SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४. *अशरीरी जीव पद सिद्ध पद करि, इक बहु वचने ज्यांही जी । प्रथमा अछे ते सादि भाव करि, पिण अप्रथमा' नांही जी ॥ पर्याप्त द्वार १०५. पंच पर्याप्ति बांध्या पर्याप्त सुर भव आश्री एहो जी । पंच पर्याप्ति बांधी नहि ज्यां लग, अपर्याप्तो छ तेहो जी ॥ १०६. पर्याप्त अपर्याप्त इक बहु वचने, कहिये आहारक जेमो जी । गवरं जेहने जेह पर्यायज' कहिवी से धर प्रेमी जी ॥ १०७. जाव विमाणिया लग इम कहियो, प्रथमा त अप्रथमा तेहज कहीजै, वार अनेकज १०८. जे भाव पर्याप्ति पूर्व जिण पायो, शेष करीने प्रथम हुने छे, १०९. शतक अठारमों प्रथम देश ए, नह कहिये जी। लहिये जी ॥ ते भावे करि अपढमा थायो जी। पूर्वे नहि पाम्यो जे पर्याय जी ॥ त्रिण सय गुणंतरमी ढालो जी । 'जय जश' मंगलमालो जी ॥ भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रसादे ढाल : ३७० सोरठा 1 १. प्रथमादिकज कहाव तास विपक्ष प्रत हवे चरमादिक जे भाव, जीवादिक भावे कहै | चरम - अचरम के सन्दर्भ में जीव द्वार * भवियण ! जिन वच महा जयकारी। वाण सुधारस प्यारी रे भवियण ! Jain Education International सरध्यां सूं सम्यक्त्व सारी || ( ध्रुपदं ) कर सकता है। यह कथन अनेक भवों की अपेक्षा से है। एक भव में ऐसा दो बार हो सकता है चत्तारिय बाराओ, चउदसवी करे आहार | संसारम्मि वसंतो, एगे भवे दोन्नि वाराओ ।। (प्रव० द्वार २७३ गाथा ८१) *लय दया भगोती १. बहु वचन का पाठ अंगसुत्ताणि में पाठान्तर में लिया है। २. पर्याप्ति *लय : रे मवियण ! सेवो रे साधु सयाणां १०४. असरीरी जीवो सिद्धो य एगत्त-पुहत्तेणं पढमो, नो अपढमो । (४० १०१९) १०४,१०६. पती पंच पती एगत्त पुहत्तेणं जहा आहारए, नवरं— जस्स जा अत्थि 'पंचही' त्यादि, पञ्चभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तक: तथा पञ्चभिरपर्याप्तिभिरपर्याप्तक आहारकवदप्रथम इति । (बृ० प० ७३५) १०७. जाव वेमाणिया नो पढमा, अपढमा । १०८. जो जेण पत्तपुब्वो, भावो सो तेण अपढमओ होइ । सेसेसु होइ पढमो, अपत्तपुव्वेस भावे || १|| (20 8=120) For Private & Personal Use Only १. अथ प्रथमादिविपक्षं चरमादित्वं जीवादिष्वेव द्वारेषु निरूपयन्निदमाह (१० १०७३५) श०१८, उ० १, ढाल ३६९,३७० ११९ www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy