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________________ सोरठा २०. कोड़ वर्ष रै मांय, कर्म खपावै नारकी। तेह थकी अधिकाय, अठम भक्त विषे मुनि ।। २१. *श्रमण निग्रंथ दशम भक्त में, जेता कर्म खपायो रे । कर्म खपावै इता नारकी, कोड़ वर्षे करि ताह्यो रे ।। २२. अथवा बह कोड़ वर्षे करी, वर्ष कोड़ा कोड़ माह्यो रे। कर्म खपावै प्रभु ! नारकी ? अर्थ समर्थ नांह्यो रे। २१,२२ जावतियं णं भंते ! दसमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्म नरएसु नेरइया वासकोडीए वा वासकोडीहिं वा वासकोडाकोडीए वा खवयंति ? नो इणठे समठे। (श.० १६०५१) सोरठा २३. कोडाकोड़ वर्ष रै मांय, कर्म खपाव नारकी। तेह थकी अधिकाय, दशम भक्त में मुनि तणें ॥ २४. ए दशमा ताई जाण, प्रश्नोत्तर शिष्य वीर नां। हिव तसु न्याय पिछाण, पूछ गोयम गणहरू । २५. *किण अर्थ प्रभु ! इम कह्यो, अन्नग्लान कहायो रे। श्रमण तपस्वी निग्रंथ जे, जेता कर्म खपायो रे ॥ २६. एता कर्म जे नारकी, एक वर्ष करि ताह्यो। अथवा घणे वर्षे करी, सौ वर्षे न खपायो रे ।। २७. जेता कर्म चोथ भक्त में, एवं तिमइज जाणी रे । पूर्वे भण्यो छै तिण विधे उच्चरवू पहिछाणी रे ।। २८. जाव वर्ष कोडाकोड़ में, नारकि नरक रै मांह्यो रे। कर्म खपावै नहिं तेतला, ते किण अर्थ कहायो रे ? २५. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाबतियं अन्न गिलायए समणे निग्गंधे कम्मं निज्जरेति । २६. एवतियं कम्म नरएसु नेरइया वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा नो खवयंति । २७. जावतियं चउत्थभत्तिए-एवं तं चेव पुव्वभणियं उच्चारेयव्वं । २८. जाव वासकोडाकोडीए वा नो खवयंति ? सोरठा २६. नारकि नरक मझार, दुख अनंतो भोगवै। बहु काले करि धार, कर्म खपै नहिं तेतला ॥ ३०. जेता कर्म खपाय, अल्प कष्ट पाम्ये मुनि । अल्पकाल करि ताय, किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो ? ३१. तब भाखै भगवान, वर दष्टांत देई करी। __ सुणो सुरत दे कान, उत्तर में प्रभ इह विधे ।। ३२. *से जहानामए पाठ नो, आख्यं अर्थ पिछाणी रे। जहा यथादृष्टांते करी, नाम संभावन जाणी रे ॥ ३३. ए इति वच अलंकार छ, से कहितां नर कोई रे। जुण्णे कहितां देह तेहनी, जीर्ण हानिज होई रे ।। २९,३०. अथ कथमिदं प्रत्याय्यं यदुत नारको महाकष्टा पन्नो महताऽपि कालेन तावत्कर्म न क्षपयति यावत्साधुरल्पकष्टापन्नोऽल्पकालेनेति ? __ (व०प०७०५) ३१. उच्यते, दृष्टान्ततः, स चायम् ३२,३३. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे जुण्णे, यथेति दृष्टान्ते नाम-सम्भावने ए इत्यलंकारे 'से' त्ति स कश्चित्पुरुषः 'जुन्ने' त्ति जीर्णः-हानिगतदेहः । __ (व० प०७०५) सोरठा ३४. कारण वस थी तेह, अवृद्धभावे पिण तसु । जीर्ण है छै देह, इण कारण आगल कहै ।। ३५. *जरा करी देह जोजरी, शिथिल त्वचा करि जासो रे। बलि-तरंग करि नै वली, व्याप्त अछै तनु तासो रे॥ *लय : तप बड़ो संसार में ३४. स च कारणवशादवृद्धभावेऽपि स्यादत आह (वृ० ५० ७०५) ३५. जराजज्जरियदेहे सिढिलतयावलितरंग-संपिणद्धगत्ते श० १६, उ.४, ढा० ३५२ ३१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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