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________________ एहना मूलपणे जे जीवड़ा रे, किहां पकी अपने आप जी ? मूल आदि उद्देसा दश इहां रे, जिम सालि नो तिम कहिवाय जी ।। ८९. णवरं सुर सघलै नहि ऊपजे रे, तीन लेश्या तणां सर्व स्थान जी । भंग छवीस शेष तिमज सह रे, ए वर्ग चतुर्थी जान जी ॥ इति चतुर्थ वर्ग : २१।४।३१-४०।। इक्षु आदि जीवों की पुच्छा ९०. अथ भगवंत जी ! इक्षु वली रे, इक्षुवाडिक वीरण ताम जी । ईकड भमास सुंब वनस्पति सप्तवर्ण' वनस्पति नाम जी ॥ ९१. तिमिर शतपोरग नल वणस्सइ रे, प्रभु ! किहां थकी आवी ऊपजै रे ? एह वंस वर्ग जिम ९२. इहां पिण मूल आदि देई करी रे, उद्देसा दश णवरं बंध उद्देशाने विषे रे देवता ऊपजे ९३ तिणसूं बंध उद्देसा ने विषे रे, तेह्नां मूलपणे जे जीव जी च्यार लेस्या परूपी स्वाम जी । शेष तिमहिज कहियो सर्व ही रे, ए पंचम वर्ग सुपाम जी ।। इति पंचम वर्ग : २११५२४१-५०।। सेडिक आदि जीवों की पृच्छा ९४. अथ भगवंत जी ! सेडिक तिको रे, अथवा ओषधि तणों विशेष है रे, ९५. दर्भ कुश पव्वक वली रे, आषाढक ने रोहितंस सुयव ए तृण विशेष कहाय जी । इस मंतिक कुंतिक ताय जी ॥ पोदइल नें अर्जुन जाण जी । रे, वखोर अनें भुस माण जी ॥ सोरठा ९६. ए सहु तृणज विशेख, अथवा विशेष देशी भाषा छे कह्या नाम ९७. एरंड कुरुकुंद ने करकर बलि रे, कहीव जी ॥ कहिवाय जी । छे आव जी ॥ Jain Education International थुरग शिल्पिक ने सुंकली रे, उसका अनुवाद सप्तपर्ण किया है। *लय : हंसा नदीय किनारे खड़ी रे ३८८ भगवती जोड़ ओषधि । एहनां ॥ सूंठ विभंगु महूरतण ताम जी । ए तृण तथा वणस्सइ नाम जी ।। १. जोड़ के सप्तपर्ण शब्द के सामने अंगसुत्ताणि भाग २ का सर वेस पाठ उद्धृत किया है । पण्णवणा से भी इसी पाठ की पुष्टि होती है। जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में 'सत्तवण्ण' ऐसा पाठ रहा होगा। इस कारण उन्होंने ८८. एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ? एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसवा हे सालीगं ८९. नवरं - देवो सव्वत्थ वि न उववज्जति । तिण्णि लेसाओ सव्वत्थ वि छव्वीसं भंगा, सेसं तं चैव । ( श० २१।१७ ) ९०. अह भंते ! उक्खु उक्खुवाडिय-वीरण- इक्कड भमासब-सर-वेत ९१. तिमिर - सतपोरग नलाणं - एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ? एवं जहेब सम्मो तहेब ९२. एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा, नवरं— बंधुद्दे से देवो उववज्जति । ९३. चत्तारि लेस्साओ, सेसं तं चैव । (०२१।१०) ९४. अह भंते ! सेडिय-भंतिय- कोंतिय ९५. दन्म-कु- पग पोइल-अन्जु बासा-रोहियंससुब-बीर-मुस ९७. एरंड-कुरुकुंद करकर-सुंठ- विगु-मरतन पुरणसिप्पिय संकुलितणाणं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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