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________________ २. जीवे णं भंते ! जीवभावेणं किं चरिमे ? अचरिमे? २. जीव प्रभुजी ! जीव भावे करि, स्यूं ते चरम कहिवायो। तथा अचरम कहीजै जीव नैं ? ए इक वच प्रश्न पूछायो ।। सोरठा ३. जीवपणां नो जाण, चरम भाग छेहड़ो तिको। तिणसं चरम पिछाण, स्यूं जीवपणों ए मूकस्यै ? ३. 'जीवभावेन' जीवत्वपर्यायेण कि चरम: ? कि जीवत्वस्य प्राप्तव्यचरमभागः किं जीवत्वं मोक्ष्यतीत्यर्थः। (वृ० ५० ७३५) ४. 'अचरमे' त्ति अविद्यमानजीवत्वचरमसमयो, जीवत्व मत्यन्तं न मोक्ष्यतीत्यर्थः। (व०प०७३५) ५. गोयमा ! नो चरिमे, अचरिमे। (श०१८।२१) ६,७. नैव 'चरमः' प्राप्तव्यजीवत्वावसानो, जीवत्वस्याव्यवच्छेदादिति । (वृ० प० ७३५) ४. कै अचरम कहिवाय, जंतु जीवपणां तणों। चरम भाग नहिं पाय, स्यूं जीवपणों नहीं मूकस्यै ? ५. *श्री जिन भाखै जीवपणे करि, जीव चरम नहिं होयो। चरम नहीं तिणसं एह जीव नै, अचरम कहियै जोयो ।। सोरठा ६. जीवपणां नो जाण, चरम भाग छेहड़ो तिको। नहिं पावै अवसान, चरम नहीं इण कारणे ।। ७. जे अचरम कहिये तास, जंतु जीवपणां तणो। न हुवै कदही नाश, जीवत्व अव्यवच्छेद थी। ८. *नारक भाव करीनै नेरइयो, स्यं प्रभु ! चरमज होय । अथवा अचरम कहीजै तेहनै ? इक वच प्रश्न सुजोय ।। ९. श्री जिन भाखै कदाच चरम छै, कदा अचरम कहायो। हिव तसु न्याय कहूं छ आगल, सांभलजो चित ल्यायो ।। सोरठा १०. नारक जे कहिवाय, नरक थकी निकल्यं छतो। कदही नरक न जाय, सिद्ध गमन थी चरम ते ।। ११. अचरम अन्य कहेह, नरक थकी जे नीकली। बिच भव करिने तेह, जास्यै नरक विषे वली ।। *१२. एवं जाव वैमानिक कहिवं, सिद्ध जीव जिम कहिये । अचरम छ पिण चरम नहीं छै, सिद्धपणों नहिं जहियै ।। ८. नेरइए णं भंते ! नेरइयभावेणं-पुच्छा । ९. गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे । १०,११. यो नारको नारकत्वादुवृत्तः सन् पुनर्नरकगति न यास्यति सिद्धगमनात स चरमः अन्यस्त्वचरमः । (वृ० ५० ७३६) १३. जीव घणां नों प्रश्न कियां थी, श्री जिन भाखै जीवा । चरमा नहीं छै कहिये अचरमा, पूरव न्याय ग्रहीवा ।। १२. एवं जाव वेमाणिए । सिद्धे जहा जीवे । (श०१८।२२) 'सिद्धे जहा जीवे' त्ति अचरम इत्यर्थः, न हि सिद्धः सिद्धतया विनङ क्ष्यतीति। (वृ०प०७३६) १३. जीवाणं--पुच्छा । गोयमा ! नो चरिमा, अचरिमा । पृथक्त्वदण्डकस्तथाविध एवेति। (वृ० ५० ७३६) १४. नेरइया चरिमा वि, अचरिमा वि। एवं जाव वेमाणिया । सिद्धा जहा जीवा। (श० १८०२३) १४. बह वच नारक चरमा पिण छै, अचरमा पिण माणी। एवं जाव विमाणिया कहिये, सिद्धा जीव जिम जाणी।। आहारकद्वार १५. आहारक सर्वत्र जीवादि पद में, कहिये इक वचनेहो। कदा चरम कदा अचरम छै ते, हिव तसु न्याय सुणेहो ।। १५. आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। *लय : रे भवियण ! सेवो रे साधु सयाणां १२० भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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