठीउववन्नगा य दिट्ठीउववन्नगा य । ५५. तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिट्टिउववन्नए असुरकुमारे देवे से णं उज्जयं विव्विस्सामीति वंकं विउब्वाइ ५६. जाव तो तं तहा विउव्वइ । ५०.५५. यह माविमिध्यादृष्टीनामसुकुमारादीनामृनुविकुर्वायामपि विकुर्वणं भवति तन्मायामिथ्यात्वप्रत्यय कम्प्रभावात्, ( वृ० प० ७४७) ५९. तत्थ णं जे से अमायिसम्मदिट्टिउववन्नए असुरकुमारे देवे से णं उज्जुयं विउव्विस्सामीति उज्जयं विउब्वाइ ६०. जाव तं तहा विउव्वइ । (२० १०।१०४) पण्णत्ता, तं अमाविसम्म - ६१,६२. अमाथिसम्यग्दृष्टीनां तु यथेच्छं विकुर्व्वणा भवति तदावत सम्यत्वप्रत्यय कम्वादिति । ( वृ० प० ७४७ ) ६३. दो भंते! नागकुमारा ? एवं चेव । एवं जाव शिवकुमारा। बाणमंतर ६४. वेमाणिया एवं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( श० १८/१०५ ) (२० १०/१०६) श०१८, उ०५, ढाल ३७६ १५५ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३७७ दूहा १. पंचमुद्देशक नै विषे, असुरादिक अवदात । तेह सचेतन नां बहु, स्वभाव थी आख्यात ।। २. षष्ठमुद्देशक नै विषे, जे गुल प्रमुखज ताय । जीव रहित फुन सहित नों, स्वरूप हिव कहिवाय ।। ३. ढीलो गुल भगवंत ! रे, कितला वर्ण छ । रस गंध फर्श कहीजिये ए? ४. श्री जिन भाखै दोय रे, आखी नय इहां । निश्चय व्यवहार लहीजियै ए ।। ५. नय व्यवहारे जेह रे, मधुर रसोपेतं । ढीलो गुल बखाणिय ए॥ १. पञ्चमोद्देशके सुरादीना सचेतनानामनेकस्वभावतोक्ता, (वृ० प० ७४८) २. षष्ठे तु गुडादीनामचेतनानां सचेतनानां च सोच्यते (वृ० प० ७४८) ३. फाणियगुले णं भंते ! कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णते? ४. गोयमा ! एत्थ ण दो नया भवति, तं जहा नेच्छइयनए य, वावहारियनए य । ५. वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगुले, ‘फाणियगुल्ले णं' ति द्रवगुडः 'गोड्डे' त्ति गौल्यं-- गौल्यरसोपेतं मधुररसोपेतमिति यावत् ((वृ०प०७४८) ६. नेच्छइयनयम्स पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे पण्णत्ते। (श० १८।१०७) ६. निश्चै नय वर्ण पंच रे, बे गंध छै वली। रस पंच फर्श अठ जाणिय ए।। सोरठा ७. 'बहु परमाणू मांय, पंच वर्ण बे गंध कह्या । __पंच रस चिउं फर्श पाय, अनंत परमाणु गुल मझे ।। ८. शीत उष्ण निद्ध लुख, सूक्ष्म ए चिउं मूलका। अन्य चिउं कक्खड़ प्रमुख, ते बादर किम नीपजै ।। ९. लुक्ख फर्श नी जाण, बहुलताइ कर व लघु । निद्ध तणी पहिछाण, बहुलताइ करि ह गुरु ।। १०. शीत निद्ध नी सोय, बहुलताइ थीं व मृदु । उष्ण लुक्ष नी जोय, बहुलताइ सं खरखरो।। ११. इम बादर निपजंत, परंपरा थी आखियो। बादर खंध अनंत, गुल में तिणसू फर्श अठ ॥' (ज.स.) १२. * भ्रमर विषे भगवंत ! रे, कितला वर्ण छ ? पूछा ए गोयम तणी ए। १३. जिन भाखै नय दोय रे, इक निश्चै कही। दूजी व्यवहारिक भणी ए॥ १४. नय व्यवहारिक जाण रे, तास मते करी। कृष्ण वर्ण करि भ्रमर छै ।। १५. निश्चै नय पहिछाण रे, पांचं वर्ण छ। जाव तास अठ फर्श छै ए ।। १६. सुक-पांखे भगवंत! रे, वर्णादिक किता? एवं चेव निसंक छै ए ।। *लय : बेकर जोड़ी ताम रे १२. भमरे णं भंते ! कतिवण्णे (सं० पा०)-पुच्छा ।' १३. गोयमा ! एत्थं णं दो नया भवंति, तं जहा नेच्छइयनए य, वावहारियनए य । १४. वावहारियनयस्स कालए भमरे, १५. नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे जाव अट्ठफासे पण्णत्ते । (श० १८१०८) १६. सुयपिच्छे णं भंते ! कतिवणे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णत्ते ! एवं चेव, १५६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. नवरं वावहारियनयस्स नीलए सुयपिच्छे, १८. नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे जाव अट्ठफासे पण्णत्ते १९. एवं एएणं अभिलावेणं २०. लोहिया मंजिट्ठिया, पीतिया हालिद्दा, सुक्किलए संखे, २१. सुब्भिगंधे कोठे, दुब्भिगंधे मयगसरीरे, २२. तित्ते निबे, कडया सुंठी, कसाए कविढे, २३. अंबा अंबिलिया, महुरे खंडे, २४. कक्खडे वइरे, मउए नवणीए, गरुए अए, १७. नवरं नय व्यवहार रे, तास मते करी। नील वर्ण सुक-पंख छ ए॥ १८. निश्चै नय करि तेह रे, शेष तिमज सही । वर्णादिक सह पामियै ए ।। १९. ते इण आलावेण रे, इम कहियो अछै । आगल तेहिज धामियै ए ।। २०. लोहित वर्ण मजीठ रे, हलद पीली कही। धवले वर्णे संख छै ए ।। २१. सुरभिगंध छै कोठ रे, दुरभिगंध वली। मृतक नों तनु अशुभ छ ए॥ २२. तिक्त रसे जे नींब रे, कडवी संठ छै । तूयर कविठ कषाय छै ए॥ २३. अंबिल खाटी ख्यात रे, कहिये आंबली । मधुर रसे करि खांड छै ए॥ २४. कर्कश फर्शे वज्र रे, मृदु नवनीत है। गुरुक स्पर्श लोह छै ए॥ २५. लघु ते हलवो फास रे, उलुकपत्र तिको। बूर वणस्सइ पत्र छै ए॥ २६. शीत स्पर्श हिम रे, ऊन्ही अग्नि छ । स्निग्ध तेल कहीजिये ए।। २७. भसम राख भगवंत ! रे, पूछयां जिन कहै। नय बे इहां लहीजिये ए ।। २८. निश्चै नय व्यवहार रे, व्यवहारिक नये। लक्खी राखज जाणिय ए।। २९. निश्चै नय वर्ण पंच रे, यावत राख में। स्पर्श आठ पिछाणियै ए॥ ३०. प्रभु | परमाणु मांहि रे, कितला वर्ण छ । गंध रस फर्श किता अछ ए? ३१. जिन भाखै वर्ण एक रे, गंध पिण एक छै । रस इक फुन बे फर्श छै ए॥ २५. लहुए उलुयपत्ते, २६. सीए हिमे, उसिणे अगणिकाए, णिद्धे तेल्ले । (श० १८।१०९) २७. छारिया णं भंते ! –पुच्छा। गोयमा ! एत्थ दो नया भवंति, २८. नेच्छइयनए य वावहारियनए य । वावहारियनयस्स लुक्खा छारिया, २९. नेच्छइयनयस्स पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता । (श० १८११०) ३०. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? ३१. गोयमा ! एगवण्णे, एगगंधे, एगरसे, दुफासे पण्णत्ते। (श० १८११११) सोरठा ३२. विकल्प भांगा संच, वर्ण विषे जे पंच है। बे गंध रस नां पंच, फर्श विषे विकल्प चिउं ।। वा०-स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण-ए च्यार स्पर्श माहे अन्यतर अविरुद्ध स्पर्श दो युक्त इत्यर्थः। ३३. विकल्प इहां जु च्यार, शीत-स्निग्ध रु शीत-लुक्ख । उष्ण-निद्ध अवधार, उष्ण-रूक्ष ए भंग चिउं ।। ३२. 'परमाणुपोग्गले ण' मित्यादि, इह च वर्णगन्धरसेषु पञ्च द्वौ पञ्च च विकल्पाः (वृ० प०७४८) वा०-'दुफासे' त्ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णस्पर्शानामन्यतरा विरुद्धस्पर्शद्वययुक्त इत्यर्थः (वृ०प०७४८) ३३. इह च चत्वारो विकल्पाः शीतस्निग्धयोः शीतरूक्षयो उष्णस्निग्धयोः उष्णरूक्षयोश्चसम्बन्धादिति । (वृ०प०७४८) ३४. दुपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? ३४. *दोय प्रदेशिक खंध रे, हे प्रभु ! तेह विषे । वर्णादिक किता कह्या ए? * बेकर जोड़ी ताम रे श०१८, उ०६, ढाल ३७७ १५७ Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. गोयमा ! सिय गवण्णे, सिय दुवण्णे, वा.---'दुपएसिए ण' मित्यादि, "सिय एगवन्ने' त्ति द्वयो रपि प्रदेशयोरेकवर्णत्वात्, इह च पञ्च विकल्पाः, 'सिय दुवन्ने' त्ति प्रतिप्रदेशं वर्णान्तरभावात्, इह च दश विकल्पाः , (वृ० प० ७४८,७४९) ३६. सिय एगगंधे, सिय दुगंधे । वा०—एवं गन्धादिष्वपि । (वृ० प० ७४९) ३७. सिय एगरसे सिय दुरसे । ३५. जिन भाखै सुण सीस! रे, एक वर्ण कदा। कदाचित वर्ण बे लह्या ए।। वा०-द्विप्रदेशिक खंध नै विषे एक वर्ण कालो हुदै १ तथा एक वर्ण नीलो हुवे २ तथा एक वर्ण रातो हुवै ३ तथा एक वर्ण पीलो हुदै ४ तथा एक वर्ण धवलो हुवै ५ । इम एक वर्ण नां ५ विकल्प हुदै । अनं द्विप्रदेशिक खंध नै विषे कदा बे वर्ण हवे तो तेहना दश विकल्प---- एक प्रदेश कृष्ण वर्ण, एक प्रदेश नील वर्ण १, एक प्रदेश कृष्ण वर्ण, एक प्रदेश लाल वर्ण २, एक प्रदेश कृष्ण, एक प्रदेश पीलो ३, एक प्रदेश कृष्ण, एक प्रदेश धवलो ४, एक प्रदेश नीलो, एक प्रदेश लाल ५, एक प्रदेश नीलो, एक प्रदेश पीलो ६, एक प्रदेश नीलो, एक प्रदेश धवलो ७, एक प्रदेश लाल, एक प्रदेश पीलो ८, एक प्रदेश लाल, एक प्रदेश धवलो ९, एक प्रदेश पीलो, एक प्रदेश धवलो १० । एवं द्विप्रदेशी खंध नै विषे पनर विकल्प हुवै। ३६. कदा गंध ह एक रे, कदाचित वली । दोय गंध पिण दाखिय ए ।। वा० द्विप्रदेशिक खंध में जो एक गंध हुवे तो तेहनां बे भांगा, ते बेहुं प्रदेश दुर्गंध ह्र १ तथा बेहुं प्रदेश सुगंध ह्र २ । जो दोय गंध हुवै तो तेहनों एक भांगो; एक प्रदेश दुगंध नै एक प्रदेश सुगंध । ३७. कदाचित रस एक रे, कदाचित वलि । तास दोय रस भाखियै ए॥ वा--द्विप्रदेशिक खंध में जो एक रस हुवै तो तेहनां पंच विकल्प-बिहुँ प्रदेश तिक्त रस हुदै १ तथा बिहुँ कटुक रस २, तथा बिहु कषायला ३ तथा बेहुं खाटा ४ तथा बेहुं मीठा ५ । हिवं द्विप्रदेशिक खंध में, बे रस हुवै तो तेहनां दश विकल्प -एक प्रदेश तिक्त, एक प्रदेश कटुक १, एक प्रदेश तिक्त, एक प्रदेश कषायलो २, एक प्रदेश तिक्त, एक प्रदेश खाटो ३, एक प्रदेश तिक्त, एक प्रदेश मधुर ४, एक प्रदेश कटुक, एक प्रदेश कषायलो ५, एक प्रदेश कटक, एक प्रदेश खाटो ६, एक प्रदेश कटक, एक प्रदेश मधुर ७, एक प्रदेश कषायलो, एक प्रदेश खाटो ८, एक प्रदेश कषायलो, एक प्रदेश मधुर ९, एक प्रदेश खाटो, एक प्रदेश मधुर १० । ३८. फर्श कदाचित दोय रे, स्पर्श त्रिण कदा। कदाचित चिउं फर्श छै ए।। वा०-द्विप्रदेशिक खंध नै विषे जो बे फर्श हुवै तो तेहना च्यार विकल्प हुवं--शीत स्निग्ध नों १, शीत रुक्ख नों २, उष्ण स्निग्ध नों ३, उष्ण रुक्ख नों ४। ____ एवं कदाचित तीन फर्श हुवै तो तेहनां च्यार विकल्प-बेहुं प्रदेश में एक स्निग्ध, एक रूक्ष ते बेहुं शीत १ तथा एक स्निग्ध, एक रूक्ष ते बिहुं उष्ण २ तथा एक शीत, एक उष्ण ते बिहुँ स्निग्ध ३ तथा एक शीत, एक उष्ण ते बिहुं लुक्ख ४। . ३८. सिय दुफासे, सिय तिफासे, सिय चउफासे पण्णत्ते । (श०१८।११२) वा०–'सिय दुफासे' त्ति प्रदेशद्वयस्यापि शीतस्निग्धत्वादिभावात्, इहापि त एव चत्वारो विकल्पाः, 'सिय तिफासे' त्ति इह चत्वारो विकल्पास्तत्र प्रदेशद्वयस्यापि शीतभावात्, एकस्य च तत्र स्निग्धभावात् द्वितीयस्य च रूक्षभावादेकः, 'एवम्' अनेनैव न्यायेन प्रदेशद्वयस्योष्णभावाद्वितीयः, तथा प्रदेशद्वयस्यापि स्निग्धभावात् तत्र चैकस्य शीतभावादेकस्य चोष्णभावात्तृतीयः, 'एवम्' अनेनैव न्यायेन प्रदेशद्वयस्य रूक्षभावाच्चतुर्थ इति । १५८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational ucation international Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदा च्यार फर्श हु तो तेहनों १ विकल्प -- एक प्रदेश शीत, उष्ण, तेहि बिहुं प्रदेश र विषे एक स्निग्ध, एक लुक्ख । एवं सर्व ४२ । रीत है । ए ॥ ४०. कदाचित वर्ण एक रे, वे वर्ण हुवे कदा । कदा वर्ण त्रिण पाइये ए ।। ३९. तीन प्रदेशिक बंध रे, इणहिज णवरं इतो विशेष वा० कदाचित एक वर्ण हुवै तेहनां ५ विकल्प कदाचित दोय वर्ण दुवै तो ३० विकल्प | कदाचित तीन वर्णं हुवै तो तेहनां दश विकल्प । एवं ४५ भांगा जाणवा । ४१. रस में विषे पिछाण रे, इणहिज रीत सूं । वर्ण तणी पर भावियँ ए ॥ ४२. दोय प्रदेशिक जेम रे, शेष कहीजिये । जूजुआ भंग विचारि ए ।। । वा०-- गंध नां पांच कदा एक गंध हुवै तो तेहनां दोय भांगा । कदा दोय गंध हुवै तो तेहनां तीन भांगा। फर्श नां २५ भांगा । एवं सर्व एकसौ वीस भांगा त्रिण प्रदेशिया खंध नां हुवै । आगे बीसमां शतक नैं विषे कहिल्यै तिम जाणवा । ४३. च्यार प्रदेशिक बंध रे, इणहिज रीत सूं । जयाजोग अवधारिये ए ॥ रे, एक वर्ण कदा । जाव कदा चिउं वर्ण छै ए ।। मांहि रे, शेष तिमज सहु । गंध फर्श नां भंग छै ए ॥ ४४. नवरं इतो विशेष ४५. इमहिज रस रै एक प्रदेश वा० - चतुः प्रदेशिक खंध नैं विषे वर्ण नां भांगा ९० । गंध न ६ । रस नां ९० । स्पर्श नां ३६ । एवं सर्व २२२ भांगा हुवै। ४६. पंच प्रादेशिक एम रे, णवरं ह्रौ कदा । इक वर्ण यावत पंच ही ए ॥ ४७. एवं रस रे मोहि रे, गंध रु फर्श नां कहिवा तिमज सुसंच ही ए ॥ वा०-- पंच प्रदेशिक बंध नैं ४७४ भागा। ए सगला वीसमां शतक ने पंचमे उद्देसे विवरा सहित कहिस्यै । ४८. पंच प्रादेशिक जेम रे, आख्यूं तिण विधे । ४९. सूक्ष्म परिणत यावत असंखप्रदेशियो ए ॥ बंध रे, अनंत प्रदेशिके । वर्ण किता प्रभु! आखिये ए ? ५०. जिम पंच प्रदेशिक बंध रे, आयो तिह विधे कहिवूं सगलो चित धरी ए ॥ ५१. बादर परिणत बंध रे, अनंत प्रदेशिके । वर्ण किता ? पूछा करी ए ॥ 'सिय चउफासे' त्ति इह 'देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे' त्ति वक्ष्यमाणवचनादेकः । ( वृ० प० ७४९ ) ३९. (सं०गा० ) एवं पिसिए व नवरं ४०. सिव एमवणे, यि दुवणे, विवि ४१. एवं रसेवि ४२. सेसं जहा दुपएसियस्स । (पाटि०११) ( पाटि० ११) ( पाटि० ११) ( पाटि० ११) ४३. एवं चउपएसिए वि । ( पाटि० ११) ४४. नवरं - सिय एगवण्णे जाब सिय चउवण्णे । ४५. एवं रसेसु वि, सेसं तं चेव । ( पाटि० ११) (पाहि० ११) ४६. एवं पंचपएसिए वि नवमि एच पंचवण्णे । , ४७. एवं रसेसु वि, गंधफासा तहेव । जाव सिय ( पाटि० ११) (पाटि ११) ४८. जहा पंच एवं जाव अपएसिको भंते ! ४९. परिण कतिवण्णे ? ५०. जहा पंचपएसिए तहेव निरवसे । ( श० १८ ।११६ ) ५१. बादरपरिणए णं भंते! अनंतपएसिए बंधे कतिवग्गे ? पुच्छा (सं०पा० ) श०१८, उ० ६, ढा० ३७७ १५९ ( श० १८ । ११५ ) अतएसिए बंधे Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. श्री जिन भाखे सोयरे, एक वर्ण कदा | जाव कदा वर्ण पंच ही ए ॥ ५३. कदाचित गंध एक रे, कदाचित कदाचित बली । दोय गंध नों संच ही ए ॥ ५४. कदाचित रस एक रे, जाव कदाचित | रस पांचू जाणियै ए ॥ ५६. सेवं भंते! ५५. कदाचित चिउं फास रे, जाव कदाच ही । आठ फर्श ही चाणि ए ॥ शतक अठारमें। अर्थ छठे हम आखिए । रसाल रे, त्रिण सय ऊपरै । सितंतरमी भाखिये ए ॥ स्वाम रे, ५७. दाखी ढाल ५८. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय रे, तास प्रसाद थी । 'जय जश' सुख संपत्ति मिली ए ।। ५९. सतरं संतालीस रे, मुनिवर ने अज्जा | बीदासर में रंगरली ए ।। अष्टादशशते षष्ठोद्देशकार्यः ।। १८२६ ।।] १. षष्ठमुद्देशक मांहि वस्तु विचार ताहि, २. सप्तम उद्देशे सार, कहियै तास विचार, ढाल : ३७८ दुहा ३. नगर राजगृह नें विषे गोयम प्रभु नो विनय करि, यावत एम वदंत । प्रवर प्रश्न पूछत ।। *जय जय ज्ञान जिनेंद्र नों ।। (ध्रुपदं ) ४. अन्ययूथिक प्रभु ! इम कहै, जाव परूपै एम हो । प्रभुजी ! इम निश्च करि केवली, जक्ष अधिष्ठियं तेम हो । प्रभुजी ! १६० सोरठा नयवादी मत आश्रयी । आख्यो छँ गुल प्रमुख जे ।। अन्ययूथिक मत आश्रयी । इण संबंध करि प्रश्न धुर । ५. इम निश्च करि केवली, जक्ष अधिष्ठयं थकेह हो । प्र० ! मृषा नैं वलि मिश्र ही, ए बिहु भाषा बदेह हो । प्र० ! *लय : नाडो भरियो छँ डेडक भगवती जोड़ ५२. गोयमा ! सिय एगवण्णे जाव सिय पंचवण्णे । ५३. सिय एगगंधे, सिय दुगंधे । ५४. सिय एगरसे जाव सिय पंचरसे । ५५. सिय चउफासे जाव सिय अट्ठफासे पण्णत्ते । ( ० १०० ११०) ( श० १८ ।११८ ) ५६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । १. षष्ठोदेशके नयवादिमतमाश्रित्य वस्तु विचारितं । ( वृ० प० ७४५ ) विभा ( वृ० प० ७४९ ) २. सप्तमे स्वयमतमाश्रित्य सम्बन्धस्वास्येदमादिसूत्रम् ३. रायगिहे जाव एवं वयासी ४. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइवखति जाव परूवेति एवं केवली जाए आइस्सह । 'आविश्यते' अधिष्ठीयत इति । (वु प० ७४९) ५. एवं केवली जाणं आट्ठे समा आहच्च दो भासाओ भासति तं जहा-मोसं वा, सच्चामोस वा । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ते किम ए भगवंत जी ? भाखै जिन गुणगेह हो ।गोयमजी! अन्ययूथिक जाव इम कहै, ते मिथ्या वचन वदेह हो।गोयमजी! ७. हूं पिण गोयम ! इम कहूं, वलि भाखू छु एम हो ।गो०! पण्णवू नैं परूपू वली, सांभलजोधर प्रेम हो ।।गो०! ८. इम निश्चै करि केवली, जक्ष अधिष्ठ्य नांहि हो ।सुगुणजन! वृत्तिकार इम आखियो, अनंत वीर्यपणां थी ताहि हो।।सूगुणजन! ६. से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा ! जण्णं ते अण्ण उत्थिया जाव जे ते एव माहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु । ७, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि भासेमि पण्णवेमि परूवेमि। ८. नो खलु केवली जक्खाएसेणं आइस्सइ । नो खलु केवली यक्षावेशेनाविश्यते अनन्तवीर्यत्वात्तस्य । (वृ० ५० ७४९) ९. नो खलु केवली जक्खाएसेणं आइठे समाणे आहच्च दो भासाओ भासति, तं जहा-मोसं वा, सच्चामोसं वा। १०. केवली णं असावज्जाओ अपरोवघाइयाओ आहच्च दो भासाओ भासति, तं जहा-सच्चं वा असच्चामोसं वा। (श० १८।११९) ९. निश्चै करिनें केवली, जक्ष अधिष्ठय छतेह हो ।गो०! बे भाषा कदेई बोलै नहीं, असत्य अनैं मिश्र जेह हो।।गो०! १०. सत्य अनै व्यवहार बे, सावज्ज पाप रहीत हो ।गो.! पर उपघात न ऊपजै, बोले किवारे सूरीत हो ।।गो०! सोरठा ११. वच सत्यादि वदंत, बोलता जे केवली । विचित्र वस्तु कहंत, उपधि परिग्रह आदि दे ।। १२. ते उपध्यादिक जाण, देखाड़ण में अर्थ हिव । गोयम प्रश्न पिछाण, चित्त लगाई सांभलो ।। १३. *हे भगवंत जी ! कतिविध, उपधि परूप्या आप हो ? गो०! जिन कहै त्रिविध परूपिया, उपष्टंभ जिणे करि व्याप हो।गो०! ११,१२. सत्यादिभाषाद्वयं च भाषमाण: केवली उपधि परिग्रहप्रणिधानादिकं विचित्रं वस्तु भाषत इति तद्दर्शनार्थमाह (वृ०प० ७४९) १४. कर्म शरीर उपधि वली, ए बेहुं थी जुदो ते बाह्य हो ।गो०! भंड मात्र उपकरण ही, हिव तसु अर्थ संग्राह्य हो ।गो०! १३. कतिविहे णं भंते ! उवही पण्णत्त ? गोयमा! तिविहे उवही पण्णत्ते, तं जहातत्र उपधीयते-उपष्टभ्यते येनात्माऽसावपधिः, (वृ० प० ७५०) १४. कम्मोवही, सरीरोवही, बाहिरभंडमत्तोवगरणोवही। (श० १८।१२०) 'बाहिरभंडमत्तोवगरणोवही' ति बाह्य-कर्मशरीरव्यतिरिक्ते ये भाण्डमात्रोपकरणे तद्रूपो य उपधिः स तथा, (व० ५०७५०) सोरठा १५. भंड मात्र संवादि, भाजन रूपज उपस्कर । उपकरण वस्त्रादि, तृतीय भेद ए जाणवो ।। १६. *नारक नीं पूछा कियां, जिन कहै दोय प्रकार हो ।गो०! कर्म उपधि पहिलो कह्यो, वलि तनु उपधि विचार हो ॥गो०! १७. शेष एकेंद्रिय वर्ज नैं, त्रिविध उपधि छै तास हो ।गो०! यावत वैमानिक लगै, ए जिन वचन प्रकास हो ।गो.! १८. हिवै एकेंद्रिय जीव नै, उपधि छै दोय प्रकार हो ।गो०! कर्म उपधि कहिये तसु, शरीर उपधि वलि धार हो ।गो०! १९. कतिविध उपधि कह्या प्रभु ! जिन कहै तीन प्रकार हो ।गो०! सचित्त अचित्त नै मिश्र ही, इम नरकादि विचार हो ।गो०! * लय : नाडो भरियो छ डेडक १५. तत्र भांडमात्रा--भाजनरूपः परिच्छद: उपकरणं च-वस्त्रादीति, (वृ० ५० ७५०) १६. नेरइया णं भंते !-पुच्छा। गोयमा ! दुविहे उवही पण्णत्ते, तं जहा-कम्मोवही य, सरीरोवही य। १७. सेसाणं तिविहे उवही एगिदियवज्जाणं जाव वेमाणियाणं । १८, एगिदियाणं दुविहे उवही पण्णत्ते, तं जहा कम्मोवही य, सरीरोवही य। (श० १८।१२१) १९. कतिविहे णं भंते ! उवही पण्णते? गोयमा ! तिविहे उवही पण्णत्ते,तं जहा-सच्चित्ते, अचित्ते, मीसए । एवं नेरइयाण वि। श० १८, उ०७ढा० ३७८ १६१ Jain Education Intemational Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २०. सचित्त तिको तनु तास, उत्पत्ति स्थान अचित्त छ । मिश्र शरीर उस्वास, तेह प्रमुख पुद्गल कह्या ।। २१. उस्वासादि युक्त, तनु नैं मिश्र कह्यो वृत्तौ। सचित्त अचित्त ही उक्त, मिश्रपणों वांछचो तसु ।। २२. “त्रिविध उपधि सहु स्थानके, कहिवा सर्व विचार हो ।गो०! यावत वैमानिक लगै, ए जिन वयण उदार हो ॥गो०! २३. कतिविध हे भगवंत जी! कह्यो परिग्रह स्वाम! हो ।प्र०! जिन भाखै सुण गोयमा ! त्रिविध परिग्रह ताम हो ।गो०! २४. कर्म परिग्रह धुर कह्यो, शरीर परिग्रह सोय हो ।प्र०! तृतीय बाह्य भंड मात्र ही, उपकरण जे अवलोय हो ॥प्र.! सोरठा २५. उपष्टंभ कर्तार, उपधि कहीजे तेहने । ममत्व बुद्धि करि धार, ग्रहण करै ते परिग्रह ।। २६. *नारकी ने भगवंत जी ! जिम उपधि संघाते जोय हो ।प्र! पूर्वे दंडक बे कह्या, तिम परिग्रह संघाते दोय हो ॥प्र०! २०,२१. तत्र नारकाणां सचित्त उपधि:-शरीरम् अचित्त उत्पत्तिस्थानं मिश्रस्तु-शरीरमेवोच्छ्वासादिपुद्गलयुक्तं तेषां सचेतनाचेतनत्वेन मिश्रत्वस्य विवक्षणादिति। (वृ०प०७५०) २२. एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं । (श० १८१२२) २३. कतिविहे णं भंते ! परिग्गहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा२४. कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे बाहिरगभंड मत्तोवगरणपरिग्गहे। (श० १८११२३) २५. उपकारक उपधिः ममत्वबुद्धया परिगृह्यमाणस्तु परिग्रह इति । (वृ० प० ७५०) २६. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे परिग्गहे पण्णत्ते ? एवं जहा उवहिणा दो दंडगा भणिया तहा परिग्गहेण वि दो दंडगा भाणियव्वा । (श० १८।१२४) २७. कतिविहे णं भंते ! पणिहाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहामणपणिहाणे, वइपणिहाणे, कायपणिहाणे । (श० १८।१२५) २७. हे प्रभुजी ! प्रणिधान ते, आख्यो है कितलै प्रकार हो? प्र! जिन कहै त्रिविध परूपिया, मन वच काय व्यापार हो।गो! सोरठा २८. प्रकर्षे करि ताय, निश्चित आलंबन विषे । धरवो मन वच काय, कहियै छै प्रणिधान तम् ।। २९. *नारकी ने प्रणिधान ते, हे प्रभु ! कितलै प्रकार हो ।प्र.! एवं चेव त्रिविध कह्यो, इम जाव थणियकुमार हो ।गो०! ३०. पूछा पृथ्वीकाय नीं, तब भाखै जिनराय हो ।गो०! एक काय प्रणिधान छै, इम जाव वनस्पतिकाय हो ॥गो०! ३१. प्रश्न बेंद्री नों कियां, जिन कहै बे पहिछाण हो ।गो.! वचन प्रणिधान भाखियो, वलि काया प्रणिधान हो।गो! २८. 'पणिहाणे' त्ति प्रकर्षेण नियते आलम्बने धानं --- धरणं मनःप्रभृतेरिति प्रणिधानम् । (वृ०प०७५०) २९. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे पणिहाणे पण्णत्ते ? एवं चेव । एवं जाव थणियकुमाराणं । (श० १८।१२६) ३०. पुढविकाइयाणं-पुच्छा । गोयमा ! एगे कायपणिहाणे पण्णत्ते । एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । (श० १८।१२७) ३१. बेइंदियाणं-पुच्छा। गोयमा ! दुविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा वइपणिहाणे य, कायपणिहाणे य । ३२. एवं जाव चउरिदियाणं । सेसाणं तिविहे वि जाव वेमाणियाणं । (श० १८।१२८) ३३,३४. कतिविहे णं भंते ! दुप्पणिहाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहामणदुप्पणिहाणे, जहेव पणिहाणेणं दंडगो भणिओ तहेव दुप्पणिहाणेण वि भाणियव्वो। (श० १८।१२९) ३२. इम जाव चरिद्री लगै, शेष में त्रिविध कहाय हो ।गो०! यावत वैमानिक लगे, ए सन्नी पंचेंद्रिय मांय हो ।गो०! ३३. दुप्रणिधान प्रभु ! कतिविधे? ए अशुभ योग व्यापार हो ।गो०! जिन कहै त्रिविध परूपिया, मन वच काय विचार हो ।गो०! ३४. जिमहिज प्रणिधाने करी, दंडक पूर्व आख्यात हो ।गो०! तिमज दुप्रणिहाणे करी, दंडक भणवा विख्यात हो ॥गो०! * लय : नाडो भरियो छ डेडक १६२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. सुप्रणिधान प्रभु ! कतिविधे? ए चरण सहित व्यापार हो।प्र०! जिन कहै त्रिविध परूपिया, मन वच काय विचार हो ।गो०! ३६. मनुष्य विषे प्रभु ! कतिविधे, सूपणिहाण कहिवाय हो?प्र.! एवं चेव कहीजिये, ए संजती मनुष्य सुहाय हो ।गो०! ३७. सेवं भंते ! जाव विचरता, तिण अवसर महावीर हो ।गो०! यावत बाहिर जनपदे, विहार करै गुणहीर हो॥प्र०! ३५. कति विहे णं भंते ! सुप्पणिहाणे पण्णते ? गोयमा ! तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, त जहा -- मणसुप्पणिहाणे, वइसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे । (श० १८।१३०) ३६. मणुस्साणं भंते ! कतिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते ? एवं चेव। (श० १८।१३१) ३७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श० १८।१३२) तए णं समणे भगवं महावीरे।। जाव (सं. पा.) बहिया जणवयविहारं विहरइ । (श० १८।१३३) ३८. इकसौ सत्यासी नों देश ए, त्रिण सय अठंतरमी ढाल हो ।सु०! भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल हो ।सु०! ढाल : ३७९ दहा १. तिण काले नैं तिण समय, नगर राजगृह जान । गुणसिल नामा चैत्य छै, वर्णक योग्य बखाण ॥ २. यावत पृथ्वी सिलापट्ट, तिण गुणसिल थी जेह । नहिं अति दूर नजीक अति, बहु अन्ययूथिक वसेह ।। ३. कालोदाई धुर कह्यो, सेलोदाई एष । जिम सप्तम शतके' अख्यो, अन्यतीथिक उद्देश ।। ४. ते लेसमात्र देखाड़िय, कालोदाई आदि। अन्ययूथिक मिल एकठा, मिथःकथा संवादि ।। ५. महावीर इम वागर, प्रगट काय पंचास्ति । धर्माधर्म आकाश फुन, पुदगल ने जीवास्ति ।। ६. जोवास्ति नै जीव कहै, आखै च्यार अजीव । पुद्गलास्ति रूपी कहै, अन्य अरूपी कहीव ।। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे । गुणसिलए चेइएवण्णओ २. जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति, ३. कालोदाई, सेलोदाई, एवं जहा सत्तमसए अण्णउत्थियउद्देसए (सं० पा०) (श० १८।१३४) ४. तए णं तेसिं अण्णउत्थियाणं अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्थातस्यार्थतो लेशो दर्श्यते- (वृ०प० ७५२) ५. एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पण्णवेति, तं जहा-धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं । ६. तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीव काए पण्णवेति, "एगं च णं "जीवत्थिकायं अरूविकायं जीवकायं पण्णवेति ।"चत्तारि अत्थिकाए अरूविकाए पण्णवेति,""एगं च णं.... पोग्गलत्यिकायं रूविकायं अजीवकायं पण्णवेति । ७. से कहमेयं मन्ने एवं ? (श०१८१३५) __मन्ये इति वितर्कार्थः । (वृ० प०७५३) ८. तत्थ णं रायगिहे नगरे मदुए नाम समणोवासए परिवसति ७. ते किम ए वस्तू अछ ? मन्ये वितर्क अर्थ । __अन्यतीथिक नी इहां लगै, वक्तव्यताज तदर्थ ।। ८. तिहां नगर राजगृह नै विषे, मद्दुक एहवै नाम । __ श्रमणोपासक शोभतो, वसै अधिक गुणधाम ।। १. भ० श० ७।२१२, २१३ । २. कहीं-कही मंडक नाम मिलता है। पाठान्तर, लिपिभेद अथवा भाषाभेद के कारण ऐसा हुआ है, यह संभव लगता है । श० १८, उ० ७ ढा० ३७८,३७९ १६३ Jain Education Intemational nal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. अड्ढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए, अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ। (श० १८११३६) १०. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कदायि पुवाणुपुब्वि चरमाणे ९. ऋद्धिवंत यावत तिको, गंज सकै नहिं कोय । जाण्या जीव अजीव नै, यावय विचरै सोय ॥ _ *प्रभू आविया रे, आया प्रभु जगतारक जाण, संशय-तिमिर हरण जगभाण । जिन आविया रे ॥(ध्रुपदं) १०.तिण अवसर भगवंत महावीर, परम तपस्वी गुणमणि हीर। __प्रभु आविया रे। अन्य दिवस प्रभुजी किणवार, पूर्वानुपूर्वे करत विहार ॥ प्रभु आविया रे। ११. जाव समोसरचा गुणसिल बाग, पुर-जन सुण मन हरष अथाग। परिषद यावत सेव करत, श्री जिन दर्श देख हरपंत ।। १२. मद्दुक श्रमणोपासक तिवार, वीर आगमन कथा सुण सार । हरष संतोष पायो अधिकाय, ___ यावत तास हृदय विकसाय ।। १३. स्नान करी तनु कियो सुचंग, यावत अलंकृत करि अंग। नीकलियो निज घर थी बार, पाळो चरण विहारे चार॥ ११. जाव (सं. पा) समोसढे परिसा जाव पज्जुवासति । (श० १८।१३७) १२. तए णं मद्दुए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धठे समाणे हट्टतुट्ठ जाव (सं. पा.) यिए १४. नगर राजगृह यावत जान, निकलै मध्य थई पुन्यवान । ए अन्यतीर्थी सूं नहिं दूर, नहिं अति निकट चलै मग चूर ।। १३. हाए जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पादविहारचारेणं १४. रायगिहं नगरं मझमझेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता तेसि अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीईवयइ । (श० १८११३८) १५. तए णं ते अण्णउत्थिया मद्यं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं पासंति, १६. पासित्ता अण्णमण्णं सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! १७. अम्हं इमा कहा अविपकडा, १५. ते अन्ययूथिक बहु तिहवार, मदुक श्रावक प्रति अवधार। नहिं अति दूर नजीक न कोय, गमन करंतो देख्यो सोय ।। १६. माहोमांहि तेड़ावी ताय, आपस में बोल्या इम वाय । इम निश्च करिनै अवलोय, अहो देवानुप्रिया ! इम होय ।। १७. एह कथा उत्प्रबलपणेह, आपे कीधी हिवड़ा एह । पंचास्तिकाय अजाणपणेह, आपे प्रगट कथा करि एह ।। १८. मदुक श्रावक एह कहाय, आपां सं दूर नजीक न जाय । निश्चै अम्हनें श्रेय छै ताय, मदुक प्रति पूछीजै जाय ॥ १९. इम कही माहोमांहि तिवार, एह अर्थ कीधो अंगीकार । अंगीकार करिने सुविमास, आवै मदुक श्रावक पास ।। १८. इमं च णं मददुए समणोवासए अम्हं अदूरसामंतेणं वीईवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं मद्दुयं समणोवासयं एयमट्ठ पुच्छित्तए १९. त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतियं एयमट्ठं पडिसुणे ति, पडिसुणेत्ता जेणेव मद्दुए समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, २०. उवागच्छित्ता मदुयं समणोवासयं एवं वदासी-- एवं खलु मदुया ! तव धम्मायरिए २१. धम्मोवदेसए समणे नायपुत्ते पंच अस्थिकाए पण्णवेइ, जहा सत्तमे सए (सू० २१३) अण्णउत्थिउद्देसए (सं० पा०) २०. मद्दुक श्रावक पासे आय, मद्क प्रति बोलै इम वाय । इम निश्चै हे मद्दुक ! जाण, थारा धर्माचार्य पिछाण ।। २१. धर्म तणां उपदेशक तोय, श्रमण ज्ञातसुत ते अवलोय । पंचास्तिकाय कहै सुविशेष, जिम सप्तम शत अन्ययूथिक उद्देस ।। लय : खिण गई रे, मेरी खिण गई १६४ भगवती जोड़ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यार, २२. कहै अचेतन ब्यार अरूपी धार, २३. "यावत ते किणविध ते मद्दुक धावक तिगवार, सोरठा चेतन जीवास्ति कहै । पुद्गलास्ति रूपी कहै ।। ह एह, हे मदु ! ककह्यं वच जेह ? २४. धर्मास्तिकायादिक जोय, अन्यतीर्थिक प्रति वदै विचार || यतनी २८. हिवे मद्दुक श्रावक उपालंभ देता थका, निज कार्य करें यदि कोय। तिणे कार्य करिकै सुसाधि, म्हे जाणां देखा धर्मास्तिकायादि ॥ २५. जिम धूम्रादिके करि तेह, जाणिये अग्नि प्रमुलेह । अथ ते कार्य करे नहि कोय, तो नहि जाणां देखा सोय ।। २६. इहां छै एवं अभिप्राय, चर्म चक्षु छद्मस्थ नैं ताय । अतींद्रिय वस्तुनो ज्ञान कार्यादि लिंग थकीज पिछान || २७. चिह्न धर्मास्ति आदि नो सोइ, म्हांने प्रगट न दीसे कोड तिम कारण धर्मास्तिकायादि नहि प्रगट जाणां हे संवादि ॥ भणी, अन्ययूथिक तिणवार । वचन वदे अविचार || २९. अहो मद्दुक ! तूं विमासी जोय, जाणवा जोग्य धर्मास्तिकायादि, किसा भावका में तूं होय । ते नहि जाणे न देखें संवादि ? ते धर्मास्तिकायादिक मांहि । तूं नहिं जाणें नहि देखंत, तो ए वस्तू किणविध हुंत ॥ ३१. अदृश्यमानपणें करि एह धर्मास्तिकायादि कहे। ३०. चतापणुं लक्षण जे ताहि तास असंभव कहियै एम, छती वस्तु तूं मानै केम || ब्रहा ३२. तिण अवसर मदूक ते श्रमणोपासक सार । अन्यतीर्थिक प्रतै इह विधे, वदे वचन सुविचार ॥ *लय : खिण गई रे, मेरी खिण गई २२. तं चैव जाव रूविकायं अजीवकायं पण्णवेइ । २३. जाव (सं. पा.) से कहमेयं मदुए ! एवं ? (०१८ १२९) तए से मद्दुए समगोवास ते अण्णउत्थिए एवं वयासी २४, २५. जति कज्जं कज्जति जाणामो पासामो, अहे कज्जं न कज्जति न जाणामो न पासामो । (४० १८१४० ) 'जइ कज्जं कज्जइ जाणामो-पासामो' त्ति यदि तैर्धर्मास्तिकायादिभिः कार्यं स्वकीयं क्रियते तदा तेन कार्येण तान् जानीमः पश्यामश्चावगच्छाम इत्यर्थः धूमेनाग्निमिव अथ कार्य तेनं क्रियते तदा न जानीमो न पश्यामश्च, ( वृ० प० ७५३ ) २६.२७. अयमभिप्रायः कार्यादिलिङ्गारे मतीन्द्रियपदार्थावगमो भवति, न च धर्मास्तिकायादीनामस्मत्प्रतीतं किञ्चित् कार्यादिलिङ्ग दृश्यत इति तदभावातन्न जानीम एव वयमिति । ( वृ० प० ७५३) २८. तए णं ते अण्णउत्थिया मदुयं समणोवासयं एवं वयासी अथ मदुकं धम्मस्तिकायापरिज्ञानाभ्युपगमवन्तमुपालम्भयितुं यत्ते प्रास्तदाह ( वृ० प० ७५३ ) २९. केस णं तुमं मदुया ! समणोवासगाणं भवसि जे णं तुमं एयमट्ठे न जाणसि न पाससि ? यस्त्वमेतमर्थं श्रमणोपासकज्ञेयं ( श० १८ । १४१ ) ( वृ० १०७५३) ३०. धर्मास्तिकायाद्यस्तित्वलक्षणं न जानासि न पश्यसि ? न कश्चिदित्यर्थः । ( वृ० प० ७५३ ) ३१. अथैवमुपालब्धः सन्नसौ यत्तैरदृश्यमानत्वेन धर्मास्तिकायाद्यसम्भव इत्युक्तं घटनेन तान् ( वृ० प० ७५३ ) प्रतिहन्तुमिदमाह ३२. तए णं से मदुए समणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं वयासी श० १८, उ०७, ढाल ३७९ १६५ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. *अहो आउषावंत ! विचार, वायु वाजे छै इणवार? अन्यतीथिक तब बोल्या ताय, हंता अस्थि वाजै वाय ।। ३३. अस्थि णं आउसो ! वाउयाए वाति ? हंता अत्थि । ३४. तुन्भे णं आउसो वाउयायस्स बायमाणस्स रूवं यतनी ३४. हिवे मद्दुक इम बोलंत, तुम्हे अहो आउखावंत ! वाजतो थको ए वाय, तसु रूप देखो छो ताय? ३५. तब अन्यतीर्थी कहै ताय, ए अर्थ समर्थ न थाय । ए प्रत्यक्ष वाजै वाय, पिण म्हारै तो दृष्टि न आय ।। पासह ? ३५. नो इणठे समठे। ३७. अस्थि णं आउसो ! घाणसहगया पोग्गला ? हंता अस्थि । दूहा ३६. ए धुर प्रश्नज आखियो, अन्यतीथिक प्रति सोय । द्वितीय प्रश्न पूछे हिवै, श्रावक मदुक जोय ।। ३७.* अहो आयुष्मन ! गंध गुण सहीत, नासिका साथ मिल्यां तूं प्रतीत । पुद्गल छै इम पूछयां ताय? हंता अत्थि अन्ययूथिक वाय ॥ यतनी ३८. तुम्हे अहो आउषावंत ! गंध गुणे सहित अत्यंत । मिलियां नासिका साथ तद्रूप, तुम्है देखो छो पुद्गल रूप ? ३८. तुम्भे णं आउसो ! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं पासह ? घ्राणो गन्धगुणस्तेन सहगता:-तत्सहचरिता स्तद्वन्तो घ्राणसहगताः (वृ० प० ७५३) ३९. नो इणठे समठे। ३९. जब अन्यतीर्थी कहै वाय, ए अर्थ समर्थ छै नाय । गंध आदि छै नासिका मांय, पिण म्हारे तो निजर न आय ।। ४०. द्वितीय प्रश्न ए आखियो, मदुक अतिमतिमंत । तृतीय प्रश्न पूछ वली, अहो आउषावंत ! ४१. अग्नि अर्थ अरणीज मथंत, तेह संघात अग्नि उपजंत । प्रत्यक्ष इम ऊपजै छै ताय? हंता अत्थि अन्ययूथिक वाय ।। ४१. अत्थि णं आउसो! अरणिसहगए अगणिकाए? हंता अस्थि । 'अरणिसहगए' त्ति अरणि:-अग्न्यर्थ निर्मन्थनीयकाष्ठं तेन सह गतो यः स तथा तं (वृ०प०७५३) यतनी ४२. वलि मदुक इम पूछंत, तुम्हे अहो आउषावंत ! अरणी साथ मिल्यो तेउ रूप, तिणनें देखो छो तुम्है तद्रप? ४३. जब अन्यतीर्थी कहै वाय, ए अर्थ समर्थ छै नाय । अरणी साथ मिलै तेउकाय, पिण अरणी में निजर न आय ॥ ४२. तुब्भे णं आउसो ! भरणिसहगयस्स अगणिकायस्स रूवं पासह ? ४३. नो इणठे समझें। दहा ४४. तृतीय प्रश्न ए आखियो, हिवे तुर्य पूछंत । मद्दुक अन्ययूथिक ने कहै, अहो आउषावंत ! *लय : खिण गई रे, मेरी खिल गई १६६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. "हे आउषावंत ! विचार, छै बहु रूप समुद्र ने पार । रूप ते नर प्रमुख नांताय ?हंता अस्थि अन्ययूथिक वाय ।। ४६. हिवै मद्दुक तसु पूछंत, तुम्है अहो आउषावंत ! रूप रह्या समुद्र में पार, तुम्है देखो छो इणवार? ४७. जब अन्यतीथिक कहै ताहि, अर्थ समर्थ ए नांहि । दधि पार रूप बहु इष्ट, पिण म्हारै तो नहिं आवै दृष्ट ।। ४५. अत्थि णं आउसो ! समुद्दस्स पारगयाइं रूवाई ? हंता अत्थि । ४६. तुन्भे णं आउसो ! समुद्दस्स पारगयाइं रूवाई पासह ? ४७. नो इणठे समझे। ४९. अत्थि णं आउसो! देवलोगगयाई रूवाइं? हंता अस्थि । ५०. तुब्भे णं आउसो ! देवलोगगयाइं रूवाई पासह ? ५१. नो इणढे समठे। ५२. एवामेव आउसो ! अहं वा तुब्भे वा अण्णो वा छउमत्थो दहा ४८. तुर्य प्रश्न ए दाखियो, हिव पंचम पृछंत। मदुक अन्ययूथिक प्रतै, इह विध वच पभणंत ।। ४६. *अहो आउषावंत ! तद्रूप, देवलोक में छै बहु रूप? अन्ययूयिक तब बोल्या वाय, हंता अस्थि रूप अथाय ।। यतनी ५०. तब मद्दुक एम भणंत, तुम्है अहो आउषावंत ! देवलोक में रूप अनूप, तुम्है देखो छो धर चूंप? ५१. जब अन्यतीर्थी कहै वाय, ए अर्थ समर्थ छै नाय । देवलोक में रूप अनेक, पिण म्है तो न देखां एक ।। ५२. *मद्दुक भाख इण दृष्टंत, निसुणो अहो आउषावंत! अम्है तथा तुम्है अथवा अन्य, छद्मस्थ जे केवल करि शून्य ।। ५३. जेह पदार्थ जाण नांहि, वलि चक्ष थी नहिं देख ताहि । तेह सर्व वस्तु नहिं होय, - इह विध जो तुम्ह कहिसो सोय । ५४. तो तुम लेखै अति बहु लोक, नहिं थास्यै ए तुम वच फोक । इम कही अन्ययूथिक प्रति जीप, चाल्यो आवै वीर समीप ।। ५५. गुणशिल चैत्य जिहां सुख सीर, जिहां छै भगवंत श्री महावीर। त्यां आवै मद्दुक धर खंत, जिन दर्शण नों हरष अत्यंत ।। ५३,५४. जइ जो जं न जाणइ न पासइ तं सव्वं न भवति, एवं भे सुबहुए लोए न भविस्सतीति कट्ट ते अण्णउत्थिए एवं पडिभणइ, ५५. पडिभणित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, दूहा ५६. प्रभु पासै आवी करी, स्वामी प्रति सुखवास । अभिगम पंचविधे करी, जाव करै पर्युपास ॥ ५६. उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं जाव पज्जुवासति । (श०१८।१४२) *लय : खिण नई रे, मेरी खिण गई श०१८, उ०७, ढा. ३७११६७ Jain Education Intemational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. देश अठारम सप्तम न्हाल, त्रिण सय गुणियासीमी ढाल। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश' संपति हरष सवाय ॥ ढाल : ३८० १. मदुयादी ! समणे भगवं महावीरे मदुयं समणो वासगं एवं वयासी २. सुट्ठ णं मदुया ! तुमं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, ३. साहु णं मया ! तुमं ते अण्णउत्थिए एवं वयामी, दूहा १. हे मदुक! इहविध कही, भगवंत श्री महावीर । श्रावक मदुक प्रति तदा, इम बोल्या गुणहीर ।। ____ *सयाणां वीर प्रभु इम वागर जी ।।(ध्र पदं) २. भला तुम्है ए मद्दुक ! भाख्या, होजी थे तो अन्यतीर्थ्यां प्रति दाख्या ।। ३. शोभन वाणी मददुका ! साची, होजी कही अन्यती प्रति आछी ॥ ४. धर्मास्तिकायादि हं नहिं जान, ___ होजी हूं तो प्रगटपणे न पिछानूं ॥ ५. अन्यतीर्थ्यां ने कह्या वच सारं, होजी थे तो छोड़ी मान अहंकारं ।। ६. हेतु जाव विविध वलि इष्टं, होजी थे तो कीधा पाखंड्यां नै कष्टं ॥ ७. साचा जाब दिया तज मानं, होजी ओ तो प्रगटपणे पहिछान ।। ८. तें कह्यो प्रगट न जाणू ताय, होजी तें तो तजियो मान दुखदाय ।। ९. अजाणतोज कहै हूं जाणं, होजी ते तो कर्म बंध नों है ठाणं ॥ १०. ते भणी मदुका! सांभल वाणी, होजी कांइ अर्थ हेतु प्रति माणी ।। ११. प्रश्न व्याकरण प्रतै वलि सोई, होजी ओ तो अणजाण्यो कहै कोई॥ १२. अणदीळं वलि अणसांभलियू, होजी ओ तो स्मृति भाव न धरियूं ॥ १३. वलि विशेष जाण्या नहीं ताहि, , होजी ते तो कहै घणां जन मांहि ॥ १४. पण्णवेइ जाव हेतु थी दिखावे, होजी तसु अर्हत आसातना थावै ॥ *लय : भवानी तू देवी भयमंजनी ए १०. जे णं मदुया ! अळं वा हे वा ११. पसिणं वा वागरणं वा अण्णायं १२. अदिळं अस्सुतं अमुयं १३. अविण्णायं बहुजणमझे आघवेति १४. पण्णवेति जाव (सं. पा.) उवदंसेति, से णं अरहंताणं आसादणाए वट्टति, १६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणाए वट्टति, १६. केवलीणं आसादणाए बट्टति १७. केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणाए वट्टति, १८. तं सुठु णं तुमं मदुया ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, १९. साहु णं तुमं मदुया ! जाव (सं. पा.) एवं वयासी। (श० १८।१४३) २०,२१. तए णं मद्दुए समणोवासए समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुठे २२. समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, १५. धर्म अरिहंत परूपियो जेह, होजी तेहनी आसातना वर्तेह ।। १६. केवली सर्वज्ञानी गुणवंत, होजी त्यांरी आसातना वर्तत ।। १७. केवलज्ञानी परूपियो धर्म, होजी त्यांरी करै आसातना कर्म ॥ १८. ते भणी भलो मद्दुक ! तुम्ह भाख्यो, होजी ओ तो अन्यतीर्थ्यां प्रति दाख्यो। १६. शोभन तुम्है मद्दुका ! जाणी, ___ होजी आ तो जाव वदी वर वाणी ॥ २०. इह विधि वीर को छते सारं, होजी ओ तो मद्दुक हरख्यो तिवारं ।। २१. परम संतोष हियै अति पायो, होजी मौने त्रिभुवन-तिलक सरायो॥ २२. श्रमण भगवंत महावीर वंदंतो, होजी करै नमस्कार गुणवंतो॥ २३. नहीं अति निकट प्रभू के पासं, - होजी ओ तो जाव करै पर्युपासं ।। २४. ऐश्वर्यवंत श्रमण महावीरं, होजी प्रभु मद्दुक प्रति गुणहीरं ।। २५. ते महापरखद नै धर्म भाख्यो, होजी इहां जाव शब्द में आख्यो। २६. वीर तणी वर सांभल वानं, होजी आ तो परखद पहुंती स्थानं ।। २७. श्रमणोपासक मदुक तिवारं, होजी ओ तो श्रमण भगवंत नां सारं ॥ २८. जाव हिय धर जिन वच घोषं, होजी ओ तो पायो हरष संतोषं ।। २९. प्रश्न पूछे वर प्रश्न पूछी नैं, होजी ओ तो अर्थ हिय धारी नैं ।। ३०. वीर प्रत वंदै शिर नाम, होजी ओ तो जाव गयो निज धामं ।। २३. णच्चासण्णे जाव (सं० पा०) पज्जुवासइ । (श०१८१४४) २४. तए णं समणे भगवं महावीरे मदुयस्स समणोवासगस्स २५,२६. तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ जाव परिसा पडिगया। (श०१८।१४५) २७. तए णं मदुए समणोवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स २८. जाव (सं. पा.) निसम्म हट्ठतुढे २९. पसिणाई पुच्छति, पुच्छित्ता अट्ठाई परियादियति, परियादिइत्ता. ३०. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता जाव (सं. पा.) पडिगए। (श०१८।१४६) ३१. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी३२. पभू णं भंते ! मदुए समणोवासए गीतक छंद ३१. हे भदंत ! इम कही गोतम, श्रमण भगवंत प्रति गुणी। वंदना स्तुति नमस्कृत कर, एम भाखै महामुणी ।। ३२. *समर्थ छ प्रभु ! मद्दुक जाचो, . होजी ओ तो श्रमणोपासक साचो।। ३३. देवानुप्रिया पास स्वयमेवा, होजी ओ तो जाव प्रव्रज्या लेवा? *लय : भवानी तू देवी भयभंजनी ए ३३. देवाणुप्पियाणं पव्वइत्तए? अंतियं (जाव (सं० पा०) श० १८, उ०७, ढा० ३८० १६९ Jain Education Intemational national For Private & Persanal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. नो इणठे समठे। ३५. एवं जहेव संखे (श० १२।२७, २८) ३४. जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांय, होजी आ तो चरण नी नहीं समर्थाय ।। ३५. इम जिम संख तणों अधिकार, होजी ओ तो तिमहिज कहिवो सारं ।। ३६. तिमज अरुणाभ विमान उपजस्य, होजी ओ तो देव तणां सख लहिस्य ।। ३७. शतक अठारम सप्तम देश, होजी ओ तो अर्थ थकी सुविशेष ।। ३८. ढाल तीनसौ असीमी ताजी, होजी आ तो मदुक कीत्ति सुजाझी ।। ३९. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसायो, होजी ओ तो 'जय-जश' आनंद पायो।। ३६. तहेव अरुणाभे जाव अंतं काहिति । (श० १८१४७) ढाल : ३८१ १. मद्दुक अरुणाभे अमर, पूर्व उद्देशक अंत । सुर नीं वक्तव्यता थकी, सुर अधिकार कहंत ।। २. समर्थ महद्धिक सुर प्रभु ! जाव महेश्वर ताम। रूप सहस्र प्रति अन्यमन्य करण संग्राम ? १. पूर्व मद्दुकश्रमणोपासकोऽरुणाभे विमाने देवत्वेनोत्पत्स्यत इत्युक्तम्, अथ देवाधिकाराद्देववक्तव्यतामेवोद्देशकान्तं यावदाह- (वृ०प०७५३) २. देवे णं भंते ! महिड्ढिए जाव महेसक्खे रूवसहस्सं विउव्वित्ता पभू अण्णमण्णेणं सद्धि संगाम संगामित्तए ? ३. हंता पभू । ताओ णं भंते ! बोंदीओ किं एगजीवफुडाओ? अणेगजीवफुडाओ? ४. गोयमा ! एगजीवफुडाओ, नो अणे गजीवफुडाओ। ३. जिन कहै हां समर्थ अछ, ते प्रभु ! शरीर इष्ट । एक जीव फा अछ, के बहु जीव स्पृष्ट ? ४. जिन भाखै सुण गोयमा ! एकज जीव स्पृष्ट । जीव अनेक स्पृष्ट नहीं, वलि गोतम नी पृष्ट ।। ५. ते प्रभु ! वैक्रिय तनु तणां, विच अंतराल कहीव। ते इक जीव स्पृष्ट छ, के फा बहु जीव ? ६. जिन भाखै सुण गोयमा ! एक जीव फर्शत । पिण नहिं फर्श जीव बहु, वलि गोतम पूछंत ।। ७. पुरुष प्रभु ! अंतर प्रतै, हस्ते करि अवलोय । इम जिम अष्टम शतक मैं, तृतीय उद्देशे जोय ।। ८. यावत निश्चय करि तिहां, शस्त्र संक्रमै नांहि । जाव शब्द में जे कह्यो, ते कहिये हिव ताहि ।। ९. पग कर जे अंतर प्रतै, आंगुलिए करि आम । तथा शिलाका करि वली, काष्ठे करिने ताम ।। ५. ते णं भंते ! तासि बोंदीणं अंतरा कि एगजीवफुडा ? अणेगजीवफुडा? 'तासि बोंदीणं अंतर' त्ति तेषां विकुब्वितशरीराणामन्तराणि (वृ०प०७५३) ६. गोयमा ! एगजीवफुडा, नो अणेगजीवफुडा । (श० १८११४८) ७. पुरिसे णं भंते ! अंतरे हत्थेण वा एवं जहा अट्ठमसए (८।२२३) ततिए उद्देसए ८. जाव नो खलु तत्थ सत्थं कमति । ९. पादेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा कट्टेण वा १७. भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. किलिचेण वा आमुसमाणे वा संमुसमाणे वा ११. आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा, १०. तथा क्षुलक काष्ठे करी, अल्प तथा इक वार । घणों तथा बहु वार ते, फर्श हे जगतार ! ११. ईषत वा इक वार ही, ते अंतर प्रति ताम । घणों तथा बहु वार ही, लिखिते छतेज आम ।। १२. वलि तीखे शस्त्रे करी, ईषत वा इक वार । घणुं तथा बहु वार ही, छेदै अंतर धार । १३. अग्निकाय करि बालतो, जीव प्रदेशे तास । अल्प बहुत्व पीड़ा हुवै, त्वचा छेद ह्व जास? १२. अण्णयरेण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आछिदमाणे वा विछिदमाणे वा, १३. अगणिकाएण वा समोडहमाणे तेसि जीवपएसाणं किंचि आबाहं वा विवाहं वा उप्पाएइ ? छविच्छेदं वा करेइ ? १४. नो इणठे समठे । नो खलु तत्थ सत्थं कमति । (श० १८।१४९) १४. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, प्रदेश पीड न थाय । जाव शब्द में अर्थ ए, शस्त्र संक्रमै नाय ।। *श्री जिन वच घन गर्जारव सुण, . भविक केकि हुलसावै । भविक केकि हुलसावै मैं वारी जाऊं, आनंद अधिको पावै हो । (ध्रुपदं) १५. सुर वैमानिक वली असुर नै, छै प्रभुजी ! संग्राम ? श्री जिन भाखै हंता अस्थि, वलि शिष्य पूछ ताम ।। रा १६. देव असुर संग्रामे वर्ततां, देव तणे भगवानं । प्रहरण रत्नपणे स्यूं परणमै, शस्त्रपणे ए जान ? १७. जिन कहै जे देवा तृण काष्ठज, पत्र कांकरा जेह । कर ग्रहै जेह देव ने परणमै रत्नप्रहरणपणेह ।। १५. अस्थि णं भंते ! देवासुराणं संगामे, देवासुराणं संगामे ? हंता अत्थि। (श० १८।१५०) १६. देवासुरेसु णं भंते ! संगामेसु वट्टमाणेसु किण्णं तेसि देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति ? १७. गोयमा ! जपणं ते देवा तणं वा कट्ठ वा पत्तं वा सक्करं वा परामुसंति तण्णं तेसि देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति । सोरठा १८. अचित्य पुन्य विशाल, तेह तणां जे वश थकी। सुभूम नै कर थाल, चक्र थयो तिम एह पिण ।। १९. *वैमानिक ने जेम तृणादिक, शस्त्रपणे परिणमेह । तेम असुर नै पिण परिणमै छै ? अर्थ समर्थ न एह ।। २०. असुरकुमार देव छै तेहने, रत्न प्रहरण पिछाणी। नित्य विकवित कह्या अछ, ए जिनवर नी वाणी ।। १८. इह च यद्देवानां तृणाद्यपि प्रहरणीभवति तदचिन्त्यपुण्यसम्भारवशात् सुभूमचक्रवर्तिनः स्थालमिव, (वृ० प०७५३) १९. जहेब देवाणं तहेव असुरकुमाराणं ? नो इणठे समझें। २०. असुरकुमाराणं निच्चं विउव्विया पहरणरयणा पण्णत्ता। (श० १८१५१) सोरठा २१. देव तणी अपेक्षाय, पुन्य मंदतर असुर ने। मनुष्य लोक रै माय, नर सामान्य तणी परै ।। २२. समर्थ छै प्रभुजी ! महद्धिक सुर, जाव महेश्वर ताय । लवणोदधि नै दोलो फिरने, गमन करी झट आय ? २३. श्री जिन भाखै हां समर्थ छै, सुर प्रभु महद्धिक माणी। इमज धातकीखंड द्वीप प्रति, यावत हंता जाणी।। २१. असुराणां तु यन्नित्यविकुवितानि तानि भवन्ति तद्देवापेक्षया तेषां मन्दतरपुण्यत्वात्तथाविधपुरुषाणामिवेत्यवगन्तव्यमिति । (वृ०प०७५३) २२. देवे णं भंते ! महिड्ढिए जाव महेसक्खे पभू लवणसमुहं अणु परियट्टित्ता णं हव्वमागच्छित्तए? २३. हंता पभू । (श० १८१५२) देवे णं भंते ! महिढिए एवं धायइसंडं दीवं जाव हंता। *लय : पारसदेव तुम्हारा दरसण श०१८, उ० ७, ढा० ३८१ १७१ Jain Education Intemational ein Education Intemational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. जाव रुचकवर द्वीप प्रतै, इम यावत जिन कहै हंत। तेह थी आगल इक दिशि जावै,पिण दोलो न फिरत ।। २४. एवं जाव रुयगवर दीव जाव (सं. पा.) हंता पभू । तेण परं वीईवएज्जा, नो चेव णं अणुपरियटेज्जा। (श० १८३१५३) सोरठा २५. आगल इक दिशि जाय, पिण प्रदक्षणा दै नहीं। तथाविधज कहिवाय, प्रयोजन तणां अभाव थी ।। २५. 'वीतीवएज्ज' त्ति एकया दिशा व्यतिक्रमेत 'नो चेव णं अणुपरियट्टेज्जा' त्ति नैव सर्वतः परिभ्रमेत्, तथाविधप्रयोजनाभावादिति सम्भाव्यते । _ (वृ०प०७५३) २६,२७. अस्थि णं भंते ! देवा जे अणंते कम्मंसे जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहि वाससएहि खवयंति ? हंता अस्थि । (श०१८।१५४) २६. *छ प्रभु ! देवा जेह कर्म नों, अंश अनंत कहावै । जघन्य एक सय बे सय त्रिण सय वर्षे करी खपावै ।। २७. उत्कृष्ट पंच सय वर्षे करि, जे कर्म अंश खपावै ? श्री जिन भाखै हंता अस्थि, प्रथम प्रश्नोत्तर भावै ।। सोरठा २८. वृत्ति विषे जे देव, पुन्य कर्म पुद्गल तसु । प्रकृष्टतर रस भेव, प्रकृष्टतम अनुभाग रस ।। वा० -प्रकृष्टतर कहितां अतिही अधिक पुन्य, प्रकृष्टतम कहितां अधिक थी अधिक पुन्य, ए अनुभाग रस जाणवो। २९. आयु कर्म सहचार, तिण करि वेदन योग्य जे। अनंत अनंता धार, रस अनुभविवा योग्य जे ।। ३०. ते अनंत अनंता जाण, कर्म अंश नां मध्य थी। अनंत कर्म अंश माण, हे भदंत ! जे देवता ।। २८. इह देवानां पुण्यकर्मपुद्गलाः प्रकृष्टप्रकृष्टतरप्रकृष्टतमानुभागाः (वृ०प० ७५३) २९. आयुष्ककर्मसहचरिततया वेदनीया अनन्तानन्ता भवन्ति । (वृ० प० ७५३) ३०. ततश्च सन्ति भदन्त ! ते देवा ये तेषामनन्तानन्तकर्माशानां मध्यादनन्तान् कर्मांशान् (व०प०७५३) ३१. जघन्येन कालस्याल्पतया एकादिना वर्षशतेन उत्कर्षतस्तु पञ्चभिर्वर्षशतै: क्षपयन्ति, (वृ० प०७५३) ३१. जघन्य काल अल्प तास, इक बे त्रिण सय वर्ष करि । जेष्ठ पंच सय वास, तिण करि ते पुत्य क्षय करै ? ३२. जिन कहै हंता जोय, पूछयो जिम उत्तर दियो । वलि आगल अवलोय, गोतम प्रश्न कर इसो ।। ३३. *छै प्रभु ! देवा जेह कर्म नां, अंश अनंत कहावै । जघन्य एक बे तीन सहस्र, जे वर्षे करी खपावै ।। ३४. उत्कृष्ट पंच सहस्र वर्षे करि, जे पून्य अंश खपावै ? श्री जिन भाखै हंता अत्थि, ए द्वितीय प्रश्नोत्तर भाव।। ३५. छ प्रभु ! देवा जेह कर्म नां, अंश अनंत कहावै। जघन्य एक बे तीन लक्ष जे, वर्षे करी खपावै ।। ३६. उत्कृष्ट पंच लक्ष वर्षे करि, जे पुन्य अंश खपावै ? श्री जिन भाखै हंता अत्थि, ए तृतीय प्रश्नोत्तर भावै ।। ३७. कुण प्रभु ! देवा जेह कर्म नां, अंश अनंत कहावै । जघन्य एक वा जाव पंच सय वर्षे करी खपावै ।। ३८. कुण प्रभु ! सुरा जाव पंच सहस्रज वर्षे करी खपावै? कुण प्रभु! देवा जाव पंच लक्ष वर्षे पुन्य उड़ावै ? ३३,३४. अत्थि णं भंते ! देवा जे अणंते कम्मसे जहाणेणं एक्केण वा दोहि वा तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहिं वाससहस्सेहिं खवयंति ? हंता अस्थि । (श. १८११५५) ३५,३६. अत्थि णं भंते ! देवा जे अणंते कम्मसे जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहि वाससयसहस्सेहि खवयंति ? हंता अत्थि । (श० १८।१५६) ३७. कयरे णं भंते ! ते देवा जे अणते कम्मसे जहण्णेणं एक्केण वा जाव पंचहिं वाससएहि खवयंति ? ३८. कयरे णं भंते ! ते देवा जाव पंचहि वाससहस्सेहि खवयंति? कयरे णं भंते ! ते देवा जाव पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति? 'लय : पारसदेव तुम्हारा बरसण १७२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. गोयमा ! वाणमंतरा देवा अणते कम्मंसे एगेणं वाससएणं खवयंति । ४०. असुरिंदवज्जिया भवणवासी देवा अणंते कम्मसे दोहि वाससएहिं खवयंति। ३९. श्री जिन भाखै वाणव्यंतरा, देवा कोतुक भावै। अनंत कर्म नां अंश एक सय वर्षे करी खपावै ।। ४०. असुर इंद्र वर्जी ने बीजा, भवनपती सुर भावै। अनंत कर्म नां अंश दोय सय वर्षे करी खपावै ।। ___ सोरठा ४१. व्यंतर तिहां कहाय, अनंत कर्म नां अंश प्रति । भोगविवै करि ताय, इक सय वर्षे क्षय करै ।। ४२. अनंत अछ पिण तेह, ते पुद्गल नां अल्प ही। रस अनुभाग करेह, अल्प काल करि क्षय करै ।। ४१. तत्र व्यन्तरा अनन्तान् कम्शिान् वर्षशतेनैकेन क्षपयन्ति । (वृ० प०७५३) ४२. अनन्तानामपि तदीयपुद्गलानामल्पानुभागतया स्तोकेनैव कालेन क्षपयितुं शक्यत्वात् । (वृ०प०७५३,७५४) ४३. तथाविधाल्पस्नेहाहारवत्, (वृ० प०७५४) ४३. तथाविध जग मांहि, अल्प स्नेहज आहारवत । तेम अल्प रस ताहि, पुद्गल अनंत भोगवै ।। ४४. वर्जी असुरकुंवार, भवनपती ते दोय सौ। वर्षे करी विचार, पुन्य अंश कर्म क्षय करै ।। ४५. ते पुद्गल नां जाण, व्यंतर पुद्गल पेक्षया । प्रकृष्ट रस पहिछाण, तिणसं बहु काले खपै ।। ४६. अतिही स्निग्ध माण, आहार तणी पर जाणवो । इम आगल पिण आण, करवी सगल भावना ।। ४७. *असुरकुमारा देवा छै ते, अनंत कर्म अंश जाणी। वर्ष तीन सय करी खपावै, अतिस्निग्ध रस माणी ।। ४८. ग्रह गण नक्षत्र तारारूपज, जेह ज्योतिषी देवा । अनंत कर्म नां अंश च्यार सय वर्षे करी खपेवा ।। ४९. इंद्र ज्योतिषी नां चंद सूर्य, ज्योतिषिराय कहावै । अनंत कर्म नां अंश पंच सय वर्षे करी खपावै ।। ५०. सौधर्म में ईशाण तणां सर, अनंत कर्म नां अंश । ... एक सहस्र वर्षेज खपावै, रस अति अधिक प्रसंस ॥ ५१. सनतकुमार माहेंद्र तणां सुर, पुन्य कर्म अंश अनंत। दोय सहस्र वर्षेज खपावै, तेहथी अति शुभ हुंत । ५२. इम एणे आलावे करने, ब्रह्म लंतक नां देवा । तीन सहस्र वर्षे करिनै जे, कर्मांश अनंत खपेवा ।। ५३. महाशुक्र सहसार तणां सुर, जे कर्माश अनंता । च्यार सहस्र वर्षे करिने जे, भोगविवैज खपंता ।। ५४. आणत पाणत आरण अच्चु, च्यार कल्प नां देवा । अनंत कर्म नां अंश खपावै, पंच सहस्र वर्षेवा ।। ५५. हेठिम त्रिक प्रैवेयक नां सर, अनंत कर्म नां अंश । इक लक्ष वर्षे करी खपावै, अति निध रसज प्रसंस ।। ५६. मध्यम त्रिक प्रैवेयक नां सर, जे कर्माश अनंत । बे लक्ष वर्षे करी खपावै, तेहथी स्निग्ध हंत ।। ५७. उवरिम त्रिक ग्रेवेयक नां सर, जे कर्माश अनंत । त्रिण लक्ष वर्षे करी खपावै, तेहथी स्निग्ध हंत ।। *लय: पारसदेव तुम्हारा दरसण ४४. तथा तावत एव कशिान् असुरवजितभवनपतयो द्वाभ्यां वर्षशताभ्यां क्षपयन्ति। (बृ० ५० ७५४) ४५. तदीयपुद्गलानां व्यन्तरपुद्गलापेक्षया प्रकृष्टानुभावेन बहुतरकालेन क्षपयितुं शक्यत्वात् (व०प०७५४) ४६. स्निग्धतराहारवदिति, एवमुत्तरत्रापि भावना कार्येति । (वृ० प०७५४) ४७. असुरकुमारा देवा अणंते कम्मसे तीहिं वाससएहिं खवयंति । ४८. गह-नक्खत्त-तारारूवा जोइसिया देवा अणंते कम्मसे चउहि वाससएहिं खवयंति । ४९. चंदिम-सूरिया जोइसिंदा जोतिसरायाणो अणंते कम्मसे पंचहि वाससएहिं खवयंति । ५०. सोहम्मीसाणगा देवा अणते कम्मंसे एगेणं बास सहस्सेणं खवयंति। ५१. सणंकुमारमाहिंदगा देवा अणंते कम्मंसे दोहि वास सहस्सेहिं खवयंति । ५२. एवं एएणं अभिलावेणं बंभलोग-लंतगा देवा अणते कम्मंसे तीहिं वाससहस्सेहिं खवयंति । ५३. महासुक्क-सहस्सारगा देवा अणंते कम्मसे चउहिं वाससहस्सेहिं खवयंति । ५४. आणय-पाणय-आरण-अच्चयगा देवा अणंते कम्मसे पंचहि वाससहस्सेहिं खवयंति । ५५. हिटिमगेवेज्जगा देवा अणते कम्मसे एगेणं बाससय सहस्सेणं खवयंति। ५६. मज्झिमगेवेज्जगा देवा अणते कम्मसे दोहिं वाससय सहस्सेहिं खवयंति । ५७. उवरिमगेवेज्जगा देवा अणते कम्मसे तीहिं वाससय सहस्सेहिं खवयं ति । श०१८, उ०७, ढा० ३८१ १७३ Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. च्यार अनुत्तर विमान नां सुर, चिरं लक्ष वर्षे करी खपावे ५९. सर्वार्थसिद्ध नां जे सुर वर, जे कर्माश अनंत तेहथी स्निग्ध हूंत ॥ अनंत कर्म अंश जेह । पंच लक्ष वर्ष करी खपावे, तेही अति शुभ एह ।। ६०. एह गोयमा ! तेह देवता, जे कर्मांश अनंता । जघन्य एक वे त्रिण सय वर्षे, भोगव पुन्प खपता ॥ ६१. उत्कृष्ट पंच सय वर्षे करि, जे कर्मांश खपावै । प्रथम प्रश्न गोतम पूछो तसु ए जिन उत्तर भावे || ६२. एह गोयमा ! ते सुर यावत, पंच सहस्र वर्षह अनंत कर्म नां अंश खपावै, द्वितीय प्रश्नोत्तर एह || ६३. एह गोयमा ! ते सुर यावत, पंच लक्ष वर्षेह तृतीय प्रश्नोत्तर एह ॥ सप्तमुद्देशक भावं । अष्टम सुख सावं ॥ इक्यासीमी वारू। । जेह कर्म नां अंश खपावे, ६४. सेवं भंते! शतक अठारम, उगणीसे तेवीस भाद्रव सुदि ६५. दाल तीन सय ऊपर आखी भिक्षु भारीमाल ऋषिराव प्रसादे, 'जय जश' संपति चारू ।। अष्टादशशते सप्तमोद्देशकार्यः || १८|७|| ढाल : ३८२ बूहा १. सप्तमुद्देशक अंत में, अष्टमुदेशक कर्म नुं, २. नगर राजगृह नं विधे कर्म तणों क्षय ख्यात ! बंध तिको घुर आत ॥ जाव व इम वान गोतम प्रभु नो विनय करि, प्रश्न करें सुविधान ।। ३. "हे भगवंत ! अणगारो जी, स्वाम सुहामणा, संजम तप करि सारोजी, स्वाम सुहामणा । आतम प्रति जिण भावी जी स्वाम सुहामणा, तन मन अधिक वसावी जी, स्वाम सुहामणा ॥ ४. आगल विहं ने पासो जी स्वाम सुहामणा, भूसर प्रमाण तासो जी स्वाम सुहामणा । भूमि प्रत प्रते पेतो जी स्वाम सुहामणा, दृष्टि करी देखतो जी स्वाम सुहामणा ॥ ५. इम चालता तासो जी, पाय तले सुविमासो जी। कुर्कट नां जे बालो जी, इंडक रूपज न्हालो जी ॥ *लय हरस सर्व हिये १७४ भगवती जोड़ ५८. विजय- वेजयंत जंयत- अपराजियगा देवा अणते कम्मसे हि वासस्यसहस्सेहि खवयंति ५९. सव्यदुसिंगा देवा जगते कम्मंसे पंचहि समयसहस्येहि वयंति। ६०, ६१. एए णं गोयमा ! ते देवा जे अनंते कम्मंसे जहणं एक्केण वा दहिया तीहि वा उस्कोसेणं पंचहि वाससहित ६२. एए णं गोयमा ! ते देवा जाव पंचहि वाससहस्सेहि खवयंति । ६३. एए णं गोयमा ! ते देवा जाव पंचहि वासरायसहस्संहि खवयंति । ( श० १८ । १५७ ) ६४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।। ( ० १०।१५८) १. सप्तमोद्देशकान्ते कर्मक्षपणोक्ता, अष्टमे तु तन्धो निरूप्यते । ( वृ० ८० ७५४) २. रायगिहे जाव एवं वयासी ३. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो ४. पुरओ ओ माया पेहाए 'पुरओ' त्ति अग्रत: 'दुहओ' त्ति 'द्विधा' अन्तराऽन्तरा पार्श्वतः पृष्ठतश्चेत्यर्थः 'जुगमापाए ति यूषमात्रया दुष्ट्वा 'पहाए' त्ति प्रेक्ष-प्रेक्य ( वृ० ८० ७५४) ५. रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोते वा Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. वट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा 'वट्टापोयए' त्ति इह वर्तका-पक्षिविशेष: 'कुलिंग च्छाए व' त्ति पिपीलिकादिसदृशः (वृ० ५० ७५४) ७,८. परियावज्जेज्जा, तस्स णं भंते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! ६. वर्तक पंखी विशेखो जी, इंडो तास अवेखो जी। वलि कुलिंग नां छावा जी, ए कीड़ी सरीखा कहावा जी ।। ७. तेहनें पग तल आवै जी, इह विध ते मर जावै जी। ते मुनि ने स्यं थावै जी? हे प्रभु ! स्यूं फल पावै जी? ८. इरियावहि स्यूं थायो जी, के क्रिया संपरायो जी ? तब भाखै जिनरायो जी, सांभल गोतम ! वायो जी। ९. भावितात्म अणगारोजी, यावत तास विचारो जी। क्रिया इरियावहि थायो जी, नहिं ह तसु संपरायो जी ।। १०. किण अर्थे भगवंतो जी! कहिय एम उदंतो जी। जिम सप्तम शत मांह्यो जी, संवुड उद्देसे वायो जी।। ११. कहिवो एम सुचित्तो जी, यावत अर्थ निखित्तो जी। संवुड उद्देश भलायो जी, निसुणो तेहनों न्यायो जी।। ९. अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव (सं० पा०) तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ । (श० १८।१५९) १०. से केणठेणं भंते ! एवं वच्चइ? जहा सत्तमसए (७.१२५) संवुडुद्देसए। (श० १८।१६०) ११. 'एवं जहा सत्तमसए' इत्यादि अनेन च यत्सूचित तस्यार्थलेश एवम् (वृ०प० ७५४) १२. भगवती श० ११२५, १२६ सोरठा १२. 'सप्तम शतके सार, सप्तमुद्देशक नैं विषै । ___ संवृत मुनि अधिकार, संवृत नाम उद्देश नों।। १३. त्यां एहवो अधिकार, हे भगवंत ! अणगार जे। ___रूंध्या आश्रव द्वार, संवृत मुनि कहियै तसु ।। १४. ते उपयोग सहीत, मन वच काया शुभपणे । गमन करै वर रीत, यावत प्रवर्तन करै ।। १५. वलि उपयोगपणेह, वस्त्र पात्रज कंबलो। पायपुच्छणो जेह, ग्रहण करै मूकै मही ।। १६. ते मुनि नैं जिनराय, स्यूं किरिया इरियावहि । अथवा ह संपराय? प्रश्न गोयम ए पूछियो।। १७. जिन कहै संवृत संत, जाव तास गमनादिके । इरियावहि उपजंत, नथी क्रिया संपरायकी ।। १८. किण अर्थे जिनराय ! इम आख्यो संवृत तणें । जाव नहीं संपराय, इरियावहि किण कारण ? १९. जिन कहै जसु संवेद, क्रोध मान माया अनैं । लोभ तणंज विच्छेद, उपशम अथवा क्षय किया ।। २०. इरियावहि तसु होय, तिमहिज यावत जाणवो। उत्सूत्र मार्गे जोय, चालंता संपरायिकी ।। २१. ते संवृत अणगार, जिम सूत्रे आख्यो तिमज । चाले जिन वच लार, तिण अर्थे इरियावहि ।। २२. वलि भगवती मांहि, सप्तम शतक तणे विषे । प्रथम उद्देशे ताहि, ते असंवृत इम आखियो ।। २३. सप्तम शतके ताम, प्रथम उद्देशा नै विषे । असंवत नो आम, प्रश्न गोयम इम पूछियो ।। २२,२३. भगवती श०७।२०,२१ श० १८, उ०८, ढा० ३८२ १७५ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. प्रभु ! असंवत अणगार, चाल विण उपयोग सूं । तिष्ठे वेसै धार, सयन करै उपयोग विण ।। २५. वस्त्र पात्र तिम जाण, कंबल पायपुच्छण वली। विण उपयोगे माण, ग्रहण करतां मूकतां ।। २६. तास प्रभु ! स्यं थाय, इरियावहि क्रिया हवै। तथा हवै संपराय? प्रश्न गोयम इम पूछिया ।। २७. तब भाखै जिनराय, इरियावहि तेहनै नहीं। हवै क्रिया संपराय, गौतम कहै किण अर्थ प्रभु ? २८. जिन कहै जसु संवेद, क्रोध मान माया वली। लोभ तणुंज विच्छेद, इरियावहि क्रिया तसु ।। २९. क्रोध मान नै माय, वलि तसु लोभ विच्छेद नहीं। क्रिया तास संपराय, उदय कषाय तणों जिहां ।। ३०. जिम सूत्रे आख्यात, तिम चालै चूक नहीं। इरियावहि बंधात, ए वीतराग आश्री कह्यो। ३१. जिम सूत्रे आख्यात, तिण रीते चालै नहीं। उत्सूत्र करि जात, संपरायिकी तेहने ।। ३२. असंवृत मुनि एह, चालै उत्सूत्रेज ते। तिणसं तास वदेह, हुवै क्रिया संपरायिकी ।। ३३. इण वचने कहिवाय, अकषाई छै तेहनें । इरियावहि बंधाय, संपराय बंधै नहीं। ३४. द्वितीय सूयगडांग मांहि, बीजा अध्येन में कह्यो। क्रिया तेरमी ताहि, इरियावहिया तेहने ।। ३५. तीन काल नां ताम, अरिहंत भगवंत छै तिके। सेवी सेवै आम, वली अनागत सेवस्य ।। ३६. इरियावहि वर्तमान, सीझ सीज्झया सीझस्यै । द्वितीय अंग ए वान, ते माटै ए पुन्य छ । ३७. प्रथम समय बांधत, द्वितीय समय वेदै तिका । तृतीय समय निजरंत, ते इरियावहिया कही ।। ३८. पुन्य कर्म आदान, तिणसं इरियावहि भणी। सावज्जति कहि जान, पिण सावज्ज नहिं सर्वथा ।। ३९. गमन करै तिण न्याय, तेऊ वाऊ त्रस कही। पिण नहि छै त्रसकाय, तिम इरियावहि सावज्ज नथी। ४०. असन्नी नारक देव, विभंग न पायो ज्यां लगे। पिण नहिं असन्नी भेव, तिम इरियावहि सावज्ज नथी। ४१. स्नेह प्रमुख अठ जेह, सूक्षम दशवकालके। पिण नहि सूक्षम तेह, तिम इरियावहि सावज्ज नथी। ४२. ग्यारम बारम ठाण, वीतराग छद्मस्थ ए। तेरम केवलनाण, इरियावहिया तसू बंधै ।। ४३. तसु सावज्ज किम होय, सावज्ज सूं तो पाप बंध । वीतराग रै जोय, पाप कर्म बंधे नहीं ।। ३४. सूयगडो २।२।२ ३६. सूयगडो २।२।८० ३७. सूयगडो २।२।१६ ४१. सिह पुप्फसुहुमं च, पाणुत्तिगं तहेव य । पणगं बीय हरियं च, अंडसुहुमं च अट्ठमं ।। (दसवे० ८।१५) १७६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. ते मार्ट कहिवाय पुन्य कर्म बंधाय, ४५. द्वितीय अंग मांहि, सावज्जंति कही ताहि, ४६. वलि सेवै अरिहंत, इरियावहिया पाप नहीं । सावज्जंति छे ते भणी || द्वितीय भयण इरियावहि । बलि सोच्झं ते वर्त्ततां ॥ एहवूं पिण आख्यूं तिहां । ते माटै पुन्य हुंत, पिण सावज्ज नहि सर्वथा ॥ ४७. इरियावहि पुन्य बंध, स्थिति समय बे फर्श शुभ । उत्तराध्ययने संध, ए गुणतोसम भवण में ।। ४८. सकवाई संपराय, अकपाई दरियावहि । बांधे आख्यो ताय, शत दशम उद्देशे दूसरे ।। ४९. संपरा पुण्य पाप, बंधे सकपाई तणें । अशुभ आश्रव भी पाप, शुभ जोगे संपराय पुन्य ॥ ५०. इरियायही विमास एकांत पुन्य कहीजिये । दो समय स्थिति तास, बंध ग्यारम बारम तेरमें ।। ५१. तेवीसमा पद मांहि, द्वितीय उद्देशक मैं विधे । सातावेदनी ताहि, तसु स्थिति पूछयां जिन कहै || ५२. इरियावहि आश्रित्त, अजघन्योत्कृष्ट समय बे । संपराय नीं स्थित्त, द्वादश मुहूर्त्त जघन्य थी । ५३. उत्कृष्टी अवधार, पन कोड़ाफोड़ जे । सागर तणी विचार प्रत्यक्ष पाठ मझे कह्यो । ५४. सातावेदनी संघ इरियावहिया जिन कही । वीतराग रे बंध तसु किम पाप कहीजिये ॥ ५५. मुनि पग तल चंपाय, कुक्कड़ ना इंडा प्रमुख । इरियावहि बंधाय, शतक अठारम आठमें || ५६. इरियावहि बंधाय, तिण कारण वीतराग ए । बलि सप्तम शत ताय, संवुड उद्देश भलावियो | ५७. त्यां आखी इम वाय, व्यार कषाय विच्छेद तसु । दरियावहि बंधाव यथातथ्य वाले तिको ।। ५८. एह भलावण तास, बलि बंधे इरियाबहि । वीतराग मुनि एह छै ॥ दृष्टि करीनें देखतो । इरियावहि कही ।। तिणसूं जोय विमास, ५९. स्व कोइक पूछंत त्यां गमन करंतो जंत, मरतां ६०. ग्यारम बारम ठाण, ध्यान विषे तसु गमन किम । तर उत्तर इम जाण, ईर्ष्या समितज ध्यान शुद्ध ॥ ६१. अष्टम शतक पिछाण, अष्टमुद्देशे भगवती । षटविध बंधक जाण, चवद परीसह तेहनें ॥ ६२. द्वादश वेदै तेह, चरिया वेदै तिण समय । सेज्जा नहिं वेदेह, वलि आगल इम आखियो || ६२. बलि जे समय विषेह वेदं छे सेज्जा प्रतं । तिणहिज समये तेह, ६४. इकविध बंधक एम, वेद नहीं ॥ चरिया प्रति वीतराग एहयूँ आ पटविध बंधक जेम, छद्मस्थए । तिहां ॥ ४७. रिया कम्मं बंध सुहफरि समयठयं (उत्तरा० २९/७२ ) ४८. भगवती श० १०।१२ ५१-५३. सातावेय णिज्जस्स इरियावहियबंधगं पडुच्च अहमणुकोसे दो समय संपराइयबंध पडुच्च जहणेणं बारस मुहुत्ता, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ । (२०६३) ५५. भगवती श० १८ । १५९ ५६. भगवती श० ७ १२५, १२६ ६१.६३. भगवती श० ८।३२५ ६४. भगवती श० ८३२६ श०१८, ३०८, ढा० ३८२ १७७ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९. भगवती श० १११०५ ७०. भगवती श० १५।१४६ ७१,७२. एगया गुणस मियस्स रीयतो कायसंफासमणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति। (आयारो १३५१७१) इहलोग-वेयण-वेज्जावडिय। (आयारो ११५७२) ७३. आयारचूला ३१२४ ७४. कप्पो ४१३० ६५. दशमे षटविध बंध, एकादशमे बारमे । इकविध बंधक संध, वीतराग छद्मस्थ ए॥ ६६. इण वचने करि जाण, चरिया परिसह वेदतां । आवै दशमो ठाण, पुनः इग्यारमो बारमो।। ६७. वीतराग रै पाय, तल जंतू चंप्यां थकी। इरियावहि बंधाय, हणवा रो कामी नहीं । ६८. इमहिज केवली जाण, नदी प्रमुखज ऊतरै । इरियावहि बंधाण, हणवा रा कामी नथी ।। ६९. चंपा थकी विहार, वीतभय पाटण प्रभु गया । विच नदी खाल जलधार, कोश सातसी परंपरा ।। ७०. लोहीठाण षट मास, वीर प्रभुजी नै थयो । निशि अपकाय विमास, वरसै तेह विचारवं ।। ७१. वली सरागी संत, ईर्या-समिते चालतां। पग तल जीव मरंत, घातक तसु कहिये नहीं ।। ७२. धुर आचारंग एह, पंचम अध्येन ने विषे। चतुर्थ उद्देश कहेह, अर्थ अनोपम ओपतो ।। ७३. द्वितीय आचारंग मांहि, तीजा अध्येन नै विषे । नदी नावारी ताहि, श्री जिनवर नी आगन्या ।। ७४. मास मांहि त्रिण वार, उत्तरवी छोटी नदी। कल्पै मुनि नै सार, चोथे उद्देशे बृहत्कल्प ।। ७५. समणी – मुनिराय, कालै जल थी बाहिरे । जिन आज्ञा न लोपाय, बृहत्कल्प ठाणांग में ।। ७६. इत्यादिक कहिवाय, कार्य जिन आज्ञा तणां । करै सरागी ताय, संपराय पुन्य बंध तसु ।। ७७. वीतराग रै पाय, कुर्कट इंडादिक मुआं । इरियावहि बंधाय, प्रत्यक्ष देखो पाठ में । ७८. शुभ जोगे करि संध, सरागी मुनिवर तणें । संपराय पुन्य बंध, इरियावहि वीतराग रै।। ७९. आख्या ए वर न्याय, इरियावहि रै ऊपर। तेह तणी अपेक्षाय, कह्यो सरागी नै वली ॥' (ज.स.) ८०. *सेवं भंते ! स्वामी जी, स्वाम सुहामणा, यावत विचरै धामी जी, स्वाम सुहामणा । वीर प्रभु तिणवारो जी, स्वाम सुहामणा, बाहिर जाव विहारो जी, स्वाम सुहामणा ।। ८१. तिण काले सुविचारो जी, ते समय विषे वलि धारो जी। नगर राजगृह प्रगट्टो जी, जाव पृथ्वी शिलपट्रो जी।। ८२. गुणसिल चैत्य थी जाणी जी, नहिं अति दूर पिछाणी जी। एहवे स्थानक माणी जी, वस बहु अन्यतीर्थी अयाणी जी ।। ८३.तिण अवसर शिवगामी जो, जाव समोसरचा स्वामी जी। जावत परिषद जानो जी, पोंहती निज-निज स्थानो जी ।। लय : हरस सर्व हिये ७५. कप्पो ६८ ठाणं ५।१६५ ८०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ । (श० १८।१६१) तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जाव (सं० पा०) विहरइ। (श० १८।१६२) ८१. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे । गुणसिलए चेइए-वपणओ जाव पुढविसिलापट्टओ। ८२. तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति । ८३. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया। (श० १८१६३) १७८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ८५. जेठे अंतेवासी इंदभूती नाम अणगारे ८४. ते काले ते समय सधीरो जी, श्रमण तपस्वी हीरो जी। ज्ञानवंत गंभीरो जी, तीर्थंकर महावीरो जी।। ८५. जेष्ठ अंतेवासी तासो जी, इंद्रभूती सुप्रकाशो जी। वारू नाम विमासो जी, महामुनी गुणरासो जी ।। ८६. यावत ऊर्द्ध हि जानु जी, यावत विचरै सुभानु जी । धर्म ध्यान गलतानु जी, संवेग रस चित आनु जी ।। ८७. तिण अवसर ते जाणी जी, अण्णउत्यियाज अयाणी जी। आवै तिहां चित आणी जी, गोतम छै जिह ठाणी जी ।। ८८. भगवंत गोतम नाणी जी, वदै तेह प्रतै इम वाणी जी। हे आर्य ! तुम्है पहिछाणी जी, . त्रिविध-त्रिविध करि माणी जी ।। ८९. तीन करण तीन जोगे जो, असंजती छो प्रयोगे जी। यावत बाल एकतो जी, तुम्है थावो छो अत्यंतो जी ।। ९०. गोतम भगवंत तामो जी, अन्यतीर्थ्यां प्रति आमो जी। बोलै इहविध वाणी जी, हे आर्यो ! पहिछाणी जी ।। ९१. किण कारण करि जोई जी, त्रिविध-त्रिविध अवलोई जी। असंजती म्है थावां जी, जाव एकंत बाल कहावां जी ? ८६. जाव उड्ढंजाणू जाव (सं० पा०) विहरइ । (श०१८।१६४) ८७. तए ण ते अण्ण उत्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ५८. भगवं गोयमं एवं वयासी -तुब्भे णं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं ८९. अस्संजय जाव (सं० पा०) एगंतबाला यावि भवह ? (श०१८।१६५) १०. तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं बयासी ९२. अण्णउत्थिया तब आखै जी, गोतम प्रति इम भाखै जी। हे आर्यो! तुम्है चालंता जी, प्राण प्रते चांपंता जी ।। ९१. केणं कारणणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवामो ? (श० १८१६६) ९२. तए णं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयम एवं बयासी तुन्भे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेह, 'पेच्चह' त्ति आक्रामथ (वृ०प० ७५५) ९३,९४. अभिहणह जाव उद्दवेह, तए णं तुम्भे पाणे पेच्चमाणा जाव उद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगतबाला यावि भवह। (श० १८१६७) ९३. हणो सनमुख आवंता जी, जाव उपद्रव करता जी । तिण अवसर ते जाणी जी, आक्रमता इम प्राणी जी ।। ९४. सन्मुख जे आवंता जी, ते पिण जीव हणंता जी। त्रिविध यावत थावो जी, एकंत बाल कहावो जी ।। ९५. गोतमजी तब भाखै जी, अन्यतीर्थ्यां प्रति आखै जी। हे आर्यो ! म्है जाणी जी, गमन करता माणी जी ।। ९६. निश्चै कर पहिछाणी जी, म्है नहिं चांपां प्राणी जी। यावत उपद्रव जाणी जी, म्है नहि करता माणी जी ।। ९७. हे आर्यो ! म्है धारी जी, गमन करता विचारी जी। तनु आश्रयी अधिकारी जी, जोग आश्रय वलि सारी जी।। ९८.गमन आश्रयी वलि कहियै जी, ए विहं आश्रयी लहियै जी। चालां पेखी-पेखी जी, वलि अति देखी-देखी जी ।। ९५,९६. तए ण भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी -नो खलु अज्जो! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेमो जाव उद्दवेमो, ९७. अम्हे णं अज्जो! रीयं रीयमाणा कायं च जोयं च ९८, रीयं च पडुच्च दिस्सा-दिस्सा पदिस्सा-पदिस्सा वयामो, सोरठा ९९. काय आश्रयी जोय, गमन शक्ति ह देह तणी। तो म्है चालां सोय, हयादि चढ न करां गमन ।। १००. जोग संजम व्यापार, ज्ञानादि उपष्टंभका । तिण अर्थे सूविचार, जावां भिक्षादिक भणी ।। १०१. वलि गति आश्रयी जाण, चपलपणांदिक रहित जे । ___गमन विशेष पिछाण, म्है चालां देखी करी ।। ९९. 'काय च' त्ति देहं प्रतीत्य व्रजाम इति योगः, देहाचेद्गमनशक्तो भवति तदा वजामो नान्यथा अश्वशकटादिनेत्यर्थः, (वृ०प०७५५) १००. योगं च -संयमव्यापारं ज्ञानाद्युपष्टम्भकप्रयोजनं भिक्षाटनादि, न तं विनेत्यर्थः, (वृ०प०७५५) १०१. रीयं च' त्ति 'गमनं च' अत्वरितादिकं गमनविशेष 'प्रतीत्य' आश्रित्य, (वृ० प० ७५५) श०१८, उ०८, ढा० ३८२ १७९ Jain Education Intemational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२. देख देख हे तिवारी जी अति देख-देख जी, १०३. नहि चांपां है प्राणी जो, पालता सुखकारो जी म्है चालता सुविशेखी जी || यावत उपद्रव जाणी जी । ते पण नांहि करता जी, यत्न सहित चालता जी ॥ १०४. तिणसं म्है पहिछाणी जी, अणआक्रमता प्राणी जी । यावत उपद्रव जाणी जी, अणकरता थका माणी जी || जोगे कार जोई जो करण त्रिहुं करि होई जी । जाव पंडित एकतो जी, म्है थायां छो अत्यंतो जी || १०६. गोतम कई वाणी जी, हे आर्यों! तुम्ह जाणी जी। वलि आपणपंज पिछाणी जी निश्च करिने ठाणी जी ॥ १०७. त्रिहुं जोगे करि धारी जी, त्रिहुं करणे करि भारो जी । यावत एकंत बालो जी, मूरख छो असरालो जी ।। १०८. अण्णउस्थिया तब ताह्यो जो गोतम प्रति कहै वायो जी। १०५. J किन कारण है कहायां जी, त्रिविध विविध जाव थायां जो ? १०९. तब गोतम भगवंतो जी, अन्यतीर्ष्या ने बदंतो जी। थे चालता प्राण चांपो छो जी, जाव उपद्रव करो छो जी ।। ११३. हे गोतम ! इम आबे जी, जाव उपद्रव करंता जी । एकंत बालज थावो जी ॥ अन्यतीय प्रति जानी जी । आवै अधिक हुलासे जी ।। नमस्कार आनंदे जी । जाव करें पर्युपासो जी ।। बीर प्रभु वर्ष भावं जी । सांभलतां सह साबै जी ॥ अन्यतीर्थ्यां नैं उदारू जी । जाब दिया अति चारू जी || अन्यतीर्थ्यां प्रति आछा जी । जाब दिया तें जाचा जी, साधु शोभन साचा जी ॥ ११६. गोतम ! बहु म्हारा जी, अंतेवासी उदारा जी। श्रमण निर्बंध सुखकारा जी, उग्रस्थ जे गुणधारा जी ।। ११७. जे नहीं समर्थ एहवा जी, प्रश्न नां उत्तर कैहवा जी । जाय दिया तुम्ह जैहवा जी, अन्य समर्थ न लेहवा जी ॥ ११८. ते मार्ट ते दाख्या जी, अन्यतीय प्रति आख्या जी । भला वचन तें भाख्या जी, अदल न्याय अभिलाख्या जी ॥ ११९. साधु शोभन सारो जी हे गोतम ! गुणधारो जी जाब दिया सुखकारो जी ।। गोतम प्रति इम दा जी ११४. हे गोतम सुखकारू जी, वचन कह्या थे वारू जी, ११५. हे गोतम ! वर वाचा जी, . अन्यतीय ने उदारो जी, *लय : हरस सर्व हिये १८० भगवती जोड़ ११०. तब तुम प्राण चांपता जी, त्रिविधे जाव कहावो जी, १११. इम गोतम वर ज्ञानी जी, कष्ट करी जिन पासे जो ११२. वीर प्रभु प्रति बंद जी नहि अति आसन्न जासो जी, १०२. तए णं अम्हे दिस्सा - दिस्सा वयमाणा पदिस्सापदिस्सा वयमाणा १०३. नो पाणे पेच्चेमो जाव नो उद्वेमो, १०४. तए णं अम्हे पाणे अपेच्चमाणा जाव अणो वेमाणा १०५. तिविहं तिविहेणं जाव एगंतपंडिया यावि भवामो । १०६. तुम्भे णं अज्जो ! अप्पणा चेव १०७. तिविहं तिविणं जाव एगंतबाला यावि भवह । ( श० १८ ।१६८ ) १०८. तए णं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं एवं वयासीकेणं कारणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो ? ( श० १८१६९ ) १०९. तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासीतुब्भे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेह जाव उद्दवेह ११०. तर मे पाणे पेयेमाणा जाय उमाणा तिविहं तिविणं जाव एतबाला यावि भवह ( ० १८१७०) १११. तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं पडिभाइ, पडिभणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छर, ११२. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता णच्चासरणे णातिदूरे जाव पज्जुवासति । ( श० १८ ।१७१ ) ११३. गोयमादी ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी११४. तुमं गोषमा ते अण्णउथिए एवं बदासी, ११५. साहु णं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वदासी । - ११६. अस्थि णं गोयमा ! ममं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था, ११७. जेणं नोपभू एयं वागरणं वागरेत्तए, जहा णं तुमं । ११८. तं सुठु णं तुमं गोयमा ! ११९. ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहु णं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी । ( श० १८ । १७२ ) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुझे १२१. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी (श०१८।१७३) १२०. गोतम जी तिणवारो जी, वीर वचन सुण सारो जी। हरख्या हिया मझारो जी, पाया संतोष अपारो जी ।। १२१. वीर प्रभु प्रति वंदी जी, नमस्कार आनंदी जी। छद्मस्थ अतिसय मंदी जी, हिव तसु प्रश्न कथिदी जी ।। १२२. देश इकसौ अठ्यासी नुं न्हालो जी, त्रिण सय बयासीमी ढालो जी। भिक्षु भारीमाल ऋषिरायो जी, 'जय-जश' हरष सवायो जी ।। ढाल : ३८३ दहा १. प्राक् छद्मस्था एवं व्याकर्तुं न प्रभव इत्युक्तम्, (वृ० प०७५५) २. अथ छद्मस्थमेवाश्रित्य प्रश्नयन्नाह-(व०प०७५५) ३. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं कि जाणति-पासति ? उदाह न जाणति न पासति ? १. पूर्व प्रभुजी इम कह्यो, गोतम तै कहिवाय । तेम अनेरा छद्ममस्थ जे, कहिवा समर्थ नांय ।। २. अथ छद्ममस्थज आश्रयी, प्रश्न करता पेख । पूछ गोयम गणहरू, वारू रीत विशेख ।। *जिन वच महा जयकारिया ॥(ध्र पदं) ३. हे प्रभु ! छद्मस्थ मनुष्य जे, परमाणु हो पुद्गल प्रति ताहि के। स्यूं जाण देखै अछ, वलि अथवा हो जाण देखै नांहि के ? ४. जिन भाखै सुण गोयमा ! कोइ जाण हो सुणवै करि सोय के। पिण देखै नहिं तेहने, __ मतिश्रुत नों हो दर्शण नहीं कोय के ।। ५. कोइक छद्मस्थ छै तिको, __नहि जाणे हो नहिं देखै जेह के। इहां वृत्तिकार इम आखियो, तिको कहिये हो आगल वच तेह के ।। ४. गोयमा ! अत्थेगतिए जाणति न पासति, ५. अत्थेगतिए न जाणति न पासति । (श० १८१७४) ६. इह छद्मस्थो निरतिशयो ग्राह्यः (व० ५० ७५५) सोरठा ६. इहां छद्मस्थ कहाय, ते ग्रहिवो अतिशय रहित । प्रथम भंग नुं न्याय, कहियै छै ते सांभलो ।। ७. श्रुत उपयोगजवंत, श्रुतज्ञानी जाणे तसु । पिण ते नहिं पेखंत, तास न्याय आगल कहूं ।। ८. वर श्रुत ज्ञान तणेह, दर्शण तणां अभाव थी। परमाणु प्रति जेह, देखें नहि इहविध कह्यो ।। *लय : नींदड़ली हो बेरण ७. 'जाणइ न पासइ' त्ति श्रुतोपयुक्तः श्रुतज्ञानी, (वृ० १०७५५) ८. श्रुते दर्शनाभावात्, (वृ० ५० ७५५) श. १८, उ०८, ढाल ३८२,३८३ १८१ Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. जे श्रुत ज्ञान रहीत, नहि जाणें देखे नहीं । भंग द्वितीय इम रीत, वृत्तिकार इहां इम कह्यो । १०. अतिशय अवधि रहीत श्रुतज्ञानी छ तेहने श्रुत उपयोग सहीत, प्रथम भंग ए आखियो । । 1 ११. नंदी मांहि निहाल, श्रुतज्ञानी उपयोग सूं । सर्व द्रव्य द्रव्य सुविशाल जाने में देखे असे । १२. सर्व क्षेत्र सहु काल, श्रुतशानी सह भाव प्रति । वर उपयोगे न्हाल, देखें कह्यो । १३ तास वृत्ति में बाय जाणे में श्रुतज्ञानी जाणण जोग्य कहाय, जाणें पिण 1 १४. तसु उत्तर तिण स्थान, किम देखिये || उपमा वंछी छै इहां । देखण नीं पर जाण, देखें छं इम आखियो || १५. मेरू आदिज ख्यात, अणदेख्या पिण शिष्य प्रते । आचार्य अवदात, आलंकी १६. श्रोता ने तिणवार, एहवी बुद्धिज जिम सूत्रे ते गणि गुणभंडार, प्रत्यक्ष देखें १७. इमहिज से क्षेत्रादि ते मार्ट देखे यह द्रव्यादि दोष नहीं छ १८. हे प्रभु! छद्मस्य मनुष्य जे, वलि देखे छे तेहने ? १९. एवं यावत जाणवो, श्रुतज्ञान में द्विप्रदेशिक हो बंध प्रति जानंत के कोइ जाणं में देखे नहीं, । देखाये || ऊपजे । । कहै ॥ का । तेहमें ।।' (ज.