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________________ ८९. सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता एगत्त-पुहत्तेणं जहा अणाहारए। (श०१८।१७) उपयोग द्वार ८९. सागार नै अणागारोवउत्ता, एक बह बचनेहो जी। अनाहारक जिम कहिवो एहनें, हिव वृत्ति थी कहूं एहो जी॥ सोरठा २०. साकार ने अनाकार, यथा अनाहारक कह्या । इणहिज रीत विचार, दंडक छब्बीसं विषे ।। ९१. प्रथम जीव पद मांय, कदा प्रथम सिद्ध पेक्षया। कदा अप्रथम कहाय, ते संसारी अपेक्षया ।। ९२. नारक आदिज ताय, वैमानिक पद ने विषे । नो प्रथमा कहिवाय, अप्रथमाज अनादि थी। ९३. सिद्ध पदे अवलोय, प्रथमा सादिपणे करी। अप्रथमा नहिं होय, इक वच बहु वचने करी ।। ९४. साकार नै अनाकार, उपयोग विशेषित सिद्ध नैं । प्रथम थकी हुवै सार, तिणसं अप्रथमा नहीं ।। ९५. *सवेदी जाव नपुंसक-वेदक, इक बहु वचने लहियै जी। जिम आहारक अप्रथम कह्यो छै, तेम अप्रथमज कहियै जी। १६. णवरं जेहन वेद ते भणवू, जीवादि दंडक मांह्यो जी। जे नारकादिक ने नपुंसक आदिक, वेद छै ते कहिवायो जी । ९०. साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताश्च यथाऽनाहार कोऽभिहितस्तथा वाच्याः। (वृ०प० ७३५) ९१. ते च जीवपदे स्यात्प्रथमाः सिद्धापेक्षया स्यादप्रथमाः संसार्यपेक्षया। (वृ०प० ७३५) ९२. नारकादिवैमानिकान्तपदेषु तु नो प्रथमा अप्रथमा अनादित्वात्तल्लाभस्य। (वृ०प०७३५) ९३. सिद्धपदे तु प्रथमा नो अप्रथमाः। (वृ०प०७३५) ९४. साकारानाकारोपयोगविशेषितस्य सिद्धत्वस्य प्रथमत एव भावादिति । (व०प० ७३५) ९५. सवेदगो जाव नपुंसगवेदगो एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए। ९६. नवर-जस्स जो वेदो अत्थि। जीवादिदण्डकचिन्तायां यस्य नारकादेयों नपंसका दिवेदोऽस्ति स तस्य वाच्यः। (वृ० प० ७३५) ९७. अवेदओ एगत्त-पुहत्तेणं तिसु वि पदेसु जहा अकसायी। (श०१८।१८) ९७. इक बहु वचने करिनै अवेदी, जीव मनुष्य सिद्ध जाणी जी। ए त्रिहुं पद ने विषे इम कहिवा, अकषाई जिम ठाणी जी। ९८,९९. जीवमनुष्यसिद्धलक्षणेषु, तत्र च जीवमनुष्य पदयोः स्यात्प्रथमः स्यादप्रथमः अबेदक त्वस्य प्रथमेतरलाभापेक्षया। (वृ०प० ७३५) १००. ससरीरी जहा आहारए, एवं जाव कम्मगसरीरी, जस्स जं अस्थि सरीरं। १०१. नवरं-आहारगसरीरी एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्म दिट्ठी। सोरठा ९८. जीव मनुष्य पद मांहि, कदा प्रथम इह रीत सूं । ___भाव अवेदो ताहि, प्रथमईज ते पामवे ।। ९९. कदा अप्रथम कहाय, जेह अवेदी छै तिको। भाव सवेदी पाय, वलि अवेदी जे हुवै ।। १००. *सशरीरी आहारक जिम अपढम, एवं यावत वरिय जी। कर्म कार्मण पंचम शरीरी, जेहनै छै ते उच्चरियै जी ।। १०१. णवरं विशेषज आहारकशरीरी, इक बहु वचने ताह्यो जी। जिम समदृष्टि तिम कदा प्रथमज, कदा अप्रथम कहायो जी। सोरठा १०२. आवै पहिली बार, प्रथम कहीजे तेहने । आवै द्वयादि बार, तास अपेक्षा अप्रथम ।। १०३. आहारक इक भव मांहि, आवै उत्कृष्ट पदे जदि। दो वर संशय नांहि, पन्नवण अर्थ विष कह्य। *लय : दया भगोती १. एक भव में उत्कृष्टतः दो बार आहारक शरीर का निर्माण किया जा सकता है। इस कथन की पुष्टि में जयाचार्य ने पनवणा के अर्थ का संकेत दिया है। प्रवचनसारोद्धार में इसका संवादी प्रमाण मिलता है। वहां बताया है कि चतुर्दशपुर्वी मुनि अधिक से अधिक चार बार आहारक शरीर का निर्माण १०२. अयं चैवं प्रथमेतराहारकशरीरस्य लाभापेक्षयेति । (वृ०प० ७३५) ११८ भगवती जोड़ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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