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________________ ९८. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति? एवं एत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहेव वंसवग्गो। (श० २१११९) ९९. अह भंते ! अन्भरुह-वोयाण-हरितग-तंदुलेज्जग तण-वत्थुल-पोरग-मज्जार-पाइ-विल्लि-पालक्क १००. दगपिप्पलिय-दव्वि-सोत्थिक-सायमंडुक्कि-मूलग सरिसव-अंबिलसाग-जियंतगाणं १०१. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ? एवं एत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहेव वंसवग्गो। (श० २११२०) कि ९८. एहनां मूलपणे जीव ऊपजे रे, इम इहां पिण दश उद्देश जी। जिम वंस वर्ग तिम सर्व ही रे, ए षष्ठम वर्ग कहेस जी।। इति षष्ठवर्गः २१।६।५१-६०।। अभ्ररुह आदि जीवों की पच्छा ९९. अथ भगवंतजी ! अज्झोरुह वली रे, वोयाण हरतक तंदुलेज जी। तण वत्थुल पोरक माजार पाई रे, विल्लि पालक वणस्सइ कहेज जी। १००. दकपीपलक दवि सोत्थिक रे, सायमंडुक्कि जाण जी। मूलक सरिसव नैं अंबू वली रे, अंबिलसाग जयंतक माण जी ।। १०१. एहनां मूलपणे जीव ऊपज रे, इहां पिण छै दश उद्देश जी। जिम वंस वर्ग में आखियो रे, तिम कहिवू सर्व अशेष जी ।। इति सप्तमवर्ग: २१७६१-७०।। तुलसी आदि जीवों की पृच्छा १०२. अथ भगवंतजी ! तुलसी कही रे, वलि कृष्ण दराल फणेज जी। अज्जा भूयणा चोरा जीरा दमणा रे, मरुआ इंदीवर सयपुप्फनैज जी।। १०३. एहनां मूलपण जीव ऊपजै रे? इहां पिण उद्देसा दश जोय जी। जिम वंश वर्ग ने आखियो रे, तिम सहु कहिवो अवलोय जी।। इति अष्टमवर्ग: २११८७१-८०॥ १०४. इम एह अष्ट वर्ग में विषे रे, सर्व असी उद्देसा होय जी। इकवीसम शत ए अर्थ थी रे, तेवीसे चैत विद एकम जोय जी।। १०५. कही च्यारसी ने नवमी भली रे, आ तो ढाल रसाल अपार जी। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, सुख संपति 'जय-जश' सार जी ।। एकविंशतितमशते अशोत्युद्देशकार्थः ॥२१११-८०।। गीतक छंद १. इकवीसमें शत प्रगट अर्थ, अछैज बहलपणे करी । फून अर्थ तेहिज लेश थी, वर न्याय करि विधि उच्चरी ।। २. जिम गुल विषे पिण क्षेप गुल नों,भला गुण धारण करै। तिम प्रगट अर्थ विधि करी जे, भंग आदिक उच्चरै ।। १०२. अह भंते ! तुलसी-कण्ह-दराल-फणेज्जा-अज्जा भूयणा-चोरा-जीरा-दमणा- मरुया-इंदीवर-सयपुप्फाणं १०३. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ? एत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहा वसाणं । १०४. एवं एएसु अट्ठसु वग्गेसु असीति उद्दे सगा भवंति। ' (श० २११२१) एकविंशतितमशतं वृत्तित: परिसमाप्तम् । (वृ०प० ८०२) १,२. एकविंशं शतं प्रायो, व्यक्तं तदपि लेशतः । व्याख्यातं सद्गुणाधायी, गुडक्षेपो गुडेऽपि यत् ॥१॥ (वृ०प०८०२) श० २१, वर्ग०६-८, ढा० ४०९ ३८९ Jain Education Intemational ation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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