स.) जिन भाखै हो इमहीज उदंत के ।। असंख्यात हो प्रदेशिक खंध कै । नहि जाणें हो नहि देखे को संघ के ।। २०. हे प्रभु! छद्मस्थ मनुष्य स्यूं, जिन भाख अनंत प्रदेशिक हो खंध प्रश्न उदार के ? गुण गोयमा ! कहिये छै हो एहनां भांगा च्यार के ।। २१. कोइक जाणें देखे अछे, कोइ जाणें हो नहि देखे विशेख कै । कोइ न जाणें देखें अ नहि जाणं हो नहि देखे को एक के ।। सोरठा 1 २२. फर्शादिक करि जेह जाणें अनंतप्रदेशियो । वली चक्षु करि तेह, देखें विण ए भंग घुर ।। २३. द्वितियो भंग कहंत, स्पर्श करी जाणें तिको। नेत्रे नहि देखंत, चक्षू तणां अभाव थी । *लय : नींदडली हो वे रण १५२ भगवती जोड़ ९. तदन्यस्तु 'न जाणइ न पासइ' त्ति (व० प० ७५५) ११, १२. नंदी सू० १२७ १३. नंदी हा० वृ० पृ० ९५ १५. नंदी चू० पृ० ८२ १८. छउमत्थे णं भंते! मणुस्से दुपए सियं बंध कि जाणति पासति ? एवं चेव । (पाटि० २ ) १९. एवं जाव असंखेज्जपएसियं । ( ० १८१७५) २०. छउमत्थे णं भंते! मणुस्से अनंतपएसियं बंध कि पुच्छा ? गोवमा ! २१. अस्गतिए जाति-पाति, बागतिए जागति न पासति अनलिए न जाणति पासति अत्येतिए न जाणति न पासति । ( श० १८ ।१७६ ) २२. जानाति स्पर्शनादिना पश्यति च चक्षुषेत्येकः ? ( वृ० प० ७५५, ७५६ ) २३. तथाऽन्यो जानाति स्पर्शादिना न पश्यति चक्षुषा वादिति द्वितीयः । (२०१० ७५६) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. तृतीय भंग के जंत, नहिं जाणे फर्शादि करि । तास अगोचर हुँत, पिण देखै चक्षू करी ।। २५. तुर्य भंग के जंत, नहिं जाणे फर्शादि करि । नेत्रे नहिं देखंत, चक्षु फर्श अगोचरे ।। २४. तथाऽन्यो न जानाति स्पर्शाद्यगोचरत्वात् पश्यति चक्षुषेति तृतीयः । (वृ० प० ७५६) २५. तथाऽन्यो न जानाति न पश्यति चाविषयत्वादिति चतुर्थः । (वृ० ५० ७५६) २६. छद्मस्थाधिकाराच्छद्मस्थविशेषभूताधोऽवधिकपरमाधोऽवधिकसूत्रे । (वृ० प० ७५६) २७. आहोहिए णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं कि जाणति-पासति ? उदाहु न जाणति न पासति ? जहा छउमत्थे एवं आहोहिए वि २८. जाव अणंतपएसियं । (श० १८।१७) २९. परमाहोहिए णं भंते ! मणुस्से परमाणु पोग्गल जं समयं जाणति तं समयं पासति ? ३०. ज समयं पासति तं समयं जाणति ? नो इणठे समठे। (श० १८११७८) २६. छमस्थ नां अधिकार थी, छद्मस्थ नोंज विशेख । आधोऽवधिक तणी वली, परम अवधि - पेख ।। २७. *अल्प अवधिवंत मनुष्य जै, परमाणु हो प्रति जाणे भदंत कै ? जिम छद्मस्थ तणों कह्यो, तिम कहिवो हो आधोअवधिकवंत कै । २८. यावत अनंतप्रदेशिया, जिम भाख्या हो छद्मस्थ नां सोय के। च्यार भांगा चावा सही, तिम कहिवो हो आधोअवधिक जोय के ।। २९. परम अवधिवंत मनुष्य जे, परमाणु हो प्रति हे भगवंत ! कै। जेह समय जाणे सही, ते समये हो स्यूं देखवो हुँत के ? ३०. जेह समय देखै सही, तिण समये हो परमाणु जाणंत के ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, वलि पूछ हो गोतम धर खंत कै ।। ३१. किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो ? परमावधिवंत मनुष्य विचार के । जाणे जे समय परमाणुओ, नहि देखै हो ते समय मझार के ? ३२. जे समय देख परमाणु प्रत, नहि जाणे हो ते समय मझार के ? श्री जिन भाखै गोयमा ! हिव कहियै हो तसु न्याय विचार के ।। ३३. ज्ञान उपयोग सागार छै, __ वलि दर्शण हो कहिये अणागार के। ज्ञान विशेषग्राही अछ, ___ सामान्यज हो ग्रहण दर्शन सार के ।। ३४. इम माहोमांहि विरोध थी, इक समये हो दोनई नहि कोय के। तिण अर्थे यावत तिको, नहि जाणे होते समये सोय कै ।। *लय : नींदडली हो बेरण ३१. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-परमाहोहिए णं मणुस्से परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति ? ३२. ज समयं पासति नो तं समयं जाणति ? गोयमा ! ३३. सागारे से नाणे भवइ, अणागारे से सणे भवइ । 'सागारे से नाणे भवति' त्ति 'साकार' विशेषग्रहणस्वरूपं । (वृ० प० ७५६) ३४,३५. से तेणठेणं जाव (सं. पा.) नो तं समय जाणति । एवं जाव अणंतपदेसियं ।। (श० १८१७९) 'से' तस्य परमाधोऽवधिकस्य तद्वा ज्ञानं भवति, श० १८, उ० ८, ढा० ३८३ १५३ Jain Education Intemational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. इम जाव अनंतप्रदेशियो, इक समये हो जाण देखै नांहि के। जाणे जे समय देखै नहीं, देखण समये हो नहिं जाणे ताहि के ।। तद्विपर्ययभूतं च दर्शनमतः परस्परविरुद्धयोरेकसमये नास्ति सम्भव इति । (वृ० प० ७५६) सोरठा ३६. परम अवधि उपजंत, अंतर्मुहुर्त थी तसु । केवलज्ञानज हुँत, सूत्र हिवै केवली तणुं ॥ ३७. *हे प्रभु ! केवली मनुष्य ते, जिम भाख्यो हो परमावधिवंत कै । तिमहिज कहिवो केवली, ___इम यावत हो अनंतप्रदेशिक हुंत के ।। ३८. सेवं भंते ! अठारम आठमें, तीनसौ नै हो तयांसीमी ढाल कै । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, सुख संपति हो 'जय-जश' सूविशाल कै ।। अष्टादशशते अष्टमोद्देशकार्थः ।।१८।८।। ३७. केवली णं भंते ! मणुस्से जहा परमाहोहिए तहा केवली वि जाव (सं० पा०) अणंतपएसियं । (श० १८।१८०,१८१) ३८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १८१८२) ढाल : ३८४ १. अष्टमुद्देशक अंत में, सखर केवली सार। भव्य द्रव्य सिद्ध ते अछ, कहिये तसु अधिकार ।। २. भव्य द्रव्य अधिकार थी, भव्य द्रव्य संवादि । नारक प्रमुख तणों हिवै, नवम उद्देशक आदि ।। ३. नगर राजगृह नै विषे, जाव वदै इम वान । गोतम जिन-स्तुति करी, नमस्कार विधि आन ।। ४. छ भव्य-द्रव्य-नारक, हे तारक भगवंत ? तब श्री जिन भाखै, हंता अत्थि हुंत ।। १. अष्टमोद्देशकान्ते केवली प्ररूपितः, स च भव्यद्रव्यसिद्ध इत्येवं (वृ० प० ७५६) २. भव्यद्रव्याधिकारान्नवमे भव्यद्रव्यनारकादयोऽभिधीयन्ते (वृ० प० ७५६) ३. रायगिहे जाव एवं वयासी पा ५. किण अर्थे प्रभुजी ! इम कहियै अवलोय । भव्य-द्रव्य-नारक अस्थि उत्तर जोय ।। वा०-द्रव्यभूत जे नारक, ते भूत नारक पर्यायपणे पिण हुवै ते माट भव्य शब्दे करी विशेष्यो । भव्य जे द्रव्य नारक इसो समास ते भव्य द्रव्य नारक छ ? इति प्रश्नः । ४. अत्थि णं भंते ! भवियदव्वनेरइया-भवियदन्व नेरइया ? हंता अत्थि। (श० १८।१८३) ५. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ भवियदव्वनेरइया भवियदव्वनेरइया ? वा-'भवियदव्वनेरइय' त्ति द्रव्यभूता नारका द्रव्यनारकाः, ते च भूतनारकपर्यायतयाऽपि भवन्तीति भव्यशब्देन विशेषिताः, भव्याश्च ते द्रव्यनारकाश्चेति विग्रहः (वृ० प० ७५६) *लय : नीवडली हो बेरण लिय : नमूं अनन्त चौबीसी १८४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. गोयमा ! जे भविए पंचिदिए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा नेरइएसु उववज्जित्तए । ७. ते कभविकबद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रभेदा भवन्ति । (वृ०प० ७५६) ६. भव्य कहितां नारक, जे ऊपजवा जोग । तिर्यंच पंचेंद्री, अथवा मनुष्य प्रयोग ।। गीतक छंद ७. इकभवज अंतर नेरियो ह, भव्य-द्रव्य-नारक कह्यो। इकभविक जे बद्धायु अभिमुख नाम-गोत्र ए त्रिहुं लह्यो। ८. *तिण अर्थे भव्य-द्रव्य-नारक इम आख्यात । __ इम यावत कहिये, थणियकुमार विख्यात ।। ९. छ प्रभुजी ! भव्य-द्रव्य-पृथ्वीकाइया जंत? जिन कहै हंता छै, किण अर्थे भगवंत ? ८. से तेणठेणं ! एवं जाव थणियकुमाराणं । (श० १८१८४) ९. अत्थि णं भंते ! भवियदव्वपुढविकाइया-भवियदव्व पुढविकाइया ? हंता अस्थि । (श० १८१८५) से केणठेणं? १०. गोयमा ! जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पुढविकाइएसु उववज्जित्तए । से तेणठेणं । ११. आउक्काइय-वणस्सइकाइयाणं एवं चेव । १०. जे पृथ्वीकाय में छै, ऊपजवा जोग । तिर्यंचं मनुष्य सुर, तिण अर्थे सुयोग ।। ११. भव्य-द्रव्य-अपकायिक, इमज वणस्सइकाय । भव्य-द्रव्य-पृथ्वी ने, आख्यो तिम कहिवाय ।। १२. भव्य द्रव्य तेउ वाउ, वलि विकलेंद्रिय तीन । ए विषे ऊपजवा योग्य, मनुष्य तिरि चीन ।। १३. तिर्यच पंचेंद्री भव्य-द्रव्य अवधार । तेह विषे ऊपजवा, योग्य कही गति च्यार ।। १२. तेउ-वाउ-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियाण य जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा तेउ-वाउ-बेइंदिय तेइंदिय-चरिदिएसु उववज्जित्तए। १३. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए नेरइए वा तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पंचिदियतिरिक्खजोणिए वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए। १४. एवं मणुस्सा वि। १४. भव्य-द्रव्य-मनुष्य पिण, एवं पाठ कहीव । ते विषे ऊपजवा योग्य, च्यारूं गति जीव ।। १५. भव्य-द्रव्य-व्यंतरा, जोतिषी वैमानीक । जिम कह्या नारकी, तिम कहिवा तहतोक ।। १६. भव्य-द्रव्य-नारकी, तेह तणी भगवान ! स्थिति किता काल नीं, आप परूपी जान ? १७. जिन भाखै जघन्य थी, अंतर्मुहर्त जान । उत्कृष्टी आखी, पूरव कोड पिछान ।। १५. वाणमंतर-जोइसिय-वेमणिया णं जहा नेरइया । (श० १८१८६) १६. भवियदब्वनेरइयस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? १७. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। (श० १८।१८७) सोरठा १८. सन्नी असन्नी जेह, नरक विषे जावै तसु । स्थिति जघन्य कहेह, अंतर्मुहूर्त ते भणी ।। १९. तिरि-पं० मनुष्य विचार, नरक विषे जावै तम् । उत्कृष्टी अवधार, कोड पूर्व नी स्थिति कही ।। २०. *भव्य-द्रव्य-असुर नीं, स्थिती किती भगवंत ? जिन भाखै जघन्य थी, अंतर्महुर्त हुंत ।। *लय : नमू अनन्त चौबीसी १८. 'अंतोमुहत्तं' ति संज्ञिनमसञ्जिनं वा नरकगामिनमन्तर्मुहूर्तायुषमपेक्ष्यान्तर्मुहूर्त स्थितिरुक्ता, (व०प० ७५६) १९. 'पुवकोडि' त्ति मनुष्यं पंचेन्द्रियतिर्यञ्चं चाश्रित्येति (वृ० प० ७५६) २०. भवियदव्वअसुरकुमारस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, श०१८, उ०९, ढा० ३८४ १८५ Jain Education Intemational Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. उत्कृष्टी तीन पल्य, उत्तरकुरादि पेक्षाय । इम जाव भव्य द्रव्य थणितकुमार कहाय ॥ २२. भव्य द्रव्य - पृथ्वी नों कीधो प्रश्न नों कीधो प्रश्न उचित्त । जिन भाखं जघन्य थी अंतर्मुहूर्त स्थित्त ।। २३. उत्कृष्टी आखी, साधिक सागर दोय । ईशाण अपेक्षा, इम अपकायिक होय || नारक जिम कहिवाय पृथ्वी नीं परि पाय || भव्य द्रव्य ए तीन । कहिवी तिण विधि चीन ।। भव्य द्रव्य स्थिति इष्ट तसु अंतर्मुहूर्त दृष्ट || तेतीस सागर जोय । सातमीं थकी ऊपजै सोय ॥ २४. ते बाउ पिण, भव्य - द्रव्य-वणस्सइ, २५. बे. ते चरखी, जिम नारकि आखी, २६. तिच पंद्री, ते जघन्य थकी, २७. उत्कृष्टी आखी, ए नरक २८. इम मनुष्य भव्य द्रव्य-व्यंतर ज्योतिषी जान । वैमानिक भव्य द्रव्य असुर जेम पहिछान ॥ २९. सेव भंते ! उदार । नवमुद्देशक नौ, अर्थ अनोपम सार ॥ ३०. ए ढाल तीन सय च्यार असीमी वारू । शत- अष्टादशम भिक्षु भारीमाल नृपचंद, सुजश 'जय' चारू ।। अष्टादशशते नवमोद्वेशकार्थः ॥ १८ ॥ ६ ॥ दूहा १. नवम उद्देशक भव्य द्रव्य - नारक आदिज ख्यात । भव्य द्रव्य-सुर जे मुनि, हिब दशमें अवदात ।। ढाल : ३८५ २. नगर राजगृह नें विषे, जाव वदै इम वाय । गोतम प्रभु नो विनय करि प्रश्न करें सुखदाय ॥ *म्हारा स्वाम गुणागर, अधिक ओजागर ओपता । *लय : सोहल नृप कहे चंद नं १८६ भगवती जोड़ जिनेंद्र मोरा, वर गोयम नीं जोड़ हो । (ध्र ुपदं ) २१. उक्कोसेणं तिष्णि पलिओ माई । एवं जाव थणियकुमारस्स । (४० १८१८८) "तिथि पनिमोमाई" ति उत्तरकुर्वादिमिथुनकनरादीनामित्यक्ता, २२. भवियदव्यपुढ विकाइयस्स णं पुच्छा । गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं ( वृ० प० ७५६ ) २३. उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई । एवं आक्काइस्स वि । 'साइरेगाई दो सागरोपमाई ति ईशानदेवनावि त्योक्ता, ( वृ० प० ७५६ ) २४. ते वाउकाइयस्स वि जहा नेरइयस्स । वणस्सइकाइस जहा पुढविकाइयस्स । २५. वेइंदियस्स तेइंदियस्स चउरिदियस्स जहा नेरइयस्स । २६. पंचिदितिजोणिस्स जो अंतोतं २७. उस्को तेती सागरोपमा 'उनकोसे तेली सागरोपमाई' ति सप्तमपृथिवीनारकापेक्षयोक्तमिति ( वृ० प० ७५७) २८. एवं मणुस्सस्स वि । वाणमंतर जोइसिय-वेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स । ( श० १८ ।१८९ ) २९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( श० १८ । १९० ) १. नवमोद्देशकान्ते भव्यद्रव्यनारकादितव्योता, अथ भव्यद्रव्याधिकाराद्रव्यद्रव्यदेवस्थान गारस्य वक्तव्यता ( वृ० प० ७५७) दशमे उच्यते २. रायगिहे जाव एवं वयासी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. भावितात्म अणगार ते, जिनेंद्र मोरा, खड्ग तथा खुर धार हो । ते प्रति अवगा प्रभु ? जिनेंद्र मोरा, हंता जिन वच सार हो । ४. तेह तिहां छेद पामं प्रभु ? जिनेन्द्र मोरा, अथवा भेदज पाय हो ? जिन है अर्थ समर्थ नहीं, मुणिद मोरा, तिहां शस्त्र आक्रम नांय हो । सोरठा ५. खुर धारादिक मांय, कह्यो प्रवेश मुनि तणों । वैक्रिय लब्धि कहाय, तसु सामर्थ्य थकी वृत्तौ ॥ ६. * इम जिम पंचम शतक में, परमाणु नीं पेख हो । वक्तव्यता कहो तिम इहां जाव अणगार विशेख हो । " सोरठा ७. जाव शब्द रे मांय, भावितात्म अणगार जे । अग्नि मध्य पई जाय ? जिन कहै हंता जाय त्यां ॥ य. ते तिण विषे वलंत ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं । ८. शस्त्र नहीं आक्रमंत, निश्चै करिनं नहि बलै । ९. भावितात्म अणगार जे पाणी रा आवत्तं मांहि हो । यावत निश्चय करि तिहां, शस्त्र आक्रमै नांहि हो । सोरठा असिधारादिक ने विषे। अतिअवगाहन ईज ते ।। अन्य पर्याय करि बलि कहिये ते आगले ॥ छै वायु करी फर्मत हो । प्रवेश कियो कहंत हो || १०. पूर्व मुनि अवदात, अवगाहन आख्यात ११. फर्शन लक्षण ताहि, परमाण्वादिक माहि १२. परमाणु पुद्दल प्रभु! फश्य ते वायु नैं विषे, १३. अथवा वाडकाय ते परमाणु पुद्गल मांय हो । प्रवेश कियो व्याप्यो अछे, तसु फर्थ्यो कहियाय हो ? १४. जिन कहै परमाणु तिको, पण वायु परमाणु मझे *लय सीहल नृप कहै चंद ने । पेसे वायु रं गांव हो । प्रवेश नांहि कराय हो । ३. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा असिधारं वा खुरधारं वा भोगान्डा ? हंता ओगाहेज्जा । ४. से णं तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज वा ? नो इणट्ठे समट्ठे । नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । (० १० १९१) ५. इहचानमारस्त सुरधारादिषु प्रवेशो वैकिलब्धिसामर्थ्यादवसेयः ( वृ० प० ७५७) ६. एवं जहा पंचमए (भू० १५७) परमाणुपलवत्तव्वया जाव अणगारेणं । ७. अणगारे णं भंते! भावियप्पा अगणिकायस्स मज् मज्भेणं वीइवएज्जा ? ८. हंता वीडवण्या से णं भंते ! तत्थ झियाएज्जा ? गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे । नो खलु तत्थ सत्थं ( ० १८१९२) भावियप्पा पुक्खल संवट्टगस्स वीइवएज्जा ? नो (श० १० १९३-१९५ ) कमइ । ९. अणगारे णं भंते! महामेहस्स मज्भं मज्झेणं खलु तत्थ सत्थं कमइ । १०. पूर्वमनगारस्यासिधारादिवाना ११. अथावगाहनामेव परमाण्वादिष्यभिधातुमाह- ( वृ० प० ७५७) १२. परमाणुपोग्गले णं भंते ! वाउयाएणं फुडे ? ( वृ० प० ७५७ ) स्पर्शनालक्षणपर्यायान्तरेण १३. वाउयाए वा परमाणुपोग्गलेणं फुडे ? 'वाउयाएणं फुडे' त्ति परमाणुपुद्गलो वायुकायेन 'स्पृष्ट:' व्याप्तो मध्ये शिप्त इत्यर्थः ( वृ० प० ७५७ ) १४. गोयमा ! परमाणुपोग्गले वाउयाएणं फुडे, नो वाउयाए परमाणुपोग्गलेणं फुडे । ( श० १८ । १९६) श० १८, उ० १०, ढा० ३८५ १८७ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १५. वायु स्थूल कहाय, अति सूक्ष्म परमाणुओ। तिणसू वाऊकाय, नहिं पेसै परमाणु में । १६. *दोयप्रदेशिक खंध प्रभु ! करै वायु में प्रवेश हो? एवं चेव कहीजिये, इम जाव असंख प्रदेश हो । १५. 'नो वाउयाए' इत्यादि नो वायुकायः परमाणु पुद्गलेन 'स्पृष्ट' व्याप्तो मध्ये क्षिप्तो, वायोमहत्त्वाद् अणोश्च निष्प्रदेशत्वेनातिसूक्ष्मतया व्यापकत्वाभावादिति । (वृ०प०७५७) १६. दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे वाउयाएणं फुडे ? वाउ याए वा दुप्पएसिएणं खंघेणं फुडे ? एवं चेव। एवं जाव असंखेज्जपएसिए। (श० १८१९७) १७. अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे वाउयाएणं फूडे -- पुच्छा । १८. गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे वाउयाएणं फुडे, १७. अनंतप्रदेशियो कांध प्रभु ! करै वायू में प्रवेश हो? एह पूछा कीधां थकां, हिव जिन भाखै विशेष हो । १८. अनंतप्रदेशियो खांध ते, पेसै वाऊकाय मांहि हो। व्याप्त हुवै वाऊकाय थी, अति सूक्ष्मपणां थी ताहि हो । १९. वाऊकाय छै ते वली, अनंतप्रदेशिक मांय हो। कदाचित पैसवू अछ, कदा पैसवू न थाय हो । सोरठा २०. वायु खंध थी ताहि, अनंतप्रदेशिक है बड़ो। तो अनंतप्रदेशिक मांहि, पैठो कहियै छै पवन ।। २१. वाउ खंध थी ताहि, अनंतप्रदेशिक ह लघु । तो अनंतप्रदेशिक मांहि, पवनकाय पैठो नथी ।। १९. वाउयाए अणंतपएसिएणं खंधेणं सिय फुडे, सिय नो फुडे । (श० १८।१९८) २२. *वस्ति दीवड़ी हे प्रभु ! वायु करी फर्शत हो। के वाउकाय दीवड़ी करी, फों व्याप्त कहत हो? २३. जिन कहै वस्ति दीवड़ी, वायु करी फर्शत हो। समस्तपणे करि तेहनां, विवर पूरवा थी हुंत हो । २४. पिण नहिं वाऊकाय जे, व्याप्यो दीवड़ी संघात हो । व्याप्त अर्थ फर्शण तणों, दाख्यो श्री जगनाथ हो ।। २०,२१. 'अणंतपएसिए ण' मित्यादि, अनन्तप्रदेशिक: स्कन्धो वायुना व्याप्तो भवति सूक्ष्मतरत्वात्तस्य, वायुकायः पुनरनन्तप्रदेशिकस्कन्धेन स्याद् व्याप्त: स्यान्न व्याप्तः, कथम् ?, यदा वायुस्कन्धापेक्षया महानसो भवति तदा वायुस्तेन व्याप्तो भवत्यन्यदा तु नेति । (वृ० १० ७५७) २२. वत्थी भंते ! वाउयाएणं फुडे ? वाउयाए वा वत्थिणा फुडे ? २३,२४, गोयमा ! वत्थी वाउयाएणं फुडे, नो वाउयाए वत्थिणा फुडे । (श० १८।१९९) 'वत्थी' त्यादि, 'वस्ति:' दृतिर्वायुकायेन 'स्पृष्टः' व्याप्तः सामस्त्येन तद्विवरपरिपूरणात् नो वायुकायो वस्तिना स्पृष्टो वस्तेर्वायुकायस्य परित एव भावात् । (वृ० ५० ७५७) सोरठा २५. अनंतरे सुकहेह, पुद्गल द्रव्य फर्शण तणों। अथ वर्णादि करेह, पुद्गल प्रतै निरूपियै ।। २६. *छ प्रभु ! रत्नप्रभा तले, द्रव्य वर्ण थी काल हो। नीला नै राता वलि, पीला धवला न्हाल हो।। २५. अनन्तरं पुद्गलद्रव्याणि स्पृष्टत्वधर्मतो निरूपितानि, अथ वर्णादिभिस्तान्येव निरूपयन्नाह (वृ० प० ७५७) २६. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे दव्वाइं वण्णओ काल-नील-लोहिय-हालिद्द सुक्किलाई, २७. गंधओ सुब्भिगंधाई दुब्भिगंधाई, रसओ त्तित्त-कड़य कसाय-अंबिल-महुराई, २७. गंध थी सुरभिगंध ते, दुरभिगंध अनिष्ट हो। रस थकी तिक्त कटुक वली, कषाय अंबिल मिष्ट हो। *लय : सीहल नृप कहै चंद ने १८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. फर्श थकी कर्कश मृदू, गुरु लघु वलि कहिवाय हो। शीत उष्ण निद्ध लुक्ष के, बंध्या माहोमाय हो ।। २९. माहोमांहि फा वलि, जावत मांहोमांहि हो । घट समुदायपणे करी, ते पुद्गल रहै ताहि हो ? ३०. जिन भाखै हंता अस्थि, एवं यावत जाण हो। सातमी पृथ्वी नैं तले, पूर्ववत पहिछाण हो । ३१. छै प्रभु ! सौधर्म नै तले, एवं चेव उदंत हो । इम जाव सिद्धशिला तले, सेवं भंते ! सेवं भंत ! हो।। २८. फासओ कक्खड-मउय-गरुय-लहुय-सीय-उसिण-निद्ध लुक्खाइं, अण्णमण्णबद्धाई, २९. अण्णमण्णपुट्ठाई, अण्णमण्णबद्धपुट्ठाई, अण्णमण्ण घडत्ताए चिट्ठति ? ३०. हंता अस्थि । एवं जाव अहेसत्तमाए । (श० १८१२००) ३१. अत्थि णं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहेदव्वाइं ? एवं चेव । एवं जाव ईसिपन्भाराए पुढवीए। (श० १८।२०१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ३२. जाव विहरइ। (श० १८।२०२) तए णं समणे भगवं महावीरे जाव (सं० पा०) बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श० १८।२०३) ३२. इम कही यावत विचरता, ताम प्रभु गुणगेह हो। बाहिर जनपद देश में, विहार करी विचरेह हो । ३३. देश अठारम दशम नु, त्रिण सय पच्यासीमी ढाल हो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल हो । ढाल : ३८६ सोरठा १. अनंतरे पहिछान, पुद्गल द्रव्य निरूपिता । आत्म द्रव्य विधान, द्वारे करि कहिये हिवै ।। १. अनन्तरं पुद्गलद्रव्याणि निरूपितानि, अथात्मद्रव्यधर्मविशेषानात्मद्रव्यं च संविधानकद्वारेण निरूपयन्निदमाह - (वृ० ५० ७५८) २.तिण काल यामणो, तेहन मोमिल नाम । २. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नगरे होत्था-वण्णओ। ३. तत्थ णं वाणियगामे नगरे सोमिले नाम माहणे परिवसति अड्ढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए, ४. रिव्वेद जाव सुपरिनिट्ठिए, पंचण्हं खंडियसयाणं, २. तिण काले नै तिण समय, नगर वाणिये ग्राम । __ हंतो अधिक रलियामणो, तेहनुं वर्णक ताम ।। ३. तिण ग्राम नगर वाणिज विषे, ब्राह्मण सोमिल नाम। वसै ऋद्धिवंत जाव ते, अपडिभूतज ताम ।। ४. ऋगवेद यावत तिको, निज मत नों है जाण । छात्र शिष्य है जेहने, पंच सया परिमाण । ५. पोता तणां कुटंब नों, स्वामीपणों सूजोय । भोगवतो यावत तिहां, विचरै सोमिल सोय ।। *भगवंत भला आविया ए॥(ध्र पदं) ६. श्रमण भगवंत महावीर जी ए, तिण अवसर जिनराय के। जाव समवसरया ए, दूतिपलास वन मांय के ।। *लय : अरिहंत मोटका ए ५. सयस्स य कुडुंबस्स आहेवच्चं जाव (सं० पा०) विहइ। ६. तए णं समणे भगवं महावीरे समोसढे श०१८, उ०१०, ढा० ३८५,३८६ १८९ Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जाव परिसा पज्जुवासति। (श० १८।२०४) ८. तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स ९. अयमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था१०. एवं खलु समणे नायपुत्ते पुव्वाणुपुब्बि चरमाणे ७. यावत परषद आयन ए, त्रिविध जोगे करि जेह के। सेव स्वामी तणी ए, हरष धरीने करेह के ।। ८. सोमिल विप्र तिण अवसरे ए, वीर पधारिया वन्न कै। ए अर्थ कथा भली ए, लाधे थकेज सुजन्न कै ।। ८. एह एहवैज रूपे तदा ए, यावत ऊपनो वन्न कै । मनोरथ एहवो ए, सांभलजो धर कन्न कै ।। १०. इम निश्चै करिने इहां ए, ज्ञात-सुत श्रमण कहिवाय के। पूर्व अनुपूर्वीये ए, चालता देश रै मांय कै।। ११. ग्रामानुग्राम जाता थका ए, सुखे-सुखे विचरता तास के । जाव आव्या इहां ए, यावत दूतिपलास कै ॥ १२. यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रही ए, यावत विचरै छै ताय के। ते भणी बाग में ए, हूं तिहां जाऊं चलाय कै ।। १३. श्रमण जे ज्ञात-सुत नैं कनै ए, प्रगट था इहवार के। कहिस्य जे आगलै ए, अर्थ जात्रादिक सार कै ॥ ११. गामाणुगाम दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जाव (सं० पा०) दूतिपलासए चेइए १२. अहापडिरूवं जाव (सं० पा०) विहरइ । तं गच्छामि १४. यावत प्रश्न बहु पूछसू ए, जो मुझ अर्थ नां ताह के। जाब प्रश्नां तणां ए, उत्तर करिस्य निर्वाह के ।। १३. समणस्स नायपुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामि, इमाई च णं एयारूवाई अट्ठाई 'इमाइंच णं' ति इमानि च वक्ष्यमाणानि यात्रायापनीयादीनि (वृ० प० ७५९) १४. जाव (सं० पा०) वागरणाई पुच्छिस्सामि, तं जइ मे से इमाइं एयारूवाइं अट्ठाई जाव (सं० पा०) वागर णाई वागरेहिति १५. ततो णं वंदीहामि नमसीहामि जाव पज्जुवासीहामि, १६. अह मे से इमाइं अट्ठाई जाव वागरणाई नो वागरे हिती १५. जाब दीधां छतां श्रमण नैं ए, वांदिसू करिसूं नमस्कार के । जाव पर्युपासना ए, हूं करिसू इहवार के।। १६. अथ मुझ एहिज अर्थ नां ए, जाव प्रश्नां तणां ताहि के। निर्वाह करिस्य नहीं ए, उत्तर देस्यै जो नांहि कै ।। १७. तो हूं ए अर्थ करी तसु ए, जाव प्रश्ने करी वरण के। कष्ट करिसूं तदा ए, निःपृष्ट प्रश्न व्याकरण के । १८. इम करी इम मन चितवी ए, स्नान करी शुद्ध थाय के । जाव शरीर नै ए, करि अलंकृत अधिकाय कै ।। १७. तो णं एएहिं चेव अद्वैहि य जाव वागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करेस्सामि १८. इति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता हाए जाव अप्प महग्घाभरणालंकियसरीरे १९. भगवती जोर . .. Jain Education Intemational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता, पायविहारचारेणं एगेणं खंडियसएणं सद्धि संपरिडे १९. पोता नां घर थकी नीकल ए, नीकली विप्र विख्यात कै। पालो पग चालतो ए, ___एकसौ छात्र संघात के। २०. वाणिज ग्राम जे नगर ने ए, मध्य-मध्ये करि जास के। नीकली आवतो ए, चैत्य ज्यां दूतिपलास के । २१. जिहा श्रमण भगवंत महावीर जी ए, त्यां आवै आवी ने तहतीक के। ऊभो रही तदा ए, नहीं अति दूर नजीक कै॥ २०. वाणियगामं नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव दूतिपलासए चेइए, २१. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा २२. समणं भगवं महावीरं एवं वयासी (श०१८।२०५) दूहा २२. सोमिल ब्राह्मण तिण समय, महावीर प्रति पेख । यावत बोले इह विधे, पूछ प्रश्न विशेख ॥ २३. *ए तीन सय छयांसीमी ढाल छै ए, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय कै। तास पसाय थी ए, 'जय-जश' हरष सवाय कै ॥ ढाल : ३८७ दूहा १. हे भदंत ! छै ताहरै, जात्रा प्रवर सुजान । संजम जोग विषे सखर, प्रवर्तवू पहिछान ।। २. मोक्ष मार्ग प्रति जावतां, प्रेरणहार प्रधान । इंद्रयांदिक नो वस्यपणों, जबणिज्जं ते जान ।। १. जत्ता ते भंते ? 'जत्त' त्ति यानं यात्रा-संयमयोगेषु प्रवृत्तिः (वृ० प० ७५९) २. जवणिज्जं (ते भंते?)? 'जवणिज्ज' ति यापनीयं-मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियादिवश्यतारूपोधर्मः ३. अब्बाबाहं (ते भंते ?) ? फासुयविहारं (ते भंते?) ? (वृ० प० ७५९) 'अव्वाबाह' ति शरीरबाधानामभावः 'फासुयविहारं' ति प्रासुकविहारो-निर्जीव आश्रय इति, (वृ०प० ७५९) ४. सोमिला ! जत्ता वि मे, जवणिज्ज पि मे, ३. अव्याबाध शरीर जे, बाधा रहित विचार। आश्रय छै निर्जीव तुझ, प्रासुक तेह विहार ? ४. जिन भाखै सुण सोमिला ! जात्रा पिण छै मुझ । जवणिज्जं छै मांहरै, छै अति सखर सुबुज्झ ।। ५. अव्याबाधज पिण मुझे, छै मुझ प्रासुक विहार । इम भगवंत भाख्ये छते, सोमिल पूछ सार ।। ६. हे भदंत ! स्यं ताहरे, जात्रा अधिक उदार । इम सोमिल पूछथे थके, उत्तर दै जगतार ।। * लय : अरिहंत मोटका ए ५. अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे। (श०११२०६) ६. कि ते भंते ! जत्ता ? श०१८, उ०१०, ढा० ३८६,३८७ १९१ Jain Education Intemational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. *जिन भावं सोमिला ! अर्थ म्हारज अखी। तप अनशन जे आदि भेद द्वादशज रखी। द्वादशज रखी जी, वलि नियम सखी, तसु विषय अभिहते परखी। तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! कहे चि तीर्थमुखी ॥ ८. संजम सतर प्रकार, सभायज धर्मकथा | ध्यान निमल वर शुक्ल, आवश्यक छविध यथा । छविध यथा जी, नहीं छै ज वृथा तसुं निरतिचारपणूंज तथा । तूं तो सुण-गुण सोमिल विप्र ! स्वाम भाखे अरथा || ९. एह प्रमुख जे जोग, विमल जे तास विखे जयणा जेह प्रवृत्ति, तिका जात्राज अर्थ | जात्राज अखै जी, जिनराज दखे, ज्ञानादिक गुण सुध रीत रखें। तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! एह जात्राज लखे ॥ १०. वृति विषे इम वाय आवश्यकादिक ताय, ११. तथापि तप नियमादि, तप नियमादिसंवादि सोरठा यद्यपि प्रभु केवलिपणें । बोल केइक नहि छे तमु ॥ तसु फल नां सद्भाव थी। कहिये ए फल आषयी ॥ दूहा १२. बलि सोमिल पूछे अछे, हे प्रभुजी ! भगवंत ! जवणिज्जं स्यूं बाहरे ? ते मुझ कहो उदंत ॥ १३. जिन भावे सोमिला ! वापनीय द्विविध थुणी । इंद्रिययापनीय जाण, नोइंद्रिय द्वितीय गुणी । द्वितीय गुणी जी, बिहुं वस करणी, तसु जवणिज्जं आखेज मुणी । तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! कहे इम तीर्थक्षणी ॥ १४. इंद्रियमापनीय कवण ? वाम प्रभु एम कहे। पांचू इंद्रिय मुझ निरुपहल जेह रहै ॥ जेह रहे जी, यसवर्ती व इंद्रियमापनीय तास लहै । तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! त्रिलोकीनाथ कहै ।। १५. बलि नोइंद्रिय जेह यापनीय कवण कही ? जिन कहै मुझ क्रोधादि विछेद थयाज सही । याज सही जी, मुझ उदय नहीं, नोइंद्रिय यापनीय तेह लही । तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! नाथ वचनामृत ही ॥ *लय : म्हानें लागं लागं चरण सुहायो / धिन धिन भिक्खू स्वाम १९२ भगवती जोड़ ७. सोमिला ! जं मे तव-नियमइह तपः विशेषा: ८९. संजम सजाय भाषावादी जयणा, सेत्तं जत्ता । संयमः --- प्रत्युपेक्षादिः जोगेसु (स०१८।२०७) स्वाध्यायो -- धर्मकथादि ध्यानं धर्मादिः आवश्यकं षड्विधं, 'जयण' त्ति प्रवृत्तिः । (२०१० ७३९) -अनशनादि नियमाः तद्विषया अभिग्रह ( वृ० प० ७५९ ) १०,११. एतेषु च यद्यपि भगवतः किञ्चिन्न तदानीं विशेषतः संभवति तथाऽपि तत्फलसद्भावात्तदस्तीत्यवगन्तव्यं, ( वृ० प० ७५९) १२. किति भंते! जवणिज्जं ? १३. सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाइंदियजवणिज्जे य, नोइंदियजवणिज्जे य । ( श० १८१२०८ ) १४. से किं तं इंदियजवणिज्जे ? इंदियजवणिज्जे-जं मे सोइंद्रियक्षि घाणिदिय जिभिदिय- फासिंदियाई निरुवहयाई वसे बति तं इंद्रियजयगि ( श० १८२०९) 1 १५. से किं तं नोइंदियजवणिज्जे ? - नोईदियनवणिज्जेमेोहमा माया लोभा वोडा नोउदीति से मोदिय सेत्तं जवणिज्जे । (१० १० २१० ) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १६. इंद्रिय वणिज्ज ते इंद्रियनों वस्यपणों । इम नोइंद्रिय हिज्ञ, णवरं एनो शब्दनं ॥ १७. मिश्र वचन थी जाण, इंद्रिय करिकै मिश्र जे । प्यार कषाय पिछाण यस करिखूं छं तेनुं ॥ १८. तथा सहार्थपणेह, इंद्रिय सहचारी तिके । यस कोधादि करेह नो रव मिश्र सहार्थ इम || १९. स्वारं भगवंत ! अव्याबाधा कहिये ? जिन भाख अम्हनेंज वाय पित नो दहिये । नो दहिये जी, कफ पिण नहि है, सन्निपाततिको पिण नहि रहिये । 'सोमिल विप्र ! तूं तो तो सुण-सुण जगत प्रभु इम कहिये ॥ २०. विविध रोग आतंक, दोष जे देह तणां । थिया सर्व उपशांत, ऊदोर नहीं अपणां । नहीं अपणां जो क्षय थवा घणां दाख्यं ए अब्याबाधपणां । तूं तो गुण-सुण सोमिल विप्र ! स्वाम भार्थ सुगुणा ! २१. स्यूं धारं भगवंत! विहारज फासू जहां ? जिन भाखे सोमिला ! अम्हे आराम रहा। आराम रहां जी, उद्यान लहां, फुन देवल सभा प्रपात गहां । तूं तो गुण गुण सोमिल वित्र ! कहै जिनराज तहां ॥ २२. स्त्री पशु पंडग रहीत, प्रवर वस्तीज कही। जीव वजित प्रासुक एषणीक तेह सही ॥ तेह सही जी गृहिदत्त गही, पीठ फलग सेज संचार नही । तूं तो गुण-सुण सोमिल विप्र ! वीर बच अमृत हो । । २३. निर्दोषण ए. जाण, सर्व अंगीकार करी । हूं विचरूं विव रूड़ी रीत हरप आनंद धरी । आनंद धरी जी, तिणसं उपरी एछे अम्ह प्रासुक विहार सिरी । तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! मान सिख्या सखरी ॥ २४. शतक अठारम सार, दशम नुं देश सही । आखी ढाल रसाल, तीनसय अधिक प अधिक पई जी, सप्त अस्सी वही, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय मही । ओ तो 'जय जय' हर आनंद, संपदा सखर नही ॥ *लय : म्हानें लागं लागे चरण सुहायो १६-१८. 'इंदियजवणिज्जं' ति इन्द्रियविषयं यापनीयंत्वमिन्द्रियं एवं नापनीयं नवरं नोशब्दस्य मिश्रवचनत्वादिन्द्रियैमिश्राः सहार्थत्वाद्वा इन्द्रियाणां सहचरिता नोइन्द्रियाः कषायाः । 7 ( वृ० प० ७५९ ) १९. किं ते भंते! अव्वाबाहं ? सोमिला ! जं मे सन्निवाइया वातिय वित्तिय संभिय २०. विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता नो उदीरेति सेवाहं । (श० १८।२११) २१. किं ते भंते ! फासूयविहारं ? सोमिला ! जणं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु २२.२३. इज्जिया सही फागु एसणिज्जं पीढ - फलग - सेज्जा - संथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि सेत्तं फासूयविहारं । ( श० १८।२१२ ) श० १८, उ० १०, ढा० ३८७ १९३ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल:३८८ दूहा १. सरिसवया ते भंते ! कि भक्खेया ? अभक्खेया ? ३. सोमिला! सरिसवया (मे ?) भक्ख्या वि अभक्खेया वि। (श० १८।२१३) ४. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ सरिसवया मे भक्वेया वि अभक्खेया वि ? ५. से नणं भे सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु ६. दुविहा सरिसवया पण्णत्ता, तं जहा-मित्तसरिस वया य, धन्नसरिसवया य । १. वलि सोमिल पूछ अछ, सरिसव हे भगवंत ! एह तुम्हारै भक्ष छ, अथवा अभक्ष हंत ? २. वीर प्रभु तिण अवसरे, सोमिल प्रति संवेद । अर्थ कहै सरिसव तणां, भाखै भिन-भिन भेद ।। *सुण सोमिल ! बात, सरिसव भेद कहै जगनाथ ॥(ध्र पदं) ३. वीर कहै सुण सोमिल ! सोय, सरिसव भक्ष अभक्ष पिण होय ॥ ४. किण अर्थे प्रभुजी ! इम ख्यात, सरिसव भक्ष अभक्ष पिण थात? ५. हे सोमिल ! निश्चै मुझ मत ताहि, ब्राह्मण संबंधिया शास्त्रज मांहि ।। ६. सरिसव आख्या है दोय प्रकार, मित्त सरिसव धान्य सरिसव सार ।। सोरठा ७. समान वय नां सोय, मित्र सरीखी वय करी । सरिसव धान्य सुजोय, धान्य रूप कहिये तिको ।। ८. *ते मित्र सरिसव तिहां तीन प्रकार, जन्म थयो साथे तिणवार ।। ९. साथे बध्या वृद्धि पाम्या शरीर, दूजो भेद दाख्यो ए वीर ।। १०. बाल क्रीड़ा जे रम्या जिह साथ, धूल में कीड़ करी दिन रात ।। ११. श्रमण निग्रंथ नै ए त्रिहं सोय, अभक्ष भक्षण जोग न होय ।। १२. जे धान्य सरिसव तिहां दोय प्रकार, ___ अग्नि प्रमुख शस्त्र-परिणत धार ।। १३. शस्त्रे करि परिणम्या नहीं जेह, अशस्त्र-परिणत कहिये तेह ।। १४. अशस्त्र-परिणत सचित्त प्रत्यक्ष, श्रमण निग्रंथ – तेह अभक्ष ।। १५. शस्त्र-परिणत तिहां दोय प्रकार, एषणीक मैं अनेषणी धार ।। १६. तिहां अनेषणीक सदोष प्रत्यक्ष, श्रमण निग्रंथ नै तेह अभक्ष ।। *लय : जुठो अन्न खवाव जास, तो मुझने कहिये स्याबाश । भोरी ! सांभल बात, वेब डिगाऊं मानव कितियक बात ॥ ७. सदृशवयसः--समानवयसः अन्यत्र सर्षपाःसिद्धार्थकाः। (वृ० प० ७६०) ८. तत्थ णं जेते मित्तसरिसवया ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा सहजायया, ९. सहवड्ढियया। १०. सहपंसुकीलियया । ११. ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। १२. तत्थ णं जेते धन्नसरिसवया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सत्थपरिणया य, १३. असत्थपरिणया य। १४. तत्थ णं जेते असत्थपरिणया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । १५. तत्थ णं जेते सत्थपरिणया ते दुविहा पण्णता, तं जहा -- एसणिज्जा य, अणेसणिज्जा य । १६. तत्थ णं जेते अणेसणिज्जा ते समणाणं निग्गंथाण अभक्खेया। १९४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. एषणोक नां भेद का तिहां दोय, जाच्या मांग्या अणजाच्या सोय || १८. अणजाच्या याचना कीधी न कोय, ते श्रमण निग्रंथ ने अभक्ष होय ।। १९. जाच्या नां दोय प्रकार कहाय, लाधा पाम्या अणलाधा न पाय || २०. तिहां लाधा नहि पाम्या नहिं जेह, श्रमण निग्रंथ ने अभक्ष एह ॥ २१. तिहां लाधा पाम्या छै तिके सुप्रयोग्य, श्रमण निग्रंथ नै भक्षण जोग्य || २२. ठिण अर्थ सोमिल ! इम व्यात, यावत अभक्ष पिण अवदात || २३. मास तुम्हारं हे भगवंत ! भक्ष अर्थ के अभक्ष हूंत ? [सुण सोमिल ! बात, मासा भेद कहै जगनाथ ॥ ] २४. जिन कहै सोमिल ! म्हारे मास, भक्ष अभक्ष बिहूं छे तास ।। २५. कि अ करि हे भगवंत ! यावत अभक्ष पिण जे कहंत ? २६. जिन कहै सोमिल ! तुझ मत ताहि, ब्राह्मण संबंधिया शास्त्र मांहि ॥ २७. दोय प्रकारे परूप्या मास, द्रव्य मासा काल मासा तास ॥ २८. तिहां काल मासा ते श्रावण आदि, २९. द्वादश भेद कह्या छै तास, ३०. कार्तिक मृगशिर पोस छाण, ३१. जेठामूल आसाढ सुजोय, ३२. द्रव्य मासा तहां दो प्रकार, आसाढ मास ते अंत संवादि ॥ श्रावण भादव आसोज मास ॥ माहू फागुण चेत वैशाख जाण || श्रमण निग्रंथ ने अभक्ष होय ॥ अर्थ मासा धान्य मासा धार ॥ ३३. अर्थ मासा ते द्विविध तास, सोना नों मासो ने रूपा नों मास ।। ३४. ते श्रमण निग्रंथ में अभक्ष होय, खायवा जोग्य नहीं ए कोय ॥ ३५. धान्य मासा उड़द दोय प्रकार, शस्त्र-परिणत अचित विचार ।। ३६. अशस्त्र-परिणत सचित्तज होय, शस्त्र परिणामियो नहि कोय || १७. तत्थ णं जेते एसणिज्जा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा जाइया य, अजाइया य । १८. तत्थ णं जेते अजाइया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्वेया । १९. तत्थ णं जेते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, लद्धा य, अलद्धा य । २०. तत्थ णं जेते अलद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खया । २१. तत्थ णं जेते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं भक्खया । २२. से गट्ठे सोमिता एवं बुवद-सरिसवा मे भवेया जान (सं०पा० ) अथवा वि ( श० १८।२१४ ) तं जहा - २३. मासा ते भंते ! किं भक्खेया ? अभक्खेया ? २४. सोमिला ! मासा मे भक्वेया वि, अभक्खेया वि । ( श० १८।२१५ ) २५. से केणट्ठेणं जाव (सं०पा० ) अभक्खेया वि ? २६. से नूणं भे सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु २७. दुविहा मासा पण्णत्ता, तं जहा - दव्वमासा य, कालमासा य । २८. तत्थ णं जेते कालमासा ते णं सावणादीया आसाढ - पज्जवसाणा २९. दुवालस पण्णत्ता, तं जहा-सावणे, भद्दवए, आखोए ३०. कत्तिए, मग्गसिरे, पोसे, माहे, फग्गुणे, चेत्ते, वसाहे ते णं समणाणं निग्गंथाणं ३१. जेट्टामुले आपा अभक्खेया । 1 ३२. तत्थ णं जेते दव्वमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - अत्थमासा य, धण्णमासा य । ३३. तत्थ णं जेते अत्थमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा सुवण्ण मासा य, रुप्पमासा य । ३४. ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । ३५. तत्थ णं जेते धण्णमासा ते दुबिहा पण्णत्ता, तं जहासत्यपरिणया य । ३६. असत्यपरिणया य । श० १८, उ० १०, ढा० ३८८ १९५ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. इम जिम धान्य सरिसव नां भेद, ३८. यावत तिण अर्थे करि तास, तिमही धान्य मासा नां संवेद || ३९. कुलत्था तुम्हारे हे भगवान ! [सुण सोमिल! ४०. जिन कहै सोमिल ! कुलत्था मुझ, यावत अभक्ष पिण छै मास ।। स्यूं भक्ष छँ के अभक्ष जान ? बात, ४१. किस अर्थ करि हे भगवंत ! कुलत्था भेद कहै जगनाथ || | ] भक्ष अभक्ष बिहु कहै तुझ ॥ ४२. जिन कहै सोमिल तुझ मत ताहि, यावत अभक्ष पिण ए कहंत ? ४३. दोय प्रकारे कुलत्था कहाय, इत्यिकुलत्या धान्यकुलत्या ताय । बात, [गुण सोमिल ! कुलस्था भेद कहे जगनाथ ।। ] ४४. कुल में रहि तिणसं कुलत्था नाम, ते इत्यिकुलत्था नां भेद त्रिण ताम ।। [सुणजो भवि! १९६ भगवती जोड ४५. कुल नीं वह बलि कुल नीं मात, बहू ब्राह्मण संबंधिया शास्त्र मांहि ॥ ४६. ए भ्रमण निर्भय ने अभक्ष होय, भक्षण जोग्य नहीं कोय | ४७. तिहां धान्य कुलत्था नां भेद विचार, इम जिम धान्य सरिसव अवधार || कुछ नीं बेटी वलि आख्यात || ४८. तिण अर्थ करिने अवलोय ४९. शतक अठारम दशम नुं देश, ढाल तीन सय अठघासीमी एस || ५०. भिक्षु भारीमान ऋविराय पसाय 'जय जय' आनंद हरय सवाय ।। बात, सोमिल प्रश्न तणों अवदात ॥] जाव अभक्ष पिण कुलस्था होय ॥ ३७. एवं जहा धण्णसरिसवया । ३८. जाव से तेणट्टेणं जाव अभक्खेया वि । ( श० १८।२१६ ) ३९. कुलत्था ते भंते! किं भक्खेया ? अभक्खेया ? ४०. सोमिला ! कुलत्था मे भक्तेया वि अभक्खेया वि । (० १५२१७) ४१. से केणठ्ठेणं जाव अभक्वेया वि ? ४२. से नूणं भे सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु ४३. दुहिता पत्ता जहाि धण्णकुलत्थाय । ४४. तत्थ णं जेते इत्थिकुलत्था ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा 'कुलत्थ' त्ति एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलस्था:कुलाङ्गनाः । ( वृ० ८० ७९०) ४५. कुलवधुया इ वा कुलमाउया इवा, कुलधुया इ वा । ४६. ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । ४७. तत्थ णं जेते धण्णकुलत्था एवं जहा धण्णसरिसवया । ४८. से तेणट्ठेणं जाव अभक्खेया वि । ( ० १८२१८) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३८९ हा छल ग्रहणे करि एह । टीकाकार कहेह ॥ १. सरिसवादि पद पृच्छना, करी करण उपहास इम २. अब भगवंत महावीर नों, वस्तुतत्व जे ज्ञान । तेह जाणवा ने अरथ, सोमिल प्रश्न पिछान ॥ ३. एक तुम्है छो केवली, दोय तुम्हे छो देख । अक्षय ते क्षय रहित तुम्ह, के तुम अव्यय पेख ? ४. वलि अवस्थित हो तुम्हे, भविक तुम्है छो काल त्रिण ? ५. अनेकभूत अतीत जे भाव भविक अनागत में हुये ६. एहिं वचन करि अनागत प्रश्ने करी, अनित्य बा०--- एगे भवं - तुम्हे एक छो ? आत्मा आश्रयी एक छू, तो श्रोत्र आदि पामवा थकी एकपणां प्रतं दूषवसूं, इसी अनेकभूतज भाव । प्रश्ने करि पूछाव | सत्ता परिणाम | तेह तुम्हे छो ताम || अतीत नै वर्तमान । पूछो जान ॥ इहां पिण जो भगवंत कहिस्यै हूं विज्ञान अन अवयव आत्मा रै अनेकपर्ण बुद्धे करी सोमिल प्रश्न कीधो । तथा दुवे भवं तुम्हे दोय छो ? इहां जो भगवंत कहिस्यै हूं दोय छू तो एक विशिष्ट अर्थ नै अंगीकार करी दोयपणां ने विरोध दिखाड़ी दोय कहिसी ते प्रदूषण सूं । तथा अक्खए भवं अब्वए भवं अवट्ठिए भवं ए तीन पदे करी नित्य आत्म पक्ष प्रत पूछ । तथा अय-भाव-भविए भवं अनेग कहता तो अनेक भूत कहितां अतीत, भाव कहितां सत्ता परिणाम, एतले वर्तमान में छता, भविए कहितां अनागत काले ते अग भूव-भाव-भविए एतले अतीत वर्तमान भविष्यत प्रश्ने करी अनित्य पक्ष पूछ्यो । अक्खए भवं इत्यादिक तीन प्रश्ने करी नित्य पक्ष अनं अनेक भूत-भावभविक तुम्है छो, एणे पदे करी अनित्य पक्ष । ए बिहुं मांहिलो जो भगवंत एक पक्ष ने ईज सर्वथा प्रकारे ग्रहण करिस्यै तो तेहने दूषण देसूं इति प्रश्नः तिहां भगवंत स्याद्वाद नै समस्त दोष रहितपणां थकी ते उत्तर देता कहै छँ - एगेवि अहमित्यादि । * भवि प्राणी सोमिल सुण वाणी रे, भव्य प्राणी सोमिल सुखदाणी रे ।। (ध्रुपदं) में *लय : सेर कसूंबो म्हांरी सारी में लागो, तो पाव कसूंबो रावल दुपटा बुलज्या रे करूंबा म्हारी अंगिया में । १. सरिसवादिपदप्रश्नश्च छलग्रहणेनोपहासार्थं कृत इति । ( वृ० प० ७६० ) २. अथ भगवती वस्तुतत्वज्ञान जिज्ञासाह ( वृ० प० ७६० ) ३. एगे भवं ? दुवे भवं ? अक्खए भवं ? अव्वए भवं ? ४. अवट्टिए भवं ? अणेगभूय-भाव-भविए भवं ? वाएगे भव' मिरयादि, एको भवानित्येकत्वाभ्युपगमे भगवताऽऽत्मनः कृते श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवानां चात्मनोऽनेकतोपलब्धित एकत्वं दूषयिष्यामीति बुवा पर्यनुयोग सोमिलन कृतः । दो भवानिति च द्वित्वाभ्युपगमेऽहमित्येकत्व विशिष्टस्यार्थस्य द्विविरोधेन द्वित्वं पवियामीति बुद्धाय विहितः । 'अक्खए भव' मित्यादिना च पदत्रयेण नित्यात्मपक्षः पर्ययुक्तः । 'अभूवभावभविए भवंति अनेके भूताअतीताः भावाः - सत्तापरिणामा भव्याश्च - भाविनो यस्य स तथा अनेन चातीतभविष्यत्सत्ताप्रश्नेनानिम्तापक्ष पर्यनुयुक्तः । एकतरपरिग्रहे तस्यैव दूषणायेति तत्र च भगवता स्याद्वादस्य निखिलदोषगोचरातिक्रांतत्वात्तमवलम्ब्योत्तरमदायि 'एगेवि अह' मित्यादि । (०१० ७६०) शे० १५, उ० १०, ढा० ३८९ १९७ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सोमिला ! एगे वि अहं जाव अणेगभूय-भाव-भवि वि अहं । (श० १८।२१९) ७. जिन भाखै सुण सोमिल! वाणी, इक पिण हूं छू जाणी रे। जाव अनेक भूत भाव भविक, पिण हूं छु तेह पिछाणी रे ॥भव्य०॥ ८. किण अर्थे प्रभुजी ! इम कहिये, जाव भविक पिण हूं छु रे ? ताम कहै जिन सांभल सोमिल ! न्याय उत्तर इम यूं छू रे ।।भव्य०॥ ९. द्रव्य अर्थ करि इक पिण हं छु, द्रव्य जीव अपेक्षायो रे । काल तीन मांहि एक सरीखो, ते द्रव्य आत्म कहिवायो रे ।। ८. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव (सं०पा०) भविए वि अहं? सोमिला! ९. दमट्टयाए एगे अहं । वा०-'दव्वट्ठयाए एगोऽहं' ति जीवद्रव्यस्यैकत्वेनकोऽहं न तु प्रदेशार्थतया। (वृ० प० ७६०) ११. नाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं । सोरठा १०. जीव द्रव्य नै ताय, एकपणे करि एक है। पिण इहां नहीं कहाय, प्रदेश अर्थपणे करी।। वा०-इहां जीव द्रव्य नै एकपण करि एक हूं, पिण प्रदेशार्थपणे करी नहीं। जे भणी प्रदेशार्थपणे अनेकपणुं छै मांहरै, ते माट अवयवादिक नो अनेकपणों पाम्यो ते बाधक नथी। तथा कोइ एक स्वभाव प्रतै आश्रयी नै एकपणां ही संख्या यक्त पदार्थ में अन्य स्वभाव द्वय नी अपेक्षाए बेपणों पिण विरुद्ध नहिं, ते देखाड़वा माटे भगवान कहै छ११. *ज्ञान दर्शन आश्री बे पिण हं छ, ज्ञान दर्शन मुझ दोयो रे। ए बिहं नै द्रव्य जीव न कहिये, ए द्रव्य नां लक्षण होयो रे ।। बाल-इहां ज्ञान दर्शन आश्रयी दोय पिण हूं छु । एक पदार्थ में स्वभाव नोट नहि हवे, इम पिण नहि कहिवो। जे भणी एक देवदत्तादिक पुरुष एक कालेडीज तिण-तिण अपेक्षा करिके पितापणुं, पुत्रपणुं, भाईपणुं भतीजापणांदिक अनेक स्वभाव प्रतै पामे । १२. असंख्यात प्रदेश आश्रयी, अक्खय पिण हूं कहिय रे। अव्यय पिण हं अवस्थिति थी, हूं इज छु इम लहिये रे ॥ वा०-'नाणदसणट्ठयाए दुवेवि अहं' ति, न चैकस्य स्वभावभेदो न दृश्यते, एको हि देवदत्तादिः पुरुष एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वभ्रातृव्यत्वा दीननेकान्स्वभावाल्लभत इति। (वृ०प०७६०) १२. पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अब्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं । सोरठा १३. सर्वथाज पहिछाण, प्रदेश नों क्षय नहिं हुवे। तिण कारण इम माण, अक्खय पिण हूं ईज छु । १३. तथा प्रदेशार्थतयाऽसंख्येयप्रदेशतामाश्रित्याक्षतोऽप्यहं सर्वथा प्रदेशानां क्षयाभावात् । (व०प०७६०) १४. तथाऽव्ययोऽप्यहं कतिपयानामपि च व्ययाभावात् । (वृ० प०७६०) १४. तथा किताक प्रदेश, तास नाश व्यय ह नहीं। अव्यय तास कहेस, ते पिण सोमिल ! हूं इज छु ।। १९८ भगवती मोड़ Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. असंख प्रदेश भाव, कदापि दूर हुवै नहीं। ते माटज कहाव, अवस्थित ते नित्य हूं ।। १६. *तथा विविध विषय अनेक प्रकारे, उपयोग आश्रयी जाणी रे । अनेकभूत भाव भविक पिण हूं छु, अतीत अनागत ठाणी रे ।। १५. अवस्थितोऽप्यह-नित्योऽप्यहम्, असंख्येयप्रदेशिता हि न कदाचनापि व्यपैति अतो नित्यताऽभ्युपगमेऽपि न दोषः । (वृ० प०७६०) १६. उवयोगट्ठयाए अणेगभूय-भाव-भविए वि अहं । 'उबओगट्ठयाए' त्ति विविधविषयानुपयोगानाश्रित्यानेकभूतभावभविकोऽप्यहम् । (वृ० ५० ७६०) १७-१९. अतीतानागतयोहि कालयोरनेकविषयबोधाना मात्मनः कथञ्चिदभिन्नानां भूतत्वाद् भावित्वाच्चेत्यनित्यपक्षोऽपि न दोषायेति । (वृ० प० ७६०) सोरठा १७. भूत अतीतज काल, भविक अनागत काल नां। विविध प्रकारे न्हाल, जाणपणों म्हारैज छै ।। १८. किणहि प्रकार करेह, अतीत अनागत काल नां। बोध आत्म थी जह, जुदो नहीं छै ते भणी ।। १९. अतीतपणां थी जेह, होणहार थी वलि तथा । हूंछु अनित्यपणेह, इम अनित्य पक्ष पिण दोष नहि।। २०. द्रव्य आश्रयी एक, ज्ञान दर्शन आश्रयीज बे। प्रदेश आश्रयी पेख, अक्षय अव्यय नित्य हूं ।। २१. उपयोग आश्रयी जाण, बहु भूत भाव भावी अर्छ । ए अनित्य हूं माण, इम कहितां पिण दोष नहि ।। २२. *एम सुणी नै सोमिल बूज्झयो, पाम्यो छै प्रतिबुद्धो रे । श्रमण भगवंत प्रत वंदै नमी ने, खधक जिम वच शुद्धो रे ।। २०,२१. से तेणठेणं जाव अणेगभूय-भाव-भविए वि अहं । (श० १८।२२०) २२. एत्थ णं से सोमिले माहणे संबुद्ध समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी --जहा खंदओ (श० २१५०-५२)। २३-२६. जाव से जहेयं तुब्भे वदह । सोरठा २३. खांधक जिम शिर नाम, स्तुति करीने इम कहै। सुणवो वांछे स्वाम! धर्म केवली भाखिया ।। २४. सोमिल नै तिणवार, धर्म केवली भाखियो। श्री जिन कह्यो उदार, दाखी विचित्र देशना ।। २५. सोमिल सुण हरषाय, वलि संतोषज अति लह्य । कर जोड़ी कहै वाय, तुझ वच प्रभु म्है सरधिया ।। २६. प्रतीतिया धर प्रेम, रोचविया वांछया वली। विशेष वांछया तेम, जाव तुम्है कहो तेह सत्य ।। २७. *जिम देवानुप्रिया ने समीपे, बहु ईश्वर सूविचारी रे। इम जिम रायप्रश्रेणी में चित्त, जाव द्वादश व्रत धारी रे ।। * लय : सेर कसूबो म्हारी सारी में लागो, तो पाव कसंबो रावल दुपटा में ढुलग्या रे कसूबा म्हारी अंगिया में। २७. जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर एवं जहा रायपसेणइज्जे (सू० ६९५) चित्तो। श०१८, उ०१०, ढाल ३८९ १९९ Jain Education Intemational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २८. बहु ईश्वर तलवर आदि, हिरण्य सूवर्णादिक तजी। छांडी ग्रहस्थावासादि, चरण ग्रहै ते धन्य छै ।। २९. तिम हूं सामर्थ नांय, दीक्षा लेवा नैं प्रभु । वांछू छू तुझ पाय, ग्रहस्थ धर्म प्रति धारवा ।। २८. यथा देवानांप्रियाणामन्तिके बहवो राजेश्वरतलवराद यस्त्यक्त्वा हिरण्यसुवर्णादि मुण्डा भूत्वाऽगारादनगारिता प्रव्रजन्ति । (वृ० प० ७६१) २९. न खलु तथा शक्नोमि प्रवजितुमितीच्छाम्यहमणुव्रतादिकं गृहिधर्म भगवदन्तिके प्रतिपत्तुं । (वृ०प०७६१) ३०. ततो भगवानाह-यथासुखं देवानांप्रिय ! (वृ० प०७६१) ३१. जाव दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जति । ३२. पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति जाव (सं०पा०) पडिगए। (श० १८।२२१) ३३. तए णं से सोमिले माहणे समणोबासए जाए--- अभिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (श०१८।२२२) ३०. सोमिल ब्राह्मण एम, कह्य छते प्रभुजी कहै। जिम सुख होवै तेम, कीजे देवानुप्रिया ! ३१. सोमिल विप्र तिवार, द्वादशविध श्रावक धरम । पडिवजिया सुखकार, श्रमण भगवंत महावीर पै।। ३२. *सोमिल द्वादश व्रत धारी ने, वीर प्रतै सुविधानो रे । वंदना स्तुति नमस्कार करि, जाव गयो निज स्थानो रे ॥ ३३. तिण अवसर ते सोमिल ब्राह्मण, थयो श्रावक सुखकारो रे। जाण्या जीव अजीवादिक प्रति, यावत विचरै सारो रे ॥ ३४. हे भगवंत ! इसो कही गोतम, वीर प्रतै सुखदायो रे। वंदन स्तुति नमस्कार करि, बोले इहविध वायो रे ।। ३५. समर्थ छै प्रभु ! सोमिल ब्राह्मण, देवानुप्रिय पासो रे । मुंड थइ जिम संख का तिम, कहिवो सर्व विमासो रे ॥ ३६. यावत दुख अंत करिस्यै विदेहे, सौधर्म कल्प थी आवी रे। सेवं भंते ! यावत विचरै, ए दशम उद्देशो भावी रे ।। ३७. शतक अठारमों अर्थ थकी ए, ढाल तीन सय नव्यासी रे। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' आनंद थासी रे॥ अष्टादशशते दशमोद्देशकार्थः ॥१८॥१०॥ ३४. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति । वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी ३५. पभू णं भंते ! सोमिले माहणे देवाणप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए? नो इणठे समठे । जहेव संखे (१२।२७,२८) तहेव निरवसेसं । ३६. जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति । (श० १८।२२३) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ । (श० १८१२२४) * लय : सेर कसूबो म्हारी सारी में लागो, तो पाव कसूबो रावल दुपटा में ढुलज्या रे कसूबा म्हारी अंगिया में। २०० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अष्टादशशतवत्तिविहिता वृत्तानि वीक्ष्य वृत्तिकृताम् । (वृ०प० ७६१) गीतक छन्द १. शत अष्टदशमे कह्य विवरण सूत्र वृत्ती देखने । फुन उक्त मति श्रुत युक्ति वारू प्रवर न्याय संपेख नैं ।। २. गणनाथ भिक्षु दीर्घमाल नृपेंदु सुपसाये करी। वर जोड़ रचना रची 'जय गणी' अधिक ही उचरंग धरी ।। श०१८, उ०१०, ढाल ३८९ २०१ Jain Education Intemational Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंश शतक Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंश शतक ढाल : ३९० दहा १. व्याख्यातमष्टादशशतम्, अथावसरायातमेकोन विशतितमं व्याख्यायते, (वृ०प०७६१) २. तत्र चादावेवोद्देशकसंग्रहाय गाथा (वृ० ५०७६१) १. आख्यो शत अष्टादशम, अथ अवसर आयात । शत उगणीमम नं अर्थ, सुणिय सुगुण सुजात ।। २. तिहां -पम उद्देशके, संग्रह अर्थ सुराह । गाथा लेस्या आदि जे, धुर संग्रहणी गाह ।। ३. प्रथम उद्देशो लेश नों, द्वितीय गर्भ नों जाण । पृथ्वीकायिक प्रमुख जे, तृतीय उद्देशे माण ।। ४. नारक छै महाआश्रवा, वलि महाकिरियावंत। इत्यादिक जे अर्थ छै, तुर्य उद्देशे तंत ।। ५. चरम अल्प स्थिति नारकी, तेह थको संवादि । परम महास्थिति नारकी, महाकर्म इत्यादि ।। ३.१ लेस्सा य २ गम्भ ३ पुढवी, तत्र 'लेस्सा य' ति लेश्या: प्रथमोद्देशके वाच्या इत्यसौ लेश्योद्देशक एवोच्यते, एवमन्यत्रापि १ चशब्द: समुच्चये, 'गब्भ' त्ति गर्भाभिधायको द्वितीयः २ 'पुढवि' त्ति पृथिवीकायिकादिवक्तव्यतार्थस्तृतीयः३ (वृ०५०७६१) ४. ४ महासवा 'महासव' ति नारका महाश्रवा महाक्रिया इत्याद्यर्थपरश्चतुर्थ: ४ __(वृ० प० ७६१) ५. चरम 'चरम' ति चरमेभ्योऽल्पस्थितिकेभ्यो नारकादिभ्यः परमा-महास्थितयो महाकर्मतरा इत्याद्यर्थप्रतिपादनार्थः पञ्चमः ५, (वृ० ५० ७६१) ६.६ दीव ७. भवणा य । ८ निव्वत्ति 'दीव' त्ति द्वीपाद्यभिधानार्थः षष्ठः ६ 'भवणा य' त्ति भवनाद्यर्थाभिधानार्थः सप्तमः ७ 'निव्वत्ति' त्ति निवृत्तिः --निष्पत्तिः शरीरादेस्तदर्थोऽष्टमः ८ (व०प० ७६१) ७.९ करण १० वणच रसुरा य एगुणवीसइमे । (सं० गा० १) 'करण' त्ति करणार्थो नवमः ९ 'वणचरसुरा य' त्ति वनचरसुरा-व्यन्तरा देवास्तद्वक्तव्यतार्थो दशम इति (वृ० ५०७६१) ८. रायगिहे जाव एवं वयासी --- तत्र प्रथमोद्देशकस्तावद्व्याख्यायते, (वृ०प० ७६१) ६. षष्ठम द्वीपादिक अर्थ, भवनादिक सप्तम । उत्पत्ति शरीर आदि नों, उद्देशक अष्टम ।। ७. करण अर्थ नवमों कह्यो, व्यंतर सुर अवदात । ए उगणीसम शतक नां, दश उद्देशक ख्यात ।। ८. तत्र प्रथम उद्देशके, कहियै धुर व्याख्यान । नगर राजगृह नै विषे, जाव वदै इम वान ।। लेश्या पद *जगत प्रभु एम कहै, करै गोयम प्रश्न उदार । _ भविक सुण हरष लहै ।(ध्र पदं) *लय: दलाली लालन की श० १९, उ० १, ढा० ३९० २०५ Jain Education Intemational ational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. प्रभु ! लेश्या कितरी कही जी?जिन भाखै षट लेश। इति जिम पन्नवण सतरम पद नों, चोथो लेश उद्देश ।। ९. कति णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-एवं जहा पण्णवणाए चउत्थो लेसुहेसओ। १०. भाणियब्वो निरवसेसो। (श० १९०१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (श० १९।२) १०. इह स्थाने भणवो सहू जी, कृष्णलेश धुर ताम । यावत लेश्या शुक्ल इत्यादि सेवं भंते ! स्वाम ।। ११. ए उगणीसम शतक नों जी, प्रथम उद्देशो पेख । अर्थ थकी आख्यो इहां जी, पन्नवण थी सुविशेख ।। एगणविशतितमे शते प्रथमोद्देशकार्थः ॥१९॥१॥ दहा १२. लेश्या नां अधिकार थी, अथ वलि लेस्यावंत । कहियै छै विस्तार तसु, सांभलज्यो धर खंत ।। १३. प्रभ! लेश्या कितरी कही जी, जिम सतरम पद मांय । छठो गर्भ उद्देश छै जी, ते सहु इहां कहिवाय ॥ १२. अथ लेश्याऽधिकारवानेव द्वितीयस्तस्य चेदमादिसूत्रम्-- (वृ० ५०७६१) १३. कति णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ? एवं जहा पण्णवणाए गब्भुद्देसो सो चेव निरवसेसो भाणियब्वो। (श० १९।३) सोरठा १४. ते इहविध अवलोय, जिन कहै षट लेश्या कही। कृष्णलेश धुर जोय, जाव शुक्ल लेश्या वली। १५. मनु प्रभु ! कितरी लेश, जिन भाखै षट लेश तसु । कृष्णलेश सुविशेष, जाव शुक्ल इत्यादि बहु ।। १६. जे वलि श्रुत आश्रित्य, गर्भ उद्देश इहां कह्यो। तेहिज अर्थ कथित्य, गर्भ तणों संक्षेप जे ॥ १७. कृष्णलेश मनु तेह, कृष्णलेश जे गर्भ प्रति । है भगवंत ! जणेह ? जिन भाखै हंता जण ।। १४. अनेन च यत्सूचितं तदिदं-गोयमा ! छल्लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा, (वृ० प० ७६१) १५. मणुस्साणं भंते ! कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! छल्लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा--कण्ह लेस्सा जाव सुक्कलेस्सा' इत्यादीति, (वृ० ५० ७६१) १६. यानि च सूत्राण्याश्रित्य गर्भोद्देशकोऽयमुक्तस्तानीमानि-- (वृ० प०७६२) १७. कण्हलेस्से णं भंते ! मणुस्से कण्हलेस्सं गभं जणेज्जा ? हंता गोयमा ! जणेज्जा । (वृ०प० ७६२) १८. कण्हलेस्से णं भंते ! मणूसे नीललेसं गभं जणेज्जा? हंता गोयमा ! जणेज्जा' इत्यादीति।। (वृ० ५०७६२) १९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १९।४) १८.प्रभ! कृष्णलेशी मनु जेह, नील लेश गर्भ प्रति जण? जिन कहै हंत जणेह, इत्यादिक गर्भ वारता । १९. *सेवं भंते ! स्वामजी रे, उगणीसम शत मांय । द्वितीय उद्देशो दाखियो रे, जिन वच अर्थ शोभाय ।। एगवशतितमे शते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥१६॥२॥ सोरठा २०. द्वितीय लेश आख्यात, ते लेश्या करि सहित जे। पृथ्वी प्रमुख विख्यात, तृतीय उद्देशक तेह हिव ।। २०. द्वितीयोद्देशके लेश्या उक्तास्तद्युक्ताश्च पृथिवीकायि कादित्वेनोत्पद्यन्त इति पृथिवीकायिकादयस्तृतीये निरूप्यन्ते। (वृ० प० ७६२) *मय : बलाली लालन की २०६ भगवत्ती-जोड़ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीकाय पद २१. *नगर राजगृह में विषे रे, जाव वदै इम वान । द्वार तणी गाथा इहां रे, किहांइक दीसै जान ।। २१. रायगिहे जाव एवं वयासी 'रायगिहे' इत्यादि, इह चेयं द्वारगाथा क्वचिद् दश्यते-- सिय लेसदिट्ठिणाणे, जोगुवओगे तहा किमाहारो। पाणाइवाय उप्पायठिई समुग्धायउव्वट्टी। (वृ० ५० ७६३) वा० --अस्याश्चार्थो वनस्पतिदण्डकान्तोद्देशकार्थाधिगमावगम्य एव, (व०प० ७६३) २२. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पुढविक्काइया एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, वा०-एहनों अर्थ इणहिज उद्देशा में वनस्पति नां दंडक सूधी जे अर्थ नों अधिकार छ तेह थकी जाणवो । स्यात् द्वार २२. हे प्रभु ! सिय कहिता हुवै जी, जाव च्यार पंच जंत । पृथ्वीकाय थइ एकठा जी, साधारण तनु बांधत ॥ सोरठा २३. अथवा सिय ते प्राय, बहुलपणे पृथ्वी तिके । प्रत्येक तनु बंधाय, ते तो प्रसिद्धईज छै ।। २४. स्यूं वलि कदाचि हंत, जाव च्यार पंच मिल पृथ्वी। शरीर इक बांधत, द्वितीय अर्थ सिय नो कदा ।। २५. जाव च्यार वा पंच, जाव शब्द थी बे तथा । त्रिण मिली तन विरंच, उपलक्षण थी बहुतरा ।। २३. अथवा प्रायः पृथिवीकायिकाः प्रत्येक शरीरं बघ्नन्तीति सिद्ध, (वृ०५०७६३) २४,२५. किन्तु 'सिय' त्ति स्यात् कदाचित् 'जाव चत्तारि पंच पुढविकाइय' त्ति चत्वारः पञ्च वा यावत्करणाद् द्वौ वा त्रयो वा उपलक्षणत्वाच्चास्य बहुतरा वा पृथिवीकायिका जीवा: 'एगओ' त्ति एकत एकीभूय संयुज्यत्यर्थः वा०-साहारणसरीरं बंधंति' त्ति बहूनां सामान्यशरीरं बघ्नन्ति, आदितस्तत्प्रायोग्यपुद्गलग्रहणतः, (वृ०प०७६३) २६.बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा वा० --'आहारेति व' त्ति विशेषाहारापेक्षया सामान्याहारस्याविशिष्टशरीरबन्धनसमय एव कृतत्वात् (वृ० प० ७६३) २७. परिणामेंति वा सरीरं वा बंधति ? बा० इहां कह्यो तनु बांध ते सामान्य शरीर बांध, जे आगल वलि कहिस्य शरीर बांध ते विशेष नी अपेक्षा ए सामान्य शरीर जाणवू । आदि थकी ते साधारण शरीर जोग्य पुद्गल ग्रहिवा थकी बांध इम कहिये । २६. *च्यार पांच थइ एकठा जी, तनु बांधी ने तेह । तठा पछै ते जीवड़ा जी, आहार प्रतैज करेह । वा० - ए शरीर बांधी नै आहार कर इम कह्य ते विशेष आहार नीं अपेक्षाये जाणवू । एतलं सामान्य आहार तो जिवारै पहिला शरीर बांध्यो तिवारे हीज कीधो ते माट। २७. अथवा पुद्गल आहरिया जी, ते परिणमा ताम। अथवा वलि विशेष थी जी, तनु बांध अभिराम ।। वा०-आहरिया परिणमाविया पुद्गले करी शरीर नों पूर्व बंध अपेक्षया विशेष थकी बंध कर इति प्रश्नः । २८. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं जी, पृथ्वीकाय ने पेख । प्रत्येके जे आहार छै जी, वलि परिणाम प्रत्येक ।। २९. प्रत्येके बांध तन जी, तन् प्रत्येक प्रायोग्य । पुदगल ग्रहण थकी हुवै जी, एह सामान्य थी जोग्य ।। ३०. सामान्य थी बांधी तनु जो, तठा पछै लै आहार । अथवा परिणामै वली जी, फुन तनु बंधै धार ।। वा०-ए आहार करै परिणाम अन शरीर बांध ते विशेष थकी जाणवो। वा०-'सरीरं वा बंधति' त्ति आहारितपरिणामितपुद्गलैः शरीरस्य पूर्वबन्धापेक्षया विशेषतो बन्धं कुर्वन्तीत्यर्थः, (वृ० ५०७६३) २८. नो इणठे समठे। पुढविक्काइयाणं पत्तयाहारा पत्तेयपरिणामा २९. पत्तेयं सरीरं बंधंति, ३०. बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परिणामेंति वा शरीरं वा बंधंति । (श० १९५) वा०-यतः पृथिवीकायिकाः प्रत्येकाहाराः प्रत्येकपरिणामाश्चातः प्रत्येकं शरीरं बघ्नन्तीति तत्प्रायोग्यपुद्गलग्रहणतः, (वृ० प०७६३) * लय : बलाली लालन की श० १९, ३० ३, ढाल ३९० २०७ Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या द्वार ३१. हे प्रभ ! ते जीवां तणे जी, लेश्या किती कहेज? जिन कहै चिउं लेश्या कही जी, कृष्ण नील काउ तेज ।। ३१. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहाकण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, तेउलेस्सा। (श० १९१६) ३२. ते णं भंते ! जीवा कि सम्मदिट्टी? मिच्छदिट्टी? सम्मामिच्छदिट्टी ३३. गोयमा ! नो सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी नो सम्मामिच्छदिट्ठी। (श० १९१७) ३४. ते णं भंते ! जीवा कि नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नो नाणी, ३५. अण्णाणी, नियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मति अण्णाणी य, सुयअण्णाणी य। (श० १९८) दृष्टि द्वार ३२. हे प्रभु ! ते जीवा किसूजी, समदृष्टि कहिवाय । के मिथ्यादृष्टी अछै जी, मिश्रदष्टि तथा थाय? ३३. जिन कहै समदृष्टी नहीं जी, मिथ्यादष्टी तेह । मिश्रदष्टि जे तीसरी जी, ते पिण नहिं पावेह ।। ज्ञान द्वार ३४. हे प्रभु ! ते जीवा किसूजी, ज्ञानी कहियै ताहि । कै अज्ञानी छै तिके जो? जिन कहै ज्ञानी नांहि ।। ३५. अज्ञानी कहिये तसु जी, निश्चै बे अज्ञान । मति अज्ञानी छै तिके जी, श्रुत अज्ञानी जान ।। योग द्वार ३६. हे प्रभु ! ते जोवा किसू जी, मन जोगी अवलोय । अथवा वच जोगी हुवै जी, काय जोगी ते होय? ३७. जिन कहै मन जोगी नहीं जी, वच जोगी पिण नांहि । काय जोगी कहिये तसु जी, पंचमद्वार रै मांहि ।। उपयोग द्वार ३८. हे प्रभु ! ते जीवा किस जी, उपयोगी सागार । कै अनागार उपयोग छ जी, पृथ्वीकाय मझार? ३९. जिन भाखै साकार छै जी, अनाकार पिण धार । अनाण बे साकार छै जी, अचक्षु छ अनाकार ।। आहार द्वार ४०. हे प्रभु! ते जीवा किसं जी, आहार प्रत आहरेह ? जिन कहै द्रव्य थकी तिके जी, ___अनंतप्रदेशी द्रव्य लेह ।। ४१. इम जिम पद पन्नवण विषे जी, अठावीसमां मांय । पहिले आहार उद्देशके जी, दाख्यो जिम कहिवाय ।। ३६. ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी? वइजोगी ? कायजोगी? ३७. गोयमा ! नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। (श० १९।९) ३८. ते णं भंते ! जीवा कि सागारोवउत्ता? अणागारो वउत्ता? ३९. गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि। (श० १९।१०) ४०. ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेति ? गोयमा ! दब्बओ णं अणंतपदेसियाई दव्वाइं-- ४१. एवं जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देसए एवं यथा प्रज्ञापनायामष्टाविंशतितमपदस्य प्रथमे आहाराभिधायकोद्देशके सूत्रं तथेह वाच्यं, (वृ० प० ७६३) ४२. खेत्तओ असंखेज्जपएसोगाढाइं। (वृ० प० ७६३) सोरठा ४२. क्षेत्र थकी असंख्यात, प्रदेश जे आकाश नां। अवगाह्या अवदात, ते पुद्गल नों आहार लै ।। ४३. काल थकी इम इष्ट, समय स्थिति जे अन्यतर। जघन्य मझम उत्कृष्ट, किणहि स्थिति द्रव्य प्रति ग्रहै ।। ४३. कालतो अन्नयरकालट्टितीयाई। (वृ० प० ७६३) २०८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational ducation Intermational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. भाव थकी वर्णमंत, फर्शवंत आहारंत, प्रकारे करी जी, ४५. * जाव सर्व आहार प्रतं ते आहरे जी, ते जीवा आहर जी तसु शरीर इंद्रियपणजी, ४६. प्रभु गंधवंत रसवंत द्रव्य । इत्यादिक अवलोकवो । आतम करी अतीव । पृथवीकाइया जीव ।। पुद्गल जातज जेह चिज्जति ते परिणमेह || ४७. जे बलि पुद्गल द्रव्य नों जो आहार करे नहि ताहि तसु शरीर इन्द्रियपणें जी, तेह परिणमै नांहि || ४८. तथा आहरिया असार पुद्गल मल नीं पर विणसंत । पुद्गल सार तिके वली जी, शरीरपणे परिणमंत || ४९. एहिज अर्थ कहै वलि जी, पलिसर्पति ताय । सर्व प्रकार करि तिके जो, असार पुद्गल जाय ।। । अर्थ सर्वथा सोय गोयम अवलोय ॥ ५०. पलिसप्पति वा पाठ नों जो प्राप्तिसार पुद्गल हुवे जी ए प्रश्न ५१. जिन कहै हंता गोयमा ! जी, पुद्गल तेहिज तनुपर्णे जी, ५२. जे पुद्गल नहि आह जी, जावे असार पोग्गला जो ५३. हे प्रभु ! ते जीवां तणें जी, ते जीवा आहारंत । इन्द्रियपणं परिणमंत || जाव सर्वथा सोय । सार प्राप्ति हुवे सोय || एहवी संज्ञा होय । प्रशा मन वच इम अछे जी, म्हे आहार कर छां सोय ॥ , सोरठा । ५४. व्यवहारिक जग मांहि अर्थ अवग्रह रूप मति । जेह प्रवर्ती ताहि संज्ञा तास इहां कहो ॥ ५५. सूक्ष्म अर्थ विचार तास विषय मति प्रवर्ते । प्रज्ञा ते अवधार, वृत्ति थकी ए आखियो || ५६. * जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, ए पिण ते पृथ्वी जीव । आहार करै छै द्रव्य नों जी, ए जिन वचन अतीव ।। । ५७. हे प्रभु! ते जीवां तणें जी एहवी संज्ञा जास जाव वचन एह अछे जी, इष्ट अनिष्ट वेदां फास ? ५८. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ए पिण ते पृथ्वीकाय । फर्श भोगवे वली जी, सप्तम द्वार कहिवाय ॥ प्राणातिपातादिक द्वार ५९. हे प्रभुजी ! जीवा तिके जी, स्यूं प्राणातिपात । तेह विषेज रह्या अछे जी हिंसक कहिये जगनाथ ? *लय : बलाली लालन की ४४. भावओ वन्नमताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई इत्यादीति । (२०१० ७६२) ४५. जाव सव्वtपणयाए आहारमाहारेंति । ( श० १९ । ११ ) ४६. ते पं भंते! जीवा जमाहारेति तं विश्वति 'तं चिज्जइ' त्ति तत् पुद्गलजातं शरीरेन्द्रियतया परिणमतीत्यर्थः । ( वृ० प० ७६३) ४७. जं नो आहारेंति तं नो चिज्जति, ४८. चिण्णे वा से ओद्दाइ 'चिन्ने वा से उद्दाइ' त्ति चीर्ण च आहारितं सत्तत् पुद्गलजातम् 'अपद्रवति' अपयाति विनश्यतीति मलवत् सारश्चास्य शरीरेन्द्रियतया परिणमति, ( वृ० प० ७६३) ४९. पलिसप्पति वा ? एतदेवाह - 'पलिसप्पइ व' त्ति परिसप्पति च परिसमन्ताद्गच्छति ( वृ० प० ७६३) ५१. हंता गोयमा ! ते णं जीवा जमाहारेति तं चिज्जति, ५२. जं नो आहारेंति जाव पलिसप्पति वा । ५३. तेसि णं भंते! जीवाणं एवं वा मणोति वा वईति वा अम्हे ( श० १९।१२ ) सण्णाति वा पण्णाति आहारमाहारेमो ? ५४. 'सन्ज्ञा' व्यावहारिकाविपहरूया मतिः प्रवर्त्तत इति शेषः, (१० १० ७६३) ५५. पन्ना वति प्रज्ञामाविषया मतिरेष ( वृ० प० ७६३) ५६. नो इट्ठे सम बहारेति पुरा । ते ५७. तेसि णं भंते ! (१० १९/१२) जीवाणं एवं सण्णाति वा जाव (सं०पा०) वईति वा अम्हे में इट्टा फारो पटि संवेदेमो ? ५८. न समट्ठे पडसंवेदेति पुग ते। (१० १९१४) ५९. ते णं भंते ! जीवा किं पाणाइवाए उवक्वाइज्जति, 'पाणाइवाए उवक्खाइज्जंती' त्यादि प्राणातिपाते स्थिता इति शेषः प्राणातिपातवृत्त इत्यर्थः (१० ५०७६३) २०९ श० १९, उ० ३ ढा० ३९० Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. मृषावाद विषे रह्या जी, वलि अदत्तादान । जाव मिथ्यादर्शनसल्ले जी, रह्या कही भगवान ? ६१. जिन कहै प्राणातिपात में जो, रह्या कहीजे तास । जाव मिथ्यादर्शण विषे जी, रह्या कहीजे जास ।। सोरठा ६२. अघ अष्टादश ताहि, कर्ता कहिये तेहनां । तसु वचनादिक नाहि, पिण ए अव्रत आश्रयी । ६०. मुसावाए, अदिण्णादाणे जाब मिच्छा सणसल्ले उवक्खाइज्जति ? ६१. गोयमा ! पाणाइवाए वि उवक्खाइज्जति जाव मिच्छादसणसल्ले वि उवक्खाइज्जति । ६२. यश्चेह वचनाद्यभावेऽपि पृथिवीकायिकानां मृषा-- वादादिभिरुपाख्यानं तन्मषावादाद्यविरतिमाश्रित्यो च्यत इति, (वृ० प० ७६३) ६३. अथ हन्तव्यादिजीवानां का वार्ता ? (वृ० प०७६३) ६४. जसि पि णं जीवाणं ते जीवा एवमाहिज्जंति, ६३. घातक पृथ्वीकाय, वक्तव्यता तेहनी कही। हिवै हणाणा ताय, ते पृथ्वी नी वारता ।। ६४. 'जेह हणाणा छ पृथ्वी, ते जीवां ने पिण तास । वलि जीवा तसु वधकरा जी, इम कयैि छ जास ।। सोरठा ६५. वांछित पृथ्वीकाय, त्यां जीवां करिने जिके । जेह हणाणा ताय, पृथ्वीकायिक अन्य जे ॥ ६६. जेह हणाणा धार, तेहनें ज्ञान हुवै इसो। ए मुझ मारणहार, अम्है हणाणा एह थी। ६७. एहवो ज्ञान न होय, वध्य वधक नों तेहनें । उत्तर तेहनों सोय, आगल कहियै छै तिको । ६८. ते पिण जीवां ने इसो जी, जाणपणों नहिं कोय । ए म्हारा घातक अछे जी, अम्है हणाणा जोय ।। ६९. "इहां नाणत्ते जे भेद कहिये, अम्है हणाणा छां सही। मुझ हणणहारा एह छ, विज्ञान इम तेहने नहीं ।। ६५-६७. येषामपि जीवानामतिपातादिविषयभूतानां प्रस्तावात्पृथिवीकायिकानामेव सम्बन्धिनाऽतिपातादिना 'ते जीव' त्ति ते अतिपातादिकारिणो जीवाः 'एवमाहिज्जति' त्ति अतिपातादिकारिण एते इत्याख्यायन्ते, तेषामपि जीवानामतिपातादिविषयभूतानां न केवलं घातकानां 'नो' नैव 'विज्ञातम्' अवगतं । (व०प०७६३,७६४) ६८. तेसि पि णं जीवाणं नो विषणाए। ६९. नाणत्ते । (श० १९।१५) 'नानात्वं' भेदो यदुत वयं वध्यादय एते तु वधकादय इत्यमनस्कत्वात्तेषामिति । (व०प०७६४) उत्पत्ति द्वार ७०. *हे प्रभुजी ! ते जीवड़ा जी, किहां थकी उपजंत । स्यूं नारक थी ऊपजै जी? इम जिम पन्नवण हंत ।। ७१. वक्कती छठे पदे जी, पृथ्वीकाय नों जाण । ऊपजवो जिम आखियो जी, तिम भणवो पहिछाण ।। ७०. ते णं भंते ! जीवा कओहितो उववज्जति–कि नेरइएहितो उववज्जति ? एवं जहा। ७१. वक्कंतीए पुढविक्काइयाणं उववाओ तहा भाणियव्वो । (श० १९।१६) 'एवं जहा वक्कंतीए' इत्यादि, इह च व्युत्क्रान्ति: प्रज्ञापनायाः षष्ठं पदं, (वृ०प०७६४) सोरठा ७२. नरक थकी उपजंत, के तिर्यंच थी ऊपजै । मनुष्य देव थी हुंत? इम पूछयां श्री जिन कहै । ७३. नारक थी नहिं हुँत, तिर्यंच मनुष्य रु देव थी। पृथ्वीपणे उपजत, पन्नवण थी विस्तार ए॥ *लय : दलाली लालन की लिय : पूज मोटा मांज तोटा २१० भगवती जोड़ ७२. किं नेरइएहितो उववज्जति तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति मणुस्सेहितो उववज्जति देवेहितो उववज्जति ? (०प०७६४) ७३. गोयमा ! नो नेरइएहितो उववज्जति तिरिक्ख जोणिएहितो उववज्जति मणुस्सेहितो उबवज्जति देवेहितो उववज्जति । . (वृ० प० ७६४) Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति द्वार ७४. हे प्रभु ! ते जीवां तणो जी, किता काल स्थिति जाण? श्री जिन भाखै जघन्य थी जी, अंतर्मुहूर्त पिछाण ।। ७४. तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, ७५. उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। (श० १९।१७) ७६. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्घाया पण्णत्ता? गोयमा ! तओ समुग्घाया पण्णत्ता, ७७. तं जहा-वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए। (श० १९।१८) ७८. ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं कि समोहया मरंति ? असमोहया मरंति ? ७९. गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । (श० १९।१९) ८०. 'समोहयावि' त्ति समुद्घाते वर्तमानाः कृतदण्डा इत्यर्थः । (वृ० प० ७६४) ८१. 'असमोहयावि' ति दण्डादुपरता अकृतसमुद्घाता वा। (वृ० प० ७६४) ७५. उत्कृष्टी आखी तसु जा, वर्ष बावीस हजार । दशमो द्वारज दाखियो जी, हिव कहूं ग्यारम द्वार ।। समुद्घात द्वार ७६. हे प्रभु! ते जीवां तणे जी, समुद्घात केइ चीन? जिन भाख सुण गोयमा ! जी, समुद्घात है तीन । ७७. समुद्घात धुर वेदना जी, दूजो कही कषाय । मारणांतिक तीसरी जी, ए तीनइ पाय ।। ७८. हे प्रभु ! ते जोवा मरै जी, मारणांतिक समुद्घात । स्यूं समोया मरणे मरै जी, असमोहया मृत्यु थात ? ७९. श्री जिन कहै समोहया पिण मरणे करी मरंत । वलि पृथ्वी असमोहया पिण मरण भाव पामंत । सोरठा ८०. समुद्घात रै माय, जे वर्तमान थकाज मृत्यु । दंड कीधे मरणाय, समोहया तेहने का ।। ८१. विरम्या दंड थकीज, तथा समुद्घात विण किया। पृथ्वी मरण लहीज, असमोहया कह्या वृत्तौ ।। उद्वर्तन द्वार ८२. *हे प्रभुजी ! ते जोवड़ा जी, अंतर रहित विचार । निकली नै उपजे किहां जो? गोयम प्रश्न उदार ।। ५३. जिन कहै एम उवट्टणा जी, छट्टा पद में ख्यात । नहि ह नारकी देवता जी, तिर्यंच मनुष्य में जात ।। अपकाय पद ८४. सिय कहितां ह तथा कदाचित, प्रभु ! जाव चिउं पंच। अपकायिक मिल एकठा जी, साधारण शरीर विरंच ॥ ८५. मिली एकठा तनु साधारण, बांधी ने तिणवार । पछ आहार प्रतै आहार करै छ, प्रश्न पूर्ववत धार ।। ८६. इम जे पृथ्वीकाय नों जो, कह्यो आलावो तेह । कहिवो तिम अपकाय नों जी, जाव उवट्टणा लगेह ।। ८७. णवरं स्थिति उत्कृष्ट थी जी, सप्त सहस्र वर्षेह। शेष तिमज कहिवो सहु जी, पृथ्वी नीं पर जेह ।। तेजसकाय पद ८८. सिय कहिता ह तथा कदाचित, हे प्रभु ! जावत जाण । चिउं पंच तेऊकाइया जी, एवं चेव पिछाण ।। ८२. ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहि गच्छंति ? कहि उववज्जति ? । ८३. एवं उब्वट्टणा जहा वक्कंतीए (प०६।९९-११३) । (श १९:२०) ८४. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच आउक्काइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति, ८५. बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति ? ८६. एवं जो पुढविक्काइयाणं गमो सो चेव भाणियब्बो जाव उवटंति, ८७. नवरं-ठिती सत्त वाससहस्साइं उक्कोसेणं, सेसं तं चेव। (श० १९।२१) ८८. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच तेउक्काइया? एवं चेव, *लय : दलाली लालन की श० १९, उ० ३, ढा० ३९० २११ Jain Education Intemational Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९. णवरं ऊपजवा विषे फुन, स्थिति नीकलवा मांय । पन्नवण विषे कह्यो तिम कहिवो, शेष तं चेव कहाय ।। ८९. नवरं-उववाओ ठिती उव्वट्टणा य जहा पण्णवणाए सेसं तं चेव । सोरठा ९०. तेषामुपपातस्तिर्यग्मनुष्येभ्य एव स्थितिस्तूत्कृष्टाहोरात्रत्रयं । (वृ०प०७६४) ९१. तत उदृत्तास्तु ते तिर्यक्ष्वेवोत्पद्यन्ते, (वृ० प०७६४) ९०. मनुष्य तिथंच थकीज, तेउकाय में ऊपजै । स्थिति उत्कृष्ट कहीज, तीन दिवस में रात्रि नीं। ९१. तेउकाय थो ताम, नीकलने तिर्यच में। आवी उपजै आम, शेष तिमज कहिवं कह्यो ।। ९२. वृत्ति विषे ए वाय, लेस्या तेउकाय में। अप्रशस्त त्रिण पाय, पृथ्वी अप में लेश चिउं ।। ९३. इहां कह्यो ते नांय, विचित्र गति है सूत्र नीं। बहु ठामे कहिवाय, लेस्सा त्रिण तेऊ विषे ॥ वायुकाय पद ९४. *वाउकाइया में विषे जी, एवं चेव विचार। नानात्वं णवरं कह्यो जी, समुद्घात है च्यार ।। सोरठा ९५. पृथिव्यादिक रे मांय, समुद्घात धुर तीन है। वैक्रिय तिहां न पाय, वाऊ में वैक्रिय वली ।। ९२. यतस्तेजसोऽप्रशस्तलेश्या एव, पृथिवीकायिकास्त्वाद्यचतुर्लेश्याः , (वृ०प०७६४) ९३. यच्चेदमिह न सूचितं तद्विचित्रत्वात्सूत्रगतेरिति । (वृ० प० ७६४) ९४. वाउकाइयाणं एवं चेव, नाणतं नवरं-चत्तारि समुग्घाया। (श० १९।२२) ९५. पृथिव्यादीनामाद्यास्त्रयः समुद्घाताः वायूनां तु वेदनाकषायमारणान्तिकवै क्रियलक्षणाश्चत्वारः समुदधाताः संभवन्ति तेषां वैक्रियशरीरस्य सम्भवादिति । (वृ० प० ७६४) वनस्पतिकाय पद * सिय कहितां ह तथा कदाचित, प्रभु ! जाव चिउं पंच । वनस्पति मिल एकठा जी, इत्यादिक प्रश्न विरंच? ९७. जिन कहै अर्य समर्थ नहीं जी, जेह अनंता जंत । वनस्पती मिल एकठा जी, साधारण तनु बांधंत ।। ९६. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच वणस्स इकाइया पुच्छा। ९७. गोयमा ! नो इणठे समठे । अणंता वणस्सइ काइया एगयओ साहारणसरीरं बंधति, सोरठा ९८. टबा विषे इम वाय, बादर निगोद अनंत जे। मिली एकठा ताय, बांधै साधारण तनु । ९९. *इम तनु बांधी नै पछै जी, आहार करै परिणमाय । शेष तेउ जिम कहिवो यावत, नीकलवा लग ताय । ९९. बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधति । सेसं जहा तेउकाइयाणं जाव उव्वटंति, १००. नवरं--आहारो नियम छद्दिसि, १.१. ठिती जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं, सेसं तं चेव । (श० १९।२३) १००. णवरं इतो विशेष छै जी, निश्चय थकी कहाय । आहार लियै षट दिशि तणों जी, आगल कहिस्य न्याय ।। १०१. अंतर्महत जघन्य थी जी, उत्कृष्टी पिण जाण । स्थिति अंतर्महर्त कही जी, शेष तं चेव पिछाण ।। सोरठा १०२. वृत्ति विषे इम बात, वनस्पति नै दंडके । ___षट दिशि आहार आख्यात, ते सम्यक नहिं जाणिय ।। *लय : दलाली लालन की १०२. वनस्पतिकायदण्डके 'नवरं आहारो नियम छद्दिसि' __ति यदुक्तं तन्नावगम्यते। (वृ०५०७६४) २१२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३. लोकान्तनिष्कुटान्याश्रित्य त्रिदिगादेरप्याहारस्य तेषा सम्भवाद् (वृ० प० ७६४) १०४. बादरनिगोदान् वाऽश्रित्येदमवसेयं (व०प०७६४) १०३. लोकांते पिहछाण, निक्कुट खूणां आश्रयो । विदिशि प्रमुख थी जाण, आहार तणां संभव थकी ।। १०४. अथवा बादर जाण, निगोद प्रति जे आश्रयी। एह सूत्र पहिछाण, षट दिशि नों इम जाणिय ।। १०५. पृथिव्यादिक आश्रित्त, बादर वनस्पति तणों। तेहिज इहां कथित्त, तिणसू षट दिशि नों हुवै ॥ १०६. बादर पृथ्वी आदि, लोकतणे मध्यईज ह। ते माटै संवादि, षट दिशि आहारज संभवै॥ १०७. *शत उगणीसम तृतीय देश ए, त्रिणसय नेऊ ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ।। बादर वनस १०५,१०६. तेषां पृथिव्याद्याश्रितत्वेन षड्दिक्काहारस्यैव सम्भवादिति । (वृ० प० ७६४) १०६. बादरमहा कथित्त, ढाल : ३६१ १. अर्थषामेव पृथिव्यादीनामवगाहनाऽल्पत्वादिनिरूपणायाह (वृ० प० ७६४) १. अथ एहिज पृथिव्यादि नीं, अवगाहन नों जाण । अल्प-बहुत्वादिक तणी, परूपणा पहिछाण ।। स्थावर जीवों की अवगाहना : अल्पबहुत्व पद २. ए प्रभुजी ! सूक्ष्म पृथ्वी, बादर पृथ्वी ताय । सूक्ष्म बादर अप वलि, इमहिज तेऊकाय ।। ३. सूक्ष्म बादर वायु फुन, वनस्पती नां भेद । सूक्ष्म निगोद में वलि, बादर निगोद वेद ।। ४. प्रत्येक वनस्पती वलि, एह तणां सुविचार । पर्याप्ता इग्यार ही, अपर्याप्ता इग्यार ।। ५. इम बावीसज भेद नी, अवगाहना सुभाल । जघन्य अने उत्कृष्ट फुन, इम व भेद चोमाल ।। ६. ए चोमालीस भेद में, अवगाहन माहोमांहि । कुण-कुण थी यावत हुवै, विसेसाहिया ताहि ।। ७. इहां स्थापना इहविधे, पृथ्वी हेढ़ जाण । सूक्ष्म बादर दोय पद, मांडीजै सुविधान ।। ८. तसु हेठे वलि मांडिये, प्रत्येके पहिछाण । पर्याप्ता अने वली, अपर्याप्ता सुजान ।। ९. तेहनै हेठे मांडियै, प्रत्येके अवलोय । जघन्य वली उत्कृष्ट जे, अवगाहना सुजोय ।। १०. इम अपकायिक स्थापवी, तेउकाय पिण एम। वाउकाय पिण इहविधे, स्थापेवी धर प्रेम ।। ११. सूक्ष्म निगोद पिण इमज, बादर निगोद एम। वलि प्रत्येक वनस्पति, तास थापवी तेम ॥ * लय : दलाली लालन की २-६. एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं आउ-तेउ-बाउवणस्सइकाइयाणं सुहुमाणं बादराणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं जहण्णुक्कोसियाए ओगाहणाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहया वा ? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? 'एएसि ण' मित्यादि, इह किल पृथिव्यप्तेजोवायुनिगोदा: प्रत्येक सूक्ष्मबादरभेदाः एवमेते दशैकादशश्च प्रत्येकवनस्पतिः एते च प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदाः तेऽपि जघन्योत्कृष्टावगाहना इत्येवं चतुश्चत्वारिंशति जीवभेदेषु स्तोकादिपदन्यासेनावगाना व्याख्येया। (वृ०प०७६५) ७. स्थापना चैवं पृथिवीकायस्याद्यः सूक्ष्मबादरपदे, (वृ० प० ७६५) ८. तयोरधः प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तपदे, (वृ०प० ७६५) ९. तेषामधः प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टावगाहनेति, (वृ० प० ७६५) १०,११. एवमप्कायिकादयोऽपि स्थाप्याः, (वृ०प०७६५) श० १९, उ० ३, ढा० ३९०,३९१ २१३ Jain Education Intemational Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. प्रत्येकवनस्पतेश्चाधः पर्याप्तापर्याप्तपदद्वयं । (वृ० प० ७६५) १३. तयोरधः प्रत्येक जघन्योत्कृष्टा चावगाहनेति, (वृ० प० ७६५) १४,१५. इह च पृथिव्यादीनामंगुलासंख्येयभागमात्राव गाहनत्वेऽप्यसंख्येयभेदत्वादंगुलासंख्येयभागस्येतरेतरापेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वं न विरुध्यते, (वृ० प०७६५) १६. प्रत्येकशरीरवनस्पतीनां चोत्कृष्टाऽवगाहना योजन सहस्रं समधिकमवगन्तव्येति । (व०प०७६५) १२. प्रत्येक वनस्पति तले, पर्याप्ता विचार । अपर्याप्ताज ए बिहुँ, थापेवा अवधार ।। १३. तसु हेठे प्रत्येक फुन, जघन्य अनें उत्कृष्ट । अवगाहन जे स्थापवी, एह स्थापना दृष्ट ।। १४. इहां जे पृथिव्यादिक तणी, आंगुल तणेज धार । असंख्यातमा भाग नीं, अवगाहना विचार ।। १५. भेद असंखपणां थकी, आंगुल असंख भाग । इतर-इतर नी अपेक्षया, असंखगुणां है माग ।। १६. वनस्पती प्रत्येक तनु, अवगाहन उत्कृष्ट । साधिक जोजन सहस्र नीं, अंत बोल ए दृष्ट ।। १७. ए चोमालीस भेद नीं, अल्पबहुत्व अधिकार । वीर कहै गोयम भणी, सांभलजो नर नार । *वीर कहै गोयम ! सुणे । (ध्रुपदं) १८. सर्व थकी थोड़ा अछ, निगोद सूक्षम जेहो रे । तेहनां अपर्याप्त तणी, अवगाहन जघनेहो रे॥ १९. सूक्ष्म वाउकाय नां अपर्याप्त नीं आखी रे। जघन्य थकी अवगाहना, असंख्यातगुणी दाखी रे ।। २०. सूक्ष्म तेऊकाय नां अपर्याप्त नी जाणी रे। जिका जघन्य अवगाहना, असंख्यातगुणी माणी रे ।। २१. तेहथी सूक्ष्म अप तणां अपर्याप्त नी वाची रे । जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगुणी जाची रे ।। २२. सूक्ष्म पृथ्वीकाय नां अपर्याप्त नीं विचारी रे । जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगुणी धारी रे ।। २३. तेहथी बादर वायु नां अपर्याप्त नी घणेरी रे। जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगुणी हेरी रे ।। २४. तेहथी बादर तेउ तणां अपर्याप्त नी लहिये रे । जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगुणी कहिये रे ।। २५. तेहथी बादर अप तणां अपर्याप्त नी आमो रे । जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगुणी तामो रे ।। २६. तेहथी बादर पृथ्वी तणां अपर्याप्त नी उच्चारी रे। जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगुणी धारी रे ॥ २७. तेहथी प्रत्येक तनु तणां बादर वणस्सइकायो रे । अथवा बादर निगोद नां, अपर्याप्त नी ताह्यो रे ।। २८. बिहुं नी जघन्य अवगाहना तुल्ला माहोमांह्यो रे । असंख्यातगुणी एह छ, दशम ग्यारम बोल ताह्यो रे ।। २९. तेहथी सूक्ष्म निगोद नां पर्याप्त नी पिछाणी रे । जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगणी आणी रे॥ ३०. तेहिज सूक्ष्म निगोद नां अपर्याप्त नी जोयो रे । उत्कृष्टी अवगाहना, विसेसाहिया होयो रे ।। *लय : कर जोड़ी राणी कहै १८. गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहमनिओयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा १९. सुहुमवाउक्काइयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा २०. सुहुमतेउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा २१. सुहुमआउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाणा असंखेज्जगुणा २२, सुहुमपुढविक्काइयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा २३. बादरवाउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा २४. बादरतेउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा २५. बादरआउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा २६. बादरपुढविकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा २७,२८. पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बादरनिओयस्स एएसि णं अपज्जत्तगाणं जहणिया ओगाहणा दोण्ह वि तुल्ला असंखेज्जगुणा २९. सुहुमनिगोयस्स पज्जत्तगस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ३०. तस्सेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया २१४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. तस्स चैव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ३२. सुहुमवाउकाइयस्स पज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ३३. तस्स चेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ३४. तस्स चेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ३५. एवं सुहमतेउकाइयस्स वि एवं सुहमआउकाइयस्स वि ३१. तेहिज सूक्ष्म निगोद नां पर्याप्त नी माणी रे । उत्कृष्टी अवगाहना, विसेसाहिया जाणी रे ।। ३२. तेहथी सूक्ष्म वायु नां पर्याप्ता नी भाली रे । जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगुणी न्हाली रे ।। ३३. तेहिज सूक्ष्म वायु नां अपर्याप्त नी जेही रे । उत्कृष्टी अवगाहना, विसेसाहिया तेही रे ।। ३४. तेहिज सूक्ष्म वायु नां पर्याप्त नी पेखी रे। उत्कृष्टी अवगाहना, विसेसाहिया देखी रे ।। ३५. सूक्ष्म तेऊकाय नी अल्पबहुत्व इम तीनो रे। इम सूक्ष्म अपकाय नी अल्पबहुत्व त्रिण चीनो रे ।। ३६. सूक्ष्म पृथ्वीकाय नी अल्लबहुत्व त्रिण एमो रे । बादर वाऊकाय नी अल्पबहत्व त्रिण तेमो रे ।। ३७. इम बादर तेउकाय नी अल्पबहुत्व त्रिण जोयो रे । इम बादर अपकाय नी अल्पबहुत्व त्रिण होयो रे ।। ३८. इम बादर पृथ्वीकाय नी अल्पबहत्व त्रिण करियै रे । ए सह त्रिविध गमे करी, अल्पबहत्व उच्चरियै रे ।। ३९. तेहथी बादर निगोद नां पर्याप्त नों प्रकाशी रे। जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगणी राशी रे ।। ४०. तेहिज बादर निगोद नां अपर्याप्त नीं कहीजे रे । उत्कृष्टी अवगाहना, विशेष अधिक लहीजै रे ।। ४१. तेहिज बादर निगोद नां पर्याप्ता नी प्रमाणी रे । उत्कृष्टी अवगाहना, विशेष अधिक बखाणी रे ।। ४२. प्रत्येक तनु बादर वणस्सइ, पर्याप्ता नी ताह्यो रे । जेह जघन्य अवगाहना, असंख्यातगुणी थायो रे ।। ४३. तेह थको तेहीज नां अपर्याप्त नी उच्चारो रे । उत्कृष्टी अवगाहना, असंख्यातगणी धारो रे ।। ४४. तेह थकी तेहीज नां पर्याप्ता नी प्रचण्डी रे। उत्कृष्टी अवगाहना, असंख्यातगुणी मण्डी रे।। ३६. एवं सुहमपुढविकाइयस्स वि एवं बादरवाउकाइयस्स वि ३७. एवं बादरतेउकाइयस्स वि एवं बादरआउकाइयस्स वि ३८. एवं बादरपुढविकाइयस्स वि सव्वेसि तिविहेणं गमेण भाणियव्वं, ३९. बादरनिगोयस्स पज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा ___ असंखेज्जगुणा ४०. तस्स चेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ४१. तस्स चेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ४२. पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स पज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ४३. तस्स चेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ४४. तस्स चेव पज्जत्तगस्प उक्कोसिया ओगाहणा असंसेज्जगुणा। (श० १९।२४) सोरठा ४५. पृथिव्यादीनां येऽवगाहनाभेदास्तेषां स्तोकत्वाद्युक्तम्, (वृ० प० ७६५) ४६. अथ कायमाश्रित्य तेषामेवेतरेतरापेक्षया सूक्ष्मत्वनिरूपणायाह (वृ० प०७६५) ४५. पृथिव्यादिक नी जाण, अवगाहना नां भेद जे। स्तोकपणांदिक माण, पूर्व प्रत्यक्ष आखिया ।। ४६. अथ परकाय आश्रित्य, इतर-इतर नी पेक्षया । तेहनोंईज कथित्य, सूक्षमपणां प्रतै हिवै। स्थावर जीव : सर्व सूक्ष्म सर्व बादर पद ४७. हे प्रभु ! ए पृथ्वीकाय नै, अप तेउ वाउकायो रे । वलि वनस्पतिकाय नै, माहोमांहि कहायो रे ।। ४८. किसी काय जे सर्वथा सूक्ष्म छै जिनरायो रे ? किसी काय वलि सर्वथा सूक्ष्मतर कहिवायो रे ? बा०-- इहां प्रथम पद सर्वथा सूक्ष्म ते सर्वसूक्ष्म कह्यो। ए सर्वसूक्ष्म अनेरा पदार्थ नी अपेक्षया चक्षु अग्राह्य मात्र करिक पिण हुदै । जिम सूक्ष्म वायु, ४७. एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउक्काइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स वणस्सइकाइयस्स य ४८. कयरे काये सव्वसुहमे ? कयरे काए सव्वसुहम तराए ? वा०-'सव्वसुहुमे' त्ति सर्वथा सूक्ष्मः सर्वसूक्ष्मः, अयं च चक्षुरग्राह्यतामात्रेण पदार्थान्तरमनपेक्ष्यापि स्याद् श० १९, उ० ३, ढा० ३९१ २१५ Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म मन ए चक्षु अग्राह्य तिम पिण हुवै ते मार्ट दूजो पद कहै छ सर्व नै मध्य अतिशय करिके सूक्ष्म ते सर्वसूक्ष्मतर । ए दूजो पद अथवा जे सर्वसूक्ष्म प्रथम पद कह्यो तेहिज सूक्ष्मतर । ४९. श्री जिन भाखै वनस्पति, सर्वसूक्ष्म कहिवायो रे । वनस्पतिकाय सर्व में, अतिहो सूक्षम थायो रे ।। ५०. ए प्रभु ! पृथ्वो अप मझे, तेऊ वाऊ मांह्यो रे । किसी काय सूक्ष्म सर्वथा, कुण सर्वसूक्ष्मतर थायो रे? ५१. जिन कहै वायु सर्वथा सूक्ष्म ए कहिवायो रे। वाउकायज चिउं मध्ये, सूक्ष्मतर अधिकायो रे ।। ५२. ए प्रभु ! पृथ्वीकाय में, अप वलि तेऊ मांह्यो रे । किसी काय सूक्ष्म सर्वथा, कुण सर्वसूक्ष्मतर थायो रे? ५३. जिन कहै तेऊ सर्वथा, सूक्ष्म ए कहिवायो रे । तेऊकायिक सर्व थो सूक्ष्मतर अधिकायो रे ॥ ५४. ए प्रभु ! पृथ्वी अप वली, ए दो रै मांह्यो रे । किसी काय सूक्ष्म सर्वथा, कुण सर्वसूक्ष्मतर थायो जी ? यथा सूक्ष्मो वायुः सूक्ष्मं मन इत्यत आह-'सबसुहुमतराए' त्ति सर्वेषां मध्येऽतिशयेन सूक्ष्मतरः स एव सर्वसूक्ष्मतरक इति । (वृ० प०७६६) ४९. गोयमा ! वणस्सइकाए सव्वसुहुमे, वणस्सइकाए सव्वसुहुमतराए। (श० १९।२५) ५०. एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउक्काइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स य कयरे काये सव्व सुहुमे ? कयरे काये सव्वसुहुमतराए ? ५१. गोयमा ! बाउक्काग सव्वसुहुमे, बाउक्काए सव्वसुहुमतराए। (श० १९।२६) ५२. एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउक्काइयस्स ते उक्काइयस्स य कयरे काये सव्वसुहमे ? कयरे काये सव्वसुहमतराए? ५३. गोयमा ! तेउक्काए सव्वसुहुमे, तेउक्काए सव्वसुहुमतराए। (श० १९।२७) ५४. एयस्स णं भंते ! पुढविक्काइयस्स आउक्काइयस्स य कयरे काये सव्वसुहमे ? कयरे काये सव्वसुहुम तराए? ५५. गोयमा ! आउक्काए सव्वसुहुमे, आउक्काए सव्वसुहुमतराए। (श०१९।२८) ५५. जिन भाखै अप सर्वथा सूक्ष्म ए कहिवायो रे। वलि अपकाय बिहुं मध्ये, सूक्ष्मतर अधिकायो रे ।। दूहा ५६. सूक्ष्म सूं विपरीत छै, बादर जे संवादि । सूक्ष्मपणों कह्यां पछै, हिव बादर पृथिव्यादि । ५७. *ए प्रभु! पृथ्वीकाय नैं, आऊ तेऊ जाणी रे ।। वाऊ वनस्पती वली, ए पांचू में पिछाणी रे ।। ५८. किसी काय छै सर्वथा, बादर मोटी ताह्यो रे। किसी काय पांचं मझे, बादरतर अधिकायो रे? ५९. जिन कहै वणस्सइ सर्वथा, बादर मोटी धारो रे। अति मोटी ए सर्व में, जाझी जोजन हजारो रे ॥ ६०. ए प्रभु! पृथ्वी अप तण, तेऊ वाऊ मांह्यो रे । कवण काय बादर सर्वथा, कुण सर्व बादरतर ताह्यो रे ? ५६. सूक्ष्मविपरीतो बादर इति सूक्ष्मत्वनिरूपणानन्तरं पृथिव्यादीनामेव बादरत्वनिरूपणायाह (वृ०प०७६६) ५७. एयस्स णं भंते ! पुढविक्काइयस्स आउक्काइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स वणस्सइकाइयस्स य ५८. कयरे काये सब्वबादरे? कयरे काये सव्वबादर तराए ? ५९. गोयमा ! वणस्सइकाए सव्वबादरे, वणस्सइकाए सव्वबादरतराए। (श०१९।२९) ६०. एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स य कयरे काए सव्व बादरे ? कयरे काए सव्वबादरतराए। ६१. गोयमा ! पुढबिक्काए सव्वबादरे, पुढविक्काए सव्वबादरतराए। (श० १९।३०) ६२. एयस्स णं भंते ! आउक्काइयस्स तेउक्काइयस्स वाउकाइयस्स य कयरे काए सव्वबादरे ? कयरे काए सव्वबादरतराए? ६३. गोयमा ! आउक्काए सव्वबादरे, आउक्काए सव्वबादरतराए। (श० १९॥३१) ६१. जिन भाख पृथ्वी सर्वथा बादर जे कहिवायो रे । पृथ्वीकाय चिउं काय में, बादरतर अधिकायो रे ।। ६२. ए प्रभुजी ! अपकाय नै, तेऊ वाऊ मांह्यो रे । कवण काय बादर सर्वथा, कुण सहु में बादरतर अधिकायो रे ? ६३. जिन भाखै अप सर्वथा बादर ए कहिवायो रे । अपकाय त्रिहुं काय में, बादरतर अधिकायो रे ।। *लय : कर जोड़ी राणी कहै २१६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. ए प्रभु तेउकाय में वाककाय रे मांह्यो रे । कवण काय बादर सर्वथा, कृण सहू में बादरतर अधिकायो रे ? ६५. जिन कहे तेऊ सर्वथा बादर ए कहिवायो रे। तेऊकाय ए बिहं मझे, बादरतर अधिकायो रे ।। सोरठा ६६. पूर्वे भाख्यो जेह, तेहिज अर्थ प्रतै वली । अन्य प्रकार करेह, कहिये छे ते सांभलो ।। पृथ्वी शरीर विशालता पद ६७. *हे भदंत ! मोटुं कितो, पृथ्वी तणों शरीरो रे ? श्री जिन भाखं गोयमा ! सांभल तं गुणहीरो रे ।। ६८. अनंत सूक्ष्म वणस्सइ, तास जिता तनु ताह्यो रे । ते सूक्ष्म वायुकाय नों, एक शरीरज वायो रे । सोरठा ६९. जीव अनंत पिछाण, सूक्ष्म वनस्पती तणां । तसु तनु जितरा जाण, इहां जितरा कहिये करी ॥ ७०. असंख्यात तनु सोय, तेह ग्रहण करिया अछे । अनंत तनु नहि होय, अनंत जीव नो पिण तिके ॥ ७१. अनंत वणस्सइ जंत, तेहनां पिण एकादि जे । असंवेज तनु हंत, तिणसूं अनंत तनु नहीं ॥ ७२. पूर्वे पिण इम ख्यात, सूक्ष्म वनस्पती तणी । अवगाहन अवदात, असंख्यातगुण कर कहा ॥ , ७३. ते मार्ट कहिवाय सूक्ष्म वनस्पती तणां । असंध तनु यी घाय, सूक्ष्म वायु एक तनु । ७४. "असं सूक्ष्म वायु तनु तणां, होवे जितला शरीरो रे । ते इक सूक्ष्म तेउ नों, शरीर हुवै सुण धीरो रे ॥ ७५. असंख] सूक्ष्म तेऊ तणां जितला शरीर सुभावे रे। एक सूक्ष्म आऊ वणों, सहज शरीर सुहावे रे | ७६. असंख सूक्ष्म अप तनु तणां, हुवै जिता तनु ताह्यो रे । ते इक सूक्ष्म पृथ्वी तणों, एक शरीर कहायो रे ॥ ७७. असंख्याता सूक्ष्म पृथ्वी नां, जिता शरीर पिछाणी रे ।। बादर वाऊकाय नों, एक शरीर ते जाणी रे ॥ ७८. असंख्याता बादर बाउ नां, जिता शरीर सुजोयो रे । बादर तेककाय नों एक शरीरज होयो रे ॥ ७९. असंख्याता बादर ते नां, जिता शरीर विचारी रे। ते बादर अपकाय नों, एक शरीरज धारी रे ।। *लय कर जोड़ी राणी कहे ६४. एयस्स ण भंते ! तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स यं कयरे काए सव्वबादरे ? कयरे काए सव्वबादरतराए ? ६५. गोयमा ! उक्काए सव्वबादरे, सव्वबादरतराए । उक्काए ( ० १९३२) ६६. पूर्वोक्तमेवार्थ प्रकारान्तरेणाह ( वृ० प० ७६६) ६०. केमहालए भंते विसरीरे पणते ? गोयमा ! ६८. अनंताणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे सुमवाउसरीरे, ६९.७०. इह याबद्द्मणेनासंख्यातानि शरीराणि ब्रह्माणि ( वृ० प० ७६६ ) ७१. अनन्तानामपि वनस्पतीनामेकाद्यसंख्येयान्तशरीरत्वाद् अनन्तानां च तच्छरीराणामभावात् । ( वृ० प० ७६६) ७२. प्रा सूक्ष्मवनस्पत्यवगानापेक्षया सूक्ष्मवास्यव गाहनाया असंख्यातगुणत्वेनोक्तत्वादिति, (बु० प० ०६६) ७४. संजाणं माउसरीराणं जावया सरीश से एगे सुहुमते उसरीरे, ७५. अमोउकाइपसरीराणं आवश्या सरीरा से एगे सहमे आउसरीरे, ७६. असंखेज्जाणं सुहुम आउक्काइयसरीराणं सरीरा से एगे सुहुमे पुढविसरीरे, ७७. असंखेज्जाणं सुमपुढविकाइयसरीराणं जावइया सरीरा से एगे बादरबाउसरीरे ७८. असंखेज्जाणं बादरवाउक्काइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादरतेडसरीरे, ७९. असंखेज्जाणं बादरतेउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादरआउसरीरे, श० १९, उ० ३, ढा० ३९१ जावइया २१७ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०. असंख्याता बादर अप तणां जिता शरीरज लहिये रे । बादर पृथ्वीकाव नों एक शरीरज कहिये रे || ८१. इतरो मोटो गोवमा ! तनु सुविशेषो रे । उगणीसम शत अर्थ ए, तृतीय उद्देशक देशो रे ।। ८२. ढाल तीन सौ ऊपर, एकाणूमीं आछी रे । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, पृथ्वी 'जय जश' संपति साची रे ।। ढाल ३९२ पृथ्वी काय : शरीर अवगाहना पद दूहा १. वलि गोतम पूछे प्रभु ! पृथ्वी तनु नीं ताम । किती मोटी अवगाहना, आप परूपी स्वाम ? २. *श्री जिन भाखै हो दे दृष्टंतो, म्हांरा लाल राजा ची हो चिउदिशि अंतो, म्हांरा लाल ।। ३. तेहनी दासी हो आज्ञाकारी, म्हांरा लाल वर चंदन नीं हो पीसणहारी, म्हांरा लाल ॥ ४. वय करि वधती हो एहवी तरुणी । अति बलवंती हो जनमन हरणी ॥ ५. वर आरा नीं हो तृतीय तुयं नी, पवर काल भी हो निपनी रमणी || ६. वर वय पामी हो तेह जुवानी, रोग रहित तनु हो तेहनी जानी ॥ ७. वर्णक योग्यज हो यावत धारी, ८. जाव शब्द में हो एहवो कहिये, ९. बलि अति दृढ़ हो कर पग तेहनां दृढ़ छै निपुण शिल्प नीं हो जाणणहारी ॥ स्थिर दृढ़ कर न हो अग्रज लहिये ।। अंग उपगंज हो सुंदर जेह्नां ॥ १०. बिहु पवाडा हो फुन पृष्टांतर, बिहुं साथल हो परिणत सुंदर ॥ ११. ए परिपूर्ण हो पाम्या रमणी, अवयव सर्वज हो उत्तम नमणी ।। *लय : केशर वरणो हो काढ कसूंबो, म्हांरा लाल २१८ भगवती जोड़ ८०. असंखेज्जाणं बादरआउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे वादविसरीरे ८१. एमहालए णं गोयमा ! पुढविसरीरे पण्णत्ते । ३. वण्णगपेसिया 'वन्नगपेसिय' त्ति चन्दनपेषिका १. पुढविकाइयस्स भने ! केमहालिया सरीरोगाहगा पण्णत्ता ? २. गोमा से जहानामए रणो चाउचट्टिस्स ( वृ० प० ७६७) ४. तरुणी- बलवं तरुणीति प्रवर्द्धमानवया: 'बलवं' ति सामर्थ्यवती (बृ. १०७६७) ( श० १९/३३ ) ५. जुगवं 'जुगतं' ति सुषमदृष्यमादिविशिष्ट कालवती (बु० प० ७०६७) ६. जुवाणी अप्पायंका 'जुवाणि' त्ति वय: प्राप्ता 'अप्पायंक' त्ति नीरोगा ( वृ० प० ७६७) (पाटि २) , ७. वण्णओ जाव निउणसिप्पोवगया, थिरग्गहत्था ९. दढपाणि-पाय ८. १०. पास पिट्ठतरोरुपरिणता Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. उरस्सबलसमण्णागया १४,१५. तलजमलजुयल-परिघनिभवाहू १६. लंघण-पवण १७. जइण""समत्था १९. छेया २०. दक्खा पत्तट्ठा १२. मांस सहित छै हो अतिही पुष्ट, वत्त वलित जिम हो खंध अदुष्टं' ।। १३. उर में उपनो हो बल अधिकारी, ओछाह वीर्य हो अंतर भारी॥ १४. ताड वृक्ष जे हो जमल सम श्रेणी, युगल सरल अति हो जिम तरु रैणी॥ १५. तदवत तेहनी हो सुंदर बाहु, पीवर पुष्टज हो सरल स्वभाउ ।। १६. लंघन कहियै हो उलंघन करिवै, ईषत गमने हो पगला धरवै ।। १७. जवन शीघ्र गति हो अति चालण में, सामर्थ्यवंती हो विक्रम तन में ।। १८. कठिन वस्तु पिण हो चूर्ण करणी, सुंदर साम्यर्थ हो तनु बल वरणी। १९. कला चउसठ नी हो जाण प्रवीणी, अधिक अभ्यासज हो विद्या कीनी॥ २०. दक्ष कार्य में हो विलंब न करती, पृष्टज वाग्मी हो विद्या धरती ।। २१. कुसल कहीजै हो सम्यक साची, निज क्रिया नी हो जाणज जाची॥ २२. वलि मेधावी हो वच पूर्वापर, वचन मेलवा हो डाही सुंदर ।। २३. जाव शब्द में होए रव भाख्या, जीवाभिगमे हो देखी दाख्या। २४. पाठ व्यायामज हो ते नहिं कहिये, तिणसं सूत्रे हो णवरं लहिये ।। सोरठा २५. णवरं इतो विशेख, घन चमिष्टज आदि जे। ___व्यायाम क्रिया पेख, तसु उपकरण विशेष जे॥ २६. तिण करि कूटत गात, सम्यक प्रकार करि तसु। घनीभूत आख्यात, गात्र अंग तेहने विषे । २७. एह तिहां आख्यात, तिके इहां कहिवा नथी। एक विशेषण जात, स्त्रियां तणे नहिं संभवै ।। २१. कुसला २२. मेहावी २५-२७. नवरं- चम्मेठ्ठ-दुहण-मुट्ठियसमाहयणिचियगत्तकाया न भण्णति, (पा० टि० २) इह वर्णके 'चम्मेट्ठदुहणे' त्याद्यप्यधीतं तदिह न वाच्यं, एतस्य विशेषणस्य स्त्रिया असम्भवात्, अत एवाह'चम्मेद्वदुहणमुट्ठियसमाहयनिचियगत्तकाया न भन्नइ' त्ति, तत्र च चर्मेष्टकादीनि व्यायामक्रियायामुपकरणानि तैः समाहतानि व्यायामप्रवृत्तावत एव निचितानि च-घनीभूतानि गात्राणि- अङ्गानि यत्र स तथा तथाविधः कायो यस्याः सा तथेति, (वृ०प०७६७) २८. *एहवी कहिये हो चक्री दासी, पूर्वे आखी हो तेह विमासी ।। १. भगवती सूत्र में मूलतः इस सन्दर्भ में संक्षिप्त पाठ है । उसकी पूर्ति इसी आगम के शतक १४।३ से की गई है । जयाचार्य ने यह जोड़ जीवाभिगम के आधार पर की है। उसके कुछ पाठ भगवती में नहीं हैं। इस कारण जोड़ के सामने पाठ उद्धृत नहीं किया गया। २. प्रस्तुत आगम में यह पाठ नहीं है। *लय : केसर वरणो हो काढ कसूबो म्हारा लाल शै० १९, उ०३, ढा० ३९२ २१९ Jain Education Intemational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. वर चंदनादिक हो पीसणवानी, शिला वज्र नी हो कठोर जानी। २९. तिक्खाए वइरामईए सण्हकरणीए 'तिक्खाए' त्ति परुषायां 'वइरामईए' त्ति वज्रमय्यां सा हि नीरन्ध्रा कठिना च भवति 'सण्हकरणीए' त्ति श्लक्ष्णानि- चूर्णरूपाणि द्रव्याणि क्रियन्ते यस्यां सा श्लक्ष्णकरणी-पेषणशिला तस्याम् (व०प०७६७) ३०. तिक्खेणं वइरामएणं वट्टावरएणं 'वट्टावरएणं' ति वत्तंकवरेण लोष्टकप्रधानेन (व०प०७६७) ३१. एग महं पुढविकाइयं जतुगोलासमाणं ३०. कठिन वज्र में हो लोढो तिण करि, हिव ते दासी हो तेह शिला परि ।। ३१. इक महापृथ्वी हो काय पिछाणो, जतु गोला नै हो तेह समाणो।। गीतक छंद ३२. लघु बाल कीड़ा करण नों ए, लाख नो गोलो सही। तेह गोल परिमाण पृथ्वी, पिण अति मोटी छै नहीं। ३३. *ते कर ग्रही नै हो पीसी-पीसी, करै एकठा हो अतिमन हिंसी ।। ३४. पिंड करै ते हो पिंड करीनैं, जाव इणामेव हो इम उचरी नैं ।। ३५. इम ते पीसे हो वार इकीस, सांभल गोतम ! हो आगल कहीसै ।। ३२. डिम्भरूपक्रीडनकजतुगोलकप्रमाणं नातिमहान्तमित्यर्थः (वृ०प०७६७) ३३-३५. गहाय पडिसाहरिय-पडिसाहरिय पडिसंखिविय पडिसंखिविय जाब इणामेवत्ति कटु तिसत्तक्खुत्तो ओप्पीसेज्जा, तत्थ णं गोयमा ! 'पडिसाहरिए' त्यादि इह प्रतिसंहरण शिलायाः शिलापुत्रकाच्च संहृत्य पिण्डीकरणं प्रतिसंक्षेपणं तु शिलायाः पततः संरक्षणम् (वृ०प०७६७) ३६. केइ पृथ्वी नां हो जे छ जीवा, शिल लोढा नै हो लागा कहिवा ।। ३६. अत्थेगतिया पुढविकाइया आलिद्धा 'आलिद्ध' त्ति आदिग्धाः शिलायां शिलापुत्रके वा लग्नाः (व०प०७६७) ३७. अत्थेगतिया पुढविक्काइया नो आलिद्धा, ३७. केइ पृथ्वी नां हो जीव न लागा, शिल लोढा थी हो रह्याज आघा ।। ३८. केइ पृथ्वी नां हो जीव संघटिया, केइ न संघटया हो मूल न अडिया ।। ३९. केइ प्रताप्या हो जीव पृथ्वी रा, केइक जीवा हो न लही पीड़ा ॥ ४०. केइक जीवां न हो मरण थयो छ, केई न मूआ हो आयु रह्यो छै ।। ४१. केइक पीम्या हो थया विहंडत, केई न पीस्या हो रह्या अखंडत ।। ४२. श्री जिन भाखै हो गोयम ! सुणजे, पृथ्वी जीव नां हो तनु थी Oणजे ॥ ४३. इतरी मोटी हो अवगाहन छै, इतरै सूक्षम हो तेहनां तन छै ।। ३८. अत्थेगतिया संघट्टिया अत्थेगतिया नो संघट्टिया, 'संघट्टिय' त्ति संघर्षिताः (वृ० प० ७६७) ३९. अत्थेगतिया परियाविया अत्थेगतिया नो परियाविया, 'परिताविय' त्ति पीडिताः (वृ०प० ७६७) ४०. अत्यंगतिया उद्दविया अत्थेगतिया नो उद्दविया, 'उद्दविय' त्ति मारिताः, (वृ० प० ७६७) ४१. अत्थेगतिया पिट्ठा अत्थेगतिया नो पिट्ठा, "पिट्ठ' त्ति पिष्टाः (वृ० ५०७६७) ४२,४३. पुढविकाइयस्स णं गोयमा ! एमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता। (श० १९।३४) 'एमहालिय' त्ति एवंमहतीति महती चातिसूक्ष्मेति भावः यतो विशिष्टायामपि पेषणसामग्र्यां केचिन्न पिष्टा नैव च छुप्ता अपीति । (वृ० ५० ७६७) ४४. शत उगणीसम हो तृतीय उद्देस, तेहनु देशज हो ए सुविशेषं ।। *लय । केसर वरणो हो काढ़ कसूबो म्हारा लाल २२० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. ढाल तोनसी हो ऊपर जाची, ए बाणूंमी हो वारू वाची ॥ ४६. भिक्षु भारी हो वलि ऋषिराया, 'जय जय' संपति हो हरष सवाया ।। ढाल : ३९३ हा १. पूर्वे एहवो आखियो, केइक संघटया जीव । संघट्ट फुन आक्रमण नुं, भेद अछेज अतीव । २. अथ पृथिव्यादिक जीव में, आक्रम्यां अवलोय । जेहवी तम्र वेदना, तास ह परूपण जोय || * जिन - वाणी भली । जिनवाणी भली हो प्रभु ! आपरी प्रकासी हलुकर्मी भली ॥ (ध्रुपदं ) ३. हे भगवंत ! पृथ्वीकाय जे प्रभुजी ! आक्रमिए छते जंत हो । महाराजा जिन वाणी भली । ते कैहवी वेदन प्रतं प्रभुजी ! वाणी भली ।। दृष्टंत हो। भोगवता विचरंत हो महाराजा! जिन ४. श्री जिन भाखं सांभलं गोवमजी ! कहूं देई कोई पुरुष तरुणो अछे गोयमजी वलि अधिक बलवंत हो । ५. यावत निपुण चतुर अति गोयम ! वलि शिल्प कला नां जाण हो । बल वर्णक तिण पुरुष नों गोयम ! जाव शब्द में पिछाण हो । ६. एक पुरुष जूनो घणों गोयम ! जरा करीनं अत्यंत हो। देह थइ तसु जोजरी गोयम ! दुर्बल तनु नहि कंत ७. ते तरुण पुरुष बिहुं हाथ नीं गोयम ! अतिही मूठी भीड़ हो । ते बुद्ध पुरुष नो शिर विषे गोवम ! हर्णे उपावे पीड़ हो । हो ॥ ८. बलि जिनजी इम वागरं गोयम! तेह पुरुष ने जगीस हो । बिहुं कर नीं मूठी ग्रही गोयम ! हणियै थके वृद्ध सीस हो । ९. ते वृद्ध कवी वेदना गोयम भोगवतो विचरंत हो। इन प्रभुजी पूछ थके गोयम! उत्तर दम आपत हो । १०. अनिष्ट वेदन अति घणी प्रभुजी ! हे श्रमण आउखावंत ! हो। एह वचन गोतम तणों सुगुण जी ! तब भाखै भगवंत हो ॥ ११. से वृद्ध नीं वेदन थकी गोयमजी ! पृथ्वीकायिक ताम हो । आकामिय चांप्यां थकां गोयम ! अतिहि अनिष्टज पाम हो । *लय : कठोड़ा रा बाजा बाजिया कुंवरजी : कठोड़ा रा घुरघा छँ निसान हो । महाराजा | पुलस्यारी लगी ॥ १, २ . अत्थेगइया 'संघट्टिय' त्ति प्रागुक्तं संघट्टश्चाक्रमणभेदो आकान्तानां पृथिव्यादीनां यादृशी वेदना भवति तत्प्ररूपणायाह ( वृ० प० ७६७ ) ३. पुढविकाइए णं भंते ! अक्कंते समाणे केरिसिय वेद परभवमाणे विहर ? ४. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं ५. जान (सं० पा० ) निउसियोवगए ६. एवं पुरणं जरा-जन्नरिय देहं जाव (सं० पा० ) स्वतंत ७. जमलपाणिणा मुढासि अभि 'जमलपाणि' ति मुष्टिनेति भावः ( वृ० प० ७६७ ) से गोयमा पुरिसे तेषं पुरिसेणं जमलपाणिणा मुद्धाति अहिए समा ९. फेरिसि वेद पनगुज्भवमाणे विहरति ? १०. अपि समाउसो ! अद्धिं समणाउसो ! ति गौतमवचनम् (१० ५०७६७) ११. स णं गोवमा ! पुरिसस्स वेदणाहितो पुढविकाइए अक्कते समाणे एत्तो अणितरियं चेव श० १९, उ० ३, ढा० ३९२,३९३ २२१ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. अकंततरियं जाव (सं० पा०) अमणामतरियं चेव वेदणं पच्चणुब्भवमाणे विहइ। (श० १९६३५) १५ पृथयात शहात नियनं को गोया जावतमनोव रतयंत हो। १२ अवविध जाब (स पर १२. अतिही अकांत निश्चै करी गोयम ! जाव अमनोज्ञ अत्यंत हो। पृथ्वी एहवी वेदना गोयम ! भोगवता विचरंत हो ।। अपकायादि वेदना पद १३. हे भगवंत ! अपकाय नों प्रभुजी ! संघटिये थके जंत हो। ते कहवी वेदन प्रति गोयम ! भोगवता विचरंत हो ? १४. श्री जिन भाखै सांभले गोयम ! जिम कही पृथ्वीकाय हो। __ तिमहिज अप पिण जाणवी, इमहिज तेऊकाय हो । १५. वाऊकाय पिण इहविधे गोयम ! एवं वनस्पती जंत हो। विचरै भोगवता वेदना प्रभुजी ! सेवं भंते ! सेवं भंतं ! हो ।। १३. आउयाए णं भंते ! संघट्टिए समाणे केरिसियं वेदणं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ ? १४. गोयमा ! जहा पुढविकाइए एवं चेव । एवं तेउयाए वि। १५. एवं वाउयाए वि। एवं वणस्सइकाए वि जाव विहरइ। (श० १९।३६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १९।३७) १६. उगणीसम तीजै अख्यो प्रभुजी ! त्रिणसय त्राणूमी ढाल हो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी गोयम ! ___ 'जय-जश' मंगलमाल हो । एकोनविंशतितमशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥१६॥३॥ ढाल : ३९४ १. तृतीय उद्देशा में कही, महावेदन पृथिव्यादि । तुर्य महावेदन प्रमुख, नारक आदि संवादि ।। १. पृथिवीकायिकादयो महावेदना इति तृतीयोद्देशकेऽ भिहितं, चतुर्थे तु नारकादयो महावेदनादिधर्मनिरूप्यन्ते (वृ० ५० ७६७) २. महाआश्रवा महाक्रिया, महावेदना जोय । महानिर्जरा वलि कही, ए च्यारूं पद सोय ।। महाआश्रवादि पद ३. महाआश्रव ते अति घणु, कर्म बंध नो हेतु । महाक्रिपा ते अति घणों, काइया प्रमुख कथेतु ।। ४. महावेदना तीव्र ही, महानिर्जर अघ क्षीन । ए च्यारूं पद नां हिवै, सोलै भंग कथीन ।। ३. महाश्रवाः प्रचुरकर्मबन्धनात् महाक्रियाः कायिक्यादि क्रियाणां महत्त्वात् (वृ० प० ७६८) ४ महावेदना वेदनायास्तीव्रत्वात् महानिर्जराः कर्मक्षपणबहुत्वात् एषां च चतुर्णा पदानां षोडश भंगा भवन्ति, (वृ० प० ७६८) ५. एतेषु च नारकाणां द्वितीयभङ्गकोऽनुज्ञात: (वृ० ५०७६८) ५. द्वितीय भंग नारक विष, शेष पनर भंग नांय । हिव सोले भंग जूजुआ, प्रश्नोत्तर कहिवाय ।। गीतक छंद ६. ह नारका महाआश्रवा, प्रभु ! महाकिरियावंत ही। महावेदना महानिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ।। सोरठा ७. ए चिउं पद रै मांहि, आखी छै महानिर्जरा। ते नारक में नाहि, तिणसू धुर भंग वरजियो ।। ६. सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा? गोयमा ! नो इणढे समठे। (श० १९।३८) २२२ भगवती जोड Jain Education Intemational ation Intermational Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया महा वेयणा अप्पनिज्जरा? हंता सिया। (श० १९।३९) गीतक छंद ८. ह नारका महाआश्रवा, प्रभु महाकिरियावंत ही। महावेदना अल्पनिर्जरा? जिन कहै हंता ह सही ।। सोरठा ९. ए चिउं पद रै मांय, धूर त्रिहं पद मोटा कह्या । अल्पनिर्जरा थाय, तिणसू हंता जिन कह्यो। गीतक छंद १०. ह नारका महाआश्रवा, प्रभु ! महाकिरियावंत ही। अल्पवेदना महानिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं। सोरठा ११. ए चिउं पद रै मांहि, अल्पवेदना महानिर्जरा । ते नारक में नाहि, तिणसू तीजो भंग नहीं । गीतक छंद १२. ह नारका महाआश्रवा, प्रभु ! महाकिरियावंत ही। अल्पवेदना अल्पनिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ।। १०. सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया अप्पबेयणा महानिज्जरा? गोयमा ! नो इणढे समठे। (श० १९।४०) १२. सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया अप्यवेयणा अप्पनिज्जरा? गोयमा ! नो इणठे समझें। (श० १९।४१) १४. सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकिरिया महावेयणा महानिज्जरा? गोयमा ! नो इणठे समठे। (श० १९।४२) ___ सोरठा १३. ए चिउं पद रै मांहि, अल्पवेदन अल्पनिर्जरा। ते अल्पवेदना नाहि, तुर्य भंग नहिं ते भणी ।। गीतक छंद १४. ह नारका महाआश्रवा, प्रभु! अल्पकिरियावंत ही। महावेदना महानिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ।। सोरठा १५. ए चिउं पद रै मांहि, क्रियाअल्प महानिर्जरा। ते नारक में नाहि, तिणसुं पंचम भंग नहीं ।। गीतक छंद १६. ह नारका महाआश्रवा, प्रभु ! अल्पकिरियावंत ही। महावेदना अल्पनिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं । सोरठा १७. ए चिउं पद रै मांहि, अल्पक्रिया अल्पनिर्जरा। अल्प क्रिया त्यां नाहि, तिणसू छट्ठो भंग नहीं । गीतक छंद १८. ह नारका महाआश्रवा, प्रभु अल्पकिरियावंत ही। अल्पवेदना महानिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ।। १६. सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकिरिया महावेयणा अप्पनिज्जरा ? गोयमा ! नो इणठे समठे। (श० १९।४३) १८. सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा महानिज्जरा? नो इणठे समठे। (श० १९१४४) श० १९, उ० ४, ढा० ३९४ २२३ Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १९. ए दि र मांहि, अल्पक्रिया अल्पवेदना | महानिर्जरा नांहि तिणसूं सप्तम भंग नहीं । गीतक छंद ! २०. नारका महाजालवा, प्रभु अल्पकिरियावंत ही । अल्पवेदना अल्पनिर्जरा ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं । २१. ए चिरं पद मध्य बेपद सोरठा मांहि, धुर विण त्रिहुं पद अल्प है । त्यां नांहि, तिणसूं अष्टम भंग नहीं ॥ गीतक छंद २२. नारका अल्पबाधवा, प्रभु! महाकिरियावंत ही महावेदना महानिर्जरा ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं || सोरठा २३. ए चिउं पद रै मांहि, अल्पआश्रवा आखिया । ते नारक में नांहि, तिणसूं नवमूं भंग नहीं || गीतक छंद २४. नारका अल्पनाश्रया, प्रभु! महाकिरियावंत ही । महावेदना अल्पनिर्जरा ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ॥ सोरठा २५. ए चिरं पद र मोहि अल्पभाधव कह्यो अछे । ए नारक में नांहि, तिणसूं दशमों भंग नहीं || गीतक छंद २६. नारका अल्पआधवा, प्रभु महाकिरियावंत ही । ! अल्पवेदना महानिर्जरा ? जिन कहे अर्थ समर्थ नहीं || सोरठा तृतीय अल्प इतर महा । तिणसूं भंग न ग्यारमों ॥ गीतक छंद २८. नारका अल्पआथवा, प्रभु ! महाकिरियावंत ही । अल्पवेदना अल्पनिर्जरा ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं । सोरठा २७. ए चिउं पद मांहि, प्रथम द्वितीय विना त्रिहुं नांहि, २९. ए चिपद मोहि, द्वितीय पदे महा अल्प विहं प्रथम तृतीय त्यां नांहि, तिणसूं भंग बारमों ॥ न २२४ भगवती जोड़ २०. सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्प किरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा ? नो इट्ठे समट्ठे । ( श० १९/४५ ) २२. सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? ( ० १९०४६) नो इट्ठे सम । २४. सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया महावेयणा अप्पनिज्जरा ? (श० १९०४७) नो इडे समड़े। २६. सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेषणा महानिज्जरा ? नो इट्ठे समट्ठे । (श० १९/४०) २८. सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा ? नो इमट्ठे समट्ठे । (१० १९/४९) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. सिय भंते! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया महावेयणा महानिज्जरा? नो इणठे समझें। (श० १९।५०) ३२. सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया महावेयणा अप्पनिज्जरा? नो इणठे समझें । (श० १९।५१) गोतक छंद ३०. ह नारका अल्पआश्रवा, प्रभु ! अल्पकिरियावंत ही। महावेदना महानिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ।। सोरठा ३१. ए चिउं पद रै मांहि, धुर बे पद अल्प इतर महा । तृतीय विना त्रिहुं नाहि, तिणसं भंग न तेरमों ।। गीतक छंद ३२. ह नारका अल्पआश्रवा, प्रभ ! अल्प किरियावंत ही। महावेदना अल्पनिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं । सोरठा ३३. ए चिउं पद रै मांहि, तृतीय महा अन्य त्रिहुं अल्प । प्रथम द्वितीय पद नांहि, तिणसूं भंग न चवदमों ।। गीतक छंद ३४. ह्र नारका अल्पआश्रवा, प्रभु ! अल्पकिरियावंत ही। अल्पवेदना महानिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ।। सोरठा ३५. ए चिहुं पद रै मांहि, धुर त्रिहुं पद अल्प चरम महा। नारक में चिउं नाहि, तिणसं भंग न पनरमों ।। गीतक छंद ३६. बनारका अल्पआश्रवा, प्रभ ! अल्पकिरियावंत ही। अल्पवेदना अल्पनिर्जरा? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ।। सोरठा ३७. ए चिउं पद रै मांहि, च्यारूं अल्प कह्या अछ । धुर त्रिहुं नारक नांहि, तिणसू भंग न सोलमो ।। १६ भांगा नों यंत्र ३४. सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा महानिज्जरा? नो इणठे समठे। (श०१९।५२) ३६. सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्प वेयणा अप्पनिज्जरा? नो इणठे समझें। (श० १९।५३) ३३३३ १३३३ १३१३ ३३११ १२ । १३११ ३१३३ १३ ११३३ १६३१३१ ३१३१ ११३१ ३११३ १५ | १११३ श० १९, उ०४, ढा० ३९४ २२५ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३८. धुर दंडक ₹ मांय, ए सोलं भंग मांहिलो । द्वितीय भंग इक पाय प्रश्नोतर हिव असुर नों ॥ 1 गीतक छंद ३९. असुर देवा महाववा, प्रभु ! महाकिरियावंत ही महावेदना महानिर्जरा ? जिन कहे अर्थ समर्थ नहीं || ४०. इम भंग चउथो जाणवो, पिण शेष पनरें भंग नथी । इम जाव धणियकुमार कहिये, न्याय हिव तसु वृत्ति थी । ४१. सुर महाआश्रववंत, अल्पवेदना हंत, ताव, है अविरति अधिकाय, ४२. महाजश्रवा ४३. अल्पवेदना असात उदय ताव, बहुलपणे करिनं तसु । अभाव, अल्प तृतीय पद ते भणी ।। ४४. अल्पनिर्जरा ताम, बहुलपण करिनें तसु । अशुभ घणां परिणाम अल्प तुयं पद ते भणी ।। ४५. ए उथो भंग पाय, शेष पनर भांगा नथी । हिव आगल कहिवाय, पृथ्वीकायादिक प्रतै ॥ गीतक छंद ४६. * पृथ्वीकायिक महाआश्रवा सोरठा क्रिया पिण मोटी तसु । अल्पनिर्जरा तुर्य भंग ॥ वलि महाकिरियावंत ते । घर वे पद महा ते भणी ॥ प्रभु ! महाकिरियावंत ही । महावेदना महानिर्जरा ? जिन कहै हंता ह्र सही ॥ ४७. इम जान पृथ्वी अल्पबाधव, अपकिरियावंत ही । अल्पवेदना अल्पनिर्जरा ? जिन कहै हंता ह्र सही ॥ सोरठा ४८. पृथिव्यादिक रे मांहि, भंग सोलैई आखिया । पद व्याखंइ ताहि, तसु विचित्र परिणाम थी ।। गीतक छंद ४९. इम जाव मनुस्सा वाणव्यंतर, ज्योतिषी वेमाणिया । जिम असुर तिम ही भंग चउथो सेवं भंते! भाविया || ५०. उगणीस में तुर्य ढाल त्रिण सय च्यार नेऊमीं भली । वर भिक्षु भारीमाल नृपशशि, सुगुण 'जय जय' रंगरली || एकोनविंशतितमशते चतुर्थोद्देशकार्यः ॥ १६॥४॥ २२६ भगवती जोड़ ३९. सिय भंते! असुरकुमारा महासवा महाकिरिया महावेषणा महानिजरा ? नो इण सम | ४०. एवं चउत्थो भंगो भाणियव्वो, सेसा पण्णरस भंगा खोडव्या एवं जाय जियकुमारा। 1 ( ० १९/५४) ४१. तेषामाश्रवादित्रयस्य महत्त्वात् कर्मनिर्जरायास्त्वत्पत्वात् शेषाणां तु प्रतिषेधः । (००७६८) ४२. असुरादिदेवेषु चतुर्थभङ्गोऽनुज्ञातः, ते हि महाश्रवा महाक्रियाश्च विशिष्टाविरतियुक्तत्वात् ( वृ० प० ७६८ ) ४३. अल्पवेदनाश्च प्रायेणासातोदयाभावात् ( वृ० प० ७६८ ) ४४. अपनि प्रायशुमा ४५. शेषास्तु निषेधनीयाः, ( वृ० प० ७६८) ( वृ० प० ७६८) ४६. सिय भंते! पुढविकाइया महासवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? हंता सिया । ४७. एवं जाव (० १९५५) सिय भंते! पुढविकाइया अप्पासवा अप्प किरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा ? हंता सिया । ४८. पृथिव्यादीनां तु चत्वापि पदानि तत्परिमते विपित्रस्वात् सव्यभिचाराणीति षोडशाप भङ्गाभवन्तीति (बु०प०७६८) ४९. एवं जाव मणुस्सा। वाणमंतर जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । ( १९५६) ( श० १९/५७ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३९५ १. चतुर्थे नारकादयो निरूपिताः, पञ्चमेऽपि त एव भंग्यन्तरेण निरूप्यन्ते (वृ० प०७६८) १. तुर्य नारकादिक कह्या, हिव पंचम उद्देश । तेहिज अन्य भंगे करी, कहियै छै सुविशेष ॥ चरम परम पद *श्री जिनराज तणां शिष्य गोयम, प्रवर प्रश्न पूछंत । (ध्रुपदं) २. छ प्रभु ! चरमा अल्पस्थिति नां पिण नारक अवलोय । परमा महास्थितिक पिण नारक ? जिन कहै हंता होय ।। ३. ते निश्चै प्रभु ! अल्पस्थिति नां, नारक थकी विचार । ___महास्थिति नां नारक निश्चै, महाकर्मतर धार ।। ४. वलि निश्चै महाक्रियावंत अति, अति महाआश्रववंत । ___ अति महावेदनवंत कहो? प्रश्न गोयम ए तंत । ५. महास्थिति नां नारक सेती, अल्पस्थिति नां जेह । नारक अल्पकर्मवंत अतिही, अल्पक्रियावत तेह ।। ६. आश्रव अल्प कहीजै थोड़ो, अल्पवेदनावंत ? श्री जिन भाखै हंता अत्थि, पूछयो जेम कहत ।। २. अत्थि णं भंते ! चरमा वि नेरइया ? परमा वि नेरइया ? हंता अत्थि। 'चरमावि' त्ति अल्पस्थितयोऽपि 'परमावि' त्ति महास्थितयोऽपि, (वृ०प०७६९) ३. से नूणं भंते ! चरमेहितो नेरइएहितो परमा नेरइया महाकम्मतरा चेव, ४. महाकिरियतरा चेव, महस्सवतरा चेव, महावेयणतरा चेव, ५. परमेहितो वा नेरइएहितो चरमा नेरइया अप्पकम्म तरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, ६. अप्पस्सवतरा चेव, अप्पवेयणतरा चेव ? हंता गोयमा ! चरमेहितो नेरइएहितो परमा जाव महावेयणतरा चेव, परमेहितो वा नेरइएहितो चरमा नेरइया जाव अप्पवेयणतरा चेव । (श० १९।५९) ७. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव अप्पवेयणतरा चेव ? गोयमा ! ठिति पडुच्च । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव अप्पवेयणतरा चेव। (श०१९।६०) ७. किण अर्थे प्रभुजी ! इम यावत अल्पवेदनावंत ? जिन कहै स्थिति प्रतै आश्रय नैं, तिण अर्थे इम हंत ।। सोरठा ८. महास्थिति नारक जोय, अल्पस्थिति नारक थकी। महाकर्मादिक होय, अशुभ कर्म नी पेक्षया ।। ९. अल्पस्थिति वलि तास, ते महास्थितिक अपेक्षया। अल्पकर्मादि विमास, एहवं भाव कह्य इहां ।। १०. *चरमा अल्पस्थितिका पिण छ, असुरकुमारा स्वाम! परमा महास्थितिका पिण छै, असुरकमारा ताम? ११. एवं चेव नरक जिम कहिवो, णवरं इतो विशेख । पूर्वे भाख्यो तेह थकी, विपरीतपणे ए लेख ।। सोरठा १२. भणवं ए विपरीत, ते कहिवो इण रीत सं। ___ सांभलजो धर प्रीत, वक्तव्यता जे असुर नी ।। *लय : उस रघुपति के धर्म सुराजे सुखिया ८. येषां नारकाणां महती स्थितिस्ते इतरेभ्यो महाकर्म तरादयोऽशुभकर्मापेक्षया भवन्ति, (वृ० प०७६९) ९. येषां त्वल्पा स्थितिस्ते इतरेभ्योऽल्पकर्मतरादयो भवन्तीति भावः। (वृ० ५० ७६९) १०. अत्थि णं भंते ! चरमा वि असुरकुमारा? परमा वि असुरकुमारा? ११. एवं चेव, नवरं-विवरीयं भाणियव्वं १२. असुरसूत्र 'नवरं विवरीयं' ति पूर्वोक्तापेक्षया विपरीतं वाच्यं, तच्च (वृ० प०७६९) श० १९, उ०५ ढा० ३९५ २२७ Jain Education Intemational Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. निश्चै असुरकुमार, अल्पस्थिति थी महास्थितिक । अल्पकर्मवंत धार, अल्पक्रियादिकवंत पिण ।। १४. अल्पकर्म इम थाय, तास असातादिक जिके । अशुभ कर्म पेक्षाय, अल्प उदय छै एहनु । १५. अल्पक्रिया इण न्याय, कायिक्यादिक आश्री जिके । कष्ट क्रिया पेक्षाय, कष्ट तास ए अल्प है। १६. अल्पाश्रव इम थाय, तेहवी कष्ट क्रिया थकी। उपनो कर्म विथाय, ते बंध हेतु अपेक्षया ।। १७. अल्प वेदना एम, पीड़ा भाव अपेक्षया । हुवै असुर नै तेम, कह्यो न्याय ए वृत्ति थी। १८. *महास्थितिका अल्पकर्मा, इम अल्पस्थिति महाकर्म । शेष तिमज कहिवो इम यावत, थणियकुमारज मर्म ।। १९. पृथ्वीकायिक जाव मनुष्य नै, ए दश दंडक जाण । जेम नारका आख्या तिह विध, कहिवा एह पिछाण ।। सोरठा २०. महास्थिति औदारीक, औदारिक अल्पस्थितिक थी। महाकर्मादि कथीक, तम् महास्थितिकपणां थकी। १३. 'से नूणं भंते ! चरमेहितो असुरकुमारेहितो परमा असुरकुमारा अप्पकम्मतरा चेव अप्पकिरियतरा चेवे' त्यादि, (व०प०७६९) १४. अल्पकर्मत्वं च तेषामसाताद्यशुभकर्मापेक्षम् (वृ० प० ७६९) १५. अल्पक्रियत्वं च तथाविधकायिक्यादिकष्ट क्रियाऽपेक्षम् (बृ० ५० ७६९) १६. अल्पाश्रवत्वं तु तथाविधकष्टक्रियाजन्यकर्मबन्धापेक्षम् (वृ० १० ७६९) १७. अल्पवेदनत्वं च पीडाभावापेक्षमवसेयमिति । (वृ० प० ७६९) १८. परमा अप्पकम्मा, चरमा महाकम्मा। सेसं तं चेव जाव थणियकुमारा ताव एमेव । १९. पुढविकाइया जाव मणुस्सा एते जहा नेरइया। २०. औदारिकशरीरा अल्पस्थितिकेभ्यो महास्थितयो महाकदियो भवन्ति, महास्थितिकत्वादेव । (वृ० प० ७६९) २१. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। (श० १९६६१) २२. वैमानिका अल्पवेदना इत्युक्तम्, अथ वेदनास्वरूपमाह (वृ० प० ७६९) २१. *ते वाणव्यंतरा अनै ज्योतिषी, वैमानिका विचार । ए तीनइ कहिवा जिम जे आख्या असुरकुमार ।। सोरठा २२. वैमानिक तद्रूप, अल्प वेदना तसु कही। अथ वेदना स्वरूप, कहियै छै ते सांभलो ।। वेदना पद २३. *कितै प्रकारे कही प्रभुजी ! जेह वेदना जाण ? जिन कहै दोय प्रकार वेदना, दाखी म्है पहिछाण ।। २४. णिदाय जाणपणे धुर वेदन, ए आभोगवतीह । __ अनाभोगवती अणजाणपण, अनिदा वेदन ईह ।। २३. कतिविहा णं भंते ! वेदणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा वेदणा पणत्ता, तं जहा२४. निदा य, अनिदा य । (श० १९।६२) 'निदा य' त्ति ...''ज्ञानमाभोग इत्यर्थः तद्युक्ता वेदनाऽपि निदा आभोगवतीत्यर्थः........'अणिदा य' त्ति अनाभोगवती (वृ०प० ७६९) २५. नेरइया णं भंते ! कि निदायं वेदणं वेदेति ? अनिदायं वेदणं वेदेति ? २६. ""जहा पण्णवणाए(३५।१७-२३) जाव वेमाणियत्ति । (श० १९।६३) २७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श०१९६४) २५. हे प्रभु ! नारक स्यू वेदै छ, वेदन जाणपणेह । तथा अजाणपण करि वेदन? गोयम प्रश्न करेह ।। २६. जिम पन्नवण पद में भाख्यो, कहिवो तिम अधिकार । जाव वैमानिकपणेज कहिवं, इहां वेदन नुं विस्तार ।। २७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! शत उगणोसम सार । पंचम उद्देशे अर्थ परूप्या, आख्यो तसु अधिकार ।। *लय : उस रघुपति के धर्म सुराजे सुखिया २२८ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. ढाल तीन सय पचाणुंमी, आखी अधिक उदार । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' गण वृद्धिकार ।। एकोनविंशतितमशते पंचमोद्देशकार्थः ॥१६॥५॥ ढाल : ३९६ १. पञ्चमोद्देशके वेदनोक्ता सा च द्वीपादिषु भवतीति द्वीपादयः षष्ठे उच्यन्ते। (वृ० ५०७६९) दूहा १. पंचम उद्देशक विषे, वेदन बे आख्यात । ते द्वीपादिक – विषे हुवै तास अवदात ।। द्वीप समुद्र पद २. द्वीप समुद्र किहां प्रभ ! किता द्वीप दधि हंत ? वलि किण संठाणे अछ, द्वीप समुद्र भदंत ! ३. इम जिम जीवाभिगम में, द्वीप समुद्र उद्देश । इह स्थानक पिण तेह वर, निश्चय तेह कहेस ।। ४. ते इम कहिवो छै सही, हे प्रभु ! स्यू आकार । प्रत्यवतार करी अछ, द्वीप समुद्र उदार ? ५. जिन कहै जंबूद्वीप ने आदि देईनै दीव । लवणादीया समुद्र छै, इत्यादिकज कहीव ।। ६. ते उद्देसो स्यूं इहां, कहिवो सगलोहीज । अथवा नहि कहिवो सहु, आगल तेह कहीज ।। ७. जोतिषी परिमाणे करी, मंडित जे उद्देश । अवयव विशेष तेहन, वर्जी कहिवं शेष । २. कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा ? केवतिया णं भंते ! दीवसमुद्दा ? किसंठिया णं भंते ! दीवस मुद्दा ? ३. एवं जहा जीवाभिगमे दीवसमुदुद्देसो (३।२५९ ९७५) सो चेव इह वि भाणियब्वो। ४. स चैवं 'किमागारभावपडोयारा णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णता? (वृ० प० ७६९) ५. गोयमा ! जंबुद्दीवाइया दीवा लवणाइया समुद्दा इत्यादि, (वृ०प० ७६९) ६. स च कि समस्तोऽपि वाच्यः ? नवमित्यत आह (वृ०प०७६९) ७. 'जोइसमंडिओद्देसगवज्जो' त्ति ज्योतिषेन ज्योतिष्कपरिमाणेन मण्डितो य उद्देशको द्वीपसमुद्रोदेशकावयवविशेषस्तद्वर्जः तं विहायेत्यर्थः, (वृ०प० ७६९) ८. ज्योतिषमण्डितोद्देशकश्चैव....'जंबुद्दीवे णं भंते ! कइ चंदा पभासिसु वा पभासंति पभासिस्संति वा ? (वृ० ५० ७७०) ९. कइ सूरिया तवइंसु वा ? इत्यादि, स च कियद्रं वाच्यः? (वृ० प० ७७०) १०. जाव परिणामो, इत्यत आह ... 'जाव परिणामो' त्ति स चाय -- 'दीवस मुद्दा णं भंते ! किं पुढविपरिणामा पन्नत्ता?' (व० प० ७७०) ११. जीवउववाओ इत्यादि, तथा 'जीवउववाओ' त्ति द्वीपसमुद्रेषु जीवोपपातो वाच्यः, स चैवम् (वृ० प० ७७०) श० १९, उ० ६, ढा० ३९५,३९६ २२९ ८. ते इम जंबूद्वीप में, कति चंदा भगवान ? करघो प्रकाश करै अछ, वलि करिस्य शशि जान ? ९. किता रवि तपिया तप, इत्यादिक सुविशेष । किहां लगे कहिवो तिको, ज्योतिषी मंडित उद्देश ।। १०. यावत जे परिणाम लग, कहिवं ते इम ताम । हे प्रभु ! द्वीप समुद्र ते, स्यं पुढवी परिणाम ? ११. इत्यादिक यावत तथा, जीव तणों उपपात । द्वीप समुद्र विषे कह्यो, ते इहविध आख्यात ॥ Jain Education Intemational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. द्वीप समुद्र विषे प्रभु ! सर्व प्राण पहिछान । जाव वलि ते त्रसपणे, पृथ्वीपणेज जान ।। १३. यावत ऊपनां त्रसपणे ? श्री जिन भाखै हंत । असकृत वार अनेक ही, अथवा वार अनंत ।। १४. सेवं भंते ! स्वाम जी, एगुणवीसम तास । षष्ठम उद्देशक तणां, आख्या अर्थ विमास । एकोनविंशतितमशते षष्ठोद्देशकार्थः ॥१६॥६॥ १५. द्वीप समुद्र कह्या छठे, सुरावास त्यां तास । सुरावास थी सप्तमे, हिव असुराद्यावास ।। १२,१३. दीवसमुद्देसु णं भंते ! सव्वपाणा ४ पुढविकाइय ताए ६ उववन्नपुवा ?, हता गोयमा ! असई अदुवा (वृ० प० ७७०) जाव अणंतखुत्तो। (श० १९।६५) १४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १९।६६) १५. षष्ठोद्देशके द्वीपसमुद्रा उक्तास्ते च देवावासा इति देवावासाधिकारादसुरकुमाराद्यावासाः सप्तमे प्ररूप्यन्ते (वृ० प०७७०) १६. केवतिए णं भंते ! असुरकुमारभवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! चोयट्टि असुरकुमारभवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। (श० १९६६७) १७. ते णं भंते ! किमया पण्णता? गोयमा ! सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा। असुरकुमारादि के भवनादि पद १६. *मेरा स्वामी बे, ए असुरकुमार नां वक्ष, भवणावास लक्ष केतला? मेरा स्वामी बे । मेरा स्वामी बे, जिन कहै चउसठ लक्ष, भवण आवास अछै भला। मेरा चेला बे।। १७. मेरा स्वामी बे, ते किण मांहि विशाल? जिन कहै सर्वरत्नमया । मेरा चेला बे। मेरा चेला बे, निर्मल अधिक सुंहाल, यावत प्रतिरूपज कह्या । मेरा चेला बे॥ १८. त्यां बहु पुद्गल जीव, वक्कमंति ते ऊपजै । विउक्कमति अतीव, तेह विनाशपणं भजे ॥ १९. एहिज अर्थ उदंत, भाव विपर्यय करि कहै। चयंति ते चयंत, उववज्जति ते उत्पत्ति लहै ।। २०. भवण शाश्वता सोय, तेह द्रव्यार्थ नय करि मता। वर्ण पर्याय करेह, जाव फर्श पर्याय अशाश्वता ।। २१. एवं यावत जाण, थणियकमार आवास ही। संख्या जजुइ माण, पिण णवरं ए पाठ नहीं। २२. वाणव्यंतरा नां तास, भोमेज भूमि मध्ये थया। एहवा नगर आवास, केतला लक्ष तुम्है कह्या ? १८. तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति, विउक्कमंति, १९. चयंति, उववज्जति । २०. सासया णं ते भवणा दवट्टयाए, वण्णपज्जवेहि जाव फासपज्जवेहि असासया। २१. एवं जाव थणियकुमारावासा। (श० १९।६८) २३. लक्ष असंख्या सोय, व्यंतर नां रलियामणां । भूमि मध्य अवलोय, नगर आवास महामणां ।। २४. ते प्रभु ! किण संठाण, शेष तं चेव कहीजिये । ठाण पदे' पहिछाण, बाहिर बाटला लीजिये ।। २५. माहे छै चउरंस, हेठे कमल नी कणिका। संठाणे सुप्रसंस, इत्यादिक वक्तव्यता जिका ।। २६. प्रवर जोतिषी विमान, आवास लक्षज केतला? जिन कहै असंख पिछान, तास विमान अछै भला ॥ २२. केवतिया णं भंते ! वाणमंतरभोमेज्जनगरावाससय सहस्सा पण्णत्ता? 'भोमेज्जनगर' त्ति भूमेरन्तर्भवानि भौमेयकानि । (वृ० ५०७७०) २३. गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरभोमेज्जनगरावाससयसहस्सा पण्णत्ता। (श० १९१६९) २४. ते णं भंते ! किमया पण्णत्ता ? सेसं तं चेव । (श० १९७०) २६. केवतिया णं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा जोइसियविमाणाबाससयसहस्सा पण्णत्ता। (श० १९७१) *लय : स्वामी भाख बे १. पण्णवणा २१४१ २३० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. ते प्रभुजी किण मोहि, जिन कहे सर्व फटिकमया । अच्छा निर्मल ताहि शेषं तं चैव तिमज कथा || प्रवर २८. सौधर्म कल्पे भदंत केला लक्ष कहत ? जिन २९. ते प्रभुजी किण मोहि ? जिन कहै सर्व रस्नमया । अच्छा निर्मल ताहि शेष तं चैव तिमज कथा || ३०. एवं जाव कहेत, अनुत्तर विमान लगै सहु । णवरं जेतला एथ, भवणा अथवा विमाण ही ॥ वा० एतलो विशेष जाणवो - जिहां जेतला भवन विमान आवास पूर्वे कातिम कहिया । ३१. सेवं भंते! स्वाम, एगुणवीसम शत तणों । सप्तमुद्देशक आम, अर्थ थकी रलियामणों ॥ एकोनविंशतितमशते सप्तमोद्देशकाथः ॥ १६७॥ सोरठा ३२. सप्तमुद्देशक मोहि कह्या भवण असुरादि नां ते असुरादिक ताहि, निर्वृत्तिवंत हुबै अछे । ३३. ते माटै अवधार, अष्टम उद्देशक विषे। निवृत्ति नो अधिकार, कहिये छे ते सांभलो ॥ जीव-निति पद विमान आवास ही कहे लक्ष बतीस ही ॥ ३४. कतिविध हे भगवंत ! जीव-निवृत्ति कहीजिये । पंच प्रकारे त जीव-निवृत्ति लीजिये ॥ सोरठा ३५. जीव त कहिवाय, एकेंद्रियादिपणें करि । नीवजयो जे चाय, जीव-निवृति से कही ॥ ३६. एकेंद्रिय सुविचार, जाव पंचेंद्रिय धार, ३७. किले प्रकारे भदंत जीव-निवृति जाणवी । जीव-निवृत्ति आणवी || एकेंद्रिय जीव-नियति । पंच प्रकारे निष्पत्ति ।। एकेंद्रिय जीव-निति । जाव वनस्पतिकाय, एकेद्रिय जीव- निष्पत्ति ॥ ३९. इम इण आलावेह, एकेंद्रिय जीव-निवति । कतिविध हे जिनराय ! जिन कहै द्विविध ते हुंती ॥ भाखं इम भगवंत, ३८. पृथ्वीकायिक ताय, * लय : स्वामी भाखं बे २७. ते णं भंते! किमया पण्णत्ता ? गोयमा ! सव्वफालिहामया अच्छा, सेसं तं चेव । (TO PRIUR) २८. सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवतिया विमाणावासस्यसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससय सहस्सा पण्णत्ता । (870 (9103) २९. ते णं भंते किमया पण्णत्ता ? गोयमा ! सव्वरयणामया अच्छा, सेसं तं चेव ३०. जाव अणुत्तर विमाणा, नवरं जत्तिया भवणा विमाणा वा । ३१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । जाणेयब्वा जत्थ ( श० १९/७४) ( ० १९७५) ३२, ३३. सप्तमेऽसुरादीनां भवनादीन्युक्तानि असुरादयश्च नितिमन्तो भवन्तीत्यष्टमे निवृतिरुच्यते । ( वृ० प० ७७० ) 1 ३४. कतिविहा णं भंते ! जीवनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा जीवनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा--- ३५. निर्वर्त्तनं-निवृत्तिनिष्पत्तिर्जी वस्यै केन्द्रियादितया निवृत्तिर्जीवनितिः । (०८०७०२) २६. दिव्यासी जाय पंचिदिपजीवति। ( श० १९/७६ ) ३७. एगिदिजीवनिव्वत्ती णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा ३८ पुढविक्काइयएगिदियजीवनिव्वत्ती जाव वणस्सइकाइयगदियजीवनी | (२० १९७७) ३९. पुढविकाइयएगिदियजीवनिव्वत्ती णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तं जहा श० १९, उ०७,८ ढा० ३९६ २३१ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. सूक्ष्म पृथ्वीकाय, एकेंद्रिय बादर पृथ्वी ताथ, एकेंद्रिय ४१. इम इण आलावेह, मोटा बंध तणें सही । अधिकारे कह्यो तेह, कहिवूं ते इहां सर्व ही ॥ ४२. अष्टम शतक संजात, नवम उद्देशे जागिये । तेजस तनुबंध ख्यात, तिम इहां निर्वृत्ति माणियं ॥ ४३. जाव सम्बसिद्ध जाण, अनुत्तरोपपातिक कला । कल्पातीत पिछाण वैमानिक भावे रह्या ॥ ४४. देव पंचेंद्रिय तेह, जीव-निति प्रभु! धामिये । कतिविध हे प्रभु! जेह, जिन कहै द्विविध पामियै || ४५. पज्जत्त सव्वट्टसिद्ध जाण, यावत पं. जीव - निवृत्ति । अपर्याप्त सब्बट्ट माण, पावत पं. जीव निष्पत्ति । जीव-निवृति । जीव निष्पत्ति ॥ हा ४६. पूर्व जोब अपेक्षया नियति आख्यात | अथ तसु कार्य तसु धर्म-अपेक्षया अवदात ।। कर्म-निवृति पद ४७. *कतिविध हे भगवान! कर्म- निर्वृत्ति आखिये । कर्म ती पहिचान, निवृति निष्पति भाखिये || ४८. जिन कहै अष्ट प्रकार, कर्म-निवृति कहीजिये । ज्ञानावरणी धार, जाव अंतराय लीजिये || ४६. नारक नैं भगवान ! कर्म प्रकृति कतिविहा ? जिन कहै अविध जान, ज्ञानावरणी प्रमुख लिया ।। ५०. एवं जाव कहाय वैमानिक ने जाणवी । अष्ट कर्म नीं धाय निवृत्ति निष्पत्ति आणवी || शरीर-निवृति पद ५१. कतिविध हे जगतार ! शरीर तणी जे निर्वृत्ति ? जिन कहै पंच प्रकार, औदारिकादिक निष्पत्ति ॥ ५२. नारक ने भगवान इस वैमानिक जान, * लय : स्वामी भाखे बे २३२ भगवती जोड़ एवं चैव कहीजिये । नवरं विशेष लहोजिये ॥ ४०. मानिदिजीवति यवादर वागिदियजीववित्तीय ४१. एवं एएवं अभिलावे भेवो वहा बहुगबंधी तेयगसरीरस्स ४२. 'जहा वडगबंधो तेयगसरीरस्स' त्ति यथा महलबन्धाधिकारे ते नवमोदेशकाभिहिते (०८४१२) तेज:- शरीरस्य बन्ध उक्त एवमिह निर्वृत्तिर्वाच्या, ४३. जाव ( ० १९७८) ससिद्ध अतरोवातियप्पातीतमणिय४४. देवपचिदियजीवनिव्वत्ती णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहाअणुत्तरोवालियातीय ४५. वेमाणियदेव पंचिदियजीवनिव्वत्ती य अपज्जत्तगसय्यसिद्धातरोवातियकल्पातीतमणिदेवपंचिदियजीवनिव्वत्ती य । (श० १९००९) ४५. पूर्व जीवापेक्षा नितिदत्ता, अथ तरका पेक्षया तामाह (बृ० प० ७७२) ४७. कतिविहाणं भंते! कम्मनिव्वत्ती पण्णत्ता ? तं ४८. गोयमा ! अट्ठविहा कम्मनिव्वत्ती पण्णत्ता, जहा -- नाणावर णिज्जकम्मनिव्वत्ती जाव अंतराइयकम्मनिव्वती । (88150) ४९. नेरइयाणं भंते ! कतिविहा कम्मनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठविहा कम्मनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहानाणावर णिज्जकम्मनिव्वत्ती जाव अंतराइयकम्मनिव्वत्ती । ५०. एवं जाव वेमाणियाणं । (श० १९८१) ५१. कतिविहा णं भंते ! सरीरनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा सरीरनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहाओरालि यसरीरनिव्वत्ती जाव कम्मासरीर निव्वत्ती । (० १९८२) ५२. नेरइयाणं भंते ! कतिविहा सरीरनिव्वत्ती पण्णत्ता ? एवं चेव । एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. नायव्वं जस्स जइ सरीराणि। (श०१९८३) ५३. जास जिता तनु होय, तेतला तास भणीजिये। नारक ने त्रिण जोय, इम यथायोग्य थुणीजिये ।। सर्वन्द्रिय-निर्वत्ति पद ५४. कतिविध हे जगतार! सर्व-इंद्रिय-निवृत्ति । जिन कहै पंच प्रकार, श्रोत्रंद्रियादिक-निष्पत्ति ॥ ५५. इम नारक नैं पंच, जाव थणित ने पंच ही। पृथ्वी प्रश्न सुसंच, इक फासिदिय नी कही ।। ५४. कतिविहा णं भते ! सब्विदियनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा सविदियनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियनिव्वत्ती जाव फासिदियनिब्बत्ती। ५५. एवं नेरइयाणं जाव थणियकुमाराणं । __ (श० १९।८४) पुढविकाइयाणं-पुच्छा गोयमा ! एगा फासिदियनिव्वत्ती पण्णत्ता । ५६. एवं जस्स जति इंदियाणि जाव बेमाणियाणं । (श० १९।८५) ५६. इम जसु जेतली होय, तेतली तसु इंद्रिय कही। यावत ही अवलोय, वैमानिक ने पंच ही ।। भाषा-निर्वृत्ति पद ५७. कतिविध हे भगवंत! आखी भाषा-निवृत्ति । जिन कहै चउविध हंत, सत्या भाषा निष्पत्ति ।। त पद ५७. कतिविहा णं भंते ! भाषानिव्वत्ती पण्णता? गोयमा ! चउबिहा भासा निव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा-सच्चभासानिव्वत्ती, ५८, मोसभाषानिव्वत्ती, सच्चामोसभासानिव्बत्ती, असच्चामोसभासानिव्वत्ती। ५९. एवं एगिदियवज्ज जस्स जा भासा जाव वेमाणियाणं । (श० १९।८६) ५८. मृषा भाषा निर्वृत्ति, सत्यामृषा वलि कही। असत्यामृषा निष्पत्ति, ए च्यारूं भाषा सही ।। ५९. एकेंद्रिय वर्जेह, जे भाषा छै जेह तणें । तेहने कहिये तेह, जाव विमानिक नै भणे ।। मन-निर्वत्ति पद ६०. हे प्रभु! कितै प्रकार, मनो-निवत्ति जाणिय ? जिन कहै चउविध धार, आगल तेह बखाणियै ।। ६१. सत्य मनो-निर्वत्ति, जाव असत्यामृषा कही। ए चिउं मन निष्पत्ति, हिव निर्णय दंडक मही ।। ६२. एकेंद्रिय वर्जेह, वलि विकलेंद्रिय वर्ज नै। कहिवा च्यारूं एह, जाव विमानिक अमर नै । कषाय-निवृत्ति पद ६३. कतिविध हे भगवान ! कही कषायज-निवत्ति? जिन कहै चिउं विध जान, प्रथम क्रोध नी निष्पत्ति ।। ६०. कतिविहा णं भंते ! मणनिव्वत्ती पण्णता? गोयमा ! चउम्विहा मणनिव्वत्ती पण्णत्ता तं जहा६१. सच्चमणनिब्बत्ती जाव असच्चामोसमणनिव्वत्ती ६२. एवं एगिदियविलिदियवज्जं जाव वेमाणियाणं । (श० १९८७) ६३. कतिविहा णं भंते ! कसायनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! चउब्विहा कसायनिवत्ती पण्णत्ता, तं जहा-कोहकसायनिव्वत्ती ६४. जाव लोभकसायनिव्वत्ती। एवं जाव वेमाणियाणं । (श० १९।८८) ६४. यावत लोभ कषाय-निर्वृत्ति चउथी जाणियै । एवं जाव कषाय, वैमानिक ने आणिय ।। वर्ण-निर्वृत्ति पद ६५. कतिविध हे जगतार! वर्ण-निवत्ति आखियै । जिन कहै पंच प्रकार, वर्ण-निष्पत्ति दाखियै ।। ६६. कृष्ण वर्ण-निर्वृत्त, जाव शुक्ल वर्ण छै सही। एम सर्व ही कथित्त, यावत वैमानिक मही ।। ६७. एवं गंध-निर्वृत्त, दोय प्रकारे जाणियै । यावत चर्म कथित्त, वैमानिक नै माणिय ।। ६५. कतिविहा णं भंते ! वण्णनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा वण्णनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा६६. कालावण्णनिव्वत्ती जाव सुक्किलावण्णनिव्वत्ती । एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं । ६७. एवं गंधनिव्वत्ती दुविहा जाव वेमाणियाणं श०१९, उ०८, ढा० ३९६ २३३ Jain Education Intemational Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. पंचविध रस-निवृत्ति, जाव विमानिक नै मिली। अठविध फर्श-निर्वत्ति, जाव विमानिक नै झिली।। संस्थान-निर्वृत्ति पद ६९. कतिविध हे भगवंत ! संठाण नी जे निर्वत्ति? जिन कहै षटविध हंत, धुर समचउरंस-निष्पत्ति ।। ६८. रसनिवत्ती पंचविहा जाव वेमाणियाणं । फासनिव्वत्ती अट्टविहा जाव वेमाणियाणं । (श० १९८९) ७०. यावत हुंड संठाण, तेह तणी जे निवृत्ति । प्रश्न नारक नैं जाण, इक हंड संठाणे निष्पत्ति ।। ७१. पूछा असुर नी जाण, इक समचउरसं आखियै । एवं यावत माण, थणियकुमार ने दाखियै ।। ७२. पूछा पृथ्वी नी जान, एक मसूर आकार ही । अथवा चंद संठाण, निर्वृत्ति म्है आखी सही ।। ७३. इम जसु जेह संठाण, जाव विमानिक ने कही। अपकायिक नै जान, स्तिबुक संठाण अछै सही ।। ६९. कति विहा णं भंते ! संठाणनिव्वत्ती पण्णता? गोयमा ! छविहा संठाणनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा समचउरंससंठाण निव्वत्ती ७०. जाव हुंडसंठाण निव्वत्ती। (श० १९।९०) नेरइयाणं - पुच्छा। गोयमा ! एगा हुंडसंठाणनिव्वत्ती पण्णत्ता । __ (श० १९।९१) ७१. असुरकुमाराणं-पुच्छा । गोयमा ! एगा समचउरंससंठाणनिव्वत्ती पण्णत्ता। एवं जाव थणि यकुमाराणं । (श० १९१९२) ७२. पुढविकाइयाणं- पुच्छा गोयमा ! एगा मसूरचंदसंठाणनिव्वत्ती पण्णत्ता। ७३. एवं जस्स जं संठाणं जाव बेमाणियाणं । (श० १९।९३) 'जस्स जं संठाणं' ति तत्राकायिकानां स्तिबुक (वृ० प० ७७२) ७४. तेजसां सूचीकलापसंस्थानं वायूनां पताकासंस्थान (वृ० प०७७२) ७५. वनस्पतीनां नानाकारसंस्थानं विकलेन्द्रियाणां हण्डम् (वृ०प०७७२) ७६. पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च षड् व्यन्तरादीनां समचतुरस्रसंस्थानम् । (वृ० प० ७७२) संस्थान ७४. तेउकाय नै जान, शूचि-समूह संस्थान ही। वायू नै पहिछान, पताकाकार सुजान ही ।। ७५. वनस्पति नों विचार, नानाकार संस्थान ही। विकलेंद्रिय तनु धार, हुंडक तास पिछाण ही ।। ७६. तिरि पं. मनुष्य नै पेख, षट संठाण कहीजिये । व्यंतर आदि नै लेख, समचउरंस लहीजिये ।। संज्ञा-निवृत्ति पद ७७. कतिविध हे भगवंत! कहिये संज्ञा-निवृत्ति ? जिन भाखै सुण संत! चउविध संज्ञा-निष्पत्ति ।। ७७. कति विहा णं भंते ! सण्णानिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! चउविहा सण्णानिव्वत्ती पण्णत्ता, तं ७८. आहारसण्णानिव्वत्ती जाव परिग्गहसण्णानिव्वत्ती। एवं जाव वेमाणियाणं । (श० १९।९४) , ७८. आहार सन्ना-निष्पत्ति, जाव परिग्रह संज्ञा सही। एवं जाव कथित्ति, वैमानिक नै चिउं सही ।। लेश्या-निर्वृत्ति पद ७९. हे प्रभु! कितलै प्रकार, लेस्या-निर्व'त्ति ताम बे? जिन कहै षट विध धार, लेस्या-निष्पत्ति पाम बे ।। ७९. कतिविहा णं भंते ! लेस्सानिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! छव्विहा लेस्सानिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा -- ८०. कण्हलेस्सानिब्वत्ती जाव सुक्कलेस्सानिव्वत्ती । एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति लेस्साओ। (श० १९।९५) ८०. कृष्ण जाव सुक्क लेश, इम जाव वैमानिक तणें । जेहने जितरी कहेस, तेतली तास प्रभु भणे ।। दृष्टि-निवृत्ति पद ८१. कतिविध हे जिनराय ! कहियै दष्टिज-निवत्ति? जिन कहै त्रिविध कहाय, धुर समदृष्टि-निष्पत्ति ।। ८१. कतिविहा णं भंते ! दिट्ठीनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा दिट्ठीनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहासम्मादिट्ठीनिव्वत्ती, २३४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. मिथ्या सम्मामिथ्यात, एवं यावत जाणियै । वैमानिक नै ख्यात, जेहनै छै ते आणियै ।। ८२. मिच्छादिट्ठीनिव्वत्ती, सम्मामिच्छादिट्ठीनिव्वत्ती । एव जाव वेमाणियाणं, जस्स जतिविहा दिट्ठी। (श० १९।९६) ज्ञान-निर्वृत्ति पद ८३. कतिविध हे जगतार ! ज्ञान-निवृत्ति प्रवर ही ? जिन कहै पंच प्रकार, आभिनिबोधिक धुर सही ।। ८३. कति विहा णं भंते ! नाणनिब्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा नाणनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा आभिणिबोहियनाण निव्वत्ती। ८४. जाव केवलनाणनिव्वत्ती। एवं एगिदियवज्जं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति नाणा। (श० १९।९७) ८४. यावत केवल नाण, एकेंद्रिय वर्जी करी। जाव विमानिक आण, जेहन जे ते प्रवर ही ॥ अज्ञान-निर्वत्ति पद ८५. कतिविध हे भगवंत ! अज्ञान नी जे निवत्ति? जिन कहै त्रिणविध हंत, मति श्रुत विभंग निष्पत्ति ॥ ८५. कतिविहा णं भंते ! अण्णाणनिब्बत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा अण्णाणनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं मइअण्णाणनिव्वत्ती, सुयअण्णाणनिव्वत्ती, विभंगनाण निव्वत्ती। ८६. एवं जस्स जति अण्णाणा जाव वेमाणियाणं । (श० १९१९८) ८७. कतिविहा णं भंते ! जोगनिव्वत्ती पण्णता? गोयमा ! तिविहा जोगनिब्वत्ती पण्णत्ता, तं जहामणजोगनिव्वत्ती, ८६. जेहने जेह अनाण, तेहने तेह कहीजिये । यावत ही पहिछाण, वैमानिक नै लीजिये ।। योग-निवत्ति पद ८७. कतिविध हे जगनाथ ! जोग तणी जे निर्वत्ति । जिन कहै त्रिविध आख्यात, धुर मन जोग नीं निष्पत्ति ।। ५८. वचन जोग नै काय, इम जाव वैमानिक तणें । जेहनै जेतिविध पाय, तेहिज निवृत्ति जिन भणें ।। उपयोग-निर्वृत्ति पद ८९. कतिविध हे जगदीश! वर उपयोग नीं निष्पत्ति? जिन भाखै सुण शीष ! द्विविध उपयोग-निर्वृत्ति ।। ८८. वइजोगनिव्वत्ती, कायजोगनिव्वत्ती। एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जतिविहो जोगो। (श० १९।९९) ८९. कतिविहा णं भंते ! उवओगनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा उवओगनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा--- ९०. सागारोवओगनिव्वत्ती, अणागारोवओगनिव्वत्ती। एवं जाव वेमाणियाणं। (श०१९।१००) ९१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श. १९।१०१) ९०. धुर उपयोग साकार, अनाकार अहीजिये । एवं जाव विचार, वैमानिक नै लीजिये ।। ९१. सेवं भंते ! स्वाम, एगुणवीसम शतक ही। अष्टमुद्देशक आम, अर्थ रूप आख्यो सही ।। ९२. ढाल तीन सय आय, ऊपर छिन्नमी भली। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, ___'जय-जश' सुख संपति मिली ।। एकोनविंशतितमशते अष्टमोद्देशकार्थः ॥१८॥ श०१९, उ०८, ढाल ३९६ २३५ Jain Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३९७ १. कही अष्टमे निवृति, ते माटै नवमे हिवै, २. जिणे करी करिये तसु, अति साधक क्रिया तणों, दूहा करण करण कहीजै ३. तथा करण कहिये अछे द्वितीय अर्थ ए करण न ४. क्रिया मात्र जो करण छै, तो निवृत्ति पिण करण रूप छै, ५. आरंभ क्रिया भणी इहां, कार्य निष्पत्ति तेहनें, जे ७. द्रव्य रूप जे करण ते, क्रिया लूणवादिक तणी, ८. अथवा द्रव्य कटादिनुं क्रिया मात्र ए करण है, ९. तथा शलाका आदि जे चक्षु अंजन आदिक क्रिया, १०. तथा द्रव्य पात्रादि जे करें आहार प्रमुख क्रिया, ११. क्षेत्रईज जे करण छे, करण पद ६. करण प्रभु ! कतिविध कह्या ? जिन कहै पंच प्रकार । द्रव्य क्षेत्र अरु काल ही, भव अरु भाव विचार ॥ छते ते करण कहीजे सोय । प्रथम अर्थ ए जोय ॥ क्रिया मात्र छे ताहि । कियो वृत्ति मांहि । करण निर्वृत्ति न भेद । उत्तर तास संवेद || करण कहीजे ताय । निवृत्ति कहाय ॥ अति साधक है ते भणी, १२. तथा क्षेत्रों करण जे तेहनी जेह क्रिया करें, १३. तथा क्षेत्र करिकै करण स्वाध्यायादिक नीं क्रिया, १४. कालईज जे करण है, अति साधक छे ले भणी, १५. तथा काल दिवसादिनों, आहार विहारादिक करे, १६. तथा काल करकै क्रिया, साय ध्यानादिक करें, १७. भव ते नारक आदि भव आनंद शब्दादिक क्रिया, २३६ भगवती जोड़ होय । सोय ।। दातरलादिक देख | तसु साधक ए पेख || करिव् करण संपेख | द्रव्य करण ए देख || द्रव्ये करिनें ताय । द्रव्य करण कहिवाय ॥ तास विषे पहिचान । द्रव्य क्रिया करण एजाण ॥ तणोंज ताय । क्षेत्र करण कहिवाय || शालनेत्रादिविद्वाण । सूड हलादिक जाण ॥ अथवा क्षेत्र विषेह । क्षेत्र करण छे एह । क्रिया तणोंज एह काल करण छे जेह ॥ करण किया कहिवाय । त्रिया मात्र ए चाय ॥ अथवा काल विषेह । बलि प्रतिक्रमण करेह || तेहिज करण कहेह तसु अति साधक तेह || १. अष्टमे निवृत्तिरुक्ता, साच करणे सति भवतीति करणं नवमेऽभिधीयते । ( वृ० प० ७७२ ) २. तत्र क्रियतेऽनेनेति करणं - क्रियायाः साधकतमम् ३. कृतियाँ कर त्रियामात्रम् (मु० प० ७७३) ( वृ० प० ७०७३) ४. नन्वस्मिन् व्याख्याने करणस्य स्यात्. निवृतिरपि क्रिया ५. नैवं करणमारम्भक्रिया निर्वृत्तिस्तु कार्यस्य निष्पत्तिरिति । ( वृ० प० ७७३ ) ६. कतिविहे णं भंते ! करणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा दव्वकरणे, खेत्तकरणे, कालकरणे, भवकरणे, भावकरणे । ( ० १९।१०२) ७. 'दव्वकरणे' त्ति द्रव्यरूपं करणं दात्रादि ८. द्रव्यस्य वा कटादेः ९. द्रव्येण -- शलाकादिना निवृत्तेश्च न भेद: (२० प० ७७३ ) १०. द्रव्ये वा पात्रादी करणं द्रव्यकरणम् ११. 'खेत्तकरणं' ति क्षेत्रमेव करणम् १२. क्षेत्रस्य वा - शालिक्षेत्रादेः करणम् १४. 'कालकरणे' त्ति काल एवं करणम् १५. कालस्य वा १७,१८. 'भवकरणं' ति भवो (१० प० ७७३) (२०१० ७७३) ( वृ० १३. क्षेत्रेण वा करणं स्वाध्यायादेः क्षेत्रकरणं, वा तेन वा तस्मिन् वा करणम्, [० प० ७७३ ) ( वृ० प० ७७३ ) (४० ए० ७७३) ( वृ० प० ७७३) -अवसरादेः करणम् ( वृ० प० ७७३ ) १६. कालेन वा काले वा करणं कालकरणम् ० प० ७७३ ) ( वृ० ( वृ० प० ७७३) (२०१० ७०३) नारकादिः स एव करणं तस्य ( वृ० प० ७७३ ) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. एवं भावकरणमपि, (वृ० प० ७७३) २०. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे करणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा२१. दब्वकरणे जाव भावकरणे । एवं जाव बेमाणियाणं । (श० १९।१०३) २२. कतिविहे णं भंते ! सरीरकरणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे सरीरकरणे पण्णत्ते, तं जहाओरालियसरीरकरणे जाव कम्मासरीरकरणे । १८. अथवा भव नरकादि नों, करण क्रिया छै जेह । अथवा भव करके क्रिया, अथवा भव विषेह ।। १९. भाव करण पिण इहविधे, करण तणां ए अर्थ । मिलता जाणी ने कहा, वलि ज्ञानी वदै तदर्थ ॥ *जीव रे तूं जिन वच धार सुचंग ॥(ध्र पदं) २०. नारक नै भगवंत जी रे ! कतिविध करण आख्यात? जिन कहै पंच प्रकार छ रे, कहिये ते अवदात ।। २१. द्रव्य करण यावत वली रे, भाव करण जे संच । एवं यावत जाणिय रे, वैमानिक नैं पंच ।। शरीर करण पद २२. शरीर करण प्रभु ! कतिविधे रे ? जिन कहै पंच प्रकार । औदारिक तनु करण छै रे, जाव काण धार ।। २३. एवं जाव कहीजिये रे, वैमानिक नै ताय । जेहनै जिता शरीर छ रे, तसु तेता कहिवाय ।। इन्द्रिय करण पद २४. इंद्रिय करण प्रभु ! कतिविधे रे? जिन कहै पंच प्रकार। श्रोत्रंद्रिय धुर आखियो रे, जाव फर्श द्रिय धार ।। २५. एवं यावत जाणवू रे, वैमानिक ने आम । जेहनें इंद्रिय जेतलो रे, तेती कहिये ताम ।। २६. इम इण अनुक्रमे करी रे, भाषा करण संवेद । च्यार प्रकारे दाखियो रे, मन करणे चिउं भेद ।। २७. करण कषायज चिउं विधे रे, समुद्घात करण धार । सात प्रकारे आखियो रे, ___ संज्ञा करण विध च्यार ॥ २८. षटविध लेश्या करण छ रे, दृष्ट करण विध तीन । वेद करण त्रिविध कह्यो रे, स्त्री पं. नपंसक चीन ।। २३. एवं जाब वेमाणियाणं, जस्स जति सरीराणि । (श० १९।१०४) २४. कतिविहे णं भंते ! इंदियकरणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे इंदियकरणे पण्णत्ते, तं जहासोइंदियकरणे जाव फासिदियकरणे । २५. एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति इंदियाई । २६. एवं एएणं कमेणं भासाकरणे चउबिहे, मणकरणे चउबिहे, २७. कसायकरणे चउबिहे, समुग्घायकरणे सत्तविहे, सण्णाकरणे चउविहे, २९. ए सह नारक आदि ने रे, जाव विमानिक नेज। जेहमें जेह पावै अछ रे, तेह में ते सर्व कहेज ।। २८. लेसाकरणे छबिहे, दिट्ठीकरणे तिविहे, वेदकरणे तिविहे पण्णते, तं जहा-इत्थिवेदकरणे, पुरिसवेद करणे, नपुंसगवेदकरणे । २९. एए सब्बे नेर इयादी दंडगा जाव वेमाणियाणं, जस्स जं अस्थि तं तस्स सव्वं भाणियव्वं । (श० १९।१०५) प्राणातिपात करण पद ३०. कतिविध हे भगवंत जी ! रे, करण प्राणातिपात । घात कर जे जीव नी रे, कति प्रकारे आख्यात? *लय : जीव रे तूं सील तणों कर संग ३०. कतिविहे णं भंते ! पाणाइवायकरणे पण्णत्ते ? श० १९, उ०९, ढा० ३९७ २३७ Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. जिन कहै पंच प्रकार छै रे, करै एकेंद्रिय नी घात । जाव पंचेंद्रिय नै हणे रे, ते करण प्राणातिपात ।। ३१. गोयमा ! पंचविहे पाणाइवायकरणे पण्णत्ते, तं जहा-एगिदियपाणाइवायकरणे जाव पंचिदिय पाणाइवायकरणे । ३२. एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं । (श० १९।१०६) ३३. कतिविहे णं भंते ! पोग्गल करणे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे पोग्गल करणे पण्णत्ते, तं जहा३४. वण्णकरणे, गंधकरणे, रसकरणे, फासकरणे, संठाणकरणे। (श० १९।१०७) ३५. वण्णकरणे णं भते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-कालावण्णकरणे जाव सुक्किलवणकरणे । ३६. एवं भेदो-गंधकरणे दुविहे, रसकरणे पंचविहे, फासकरणे अट्ठविहे । (श० १९।१०८) ३२. इम सगले कहिवो सही रे, जाव विमानिक नैज । चउवीसं दंडक विषे रे, पंचविध घात करैज ।। पुद्गल करण पद ३३. कतिविध हे भगवंत जी! रे पुद्गल करण विचार । करिवो जे पुद्गल करी रे ? जिन कहै पंच प्रकार ।। ३४. वर्ण करण धुर आखियो रे, गंध करण द्वितीयेह । रस करण फर्श करण छ रे, संठाण करण कहेह ।। वर्ण करण पद ३५. वर्ण करण प्रभु ! कतिविधे रे ? जिन कहै पंच प्रकार । काल वर्ण धुर आखियो रे, यावत शुक्ल उदार ।। ३६. एवं भेदज एहनां रे, गंध करण बे विद्ध । रस करण पंचविध कह्यो रे, अठविध फर्श प्रसिद्ध ।। संस्थान करण पद ३७. संठाण करण प्रभु ! कतिविधे रे? जिन कहै पंचविध जान । परिमंडल संठाण छै रे, जाव आयत संठाण ।। ३८. सेवं भंते ! स्वाम जी रे, यावत विचरै स्वाम । करण उद्देशक नी हिवै रे, गाथा दोय अभिराम ।। सोरठा ३९. द्रव्य क्षेत्र अरु काल, भव अरु भाव शरीर फुन । इंद्रिय भाषा न्हाल, मन कषाय समुद्घात ही ।। ४०. संज्ञा लेश्या दृष्ट, वेद रु प्राणातिपात वलि । पुद्गल वर्ण सुइष्ट, गंध रस फर्श संठाण फुन ।। ४१. *ए उगणीसम शतक नों रे, नवम उद्देशक न्हाल । अर्थ थकी ए आखियो रे, वर जिन वचन विशाल ।। एकोनविंशतितमशते नवमोद्देशकार्थः ॥१६॥ ३७. संठाणकरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंच बिहे पण्णत्ते, तं जहा-परिमंडलसंठाणकरणे जाव आयतसंठाणकरणे । (श० १९।१०९) ३८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ। (श० १९।११०) ३९. दव्वे खित्ते काले भवे, भावे सरीरकरणे य । इंदियकरणे भासा, मणे कसाए समुग्घाए । ४०. सन्ना लेसा दिट्ठी वेए, पाणाइवायकरणे य । पोग्गल करणे वण्ण रस गंध फासे य संठाणे ।। सोरठा ४२. नवमें करण आख्यात, फुन दशमे व्यंतर तणां । आहार करण अवदात, कहियै छै ते सांभलो ।। ४३. *हे प्रभुजी ! वाणवंतरा रे, सहु सम आहार कहेस ? इम जिम सोलम शतक नों रे, द्वीपकुमार उद्देश ।। ४२. नवमे करणमुक्तं, दशमे तु व्यन्तराणामाहारकरणमभिधीयते (वृ० प० ७७३) ४३. वाणमंतरा णं भंते ! सब्वे समाहारा? एवं जहा सोलसमसए (श० १६।१२५-१२८) दीवकुमारुद्देसओ *लय : जीव रे तूं सील तणों कर संग २३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. जाव अल्प ऋद्धिवंत छे रे, जाव शब्द मांहि जाण । पाठ अनेक परूपिया रे, चरम प्रश्न इम आण || ४५. ए प्रभु ! वाणमंतर तणें रे, कृष्ण जाव तेजुलेश । कुणकुण थी अल्प ऋद्धिकरे, ४६. जिन क कृष्ण लेश्या थकी रे, तथा महद्धिक कहेस ? नील महाऋद्विवान जाय सर्व महाकविका रे, ४७. सेवं भंते! स्वाम जी रे ! एगुणवीसम शत इहां रे, ४५. ढाल तीन सय ऊपर रे, तेजुलेशी पिछान || दशम उद्देशक अर्थ | थयो संपूर्ण तदर्थ ।। सप्त भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय जश' हर्ष अपार ॥ ४९. उगणीस तेवीस में रे पोह विद नवमीं सार । ठाणां अठा ओपता रे, सुजानगढ सुखकार ।। एकोनविंशतितमशते दशमोद्देशकार्थः ॥ २६१०॥ नेऊमीं सुविचार | गीत-छंद १. एकोनविसम शतक नो रचि जोड़ में रलियामणी । अल्पज्ञ पिण गुरुदेव नां अनुभाव भीज सुहामणी ॥ २. मणि चंद्रकांत कांति जिम, शशि कांति लख वेभाव थी । विन जलद पिण उपजावही जल, चंद्र- किरण प्रभाव थी । ४४. जाव अप्पिढियत्ति । ( १९१११) 'जाव अप्पिड्डिय' त्ति अनेनेदमुद्देशकांतिमसूत्रं सूचितम् ( वृ० प० ७७३ ) ४५. एएसि णं भंते! वाणमंतराणं कण्हलेसाणं जाव तेउलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्पढिया वा मडिया वा ? (२०१० ७७३) ४६. गोमा कहहितामीललेस्सा महदिया जाव सम्महदिया कलेस' त्ति । ( वृ० प० ७७३ ) ४७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ( श० १९ । ११२ ) श० १९, ३० १०, ढा० ३९७ २३९ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितम शतक Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितम शतक ढाल: ३९८ सोरठा १. शत उगणीसम ख्यात, अवसर आयां थी हिवै। वीसम शत अवदात, संग्रहणी गाथा आदि में । विषयसूची २. बेइंद्रियादिक ताहि, बक्तव्यता-प्रतिबद्ध जे। प्रथम उद्देशक मांहि, नाम बेइंद्रिय धुर कह्य॥ १. व्याख्यातमेकोनविंशतितमं शतम्, अथावसरायातं विशतितममारभ्यते, तस्य चादावेवोद्देशकसंग्रहणीं 'बेइंदिये' त्यादिगाथामाह- (वृ० प० ७७३) ३. आकाशादि अर्थ, द्वितीय उद्देशक नै विषे। प्राणातिपाताद्यर्थ, तृतीय उद्देशक ने विषे ।। ४. श्रोतेंद्रियादिक जाण, उपचय अर्थज चतुर्थे । परमाणु पहिछाण, तसु वक्तव्यता पंचमे ।। ५. रत्नप्रभा अवलोय, सक्करप्रभादि अंतरो। वक्तव्यता तसु जोय, षष्टमुद्देशक ने विषे ।। २. १. बेइंदियं तत्र 'बेइंदिय' त्ति द्वीन्द्रियादिवक्तव्यताप्रतिबद्ध प्रथमोद्देशको द्वीन्द्रियोद्देशक एवोच्यते (वृ० प० ७७४) ३. २. आगासे, ३. पाणवहे 'आगासे' त्ति आकाशाद्यर्थो द्वितीय: 'पाणवहे' त्ति प्राणातिपाताद्यर्थपरस्तृतीयः, (वृ० ५० ७७४) ४. ४. उवचए य ५. परमाणु । । 'उवचए' त्ति श्रोत्रेन्द्रियाद्युपचर्यार्थश्चतुर्थः, परमाणुवक्तव्यतार्थः पञ्चमः, (व०प०७७४) ५. ६. अंतर 'अंतर' त्ति रत्नप्रभाशर्करप्रभाद्यन्तरालवक्तव्यतार्थः (वृ० प० ७७४) ६.७. बंधे ८. भूमी 'बंधे' त्ति जीवप्रयोगादिबन्धार्थः सप्तमः, 'भूमी' ति कर्माकर्मभूम्यादिप्रतिपादनार्थोऽष्टमः, (वृ० प० ७७४) ७. ९. चारण १०. सोवक्कमा जीवा । (संगहणी गाहा) 'चारण' त्ति विद्याचारणाद्यर्थो नवमः, 'सोवक्कमा जीव' त्ति सोपक्रमायुषो निरुपक्रमायुषश्च जीवा दशमे वाच्या इति, (वृ०प० ७७४) ८. तत्र प्रथमोद्देशको व्याख्यायते, (वृ० प० ७७४) षष्ठः , ६. जीव प्रयोगज आदि, बंध अर्थ सप्तम का। कर्माकर्मभूम्यादि, अष्टम उदेशक विषे ।। ७. विद्याचारण आदि, नवम उदेशक नैं विषे । दशम उदेश संवादि, सोपक्कमायु जीव नों। ८. शतक वीसमा मांहि, ए दश उद्देशक विषे । संग्रह अर्थज ताहि, अथ धुर उद्देशक अर्थ ॥ द्वीन्द्रिय आदि पद ९. नगर राजग्रह ने विषे, जाव वदै इम वाय। गोयम गणधर वीर नों विनय करी अधिकाय ।। ९. रायगिहे जाव एवं बयासी श० २०, उ० १, ढा० ३९८ २४३ Jain Education Intemational & Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गोयम गुण-आगरू, पूछ प्रश्न उदारू रे। प्रभु सुख-सागरू, देवै उत्तर वारू रे ।। (ध्रुपदं) १०. प्रभु ! कदाचित पिण नहीं सदा जी, च्यार पंच जे जंत । बेइंदिया मिल एकठा जी, साधारण तनु बांधत ? १०. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच बेंदिया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति, "सिय' त्ति स्यात् कदाचिन्न सर्वदा 'एगयओ' त्ति एकतः–एकीभूय संयुज्येत्यर्थः (वृ० प० ७७४) सोरठा ११. जीव अनेक पिछाण, सामान्य तनु बांधै तिको। प्रथमपणे करि जाण, ते प्रायोग्य पुद्गल ग्रहण थी ।। १२. *साधारण तनु बांधी करी जी, तठा पछै आहारंत । अथवा परिणामै वली जी, अथवा शरीर बांधत ? १३. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं जी, जे बेइंदिया जंत । प्रत्येक आहारी छै सहु जी, प्रत्येक परिणामंत ।। १४. प्रत्येक तनु बांधै अछ जी, तन बांधी मैं तेह। पछै आहार करै परिणामै जी, अथवा शरीर बांधेह ।। १५. हे प्रभुजी ! ते जीव नै जी, कति लेश्या कहिवाय? __ जिन कहै त्रिण लेश्या कही जी, कृष्ण नील काऊ पाय ।। ११. 'साहारणसरीरं बंधंति' साधारणशरीरम्' अनेक जीवसामान्यं बध्नन्ति प्रथमतया तत्प्रायोग्यपुद्गलग्रहणतः (बृ० प० ७७४) १२. बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति ? १३. नो इणठे समठे । बेंदिया णं पत्तेयाहारा पत्तेय परिणामा १४. पत्तेयसरीरं बंधति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति । (१० २०११) १५. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तओ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा । १६. एवं जहा एगूणवीसतिमे सए (श० १९४२२) तेउक्काइयाणं १७. जाव उव्वटंति, नवरं-सम्मदिट्ठी वि मिच्छदिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छदिट्ठी, १६. इम जिम एगुणवीसमा जी, शतक विषे आख्यात । अधिकार कह्यो तेउकाय नोंजी, इम कहिवो अवदात ।। १७. जाव उवटति नीकल जी, नवरं समष्टि पिण होय । मिथ्यादृष्टि पिण हुवै जी, समामिथ्या नहिं कोय । सोरठा १८. तेऊ मिथ्यादृष्ट, इहां बेइंद्री नै विषे। समदृष्टि पिण इष्ट, मिथ्यादृष्टी पिण हुवै।। १९. *बे ज्ञान अज्ञान बे नियम थी जी, नहिं मन जोगी धार । वचन काय जोगी पिण हुवै जी, नियमा षट दिशि आहार ।। २०. हे प्रभु ! ते जीवां तण जी, एहवी संज्ञा होय । अथवा प्रज्ञा बुद्धि हुवै जी, अथवा मन वच जोय ।। २१. इष्ट अनिष्टज रस प्रत जी, इष्ट अनिष्टज फास । वेदां अनुभवां छां अम्है जी? अर्थ समर्थ न तास ।। २२. पिण ते वेदै अनुभवै जी, जघन्य अंतर्मुहर्त स्थित । उत्कृष्ट बार वर्ष नी जी, शेषं तं चेव कथित ।। २३. इम तेइंद्री चरिदिया जी, णाणत्तं इंदिय मांय । तेइंद्री में इंद्री तीन छ जी, चरिंद्री में चि पाय ।। २४. वलि स्थित में नानापणुं जी, शेषं तं चेव कहाय । स्थित तेइंद्री चरिदिया जी, जेम पन्नवणा माय ।। *लय : अभड़ मड़ रावणो इंदा सू अड़ियो २४४ भगवती जोड़ १९. दो नाणा दो अण्णाणा नियम, नो मणजोगी, वइजोगी वि कायजोगी वि, आहारो नियम छद्दिसि । (श० २०१२) २०. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णाति वा पण्णाति वा मणेति वा वईति वा२१. अम्हे णं इट्ठाणिठे रसे, इट्ठाणिठे फासे पडि संवेदेमो? नो इणठे समठे, २२. पडिसंवेदेति पुण ते। ठिती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई, सेसं तं चेव। २३. एवं तेइंदिया वि, एवं चउरिदिया वि, नाणत्तं इंदिएसु २४. ठितीए य, सेसं तं चेव, ठिती जहा पण्णवणाए (४।९८-१०१) (श० २०१३) Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. तत्र श्रीन्द्रियाणामुत्कृष्टा एकोनपञ्चाशद्वात्रिंदिवानि चतुरिन्द्रियाणां तु षण्मासाः, जघन्या तूभयेषामप्यन्तमुहूर्तः (वृ० ५० ७७४) सोरठा २५. स्थित तेइंद्रिय जास, उत्कृष्ट गुणपच्चास दिन । चउरिद्रिय षट मास, अंतर्मुहर्त जघन्य थी। पंचेन्द्रिय पद २६. *प्रभु ! कदाचित पिण नहिं सदा जी, जाव च्यार पंच जंत । पंचेंद्री मिल एकठा जी, साधारण तन बांधत ।। २७. इम जिम बेइंदिया कह्या जी, कहिवो पचेंद्री तेम । नवरं लेश्या षट तसु जी, दृष्टि त्रिविध पिण एम ।। २८. च्यार ज्ञान ह तेह में जी, वलि हुवै तीन अज्ञान । भजनाई करि भाखिया जी, त्रिविध जोग पहिछान ।। २६. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पंचिदिया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति ? २७. एवं जहा बेंदियाणं, नवरं छल्लेस्सा, दिट्ठी तिविहा वि, २८. चत्तारि नाणा तिणि अण्णाणा भयणाए, तिविहो जोगो। (श० २०१४) सोरठा २९. पंचम केवलज्ञान, अणिदिया नै ईज है। ते माटै इम जान, पंचेंद्रिया नै ज्ञान चिउं ।। ३०. * हे प्रभु ! ते जीवां तणें जी, संज्ञा बुद्ध इम होय । यावत वचन हुवै इसो जी, आहार करां म्है सोय ? ३१. जिन कहै केइ सन्नी तणें जी, संज्ञा प्रज्ञा इम होय । मन वच पिण ह एहवो जी, आहार करां म्है सोय ।। ३२. के इक ने इम नहिं संज्ञा जी, जावत वचन न एम । आहार प्रतै म्है आहरां जी, पिण आहार करै वलि तेम ।। २९. 'चत्तारि नाण' त्ति पञ्चेन्द्रियाणां चत्वारि मत्यादिज्ञानानि भवन्ति केवलं त्वनिन्द्रियाणामेवेति, (वृ. प० ७७४,७७५) ३०. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णा ति वा पण्णाति वा मणेति वा वईति वा-अम्हे णं आहारमाहा रेमो? ३१. गोयमा ! अत्थेगतियाणं एवं सण्णाति वा पण्णाति वा मणेति वा वईति वा-अम्हे णं आहार माहारेमो। ३२. अत्थेगतियाणं नो एवं सण्णाति वा जाव वईति वाअम्हे णं आहारमाहारेमो, आहारेति पुण ते। (श० २०१५) ३३. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णाति वा जाव वईति वा - ३४. अम्हे णं इट्टाणिठे सद्दे, इट्ठाणि8 रूवे, इट्ठाणिठे गंधे, ३५. इट्ठाणिठे रसे, इट्टाणिठे फासे पडिसंवेदेमो? ३३. हे प्रभु ! ते जोवां तण जी, एहवी संज्ञा होय । जाव वचन छै एहवो जी, आगल कहियै सोय ।। ३४. इष्ट अनिष्टज शब्द नैं जी, इष्ट अनिष्टज रूप । ___इष्ट अनिष्टज गंध - जी, अम्है वेदां छां तद्रूप ।। ३५. इष्ट अनिष्टज रस प्रत जी, इष्ट अनिष्टज फास । अनुभवां वेदां छां अम्है जी? प्रश्न एह विमास ।। ३६. जिन भाखै सुण गोयमा ! जी, केतलाएक ने जोय । इहविध जे संज्ञा हुवै जी, जाव वचन इम होय ।। ३७. इष्ट अनिष्टज शब्द नै जी, यावत बली कहेह । इष्ट अनिष्टज फर्श नै जी, अम्है वेदां छां तेह ।। ३८. केतला एक जीवां तण जी, एहवी संज्ञा नाय । जाव वचन नहि एहवं जी, आगल ते कहिवाय ।। ३९. इष्ट अनिष्टज शब्द नै जी, जावत फर्श अनिष्ट । वेदां छां म्है अनुभवां जी, पिण ते वेदै इष्ट ।। ४०. ते प्रभुजी ! स्यूं जीवड़ा जी, प्राणातिपात विषेह । प्रवत्तै कहिये इसू जी ? इत्यादि प्रश्न करेह ।। *लय : अभड़ भड़ रावणो इंदा स्यूं अड़ियो ३६. गोयमा ! अत्थेगतियाणं एवं सण्णाति वा जाव वईति वा३७. अम्हे ण इट्ठाणिठे सद्दे जाव इट्ठाणिठे फासे पडिसंवेदेमो। ३८. अत्थेगतियाणं नो एवं सण्णाति वा जाव वईति वा ३९. अम्हे णं इटाणिढे सद्दे जाव इट्ठाणिठे फासे __ पडिसंवेदेमो, पडिसंवेदेति पुण ते। (श० २०१६) ४०. ते णं भंते ! जीवा कि पाणाइवाए उवक्खाइज्जति पुच्छा । श० २०,०१, ढा० ३९८ २४५ Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. जिन कहै केयक जीवड़ा जी, असंजती छै जेह । वर्त्ते प्राणातिपात में जी, जाव मिथ्यादर्शण वर्त्तेह || ४२. केइक प्राणातिपात में जी, जाव मिथ्यादर्शण मांय । नहीं प्रवर्त्ते सर्वथा जी, संजती ए कहिवाय || ४३. ते एकेंद्रियादिक जीवनें जी, हण्या पंचेंद्री जीव । तेह एकेंद्रियादिक तण, हिव विज्ञान भेद कहीव ॥ सोरठा एकेंद्री जाव जाणपणों ४४. जीव हणाणा जेह, तेहनों हिवै कहेह, ४५. केइक सन्नी ने हुवे जी, विज्ञान भेद विचार । * ते अम्हे हगाणां छां सही जो, ए मुझ मारणहार ।। ४६. केइक ने इस नहि हुबे जी, विज्ञान भेद पिछाण अम्हणा एणे हया इम, असन्नी र नहि विज्ञान ॥ पंचेंद्रिया । विज्ञान ते ।। ४७. उपपनी हुवं जाव सव्वट्टसिद्ध थी इष्ट स्थित अंत जपन्य थी जी, तेतीस सागर उत्कृष्ट ।। ४८. समुपात घट पामिये जी, केवल वर्जी तेह। नकल जाये सह स्थानके, जाव सव्वट्टसिद्धलग जेह || ४९. शेष विस्तार बेइंदिया नैं, आख्यो छै जेह रीत । कहि सर्व विचार ने जी जिन विच परम प्रतीत ॥ अल्प बहुत्व , ५०. ए प्रभु ! जीव बेइंदिया जी, जाव पंचेंदिया सोय । कुणकुण थी जावत कला जी, विशेषाधिक अगलोय || ५१. जिन कहै थोड़ा सर्व थी जी, पंचेंदिया पहिचाण तेह की उरिदिया जी, विसेसाहिया जाण ॥ ५२. तेह की दिया जी विसेसाहिया जोव । तेह थकी बेदिया जो विसेसाहिया होय ॥ ५३. सेवं भंते ! इम कही जो जाव गोतम विचरंत । प्रथम उद्देशा नो वंत ! अष्ट नेऊमी म्हाल। अर्थ बोसमा शतक नो जो ५४. ढाल तीनसी ऊपरं जी भिक्षु भारीमात्र ऋषिराम थी जी, *लय : अभड़ भड़ रावणो इंदा स्यूं अडियो २४६ भगवती जोड़ 'जय जय' मंगलमाल ॥ विशतितमशते प्रथमोद्देशकार्थः || २०|१|| ४१. गोयमा ! अत्थेगतिया पाणातिवाए वि उवक्खाइज्जति जाव मिच्छादंसणसल्ले वि उवक्खा इज्जति 'अत्थेगइय | पाणाइवाए उवक्खाइज्जति' त्ति असंयताः ( वृ० प० ७७५) ४२. अत्थेगतिया नो पाणाइवाए उवक्खा इज्जंति, नो मुसावाए जाव नो मिच्छादंसणसल्ले उवक्खाइज्जति । 'अत्थेगइया नो पाणाइवाए उवक्खाइज्जति' त्ति संयताः (१०१० ७७५) ४३. जेसिपि जीवाणं ते जीवा एवमाहिति सि पिणं जीवाण 'जेसिपि णं जीवाण' मित्यादि येषामपि जीवानां सम्बन्धिनाऽतिपातादिना ते पञ्चेन्द्रिया जीवा एवमाख्यायन्ते यथा प्राणातिपातादिमन्त एत इति तेषामपि जीवानाम् (१०१० ७७५) ४५,४६. अत्थेगतियाणं विष्णाए नाणत्ते अत्थे गतियाणं नो विष्णाए नाणत्ते । अस्त्यवमर्थो केषां सङ्गिनामित्यर्थः "विज्ञात" प्रतीतं 'नानात्वं' भेदो यदुतैते वयं वध्यादय एते तु वधकादय इति अस्त्ये केषां - असञ्ज्ञिनामित्यर्थः नो विज्ञातं नानात्वमुक्तरूपमिति । ( वृ० प० ७७५) ४७. उववाओ सव्वओ जाव सव्वट्टसिद्धाओ । ठिती जहतो उनको ती सागरोदमाई । ४८. छस्समुग्धाया केवलिवज्जा, उव्वट्टणा सव्वत्थ गच्छंति जाय सिद्धं ति ४९. सेसं जहा बेइंदियाणं । ( श० २०1७ ) ५०. एएसि णं भंते ! बेइंदियाणं जाव पंचिदियाण य कपरे कमरेहितो जाब (सं० पा०) विसेसाहियावा ? ५१. गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिदिया, चउरिदिया विसेसाहिया, ५२. इंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया । (१० २०१८ ) ५३ सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ । ( श० २०1९ ) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल: ३९९ दहा १. प्रथमोद्देशके द्वीन्द्रियादयः प्ररूपितास्ते चाकाशाद्याधारा भवन्ति (वृ० १०७७५) २. अतो द्वितीये आकाशादि प्ररूप्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् (वृ० प० ७७५) ३. कतिविहे णं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते, तं जहा--लोयागासे य, अलोयागासे य। (श० २०१०) ४. लोयागासे णं भंते ! कि जीवा ? जीवदेसा? १. प्रथम उदेश बेइंदिया प्रमुख कह्या ते जोय । व आकाशादिक तणे, आधारे अवलोय ।। २. तिणसं द्वितीय उदेशके, आकाशादि विचार । एणे संबंधे करी, आदि अर्थ इम धार ।। अस्तिकाय पद ३. कतिविध प्रभु! आकाश है ? जिन कहै द्विविध तास । लोकाकाशज धुर कह्य, द्वितीय अलोकाकाश ।। ४. लोकाकाश विषे प्रभु ! स्यं जीवा कहिवाय । अथवा जीव तणां बहु देश कह्या जिनराय ? ५. इम जिम बीजा शतक में, अस्तिकाय उदेश । तेह विषे आख्यो तिमज, कहिवो इहां विशेष ।। ६. नवरं आलावो इहां, जाव धर्मास्तिकाय । ते प्रभु ! मोटी केतली ? जिन कहै लोक कहाय ।। ७. लोक जेवड़ो एह छै, लोक मात्र ए न्हाल । लोक प्रमाणे एह छ, फर्शे लोक विशाल ।। ८. निश्चै लोक प्रतैज ते, अवगाही तिष्ठेह । पूर्वे नवरं पाठ जे, तसु हिव न्याय कहेह ।। वा० द्वितीय शतक नां अस्तिकाय उद्देशक नै विषे कह्य , तिम इहां पिण भणवू ---'जाव धम्मत्थिकाए णं भंते !' इत्यादिक आलावा नों सूत्र नवरं--केवलं 'लोयं चेव फुसित्ताणं चिट्ठति' । ए पाठ नै स्थानके 'लोयं चेव ओगाहित्ताणं चिट्ठइ।' इम ए आलावो दीस छ । इति वृत्ती । ५. एवं जहा बितियसए (श० २।१३९-१४५) अत्थिउद्देसे तहेव इह वि भाणियव्वं, ६,७. नवरं-- अभिलावो जाव धम्मथिकाए णं भंते ! केमहालए पण्णते? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे ८. लोयं चेव ओगाहित्ता णं चिट्ठति । नवरं 'अभिलावो' त्ति अयमर्थः (वृ० प० ७७५) वा०-द्वितीयशतस्यास्तिसकायोद्देशकतावदिह निविशेषोऽध्येयो यावत 'धम्मत्थिकाए णं भंते !' इत्यादिरालापकसूत्रं च नवरं - केवलं 'लोयं चेव फुसित्ताणं चिट्ठइ' त्ति एतस्य स्थाने 'लोयं चेव ओगाहिनाणं चिट्ठइ' इत्ययमभिलापो दृश्य इति । (वृ०प०७७५) ९. एवं जाव पोग्गलत्थिकाए। (श. २०११) १०. अहेलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवतियं ओगाढे? ९. इम जावत पुद्गलास्तीकाय लगै सुविचार। कहिवो पूर्वली परै, सर्वत्र लोक मझार ।। *सूरिजन जय-जय ज्ञान जिनेंद्र नों। (ध्रपदं) १०. अधोलोक भगवंत जी ! धर्मास्तिकाय नों जाण । सूरिजन । केतलो अवगाह्यो अछै ? गोयम प्रश्न पिछाण । सूरिजन ।। ११. जिन कहै अर्द्ध जाझो सही, अवगाह्यो छै एह । इम एणे आलावे करी, जिम बीजे शतकेह ।। १२. जावत सिद्धशिला प्रभु ! लोकाकाश ने जेह । अवगाही भाग संख्यातमो? पूछा एह करेह ।। ११. गोयमा ! सातिरेगं अद्धं ओगाढे । एवं एएणं अभिलावेणं जहा बितियसए (श० २।१४७-१५३) १२. जाव--- (श० २०१२) ईसिपब्भारा णं भंते ! पुढवी लोयागासस्स कि संखेज्जइभाग ओगाढा-पुच्छा। *लय : मुनिवर गेहणा कठा सू ल्याविया श० २०, उ० २, ढा० ३९९ २४७ Jain Education Intemational ducation International Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. गोयमा ! नो संखेज्जइभाग ओगाढा, असंखेज्जइभागं ओगाढा, १४. नो संखेज्जे भागे ओगाढा, नो असंखेज्जे भागे ___ ओगाढा, १५. नो सव्वलोयं ओगाढा । सेसं तं चेव । (श० २०१३) १३. जिन कहै भाग संख्यातमो, अवगाही छै नांहि । असंख्यातमा भाग में, अवगाही छै ताहि ।। १४. घणां संख्याता भाग नै, अवगाही नहिं कोय । घणां असंख्याता भाग ने, नहिं अवगाही सोय ।। १५. सगला लोक प्रतै वलि, अवगाही छै नाय । शेषं तं चेव कहीजिय, ए जिन वच सुखदाय ।। सोरठा १६. अथ धर्मास्तिकाय, आदि प्रमुख पूर्वे कही। तास नाम कहिवाय, एक अर्थ इक वचन ते ॥ धर्मास्तिकाय के अभिवचन १७. *प्रभु ! धर्मास्तिकाय नैं, केतलै शब्द करेह । बोलावियै छ तेहने, केतला नाम कहेह ? १६. अथानन्तरोक्तानां धर्मास्तिकायादीनामेकाथिकान्याह (वृ० प० ७७५) १७. धम्मत्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पण्णत्ता? 'अभिवयणे' ति 'अभी' त्यभिधायकानि वचनानिशब्दा अभिवचनानि पर्यायशब्दा इत्यर्थः, (वृ० प० ७७६) १८. गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा धम्मे इ वा, १८. श्री जिन भाखै अनेक ही, बोलावियै कही नाम । धम्मेत्ति वा धुर कह्य, धर्म इति वा ताम । सोरठा १९. जंतु पुद्गल नैज, गति पर्याय विषे सही। धारण थकी कहेज, धर्म रवे बोलाविय ।। २०. इति शब्द आख्यात, उपप्रदर्शन नै विषे । वा विकल्प विख्यात, आगल नाम अपेक्षया ।। २१. *वलि धर्मास्तिकाय जे, धर्म तेहिज पिछाण । अस्तिकाय कहीजिय, प्रदेश-रास ए जाण ।। १९. 'धम्मेइ व' त्ति जीवपुद्गलानां गतिपर्याये धारणाधर्मः (वृ० प० ७७६) २०. 'इतिः' उपप्रदर्शने 'वा' विकल्पे वृ०प० ७७६) २१. धम्मत्थिकाये इ वा, 'धम्मत्थिकाए व' त्ति धर्मश्चासावस्तिकायश्च प्रदेशराशिरिति धर्मास्तिकायः (वृ०प० ७७६) २२. पाणाइवायवेरमणे इ वा, मुसावायवेरमणे इ वा, एवं जाव परिग्गहवेरमणे इ वा, २३. कोहविवेगे इ वा जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे इ वा, २२. वेरमण प्राणातिपात नों, मृषा वेरमण जाण । एवं जावत परिग्रह, तास वेरमण माण ।। २३. क्रोध विवेक कह्य वलि, अथवा जावत जोय । मिथ्यादर्शण शल्य नों, विवेक तजवू होय ।। २४. ईर्या समिति भाषा वली, एषणा समिति उचित । भंड मात्र ग्रहै मूकवै, जयणा तेह समित ।। २५. बड़ी नीत लघु नीत ने, खेळ ते वळखो जाण । जल्ल ते मेलज परिठवै, नाक नुं मेल संघाण ।। २६. मनोगुप्ति अथवा वलि, वचनगुप्ति सुविचार । कायगुप्लि वलि जाणवी, रूंधै सावज्ज व्यापार ।। २७. जे पिण अन्य ए सारिखा, तथा प्रकार ना होय । धर्मास्तिकाय तणां सहु, नाम तिके अवलोय ।। *लय : मुनिवर गेहणा कठा सूं लाविया २४. रियासमिती इ वा, भासासमिती इ वा, एसणासमिती इवा, आयाणभंडमत्तनिक्खेवसमिती इ वा, २५. उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिती इवा, २६. मणगुत्ती इ वा, वइगुत्ती इ वा, कायगुत्ती इ वा, २७. जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते धम्मत्थिकायस्स अभिवयणा। (श० २०१४) २४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २८. वृत्तिकार कहिवाय, प्राणातिपातादिक तणों। वेरमणादिक ताय, लक्षण चारित्र धर्म नों। २९. तेह थकी अवलोय, धर्म शब्द साधर्म थी। धर्मास्ति नां जोय, व पर्याय भाव करि ।। ३०. अन्य फुन तेहवा ईज, चरित्त धर्म नां नाम जे । सामान्य विशेष थीज, नाम सर्व धर्मास्ति नां ।। २८. 'पाणाइवायवेरमणेइ वा' इत्यादि, इह धर्म: चारित्रलक्षणः स च प्राणातिपातविरमणादिरूपः, (वृ० प० ७७६) २९. ततश्च धर्मशब्दसाधादस्तिकायरूपस्यापि धर्मस्य प्राणातिपातविरमणादयः पर्यायतया प्रवर्तन्त इति, (वृ० प० ७७६) ३०. 'जे यावन्ने' त्यादि, ये चान्येऽपि तथाप्रकारा: चारित्रधर्माभिधायका: सामान्यतो विशेषतो वा शब्दास्ते सर्वेऽपि धर्मास्तिकायस्याभिवचनानीति । (वृ०प० ७७६) ३१,३२. एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वृत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो॥ (उत्त० २४१२६) ३१. पचखै पाप अठार, अशुभ जोग थी निवर्ते । तेह गुप्ति त्रिण सार, संवर धर्म कहीजिये ।। ३२. पंच समिति जिन वयण, चरण प्रवर्तन नै विषे । चउवीसम उत्तराझयण, ते माटै ए निर्जरा ।। अधर्मास्तिकाय के अभिवचन ३३. *प्रभु ! अधर्मास्तिकाय नां, केतला अभिवच नाम? श्री जिन भाखै अनेक ही, पर्याय शब्दज ताम ।। ३४. अधर्म ए धुर नाम छै, अधर्मास्ति न जाण । धर्म लक्षण का तेहथी, ए विपरीत पिछाण ।। ३३. अधम्मत्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा३४. अधम्मे इ वा, 'अधम्मे' त्ति धर्मः उक्तलक्षणस्तद्विपरीतस्त्वधर्म: (वृ० ५० ७७६) ३५. जीवपुद्गलानां स्थित्युपष्टम्भकारी, शेष प्रागिव । (वृ०५०७७६) ३६. अधम्मस्थिकाए इ वा, पाणाइवाए इ वा, जाव मिच्छादसणसल्ले इ वा, ३७. रियाअस्समिती इ वा, जाव उच्चारपासवण खेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियाअस्समिती इ वा, ३८. मणअगुत्ती इ वा, वइअगुत्ती इवा, कायअगुत्ती इ वा, सोरठा ३५. जंतु पुद्गल नैंज, स्थित स्थिर रहिवा नोंज ए। ___सहायकारि कहेज, शेष पूर्ववत आखियै ।। ३६. *तथा अधर्मास्तिकाय जे, तथा प्राणातिपात । जाव मिथ्यादर्शण वलि, ए सेवन आश्री ख्यात ।। ३७. अथवा ईर्या असमिती, जावत वलि कथित । उचारपासवण जाव ही, परिठववै असमित ।। ३८. तथा अगुप्तिज मन तणी, अथवा वचन अगुप्ति । अथवा काय अगुप्ति ही, एहथी पाप उपत्ति ।। ३९. जे पिण अन्य ते सारिखा, तथा प्रकारे ताय । ते सहु अधर्मास्ति तणां, अभिवच नाम कहाय ।। सोरठा ४०. 'सेवै पाप अठार, सेवावै अनुमोदिये । पंच असमिति असार, तीन अगुप्ति कही वलि ।। ४१. पाप तणां ए द्वार, अधर्म कहीजे तेहनें । अधर्म शब्द उचार, तसु साधर्म्यपणां थकी॥' (ज० स०) ३९. जे यावणे तहप्पगारा सव्वे ते अधम्मत्थिकायस्स अभिवयणा। (श० २०११५) *लय : मुनिवर गेहणा कठा सूं लाविया ण० २०, उ०२, ढाल ३९९ २४९ Jain Education Intemational Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाशास्तिकाय के अभिवचन ४२. *पूछा आकाशास्तिकाय नीं, जिन कहै नाम अनेक । प्रथम नाम आकाश छै, तास अर्थ इम पेख ।। ४२. आगासत्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पण्णत्ता? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहाआगासे इ वा, ४३,४४. 'आगासे' त्ति आ-मर्यादया अभिविधिना वा सर्वेऽर्थाः काशन्ते-स्वं स्वभावं लभंते यत्र तदाकाशं, (वृ० प० ७७६) सोरठा ४३. आ मर्याद करेह, अथवा आ अभिविध करी। __सर्व अर्थ छै जेह, काशै प्रकाशै जिहां ।। ४४. निज-निज भाव प्रतेह, लाभ प्रकाशै अछै । जे आकाश विषेह, ते आकाश कहीजिये ।। ४५. *अथवा आगासथिकाय छै, अति गमन विषय थी जन । गमन कहीजै तेहनें, निरुक्त वस थी गगन ।। ४६. अथवा ए दीपै नहीं, तिणसं नभ कहिवाय । अथवा सम कहिय वलि, उच्च नीचपणों नाय ।। ४७. अथवा दुर्गम भाव थी, विषम कहीजै एह । खणियो न जावै ते भणी, खह कहीजै तेह ।। ४५. आगासत्थिकाए इ वा, गगणे इ वा, _ 'गगणे' त्ति अतिशयगमनविषयत्वाद् गगनं निरुक्तिवशात्, (वृ०५०७७६) ४६. नभे इ वा, समे इ वा, 'नभे' त्ति न भाति ... दीप्यते इति नभः, 'समे' त्ति निम्नोन्नतत्वाभावात्सम (वृ० प० ७७६) ४७. विसमे इ वा, खहे इ वा, 'विसमे' त्ति दुर्गमत्वाद्विषमं 'खहे' त्ति खनने भुवो हाने च--त्यागे यद्भवति तत् खहमिति निरुक्तिवशात्, (वृ० प० ७७६) ४८. विहे इ वा, 'विहे' त्ति विशेषेण हीयते-त्यज्यते तदिति विहायः अथवा विधीयते-क्रियते कार्यजातमस्मिन्निति विहं, (वृ० ५० ७७६) ४९. वीयी इ वा, विवरे इवा, 'बीइ' त्ति बेचनात्-विविक्तस्वभावत्वाद्वीचिः, 'विवरे' त्ति विगतवरणतया विवरम् (व०प० ७७६) ५०. अंबरे इ वा, अंबरसे इ वा, ४८. विशेष तजिये ते भणी, विहाय नाम तदर्थ । कीजै कार्य ए विषे, विध ए दूजो अर्थ ।। ४९. अथवा वीची नाम ए, विविक्त ठाली स्वभाव । आवरण रहितपणे करी, विवर नाम कहिवाव ।। वा०-'अंबर' त्ति अम्बेव-मातेव जननसाधादम्बा-जलं तस्य राणाद्-दानान्निरुक्तितोऽम्बरं, 'अंबरसे' त्ति अम्बा-पूर्वोक्तयुक्त्या जलं तद्रूपो रसो यस्मात्तन्निरुक्तितोऽम्बरसं, (वृ० प० ७७६) ५०. अथवा जल दै ते भणी, अंबर नाम कहेह । अथवा अंबरस नाम छै, उदक रूप रस देह ।। वा०---अंबा नाम माता रो छ । तेहनी पर जनन उत्पत्ति सादृश्य धर्मपणां थी अंबा उदक । तेहना राणात् - देवा थकी निरुक्ति थी अंबर। एतल ए अंबा कहिय माता । ते सरिखो आकाश छै। तेह थकी मेघ वर्षे जल दिये ते मारी । तथा इमहिज अंबा पूर्वोक्त युक्ति करिके जल रूप रस जेह आकाश थकी निरुक्ति थकी अंबरस नाम कहिये । ५१. अथवा छिद्रज नाम छै, जायै देइ विहार । छेदन को अस्तिपणुं, तेहथी छिद्र विचार ।। ५२. अथवा झसिर नाम छ, पोलाळ भणी कहेह। ___शोष तणां देवा थकी, शुषिर झुसिर नामेह ।। ५१. छिड्डे इ वा, "छिड्डे' त्ति छिद्रः-छेदनस्यास्तित्वाच्छिद्रं (वृ०प० ७७६) ५२. झुसिरे इ वा, 'झुसिरे' त्ति झुषेः- शोषस्य दानात् शुषिरं, (वृ० प० ७७६) *लय : मुनिवर गेहणा कठा सूं लाविया २५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततर इवा, ५३. अथवा मार्ग नाम छै, पंथ रूप थी जाण । ५३. मग्गे इ वा, विमुहे इ वा, अथवा नाम विमुख वलि, मुखादि रहित पिछाण ।। 'मग्गे' त्ति पथिरूपत्वान्मार्गः, "विमुहे' त्ति मुखस्यआदेरभावाद्विमुखम् (वृ०प० ७७६) ५४. अई नाम इण कारण, इण करि गमन करेह । ५४. अट्टे इ वा, द्वितीय अर्थ अट्ट' नं कियो, इण करि अतिक्रमेह ।। 'अद्दे' त्ति अद्यते-गम्यते अट्टयते वा-अतिक्रम्यतेऽनेनेत्यईः अट्टो वा (वृ० प० ७७६) ५५. विशिष्ट अई अछै तिको, व्यई नाम इण न्याय । ५५. वियट्टे इ वा, विशिष्ट अट्ट तिण कारणे, द्वितीय अर्थ व्यट्ट' पाय ।। 'वियद्दे' त्ति स एव विशिष्टो व्य> व्यट्टो वा, (वृ० प० ७७६) ५६. अथवा नाम आधार छै, आधार थीज कहेह । ५६. आधारे इ वा, वोमे इ वा, विशेष करिक अवन थी, व्योम नाम छै एह ।। 'आधारे' त्ति आधारणादाधारः 'वोमे' त्ति विशेषेणावनाद्व्योम, (वृ० प० ७७६) ५७. अथवा भाजन नाम छै, विश्व नो भाजन एह । ५७. भायणे इ वा, अंतलिक्खे इ वा, __ जसु मध्य अंतर देखवू, अंतरिक्ष नामेह ।। 'भायणे' त्ति भाजनाद-विश्वस्याश्रयणाभााजनम्, अंतलिक्खे' त्ति अन्तः-मध्ये ईक्षा-दर्शनं यस्य तदन्तरीक्षं, (वृ० ५०७७६) ५८. अथवा नामज स्याम छ, स्याम वर्ण दीसेह। ५८. सामे इ वा, ओवासंतरे इ वा, अवकाश रूप अंतर अछ, अवकाशंतर एह ॥ 'सामे' त्ति श्यामवर्णत्वात् श्यामम् 'ओवासंतरे' त्ति अवकाशरूपमन्तरं न विशेषादिरूपमित्यवकाशान्तरम् (वृ० ५०७७६) ५९. अथवा नाम अगम वलि, गमन क्रिया करि रहीत । ५९. अगमे इ वा, फलिहे इ वा, निर्मल फटिक तणी परै, फलिह नाम संगीत ।। 'अगमे' त्ति गमनक्रियारहितत्वेनागमं 'फलिहि' त्ति स्फटिकमिवाच्छत्वात् स्फटिकम् (वृ० ५० ७७६) ६०. अथवा नाम अनंत छै, अंत नहीं छै तास । ६०. अणंते इ वा, जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते __ अन्य वलि तथा प्रकार नां, आगास नाम विमास ।। आगासत्थिकायस्स अभिवयणा। (श० २०१६) 'अणंते' ति अन्तजितत्वात् । (वृ०प०७७६) ___ सोरठा ६१. 'ए आकाशास्तिकाय, नाम कह्या छै तेहनां । अपर नाम पेक्षाय, सह ठामे वा शब्द छै ।। ६२.तिम अष्टम शत वाय, षष्टमद्देशक नै विषे । ६२. भगवती ८।२४५ श्रमण माण नै ताय, दान दियां ह्व निर्जरा ।। ६३. वा शब्द छै तिण ठाम, ते अन्य नाम अपेक्षया । पिण श्रावक नों नाम, माहण शब्द न सर्वथा ॥' (ज० स०) ६४. *शत वीसम द्वितीय देश ए, त्रिण सय निनाणमीं ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। १,२. अंगसुत्ताणि भाग २ श० २०१६ में अट्टे और वियट्टे --इन शब्दों को मूलपाठ में रखा गया है । वहां अद्दे और वियद्दे को पाठांतर में लिया है। * लय : मुनिवर गेहणा कठा सूं लाविया श०२०, उ०२, ढाल ३९९ २५१ Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४०० १. जीवत्थिकायस्स भंते ! केवतिया अभिवयणा पण्णत्ता? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा २. जीवे इ वा, जीवत्थिकाए इवा, ३. पाणे इ वा, भूए इवा, ४. सत्ते इ वा, विष्णू इवा, ५. वेया इवा, चेया इ वा, 'चेय' त्ति चेता पुद्गलानां चयकारी चेतयिता वा (वृ० प० ७७६) जीवास्तिकाय के अभिवचन दूहा १. प्रभु ! जीवास्तिकाय नां, कितरा अभिवचन नाम? जिन कहै नाम अनेक है, गुण-निप्पन ते ताम ।। _ *जीव रा नाम तेवीस कह्या जिन ॥(ध्र पदं) २. जीवे ति वा कहितां प्राण धरै छै, अथवा जोवास्तिकायो रे। तेहिज अस्ति प्रदेश तणों जे, ___ काय समूह कहायो रे ।। ३. अथवा प्राण कहीजै जीव नै, लेवै उस्सास-निस्सासो रे । अथवा भूत ते त्रिहुं काल में थयो छै हुस्यै सुरासो रे ।। ४. अथवा सत्ते ति वा नाम जीव रो, __ शुभाशुभ पोते पिछाणो रे । अथवा विण्णू ति वा जाण विष रो, शब्दादिक नों जाणो रे ।। ५. अथवा वेया ति वा सुख दुख वेदै, अथवा चेया ति वा नामो रे। पुद्गल नै चयकारी चिणे ए, विविध प्रकारे तामो रे ।। ६. अथवा जेया ति वा नाम जीव रो, कर्मरिपु रो जीपणहारो रे । तिणरो प्राक्रम शक्ति अत्यंत घणों छ, थोड़ा में जाय मोक्ष मझारो रे ॥ ७. अथवा आया ति वा नाम जीव रो, ते सहु गति रै मांह्यो रे । जावणहार निरंतर छै ए, तिणसं आत्म कहिवायो रे ।। ८. अथवा रंगणे ति वा नाम छ, रंगण रागज न्हालो रे। तेहनां जोग सू मोह मतवालो, __ आत्मा ने लगावै कालो रे ।। ९. अथवा हिंडुए' ति वा कह्यो छै, _ हिंडया चिउं गति तामो रे । कर्म करीने हिलोळे छै ए, जठे पाम्यो नहीं विश्रामो रे ।। *लय : चतुर विचार करीनै १. अंगसुत्ताणि भाग २ में हिंदुए पाठ है। वहां "हिंडुए' को पाठान्तर में रखा है। ६. जेया इ वा, 'जेय' त्ति जेता कर्मरिपूणाम् (वृ० प० ७७६) ७. आया इवा, 'आया' त्ति आत्मा नानागतिसततगामित्वात् (वृ० ५० ७७६) ८. रंगणे इ वा, रंगणे' त्ति रङ्गणं-रागस्तद्रयोगाद्रङ्गण: (वृ० ५०७७६) ९. हिंदुए इ वा, 'हिंडुए' त्ति हिण्डुकत्वेन हिण्डुका, (वृ० ५० ७७६) २५२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. अथवा पोगले सिवा को है, पुद्गल पूरण गलवे करीनं पुद्गल ११. अथवा माणवेति वा को छे, ले-ले शरीरादिक नां तामो रे । मुक्या ठाम ठामो रे ॥ मा शब्द निषेधे जाणो है। नवो नहीं तिणसूं मानव कहियै, १२. अथवा कत्ता ति वा नाम जीव रो, काल अनाद पुराणो रे ।। भाव जीव ए आस्रव कह्यो छै, तिणसूं कर्म लागे छे आयो रे ।। १३. अथवा विकत्ता ति वा नाम छै, कर्मों रो छेदणहारो रे । निर्जरा री करणी निरवद्य ए, जीव तणां व्यापारो रे ।। कर्मा रो करता कहायो रे । १४. अथवा जए ति वा नाम जीव रो, विशेष करी गमन करतो रे । गमन करतो सहु गति मांहे, तिणसूं जए ति वा नाम तो रे ।। १५. अथवा जंतु ति वा नाम जीव रो, जननात् जंतु कहावे रे। लख चउरासी जीव-जोणि में, उपनो कर्म प्रभावे रे || १६. अथवा जोणि ति नाम जीव रो, घट पट आदि अनेक वस्तु नैं, १७. अथवा सयंभू ति वा नाम छे, पोतेईज छँ अनाद काल नों, १८. अथवा ससरीरे ति वा कह्यो छे, काला गोरादिक नाम धरायो, १९. अथवा नायए ति वा कह्यो पुन्य पाप ने ग्रहण करें छै, २०. अथवा अंतरअप्पा नाम अन्य उत्पादनकारी रे। उपजावं अति भारी रे ॥ किणहि निपजायो नांह्यो रे । द्रव्य जीव ताह्यो रे ।। छै शरीर सहित छै एहो रे । एह संसारी कहेहो रे ॥ छे, कम रो पमाणहारो रे। संसारी जीव विचारो रे ॥ जीव रो, रहे शरीर है मांह्यो रे । मध्य रूप ते जीव कह्यो छै, पिण शरीर रूप न कहायो रे ।। २१. जे बलि अन्य पिण तथा प्रकारज, तेह सरीखा तामो रे। ते सह नाम का है जीव रा, इम भाखे जिन स्वामो रे ।। १०. पोग्गले इ वा, 'पोग्गले' त्ति पूरणाद्गलनाच्च शरीरादीनां पुद्गलः, (बु० ८० ७७७) ११. माणवे इवा, 'माणव' त्ति मानिषेधे अनादित्वात्पुराण इत्यर्थः १२. कत्ता इ वा, १४. जए इ वा, 'कत्त' त्ति कर्ता - कारक: कर्म्मणाम् नवः १३. विकत्ता इवा, 'विगत्त' त्ति विविधतया कर्त्ता विकर्त्ता विकर्त्तयिता बाछेदकः कणामेव ( वृ० प० ७७७) ( वृ० प० ७७७ ) १५. जंतू इ वा, 'बंतु' ति जननाज्जन्तुः १६. जोणी इ वा, 'जए' त्ति अतिशयनमनाज्जगत् प्रत्यग्रो मानवः ( वृ० प० ७७७ ) १८. ससरीरी इ वा, (१० ८० ७७७) ( वृ० प० ७७७ ) 'जोणि' तियोरित्येषामुत्पादकत्वात् १७. सयंभू इवा, 'सयंभु' त्ति स्वयंभवनात्स्वयम्भूः ( वृ० प० ७७७ ) (बु० ८० ७७७) 'ससरीरि' त्ति सह शरीरेणेति सशरीरी (बृ० प० ७७७) १९. नायए इ वा, 'नायए' ति नायकः कर्म्मणां नेता ( वृ० प० ७७७ ) २०. अंतरप्पा इवा, 'अंतरप्प' ति अन्त:- मध्यरूप आत्मा न शरीररूप इत्यन्तरात्मेति । ( वृ० प० ७७७) २१. जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते जीवत्थिकायस्स अभिवयणा । ( श० २०१७ ) श० २० उ०२, हा० ४०० २५३ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २२. ए तेवीसं नाम, जीव तणां जिन दाखिया। ___वा शब्द सगलै ठाम, अपर नाम नी पेक्षया ।। २५. पोग्गल स्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा २३. 'तिम श्रमणं वा ताम, उत्तर गुण नीं अपेक्षया । माहणं वा मुनि नाम, ए गुण मूल अपेक्षया ।। २४. अन्य नाम पेक्षाय, आख्यो छै वा शब्द ए। फून समचै कहिवाय, पिण माहण श्रावक नथी ।' (ज.स.) पुद्गलास्तिकाय के अभिवचन २५. *पुद्गलास्तिकाय नां हे भगवंत जी! केतला नाम कहायो रे ? जिन कहै नाम अनेक कह्या छ, सांभल चित ल्यायो रे ।। २६. 'पोग्गले त्ति पूराय गलाय, वलि पुद्गलास्तिकायो रे। अथवा परमाणु-पुद्गल पिण, तथा दोयप्रदेशिक ताह्यो रे ।। २७. अथवा तीनप्रदेशिक खंध ते, जाव असंखप्रदेशी रे । अथवा अनंतप्रदेश खंध ते, पुद्गल नाम कहेसी रे ।। २८. जे पिण अन्यज तेह सरीखा, ते सगलाई तामो रे। नाम पुद्गलास्तिकाय तणां छै, सेवं भंते ! स्वामो रे ।। २६. पोग्गले इवा, पोग्गल स्थिकाए इ वा, परमाणुपोग्गले इ वा, दुपएसिए इ वा, २७. तिपएसिए इ वा जाव असंखेज्जपएसिए इवा, अणंतपएसिए इ वा खंधे, २८. जे यावण्णे तहप्पगारा सवे पोग्गलस्थिकायस्स अभिवयणा। (श० २०१८) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० २०११९) २९. बीसमा शतक नों दूजो उद्देशो, अर्थ थकी अभिरामो रे । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' आनंद पामो रे ।। ३०. ढाल विशाल च्यारसौमी ए, उगणीस तेवीस रे। पोह सुदि सातम ठाणा निनाणं, सुजाणगढ जगीसै रे ।। विशतितमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥२०॥२॥ ढाल : ४०१ दूहा १. द्वितीय उदेशक नै विषे, जे प्राणातिपातादि । ते अधर्मास्तिकाय नै, पर्यायपणे संवादि । २. तेहिज तृतीय उदेशके, आत्मा विना अन्य स्थान । नहीं परिणमै तेहन, कहियै छै व्याख्यान ।। *लय : चतुर विचार करीन १. द्वितीयोद्देशके प्राणातिपातादिका अधर्मास्तिकायस्य पर्यायत्वेनोक्ताः, (वृ०प०७७७) २. तृतीये तु तेऽन्ये चात्मनोऽनन्यत्वेनोच्यन्ते (वृ० प० ७७७) २५४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणातिपात आदि की आत्मा रूप में परिणति * प्रभुजी ! घिन घिन पांरो जी ज्ञान । मिथ्या तिमिर निवारवा जी, जाणक ऊमो भान । (ध्रुपदं ) ३. अथ हिव हे भगवंत जीरे, प्राणातिपात पिछाण । 1 मृषावाद यावत वली रे मिथ्यादर्शणसत्य जाण || ४. वेरमण प्राणातिपात नों जी, हिंसा ते निवर्त्तेह | जाव मिथ्यादर्शण तणुं जी, विवेक तजिवूं जेह || ५. उत्पत्तिवा जावत वलि जी, बुद्धि परिणामकी जाण । अवग्रह ने ईहा वली जी, अपाय धारणा पिछाण || ६. उद्वाण में कर्म दूसरो जी, बल अरु वीर्य जोय । पुरुषकार पराक्रम को जी, एह अरूपी होय ॥ ७. नारकपणं कह्यो बलि जी, असुरकुमारपणेह । यावत वैमानिकपणें जो भाव जीव छै एह || ८. ज्ञानावरणी कर्म नैं जी, यावत वलि अंतराय । ए आइ कर्म छै जी, पुद्गल रूपी ताय ॥ ९. कृष्ण लेश यावत वली जी, शुक्ल लेश अवलोय ! द्रव्य लेश रूपी कही जी, भाव अरूपी होय ॥ १०. तीन दृष्टि दर्शण चिउं जी, पंच ज्ञान पहिछान । त्रिण अज्ञान संज्ञा चिउं जी, एह अरूपी जान ॥ ११. पुद्गल पंच शरीर छै जी, साकार ने अनाकार ही जी, १२. जे पिण अन्य ते सारिखा जी, आत्म साथ वर्त्तेह | जीव बिना अन्य स्थानके जी, नहि वर्त्ते नहिं परिणमेह ? जोग तीन अवलोय । ए उपयोगज दोय || १३. जिन कहै हंता गोयमा जी ! प्राणातिपात पिछान । जाव सर्व आतम बिना जी, नहिं व अन्य स्थान || सोरठा १४. 'यां बोलां में जान, पुद्गल केयक बोल छै । पण जीव बिना अन्य स्थान, नहि वर्त्ते नहि परिणमे ।। १५. केयक बोल विचार, लक्षण छै द्रव्य जीव रा । ते व द्रव्य लार, अन्य स्थान नहि परिणमे ॥ १६. जे स्थान बत्तह, पूर्व प्रगटपणं कह्यो । गर्भ विषे उपजेह, तेह जीव नों हिव कहै ।' (ज.स.) गर्भोत्पत्ति के समय वर्णादि पद १७. *गर्भ विषे भगवंत जी! रे, जीव ऊपजतो रे तास । किता गंध रस फास ? किता वर्ण हमें हुवै रे, *लय : कांसी जल नहि भेदं ३. अह भंते! पाणाइवाए, मुसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, ४. पाणातिवायवेरमणे जाव मिच्छादंसणसल्ल विवेगे, ५. उप्पत्तिया जाव (सं० पा० ) पारिणामिया, ओग्गहे ईहा अवाए धारणा, ६. उट्टा कम्मे बसे वीरिए पुरसकारपरक ७. नेरइयत्ते, असुरकुमारते जाव वैमाणियत्ते ८. नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए, ९. कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा, १०. सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी समामिच्छदिट्ठी, चक्खुदंसणे अचक्खुदंसणे ओहिदंसणे केवल दंसणे, आभिणिबोहियनाणे जाव विभंगनाणे, आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणा परिग्गहसण्णा, ११. ओलसरीरे सिरे आहारणसरीरे तेयगसरीरे कम्मगसरीरे, मणजोगे वइजोगे कायजोगे, सागारोवओगे, अणागारोवओगे, १२. जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते नण्णत्थ आयाए परिणमंति ? गण्णत्थ आयाए 'परिणमंति' त्ति नान्यत्रात्मनः परिणमंति- आत्मानं वर्जयित्वा नान्यत्रैते वर्त्तन्ते, ( वृ० प० ७७७ ) १३. हंता गोयमा ! पाणाइवाए जाव सव्वे ते नण्णत्थ आयाए परिणमति । (१० २०२०) १७. जीवे णं भंते ! गब्भं वक्कममाणे कतिवण्णं कतिगंध कतिरसं कतिफासं परिणामं परिणमइ ? श० २०, उ०३, ढा० ४०१ २५५ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. इम जिम बारम शतक में जी, पंचमुद्देशे रे ख्यात । तिम कहिवूं ते क्या लगे जी, आगल तसु अवदात || १९. जाव जीव कर्मे करी जी, परिणमे नाना रे भाव । अकर्म थी नहि परिणमै जी, सेवं भंते! कहाव ।। २०. वीसम शतके अर्थ थी जी, तृतीय उद्देशक ख्यात । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय जय' सुख रलियात || विशतितमशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥ २०|३|| सोरठा २१. तृतीय उक्त परिणाम, फुल परिणाम थकी हि इंद्रिय उपचय ताम, तरलक्षण परिणाम हिव ॥ इन्द्रियोपचय पद २२. *कतिविध हे भगवंत जी उपचय ते चिणवं का ं रे २३. श्रोतेंद्रिय उपचय कहा जी पद नरम पत्रवण विषे जी, रे, इंद्रिय उपचय धार ? जिन कहै पंच प्रकार ।। इंद्रिय द्वितीय उदेश । आख्यो तेम अशेष ।। २४. सेवं भंते ! स्वामजी रे, इम कही गोतम स्वाम जावत विचरे महामुनि रे, संजम तप गुण धाम ।। २५. शत वीसम तुर्य उदेश के जी, कही ढाल च्यार सौ रे एक । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय जय' हरष विशेख | विशतितमशते चतुर्थोद्देशकार्थः || २०|४|| ढाल : ४०२ १. तुर्य उद्देशक नैं विषे, ते परमाणु करि हुवे परमाणु में वर्णादि भंग हा २. पिरमाणु पुद्गल भगवंत ! किता वर्ण किता गंध त केतला रस केतला फास, प्रभु ! आप परूप्या तास ? * लय : कांसी जल नहि भेदं लय: म्हारी सासू रो नाम छे फूली २५६ भगवती जोड़ इंद्रिय उपचय ख्यात । पंचम तसु अवदात || १०. एवं जहा बारसमस पंचमुखे ( ० १२० ११९ ) (सं० पा०) १९. जाव कम्मओ णं जए तो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ । ( ० २०/२२ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ | (श० २०:२३) २१. तृतीये परिणाम उक्तश्चतुर्थे तु परिणामधिकारादिन्द्रियोपचयलक्षणः परिणाम एवोव्यते ( वृ० प० ७०७) २२. कतिविहे णं भंते! इंदियोवचए पण्णत्ते ? गोयमा | पंचविहे इंदियोवच पण्णत्ते जहा २३. सदियो एवं बितिओ इंदियउद्देसओ (प० १५ २) निरवसेसो भाणियव्वो जहा पण्णवणाए ( श० २०/२४) २४. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे जाव विद ( श० २०/२५ ) १. चतुर्थे इन्द्रियोपचय उक्तः, स च परमाणुभिरितिपञ्चमे परमाणस्वरूपमुच्यते । ( वृ० प० ७७८) २. परमाणुणं भंते । कवि, कतिगंधे कतिरसे, कतिफासे पण्णत्ते ? Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. प्रभु कहै वर्ण इक जास, इक गंध इक रस दोय फास । जो एक वर्ण तसु होय, तो कदाचित कृष्ण वर्ण जोय ।। ४. कदाचित नीलो कदा लाल, कदा पीलो कदा शुक्ल भाल। जो एक गंध हुवै तो कथिद, कदा सुगंध कदा दुर्गध ।। ३. गोयमा ! एकवणे, एगगंधे, एगरसे, दुफासे पण्णत्ते । जइ एगवणे ? सिय कालए, ४. सिय नीलए, सिय लोहियए, सिय हालिद्दए, सिय सुक्किलए। जइ एगगंधे ? सिय सृब्भिगंधे, सिय दुब्भिगंधे। ५. जइ एगरसे ? सिय तित्ते, सिय कडुए, सिय कसाए सिय अंबिले, सिय महुरे। ६. जइ दुफासे? १. सिय सीए य निद्धे य, ७. २. सिय सीए य लुक्से य, सिय उसिणे य निद्धे य, ५. जो एक रस तिणमें होय, तो कदा तिक्त कदा कटुक जोय । कदा कषायलो रस पाय, कदा खाटो कदा मीठो थाय ।। ६. जो फर्श हुवै तिणमें दोय, तिणरा च्यार भांगा अवलोय। कदा शीत अनै निद्ध जाण, ए प्रथम भांगो पहिछाण ।। ७. कदाचित शीत फून लुक्ष, ए द्वितीय भांगो है प्रत्यक्ष । कदा उष्ण अनै वलि निद्ध, ए तृतीय भांगो है प्रसिद्ध ।। ८. कदा उष्ण अनैं लुक्ष होय, ए तुर्य भांगो अवलोय । कर्कश मृदु गुरु लघु नाहि, ए च्यारूं बादर रै मांहि ।। सोरठा ९. वर्ण तणां भंग पंच, गंध नां बे पंच रस तणां । __ फर्श तणां चिहुं संच, परमाणु नां सोल भंग ।। ८. ३. सिय उसिणे य लुक्खे य। (श० २०१२६) १६ | परमाणु नां १६ भांगा कहै छ १ कदाचित तीखो ५ वर्ण नां ५ भांगा कहै छ-- ।२ कदाचित कडुओ |१ कदाचित कालो | ३ कदाचित कसायलो |२ कदाचित नीलो |४ कदाचित खाटो | ३ कदाचित रातो | ५ कदाचित मीठो |४ कदाचित पीलो ४ | स्पर्श नां४ भांगा कहै छ ।५ कदाचित धवलो 1१ कदाचित शीत निद्ध २१ गंध नां २ भांगा कहै छै |२ कदाचित शीत लुक्ख १ कदाचित सुगंध |३ कदाचित उष्ण निद्ध |२ कदाचित दुगंध | ४ कदाचित उष्ण लुक्ख ५] रस नां ५ भांगा कहै छै | इम परमाणु पुद्गल नां १६ भांगा थया द्विप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग १०. *प्रभु ! द्विप्रदेशिक खंध मांहि, किता वर्ण ? एवं जिम ताहि । अठारम शत षष्टमुद्देश, जाव सिय चिहं फर्श विशेष ।। १०. दुप्पएसिए णं भंते ! खध कतिवणे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? एवं जहा अट्ठारसमसए छठ्ठद्देसए (१८१११२) जाब सिय च उफासे पण्णत्ते । सोरठा ११. जाव शब्द रै माय, किता गंध रस केतला। किता फर्श कहिवाय ? इम पूछयां प्रभुजी कहै ।। १२. कदा एक वर्ण होय, कदाचित बे वर्ण ह। कदा गंध इक जोय, कदाचित बे गंध ह ।। १३. कदाचित रस एक, कदाचित बे रस हवै। कदा फर्श बे पेख, कदाचित त्रिण फर्श है। *लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली १२. गोयमा ! सिय एगवणे, सिय दुवण्णे, सिय एगगंधे, सिय दुगंधे, १३. सिय एगरसे, सिय दुरसे, सिय दुफासे, सिय तिफासे श० २०, उ० ५, ढा०४०२ २५७ Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. जइ एगवणे ? सिय कालए जाव सिय सुक्किलए। १६. जइ दुवण्णे ? १. सिय कालए य नीलए य, १७. २. सिय कालए य लोहितए य, ३. सिय कालए य हालिद्दए य, ४. सिय कालए य सुक्किलए य, १८. ५. सिय नीलए य लोहियए य, ६. सिय नीलए य हालिद्दए य, ७. सिय नीलए य सुक्किलए य, १९. ८. सिय लोहियए य हालिद्दए य, ९. सिय लोहियए ___ य सुक्किलए य, २०. १०. सिय हालिद्दए य सुक्किलए य, एवं एए दुयासंजोगे दस भंगा। २१. जइ एगगंधे ? सिय सुब्भिगंधे, सिय दुब्भिगंधे । १४. जाव शब्द में एह, आग सूत्र विषेज छै। कदा फर्श चिहुं लेह, तिणसू इहां कह्यो नथी। इकयोगिक वर्ण नां ५ भांगा१५. *जो एक वर्ण हुवै सोय, तो कदा कृष्ण वर्ण अवलोय । जाव कदाचित शुक्ल वर्ण संच, इकयोगिक वर्ण नां पंच ।। द्विकयोगिक वर्ण नां १० भांगा१६. जो वर्ण हतिण में दोय, तो कदा कृष्ण अने नील होय । एक प्रदेश ह तसु कालो, एक प्रदेश नील निहालो ।। १७. कदाचित कालो ने लाल, कदा कृष्ण अनैं पीलो भाल । कदा कृष्ण अने शुक्ल धार, कृष्ण थी द्विकयोगिक च्यार ।। १८. कदा नील अने वलि लाल, कदा नील नैं पीलो भाल । कदा नील ने शुक्ल सुचीन, नील वर्ण ते भांगा तीन ।। १९. कदा एक लाल एक पीत, कदा लाल ने शुक्ल संगीत । लाल वर्ण थकी अवलोय, द्विकयोगिक भांगा दोय ।। २०. कदा पीलो नै शुक्ल संपेख, पीत वर्ण थी भांगो है एक । द्विकयोगिक ए दश भंग, कह्या पंच वर्ण नां सुचंग ।। गंध ना २ भांगा२१. जो बिहुँ में गंध व एक, तो कदा दोनूं सुगंध संपेख । कदा दोन दुर्गंधज होय, इकयोगिक गंध नां दोय ।। द्विकयोगिक गंध नों १ भागो२२. जो दोय गंध तिणमें होय, तो एक प्रदेश सुगंध जोय । एक प्रदेश दुर्गंध देख, त्रिण भांगा ए गंध नां पेख ।। रस ना १५ भांगा ... २३. रस नां वर्ण नी पर संच, इकयोगिक भांगा पंच। द्विकयोगिक दश अवलोय, कहिवा सर्व विचारी जोय ॥ फर्श नां ९ भांगा - २४. जो फर्श हव तिण में दोय, तो कदा शीत अने निद्ध होय। इम जिम परमाणु विषेह, च्यार भंग कह्या तिम लेह ।। २५. च्यारूं जुजुआ कहियै सोय, धुर शीत अने निद्ध होय । विषम गुण निद्ध करि बंध तास, बिहुं प्रदेशे शीत विमास ।। २६. कदा शीत अने लुक्ष होय, विषम गुण लुक्ष करि बंध जोय । बिह प्रदेश शीत विचार, ए द्वितीय भंग अवधार ।। २७. कदा उष्ण अर्ने निद्ध होय, विषम गुण निद्ध करि बंध जोय । बिहु प्रदेश उष्णज फास, ए तृतीय भंग सुविमास ।। २८. कदा उष्ण अनै लुक्ष होय. विषम गुण लक्ष करि बंध जोय। बिहं प्रदेश उष्णज अंग, दोय फर्श नां ए चिहं भंग ।। तीन फर्श ना भांगा-- २९. जो तीन फर्श तिण में होय, तो सर्व शीत अवलोय । एक प्रदेश ते देश निद्ध, एक प्रदेश लूक्ष प्रसिद्ध ।। *लय : म्हारी सासू रो नाम छै फूली २२. जइ दुगंधे ? सुन्भिगंधे य दुन्भिगंधे य । २३. रसेसु जहा वण्णेसु । २४. जइ दुफासे ? १. सिय सीए य निद्धे य, एवं जहेब परमाणुपोग्गले ४ । २९. जइ तिफासे? १. सब्वे सोए देसे निद्धे देसे लक्खे, २५८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. तथा सर्व उष्ण द्वं प्रसिद्ध तिनमें एक एक प्रदेश लुक्षज जाण, ए द्वितीय भंग ३१. तथा दोनूं स्निग्ध संगीत, तिणमें एक देश एक प्रदेश उष्णज होय, ए तृतीय भंग ३२. तथा दो लक्ष संगीत, एक प्रदेश उष्णज फास ए च्यार फर्श नों १ भांगो ते माहिलो छे चोथो भांगो द्विप्रदेशिक खंधे वर्णादिक नां ४२ भांगा नो यंत्र- | तित्ते तित्ते fani १५ | द्विप्रदेशी खंध में वर्ण नां भांगा १५ ३३. जो च्यार फर्श तिण में होय, तो एक शीत एक उष्ण जोय । तेहिज एक निध एक लुक्ष, चिहुं फर्ण नों इक भंग वक्ष ।। ३४. वर्णनां परं गंध नां तीन रसनो पनरं भांगा सुचीन । फर्श नां नव भांगा जगीस द्विप्रदेशिक तो बयालीस | इकसंयोगे वर्ण नां भांगा ५ पूर्ववत कहिवा | द्विकसंयोगे भांगा १० कहै छे नीलए लोहियए हालिए १ कालए २ कालए ३ कालए ४ कालए ५ नीलए ६ नीनए | ७ नीलए | ८ लोहियए | ९ लोहियए सुक्किलए लोहियए हालिए सुक्किलए हालिए सुक्किलए सुक्किलए १० हालिए ३ | गंध नां ३ भांगा कहै छे इकसंयोगे २ भांगा ते पूर्ववत कहिवा द्विकसंयोगे १ भांगो | सुगंधेदुभिगंधे १५ | रस नां १५ भांगा कहे छं इकसंयोगे भांगा ५ पूर्ववत 1 प्रवेशज निद्ध । पहिछाण || हुवै शीत । अवलोय || शीत । सुविमास || । सीए । सीए एक कडुए कडुए | कडुए | कसाए । उसिणे | उसिणे कसाए अंबिले कसाए अंबिले महुरे अंबिले कसाए | अंबिले ९ । स्पर्श नां ९ भांगा कहै छे द्विक्संयोगे ४ भांगा कहै छे गिद्धे सुबे णिद्वे महुरे महुरे लक्खे त्रिसंयोगे ४ भांगा कहे छे | सब्वे सीए देसे णिद्धे देसे लक्खे । सब्वे उसिणे देसे जिद्धे देसे लुवखे सच्चे गिखे देसे सीए देगे | सव्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिने १ | चउक्कसंयोगे १ भांगो कहै छै - १ देसे सीए देसे उसिणे देसे णि देसेलु | एवं सर्व ४२ भांगा जाणवा! | द्विकसंयोगे भांगा १० कहै छै| तित्ते कडुए त्रिप्रदेशिक स्कंध में वर्णादि भंग ३५. प्रदेशिक बंध भगवान! किता वर्ण इत्यादि विद्वान। शत अठारमे छठे निवास, कह्यो तेम जावत चिहुं फास ।। ३६. जो एक वर्ण तणमें होय, तो कदा कृष्ण वर्ण बिहं जोय जाय शुक्ल वर्ण हिं संच, इकयोगिक भंगा पंच ॥ ३७. द्विकयोगिक दश भंग होय, द्विप्रदेशिक जिम अवलोय । एक वर्ण तणां इम जाण, पूर्ववत पनर भंग आण || ३०. २. सव्वे उसिणे देसे निले देसे लक्खे, ३१. ३. सच्चे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे, ३२. ४. सब्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे । ३३. जइ चउफासे ? १. देसे सीए देस उसिणे देसे नि एए नव मंगा फासे ( श० २०/२७) देसेल ३५. तिपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवण्णं ? जहा अट्ठारसमए खट्ट (१८११३) जाय उकासे पण ३६. जइ एगवण्णे ? सिय कालए जाव सुविकलए । ० २० उ० ५ ढा० ४०२ २५९ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. जइ दुवण्णे ? १. मिय कालए य नीलए य, ४२. २. सिय कालए य नीलगाय, ४३. ३. सिय कालगा य नीलए य, ४४. १. सिय कालए य लोहियए य, द्विकसंयोगे ३ भागा--- ३८. जो वर्ण हवै तिणमें दोय, तो कदा इक वच कृष्णज होय। एक वचन नील पिण जाण, हिव तेहनों न्याय पिछाण ।। सोरठा ३५. तीन प्रदेशिक खंध, बे नभ-प्रदेश में रह्या । इक नभ एक कहंद, इक नभ दोय प्रदेश ह ।। ४०. कृष्ण एक प्रदेश, एक आकाश विषे रह्यो। दोय नील पिण शेष, ते पिण इक नभ में रह्या।। ४१. तीन प्रदेशिक खंध, इम बे नभ माहे रह्यां । इक वचने बिहु संध, अन्य स्थान पिण इह विधे । ४२. *कदा कृष्ण वर्ण इक होय, नील बह वच प्रदेश दोय । त्रिप्रदेशिक खंध विशेष, रह्यो तीन आकाश प्रदेश ।। ४३. कदा बहु वच कृष्ण ह्नदोय, रह्या दोय प्रदेश में जोय । नील इक वच एक प्रदेश, रह्यो एक प्रदेश विशेष ।। कृष्ण लाल संघाते ३ भांगा४४. कदा एक कृष्ण सुविशेष, इक वच लाल ह्व दोय प्रदेश। ते दोन पुद्गल नां प्रदेश, रह्या एक आकाश विशेष ।। ४५. कदा कृष्ण एक प्रदेश, बह वच लाल दोय सूविशेष । ते दोन पुद्गल नां देश ताहि, रह्या दोय प्रदेश रै मांहि ।। ४६. कदा बहु वच कृष्ण ह दोय, रह्या दोय प्रदेश में सोय । एक प्रदेश लाल सुचीन, कृष्ण लाल थी ए भंग तीन ।। ४७. इम कृष्णज पीला संघात, भणवा भांगा तीन विख्यात । इम कृष्ण शुक्ल साथे सोय, तीन भांग। भणवा अवलोय ।। ४८. इम नीलज लाल संघात, तीन भांगा तणों अवदात । इम नील पीला साथे पेख, कहिवा तीन भांगा सूविशेख ।। ४९. इम नील शुक्ल रै संग, भणवा विध सं त्रिण भंग। इम लाल पीत संग ताय, ए तो भंग तीन कहिवाय ।। ५०. इम लाल शुक्ल रै साथ, वारू भांगा तीन विख्यात । इम पील शुक्ल संग सोय, ए तो तीन भांगा अवलोय ।। ५१. इम सगलाई सुजगीस, दश नै त्रिगुणा कियां तीस । द्विकसंयोगे इम ख्यात, हिव त्रिकयोगे अवदात ।। त्रिकसंयोगिक वर्ण नां १० भांगा--- ५२. जो वर्ण हुवै तिणमें तीन, तो कदा कृष्ण नील लाल चीन । कदा कृष्ण नील पोल होय, कदा कृष्ण नील शुक्ल जोय ।। ४५. २. सिय कालए य लोहियगा य, ४६. ३. सिय कालगा य लोहियए य, ४७. एवं हालिद्दएण वि समं ३, एवं सुक्किलेण वि समं ३, ४८. सिय नीलए य लोहियए य एत्थ वि भंगा ३, एवं हालिद्दएण वि समं भंगा ३, ४९. एवं सुक्किलेण वि समं भंगा ३, सिय लोहियए य हालिद्दए य भंगा ३, ५०. एवं सुक्किलेण वि समं ३, सिय हालिद्दए य सुक्किलए य भंगा ३, ५१. एवं सब्वे ते दस दुयासंजोगा भंगा तीसं भवति । ५३. कदा कृष्ण लाल पीलो जाण,कदा कृष्ण लाल शुक्ल माण । कदा कृष्ण पीत शुक्ल सोय, षट भांगा ए कृष्ण थी होय ।। ५२. जइ तिवण्णे? १. सिय कालए य नीलए य लोहियए य, २. सिय कालए य नीलए य हालिद्दए य, ३. सिय कालए य नीलए य सुक्किलए य, ५३. ४. सिय कालए य लोहियए य हालिद्दए य, ५. सिय कालए य लोहियए य सुक्किलए य, ६. सिय कालए य हालिद्दए य सुक्किलए य, ५४. ७. सिय नीलए य लोहियए य हालिद्दए य, ८. सिय नीलए य लोहियए य सुक्किलए य, ९. सिय नीलए य हालिद्दए य सुक्किलए य, १० सिय लोहियए य हालिद्दए य सुक्किलए य, ५४. कदा नील लाल पीलो पेख, कदा नील लाल धवलो देख। कदा नील पील शुक्ल सोय, कदा लाल पीलो शुक्ल होय ।। * लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली २६० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. एवं एए दस तियासंजोगा। ५६. जइ एगगंधे ? सिय सुब्भिगंधे, सिय दुब्भिगंधे । ५७-५९. जइ दुगंधे ? सुब्भिगंधे य दुब्भिगंधे य भंगा ३ । ६०. रसा जहा वण्णा । ६१. जइ दुफासे? सिय सीए य निद्धे य, एवं जहेव दुपए सियस्स तहेव चत्तारि भंगा। ६२. जइ तिफासे ? १. सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे, ५५. त्रिकयोगिक ए दश देख, द्विकयोगिक तीस संपेख : इकयोगे पंच जगीस, वर्ण नां भंग पैतालीस ।। गंध नां ५ भांगा५६. जो एक गंध तिणमें चीन, तो कदा सुगंध प्रदेश ह तीन । कदा दुर्गध तीनई होय, इकयोगिक भंग ए दोय ।। द्विकयोगे गंध ना ३ भांगा - ५७. जो गंध हवै तिणमें दोय, तो सुगंध एक वच होय । दुर्गध एक वचनेह, न्याय पूर्वली परि लेह ।। ५८. तथा सुगंध एक वच होय, बहु वच दुर्गंध प्रदेश दोय । ते खंध नां दोनं प्रदेश, रह्या दोय प्रदेश अशेष ।। ५९. बहु वच सुगंध दोय प्रदेश, रूंध्या दोय प्रदेश विशेष । इक वच दुर्गध एक प्रदेश, तीन प्रदेश में त्रिहं शेष ।। रस ना ४५ भांगा-- ६०. वर्ण जिम रस नां पैतालीस, इकयोगे पंच जगीस। द्विकयोगे तीस विचार, त्रिकयोगे दश अवधार ।। फर्श ना २५ भांगा६१. जो दोय फर्श तिणमें होय, तो कदा शीत निद्ध बिहुं जोय । द्विप्रदेशक नां कह्या जेम, कहिवा च्यारूं भांगाधर पेम ।। त्रिकयोगे फर्श ना १२ भांगा -- ६२. जो तीन फर्श तिणमें होय, तो सर्व शीत फर्श अवलोय । देश निद्ध ते एक प्रदेश, देश इक वच लक्ष विशेष ।। सोरठा ६३. निद्ध एक प्रदेश, लक्ष दोय प्रदेश जे। ते बिहं इक नभ लेश, इम निद्ध लुक्ष बिहं एक वच ।। ६४. *तथा सगलाइ शीत प्रत्यक्ष, देश निद्ध अने देशा लुक्ष । ए त्रिप्रदेशिक सुविशेष, रह्यो तीन आकाश प्रदेश ।। ६५. तथा सगलाई शीतज होय, बह देश निद्ध अवलोय । एक देश लुक्ष सुविचार, ए तृतीय भंग अवधार ।। सर्व उष्ण संघाते ३ भांगा--- ६६. सर्व उष्ण देश निद्ध देख, देश लुक्ष बिहं वच एक । शीत संघाते त्रिण भंग ख्यात, तिम कहिवा उष्ण संघात।। ६७. सर्व निद्ध देश एक शीत, एक देश उष्ण सुवदीत । इम भांगा तीनज भणवा, इक वच बहु वच करि इम थुणवा ।। ६८. सर्व लक्ष देश एक शीत, एक देश है उष्ण वदीत । इम भांगा तीनज करिवा, पूर्वली परै उच्चरिवा ।। च्यार फर्श नां ९ भांगा ६९. देश शीत देश उष्ण जाण, देश निद्ध देश लक्ष माण। च्यारूं एक वचन कहिवाय, हिव सुणजो तेहनों न्याय ।। *लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली ६४. २. सवे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा, ६५. ३. सव्वे सीए देसा निद्धा देसे लुक्खे, ६६. सव्वे उसिण देसे निद्धं देसे लुक्खे, एत्थ वि भंगा तिणि, ६७. सव्वे निढे देसे सीए देसे उसिणे भंगा तिपिण, ६८. सब्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे भंगा तिण्णि । ६९. जइ च उफासे ? १. देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, श०२०, उ०५, ढा०४०२ २६१ Jain Education Intemational Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३. २. देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा, सोरठा ७०. दोय प्रदेशज मांय, तीन प्रदेशिक खंध जे। शीतादिक इण न्याय, बिहं पद एक वचन कहूं।। ७१. शीत दोय प्रदेश, एक प्रदेश विषे रह्या । इक वच तास कहेस, दूजा नभ में उष्ण इक ।। ७२. बिहं शीत वच एक, ते बिहुं निद्ध वच एक है। दूजो उष्ण संपेख, तेह लुक्ष पिण एक वच ॥ ७३. *देश शीत देश उष्ण जाण, देश निद्ध देशा लुक्खा माण। त्रिहुं धुर इक वच बहु अंत, तिके बे नभ मांहि रहंत ।। सोरठा ७४. इक नभ प्रदेश मांय, दोय शीत ते एक निद्ध । एक लुक्ख कहिवाय, द्वितीय नभे इक उष्ण लुक्ख ।। ७५. *देश शीत देश उष्ण जाण, देशा निद्धा देश लुक्ख माण। पद तृतीय बहु इक शेख, रह्या बे नभ माहे संपेख ।। सोरठा ७६. इक नभ प्रदेश मांय, दोय शीत ते एक निद्ध । एक लुक्ख कहिवाय, द्वितीय नभे इक उष्ण निद्ध ।। ७७. *देश शीत देशा उष्णा जाण, देश निद्ध देश लुक्ख माण । बहु वच द्वितीय पद इक वच तीन, रह्या बे नभ मांहे सुलीन ।। १५. ३. देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसे लुक्खे, २७. ४. देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे, ७९. ५. देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसा लुक्खा, सोरठा ७८. इक नभ प्रदेश मांय, दोय निद्ध ते शीत इक । एक उष्ण कहिवाय, द्वितीय नभे इक लुक्ख उष्ण ।। ७१. *देश शीत देशा उष्णा जाण, देश निद्ध देश लुक्खा माण। तीन प्रदेशियो खंध ताय, रह्यो तीन प्रदेश रै मांहि ।। सोरठा ८०. धुर नभ शीतज निद्ध, द्वितीय प्रदेशे उष्ण लुक्ख । तृतीय नभे रु प्रसिद्ध, उष्ण तिको इज लुक्ख फुन ।। ८१. *देश शीत देशा उष्णा जाण, देशा निद्धा देश लुक्ख माण । तीन प्रदेशियो खंध ताहि, रह्यो तीन प्रदेश रै मांहि ।। १. ६. देसे सीए देसा उसिणा देसा निद्धा देसे लुक्खे, सोरठा २२. धुर नभ शीतज लुक्ख, द्वितीय प्रदेशे उष्ण निद्ध । तृतीय प्रदेशे बक्ख, उष्ण तिकोइज निद्ध फुन ।। ८३. *देशा शीता देश उष्ण जाण, देश निद्ध देश लुक्ख माण। दोय प्रदेश में रह्यो चीन, धुर बहु वच इक वच तीन ।। *लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली ८३.७. देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, २६२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational ducation International Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ८४. इक नभ में निद्ध दोय, एक शीत द्वितीय प्रदेशे जोय, एक लुक्ख ते ८८. दोय प्रदेश ₹ ते वह वचन ८९. * तीन प्रदेशिक ८५. *देशा शीता देश उष्ण जाण, देश निद्ध देशा लुक्खा माण | तीन प्रदेशियो बंध ताहि रह्यो तीन प्रदेश रे मांहि ॥ सोरठा ८६. बे नभ प्रदेश मांय, दोय शीत ते लुक्ख बिहुं । ए बहु वच इण न्याय, इक प्रदेश में उष्ण निद्ध ।। ८७. * देशा शीता देश उष्ण जाण, देशा निद्धा देश लुक्ख माण । तीन प्रदेशियो खंध ताहि, रह्यो तीन प्रदेश रं मांहि || सोरठा मांय, दोय शीत ते निद्ध बिहुँ । कहाय, एक प्रदेशे उष्ण लुक्ख || इक बंध, फर्श नैं विषे तास कथंद | पंचवीस भंग थाय, ते जुदा-जुदा कहिवाय ॥ १ कालए १ नीलए १ २ कालए १ नीलगा ३ ३ कालगा ३ नीलए १ उष्ण ते । फुम ।। ९०. दोय फर्श तथा भंग प्यार, तीन फर्श तणां का बार च्यार फर्श नव सुजगीस, इम फर्श तणां पणवीस || ६ इम कृष्ण लाल संघाते ३ भांगा कहै है । ९ इम कृष्ण पीला संघाते ३ भांगा कहै छ । शीत ९१. वर्णनां पैंतालीस निहाली, गंध नां पंच रस नां फर्श नां पणवीस जगीस, एवं सर्व एक सौ तीनप्रदेशिक बंधे वर्णादिक नां १२० भांगा नों यंत्र४५ तीन प्रदेशी बंधे वर्ण नां ४५ भांगा । एकसंयोगे वर्ण नां ५ भांगा पूर्ववत द्विक्संयोगे वर्ण नां ३० भांगा ते कहै - १२ इम कृष्ण धवला संघाते ३ भांगा कहै छ । १५ इम नील लाल संघाते ३ भांगा कहै छ । १८ इम नील पीला संघाते ३ भांगा कहै छे २१ इम नील धवला संघाते ३ भांगा कहै छै । २४ इम लाल पीला संघाते ३ भांगा कहै छ । २७ इम लाल धवला संघाते ३ भांगा कहै छै । ३० इम पील धवला संघाते ३ भांगा कहै छ । * लय : म्हारी सासू रो नाम छँ फूली ताली । बीस || ८५. ८. देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा. ८७ ९. देसा सीया देसे उसणे देसा निद्धा देसे लुवखे, ८९. एवं एए पिएसिए फासेस पणवीसं भंगा । ९०. 'पणवीसं भंग' चतुर्द्वादशनवानां भवन्ति । (श० २०१२० ) त्ति डिषिचतु: स्पर्श सम्बन्धिनां मीलनात् पञ्चविंशतिर्भङ्गा ( वृ० प० ७८३) श०२० उ०५ ढा० ४०२ २६३ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिकसंयोगे वर्णनां १० भांगा ते कहै छै१ कालए नीलए लोहियए २ कालए नीलए पीलए ३ कालए नीलए सुक्किलए ४ कालए लोहियए पीलए ५ कालए लोहियए सुक्किलए ६ कालए पीलए सुक्किलए ७ नीलए लोहियए पीलए ८ नीलए लोहियए मुक्किलए ९ नीलए पीलए सुक्किलए १० लोहियए पीलए सुक्किलए ५ गंध नां ५ भांगा इकसंयोगे पूठली परै २ भांगा द्विकसंयोगे ३ भांगा--- १ सुगंध १ दुर्गध १ २ सुगंध १ दुर्गंध ३ ३ सुगंध ३ दुर्गंध १ ४५ रस ना ४५ वर्ण नी पर कहिवा । फर्श नां २५ भांगा कहिवा । द्विकसंयोग ४ भांगा पूर्ववत त्रिकसंयोगे १२ भांगा कहै छ१ सर्व शीत देश निद्ध १ देश लुक्ख १ २ सर्व शीत देश निद्ध १ देशा लुक्खा ३ ३ सर्व शीत देशा निद्धा ३ देश लुक्ख १ ६ इम सर्व उष्ण देश निद्ध देश लुक्ख संघाते ३ भागा कहिवा ९ इम सर्व निद्ध देश शीत देश उष्ण संघाते ३ भांगा कहिवा १२ इम सर्व लुक्ख देश शीत देश उष्ण संघाते ३ भांगा कहिवा ९ चउक्कसंयोगे ९ भांगा कहै छै-- १ देश शीत १ देश उष्ण १ देश निद्ध १ देश लुक्ख १ २ देश शीत १ देश उष्ण १ देश निद्ध १ देशा लुक्खा ३ ३ देश शीत १ देश उष्ण १ देशा निद्धा ३ देश लुक्ख १ ४ देश शीत १देशा उष्णा ३ देश निद्ध १ देश लुक्ख १ ५ देश शीत १ देशा उष्णा ३ देश निद्ध १ देणा लुक्खा ३ ६ देश शीत १ देशा उम्णा ३ देशा निद्धा ३ देश लुक्ख १ ७देशा शीता ३ देश उष्ण १ देश निद्ध १ देश लुक्ख १ ८ देशा शीता ३ देश उष्ण १ देश निद्ध १ देशा लुक्खा ३ ९ देशा शीता ३ देश उष्ण १ देशा निद्धा ३ देश लुक्ख १ एवं त्रिप्रदेशिक खंध ना १२० भांगा जाणवा। च्यारप्रदेशिक स्कन्ध में वर्गादि भंग १२. प्रभ ! च्यार प्रदेशिक खध, तिणमें केतला वर्ण कथंद ? अठारमे षष्टम उद्देश, तिहां आख्या तेम कहेश ।। तिगामें केताना वर्ष काम १२ जापानिए तर तियो कतिषाण ? जहा ९२. चउप्पएसिए णं भंते ! खंधे कतिवणे? जहा अट्ठारसमसए (१८६११४) २६४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३. जाव सिय चउफासे पण्णत्ते। जइ एगवणे ? सिय कालए य जाव सुक्किलए । २६. जइ दुवष्णे? १. सिय कालए य नीलए य, ९८. २. सिय कालए य नीलगाय, ९०. ३. सिय कालगा य नीलए य, ९३. जाव कदाचित चिहुं फास, पाठ कहि इहां लग तास । जो एक वर्ण कहिवाय, तो कदा कृष्ण जाव शुक्ल थाय ।। सोरठा ९४. कदा कृष्ण चिहुं होय, कदाचित चिहं नील वर्ण । कदा लाल चिहुं जोय, कदाचित चिहं पील वर्ण ।। ९५. कदा धवल ह च्यार, चउप्रदेशिक खंध नां । इकयोगे अवधार, भंग पंच इणविध हुवै ।। द्विकयोगिक ४० भांगा९६. *जो दोय वर्ण तिणमें होय, तो कदा कृष्ण नील अवलोय । बिहं इक वचने करि थाय, हिवै कहियै छै तसु न्याय ।। सोरठा ९७. कृष्ण वर्ण नां ताहि, बे प्रदेश ते पिण रह्या । इक नभ प्रदेश मांहि, इम बे प्रदेश नील नां ।। ९८. "तो कदा कृष्ण एक वच जाण, नील बहु वचने करि माण । इक नभ प्रदेश में काल, नील दोय प्रदेश में न्हाल ।। ९९. कदा बहु वच कृष्ण कहाय, नील इक वचने करि थाय । कृष्ण बहु नभ प्रदेश मांय, नील एक प्रदेश में पाय ॥ १००. कदा कालगा नीलगा जोय, कृष्ण वर्ण नां प्रदेश दोय । रह्या दोय प्रदेशे विशेष, इम नील नां दोय प्रदेश ।। १०१. कदा कृष्ण लाल बच एक, इहां पिण भंग च्यार विशेख । कह्या कृष्ण नील नां जेह, इम कृष्ण लाल नां कहेह ।। १०२. कदा कृष्ण पील वर्ण होय, ते पिण चिहुं भंगा अवलोय । कदा कृष्ण शुक्ल वर्ण धार, ते पिण भणवा भंगा च्यार ।। १०३. कदा नोल लाल पिण थाय, ते पिण चिहं भंगा कहिवाय । कदा नील पील पिण जाण, तेहनां भंग च्यार पिछाण ।। १०४. कदा नील शुक्ल अवधार, भंग इक वच बह वच च्यार। कदा लाल पील अवलोय, तेहनां पिण चिहं भंगा होय ।। १०५. कदा लाल शुक्ल परिणाम, तसु भांगा च्यारज पाम। कदा पील शुक्ल कहिवाय, तसू भांगा च्यारज पाय ।। १०६. कह्या दश द्विकसंयोग एह, इक-इक संयोग विषेह । भंग च्यार-च्यार ह जगीस, दश चउगुणां कियां चालीस ।। त्रिकयोगिक ४० भांगा१०७. जो तीन वर्ण तिण में होय, तो कदा कृष्ण नील लाल जोय । तीन इक वचनेज कहाय, रह्या तीन प्रदेश रै मांय ।। १००. ४, सिय कालगा य नीलगाय, १०१. सिय कालए य लोहियए य एत्थ वि चत्तारि भंगा, १०२. सिय कालए य हालिद्दए य ४, सिय कालए य सुक्किलए य ४, १०३. सिय नीलए य लोहियए य ४, सिय नीलए य हालिद्दए य ४, १०४. सिय नीलए य सुक्किलए य ४, सिय लोहियए य हालिद्दए य ४, १०५. सिय लोहियए य सुक्किलए य ४, सिय हालिद्दए य सुक्किलए य ४. १०६. एवं एए दस दुयसंजोगा भंगा पुण चत्तालीसं । १०.. जइ तिवण्णे ? १. मिय कालए य नीलए य लोहियए *लय : म्हारी सासू रो नाम छ फली श०२०, उ० ५, ढा० ४०२ २६५ Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १०८. एक कृष्ण इक नील, इक इक प्रदेश में रह्या । दोष लाल संमील ते पिण एक प्रदेश में ॥ १०९. कदा कृष्ण एक वचनेह, नील इक वचनेज कहेह | लाल बहु वचने करि ताहि, रह्या च्यार प्रदेश रं मांहि ॥ । J सोरठा ११०. एक कृष्ण इक नील, इक इक प्रदेश में दोय लाल संजील, बे नभ प्रदेश में १११. "कदा कृष्ण एक वच जोय, नील वह बच करिनं लाल इक वचने कहिवाय, रह्या प्यार प्रदेश रे सोरठा । ११२. एक प्रदेश में काल, नील वर्ण प्रदेश बे वे प्रदेश में भाल, एक प्रदेशे लाल इक ॥ ११२. *कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील इक बचने करि जेह लाल इक वचने कहिवाय, रह्या चिउं नभ प्रदेश मांय || । सोरठा ११४. बे नभ प्रदेश मांय, कृष्णज इक इक प्रदेश पाय, एक ११५. *कृष्ण नील नैं लाल संघात, वर्ण प्रदेश वे । नील इक लाल फुन ।। कह्या भांगा च्यार विख्यात । इम कृष्ण नील ने पील, पूर्ववत चिहुं भंग समील ।। ११६. कृष्ण नील शुक्ल पिण एम चिहुं भांगा पूर्व जेम । कृष्ण लाल नैं पील संघात, इम भांगा च्यार विख्यात || ११७. कृष्ण लाल शुक्ल करि धार, इम भांगा भणिवा च्यार । कृष्ण पील शुक्ल ई साथ, इम भांगा चिहुं अवदात || ११८. नील लाल पील संग जाण, इम भांगा प्यार बखाण । नील लाल शुक्ल संग सोय, इम भांगा च्यारज होय ।। ११९. नीलपी शुक्ल संघात इम भांगा बिहू अवदात लाल पील शुक्ल संग ताय, इम भांगा च्यार कहाय ।। त्रिसंयोगे १२०. दश एह. इक इक संयोग विषेह च्यार च्यार भांगा सुजगीस, थया भांगा सर्व चालीस || चतुष्कयोfre ५ मांगा ।. रह्या । रह्या ॥ होय । मांय || १२१. जो च्यार वर्ण तिणमें होय, कदा कृष्ण नील अवलोय । वलि लाल पीलो कहिवाय, चिहुं इक वच धुर भंग थाय ॥ १२२. कदा कृष्ण नील ने लाल, कदा कृष्ण नील ने पील, वलि सुक्कल ए द्वितीय निहाल । *लय : म्हारी सासू रो नाम छँ फूली २६६ भगवती जोड़ वलि सुक्कल ए तृतीय समील ॥ १०९. २. सिय कालए य नीलए य लोहियगा य, १११. ३. सिय कालए य नीलगाय लोहियए य, ११३. ४. सिय कालगा य नीलए य लोहियए य, ११५. एए मंगा ४ एवं कालानीसाहालिएहि गंगा ४. ११६. कालनीलक्किल ४ काललो हिपहालि ४, ११७. काल लोहियसुक्किल ४, कालहालिद्दसुक्किल ४, ११. नीलालिगा गंगा ४, नीललोहि४ ११९. नीलहालहक्कल ४ हालिि भंगा ४, १२०. एवं एए दसतियासंजोगा एक्केक्के संजोए चत्तारि भंगा, सब्वे एते चत्तालीसं भंगा । १२१. जइ चडवण्णे ? १. सिय लोहियएव हालिए प १२२. २. सिय कालए य नीलए य कालए य नीलए य लोहियए य सुक्किलए य, ३. सिय कालए य नीलए य हालिद्दए य सुनिए प Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३. ४. सिय कालए य लोहियए य हालिद्दए य सुक्किलए य, ५. सिय नीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुक्किलए य, १२४,१२५. एवमेते चउक्कगसंजोगे पंच भंगा। एए सव्वे नउई भंगा। 'सव्वे नउई भंग' त्ति एकद्वित्रिचतुर्वर्णेषु पञ्च चत्वारिंशत् २ पञ्चानां भङ्गकानां भावान्नवतिस्ते स्युरिति । (वृ० प० ७८३) १२६. जइ एगगंधे ? सिय सुन्भिगंधे, सिय दुन्भिगंधे । १२७. जइ दुगंधे ? मुब्भिगंधे य दुभिगंधे य १२३. कदा कृष्ण लाल पील जाण, वलि सुक्किल ए तुर्य बखाण । कदा नील लाल पील जोय, वलि सुक्किल ए पंचम होय ।। १२४. पंच वर्ण तणां भंग संच, चउक्कसंयोगे इक बच पंच । ___एक वर्ण नां पंच जगीस, दोय वर्ण नां भंग चालीस ।। १२५. तीन वर्ण नां चालीस संच, च्यार वर्ण तणां भंग पंच । वर्ण तणां ए भंगा आख्या, सर्व नेऊ संख्या करि दाख्या ।। गंध नां ६ भांगाइकयोगिक २ भांगा१२६. एक गंध जो कथंद, कदा च्यारूं प्रदेश सुगंध । कदा च्यारूंइ दुर्गध होय, एक संयोगे भंग ए दोय ।। द्विकयोगिक ४ भांगा१२७. जो दोय गंध तिणमें होय, जो कदा सुगंध इक वच जोय । वलि दुगंध इक वचनेह, रह्या इक-इक प्रदेश एह ।। १२८. कदा सुगंध इक वचनेह, रह्यो एक प्रदेश में एह । अन्य दुर्गध बहु वचनेह, बहु प्रदेश में रह्या तेह ।। १२९. कदा सुगंध बहु वचनेह, रह्या बहु प्रदेश विषेह । अन्य दुर्गंध इक वचनेह, एक प्रदेश में रह्यो तेह ।। १३०. कदा सुगंध बहु वच होय, दोय प्रदेश में रह्या दोय । बहु वच दुर्गध बे प्रदेश, रह्या दोय प्रदेश में शेष ।। रस ना ९० भांगा १३१. वर्ण नां नेऊ भांगा ख्यात, तिम रस नां भंग विख्यात । इम रस नां नेऊ भंग होय, वर्ण नी परै कहिवा जोय ।। फर्श ना ३६ भांगाद्विकयोगिक ४ भांगा१३२. जो दोय फर्श तिणमें होय, जिम परमाणु में सुजोय । कह्या च्यार भंग जिह वार, तिम कहिवा इहां पिण च्यार ।। त्रिकयोगिक १६ भांगा ... १३३. जो तीन फर्श तिणमें होय, तो सर्व शीत अवलोय । देश निद्ध अने देश लुक्ष, रह्या बे नभ मांहि प्रत्यक्ष ।। १३१. रसा जहा वण्णा । १३२. जइ दुफासे ? जहेव परमाणुपोग्गले ४ । १३३. जइ तिफासे? १. सव्वे सीए देसे निद्ध देसे लुक्खे, सोरठा १३४. च्यारूं शीतज वक्ष, बे निद्ध इक नभ में हुवै। दोय प्रदेशज लुक्ष, ते पिण इक नभ में रह्या ।। १३४. 'सन्चे सीए' त्ति चतुर्णामपि प्रदेशानां शीतपरिणाम स्वात् १ 'देसे निद्धे' त्ति चतुर्णा मध्ये द्वयोरेकपरिणामयोः स्निग्धत्वात् २ 'देसे लुक्खे' त्ति तथैव द्वयो रूक्षत्वात् ३ इत्येक: (व० प०७८३,७८४) श०२०, उ०५. ढा०४०२ २६७ Jain Education Intemational Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५. * सर्व शीत च्यारूं प्रदेश, देश निद्ध देशा लुक्खा बहु वचने रह्या सोरठा १३६. च्यारूं शीतज वक्ष, बे प्रदेश इक नभ विषे । एक निद्ध एक लुक्ष, द्वितीय नभे बे लुक्ष फुन ।। १३७. सर्व शीत व्याखं प्रदेश, देशा निद्धा बहुवचन विशेष । देश लक्ष एक वचनेह, रह्या दोय प्रदेश विषेह || सोरठा इक वचन विशेष | दोष प्रदेश विषेह || १३५. ज्या शीतज वक्ष बे प्रदेश इक नभ विषे। एक निद्ध एक लुक्ष, द्वितीय नभे बे निद्ध फुन ॥ १३९. सर्व शीत देशा निढा जाण बलि देशा सुक्खा पहिचाण रह्या दोय आकाश प्रदेश हिव एहनों न्याय कहेस ।। 1 सोरठा १४०. व्याहं शीतज वक्ष, वे प्रदेश इक नभ विषे। एक नि इक लुक्ष, द्वितीय नभे पिण इमज वे ।। १४१. सर्व उष्ण देश नि जाण, वलि देश तुक्ष पहिचाण । करिव एहनां भांगा प्यार, पूर्वली पर अवधार || १४२. सर्व निद्ध देश शीत जाण, बलि देश उष्ण पहिचान | एहूनां पिण चिहुं भंग जोय, पूर्वली परं ते होय || १४३. सर्व लक्ष देश छै शीत, वलि देश उष्ण सुवदीत । चिहुं भंगा एहनां करिया, पूर्वली पर उच्च रिवा ॥ १४४. तीन फर्श तणां विख्यात घट दक्ष भांगा आरुपात | हिवै च्यार फर्श नां कहिये, तेहनां पिण षट दश लहिये ।। चतुष्कयोगिक १६ भांगा । १४५. जो प्यार फर्श तिणमें होय, देश सीत देश उष्ण जोय । देश निद्ध देश लक्ख ताहि, रह्या वे नभ प्रदेश मांहि ॥ सोरठा १४६. इक नभ प्रदेश मांय दोष शीत तेहिज निद । द्वितीय प्रदेशे पाय, दोय उष्ण तेहिज लुक्ख ॥। १४७. *देश शीत देश उष्ण पेख, देश निद्ध देशा लुक्खा देख । पद चउथो बहु वचनंत दोय गगन प्रदेश में हूंत ॥ सोरठा १४८. इक नभ प्रदेश मांय, दोय शीत में एक एक लुक्ख कहिवाय, इक नभ वे लुक्ख उष्ण ते ।। निद्ध । *लय : म्हारी सासू रो नाम छं फूली २६८ भगवती जोड़ १३५. २. सब्वे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा, १३७. ३. सब्बे सीए देसा निद्धा देसे लक्खे, १३९. ४. सब्वे सीए देसा निा देसा लक्खा १४१. येउसि देसे निदे दे एवं भंगा ४, १४२. नि देसी देसे उस ४. १४३. सब्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे ४, १४४. एए तिफासे सोलस भंगा। १४५. जइ चउफासे १ १. देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लक्खे, १४७. २. देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९. *देश शीत देश उष्ण जोय, देशा निद्वा देश लुक्ष होय । पद तीजो बहु वचनेह, रह्या दोय आकाश में एह ॥ सोरठा १५०. इक नभ प्रदेश मांय दोष शीत में एक नि। एक लुक्ख कहिवाय, इक नभ बे निद्ध उष्ण ते ।। १५१. *देश शीत देश उष्ण थाय, देशा निद्धा देशा लुक्खा पाय । अंत वे पद वह बच जोय, खंध से नभ में रह्यो सोय ।। सोरठा १५२. इक नभ में वे शीत, एक निढ नैं एक लुक्ख । निद्ध इक नभ उष्ण संगीत, ते पिण इक नि सुक्ख इक ।। १५३. *देश शीत देशा उष्णा जोय, देश निद्ध देश लुक्ख होय । पद द्वितीय बहु वच पेख, रह्या बे नभ मांहि विशेख || १५४. इक नभ प्रदेश मांय, एक उष्ण कहिवाय, १५५. *देश शीत देशा उष्णा ताम, सोरठा दोय नि ते शीत इक/ इक नभ बे लुक्ख उष्ण ते ।। देश निद्ध देशा सुखा पाम । द्वितीय तुर्य वहु वचनेह, खंध तीन आकाश विषेह || सोरठा 3 १२६. इक नभ में वे शीत तेहिज निद्ध कहीजिये। बे नभ विषे संगीत, दोय उष्ण तेहिज लुक्ख ॥। १५७. तथा एक नभ मांप एक शीत तेहिज निढ त्रिण नभ प्रदेश पाय, तीन उष्ण तेहिज लुक्ख || निद्ध । 1 १५. "देश शीत देशा उष्णा जोय, देशा निढा देश लक्ख होय । द्वितीय तृतीय बहु वचनेह, रह्या तीन प्रदेश विषेह || सोरठा १५९. एक नभ प्रदेश मांय, दोष शीत वे नभ प्रदेश पाय, दोय उष्ण १६० तथा एक नभ मांय एक शीत वे नभ प्रदेश पाय, तीन उष्ण १६१. एम अन्य पिण स्थान, जे अनेक जिहां संभव जान, कहियै तेह विचार नं ।। १६२. *देश शीत देशा उष्णा पेख, देशा निद्धा देशा लुक्खा देख । पद प्रथम एक वचनेह, त्रिहुं पद बहुवचन कहेह ।। परिणाम ते । *लय म्हारी सासू रो नाम छं फूली । तेहिज लुक्ख । तेहिज निद्ध || तेहिज लक्ख | तेहिज निद्ध ।। १४९. ३. देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसे लुक्खे, १५१. ४. देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसा लुक्खा, १५३. ५. देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लक्खे, १५५. ६. देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसा लुक्खा, १५८. ७. देसे सीए देसा उसिणा देसा निद्धा देसे लुक्खे, १६२. ८. देसे सीए देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा, ० २० उ० ५ ० ४०२ २६९ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १६२. इक नभ मांहि संगीत, बंध नां दोय प्रदेश जे। शीत, तेहिज इक निद्ध लुक्ष इक ।। धार, खंध नां दोय प्रदेश जे । दोनं उष्ण विचार, तेहिज इक नि लुक्ष इक ।। एक उष्ण इक १६४. द्वितीय नभे फुन १६५. * देशा शीता देश उष्ण जाण, देश निद्ध देश लुक्ख माण । धुर बहु वच इक वच तीन, रह्या दोय आकाश में चीन ॥ सोरठा १६६. इक नभ में निद्ध तीन एक शीत वे उष्ण से द्वितीय प्रदेशे चीन, एक लुक्ष ते शीत छै ।। १६७. अथवा इक नभ मांय, वे निद्ध ते विहं शीत है। द्वितीय प्रदेशे पाय, वे लुक्ख इक शीत उष्ण इक || १६८. "देशा गीता देश उष्ण ताम, देश निद्ध देशा लुक्खा पाम । धुर चरम बहु वच देख, रह्या बे नभ मांहि संपेख || सोरठा १६९. इक नभ में वे शीत, तेहिज इक नि द्वितीय प्रदेश वदीत, वे लुक्ख शीत रु इहा जह । १७० इम ए च्यारू फर्श नां, आख्या सोला भंग । जान सोलमो भंग ते चिहुं पद बहू वच चंग ॥ १७१. जाव शब्द मांहे अर्थ, ग्यारम भंग थी पनरम लग तेहिज कहूं, सांभलिये मित १७२. *देशा शीता देश उष्ण जोय, देशा निद्धा देश लुक्ख होय । बहुवचन प्रथम तृतीयेह, रह्या दोय प्रदेश विषेह || सोरठा लुक्ष इक उष्ण ते ।। 1 १७३. इक नभ में वे शीत तेहिज निद्ध इक लक्ष इक । द्वितीय प्रदेश संगीत, वे निद्ध इक शीत उष्ण इक ।। १७४. "देशा शीता देश उष्ण जोय, देशा निद्धा देशा लुक्खा होय । पद द्वितीय एक वचनेह रह्या तीन प्रदेश विषेह ॥ २७० देह ॥ सोरठा १७५. बे नभ में बे शीत, ते बिहं इक निद्ध एक लुक्ख । तृतीय प्रदेश संगीत, दोय उष्ण ते निद सुख ॥ १७६. "देशा सीता देशा उष्णा देख, देश निद्ध देश लक्ख देख 1 धुर वे पद बिहं वचनेह रह्या दोय प्रदेश विषेह || *लय : म्हारी सासू रो नाम छँ फूली भगवती जोड १६५. ९. देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, १०. एवं एएच उफासे मोलस भंगा भाणियव्वा जाव ય Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १७७. इक नभ में वे निद्ध, ते इक शीत रु उष्ण इक । द्वितीय ने सिद्ध, ते पण इक जीत उष्ण इक १७८. * देशा शीता देशा उष्णा जाण, देश निद्ध देशाखा माण | पद तृतीय एक वचनेह, रह्या तीन प्रदेश विषेह || सोरठा १७९. बे नभ में वे लुक्ष, ते तृतीय नभे इम वक्ष, १८०. * देशा शीता देशा उष्णा जान, पद तुर्य एक वचनेह, सोरठा १८१. वे नभ में बे निद्ध, ते इक शीत रु उष्ण इक । तृतीय नभे इम सिद्ध वे सुक्ख शोत रु उष्ण ते ।। १८२. * देशा शीता देशा उष्णा जोय, देशा निढा देशा लुक्खा होय । पद व्याहं बहु वचनेह, रह्या प्यार प्रदेशे एह || सोरठा १५३. बे नभ में बे निद्ध, ते इक शीत रु उष्ण इक । बे नभ बे लुक्ख सिद्ध, ते इक शीत रु उष्ण इक ।। चिहुं प्रदेशिक खंध में प्यार फर्श पावें, तेहनां १६ भांगा । तेहनों यन्त्र हिवै शीत उष्ण एक वचन संघाते ४ भांगा कहे छे शी० नि० ० ' १ देशा निखा देश लुवख मान । रह्या तीन प्रदेश विषेह || १ उष्ण इक । इक शीत रु वे निद्ध शीत र उष्ण ते ।। रु उ० १ १ १ १ * लय म्हारी सासू रो नाम छं फूली १ ܕ ३ १ ३ १ ३ -- १८२. देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा, श० २०, उ० ५ दा० ४०२ २७१ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं शीत एक वचन, उष्ण बहु वचन करिक ४ भांगा कहै छ---- m हिवं शीत बह वचन, उष्ण एक वचन करिक ४ भांगा कहै छ.... हिवं शीत अन उष्ण बिहुं बहु वचने करि ४ भांगा कहै छ me I m I m m १५. सब्वे एते फासेसु छत्तीस भंगा। (० २०१२९) 'छत्तीसं भंग' ति दित्रिचतुःस्पर्श चतुःपोडशपोडशानां भवादिति (व०प० ७८४) १८४. *ए च्यारूं फर्श नां भंग, कह्या प्रत्यक्ष सोल सूचंग । कह्यो आधार न्याय उदार, वलि बहुश्रुत कहै ते सार ।। १८५. दोय फर्श तणां भंग च्यार, तीन फर्श नां षोडश धार । च्यार फर्श नां सोल जगीस, इम फर्श नां भंग छतीस ।। १८६. वर्ण रस नां नेऊ-नेऊ जाण, वलि गंध नांज छह पिछाण । फून फर्श नां भांगा छतोस, चिहं प्रदेशे बे सौ बावीस ।। च्यारप्रदेशिक खंध नै विषे २२२ भांगा नों यन्त्र-- ९० च्यार प्रदेशिक खंध नै विषे वर्णनां ९० भांगा५ एकसंयोगे पूठली परै ५ भांगा हुदै ४० द्विकसंयोगे ४० भांगा कहै छ १ कालए १ नीलए १ *लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली २७२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कालए १ नीलगा ३ ३ कालगा ३ नीलए १ ४ कालगा ३ नीलगा ३ ८ इम कृष्ण लाल संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवै। १२ इम कृष्ण पील संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ४ भांगा हुवै । १६ इम कृष्ण सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ४ भांगा हुवै। २० इम नील लाल संघाते एक वचन बहु वचन करिक ४ भांगा हुवे । २४ इम नील पील संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ४ भांगा हुवै। २८. इम नील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवे। ३२ इम लाल पील संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवै। ३६ इम लाल सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवै। ४० इम पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवं । त्रिकसंयोगे भांगा ४० ते कहै छ१ कालए १ नीलए १ लोहियए १ २ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ ३ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ ४ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ ८ इम कृष्ण नील पील संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवै। १२ इम कृष्ण नील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुदै । १६. इम कृष्ण लाल पील संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ४ भांगा हुदै । २० इम कृष्ण लाल सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवै। २४ इम कृष्ण पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवै। २८ इम नील लाल पील संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवै। ३२ इम नील लाल सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवै। ३६ इम नील पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ४ भांगा हुदै । श०२०, उ० ५, ढा०४०२ २७३ Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० इम लाल पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिक ४ भांगा हुवै। ५ चतुष्कसंयोगे ५ भांगा कहै छै-- १ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ २ कालए १ नीलए १ लोहियए १ सुक्किलए १ ३ कालए १ नीलए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ ४ कालए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ ५ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ ६ गंध नां ६ भांगा ते कहै छै२ इकसंयोगे २ पूर्ववत ४ द्विकसंयोगे ४ भांगा कहै छ--- १ सुब्भिगंधे १ दुन्भिगंधे १ २ सुब्भिगंधे १ दुब्भिगंधा ३ ३ सुब्भिगंधा ३ दुन्भिगंधे १ ४ सुब्भिगंधा ३ दुब्भिगंधा ३ ९० च्यारप्रदेशिक खंध ने विषे रस नां भांगा ९० थावे, ते वर्ण नां भांगा नों पर कहिवा। ३६ फर्श नां भांगा ३६ ते कहै छै ४ द्विक संयोगे भांगा ४ पूर्वली पर कहिवा । १६ त्रिकसंयोगे भांगा १६ ते कहै छै१ सब्बे सीए १ देसे निद्धे १ देसे लुक्खे १ २ सब्वे सीए १ देसे निद्धे १ देसा लुक्खा ३ ३ सव्वे सीए १ देसा निद्धा ३ देसे लुक्खे १ ४ सव्वे सीए १ देसा निद्धा ३ देसा लुक्खा ३ इम सर्व उष्ण संघाते भांगा ४ कहै छ५ सव्वे उसिणे १ देसे निद्धे १ देसे लुक्खे १ ६ सब्वे उसिणे १ देसे निद्धे १ देसा लुक्खा ३ ७ सब्वे उसिणे १ देसा निद्धा ३ देसे लुक्खे १ ८ सब्वे उसिणे १ देसा निद्धा ३ देसा लुक्खा ३ इम सर्व निद्ध संघाते भांगा ४ कहै छै ९ सव्वे निद्धे १ देसे सीए १ देसे उसिणे १ १० सव्वे निद्धे १ देसे सीए १ देसा उसिणा ३ ११ सव्वे निद्ध १ देसा सीया ३ देसे उसिणे १ १२ सव्वे निद्धे १ देसा सीया ३ देसा उसिणा ३ इम सर्व लुक्ख संघाते भांगा ४ कहै छ१३ सव्वे लुक्खे १ देसे सीए १ देसे उसिणे १ १४ सव्वे लुक्खे १ देसे सीए १ देसा उसिणा ३ १५ सव्वे लुक्खे १ देसा सीया ३ देसे उसिणे १ १६ सव्वे लुक्खे १ देसासीया३ देसा उसिणा ३ चिहंप्रदेशिक खंध में ३ फर्श पावै तेहना १६ भांगा कह्या । चिहुंप्रदेशिक खंध में च्यार फर्श पावै तेहनां १६ भांगा कहै छै१६ १ देसे सीए १ देसे उसिणे १ देसे निद्धे १ देसे लुक्खे १ २७४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational ducation Intermational Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ देसे सीए १ देसे उसिणे १ देसे निद्धे १ देसा लुक्खा ३ ३ देसे सीए १ देसे उसिणे १ देसा निद्धा ३ देसे लुक्खे १ ४ देसे सीए १ देसे उसिणे १ देसा निद्धा ३ देसा लुक्खा ३ ए शीत उष्ण एक वचन ते ४ भांगा कह्या। हिवं शीत एक वचन उष्ण बहुवचन करिक भांगा ४ कहै छ--- ५ देसे सीए १ देसा उसिणा ३ देसे निद्धे १ देसे लुक्खे १ ६ देसे सीए १ देसा उसिणा ३ देसे निद्धे १ देसा लुक्खा ३ ७ देसे सीए १ देसा उसिणा ३ देसा निद्धा ३ देसे लुक्खे १ ८ देसे सीए १ देसा उसिणा ३ देसा निद्धा ३ देसा लुक्खा ३ हिवं शीत बहुवचन उष्ण एकवचन करिक ४ भांगा कहै छै९ देसा सीया ३ देसे उसिणे १ देसे निद्धे १ देसे लुक्खे १ १० देसा सीया ३ देसे उसिणे १ देसे निद्धे १ देसा लुक्खा ३ ११ देसा सीया ३ देसे उसिणे १ देसा निद्धा ३ देसे लुक्खे १ १२ देसा सीया ३ देसे उसिणे १ देसा निद्धा ३ देसा लुक्खा ३ हिवं शीत अन उष्ण बिहुं बहुवचने करी भांगा ४ कहै छै१३ देसा सीया ३ देसा उसिणा ३ देसे निद्धे १ देसे लुक्खे १ १४ देसा सीया ३ देसा उसिणा ३ देसे निद्धे १ देसा लुक्खा ३ १५ देसा सीया ३ देसा उसिणा ३ देसा निद्धा ३ देसे लक्खे १ १६ देसा सीया ३ देसा उसिणा ३ देसा निद्धा ३ देसा लुक्खा ३ इम च्यारप्रदेशिक खंध नै विषे २२२ भांगा कह्या । पंचप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग १८७. *खंध पंचप्रदेशिक जान, तिणमें वर्ण किता भगवान ? जिम शतक अठारमा मांय, जाव च्यार फर्श कदा पाय ।। १८८. जो एक वर्ण होवै संच, इम एक वर्ण नां पंच । दोय वर्ण नां चालीस भंग, चिहुं प्रदेशिक जिम चंग ।। त्रिकयोगिक ७० भांगा--- १८९. जो तीन वर्ण तिणमें होय, कदा कृष्ण नील लाल जोय । त्रिहुं इक वचने कहिवाय, बहुश्रुत मेलै तसु न्याय ।। वा०-एक प्रदेश कृष्ण वर्ण, ते एक आकाश में रह्यो । एक प्रदेश नील वर्ण ते दूजा आकाश प्रदेश में रह्यो। तीन प्रदेश लाल ते तीजा आकाश प्रदेश में रह्या, इम तीनूं एक वचन हुदै । तथा एक कृष्ण एक आकाश प्रदेश में रह्यो, दोय नील ते दूजा आकाश प्रदेश में रह्या, दोय लाल ते तीजा आकाश प्रदेश में रहा। ' तथा दोय कृष्ण ते एक आकाश प्रदेश में रह्या, एक नील ते दूजा आकाश प्रदेश में रह्यो, दोय लाल ते तीजा आकाश प्रदेश में रह्या । तथा एक कृष्ण ते एक आकाश प्रदेश में रह्यो, तीन नील ते दूजा आकाश प्रदेश में रह्या, एक लाल ते तीजा आकाश प्रदेश में रह्यो । तथा दोय कृष्ण ते एक आकाश प्रदेश में रह्या, दोय नील ते दूजा आकाश प्रदेश में रह्या, एक लाल ते तीजा आकाश प्रदेश में रह्यो । *लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली १८७. पंचपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवण्णे? जहा अट्ठारसमसए (१८।