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________________ ८९. णवरं ऊपजवा विषे फुन, स्थिति नीकलवा मांय । पन्नवण विषे कह्यो तिम कहिवो, शेष तं चेव कहाय ।। ८९. नवरं-उववाओ ठिती उव्वट्टणा य जहा पण्णवणाए सेसं तं चेव । सोरठा ९०. तेषामुपपातस्तिर्यग्मनुष्येभ्य एव स्थितिस्तूत्कृष्टाहोरात्रत्रयं । (वृ०प०७६४) ९१. तत उदृत्तास्तु ते तिर्यक्ष्वेवोत्पद्यन्ते, (वृ० प०७६४) ९०. मनुष्य तिथंच थकीज, तेउकाय में ऊपजै । स्थिति उत्कृष्ट कहीज, तीन दिवस में रात्रि नीं। ९१. तेउकाय थो ताम, नीकलने तिर्यच में। आवी उपजै आम, शेष तिमज कहिवं कह्यो ।। ९२. वृत्ति विषे ए वाय, लेस्या तेउकाय में। अप्रशस्त त्रिण पाय, पृथ्वी अप में लेश चिउं ।। ९३. इहां कह्यो ते नांय, विचित्र गति है सूत्र नीं। बहु ठामे कहिवाय, लेस्सा त्रिण तेऊ विषे ॥ वायुकाय पद ९४. *वाउकाइया में विषे जी, एवं चेव विचार। नानात्वं णवरं कह्यो जी, समुद्घात है च्यार ।। सोरठा ९५. पृथिव्यादिक रे मांय, समुद्घात धुर तीन है। वैक्रिय तिहां न पाय, वाऊ में वैक्रिय वली ।। ९२. यतस्तेजसोऽप्रशस्तलेश्या एव, पृथिवीकायिकास्त्वाद्यचतुर्लेश्याः , (वृ०प०७६४) ९३. यच्चेदमिह न सूचितं तद्विचित्रत्वात्सूत्रगतेरिति । (वृ० प० ७६४) ९४. वाउकाइयाणं एवं चेव, नाणतं नवरं-चत्तारि समुग्घाया। (श० १९।२२) ९५. पृथिव्यादीनामाद्यास्त्रयः समुद्घाताः वायूनां तु वेदनाकषायमारणान्तिकवै क्रियलक्षणाश्चत्वारः समुदधाताः संभवन्ति तेषां वैक्रियशरीरस्य सम्भवादिति । (वृ० प० ७६४) वनस्पतिकाय पद * सिय कहितां ह तथा कदाचित, प्रभु ! जाव चिउं पंच । वनस्पति मिल एकठा जी, इत्यादिक प्रश्न विरंच? ९७. जिन कहै अर्य समर्थ नहीं जी, जेह अनंता जंत । वनस्पती मिल एकठा जी, साधारण तनु बांधंत ।। ९६. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच वणस्स इकाइया पुच्छा। ९७. गोयमा ! नो इणठे समठे । अणंता वणस्सइ काइया एगयओ साहारणसरीरं बंधति, सोरठा ९८. टबा विषे इम वाय, बादर निगोद अनंत जे। मिली एकठा ताय, बांधै साधारण तनु । ९९. *इम तनु बांधी नै पछै जी, आहार करै परिणमाय । शेष तेउ जिम कहिवो यावत, नीकलवा लग ताय । ९९. बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधति । सेसं जहा तेउकाइयाणं जाव उव्वटंति, १००. नवरं--आहारो नियम छद्दिसि, १.१. ठिती जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं, सेसं तं चेव । (श० १९।२३) १००. णवरं इतो विशेष छै जी, निश्चय थकी कहाय । आहार लियै षट दिशि तणों जी, आगल कहिस्य न्याय ।। १०१. अंतर्महत जघन्य थी जी, उत्कृष्टी पिण जाण । स्थिति अंतर्महर्त कही जी, शेष तं चेव पिछाण ।। सोरठा १०२. वृत्ति विषे इम बात, वनस्पति नै दंडके । ___षट दिशि आहार आख्यात, ते सम्यक नहिं जाणिय ।। *लय : दलाली लालन की १०२. वनस्पतिकायदण्डके 'नवरं आहारो नियम छद्दिसि' __ति यदुक्तं तन्नावगम्यते। (वृ०५०७६४) २१२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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