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१०९. त्रिण सय अडसठमी सही रे, आखी ढाल उदार ! भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी,
__'जय-जश' हरष अपार ।। सप्तदशशते सप्तदशोदवेशकार्थः ।।१७।१७।।
गीतक छंद १. सिंह स्वप्न भिक्षु जनमिया जग थया सार्दुल सारिखा ।
पट दीर्घमाल सुभद्र गिरवा प्रगट गुणिजन पारिखा ।। २. गुणवंत तृतीय पट नृपेंदु तेहनां सुप्रसाद थी।
शत सतरमा नी जोड़, रचना रची चित्त समाध थी।।
१०८ भगवती जोड़
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