११५) जाव सिय 'चउफासे पण्णत्ते। १८८. जइ एगवण्णे ? एगवण्ण-दुवण्णा जहेव चउप्पए सिए। य नीलए य १८९. जइ तिवण्णे ? १. सिय कालए लोहियए या श०२०, उ०५, ढा०४०२ २७५ Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा तीन कृष्ण ते एक आकाश प्रदेश में रह्या, एक नील ते दूजा आकाश प्रदेश में रह्यो, एक लाल ते तीजा आकाश प्रदेश में रह्यो । ए सर्व एक-एक प्रदेशे रह्या, ए तीनूं एक वचन हुवै तथा ए सर्व इमहिज दोय प्रदेशिक विषे रह्यां एक वचन हुवै, पिण कृष्णादिक बहु वर्णं ते एक प्रदेश नैं विषे कहिणा । तथा ए सर्व एक आकाश प्रदेशे रह्या, एकवचन हुवै इम अनेरे स्थानके पिण विचारी कहियो । १९०. कदा कृष्ण एक सुविशेष, नील वर्णे एक प्रदेश लाल वर्ण बहु वचने, रह्यो बहु प्रदेश १९१ का कृष्ण एक वच जेह, नील बहु वचने में एह ॥ करि तेह। लाल इक वचने करि न्हाल, ए तृतीय भंग सुविशाल || १९२. कदा कृष्ण वर्ण हुवै एक, बहु वच नील वर्ण बे देख | बहु वच लाल दोय प्रदेश, रह्या पंच नभ मांहि अशेष || १९३. कदा बहु वच कृष्णज होय, रह्या बहु प्रदेश में सोय । इक वच नील लाल वच एक, रह्या इक इक प्रदेश पेख || १९४. कदा बहुवच कृष्णज दोय, नील एक प्रदेशज होय । दोय प्रदेश लाल विशेष, रह्या पंच आकाश प्रदेश || १९५. कदा बहु वच कृष्णज दोय, दोय प्रदेश नीला होय । एक प्रदेश लाल कहाय, रह्या पंच प्रदेश ₹ मांय || १९६. कृष्ण नील ने लाल संघात, एक बहुवचने अवदात | भांगा तप्त का ए सोय, संभवे जिम करिया जोय || १९७. कदा कृष्ण नील ने पील, हिं एक वचनेज सलील । वहां पण भंग सप्त भणेह, पूर्वली पर करि लेह || १९८. इम कृष्ण नील धवल साथ, एपिण भणवा भांगा सात । कृष्ण लाल पील संग पेख, भणवा भांगा सप्त विशेख || १९९. कृष्ण लाल शुक्ल संग ताम, ए विण भंग सप्त अभिराम । कृष्ण पील शुक्ल संग तास, पवर भंग सप्त सुप्रकाश ॥ २००. नील लाल पील वर्ण साथ, कहिवा सप्त भंग विख्यात । नील लाल शुक्ल वर्ण संग, ए तो भणवा सप्त सुभंग ॥ २०१. नील पील शुक्ल सहचार, वर भांगा सप्त उचार । बाल पोल धवल संग जोग, वारू भांगा सप्त प्रयोग || २०२. पंच वर्ण तणां पहिखाण, दश विक संयोग ए जान । त्रिक एक-एक नां भंग सात-सात दश सप्त गुणां सित्तर ख्यात ।। चतुष्कयोगिक २५ भांगा 1 २०३. कदा कृष्ण नील लाल पील, चिहुं दक वचनेज समील । नभ प्रदेश नीं पेक्षाय, कहियो इक वचने वर न्याय || २०४. कदा कृष्ण नील रक्तवान, त्रिहुं इक वचने करि जान । दोष नभ में वे पील प्रदेश, ए बहु वचने सुविशेष || २०५. कदा. कृष्ण नील वच एक, लाल बहु वचने करि पेख । पीलो इक वचने अवलोय, ए तृतीय भंग छै सोय || २०६. कदा इक व कृष्ण विशेष, नील बहु वच दोष प्रदेश तिके नील दोय नभ मांय, इक वच लाल पील कहिवाय ॥ २७६ भगवती जोड़ १९० २. सिय कालए य नीलए य लोहियगा य, १९१. ३. सिय कालए य नीलगाय लोहियए य, १९२. ४. सिय कालए य नीलगाय लोहियगा य १९३. ५. सिय कालगा य नीलए य लोहियए य, १९४. ६. सिय कालगा य नीलए य लोहियगा य, १९५. ७. सिय कालगा य नीलगा य लोहियए य, १९७. सिय कालए य नीलए य हालिए य, एत्थ वि सत्त भंगा, १९८. एवं कालग - नीलग- सुक्किलएसु सप्त्त भंगा, कालगलोहिय- हालिद्देसु ७, १९९. कालग - लोहिय-सुविकलेसु सुनिकले ७, २००. नीलग - लोहिय- हालिद्देसु ७, सत्त भंगा, २०१. नीलम हा विकले सुक्किले वि सत्त भंगा २०२. एवमेते तियासंजोएणं सत्तरि भंगा । ७, कालगलि नीलग-लोहिय- सुक्किले सु ७, लोहिय- हालिद्द २०३. जइ चउवण्णे ? १. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिए २०४२. सिकाए व नीलए य सोविए प हालिगा य, २०५. ३. सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दगे य, २०६. ४. सिय कालए य नीलगाय लोहियगे य हालिद्दगे य Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७. कदा बहु वच कृष्ण बे काल, रह्या बे नभ मांहि विशाल । नील लाल पील वच एक, ए पंचम भांगो पेख || कृष्ण नील लाल सुक्किल संघाते ५ भांगा२०८. कदा कृष्ण नील लाल पेख, नि सुक्किल चिहुं वच एक पंच भंगा इहां पिण होय, करिवा पूर्वली पर जोय || कृष्ण नील पील सुक्किल संघाते ५ भांगा२०९. इम कृष्ण नील नैं पोल, वलि सुक्किल इहां भणवा भांगा पंच, पूर्वली कृष्ण लाल पील सुक्किल संघाते ५ भांगा२१०. कृष्ण लाल पील मुस्किल साथ, इक वच बहु वच अवदात । पंच भांगा हवं ते करिया, पूर्वली पर उच्चरिवा ।। नील लाल पील धवल संघाते ५ भांगाक्किल साथ, इहां भांगा पंच विख्यात । एक वचन बहुवचनेह, करिवा पूर्वली पर एह ॥ २१२. इम चक्क संयोगे संच, इक इक वर्णं विषे पंच पंच । पंच वर्ण विधे सुजगीस, मेलवतां हुवे पणवीस || पंच वर्ण संघाते १ भांगो २११. नील लाल पील संघात समील । परं ते विरंच ॥ २१३. जो पंच वर्ण तिण में होय, तो कृष्ण नील लाल अवलोय । पील सुक्किल पांचू वच एक, पंचयोगिक इक भंग पेख || २१४. पंच प्रदेशिया नां सुसंच, भांगा इक संयोगे पंच द्विकसंयोगे चालीस, त्रिकसंयोगे सित्तर जगीस ।। २१५. चउक्कसंयोगे पणवीस, पंचसंयोगे इक दीस | एह सर्व एकसी बंग, कारि इकतालीस भंग ॥ पंचप्रदेशिक बंधे वर्णादिक नां ३२४ भांगा नो यन्त्र१४१ पंचप्रदेशिक खंधे वर्ण ना १४१ भांगा ५. एक संयोगे भांगा ५ पूर्ववत ४० द्विक्संयोगे भांगा ४० पूर्ववत ७० त्रिसंयोगे भांगा ७० ते कहै छै - १ का ११ लोहियाए १ २१ मोहिमा ३ ३ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ ४ कालए १९ नीलगा ३ लोहियगा ३ ५ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ ६ कालगा ३ नीलए १ लोहियगा ३ ७ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ १४ इम काल नील पील संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ७ भांगा करिया । २०७. ५. सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिए य, एए पंच भंगा, २०.सि काल में नीलए व लोहियएव लिए य एत्थ वि पंच भंगा, २०९. एवं काल-नीलग हालि सुक्कले वि पंच भंगा, २१०. कालो हालिमुक्लिएस वि पंच भंगा २११. हालि सुनिले विपंचगंगा, २१२. एवमेते चउक्कगसंजोएणं पणुवीसं भंगा । २१३. जइ पंचवण्णे ? कालए य नीलए य लोहियए य हालिए य सुक्किलए य, २१४,२१५. सव्वमेते एक्कग दुयग-तियग- चउक्कपंचगसंजोएणं ईयालं भंगसयं भवति । श० २० उ०५, ६० ४०२ २७७ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ इम काल नील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ७ भांगा करिया । २८ इम काल लाल पील संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ७ भांगा करिवा । ३५ इम काल लाल सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ७ भांगा करिवा । ४२ इम काल पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ७ भांगा करिया । ४९ इम नील लाल पील संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ७ भांगा करिया । ५६ इम नील लाल सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ७ भांगा करिवा । ६३ इम नील पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ७ भांगा करिवा । ७० इम लाल पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ७ भांगा करिया । २५ चतुष्कसंयोगे मांगा २५ ते कहै छं १ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ २ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिगा ३ [३] ११ लोहिया २ हालिए १ ४ कालए नीलना लोहियाए १ हानिए १ ५ कालगा नीलए लोहियए १ हालिए १० ० इम काल नील लाल सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ५ भांगा करिवा । १५ इम काल नील पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ५ भांगा करिया । २० इम काल लाल पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ५ भांगा करिवा । २५ इम नील लाल पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै ५ भांगा करिया । पंचसंयोगे भांगो १ ते कहै - १ कालो नीलो लाल पीलो सुविकल हिवं गंध, रस, फर्श नां भांगा कहै - ६ गंध नां भांगा ६ पूर्ववत १४१ रस नां भांगा वर्ण नां भांगा नीं पर ३६ स्पर्श नां भांगा ३६ पूर्ववत एवं सर्व पंचप्रदेशिक बंध नां भांगा ३२४ हुया । गंध रस फर्श नां भांगा २१६. *गंध नां इकयोगिक दोय, द्विक संयोगे चिहुं होय । च्यार प्रदेशिया जिम जाण, पूर्ववत भंग पिछाण || *लय म्हारी सासू रो नाम छे फूली २७८ भगवती जोड़ २१६. गंधा जहा ठप्पएसियस्स । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७. रसा जहा वण्णा । फासा जहा चउप्पएसियस्स । (श० २०१३०) २२०. छप्पएसिए णं भंते ! खंधे कति वण्णे ? एवं जहा पंचपएसिए जाव सिय चउफासे पण्णत्ते । २२१. जइ एगवण ? एगवण्ण-दुवण्णा जहा पंचपए सियस्स। २२२. जइ तिवण्णे ? सिय कालए य नीलए य लोहियए य, एवं जहेव पंचपएसियस्स सत्त भंगा २२३. जाव सिय कालगा य नीलगा य लोहियए य, २२४,२२५. सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य, एए अट्ठ भंगा, २१७. रस नां भांगा वर्ण जेम, इकसौ इकताली तेम। फर्श नां भांगा षट तीस, चिहं प्रदेशिक जेम कहीस ।। २१८. वर्ण नां इकसौ इकताली, भंग गंध तणां षट भाली। रस नां इकसौ इकताली, फर्श नां षट तीस निहाली ।। २१९. पंच प्रदेशिया नां पेख, वर्णादिक नां सुविशेख । सह तीनसी ने चउवीस, भांगा भाख्या जगदीश ।। षटप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग २२०. षट प्रदेशिक खंध जान, तिणमें वर्ण किता भगवान ? जिम पंच प्रदेशिक जोय, च्यार फर्श कदा जाव होय ।। २२१. जो एक वर्ण हुवै संच, एक वर्ण तणां भंग पंच । दोय वर्ण नां भंग चालीस, पंच प्रदेशिक जेम कहीस ।। त्रिकयोगिक ८० भांगा२२२. जो तीन वर्ण तिणमें होय, कदा कृष्ण नील लाल जोय । कह्या पंच प्रदेशी नां सात, तिम भणवा सप्त विख्यात ।। २२३. जाव कदा कृष्ण ने नील, बिहं बहु वचनेज समील । अने लाल एक वचनेह, ए सातमों भांगो कहेह ।। २२४. कदा कृष्ण नील लाल जान, त्रिहुं बहु वचने करि मान । भंग अष्टम संभव एह, षट प्रदेश माटै लेह ।। २२५. कृष्ण नील लाल नां भंग, एक बहु वचने करि चंग । इम भांगा आठ सुघट, ए त्रिक योग एक नां अठ ।। २२६. इहां छै दश त्रिक संयोग, एक-एक संयोग प्रयोग। अष्ट-अष्ट भांगा इम थाय, अस्सी सह त्रिकसंयोग मांय ।। २२७. कदा कृष्ण नील ने पील, दूजो त्रिकसंयोग समील । इक बहु वच करि अष्ट भंग, करिवा पूर्वली परै चंग ।। २२८. कृष्ण नील धवल र संघात, भणवा अष्ट भंग विख्यात । एत्रिकसंयोगे तीजो, इम आगल पिण गिण लीजो॥ २२९. कृष्ण लाल पील संग पेख, भणवा भंग अष्ट विशेख । कृष्ण लाल शुक्ल संग ताम, ए पिण अष्ट भंग अभिराम।। २३०. कृष्ण पील सुक्किल संग तास, पवर भंग अष्ट सुप्रकाश। नील लाल पील वर्ण साथ, वारू भांगा अष्ट विख्यात ।। २३१.नील लाल सूक्किल वर्ण संग, ए तो भणवा अष्ट सुभंग। नील पील सुक्किल सहचार, ए तो भांगा अष्ट उचार ।। २३२. लाल पील धवल संग जोग, वारू भांगा अष्ट प्रयोग । दशमों त्रिकसंयोग एह, धुर संयोग थी गिण लेह ।। २३३. पंच वर्ण तणों पहिछाण, दश त्रिकसंयोग ए जाण । एक-एक नां अठ-अठ भंग, दश अठ गुणां अस्सी चंग ।। हिवं च्यार वर्ण नै विषे १६ भांगा हुवै । ते माहिला आठमो, बारमो, चउदमों, पनरमों, सोलमों-ए ५ वर्जी शेष ११ भांगा हवं, ते कहै छ मान, २२६, एवमेते दस तियासंजोगा, एक्केक्कए संजोगे अट्ट भंगा, एवं सव्वे वि तियगसंजोगे असीति भंगा। श० २०, उ० ५, डा० ४०२ १७९ Jain Education Intemational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालए य नीलए य २३४, जब चउवणे ? १. सिय लोहियए य हालिद्दए य, २३५. २. सिय कालए य नीलए य लोहियए हालिद्दगा य, २३६. ३. सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दए कालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दगा कालए य नीलगा य लोहियए य हालिद्दए २३९. ६. सिय कालए य नीलगा य लोहिए य हालिद्दगा २४०, ७. सिय कालए य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दए २४१. ८. सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिद्दए कालगा य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा चतुष्कयोगिक ५५ भांगा२३४. जो च्यार वर्ण ह संमील, " तो कदा कृष्ण नील लाल पील। ए च्यारूं कह्या वच एक, ए प्रथम भंग संपेख ।। २३५. कदा कृष्ण नील ने रक्त, त्रिहं इक वचने करि वक्त । पीलो बहु वचने करि जाण, ए द्वितीय भंग पहिछाण ।। २३६. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल बह वचने करि पेख । पीलो इक वचने कहिवाय, ए तृतीय भंग इम थाय ।। २३७. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल पील बह वच पेख । ए भंग चतुर्थो जाण, न्याय पूर्वली परै आण।। २३८. कदा कृष्ण एक वच कहिये, नील बह वचने करि लहिये। लाल पील एक वचनेह, एपंचमो भांगो कहेह ।। २३९. कदा कृष्ण एक वच होय, नील बह वचने करि जोय । लाल एक वचन करि चंग, पीलो बहु वच षष्टम भंग ।। २४०. कदा कृष्ण एक वचनेह, नील बहु वचने करि लेह । लाल बहु वच इक वच पील, ए सप्तम भंग समील ।। २४१. कदा कृष्ण बहु वच देख, नोल लाल पील वच एक । ए अष्टम भंग कहाय, कृष्ण बहु वच बहु नभ मांय ।। २४२. कदा कृष्ण बहु वच जान, नील लाल एक वच मान । पील बह वचने करि पेख, ए नवमों भांगो देख ।। २४३. कदा कृष्ण बहु वच थाय, नील इक वचने कहिवाय । लाल बह वचने करि चंग, पील इक वच दशमों भंग ।। २४४. कदा कृष्ण नील अवलोय, बिहुं बहु वचने करि जोय। लाल पील एक वच जाण, ए ग्यारमों भंग पिछाण ।। २४५. धुर चउक्कसंयोगज धार, तिण रा आख्या भांगा इग्यार। एहवा चउकसंयोगा है पंच, तिके वारू रीत विरंच ।। २४६. इक-इक संयोग विषे विचार, करिवा भांगा इग्यार-इग्यार। ग्यारै पंच गुणां कियां सोय, सर्व भांगा पचावन होय ॥ २४७. कृष्ण नील लाल सुक्किल संग, भणवा एकादश भंग । ए बीजो चउक्कसंयोग, भंग करिवा दे उपयोग ।। २४८. कृष्ण नील पील सुक्किल साथ, एकादश भंग विख्यात । ए चउक्कसंयोग है तीजो, विध सेती भंग करीजो। २४६. कृष्ण लाल पील सुक्किल धार, ते संघात भंग इग्यार । चउथो चउक्कसंयोग ए होय, भांगा पूर्वली परै जोय ।। २५०. नील लाल पील सुक्किल साथ, भांगा एकादश थात । ए पांचमो चउक्कसंयोग, पूर्ववत भंग प्रयोग ।। २५१. पांचू पंच सयोग नां चंग, इक-इक नां ग्यार-ग्यार भग। सर्व भंग पचावन होय, चउक्कसंयोगे अवलोय ।। २८. भगवती जोड़ २४३.१०. सिय कालगा य नीलए य लोहियगा य हालिद्दए य, २४४. ११. सिय कालगा य नीलगा य लोहियए य हालिद्दए य, २४५. एए एक्कारस भंगा, एवमेते पंच चउक्कसंजोगा कायब्वा, २४६. एक्केक्कसंजोए एक्कारस भंगा, सब्वे एते चउक्क संजोएणं पणपण्णं भंगा। Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचयोगिक १६६ भांगा २५२. जो पंच वर्ण तिणमें होय, कदा कृष्ण नील लाल जोय । पील धवल पांच वच एक पुर भांगो एह संपेख || २५३. कदा कृष्ण नील लाल पील, चिहूं इक वचनेज समील । सुक्किलगा ते बहु वचनेह, सुक्किल बहु नभ मांहि रहेह || २५४. कदा कृष्ण नील लाल एक, पीलो बहु वचने करि पेख । सुक्किल इक बच ए भंग तोर्ज, पीलो बहु नभ मांहि रहीजे ॥ २५५. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल बहु वचने करि देख । पीलो सुक्किल एक वचनेह, लाल बहु नभ मांहि रहेह ।। २५६. कदा कृष्ण एक बच होय, नील वह वचने करि जोय । लाल पील मुक्किल बच एक. ए पंचमो भांगो देख ॥ २५७. कदा कृष्ण बहु वच थाय, शेष च्यारूं एक वच पाय । ए षष्टम भंग कहाय, कृष्ण रह्यो बहु नभ मांय || २५८. इम ए पंच संयोगे विचार, षट भांगा एम उचार | हि सर्व भांगा अवलोव पांचू वर्ण नां एता जोय || २५९ इकसंयोग पंच जगीस द्विकसंयोगे भंग चालीस । त्रिसंयोगे अस्सी होय, चउक्कसंयोगे पचपन जोय || २६०. पंचसंयोगे पट भंग, सर्व इकसौ छांसी बंग षट प्रदेशिया नां ख्यात, वर्ण नां भंग नो अवदात || २६१. गंध नां इकसंयोग दोय, द्विकसंयोग च्यार सुजोय । इम षट भांगा उच्चरिवा, पंच प्रदेशिया जिम करिवा ॥ २६२. रस नां एकसो नैं छयांसी, वर्ण नीं परं करिया विमासी । फर्श नां षट तीस कहाय, च्यार प्रदेशिया जिम ताय ॥ २६३. षट प्रदेशिको एम, वर्णादिक ना भंग तेम ब्यारसी नवदे भंग आया जिन वचन थकी अभिलाख्या || छह प्रदेशिक खंधे वर्णादिक नां ४१४ मांगा नों यंत्र - १८६ छह प्रदेशी खंधे वर्ण नां भांगा १५६ १५ एक संयोगे भांगा ५ पूर्ववत ४० द्विकसंयोगे भांगा ४० पूर्ववत ८० त्रिकसंयोगे भांगा ८० ते कहे छे कृष्ण एक वचने करि ४ भांगा कहै छं १ का ११ मोहिए १ २ काल १ नीलए मोहगा ३ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ ४ कालए १ नीलगा ३ लोहियगा ३ २५२. जइ पंचवण्णे ? १. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिए य, सुक्किलए य, २५३ २. सिय कालएव नीलए य लोहियएव हालिइए य सुक्किलगाय २५४. ३. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा य लिए २५५. ४. सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिए य मुक्किए व २५६. ५. सिय कालए य नीलगाय लोहियए य हालिए य सुक्किलए य, २५७. ६. सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिए सुक्किए व २५८-२६०. एवं एए छन्भंगा भाणियव्वा, एवमेते सब्वे वि एक्कग दुयग-तियग- चउक्कग-पंचगसंजोगेसु छासीय भंगसयं भवति । २६१. गंधा जहा पंचपएसियस्स । २६२. रसा जहा एयस्सेव वण्णा । फासा जहा चउप्पएसिस्स । (श० २०,३१) श० २०, उ०५, हाल ४०२ २८१ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं कृष्ण बहुवचने करि ४ भांगा कहे - ५. कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ ६ कालगा ३ नीलए १ लोहियगा ३ ७ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ ८कालगा ३ नीलगा ३ लोहियगा ३ ए कृष्ण नील लाल संघाते व भांगा किया । १६ तिम कृष्ण नील पील संघाते ८ भांगा करिया । २४ इम कृष्ण नील सुक्किल संघाते ८ भांगा करिया । ३२ इम कृष्ण लाल पील संघाते ८ भांगा करिया । ४० इम कृष्ण लाल सुक्किल संघाते ८ भांगा करिवा । ४८ इम कृष्ण पील सुक्किल संघाते ८ भांगा करिवा । ५६ इम नील लाल पील संघाते में भांगा करिया । ६४ इम नील लाल सुक्किल संघाते ८ भांगा करवा । ७२ इम नील पील सृक्किल संघाते भांगा करिया । ८० इम लाल पील सुक्किल संघाते ८ भांगा करिया । ५५ चतुसंयोगे भांगा ५५ कहे १ कालए १ मीलए १ एपीए २ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिगा ३ ३ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दए १ ४ काल १ नील १ लोहिया ३ हालिगा ३ ५. कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ ६ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दगा ३ ७ कालए १ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिए १ ८कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ ९ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिगा ३ १० कालगा ३ नीलए १ लोहियगा ३ हालिदए १ ११ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ ए कृष्ण नील लाल पील संघाते ११ भांगा कह्या२२ तिम कृष्ण नील लाल सुक्किल संघाते ११ भांगा कहिवा । ३३ इम कृष्ण नील पील सुक्किल संघाते ११ भांगा कहिवा । ४४ इम कृष्ण लाल पील सुक्किल संघाते ११ भांगा कहिवा । ५५ इम नील लाल पील सुविकल संघाते ११ भांगा कहिवा । ६ पंचसंयोगे भांगा ६ कहे छं १ कालए एलोहिमए १ हालिए सुनिए १ २ कालए नीललोहिए हानिएका ३ २ कालए नए ए १ हालिमा मिलाए १ ४ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलए १ ५ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ ६ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिदए १ सुक्किलए १ ६ गंध नां भांगा ६ पूर्ववत १८६ रस नां भांगा १५६ जिम वर्ण नां कह्या तिम कहिवा । ३६ को भांगाचतुःप्रदेशिको परे ३६ कहिवा एवं सर्व भांगा ४१४ । २८२ भगवती जोड़ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग२६४. सप्त प्रदेशिक खंध जान, तिणमें वर्ण किता भगवान ? जिम पंच प्रदेशिक ख्यात, जाव च्यार फर्श अवदात ।। २६५. जो एक वर्ण तिणमें होय, इम एक बे वर्ण नां जोय । तीन वर्ण तणां भंग सोय, षट प्रदेशिक जिम होय ।। २६४. सत्तपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवण्णे ? जहा पंचपएसिए जाव सिय चउफासे पण्णत्ते । २६५. जइ एगवण्णे ? एवं एगवण्ण-दुवण्ण-तिवण्णा जहा छप्पएसियस्स। २६७. जइ चउवण्णे ? १. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य, २६८, २. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा २६९. ३. सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दए २७०, एवमेते चउक्कगसंजोगणं पन्नरस भंगा भाणियव्वा जाव सोरठा २६६. इक संयोगे पंच, द्विक संयोगे पूर्ववत । भंग चालीस सुसंच, त्रिक संयोगे व असी ।। चतुष्कयोगिक ७५ भांगा ४ भांगा कृष्ण नील एक वचन संघाते कहै छ२६७. *जो च्यार वर्ण तिणमें होय, कदा कृष्ण नील अवलोय । __ लाल पील चिहुं वच एक, ए प्रथम भंग सूविशेख ।। २६८. कदा कृष्ण नील लाल जान, तीन इक वचने करि मान । पीलो बहु वच बहु नभ मांय, ए द्वितीय भंग कहिवाय ।। २६९. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल बहु वच बहु नभ पेख । पीलो इक वचने करि होय, ए तृतीय भंग अवलोय ।। २७०. इम ए चउक्क संयोगे सुचंग, भणवा इहां पनरै भंग। जाव शब्द कही पाठ मांहि, चरम भांगो बतायो ताहि ।। २७१. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल बहु वच बहु नभ पेख । पीलो बहु वच बहु नभ मांय, ए तुर्य भंग कहिवाय ।। ४ भांगा कृष्ण एक वचन नील बहु वचन संघाते कहै छ२७२. कदा कृष्ण एक वच थाय, नील बह वच बहु नभ मांय । लाल पील एक वचनेह, ए पंचमो भांगो कहेह ।। २७३. कदा कृष्ण एक वच जोय, नील बहु वच बहु नभ होय । लाल इक वचने करि थाय, पीलो बहु वच बहु नभ मांय ।। २७४. कदा कृष्ण एक वच देख, नील बहु वच बहु नभ पेख । लाल बहु वच बहु नभ मांय, पीलो इक बचने कहिवाय ।। २७५. कदा कृष्ण एक वच जोय, नील बहु वच बहु नभ होय । लाल बहु वच बहु नभ मांय, पीलो बहु वच बहु नभ थाय ।। हिवै कृष्ण बह वचन संघाते बाकी शेष भांगा कहै छै तिण में ९,१०,११,१२ मों-ए ४ भांगा कृष्ण बहु वचन अनैं नील एक वचन अनै आगला तेरमा थी शेष भांगा कृष्ण बहु वचन अनै नील बहु वचन छ, ते हिवं नवमा भांगा थी कहै छ२७६. कदा कृष्ण बहु वच पाय, तिको बहु नभ प्रदेश माय । नील लाल पील वच एक, रह्या इक नभ मांहि विशेख ।। २७७. कदा कृष्ण बहु वच जेह, नील लाल एक वचनेह । पीलो बह वच बहु नभ मांय, ए भंग दशम कहिवाय ।। २७८. कदा कृष्ण बहु वच देख, नील इक वचने करि पेख । लाल बहु वच बहु नभ मांय, पीलो इक वच इक नभ थाय ।। २७९. कदा कृष्ण बहु वच जान, नील इक वच इक नभ मान । लाल बहु बच बहु नभ मांय, पीलो बहु वच बहु नभ पाय ।। * लय : म्हारी सासू रो नाम छ फली श० २०, उ०५, ढा० ४०२ २८३ Jain Education Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील बह वच बह नभ जेह । लाल पोल एक वच कहिये, ए भंग तेरमों लहिये ।। २८१. कदा कृष्ण बहु वच लेख, नील बहु वच बहु नभ पेख । लाल इक वच इक नभ कहिये, पीलो बहु वच बहु नभ लहियै ।। २८२. कदा कृष्ण बहु वच जोय, नील बहु वच बहु नभ होय । लाल बहु वच बहु नभ मांय, पीलो इक वच इक नभ पाय ।। २८३. ए चउक्क संयोगे देख, तिण रा भांगा पनर सुपेख । धुर च्यार वर्ण कहिवाय, तिण में शुक्ल वर्ण कह्यो नांय ।। हिवं प्रथम चतुष्कयोगिक १५ भांगा अंक करी देखाई छ २८२. सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दए, १२ | ३ १ ३ १ २८४. कृष्ण नील लाल सुक्किल जोय, तिणरा भंग पनर अवलोय । बीजो चउक्कसंयोगिक न्हाल, तिणमें पील वर्ण दियो टाल ।। २८५. कृष्ण नील पील सुक्किल संग, इक वच बहु वच पनर भंग। तीजो चउक्कसंयोगिक लहिये, तिणमें लाल वर्ण नहीं कहिये ।। २८६. कृष्ण लाल पील सुक्किल साथ, भणवा भांगा पनर विख्यात । चउथो चउक्कसंयोग पिछाणो, तिणमें नील वर्ण मत आणो। २८७. नील लाल पील सुक्किल जाण, तिणरा भांगा पनरै पिछाण। चउक्कसंयोग पंचम एह, तिणमें कृष्ण वर्ण टालेह ।। २८४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८. पंच चउक्क संयोग ए चंग, सर्व भांगा पचितर एह 1 इक इक संयोग पंच वर्ण नां च पनरै भंग । संयोगेह ॥ पोलो इक वच इक नभ मांय, २९४. कदा कृष्ण नील वच एक, पीलो इक वच इक नभ होय, २९५. कदा कृष्ण नील वच एक, पंचयोगिक १६ भांगा -- २८९. जो पंच वर्ण तिणमें होय, तो कदा कृष्ण नील लाल जोय । पील सुक्किल पांचू वच एक ए प्रथम भंग संपेख || २९०. कदा कृष्ण नील लाल पील, चिहुं इक वच इक नभ मील । सुक्किल बहु वच बहु नभ मांय, ए द्वितीय भंग कहिबाय || २९१. कदा कृष्ण नील लाल थाय, त्रिहुं इक वचने कहिवाय । पीलो बहु वच बहु नभ मांय, धवलो इक वच इक नभ थाय ॥ २९२. कदा कृष्ण नील लाल पेख, त्रिहुं इक वचनेज उवेख | पीलो बहु वच बहु नभ मांय, धवलो बहु वच बहु नभ पाय ।। २९३. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल बहु वच बहु नभ पेख | धवलो इक वच इक नभ पाय ।। लाल बहु बच बहु नभ पेख । धवलो बहु वच बहु नभ जोय ।। लाल बहु वच बहु नभ पेख | पीलो वह वच वह नभ याय, धवलो इक बच इक नभ पाय ।। नील बहु बच बहु नभ लेह । लाल पील धवल वच एक, ए अष्टम भंग उवेख || नील बहु वच बहु नभ लेह । सुक्किल बहु वच बहु नभ हुंत ॥ नील बहु वच बहु नभ लेह | लाल इक वच बहुवच पील, सुक्किल इक वच इक नभ मील ॥ २९६. कदा कृष्ण एक वचनेह, २९७. कदा कृष्ण एक वचने, लाल पील एक वच मंत, २९८. कदा कृष्ण एक वचनेह, २९९. कदा कृष्ण एक वचनेह, नील बहु वच बहु नभ लेह | लाल बहु बच बहु नभ पाय, पीलो बुक्किल एक वच थाय ।। ३००. कदा कृष्ण बहु वच हुंत, नील इक वच इक नभ मंत । लाल इक वच इक नभ होय, पील सुक्किल एक वच जोय ॥ ३०१. कदा कृष्ण बहु वच कहिये, नील इक वच इक नभ लहिये । लाल पील एक वच जाणं, सुक्किल बहु वच बहु नभ आणं ।। ३०२. कदा कृष्ण बहु वच होय, नील लाल एक वच जोय । पीलो बहु बच बहु नभ पेख, सुविकल इक बच इक नभ लेख | ३०३. कदा कृष्ण बहु वच ख्यात, नील इक वच इक नभ थात । लाल बहु वच बहु नभ रहिया, पील धवल एक वच कहिया || ३०४. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील बहु वच बहु नभ लेह । लाल पील निकल बच एक ए सोलमों भंग संपेल ।। २०५ इम एक संयोगे पंच, द्विक संयोगे चालीस संच । त्रिक संयोग अस्सी पवर, चउक्क संयोगे भंग पचंतर ॥ ३०६. पंच संयोगे सोल कहाय, सहु दोसी सोले पाय सप्त प्रदेशिया नां कहेह, भंग पंच वर्ण नां एह ॥ २०७. गंध न इक संयोगे दोय, द्विक संयोग विहं अवलोय । कहिये च्यार प्रदेशिक जेम, गंध नां षट भंगा तेम ।। । २८८ एवमेते पंच चउक्कासंजोगा नेयव्वा, एक्केक्के संजोए पन्नरस भंगा, सव्वमेते पंचसत्तरि भंगा भवंति । २८९. जइ पंचवण्णे ? १. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिए य सुक्किलए य, २९० २. पिकालएव नीलए व लोहिया व हालिए सुलगा प २९१. ३. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा य सुक्किलए म २९२. ४. सिय कालए य नीलए य लोहिए य हालिगा य सुविकलगाय २९३.५. सिकाए पनीलए व लोहिया व हालिए य सुक्किलए य, २९४. ६. सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिहगे सुलगा व २९५. ७. सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिगा य सुक्किलए य २९६ सा नीलगाय लोहियएव हालिए सुक्किए प २९७. ९. सिय कालए य नीलगाय लोहियए य हालिए यकिलगाय २९८. १०. सिय कालए य नीलगाय लोहियगे य हालिगा य सुक्किलए य, २९९. ११. सिय कालए य नीलगाय लोहियगा य हालिए सुनिए व ३००. १२. सिय कालगा य नीलगे य लोहियए य हालिइए य ३०१. १३. सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिए य सुक्किलगाय कालगा य नीलए लोहिया य ३०२. १४. सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिगा सुक्किए प ३०३. १५. सिय हालिए निकल प ३०४. १६. सिय कालगा य नीलगाय लोहियए य हालिए य सुक्किलए य, ३०५,३०६. एए सोलस भंगा, एवं सव्वमेते एक्कग दुयगतियग- चउक्कग-पंचगसंजोगेणं दो सोला भंगसया भवंति । ३०६. गंधा जहा चप्पएसियस्स । श० २०, उ०५, ढा० ४०२ २८५ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८. रस नां वर्ण नीं परं पुणवा, भंग दोयसी षोडश भगवा फर्म नां भंग छत्तीस जान, ३०९. सप्त प्रदेशिक नां जेह, च्यारसौ ने चीमोतर सर्व चिरं प्रदेशिक जिम मान ॥ वर्णादिक नां भंग एह । गुणजो मन टाली गर्व ॥ हिव सात प्रदेशिक खंधे वर्णादिक नां ४७४ भांगा नों यंत्र२१६ सात प्रदेशिक खंधे वर्ण नां २१६ भांगा ५ एक संयोगे भांगा ५ पूर्ववत ४० द्विक्संयोगे भांगा ४० पूर्ववत ८० त्रिसंयोगे भांगा ८० पूर्ववत ७५ चतुष्कसंयोगे मांगा ७५ ते क १ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १९ २ काल १ नीलए १ लोहिया १ हालिगा ३ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिए १ ४ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिगा ३ ए कृष्ण नील एक वचन संघाते ४ भांगा कह्या । हिवै कृष्ण एक वचन नील बहु वचन संघाते ४ भांगा कहे छे ५ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ ६ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिगा ३ ७ काल १ लगा लोहिया हातिए १ ८ काल १ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिगा ३ ए कृष्ण एक वचन नील बहु वचन संघाते ४ भांगा कह्या । हिवै कृष्ण बहु वचन नील एक वचन संघाते ४ भांगा कहै - ९. कालगा ३ मीलए लोहियए हालिए १० कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिमा ३ ११कालना १ मा हालिए १ १२ कालगा ३ नीलए १ लोहियगा ३ हालिगा ३ एक कृष्ण बहु वचन नील एक वचन संघाते ४ भांगा का । हिवं कृष्ण नील बहु वचन संघाते भांगा ३ कहै - १३ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिदए १ १४ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिगा ३ १५ कालगा ३ नीलगा ३ लोहिया ३ हालिए १ इम कृष्ण नील लाल पील संघाते एक वचन बहुवचन करिकै १५ भांगा कह्या । ३० हिव कृष्ण नील लाल सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै १५ भांगा करिया । ४५. इम कृष्ण नील पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै १५ भांगा करिया । ६० इम कृष्ण लाल पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै १५ भांगा करिया । ७५ इम नील लाल पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै १५ भांगा करिया । २८६ भगवती जोड़ ३०८. रसा जहा एयस्स चेव वण्णा । उप्पएसिस्स । फासा जहा (श० २०1३२) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पंचसंयोगे भांगा १६ ते कहै छै १ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ २ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ ३ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दगा ३ सुक्किलए १ ४ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दगा ३ सुक्किलगा ३ ५ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलए १ ६ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ ७ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दगा ३ सुक्किलए १ ८ कालए १ नीलगा ३ लोहियाए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ ९ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ १० कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिहगा ३ सुक्किलए १ ११ कालए १ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलए १ १२ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ १३ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ १४ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दगा ३ सुक्किलए १ १५ कालगा ३ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलए १ १६ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ ६ गंध नां भांगा ६ पूर्ववत २१६ रस नां भांगा २१६ पूर्वे कह्या तिम कहिवा। ३६ स्पर्श नां भांगा ३६ पूर्ववत एवं सर्व भांगा ४७४ । अष्टप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग ३१०. अष्ट प्रदेशिक खंध जान, तिणमें वर्ण किता भगवान ? इत्यादिक प्रश्न पूछ्यां ताय, जब उत्तर दै जिनराय ।। ३११. कदा एक वर्ण तिण में होय, जिम सप्त प्रदेशिक जोय। तिम कहिवो सर्व विमास, कदाचित जाव चिहं फास ।। ३१२. जो एक वर्ण हुवै संच, इम एक वर्ण नां पंच। दोय वर्ण नां भंग चालीस, तीन वर्ण नां अस्सी जगीस ।। ३१३. जिम सप्त प्रदेशिक खंध, तेहनां भांगा कह्या अमंद । एक बे तीन वर्ण नां तास, तिम एहनां पिण भांगा विमास ।। ३१४. कदा च्यार वर्ण तिणमें होय, तो कदा कृष्ण एक वच जोय । नील लाल पील वच एक, ए प्रथम भंग संपेख ।। ३१५. कदा कृष्ण एक वच होय, नील इक वच इक नभ जोय। लाल इक वच इक नभ मांय, पीलो बहु वच बहु नभ पाय ।। ३१६. जिम सप्त प्रदेशिक मांय, जाव कृष्ण नील बहु थाय । लाल पील बहु वचनेह, ए सोलमो भंग कहेह ।। ३१७. इम चउक्क संयोगे जे पंच, इक-इक संयोग विषे विरंच । __ सोल-सोल भांगा अवलोय, सर्व अस्सी भांगा इम होय ।। पंचयोगिक वर्ण नां २६ भांगा ३१८. जो पंच वर्ण तिणमें होय, कदा कृष्ण नील अवलोय । लाल पील सुक्किल वर्ण जान, पांचू इक वचने पहिछान ।। ३१०. अट्टपएसिए णं भंते ! खंधे-पुच्छा । ३११. गोयमा ! सिय एगवण्णे जहा सत्तपएसियस्स जाव सिय चउफासे पण्णत्ते। ३१२. जइ एगवण्णे ? एवं एगवण्ण-दुवण्ण-तिवण्णा ३१३. जहेव सत्तपएसिए । ३१४. जइ चउवण्णे ? १. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य, ३१५. २. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्द गा ३१६. एवं जहेव सत्तपएसिए जाव, १६. सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य, ३१७. एए सोलस भंगा, एवमेते पंच चउक्कसंजोगा, एवमेते असीति भंगा। ३१८. जइ पंचवण्णे ? १. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुक्किलए य, श०२०, उ०५, डा० ४०२ २८७ Jain Education Intemational a Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९. इम अनुक्रमे उच्चरिवा, जान भंग पनरमों कहाय, ३२०. कदा कृष्ण नील लाल पील, पूर्ववत भांगा करवा । तिके जुआ-जुआ कहूं ताय ।। चिहुं इक बचनेज समील सुक्किल बहु वचने अबलोय, द्वितीय भंग ए होय ॥ पीलो बहु वच बहु नभ पेख । धवलो इक वच इक नभ मांय, ३२२. कदा कृष्ण नील लाल एक, सुक्किल वह बच बहु नभ मांव, ३२३. कदा कृष्ण नील वच एक, पीलो इक वच इक नभ थाय, ३२४. कदा कृष्ण नील वच एक, ए तृतीय भंग कहिवाय ॥ पीलो बहु वच बहु नभ पेख । ए तुर्य भंग कहिवाय ॥ लाल बहु वच बहु नभ पेख । सुक्किल इक वच इक नभ पाय ॥ लाल बहु वच बहु नभ पेख | पीलो इक वच इक नभ मांय, धवलो बहु वच बहु नभ पाय ।। ३२५. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल बहु वच बहु नभ पेख । पीलो बहु वच बहु नभ मांय, धवलो इक वच इक नभ पाय ।। ३२६. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल बहु वच बहु नभ पेख । पीलो बहु वच बहु नभ मांय, धवलो बहु वच बहु नभ थाय ।। ३२७. कदा कृष्ण एक वच होय, नीलो बहु वच बहु नभ जोय । लाल पील एक वचनेह, सुक्किल एक वच इक नभ जेह ।। ३२८. कदा कृष्ण एक वचनेह, नील बहु वच बहु नभ लेह । लाल पील एक वच पाय, सुक्किल बहु वच बहु नभ थाय ॥ ३२९. कदा कृष्ण एक वच भाल, नील पीलो बहु वच बहु नभ पाय, धवलो ३२०, कदा कृष्ण एक वच जोय, । बहु वच इक वच लाल । इक वच इक नभ थाय ।। नील बहु बच बहु नभ होय | लाल इक वच इक नभ मांय, पीलो धवलो बहु वच थाय ।। ३३१. कदा कृष्ण एक वच लेह, नील लाल बहु वच जेह । पीलो इक वच इक नभ पाय, धवलो इक वच इक नभ थाय ॥ ३३२. कदा कृष्ण एक वचताम, नील लाल बहु वच पाम । पीलो इक वच इक नभ पाय, धवलो बहु वच बहु नभ थाय ।। नील लाल पील बहु लेह । पाय, एपनरम भंग कहाय ॥ नील लाल इक वच जोय । पीलो इक वच इक नभ मांय, धवलो इक वच इक नभ पाय ॥ ३३५. कदा कृष्ण बहुवच देख, नील लाल पील वच एक । सुक्किल बहु वच बहु नभ पाय, ए सतरम भंग कहाय ॥ ३३६. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील लाल एक वच लेह । ३३३. कदा कृष्ण एक वचनेह, सुक्किल इक वच इक नभ ३३४. कदा कृष्ण बहु वच होय, पीलो बहु वच बहु नभ मांय, सुक्किल इक वच इक नभ पाय ॥ ३३७. कदा कृष्ण बहु वच होय, नील लाल एक वच जोय । पीलो बहु वच बहु नभ पाय, धवलो बहु वच बहु नभ थाय ॥ ३३८. कदा कृष्ण बहु वच लेह, नीलो इक वचनेज कह । लाल बहु वच बहु नभ चाय पीलो सुक्किल एक बच पाय ।। ३३९. कदा कृष्ण बहु वच भाल, नील इक वच बहु वच लाल । पीलो इक वच इक नभ मांय, धवलो बहु वच बहु नभ पाय । २८८ भगवती जोड़ ३२१. कदा कृष्ण नील लाल एक, ३१९. एवं एएणं कमेण भंगा चारेयव्वा जाव ३२०. २. सिय कालए य नीलए य लोहियगे य हालिहगे यलगाय ३३३. १५. सिय कालए य नीलगा य लोहियगा य हालिया मिलगे म एसो पन्नरसमो भंगो, ३३४. १६. सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिए य सुक्किलए य ३३५. १७. सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिहगे या प य लोहियगे य ३३६. १८. सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिग व सुनिल व ३३७. १९. सिय कालगाय नीलगे हालिगा य सुक्किलगा य, ३३८. २०. सिय कालगा य नीलगे य लोहियगा य हालिए य सुक्किलए य, ३३९. २१. सिय कालगा य हालिए पक्किलमा य नीलगे य लोहियगा य Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०. २२. सिय कालगा य नीलए य लोहियगा य हालिद्दगा य सुक्किलए य, ३४१. २३. सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य हालिद्दए य सुक्किलए य, ३४२. २४. सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य हालिद्दए य सुक्किलगा य, ३४३. २५. सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य हालिद्दगा य सुक्किलए य, ३४४. २६. सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दए य सुक्किलए य, ३४५. एए पंचसंजोएणं छव्वीसं भंगा भवंति, ३४६,३४७. एवमेव सपुवावरेणं एक्कग-दुयग-तियग चउक्कग-पंचगसंजोएहिं दो एक्कतीसं भंगसया भवंति। ३४८. गंधा जहा सत्तपएसियस्स । ३४०. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील इक वच इक नभ लेह । लाल पील बहु वच होय, सूक्किल इक वचने अवलोय ।। ३४१. कदा कृष्ण नील बहु जान, लाल पील सुक्किल इक मान । ए भंग तेवीसमों पाय, हिव चउवीसमों कहिवाय ॥ ३४२. कदा कृष्ण नील बहु जाण, लाल पील एक वच माण। सुक्किल बहु वच बहु नभ मांय, एभंग चउवीसमों पाय ।। ३४३. कदा कृष्ण नील बहु होय, लाल इक वचने अवलोय । पीलो बहु वच बहु नभ मांय, धवलो इक वच इक नभ पाय ।। ३४४. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील लाल बहु वच लेह । पीलो सुक्किल एक वच थाय, ए भंग छबीसमों पाय ।। ३४५. ए पंच संयोगे पिछाण, षटवीस भांगा इम जाण । बुद्धिवंत गुणीजन सार, वर लीजो न्याय विचार ।। पंच वर्णपणां नै विर्षे बत्तीस भांगा माहिला सोलमों भांगो १, चउवीसमों २, अठावीसमों ३, अन छहला ३, तेतीसमों १, इकतीसमों २, बतीसमों ३--ए छव भांगा वर्जी शेष छब्बीस भांगा हुवै। ३४६. एक संयोगे भंग पंच, द्विक संयोग चालीस संच। त्रिक संयोगे अस्सी कहाय, चउक्क संयोगे अस्सी थाय ।। ३४७. पंच संयोगे भांगा छावीस, सर्व दोय सौ नै इकतीस । ___पंच वर्ण तणां पहिछाण, ए भंगा नी संख्या जाण ।। ३४८. गंध नां इक संयोग दोय, द्विकसंयोगे चिहुं अवलोय । जिम सप्त प्रदेशिक खंध, तिम गंध नां भांगा प्रबंध ।। ३४९. रस नां भांगा अवलोय, जिम एह वर्ण नां जोय । आख्या तिम कहिवा जगीस, एतलै दोयसौ इकतीस ।। ३५०. फर्श नां भांगा षट तीस, चिहं प्रदेशिक जिम दीस । सर्व संख्या पांचसौ च्यार, अष्ट प्रदेशिक नां धार ।। अष्टप्रदेशिक खंधे वर्णादिक नां ५०४ भांगा नों यंत्र२३१ अष्टप्रदेशिक खंधे वर्ण नां २३१ भांगा ५ एक संयोगे ५ भांगा पूर्ववत ४० द्विकसंयोगे ४० भांगा पूर्ववत ८० त्रिकसंयोगे ८० भांगा पूर्ववत ८० चतुष्कसंयोगे ८० भांगा कहै छ १ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ २ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दगा ३ ३ कालए 1 नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दए १ ४ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दगा ३ ५ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ ६ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दगा ३ ७ कालए १ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिद्दए १ ८ कालए १ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिद्दगा ३ ए कृष्ण एक वचन संघाते ८ भांगा कहा। ३४९. रसा जहा एयस्स चेव वण्णा । ३५०. फासा जहा चउप्पएसियस्स। (श० २०१३३) श• २०, उ• ५, ढा. ४०२ २८९ Jain Education Intemational Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि कृष्ण बहु वचन संघाते ८ भांगा कहै छं९ काला ३ नीलए लोहियए १ हालिदए १ १० कालानीए १ लोहियए १ हालिया ३ ११ कालगा ३ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दए १ १२ कालगा ३ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दगा ३ १३ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिदए १ १४ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिगा ३ १५ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिद्दए १ १६ कालगा ३ नीलगा लोहिया ३ हालिमा ३ ३२ इमहिज कृष्ण नील लाल सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै भांगा १६ करिवा । ४८ इमहिज कृष्ण नील पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै भांगा १६ करिया । ६४ इमहिज कृष्ण लाल पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिकै भांगा १६ करिव । ८० इमहिज नील लाल पील सुक्किल संघाते एक वचन बहुवचन करिके भांगा १६ करिया । २६ पंचसंयोगे भांगा २६ कहै छै - १ काल १ नीलए १ लोहिए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ २ काल १ नीलए १ लोहिए १ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ ३ कालर १ नीलए १ लोहिए १ हालिगा ३ सुक्किलए १ ८ काल १ नीलए १ लोहिए १ हालिद्दगा ३ सुक्किलगा ३ ५. कालए १ नीलए १ लोहितगा ३ हालिदए १ सुक्किलए १ ६ का १ एलोहिमा हालिए १ सुक्किलगा ७ काल ११ लोहिमा हालिगा ३ सुनिकल ८ कालए १ नीलए १ लोहितगा ३ हालिगा ३ सुक्किलगा ३ ९ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिदए १ सुक्किलए १ १० कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ ११ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिगा ३ सुक्किलए १ १२१३ लोहियए १ हालिएगा ३ मुस्किलमा ३ १३ कालए नीलगा लोहितमा हालिए १ सुनिकलए १४ काल १ नीलगा लोहितमा हालिमुनिका ३ १५ कालए १ नीलगा ३ लोहितगा ३ हालिगा ३ सुक्किलए १ १६ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ १७ कालमा ३ नीलए १ लोहियए १ हानिए १ सुकिला ३ १८ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिगा ३ सुक्किलए १ १९ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिगा ३ सुक्किलगा ३ २० कालगा ३ नीलए १ लोहितगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलए १ २१ कालगानीए १ लोहिमा हालिएका ३ २२ काला ३ नीलए १ लोहिता ३ हालिगा ३ सुक्किए १ २३ कालगा ३ नीलए लोहियए १ हालिए १ सुक्किलए १ २४ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिए निकलना २९० भगवती जोड़ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दगा ३ सुक्किलए १ २६ कालगा ३ नीलगा ३ लोहितगा ३ हालिए १ सुक्किलए १ एवं वर्ण नां भांगा २३१ गंध नां भांगा ६ पूर्ववत । रस नां भांगा २३१ वर्ण नीं परं । स्पर्श नां भांगा ३६ पूर्ववत । एवं अठ प्रदेशिक खंध नै विषे सर्व भांगा ५०४ । नवप्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग ३५१. छानव प्रदेशिक नीं पेखा, जिन भाखं कदा वर्ण एक। अष्ट प्रदेशिक जिम तास, जाव कदाचित चिहुं फास ।। ३५२. जो एक वर्ण हवं संच, इक वर्ण संयोगे पंच। हुवै दोय वर्ण संयोग चालीस, तीन वर्ण योग अस्सी दीस || ३५३. प्यार वर्ण संयोगे जोय, अस्सी भांगा अवलोय । अष्ट प्रदेशिक नां स्वात इम कहिया भंग सुजात || " पंचयोगिक वर्ण नां ३१ भांगा ३५४. जो पांच वर्ण तिण में होय, तो कदा कृष्ण वर्ण अवलोय । नील लाल पील मुश्किल रंग, पांचू इक वचने धुर भंग ।। ३५५. कदा कृष्ण नील लाल पील, चिहुं इक वचनेज समील । सुक्किल बहु वच बहू न मांय, ए द्वितीय भंग कहिवाय ॥ ३५६. इम अनुक्रमे करि करिवा, इकतीस भांगा उच्चरिवा । जाव इकतीसमों भंग ख्यात, कहूं जुआ जुआ अवदात ।। ३५७. कदा कृष्ण नील लाल जान, त्रिहुं इक वचने करि मान । पीलो बहु वच बहु नभ चंग, सुक्किल इक वच तीजो भंग || ३५८. कदा कृष्ण नील लाल एक, पीलो बहु वच बहु नभ पेख । सुक्किल बहु वच बहु नभ मांय, ए तुर्य भंग कहिवाय ॥ ३५९. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल बहु वच बहु नभ पेख । पीलो इक वच इक नभ चंग, सुक्किल इक वच पंचम भंग ।। ३६०. कदा कृष्ण नील वच एक. लाल बहु वच बहु नभ देख पीलो इक वच इक नभ पाय, सुक्किल बहु वच बहु नभ थाय ॥ ३६१. कदा कृष्ण नील वच एक, लाल बहु वच बहु नभ पेख । पीलो बहु वच बहु नभ मांय, सुक्किल इक वच इक नभ पाय ।। लाल बहु वच बहु नभ पेख । ३६२. कदा कृष्ण नील वच एक, पीलो यह वर्ष बहु नभ मांय, सुक्किल बहु वच बहु नभ पाय ।। कृष्ण एक वचन नील बहु वचने करी ८ भांगा३६३. कदा कृष्ण एक वच होय, नील बहु वच बहु नभ जोय । ए नवमों भांगो विशेख ॥ लाल पील धवल वच एक, *लय : म्हारी सासू रो नाम छं फूली ३५१. नवपएसिए णं भंते ! खंधे - पुच्छा । गोममा सिय एमबी जहा अट्टमएसिए जाव सिय चउफासे पण्णत्ते । ३५२, ३५३. जइ एगवण्णे ? एरावण दवण्ण विवरणचडवण्णा जहेव अट्ठपएसियस्स । ३५४. जइ पंचवण्णे ? १. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिए य सुक्किलए य, ३५५. २. सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिए विकलगाय ३५६. एवं परिवाडीए एक्कतीसं भंगा भाणियव्वा जाव श० २०, उ०५, ढा० ४०२ २९१ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४. कदा कृष्ण एक वच थाय, नील बहु वच बहु नभ पाय । लाल पील एक वचनेह, सुक्किल बहु वच बहु नभ लेह ।। ३६५. कदा कृष्ण एक वचनेह, नील बहु वच बहु नभ लेह । लाल इक वच बहु वच पील, सुक्किल इक वच इक नभ मील ।। ३६६. कदा कृष्ण एक वचनेह, नील बहु वच बहु नभ लेह । लाल इक वच इक नभ मांय, पीलो सुक्किल बहु वच थाय ।। ३६७. कदा कृष्ण एक वच देख, नील लाल बहु वच पेख । पील सुक्किल एक वच जाण, ए तेरमों भंग पिछाण ।। ३६८. कदा कृष्ण एक वचनेह, नील लाल बहु वच लेह । पीलो इक वच इक नभ मांय, सुक्किल बहु वच बहु नभ पाय ।। ३६९. कदा कृष्ण वर्ण वच एक, नील लाल पील बहु वच पेख । धवलो इक वच इक नभ मांय, ए पनरम भंग कहाय ।। ३७०. कदा कृष्ण एक वच होय, नील बहु वच बहु नभ जोय । लाल पील धवल बहु जान, ए सोलम भंग पिछान ।। कृष्ण बहु वचने करी १६ भागा कहै छ, तिणमें छहलो भांगो न संभव३७१. कदा कृष्ण बहु वच जोय, नील इक वच इक नभ होय । लाल पील धवल वच एक, ए सतरम भंग संपेख ।। ३७२. कदा कृष्ण बहु वच पेख, नील लाल पील वच एक । सुक्किल बहु वच बहु नभ थाय, ए अठारमों भंग पाय ।। ३७३. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील लाल एक वच जेह । पीलो बहु वच बहु नभ पाय, सुक्किल इक वच इक नभ थाय ।। ३७४. कदा कृष्ण बहु वच होय, नील लाल एक बच जोय । पीलो बहु वच बहु नभ पाय, सुक्किल बहु वच बहु नभ थाय ।। ३७५. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील इक वचने करि लेह । लाल बहु वच बहु नभ होय, पील सुक्किल एक वच जोय ।। ३७६. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील इक वचनेज कहेह । लाल बहु वच इक वच पील, सुक्किल बहु वच बहु नभ मील ।। ३७७. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील इक वचनेज कहेह । लाल पील बहु वच पाय, सुक्किल इक वचने कहिवाय ।। ३७८. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील इक वचनेज कहेह । लाल बहु वच बहु नभ थाय, पील सुक्किल बहु वच पाय ।। ३७९. कदा कृष्ण बहु वच होय, नील बहु वच बहु नभ जोय । लाल पील सुक्किल वच एक, पंचवीसमो भंग ए पेख ।। २९२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५. सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य य सुक्किलए य, ३८६,३८७. एए एकत्तीसं भंगा, एवं एक्कग-दुयग-तियग चउक्कग-पंचगसंजोएहिं दो छत्तीसा भंगसया भवंति। ३८८, गंधा जहा अट्टपएसियस्स । रसा जहा एयस्स चेव वण्णा । फासा जहा चउपएसियस्स । (श० २०१३४) ३८०. कदा कृष्ण बहु वचनेह, नील बहु वच बहु नभ लेह । लाल पील एक वच थाय, सुक्किल बहु वच बहु नभ पाय ।। ३८१. कदा कृष्ण नील बहु वच होय, लाल इक वचने अवलोय । पीलो बहु वच बहु नभ मांय, सुक्किल इक वचने कहिवाय ।। ३८२. कदा कृष्ण नील बहु होय, लाल इक वचने अवलोय । पील सुक्किल बहु वच देख, अठवीसमों भंग विशेख ।। ३८३. कदा कृष्ण नील बहु होय, लाल बहु वच बहु नभ जोय। पील सुक्किल एक वचनेह, गुणतीसमों भांगो एह ।। ३८४. कदा कृष्ण नील बहु जान, लाल बहु वच बहु नभ मान । पीलो इक वचने कहिवाय, सुक्किल बहु वच बहु नभ पाय ।। ३८५. कदा कृष्ण नील लाल पील, चिहुं बहु वच बहु नभ मील । सुक्किल इक वचने कहिवाय, इकतीसमों भंग ए थाय ।। ३८६. इम एक संयोगे पंच, द्विक संयोगे चालीस संच। त्रिक संयोगे असी कहाय, चउक्क संयोगे असी थाय ।। ३८७. पंच संयोगे भंग इकतीस, सर्व दोयसौ में षट तीस । पंच वर्ण तणां अवलोय, नव प्रदेशिक नां जोय ॥ ३८८. गंधा जिम अष्ट प्रदेशिक जाण, रसा जिम एहनां वर्ण पिछाण । फासा जिम चउप्पएसियस्स, सहु भंगा भणवा अवस्स ।। नव प्रदेशिक खंधे वर्णादिक नां ५१४ मांगा नों यन्त्र२३६ नवप्रदेशिक खंधे वर्ण नां २३६ भांगा एकसंयोगे ५ भांगा पूर्ववत द्विकसंयोगे ४० भागा पूर्ववत त्रिकसंयोगे ८० भांगा पूर्ववत चतुष्कसंयोगे ८० भांगा पूर्ववत पंचसंयोगे ३१ भांगा, ते कहै छै१ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ २ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ ३ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दगा ३ सुक्किलए १ ४ कालए १ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दगा ३ सुक्किलगा ३ ५ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलए १ ६ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ ७ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दगा ३ सुक्किलए १ ८ कालए १ नीलए १ लोहियगा ३ हालिद्दगा ३ सुक्किलगा ३ ९ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ १० कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ ११ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दगा ३ सुक्किलए १ १२ कालए १ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दगा ३ सुक्किलगा ३ १३ कालए १ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलए १ १४ कालए १ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ श० २०, ३०५, ढा. ०२ २९३ Jain Education Intemational Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ ए १३ लोहियना हालिएगा ३ मुस्किलए १ १६ कालए १ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिद्दगा ३ सुक्किलगा ३ १७ काला नीलगाए एहालिए लिए १ १८ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ १९ कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिगा ३ सुक्किलए १ २० कालगा ३ नीलए १ लोहियए १ हालिगा ३ सुक्किलगा ३ २१ काला लोहिया २ हालिए ११ २२ का ३१ मोहिमा हालिए सुक्किलगा २३ कालानीए १ मा ३ हालिया ३क्लिए १ २४ कालगा ३ मीलए १ लोहियगा ३ हालिगा ३ सुक्किलगा ३ २५ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलए १ २६ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ २७ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिगा ३ सुक्किलए १ २८ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियए १ हालिगा ३ सुक्किलगा ३ २९ कालगा ३ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिदए १ सुक्किलए १ ३० कालगा ३ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिद्दए १ सुक्किलगा ३ ३१ कालगा नीलगा लोहियना ३ हालिएगा मुस्किलए १ एवं वर्ण नां भांगा २३६ गंध नां भांगा ६ पूर्ववत रस नां भांगा २३६ वर्ण नीं परं स्पर्श नां भांगा ३६ पूर्ववत एवं नव प्रदेशिक बंध नैं विषे सर्व भांगा ५१४ दस प्रदेशिक स्कन्ध में वर्णादि भंग ३८९. प्रदेशिक प्रश्न पिछाण, कदा एक वर्ष जिन माण | नव प्रदेशिया जिम तास, जाव कदाचित् चिहुं फास || ३९०. जो एक वर्ण हुवै दोष संयोगे असी ३९१. च्यार वर्ण योगे असी जान, नव पंच वर्ण योगे सुजगीस तिमहिज ३९२. नवरं बतीसमों ए भंग, पांचू वर्ण कदा कृष्ण बहु वच होय, जाव सुक्किल ३९३. इम इक द्विक त्रिक संयोग, चउक्क सर्व दोयसौ नं सेतीस पंच वर्ण ३९४. गंध नां षट भांगा कहाय, नव रस नां दोयसौ नैं सैंतीस ३९५. फर्म नां घट तीसज भंग, सर्व पांचसौ सोलै संपेख, , संच एक वर्ण संयोगे पंच | भंग, तीन वर्ण योगे असी चंग || प्रदेशिक जिम आन । भांगा इकतीस ॥ बहुवच चंग | बह वच जोय ।। संयोगे प्रयोग । पंच नां भंग जगीस || प्रदेशिक जिम पाय । एहना वर्ण नां ज्यू जगीस ॥ प्रदेशिक जिम चंग | चठ दश प्रदेशिक नां ए देख || ३९६. दश प्रदेशियो बंध जेम, संख्यात प्रदेशियो एम पांवसी ने सोले भंग होय, पूर्वली पर ३९७. इम असंख प्रदेशियो बंध, पांचसौ सोले सोले सूक्ष्म अनंत प्रदेशिक एम पांचसौ २९४ भगवती जोड़ 7 1 अवलोय ॥ भंग कथंद | भंगा तेम ॥ ३८९. दसपएसिए णं भंते ! खंधे - पुच्छा । गोयमा ! सिय एगवणे जहा नवपएसिए जाव सिय चउफासे पण्णत्ते । ३९०,३९१. जइ एगवणे ? एगवण-दु-तवचडवण्णा जहेव नवपए सियस्स । पंचवण्णे वि तहेव, ३९२. नवरं - बत्तीसतिमो भंगो भण्णति ३९३. एवमेते एक्का-पंचगसंजोए दोण्णि सत्ततीसा भंगसया भवंति । ३९४. गंधा जहा नवपएसियस्स । रसा जहा एयस्स चेव वण्णा । ३९५. फासा जहा चउप्पएसियस्स । ३९६. जहा दसपए सिओ एवं संखेज्जपएसिओ वि । ३९७. एवं असंखेज्जपएसिओ वि। सुहुमपरिणओ अनंतएसिनो वि एवं चैव । ( ० २०/२५) Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै पाछलो धड़ो कहै छै३९८. वर्ण नां चवदै सौ दोय, गंध नां बावन अवलोय । रस नां चवदै सौ बे भणवा, फर्श नां दोयसौ नेऊ थुणवा ।। ३९९. ए सर्व भांगा सुजगीस, इकतीसौ नै छयालीस । हिवै बादर परिणत खंध, अनंत प्रदेशिक नां कथंद ।। दश प्रदेशिक खंधे वर्णादिक नां ५१६ भांगा नों यन्त्र-- २३७ दश प्रदेशिक खंधे वर्ण नां भांगा २३७ कहै छ एक संयोगे ५ भांगा पूर्ववत द्विक संयोगे ४० भांगा पूर्ववत त्रिक संयोगे ८० भांगा पूर्ववत चतुष्क संयोगे ८० भांगा पूर्ववत पंच संयोगे ३२ भांगा। भांगा ३१ पूर्वे कह्या तेहिज, हिवै बत्तीसमों भांगो लिखिय छै कालगा ३ नीलगा ३ लोहियगा ३ हालिद्दगा ३ सुक्किलगा ३ गंध नां भांगा ६ पूर्ववत रस नां भांगा २३७ पूर्ववत स्पर्श नां भांगा ३६ पूर्ववत एवं दस प्रदेशिक खंध नै विषे सर्व भांगा ५१६ । इम संख्यात प्रदेशिक, असंख्यात प्रदेशिक तथा सूक्ष्म परिणत अनंत प्रदेशिक ए पिण कहिवा । हिवै बादर भाव परिणत अनंत प्रदेशिक खंध नै वर्ण, गंध रस नां भांगा पूठली पर कहिवा । स्पर्श नां भांगा विशेष कहै छै - बादरपरिणत अनंत प्रदेशिक खंधे स्पर्श ना १२९६ भांगा४००. बादर परिणत हे भगवान ! अनंत प्रदेशियो खंध जान । तिण में वर्ण किता कहिवाय, गंध रस फर्श किता पाय ? ४०१. इम शतक अठारमा मांय, जिम आख्यं इम कहिवाय । जाव कदाचित अठ फास, एतला लगै कहिवू विमास ।। ४०२. इहां वर्ण गंध रस नां भंग, दश प्रदेशिक जिम चंग । वर्ण नां दोयसौ – सैंतीस, गंध नां षट भंगा जगीस ।। ४०३. रस नां दोयसौ सैंतीस, हिवे फर्श नां भांगा कहीस । फर्श नां बारै सौ छर्ने थाय, तके सांभलजो चित ल्याय ।। सर्व कर्कश सर्व गुरु संघाते ४ भांगा४०४. जो च्यार फर्श तिण में होय, तो सर्व कर्कश फर्श सुजोय । सर्व गुरु सर्व शीत पाय, सर्व निद्ध ए धुर भंग थाय ।। ४०५. सगला प्रदेश कर्कश जान, तिके सर्व गुरु पहिछान । तिके सर्व शीत थी कहीज, तिके सर्व लुक्ख भंग बीज ।। ४०६. सर्व कर्कश सहु गुरु जान, सर्व उष्ण सर्व निद्ध मान । सर्व कर्कश सह गुरु देख, सर्व उष्ण सर्व लक्ख पेख ।। ४००. बायरपरिणए णं भंते ! अणंतपएसिए खंधे कति वण्णे? ४०१. एवं जहा अट्ठारसमसए (१८॥११७) जाव सिय अट्ट फासे पण्णत्ते। ४०२. वण्ण-गंध-रसा जहा दसपएसियस्स । ४०४. जइ चउफासे ? १. सब्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे, ४०५. २. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे, ४०६. ३. सव्वे कक्खडे सब्वे गरुए सब्वे उसिणे सव्वे निद्धे, ४. सव्वे कक्खड़े सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सब्वे लुक्खे, श० २०, उ०५, ढा० ४०२ २९५ Jain Education Intemational ma Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व कर्कश सर्व लघु संघाते ४ भांगा४०७. सर्व कर्कश सहु लघु न्हाल, सर्व सर्व कर्कश सहु लघु हुंत, सर्वं ४०८. सर्व कर्कश सहु लघु धार, सर्व सर्व कर्कश सह लघु जेह, सर्व मृदु सर्व संघाते ४ भांगा गुरु ४०९. सर्व मृदु सर्व गुरु होय, सर्व सर्व शीत सर्व मृदु सर्व गुरु जान, सर्व शीत ४१०. सर्व मृदु सर्व गुरु देख, सर्व उष्ण सर्व ―― सर्व मृदु सर्वलघु संपाते ४ भागा मृदु सर्व गुरु होय, सर्व उष्ण सर्व लुक्ख जोय || शीत सर्व निद्ध भाल । शीत सर्व लुक्ख मंत ॥ उष्ण सर्व निद्ध सार । उष्ण सर्व लुक्ख तेह || ४११. सर्व मृदु सर्व लघु न्हाल, सर्व सर्व मृदु सर्व लघु हंत, सर्व ४१२. सर्व मृदु सर्व लघु जेह, सर्व सर्व मृदु सर्व लघु ताय, सर्व उष्ण ४१३. प्यार फर्श तथा ए जान, भंग सोल सर्व सर्व लुक्ख निद्ध भाल । मंत ॥ सर्व नि तेह सर्व लुक्ख थाय ।। का सुविधान | पंच फर्श नां हिवै जगीस, भंग एकसौ ने आठवीस || पंच फर्श नां १२८ भांगा ४१४. जो पंच फर्श तिण में होय, तो सर्व कर्कश फर्श सुजोय । सर्व गुरु सर्व गीत जान, देश निद्ध देश लुक्ख मान ॥ ४१५. सर्व कर्कश सह गुरु देख, तिके सर्व ही शीत अशेख । तिण में देश निद्ध वचएक, देशा लुक्खा बहु वच पेख || ४१६. सर्व कर्कश सहु गुरु जेह, तिके सर्व ही शीत कहेह । तिणमें देशा निद्धा बहु थाय, देश लुक्ख एक वच पाय ।। ४१७. सर्व कर्कश सहु गुरु होय, तिके सर्व ही शीत सुजोय । ४९८. कर्कश गुरु शीते करी, इक बहु वचने ४१९. हिव कर्कश गुरु उष्ण इक वह वचने ४२०. * सर्व कर्कश सहु सर्व निद्ध जोय । सर्व लुक्ख मान ॥ सर्व निद्ध पेख । शीत शीत उष्ण तिणमें देशा निद्वा देशा लुक्खा, हिं बहु वचनेज प्रतक्या ॥ । चूहा निढ लुक्ख ए बिहु माहि निद्ध करि कहो, घुर चभंगी वाहि ॥ करि, निद्ध लुक्ख बिहुं मांहि । करि कहूं, द्वितीय चभंगी ताहि ॥ गुरु जान, तिके सर्व ही उष्ण पिछाण । देश निद्ध देश लुक्ख कहिये, बिहुं इक वचने करि लहिये || ४२१. सर्व कर्कश सहु गुरु देख, तिके सर्व ही उष्ण अशेख | तिण में देश निद्ध वच एक, देशा लुक्खा बहु वच पेख || ४२२. सर्व कर्कश सहु गुरु जेह, तिके सर्व ही उष्ण कहेह । तिणमें देशा निद्धा बहु थाय, देश लुक्ख एक वच पाय ॥ *लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली २९६ भगवती जोड़ ४०७. ५. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे ६. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सब्वे लुक्खे, ४०८. ७. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे, ८. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सव्वे लुक्खे, ४०९. ९. सव्वे मउए सव्वे गए सव्वे सीए सब्वे निद्धे, १०. सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे, ४१०. ११. सव्वे मउए सब्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे, १२. सब्वे मउए सव्वे गरुए सब्वे उसिणे सव्वे लुक्खे, ४११. १३. सव्वे मउए सव्वे लहुए सव्वे सीए सब्बे निद्धे, १४. सव्वे मउए सव्वे लहुए सब्वे सीए सव्वे लुक्खे, ४१२. १५. सव्वे मउए सब्वे लहुए सब्वे उसिणे सब्वे निद्धे, १६. सव्वे मउए सव्वे लहुए सब्वे उसिणे सव्वे लुक्खे, ४१३. एए सोलस भंगा। ४१४. जइ पंचफासे ? १. सव्वे कक्खडे सब्वे गरुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे, ४१५. २. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा, ४१६. ३. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए देसा निद्धा देसे लक्खे, ४१७. ४. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए देसा निद्वा देसा लुक्खा, ४१. वर्कशी ४१९. गुरुभ्यते स्निग्पोरेकत्वानेकत्वकृता ( वृ० प० ७८७) ( वृ० प० ७८७) चतुर्मीला ४२०-४२३. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे देसे निद्धे देसे लक्खे ४, Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ ।। कर्कश सहु गुरु होय, तिके सर्व ही उष्ण सुजोय । तिणमें देशा निद्धा देशा लुक्खा, बिहु बहु वचनेज प्रतक्खा ।। सोरठा ४२४. कर्कश गुरु करि एह, ए बे चउभंगी कही। कर्कश लघु करि जेह, बे चउभंगी हिव कहूं ।। ४२५. *सर्व कर्कश सहु लघु देख, तिके सर्व ही शीत अशेख । देश निद्ध देश लुक्ख कहिये, बिहुं इक वचने करि लहिये । ४२६. सर्व कर्कश सहु लघु होय, तिके सर्व ही शीत सुजोय । देश निद्ध इक वचनेह, देशा लुक्खा बहु वच जेह ।। ४२७. सर्व कर्कश सहु लघु हंत, तिके सर्व ही शीत कहंत । देशा निद्धा बहु वचनेह, देश लुक्ख एक वच लेह ।। ४२८. सर्व कर्कश सहु लघु थाय, तिके सर्व शीत कहिवाय । देशा निद्धा देश लुक्ख कहियै, ए द्वादशमों भंग लहियै ।। ४२४. एते चाष्टौ कर्कशगुरुभ्याम् एवमन्ये च कर्कशलघुभ्याम, (वृ० ५०७८७) ४२५-४२८. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्से ४, ४३१-४३४. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, ४२९. कर्कश लघु शीते करो, निद्ध लुक्ख ए बिहुं मांहि । इक बहु वचने करि कही, तृतीय चउभंगी ताहि ।। ४३०. कर्कश लघु उष्णे करी, निद्ध लुक्ख ए बिहुं माय । इक बहु वचने करि हिवै, तुर्य चउभंगी थाय ।। ४३१. *सर्व कर्कश सह लघु जान, सर्व उष्ण तिके पहिछान । तिणमें देश निद्ध देश लुक्ख, बिहुं इक वच तेरम वक्ख ।। ४३२. सर्व कर्कश सह लघु जोय, सर्व उष्ण तिके अवलोय । तिणमें देश निद्ध वच एक, देशा लुक्खा बहु वच पेख ।। ४३३. सर्व कर्कश सह लघु जेह, तिके सर्व उष्ण गिण लेह । देशा निद्धा बहु वच तेह, देश लुक्ख एक वचनेह ।। ४३४. सर्व कर्कश सहु लघु भाल, तिके सर्व ही उष्ण निहाल । देशा निद्धा देशालुक्खा चंग, बिहं बहु वच सोलमो भंग ।। ४३५. इम कर्कश फर्श संघात, धुर षोडश भंगा ख्यात । हिवै मृदु संघाते चंग, कहियै छै सोल भंग ।। ४३६. सर्व मृदु सर्व गुरु जोय, तिके सर्व शीत अवलोय । देश निद्ध देश लुक्ख जेह, बिहुं इक बच धुर भंग एह ।। ४३७. इम मृदु साथे पिण देख, चिहं चउभंगी करि पेख । ___ करिवा जे सोलै भंग, ए बतीस भांगा सुचंग ।। सोरठा ४३८. निद्ध लुक्ख ए दोय, इक बह वचनपणादि करि । ए बतीसूं जोय, पवर भंग पूर्वे कह्या ।। * लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली ४३५. एवं एए कक्खडेणं सोलस भंगा, ४३६. सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे, ४३७. एवं मउएण वि सोलस भंगा, एवं बत्तीसं भंगा; ४३८. इयं च द्वात्रिंशत् स्निग्धरूक्षयोरेकरवादिना लब्धा, (वृ० प० ७८७) श० २०, उ० ५, ढा० ४०२ २९७ Jain Education Intemational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३९. अन्या च द्वात्रिंशत् शीतोष्णयोः (वृ० प० ७८७) ४४० सम्वे कक्खडे सब्वे गरुए सव्वे निद्ध देसे सीए देसे उसिणे, ४४३. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सब्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे, एए बत्तीसं भंगा, ४३९. शीत उष्ण ए दोय, इक बह वचनपणादि कर । दोय तीस भंग होय, कहियै छै हिव आगलै ।। ४४०. *सर्व कर्कश सह गुरु जान, सर्व निद्ध तिके पहिछान । देश शीत देश उष्ण जोय, बिहुं इक वच धुर भंग होय ।। सोरठा ४४१. सह कर्कश गुरु निद्ध, शीत उष्ण इक बहु वचन । भांगा सोल प्रसिद्ध, करिवा चिउं चउभंगी करि । ४४२. हिवै सहु कर्कश गुरु लुक्ष, शीतोष्ण इक बह वचन करि । सोल भंग प्रत्यक्ष, चिउं चउभंगी करि कहं । ४४३. *सर्व कर्कश सहु गुरु जान, सर्व लुक्ख तिके पहिछान । देश शोत देश उष्ण जेह, इहां चिउं चउभंगी करेह ।। सोरठा ४४४. शीत उष्ण ए दोय, इक बहु वचनपणादि करि । आख्या बतीस जोय, इह विध ए चउसठ थया । ४४५. *सर्व कर्कश सहु शीत जान, सर्व निद्ध तिके पहिछान । देश गुरु देश लघु संग, इहां अष्ट चउभंगी चंग ।। सोरठा ४४६. इहां गुरु लघु बे फास, इक बहु वचनपणे करी। भंग बतीस विमास, कियां छतां छन्न हुवै ।। ४४७. *सर्व गुरु सर्व शीत जान, सर्व निद्ध तिके पहिछान । देश कर्कश देश सुहालो, इहां पिण भंग बतीस न्हालो ।। सोरठा ४४८. कर्कश मृदु ए दोय, इक बहु वचनपणे करी। अष्ट चउभंगी होय, इम इकसी अठवोस भंग ।। ४४५. सव्वे कक्खडे सव्वे सीए सव्वे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए, एत्थ वि बत्तीसं भंगा, ४४६. अन्या च गुरुलम्बोः (वृ०प० ७८७) ४४७. सब्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए, एत्थ वि बत्तीसं भंगा, ४४८. अन्या च कर्कशमृद्वोरित्येवं सर्व एवते मीलिता अष्टाविंशत्युत्तरं भगंकशतं भवतीति । (वृ० ५० ७८७) ४४९. एवं सव्वे एते पंचफासे अट्ठावीसं भंगसयं भवति । ४४९. *इम सगलाइ कहिवाय, एह पंच फर्श विषे ताय । भांगा एकसौ नै अठावीस, करिवा बुद्धि करी जगीस ।। पंच स्पर्श ना १२८ भांगा कहै छै-- १ सर्व क. सर्व गु० सर्व सी० देसे नि०१ देसे लु० १ २ स क. स.गु. स.सी. दे.नि. १ ३ स.क. स.सी. दे.नि.३ दे.लु. १ ४ स.क. स.सी. दे.नि.३ ८स.क. स.उ. दे.नि.१ १६ स.क. स.ल. स.सी. दे.नि. १ दे.लु. १ ३२ स.मू. स.गु. स.सी. दे.नि.१ दे.लु. १ * लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली ܂ ܒ݁ܟ݂ ܒ݁ to لق لق لق २९८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ स.क. स.गु. स.नि. दे.शी. . दे.उ. ३२ स.क. स.सी. स.नि. दे.गु. दे.ल. सामान. ३२ स.गु. स.सी. स.नि. दे.क. दे.मृ. ए एकसौ अट्ठाईस नी ३२ चउभंगी हुवे । हिवै एहिज पंच संयोगिक नां १२८ भांगा नी ३२ चउभंगी जूजुइ कहै १ स.क. स.गु. स.सी. दे.नि.१ देसेलु.१ २ स.क. स.गु. स.सी. दे.नि. १ दे.लु. ३ ३ स.क. स.गु. स.सी. दे.नि. ३ दे.लू.१ ४स.क. स.गु स.सी. दे.नि. ३ दे.लू. ३ ए प्रथम चउभंगी कही। इम आगल पिण विचारी चउभंगी करवी। हिवै आगली चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ२ स.क. स.गु. स.उ. दे.नि.१ दे.लु.१ ३ स.क. स.ल. स.सी. दे.नि. १ दे. लु. १ ४ स.क. स.ल. स.उ. दे.नि. १ दे.लु. १ सर्व कर्कश संघाते ए १६ भांगा च्यार चउभंगी करि कह्या । हिवै सर्व मृदु संघाते १६ भांगा नी ४ चउभंगी नों प्रथम प्रथम भांगो कहै छै५ स.मृ. स.गु. स.शी. दे.नि. दे.लु. ६ स.मृ. स.गु. स.उ. दे.नि. दे.लु. ७ स.मू. स.ल. स.शी. दे.नि. दे.लु. ८ स.म. स.ल. स.उ. दे.नि. दे.लु. एवं ३२ भांगा ए निद्ध लुक्ख नै एक वच बहु वचने करि हुवा । हिवं ३२शीत उष्ण नै एक वचन बह वचन करी चउभंगी नो प्रथमप्रथम भांगो कहै छैहिवै पंच फर्श नां १२८ भांगा हुवै, तिणमें सर्व कर्कश पवे | करी १६ भांगा हुवै ते कहै छै ११ १२ सर्व क. सर्व गु. सर्व शी. दे. नि. दे. लु. .. स स स स स स ३ ३ १ ३ क. ल. उ. दे.नि. दे.लु. २ स स स १ vorm or m ३ १४ स स स १ W.w.ww क. उ. दे.नि. दे.लु. 여 최적의 १६ स स स ३ ३ इम ए सर्व कर्कश संघाते १६ भांगा कहा। हिवै सर्व मृदु संघाते पिण १६ भांगा कहै छ mm umm स.मृ. स.गु. स.शी. दे.नि. दे.लु. स स स १ १ स स स १ ३ स स स ३ १ स स स ३ ३ १७ १८ १९ २० क. ल. शी. दे.नि. दे.लु. mom श० २०, उ० ५, ढा० ४०२ २९९ Jain Education Intemational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ल. स दे.शी. १ दे.उ. १ १३ स मृ. गु. उ. दे.नि. दे.लु. २१ स स स १ १ २२ स स स १ ३ २३ स स स ३१ १५ 여여여여 स स ३ १ mar 44444764444444 दे.नि. दे. स.मू. स.गु. स.नि. दे.शी. दे.उ. १८ स स स ३ orm wr. our m room २८ स स ३ ३ २० स स स ३ ३ २९ ३० ३१ मृ. स स स ल. स स स उ. दे.नि. दे.ल. स १ १ स १ ३ स ३ १ २१ २२ स स स स लु. स स दे.शी. १ १ दे.उ. १ ३ avor mar २४ स स स ३ ३ इम बत्तीस भांगा निद्ध लुक्ख नै एकवचन बहुवचने करी कहा। हिवं वली ए बत्तीस मांगा शीत उष्ण ने एक बचन बहु वचन करी कहै छै-- २५ २६ स स स स नि. स स दे.शी. दे.उ. १ १ १ ३ wr m rom स.क. स.गु. स.नि. दे.शी. दे.उ. २८ स स स ३ २ स स स १ or m ३ س له २९ ३० स स स स ल. स स दे.शी. दे.उ. १ १ १ ३ क. गु. ल. दे.शी. दे.उ. or mr m am - ३२ स स स ३ ३ इम बत्तीस मांगा शीत उष्ण एक वचन बहु वचन करी कह्या एवं ६४ । हिवं गुरु लघु एक वचन बहु वचन करी ३२ भांगा कहै छ-- नि. दे.शी. दे.उ. ___ स.क. स.शी. स.नि. दे.गु. दे.ल. wo amom १२ स स स ३ al ३०० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ स स स ३ १ क. शी. दे.गु दे.ल. ३२ 4 4 44444 इम बत्तीस भांगा गुरु लघु एक वचन बहु बचन करी का एवं ९६। हिवं कर्कश मृदु एक वचन बहु वचन करी ३२ मांगा कहै 4 4 .गु. २५ स.शी. स.नि. दे.क. दे.मू. क. उ. नि. दे.गु. दे.ल. orm orm mm गु. स शी. स लु. दे.क. स १ दे.मृ. १ क. उ. ल. दे.गु. दे.ल. ५ 4444 e amm Mr orm १५ १६ orrm m स स स स १ ३ २१ गु. उ. नि. दे.क. दे.मृ. १० स स स १ ३ १७ १८ १९ स.मृ. स.शी. स.नि. दे.गु. दे.ल. स स स १ १ स स स १ ३ स स स ३ १ २८ उ. गु. ल. दे.क. दे.मृ. هه १४ स स स مه ३ الله मृ. स स स स २१ २२ २३ २४ २२ शी. स स स स ल. स स स स दे.गु. १ १ ३ ३ दे.ल. १ ३ १ ३ الله स.ल. स.शी. स.नि. दे.क. दे.मृ. मृ. स उ. स नि. दे.गु. स १ दे.ल. १ २५ orm مه m २० स स स ३ ३ ३ لام १ ~ २७ २८ स स स स स स سه ३ ن م ल. स स स शी. स स स ल. स स स दे.क. दे.मृ. १ १ १ ३ ३ १ २१ २२ २३ मृ. स للع, उ. स लु. स दे.गु. १ दे.ल. १ مه २९ الله 역 회의 श० २०, उ०५, ढा० ४०२ ३०१ Jain Education Intemational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल. दे.क. दे. मृ. २५ स स १ १ २६ स स ३ २७ स स स १ २८ स स स ३ हिवै छ फर्श नां ३८४ भांगा, तिनमें प्रथम चउभंगी सर्व कर्कश सर्व गुरु अनं शीत उष्ण एक वचन करी कहे छे ३१ उ. नि. स ४५०. जो फर्श तिण में षट पाय, तो सर्व कर्कश सहु गुरु थाय । देश शीत देश उष्ण वक्ख, देश निद्ध अने देश लुक्ख ॥। देश शोत देश उष्ण तेह | इम जाव सोलमों ख्यात ।। देश शीत देश उष्ण मान । ए तृतीय भंग इम लहिये ॥ देश शीत देश उष्ण जोय । एतुर्य भंग कहिवाय ॥ ४५१. सर्व कर्कश सहु गुरु जेह, देश निद्ध देशा लुवखा बात 7 १ ३ ४५२. सर्व कर्कश सहु गुरु जान, देशा निद्धा देश लुक्ख कहिये, ४५३. सर्व कर्कश सह गुरु होय, देशा निद्वा देशा लुक्खा थाय, हि दूजी चउभंगी सर्व कर्कश सर्व गुरु अनं शीत एक वचन अन उष्ण बहु वचन करी कहै छे ४५४. सर्व कर्कश सहु गुरु जान, देश शीत देशा उष्णा मान । देश निद्ध देश ख ताम, ए पंचम भांगो पाम ।। ४५५. सर्व कर्कश सहु गुरु जान, देश शीत देशा उष्णा मान । देश निद्ध देशा लुक्खा थाय, ए षष्टम भंग कहाय ॥ ४५६. सर्व कर्कश सह गुरु जान, देश शीत देशा उष्णा मान । देशा निया देश लुक्ख मंत, ए सप्तम भंगो त ।। ४५७. सर्व कर्कश सह गुरु जान, देश शीत देशा उष्णा मान देशा निद्धा देशा लुक्खा पाय, ए अष्टम भांगो थाय ॥ हि आठ भांगा सर्व कर्कश सर्व गुरु अने शीत बहु वचने करी कहै छे ४५८. सर्व कर्कश सह गुरु देख, देशा शीता देश उष्ण पेख । देश निद्ध देश लुक्ख भाली, भंग नवमों एह निहाली ।। ४५९. सर्व कर्कश सह गुरु सोय, देशा शीता देश उष्ण जोय । देश निद्ध देशा लुक्खा संच, एह भांगो दशमो विरंच ॥ ४६०. सर्व कर्कश सहु गुरु जान, देशा शीता देश उष्ण मान । देशा निद्धा देश लुक्ख कहिये, ए ग्यारम भांगो लहिये || ४६१. सर्व कर्कश सहु गुरु जान, देशा शीता देश उष्ण मान । देशा निढा देशा लुक्खा जोय, ए द्वादशमों भंग होय ॥ ४६२. सर्व कर्कश सहु गुरु जान, देशा शीता देशा उष्णा मान । देश निद्ध देश लुक्ख जोय, ए भांगो तेरमों होय ।। ४६३. सर्व कर्कश सह गुरु जान, देशा शीता देशा उष्णा मान । देश निद्व देशा लुक्खा देख, ए चवदमो भांगो पेख ॥ ३०२ भगवती जोड़ २९ ३० ३१ ३२ ३२ ल. उ. स स स स स स स ३ स स स ३ ३ इस ए पंच स्पर्श नां सर्व भांगा १२८ हुवे । लु. दे.क. दे.मृ. स १ १ स ३ १ ४५०. जइ छप्फा से ? १. सब्वे कक्खडे सव्वे गरु देसे सीए देसे उसने देसे निद्धे देसे लुक्खे, ४५१. २. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा, एवं जाव १६, Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५. सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा, एए सोलस भंगा, ४६६. सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, एत्थ वि सोलस भंगा, ४६४. सर्व कर्कश सहु गुरु जान, देशा शीता देशा उष्णा मान । __ देशा निद्धा देश लुक्ख चंग, ए पनरम भंग प्रसंग ॥ ४६५. सर्व कर्कश सहु गुरु जान, देशा शीता देशा उष्णा मान । देशा निद्धा देशा लुक्खा लहिये, ए भंग सोलमो कहिये ।। हिवै सर्व कर्कश सर्व लघु करिकै १६ भांगा कहै, ते सोले भांगां माहिलो प्रथम भांगो कहै छ४६६. सर्व कर्कश सह लघु जान, देश शीत देश उष्ण मान । देश निद्ध देश लुक्ख चंग, इम कर्कश लघु साथ सोलै भंग ।। हिवं सर्व मृदु सर्व गुरु संघाते १६ भांगां मांहिलो प्रथम भांगो कहै छ४६७. सर्व मृदु सर्व गुरु जान, देश शीत देश उष्ण मान । देश निद्ध देश लुक्ख ख्यात, सौलै भांगा मृदु गुरु साथ ।। हिवै सर्व मृदु सर्व लघु संघाते १६ भांगां माहिलो प्रथम भांगो कहै छै-- ४६८. सर्व मृदु सर्व लघु जान, देश शीत देश उष्ण मान । देश निद्ध देश लुक्ख ख्यात, सोले भांगा मृदु लघु साथ ।। ए सर्व मृदु सर्व लघु संघाते ए १६ भांगा कह्या, एवं ६४ थया । वा०-एतले सर्व कर्कश सर्व गुरु करिक १६ भांगा कह्या । सर्व कर्कश सर्व लघु करिकै १६ भांगा कह्या। सर्व मृदु सर्व गुरु करिकै १६ भांगा कह्या। वलि सर्व मृदु सर्व लघु करिकै १६ भांगा कह्या। एवं ६४ भांगा थया । इहां कर्कश १ गुरु २ शीत ३ स्निग्ध ४ लक्षण च्यार पद नां छ द्विक संयोगी हुवे, ते इम-कर्कश गुरु १ कर्कश शीत २ कर्कश स्निग्ध ३ गुरु शीत ४ गुरु स्निग्ध ५ शीत स्निग्ध ६-ए ६ द्वि कसंयोगे तेह एक-एक नैं विषे चउसठ-चउसठ भांगा हुवै । ४६७. सव्वे मउए सव्वे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, एत्थ वि सोलस भंगा, ४६८. सव्वे मउए सब्वे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, एत्थ वि सोलस भंगा, वा०- एए चउसटुिं भंगा, एते च सर्वकर्कशगुरुभ्यां लब्धाः , एत एव कर्कशलघुभ्यां लभ्यन्ते तदेवं द्वात्रिंशत्, इयं च सर्वकर्कशपदेन लब्धा इयमेव च सर्वमृदुना लभ्यत इति चतु:षष्टिभंगाः, इयं च चतुः षष्टिः सर्वकर्कशगुरुलक्षणेन द्विकसंयोगेन सविपर्ययेण लब्धा, तदेवमन्योऽप्येवंविधो द्विकसंयोगस्तां लभते, कर्कशगुरुशीतस्निग्धलक्षणानां च चतुर्णा पदानां षड् द्विकसंयोगास्तदेवं चतुः षष्टिः षड्भिडैिकसंयोगगुणितास्त्रीणि शतानि चतुरशीत्यधिकानि भवन्तीति (वृ० ५०७८७) इहां प्रथम द्विकसंयोगिक ना ६४ भांगा कह्या । हिवै द्वितीय द्विकसंयोगे ६४ भांगा कहै छै४६९. सर्व कर्कश सह शीत जान, देश गुरु देश लघु मान । देश निद्ध देश लुक्ख ख्यात, सोले सर्व कर्कश शीत साथ ।। हि सर्व कर्कश सर्व उष्ण संघाते १६ भांगा हुवे, तेहनों प्रथम भांगो कहै ४६९. सव्वे कक्खडे सम्बे सीए देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे, ४७०. सर्व कर्कश सहु उष्ण जान, देश गुरु देश लघु मान । देश निद्ध देश लुक्ख चंग, इक बहु वचने सोलै भंग ।। हि सर्व मृदु सर्व शीत संघाते १६ भांगा कहै छै४७१. सर्व मृदु सर्व शीत जान, देश गुरु देश लघु मान । देश निद्ध देश लुक्ख चंग, इक बहु वच करि सोले भंग ।। हिवै सर्व मृदु सर्व उष्ण संघाते १६ भांगा कह छै४७२. सर्व मृदु सर्व उष्ण जान, देश गुरु देश लघु मान । देश निद्ध देश लुक्ख चंग, इक बहु वच करि सोलै भंग ।। ए सर्व मृदु सर्व उष्ण संघाते १६ भांगा कह्या तिणमें सोलमो भांगो पाठ में कहो, ते कह छै श०२०, उ०५, ढा० ४०२ ३०३ Jain Education Intemational cation International Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३. सव्वे मउए सब्वे उसिणे देसा गरुया देसा लहुया देसा णिद्धा देसा लुक्खा, एत्थ वि चउसट्टि भंगा, ४७४-४७८ १. सब्वे कक्खडे सव्वे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे जाव सव्वे मउए सब्वे लुक्खे देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा, एए चउसटुिं भंगा, ४७३. सर्व मृदु सर्व उष्ण जान, देशा गुरुया देशा लहुया मान । देशा निद्धा देशा लुक्खा चंग, दूजा पद नो चउसठमों भंग। ए सर्व कर्कश सर्व शीत संघाते १६ भांगा। सर्व कर्कश सर्व उष्ण संघाते १६ भांगा। सर्व मदु सर्व शीत संघाते १६ भांगा। सर्व मृदु सर्व उष्ण संघाते १६ भांगा । इम द्विकसंयोगे दूजा पद ना ६४ भांगा कह्या एवं १२८ । तृतीय पद ना ६४ भांगा, तिणमें सर्व कर्कश सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा कह छ४७४. सर्व कर्कश सहु निद्ध जान, देश गुरु देश लघु मान । देश शीत देश उष्ण चंग, इक बहु वच करि सोलै भंग ॥ हिवं सर्व कर्कश सर्व लुक्ख संघाते १६ भांगा कहै छ४७५. सर्व कर्कश सहु लुक्ख जान, देश गुरु देश लघु मान । देश शीत देश उष्ण चंग, इक बहु वच करि सोलै भंग ।। हि सर्व मृदु सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा कहै छ४७६. सर्व मृदु सर्व निद्ध जान, देश गुरु देश लघु मान । देश शीत देश उष्ण चंग, इक बहु वच करि सोलै भंग ।। हि सर्व मृदु सर्व लुक्ख संघाते १६ भांगा कहै छै४७७. सर्व मृदु सर्व लुक्ख जान, देश गुरु देश लघु मान । देश शीत देश उष्ण चंग, इक बहु वच करि सोलै भंग ।। ए सर्व मृदु सर्व लुक्ख संघाते १६ भांगां में सोलमों भांगो पाठ में कह्यो, ते कहै छै-- ४१८. सर्व मृदु सर्व लुक्ख जान, देशा गुरुया देशा लहया मान । देशा शीता देशा उष्णा चंग, तीजा पद नो चउसठमों भंग ।। सर्व कर्कश सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा। सर्व कर्कश सर्व लुक्ख संघाते १६ भांगा। सर्व मृदु सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा। सर्व मदु सर्व लुक्ख मंधाते १६ भांगा। इम द्विकसंयोगे तीजा पद नां ६४ भांगा कह्या, एवं १९२ इति तृतीय पद। चउथा पद नां ६४ भांगा, तिणमें सर्व गुरु सर्व शीत संघाते १६ भांगा कह छ ४७९-४८३. सव्वे गरुए सव्वे सीए देसे कक्खडे देसे मउए देसे निद्धे देसे लुक्खे, एवं जाव सव्वे लहुए सब्वे उसिणे देसा कक्खडा देसा मउया देसा निता देसा लुक्खा, एए चउसट्टि भंगा, ०९. सर्व गुरु सर्व शीत जान, देश कर्कश देश मद् मान । देश निद्ध देश लुक्ख चंग, इक बहु वच करि सोले भंग ।। हिवे सर्व गुरु सर्व उष्ण संघाते १६ भांगा कह छघ... सर्व गुरु सर्व उष्ण जान, देश कर्कश देश मद् मान । देश निद्ध देश लुक्ख चंग, इक बहु वच करि सोल भंग ।। हिवं सर्व लघु सर्व शीत संघाते १६ भांगा कह छ४५१. सर्व लघु सर्व शीत जान, देश कर्कश देश मदु मान । देश निद्ध देश लुक्ख चंग, इक बहु वच करि सोले भंग ।। हिव सर्व लघु सर्व उष्ण संघाते १६ भांगा कहै छै --- ४८२. सर्व लघु सर्व उष्ण जान, देश कर्कश देश मृदु मान । देश निद्ध देश लुक्ख चंग, इक बहु वच करि सोले भंग ॥ ३०४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए सर्व लघु सर्व उष्ण संघाते १६ भागा में सोलमों भांगो पाठ में कह्यो, कहँ ४८३. सर्व लघु सर्व उष्ण जान, देशा निद्धा देशा लक्खा चंग, ए सर्व गुरु सर्व शीत संघाते १६ भांगा । सर्व गुरु सर्व उष्ण संघाते १६ भांगा। सर्व लघु सर्व शीत संघाते १६ भांगा । सर्व लघु सर्व उष्ण संघाते १६ भांगा । इम द्विकसंयोगे चउथा पद नां चउसठ भांगा कह्या, एवं २५६ इति तुर्य पद ४ । पंचम पद नां ६४ भांगा, तिनमें सर्व गुरु सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा कह ए सर्व कठै छै ४८८. देशा कक्खडा देशा मउया मान । - लुक्ख ४८४. सर्व गुरु सर्व निद्ध जान, देश कर्कश देश मृदु मान । देश शीत देश उष्ण चंग, इक बहु वच करि सोल भंग ।। हि सर्व गुरु सर्व सुख संघात १६ भांगा कहे - ४८५. सर्व गुरु सर्व सुख जान, देश कर्कश देश मृदु मान । देश शीत देश उष्ण चंग, इक बहु वच करि सोले भंग ॥ हिर्व सर्व लघु सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा कहै छै - ४८६. सर्व लघु सर्व निद्ध जान, देश शीत देश उष्ण चंग, हि सर्व सर्व सुख संघात १६ भांगा क लघु ४८७. सर्व लघु सर्व लुख जान, कहै छे देश कर्कश देश मृदु मान । देश शीत देश उण चंग, इक बहु वच करि सोल भंग ।। संघाते १६ भांगां में १६मों भांगो पाठ में कह्यो, ते लघु चौथा पद तो उसठमों भंग ।। सर्व लुक्ख । देश कर्कश देश मृदु मान । इक बहु वच करि सोलें भंग ॥ सर्व 'लघु सर्व लुक्ख जान, देशा कक्खडा देशा मउया मान । देशा सोया देशा उसिणा चंग, पंचम पदनों उसठमों भंग ।। गुरु सर्व लक्ख संघाते १६ ए सर्व गुरु सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा । सर्वं भांगा । सर्व लघु सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा । सर्व लघु सर्व लक्ख संघाते १६ भांगा । इम द्विकसंयोगे पंचमा पद नां ६४ भांगा कह्या, एवं ३२० । हिर्व छठा पद नां ६४ भांगा, तिणमें सर्व शीत सर्व निद्ध संघाने १६ भांगा कहै छ ४८९. सर्व शीत सर्व निद्ध जान, देश कर्कश देश मृदु मान । इक बहु वच करि सोल भंग ।। देश गुरु देश लघु चंग, हि सर्व शीत सर्व लुक्ख संघाते १६ भांगा कहै छ ४९०. सर्व शीत सर्व लुक्ख जान, देश गुरु देश लघु चंग, इक हि सर्व उष्ण सर्वं निद्ध संघाते ४९१. सर्व उष्ण सर्व निद्ध जान, देश गुरु देश लघु चंग देश कर्कश देश मृदु मान । बहु वच करि सोले भंग ।। १६ भांगा कहै छै - देश फर्कश देश मृदु मान । एक बहु वच करि सोलें भंग ।। ४८४-४८८. सव्वे गरुए सब्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे जाव सव्वे लहुए सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा सीया देसा उसिणा, एए चउसट्ठि भंगा, ४८९-४९३. सव्वे सीए सव्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए जाव सव्वे उसिणे सब्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहुया, एए चउसट्ठि भंगा, श० २०, उ०५, ढा० ४०२ ३०५ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिव सर्व उष्ण सर्व लुक्ख संघाते १६ भांगा कहै छ४९२. सर्व उष्ण सर्व लक्ख जान, देश कर्कश देश मदु मान । देश गुरु देश लघु चंग, इक बहु वचने करि सोलै भंग ।। ए सर्व उष्ण सर्व लुक्ख संघाते १६ भांगा में सोलमो भांगो पाठ में कह्यो, ते कहै छै४९३. सर्व उष्ण सर्व लुक्ख जान, देशा कक्खडा देशा मउया मान। देशा गुरुया देशा लहुया चंग, छठा पद नों चउसठमों भंग ।। ए सर्व शीत सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा। सर्व शीत सर्व लुक्ख संघाते १६ भागा। सर्व उष्ण सर्व निद्ध संघाते १६ भांगा। सर्व उष्ण सर्व लुक्ख संघाते १६ भांगा। इम द्विकसंयोगे छठा पद नां ६४ भांगा कह्या, एवं ३८४ भांगा हुवै। ४९४. षट फर्श विषे सहु एह, षट पद करिके जे कहेह। इक-इक पद मांहि विमासी, चउसठ-चउसठ इम तीनसो चउरासी ।। अनंत प्रदेशिक खंध में छह फर्श पावै, तेहनी ९६ चउभंगी हुदै, ते कहै ४९४. सव्वे एते छप्फासे तिणि चउरासीया भंगसया भवंति। हिवै प्रथम द्विकसंयोगे ६४ भांगा हुवै तिणमें सर्व कर्कश सर्व ।। गुरु संवाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा-- स.क. स.गु. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. १ सर्व सर्व १ १ १ १ २ सर्व सर्व १ १ १ ३ ३ सर्व सर्व ११३१ ४ सर्व सर्व १ १ ३ ३ । ए प्रथम चउभंगी नां च्यार भांगा कह्या । हिवै सर्व मृदु सर्व गुरु संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ९-१२ स.मु. स. गु. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. ९ सर्व सर्व १ १ १ १ १० सर्व सर्व १ ३ १ १ ११ सर्व सर्व ३ १ १ १ १२ सर्व सवं ३ ३ १ १ हिवं सर्व मृदु सर्व लघु संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा इम आगल पिण विचार लेवा। पिण शेष ९५ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै २ सर्व सर्व १ ३ १ १ ३ सर्व सर्व ३१११ ४ सर्व सर्व ३ ३ १ १ सर्व कर्कश सर्व गुरु संघाते ४ चउभंगी नां १६ भांगा कह्या । हिवै सर्व कर्कश सर्व लघ संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा स.म. स.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. १३ सर्व सर्व १ १ १ १ १४ सर्व सर्व १ ३ १ १ १५ सर्व सर्व ३ १ १ १ १६ सर्व सर्व ३ ३ १ १ हिवं द्वितीय द्विकसंयोगे ६४ भांगा कहै छ। तिहां प्रथम सर्व कर्कश सर्व शीत संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा १७-२० स.क. स.शी. दे.गु. दे.ल. दे.नि. दे.लु. १७ सर्व सर्व १ १ १ १ १८ सर्व सर्व १ ३ १ १ १९ सर्व सर्व ३ १ १ १ २० सर्व सर्व ३ ३ १ १ सर्व क. ५ सर्व ६ सर्व ७ सर्व ८ सर्व सर्व ल. सर्व सर्व सर्व सर्व दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. १ १ १ १ १ ३ १ १ ३ १ १ १ ३ ३ १ १ rr m ३०६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवे सर्व कर्कश सर्व उष्ण संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा हि सर्व मृदु सर्व निद्ध संघाते ४ च उभंगी करि १६ भांगा ४१-४४ ___ स.. स.नि. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. ४१ सर्व सर्व १ १ १ १ ४२ सर्व सर्व १ ३ १ १ ४३ सर्व सर्व ३ १ १ १ ४४ सर्व सर्व ३ ३ १ १ हिव सर्व मृदु सर्व लुक्ख संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ----- ४५-४८ ___ स.म. स.ल. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. ४५ सर्व सर्व १ १ १ १ ४६ सर्व सर्व १ ३ १ १ ४७ सर्व सर्व ३ १ १ १ ४- सर्व सर्व ३ ३ १ १ ए तृतीय द्विक संयोगे ६४ भांगा कह्या । orm ___स.क. स.उ. दे.गु. दे.ल. दे.नि. दे.लु. । २१ सर्व सर्व १ १ १ १ २२ सर्व सर्व १ ३ १ १ २३ सर्व सर्व ३ १ १ १ २४ सर्व सर्व ३ ३ १ १ हिवं सर्व मृदु सर्व शीत संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा --- २५–२८ ___स.म. स.शी. दे.गु. दे.ल. दे.नि. दे.लु. २५ सर्व सर्व १ १ १ १ २६ सर्व सर्व १ ३ १ १ २७ सर्व सर्व ३ १ १ १ २८ सर्व सर्व ३ ३ १ १ हिव सर्व मृदु सर्व उष्ण संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा. २९-३२ स.म. स.उ. दे.गु. दे.ल. दे.नि. दे.लु. २१ सर्व सर्व १ १ १ १ ३० सर्व सर्व १ ३ १ १ ३१ सर्व सर्व ३ १ १ १ ३२ सर्व सर्व ३ ३ १ १ ए द्वितीय द्विकसंयोगे ६४ भांगा कह्या।। हिवं तृतीय द्विकसंयोगे ६४ भांगा कहै छ । तिहां प्रथम सर्व कर्कश सर्व निद्ध संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा-- ३३-३६ स.क. स.नि. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. ३३ सर्व सर्व १ १ १ १ । ३४ सर्व सर्व १ ३ १ १ ३५ सर्व सर्व ३ १ १ १ ३६ सर्व सर्व ३ ३ १ १ हिव सर्व कर्कश सर्व लुक्ख संघाते ४ चउभंगी करि १६ | भांगा-- mom हिवै तुर्य द्विकसंयोगे ६४ भांगा कहै छ। तिहां प्रथम सर्व गुरु सर्व शीत संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा . ४९-- ५२ __स.गु. स.शी. दे.क. दे.मृ दे.नि. दे लु. ४९ सर्व सर्व १ १ १ १ ५० सर्व सर्व १ ३ १ १ ५१ सर्व सर्व ३ १ १ १ ५२ सर्व सर्व ३ ३ १ १ हिवै सर्व गुरु सर्व उष्ण संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ५३-५६ ___ स.गु. स.उ. दे.क. दे.मृ. दे.नि. दे.लु. ५३ सर्व सर्व १ १ १ १ ५४ सर्व सर्व १ ३ १ १ ५५ सर्व सर्व ३ १ १ १ ५६ सर्व सर्व ३ ३ १ १ हिव सर्व लघु सर्व शीत संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ___ स.क. ३७ सर्व ३८ सर्व ३९ सर्व ४० सर्व स.ल. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. सर्व १ १ १ १ सर्व १ ३ १ १ सर्व ३ १ १ १ सर्व ३ ३ १ १ स.ल. ५७ सर्व ५८ सवं ५९ सर्व ६० सर्व स.शी. सर्व सर्व सर्व सर्व दे.क. १ १ ३ ३ दे.मृ. १ ३ १ ३ दे.नि. १ १ १ १ दे.ल. १ १ १ १ । श०२०, उ० ५, ढा०४०२ ३०७ Jain Education Intemational Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवे सर्व लघु सर्व उष्ण संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ६१–६४ दे.क. दे.मृ. दे.नि. दे.लु. १ १ १ १ १ १ १ स.ल. ६१ सर्व ६२ सर्व १ ६३ सर्व ३ ६४ सर्व ३ ३ ए तुयं द्विक्संयोगे ६४ भांगा कह्या । हिवे पंचम द्विक्संयोगे ६४ भांगा कहै छै । तिहां प्रथम सर्व गुरु सर्व निद्ध संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ६५-६८ दे.क. दे.मृ. दे.शी. दे.उ. १ १ १ १ ३ १ १ १ ३ १ ६५ सर्व ६६ सर्व ६७ सर्व ६८ सर्व स.गु. स.नि. सर्व स.गु. ६९ सर्व ७० सर्व ७१ सर्व ७२ सर्व हि सर्व गुरु सर्व लुक्ख संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ६९-७२ दे.क. दे.मृ. दे.शी. दे.उ. १ १ १ १ ३ ७३ सर्व ७४ सर्व ७५ सर्व ७६ सर्व स. उ. सर्व सर्व सर्व सर्व हि सर्व ए स.ल. ७७ सर्व ७८ सर्व स.ल. स.नि. लघु सर्व सर्व सर्व हि सर्व लघु सर्व निद्ध संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ७३-७६ स. लु. सर्व ३०८ भगवती जोड़ सर्व सर्व सर्व १ ३ सर्व सर्व सर्व सर्व १ ३ ३ १ दे.क. दे.मृ. दे.शी. दे.उ. १ १ १ १ ३ ३ १ ७७–८० १ १ १ १ १ स. लु. दे.क. दे.मृ. दे.शी. दे.उ. सर्व १ १ १ सर्व ३ ७९ सर्व सर्व ३ १ ८० सर्व सर्व ३ ३ पंचम द्विकसंयोगे ६४ भांगा कह्या । १ १ १ सर्व लुक्ख संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा १ १ १ १ १ १ १ हिवं षष्ठम द्विक्संयोगे ६४ भांगा कहै छं । तिहां प्रथम सर्व शीत सर्व निद्ध संघाते ४ चभंगी करि १६ भांगा स. शी. ८१ सर्व ८२ सर्व ८३ सर्व ८४ सर्व स. शी. ८५ सर्व ८६ सर्व ८७ सर्व ८८ सर्व हि सर्व शीत सर्व लुक्ख संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ८५-८० दे.क. दे. मृ. दे.गु. दे.ल. १ १ १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ स. उ. ८९ सर्व ९० सर्व ९१ सर्व ९२ सर्व स. उ. स.नि. सर्व सर्व सर्व सर्व हिवै सर्व उष्ण सर्व निद्ध संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ८९-९२ ९३ सर्व ९४ सर्व स. लु. सर्व सर्व सर्व सर्व (१) स. क. १ सर्व २ सर्व ३ सर्व ४ सर्व स.नि. सर्व सर्व सर्व सर्व ८१-८४ दे.क. दे.क. दे.मू. दे.सु. दे.त. १ १ १ १ १ ३ १ १ ३ १ १ ३ सर्व सर्व सर्व ३ हिवे सर्व उष्ण सर्व लक्ख संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ९३-९६ स. तु. दे.. दे.. दे.गु. दे.ल. सर्व १ १ १ १ १ १ ३ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. १ १ १ १ ९५ सर्व १ १ ९६ सर्व ३ ३ १ एवं अनंतप्रदेशिक खंध री ९६ चउभंगी कही । सर्व सर्व सर्व १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ हिवे छह फर्श नां ३८४ भांगा हुवै, तिणमें प्रथम द्विक्संयोगे ६४ मांगा कहै छै । प्रथम सर्व कर्कश सर्व गुरु संघाते ४ चउमंगी करि १६ भांगा १ १ १ स.गु. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. सर्व १ १ १ १ १ १ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स. क. ५ स ६ स ७ स ८ स ९ स १० स ११ स १२ स १३ स १४ स १५ स १६ स स.क. १७ स १८ स १९ स २० स २१ स २२ स २३ स २४ स २५ स २६ स २७ स २८ स २९ स ३० स ३१ स ३२ स स.गु. दे.शी. स १ स स स स स स स स स हि सर्व कर्कश सर्व लघु संघाते ४ चउमंगी करि १६ भांगा देनि दे.. १ १ १ ३ स.ल. स स स स स स स स स स स १ स स स १ दे.शी. दे.उ. ३ ३ ३ ३ ३ १ दे.उ. १ १ १ १ १ १ ३ दे.नि. दे.लु. १ १ १ ३ ३ १ १ १ ३ ३ १. ३ ३ ३ ३ ३ १ ३ १ ३ हि सर्व मृदु सर्व गुरु संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ९ स.गु. दे.शी. दे. उ. दे.नि. दे.लु. स १ १ १ १ स १ १ ३ स ३ १ स ३ ३ स.मृ. ३३ स ३४ स ३५. स ३६ स ३७ स ३८ स ३९ स ४० स ४१ स ४२ स ४३ स ४४ स ४५ स ४६ स ४७ स ४८ स स. मृ. ४९ स ५० स ५१ स १२ स ५३ स ५४ स ५५ स ५६ स स.मू. ५७ स ५८ स ५९ स ६० स स स स स स स स स स स स स स.ल. स स स स स स स स १ स. ल. स स स स १ १ १ १ १ हिवै सर्वं मृदु सर्व लघु संघाते ४ चभंगी करि १६ भांगा १३ १ १ ११ १ १ १२ ३ ३ १ ३ १४ १ १ देशी. दे. उ. दे.नि. दे.लु. १ १ १ १ १ ३ १ १ १ १ १ १ ३ १ १ ३ १ १ १ १ १५ दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ३ १ १ १ ३ १ १ ३ श०२० उ०५, ढा० ४०२ ३०९ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ الله २५ स २६ स स स २३ ३ १ ३ १ ६२ स स ३ الله ३ १ ३ ।। १ १ Mmmm १ ३ or or or o orm umr. الله الله m mmmmmm हिवं द्वितीय द्विकसंयोगे ६४ भांगा कहै छ। तिहां प्रथम सर्व कर्कश सर्व शीत संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा.--. (२) स.क. १ स स.शी. स दे.गु. १ दे.ल. १ दे.नि. १ दे.लु. १ M Porm Hours. २९ स स ३ ३ १ १ ३० स स ३ ३ १ ३ ३१ स स ३ ३ ३ १ ३२ स स ३ ३ ३ ३ हिवै सर्व मृदु सर्व शीत संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा २५ स.म. स.शी. दे.गु. दे.ल. दे.नि. दे.लु. ३३ स स १ १ १ १ ३४ स स १ १ १ ३ ३५ स स १ १ ३ १ ३६ स स १ १ ३ ३ orn mmmmmmmmm or wrmmmm Ear or mam ४० स स ३ १ ३ २७ दे.गु. दे.ल. .शी. दे.नि. दे.लु. اسم الله १५ स स ३ ३ १ ४२ स ४३ स स स १ १ १ ३ الله الله हिवै सर्व कर्कश सर्व उष्ण संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा om Mmm orm ४५ स २८ ३ स ३ १ 4 الله 외 الله स.क. १७ स १८ स १९ स २० स स.उ. स स स स दे.गु. १ १ १ १ दे.ल. १ १ १ १ २२ दे.नि. १ १ ३ ३ दे.लु. १ ३ १ ३ ४८ स स ३ ३ ३ ३ हि सर्व मृदु सर्व उष्ण संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा-- २९ ___स.मू. स.उ. दे.गु. दे.ल. दे.नि. दे.लु. ४९ स स १ १ १ १ ५० स स १ १ १ ३ ५१ स स १ १ ३ १ ५२ स स १ १ ३ ३ مه له २३ स २४ स स स १ १ ३ ३ ३ ३ १ ३ स ३१० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ स ५४ स ५५ स ५६ स ५७ स ५८ स ५९ स ६० स ६१ स ६२ स ६३ स ६४ स (३) स.क. १ स २ स ३ स ४ स ५ स ६ स ७ स ८ स ९ स १० स ११ स १२ स १३ स १४ स १५ स १६ स स स स स स स स स स स स स स.नि. दे.गु. स १ स स स स स स स १ १ हिवं तृतीय द्विकसंयोगे ६४ भांगा कहै है । तिहां प्रथम सर्व कर्कश सर्व निद्ध संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा स स स स स स स १ १ ३० १ ३१ ३२ ३४ ३ ३५ १ ३६ १ १ १ ३३ दे. ल. दे.शी. दे.उ. १ १ १ १ ३ १ १ १ १ ३ १ १ ३ ३ १ ३ १ ३ ३ १ ३ ३ ३ ३ १ ३ १ ३ १ ३ १ 3 हि सर्व कर्कश सर्व लुक्ख संघाते ४ चउमंगी करि १६ भांगा स.क. १७ स १५ स १९ स २० स २१ स २२ स २३ स २४ स स.क. २५ स २६ स २७ स २८ स २९ स ३० स ३१ स ३२ स स.मृ. ३३ स - ३४ स ३५ स ३६ स ३७ स ३८ स ३९ स ४० स ४१ स ४२ स ४३ स ४४ स स. लु. स स स स स स स स स स स स स स ३७ दे.गु. दे. ल. १ १ ३९ स. लु. दे.गु. दे. ल. स ३ १ म स स स.नि. दे.शु. स स स स १ स १ स स स हि सर्व मृदु सर्व निद्ध संघाते ४ चउमंगी करि १६ मांगा ४१ ३८ १ १ १ १ १ १ ४२ ४३ १ दे. गु. दे.ल. दे.शी. १ १ १ १ ३ दे.शी. १ १ १ १ १ दे.शी. १ १ १ ३ १ १ दे. उ. १ ३ १ ३ १ १ ३ १ दे.उ. १ ३ १ श० २०, उ०५, ढा० ४०२ दे.उ. १ ३ १ ३ १ ३११ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ स ४६ स ४७ स ४८ स ३१२ स.मृ. ४९ स ५० स ५१ स ५२ स ५३ स ५४ स हि सर्व मृदु सर्व लुक्ख संघाते ४ चउमंगी करि १६ भांगा ४५ ५५ स ५६ स ५७ स ५८ स ५९ स ६० स ६१ स ६२ स ६३ स ६४ स (४) स.मु. १ स २ स ३ स ४ स स स स ५ स ६ स ७ स ८ स स.लु. दे.बु. स १ स स स स स स स स स स स स स भगवती जोड़ स स १ १ स १ ३ ४४ १ दे. ल. १ १ ४६ ४७ ४८ १ ५० १ १ १ १ १ १ ३ ३ ३ हिवं तुर्य द्विकसंयोगे ६४ भांगा कहै छँ । तिहां प्रथम सर्व गुरु सर्व शीत संघाते ४ चउमंगी करि १६ भांगा ४९ स. शी. दे.क. दे.मू. दे.नि. स १ १ १ स १ १ स ३ स ३ ३ दे.शी. १ १ ३ १ ३ १ १ १ ३ ३ १ ३ १ ३ १ दे.उ. १ ३ १ ३ १ ३ ३ १ ३ १ दे.. ३ १ स.गु. ९ स १० स ११ स १२ स १३ स १४ स १५ स १६ स स.गु. १७ स १८ स १९ स २० स २१ स २२ स २३ स २४ स २५ स २६ स २७ स २८ स २९ स ३० स ३१ स ३२ स स. ल. ५१ स.शी. दे.क. दे. मृ. दे.नि. दे.. स ३ १ १ १ ३ ३ ३३ स ३४ स ३५ स ३६ स स स स स स स स हिवं सर्व गुरु सर्व उष्ण संघाते ४ चउमंगी करि १६ भांगा ५३ दे.क. दे... विदे.. १ १ १ स.उ. स स स स 석쇠석쇠 स स स स स स स स स स स ५२ ३ स ३ स स ३ ܐ १ १ १ ५४ १ १ ५५ ३ ३ ३ ३ ५६ १ १ ३ ३ १ १ १ ३ १ ३ १ १ १ ३ हिवं सर्व लघु सर्व शीत संघाते ४ चउमंगी करि १६ भांगा ५७ स. शी. दे.क. दे.मू. दे.नि. दे.लु. स १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ १ १ १ १ १ १ १ ३ ३ १ १ ३ ३ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xa ३७ स स १ हिब पंचम द्विकसंयोगे ६४ भांगा कहै छ। तिहां प्रथम सर्व गुरु सर्व निद्ध संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा -- १ १ a .०० (५) स.गु. स.नि. दे.क. दे.म. दे.शी. दे.उ. २ स roman.ww स १ १ ३ | 최적의 최적 x orror m m or ormar m m mmmm m m mmmmmmm orm m m m १० स ११ स orm m हिवं सर्व लघु सर्व उष्ण संघाते ४ चउमंगी करि १६ मांगा ६१ स.ल. स.उ. दे.क. दे.म. दे.नि. दे.ल. or or mmm ५० स ५१ स स स १ १ १ १ १ ३ १५ स १६ स स स ३ ३ ३ ३ १ ३ - rm rrrr or m हिव सर्व गुरु सर्व लुक्ख संघाते ४ चउमंगी करि १६ भांगा--- स.गु. १७ स १८ स १९ स स.ल. स स स दे.क. १ १ १ दे.म. १ १ १ दे.शी. १ १ ३ दे.उ. १ ३ १ orm orm m ५७ स 100 ५८ स २१ स २२ स ५९ स ~-~ur mmmmmmmm ६० स orm २३ स २४ स orm २५ स . २६ स २७ स २८ स . ६३ स ६४ स स स ३ ३ ३ ३ १ ३ । । -mum स ३ १ ३ श०२०, उ०५, ढा० ४०२ ३१३ Jain Education Intemational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ २९ स ३० स ३१ स ३२ स स.ल. ३३ स ३४ स ३५ स ३६ स हिवै सर्व लघु सर्व निद्ध संघाते ४ चभंगी करि १६ भांगा ७३ स.नि. दे.क. दे.मू. १ १ ३७ स ३८ स ३९ स ४० स ४१ स ४२ स ४३ स ४४ स ४५ स ४६ स ४७ स ४८ स स.ल. स स स स ४९ स ५० स ५१ स ५२ स स स स स ५३ स ५४ स ५५ स ५६ स भगवती जोड़ स स स स स स स क स स स स स ७२ स स स स १ १ १ ७४ १ १ १ १ ७५ ३ ३ ७६ ३ १ १ ७८ १ १ १ १ १ १ १ हिवं सवं लघु सर्व लुक्ख संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ७७ स.लु. दे.क. दे.मू. स १ १ स १ १ १ १ ܐ दे.शी. १ ३ १ ३ १ ३ १ १ १ १ ३ १ ३ १ दे.उ. १ ३ १ ३ दे.शी. दे.उ. १ १ ३ ܕ ३ ३ १ ३ ५७ स ५८ स ५९ स ६० स ६१ स ६२ स ६३ स ६४ स (६) स. शी. १ स २ स ३ स ४ स ५ स ६ स ७ स ८ स ९ स १० स ११ स १२ स १३ स १४ स १५ स १६ स स. शी. स स स स १७ स १८ स १९ स २० स स स स स हिवै षष्ठम द्विक्संयोगे ६४ मांगा कहै छ । तिहां प्रथम सर्व शीत सर्व निद्ध संघाते ४ चभंगी करि १६ भांगा स.नि. स स स स स स स स स स स स ७९ ३ स स स स ८० ३ १ १ ८२ १ १ १ ८३ ३ ३ ८४ ८१ दे. क. दे.मू. दे.गु. दे.ल. १ १ १ १ १ ३ ३ ३ १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ १ १ १ १ १ ३ १ ३ हि सर्व शीत सर्व लुक्ख संघाते ४ चभंगी करि १६ मांगा ८५ स. लु. दे.क. दे. मृ. दे.मू. दे.गु. ल. स १ १ १ १ स १ १ स १ ३ स १ १ १ ३ ३ १ ३ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ الله مع १ १ १ २१ स स २२ स स २३ स स २४ सस १ १ ३ الله १ ३ १ اللي mmmm ४७ स الله م السی हिवै सर्व उष्ण सर्व लुक्ख संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा or or __स.उ. स.ल. दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. २८ स स ३ ३ ३ ५० स स १ १ १ orm rm ५२ स स १ १ २९ स स ३ ३ १ १ ३० स स ३ ३ १ ३ ३१ स स ३ ३ ३ १ ३२ स स ३ ३ ३ ३ हिवै सर्व उष्ण सर्व निद्ध संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ३ ५३ स الله ५४ स سه orm or m ५५ स سه स.नि. स दे.क. १ दे.म. १ दे.गु. १ दे.ल. १ ५६ स स १ ३ ३ स.उ. ३३ स ३४ स ३५ स ३६ स or rm Www. 00000 مه ३ स १ ३ م a. mmmmm ५७ स ५८ स ५९ स ६० स r mmm مه ३ १ स स ३ ३ १ १ स ६१ स ६२ स ६३ स स स ३ ३ ३ ३ १ ३ ३ १ ४१ स ४२ स ४३ स स स स ३ ३ ३ १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ एवं सर्व ३८४ भांगा छह फर्श नां छह चउसठी करिके कह्या । हिब सात फर्श नां ५१२ भांगा, तिणमें सहु कर्कश गुरु लघु संघाते ६१ भांगा कहै छ ४९५. बादर अनंतप्रदेशिक मांय, यदि सप्त फर्श ए पाय। तो सर्व कर्कश कहिवाय, देश गुरु देश लघु थाय ।। ४९६. देश शीत देश उष्ण जोय, देश निद्ध देश लुक्ख होय । ए प्रथम भंग कह्यो ताय, हिवै द्वितीय भंग कहिवाय ।। ४९७. दूजे भांगे कर्कश सहु देख, देश गुरु देश लघु पेख । देश शीत देश उष्ण सोय, देश निद्ध देशा लुक्खा होय ।। ४९५. जइ सत्तफासे ? १. सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए ४९६. देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, श० २०, उ०५, ढा० ४०२ ३१५ Jain Education Intemational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९९. सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसा लुक्खा ४, ५००. सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, ५०४. सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्ध देसे लुक्खे ४, ४९८. तीजे भांगे कर्कश सहु तास, देश गुरु देश लघु जास । देश शीत देश उष्ण थाय, देशा निद्धा देश लुक्ख पाय ।। ४९९. चौथे भांगे कर्कश सह चंग, देश गुरु देश लघु अंग । देश शीत देश उष्ण तेह, देशा निद्धा देशा लक्खा जेह ।। ५००. पंचम भांगे कर्कश सहु पाम, देश गुरु देश लघु ताम । देश शीत देशा उष्णा जान, देश निद्ध देश लुक्ख मान ।। ५०१. षष्ठम भांगे कर्कश सह होय, देश गुरु देश लघु जोय । देश शीत देशा उष्णा वक्षा, देश निद्ध अनैं देशा लक्षा। ५०२. सप्तम भांगे कर्कश सह होय, देश गुरु देश लघु जोय । देश शीत देशा उष्णा चंग, देशा निद्धा देश लक्ख अंग ।। ५०३. अष्टम भांगे कर्कश सहु आम, देश गुरु देश लघु धाम । देश शीत देशा उष्णा हंत, देशा निद्धा देशा लुक्खा मंत ।। ५०४. नवमें भांगे कर्कश सहु न्हाल, देश गुरु देश लघु भाल । देशा शीता देश उष्ण सोय, देश निद्ध देश लुक्ख जोय ।। ५०५. दशमें भांगे कर्कश सह दाख्यं, देश गुरु देश लघु भाख्यं । देशा शीता देश उष्ण जेह, देश निद्ध देशा लुक्खा लेह ।। ५०६. ग्यारम भांगे कर्कश सहु गहिये, देश गुरु देश लघु लहिये। देशाशीता देश उष्ण जाणी, देशा निद्वा देश लक्ख माणी।। ५०७. बारम भांगे कर्कश सह कहिये, देश गुरु देश लघु लहिये। देशा शीता देश उष्ण एह, देशा निद्धा देशा लुक्खा जेह ।। ५०८. तेरम भांगे कर्कश सहु तास, देश गुरु देश लघु जास । देशा शीता देशा उष्णा जान, देश निद्ध देश लुक्ख मान ।। ५०९. चवदमें सहु कर्कश चंग, देश गुरु देश लघु अंग । देशा शीता देशा उष्णा होय, देश निद्ध देशालक्खा जोय ।। ५१०. पनरमें सहु कर्कश पेख, देश गुरु देश लघु देख । देशा शीता देशा उष्णा जान, देशा निद्धा देश लुक्ख मान ।। ५११. सोलमें सह कर्कश सोय, देश गुरु देश लघु होय । देशा शीता देशा उष्णा जेह, देशा निद्धा देशा लुक्खा तेह ।। सर्व कर्कश देश गुरु लघु शीत उष्ण एक वचने करि प्रथम | चउभंगी कहै छैस.क. दे.गु. दे.ल. दे शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ५०८. सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे ४, सर्व कर्कश देश गुरु लघु एक वचन करिक तृतीय चउभंगी our mmm m सर्व कर्कश देश गुरु लघु एक वचने करिके चतुर्थ चउभंगी-- सर्व कर्कश देश गुरु लघु शीत एकवचन करिके द्वितीय चउभंगी الله اس له س الله سه له ३१६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२. सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, ५१३. एवं गरुएणं एगत्तेणं, लहुएणं पुहत्तेणं, एते वि सोलस भंगा, हिवै सहु कर्कश गुरु एक वचन लघु बहु वचने करि १६ भांगा हुवै, तिणरो प्रथम भांगो कह छै--- ५१२. सर्व कर्कश ते पहिछाण, देश गुरु देशा लहुया जाण । देश शीत देश उष्ण होय, देश निद्ध देश लुक्ख जोय ।। ५१३. एम गुरु एक वचनेह, लघु बहु वचने करि लेह । चिहुं चौक करी नैं सोय, सोलै भांगा करिवा जोय ।। हिवं गुरु तो बहु वचन, लघु एक वचन करि १६ भांगा हुवै, तिणरो प्रथम भांगो कहै छ५१४. सर्व कर्कश फर्श विचार, देशा गुरुया देश लघु धार । देश शीत देश उष्ण जान, देश निद्ध देश लुक्ख मान ।। ५१५. इम गुरुया बहु वचनेह, लघु इक वचने करि लेह । चिहुं चौक करीने सोय, ए पिण षोडश भांगा होय ।। हिवं गुरु लघु बिहुँ बहु वचने करि १६ भांगा हुवे, तेहनों प्रथम भांगो कह ५१४. सव्वे कक्खडे देसा गरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, ५१५. एए वि सोलस भंगा भाणियव्वा, ५१६. सव्वे कक्खडे देसा गरुया देसा लहया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, ५१७,५१८, एए वि सोलस भंगा भाणियव्वा, एवमेते चउसटुिं भंगा कक्खडेण समं । ५१९. सव्वे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, ५२०. एवं मउएण वि समं चउसट्टि भंगा भाणियव्वा । ५१६. हुवै सगलाइ कर्कश फास, देश। गुरुया देशा लहुया तास । देश शीत देश उष्ण देख, देश निद्ध देश लुक्ख पेख ।। ५१७. इम गुरु लघु पहिछाण, बिहुं बहु वचने करि जाण। चिहुं चौक करी सोल भंग, थया चउसठ भांगा सुचंग ।। ५१८. सर्व कर्कश फर्श संघात, इम चउसठ भांगा ख्यात । ए चउसठ भांगां रै मांय, सह कर्कश फर्श कहाय ।। ए सर्व कर्कश फर्श संघाते ६४ भागा कह्या । इम सर्व मृदु संघाते ६४ भांगा हुवै, तेहनों प्रथम भांगो कहै छै५१९. सर्व मृदु फर्श सुविचार, देश गुरु देश लघु धार । देश शीत देश उष्ण फास, देश निद्ध देश लुक्ख तास ।। ५२०. सर्व मृदु संघाते एम, भणवा चउसठ भांगा तेम। ते चउसठ भांगां मांय, सर्व मृदु फर्श कहिवाय ।। सर्व गुरु संघाते ६४ भांगा हुवं, तेहमें प्रथम भांगो कह छै५२१. सगलाइ गुरु सुविमास, देश कर्कश देश मृदु तास । देश शीत देश उष्ण जान, देश निद्ध देश लुक्ख मान ।। ५२२. इम सर्व गुरु रै संघात, कहिवा चउसठ भांगा विख्यात । ते चउसठ भांगां मांय, सगलै सर्व गुरु कहिवाय ।। सर्व लघु संघाते ६४ भांगा हुवै, तेहमें प्रथम भांगो कहै छै५२३. तथा सर्व लघु कहिवाय, देश कर्कश देश मृदु पाय। देश शीत देश उष्ण होय, देश निद्ध देश लुक्ख जोय ।। ५२४. इम सर्व लघु संग जान, चउसठ भांगा पहिछान । ते चउसठ भांगां मांय, सगले सर्व लघु कहिवाय ।। सर्व शीत संघाते ६४ भांगा हुवै, तेहमें प्रथम भांगो कह छै५२५. तथा सर्व शीत छै तेह, देश कर्कश देश मृदु जेह। देश गुरु देश लघु एह, देश निद्ध देश लुक्ख लेह ।। ५२१. सव्वे गरुए देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, ५२२. एवं गरुएण वि समं चउसट्टि भंगा कायव्वा । ५२३. सव्वे लहुए देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, ५२४. एवं लहुएण वि समं चउसट्ठि भंगा कायव्वा । ५२५. सव्वे सीए देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे, श० २०, उ०५, ढा० ४०२ ३१७ Jain Education Intemational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६. एवं सीतेण वि समं चउसट्टि भंगा कायव्वा । ५२७. सब्वे उसिणे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गला देसे लहुए देसे निझे देसे लुक्खे, ५२८, एवं उसिणेण वि समं चउसट्टि भंगा कायब्वा । ५२९. सव्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे ___ लहुए देसे सीए देसे उसिणे, ५३०. एवं निद्रण वि समं चउसट्टि भंगा कायव्वा । ५२६. इम सर्व शीत रै संघात, भणवा चउसठ भांगा विख्यात । ते चउसठ भांगां मांय, सगलै सर्व शीत कहिवाय ।। सर्व उष्ण संघाते ६४ भांगा हुवे, तेहमें प्रथम भांगो कहै छ५२७. तथा सर्व उष्ण कहिवाय, देश कर्कश देश मृदु पाय । देश गुरु देश लघु हुंत, देश निद्ध देश लुक्ख मंत ।। ५२८. इम उष्ण संघाते विचार, कहिवा चउसठ भांगा सार । ते चउसठ भांगां मांय, सगलै सर्व उष्ण कहिवाय ।। सर्व निद्ध संघाते ६४ भागा हुवै, तहमें प्रथम भांगो कहै छै-- ५२९. तथा सर्व निद्ध कहिवाय, देश कर्कश देश मृदु पाय । देश गुरु देश लघु चंग, देश शीत देश उष्ण अंग ।। ५३०. इम सर्व निद्ध र संघात, कहिवा चउसठ भांगा विख्यात । ए चउसठ भांगां मांय, सगलैइ निद्ध कहिवाय ।। सर्व लुक्ख संघाते ६४ भांगा हुवै, तेहमें प्रथम भांगो कहै छ-... ५३१. तथा सर्व लुक्ख कहिवाय, देश कर्कश देश मृदु पाय । देश गुरु देश लघु थाय, देश शीत देश उष्ण पाय ।। ५३२. इम सर्व लुक्खरै संघात, कहिवा चउसठ भांगा सुजात । ते चउसठ भांगां मांय, चर्म भंग हिवै कहिवाय ।। ५३३. ते सर्व लुक्ख पहिछाण, देशा कक्खडा देशा मउया मान । देशा गुरुया देशा लहुया होय, देशा शीता देशा उष्णा जोय ।। एवं ५१२ भांगा थया। ५३४. ए सप्त फर्श रै माय, अष्ट पदे करी कहिवाय । इक-इक पद में चउसठ-चउसठ भंग, सर्व पांचसौ बार सुचग ।। सप्त फर्श नां ५१२ भांगा ढाल थी कह्या। तेहनी चउभंगी १२८ हुवै, ते यंत्र थी कहै छ-बादर अनंत प्रदेशिक खंध में सात फर्श पावै, तेहनी १२८ चउभंगी हवं ते कहै छ हिवे सर्व कर्कश गुरु लघु एक वचन करि ४ चउभंगी नां १६ भांगा हुवे । तिणमें प्रथम चउभंगी कहै छ - स.क. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लू. ५३१. सब्वे लुक्खे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए उसिणे, ५३२. एवं लुक्खेण वि समं चउस४ि भंगा कायव्वा जाव ५३३. सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देखा मउया देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा, ५३४. एवं सत्तफासे पंच बारसुत्तरा भंगसया भवंति । २ स ३स १ १ १ १ १ Form our ३ ए प्रथम चउभंगी नां ४ भांगा का। इम आगल पिण विचार लेवा। पिण शेष १२७ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ २ स ३ स ४ स ए सर्व कर्कश गुरु लघु एक वचन संघाते १६ भांगा नी ४ चउभंगीकही। ३१८ भगवतो जोड़ Jain Education Intemational Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि सर्व कर्कश गुरु एक वचन लघु बहु वचन करि १६ भांगा हुवै, तेहनीं ४ चभंगी हुवं । तेहनों प्रथम प्रथम भांगो कहै छे स.क. दे.गु. दे. ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. ५ स १ ३ १ १ १ ६ स ७ स ८ स १० स ११ स १२ स १ १३ स १४ स १५ स १६ स १ १ हि सर्व कर्कश गुरु बहु वचन लघु एक वचन करि १६ भांगा हुवं । तेहनीं ४ चउभंगी नों प्रथम प्रथम भांगो कहै छँ स.क. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ९ स ३ १ १ १ १ १ १ ३ १ १ ३ १ १ १ २१ स २२ स २३ स २४ स तेहनीं ४ चभंगी नों प्रथम प्रथम भांगो कहै छै - स. क. दे.गु. ३ ३ ३ ३ ३. हि सर्व कर्कश गुरु लघु बिहु बहु वचने करी १६ भांगा हुवै । १ १ १ १ १ १ ३ १ १ ३ ३ १ ३ दे. ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. ३ १ १ १ १ १ १ १ १ ए सर्व कर्कश संघाते ६४ भांगा कह्या । हिवं सर्व मृदु संघाते ६४ भांगा हुवे । तेहनी १६ चउभंगी नों प्रथम प्रथम भांगो कहै छै - स.मू. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे. उ. दे.नि. दे.लु. १७ स १ १ १. १ १ १ १८ स १ ३ १९ स ३ १ २० स ३ १ १ १ १ दे.लु. १ १ १ १ १ १ ए सर्व मृदु गुरु लघु एक वचन संघाते १६ भांगां नीं ४ । चभंगी कही । हि सर्व मृदु गुरु एक वचन लघु बहु वचन करि १६ भांगा । तेहनीं ४ चउ भंगी हुवे । तेहनों प्रथम प्रथम भांगो कहे छं स. मृ. दे.गु. दे. ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.नि. दे.सु. १ ३ १ १ १ ३ १ १ ३ दे.लु. १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ हि सर्व मृदु गुरु बहु वचन लघु एक वचन करी १६ भांगा हुवे । तेहनों ४ चभंगी नों प्रथम- प्रथम भांगो कहै छै - दे. ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. स.मृ. दे.गु. ३. १ १ १ १ ३ २५ स २६ स २७ स २८ स स. मृ. दे. गु. दे. ल. ३ ३ हि सर्व तेहनी ४ चउमंगी नों प्रथम प्रथम भांगो कहै छै - ३३ स ३४ स ३५ स ३६ स २९ स ३० स ३१ स ३२ स ३ ३ ३ ए सर्व मृदु संघाते ६४ भांगा कह्या । स.गु. दे.क. देमृ. १ १ ३ ३ ए सर्व गुरु कर्कश चभंगी कही । ३७ स ३८ स ३९ स ४० स १ १ १ ३ गुरु लघु विहं बहु वचने करो १६ भांगा हु १ स.गु. ४१ स ४२ स ४३ स ४४ स स.गु. दे.क. दे.मृ. १ ३ १ १ १ १ हिर्व सर्व गुरु संघा ६४ नांगा हुवे सेहमी १६ उमंगी नों प्रथम- प्रथम भांगो कहै छै - १ १ १ ३ ३ ३ ३ नों प्रथम- प्रथम भांगो कहै छै - दे.क. दे. मृ. ३ १ ३ ३ १ हुवे । तेहनीं ४ चउभंगी नों प्रथम- प्रथम भांगो कहै छै १ ३ १ ३ दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. १ १ १ १ ३ १ दे.शी. १ १ १ हि सर्व गुरु कर्कश एकवचन मृदु बहु वचन करि १६ भांगा १ १ १ ३ १ ३ ३ १ मृदु एक वचन संघाते १६ भांगां नीं ४ १ ३ १ ३ १ ३ ३ दे.लु. १ १ दे.उ. दे.नि. दे.लु. १ १ १ - १ १ १ १ १ १ १ दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. १ १ १ १ हिवै सर्व गुरु कर्कश बहु वचन मृदु एक वचन करि ४ चउमंगी १ १ श०२० उ०५, ढा० ४०२ १ १ दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. १ १ १ १ ३ १ १ १ १ १ १ १ ३१९ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि सर्व गुरु कर्कश मृदु बिहुं वचने करी ४ चभंगी नों प्रथम- प्रथम भांगो कहै है स.गु. दे.क. दे. मृ. दे.शी. दे. उ. दे.नि. ४५ स ३ ३ १ १ १ ४६ स ३ ४७ स ४८ स ए सर्व गुरु ४९ स ५० स ५१ स ५२ स ए सर्व लघु चभंगी कही । हिर्व सर्व लघु संघाते ६४ भांगा हुवै। तेहनों १६ चउमंगी नों प्रथम- प्रथम भांगो कहै छं स. ल. दे.. दे..दे.सी. देउ. दे.नि. दे.सु. १ १ १ १ १ १ १ ३ १ १ १ ३ १ १ १ ३ ३ १ १ कर्कश मृदु एक वचन संघाते १६ भांगां नीं ४ ३ ३ ३ संघाते ६४ भांगा कह्या । स. ल. चभंगी नों प्रथम प्रथम भांगो कहे छे ५३ स ५४ स ५५ स ५६ स हिर्व सर्व लघु कर्कश एकवचन मृदु बहुवचन करी ४ १ १ १ १ १ ३ दे.क. दे.मृ. दे.शी. दे. उ. दे.नि. दे.लु. १ ३ १ १ १ १ १ ३ १ ३ ३२० भगवती जोड़ १ ३ हिर्व सर्व लघु कर्कश बहुवचन मृदु एकवचन करी ४ चभंगी नों प्रथम प्रथम मांगो कहे छं स. ल. दे.क. दे.मृ. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ५७ स ३ १ १ १ १ ५८ स १ ५९ स ६० स हि सर्व लघु कर्कश मृदु बिहं बहु वचने करी ४ चभंगी नों प्रथम- प्रथम भांगो कहै छै - १ ܕ १ ३ ६३ स ६४ स ३ ३ ३ ए सर्व लघु संघाते ६४ भांगा कह्या । ܐ ३ १ ३ दे.लु. १ १ स. ल. दे.क. दे.मृ. दे.शी. दे.उ. दे.नि. ६१ स ३ ३ १ १ १ ६२ स १ १ १ ܐ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ दे.लु. १ १ हि सर्व शीत संघाते ६४ भांगा हुवे । तेहनीं १६ चउमंगी नों प्रथम प्रथम भांगो कहै छै स.शी. दे.क. दे. मृ. दे.गु. दे. ल. दे.नि. दे.लु. १ १ १ ६५ स ६६ स ६९ स १ नीं ४ चउभंगी कही । १ १ ६७ स १ ६८ स १ ३ ३ १ १ ए सर्व शीत कर्कश मृदु एक वचन संघाते १६ भांगां ७३ स ७४ स ७५ स ७६ स १ हि सर्व शीत कर्कश एक वचन मृदु बहु वचन करी ४ चभंगी नों प्रथम प्रथम भांगो कहै छै - स. शी. दे.क. दे.मृ. १ ३ १ १ १ १ १ ३ ३ चभंगी नों प्रथम- प्रथम भांगो कहे छं प्रथम- प्रथम भांगो कहे छे स. उ. ३ स.शी. दे.क. दे.मृ. दे.गु. ३ १ १ ३ १ ३ ७० स ३ ७१ स १ ७२ स ३ हिवै सर्व शीत कर्कश बहु वचन मृदु एक वचन करी ४ १ दे. गु. दे.ल. १ १ १ ३ ३ स.शी. दे.क. दे.मृ. दे.गु. ३ ३ १ ३ ३ ३ नों प्रथम- प्रथम भांगो कहै - ३ १ ७७ स ७८ स ७९ स ३ ५० स ३ ३ ए सर्व शीत संघाते ६४ भांगा कह्या । ३ ३ ३ १ ३ दे.नि. दे.लु. १ १ १ १ १३ हिवै सर्व शीत कर्कश मृदु बिहु वचने करी ४ चउमंगी नों १ १ दे. ल. दे.नि. दे. लु. १ १ १ १ १ १ १ १ १ दे.स. दे.नि. दे.सु. १ १ १ हिवं सर्व उष्ण संघाते ६४ भांगा हुवे । तेहनी १६ उमंगी १ दे देमृ. क. दे.शु. दे.. दे.गु. दे. ल. दे.नि. दे.लु. ८१ स १ १ १ १ १ १ ८२ स १ १ १ १ ८३ स १ १ ३ १ ८४ स १ १ ३ ३ १ १ ए सर्व उष्ण कर्कश मृदु एक वचन संघाते १६ भांगां नीं ४ चभंगी कही । १ १ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं सर्व उष्ण कर्कश एक वचन मृदु बहु वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ स.उ. दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.नि. दे.लु. ८५ स १ ३ १ १ १ १ ८६ स १ ३ १ ३ १ १ ए सर्व निद्ध कर्कश बहु वचन मृदु एक वचने करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ __स.नि. दे.क. द.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. १०५ स ३ १ १ १ १ १ १०६ स ३ १ १ ३ १ १ १०७ स ३ १ ३ १ १ १ १०८ स ३ १ ३ ३ १ १ G orm ८८ स १ ३ ३ १ १ हिवं सर्व निद्ध कर्कश मृदु बिहुं बहु वचने करी ४ चउभंगी हिव सर्व उष्ण कर्कश बहु वचन मृदु एक वचन संघात ४ । नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छैचउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ स.नि. दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. __ म.उ. दे.क. द.म. द.गु. दे.ल. दे.नि. द.ल. ८९ स ३ १ १ १ १ १ ९० स ३ १ १ ३ १ १ ११२ स ३ ३ ३ ३ १ १ ९२ स ३ ३ ३ १ १ ए सर्व निद्ध संघाते ६४ भांगा कह्या । orm orm onorror हि सर्व उष्ण कर्कश मृदु बिहं बह वचने करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ म.उ. दे.क. दे.मू. द.गु. दे.ल. दे.नि दे.लु. ९३ स ३ ३ १ १ १ १ हिव सर्व लुक्ख संघाते ६४ भांगा हुवै । तेहनों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ स.. दे.क. दे.म. द.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. ९५ म ३ mmmm ३ amm १ १ १ ११५ स १ १ ३ १ १ १ ११६ स १ १ ३ ३ १ १ ए सर्व लुक्ख कर्कश मृदु एक वचन संघाते १६ भांगां नीं ४ चउभंगी कही। ॥ सर्व उष्ण संघाते ६४ भांगा कहा। हिवे सर्व निद्ध संघाते ६४ भांगा हुवे । तेहनी १६ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ । म.नि.दे.क. द.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. . हिवे सर्व लुक्ख कर्कश एक वचन मृदु बहु वचन करि ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै--- स.ल. दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. ११७ स १ ३ १ १ १ १ ११८ स १ ३ १ ३ १ १ ११९ स १ ३ ३ १ १ १ १२० स १ ३ ३ ३ १ १ orm or ए सर्व निद्ध लुक्ख मृदु एक वचन संघाते १६ भोगां नी ४ चउभंगी कही। हिवै सर्व निद्ध कर्कश एक बचन मृदु बहु वचने करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै --- म.नि. दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. हिव सर्व लुक्ख कर्कश बहु वचन मृदु एक वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै--- ___ स.लु. दे.क. दे.म. दे.गु दे.ल. दे.शी. दे.उ. १२१ स ३ १ १ १ १ १ १२२ स ३ १ १ ३ १ १ १२३ स ३ १ ३ १ १ १ १२४ स ३ १ ३ ३ १ १ १०२ स १०३ स १०४ स १ १ १ ३ ३ ३ १ ३ ३ ३ १ ३ १ १ १ १ १ १ ० २०, उ०५, ढा०४०२ ३२१ Jain Education Intemational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ الله हि सर्व लुक्ख कर्कश मृदु बिहं बह वचने करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ स.ल. दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. १२५ स ३ ३ १ १ १ १ १२६ स ३ ३ १ ३ १ १ २१ स २२ स २३ स १ १ १ الله १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ الله mmmmmmm ا ل له २५ स २६ स १ १ १ १ ३ ३ १ १ १ ३ الله الله १२८ स ३ ३ ३ ३ १ १ एवं अनंतप्रदेशिक खंध में सात फर्श पावै, तेहनी १२८ चउभंगी ना ५१२ भांगा कह्या । हि सात फर्श नां ५१२ भांगा हुवै तिण में प्रथम ६४ भांगा सर्व कर्कश अने गुरु आदि छह फर्श एक बचन बहु वचन करिक कहै छ। तिण में पहिला गुरु लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगां -- २८ स १ الله १ ३ ३ ३ २९ स । الله ३ १ १ १ س له स.क. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि दे.लु. ३२ स १ سه ३ १ ३ ३ हिवं गुरु बहु वचन लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ १ १ १ १ १ स.क. ३३ स ३४ स ३५ स दे.गु. दे.ल. ३ १ ३ १ ३ १ दे.शी. १ १ १ दे.उ. १ १ १ .... ommmmmmm our दे.नि. दे.लु. १ १ १ ३ ३ १ ८ स १ १ १ ३ ३ سه ३७ स ३ १ ३ ३ مه १ १ ३ ३ ११ स १२ स १ १ १ १ १ ३ ३ ३९ स ४० स ३ ३ १ १ १ १ ३ ३ مه سه له १ ३ १ ३ १४ स १५ स १ १ १ १ ३ ३ ३ ३ ३ १ الله مه ४२ स ३ १ الله १ مه ३ الله हिवं गुरु एक वचन लघु बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा ४४ स ३ १ १ سه له or moommam ३ ३ १२ ३ स.क. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. १७ स १ ३ १ १ १ १ १८ स १ ३ १ १ १ ३ الله ४५ स १ مه ३ الله الله مه xxx ४७ स الله १ الله ३ ३ الله مع ، له س الله २० स १ الله १ १ ३ الله ३२२ भगवत्ती-जोड़ Jain Education Intemational Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं गुरु लघु बिहुं बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ स.क. दे. गु. ४९ स ३ ५० स ३ दे. ल. दे.शी. ३ १ ३ १ दे.उ. १ १ दे.नि. दे.ल. १ १ १ ३ mm m ५२ स ३ १ ३ ३ ५३ स ३ १ १ १ m m m m ५५ स ३ १ ३ १ m Mmmmmmmmmmmmm ५७ स ५८ स ३ ३ ३ ३ ३ ३ orrar mmmmorrorammar १ १ १ ३ m m mm १३ स १ १ ३ ३ १ १ १४ स १ १ ३ ३ १ ३ १५ स १ १ ३ ३ ३ १ १६ स १ १ ३ ३ ३ ३ हिवै सर्व मृदु गुरु एक वचन लघु बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छै २१ स.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे नि. दे.लू. १७ स १ ३ १ १ १ १ १८ स १ ३ १ १ १ ३ १९ स १ ३ १ १ ३ १ २० स १ ३ १ १ ३ ३ २२ २१ स १ ३ १ ३ १ १ २२ स १ ३ १ ३ १ ३ २३ स १ ३ १ ३ ३ १ २४ स १ ३ १ ३ ३ ३ २३ २५ स १ ३ ३ १ १ १ २६ स २७ स १ ३ ३ १ ३ १ २८ म १ ३ ३ १ ३ ३ २४ २९ स १ ३ ३ ३ १ १ ३० स १ ३ ३ ३ १ ३ ६ . 00 १ ६२ स ६३ स ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ الله الله इम ए ६४ भांगा सर्व कर्कश फर्श करी कह्या । हि सर्व मृदु संघाते पिण ए ६४ भांगा हुवै तिणमें पहिला सर्व मृदु अने गरु लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ । भांगा कहै छ स.म. दे.गु. दे.ल, दें.शी. दे.उ. दे.नि. द.लु. الله الله ३२ स १३ हिवं सर्व मृदु गुरु बहु वचन लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ । २ स ३ स १ १ १ १ १ १ १ १ १ ३ ३ १ स.म. दे.ग. ३३ स ३ दे.ल. १ दे.शी. दे.उ. १ १ दे.नि. १ दे.ल. १ ५ स १ १ ३ १ १ له ३५ स ३१ ११३१ ३६ स ३ १ १ १ ३ ३ Adulu. 000000 ९ स १ १ १ १ १ ३७ स ३८ स ३ ३ १ १ १ १ ३ ३ १ १ مه له ११ स १२ स १ १ १ १ १ १ ३ ३ १ ३ ४० स ३ १ १ ३ ३ مه الله श०२०, उ०५, ढा०४०२ ३२३ Jain Education Intemational Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ له الله الله ४१ स ४२ स ४३ स १ १ १ १ १ १ ३ १ १ الله ३ الله १ १ ३ १ xur الله الله 석 الله الله ८ स १ rrrrrrorror १ ३ ३ ० २८ ४५ स ३ १ ३ ३ १ १ ४६ स ३ १ ३ ३ १ ३ ४७ स ३ १ ३ ३ ३ १ ४८ स ३ १ ३ ३ ३ ३ हिवे सर्व मृदु गुरु लघु ए बिहुं बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ--- 석 १० स १ १ १ womwww www com ३ 죄 And Wwunlun००० १२ स १ १ १ ३ १३ स १ 죄의 १ اسم १ الله س स.मू. देशा.गु. देशा.ल. दे.शी. ४९ स ३ ३ १ ५० स ३ ३ १ ५१ स ३ ३ १ ५२ स ३ ३ १ दे.उ. दे.नि. दे.लू. १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ १ ३ ३ १५ स १६ स १ १ १ १ له سه १ ३ हिवे सर्व गुरु कर्कश एक वचन मृदु बहुवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ ५३ स ५४ स ५५ स ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ ३ १ س ३७ दे मृ. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ३ १ १ १ १ ___ स.गु. १७ स له दे.क. १ orrrrrrrrrrrrr الله به م الله ५७ स ५८ स ३ ३ ३ ३ १ १ १ ३ Www. www.www. ww الله 444 مه الله الله mum २० स १ الله १ مه الله الله سه له الله ه الله ه مه ل الله الله سه له ل ه د ६२ स ३ ३ २१ स २२ स २३ स २४ स ३ । سه لل १ الله १ ३ الله orm orm له الله هه له الله لسه الله الله ए सर्व मृदु संघाते ६४ भांगा का। हि सर्व गुरु संघाते ६४ भांगा कहै छ, तिणमें पहिला सर्व गुरु अनं कर्कश मृदु ए बिहुं एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ २५ स २६ स १ १ १ १ الله १ ३ الله مه م مع 4444 الله الله مه २८ स १ الله له الله الله ३३ १ स.गु. दे.क. दे.मृ. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. و २९ स १ الله الله ३ १ rm orm our २ स १ १ १ १ १ ३ । الله الله له مه الله الله سه سه ४ स १ १ १ १ ३ ३ । ३२ स १ الله الله ३ لله ३२४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवे सर्व गुरु कर्कश बहुवचन मृदु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ ४१ स.गु. दे.क. द.म. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लू. ३३ स ३ १ १ १ १ १ 20 mam 4444 ए सर्व गुरु संघाते ६४ भांगा कह्या । हिवं लघु संधाते पिण ए ६४ भांगा कहै छ। तिणमें पहिला सर्व लघु अनै कर्कश मृदु ए बिहु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ---- ३७ स mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm स.ल. १ स दे.क. १ दे.मृ. १ दे.शी. १ दे.उ. १ दे.नि. १ दे.ल. १ ३ स orm orm ... ४८ स ३ १ ३ ३ ३ ३ हि सर्व गुरु अन कर्कश मृदु ए बिहु बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ nommarmor Mmmmm १० स ~rxmmmmmmmmm mamm or Morm orm १२ स स.गु. ४९ स दे.क. ३ दे.मृ. ३ दे.शी. १ दे.उ. १ दे.नि. १ दे.ल. १ १३ स १ १ १ الله الله १५ स १ १ ५१ स ५२ स ३ ३ १ १ ३ ३ १ ३ ३ الله الله हिवं सर्व लघु कर्कश एक वचन मृदु बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छै---- .० ० ००१० الله 여여여여 최적의 여죄 الله الله स.ल. १७ स दे.क. १ दे.मृ. दे.शी. दे.उ. ३ १ १ दे.नि. दे.लु. १ १ الله الله الله Www १९ स १ ३ १ १ ३ १ الله ar श० २०, उ.५, ढा० ४०२ ३२५ Jain Education Intemational Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عمر हिव सर्व लघु कर्कश मृदु ए बिहु बहु वचन संघात ४ चउभंगी करि १६ मांगा कहै छ--- १ १ १ ३ २१ स २२ स २३ स २४ स १ १ १ १ ३ ३ ३ ३ १ १ १ १ ३ ३ ३ ३ ३ १ ३ ३ ___ स.ल. ४९ स ५० स ५ दे.क. ३ ३ दे.मृ. दे.शी. दे.उ. ३ १ १ ३ १ १ दे.नि. १ १ दे.लु. १ ३ عبد २५ स २६ स २७ स २८ स १ १ १ १ لن ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ १ الله १ १ १ १ ३ orm orm | 여여여여 ३ الله ५२ स १ ३ ३ ३ ३ عمر ५३ स ५४ स ५५ स ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ १ ३ २९ स ३० स ३१ स ३२ स १ १ ३ ३ १ ३ १ १ १ १ १ १ ३ १ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ اس له ror Mor-murmmmmmmmm aronorrm rrrrrrr mm الله الله ५८ स الله الله الله الا हि सर्व लघु कर्कश बहु वचन मृदु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ ५९ स ३ १ or mom momum الله الله الله الله الله الله ६२ स ६३ स ३ ३ ३ ३ १ ३ ३ १ الله الله الله स.ल. ३३ स ३४ स ३५ स ३६ स दे.क. दे.म. दे.शी. ३ १ १ ३ १ १ ३ १ १ ३ १ १ दे.उ. दे.नि. दे.लु. १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ १ ३ ३ مهر لله ए सर्व लघु संघाते ६४ भांगा का । س । الله هه ३७ स ३८ स हि सर्व शीत संघाते पिण ए ६४ भांगा कहै छ, तिणमें पहिला सर्व शीत अने कर्कश मृदु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ س مه س ३९ स سه س مهم له هو rror wrrrrrrorm orm سله الله م स.शी. १ स २ स ३ स दे.क. १ १ १ ६५ दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.नि. १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ३ الله दे.लु. १ ३ १ الله مه الله الله سه الله الله لل مه س or mx xur, ا الله ل له مد سه مه الله الله مد سه مه اس ل لله ७ स ८ स १ १ १ १ १ १ سے ३ ३ لله १ ३ س لله ३२६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. स १० स ११ स १२ स १७ स १८ स १९ स २० स २१ स २२ स २३ स २४ स स.शी. दे.क. १ १ २५ स २६ स २७ स २८ स २९ स ३० स ३१ स ३२ स १ १ १ ३३ स ३४ स ३५ स ३६ स १३ स १४ स १५ स १६ स ३ ३ हिवे सर्व शीत कर्कश एक वचन मृदु बहु वचन संघाते ४ भंगी करि १६ भांगा कहे छं १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ? १ १ १ ३ ६७ ३ ३ ३ ३ ३ 061 ६९ दे.. दे.गु. ल. दे.नि. दे.सु. दे. ३ १ १ १ १ ३ १ १ १ १ ७१ ३ ३ ३ ७३ स.श्री.दे.स. दे.. दे.गु. ३ ७२ १ १ १ १ १ १ ३ १ ३ हिवं सर्व शीत कर्कश बहु वचन मृदु एक वचन संघाते ४ चभंगी करि १६ भांगा कहै छे ३ १ १ १ १ ३ १ ३ १ ३ देल. दे.नि. दे.सु. १ १ १ १ १ ३७ स ३८ स ३९ स ४० स ४१ स ४२ स ४३ स ४४ स ४५ स ४६ स ४७ स ४८ स स. शी. ४९ स ५० स ५१ स ५२ स ५३ स ५४ स ५५ स ५६ स ५७ स ५८ स ५९ स ६० स ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ७४ ३ ७५ हि सर्व शीत कर्कश मृदु ए बिहं बहुवचन संघाते ४ चभंगी करि १६ मांगा कहै छे ३ ७६ ७७ दे.क. दे. मृ. दे.गु. दे.ल. ३ ३ १ १ ३ १ १ ३ १ ३ ७८ १ १ १ ७९ ८० १ १ ६१ स ६२ स ३ ६३ स ३ ३ ६४ स ३ ३ ए सर्व शीत संघाते ६४ भांगा कह्या । १ ३ ३ १ ३ १ ३ १ ३ १ ३) ३ दे.नि. दे.. १ १ ३ १ ३ १ ३ १ ३ १ श० २०, उ०५, ढा० ४०२ ३२७ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिव सर्व उष्ण संघाते पिण ए ६४ भांगा कहै छ तिणमें । पहिला सर्व उष्ण कर्कश मृदु ए बिहं एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कई छ--- ram स.उ. .क. द.म. द.गु. द.ल. दे.नि. द.ल. हिब सर्व उष्ण ककश बहुवचन मृदु एकवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ । म. द.म. द.ग. द.ल. द.नि. द.ल. ३४ म ३७ स १ १ ३ १ १ ३९ स १ १ ३ ३ १ ११ स १ १ ३ १२ स११ ३ १ ३ ३ १ ३ ammar mmmm. १३ स १५३ ३ १ १ ४२ स ४३ स १५ स ? ३ ३ ३ १ १ ३ १ ३ १ हिवै सर्व उष्ण कर्कश एक वचन मृदु बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ. ४५ स ४६ स ३ ३ १ १ ३ ३ ३ ३ १ १ १ ३ __स.उ. द.क. द.म. द.गु. दे.ल. दे.नि. द.नु. हि सर्व उष्ण कर्कश मृदु ए बिहं बहु वचन संघाते ४ च उभंगी करि १६ भांगा कहै छ १९ स १ १ १ ३ १ ___ स.. द.क. द.म. दे.गु. दे.ल. दे.नि. दे.लु. ४९ स ३ ३ १ १ १ १ १ १ ३ १ १ २१ स २२ स २३ स १ mmmmmmmmmmm १ ३ ३ ? oror. o ५१ स ५२ स ३ ३ ३ ३ १ १ ३ ३ १ ३ mmmmmmmm २५ स २६ स १ १ ३ ३ ३ ३ १ १ १ १ १ ३ ५३ स ३ ३ १ ३ १ १ २८ स १ ३ १ ३ ३ ५५ स ५६ स ३ ३ १ १ ३ ३ ३ ३ १ : ३२८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ स ५८ स ५९ स ६० स ५ स ६ स ७ स ८ स ९ स १० स ११ स १२ स १३ स १४ स १५ स १६ स ६१ स ६२ स ३ ६३ स ३ ३ ६४ स ३ ३ ३ ए सर्व उष्ण संघाते ६४ भांगा कह्या । हि सर्व नद्ध संघाते ६४ भांगा कहे निद्ध कर्कश मृदु ए बिहं एक वचन संघाते मांगा कहै -- ३ ३ ३ ३ ३ ९७ स.नि. दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.मु. १ स १ १ १ २ स १ १ १ ३ स ४ स १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ३ ३ ३ १ १ १ १ ३ १ १ ९८ ९९ ९५ १०० ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ १ १ १ ܐ १ ल. दे.जी. १ १ ३ ३ ३ . लिग में पहिला सर्व ४ चउमंगी करि १६ १ १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ दे.शी. दे.उ. १ १ ३ १ ३ ३ १ ३ १ ३ १ ३ हिवै सर्व निद्ध कर्कश एक वचन, मृदु बहु वचन संघाते ४ चभंगी करि १६ भांगा कहे छे १ ३ १ ३ ३ १ १०१ स.नि. दे.क. दे.मू. दे.गु. दे. ल. दे.शी. दे.उ. १७ स १ १ १ १८ स १ १९ स १ २० स १ १ ३ २१ स २२ स २३ स २४ स २५ स २६ स २७ स २८ स २९ स ३० स ३१ स ३२ स ३७ स ३८ स ३९ स ४० स ४१ स ४२ स ४३ स ४४ स ४५ स ४६ स ४७ स ४८ स १ १ १ १ १ १ १ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १०५ स.नि. दे.क. दे.... ३३ स ३ १ ३४ स ३ ३५ स ३ ३६ स ३ ३ ३ ३ ३ १ १ १ हिवं सर्व निद्ध कर्कश बहु वचन, मृदु एक वचन संघाते ४ चभंगी करि १६ भांगा कहै छे १ १ १ १ १०२ १ १ १ १ १ १ १०३ ३ १०४ ३ ३ १ १०६ १ १ १ १ १०७ ३ १०८ ३ दे. ल. १ १ १ ३ ३ १ १ १ ३ १ १ ३ ३ १ ३ १ ३ १ ३ ३ दे.शी. दे.उ. १ १ १ ३ ३ १ ३ ३ श०२० उ० ५ डा० ४०२ १ १ ३ १ १ ३ १ ३ ३ ३ ३ १ ३ ३२९ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م हिवं सर्व निद्ध कर्कश मृदु ए बिहं बह वचन संघाते ४ । चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ--- or १३ स १४ स १ १ १ १ ३ ३ ३ ३ १ १ १ ३ स.नि. दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. ل سل m m ० الله الله हिव सर्व लुक्ख कर्कश एकवचन, मृदु बहुवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ २२ स ३ الله १ १ ३ ___स.ल. दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. الله مهم لله xxcx FacK १८ स १ ३ १ مهم १ ३ س ل om mrar or ram مهم २० स १ ३ १ ३ wner r r mr ३ لله ५८ स ५९ स ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ १ १ ३ ३ १ २१ स १ ३ १ ३ १ १ २२ स १३ १३ १ ३ २३ स १ ३ १ ३ ३ १ २४ स १ ३ १ ३ ३ ३ س ११२ الله mr mmmmmmmmmmmmmmmm الله ३ ६२ स ६३ स ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ ३ الله १ ه २५ स २६ स २७ स २८ स १ १ १ १ ३ ३ ३ ३ १ १ १ १ १ १ ३ ३ १ ३ १ ३ م مه ३ ३ ३ ३ १२० ३ ३ ३ ३ १ १ ए सर्व निद्ध संघाते ६४ भांगा कह्या। हि सर्व लुक्ख संघाते ६४ भांगा कहै छ । तिणमें पहिला सर्व लघु कर्कश मृदु बिहुं एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छै-... स.ल. दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. १ स १ १ १ १ १ १ २ स १ १ १ १ १ ३ १ ३ r mr mm २९ स ३० स ३१ स ३२ स १ १ १ १ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ ३ ३ or mr مه له हिव सर्व लुक्ख कर्कश बहुवचन, मृदु एकवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ-- १२१ ___स.ल. दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. ३३ स ३ १ १ १ १ १ ५ स ६ स १ १ १ १ १ १ ३ ३ १ १ مه له १ ३ orrow m م س مه ३५ स ३६ स १ १ ३ ३ س Wwwwxww . mmm mmmm ormm or arr ran arror १ १ १२२ १ ३७ स الله १ १ Morror مه سه مه ३८ स لله ہ لله १ ३९ स ४० स १ १ ३ ३ १ ३ سه १२ स १ ३३० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ س ४२ स ४३ स ३ ३ १ १ ३ ३ १ १ १ ३ ३ १ س १२४ arr mmmmmmmmm ४५ स ३ १ ३ ३ १ : ४६ स ३ १ ३ ३ १ ३ ४७ स ३ १ ३ ३ ३ १ ४८ स ३ १ ३ ३ ३ ३ हिव सर्व लुक्ख कर्कश मृदु ए बिहुं बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छै-- १२५ स.ल. दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. الله س ३ له ५० स ५१ स ५२ स له ३ ३ ३ ३ ३ १ १ १ १२६ १ १ १ १ १ ३ ३ ३ १ ३ سه ५३ स سله سه १ الله له الله ५५ स ५६ स ३ ३ ३ ३ १ १ ३ ३ ३ ३ १ ३ الله wwwwwwwwwww Mmm or rrrrrr ५७ स ५८ स ५९ स له لله ३ ३ ३ الله ३ ३ ३ १ ३ १ الله س لله الله १२८ س س الله ६२ स سه له الله ३ ३ الله ६४ स ३ ३ ३ ३ ३ ३ ए सात फर्श नां १२८ चउभंगी करी ५१२ भांगा कह्या । ए बादर अनंतप्रदेशिक खंध में आठ फर्श पावै, तेहना २५६ भांगा कहै ५३५. *जो आठ फर्श तिण में होय, देश कर्कश देश मृदु अवलोय । वले देश गुरु कहिवाय, फुन देश लघु ते थाय ।। ५३६. देश शीत वलि जान, देश उष्ण वलि पहिछान । फुन देश निद्ध देश लुक्ख, ए प्रथम भांगो प्रतक्ख ।। *लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली ५३५. जइ अट्ठफासे? देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए ५३६. देसे सीए देसे उसिणे देसे निढे देसे लुक्खे ४, श०२० उ०५, ढा०४०२ ३३१ Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७. देश कर्कश देश मृदु जोय, देश देश शीत देश उष्ण देख, देश निद्ध ५३८. देश कर्कश देश मृदु जान, देश देश शीत देश उष्ण अंग, देशा ५३९. देश कर्कश देश मृदु जान, देश पीत देश उष्ण म्हाल, ५५०. देश कर्कश देश देशा शीता देशा गुरु देश लघु होय | देशा लुक्खा पेख ॥ लघु मान । ५४०. देश कर्कश देश मृदु देश शीत देशा उष्णा ५४१. देश कर्कश देश मृदु जान, देश शोत देशा उष्णा जोय, देश ५४२. देश कर्कश देश मृदु जान, देश गुरु देश देश शीत देशा उष्णा जेह, देशा निद्धा देश लुक्ख तेह || ५४३. देश कर्कश देश मृदु जान, देश गुरु देश लघु मान । देश शीत देशा उष्णा न्हाल, देशा निद्धा देशा लुक्खा भाल ।। ५४४. देश कर्कश देश मृदु जान, देश गुरु देश लघु मान । देशा शीता देश उष्ण हंत, देश निद्ध देश लुस्ख मंत ॥ ५४५. देश कर्कश देश मृदु जान, देश गुरु देश लघ मान । देशा शीता देश उष्ण याय, देश निद्ध देशा लुक्खा पाय ॥ ५४६. देश कर्कश देश मृदु जान, देश गुरु देश लघु मान । देशा शीता देश उष्ण ताम, देशा निद्धा देश लुक्ख पाम ।। ५४७. देश कर्कश देश मृदु जान, देश गुरु देश लघु मान । देशा शीता देश उष्ण जात, गुरु देश लघु मान । निद्धा देश लुक्ख बंग | देश गरु देश लघु मान । ५४८. देश कर्कश देश मृदु देशा निद्धा देशा लुक्खा जान, देश गुरु देश लघु देशा शीता देशा उष्णा हुंत, देश निद्ध देश लुक्ख ५४९. देश कर्कश देश मृदु जान, देश गुरु देश लघु देशा शीता देशा उष्णा जोय, देशा निद्धा देशा लुक्खा भाल || जान, देश गुरु देश लघु मान । देख देश निद्ध देश लुक्ख देख || देश गुरु देश लघु मान । निद्ध देशा लुक्खा होय ।। 3 ५५१. देश कर्कश देश मृदु देशा शीता देशा ख्यात ॥ मान । । मंत ।। मान । देश निद्ध देशा लुक्ला होय ॥ मृदु जान, देश गुरु देश लघु मान । उष्णा लहिये, देशा निद्धा देश लुस्ख कहिये ॥ जान, देश गुरु देश लघु मान । उष्णा सोय, देशा निद्धा देशा लुक्खा होय ॥ वा०-- एवं सोलै भांगां में पहिला आठ भांगा शीत एक वचन करिकै कह्या । अनैं छेहला आठ भांगा शीत बहु वचन करिकै कह्या । तिण में पहिली चभंगी लुक्ख एक वचन बहुवचन करिकै बे भांगा अनैं निद्ध बहु वचन करिकै भांगा इम प्रथम चउभंगी । अने बीजी चउभंगी उष्ण बहुवचन करिकै कही। अन तीजी चउभंगी शीत बहु वचन करिकै कही । अनं चउथी चउभंगी शीतोष्ण बहुवचने करी कही एवं १६ भांगा। २२२ भगवती जोड़ ५४०. देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लक्खे ४, ५४४. देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिने देसे निद्धे देसे लक्खे ४, ५४८. देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसा सीमा देसा उसिणा देते निद्धे देते ४ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क. १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ मृ. १ १ १ १ १ १ १ १ गु. १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ल. १ ५५३. देश कर्कश देश मृदु जान, देश शीत देश उष्ण होय, ५५४. इम गुरु एक वच जेह १ १ १ १ १ १ ३ शी. १ १ १ १ १ ३ उ. १ १ १ ३ ३ ३ नि. ३ ३ ३ १ १ ३ ३ १ ३ १ ३ ५५२. देश गुरु देश लघु जोय, बिहुं इक वच करि अवलोय । चिहुं चउक करी सुविचार, कह्या षोडश भांगा सार ॥ ३ १ गुरु एक वचन लघु बहु वचन करी १६ भांगा हुवै, तिणमें प्रथम भांगो कहै छ देश गुरु देशा लहुया मान । देश निद्ध देश लुक्ख जोय ॥ लघु बहु वचने करि तेह चिउं चउक करी सुविचार, करिवा सोलं भांगा सार ।। हि गुरु बहु वचन लघु एक वचन करि १६ भांगा हुवै, तेहनों प्रथम भांगो कहे - ५५५. देश कर्कश देश मृदु जान, देशा गुरुया देश लघु मान । देश शीत देश उष्ण तास, देश निद्ध देश लुक्ख जास ।। ५५६. इम गुरुया बहुवचनेह, लघु इक वचने करि तेह। चिहुं चउक करीनें सुचंग, वारू करिवा सोलं भंग ॥ हि गुरु लघु बहु वचन करि १६ भांगा हुवै, तेहनों प्रथम भांगो कहै - ५५७. देश कर्कश देश मृदु जान, देशा गुरुया देशा लहुया मान । देश शीत देश उष्ण जोय, देश निद्ध देश लुक्ख होय ।। ५५८. इम गुरु लघु बहुवचनेह, चिहुं चउक्क करीनें एह । करिया षोडश भांगा सोब, सर्व चउसठ भांगा होय ॥ ५५२. एए चत्तारि चउक्का सोलस भंगा । ५५३. देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे, ५५४. एवं एते गए एमएलए पुहत्तएणं सोलस भंगा कायव्वा । ५५५. देसे कक्खडे देसे मउए देसा गरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसने देसे निद्धे देसे लुक्खे, ५५६. एए वि सोलस भंगा कायव्वा । ५५७. देसे कक्खडे देसे मउए देसा गरुया देसा 'लहुया देसे सीए देसे उसने देखे नि देसे नसे 1 ५५८. एते वि सोलस भंगा कर भंगा कायव्वा । सव्वेवेते चउसट्ठि एहि एगतएहि । श० २०, उ०५, डा० ४०२ ३३३ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५९. ताहे कक्खडेणं एगत्तएणं, मउएणं पुहत्तएणं, एते चउसटुिं भंगा कायब्बा। ए कर्कश मृदु एक वचन करिक ६४ भांगा कहा। ५५९. हिवै कर्कश एक वचनेह, मृदु बहु वचने करि लेह । एपिण चउसठ भांगा करिवा, एकसौ अठवीस ए वरिवा।। ५६०. हिवं कर्कश बहु वचनेह, मृदु इक वचने करी लेह । करिवा चउसठ भंग सुचंग, थया एकसौ बाणूं भंग ।। ५६१. हिवै कर्कश मृदु पिछाण, बिहु बहु वचने करि जाण । करिवा चउसठ भांगा सोय, तिणरो छेहलो भांगो इम होय ।। ५६२. देशा कक्खडा देशा महुया, देशा गुरुया नैं देशा लहुया । देशा शीता देशा उष्णा जान, देशा निद्धा देशा लुक्खा मान ।। ५६३. सर्व आठ फर्श नां लेह, भंग दोयसो छप्पन एह । बादर अनंतप्रदेशिक खंध, तेहने बिषे भंग प्रबंध ।। ५६०. ताहे कक्खडेणं पुहत्तएणं, मउएणं एगत्तएणं चउसद्धिं भंगा कायब्वा। ५६१. ताहे एतेहिं चेव दोहि वि पुहत्तेहि चउसढि भंगा कायव्वा जाव ५६२. देसा कक्खडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा एसो अपच्छिमो भंगो। ५६३. सव्वे एते अट्ठफासे दो छप्पन्ना भंगसया भवंति । ए बादर अनंतप्रदेशिक खंध नै विषे आठ फर्श पावै, तेहनां २५६ भांगा हुवै । तेहनी ६४ चउभंगी ते कहै छै-- दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि दे.लु. ए प्रथम चउभंगी ना ४ भांगा कह्या । इम आगल पिण विचार लेवा पिण शेष चउभंगी नो प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै-- २-४ ए गुरु लघु एक वचन संघाते १६ भांगां नी ४ चउभंगी नों प्रथमप्रथम भांगो कह्यो। हिवं गुरु एक वचन, लघु बहु वचन संघाते ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै द.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि दे.लु. الله الله له سه ३३४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं गुरु लघु बहु वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहे हिवं गुरु बहु वचन, लघु एक वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै ९-१२ दे.क. दे.म. दे.ग. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. | २९-३२ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. हिवं गुरु लघु बहु वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहे| ए कर्कश एक वचन, मृदु बहु वचन करी दूजी चउसठी कही। हिवै कर्कश बहु वचन, मृदु एक वचन करी तीजी चउसठी, तिणमें गुरु लघु एक वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ--- दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु.. | दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ए कर्कश मृदु एक वचन करी प्रथम चउसठी कही। हिवै कर्कश एक वचन, मृदु बहु वचन करी दूजी चउसठी कहै छ। । ' हिवै गुरु एक वचन, लघु बहु वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम तिणमें गुरु लघु एक वचन करिक ४ चउभंगीनों प्रथम-प्रथम भागोर कहै छ१७-२० दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दै.लु. दे.क. दे.मू. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. | ३७ ३ १ १ ३ १ १ १ १ mmm २० १ ३ १ १ ३ ३ १ १ हिवै गुरु एक वचन, लघु बहु वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै - हिवं गुरु बह वचन, लघु एक वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै ४१-४४ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ४१ ३ १ ३ १ १ १ १ १ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. २२ १ ३ १ ३ १ ३ १ १ ४३ ३ १ ३ १ ३ १ १ १ २४ १ ३ १ ३ ३ ३ १ १ हिवै गुरु लघु बहु वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो हिवं गुरु बहु वचन, लघु एक वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम | कहै छैप्रथम भांगो कहै छै ४५-४८ २५-२८ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ४५ ३ १ ३ ३ १ १ १ १ الله الله الله worm لس २८ १ ३ १ ३ १ १ | ए कर्कश बहु वचन, मृदु एक वचन करी तीजी चउसठी कही। श० २०, उ०५, ढा०.४०२ ३३५ Jain Education Intemational Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ و हिवं कर्कश मृदु बहु वचन करी चउथी घउसठी, तिणमें गुरु लघु एक वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छै-- ४९-५२ दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ५ १ १ १ १ १ سه १ १ له ७ १ १ १ १ १ الله ३ १ بسم الله Err الله سه مه م ده س مه ५२ ३ ३ १ १ ३ ३ १ १ । हिवै गुरु एक वचन लघु बहु वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम | भांगो कहै छ--- ५३-५६ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. س مه ا الله س الله له سه س له हिवै गुरु बहु वचन लघु एक वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो कहै छ ए च्यार चोके करी प्रथम १६ भांगा कह्या । दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. हिवै गुरु एक वचन लघु बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा mmm दे.उ. दे.नि. दे.लु. الله مه ५९ ३ ३ ३ १ ३ १ १ १ दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. हिवै गुरु लघु ए बिहु बहु वचन करी ४ चउभंगी नों प्रथम-प्रथम भांगो | १८ १ १ १ ३ १ कहै छ ६१-६४ दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. १ १ ३ سه سه مه س له سه م له مه مه مه سه الله الله الله م १ १ ३ १ ३ ३ ३ م १ १ له ३ १ १ १ م س ए बादर अनंतप्रदेशिक खंध में आठ फर्श पावै, तेहना २५६ भांगा। २४ १ तेहनी ६४ च उभंगी कही। हिवै आठ फर्श पावै तिण रा भांगा २५६ हुवै तिणमें कर्कश मृदु ए बिहुँ | २५ १ एक वचन करी प्रथम ६४ भांगा कहै छहिवं गुरु एक वचन लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ / २७ भांगा कहै छै २८ १ दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. سه س له ه १ १ له ३ १ ३ ३ و الله م مه له مه س سه س سه س م. س ३३६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं गुरु बहुवचन, लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा | कहै छ दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ६३ १ १ ३ ३ ३ ३ ३ १ ३४ ३ ११११३ कर्कश मद एक वचन करी प्रथम चउसठी कही। हिवं कर्कश एक वचन अन मृदु बहुवचन करी दूजी चउसठी कहै छैतिणमें गुरु लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ _दे.क. दे.मू. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. mmmmmmmmmmmmmm mmmmmmmmm oranwr or مه سه الله له हिवं गुरु लघु ए बिहुं वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै الله الله १३ الله الله الله الله दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. الله الله m m mr m हिब गुरु एक वचन, लघु बहुवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ २१ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. m سله m १८ १ الله १ ३ १ १ १ ३ m الله m الله २२ mm orm m الله m २२ १ الله १ ३ १ ३ १ ३ m له m سه श०२०, उ० ५,०४०२ ३३, Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ الله الله سه or orm r orm um له له mmmmmmm mmmmmmmmm الله الله الله الله oomm orm um الله د الله الله الله हिवै गुरु बहु वचन, लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छ २५ __ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. الله الله ६३ १ ३ الله ३ ३ ३ ३ ३ १ الله له م ए कर्कश एक वचन, मृदु बहु वचन करी दूजी चउसठी कही। हिवं कर्कश बहुवचन अन मृदु एक वचन करी तीजी चउसठी कहै छतिणमें गुरु लघु एकवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै س مه سه दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.तु. مه لا २७ mmmmr marrrr mr mmm mmmmmmmmmmmmmmm orror mmmm مه له مه له mmmmmmmmmmmm or or ora اس or orr mr مه الله سه orrrrrom mmmmmmmm maram ram ram orm ل १ १ १ १ .orm r سه हिवं गुरु लघु ए बिहुं बहुवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा | १० ३ कहै छै २९ दे.क. दे मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. | n orm سه اس الله oom له mmmm سه س الله الله ३३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं गुरु एक वचन लघु बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छै س س दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. س سے سه हिवं गुरु लघु ए बिहु बहुवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै لله our m mmmm २१ ३ १ १ ३ १ ३ १ १ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. س س ५० If m m nm س m m m m ३ ३ १ १ ३ २५ ३ १ १ ३ ३ १ १ १ ५२ ३ ३ ३ १ ३ ३ س २७ س ३ १ १ ३ ३ ३ १ س or orammmm سه Monorar ra ra rana room mmm or oramm لله mmmmmmmmmmmmm rrrrrrrrrrorm हिवै गुरु बहुवचन लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा | ६० कहै छै ६२ ३ ३ ३ ३ १ ३ दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. देशी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. ३३ ३ १ ३ १ १ १ १ १ سه سه १ ए कर्कश बहु वचन मृदु एक वचन करी तीजी चउसठी कही। له له ३८ ३ १ १ १ ३ १ ३ हिवै कर्कश मृदु ए बिहु बहुवचने करी च उथी चउसठी कहै छ, तिणमें गुरु लघु बिहुँ एकवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै छै-- سه له سه و mmmmmmmm दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.ल. س مه له له سه مه orm um س س श० २०, उ०५, ढा०४०२ ३३९ Jain Education Intemational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हिवं गुरु बहु वचन लघु एक वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा | दे.क. दे.मृ. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. mmmmmmmmmmmm xo-or-rxror-rxmmmm ३८ ३ الله १ १ ३ १ الله الله Frmmmmmmmmmmmmm rm on or morm mamr الله الله الله हिवै गुरु एक वचन लघु बहु वचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा الله الله الله اس दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. اس الله १८ ३ on a ३ الله १ الله مه १ ३ हिवं गुरु लघ ए बिहु बहुवचन संघाते ४ चउभंगी करि १६ भांगा कहै मा الله له مه or or الله سه مه ५४ orrrorm m mm दे.क. दे.म. दे.गु. दे.ल. दे.शी. दे.उ. दे.नि. दे.लु. له سه به الله الله له १ १ ३ २२ २३ ३ ३ الله الله or or or سه مه اسد or or or الله لله مه الله لا سه سه الله اله الا سه له or or orm الله سه or or ora الله mmmmmm سه له اله الا mmmmmmmmmmmm له الله مر or orammmm و or له س ه مهم لسه له الله له or or or له سه له به سه m mmm الله مه الله ل لله الله الله ३४. भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ ६२ ६३ ६४ ३ ३ ६४ ३ ३ ३ ३ १ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ए कर्कश मृदु बिहु बहुवचन करी चउथी चउसठी कही । एवं आठ फर्श नां २५६ भांगा हुवे । ५६४. * प्यार फर्श नां सोलै जगीस, पंच फर्श इकसी अठवीस । पट फर्म विषे सुविमासी, भांगा तीनसौ ने चउरासी ॥ ५६५. सप्त फर्श पांचसी बार, अठ फासे वे सौ छप्पन धार बावर अनंतप्रदेशिक संग फर्श नां वारसौ छिन् भंग || 1 ५६६. शत बीस में पंचमुद्देश, व्यारसौ दोयमी ढाल एस । भिक्षु भारी माल ऋषिराय, सुख 'जय-जश' हरष सवाय ।। ढाल : ४०३ हा १. पूर्वे परमाणु प्रमुख, आखयो तसुं हिये परमाणु नोज पुन, कहिये से परमाणु पद २. परमाणु- पुद्गल प्रभु! आयो कि प्रकार ? जिन भाखे परमाणुओ-पुद्गल चिविध धार ॥ ३. द्रव्य रूप परमाणुओ, द्रव्य परमाणू जेह । वर्णादिक जे भाव नीं, वांछा रहित कहेह || अधिकार । विस्तार || ४. क्षेत्र परमाणू जे का इक आकाश प्रदेश । कह्य, काल परमाणू एह के समय एक सुविशेष || ५. भाव परमाणु जे बलि, तास भाव वर्णादि । मुख्यपणुं वांछ्यं तसु, सर्व जघन्य कृष्णादि ॥ ६. कतिविध द्रव्य परमाणु प्रभु ? जिन कहै चिविध तेह अछेद शस्त्रादिक करी, छेदण जोग्य न जेह ॥ *लय : म्हारी सासू रो नाम छे फूली १ ३ १ ५६५. एवं एते बादरपरिणए अनंतपए सिए खंधे सव्वेसु संजोए बारस छन्नउया भंगसया भवंति । (१० २०१६) १. परमाण्वाद्यधिकारादेवेदमाह ( वृ० प० ७८८ ) २. कतिविहे णं भंते ! परमाणू पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे परमाणू पण्णत्ते, तं जहा३. दव्वपरमाणू तत्र द्रव्यरूपः परमाणुई व्यपरमाणु एकोऽर्वर्णादि भावानामविवक्षणात् द्रव्यत्वस्यैव विवक्षणादिति ( वृ० १०७८०) ४. परमाणू कालपरमाणू एवं क्षेत्रपरमाणु : आकाशप्रदेश: समय: कालपरमाणुः ( वृ० प० ७८८ ) ५. भावपरमाणू । (१० २०1३७) भावपरमाणू : --- परमाणुरेव वर्णादिभावानां प्राधान्यविवक्षणात् सर्वजन्यासत्यादिव ( वृ० १०७८) ६. दव्वपरमाणू णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चव्विहे पण्णत्ते, तं जहा अच्छेज्जे, 'अच्छेज्ज' त्ति छेद्य :- शस्त्रादिना लतादिवत्तन्निषेधादच्छेद्यः ( वृ० प० ७०८ ) श० २० उ०५, ढा० ४०२, ४०३ ३४१ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. अभेद्य सूई प्रमुखज, तीखे शस्त्र करेह । नहीं भेदवा जोग्य ते, द्वितीय भेद छै एह ।। ८ अदाह्य न बलै अग्नि करी, अति सूक्ष्म भावेह । अग्राह्य हस्तादिक करी, ग्रहिवा जोग्य न जेह ।। ९. कतिविध खित्त परमाणु प्रभु ? जिन कहै चिउंविध रीत । अनई अर्द्ध रहित ते, सम संख्या करी रहीत ।। १०. अमध्य मध्य रहित ते, संख्या विषम कहाय । ते अवयव करि रहित छै, द्वितीय भेद ए पाय ।। ११. अप्रदेश तसु अंश नहीं, अवयव रहित तद्रूप । अविभागे करी नीपनों, अविभागज इक रूप ।। १२. तथा अर्थ अविभाग नं, विभाग करिवा जेह । समर्थ नहीं छै ते भणी, तसु अविभाग कहेह ।। १३. काल परमाणु नी पृच्छा । जिन कहै च्यार प्रकार। वर्ण गंध रस रहित छै, फर्श रहित वलि धार ।। ७. अभेज्जे 'अभेज्ज' त्ति भेधः--शूच्यादिना चर्मवत्तन्निषेधाद (व०प० ७८८) ८. अडज्झे, अगेज्झे। (श० २०।३८) 'अडझे' त्ति अदाह्योऽग्निना सूक्ष्मत्वात्, अत एवाग्राह्यो हस्तादिना, (वृ०प०७८८) खेत्तपरमाणू णं भते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा -अणद्धे, 'अणद्धे' त्ति समसंख्यावयवाभावात् (वृ० ५०७८८) अमज्झे, 'अमझे' त्ति विषमसंख्यावयवाभावात् (वृ० ५०७८८) ११. अपदेसे, अविभाइमे। श० (२०।३९) 'अपएसे' त्ति निरंशोऽवयवाभावात् (वृ. ५०७८८) १२. 'अविभाइमे' ति अविभागेन निर्वृ त्तोऽविभागिम एकरूप इत्यर्थः विभाजयितुमशक्यो वेत्यर्थः । १३. कालपरमाणू णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा–अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे। (श० २०१४०) १४. भावपरमाणू णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा वण्णमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते। (श० २०४१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ । (श० २०१४२) १५. पञ्चमे पुदलपरिणाम उक्तः, षष्ठे तु पृथिव्यादि जीवपरिणामोऽभिधीयते (वृ० प० ७८८) १४. कतिविध भाव परमाणु प्रभु ? जिन कहै चउविध ताम । वर्ण गंध रस फर्शवंत, सेवं भंते ! स्वाम ।। १५. वीसम शतक तणों कह्यो, पंचमहेश तदर्थ । पंचम पुद्गल नैं कह्या, षष्टम जंतू अर्थ ।। विशंतितमशते पंचमोद्देशकार्थः ।।२०।५॥ पृथ्वीकाय का आहार आदि पद जय जय ज्ञान जिनेंद्र नों ।। (ध्र पदं) १६. पृथ्वीकाइक हे प्रभु ! ए रत्नप्रभा पृथ्वी ख्यातो जी। सक्करप्रभा पृथ्वी वलि, ए बिहं बीच विख्यातो जी।। १७. समुद्घात करिने तिको, सुधर्म कल्प विषहो जी। ऊपजवा जोग्य जेह छै, पृथ्वीकायपणेहो जी ।। १८. ते प्रभु ! स्यूं पहिला ऊपजी, पाछै आहार करेहो जी। पहिला आहार करी तिको, पाछै ते ऊपजेहो जी? १६. पुढविक्काइए ण भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्कर प्पभाए य पुढवीए अंतरा १७. समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, १८. से णं भंते ! कि पुवि उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा? पुटिव आहारेत्ता पच्छा उववज्जेज्जा ? १९. गोयमा ! पुवि वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा एवं जहा सत्तरसमसए छठ्ठद्दे से (श० १४६७,६८) २०. जाव से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-पुटिव वा जाव उववज्जेज्जा, १९. जिन कहै पहिला ऊपजो, पाछै आहार करतो जी। इम जिम सतरम शतक नै, छठे उद्देशे वतंतो जी ।। २०. यावत तिण अर्थे करी, हे गोतम ! इम आख्यो जी। पूर्व ऊपजनै पछै, जाव ऊपज दाख्यो जी।। *लय : हो जी राय इसो मन चितवै ३४२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. नवरं छठा उद्देश में, संपाउणइ आख्यातो जी। आहार कर भणवो इहां, तिमहिज शेष विख्यातो जी। २१. नवरं-तेहि संपाउणणा, इमेहिं आहारो भण्णति, सेसं तं व। (श० २०४३) सोरठा २२. छठे उदेशे ख्यात, इण वचने करिने इहां। कहिवं इम अवदात, नवरं आहार संघात ए॥ २३. पूर्व ऊपजी जेह, पाछै आहार कर तिको। फून पूर्व आहारेह, पाछै ऊपजवं प्रमुख ।। २४. एहनों ए छै अर्थ, कंदुक दडाज सारखी। गति करिवेज तदर्थ, समुद्घातगामी तिको ।। २५. ते पूर्व ऊपजेह, उत्पत्ति स्थानक गमन कर। पाछै आहार करेह, तनु प्रयोग पुद्गल ग्रहै ।। २६. गति ईलका सरीस, समुद्घातगामी तिको। उत्पत्ति क्षेत्र जगीस, प्रदेश प्रक्षेवपण करी ।। २७. तदनंतर इम .जाण, प्रदेश पूर्व तनु विषे । रह्या तिके पहिछाण, उत्पत्तिक्षेत्रे ऊपजै ।। २२,२३. 'एवं जहा सत्तरसमसए छठ्ठद्दे से' त्ति अनेन च यत्सूचितं तदिदं पुवि वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा पुवि वा आहारित्ता पच्छा उववज्जेज्जे' त्यादि, (वृ०प०७९०) २४,२५. अस्य चायमर्थ:-- यो गेन्दुकसंनिभसमुद्घातगामी स पूर्व समुत्पद्यते - तत्र गच्छतीत्यर्थः पश्चादाहारयति-शरीरप्रायोग्यान् पुद्गलान् गहाणातीत्यर्थः अत उच्यते पुधि वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्ज' त्ति, (वृ०प०७९०) २६. यः पुनरीलिकासन्निभसमुद्घातगामी स पूर्वमाहारयति---उत्पत्तिक्षेत्रे प्रदेशप्रक्षेपणेनाहारं गृह्णातीति । (व०प०७९०) २७. तत्समनन्तरं च प्राक्तनशरीरस्थप्रदेशानुत्पत्तिक्षेत्रे संहरति अत उच्यते 'पुट्विं आहारित्ता पच्छा उववज्जेज्ज' त्ति । (वृ० प० ७९०) २८. पुढविक्काइए णं भते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा २९. समोहए, समोहणित्ता जे भविए इसाणे कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए । ३०. एवं चेव । एवं जाव ईसीपब्भाराए उववाएयब्वो। (श० २०४४) ३१. पुढविक्काइए णं भंते ! सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए य पुढवीए अंतरा ३२. समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे जाव ईसीपब्भाराए, ३३. एवं एतेणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा ३४. समोहए समाणे जे भविए सोहम्मे जाव ईसीपब्भाराए उववाएयब्वो। (श. २०१४५) २८. *पृथ्वीकायिक हे प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी न्हालो जी। सक्करप्रभा पृथ्वी दूसरी, ए बिहं तेण बिचालो जी।। २९. समुद्घात करने तिको, ईशान कल्प विषेहो जी। ऊपजवा योग्य जेह छै, पृथ्वीकायपणेहो जी ।। ३०. इमहिज पूर्वली परै, यावत ईसीप्पभारा जी। पृथ्वी लगै उपजाविवो, पूर्व रीत प्रकारा जी। ३१. पृथ्वीकायिक हे प्रभु ! सक्करप्रभा न्हालो जी। वालुकप्रभा तीसरी, ए बिहं तणे बिचालो जी ।। ३२. समुद्घात करिने तिको, सुधर्म कल्प विषेहो जी। ऊपजवा जे जोग्य है, जाव सिद्धशिला उपजेहो जी।। ३३. इम एणे अनुक्रमे करी, यावत तमा निहालो जी। अधोसप्तमी पृथ्वी वलि, ए बिहुं तण बिचालो जी। ३४. समुद्घात करिने तिको, सौधर्म उत्पत्ति जोगो जी। यावत सिद्धशिला विषे, । ऊपजाविवो सुप्रयोगो जी॥ ३५. पृथ्वीकायिक हे प्रभु ! सौधर्म ईशाण न्हालो जी। सनतकुमार माहिंद्र जे, ए बिहुं कल्प बिचालो जी ।। ३६. समुद्धात करिनै तिको, महि रत्नप्रभा नै विषेहो जी। ऊपजवा ने योग्य जे, पृथ्वीकायपणेहो जी ।। ३७. ते प्रभु ! पहिला ऊपजी. पाछै आहार करेहो जी। शेष तिमज यावत नलि, तिण अर्थे जाव निखेहो जी ।। *लय : हो जी राय इसो मन चितवं ३५. पुढविक्काइए णं भंते ! मोहम्मीसाणाणं सणकुमार माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा ३६. समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, ३७. से णं भंते ! कि पुब्बि उबवज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा ? सेसं त चेव जाव से तेणठेणं जाव श० २०, उ०६, ढा० ४०३ ३४३ Jain Education Intemational cation International Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. पृथ्वी कायिक हे प्रभु ! सौधर्म ईशाण न्हालो जी । सनतकुमार महेंद्र जे, ए बिहुं कल्प बिचालो जी ॥ ३९. समुद्घात करनें तिले. 1 मही सक्करप्रभा विषेहो जी । ऊपजवा ने जोग्य जे पृथ्वीकायपणेहो जी ।। ४०. इमहिज पूर्वली परं एवं यावत जाणी जी। अघोसप्तमी ने विषे उपजाविवं पहिछाणी जी ॥ ४१. इस सनतकुमार महेंद्र ने ब्रह्म विवाले तेहो की । समुद्घात करिने वलि " यावत सप्तमीं में ऊपजेहो जी ।। ४२. इम ब्रह्मलोक लंतक बिचे, समुद्धात करि तेही जी । पुनरपि जावत सप्तमी, पृथ्वी विषे ऊपजेहो जी ।। ४३. इम तक महाशुक नं. बिच समुद्धात पुनरपि जावत सप्तमी, पृथ्वो विषे ४४. इस सप्तम अष्टम ने विषे समुद्घात पुनरवि जावत सप्तमी, पृथ्वी विषे ४५. इम अष्टम आणत पाणत बिचे, समुद्धात पुनरपि जावत सप्तमी, पृथ्वी विषे ४६. इम आण पाण आरण अच्चु बिचे, समुद्घात करितेो जी। पुनरपि जावत सप्तमी, पृथ्वी विषे उपजेहो जी ॥ ४७. इम आरण अच्चु ग्रैवेयक बिचे, करि तेहो जी । ऊपजेहो जी ॥ करि तेही जी । ऊपजेहो जी ॥ करि तेहों जी । उपजेहो जी ॥ समुद्घात 'करि तेही जी। पुनरपि जावत सप्तमी, पृथ्वी विषे ऊपजेहो जी ।। ४८. इम ग्रैवेयक अनुत्तर विमाण नैं, विचे समुद्धात करि तेही जी। पुनरपि जावत सप्तमी, पृथ्वी विषे उपजेहो जी ।। ४९. इम अनुत्तर विमाण में सिद्धशिला, विचे समुद्धात करि तेही जी । पुनरपि जावत सप्तमी, पृथ्वी विषे उपजेहो जी ।। अपकाय का आहार आदि पद ५०. आउकायिक हे प्रभु मही रत्नप्रभा ए व्हालो जी सक्करप्रभा दूसरी ए बिहुँ तर्णं विचालो जी ॥ ५१. समुद्घात करिनं तिको, सौधर्म कल्प विषेो जी ऊपजवा ने जोग्य छे, जे अपकायपणेहो जी ॥ ५२. शेष वाकतो सर्व ही, जिम कही पृथ्वीकायो जी तिमहिज कहिवो जाव ते, तिण अर्थे इम वायो जी ।। ५३. इम पहिली दूजी तणें, अंतर करी । समुद्घात जी । यावत सिद्ध शिला विधे, उपजावियोज विख्यातो जी ।। ५४. इम एणे अनुक्रमे करी, छठी सप्त समुद्घात जाय उपज, सिद्धशिला में ३४४ भगवती जोड़ विचालो जी न्हालो जी ॥ २५. पुढविस्काइए भंते सोहम्मीसागाणं सकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा २९. समोर, समोहगिता भविए सक्करणभाए पुढवीए पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए ? ४०. एवं चैव । एवं जाव असत्तमाए उववाएयव्वो । ४१. एवं सणकुमार- माहिदाणं बंभलोगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, समोहचित्ता पुणरवि जान असत्तमाए उबवाय ४२. एवं बंभलोगस्स लंतगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, पुणरवि जाय असत्तमाए । ४३. एवं लंतगस्स महासुक्कस्स कप्पस्स य अंतरा समोहए, पुरविजाय असतमाए । ४४. एवं महासुक्कस्स सहस्सारस्स य कप्पस्स अंतरा पुनरवि जाव आहेसतमाए । ४५. एवं सहस्सारस्स आणय पाणय- कप्पाण य अंतरा गुणरवि जाव बसत्तमाए । ४६. एवं आणय - पाणयाणं आरणच्चुयाण य कप्पाणं अंतरा पुणरवि जाव असत्तमाए । ४७. आरणच्चयाणं गेवेज्जविमाणाण य अंतरा जाव समाए। ४८. एवं गेवेज्जविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य अंतरा पुणरवि जाव असत्तमाए । ४९. एवं अणुत्तर विमाणाणं ईसीपब्भाराए य पुणरवि जाव असत्तमाए उववाएयव्वो । ( श० २०/४७ ) ५०. आउक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा ५१. समोह मोहचित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउवकाइयत्ताए उववज्जित्तए ? ५२. सेसं जहा पुढविक्काइयस्स जाव से तेणट्ठेणं । ५३. एवं पढम दोच्चाणं अंतरा समोहए जाव ईसीपन्भाराए उववायव्वो । ५४. एवं एए कमेण जाव समाए जसत्तमाए व पुढबीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जाव ईसी पन्भाराए उववायव्वो आउक्का इयत्ताए । (२० २०९४८) Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. आउकायिक हे प्रभु ! सौधर्म ईशाण न्हालो जी । सनतकुमार माहेंद्र हो, तेह तज बिचालो जी ॥ ५६. समुद्घात करिनें तिको, पृथ्वी रत्नप्रभा नों तेहो जी । चनोदधि घनोदधि वलय में उपजवा जोग्य अपपणेहो जी ।। " । ५७. शेषं तं चैव जाणवु इम निश्च अनुकमे हो जी ऊर्द्ध अंतराने विषे समुद्घात करि तेही जी ।। ५८. जाव सप्तमी पृथ्वी तणां पनोदधि में विषेो जी। बलि घनोदधि वलया विधे, उपजाविवं अपपणेहो जी | ५९. म जाव अनुत्तर विमाण नं सिद्धशिला में तामो जी । एह तणां अंतरा विषे समुधात करि आमो जी ॥ ६०. जाव अधोसप्तमी तणां पनोदधि ने विषेो जी। बलि घनोदधि बनवा विषे उपजाविवं अपपणेही जी ।। 1 वायुकाय का आहार आदि पद ६१. वाउकायिक हे प्रभु ! ए रत्नप्रभा मही म्हालो जी । सक्करप्रभा दूसरी ए बिहुं तणें बिचालो जी ।। ६२. समुद्घात करिने तिको, सौधर्म कल्प विषेहो जी । उपजवा ने जोग्य है, वाउकायपणेहो जी ॥ ६३. इम जिम सतरम शतक नां, वाउकाय नैं उदेशो जी । आरूपो तिम कहि इह नवरं इतरो विशेषो जी ॥ इहां, ६४. जे अंतराने विधे समुद्घात कहिवायो जी शेषं तं चैव कहीजिये, जाव अणुत्तर आयो जी ॥ ६५. पंच अणुत्तर विमाण नं सिद्धशिला में बिचालो जी । समुद्घात करि ने तिको, जे वाउकाय निहालो जी ॥ ६६. धनवाय में तनुवाय में, घनवाय वलय विषेो जी बलि तनुवाय वलय विधे, उपजवा योग्य वायुपहो जी ।। ६७. शेषं तं चैव कहोजिये, जाव तिण अर्थ जाणी जी । जाव ऊपजै कहिवुं सहु, सेवं भंते! पहिछाणी जी ॥ ६८. वीसमां शतक विषे कह्यो, षष्ठमुद्देशक एहो जी । वाचनांतरे वृति में, तमु अभिप्राय कहो जी ॥ ६९. पृथ्वी अप वायु तणों, तीन उद्देशक तामो जी । तास मते ए आखियो, अष्टमुदेशक आमो जी ॥ ७०. फागुण विद एकादशी, चार सौ तीजी डालो जो । भिक्व भारीमा ऋषिराम थी 'जय जश' मंगलमालो जी ॥ । विशतितमशते षष्ठोद्देशकार्यः ।। २०।६।। ५५. आउयाए णं भंते! सोहम्मीसाणाणं सणकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा ५६. समोहए, समोहमित्ताने भनिए इमी मगध्यभाए वीए भगोदहि यणोदहिवलएसु आउनकाइयत्ताए उववज्जित्तए ? ५७. सेसं तं चैव । एवं एएहि चेव अंतरा समोहओ ५८. जाव आहेसत्तमाए पुढवीए घणोदहि-घणोदहिवलएसु आउक्काइयत्ताए उववाएयव्वो । ५९. एवं जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसीपन्भाराए य पुढवीए अंतरासमोर ६०. जाव आहेसत्तमाए उववाएयव्वो । षणोदहि-बनोदहिबलएमु ( ० २०८४९) ६१. वाउक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करभाए य पुढवीए अंतरा ६२. समोर समोगिता जे भविए मोहम्मे कप्पे वाउक्का इयत्ताए उववज्जित्तए ? ६३. एवं जहा सतरसमस बाउक्काउट्सए (श० १७७८०८०) तहा दहवि नवरं ६४,६४. अंतरे समोहमा नेयब्बा, ते अणुत्तरविमाषाण ईसीपन्धाराए व समोहए, तं देव जा बीए अंतरा ६६. समोहणित्ता जे भविए घणवाय तणुवाए घणवायतबादलए बाउक्काइए उत्त ६७. सेसं तं चैव जाव से तेणट्ठेणं जाव उववज्जेज्जा । ( ० २००११) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (४० २०१०) ६८. विंशतितमशते षष्ठः ।। २०।६ ।। वाचनान्तराभिप्रायेण तु ( वृ० प० ७९० ) ६९. पृथिव्य ब्वायुविषयत्वादुद्देशकत्रयमिदमतोऽष्टमः । ( वृ० प० ७९० ) श० २०, उ०६, ढा० ४०३ ३४५ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४०४ १. छठे उदेशे आखियो, पृथिव्यादिक नों आहार । कर्म बंध व तेहथी, सप्तम बंध प्रकार ।। बंध पद २. कतिविध हे भगवंतजी! बंधे पन्नत्तेह ? तिविहे बंधे गोयमा ! इम प्रभुवर पभणेह ॥ ३. जीव प्रयोगज बंध धुर, जीव तणे सुविचार । प्रयोग कहितां मन प्रमुख व्यापारे करि धार ।। ४. बंध कर्म पुद्गल तणों, आत्म-प्रदेश संघात । संश्लेष बद्ध स्पृष्ट फुन, निधत्त निकाच थात ।। ५. द्वितीय अनंतर बंध फून, पहिले समये जेह । कर्म बंध वत्र्तं तिको, दूजो भेद कहेह ।। ६. द्वितीयादिक समया विषे, जेह बंध वर्तेह? कह्यो परम्पर बंध ते, तृतीय भेद छै एह ।। १. षष्ठोद्देशके पृथिव्यादीनामाहारो निरूपितः, स च कर्मणो बन्ध एव भवतीति सप्तमे बन्धो निरूप्यते, (वृ०प०७९०) २. कतिविहे णं भंते ! बंधे पण्णते ? गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा --- ३,४. जीवप्पयोगबंधे, 'जीवप्पओगबंधे' त्ति जीवस्य प्रयोगेण-मनः प्रभृतिव्यापारेण बन्धः-कर्मपुदलानामात्मप्रदेशेषु संश्लेषो बद्धस्पृष्टादिभावकरणं जीवप्रयोगबन्धः, (वृ० प०७९१) ५. अणंतरबंधे, 'अणंतरबंधे, त्ति येषां पुदलानां बद्धानां सतामनन्तरः समयो वर्तते तेषामनन्तरबन्ध उच्यते, (वृ० प०७९१) ६. परंपरबंधे। (श०२०१५२) येषां तु बद्धानां द्वितीयादि: समयो वर्त्तते तेषां परम्परबन्ध इति, (वृ प० ७९१) ७. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे बंधे पण्णत्ते ? एवं चेव । एवं जाव वेमाणियाणं । (श० २०१५३) ८. नाणावरणिज्जस्स ण भंते ! कम्मस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा जीवप्पयोगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे । (श० २०१५४) ९. नेरइयाणं भंते ! नाणाबरणज्जिस्स कम्मस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते ? एवं चेव । १०. एवं जाव वेमाणियाणं । एवं जाव अंतराइयस्स । (श० २०१५५) ११. नाणावरणिज्जोदयस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते? गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते एवं चेव । ७. *नारक ने भगवंत ! ए, ओ तो कतिविध बंध कहत ए? इमहिज तीन प्रकार ए, इम जाव वैमानिक धार ए।। ८. ज्ञानावरणी कर्म नों भदंत ! ए, ओ तो कतिविध बंध कहत ए? जिन भाखै त्रिविधेह ए, नाम पूर्व भाख्या जेह ए ।। ९. नारक ने भगवान ! ए, ज्ञानावरणी कर्म नों जान ए। कतिविध बंध सुजाण ए? एवं चेव त्रिविध पहिछाण ए।। १०. इम जाव वैमानिक संध ए, इम जाव अंतराय बंध ए। दंडक चउबीस प्रसिद्ध ए, बंध अष्ट कर्म नों त्रिविद्ध ए ।। ११. ज्ञानावरणी उदय नों बंध ए, प्रभु ! किते प्रकारे संध ए? एवं चेव कहाय ए, बंध तीन प्रकारे थाय ए॥ सोरठा १२. ज्ञानावरणी जाण, उदय रूप जे कर्म नों। त्रिविध बंध पहिछाण, इतलै उदैज पामियो।। १२. 'णाणावरणिज्जोदयस्स' त्ति 'ज्ञानावरणीयोदयस्य' ज्ञानावरणीयोदयरूपस्य कर्मण उदयप्राप्त ज्ञानावरणीयकर्मण इत्यर्थः, (वृ०५०७९१) १३. अस्य च बन्धो भूतभावापेक्षयेति, (वृ०प० ७९१) १३. ए ज्ञानावरणी ताय, उदय रूप नों बंध जे। भूत भाव अपेक्षाय, प्रश्न कियो जणाय छै ।। *लय : जाण छ राय तू बातरा ए ३४६ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. तथा विपाक थी वेदंत, किंचित प्रदेशथीज फुन । इति हेतू थी मंत, कर्म विशेषित उदय करी ।। १५. तथा ज्ञानावरणी ताम, उदय छते जे कर्म नैं। बांधै वेदै आम, ज्ञानावरणी उदय ते ।। १६. *इम नारक पिण जाण ए, इम जाव वैमानिक माण ए। एवं जावत संध ए, अंतराय उदय नों बंध ए॥ १७. इत्थी वेद नों भदंत ! ए, ओ तो कतिविध बंध कहंत ए? एवं चेव पिछाण ए, बंध तीन प्रकारे जाण ए।। १४. अथवा ज्ञानावरणीयतयोदयो यस्य कर्मणस्तत्तथा, ज्ञानावरणादिकर्म हि किञ्चिज्ज्ञानाद्यावारकतया विपाकतो वेद्यते किञ्चित् प्रदेशत एवेत्यु येन विशेषितं कर्म, (वृ० प० ७९१) १५. अथवा ज्ञानावरणीयोदये यबध्यते वेद्यते वा तज्ज्ञानावरणीयोदयमेव तस्येति, (वृ० ५०७९१) १६. एवं नेरइयाण वि। एवं जाव वेमाणियाणं । एवं जाव अंतराइओदयस्स। (श० २०१५६) १७. इत्थीवेदस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते एवं चेव । (श. २०१५७) १७. असुरकुमाराणं भंते ! इत्थीवेदस्स कम्मस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते ? एवं चेव ! एवं जाव वेमाणियाणं, १९. नवरं-जस्स इत्थिवेदो अस्थि । एवं पुरिसवेदस्स वि। २०. एवं नपुंसगवेदस्स वि जाव वेमाणियाणं, नवरंजस्स जो अत्थि वेदो। (श० २००५८) २१. दसणमोहणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते ? एवं चेव । निरंतरं जाव वेमाणियाणं । २२. एवं चरित्तमोहणिज्जस्स वि जाव वेमाणियाणं । १८. असुरकुमार ने संध ए, इत्थी वेद नों कतिविध बंध ए ? एवं चेव कहाय ए, इम जाव वैमानिक आय ए॥ १९. नवरं इतलो विशेष ए, जेहन इत्थी वेद संपेख ए। तेहनै कहिवं ताम ए, इम पुरुष वेद पिण पाम ए॥ २०. नपुंसक वेद नों पिण एम ए, जाव वैमानिक ने तेम ए। नवरं जेहनें जेह ए, वेद पावै कहिवं तेह ए॥ २१. दर्शन मोहकर्म नों भदंत ! ए, ओ तो कतिविध बंध कहत ए? एम निरंतर जाव ए, वैमानिक नै कहिवाव ए॥ २२. चारित्त मोहनी नों पिण बंध ए, ओ तो कहि त्रिविध संध ए। जावत ही सुप्रसिद्ध ए, वैमानिक ने त्रिविद्ध ए ।। २३. इम एणे अनुक्रमेह ए, ओदारिक शरीर नों जेह ए। जाव कार्मण नों बंध ए, कहिवं तीन प्रकारे संध ए॥ २४. आहार संज्ञा नों जोय ए, जाव परिग्रह संज्ञा नों होय ए। कृष्ण लेश्या नों जेह ए, जाव शुक्ल लेश्या नों कहेह ए।। सोरठा २५. संज्ञा जीव व्यापार, मोहकर्म नां उदय थी। जीव परिणाम असार, संबंधमात्रज बंध तसु ।। २६. जीव प्रयोग करेह, उत्पत्ति संज्ञा नी हवै। अणंतरादि भणेह, धुर समयादि विषे हवै। २७. ज्ञानावरणी आद, कर्म तणों नहिं कथन इहां। संबंध मात्र संवाद, अत्र विवक्षा संभवै ।। इहा बन्ध शब्द करिके कर्म पुद्गल नों बन्धन वांछ्यो। किंतु संबंधमात्र इहां संभवै । २८. समदृष्टि नों सोय ए, मिथ्यादृष्टि नों जोय ए। मिश्रदृष्टि नों प्रसिद्ध ए, संबंध मात्र बंध त्रिणविद्ध ए।। *लय : जाण छै राय तू बातरा ए २३. एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव कम्मग सरीरस्स २४. आहारसण्णाए जाव परिग्गहसण्णाए, कण्हलेसाए जाव सुक्कलेसाए, २८. सम्मदिट्ठीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छादिट्ठीए, श०२०, ०७, ढा०४०४ ३४७ Jain Education Intemational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. आभिणिबोहियनाणस्स जाव केवलनाणस्स, मइअण्णाणस्स सुयअण्णाणस्स विभंगनाणस्स , ३०. एवं आभिणिबोहियनाणविसयस्स भंते ! कतिविहे बंधे पण्णत्ते जाव केवलनाण विसयस्स, २९. मति ज्ञान नों पेख ए, जाव केवलज्ञान नों देख ए। मति श्रुत विभंग अनाण ए, तसु त्रिविध बंध पिछाण ए।। ३०. मति ज्ञान विषय नों भदंत ! ए, ओ तो कतिविध बंध कहत ए? जावत केवलनाण ए, तेहनों विषय नुं बंध सुजाण ए।। ३१. मति श्रुत विभंग अनाण ए, फुन तास विषय नों पिछाण ए। ए सर्व पदां नों संध ए, कह्यो तीन प्रकारे बंध ए॥ ३२. ए सगला पद सोय ए, बंध चउबीस दंडके होय ए। नवरं इतरो विशेख ए, कहिवं जेहने जेह छै लेख ए।। ३३. जाव वैमानिक जाण ए, तस विभंग अनाण पिछाण ए। तेहनी विषय नों भदंत ! ए, किते प्रकारे बंध कहंत ए? ३१. मइअण्णाणविसयस्स सुयअण्णाणविसयस्स विभंगनाण विसयस्स-एएसि सब्वेसि पदाणं तिविहे बंधे पण्णत्ते। ३२. सव्वेवेते चउव्वीसं दंडगा भाणियव्वा, नवरं जाणियव्वं जस्स जं अत्थि । ३३. जाव (श० २०१५९) वेमाणियाणं भंते ! विभंगनाणविसयस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते? ३४. गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा- जीवप्पयोगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे। (श० २०६०) ३४. जिन कहै त्रिण प्रकार ए, बंध जीव प्रयोग विचार ए। वलि अनंतर बंध ए, फुन बंध परंपर संघ ए।। सोरठा ३५. वृत्ति विषे इम वाय, समदृष्टी इत्यादि जे। तेहन बंध किम थाय ? उत्तर तस् इहविध कह्यो ।। ३६. बंध शब्द करि ताहि, कर्म रूप पुद्गल तणुं बंध विवक्ष्यो नाहि, संबंधमात्रज वांछियो ।। ३७. जीव तणों अवलोय, दृष्टयादिक जे धर्म करि सहित तिके छ सोय, जीव प्रयोग बंधादि ते ॥ ३८. संबंधमात्रज एह, फुन जीव वीर्य उत्पत्ति थकी। मति ज्ञानादिक जेह, तसू विषय बंध त्रिविध पिण ।। ३९. निरवद्य एह उदार, ज्ञान तण जे ज्ञेय करि । साथ संबंध विचार, तेह वाछवा थी वृत्ती ।। ४०. *सेवं भते ! सेवं भंत ! ए, तहत वचन तुम्हारा तंत ए। बीसम शतक विशेष ए, अर्थ आख्यो सप्तमुद्देश ए॥ ४१. च्यार सौ चौथी ढाल ए, आ तो आखी अधिक विशाल ए। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय ए, सुख 'जय-जश' हरष सवाय ए । विशतितमशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥२०॥७॥ ३५. 'सम्मट्ठिीए' इत्यादि, ननु 'सम्मद्दिट्ठी' त्यादौ कथं बन्धो दृष्टिज्ञानाज्ञानानामपौलिकत्वात् ?, अत्रोच्यते, (वृ०प० ७९१) ३६. नेह बंधशब्देन कर्मपुद्गलानां बंधो विवक्षित: किंतु सम्बन्धमात्र, (० ५० ५९१) ३७,३८. तच्च जीवस्य दृष्ट्या दिभिर्धम: सहास्त्येव, जीवप्रयोगबन्धादिव्यपदेश्यत्वं च तस्य जीववीर्यप्रभवस्वात् अत एवाभिनिबोधिकज्ञानविषयस्येत्याद्यपि (वृ० प० ७९१) ३९. निरवद्यं ज्ञानस्य ज्ञेयेन सह सम्बन्धविवक्षणादिति, (वृ० ५० ७९१) ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ । (श०२०।६१) ३४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा जाण । बंध का, तेहनुं विभाग खेत्रे कहा, तीर्थंकर पहिचाण ।। हिव अष्टमे कर्मभूमि आदेह | छं ते सांभलो जिन वचनामृत जेह || समयक्षेत्र में अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी पद मार्ट ', १. सप्तमुद्देशे कर्मभूमि २. ते कहियै ढाल : ४०५ *रूडै स्वाम प्रकास रे, नव नव प्रश्नज वारू ॥ ( ध्रुपदं ) ३. कतिविध कर्मभूमि प्रभु ! भाखी ? जिन कहै पनर सुसंचं । पंच भरत ने पंच एरवत, महाविदेह वलि पंचं ॥ ४. कतिविध अकर्मभूमि प्रभुजी ? श्रीजिन भाखे तीसं । पंच हेमवय पंच एरणवय हरिवास पंच दीसं ॥ ५. पंच रमकवासा वलि कहिये, पंच देवकुरु जाणी । पंच उत्तरकुरु क्षेत्र का बलि ए अकर्मभूमि पिछाणी ।। ६. ए अकर्मभूमि तीस विषे प्रभु! ते अवसप्पिणी जेह वलि उत्सपिणी काल अछे त्यां ? अर्थ समर्थ न एह ॥ " ७. पंच भरत पंच पुरवते से छै, वलि उत्सप्पणी काल अछे प्रभु ? अवसप्पिणी कालं । हंता अस्थि न्हालं ॥ 1 ८. एह पंच महाविदेह क्षेत्र में नहीं यति उत्सपिणी काल नहीं छे, ९. सदा काल तिहां एक सरीखूं, हे सप्पणी काल नहीं त्यां पंच महाव्रत चतुर्याम धर्म पद १०. पंच विदेह प्रभु ! अरिहंत भगवंत प्रतिक्रमण धर्म प्रति भावे ? अर्थ अवसप्पिणी कालं । अवस्थित मुविशालं ।। श्रमण आउखावंतो ! इम भाखे भगवंतो ॥ *लय : रूडै चंद निहाल रे नव रंग ११. ए पंच भरत पंच एरवते जिन, अरिहंत बे र चरम सप्रतिक्रमण पंच महाव्रत जे आखं धर्मज परम ।। 1 १२. अरिहंत भगवंत शेष बावीसज, पंचविदेहे अरिहंत भगवंत, चिहुं पंच महाव्रत जेह समर्थ न एह ॥ च्यार जाम पन्नवेह | महाव्रत कहेह || १२. सप्तमे बन्ध उक्तस्तद्विभागश्च कम्र्म्मभूमिषु तीर्थंकरैः प्ररूप्यत इति कम्भूम्यादिकमष्टमे प्ररूप्यते (१००७९१) ३. कति णं भंते ! कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! पन्नरस कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहापंच भरहाई, पंच एरवयाई, पंच महाविदेहाई । ( श० २०१६२ ) ४. कति गं भंते! अम्मभूमी पण्णत्ताओ ? गोवमा ! ती अम्मभूमीओ पण्णत्ताओं तं जहा पंच हेमबवाई, पंच हेरण्णवयाई, पंच हरिवासाई ५. पंच रम्मगवासाई, पंच देवकुराओ, पंच उत्तरकुराओ । (१० २००६३) ६. एयासु णं भंते! तीसासु अकम्मभूमीसु अतिथ ओसप्पिणीति वा उस्सप्पिणीति वा ? नो इमडे समद्धे । ( श० २०१६४ ) ७. एएसु णं भंते ! पंचसु भरहेसु, पंचसु एरवएसु अस्थि ओसप्पिणीति वा उस्सप्पिणीति वा ? हंता अस्थि । ९. पंच महाविदेहे नेवत्थि ओसणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवट्टिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो ! (२० २०.६५) १०. पंचसु महाविदेहेतु अरहंता भगवंतो पंचमहम्द सकिकमणं धम्मं पण्णवपति ? नो इमडे समट्ठे ११. एए पंच भरहेसु पंचसु एरवाए, पुरिमपमिना दुवे अरहंता भगवंतो पंचमहा सपडिक्कमणं धम्मं पण्णवयंति, १२. अवसेसा गं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवयंति । एएसु णं पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवयंति । (४० २०६६) श०२० उ०८, डा० ४०५ ३४९ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर पद १३. जंबूद्वीप प्रभु ! द्वीप विषे ए, भरत विषे अभिलाख्या । ए अवसप्पणी काल विषे जे, किता तीर्थंकर भाख्या ? १४. श्री जिन भाखे म्हे हम वाख्या तीर्थकर चउबीसं । ऋषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति सुप्रभ जगी || १५. वलि सुपार्श्व चंद्रप्रभ अष्टम नवमा जिन पुप्फदंत । शीतल ने श्रेयांस वासपूज्य, तेरम विमल अनंत ।। १६. पनरम धर्म सोलमां शांतिज, कंपू सतरमा जाने अर मल्लि मुनिसुव्रत नमि नेमि, पार्श्व अनं वर्द्धमानं ॥ सोरठा अड़ताल त्यां । १७. समवाअंग में ताम, भरत अतीत जिन नां नाम, वंदे १८. अनागत चउबीस, नाम कह्या वंदे पाठ न दीस, तिण सुं वंदन १९. आवस्सग रे मांय, लोगस्स में वंदे पाठ कहाय, ए पिण वच २०. म्है अभिस्तवना कीध कीर्त्या जोग्य नहीं ॥ चउवीस जिन । गणधर तणों ॥। वंचा पूजिया । ए गणधर बच सीध, तिणसुं वंदे पाठ है। २१. इहां भायो जगदीश, हे गोतम ! इण भरत में । तीर्थंकर चडवीस, ऋषभादिक मैं आविया || २२. अंत नाम वर्द्धमान, इहविध प्रभु पोते का तिण कारण पहिछान, वंदे गुण गाथा चउवीसी में वंदे पाठ ते नथी । वा०--- समवाअंग में अने लोगस्स में वर्त्तमान गणधर वचन जाणवो । अनैं इहां भगवती में गोतम पूछयो - प्रभु ! ! इण अवसप्पणी काल नैं विषे भरतक्षेत्र में केतला तीर्थंकर परूप्या ? जद भगवान कह्यो -चउवीस तीर्थंकर परूप्या । तेहनां नाम ऋषभादिक वर्द्धमान कह्या । ए महावीर स्वामी नुं वचन, ते मार्ट वंदे पाठ न कह्यो । २३. "हे प्रभु! प्यार बीस तीर्थकर, जिन अंतर तसु केता ? श्रीजिन भाले तीन बीस जे, छे जिन अंतर एता || कालिक श्रुत पद २४. ए तेबीस जिनांतर में प्रभु ! किसा जिन संबंधी न वेद । वलि किया जिन नां अंतर में कालिक सूत्र विच्छेद ? २५. जिन कहै एह तेबीस जिनांतरे, प्रथम चरम संवेद आठ-आठ जिन अंतर नैं विषे, एरवत क्षेत्र नां । आख्यो गणधरे ॥ २६. बिचला सात जिनवर ने विषे, *लय : रूडं चंद निहालै रे नव रंग ३५० भगवती जोड़ नहिं कालिक सूत्र विच्छेद || _इहां कालिक सूत्र नुं विच्छेद | सर्व तेवीस अंतर न विषे पिण, क्षय दृष्टिवाद नुं संवेद ।। १३. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए कति तित्थगरा पण्णत्ता ? १४. गोयमा ! चउवीसं तित्थगरा पण्णत्ता, तं जहाउस अजय-संभव-अभिनंदणमति-सुभ १५. सुपास-ससि पुप्फदंत सीयल सेज्जंस - वासुपुज्जविमल अत १६. धम्म अर-मस्तिमुणिमुब्वयनमि-मि पास- वद्धमाणा । १७. समदाओ – पइण्णगसमवाओ सू० २२२,२४८ १९. आवस्यं २।१ २३. एएसि णं भंते! चउवीसाए तित्थगराणं कति जिणंतरा पण्णत्ता ? गोयमा ! तेवीसं जिणंतरा पण्णत्ता । (श० २०1६८ ) २४. एएसि णं भंते! तेवीसाए जिणंतरेसु कस्स कहि कास्ति बोते ? २५. गोयमा ! एएसु णं तेवीसाए जिणंतरेस पुरिमपच्छिमएस अट्टसु अट्ठसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स अव्वोच्छेदे पण्णत्ते, २६. समिम सत्तए जिणंतरेषु एत्य णं कालियसुयस्स वोच्छेदे पण्णत्ते, सव्वत्थ वि णं वोच्छिष्णे दिट्टिवाए । ( श० २०१६९ ) Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २७. किण जिन में वरतार, वलि किण जिन अंतर विषे। कालिक अंग इग्यार, विच्छेद क्षय इम पूछियो ।। २७. 'कस्स कहि कालियसुयस्स वोच्छेए पन्नत्ते' त्ति कस्य जिनस्य सम्बन्धिनः कस्मिन् जिनान्तरे कयोजिनयोरन्तरे 'कालिकश्रुतस्य' एकादशानीरूपस्य व्यवच्छेदः प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्नः, (व०प० ७९२) २८. जिन भाखै तेबीस, जिन नां अंतर नै विषे । पहिला आठ जगीस, वलि छहला पिण आठ जे । २९. ए सोल सुविचार, जिन नां अंतर नै विषे । कालिक अंग इग्यार, तेहन विच्छेद क्षय नथी ।। ३०. मज्झिम बिचला सात, जे जिन नां अंतर विषे । अंग एकादश ख्यात, विच्छेद क्षय तेहन का ॥ वा० -सुविधि-शीतल ए बिहु जिन नां अन्तर नै विषे व्यवछेद थयं । इम आगल छह जिन नां अंतर नै विषे जाणवो। ३१. इहां कालिक व्यवछेद, पूछ्ये पिणज अपृष्ट नुं । ___ अव्यवछेद संवेद, उत्तर ए किण कारणे ।। ३२. विच्छेद तास विपक्ष, अविच्छेद जाण्ये छते। सुलभ हुवे प्रत्यक्ष, बोध विवक्षित अर्थ नुं ।। वा०-इहां वलि कालिक सूत्र नों व्यवच्छेद पूछ्ये छते पिण जे अणपूछया अव्यवच्छेद नों अभिधान ते व्यवच्छेद नो विपक्ष अव्यवच्छेद जाणिये छते वांछित अर्थ नुं जाणिवू सोहिलो हुदै, इम करीनै अणपूछया अव्यवच्छेद नें उत्तर दियो । अर्ने दृष्टिवाद नी अपेक्षाय सर्व पिण जिन नां अन्तर नै विषे पिण केवल सात अन्तर नै विषे हीज नहीं। किहांयक कितोक पिण काल दृष्टिवाद नों व्यवच्छेद थयुं । व्यवच्छेद ना अधिकार थकीहीज आगल इम कहै छै पूर्वगत पद ३३. *जंबूद्वीप नां भरत विषे प्रभु ! ए अवसप्पिणी मांहि । काल कितुं देवानुप्रिया न, पूर्व रहिस्ये ताहि ? ३१. इह च कालिकस्य व्यवच्छेदेऽपि पृष्टे यदपृष्टस्याव्यवच्छेदस्याभिधानं (वृ०प० ७९३) ३२. तद्विपक्षज्ञापने सति विवक्षितार्थबोधनं सुकर भवतीति कृत्वा कृतमिति, (वृ० प० ७९३) वा०—'एत्थ णं' ति ‘एतेषु' प्रज्ञापकेनोपदर्यमानेषु जिनान्तरेषु कालिकश्रुतस्य व्यवच्छेदः प्रज्ञप्तः, दृष्टिवादापेक्षया त्वाह-'सव्वत्थवि णं वोच्छिन्ने दिट्ठिवाए' त्ति 'सर्वत्रापि' सर्वेष्वपि जिनान्तरेषु न केवलं सप्तस्वेव क्वचित् कियन्तमपि कालं व्यवच्छिन्नो दृष्टिवाद इति । व्यवच्छेदाधिकारादेवेदमाह (वृ०प० ७९३) ३४. जिन कहै जंबूद्वीप भरत में, ए अवसप्पिणी मांहि । एक सहस वर्ष लगैज म्हारो, रहिस्यै पूर्व ताहि ।। ३५. जिम प्रभु ! जंबूद्वीप भरत में, ए अवसप्पिणी मांहि । सहंस वर्ष देवानुप्रिया नों, पूर्व रहिस्यै ताहि ।। ३३. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे - ओसप्पिणीए देवाणु प्पियाणं केवतियं कालं पुव्वगए अणुसज्जिस्सति ? ३४. गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओस प्पिणीए ममं एगं वाससहस्स पुव्वगए अणुसज्जिस्सति । (श० २०७०) ३५. जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एगं वाससहस्सं पुव्वगए अणुसज्जिस्सति, ३६. तहा णं भंते ! जबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए अवसेसाणं तित्थगराणं केवतियं कालं पुन्वगए अणुसज्जित्था ? ३७. गोयमा ! अत्थेगतियाणं संखेज्जं कालं, अत्थेगतियाणं असंखेज्ज कालं। (श० २०७१) 'अत्थेगइयाणं संखेज्जं कालं' ति पश्चानुपूर्त्या पार्श्वनाथादीनां संख्यातं कालं 'अत्थेगइयाणं असंखेज्जं कालं' ति ऋषभादीनाम् । (व०प०७९३) ३६. तिम प्रभु ! जंबुद्वीप भरत में, ए अवसप्पिणी न्हाल । पूर्व ज्ञान शेष जिनवर नु, रह्य केतलो काल ? ३७. जिन कहै पश्चानुपूर्वी करि, पार्श्व प्रमुख नों अंक । केयक जिन नों काल संख्यातो, ऋषभादिक नों असंख ।। *लय : रूडै चंद निहाल रे नव रंग श.२०, उ.८, ढा.४०५ ३५१ Jain Education Intemational Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोर्थ पद ३८. जंबूद्वीपे भरत विषे ए, ए अवप्पिणी मांहि । काल कितो देवानुप्रिया नों, तीर्थ रहिस्य ताहि ? ३९. जिन कहै जंबूद्वीप भरत में, ए अवप्पिणी मंत । एकवीस सहस वर्षी लग म्हारो तीर्थ रहिस्य तंत ।। ३८. जंबुद्दीवे ण भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवतियं कालं तित्थे अणुसज्जिस्सति ? ३९. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं एगवीस वाससहस्साई तित्थे अणुसज्जिस्सति । (श० २०१७२) इहां कह्यो ....२१ हजार वर्ष तांई तीर्थ रेहसी। ते तीर्थ केहन कहिय? ते ओलखाविय छ ४०,४१. निपानाऽगमयोस्तीर्थमृषिजुष्टजले गुरौ।। अमरकोष, थान्ततवर्गे सोरठा ४०. 'तीर्थ आगम धार, अमर कोष में आखियो । तीजा कांड मझार, थान्त तवर्गे जाणवो ।। ४१. निपान आगम जेह, ऋषि सेव्यो जल गुरु विषे । ए चिहं अर्थ विषेह, तीर्थ शब्द कह्यो तिहां ।। ४२. तीर्थ शास्त्र अवधार, हेम अनेकार्थे अख्यूं । द्वादश नाम मझार, प्रथम नाम ए आखियो ।। ४३. विश्व कोष रै मांहि, तीर्थ नाम कह्य शास्त्र हैं। नव नामां में ताहि, प्रथम नाम ए पेखियै ।। ४४. तीर्थ शास्त्र इम लेख, कह्यो मेदनी कोष में। दश नामां में देख, प्रथम नाम ए परवरो ।। ४२. तीर्थ शास्त्रे गुरौ यज्ञे पुण्यक्षेत्राऽवतारयोः । ऋषिजुष्टे जले मंत्रिण्युपाये स्त्रीरजस्यपि योनौ पात्रो दर्शनेषु ।। हेम अनेकार्थ २०१३ ४३. तीर्थ शास्त्राध्वरक्षेत्रोपायोपाध्यायमंत्रिषु । अवतारर्षिजुष्टाभः स्त्रीरजःसु च विश्रुतः ।। विश्वकोषः थान्ततवर्गे ४४. तीर्थं शास्त्राध्वरक्षेत्रोपायनारीरज:सु च । अवतारर्षिजुष्टाम्बुपात्रोपाध्याय मंत्रिषु ।। मेदिनीकोषः थान्ततवर्ग ४५ तीर्थमिह गणधरस्तस्य धर्मः-आचारः श्रुतधर्मप्रदान लक्षणस्तीर्थधर्मः । यदि वा तीर्थं प्रवचनं श्रुतमित्यर्थः तद्धर्म:-स्वाध्यायः। (उत्तरा० ०० ५० ५८४) ४६. समवाओ वृ०प०३ वा०-तरंति तेन संसारसागरमिति तीर्थं प्रवचनं तदव्यतिरेकाच्चेह संघस्तीर्थम् तत्करणशीलत्वात् तीर्थंकरः । भगवती ३०प०८ ४५. गुणतीसम उत्तरायण, बोल गुनीसम वृत्ति में । तीर्य शब्दे वयण, गणधर वा प्रवचन श्रुतः ।। ४६. भगवइ वृत्ति मझार, तित्थगराणं नों अरथ । तीर्थ प्रवचन सार, इमहिज समवायांग वृत्तौ ।। ४७. तीर्थ प्रवचन सार, तेहनां अव्यतिरेक थी। संघ तीर्थ सुविचार, तसु कर्ता तीर्थंकरा ।। तिरै तिणे करी संसार सागर इति तीर्थ । प्रवचन सूत्र, तीर्थ नां अव्यतिरेक थी ए संघ नै तीर्थ कहिये । ते तीर्थ नै करिवा नों शीलपणां थकी तीर्थंकर कहिय-इम भगवती नी वृत्ति में नमोत्थुणं में तित्थगरोणं नों अर्थ कियो छ । इमहिज समवायंग नी वृत्ति नै विषे जाणवो। इहां तीर्थ नाम प्रवचन सूत्र नूंज का, ते पाठ अर्थ रूप सूत्र साधु-साध्वी आधार रह्या छ अन अर्थ रूप श्रावका नै आधारे रह्या छ । ते सूत्र तीर्थ तो आधेय छ अनै चतुर्विध संघ आधार छ । ते आधेय नै आधार नां किणही प्रकारे करी अभेदोपचार थकी संघ नै तीर्थ का। तेहनै करिवा न शील ते मार्ट तीर्थकर कहिये। ___इहां मुख्य अर्थ प्रवचने तीर्थ का , ते प्रवचन रूप तीर्थ बहुलपण संघ नै विषे रा छ, तिणसू संघ नै तीर्थ का। ते प्रवचन रूप तीर्थ थी संघ जुदो नथी ते माट । ३५२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ-प्रवचनं, ततकरण शीलास्तीर्थकराः तेभ्यः रायप्र० वृ० पृ० २५६ ४९-५१. तीर्यते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थ-यथावस्थित सकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनं, तच्च निराधारं न भवति इति संघः प्रथमगणधरो वा वेदितव्यः तस्मिन् उत्पन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः, प्रज्ञा० वृ०प०१९ ४८. तीर्थ प्रवचन सार, तत्करणशील तीर्थकरा। ___ नमोत्थुणं में धार, रायप्रश्रेणी वृत्ति में । वा०- तिरिय संसार समुद्र इणे करी इति तीर्थ-प्रवचन-सूत्र । ते सूत्र-तीर्थ करिवा नां शील थकी तीर्थंकर कहिये । इहां रायप्रश्रेणी नी वृत्ति में प्रवचन ते आगम नै तीर्थ कह्य। ते आगम रूप तीर्थ नां कर्ता तीर्थकर छ, ते माट तित्थयरे नों अर्थ तीर्थकर कियो। ४९. पन्नवण वृत्ति मझार, पनर भेद में तित्थसिद्धा। प्रथम पदे अवधार, दाख्यो छै ते सांभलो।। ५०. सत्य परूपक सोय, परम गुरु छै तेहनां। वचन विमल अवलोय, तीर्थ कहियै तेहनें ।। ५१. ते निराधार नहिं होय, तसु आधारज संघ तथा । गणधर प्रथम सुजोय, तीर्थ तास कह्यो तिहां ।। वा-तिरिय संसार सागर इणे करी इति तीर्थ । यथावस्थित सकल जीवअजीवादिक पदार्थ नां परूपक परम गुरु नां कह्या वचन । अनं ते परम गुरु नां वचनरूप तीर्थ ते आधार बिना न हुवै, इम ते संघ नै आधार छ, ते भणी संघ ने तीर्थ कही। अथवा प्रथम गणधर नै तीर्थ कहिये, ते संघरूप तीर्थ नै विषे ऊपनां जे सिद्ध थया ते तीर्थसिद्धाः । इहां पिण परम गुरु ते तीर्थंकर तेहनां वचन ते आगम तेहनै तीर्थ कह्यो । ते आगम आधार बिना न हुवे, ते आधार माट संघ ने तथा प्रथम गणधर नै तीर्थ कह्यो। ५२. आवश्यक नियुक्ति, तास वत्ति में भाव थी। तीर्थ प्रवचन उक्ति, समर्थ क्रोधादि जीपवा ।। इहां भाव तीर्थ क्रोधादिनिग्रह समर्थ प्रवचन सूत्रहीज ग्रहण करिये । इहां पिण प्रवचन-सूत्र नै तीर्थ कह्यो। ५३. इत्यादिक बहु ठाम, तीर्थ सूत्र भणी कह्य। ते तीर्थ प्रवचन ताम, रहिस्यै इकवीस सहस्र वर्ष ।। ५४. प्रवचन तीर्थ सोय, संघ आधारे ह कदा। किणहिक वेला जोय, द्रव्यलिंगी आधार ह। ५५. जद को प्रश्न करत, मुनि नां गुण विण जेहन । भण्यं सूत्र किम हुंत ? तसु उत्तर हिव सांभलो।। ५६. धुर उद्देश ववहार, बहुश्रुत बहु आगम भण्यं । द्रव्यलिंगी जे धार, मुनि प्रायश्चित लै तिण कनें ।। ५७. इहां द्रव्यलिंगी आधार, सूत्रागम श्री जिन कह्या । तसु श्रद्धा आचार, विरुद्ध हुवै ते तो जुदो। वा०-ववहार उ० १ कह्यो–साधु नां रूप सहित ते भेषधारी बहुश्रुत बहु आगम नों जाण । ते कनै साधु आलोवणा कर, एहवं कह्य। ए भेषधारी ने आधार बहुश्रुत बहु आगम कह्यो छै । ते माटै तेहगें जेतलं-जेतलं शास्त्र नां अर्थ - शुद्ध जाणपणों ते श्रुत आगम रूप तीर्थ नुं अंश संभव, ते मारी किणहिक काले चतुर्विध संघ न हुबै तो शिथिलाचारी नै आधारे प्रवचन रूप तीर्थ नों अंश हुवै, एहवू संभाविय छ। ५२. इह भावतीर्थं क्रोधादिनिग्रहसमर्थ प्रवचनमेव (आवश्यकनियुक्तिहारि• वृ२ पृ० ६) गृह्यते ५६. ववहारो ११३३/ श० २०, उ.८, ढा० ४०५ ३५३ Jain Education Intemational Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. ववहारो ११३३ ६१. नंदी सू०६६ ६८. भगवती श० २।४९ ५८. वलि ववहार कथित्त, बहुश्रुत बहु आगम भण्यूं। श्रावक पश्चात्कृत्त, मुनि आलोवै तिण कनें ॥ ५९. इहां ग्रहस्थ आधार, बहुश्रुत आगम जिन कह्या । तसु सावज्ज व्यापार, ए तो एहथी छै जुदो॥ ६०. अर्थ रूप अवलोय, जाणपणु छै जेहनों। ते निरवद्य छै सोय, सूत्र तीर्थ छै जे भणी ।। ६१. मिथ्यादृष्टि देख, देश ऊण दश पूर्वधर । उत्कृष्टो संपेख, नंदी मांहि निहालजो।। ६२. मिथ्याती आधार, इहां प्रभु पूर्व आखिया । श्रद्धा तास असार, ते तो धुर आश्रय अछै ।। ६३. इमहिज पंचम आर, किण वेला मुनि नहिं थयां । द्रव्य लिंग्याद्याधार, सूत्र रूप तीरथ हुवै ।। ६४. संघ आधारे जेह, सूत्र रूप जे तीर्थ ते । निरंतर नहिं दीसेह, वर्ष सहस्र इकवीस लग ।। ६५. कदही संघ आधार, कदही अन्य आधार है। सूत्र तीर्थ सुखकार, वर्ष इकवीस हजार लग ।। ६६. कोइ कहै चिहुंविध संघ, तेह भणी तीर्थ कह्य । तसु आधार सुचंग, प्रवचन तीर्थ ते भणी।। ६७ पिण प्रवचन प्रशंस, द्रव्यलिंगी आधार तसु । तीर्थ तणोंज अंश, किम कहिये उत्तर तसु॥ ६८. पंडित मरण बे ख्यात, शत दूजे उद्देश धुर । पाओवगमन सुजात, भत्तपच्चक्खाणज दूसरो ।। ६९. मुख्य व चने करि न्हाल, मरण पंडित बे आखिया । मुनि अणसण विण काल, करै तिको पिण पंडित मृत्यु ।। ७०. बाल मरण फुन बार, मुख्य वचन करिने कह्या । बार मरण विण धार, असंजती नों बाल मृत्यु ।। ७१. पूरण तापस ताहि, वली जमाली तामली। बार मरण में नाहि, पिण बाल मरण ते जाणवो ।। ७२. मुख्य वचने करि बार, बाल मरण आख्या प्रभु । तिम तीर्थ संघ च्यार, मुख्य वचने करि जाणवा ।। ७३. पंडित मरण पिण दोय, मुख्य वचन करिने कहा। तिम चिहुं तीर्थ जोय, मुख्य वचन करि जाणवा ।। बा०—जिम भगवती शतक २, उ० १, सू० ४९ मुख्य वचने करी बालमरण १२ प्रकार नों कह्यो। अन असंजती-अविरती १२ प्रकार बिना चालतोई मर जाय, ते पिण बालमरणहीज छ। तथा तामली, जमाली प्रमुख नो बालमरणईज जाणवो । ते १२ में नथी कह्यो, ते माटै ए १२ प्रकार बाल मरण मुख्य वचने करी जाणवो। वलि पंडित-मरण बे प्रकारे कह्यो-पादपोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान । ए पिण मुख्य वचने करी कह्या । जे संथारा बिना साधु आराधक पद पायो, ते पिण पंडितमरण हीज छ। जिम सर्वानुभूति, सुनक्षत्र मुनि नों संथारो चाल्यो नथी। ते भणी भक्तप्रत्याख्यान अने पादपोपगमन में तो नथी. पिण पंडितमरण ७०. भगवती श० २।४९ ३५४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीज छ । अन पादपोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान-ए बे भेदे पंडितमरण कह्या, ते मुख्य वचने करी जाणवा । तथा आराधना तीन प्रकार नी ज्ञान, दर्शन, चारित्र नी कही। भगवती शतक ८, उ० १०, सू० ४५१, ए पिण मुख्य वचने करि जाणवी । अनै वलि तिणहिज उदेशे श्रुत सम्यक्त्व रहित, शील क्रिया सहित नै देश आराधक कह्यो। तिहां वृत्तिकार कह्यो-ए बालतपस्वी थोड़ो अंश मोक्ष मार्ग नों आराधै। देश आराधक नों ए अर्थ कियो, ते माटै जिम ज्ञानरहित शीलसहित बालतपस्वी मोक्ष मार्ग नों अंश आराध, ते देश आराधक छै; पिण तीन आराधना में नथी। तिम द्रव्यलिंगी नै आधार प्रवचन-सूत्र ते तीर्थ नो अंश संभव, पिण ते च्यार तीर्थ में नथी। सोरठा ७४. वर्ष इकवीस हजार, तीर्थ रहिस्यै न्याय तसु । एम संभवै सार, फुन बहुश्रुत कहै तेह सत्य ।। ७५. वर्ष इकवीस हजार, तीर्थ रहिस्य इम कह्यो । पिण चिहुं तीर्थ सार, रहिस्य इम आख्यो नथी ।। ७६. ते माटै अवधार, तीर्थ प्रवचन सूत्र छ । ___कदही संघ आधार, द्रव्यलिंगी आधार कद ।।' (ज० स०) ७७. *जिम प्रभु ! जंबूद्वीप भरत में, ए अवसप्पिणी मांहि । वर्ष सहस्र इकवीस आपरो, तीर्थ रहिस्यै ताहि ।। ७८. तिम प्रभु ! जंबूद्वीप भरत में, जेह अनागत न्हाल । चरम तीर्थंकर नों तीर्थ ते, रहिस्य कितनु काल ? ७७. जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एक्कवीसं वाससहस्साई तित्थे अणुसज्जिस्सति, ७८. तहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमे स्साणं चरिमतित्थगरस्स केवतिय कालं तित्थे अणुसज्जिस्सति ? गोयमा ! जावतिए णं उसभस्स अरहओ कोसलियस्स जिणपरियाए एवइयाई संखेज्जाई आगमेस्साणं चरिमतित्थगरस्स तित्थे अणुसज्जिस्सति। (श०२०७३) ८०. 'कोसलियम्स' त्ति कोशलदेशे जातस्य, 'जिण परियाए' त्ति केवलिपर्याय: स च बर्ससहस्रन्यूनं पूर्वलक्षमिति । (वृ०प०७९३) ७९. जिन कहै जिन पर्याय ऋषभ नों,तेतलु संखेज काल । चरम तीर्थंकर नुं आगामिक, तीर्थ रहिस्यै न्हाल । सोरठा ८०. पूर्व लक्ष प्रमाण, एक सहस्र वर्ष ऊण जे । ऋषभदेव नुं जाण, केवल नुं पर्याय ए। ७९. ५१. काल एतलो जोय, चउवीसी आगामिके ।। चरम तीर्थंकर होय, तीर्थ रहिस्यै तेहगें ।। ८२. तीर्थप्रस्तावादिदमाह (वृ०प० ७९३) ८३. तित्थं भंते ! तित्थं ? तित्थगरे तित्थं ? ५२. तीर्थ नां प्रस्ताव थी, तीर्थ नों अधिकार। पूछ गोयम गणहरू, श्रीजिन उत्तर सार ।। ५३. *तीर्थ प्रति प्रभु ! तीर्थ कहिये, के तीर्थंकर देव । __तेह प्रतै तीर्थ कहियै छै ? जिन भाखै सुण भेव ।। ८४. अरिहंत तावत निश्चै करिने, तीर्थंकर गुण आप्त । चार वर्ण वलि तीर्थ कहिये, क्षमादि गुण करि व्याप्त ।। *लय : रूड़े चंद निहाल रे नव रंग ८४,८५. गोयमा ! अरहा ताव नियमं तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, 'तीर्थ' पुनः 'चाउबन्नाइन्ने समणसंघे' त्ति चत्वारो श०२०, उ०८, ढा० ४०५ ३५५ Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५. तेहने आदि श्रमणसंघ माटै, श्रमण संघ तसु कहिये। चतुर्वर्ण आकीर्ण श्रमण संघ, एहवु शब्दज लहिये ।। ५६. किणहि ठामे चाउवण्णे श्रमणसंघ छै ताय । पिण आकीर्ण शब्द ए नहीं छै, वृत्ति विषे इम वाय ।। २७. श्रमण श्रमणी श्रावक श्राविका, ए चिहुं बहुवचनेह । आदि श्रमण चिहं वर्ण संघ रै, तिणसू श्रमणसंघ का एह ।। वर्णा यत्र स चतुर्वर्णः स चासावाकीर्णश्च क्षमादिगुण प्प्तश्चतुर्वर्णाकीर्णः, (वृ० ५० ७९३) ५६. क्वचित् 'चाउवन्ने समणसंधे' त्ति पठ्यते, सच्च व्यक्तमेवेति । (वृ०प० ७९३) ८७. समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ। (श० २०७४) ८८, उक्तानुसार्यवाह-- (वृ० ५०७९३) ८९. पवयणं भंते ! पवयणं ? पावयणी पवयणं ? सोरठा ८८. आख्या पूर्वे अर्थ, ते अनुसारे ईज जे। कहियै हिवै तदर्थ, श्रोता चित दे सांभलो॥ ८९. *हे भगवंत ! प्रवचन सिद्धांतज, कहियै प्रवचन तेह। प्रवचन नां वक्ता पावयणी, तेह प्रवचन कहेह ? ९०. श्रीजिन भाखै अर्हत प्रथमज, नियम थकीज सुचंगं । प्रवचनकथिक पावयणी कहिये, वलि प्रवचन द्वादश अगं ।। सोरठा ९१. कहिये प्रकर्षण, इणे करीनै अर्थ जे। प्रवचन तास कहेण, आगम नुं ए नाम छै ।। ९२. *गणो आचार्य तणी मंजसा, द्वादश अंग सुसाध । आचारंग प्रथम इत्यादिक, यावत दृष्टिवाद ।। ९०. गोयमा ! अरहा ताव नियम पावयणी, पवयणं पुण दुवालसंगे ९१. प्रकर्षेणोच्यतेऽभिधेयमनेनेति प्रवचनम्-आगमः (वृ० प० ७९३) ९२. गणिपिडगे, तं जहा-आयारो जाव (सं० पा०) दिद्विवाओ। (श० २०७५) ९३, प्राक् श्रमणादिसंघ इत्युक्तं श्रमणाश्चोग्रादि कुलोत्पन्ना भवन्ति ते च प्रायः सिद्धयन्तीति दर्शयन्नाह (वृ० प० ७९३) सोरठा ९३. कह्या पूर्व श्रमणादि, जे श्रमण उग्रादिक कूल विषे । उत्पन्न थया संवादि, बहुलपणे सीभै हिवै ॥ उग्र आदि का निर्ग्रन्थ धर्मानुगमन पद ९४. *हे प्रभु ! उग्र कुले ऊपनां, भोग कलेज ऊपनां । राजन कुल में जेह ऊपनां, ईखाग कुले सुजनां ।। ९५. ज्ञात कुले वलि जे ऊपनां, कोरव कुले ऊपजी में । एह निग्रंथ नां धर्म विषे जे, प्रवत्तै प्रवर्ती नै ।। ९४. जे इमे भंते ! उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, ९६. अष्ट प्रकार कर्म रज मल प्रति, अधिक प्रक्षालै जेह। प्रक्षाली नै पछै ते सीझ, यावत अंत करेह ? ६७. श्रीजिन भाखै हंता गोयम ! उग्र भोगादिक जेह ।। इमहिज जावत अंत करै दुख, चरमशरीरी तेह । ९८. केयक श्रमण धर्म प्रति पाली, इह देवलोक विषेह । देवपणे ऊपजवो व तसु, चरमशरीरी न एह ।। *लय : रूड़े चंद निहाल रे नव रंग ९५. नाया, कोरव्वा-एए णं अस्सि धम्मे ओगाहंति, ओगाहित्ता 'अस्सि धम्मे' त्ति अस्मिन्नर्ग्रन्थे धर्मे इति । (वृ० प० ७९३) ९६. अट्ठविहं कम्मरयमलं पवाहेति, पवाहेत्ता तओ पच्छा सिझति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? ९७. हंता गोयमा ! जे इमे उग्गा, भोगा जाव (सं. पा.) अंतं करेंति, ९८. अत्थेगतिया अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। (श० २०७६) ३५६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९. देवलोक प्रभु ! कतिविध दाख्या ? जिन कहै चिहुविध हुंत । भवणपति व्यंतर में ज्योतिषी, वैमानिक सेवं भंत! ९९. कतिविहा णं भंते ! देवलोया पण्णत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा देवलोया पण्णता, तं जहा--- भवणवासी, वाणमंतरा, जोतिसिया, वेमाणिया। (श. २०७७) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० २०७८) १००. विंशतितमशतेऽष्टमः । (वृ० प० ७९३) १००. वीसम शतक उदेशक अष्टम, च्यारसी पंचमी ढाल। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ।। विशतितमशते अष्टमोद्देशकार्थः ॥२०१८॥ ढाल : ४०६ दूहा १. अष्टम अंते सुर कह्या, गगन गमन तसु होय । ते माटै हिव गगन गति, द्रव्य सुर नी अवलोय ।। विद्या-चारण पद २. *मेरा स्वामी बे, कतिविध चारणा जोय? जिन कहै द्विविध जाणियै । स्वामी भाखै बे । स्वामी भाखै बे, विद्याचारणा होय, जंधाचारणा माणियै । स्वामी भाखै बे।। १. अष्टमोद्देशकस्यान्ते देवा उक्तास्ते चाकाशचारिण इत्याकाशचारिद्रव्यदेवा नवमे प्ररूप्यन्ते (वृ० प० ७९३) २. कतिविहा णं भते ! चारणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा चारणा पण्णत्ता, तं जहा-- विज्जाचारणा य, जंघाचारणा य। (श० २०१७९) ३. तत्र चरणं गमनमतिशयवदाकाशे एषामस्तीति चारणा: (वृ० प० ७९४) ४. 'विज्जाचारण' ति विद्या--श्रुतं तच्च पूर्वगतं तत्कृतोपकाराश्चारणा विद्याचारणाः, (वृ० ५० ७९४) सोरठा ३. चरणं गमनं चार, अतिशयवंत आकाश में । छ तसु गति अधिकार, तेह चारणा द्विविधा ।। ४. श्रुत पूर्वगत जान, तसु अभ्यास तेणे करी।। चारण गमन पिछान, विद्याचारण ते कह्या ।। वा०-विद्या श्रुत वलि ते पूर्वगत, ते पूर्वगत श्रुते करी कीधो उपगार जेहन । ५. बिहुं जंघा कर जेह, जंघा शक्ति विशेष करि । गगने गमन करेह, कहियै जंघाचारणा ।। ६. *मेरा स्वामी बे, किण अर्थे जगनाथ ! कहियै विद्या चारणा ? स्वामी भाखै बे। मेरा चेला बे, जिन भाखै अवदात, तेहनै एहवी धारणा । स्वामी भाखै बे ।। ७. छठ-छठ अंतर रहित, अथवा विद्या जाणियै । पूर्व ज्ञान सहित, करणभूत करि माणियै ।। ५. 'जंघाचारण' त्ति जडाव्यापारकृतोपकाराश्चारणा जङ्घाचारणाः, (वृ०प०७९४) ६. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ--विज्जाचारणेविज्जाचारणे? ७. गोयमा ! तस्स णं छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं विज्जाए विद्यया च पूर्वगतश्रुतविशेषरूपया करणभूतया (वृ० ५०७९५) *लय : स्वामी भाखै बे, सुण बिभीषण बात श० २०, उ० ९, ढाल ४०५,४०६ ३५७ Jain Education Intemational Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८,९. उत्तरगुणलद्धि खममाणस्स 'उत्तरगुणद्धि' ति उत्तरगुणा:--पिण्डविशुद्धयादयस्तेषु चेह प्रक्रमात्तपो गृह्यते (वृ०प० ७९५) ८. उत्तरगुण जे न्हाल, पिंडविसुद्धयादिक सही। तेह विषे सुविशाल, इहां तप प्रति ग्रहिवू वही ।। ९. ते उत्तरगुण लब्धि, तपोलब्धि सह मान नैं । इतरै तपो समृद्धि, करता छता गुणवान नैं ।। १०. विद्याचारण लब्धि, एहवे नामे लब्धि ऊपजै । तिण अर्थेज समृद्धि, जाव विद्याचारण सबै ।। १०. विज्जाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पज्जइ। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ -विज्जाचारणेविज्जाचारणे। (श० २०८०) ११. विज्जाचारणस्स णं भंते ! कह सीहा गती, कहं सीहे गतिविसए पण्णत्ते? ११. विद्याचारण जाण, तमु शीघ्र गति कहवी कही। शीघ्र गति नों पिछाण, विषय किसी तेहनी सही? गीतक छंद १२. गति विषय गति गोचर का, ते गति अभावे पिण सही। गति शीघ्र गोचरभूत खेत्रज, गति विषय तेहनें कही ।। वा०-कह सीहा गई–केहवी शीघ्र गति उतावली चालवा नी क्रिया ? कहं सीहे गइविसए केहq शीघ्र छ गति नों विषय ? शीघ्रपणे करी ते गति नों विषय पिण उपचार थकी शीघ्र कह्य। गति विषय गति-गोघर ते गमन नै अभावे पिण शीघ्र गतिगोचर भूखेत्र इत्यर्थः । वा०—'कहं सीहा गइ' त्ति कीदृशी शीघ्रा 'गतिः' गमनक्रिया 'कहं सीहे गइविसए' त्ति कीदृशः शीघ्रो गतिविषयः शीघ्रत्वेन तद्विषयोऽप्युपचारात् शीघ्र उक्तः, 'गतिविषयः' गतिगोचरः, गमनाभावेऽपि शीघ्रगतिगोचरभूतं क्षेत्रं किम् ? इत्यर्थः, (वृ०प० ७९५) १३. गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव किंचिविसे साहिए परिक्खेवेणं । १४. देवे णं महिड्ढीए जाव महेसक्खे जाव इणामेव इणामेव १५. त्ति कट्ट केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं १३. *जंबूद्वीपज एह, योजन लक्ष नों जाणिय । साधिक त्रिगुणी कहेह, तास परिधि पहिछाणियै ।। १४. मोटो ऋद्धिवंत देव, जाव महाईश्वर वही । जाव इणामेव भेव, इतरी वेला आवं सही ।। १५. एम करीनै जेह, केवलकल्प संपूर्ण ही। जंबूद्वीप प्रतेह, दोलो फिरवा लागो सही ।। १६. चिबठी तीन बजाय, इतली वेला मांहै जिको। तीन वार फिरै ताय, पाछो शीघ्र आवै तिको ।। १७. विद्याचारण नींज, एहवी उतावली गति कही। वलि तेहवो तेहनोज, शीघ्रज गति नों विषय ही ।। १८. विद्याचारण स्वाम, तस् तिरछी गति विषय ही। आखी कितली आम, गमन शक्ति रूप तिण लही? १९. इक उत्पात करेह, एक वार उपड़वे करी। गिरि मानुषोत्तरेह, लिये विश्राम हरष धरी ।। २०. गिर मानुषोत्तरेह, समोसरण करिने फिरी । तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रतै वांदी करी ।। २१. बीजे उत्पातेह, बीजी वार उपड़वै करी । नंदीश्वर द्वीपेह, लिय विश्राम हरष धरी ।। २२. नंदोश्वर दीपेह, जेह विश्राम लेइ करी । तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रत वांदी वरी ।। *लय : स्वामी भाख बे, सुण विभीषण बात १६. तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, १७. विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते । (श० २०८१) १८. विज्जाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतियं गतिविसए पण्णते? १९. गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेति, २०. करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, वंदित्ता २१. बितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवरे दीवे समोसरणं करेति, २२. करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, वंदित्ता ३५८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. तओ पडिनियत्तति, पडिनियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता इह चेइयाई वदति। २४. विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवतिए गतिविसए पण्णत्ते। (श० २०१८२) २५. विज्जाचारणस्स णं भंते ! उड्ढं केवतिए गतिविसए पण्णत्ते ? २६. गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं नंदणवणे समोसरणं करेति, २७. करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, वंदित्ता २३. त्यां थी पाछो वलेह, त्यां थी पाछो वलि ने जिको। आवै स्व स्थानेह, इहां चैत्य वांदै तिको ।। २४. विद्याचारण जाण, तेहनी तिरछी एतली। गति नों विषय पिछाण, गमन शक्ति छै अति भली।। २५. विद्याचारण तास, ऊर्द्ध कितो गति विषय ही। गमन शक्ति सुविमास, हिव उत्तर जिन दे सही ।। २६. इहां थकी मुनि तेह, एक बार ऊपड़वै करी । नंदनवन ने विषेह, लिय विश्राम हरष धरी ।। २७. नंदनवन नै विषेह, तेह विश्राम लेई वरी। तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रतै वांदी करी ।। २८. बीजे उत्पातेह, बीजी वार ऊपड़वै करी। पंडग वन में विषेह, तेह विश्राम लिये फिरी ।। २९. पंडगवन में विषेह, समोसरण कर ने वरो । तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रत वांदी करी ।। ३०. त्यां थी पाछो वलेह, त्यां थी पाछो वली करी । इहां निज स्थान आवेह, इहां चैत्य वांदै वरी ।। ३१. विद्याचारण तास, ऊर्द्ध विषे गति एतलं । हिव तसु दंड विमास, भाखै श्री जिनवर भलू ।। ३२. लब्धि प्रजूज्ये ते स्थान, आलोयां पडिकमियां विना। काल करै तजि प्रान, नहि छै तास आराधना ।। २८. बितिएणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेति, २९. करेत्ता तहि चेइयाइं वंदति, वंदित्ता ३०. तओ पडिनियत्तति, पडिनियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता इहं चेइयाई वंदति । ३१. विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! उडई एवतिए गति विसए पण्णत्ते। ३२. से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेति नत्थि तस्स आराहणा। ३३,३४. लब्ध्युपजीवनं किल प्रमादस्तत्र चासेविते अनालोचिते न भवति चारित्रस्याराधना, तद्विराधकश्च न लभते चारित्राराधनाफलमिति, (वृ०प० ७९५) ३५. से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेति, अस्थि तस्स आराहणा । श० २०८३) सोरठा ३३. वृत्ति विषे इम वाय, लब्धि तणोंज प्रज्जवो। निश्च करि कहिवाय, प्रमाद नों जे सेववो ।। ३४. ते स्थानक ने सोय, विण आलोयां चरित्त नीं। आराधना फल जोय नहिं पामै, विराधक मुनि ।। ३५. *ते स्थानक नैं सोय, आलोइ-पडिकमी नैं मरै। तसु चारित्त नी जोय, आराधना कहियै सिरै ।। जंघा-चारण पद ३६. किण अर्थे भगवंत! कहियै जंघाचारणा? जिन भाखै सूण संत! तेहनै एहवी धारणा ।। ३७. अट्ठम-अट्ठम आम, अंतर रहित तपे करी। आत्मभावित ताम, एहवा मुनि ने उच्चरी ।। ३८. जंघाचारण लब्धि, एहवे नामे लब्धि ऊपजै । तिण अर्थे कर ऋद्धि, जाव जंघाचारण संपजै ।। ३६. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंघाचारणे जंघाचारणे ? गोयमा ! तस्स णं ३७. अट्ठमंअट्टमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाण भावेमाणस्स ३८. जंघाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पज्जति । से तेणठेणं जाव (सं० पा०) जंघाचारणे-जंघाचारणे । (श० २०१४) ३९. जंघाचारणस्स णं भते ! कहं सीहा गती, कहं सीहे गतिविसए पण्णत्ते ? ४०. गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे (सं० पा०) एवं जहेव विज्जाचारणस्स नवरं ३९. जंघाचारण तास, शीघ्र गमन गति केतली । शीघ्र गति नों विमास, केहवं विषय का वली।। ४०. जंबूद्वीपज एह, इम जिम विद्याचारण कह्यो। तिणहिजरीत कहेह, नवरं विशेष इतलो लह्यो।। *लय : स्वामी भाख बे, सुण विमीषण बात श० २०, उ०९, ढा०४०६ ३५९ Jain Education Intemational Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, ४२. जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते सेसं तं चेव (श० २०८५) ४१. चिबठी तीन रै मांहि, इकवीस बार कहाव ही। चउफेर फिरने ताहि, पाछो शीघ्रज आवही। ४२. जंघाचारण नीज, तेहवी उतावली गति कही। गति विषय शीघ्र तिमहीज, . शेष तिमज कहिये सही ।। ४३. जंघाचारण तास, कहिय तिरछी केतलं । गति विषय विमास, उत्तर जिन भाखै भलुं ।। ४४. इहां थकी मुनि तेह, एके उत्पाते करी । रुचकवर द्वीपेह, लिये विश्राम हरष धरी ।। ४५. रुचकवर द्वीपेह, समोसरण करने वरी। तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रतै वांदी करी ।। ४६. त्यां थी पाछो वलेह, बीजी वार ऊपड़वे करी। नंदीश्वर द्वीपेह, लिये विश्राम हर्ष धरी ।। ४७. नंदीश्वर द्वीपेह, मुनि विश्राम लेई वरी। तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रतै वांदी करी ॥ ४८. इहां शीघ्र आवेह, स्व स्थानक आवै वली। इहां चैत्य वांदेह, तिरछी विषय गति एतली ।। ४३. जंघाचारणस्स णं भंते ! तिरिय केवतिए गतिविसए पण्णत्ते ? ४४. गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं रुयगवरे दीवे समोसरणं करेति, ४५. करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, वंदित्ता ४६. तओ पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवर दीवे समोसरणं करेति, ४७. करेत्ता तहिं चेइयाइं वंदति, वंदित्ता ४८. इहमागच्छइ, आगच्छित्ता इहं के इयाई वंदति, जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवतिए गतिविसए पण्णत्ते। (श० २०।८६) ४९. जंघाचारणस्स णं भंते ! उडढं केवतिए गतिविसए पण्णते ? ५०. गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेति, ५१. करेत्ता तहिं चेइयाइं वंदति, वंदित्ता ४९. जंघाचारण तास, कहियै ऊंच केतलु। गति नों विषय विमास, भाखै जिन उत्तर भलुं । ५०. इहां थकी मुनि तेह, एके उत्पाते करी । पंडगवन नै विषेह, लिये विश्राम हरष धरी ।। ५१. ते पंडगवन ने विषेह, मुनि विश्राम लेई वरी । तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रत वांदो करी ।। ५२. त्यां थी वलतो तेह, बीजी वार ऊपड़वै करी । नंदनवन नैं विषेह, करै विश्राम हरष धरी ।। ५३. नंदनवन नैं विषेह, विश्राम समोसरण वरी। तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रतै वांदी करी ॥ ५४. इहां आवे निज स्थान, इहां चैत्य वांदै वली। जंघाचारण जान, गमन विषय ऊर्द्ध एतली ।। ५२. तओ पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदणवणे समोसरणं करेति, ५३. करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, वंदित्ता ५५. लब्धि प्रजूंजी ते स्थान, आलोयां-पडिक्कमियां विना । काल करै मुनि जान, नहिं छै तास आराधना ।। ५६. ते स्थानक आलोय-पडिकमी काल करै तरै। आराधना तसु होय, सेव भंते! सत्य वच सिरै ।। ५४. इहमागच्छइ, आगच्छित्ता इह चेइयाइं वंदति, जंघाचारणस्स णं गोयमा ! उड्ढं एवतिए गतिविसए पण्णत्ते । ५५. से णं तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिक्कते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा। ५६. से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेति अस्थि तस्स आराहणा। (श० २०८७) सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ। (श० २०१८) सोरठा ५७. इहां एहवं कहिवाय, विद्याचरण नुं गमन । बे उत्पाते थाय, इक उत्पाते आगमन ।। ५८. जंघाचारण जेह, इक उत्पाते करि गमन । बे उत्पात करेह, कहियै तेहy आगमन ।। ५७. यच्चेहोक्तं विद्याचारणस्य गमनमुत्पादद्वयेन आगमनं चैकेन (वृ० प० ७९५) ५८. जङ्घाचारणस्य तु गमनमेके नागमनं च द्वयेनेति (वृ० प०७९५) ३६० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९. तल्लन्धिस्वभावात्, (वृ० प० ७९५) ६०. अन्ये त्वाहुः-विद्याचारणस्यागमनकाले विद्याऽभ्यस्ततरा भवतीत्येकेनागमनं (वृ०प०७९५) ६१. गमने तु न तथेति द्वाभ्यां, (वृ० प० ७९५) ६२,६३. जङ्घाचारणस्य तु लब्धिरुपजीव्यमानाऽल्पसामर्थ्या भवतीत्यागमनं द्वाभ्यां गमनं त्वेकेनैवेति । (वृ०प०७९५) ५९. गमन जायq हेर, पाछो वलवो आगमन । बिहुं में इतरो फेर, ते तसु लब्धि स्वभाव थी ।। ६०. अन्य आचार्य ख्यात, विद्याचारण मुनि तणें । आगमने अवदात, विद्या अभ्यस्ततर हवै। ६१. गमन काल रै माय, अति अभ्यास हुवै नहीं। तिण कारण कहिवाय, बे उत्पाते करि गमन ।। ६२. जंघा-चारण नाम, ज्यू-ज्यू लब्धिज फोडिवै । त्यूं-त्यूं ते ऋध ताम, अल्प समर्थपणे हवै ।। ६३. तिण कारण थी तेह, बे उत्पाते आगमन । इक उत्पात करेह, गमन जाय इम वृत्तौ ।। ६४. अर्थ चैत्य नों सोय, वृत्तिकार न कह्यो इहां । प्रतिमा कहैज कोय, ते किण रीते संभवै ।। ६५. रुचक नंदीसर तेह, गिरि मानुषोत्तर विषे। निज स्थानक फुन जेह, कह्यो चैत्य वांदै तिहां ।। ६६ चैत्य ज्ञान नां जाण, वच स्तुति ते गुण किया। धिन भगवंत रो नाण, कह्या भाव तिमहीज ए ।। ६०. प्रथम वंदइ ख्यात, न कह्यो द्वितीय नमसइ। तिण कारण अवदात, चैत्य ज्ञान इज संभवै ।। ६८. प्रतिमा इहां जु होय, तो तसु लेख नमसइ । द्वितीय पाठ अवलोय, किण कारण ते नहिं कह्य ।। ६९. नगर तुंगिया न्हाल, प्रश्नोत्तर श्रावक सुणी। वंदंति सुविशाल, वलि नमसंति कह्यो। ७०. खंधक प्रभु पै आय, देवानंदा ब्राह्मणी । ___ मेघकुमर पिण ताय, कह्यो वंदइ-नमसइ ।। ७१. वलि गोतम मुनिराय, प्रश्न पूछया छै तिहां। ठाम-ठाम ए वाय, कह्यो वंदइ-नमंसइ ।। ७२. ते माटै तहुँ लेख, चैत्य अर्थ प्रतिमाज ह। तो नमसइ पेख, नमोत्थूणं किम नहिं गुण्यो ।। ७३. ठाणांग चउथे ठाण, द्वितीय उद्देशक नै विषे । मानुषोत्तरे माण, च्यार कूट चिउं दिशि कह्या ।। ७४. रत्नकूट धुर जाण, रत्नोच्चय दूजो कह्यो। सर्वरत्न पहिछाण, रत्नसंचय चतुर्थो ।। ७५. वत्ति विषे इम वाय, ए च्यारूंइ कट में । भवणपति इंद ताय, तसु आवासजभूत ए॥ ७६. वृत्ति विषे वलि बार, कूट कह्या सुरवास त्यां। चिउं दिशि में सुविचार, तीन-तीन इक-इक दिशे।। ७७. सहु देवाधिष्ठित्त, ठाणांग वत्ति विषे कह्य। पिण प्रतिमा नुं तत्थ, न कह्यो कूट सिद्धायतन ।। ७८. जिन प्रतिमा सुविचार, सिद्धायतन विना किहां । इण लेखै अवधार, प्रतिमा वांदी क्या थकी ।। ७९. रुचकवरे पिण दीस, दिशाकुमारी नां तिहां । कूट कह्या चालीस, जंबूद्वीपपन्नतीई ।। ६९. भगवती २२९७ ७०. भगवती २।४३, भगवती ९११४५ णायाधम्मकहाओ १।१०९९ ७१. भगवती ११० ७३,७४. ठाणं ४।३०३ ७७. ठाणं वृ०५० २१३ ७९. जंबूदीवपण्णत्ती वक्खारो श८-१३ श० २०, उ० ९, ढा० ४०६ ३६१ Jain Education Intemational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०. रुचकवरे पिण एम प्रतिमा वांदी केम, ८१. समवायंग मांय, सिद्धायतन विना तिथे। न्यायदृष्टि अवलोकिये ॥ तीयंकर पउवीस जे तरु-तल केवल पाय, चैत्य तरु चउवीस इम ।। ८२. चैत्य शब्द नों ताम, ज्ञान अर्थ तेह कारणें । ज्ञान तणां गुणग्राम, केयक अर्थ करे इसो ॥ ५३. चैत्य जिनेश्वर ताम, अर्थ धर्मसी इम कियो । ज्यां लीधो विश्राम, द्वितीय आवसग तिहां कियो || ८४. वलि आव्या निज स्थान, द्वितीय आवसग पिण तिहां । बहुवचने करि जान, वांद्या छै जिनराज नें ।। ८५. चैत्य नाम वर्द्धमान, सुप्रशस्त मन हेतु ते । अर्थ चैत्य नुं जान, रायप्रश्रेणी वृत्ति में ॥ ८६. रायप्रणी मांहि वलि उबवाई भगवती । प्रमुख सूत्र में ताहि, प्यार नाम जिन मुनि तथां ॥ ८७. कल्लाणं मंगलीक, मंगलीक बलि देवयं वेदयं । । ए चिहुं नाम सधीक, आख्या मुनि जिनवर तणां ।। ८. तिणसुं चैत्य कहेह, श्रीजिनराजज वंदिया । दरियावही गुणेह लोगस्स में बहु जिन भणी ।। ८९. जातां आवत जान, बलि विधाम लिये तिहां। फुन आवे निज स्थान, इरियावही लोगस्स कहे ॥ ९०. ए मुनि नो आचार, तिणसुं बहुवचने करी । लोगस्स विषे उदार, वांधा छे जिनराज में ॥ ९१. चैत्य शब्द जिन जेह, लोगस्स विषे का जिके। वच स्तुती वंदेह, अर्थ धर्मसी इम कियो । ९२. *शत बोसम नवम ताय, ढाल ब्यारसी छठी कही। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, 'जय जश' सुख संपति लही ।। विशतितमशते नवमोद्देशकार्थः || २० | १ || ढाल : ४०७ हा १. नवम उदेशक अंत में, चारण मुनि आख्यात | सोपक्रम पिण ते हुवे, सोपक्रम हिव आय 11 आयुष्य पद गोयम ! सांभलो रे । (धुपदं ) २. हे प्रभुजी ! स्यूं जीवड़ा रे, सोपक्रमायु बंध | केनोपक्रमात रे? जिन भावित के *लय : स्वामी भाखं बे, सुण विभीषण बात लय : सीता सुन्दरी रे ३६२ भगवती जोड़ ८१. समवाओ-पइण्णगसमवाओ सू० २३१ ८५. रायप० वृ० पृ० ५२ ९२. विशतितमशते नवमः । (90 90 1098) १. नवमोद्देश चारणा उक्तास्ते प सोपनमायुष इतरे च संभवन्तीति दशमे सोपक्रमादितया जीवा निरूप्यन्ते ( वृ० प० ७९५) २. जीवा णं भंते! किं सोवक्कमाउया ? निश्वक्क माउया ? गोयमा ! जीवा सोवक्कमाउया वि, निरुवक्कमाउया वि । ( वृ० प० ७९२) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३. उपक्रम करी सहीत, अप्राप्तकाल आयू तणों निर्जरियो इण रीत, सोपक्रम इम वृति में ॥ 1 1 | ४. तेह की विपरीत, निरुपक्रम आयू तिको ए उपक्रम रहीत, वृत्तिकार तो हम कहे ॥ ५. आउ विण कर्म सात, सिथिल थकी दृढ़ बंध ह्वं । दृढ़ सिथिल पिण थात, ए प्रकृति बंध आश्रयी ॥ ६. स्थिति अनुभाव प्रदेश, अल्प बहु बहु अल्प छे । ठाम ठाम सुविशेष कह्यो सूत्र में वीर प्रभु । ७. ते माटै धर्मसीह, सोपक्रम निरुपक्रम नों । अर्थ अन्यविध ईह, ते कहियै छै सांभलो || ८. पन्नवण तर्णेज न्याय, नर तिरि निरुपक्रम नैं परभव आयू ताय, तीजे भागे ईज बंध | ९. सोपक्रम नैं संध, तृतीय नवम शत वीसमे । इक्यासी में बंध, इम अनुक्रम छेहड़े बंधै ॥ १०. सुर नारक सुविशेष, निरुपक्रम आयूज छै बंध मास षट शेष, सोप निरुपक्रम लच्छ ए ॥ ११. सप्त प्रकारे जाण, आयू नो पुद्गल भई स्नेहादिक थी माण, ठाणांग ठाणे सप्तमे । १२. लछमणजी मृत्यु पाय, राम मरण सुण स्नेह थी । चक्रे करि वध बाय, जे प्रतिवासुदेव नों ॥ १३. अग्नि करि मृत्यु पाव, गजमुखमाल मुणिंद जे। ए सगला कहिवाय, निस्पक्रम आयु- धणी ।। १४. तिणसुं सप्त विधेह, सोपक्रम नों एहवं नियम न एह को धर्मसी 1 सोपक्रमायु न कोय । 1 १५. नारक पूचषां जिन कहै रे निरुपक्रमायु नेरइया रे, इम जाव थणित लग जोय के ।। १६. पृथ्वी जीव तण परे रे, जान मनुष्य पिण एम। व्यंतर ज्योतिषि वैमाणिया रे, कहिवा नारक जेम कै ॥ १७. सुर नारका तिरि मणु युगलिया, *लय : सीता सुन्दरी रे गीतक छंद ईज मृत्यु । इह विधे । (ज० स० ) पुरिवउत्तम जे का। फुल चरम तनु निरुपकमायु, शेष सोपक्रमायुवा || ३. 'सोवक्कमाउय' त्ति उपक्रमणमुपक्रमः — अप्राप्तकालस्यायुषो निर्जरणं तेन सह यत्तत्सोपक्रमं तदेवंविधमायुर्येषां ते ४. तद्विपरीतास्तु निरुपक्रमायुषः, ८. पन्नवणा ६।११६ ११. ठाणं ७।७२ ( वृ० प० ७९५) ( वृ० प० ७९५) १५. नेरइयाणं -- पुच्छा । गोयमा ! नेरइया नो सोवक्कमाउया निरुवक्कमाया । एवं जाव थणियकुमारा । १६. पुढविक्काइया जहा जीवा एवं जाव मणुस्सा । वाणमंतर जोइसिय-वेमागिया जहा नेरइया । - ( श० २०/९० ) १७. 'देवा नेरइयावि य असंखवासाज्या य तिरिमणुया । उत्तमपुरिसा व तहा परिमसरीरा निश्वकमा ॥१॥ सेसा संसारत्था हवेज्ज सोवक्कमाउ इयरे य । सोवक्कमनिरुवक्कम भेओ भणिओ समासेणं ॥ २ ॥ (० ० ७९५) श० २० उ० १०, डा० ४०७ ३६३ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. नेरइया णं भंते ! कि आतोवक्कमेणं उववज्जति ? उत्पाद-उद्वतन पद १८. *नेरइया स्यूं भगवंत जी! रे, निज आतम करि तेह। आउखा नै उपक्रमे करी रे, मरी नरक विषे उपजेह क ? १९. कै पर मैं उपक्रमे करी रे, नरक विषे उपजंत? के उपक्रम विना मरी रे, नरके उपजवो हंत के ? २०. जिन कहै निज उपक्रम थी रे, पर उपक्रम करेह । फुन उपक्रम विना मरी रे, नरक विषे उपजेह के ।। सोरठा २१. निज उपघात करेह, श्रेणिक नी परै जे मरी। नरक विषे उपजेह, आत्म उपक्रम करि तिको ।। १९. परोवक्कमेणं उववज्जति? निरुवक्कमेणं उव वज्जति? २०. गोयमा ! आतोवक्कमेण वि उववज्जति, परोवक्क मेण वि उववज्जंति, निरुवक्कमेण वि उववज्जति । २१. आत्मना--स्वयमेवायुष उपक्रम आत्मोपक्रमस्तेन मृत्वेति शेषः उत्पद्यन्ते नारकाः यथा श्रेणिकः, (वृ०प०७९६) २२. 'परोपक्रमेण' परकृतमरणेन यथा कृणिकः, ((वृ० ५० ७९६) २४ ठाणं वृ०प० २४५ २५. 'निरुपक्रमेण' उपक्रमणाभावेन यथा कालशौकरिकः (वृ०प०७९६) २६. एवं जाव वेमाणिया। (श० २०१९१) २७. नेरइया णं भंते ! कि आतोवक्कमेणं उब्वति ? २८. परोवक्कमेणं उव्वति ? २२. पर नों मारयो जेह, कोणिक नी परै जे मरी। नरक विषे उपजेह, पर उपक्रम करी तिको।। २३. तमिश्र अधिष्ठित देव, अग्नि ज्वाल करि बालियो। कोणिक नै ततखेव, वृत्ति पर्याय विषे कह्यो। २४. कोणिक प्रति कृतमाल, सुर-हत गति छटी विषे । तृतीय उदेशक न्हाल, तुर्य ठाण टीका मझे ।। २५. विण उपक्रम करेह, कालसौकरिक नी परै। मरी नरक ऊपजेह, निरुपक्रम करिनैं जिको। २६. *एवं जाव वेमाणिया रे, निज-पर-उपक्रमेह । वलि उपक्रम विना मरी रे, सहु दंडक उपजेह कै।। २७. नेरइया स्यूं भगवंत जी ! रे, निज उपक्रम करेह । पोते अपघात करि मरी रे, नरक थकी निकलेह कै? २८. पर उपक्रम करी मरी रे, पर उपक्रमज तेह । ते पर नों मारयो मरी रे, नरक थकी निकलेह के ? २९. उपक्रम विना मरी रे, नरक थकी निकलंत । निज पर कर थी नहीं मरै रे, आफे आउ क्षय हंत के ? ३०. जिन कहै निज उपक्रम करी रे, निकले नहिं ते जंत । पर उपक्रम न नीकलै रे, उपक्रम विण निकलंत के ।। ३१. इम दश भवनपती कह्या रे, पृथ्वीकायिक जंत । जाव मनुष्य दंडक लगै रे, तीनंइ करि निकलंत के ।। ३२. शेष नेरइया नी परै रे, नवरं इतरो विशेख । ज्योतिष वैमानिक तणे रे, च्यवन शब्द संपेख कै ।। सोरठा ३३. उत्पत्ति उद्वर्तन, तसु अधिकार थकोज हिव । एहिज अर्थ कथन, वर वचनामृत वीर नां ।। *लय : सीता सुन्दरी रे १९. निरुवक्कमेणं उव्वति ? ३०. गोयमा ! नो आतोवक्कमेणं उबट्टति, नो परोव क्कमेणं उव्वति, निरुवक्कमेणं उव्वटंति । ३१. एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया जाव मणुस्सा तिसु उव्वटंति। ३२. सेसा जहा नेरइया, नवर-जोइसिय-वैमाणिया चयंति। (श० २०१९२) ३३. उत्पादोद्वर्तनाऽधिकारादिदमाह-(वृ०५०७९६) ३६४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. नेरइया णं भंते ! किं आइड्ढीए उववज्जति ? परिड्ढीए उववज्जति ? ३४. *नेरइया स्यूं भगवंत जी ! रे, आत्म ऋद्धि उपजेह ? आत्मबल करि ऊपज रे, ___ कै पर ऋद्धि ऊपजै तेह के ? ३५. जिन कहै आतम बल करी रे, नरक विषे उपजत । पर बल करि नहिं ऊपजै रे, इम जाव वैमानिक हंत कै ।। ३५. गोयमा ! आइडुढीए उववज्जति, नो परिड्ढीए उववज्जति । एवं जाव वेमाणिया। (श० २०।९३) ३६. 'आइड्ढीए' त्ति नेश्वरादिप्रभावेणेत्यर्थः (वृ० ५० ७९६) आइड्ढीए उव्वति ? ३७. नेरइया णं भंते ! कि परिड्ढीए उव्वति? सोरठा ३६. ईश्वर प्रेरित यात, नरक विषे वा स्वर्ग में। तसु मत निरस्त ख्यात, आतम बल इह वचन करि ।। वा०-आत्मबल करी ऊपज, इम भगवंत कह्यो। ते भणी जे पाखंडी कहै ईश्वर नों प्रेरघो नारकी नै विषे तथा स्वर्ग नै विषे ऊपज, तेहगें मत निराकरिय। ३७. *नेरइया स्यूं भगवंत जी ! रे, आत्म ऋद्धि करि जेह । आत्म बल करि नीकलै रे? के पर बल करि निकलेह के ? ३८. श्री जिन भाखै नेरइया रे, आतम बल निकलेह । पर बल करि नहिं नीकल रे, इम जाव वैमानिक लेह कै ।। ३९. नवरं जोतिषि देवता रे, फुन वैमानिक सार । चवै शब्द कहिबो इसो रे, ए अभिलाप उदार के ।। ४०. नेरइया स्यूं प्रभु! ऊपजे रे, आतम कृत कर्मेह ? ज्ञानावरणी प्रमुखे करी रे, के पर कृत कर्म उपजेह के ? ३८. गोयमा ! आइड्ढीए उब्वटंति, नो परिड्ढीए उब्वटंति । एवं जाव वेमाणिया, ४१. जिन कहै नेरइया ऊपजै रे, आत्म कृत कर्मेह । पिण पर कृत कर्मे करी रे, नहिं उपजे छ तेह के ।। ४२. एवं जाव वेमाणिया रे, निज कृत कर्म उपजेह । पर कृत कर्मे न ऊपजे रे, इम उव्वट्टणा दंडकेह के।। ४३. नेरइया स्यूं प्रभु ! ऊपजै रे, आत्म प्रयोग करेह ? निज व्यापार उद्यम करी रे, कै पर उद्यम उपजेह कै? ३९. नवरं-जोइसिया वेमाणिया य चयंतीति अभिलावो। (श० २०१९४) ४०. नेरइया णं भंते ! कि आयकम्मुणा उववज्जति ? परकम्मुणा उववज्जंति ? 'आयकम्मुण' त्ति आत्मकृतकर्मणा-ज्ञानावरणादिना (वृ० ५०७९६) ४१. गोयमा ! आयकम्मुणा उववज्जति, नो परकम्मुणा उववज्जति । ४२. एवं जाव वेमाणिया । एवं उब्वट्टणादंडओ वि। (श० २०।९५) ४३. नेरइया णं भंते ! कि आयप्पओगेणं उववज्जति ? परप्पओगेणं उववज्जति। 'आयप्पओगेणं' ति आत्मव्यापारेण । (वृ० ५०७९६) ४४. गोयमा ! आयप्पओगेणं उववज्जति, नो परप्पओगेणं उववज्जति । एवं जाव वेमाणिया। ४५. एवं उव्वट्टणादंडओ वि। (श० २०१९६) उत्पादाधिकारादिदमाह ---- (वृ० प० ७९६) ४४. जिन कहै नेरइया ऊपज रे, आत्म व्यापार करेह । पर उद्यमे नहिं ऊपजै रे, इम जावं वैमानिक लेह कै।। ४५. इम उब्वट्टणा नीकलवा तणों रे, दंडक पिण कहिवाय । ऊपजवा नां अधिकार थी रे, ऊपजवं हिव आय के। *लय : सीता सुन्दरी रे श० २०, उ०१०, ढा० ४०७ ३६५ Jain Education Intemational Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिसंचितादि पद ४६. हे प्रभुजी ! स्यूं नेरइया रे, कइसंचिया ताय ? के छ अकइसंचिया रे ? के अवक्तव्य कहाय के ? सोरठा ४७. कति संख्या बे आद, तेह एक जे समय में । ऊपजवे करि लाघ, संचित पिंट समूह ते ।। ४८. संख्या निषेध तेह, असंख अनंता इक समय । ह्रपिंड ऊपजबेह, कहिये अकतिसंचिता ।। ४९. कहि सकिये नहि बेह, तेह अवक्तव्य संचिता । एक समय में एह, एक उपजवं करि जिके || ५०. श्री जिन भाखे नेरइया रे, कइसंचिया पिण थाय । वलि छै अकइसंचिया रे, अवक्तव्यसंचिताय के ।। ५१. कि अर्थ प्रभु । इम कह्यो रे, जिन भाव सुण गोयमा ! रे, जाव अवक्तव्य जाण । प्रवर न्याय पहिलाण के ॥ ५२. संख्यात प्रवेश करी रे, जे नारक प्रवेश करेह । कहिये छे जे नेरइया रे, कसंचिया जेह के || ५३. असंख्याते प्रवेशने करी रे, जे नारक प्रवेश करेह । कहिये छै ते नारकी रे, अकइसंचिया तेह कै ॥ ५४. एक प्रवेश करी रे, जे नारक प्रवेश करेह । कहिये छै ते नेरइया रे, अवक्तव्यसंचिया जेह कै ॥ ५५. तिण अर्थे करि गोयमा ! रे, यावत ही अवधार । कहिये अवक्तव्यसंचिया रे, इम जाव पणियकुमार के || ५६. पृथ्वीकायिक नी पृच्छा रे, कइसंचिया न पाय । कहिये असंचिया रे, अवत्तगसंचिया नांय के ॥ ५७. किण अर्थ प्रभु इस को रे जाव अवक्तव्य नांय | जिन भाखं सुण गोयमा रे, एह तणों कहूं न्याय के ॥ ५८. असंख्यात प्रवेशन करी रे, पृथ्वीकाइया जीव करे प्रवेशन जेह में रे, अकइचिया कहीव के ।। ५९. ति अर्थ करि गोयमा रे, वायत हम कहिवाय । नहीं अवक्तव्यसंचिया रे, इम जाव वणस्सइकाय के || ६०. बेहंदिया जावत बलि रे, वैमानिक लग धार। जेम का रया रे, तिम कहिया सुविचार के ।। *लय सीता सुन्दरी रे ३६६ भगवती जोड ४६. नेरइयाणं भंते ! कि कतिसंचिया ? अकतिसंचिया ? अवत्तव्वगसंचिया ? ४७. 'कइसंचिय' त्ति कतीति संख्यावाची ततश्च कतित्वेन सचिताः एकसमये संख्याजोत्पादन पिण्डिताः कलिसञ्चिताः (१००७९९) ४८. 'अकइसंचिय' त्ति नवरम् 'अकइ' त्ति संख्या निषेध:असंख्यातत्वमनन्तत्वं चेति ( वृ० प० ७९९ ) ४९. 'अव्वत्तगसंचिय' त्ति वक्तुं न शक्यतेऽसाववक्तव्यः स चैककस्तेनावक्तव्येन एककेन एकत्वोत्पादन सञ्चिता अवञ्चिताः, ५०. गोयमा ! नेरइया कतिसंचिया वि, अवत्तव्वगसंचिया वि । (बु० १०७९९) वि, अकतिसंचिया ( श० २०/९७ ) ५१. सेकेणट्ठे जाव अवत्तव्वगसंचिया वि ? गोयमा ! ५२. जे या संसेज्जएणं पवेसमएणं पविसंति ते णं नेरइया कतिसंचिया, ५३. जे नेरइया असंखेज्जएणं पवेसणएवं पविसंति ते णं नेरइया अतिसंचिया, ५४. जे णं नेरइया एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया अवत्तव्वगसंचिया । ५५. से तेणट्ठेणं गोयमा ! जाव अवत्तव्वगसंचिया वि । एवं जाव थणियकुमारा । ( श० २०१९८ ) ५६. पुढविक्काइयाणं पुच्छा । मोगमा ! पुढविकाइया नो कतिसंचिया, अकनिसंचिया, नो अवत्तव्वगसंचिया । (श० २०/९९ ) ५७. सेकेणट्ठणं भंते ! एवं वृच्चइ जाव नो अवत्तव्वगसंचिया ? गोयमा ! ५८. विकाया असणं पणएवं पविति । ५९. से तेणट्ठेणं जाव नो अवत्तव्वगसंचिया । एवं जाव वणस्सइकाइया | ६०. बेंदिया जाव वैमाणिया जहा नेरइया । ( श० २०/१०० ) Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ६१. नारक आदिज ख्यात, त्रिविध पिण ह तेह विषे । एक आदि असंख्यात, जंतू ऊपजवा थकी ।। ६२. पृथ्वीकायिक आदि, निश्चै अकइसंचिया। एक समय उत्पाद, असंख्यात नौं इज ह। ६३. वनस्पती रै मांय, यद्यपि जीव अनंत ही। स्वजातीय थी आय, उपजै छै तो पिण इहां ।। ६४. विजातीय थी आय, करै प्रवेशज तरु मझे। असंख ईज ते पाय, तेहिज सूत्रे वांछियो ।। ६५. *सिद्धां नीं पूछा कियां रे, छै कइसंचिया सिद्ध । नहीं छ अकइसंचिया रे, अवत्तगसंचिया ऋद्ध कै ।। ६१. तत्र नारकादयस्त्रिविधा अपि, एकसमयेन तेषामेका दीनामसंख्यातान्तानामुत्पादात्, (वृ०प०७९९) ६२. पृथिवीकायिकादयस्त्वकतिसञ्चिता एव, तेषां समयेनासंख्यातानामेव प्रवेशाद्, (वृ० प०७९९) ६३,६४. वनस्पतयस्तु यद्यप्यनन्ता उत्पद्यन्ते तथाऽपि प्रवेशनकं विजातीयेभ्य आगतानां यस्तत्रोत्पादस्तद्विवक्षितं, असंख्याता एव विजातीयेभ्य उद्वृत्तास्तत्रो त्पद्यन्त इति सूत्रे उक्तम् (वृ०प० ७९९) ६५. सिद्धाणं-पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा कतिसंचिया, नो अकतिसंचिया, अवत्तब्वगसंचिया वि। (श० २०११०१) ६६. से केणठेणं जाव अवत्तव्वगसंचिया वि? गोयमा ! जे णं सिद्धा संखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा कतिसंचिया, ६७. जे णं सिद्धा एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते ण सिद्धा अवत्तव्वगसंचिया। से तेणठेणं जाव अवत्तव्वगसंचिया वि। (श०२०।१०२) ६८,६९. एएसि णं भंते ! नेरइयाणं कतिसंचियाणं अकति संचियाणं अवत्तव्वगसंचियाण य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा ? ६६. किण अर्थे ? तब जिन कहै रे, संखेज प्रवेशनेह । करै प्रवेश सिद्धा तिके रे, कइसंचिया कहेह के ।। ६७. एकज प्रवेशने करी रे, जे सिद्ध प्रवेश करेह । कहिये तेह सिद्धां भणी रे, अवत्तगसंचिया लेह के।। ६८. हे भगवंत ! ए नेरइया रे, कइसंचिया जाण । वलि जे अकइसंचिया रे, अवत्तगसंचिया माण कै॥ ६९. एहने विषे कुण-कुण थकी रे, यावत ही अवलोय । विसेसाहिया वलि कह्या रे? हिव जिन उत्तर जोय कै ।। ७०. सर्व थी थोड़ा नेरइया रे, अवत्तगसंचिया एह । तेहथी संख्यातगुणा कह्या रे, कइसंचिया जेह के ।। ७१. असंख्यातगुणा एह थी रे, अकइसंचिया तेह ।। इम एकेंद्रिय वर्ज नै रे, जाव वैमानिक लेह के ।। ७२. पांचं एकेंद्रिय मैं नहीं रे, अल्प बहुत अवलोय । जीव असंख तेह विषे रे, ऊपजवा थी जोय के। ७३. प्रभु ! सिद्ध कतिसंचिया रे, अवक्तव्यसंचिया मांय । कुण-कुण थी अल्प बहु अछै रे, तुल्य विशेष कहाय कै? ७०. गोयमा ! सम्वत्थोवा नेरइया अवत्तव्वगसंचिया, कतिसंचिया संखेज्जगुणा, ७१. अकतिसंचिया असंखेज्जगुणा । एवं एगिदियवज्जाणं जाव वेमाणियाणं अप्पाबहुगं । ७२. एगिदियाणं नत्थि अप्पाबहुगं। (श० २०१०३) ७३. एएसि णं भंते ! सिद्धाणं कतिसंचियाणं अवत्तव्वग संचियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा ? ७४. गोयमा ! सम्वत्थोवा सिद्धा कतिसंचिया, अवत्तव्वगसंचिया संखेज्जगुणा। (श. २०११०४) ७४. जिन कहै थोड़ा सर्व थी रे, कइसंचिया सिद्ध । तेहथी अवक्तव्यसंचिया रे, संख्यातगुणा समृद्ध कै।। सोरठा ७५. इहां एकेंद्रिय टाल, उगणीस दंडक नै विषे । सर्व थकी जे न्हाल, थोड़ा अवक्तव्यसंचिया ।। ७६. तेह थकी सुविचार, संखगुणा कइसंचिया। तसु स्थानक अवधार, संख्याता छै ते भणी ।। ७७. तेह थको पहिछाण, असंखगुणा अकइसंचिया। तेहनां स्थानक जाण, असखपणां माटै कह्यो ।। *लय : सीता सुन्दरी रे ७५. 'एएसी' त्यादि, अवक्तव्यकसञ्चिताः स्तोकाः अवक्तव्यकस्थानस्यकत्वात, (वृ० प० ७९९) ७६. कतिसञ्चिताः संख्यातगुणाः, संख्यातत्वात् संख्यातस्थानकानाम्, (वृ० प० ७९९) ७७,७८. अकतिसञ्चितास्त्वसंख्यातगुणाः असंख्यात स्थानकानामसंख्यातत्वादित्येके, (वृ० प० ७९९) श० २०, उ० १०, ढा० ४०७ ३६७ Jain Education Intemational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८. अल्प-बहुत नों न्याय, पूर्वे आख्यो छै तिको। एक आचार्य ताय, भाखै छै इण रीत सूं ।। ७९. अन्य आचार्य ख्यात, वस्तु तणां स्वभाव थी। इहां स्थानक अवदात, अल्प-बहुत नहिं छै इहां ।। ८०. जो स्थानक नों होय, तो सिद्धा कइसंचिया। स्थानक तेहनां जोय, छै बह पिण थोड़ा कह्या ।। ८१. जेह अवक्तव्य स्थान, एकपणे पिण तेहनें । संखगुणा तिम आन, वस्तु स्वभाव ते भणी ।। ८२. एक समय सिद्ध होय, दोय आदि दे जे वलि । ते सिद्ध थोड़ा जोय, लोक स्वभाव थकीज ए॥ ८३. *शत बीसम देश दशम नों रे, च्यारसौ सातमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश' मंगलमाल के । ७९. अन्ये त्वाहुः-वस्तुस्वभावोऽत्र कारणं न तु स्थानकाल्पत्वादि, (वृ० प० ७९९) ८०. कथमन्यथा सिद्धाः कतिसंचिताः स्थानकबहुत्वेऽपि स्तोकाः (वृ० प० ७९९) ८१,८२. अवक्तव्यकस्थानकस्यकत्वेऽपि संख्यातगुणा द्वघादित्वेन केवलिनामल्पानामायुः समाप्ते: इयं च लोकस्वभावादेवेति । (वृ० प० ७९९) ढाल:४०८ १. नारकाधुत्पादविशेषणभूतसंख्याऽधिकारादिदमाह (व० ५०७९९) सोरठा १. नरक प्रमुख उत्पाद, तास विशेषण भूत जे । संख्याधिकार लाध, तेह थकी कहिवं हिवे ।। षट्कसमजितादि पद २. नारक स्यूं भगवंत ! छक्कसमज्जिया हंत ? आज हो, अथवा कहीजै नोछक्कसमज्जिया जी ।। २. मेरइयाणं भंते ! किं छक्कसमज्जिया? नोछक्क समज्जिया? ३. एक समय षट एक आदि पंच ऊपज, छक्कसमज्जियाय । उपज, नोछक्कसमजिताय ।। ३. एकत्र समये ये समुत्पद्यन्ते तेषां यो राशि: स षट प्रमाणो यदि स्यात्तदा ते षट्कसमजिता उच्यन्ते । 'नोछक्कसमज्जिय' त्ति नोषटकं षट्काभावः ते चैकादयः पञ्चान्तास्तेन नोषट्केन-एकाद्युत्पादेन ये समजितास्ते तथा (वृ०प०७९९) ४. छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया? ४. छक्केण नोछक्केण, समजिताज कहेण । आज हो, दोनइ इक वचने विकल्प तीसरो जी। ५. एकादिक पंच लग अधिक, उपनो षट करि जेह । एक समय मांहै तिको, ते षट नोषटकेह ।। ५. 'छक्केण य नोछक्केण य समज्जिय' त्ति एकत्र समये येषां षट्कमुत्पन्नमेकाद्यधिकं ते षट् केन नोषट्केन च सजिता उक्ताः । (वृ० ५०७९९) *लय : सीता सुन्दरी रे लिय : दान सूं दालिद्र दूर ३६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. छक्केहिं समज्जिया? ६. *बहु षट करिके जेह, उपनो इक समयेह । आज हो, छक्केहि य समज्जिया चउथो कह्यो जी? ७. बहु षट एक समय विषे, उपनां नरक मझार । बहु षटके करि समज्जिया, चउथो विकल्प धार ।। ७. 'छक्केहि य समज्जिय' त्ति एकत्र समये येषां बहूनि षट्कान्युत्पन्नानि ते षट्कैः समजिता उक्ताः __ (वृ० प० ७९९,८००) ८. छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया? ८. *छक्क बहुवचन करेह, नोषट इक वचनेह । आज हो, तिण करि उपनां विकल्प पंचमो जी? ९. एकादिक पंच लग अधिक, उपनों बहु षटकेह । ___ बहु-षट नोषट समज्जिया, पंचम विकल्प एह ॥ १०. *गोयमा ! नेरइया य, छक्कसमज्जिया ताय । आज हो, कहियै नोछक्कसमज्जिया जी ।। ११. छक्केण नोछक्केण, छक्केहि समज्जिया जेण । आज हो, छक्केहि य नोछक्केण समज्जिया जी ।। ९. 'छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिय' त्ति एकत्र समये येषां बहूनि षट्कान्येकाद्यधिकानि ते षट्कः नोषट्केन च समजिताः, (वृ०प० ८००) १०. गोयमा ! नेरइया छक्कसमज्जिया वि, नोछक्क समज्जिया वि, ११. छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया वि, छक्के हिं समज्जिया वि, छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया वि। (श० १०।१०५) १२. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नेरइया छक्कसमज्जिया वि जाव छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया वि? १३. गोयमा ! जे ण नेरइया छक्कएण पवेमणएण पविसंति १४. ते ण नेरइया छक्कसमज्जिया। १२. किण अर्थे इम ख्यात, नारक में अवदात । आज हो, विकल्प पंच कह्या प्रभुजी ! तुम्हे जी? १५. जे णं नेरइया जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहि वा, उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति १६. ते णं नेरइया नोछक्कसमज्जिया। १७. जे णं नेरइया एगेणं छक्कएण १३. जिन कहै सांभल वाय, जेह नारका ताय । आज हो, एक समय में जे षट ऊपजे जी।। १४. तेह नेरइया ताय, छक्कसमज्जिया कहाय । __आज हो, विकल्प पहिलो भाख्यो इह विधे जी॥ १५. जेह नेरइया चीन, जघन्य एक बे तीन । आज हो, उत्कृष्ट पंच प्रवेश करै जिहां जी।। १६. तेह नेरइया पाय, नोछक्कसमज्जियाय । आज हो, विकल्प दूजो दाख्यो इह विधे जी।। १७. जेह नेरइया जाण, नरक विषे पहिछाण ।। आज हो, एक समय में छह ऊपजै तिहां जी। १८. वलि अनेरा चीन, जघन्य एक बे तीन ।। आज हो, उत्कृष्ट पंच प्रवेश करै जिहां जी।। १९. तेह नारका जाण, तीज विकल्प माण । आज हो, छक्के करि नोछक्के करि समज्जिया जी। २०. वलि नेरइया जेह, बहु-षटके करि तेह । आज हो, करै प्रवेशन प्रवेशने करी जी॥ २१. तेह नेरइया जोय, चउथे विकल्प होय । आज हो, घणेरे छक्के करि समज्जिया कह्या जी ।। २२. जेह नेरइया जाण, नरक विषे पहिछाण । आज हो, अनेक षटके करिने जे ऊपनां जी ।। १८. अण्णेण य जहणेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति १९. तेणं नेरइया छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया । २०. जे णं नेरइया नेगेहि छक्केहि पवेसणएहि पविसंति २१. ते णं नेरइया छक्केहि समज्जिया। २२. जे णं नेरइया नेगेहि छक्केहि *लय : दान सूं दालिद्र दूर श०२०, उ.१०, ढा०४०८ ३६९ Jain Education Intemational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. वलि अनेरा चीन, जघन्य एक बे तीन । आज हो, उत्कृष्ट पंच प्रवेश समूपना जी ॥ २४. तेहरा जोय, पंचमे विकल्प होय । आज हो, घणेरे छक्के नोकरि समज्जिया जी ॥ २५. तिण अर्थे इम ख्यात, विकल्प पंच संजात । आज हो, इमहिज जावत थणियकुमार ने जी ।। २६. पृथ्वी पूछा ताय, जिन कहै सांभल वाय । आज हो, घुर भंग छक्कमज्जिया नहीं जिके जी ।। २७. नोक समजताय, दूजो भंग कहाय । आज हो, ते पिण नहीं छै पृथ्वीकाय में जी । २८. वलि षटके करि ताहि, नोछक्क समज नांहि । आज हो, ए पिग नहीं छे भांगो तीसरो जी ।। २९. बहु-पटके करि ताय समजता कहिवाय । आज हो, विकल्प चोथो पृथ्वी में लहै जी ॥ ३०. बहुषट नोषटकेह, समजता आज हो, पंचम विकल्प पिण पार्व ३१. एकेंद्रिय ने मांय प्रवेशन कहिवाय छे वली जी ॥ जेह । सोरठा असंख्यात नो ईज । चरम भंग बे ते घणो ॥ ३२. *किण अर्थ इम ख्यात, धुर त्रिहुं भंग न थात । आज हो, विकल्प चरम दोय पृथ्वी मझे जी ? ३३. भाखे जिन गुणगेह, पृथ्वीकायिक जेह | आज हो, अनेक छक्के करि प्रवेशन करें जो ।। ३४. पृथ्वीकायिक तेह बहु करे | आज हो, विकल्प चोथो पाव ते भणी जी ॥ ३५. जे बलि पृथ्वीकाय अनेक चक्क करि ताय । आज हो, अन्य वलि नोछक्क करिनें ऊपनां जी ।। २६. जघन्य एक बे तीन, उत्कृष्ट पंच कमीन आज हो, प्रवेशन करिके तिहां समूपना जी ॥ ३७. पृथ्वीकाविक तेह, बहु छक्क नोषटकेह । । आज हो, पंचम विकल्प पाव इह विधे जी ।। ३८. तिण अर्थ कहिवाय, घुर विकल्प विहु नांव आज हो, विकल्प चरम दोष पृथ्वी म जी ॥ ३९. एवं जावत जाण, वनस्पती लग आण। आज हो, विकल्प चरम दोय पावे तिहां जो ॥ ४०. बेइंद्रिया थी लेह, जाव वैमानिक जेह | आज हो, यति सिद्ध कहिया नारक नीं परं जी ॥ ४१. प्रभु ! नारक विकल्प पंच, कुण-कुण थकीज संच । आज हो, अल्प बहु तुल्य विशेष अधिक ही जी ? * लय : दान सूं दारिद्र दूर ३७० भगवती जोड़ २३. अण्णेण य जहणेणं एक्केण वा दोहि वा तीहि वा, उवकोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति २४. ते णं नेरइया छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया । २५. से तेणट्ठेणं तं चैव जाव समज्जिया वि । एवं जाव वणिकुमारा । ( श० २०1१०६ ) २६. पुढविक्काइयाणं पुच्छा । गोयमा ! पुढविक्काइया नो छक्कसमज्जिया, २७. नो नोछक्कसमज्जिया, २८. नो छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया, २९. समजा, ३०. छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया वि । २१. एकेन्द्रियाणां स्वयंख्यातानामेव प्रवेजनात् प समजिताः तथा पद्नषट्केन च समजिता इति विकल्पद्वयस्यैव सम्भव इति, ( वृ० प० ८००) ३२. से केणट्ठेण जाव समज्जिया वि ? (१० २०११०७) २२. जेणं पुढविनकाइया नेगेहि कहि सहि पविति ३४. ते णं पुढविक्काइया छक्केहिं समज्जिया । २५.३६.जेाइया नेगेहि नाहिय अष वजह एक्केण वा दोहि वा तीहि वा उनकोसे पंचरण पवेसणणं पविसंति ३७. विकाइया हि नो य समज्जिया । ३८. से तेणट्ठेणं जाव समज्जिया वि । ३९. एवं जाव वणस्सइकाइया । ४०. बेंदिया जाव वेमाणिया, सिद्धा जहा नेरइया । (श० २०1१०८ ) ४१. एएसि णं भंते! नेरइयाणं नेरइयाणं एक्कसमजिवाण, 'कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? *********** Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. गोयमा ! सव्वत्थोवा नेरइया छक्कसमज्जिया, ४३. नोछक्कसमज्जिया संखेज्जगुणा ४४. छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया संखेज्जगुणा, ४२. जिन कहै थोड़ा जोय, सर्व थकी अवलोय । आज हो, छक्के करि समजिता जे नेरइया जी ।। ४३. नोछक्के करि ताय, समजिता जे पाय । आज हो, तेह थकी संख्यातगुणा कह्या जी ।। ४४. छक्केण नोछक्केण, समजिताज कहेण । आज हो, तेह थकी संखेजगुणा वलि जी ।। ४५. बह-षटके करि जेह, समजिता छै तेह । आज हो, तेहथी असंख्यातगुण आखिया जी ।। ४६. बहु-षटके छक्केण, समजिताज कहेण । आज हो, तेह थकी संख्यातगुणा कह्या जी ।। ४५. छक्केहि समज्जिया असंखेज्जगुणा, ४६. छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया संखेज्जगुणा। सोरठा ४७. सर्व थी थोड़ा छक्क, तसु स्थानक इक ते भणी। संखगुणां नोषट्क, नोछक्क स्थानक बहुत्व थी। ४८. तृतीय तुर्य पंचम, स्थान-बहुल थी सूत्र में । उक्त बहुत्व अनुक्रम, एक आचार्य इम कहै ।। ४९. अन्य आचार्य जेह, वस्तु स्वभाव थी कहै। न्याय नरक नों एह, अन्य तणों पिण न्याय इम ।। ५०. *तिणहिज विध अवधार, यावत थणियकुमार । आज हो, कहिवा अनुक्रमे पूर्वली परै जी। ५१. ए प्रभु ! पृथ्वीकाय, बहु-छक्क करि उपजाय । आज हो, ऊपनां वलि बहु-षटके नोछक्क करी जी ।। ४७. एषामल्पबहुत्वचिन्तायां नारकादयः स्तोका आद्याः, षट्कस्थानस्यैकत्वात्, द्वितीयास्तु संख्यातगुणाः नोषट्कस्थानानां बहुत्वात्, (वृ० प० ८००) ४८, एवं तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु स्थानबाहुल्यात्सूत्रोक्तं बहुत्वमवसेयमित्येके, (वृ० प० ८००) ४९. अन्ये तु वस्तुस्वभावादित्याहुरिति । (व०प० ८००) ५०. एवं जाव थणियकुमारा। (श० २०१०९) ५२. कुण-कुण थी ए मांय, अल्प बहुत्व कहिवाय । आज हो, तुल्य विशेषाधिक पिण जे हवै जी? ५३. जिन कहै थोड़ा पाय, सर्व थकी महिकाय । आज हो, घणेरे छक्के करि समजिता जिके जी ।। ५४. बहु-छक्क नोषटकेह, संखेजगुणा कहेह । आज हो, इमहिज जाव वणस्सइकाइया जी ।। ५५. बेइंदिया ते लेह, जाव वैमानिक जेह । आज हो, कहिवा रे नारक नी परै एहनै जी। ५६. हे प्रभुजी ! ए सिद्ध, पांचं विकल्प लिद्ध । आज हो, कुण-कुण जाव विशेषाधिक कह्या जी? ५१. एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं छक्केहि समज्जियाणं, छक्केहि य नोछक्केण य समज्जियाण य ५२. कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? ५३. गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविक्काइया छक्केहि समज्जिया, ५४. छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया संखेज्जगुणा । एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । ५५. बेइंदियाणं जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । (श० २०१११०) ५६. एएसि णं भंते ! सिद्धाणं छक्कसमज्जियाणं नोछक्कसमज्जियाणं जाव छकोहि य नोछक्केण य समज्जियाण य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा.) विसेसाहिया वा ? ५७. गोयमा ! सव्वत्थोवा सिद्धा छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया, ५८. छक्केहि समज्जिया संखेज्जगुणा, ५७. जिन कहै थोडा पाय, सर्व थकी कहिवाय । आज हो घणेरे छक्के नोछक्क करि समजिता जी ।। ५८. बहु-छक्के करि ताय, समजिता जे पाय । आज हो, कह्या रे संख्यातगुणा जे तेहथी जी ।। * लय : दान सूं दालिद्र दूर श० २०, उ०१०, ढा०४०८ ३७१ Jain Education Intemational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९. एक छक्के करि जेह, आज हो, उपनां ते सिद्ध ६०. एक इनके करि ख्यात नोछक्के करि तेह संख्यातगुणा बनि जी । समजता उपपात । आज हो तेह थकी संख्यातगुणा कह्या जी ॥ ६१. नो छक्क करि विरंच एक आदि दे पंच आज हो, तेह थकी संख्यातगुणा कह्या जी ॥ द्वादश समजतादि पद ६२. नारक स्यूं भगवान ! बार समज्जिया जान ? आज हो, एक समय में द्वादश ऊपनां जी ॥ ६३. के नोवारस धार? ते इक आदि इग्यार आज हो, ते पिण एक समय में ऊपनां जी ।। ६४. कै इक द्वादश धार, वलि एकादि इग्यार । आज हो तेह द्वादश नोद्वादश अपना जी ? ६५. के बहु-बार करेह, उपनां नरक विषेह ? आज हो, विकल्प चोथो एह कहीजिये जी ॥ ६६. बहु-द्वादश नोबार, ऊपनां नरक मकार ? , आज हो, विकल्प दाख्यो छे ए पंचमो जी । ६७. जिन कहै नारक जोय, बार समज्जिया होय । आज हो, जावत बहु द्वादस नोद्वादशी जी ॥ ६८. प्रभु ! किण अर्थे इम ख्यात, पांचू विकल्प थात ? आज हो, श्री जिन भावं सांभल गोवमा ! जी। ६९. जेह नारका जोय, इक इक द्वादश अवलोय | आज हो, करें रे प्रवेशन प्रवेशने करी जी ॥ ७०. ते नेरइया जाण, बार समज्जिया माण आज हो, विकल्प पहिलो आख्यो इह विधे जी ।। ७१. जेह नेरइया चीन, जघन्य एक बे तीन । आज हो, उत्कृष्ट ग्वार प्रवेशन जेहनुं जी ।। ७२. तेह नेरइया नेरइया ख्यात, ख्यात, नोद्वादश उपपात । आज हो, विकल्प जो दाख्यो इह विधे जी ॥ ७३. जेह नेरइया जंत, इक द्वादश उपजंत । आज हो, उपजे बलि एक प्रमुख ग्यारे लगे जी ।। ७४. ते नेरइया नेरइया ख्यात, तीजै विकल्प पात । आज हो, द्वादश नोद्वादश करि कपना जी ॥ ७५. जेह नेरइया जाण, बहु-द्वादश पहिछाण । आज हो, करें प्रवेशन प्रवेश करी जी ।। ७६. तेह तेरा रूपात, बहु-द्वादश उपपात । आज हो, विकल्प चउथो दाख्यो इह विधे जी ॥ ७७. जे नेरइया जन्न, बहु- द्वादश उपपन्न । आज हो, अन्य वलि एक प्रमुख ग्यारे लगे जी ॥ २७२ भगवती-जोड़ ५९. छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया संखेज्जगुणा, ६०. समजा, ६१. नोकसमजिया संखेज्जगुणा । ( ० २०११११) ६२. नेरइया णं भंते! कि बारससमज्जिया ? ६३. नोबारससमज्जिया ? ६४. बारसएण य नोबारसएण य समज्जिया ? ६५. वारसहि समजा ? ६६. बारसएहि य नोबारसएण य समज्जिया ? ६७. गोयमा ! नेरइया बारससमज्जिया वि जाव बारसएहि य नोबारसएण य समज्जिया वि । (स० २०।११२) ६८. से केणट्ठेणं जाव समज्जिया वि ? गोयमा ! ६९. जे णं नेरइया बारसएणं पवेसणएणं पविसंति ७०. ते णं नेरइया बारससमज्जिया । ७१. जेणं नेरइया जहणणेणं एक्केण वा दोहि वा तीहि वा उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसण एणं पविसंति ७२. ते णं नेरइया नोबारससमज्जिया । ७३. जे या वारस अ वजह एक्केण वा दोहि वा तीहि वा उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसण एवं पविसंति ७४. ते णं नेरवा बारसएण य नोबारसएण य समज्जिया । नेरइया नेगेहि बारसहि ७५. जे णं पवित ७६. ते नेरइया बारसहि समज्जिया पसणएहि ७०. जेणं नेरवा नेगेहि बारसहि अण्गेण व जहष्येणं एक्केण वा दोहि या वीहि या उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८. तेह नेरइया जोय, पंचम विकल्प होय । आज हो, घणेरे द्वादश नोद्वादश समज्जिया जी ॥ ७९. तिण अर्थे इम ख्यात, विकल्प पंच संजात । आज हो, इमहिज जावत पणिवकुमार ने जी ॥ ८०. पुढवी पृच्छा ताय, जिन कहै पृथ्वीकाय । आज हो, विकल्प चरम दोष घुर त्रिहं नहीं जी | ८१. किण अर्थे जिनराय ! घुर त्रिण विकल्प नांय । आज हो, विकल्प चरम दोय पावै वलि जी ? ८२. जिन कहे पृथ्वी जेह, बहु-द्वादश करि तेह | आज हो, करें प्रवेशन प्रवेशने करी जी ॥ ८३. तेह रइया ख्यात बहु-द्वादश उपपात । आज हो, विकल्प चडयो आयो इह विधे जी ॥ ८४. अथवा पृथ्वी जेह, बहु-द्वादश करि तेह | लग वलि जी ॥ आज हो, करै रे प्रवेशन ग्यारे विकल्प अपना ८५. कहिये पृथ्वी तेह, तेह, पंचम आज हो, घणेरे द्वादश नोद्वादश पाय । ८६. तिण अर्थे इम वाय, चरम भंग बे आज हो, इमहिज जाव वणस्सइकाइया जी ॥ ८७. बेदिया बी लेह जावत सिद्ध लगेह | आज हो, कहिया रे नारक नीं परि फुल एहने जी ॥ हे प्रभु ! नारक एह बार समज्जिया तेह | आज हो, सगलां नों अल्प-बहुत्व भणवो इहां जी ।। ८९. छक्क समजत जेम, अल्पबहुत्व छे एम। आज हो, नवरं विशेष इतो ते सांभलो जी ।। ९०. बारस एहवं नाम, कहिवुं सगलै ठाम | आज हो, शेष विस्तार तिमज कहिवो सही जी || चतुरशीति समजतादि पद एह । जी ॥ ९१. नारक स्यूं जगनाथ ! नरक विषे उपपात । आज हो, एक चउरासी करिकै समज्जिया जी ? ९२. एक आदि घी एह स्वासी लगंज तेह। आज हो, कहिये रे नोचउरासी करि समजता जी ? ९३. एक चउरासीमेह, नोचउरासी करेह । आज हो, हुवै रे समजत उपजवो तसुं जी ? ९४. के बहु-चउरासी करेह, हुवै समजित जेह । आज हो, घणेरे चउरासी नोचउरासीइं जी ? ९५. तब भाखे जगनाथ, बउरासी उपपात । आज हो, जावत पंचम विकल्प पिण हुवै जी ॥ ७८. ते णं नेरइया बारसएहि य नीबारसएण य समज्जिया । ७९. से तेणट्ठेणं जाव समज्जिया वि । एवं जाव थणियकुमारा । ( श० २०।११३) ८०. पुढविक्काइयाणं - पुच्छा । V गोमा ! पुढविनकाइया नोयारससमज्जिया नो नोवारसमजिया नो बारसएप व नोवारएण व समजिया, बारसहि समज्जिया, बारसेहि य नोबारसएण य समज्जिया वि । (४० २०१११४) ८१. से केणट्ठेणं जाव समज्जिया वि ? ८२. गोयमा ! जे णं पुढविक्काइया नेगेहि बारसएहि पवेसणएहि पविसंति ८३. ते णं पुढविक्काइया बारसएहि समज्जिया । ८४. जेणं पुढविक्काइया नेगेहि बारसएहि अण्णेण य जहष्पेणं एक्केण वा दोहि वा तीहि वा उनकोसेणं एक्का रस एवं पवेसणएणं पविसंति ८५. ते णं पुढविक्काइया बारसएहि य नोवारसएण य समज्जिया । ८६. से तेणट्ठेणं जाव समज्जिया वि। एवं जाव वर्णस्स इकाइया । ८७. बेइंदिया जाव सिद्धा जहा नेरइया । ( श० २०।११५ ) ८८. एएसि णं भंते ! नेरइयाणं बारससमज्जियाणंसम्बेसि अप्पा ८९. जहा छक्कसमज्जियाणं, नवरं ९०. बारसाभिलावो, सेसं तं चैव । (श० २०१११६) ९१. रामं कि चुनसीतिसमज्जिया ? ९२. नोचुलसीतिसमज्जिया ? ९३. चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समज्जिया ? ९४. सीती समनिया ? ससीतीहि मनोपुलसीतीए य समज्जिया ? ९५. गोमा रया चुलसीतिसमज्जिया वि जाय चुलसीतीहि यमोलसीसीए यसमा वि (श० २०/११७) श० २०, उ० १०, ढा० ४०८ ३७३ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६. से केणठेणं जाव समज्जिया वि? ९७. गोयमा ! जे ण नेरइया चुलसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति ९८. ते णं नेरइया चुलसीतिसमज्जिया। ९९. जे ण नेरइया जहण्णेणं एक्केण वा दोहि वा तीहि वा, उक्कोसेणं तेसीतिपवेसणएणं पविसंति १००. ते णं नेरइया नोचुलसीतिसमज्जिया। १०१. जे ण नेरइया चुलसीतीए णं अण्णेण य जहणणं एक्केण वा दोहि वा तीहि वा, १०२. उक्कोसेणं तेसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति १०३. ते णं नेरइया चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समज्जिया। १०४. जे णं नेरइया नेगेहि चुलसीतीएहि पवेसणएहिं पविसंति १०५. ते णं नेरइया चुलसीतीएहि समज्जिया । ९६. किण अर्ये भगवान ! चउरासी करि जान । ___ आज हो, जावत पंचम विकल्प करि कह्यो जी? ९७. जिन कहै नारक जेह, एक चउरासी एह । आज हो, करै रे प्रवेशन प्रवेशने करी जी।। ९८. कहिये नारक जेह, एक चउरासी एह । आज हो, हुवै रे सजित विकल्प धुर इसो जी।। ९९. जेह नारका चीन, जघन्य एक बे तीन । आज हो, उत्कृष्ट करै प्रवेशन त्यासीइं जी ।। १००. नारक तेह कहेह, नोचउरासीयेह । आज हो, हुवै रे सजित विकल्प दूसरै जी।। १०१. फुन नेरइया जेह, इक चउरासीयेह । आज हो, अन्य वलि जघन्य एक बे त्रिण करी जी। १०२. उत्कृष्टा अवधार, त्यासी लगै विचार॥ आज हो, करै रे प्रवेशन प्रवेशने करी जी॥ १०३. कहिये नारक तेह, इक चउरासीयेह । आज हो, वलि रे नोचउरासी लग समजिता जी। १०४. तथा नारक जेह, बहुचउरासीयेह । आज हो, करै रे प्रवेशन प्रवेशने करी जी ।। १०५. कह्या नेरइया तेह, विकल्प चोथो लेह । आज हो, धणेरे चउरासी करिकै समज्जिया जी ।। १०६. तथा नारका जेह, बहु चउरासी एह । आज हो, अन्य वलि जघन्य एक बे त्रिण करी जी ।। १०७. उत्कृष्टा अवधार, त्यासी लगै विचार । आज हो, करै रे प्रवेशन प्रवेशने करी जी ।। १०८. तेह नारका जोय, पंचम विकल्प होय । आज हो, घणेरे चउरासी नोचउरासीइंजी।। १०९. तिण अर्थे इम ख्यात, पांचं विकल्प पात । आज हो, इमहिज जावत थणियकुमार मैं जी। ११०. पृथ्वीकायिक मांहि, धुर त्रिण विकल्प नांहि । आज हो, विकल्प चरम दोय तिमहीज छै जी ।। १११. नवरं इतो विशेख, ए आलावे देख । आज हो, शब्द चउरासी संघाते अछै जी। ११२. एवं जावत जान, वनस्पती लग आन । आज हो, विकल्प चरम दोय महि नीं परै जी ।। ११३. बेइंदिया थी लेह, वैमानिक लग जेह। आज हो, विकल्प पांचूं नारक नी परै जी।। ११४. प्रश्न सिद्ध नों पेख, जिन भाखै सूविशेख । आज हो, ___ कहिये रे सिद्ध चउरासी कर समज्जिया जी ।। ११५. नोचउरासी एह, दूजो विकल्प जेह । ___ आज हो, एक चउरासी नोचउरासीई जी। १०६. जे ण नेरइया नेगेहि चुलसीतीएहि य अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहि वा, १०७. उक्कोसेणं तेसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति १०८. ते णं नेरइया चुलसीतीहि य नोचुलसीतीए य समज्जिया। १०९. से तेणठेणं जाव समज्जिया वि । एवं जाव थणिय कुमारा। ११०. पुढविक्काइया तहेव पच्छिल्लएहिं दोहिं, १११. नवरं-अभिलाओ चुलसीतीओ। ११२. एवं जाव वणस्सइकाइया । ११३. बेंदिया जाव वेमाणिया जहा नेरइया। (श० २०१११८) ११४. सिद्धाणं---पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा चुलसीतिसमज्जिया वि. ११५. नोचुलसीतिसमज्जिया वि, चुलसीतीए य नोचुल सीतीए य समज्जिया वि, ३७४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६. नो चुलसीतीहि समज्जिया, नो चुलसीतीहि य नोचुलसीतीए य समज्जिया। (श० २०१११९) से केणठेणं जाव समज्जिया ? ११७. गोयमा ! जे णं सिद्धा चुलसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति ११८. ते णं सिद्धा चुलसीतिसमज्जिया। ११९. जे णं सिद्धा जहण्णणं एक्केणं वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं तेसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति १२०. ते णं सिद्धा नोचुलसीतिसमज्जिया। ११६. ए त्रिहुं विकल्प पाय, भंग चरम बे नांय । है आज हो, पूछ रे शिष्य किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो जी ? ११७. जिन कहै सिद्धा जेह, इक चउरासी एह। आज हो, करै रे प्रवेशन प्रवेशने करी जी ।। ११८. ते सिद्धा गुणवंत, विकल्प प्रथम भवंत । आज हो, कहिये रे इक चउरासी करि समजिता जी।। ११९. जघन्य एक बे तीन, उत्कृष्ट त्यासी चीन । आज हो, करै रे प्रवेशन प्रवेशने करी जी । १२०. सिद्धा तेह कहेह, दूजै विकल्प लेह । आज हो, करै रे नोचउरासी करी समजिता जी ।। १२१. जेह सिद्धा गुणगेह, इक चउरासी एह । आज हो, अन्य वलि जघन्य एक बे त्रिण करी जी। १२२. उत्कृष्टा अवधार, त्यासी करि ततसार । आज हो, करै रे प्रवेशन प्रवेशने करी जी ।। १२३. सिद्धा तेह सुलेह, विकल्प तृतीय कहेह ।। ___ आज हो, चउरासी नोचउरासी करि समजिता जी। १२४. तिण अर्थ इम ख्यात, धुर त्रिण विकल्प पात । आज हो, ____ कहियै रे हिव अल्प-बहुत्व सगलां तणी जी ॥ १२५. नारक मैं भगवान ! चउरासी करि जान । आज हो, विकल्प दूजै नोचउरासीइं जी ।। १२६. सर्व तणी सुविचार, अल्प-बहुत्व अवधार। __ आज हो, कहिये रे कांइ छक्कसमज्जिया नी परै जी। १२७. जाव वैमानिक पेख, नवरं इतो विशेख । . आज हो, नाम चउरासी इसो कहीजिये जी। १२८. सिद्धां में भगवान ! धूर विहं भंग नों जान । आज हो, कुण-कूण थकी जाव विसेसाहिया जी ? १२१. जे णं सिद्धा चुलसीतीएणं अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहि वा तीहि वा, १२२. उक्कोसेणं तेसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति १२३. ते णं सिद्धा चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समज्जिया। १२४. तेण?णं जाव समज्जिया। (ग० २०।१२०) १२५. एएसि णं भंते ! नेरइयाणं चुलसीतिसमज्जियाणं __ नोचुलसीतिसमज्जियाणं । १२६. ---सव्वेसि अप्पाबहुगं जहा छक्कसमज्जियाणं १२७. जाव वेमाणियाणं, नवरं-अभिलाओ चुलसीतीओ। (श० २०११२१) १२८. एएसि णं भंते ! सिद्धाणं चुलसीतिसमज्जियाणं, नोचुलसीतिसमज्जियाणं, चुलसोतीए नोचुलसीतीए य समज्जियाण य कयरे कयरेहितो जाब (सं. पा.) विसेसाहिया वा? १२९. गोयमा ! सव्वत्थोवा सिद्धा चुलसीतीए य नोचुल सीतीए य समज्जिया, १३०. चुल सीतिसमज्जिया अणंतगुणा, १२९. जिन कहै थोड़ा जान, सर्व थकी पहिछान । आज हो, चउरासी नोचउरासी करि समजिता जी। १३०. तेह थकी अधिकाय, चउरासी करि ताय ।। आज हो, अनंतगुणा ज्ञानी गुण-आगला जी। १३१. तेह थकी अधिकेह, नोचउरासी एह । आज हो, कहिये रे सिद्ध महाभाग्य अनंतगुणा जी। १३२. सेवं भंते ! स्वाम, जावत विचरै ताम। आज हो, वीसम शतक दशम उद्देशके जी। १३३. अर्थ थकी अभिराम, शत वोसम सुखधाम । आज हो, आखी रे ए ढाल च्यारसौ आठमी जी।। १३४. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय 'जय-जश' हरष सवाय । आज हो, तेवीसै फागुण सुदि तिथ एकादशी जी।। १३१. नोचुलसीतिसमज्जिया अणंतगुणा। (श० २०११२२) १३२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श० २०११२३) श० २०, उ०१०, ढा० ४०८ ३७५ Jain Education Intemational Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतक छंद १. वर बोसमा ए शतक रूपज, सखर कमल सुवासितं । फुन वृद्ध वच रवि किरण करिके, अधिक हीज विकासित || २. विस्तारकरणज द्वार करि है, भ्रमर नीं परि सेवितं । इम कही बीसम शतक जोड़ज, नमो श्री श्रुतदेवतं ॥ विशतितमशते दशमोद्देशकार्यः ।। २०।१०।। ३७६ भगवती - जोड़ १२. शतकम विकाशित बुद्धवचनरविकिरणः । विवरणकरणद्वारेण सेवितं मधुलिहेव मया ॥१॥ (बु० १० ८००) Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतितम शतक Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतितम शतक ढाल : ४०९ दूहा १. अर्थ वीसमें शतक ए, अथ अवसर आयात । शत इकवीसम नों सरस, अमल अर्थ अवदात ।। २. आदि उद्देशक वर्ग नीं, संग्रह गाथा सार। तंत उद्देशक दश तणुं, वर्ग एक सुविचार ।। विषय सूची ३. शालि प्रमुख जे धान्य नों, प्रथम वर्ग नुं नाम । शालि ईज कहिये तसु, इम कहिवं अन्य ठाम ।। १. व्याख्यातं विंशतितमशतम्, अथावसरायातमेकविशतितममारभ्यते, (वृ० १०८००) २. अस्य चादावेवोद्देशकवर्गसंग्रहायेयं गाथा (वृ० प० ८००) ४. मूल कंद खंध फुन त्वचा, शालि प्रवाल रु पत्र । पुष्प अनें फल बीज पिण, ए दश उद्देश तत्र ।। for ५. कलाय प्रमुखज धान्य नं, द्वितीय वर्ग कहिवाय । अलसी धान्य विशेष मुं, तृतीय वर्ग छै ताय ।। ६. वंश प्रमुख नां पर्व नों, पर्व वलि इक्ष्वादि । दर्भ प्रमुख तृण भेद नं, षष्ठम वर्ग संवादि । ३.१. सालि 'सालि' त्ति शाल्यादिधान्यविशेषविषयोद्देशकदशात्मकः प्रथमो वर्ग: शालिरेवोच्यते, एवमन्यत्रापीति, (वृ०प० ८००) ४. उद्देशकदशकं चैवं-- मूले १ कंदे २ खंधे ३ तया य ४ साले ५ पवाल ६ पत्ते य ७। पुप्फे ८ फल १ बीए १० विय एक्केको होइ उद्देसो ॥१॥ (० प० ८००,८०१) ५.२. कल ३. अयसि 'कल' त्ति कलायादिधान्यविषयो द्वितीयः २ 'अयसि' त्ति अतसीप्रभृतिधान्यविषयस्तृतीयः ३ (वृ० १०८०१) ६. ४. वंसे ५. इक्खू ६. दब्भे य 'वंसे' त्ति वंशादिपर्वगविशेषविषयश्चतुर्थः ४ 'इक्खु' त्ति इक्ष्वादिपर्वगविशेषविषयः पञ्चमः ५ 'दब्भे' त्ति दर्भशब्दस्योपलक्षणार्थत्वात् 'सेडियभंडियकोन्तिय दब्भे' इत्यादितृणभेदविषयः षष्ठः ६(वृ० प० ८०१) ७.७. अन्भ 'अब्भे' त्ति वृक्षे समुत्पन्नो विजातीयो वृक्षविशेषोऽध्यवरोहकस्तत्प्रभृतिशाकप्रायवनस्पतिविषयः सप्तमः ७ (वृ० प० ८०१) ८. ८. तुलसी य । अट्ठए दस वग्गा, 'तुलसी य' त्ति तुलसीप्रभृतिवनस्पतिविषयोऽष्टमो वर्गः ८ 'अद्वैते दसवग्ग' त्ति अष्टावेतेऽनन्तरोक्ता (वृ० प० ८०१) ९. असीति पुण होंति उद्देसा ॥१॥ दशानां दशानामुद्देशकानां सम्बन्धिनो वर्गाः समुदाया दशवर्गा अशीतिः पुनरुद्देशका भवन्ति, वर्गे वर्गे उद्देशकदशकभावादिति, (वृ० प० ८०१) १०. तत्र प्रथमवर्गस्तत्रापि च प्रथम उद्देशको व्याख्यायते, (वृ०प०८०१) ७. वृक्ष विषे जे ऊपनों, विजाति वृक्ष विशेख । अध्यवरोह तिको कह्यो, शाक वनस्पति देख ।। ८. तुलसी प्रमुखज वनस्पति, ए अठ वर्ग संवादि। इक-इक नां उद्देश दस, मूल कंद खंधादि । ९. इम अठ वर्ग तणां अख्या, दश-दश प्रवर उद्देश । अस्सी उद्देशक शतक ए, इकवीसम सुविशेष ।। १०. प्रथम वर्ग तेह. विषे, प्रथम उद्देशक पेख । आदि अर्थ तेहनों हिवै, कहियै प्रवर अशेख ।। श० २१, वर्ग०१, ढा० ४०९ ३७९ Jain Education Intemational Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. रायगिहे जाव एवं वयासी-अह भंते ! साली वीही-गोधूम शालि आदि जीवों का उपपात पद वारू प्रश्नोत्तर शिष्य वीर नां रे ।। (ध्रुपदं) ११. प्रभु ! नगर राजगृह में विषे रे, जाव इम कहै गोतम स्वाम जी । प्रभु ! अथ हिव हे भगवंत जी ! रे, सालि ब्रीही गोहूं धान्य ताम जी ।। १२. प्रभु ! तिम जव जवजव धान्य नों रे, विशेष एह कहिवाय जी। प्रभु! एहनै विषे जे जीवड़ा रे, मूलपणे ऊपजै आय जी ।। १३. प्रभु! तेह ऊपजै क्या थकी रे, स्यं नारक थी उपजत जी। प्रभु ! तिर्यंच मनु सुर थी चवी रे, मूलपणे ऊपजवो हंत जी ? १२. जव-जवजवाणं-एएसि णं भंते ! जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, १३. ते णं भंते ! जीवा कओहितो उववजंति-कि नेरइएहितो उववज्जति ? तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? मणुस्सेहितो उववज्जति ? देवेहितो उववज्जति ? १४. जहा वक्कंतीए तहेव उववाओ, नवरं-देववज्ज । (श० २१११) 'जहा वक्कंतीए' त्ति यथा प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे, (वृ० ५०८०१) १५-१८. नो नारकेभ्य उत्पद्यन्ते किन्तु तिर्यग्मनुष्येभ्यः, तथा व्युत्क्रान्तिपदे देवानां वनस्पतिषूत्पत्तिरुक्ता इह तु सा न वाच्या मूले देवानामनुत्पत्तेः पुष्पादिष्वेव शुभेषु तेषामुत्पत्तेरत एवोक्तं 'नवरं देववज्ज' ति । (वृ०प०८०१) १४. प्रभु ! जिम पन्नवण छठा पद विषे रे, _कह्यो वणस्सइ में उपपात जी। गोयम ! कांइ तिमहिज कहिवो छ इहां रे, णवरं सुर वर्जी अवदात जी। सोरठा १५. वनस्पती रै मांहि, सुर नुं ऊपजवू कह्य । ते इहां कहि नाहि, मूले सुर नहिं ऊपजै ॥ १६. वनस्पती शुभ मांहि, सुर नुं ऊपजवू अछै । तिणसं ऊपजे नाहि, साल्यादिक मूले सुरा ।। १७. छठा पद में पेख, वनस्पति में नारकी। उपज नही उवेख, तिम इहां पिण नहिं ऊपजै ।। १८. साल्यादिक मूलेह, तिरि मनु थकीज ऊपजै । नारक सुर गति बेह, तेह थको नहिं ऊपजै ।। *१९. प्रभु ! तिके एक समय किता ऊपजै रे ? उत्तर जघन्य एक बे तीन जी। गोयम ! उत्कृष्ट संख्याता ऊपजै रे, अथवा असंख्याता चीन जी ।। सोरठा २०. यद्यपि सामान्येन, वनस्पती में जीवड़ा। समय-समय प्रति तेन, अनंत ऊपजै छै जिके ।। २१. तथापि इह शाल्यादि, प्रत्येक तनु नां भाव थी। है उत्पत्ति एकादि, ते माटै ए विरुद्ध नहीं। शालि आदि का अपहार २२. *अपहार एकादशमें शते रे, कह्यो उत्पल प्रथम उद्देश जी। गोयम ! कहिवो तिणहिज रीत संरे, तिको इहविधि छै सुविशेष जी।। __ 'लय : हंसा नदीय किनारे रूंखड़ो रे १९. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जति । २०. यद्यपि सामान्येन वनस्पतिषु प्रतिसमयमनन्ता उत्पद्यन्त इत्युच्यते (वृ० प० ८०१) २१. तथाऽपीह शाल्यादीनां प्रत्येक शरीरत्वादेकाद्युत्पत्तिर्न विरुद्धेति । (वृ०प०८०१) २२. अवहारो जहा उप्पलुद्देसे (श० ११४) । (श० २११२) 'अवहारो जहा उप्पलुद्देसए' त्ति उत्पलोद्देशक एकादशशतस्य प्रथमस्तत्र चापहार एवं (वृ० १०८०१) ३८० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २३. हे भगवंत ते जीव, समय-समय अपहारतो कितले काल कहीव, हुवै तास अपहार जे ? २४. जिन कहै असंख जीव समय-समय अपहारतां । असंख्यात सुकहीव, अव उत्सर्पिणी करि जिके ॥ २५. अवहीर तिन बार तो पिण ते निश्चेकरी हुवे नहीं अपहार, निर्लेपण नहिं हं शालि आदि जीवों की अवगाहना आदि २६. प्रभु! किती मोटी अवगाहना रे, तिके ।। कांइ ते जीवां नीं जाण जी ? गोयम ! जघन्य भाग असंख आंगुल तणों रे, उत्कृष्टो पृथक धनु माण जी ।। २७. प्रभु ! ज्ञानावरणी नां बंधगा रे, के अबंधगा जीव तेह जी ? sis तिहिज रीत कहेह जी ॥ सोरठा इक वचने करि बंधगे । इत्यादिक कहिवो इहां ॥ प्रभु को उत्पल उद्देशक विषे रे, २८. अबंधगा ते नांय तथा बंधगा थाय, २९. इहिज रीत वेदे तिके रे, वेदना में विषे पिण एम जी । गोयम ! उदय विषे पिण इमहीज छे रे, उदीरणा विषे पिण तेम जी ।। शालि आदि जीवों में लेश्या आदि ३०. अहो भगवंतजी ! ते जीवडा रे. कृष्णलेशी तथा नीललेश जी । इहां भंग छवीस कहेस जी ॥ सोरठा ३१. लेश्या तीनज होय, इकवचने करि तीन हूं। बहुवचने त्रिण जोय, इक संजोगे भंग षट ॥ ३२. द्विक्संयोगिक वार कृष्ण नील एक कृष्ण अवधार एक नील ३२. एक कृष्ण बहू नील, बहु कृष्ण इक नील फुन । वह कृष्ण संमील, बहू नील ए प्यार भंग ॥ ३४. इमेज कृष्ण कापोत, तेनां भंग पिण चिरं हुवे । नील काऊ चिउं होत, द्वादश इम पी भंग चिरं । भंग पुर ॥ ए द्विकयोगिका ॥ *लय : हंसा नदीय किनारे खड़ी रे प्रभु ! अथवा कापोतलेसी हुवै रे, २३. 'ते णं भंते! जीवा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा केवतिकालेणं अवहीरंति ? ( वृ० प० ८०१ ) २४, २५. गोयमा ! ते णं असंखेज्जा समए- समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीहि अवसप्पणीहि अवहीरंति तो जेवणं अवहिया सिप त्ति ( वृ० प० ८०१ ) २६.सि जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहगा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्त असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं धणुपुहत्तं । ( श० २१1३) २७. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा ? अबंधगा ? जहा उप्पलुद्दे से ( श० ११।६ - ११ ) २८. गोयमा ! नो अबंधगा बंधए वा बंधगा वेत्यादि, ( वृ० प० ००१) २९. एवं वेदे वि, उदए वि, उदीरणा वि । (श० २११४ ) ३०. ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा छन्वीसं भंगा, ३१. लेश्या तु तिसृषु षड्विंशतिर्भङ्गाः - एकवचनान्तत्वे ३ बहुवचनान्तत्वे ३ ३२-३४. त्रयाणां पदानां त्रिषु चतुर्भङ्गिकाभावाद् द्वादश ( वृ० प० ८०१ ) द्विकसंयोगेषु प्रत्येकं ( वृ० प० ८०१ ) श० २१, वर्ग ० १, ढा० ४०९ ३८१ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनी ३५-३७. एकत्र च त्रिकसंयोगेऽष्टाविति षडविशतिरिति । (व० ५०८०१) ३५. कृष्ण एक नील एक, कापोत एक संपेख । एक कृष्ण नील इक होत, बहुवचन करी कापोत ।। ३६. एक कृष्ण नील बहु होय, एकवचन कापोत सुजोय । एक कृष्ण नील बहु जाण, बहुवचन कापोत सुजाण ।। ३७. कृष्ण इकवचने चिउं धार, कृष्ण बहु वच पिण इम च्यार। त्रिकयोगिक भंग ए अष्ट, सर्व छब्बीस भंग सुदृष्ट ।। तीन लेश्या नां भांगा २६ कृष्ण नील कापोत १ १ १ एवं ३ कृष्ण नील कापोत ३ ३ एवं ६ द्विकसंयोगिक १२ भांगा कृष्ण नील कृष्ण कापोत नील कापोत त्रिकसंयोगिक ८ मांगा कृष्ण नील कापोत कृष्ण नील कापोत mr ~ m ال m m م or mm له ३८. दिट्ठी जाव इंदिया जहा (श० ११११३-२८)। ३८. *तथा दृष्टि जाव इंद्रिय वली रे, ___कह्यो उत्पल उद्देशे जेम जी। गोयम ! कहिवो तिणहिज रीत सूं रे, तिको कहियै छै हिव एम जी ।। उप्पलुद्दे से (श० २११५) सोरठा ३९. मिथ्यादृष्टिज एक, ज्ञान नहीं अज्ञान बे। काय जोग इक पेख, बे उपयोगज जाव थी ।। ३९. तत्र दृष्टौ मिथ्यादृष्टयस्ते ज्ञानेऽज्ञानिनः योगे काययोगिनः उपयोगे द्विविधोपयोगाः, (वृ० प०८०१) ४०. ते णं भंते ! साली-वीही-गोधूम-जव-जवजवग मूलगजीवे कालओ केवच्चिरं होति ? ४०. *प्रभु ! सालि ब्रीही गोहूं तेहनां रे, जीव जवजव धान्य नां जेह जी। प्रभु ! जीव मूल नां काल थी रे, " केतलो काल रहेह जी ? ४१. उत्तर अंतर्मुहूर्त जघन्य थी रे, उत्कृष्ट असंखिज्ज काल जी। गोयम ! आ तो कायस्थिति आखी इहां रे, आगै कहिस्यै भवस्थिति न्हाल जी।। *लय : हंसा नदीय किनारे रूंखड़ो रे ४१. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज कालं। (श० २२६) ३८२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालि आदि जीवों का कायसंवेध ४२. प्रभु ! सालि ब्रीही गोहू तेहनां रे, 'जव जवजव धान्य नां जेह जी । प्रभु ! मूल नां जीव मरी करी रे, ४३. प्रभु ! सालि बीही जव जवजवे रे, पृथ्वी जीव थइ ने तेह जी ॥ प्रभु ! काल की सेवे काल केतलो रे, ४४. जिम उत्पल उद्देशा विषे रे, ओ तो इण आलावे करेह जी । गोयम ! इहां पिण कहियो सगलो सही रे, काइ जाव मनुष्य लग जेह जी ।। सोरठा । ४५. जिस उत्पल उद्देश इथ वचने करि एवं भवादेश करि एस, जघन्य दोय भव ग्रहण छै ॥ हुवै मूल नां जीवपणेह जी । गतागति कितो काल करेह जी ? जघन्य । ४६. फुन कालादेशेह, दो अंतर्मुहुर्त उत्कृष्ट भव असंखेह असंख अद्धा इत्यादि जे ॥ शालि आदि जीवों का आहार आदि ४७. *ओ तो आहार तणों विस्तार जे रे, जिम उत्पल उद्देशा विषेह जी । गोयम । इहां पिण कहियो तिमहिज सहु रे, हिव भवस्थिति कहिये जेह जी ॥ सोरठा ४८. ते जीवां स्यूं ईह, आहार करै प्रभु ! केहनों । जिन कहै द्रव्य थकीह, अनंत प्रदेश इत्यादि जे || ५०. समुद्घात र तीन, समवहता मृत्यु चीन, ५१ तथा साल्पादि मूल नां गोयम ! फुन मनुष्य विषे ४९. * स्थिति अंतर्मुहूर्तं जघन्य थी रे, उत्कृष्ट पृथक वास जी । गोयम ! समुपात समोहया उबट्टणा रे. जिम उत्पल उद्देश विमास जी ।। सोरठा समुद्घात मरणांति असमवहता अपि *लय : हंसा नदीय किनारे खड़ी रे करि मरे ॥ जीवा रे, मर ऊपजै तिर्यंच मांय जी । पिण ऊपजै रे, ए तो उवट्टणा कहिवाय जी ॥ । ४२. भते साली वीही-गोधूम जब-जब जयगमूलगजीवे पुढवीजी, ४३. पुणरवि साली-वीही जव ववववनगजीने केवतिय कालं सेवेज्जा ? केवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ? ४४. एवं जहा उप्पलुद्दे से ( श० ११।३० - ३४) एएणं अभिलावेणं जाव मणुस्सजीवे, ४५. एवं जहा उप्पलुस त्ति अनेन वेदं सूचितं'गोयमा ! भावादेसेणं बहने दो भाई ४६. कालादेसेणं जहन्नेणं दो असं काल' मित्यादि, (१००८०१) अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं (५० ५०८०१) ४७. आहारो जहा उप्पलुद्दे से (श० ११।३५ ) ४८. ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेति १, गोयमा ! दओ अतएवाई' इत्यादि, (२०१०८०१) ४९. ठती हो तो उनको वासपुहतं, समुग्याया समोहमा उम्पट्टणा य जहा उप्पल देते (श० ११३७-३९) । (श० २१।७) ५०. तेषां जीवानामाद्यास्त्रयः समुद्घातास्तथा मारणान्तिकसमुद्घातेन समवता प्रियन्ते असमवता वा, ( वृ० प० ८०१ ) ५१. तथोद्वृत्तास्ते तिर्यक्षु मनुष्येषु चोत्पद्यन्त इति । ( वृ० प० ८०१ ) श० २१, वर्ग १, ढा० ४०९ ३८३ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. अथ भगवंत ! सगला प्राणिया रे, जाव सर्व सत्व छे जेह जी ? प्रभु ! सालि ब्रीही जय जवजवग ना रे, ५३. तब जिन कहै हंता गोयमा ! रे, पूर्व उपनां मूलपणेह जी ॥ गोयम ! अथवा वार अनंती ऊपनां रे, ए तो अपना बार अनेक जी। ५४. अर्थ एकवीसमा शतक नों रे, सेवं भंते ! सेवं भंते ! लेख जी ॥ गोयम ! प्रथम उद्देशक ने विषे रे, साल्यादि मूल जीव संपेख जी ।। एकविंशतितमश प्रथमवर्गे प्रथमोद्देशकार्यः ॥ २१॥ १ ॥ ओ तो प्रथम वर्ग नो देख जी । शालि आदि जीवों की कंदादि रूप में पृच्छा ५५. अथ प्रभु ! शालि बीही बली रे, जाव जवजव धान्य नें जेह जी । किण गति थी आवी उपजेह जी ? कहिवो मूल उद्देशो तेह जी । गोयम ! जाव अनेक तथा वार अनंत ही रे, अपना सेवं भंते एह जी ॥ एकविंशतितमश प्रथमवर्ग द्वितीयोदेशकार्थः ॥ २११११२ ॥ ५७. इम खंध विषे पिण जाणवो रे, ओ तो तृतीय उद्देशक ताम जी । वलि छाल विषे इम जाणवो रे, ५८. भणवो शाखा विषे इह रीत से रे, प्रवाल विषे पिण परवरो रे, ओ तो प्रभु ! कंदपणं जीव अपने रे. ५६. इस कंद ने अधिकारे करी रे, ३८४ भगवती जोड़ ५९. पत्र विषे उद्देशो सप्तमो रे, सर्व मूल उद्देशक ने विषे ओ तो तुर्य उद्देशक पाम जी ॥ षष्ठमुद्देशक लेख जी ॥ आख्या सप्त उद्देशक एह जी । रे, दाख्यो तिण रीत कहेह जी ॥ एकविंशतितमश प्रथमवर्गे तृतीयादारभ्य आसप्तमोद्देश कार्थः ।। २१।१।३-७॥ ओ तो पंचमुद्देशक पेख जी । ६०. इमहिज फूल विषे अपि रे, पिण नवरं इतरो विशेष है रे, ओ तो अष्टमुद्देशक आम जी । तिहां देव ऊपजै ताम जी ॥ ५२. अह भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता साली-वीहीगोधूम-जब जनमूलगजीवत्ताए उववणवा ? २३. हंता गोयमा ! असति अदुवा मो सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ५५. अह भंते ! साली वीही- जाव (सं० पा० ) जवजवाण - एएसि णं जे जीवा कंदत्ताए वक्कमंति ते णं भंते! जीवा कलोहितो उन? ५६. एवं कंदाहिगारेण सच्चेव भाणियम्बो जान असति अदुवा सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ( ० २१1० ) (२० २१/९) मूलद्देसो अपरिसेसो ततो ( श० २१/१० ) ( ० २१०११) ५७. एवं बंधे वि उद्देसओ नेयव्वो । एवं तयाए वि उद्दे सो भाणियव्वो । ५८ साले व उसो भागिदथ्यो। पवाले बि उसी भाणियव्वो । ५९. ते वि उद्देो भागियन्बो एए सत्त वि उना अपरिसेसं जहा मूले तहा नेयव्वा । ६०. एवं पुप्फे वि उद्देसओ, नवरं देवा उववज्जंति - Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. जहा उप्पलुद्देसे (श० ११२)। चत्तारि लेस्साओ, असीति भंगा। ६२,६३. चतसृषु लेस्यास्वेकत्वे ४ बहुत्वे ४ (वृ० प० ८०२) ६४-६७. तथा पदचतुष्टये षट्सु (द्विकसंयोगेषु प्रत्येक चतुर्भङ्गिकासद्भावात् २४ (वृ०प०८०२) ६१. जिम उत्पल उद्देशे कह्य रे, "तिणमें लेश्या च्यारज पाय जी। वारु अस्सी भांगा तेहनां कह्या रे, तिके संक्षेपे कहिवाय जी। सोरठा लेश्या सम्बन्धी भंग ६२. एक कृष्ण इक नील, इक वचने कापोत ह। तेजू एक समील, इक वचने इकयोगि चिउं ।। ६३. बहु कृष्ण बहु नील, बहु काऊ तेजू बहु । बहु वच चिउं समील, इकसंयोगिक भंग अठ ।। द्विकसंयोगिक २४ भांगा६४. द्विकयोगिक चउवीस, एक कृष्ण इक नील है। ए धुर भंग जगीस, एक कृष्ण बहु नील फुन । ६५. बहु कृष्ण इक नील, बहु कृष्ण बहु नील फुन । ए चउभंग समील, कृष्ण नील साथे कह्या ॥ ६६. इम चिउं कृष्ण कापोत, कृष्ण तेजु संग इम चिउं । नील काउ चिउं होत, नील तेउ संग इम चिउं ॥ ६७. काऊ तेक संग, इमहिज कहिवा भंग चिउं । ए चउवीस सुचंग, द्विकयोगिक भंग आखिया ।। त्रिकसंयोगिक ३२ भांगा६८. इक वच कृष्ण कहाय, एक नील कापोत इक । एक कृष्ण फुन थाय, एक नील कापोत बहु ॥ ६९. एक कृष्ण अवलोय, नील बहुं कापोत इक। एक कृष्ण फुन होय, नील बहु कापोत बहु ।। ७०. कृष्ण एक वच साथ, भंग चिउं ए आखिया। तिम बहु कृष्ण संघात, भांगा च्यार भणीजिये ।। ७१. आख्या ए अठ भंग, कृष्ण नील कापोत संग। इमहिज अष्ट सुचंग, कृष्ण नील तेज थकी। ७२. इमहिज अष्टज होय, कृष्ण काउ तेजू थकी। इमज अष्ट अवलोय, नील काउ तेज थकी ।। ६८-७२. तथा चतुर्षु त्रिकसंयोगेषु प्रत्येकमष्टानां सद्भावात् ३२ (व० ५० ५०२) यतली ७३-७८. चतुष्कसंयोगे च १६ एवमशीतिरिति, (वृ०प०८०२) चउक्व-संयोगिक १६ भांगा७३. एक कृष्ण नील एक पेख, इक कापोत तेज एक । फून कृष्ण एक नील एक, एक कापोत तेज अनेक ।। ७४. इक कृष्ण नील इक होय, बहु काउ तेजु इक जोय । इक कृष्ण नील इक जान, बहु काउ तेजू बहु मान । ७५. इक कृष्ण नील बहु ताय, इक काउ तेजु इक पाय । इक कृष्ण नील बहु मंत, इक काउ तेजु बहु हुंत ॥ ७६. इक कृष्ण नील बहु जेह, बहु काउ तेजु इक लेह । इक कृष्ण नील बहु लेख, बहु कापोत तेजु अनेक ।। श० २१, वर्ग १, ढा० ४०९ ३८५ Jain Education Interational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. एक वचन कृष्ण र साथ, ए भांगा अष्ट आख्यात | इम वह वच कृष्ण संघात, करिया भांगा अष्ट विरूपात ।। ७८. इकयोगिक पुर अठ भंग, द्विकयोगिक चवीस जंग त्रिकयोगिक भंग बत्तीस, चउक्कयोगिक सोल जगीस || कृष्णादि च्यार लेस्या नां एकत्व बहुत्वे ८० भांगा, तेहनुं यंत्रइकसंयोगिक भांगा - नी० का० १ क० १ ३ १ १ द्विकसंजोगिया २४ भांगा कृ० नी० कृ० का० १ १ १ १ १ ३ ३ १ ३ ३. ३ ३ त्रिसंयोगिया ३२ भांगा कृ० नी० का० १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ कृ० ३ ३ १ ३ १ ३ ३ १ ३ ३ ३ का० ते० १ १ १ १ १ १ १ ३ १ ३ १ १ ३ १ १ ३ १ १ १ १ ३ १ ܐ ३ ३ ३ १ १ ३ ३ १ ३ १ ३८६ भगवती जोड़ ३ ३ ३ ३ चतुष्कसंयोगिक १६ भांगा कृ. नी. का. ते. १ १ १ १ १ ३ १ कृ० १ १ १ १ ३ १ ३ नी० १ ३ १ ३ १ ३ ३ ३ १ ३ ३ ३ ते० १ १ १ ३ ० का० ३ कृ० ते० १ १ १ ३ ३ १ ३ ते ० १ ३ ३ नी० ते० १ १ १ ३ ३ १ ३ १ १ १ १ ३ ३ १ १ ३ ३ ३ ३ १ ३ १ ३ १ ३ १ ३ कृ. ३ ३ ३ ३. ३ ३ नी० का० १ १ १ ३ ३ नी. १ १ १ १ ३ ३ ३ ३ १ ३ नी० ते० १ १ ३ १ ३ १ ३ का. ते. १ १ १ ३ ३ १ ३ ३ १ १ १ ३ ३ का० ते० १ १ ३ ३ १ ३ १ ३ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९. * जघन्य अवगाहना तसु फूल नीं रे,. ऑल रे असंख्यातमें भाग जी । उत्कृष्ट पृथक आंगुल तणी रे, शेष तिमज सेवं भंते! माग जी ॥ एकविंशतितमश प्रथमवर्गे अष्टमोद्देशकार्यः ॥२१॥११८॥ विषे तिम फल विषे रे, *जिम फूल भगवो समस्त नवमो उद्देश जी। इम बीज विषे पिण जाणवो रे, ओ तो दशम उद्देश अशेष जी ।। ८०. एकविंशतितमशते प्रथमवर्गे नवमदसमोद्देशकार्यः ॥ २१।१।६,१०॥ इति प्रथमवर्गः ॥ २११ - १० 11 कलाय आदि जीवों की पृच्छा ८१. अथ भगवंत ! धान्य कलाय जी रे, व धान्य मसूरज ताय जी । तिल मूंग उडद झालर जिको रे, वलि कुलय धान्य कहिवाय जी ॥ ५२. आलिसंग धान्य विशेष ही रे, वलि सतीण ते धान्य विशेष जी । बलि चिना एहना जे जीवड़ा रे, ८३. प्रभु ! किहां की ते ऊपजे रे ? ऊपजे मूलपणे संपेख जी ॥ इम मूलादि दश उद्देस जी । को द्वितीय वर्ग ए अशेष जी ।। इति द्वितीयवर्ग : २१ २ ११-२०॥ भणवा सालि तणी पर सर्व ही रे, अतसी आदि जीवों की पृच्छा ८४. अथ हे प्रभु ! अलसी धान्य छै रे, कुसुंभो नैं कोद्रवो कहीज जी । कोदू वली रे, सासेग सरिसव मूलग बीज जी ।। जीवड़ा रे, ऊपजे छे तिके भगवंत जी ! तिके किहां की आवी ऊपजे रे ? ८६. इहां उद्देसा दस मूलादिक तणां रे, इम पूछे गोयम संत जी ॥ जिम सालि तणां आख्यात जी । कंगु राल वराग ५. एहनां मूलपणे जे तिमहिज भणवा इहां सर्व ही रे, एतीजो वर्ग विख्यात जी ॥ इति तृतीय वर्ग : २१।३।२१-३०।। वंश आदि जीवों को पृच्छा ८७. अथ भगवंत ! वंस बेणं बली रे, कणक कक्कावंस चारू वंस जी । दंड कुटा बेलुक कल्लाणी बली रे, सर्ववस विशेष प्रसंस जी ॥ ७९. जोगाणा जयमेणं अंगुलरस असंवेदभाग उक्को अंगुल से तं देव (श० २१।१२) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति । ( ० २१।१३) ८०. जहा पुप्फे एवं फले वि उद्देसओ अपरिसेसो भाणिroat | एवं बीए वि उद्देसओ । एए दस उद्देसगा । (०२१।१४) ८१. अह भंते ! कुत्तत्य कल-मसूर तिल मुगमारा-निष्का ८२. आलिसंदग - सतीण- पलि मंथगाणं एएसि णं जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ८३. ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववज्जंति ? एवं मूलादीया दस उद्देगगा भाषियन्या जहे साली निरवसेसं तहेव । (श० २१।१५) ८४ मह मंते । अयसिभ को कंगु-रालग-बराकोदू सास- सरिसव-मूल-बीवा ८५. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते ! जीवा कमोहितो उति ? ८६. एवं रवि मूलादीया दस उगा जहेब सामी निरवसेसं तहेव भाणियव्वा । (०२१।१६) ७. मंते यंसवेक-यासा कुडा - विमा - कंडा - वेलुया कल्लाणाणं श० २१, वर्ग १-४, ढा० ४०९ ३८७ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एहना मूलपणे जे जीवड़ा रे, किहां पकी अपने आप जी ? मूल आदि उद्देसा दश इहां रे, जिम सालि नो तिम कहिवाय जी ।। ८९. णवरं सुर सघलै नहि ऊपजे रे, तीन लेश्या तणां सर्व स्थान जी । भंग छवीस शेष तिमज सह रे, ए वर्ग चतुर्थी जान जी ॥ इति चतुर्थ वर्ग : २१।४।३१-४०।। इक्षु आदि जीवों की पुच्छा ९०. अथ भगवंत जी ! इक्षु वली रे, इक्षुवाडिक वीरण ताम जी । ईकड भमास सुंब वनस्पति सप्तवर्ण' वनस्पति नाम जी ॥ ९१. तिमिर शतपोरग नल वणस्सइ रे, प्रभु ! किहां थकी आवी ऊपजै रे ? एह वंस वर्ग जिम ९२. इहां पिण मूल आदि देई करी रे, उद्देसा दश णवरं बंध उद्देशाने विषे रे देवता ऊपजे ९३ तिणसूं बंध उद्देसा ने विषे रे, तेह्नां मूलपणे जे जीव जी च्यार लेस्या परूपी स्वाम जी । शेष तिमहिज कहियो सर्व ही रे, ए पंचम वर्ग सुपाम जी ।। इति पंचम वर्ग : २११५२४१-५०।। सेडिक आदि जीवों की पृच्छा ९४. अथ भगवंत जी ! सेडिक तिको रे, अथवा ओषधि तणों विशेष है रे, ९५. दर्भ कुश पव्वक वली रे, आषाढक ने रोहितंस सुयव ए तृण विशेष कहाय जी । इस मंतिक कुंतिक ताय जी ॥ पोदइल नें अर्जुन जाण जी । रे, वखोर अनें भुस माण जी ॥ सोरठा ९६. ए सहु तृणज विशेख, अथवा विशेष देशी भाषा छे कह्या नाम ९७. एरंड कुरुकुंद ने करकर बलि रे, कहीव जी ॥ कहिवाय जी । छे आव जी ॥ थुरग शिल्पिक ने सुंकली रे, उसका अनुवाद सप्तपर्ण किया है। *लय : हंसा नदीय किनारे खड़ी रे ३८८ भगवती जोड़ ओषधि । एहनां ॥ सूंठ विभंगु महूरतण ताम जी । ए तृण तथा वणस्सइ नाम जी ।। १. जोड़ के सप्तपर्ण शब्द के सामने अंगसुत्ताणि भाग २ का सर वेस पाठ उद्धृत किया है । पण्णवणा से भी इसी पाठ की पुष्टि होती है। जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में 'सत्तवण्ण' ऐसा पाठ रहा होगा। इस कारण उन्होंने ८८. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ? एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसवा हे सालीगं ८९. नवरं - देवो सव्वत्थ वि न उववज्जति । तिण्णि लेसाओ सव्वत्थ वि छव्वीसं भंगा, सेसं तं चैव । ( श० २१।१७ ) ९०. अह भंते ! उक्खु उक्खुवाडिय-वीरण- इक्कड भमासब-सर-वेत ९१. तिमिर - सतपोरग नलाणं - एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ? एवं जहेब सम्मो तहेब ९२. एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा, नवरं— बंधुद्दे से देवो उववज्जति । ९३. चत्तारि लेस्साओ, सेसं तं चैव । (०२१।१०) ९४. अह भंते ! सेडिय-भंतिय- कोंतिय ९५. दन्म-कु- पग पोइल-अन्जु बासा-रोहियंससुब-बीर-मुस ९७. एरंड-कुरुकुंद करकर-सुंठ- विगु-मरतन पुरणसिप्पिय संकुलितणाणं Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति? एवं एत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहेव वंसवग्गो। (श० २१११९) ९९. अह भंते ! अन्भरुह-वोयाण-हरितग-तंदुलेज्जग तण-वत्थुल-पोरग-मज्जार-पाइ-विल्लि-पालक्क १००. दगपिप्पलिय-दव्वि-सोत्थिक-सायमंडुक्कि-मूलग सरिसव-अंबिलसाग-जियंतगाणं १०१. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ? एवं एत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहेव वंसवग्गो। (श० २११२०) कि ९८. एहनां मूलपणे जीव ऊपजे रे, इम इहां पिण दश उद्देश जी। जिम वंस वर्ग तिम सर्व ही रे, ए षष्ठम वर्ग कहेस जी।। इति षष्ठवर्गः २१।६।५१-६०।। अभ्ररुह आदि जीवों की पच्छा ९९. अथ भगवंतजी ! अज्झोरुह वली रे, वोयाण हरतक तंदुलेज जी। तण वत्थुल पोरक माजार पाई रे, विल्लि पालक वणस्सइ कहेज जी। १००. दकपीपलक दवि सोत्थिक रे, सायमंडुक्कि जाण जी। मूलक सरिसव नैं अंबू वली रे, अंबिलसाग जयंतक माण जी ।। १०१. एहनां मूलपणे जीव ऊपज रे, इहां पिण छै दश उद्देश जी। जिम वंस वर्ग में आखियो रे, तिम कहिवू सर्व अशेष जी ।। इति सप्तमवर्ग: २१७६१-७०।। तुलसी आदि जीवों की पृच्छा १०२. अथ भगवंतजी ! तुलसी कही रे, वलि कृष्ण दराल फणेज जी। अज्जा भूयणा चोरा जीरा दमणा रे, मरुआ इंदीवर सयपुप्फनैज जी।। १०३. एहनां मूलपण जीव ऊपजै रे? इहां पिण उद्देसा दश जोय जी। जिम वंश वर्ग ने आखियो रे, तिम सहु कहिवो अवलोय जी।। इति अष्टमवर्ग: २११८७१-८०॥ १०४. इम एह अष्ट वर्ग में विषे रे, सर्व असी उद्देसा होय जी। इकवीसम शत ए अर्थ थी रे, तेवीसे चैत विद एकम जोय जी।। १०५. कही च्यारसी ने नवमी भली रे, आ तो ढाल रसाल अपार जी। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, सुख संपति 'जय-जश' सार जी ।। एकविंशतितमशते अशोत्युद्देशकार्थः ॥२१११-८०।। गीतक छंद १. इकवीसमें शत प्रगट अर्थ, अछैज बहलपणे करी । फून अर्थ तेहिज लेश थी, वर न्याय करि विधि उच्चरी ।। २. जिम गुल विषे पिण क्षेप गुल नों,भला गुण धारण करै। तिम प्रगट अर्थ विधि करी जे, भंग आदिक उच्चरै ।। १०२. अह भंते ! तुलसी-कण्ह-दराल-फणेज्जा-अज्जा भूयणा-चोरा-जीरा-दमणा- मरुया-इंदीवर-सयपुप्फाणं १०३. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ? एत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहा वसाणं । १०४. एवं एएसु अट्ठसु वग्गेसु असीति उद्दे सगा भवंति। ' (श० २११२१) एकविंशतितमशतं वृत्तित: परिसमाप्तम् । (वृ०प० ८०२) १,२. एकविंशं शतं प्रायो, व्यक्तं तदपि लेशतः । व्याख्यातं सद्गुणाधायी, गुडक्षेपो गुडेऽपि यत् ॥१॥ (वृ०प०८०२) श० २१, वर्ग०६-८, ढा० ४०९ ३८९ Jain Education Intemational ation Intermational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंशतितम शतक Jain Education Intemational Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंशतितम शतक ढाल:४१. दहा १. आख्यो शत इकवीसमो, अथ बावीसम क्रम्य । आदि उद्देशक वर्ग नी, गाथा संग्रह गम्य ।। विषय सूची २. ताल तमाल प्रमुख तरु, मूल आदि दश भेद। पूर्ववत उद्देश दश, प्रथम वर्ग संवेद ॥ ३. एक अस्थि जे फल मझे, नींब अंब जब्वादि । मूल प्रमुख उद्देस दश, द्वितीय वर्ग संवादि । ४. बीज बहु जे फल मझे, अत्थिक तिंदुक जाण । बदर कपित्थादिक तरु, तृतीय वर्ग पहिछाण ।। १. व्याख्यातमेकविंशतितमं शतम्, अथ क्रमायातं द्वाविंशं व्याख्यायते, तस्य चादावेवोद्देशकवर्गसंग्रहायेयं गाथा (वृ० प०८०३) २.१,२. ताल 'ताले' त्ति ताडतमालप्रभृतिवृक्षविशेषविषयोद्देशकदशकात्मकः प्रथमो वर्गः उद्देशकदशकं च मूलकन्दादिविषयभेदात् पूर्ववत् । (वृ०प०८०३,८०४) ३. एगट्ठिय 'एगट्ठिय' त्ति एकमस्थिकं फलमध्ये येषां ते तथा, ते च निम्बाम्रजम्बूकौशाम्बादयस्ते द्वितीये वाच्याः । (व. प०८०४) ४. ३. बहुबीयगा य 'बहुबीयगा य' त्ति बहूनि बीजानि फलानि येषां ते तथा, ते चाथिकतेन्दुकबदरकपित्थादयो वृक्षविशेषास्ते तृतीये वाच्याः। (वृ०प०८०४) ५. ४. गुच्छा य ५. गुम्म 'गुच्छा य' त्ति गुच्छा-वृन्ताकीप्रभृतयस्ते चतुर्थे वाच्याः 'गुम्म' त्ति गुल्माः सिरियकनवमालिका कोरण्टकादयस्ते पञ्चमे वाच्याः (वृ०प०८०४) ६. ६. वल्ली य। 'वल्ली य' त्ति वल्ल्यः पुंफलीकालिङ्गीतुम्बीप्रभृतयस्ताः षष्ठे बर्गे वाच्या (वृ. ५०८०४) ७. छद्दस वग्गा एए, सटुिं पुण होंति उद्देसा ॥१॥ 'छद्दसवग्गा एए' ति षड् दशोद्देशकप्रमाणा वर्गा 'एते' अनन्तरोक्ताः अत एव प्रत्येकं दशोद्देशकप्रमाणत्वात् वर्गाणामिह षष्टिरुद्दे शका भवन्तीति । (वृ०प०८०४) ८. रायगिहे जाव एवं वयासी ५. गुच्छा बैंगन प्रमुख नां, तुर्य वर्ग अवलोय । गुल्म सिरिक नवमालिका, कोरंटकादिक जोय ।। - गुज्छा ६. वल्ली पुंफली तथा, कालिंगी कहिवाय । तूंबी प्रमुख तणों प्रवर, षष्ठम वर्ग सुपाय। ७. इक-इक वर्ग विषे कह्या, वर दश-दश उद्देश । साठ उद्देशक वर्ग षट, शत बावीसम एस । ८. नगर राजगृह नै विषे, जाव वदै इम वाय ।। गोतम वीर प्रतै कर, प्रश्न प्रवर अधिकाय ।। ताल आदि वृक्षों को पृच्छा ___ *गोयम पूछ रे जिनजी वागरे । ९. अथ प्रभु ! ताल तमाल नै तक्कली, . तेतलि ने वलि साल । सरल सारगल्ल जावति केतकी, कदलि कंदलि न्हाल ।। ९. अह भंते ! ताल-तमाल-तक्कलि-तेतलि-साल सरला-सारकल्लाण-जावति-केयइ-कदलि-कंदलि *लय : जिनजी जाण रे ०२२, वर्ग १, ढा. ४१० ३९३ Jain Education Intemational Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. चरम तरु नैं रे, गुंद तरु वली हिंगु रुक्ख वलि हेर। लवंग पूगफल सोपारी कही, खिजूर मैं नालेर ।। ११. एहनां मूलपणे जे ऊपजै, जीव किहां थी रे आय ? दश उद्देशा रे मूलादिक तणां, सालि जेम कहिवाय ।। १२. णवरं एह में रे ए नानापणं, मूल कंद खंध जेह। त्वक शाखा ए पंच उद्देशके, देव नहीं ऊपजेह ।। १३. लेस्या तीनज स्थिति जघन्य थी, अंतर्महर्त्त जाण । उत्कृष्टी दश सहस्र वर्ष तणी, वारू जिनवर वाण ।। १४. ऊपरला जे पंच उद्देशके, सुर ऊपजै चिउं लेश । अंतर्महूर्त जघन्य उत्कृष्ट थी रे, पृथक वर्ष कहेस ।। १०. चम्मरुक्ख-भुयरुक्ख-हिंगुरुक्ख-लवंगरुक्ख -पूयफलि- खजूरि-नालिएरीणं ११. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, ते णं भंते ! जीवा कओहितो उववज्जति ? एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा जहेव सालीणं, १२. नवरं-इमं नाणतं-मूले कंदे खंधे तयाए साले य एएसु पंचसु उद्देसगेसु देवो न उववज्जति । १३. तिण्णि लेसाओ । ठिती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दसवाससहस्साई। १४. उवरिल्लेसु पंचसु उद्देसएसु देवो उववज्जति । चत्तारि लेसाओ। ठिती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं । १५. ओगाहणा मूले कंदे धणुहपुहत्तं, खंधे तयाए साले य गाउयपुहत्तं, १६. पवाले पत्ते धणुहपुहत्तं, पुप्फे हत्थपुहत्तं, फले बीए य अंगुलपुहत्तं । १७. सव्वेसि जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । सेसं जहा सालीणं । एवं एए दस उद्देसगा। (श० २२१) दशक मो वर्ग: २२।१ स्थिक १८. अह भंते ! निबंब-जंबु-कोसंब-साल-अंकोल्ल पीलु-सेलु-सल्लइ-मोयइ-मालुय१९. बउल- पलास- करंज- पुत्तजीवग- अरिद-विहेलग हरितग-भल्लाय२०. उंबभरिय- खीरणि-धायइ-पियाल-पूइयणिबारग सेण्हय-पासिय-सीसव-असण १५. हिव अवगाहन मूल रु कंद नीं, पृथक धनुष्य विचार। खंध त्वचा में रे शाखा नी कही, गाऊ पृथक धार । १६. पृथक धनुष्य प्रवाल रु पत्र नीं, पुष्पे पृथकज हाथ ।। फल अरु बीज तणी अवगाहना, पृथक आंगुल ख्यात ।। १७. एह सर्व नी जघन्य आंगुल तणो, असंख्यातमों रे भाग। शेष सालि जिम इम ए आखिया, दश उद्देशक माग ।। इति प्रथमवर्गः २२।१।१-१०।। नीम आदि एकास्थिक वृक्षों की पृच्छा १८. अथ प्रभु ! नींब अंब जंबू वली, कोशंब साल पिछाण । अंकोल्ल पीलु सेलु सल्लकी, मोदकि मालुय जाण ।। १९. वकुल पलास करंज तरु वली, पुत्रंजीवग रिष्ट । वलि बहेडा रे तरु हरडै तणों, फुन अल्लाय उदिष्ट ।। २०. उंबभरिय रे खिरणी, धायइ पियाल पूइय' नाम । निबारग' सण्हय पासिय वनस्पति, सीसव अयसी' रे ताम ।। २१. तर पुण्णाग नाग सीवण वली, अशोक तरु अवधार। एहनां मूलपणे जीव ऊपज, इत्यादिक सूविचार ।। २२. मूलादिक नां रे दश उद्देशगा, इम सहु करिवा रे सोय । ताल वर्ग जिम कहिवो एहनें, द्वितीय वर्ग ए जोय॥ ___ इति द्वितीयवर्गः २२।२।११-२०॥ अस्थिक आदि बहुबोजा वृक्षों को पृच्छा २३. अथ प्रभु! अस्थिक तिंदुक तरु वली, बोर कपित्थ कहाय। अंबाडग बीजोरो बिल्ल वली, आमलग फणस रु ताय ।। १,२. अंगसुत्ताणि भाग २ में पूइयनिबारग एक शब्द है। पन्नवणा में दो शब्द __ रखे गए हैं। ३. भगवती के सभी आदर्शों में यहां अयसी पाठ है। पर प्रकरण की दृष्टि से यहां असण होना चाहिए। पण्णवणा के आधार पर अंगसुत्ताणि भाग २ में असण पाठ लिया है। इसलिए यहां उसी को उद्धृत किया गया है। २१. पुण्णाग-नागरुक्ख-सीवण्णि-असोगाणं-एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति? २२. एवं मूलादीया दस उद्दे सगा कायव्वा निरवसेसं जहा तालवग्गो। (श० २२१२) २३. अह भंते ! अस्थिय-तिदुय-बोर-कविट्ठ-अंबाडग माउलिंग-बिल्ल-आमलग-फणस ३९४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. दाडिम- आसोत्थ- उंबर- वड- नग्गोह-नंदिरुक्ख पिप्पलि-सतरि-पिलक्खुरुक्ख २५. काउंबरिय- कुत्थंभरिय- देवदालि-तिलग- लउय-- छत्तोह-सिरीस-सत्तिवण्ण २६. दहिवण्ण- लोद्ध-धव- चंदण- अज्जुण-नीम-कुडग कलंबाणं-एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, २७. ते णं भंते ! जीवा कओहितो उववज्जति ? एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा नेयव्वा जाव बीयं । (श० २२॥३) २८. अह भंते ! बाइंगणि-अल्लइ-पोडंइ, एवं जहा पण्णवणाए (प. ११३६) गाहाणुसारेणं नेयव्वं २९. जाव गंज-पाडला-दासि-अकोल्लाणं-एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ? ३०. एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा नेयव्वा जाव बीयं ति निरवसेसं जहा वंसवग्गो। (श० २२।४) २४. दाडिम तरु आसोद्य उंबर वली, वड निग्रोध विशेख । नंदी पीपल नैं सतरि तरु, पिलखू रूंख उवेख ।। २५. काउंबरि नै रे कुछंभरि तरु, देवदारू तरु देख । तिलक लउय छत्रोह सिरीस जे, सप्तपर्ण सुविशेख ।। २६. दधिपर्ण नै रे लोध्र तरु धव, चंदन अर्जुन जेह । नीप कुडग तरु कलंब वनस्पति, एहनां मूलपणेह ।। २७. ते प्रभु! जीव किहां थी ऊपज, मूलादिक नां रे एथ? दश उद्देसक ताल वर्ग जिसा, जाव बीज लग जेथ ।। इति तृतीयवर्गः २२।३।२१-३०॥ बैंगन आदि गुच्छ वर्ग को पृच्छा २८. अथ प्रभु ! बैंगण अल्लई पोंडइ, इम जिम पन्नवण मांहि। धुर पद गाथा रे अनुसारे करी, नाम जाणवू रे ताहि ।। २६. जाव गंज पाडल अथवा वलो, दासि वणस्सइ विशेख । अंकोल्ल एहनां रे मूलपणे जिके, उपजै जीव उवेख ।। ३०. इम इहां पिण मूलादिक तणां, दश उद्देशक ताय । जाव बीज लग कहिवा सर्व ही, वंश वर्ग जिम पाय ॥ इति चतुर्थवर्गः २२।४।३१-४०॥ सेडियक आदि गुल्म वर्ग को पृच्छा ३१. अथ प्रभु ! सेडियक ने नवमालिय, कोरंटक बंधुजीव । मणोज इत्यादि रे पन्नवण धुर पदे, गाहा अनुसार कहीव ॥ ३२. यावत नवनीतिय कुंद महाजाई, एहनां मूलपणेह । ____ जीव किहां थी रे आवी ऊपजै ? पूछ गोयम जेह ।। ३३. एम इहां पिण मूलादिक तणां, दश उद्देसक जाण । कहिवा साल तणी पर सर्व ही, पंचम वर्ग पिछाण ।। ___ इति पंचमवर्गः २२।५।४१-५०॥ पूष्यफली आदि वल्लिवर्ग की पृच्छा ३४. अथ प्रभु ! पूसफली नै कालिंगी, तुंबी तउसी संवेद । एलावालुंकी वलि जाणवी, इम करिवा पद छेद ।। ३५. पन्नवण गाथा रे अनुसारे करी, ताल वर्ग जिम एह। जाव दधि फोल्लेइ काकलि मोकलि, वलि अर्कबोंदी कहेह ।। ३६. एहनां मूलपणे जे जीवड़ा, किहां थकी ऊपजेह । मूलादिक नां रे दश उद्दे सगा, ताल वर्ग जिम एह ॥ ३७. णवरं फल उद्देस ओगाहणा, जघन्य थकी इम इष्ट । असंख्यातमो रे भाग आंगुल तणों, पृथक धनु उत्कृष्ट । ३१. अह भंते ! सेरियक-नवमालिय-कोरेंटग-बंधुजीवग मणोज्जा, जहा पण्णवणाए पढमपदे (प. ११३८) गाहाणुसारेणं ३२. जाव नवणीतिय-कुंद-महाजाईणं-एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ? ३३. एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा निरवसेसं जहा सालीणं। (श० २२।५) ३४. अह भंते ! पूसफलि-कालिंगी-तुंबी-तउसी-एलावा लुंकी, एवं पदाणि छिदियवाणि ३५. पण्णवणागाहाणुसारेणं जहा तालवग्गे (प. १०४०) जाव दधिफोल्लइ-काकलि-मोकलि-अक्कबोंदीणं ३६. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति? एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा जहा तालवग्गो, ३७. नवरं-फलउद्देसे ओगाणाए जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं धणुपुहत्तं । श० २२, वर्ग ३-६, ढा० ४१० ३९५ Jain Education Intemational Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. ठिती सव्वत्थ जहणणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वास पुहत्तं, सेसं तं चेव । ३९. एवं छसु वि वग्गेसु स४ि उद्देसगा भवंति । (श० २२१६) ३८. सर्व विषे स्थिति जघन्य थकी कही, अंतर्महुर्त जान । उत्कृष्टी स्थिति पृथक वर्ष नीं, शेष तिमज पहिछान । ३९. इम षट वर्ग विषे एह आखिया, साठ उद्देसा रे सार ।। इक-इक वर्गे रे दश उद्देसगा, तिणसूं साठ विचार ।। इति षष्ठवर्गः २२।६।५१-६०॥ ४०. आखी ढाल च्यारसौ ऊपरै, दशमी जिन वच सार । भिक्षु भारोमाल ऋषिराय प्रसाद थी, 'जय-जश' हरष अपार ।। गीतक छंद १. द्वावीसमें शत प्रगट अर्थज, तेह सुगमज भावता । किणहीक स्थाने अति गंभीरज, सुखे ग्राह्य न आवता ।। २. इम प्रगट अर्थ गंभीर अतिही, बिहूं मैं भावे करी। विस्तरपणे न कह्या तसु, संक्षेप थी रचना धरी ।। द्वाविंशतितमशते षष्टयुद्देशकार्थः २२।१-६०॥ १,२. द्वाविंशं तु शतं व्यक्तं, गम्भीरं च कथञ्चन । व्यक्तगम्भीरभावाभ्यामिह वृत्तिः करोतु किम् ?॥१॥ (वृ० प० ८०४) ३९६ भगवती जोड़ Jain Education Interational Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशतितम शतक Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशतितम शतक ढाल : ४११ १. व्याख्यातं द्वाविंशं शतम्, अथावसरायातं त्रयोविशं शतमारभ्यते, (वृ० प.८०४) २. नमो सुयदेवयाए भगवईए। (वृ०प० ८०४) शा दूहा १. ए बावीसम शत कह्य, अथ अवसर आयात । कहियै शत तेवीसमुं, अर्थ थकी अवदात ।। २. नमस्कार थावो प्रवर, श्रुत देवी सुखकार' । ज्ञानवती ए भगवती, जिन वाणी जयकार ।। ३. शत तेवीसम आदि हिव, वर उद्देस उदार । सखर वर्ग संग्रह अर्थ, कहियै गाथा सार ।। विषय सूची ४. आलुक मूलक आदि जे, साधारण तनु भेद । दश उद्देशक रूप जे, प्रथम वर्ग संवेद ।। ३. अस्य चादावेवोद्देशकवर्गसंग्रहायेयं गाथा (वृ० १०८०४) ५. अनंतकाय लोही प्रमुख, द्वितीय वर्ग अवधार । अनंतकाय अवकादि जे, तृतीय वर्ग अधिकार ।। ६. पाठा प्रमुखज वनस्पति, तूर्य वर्ग अभिधान । माष मूंगफली प्रमुख वल्लि, पंचम वर्ग पिछान ।। ४. १. आलुय 'आलुय' त्ति आलुकमूलकादिसाधारणशरीरवनस्पतिभेदविषयोद्देशकदशकात्मकः प्रथमो वर्गः, (वृ०प० ८०५) ५.२. लोही ३. अवए, 'लोही' ति लोहीप्रभूत्यनन्तकायिकविषयो द्वितीयः 'अवई' त्ति अवककवकप्रभूत्यनन्तकायिकभेदविषयस्तृतीयः (वृ० प०८०५) ६. ४. पाढा तह ५. मासवण्णि-वल्ली य। 'पाढ' त्ति पाठामृगवालुङ्कीमधुररसादिवनस्पतिभेदविषयश्चतुर्थः 'मासवन्नीमुग्गवन्नी य' ति माषपर्णीमुद्गपर्णीप्रभूतिवल्लीविशेषविषयः पञ्चमः तन्नामक एवेति, . (वृ०प०८०५) ७. पंचेते दसवग्गा, पन्नासं होंति उद्देसा ॥१॥ पञ्चैतेऽनन्तरोक्ता दशोद्देशकप्रमाणा वर्गा दशवर्गाः यत एवमतः पञ्चाशदुद्देशका भवन्तीह शत इति । (वृ० प० ८०५) ८. रायगिहे जाव एवं वयासी--- ७. पांच वर्ग ए परवरा, इक-इक वर्ग विषेह । दश-दश उद्देसा हुवै, इम पच्चास कहेह ।। ९. अह भंते ! आलुय- मूलग- सिंगबेर-हलिद्दा-हरु कंडरिय-जारु-छीरबिरालि-किट्ठि-कंदु-कण्हाकडभु ८. प्रथम वर्ग प्रारंभिय, नगर राजगृह माय । यावत गोतम वीर प्रति, वदै विनय करि वाय ।। आलू आदि को पृच्छा *शत तेवीसम अर्थ अनोपम ।। (ध्रुपदं) ९. अथ प्रभु ! आलुय मूलो आदो, "हालिद रूरक वणस्सइ विशेष । कंडरिय जारू नैं क्षीर विराली, किट्टि कुंदु कण्हकडभू सुविशेष ।। १. टीकाकार अभयदेवसूरि को प्राप्त आदर्श में 'णमो सुयदेवयाए' पाठ था। उन्होंने अपनी टीका में उसे उद्धृत किया है। जयाचार्य ने संभवतः टीका के आधार पर यह जोड़ की है। अंगसुत्ताणि भाग २ में न तो उक्त पाठ मूल में रखा है और न पाठांतर में ही इस सम्बन्ध में कोई संकेत दिया गया है।' *लय : घोडी री अथवा मेघकुंवर हाथी रा भव में श० २३, वर्ग १, ढा० ४११ ३९९ Jain Education Intemational Al Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. सुमधुपुयलकी नै मधुसिंगि, णिरूहा सप्तसुगंधा जाणी। छिन्नरुहा नैं बीजरुहा फुन, एहनां मूलपणे उपजे जीव आणी।। ११. दश उद्देशक मूलादिक नां, करिवा है वंश वर्ग जिम एह। णवरं विशेष एतलो कहिये, परिमाणद्वार विषे इम लेह ।। १२. जघन्य एक बे तीन ऊपजै, उत्कृष्ट संख असंख अनंत । हिव अपहार ते मांहि थकी जे, काढवा तास कहं विरतंत ।। १०. मधु-पुयलइ-महुसिंगि-निरुहा-सप्पसुगंधा-छिण्णरुह बीयरुहाणं- एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्क मंति? ११. एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा वंस वग्गसरिसा, नवरं-परिमाणं १२. जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति । अवहारो१३. गोयमा ! ते णं अणता समये-समये अवहीरमाणा अवहीरमाणा अणंताहिं ओसप्पिणीहिं उस्सप्पिणीहिं एवतिकालेणं अवहीरंति, १४. नो चेव णं अवहिया सिया। ठिती जहण्णेणं वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं, सेसं तं चेव। (श० २३३१) १३. समय-समय ते जीव अनंता, अपहरतां-अपहरतां उच्चरिये । अनंती अव-उत्सप्पिणी करिक, एतले काल करी अपहरियै ।। १४. तो पिण निश्चै करी ते जीवा, कदाचित अपहरिया न जाय । अंतर्मुहूर्त स्थिति जघन्योत्कृष्टे, शेष विस्तार तिमज कहिवाय ।। इति प्रथमवर्गः: २३।१।१-१०॥ लोही आदि की पृच्छा १५. अथ प्रभु ! लोही णीहू थीहू थिभगा, अश्वकर्णी सीहकर्णी कहाय । सीउंढी मूसंढी एह तणे जे, मूलपणे जीव ऊपजै आय ।। १६. आलु वर्ग जिम दश उद्देसक, कहिवा इहां पिण णवरं विशेख । अवगाहना ताल वर्ग सरिखी, शेष तिमज सेवं भंते ! संपेख ।। इति द्वितीयवर्ग: २३।२।११-२०॥ आय आदि की पृच्छा १७. अथ भगवंत! आय काय कहण कंदुरुक्क, . उव्वेहलिक सफा तेह । सज्जा छत्ता वंसाणिक कुरा मैं, मूलपणे किहां थी उपजेह ? १८. एम इहां पिण मूलादिक नां, दश उद्देस समस्तपणेह। आलु वर्ग नां कह्या तिम कहिवा, सेवं भंते ! सेवं भंते! लेह ।। - इति तृतीयवर्गः २३।३।२१-३०।। पाढा आदि की पृच्छा १९. अथ प्रभु! पाढा मृगवालंकी, मधुररसा रायवल्ली कहेह। पदमा मोढरि दंति चंडी, एहनां मूलपणे किहां थी ऊपजेह? १५. अह भंते ! लोही-णीहू-थीहू-थिभगा-अस्सकण्णी सीहकण्णी-सिउंढी-मुसुंढीणं-एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति? १६. एवं एत्थ वि दस उद्देसगा जहेव आलुवग्गो, नवरंओगाहणा तालवग्गसरिसा, सेसं तं चेव । (श० २३१२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श० २३॥३) १७. अह भंते ! आय-काय-कुहुण-कुरुक्क-उव्वेहलिया सफा-सज्जा-छत्ता-वंसाणिय-कुराणं-एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ? १८. एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा निरवसेसं जहा आलुवग्गो, नवरं-ओगाहणा तालवग्गसरिसा, सेसं तंचेव। (श० २३॥४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० २३१५) २०. मूलादिक नां दश उद्देशक, आलू वर्ग सरीखा अवधार । णवरं ओगाहणा वेल तणी पर, शेष तिमज सेवं भंते ! सार ।। १९. अह भंते ! पाढा-मियवालंकि-मधुररसा-रायवल्लि पउमा-मोढरि-दंति-चंडीणं-एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति? २०. एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा आलुयवग्ग सरिसा, नवरं-ओगाहणा जहा वल्लीणं, सेसं तं चेव। (श० २३॥६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० २३७) इति चतुर्थवर्ग: २३।४।३१-४०।। ४०. भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासपर्णी की पृच्छा २१. अथ भगवंतजी ! मासपण्णी – जे मृगपण्णी जीवग जाण । सरिसव करेणुय काओली खीरकाओलि भंगि णहि माण ॥ २२. कृमिरासि नै भद्दमुत्थ फुन, जंगलिक पयुय कृष्णा तेह । पउल हड हरेणुक लोही, एहनां मूलपणे किहां थी ऊपजेह ? २३. एम इहां पिण दश उद्देशा, समस्तपणे करिनै सुविचार । आलुक वर्ग सरीखा कहिवा, ए पंचम वर्ग नों अर्थ उदार।। इति पंचमवर्गः २३।२४१-५०॥ २४. इक-इक वर्ग में दश उद्देसा, पंच वर्ग में पचास उद्देस । सर्वत्र देव तणों न ऊपजवो, तीन लेश्या सेवं भंते ! जिनेश ।। २१. अह भंते ! मासपण्णी-मुग्गपण्णी-जीवग-सरिसव करेणुय-काओलि-खीरकाकोलि-भंगि-णहि२२. किमिरासि-भद्दमुत्थ-णंगलइ-पयुय-किण्हा-पउल-हढ हरेणुया-लोहीणं-एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति? २३. एवं एत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं आलुयवग्ग सरिसा। २४. एवं एत्थ पंचसु वि वग्गेसु पन्नासं उद्देसगा भाणि यव्वा । सव्वत्थ देवा न उववज्जति । तिण्णि लेसाओ। (श० २३८) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० २३६९) २५. उगणीसे तेवीसे चेत विद सातम, च्यारसौ नैं एकादशमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, __ 'जय-जश' संपति हरष विशाल ।। गीतक छंद १.त्रिण वीसमो शत अर्थ थी, बावीसमा शत नीं पर। बिहुं शतक नां बाहुलपणे, समरूप विधि सेती वरै ।। २. जे विषे किंचित फेर छै, ते भणी शतक जुदो कह्य। गणधरे रचना जे रची, ते गुण सहित गुणिजन लह्य । त्रयोविंशतितमशते पञ्चाशत् उद्देशकार्थः ।।२३।१-५०।। १. प्राक्तनशतवन्नेयं, त्रयोविशं शतं यतः । प्रायः समं तयो रूपं, व्याख्याऽतोऽत्रापि निष्फला||१|| (वृ० प० ८०५) श०२३, वर्ग ५, ढा०४११ ४०१ Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६:३-७३ शतक १७ : ७७-१०८ शतक १८ : १११-२०१ शतक १९ : २०५-२३९ शतक २०:२४३-३७६ शतक २१ : ३७९-३८९ शतक २२ : ३९३-३९६ शतक २३ : ३९९-४०१ Jain Education Intemational Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापुरुष जयाचार्य छोटा कद, छरहरा बदन, छोटे-छोटे हाथ-पांव, श्यामवर्ण दीप्त ललाट, ओजस्वी चेहरा- यह था जयाचार्य का बाहरी व्यक्तित्व। अप्रकंप संकल्प, सुदृढ़ निश्चय, प्रज्ञा के आलोक से आलोकित अंतःकरण, महामनस्वी, कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति, इष्ट के प्रति सर्वात्मना समर्पित, स्वयं अनुशासित, अनुशासन के सजग प्रहरी, संघ व्यवस्था में निपुण, प्रबल तर्कबल और मनोबल से संपन्न, सरस्वती के वरदपुत्र, ध्यान के सूक्ष्म रहस्यों के मर्मज्ञ- यह था उनका आंतरिक व्यक्तित्व। तेरापंथ धर्मसंघ के आद्यप्रवर्तक, आचार्य भिक्षु के वे अनन्य भक्त और उनके कुशल भाष्यकार थे। उनकी ग्रहण-शक्ति और मेघा बहुत प्रबल थी। उन्होंने तेरापंथ की व्यवस्थाओं में परिवर्तन किया और धर्मसंघ को नया रूप देकर उसे दीर्घायु बना दिया। उन्होंने राजस्थानी भाषा में साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण साहित्य लिखा। साहित्य की अनेक विधाओं में उनकी लेखनी चली। उन्होंने भगवती जैसे महान् आगम ग्रंथ का राजस्थानी. भाषा में पद्यमय अनुवाद प्रस्तुत किया। उसमें ५०१ गीतिका है। उसका गंथमान हैसाठ हजार पद्य प्रमाण। ० जन्म-१८६० रोयट (पाली मारवाड़) ० दीक्षा-१८६९ जयपुर ० युवाचार्य पद - १८९४ नाथद्वारा ० आचार्य पद- १९०८ बीदासर ० स्वर्गवास - १९३८ जयपुर Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Thungananamaasmaanार्यकaniliulasathanGaabeaamaaमEिRaमिकाकीसेमो समयसकरितीनोममररामग मानार-मalamमामीezalaaeeसामयिनीतिरिवामिपिसदनिकरिशमीमीरकनवरीमागमी २कनीकी जयकाकयाnिumeenaमादा wilmshainii मीmitaaleyaवलीकोनोमसोमकीजाकरे यदिवदेनगवेकजी गोलापुलवामारमादिमानवानर कानकादिमा-दिवलीनीपोमियोकरयकरमादिकनातागोलायसनकादिवाय- मस-2महिमोटीaaaaएमकमलकमक्षelRL MORE मनायायक-माधवलसन्योजीकपीजीमाकपपरेकपोजी-बारावरदेव सिमा भिटीनए-पुवनगुनारदीवानसनाप्रदिपामारदानानटOR याविनमन-नागपुस्मयामीणनflauऊपनोजी हिमपनिमाराससटीत-कासकरीकालचस्मरेनषताएकरसागरयामपजनकपमा RAकरनाmanीआर-मीरीजपिएसमाजीएमसीहार मेजमगनमकटकपटमलतगवतमहावीरजीदागरेकविविवागमो कपानालागायुकपनाकाविम 70 वियरेबार-बारकसनजी व सोमलिकतारीमानकविण्यमोजेसमय सोबरे वानरकाटिमीकही निदसमममे जोयरे मारककटियानी मानसमास्यविनmountalabमारोजीनी एकारणलोपारिकिमकदियनारकपणे निरपध्यवनजोसमी२अतुबमनामकाऊपत्र ििधकार-सादेशकविलनियनमरेवियर लिएकाnिeuna- a nामदातरेकश्यितेकरमाकियानिष्टशकारविरोधी पनवालान MS- याजी शिकसविनोम mamaहिंसरसमयका समय नियममयक्रपनी नेदरविष्टशकालनसम25क कियानिटानागनाममय जी-जानपदारमingजी-रदिनवनीकरीयोमानामजीमीयममारेकोमविजिनगरेसमाएकपनोरयाएaaaaसानिमाकोर सीमाकपने गमकदा मराangी-मागसदियविसर्थ समाज मागवा रजोजेपरवदनों बनवासस्नगदीएवी आकाकरे नेवनी कायालयाने अर्थविल मनीती मनुस्मनुमशिनपदमादिमिवासनेवारीबीजागवेद वागविधिसरकप कहे-नने-समय गोलायुसादिक यमोनारकीनी एकारण नारकीयलकिमक विकटेपदीगो निदानागमनमामि तयावसानिमेयर विदनादिक करी 3 दिवाविवानियतवनकदेवमाणसगवतश्रीमहावीरस्वामीइमकवानरादिकनारकीय विam. मिमाविककारिजीयो नामसीजनमेष-वादिसनकारीयोवलिसनमामी मनावरकपनानदिय कियाकान-सनिष्टकालनिकमायनेदचीतपमाना relasavaना जागवलरनेट रिमाशिकीमादिक करिसोम कयोमम्फले मादकपमाकदीजिएससानसमसमानरमी नरकमामापदिलोसमयकपजवानगी की सलामतीय सरसेवक नेवनी देवसविडिलमारपूनिवादिकसुरनिकर काभकाचबिंदेवएकिधाकाततेजसमयकपनीएनिटाकालाकियाकालनिष्टाकाली समयको ave मांगविश्वामले कपोजगमन जिनकदेवनागोयमा समरको बानमोय कियाकालनासमय दिनसमयनिष्टशकालनौशाध्यायविकासमाधतेवकीकपनमाला यविनियामकीनीकदमीमतवभिनळदेवामीनिक जागकरेका समय दिनकपनौकदियरसीदवारादिवडेश्वजिमयसणिणसाश्सारमनकामनाया मBिRamaAsमनीषोमवारीमलिपि पत्र मनिकीकरिया पारावारोम रहीमनीपरै जावाजा पानाna कपनाका दियपिमलत hammae(मन्दासमकशिनिदिनरी मलिनोविज्ञानगी-सुरश्माईका दिनदेनमरनजीक करतोयलकाकमोनीयोरदियो पनि जानसमेतपत्रिका दैवतापवयोवरमान जालिटिना मेसनेसविशेष यानगोमयाविनाशकारम-सुरेश शेयमानमामी-जाम्ची मान वनिकालागसमानामानासमयमोटापारम्पतिमा सना folकाइयाsilenकनिदानविsamiमनुनादेमसामगवनानिmaaौरवगण P aaमचानागरुजकत्सक्दासमयशिक रमामउमटकानयनतनाजावयानमतिनतान्याची सर्वतिरदायकत्रकाबरायवनपासीनी मममयकारायला कायनमसाग- विवीकाधिकादिरदेश करतोमरीनाशिमादिरसराMapमयनीनादिवियरमाकमिटीनतिनमादिरामनामदाममयाम naulomaमराविसंबधिनीनयनांप्रमBAR4uE2AमययमादापकनाजालदासीBRRIAqामसवनीनीकीलिमा निकादिरसमस launacanaanaaiक-शिकसवकारतजगाया किया बदिनलिमवियदकरितादिश्वनस्पतियोganeruda६मानांना काय। 394-30MBManमय TARA भिमाsamaashaaRagwaas a ntanarishakkadilaunciaRERAN S matsARCISERVEDANGARASIRRB-mahara जायसवनी यारानांतर Sar aswatanABRनाकार 160048086818ROयसमयमा Namunanaममयसापल्या (मायामामonaजपसमयमा HuaarimaalANDER20RRsanloeीमा मनाली मम कायम कामरकरिकर DESERaकमBAIRaniRIBanान-09 कामगर मयाराका पन्यासमयका लएRE Parasanna takaran सस भय समय शाम्रा Ramaas40-मममMBAIमनायल 419ीगायकमाएest 220 20maiमरीश्वरजामकाज विनि Aaitadiaaलरम्यान RanPRADPAREERBimil Eglindamanna-BIRRAahes दामम4gDALLAIBARE wamiAaनादि34-28 कनकममयमासकरमय (Hanlesa nanारमय ranARORARAMBIRBARELiminaundsRDI micmरना वामनरल मामलामासमय 1yaf adAsareewaRRiaNPAसमय Fo undations SATARREARNसमयका Manishaadमय गमकामना। (MARISAROBAASK RumHnid lained सभ64एससमयसम्म 25 समय कालीकटा मममम 129423018मर रaasa (amalरकारी/ARasPMER साविक नलिनमदारकी नियनिकहना KARमबमसमयमशघसरममय ममदामकरकिरang aमिनसहित मनायटिससममितीनदायरे Bants ISRAEमनुम/18/araniPIRE प्रयोnanielaiDialising lannit206ARAMापलायम || कुमकमा करविनीबारेतरूदेशाबाहो मायापूर्वववनानमा Jain Education Interational For Private & Personal use only